________________
११०
कविवरवनारसीदासः ।
(५)
सु
है, है है नाहीं नाहि ।
।
यह सरवंगी नयधनी, सब माने सवमाहिं ॥
है नहीं नहीं
WANT MARINE
(६) कायासे विचारि प्रीति मायाहीमें हारजीति, लिये हठरीति जैसे हारिलकी लकरी । चुंगुलके जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि, त्यों ही पाँय गाड़े पै न छांड़े टेक पकरी ॥ मोहकी मरोरसों भरमको न टोर पावे, धावै चहुंओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी । ऐसी दुबुद्धि भूलि झूठके झरोखे झुलि फूली फिर ममता जंजीरनसों जकरी ॥ (७)
रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी कीली सील, सुधाके समुद्र झीली सीली सुखदाई है । प्राची ज्ञानभानकी अजाची है निदान की सु, राची नरवाची ठौर सांची ठकुराई है | धामकी खवरदार रामकी रमनहार, राधा रस पंथनिमें ग्रंथनिमें गाई है। संततिकी मानी निरवानी नूरकी निशानी, यातें सदबुद्धि रानी राधिका कहाई है ॥