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१९४ जैनग्रन्थरत्नाकरे चन्दा उदित इक्ष्वाक वंशहि, कुमति तिमर विनासिये । सय साठ चार सुचाप परिमित, देह कंचन भासिये ॥ दिढ़ पालिराज सु गहिय संजम, मुकति पथ रथ साजियो। उत्पन्न केवल सुख वनारसि, अजित महियल राजियो ॥ ३॥ ___गढ़ योजनमहि रचे सुदेवाजी।
अष्ट प्रतीहार करहिं. सु सेवाजी ॥ । सेवहिं अशोक प्रसून वरसत, दिव्यधुनि तहँ गाजहीं।
चामर सिंहासन प्रभामंडल, छत्र तीन विराजहीं ॥ नवदेव दुंदमि सभा वारह, चौतिसौं अतिशय सही। * सुर असुर किन्नरगण बनारसि, रचित गढ़ योजन मही ॥
लक्ष वहन्तरि पूरव आया जी ।
भोग सु जिनवर शिवपद पायाजी ॥ शिवपद विनायक सिद्धि दायक, कर्म महारिपु भंजनो। । वरणे शिषैराबाद मंडन, भविक जनमनरंजनो ॥ 1 सोलैसै सत्तर समय आश्वनि, मास सितपख वारसी। विनवत दुई कर जोर सेवक, सिरीमाल बनारसि ॥ ५ ॥
इति श्रीअजित नाथके छन्द.
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