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जैनग्रन्थरलाकरे
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कर नाम पूछते रहे, और उसी प्रकार टचर भी पाते रहे । हिर भावहांसे उठके अब घरको चलने लगे, तत्र थोडी दूर जाके लौटे
और फिर पूछ बैठे, महाराज! क्या कन्द, आपका नाम सया अपरिचित है, अतः मैं फिर भूल गया, फिर बतला दीजिये। से अभी तक तो बाबाजी शान्तिताक साथ उत्तर देते रहे, परन्तु
अबकी बार गुस्सेसे बाहर निकल ही पड़े । झुंझलाके बोले, अवे अवस! दशवार कह तो दिया कि, शीतलदास! शीतलदास!!
शीतलदास!!! फिर क्यों खोपड़ी खाये जाता है ? यस! परीक्षा हो चुकी, महाराज फेल (अनुत्तीर्ण) हो गये । कविवर यह कह कर वहांसे चलते बने कि महाराज ! आपका यथार्थ नाम
बालाप्रसाद' होने योग्य है, इसी लिये मैं उस गुणहीन नामको याद नहीं रख सत्ता था।
एकवार दो नममुनि आगरम आये हुए थे, और मन्दिरमें ठहरे थे । सब लोग उनके दर्शन वन्दनको आते जाते थे, और अपनी २ बुद्धयनुसार प्रायः सब ही उनकी प्रशंसा किया करते थे। कविबर परीक्षामधानी जीव थे। उन्हें सब लोगोंकी नाई, दर्शन पूजनको जाना ठीक नहीं ऊँचा, जब तक कि मुनि परीक्षित न हों । अतएव स्वयं परीक्षा लिये उद्यत हुए । एक दिन उक मुनिद्वय मन्दिरके दालानमें एक झरोखे (गवाक्ष)के निकट बैठे हुए थे और सन्मुख भकजन धर्मोपदेश सुननेकी आशासे बैठे थे । अरोखकी दूसरी और एक * बाग था। उस बागमें मुनियोंकी दृष्टि भलीमांति पहुंचती थी, ॐऔर वागमें टहलनेवाले पुरुपकी दृष्टि भी मुनियोंपर स्पष्ट
रीत्या पड़ती थी। कविवर उस बगीचे में पहुंचे, और झरोके
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