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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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अन्तर विवेक आयो आपापर भेद पायो,
भयो बोध गयो मिट भारत भरमको ॥ भासे छह द्रव्यनके गुण परजाय सब,
नाशे दुख लख्यो मुख पूरण परमको । करमको करतार मान्यो पुदगल पिंड, ___ आप करतार भयो आतम घरमको ॥१॥
दोहा। जीव चेतना संजुगत, सदाकाल सब ठौर तातें चेतनभावको, कर्ता जीव न और ॥२॥
गीतिका। ने पूर्वकर्मउदयविषयरस, भोगमगन सदा रहैं। | आगम विषयसुख भोग वांछहिं, ते न पंचमगति लहैं ॥ * जिस हिये केवल वृक्ष अंकुर, शुद्ध अनुभव दीप है।
किरिया सकल तज होहिं समरस, तिनहिं मोक्ष समीप है ॥ ३॥ * कोऊ विचक्षण कहै मो हिय, शुद्ध अनुभव सोहये । मैं भावि नय परिमाण निर्मल, निराशी निरमोहये ॥ समध्यान देवल माहिं केवल देव परगट भासहीं । कर भ्रष्टयोग विभावपरिणति, अष्ट कर्म विनाशहीं ॥ ४॥
' इति नाटक कलश भाषानुवाद..
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