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है १५० जैनग्रन्थरलाकरे
मुमतिकर्मत शिव सथै, और उपाय न कोय । . शिवस्वरूप परकाशसों, आवागमन न होय ॥ ३२ ॥ मुनतिकर्म सम्यक्तसों, देव धर्म गुरु द्वार ! __कहत वनारसि तत्त्व यह, लहि पावें भवपार ॥३३॥
इति श्रीअध्यातनपत्तीसी.
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___ अथ श्री ज्ञानपञ्चीसी लिख्यते.
मुरनर तिर्यग योनिमें, नरक निगोद भवंत । ____ महा मोहकी नींदसों, सोये काल अनंत ॥१॥ जैसे ज्वरके जोरसों, भोजनकी रुचि जाइ ।
तैसे कुकरमके उदय, धर्मवचन न सुहाइ ॥२॥ लगै भूख ज्वरके गये, रुचिसों लेय अहार । ___ अशुभ गये शुभके जगे, जानें धमविचार ॥३॥ से पवन इकोरतें, जलमें छै तरंग।
त्यों मनसा चंचल भई, परिगहके परसंग ॥ ४ ॥ जहां पवन नहिं संचरै, वहां न जल कल्लोल । ___ त्यों सब परिगृह त्यागलों, मनसा होय अडोल ॥५॥ ज्यों काहू विषधर डसै. रुचिसों नीम चवाय ।
त्यों तुम ममतासों मढे, मगन विषयसुख पाय ॥६॥ * यह दोहा ख, ग, प्रतिमें नहीं है.
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