SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ + + + HALLA जैनग्रन्थरत्नाकरे tatt.ttituttituteket.titetitutkukkutitkukkatuttitutikottotketstattatokutitute कुंडलिया। 'कारा' ते मारग गहैं, जे गुनिजनसेवंत । ज्ञानकला तिनके जगै, ते पावहिं भव अंत ॥ ते पावहिं भव अंत, शांत रस ते चित धारहि । ते अघ आपद हरहिं, घरमकीरति विस्तारहि ॥ होंहि सहज जे पुरुष, गुनी बारिजके भौंरा । ते सुर संपति लहैं, गहैं ते मारग 'कारा' ।। ६७ ॥ हारिणी । हिमति महिमाम्भोजे चण्डानिलत्युदयाम्बुदे द्विरदति दयारामे क्षेमक्षमाभूति वज्रति । समिधति कुमत्यग्नौ कन्दत्यनीतिलतासु यः ___किमभिलपतां श्रेयः श्रेयान्स निर्गुणिसंगमः ॥६॥ ' षट्पद। जो महिमा गुन हनहि, तुहिन जिम वारिज वारहि । जो प्रताप सहरहि, पवन जिम मेघ विडारहि ॥ जो सम दम दलमलहि, दुरद जिम उपवन खंडहि । जो सुकेम छय करहि, बन जिम शिखर विहंडहि ॥ जो कुमति अग्नि ईधनसरिस, कुनयलता दृढ मूल जग। सो दुष्टसंग दुख पुष्ट कर, तजहिं बिचक्षणता सुमग ॥ ६॥ इन्द्रियाधिकार। शार्दूलविक्रीडित । आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शूकलाश्वायते कृत्याकस्यविवेकजीवितहतौ यः कृष्णसर्पयते । Pt.tttttttttttt.tistituttitutiktikustitutitntrkrkutekekat.kikikattitutetatil
SR No.010701
Book TitleBanarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy