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बनारसीविलासः १६७ अथ पंचपदविधान लिख्यते.
दोहा. नमो ध्यानघर पंचपद, पंचसु ज्ञान अराधि। पंचमुचरण चितारचित, पंचकरन रिपुसाधि ॥ १ ॥
चौपाई (१५.) बन्दों श्रीअरहंत अधीश । वन्दों स्वयंसिद्ध जगदीश ॥ वन्दों आचारज उवझाय । बन्दों साधुपुरुषके पाय ॥ २ ॥ एई पंच इष्ट आधार । इनमें देव एक गुरु चार ॥ सिद्ध देव परसिद्ध उदार । गुरु अरहतादिक अनगार ॥ ३॥ सिद्ध सोई जस करै न कोइ । भयो कदाच न कवई होइ ॥ अखय अखंडित अविचलधाम । निर्मल निराकार निरनाम ४ अब गुरु कहों चार परकार । परम निधान धरमधनधार ॥ मरमवंत शुभ कर्म सुजान । त्रिभुवनमाहिं पुरुष परधान ॥५॥
प्रथम परमगुरु श्रीअरहंत । द्वितिय परमगुरु सूरि महंत ॥ ॐ तृतिय परमगुरु श्रीउवझाय । चौथे परम सुगुरु मुनिराय || परम ज्ञान दर्शनमंडार । वाणी खिरै परम सुखकार ॥ परम उदारिक तनधारत । परम सुगुरु कहिये अरहंत ॥ ७ ॥ धर्मध्यान धारे उतकिष्ट । भा धर्मदेशना मिष्ट ॥ धर्मनिधान धर्मसों प्रेम । धर्म सुगुरु आचारज एम ॥ ८॥ चौदह पूरव ग्यारह अंग । प. मरम जानै सरवंग ॥ परको मर्म कहैं समुझाय । यातै परम सुगुरु उवझाय ॥ ९॥
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