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जैनअन्यरलाकरे
दुर्बुद्धिके रोकनेको कोन समर्थ हो सका था? परन्तु जब अशुभके उदय का अन्त हुआ, तव सहज ही वह सब बल मिट गया। और ज्ञानका यथार्थ प्रकाश समक्ष हो गया इसप्रकार संवत् १६९२ तक हमारे चरित्रनायक अनेकान्तमतके उपासक होकर मी एकान्तके झूलनेमै खूब झूले । पश्चात् जब उदयने पल्टा खाया, तब पंडित रूपचन्दजीका आगरेमें आगमन हुआ । मानों आपके मा
न्यकी प्रेरणा ही उन्हे आगरेमें खींच लाई। पंडितजीने आपको * अध्यात्मके एकान्त रोगमें असित देखकर गोमट्टसाररूप औषधोअपचार करना प्रारंभ कर दिया । अर्थात् आप कविवरको गोमट्ट
सार पढ़ाने लगे । गुणस्थानों के अनुसार ज्ञान और क्रियाओंका है विधान भलीभांति समझते ही हृदयके पट खुल गये, सम्पूर्ण संशय दूर भाग गये और
तव बनारसी और हि भयो। ___ स्यादवादपरणति परणयो।
सुनि २ रूपचन्दके वैन ।
__ यानारसी भयो दिद जैन ॥ __ हिरमें कछु कालिमा, हुती सरदहन वीच ।
सोउ मिटी समता भई, रही न ऊंच न नीच ॥ इस ७-८ वर्षके वीचमें अनेक बातें लिखने योग्य हो चुकी हैं। जो उक्त डगमगदशाके सिलसिलेमें पड़ जानेसे नहीं लिखी जा सकी, अतः अब लिख दी जाती हैं। संवत् १६८४ में जहांगीर सत्राट् काल
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१ हंटर साहिबने जहांगीरकी मृत्यु के विषयमें केवल इतना लिखा है कि, “सन् १९२४ में (संवत् १६८४ ) में जब कि उनका बेटा