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जैनग्रन्थरताकरे
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वस्तुच्छंद. जैनवाणी जैनवाणी सुनहिं जे जीव । जे आगम रुचिधर जे प्रतीति मन माहिं आनहि । अवधारहिं जे पुरुष समर्थ पद अर्थ जानहि ॥ जे हितहेतु वनारसी, देहिं धर्म उपदेश । ते सब पावहिं परम सुख, तब संसार कलेश ॥ १०॥
इति शारदाष्टक.
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___ अथ नवदुर्गाविधान लिख्यते.
कवित्त. . प्रथमहिं समकितवंत लखि आपापर
परको खरूप त्यागी आप गहलेतु है। बहुरि विलोक साध्यसाधक अवस्था भेद, ___ साधक है सिद्धिपदको सुदृष्टि देतु है ।। अविरतगुणथान आदि छीनमोहअन्त,
नवगुणथान निति साधकको खेतु है ॥ संजम चिहन विना साधक गुपतरूप,
त्यों त्यों परगट ज्यों ज्यों संजम सुचेतु है ॥ १॥ जैसे काहू पुरुषको कारण ऊरध पंथ, ___ कारज खरूपी गढ़ भूमिगिरशृंग है । तैसें साध्यपद देव केवल पुरुष लिंग,
साधक सुमति देवीरूप तियलिंग है।
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