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१०८ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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पंचम आवकरम परधान । हनै शुद्ध अवगाहप्रमान ।। छठा नामकर्म विरतंत । करहि जीवको मूरतिवंत ॥ ६ ॥ गोत्र कर्म सातमों बखान । जासों ऊंच नीच कुल मान ॥ अष्टम अन्तराय विख्यात । करै अनन्तशकतिको घात ॥ ७॥
दोहा। ए ही आठों करममल, इनमें गर्भित जीव । इनहिं त्याग निर्मल भयो, सो शिवरूप सदीव ॥ ८ ॥
चौपाई। कहो कर्मतरु डाल सरीस । प्रकृति एकसो अड़तालीस ॥ मितिज्ञानावरणी जो कर्म । सो आवरि राखै मतिधर्म ॥९॥
श्रतिज्ञानावरणी बल जहां । शुभश्रतज्ञान फरै नहिं तहां ॥ अवधिज्ञानआवरण उदोत। जियको अवधिज्ञान नहिं होत१० मनपरजयआवरण प्रमान । नहिं उपजै मनपर्नय ज्ञान ॥ केवलज्ञानावरणी कूप । तामहिं गर्भित केवलरूप ॥ ११ ॥
वरणी ज्ञानावरणकी, प्रकृति पंचपरकार।
अब दर्शन आवरण तरु, कहहुं तासु नव डार ॥ १२ ॥ चक्षदर्शनावरणी बंध। जो जिय कर होहि सो अंध।
अचखुदर्शनावरण यंधेव । शवद फरस रस गंध न बेच॥१३॥ * अवधिदर्शनावरण उदोत । विमल अवधिदर्शन नहिं होत ॥
केवलदर्शआवरण जहां । केवलदर्शन होय न तहां ॥१४॥ अत्यानगृद्धि निद्राबश परै । सो प्राणी विशेष बलधरै ॥ ३ उठि उठि चलै कहै कछु बात । करै प्रचंड कर्मउतपात॥१५॥ लामा
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