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१३० जैनग्रन्थरत्नाकरे
मनवांछित फल जिनपदमाहिं । मैं पूरव भव पूजे नाहिं ॥ माया मगन फिरयो अज्ञान। करहिं रंकजन मुझ अपमान ३७ मोहतिमर छायो दृग मोहि । जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि ॥ तौ दुर्जन मुझ संगति गहैं । मरमछेदके कुवचन कहैं ॥ ३८॥ सन्यो कान जस पजे पाय । नैनन देख्यो रूप अधाय ॥ भक्ति हेतु न भयो चित चाव। दुखदायक किरियाविन भाव ३९ । ॐ महाराज शरणागत पाल । पतितउधारण दीनदयाल ॥
सुमिरण करहुनाय निज शीस । मुझ दुख दूर करहु जगदीश 180 कर्मनिकन्दनमहिमा सार । अशरणशरण सुजश विसतार ।। नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय । तो मुझ जन्म अकारथ जाय ॥११॥ सुरगण वन्दित दया निधान । जगतारण जगपति जगजान ॥
दुखसागरतें मोहि निकासि । निर्भयथान देहु सुखराशि ॥ ४२ ॥ ॐ मैं तुम चरणकमल गुन गाय । बहुविधि भक्ति करी मनलाय ।। जन्मजन्म प्रमु पावहुं तोहि । यह सेवा फल दीजे मोहि ॥४३॥
दोधकान्त वेसरीछन्द । पदपद. इहिविधि श्रीभगवंत, सुजश जे भविजन भापहि । ते निज पुण्य भंडार, संच चिरपाप प्रणासहिं ।।
रोमरोम हुलसंति अंग, प्रभु गुणमनध्यावहिं । * स्वर्गसंपदा भुंन, वेग पंचम गति पावहिं ।। । यह कल्याणमन्दिर कियो, कुमुदचन्द्रकी बुद्धि । भाषा कहत वनारसी, कारण समकितशुद्धि ॥ ४ ॥
इति श्रीकल्याणमन्दिरस्तोत्रं.
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