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बनारसीविलासः
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रवि शशिको, तू अपनों कर बूझै, मौदू भाई० ॥ ५ ॥ खुले । पलक ए कछुढ़क देखहिं, मुंदे पलक नहिं सोऊ । कबहू जहि । में होंहि फिर कवई, भ्रामक आँखें दोऊ, भौंदू भाई ० ॥ ६ ॥
जंगमकाय पाय ए प्रगटैं, नहिं श्रावर के साथी । तू तो इन्हें । मान अपने इंग, भयो भीमको हाथी, मौंदू भाई० ॥ ७ ॥ तेरे द्वग मुद्रित घट अंतर, अन्धरूप तू डोले । के तो सहज खुलै वे आंखें, के गुरु संगति खोले, भौंदू भाई! समुझ शबद यह मेरा ॥ ८ ॥
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राम गौरी। मौंदू भाई ते हिरदै की आखें, जे करपै अपनी सुख । संपति अमकी संपति नारों, मौदू भाई० ॥१॥ जे आंखें । अमृतरस वरखें, परखें केवलिवानी । जिन्ह आँखिन विलोक । 1. परमारत्र, होहिं कृतारथ पानी, मौदू भाई० ॥ २ ॥ जिन आखिनहिं दशा केवलकी, कर्मठेप नहि लागे । जिन आँखिनके प्रगट होत घट, अलख निरंजन जागै, भौंदू भाई० ॥ ३ ॥ जिन आँखिनौ निरखि भेद गुन; ज्ञानी ज्ञान विचारै । जिन आँखिनसौं लखिस्वरूप मुनि, ध्यानधारणा घारै, मौदू माई०
॥ जिन आँखिनके जगे जगतके, लगे काज सब झ2।। जिनसौं गमन होइ शिवसनमुख, विषय विकार अपूढे, मौंदू से भाई० ।। ५ ।। जिन आंखिनमें प्रमा परमकी, परसहाय नहिं ।