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जैनग्रन्थरत्नाकरे
दोहा । द्वादशांगवानी विमल, गर्भित चारों वेद ।
ते किन कीन्हें कव भये, सो सब वरनों भेद ॥ १५ ॥ ॐ युगलधर्म रचना कहों; कुलकर रीति वखान । ऋषभदेव ब्रह्मा कथा, सुनहु भविक धर कान ॥ १६॥
युगलधर्मयथा,-चौपाई। प्रथमहिं जुगलधर्म है जैसा । गुरुपरसाद कहहुँ कछु तैसा ।।। जन्महिं जुगलनारिनर दोऊ । भाई बहिन न मानै कोऊ ॥१७॥
दोहा। सुरसे सीरे सोमसे, बहुरागी बहुमित्र । होहिं एकसे जुगल सब, कौतूहली विचित्र ॥ १८ ॥
मनहरण। सबहीके चित्त अतिसरलस्वभावी नित्त,
सबहीके थिरचित्त कोऊ न सुगुलिया । हिये पुण्यरसपोष सहजसंतोष लिये, __गुननके कोष दुखदोषके उगैलिया ॥ फोऊ नहिं लरै कोऊ काहूको न धन हरै, ___ कोऊ कबई न करै काहूकी चुगलिया । समतासहित संकलेशतारहित सब,
सुखिया सदीव ऐसे जीव हैं जुगलिया ॥१९॥
Stokititatikititutitutitutitutitzitakutukutukututikkedekututitututukatekutikutttaketet:
१ उतावल. २ उगलनेवाले. वचन करनेवाला. मल्ललल