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settetatute tutattattotstartstetrict.ttatstatution २२१२ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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माया छाया एक है, घटै बडै छिनमाहिं । इनकी संगति जे लगैं, तिनहिं कहीं मुख नाहिं ।। १६ ॥
जे मायासों राचिके, मनमें राखहिं वोझ । * कै तो तिनसों खर भलो, के जंगलको रोझ ॥ १७ ॥ * इस माया के कारण, जेर कटावहिं सीस ।
ते मूरख क्यों कर सके, हरिभक्तनकी रीस ॥ १८ ॥ लोम मूल सब पापको, दुखको मूल सनेह ।। मूल अनीरण व्याधिको, मरणमूल यह देह ॥ १९ ॥ जैसी मति तैसी दशा, तैसी गति तिह पाहि ।
पशु मूरख भूपर चलहिं, खग पंडित नभमाहिं ॥ २०॥ - सम्यकदृष्टी कुक्रिया, करै न अपने वश्य ।
पूरव कर्म उदोत है, रस दे जाहिं अवश्य ॥ २१ ॥ जो महंत है ज्ञानविन, फिरै फुलाये गाल । आप मत्त और न करै, सो कलिमाहिं कलाल ॥ २२ ॥ ज्यों पावक विन नहिं सरै, करै यदपि पुर दाह। त्यो अपराधी मित्रकी, होय सबनको चाह ॥ २३ ॥ कर्चा जीव सदीव है, करै कर्म स्वयमेव । यह तन कृत्रिम देहरा, तामें चेतन देव ॥ २४ ॥ केवलज्ञानी कर्मको, नहिं का विन प्रेम । देह अकृत्रिम देहरा, देव निरंजन एम ॥ २५॥ .
Aut.k.krt.kut.kettrintent.titut.kuttituttrint.titutatiti takent.titutitutituttst.til