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६६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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दोहा छन्द । गुन अरु धर्म सुथिर रहै, यश प्रताप गंभीर । कुशल वृक्ष जिम लह लहै, तिहिं मारग चल बीर ! ॥९॥
शिखरिणी। करे साध्यस्त्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं
मुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः । ॐ हृदि स्वच्छा वृत्तिर्विजयि भुजयोः पौरुषमहो विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥ ९७ ॥
कवित्त छन्द। वंदन विनय मुकट सिर ऊपर, सुगुरुवचन कुंडल जुगफान । A अंतर शत्रुविजय भुजमंडन, मुफतमाल उर गुन अमलान || ॐ त्याग सहज कर कटक विराजत, शोभित सत्य वचन मुख पान। भूषण तजहिं तऊ तन मंडित, या सन्तपुरुष परधान ॥९७॥ भवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिपुर्मुक्तिनगरी
तदानीं मा कापीर्विपयविषवृक्षेषु वसतिम् । * यतश्छायाप्येषां प्रथयति महामोहमचिरा
दयं जन्तुर्यस्मात्पमपि न गन्तुं प्रभवति ॥ ९८॥ नोट-नीचे लिखे तीन कवित्तोंके मूल श्लोक नहिं मिले.
घनाक्षरी। गहैं जे सुजन रीत गुणीसों निवा, प्रीत,
सेवा साथै गुरुकी विनैसों कर जोरकैं।
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१ इस मूल श्लोकका भाषानुवाद किसी भी प्रतिमें नहीं है ।
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