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११६ जैनग्रन्थरलाकरे wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwrom परघात उदयसों होय अंग । जो करे औरको प्राण भंग ॥ उस्सासप्रकृति जब उदय देय । तव प्राणी सास उसास लेय ८३ आतप उदोत तन जथाभान । उद्योत उदय तन शशि समान है बस प्रकृति उदय धर जीव जोय । जंगम शरीरघर चलैसोय ८४ | थावर उदोतघर प्राणधार । लहि थिर शरीर न करै विहार ॥ असूक्षम उदोत लघु देह जास। सो मारै मेरै न और पास ८५/
बादर उदोत तन थूल होय । सवहीके मारे मरै सोय ॥ परजापति प्रकृति उदय करत । जिय पूरी परजापति धरत८६ जो प्रकृति अपोपत धरेय । सो पूरी परजापत न लेय ॥ प्रत्येक प्रकृति जाके उदोत।सो जीव वनस्पति काय होत ॥ ८७॥ जब तुचा काठ फल फूल पात । जहँ बीज सहित लियराशिसाता
जो एक देहमें जीव एक । सो जीवराशिकहिये प्रत्येक ।। ८८ ॥ । प्रत्येक वनसपति द्विविधिजान । सुप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित बखान॥
जो धारैराशि अनन्तकाय।सो सुप्रतिष्ठित कहिये सुभाय ॥८९॥ १ जामें नहिं होय निगोदधाम । सो अप्रतिष्टित प्रत्येकनाम ॥
अव साधारणवनसपति काय। सो सूच्छम बादर द्विविधि थाय९० ३ सूच्छम निगोद जगमें अमेय । वादर यह दूजा नामधेय ॥
धरि भिन्न भिन्न कार्माण काय। मिलि जीव अनन्त इकत्र आय९१ - संग्रहहि एक नो कर्म देह । तिस कारण नाम निगोद एह ॥
सो पिण्ड निगोद अनन्तरास । जियरूप अनंतानंत भास ॥९॥
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