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८२ कविवरवनारसीदासः । वे अनेक दिन तक शोकाकुल रहे, बड़ी कठिनता से मित्रशोकको विस्मृत कर सके। + एक दिन आगरेमें किस लिये आये हैं ? इस बातकी चिन्ता हुई,
तब साहुजीके हिसाव करनेके लिये गये । परन्तु साहुजीका शाही दरबार देखके अवाक् हो रहे । उन्होंने वणिकोंके घर ऐसा अंधाधुंध कभी नहीं देखा था । साहुजी तकियेके सहारे पड़े हैं । बन्दीजन विरद पढ़ रहे है। नृत्यकारिणी छमाके भर रही है। नानाप्रकारके - सुंदर वादिन बज रहे हैं । भांड अपनी रंगविरंगी नकलोंमें मस्त हैं। :
और शेठजी तथा उनके सेवक सबहीमें मस्त हैं। भला! वहां इनका ! हिसाव कौन सुने ? और वहां इतना अवकाश किसको ? कविवर लि. अखते हैं, कि इस दरबार में पैर तोड़ते २ मैंने चार गहिने खो दिये ।।
जवहिं कहें लेखेकी वात । साहु जवाव देहिं परभात । मासी बरी छमासी जाम । दिन कैसा? यह जाने राम ॥ सूरज उदय अस्त है कहां? विषयी विषय मगन है जहां ॥
साहुजीके अंगाशाह नामक बहनेऊ (भगिनीपति) थे, जो बनारसीदासके मित्र थे। इनके द्वारा बनारसीदासने बड़ी कठिनतासे अपना हिसाव साफ किया। साहुजीने कहने सुननेसे न्यो त्यो । अफारकती लिख दी। इसके बाद ही वनारसीदासके भाग्यका सितारा
चमका । उन्होंने साझा छोड़के पृथक् दूकान कर ली, और उसमें खूब लाभ उठाया।
संवत् १६७३ के फाल्गुणमासके लगभग आगरेमें उस रोगकी: * उत्पत्ति हुई, जो आज सारे भारतवर्षमें व्याप्त है, और जो दशवर्षसे लक्षावधि प्रजाको मुंह फाड़ २ के निगल रहा है । जिसके आगे
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