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जैनग्रन्थरनाकरे
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यह संसारविडम्बना, देख प्रगट दुःख मेष्ट। र चतुरचित्त त्यागी भये, मृद न जानहिं भेद ॥ १८ ॥
उस समय विवाह होनेपर यरातके साथ ही दुलहिन लयमें आती थी, उसी प्रयांक अनुसार दो महीने वधू रही, पश्चात् अपने काका के साथ लिवाई हुई, विद्यालयको चली गई। एक घड़ी भारी विपत्ति आई । जीनपुरके हाकिम कुलीचन है।
कुलीच तुर्फी भाषाका शब्द ई, इसका अर्थ माहम नहीं है। जिस नवाब कुलीचका जुन्म हरियोंपर बनारसीदासजीन लिया है, उस कुलीचखांका सकवरनामे और जहागीरनामे मगलों पर उलट पुलट करनेसे इतना पता लगा है कि, कुलीचना इंदुजाना
रहनेवाला जानाकुरबानी जातिका एक तुकया। इंदुजान नरान देशका मी एक शहर है । जो अब शायद रूस या अमारकाबुल के करमें है।
कुलीचखांके याप दादा मुगल बादशाहोंक नोकर थे। कुलीचमाली अकवरवादशाहने सन् १७ जल्ली (संयन् १६२९) में सूरती किलेदारी, और सन् २३ (संवन् १६३५) में गुजरातकी सुवेदारी दी थी। सन् २५ (संयन १६१७)में उसे वजीर बनाया। सन् २८ (संपन् १६४०)
में फिर गुजरातको भेजा और सन् १९७ (संवत् १६४Ejमें राम * तोडरमलफे मरनेपर वह दीवान बनाया गया, तो सन् २००२ (मंगन् ।
१६५०) तक रहा यी बीच में गन् १००० (संवन् १६४८)में जोनपुर मी उसकी जागारमें दे दिया गया।सन् ५००५ (संवत् १९५३) में सामान शाहजाद दानियालको इलाहावासके मूह भेगा, तो फुलीचमांगे उसका अनाटीक (शिक्षक) करके साथ किया । उपाशी येटी कामदयो व्याही थी।
फिर मन् ४४ (64) में आगरेकी, और सन् १६ (१६५८) में लाहौर तथा कावुलकी सूचदार्ग उनको दी गई।
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