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उत्थानिका ।
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ग्रन्थयोंकी वात ही नहीं की जाती, और हिन्दी के सामान्य पत्राम जो समालोचना होती है, वह प्रचार होने में बाधा देनेके अभिप्रायसे होती है । "छपाई सफाई उत्तम है, मूल्य इतना है, अन्ध जैनियोंके कामका है। जैनमन्यांकी समालोचना इतनमें ही पत्र. सम्पादकगण समाप्त कर देते हैं। और यदि विशेष कृपा की तो दो चार दोष दिखला दिये ! दोष कैसे दिखलाये जाते हैं, उनका नमूना भी लीजिये । एक महानुभाव सम्पादकने दौलतविलासकी आलोचनामें कहा था " बड़ी नीरस कविता है ! परन्तु यथार्थमें देखा जाये तो दौलतविलासकी कविताको नीरस कहना कविताका अनादर करना है। हमारे पड़ौसी एक दूसरे सम्पादकशिरोमणिने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाके भापा टीकाकार जयचन्द्रजीके साथ स्वर्गीय, शब्द लगा देखकर एक अपूर्व तक की थी, कि " जैनियोंमें स्वर्ग तो मानते ही नहीं हैं, इन्हें स्वर्गीय क्यों लिखा " धन्य ! धन्य!! त्रिवार धन्य!!! पाठकगण जान सक्त हैं, कि सम्पादक महाशय जैनियोंके कैसे शुभेच्छुक हैं. और जैनधर्मसे कितने परिचित हैं। जिस ग्रन्थकी समालोचनामें यह तर्क किया गया है, यदि उसीके दो चार पन्ने उलट करके आलोचक महाशय देखते, तो स्वर्ग है कि नहीं विदित हो जाता । पूर्ण अन्य १०० स्थानोंसे भी अधिक इस वर्ग शब्दका व्यवहार हुआ होगा । परन्तु देखें कौन ? जनी नास्तिक कैसे बने? लोग उनसे घृणा कैसे करें ? सारांश यह है कि, हृदयकी संकीर्णतासे आलोचकगण कैसी ही उत्तम पुस्तक क्यों न हो, उसमें एक दोई लांछन लगाके समालोचनाकी इतिश्री कर देते हैं, जिससे पुस्तकप्रचारमें बड़ा भारी आघात पहुंचता है। और सामान्य भाषासा
statutitutkukkistskotatutekitatistatute tit:kutikatrintukuktikakit.titut.kuttitutti