________________
isikisttutattituttattusmitstutkisti
जैनप्रन्धरलाकरे ४७
MAR.
.
बहुत पढ़े सो मांग भीख !
__ मानहु पूत ! बड़ोंकी सीख ॥ २० ॥ परन्तु गुरुजनों के वचनन्दप ओमके कनके बनारसीके हृदय- है कमलपर उन्मत्तताकी प्रबल वायुके कारण कन ठहरनेवाले थे। बढ़ते हुए यौवन-पयोधिक प्रवाहको क्या कोई रोक मुक्ता है। * सबका कहा सुना इस कानसे सुना और उस कानसे निकाल दिया फिर हलके हलके हो गये । गुरुजीसे विद्या पहना और इसकबाज़ी करना ये दो कार्य ही उन्हें सुखके कारण प्रतीत होते थे। मतिक अनुसार गति हुआ करती है। कुछ दिनों पीछे विद्या पढना मी बुरा बैंचने लगा ! ठीक ही है, विद्या और अविद्याकी एकता कैसी संवत् १६६० में पढ़ना छोड़ दिया। इस संवत् में आपकी की बहिनका विवाह हुआ और एक पुत्रीने जन्म लिया । पुत्री ६-७ दिन रहके चल बसी । विदाई में पिताको बीमार करती गई । बनारसीदासजीको बढी मारी बीमारी लगी । बीस लंघन करनी पड़ी।
२१ वें दिन वैद्यन और भी १०-५ लंघन करानेकी बात नाही, * और यहां क्षुधाके मारे प्राग जाते थे, तब एक विचित्र रंग मुला, भरात्रिको घर सूना पाकर आप आधसेर पूरी चुराके उडा गये !!
आश्चर्य है कि, वे पूरी आपको पथ्यका काम कर गई, और आर शीघ्र ही निरोग हो गये । इसी संवत्में सरगसेनजीने एक वडा
मारी व्यापार किया, जिसमें कि सौगुणा लाम हुआ! सम्पपिसे घर से भर गया। ___ संवत् १६६१ में एक संन्यासी देवता आये । उन्होंने बडे आदमीका लडका समझने बनारसीको फँसानेके लिये जाल वि.
इस पुत्रीका नाम टिप्पणीमें वीरवाई लिखा है।
Muthinsaxkatrikatatutitutetntentatutntertamatitutetstatettitutitutitutetnkstitutntrientertainita