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Katatatetekst tinkat kathakuttattatotketatistskotatoli १११८ जैनग्रन्थरताकरे
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जहँ सुस्वरप्रकृति उदय वखान। तहँ कंठ कोकिला मधुरवान । जो दुस्वरप्रकृति उदोत धार । ताकी ध्वनि ज्यों गर्दभपुकार ॥३॥ आदेयप्रकृति जाके उदोत । ताको बहु आदर मान होत ॥ जब अनादेयको उदय होय । तव आदर भान करै न कोय ||४||
जसनामउदय जिस जीव पाहिँ। ताकी अस कौरति जगतमाहि॥ * अहँ प्रगट भालमहँ अजसरेख । तहँ अपजस अपकीरति विशेख ५ ।
निर्माणचितेरा उदय आय । सब अंगउपंग रचै बनाय ॥ 1 तीर्थकरनामप्रकृति उदोत । लहि जीव तीर्थकरदेव होत ॥६॥
दोहा। ये तिरानवे और दश, तनसंवन्धी आन । मिलहिं एकसोतीन सब, होहिं नामकी वान ॥ ७ ॥
चौपाई। नामप्रकृति संपूरण भई । पिंड अपिंड कही जो जुई। पिण्डपकृति चौदह बनि रही। तिनकी पैंसठ शाखा कही॥८॥ अठ्ठाइस अपिंड वरनई । ते सव मिलि तिरानवे भई ॥
वरनों गोतकरम सातमा । जासों ऊंच नीच आतमा ॥ ९॥ 3 ऊंचगोत उद्योत प्रवान । होवै जीव उच्चकुलथान ॥
नीचगोत फलसंगति पाय । जीव नीचकुल उपजै आय॥१०॥ ३ गोत्रकर्मकी द्वयप्रकृति, तेह कहीं बखानि ।
अतराय अब पंचविधि, तिनकी कहों कहानि ॥ ११ ॥
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