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जैनग्रन्थरत्नाकरे
तुम भगवंत विमल गुणलीन । समलरूप मानहिं मतिहीन || ज्यों नीलिया रोग हग गहै । वर्ण विवर्ण संखसौ कहे ||१९|| दोहा |
निकट रहत उपदेश सुनि तरुवर भये अशोक । ज्यों रवि ऊगत जीव सब, प्रगट होत भुविलोक ॥ २० ॥ सुमनदृष्टि जो मुरकरहि, हेठ बीटमुख सोहिं । त्यों तुम सेवत सुमनजन, बंध अधोमुख होहिं ॥ २१ ॥ उपजी तुम हिय उदधि, वाणी सुधा समान । जिहिं पीवत भविजन लहहिं, अजर अमर पदधान||२२|| कहहिं सार तिहुंलोकको, थे सुरचामर दोय । भावसहित जो जिन नमें, तसु गति ऊरध होय ॥ २३ ॥ सिंहासन गिरि मेरु सम, प्रभुधुनि गरजित घोर । श्याम सुतन घनरूप लख, नाचत भविजन मोर ॥ २४ ॥ छवि हत होंहिं अशोकदल, तुमभामंडल देख | वीतरागके निकट रह, रहत न राग विशेख ॥ २५ ॥ शीखि कहै तिहुंलोकको, यह सुरदुंदुभि नाद | शिवपथ सारथिवाह जिन, भजहु तजहु परमाद ॥ २६ ॥ तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छविदेत । त्रिविधिरूप घर मनहुं शशि, सेवत नखतसमेत ॥ २७ ॥ पद्धरिछन्द
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प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम । परताप पुंज जिम शुद्ध हेम || अति धवलसुजस रूपा समान। तिनके गढ़ तीन विराजमान २८