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Katt.titiatituttirtant teztttttttt.sitate ११५२ जैनग्रन्थरलाकरे
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| कंचन निज गुण नहिं तजे, वानहीनके होत ।
घटघट अंतर आतमा, सहजस्वभाव उदोत ॥ १७ ॥ पन्ना पीट पकाइये, शुद्ध कनक ज्यों होय ।
सों प्रगटै परमातमा, पुण्यपापमलखोय ॥ १८ ॥ पर्व राहुके ग्रहणसों, सूर सोम छविछीन । ___ संगति पाय कुसाधुकी, सज्जन होहिं मलीन ॥ १९ ॥ निवादिक चन्दन कर, मलयाचलकी वास ।
दुर्जनः सज्जन भये, रहत साधुके पास ॥२०॥ जैसे ताल सदा भरै, जल आवै चहुं ओर ।
तैसें आस्रवद्वारसों, कर्मबंधको जोर ॥ २१ ॥ ज्यों जल आवत मंदिये, सुखै सरवर पानि ।।
तैसें संवरके किये, कर्म निर्जरा जानि ॥ २२ ॥ ज्यों बूटी संजोगते, पारा मूर्छित होय । ___ त्यों पुद्गलसों तुम मिले, आतमशक्ति समोय ॥२३॥
मेल खटाई मांजिये, पारा परगट रूप । ___ शुक्लध्यान अभ्यासतें, दर्शनज्ञान अनूप ।। २४ ॥ कहि उपदेश बनारसी, चेतन अब कछु चेतु । • आप वुझावत आपको, उदय करनके हेतु ॥ २५ ॥
इति श्रीज्ञानपीसी.
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१ अन्यधातुकी खादसहित होनेसे.