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कविवर वनारसीदासजी।
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* मातृस्वामित्वजनजनकभ्रातृभाजिनामा * दातुं शक्तास्तदिह न फलं सजना यहदन्ते ॥ * काचित्तपां वचनरचना येन सा ध्वस्तदीपा यां शृण्वन्तः शमितकलुषा निर्वृति यान्ति तत्याः ॥ ४६५
(सुभाषितरत्नसन्दोहे ।) - इस संसारमें सज्जनजन जो फल देते हैं, वह नाता, स्वामी, स्वजन,
पिता, भ्राता, स्त्रीजनादि कोई भी देनेको समर्थ नहीं है । दोपोंको । विध्वंस करनेवाली उनकी वचनरचनाको सुनकर जीवधारी शनितकनुप (पापरहित) होकर निवृत्तिको प्राप्त करते हैं।
पाठकगण ! कविवर बनारसीदासजीकी शुभफलको देनेवाली संगति हमलोगोंको प्राप्य नहीं है। क्योंकि वे अब इन लोकमें नहीं हैं। किन्तु हमारे झुमक्रमके उदयसे उनकी निर्मल-वचन-रचना (कविता) अब भी अक्षरवती होकर विद्यमान है, जिनके सम्पूर्ण सांसारिक कलुप (पाप) क्षय हो सक्ते हैं। उन अक्षरोंसे कावियरकी
कीतिकौमुदी कैसी प्रकुटित हो रही है ! यह उपन्चल चाँदनी * आत्माका अनुभवन करनेवाले पुरुषोंके हृदयमें एक अतिक शीतलताका प्रवेश करती है, जिससे उन्हें संसारकी मोहन्याला उत्तापित नहीं करती।
जिस महामाग्यकी बचनरचना ऐमी निर्मल और मुन्ठकर है, उसकी जीवनकथा जाननेकी किसको इच्छा न होगी ! और यह जीवनकथा फितनी सुंदर और रुचिकर न होगी? और उसके मंग्रह करनेकी कितनी आवश्यकता नहीं है? ऐना नोच कर हगने
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