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ముడు जैनग्रन्थरताकरे कोठी सम नोकर्म मल, द्रव्य कर्म ज्यों धान । ___ भावकर्ममल ज्यों चमी, कन समान भगवान ॥१२॥
द्रव्यकर्म नोकर्ममल, दोऊ पुद्गल जाल।। ___ भावकर्म गति ज्ञान मति, द्विविधि ब्रहाकी चाल ॥१३॥ विविधि ब्रह्मकी चालसों, द्विविधि चक्रको फेर !
एक ज्ञानको परिणमन, एक कर्मको घेर ॥ १४ ॥ ज्ञानचक्र अन्तर गुपत, कर्मचक्र प्रत्यक्ष ।
दोऊं चेतनभाव ज्यों, शुरूपक्ष, तमपक्ष ॥ १५ ॥ निज गुण निज परजायमें, ज्ञानचक्रकी भूमि ।। ___ परगुण पर परजायसों, कर्मचक्रकी धूमि ॥ १६ ॥ ज्ञानचक्रकी ढरनिमें, सर्जग भांति सब ठौर ।
कर्मचक्रकी नींदसों, मृषा खमकी दौर ॥ १७ ॥ ज्ञानचक्र ज्यों दरशनी, कर्मचक्र ज्यों अंध ।
ज्ञानचक्रमें निर्जरा, कर्मचक्रमें बंध ॥१८॥ ज्ञानचक्र अनुसरणको, देव धर्म गुरु द्वार ।।
देव धर्म गुरु जो लसे, ते पावें भवपार ॥ १९ ॥ भववासी जानै नहीं, देवधरमगुरुभेद ।
परयो मोहके फन्दमें, करै मोक्षको खेद ॥ २० ॥ उदय सुकर्म कुकर्मके, रुलै चतुर्गति माहिं ।
निरखै वाहिजदृष्टिसों, तह शिवमारग नाहिं ॥ २१॥ १ जागते हुए,
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