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बनारसीविलासः १९७१ * तुम आवत भविजन मनमाहिं । मनिबंध शिथिल हो जोटिंग है
ज्यों चंदनतरु बोलहिं मोर । डरहिं भुजङ्ग लगे चहुंओर ॥५॥ तुम निरखतजन दीनदयाल । संकटते छूटहिं ततकाल | ज्यों पशुघेर लेहिं निशिचोर । ते तज भागहिं देखत भोर१० तू भविजन तारक किम होह । ते चित थार तिरहिं ले तोह ॥ है। यह ऐसें करि जान खभाउ । तिर मसक ज्यों गर्भितबाउ १११ जिन सब देव क्रिये वश वाम । तै छिनमें जीत्यो सो काम ॥ ज्यों जल कर अग्निकुलहानि । वड़वानल पावै नो पानिराशा तुम अनन्त गरुवा गुण लिये । क्योंकरभक्ति धन्न निजहिय॥ है लघुरूप तिरहि संसार । यह प्रभुमहिमा अकथ अपार १३ क्रोध निवार कियो मनशांति । कर्म सुभटजीते किहिं भांति ॥
यह पटतर देखहु संसार । नीलवृक्ष ज्यों देहे नुसार ॥१४॥ * मुनिजनहिये कमल निज टोहि । सिद्धरूप समध्यावहिं तोहि कमलकर्णिका विन नहिं और । कमलबीज उपजननी टोर१५
जब तुह ध्यानधरै मुनि कोय । तब विदेह परमातम होय ॥ । जैसे धातु शिलातन त्याग । कनकस्वरूप थवे जब आग १६ जाके मन तुम करहु निवास । विनस जाय क्यों विग्रह तास ॥ ज्यों महन्त विच आवै कोय । विग्रह मूल निवारै सोय ॥१७॥ करहिं विवुध जे आतम ध्यान । तुम प्रभाव होय निदान ॥ है. जैसे नीर सुधा अनुमान । पीवत विष विकारफी हान ॥१८॥
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