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५६ कविवरवनारसीदासः । भोजनके त्यागकी प्रतिनायुक्त देखते हैं। चतुर्दश नियम, प्रत, सामायिक,खाध्याय, प्रतिक्रमणादि नाना आचार-विचार-युक्त देखते हैं।
और देखते हैं, सच्चे हृदयसे सम्पूर्ण क्रियाओंको करते । स्वभावका इस प्रकार पलटना बहुत थोड़ा देखा जाता है।
तब अपजसी बनारसी,
अव जस भयो विख्यात ॥ १ खरगसेनजीके दो कन्या थी, जिसमेंसे एक तो जौनपुर विवाही गई थी, दूसरी कुमारी थी । इस वर्ष अर्थात् संवत् १६६४ के फाल्गुणमासमें पाटलीपुर (पटना)में किसी धनिकके पुत्र
उसका भी विवाह कर दिया गया । कन्याका विवाह सानन्द हो भी चुकनेपर इसी वर्ष
बानारसिके दूसरोः भयो और सुतकीर। दिवस कैकुमें उड़ि गयो, तज पिंजरा शरीर ॥२८॥ इस पोतेके मरनेसे खरगसेनजीको विशेष दुःख रहा । परन्तु तीन वर्षतक पुत्रके रंग ढंग अच्छे रहे, यह देखकर उन्हें बहुत कुछ शान्तवन भी मिलता रहा। संवत् १६६७ में एक दिन खरगसेनजीने । पुत्रको एकान्तमें बुलाके कहा बेटा! अब तुम सयाने हो गये। हमारा वृद्धकाल आया | पुत्रोंका धर्म है कि, योग्य-वय-प्राप्त होनेपर पिताकी सेवा करें, इस लिये अब तुम यह घरका सव कार्यभार संभालो और हम दोनोंकोरोटी खिलाओ" यह सुनके पुत्र लज्जावनत हो रहा, उससे कुछ कहा नहीं गया। पिताका प्रेम देखके आंखोंमें आरं है
भर लाया । उसी समय पिताने अपने हाथसे पुत्रको गोदमें लेके हरिमें द्राका तिलक कर दिया, और घरका सब काम सौंप दिया। पीछे
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