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बनारसीविलासः १९ सेवहिं सुरेन्द्र कर नमित माल। तिन शीसनुकुट तजदेहिं माला तुवचरण लगत लहलहें प्रीतिानहिं रमहि और जन सुमनरीति२९ प्रमुभोग विमुख तन कर्म दाह । जन पार करत भवाल नियाह ज्यों माटीकलश नुपक्क होयाले भार अधोमुख तिरहि तोय ३० तुम महाराज निर्द्धन निराश ।तज विभव विभव सब जगविकास अक्षर स्वभावसेंलिखे न कोय ।महिमा अनन्त भगवंत सोय ३१ : कोप्यो सु कमठ निज वैर देख । तिन करी धूल वर्षा विशेख ॥ प्रभु तुम छाया नहिं भई हीन।सो भयो पापि लंपट मलीन ३२१ गरजंत घोर घन अंधकार।चमकंत विजु जलमुसलधार ।। वरपंत कमठ धरध्यान रुद्र । दुम्तर करत निजभवसमुद्र३३
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मेघमाली मेघमाली आप वल फोरि। भेजे तुरत पिशाचगण, नाथ पास उपसर्ग कारण। अमि जाल झलकंत मुख, धुनि करंत निमि मतवारण ।
कालरूप विकराल तन, मुंडमाल तिह कंठ । है निशंक वह रंकनिज, करै कर्मदृढगंठ ॥ ३४॥
चौपाई। जे तुम चरणकमल तिहुंकाल । सेवहिं तब मायाजंबाल । भाव भगतिमन हरय अपार । धन्य २ जग तिन अवतार ॥३५॥ भवसागरमहं फिरत अनान मैं तुह सुजन्य जुन्यो नहिं कान जो प्रभुनाम मंत्र मन धेरै। तासों विपति मुसंगम डर ॥ ३६॥