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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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कर भी याचार्य न देख सकी, उन्हें कुछ का कुछ चने लगा। वास्यक्रियाओंसे से हाथ धो बैठे, और जहां तहां उन्हें निश्चयनय ही सूझने लगा। "न इधरके हुए न उधर के हुए वाली कहावत चरितार्थ हुई । कविवरने अपनी उस समयकी दशा एक दो
में इस तरह ब्यक्त की हैॐ करनीको रस मिट गयो, भयो न आतमस्वाद।
भई वनारसिकी दशा, जथा ऊंटको पाद ॥ ५९७ ॥
इसी समय आपने ज्ञानपच्चीसी, ध्यानवत्तीसी, अध्यात्मवई से तीसी, शिवमन्दिर, आदि अनेक व्यवहारातीत सुन्दर कविताओं
की रचना की ! अध्यात्मकी उपासनाके साथ २ आचारस्रष्टताकी मात्रा बढ़ने लगी, और जैसा कि उपर कहा है, वे वापक्रियाओंको * सर्वथा छोड़ ही बैठे। उन्होंने जप, तप, सामायिक, प्रतिक्रमण, आदि । क्रियाओंको ही केवल नहीं छोड़ा, किन्तु इतनी उच्छृखलता धारण की, कि भगवत् का चढा हुआ नैवेद्य (निाल) मी खाने लगे। इनके चन्द्रमान, उदयकरन, और थानमलजी आदि मित्रोंकी भी यही दशा थी। चारों एकत्र बैठकर केवल अध्यात्मकी चरचामें अपना कालक्षेप करते थे। इस चरचामें अध्यात्मरसका। इतना विपुलप्रवाह होता था कि, उसमें प्रत्येक, धर्म, जाति, व्यवॐहारकी, उचित, अनुचित, श्रव्य, अश्रव्य सम्पूर्ण बातें वे रोक टोक प्रवाहित होती थीं। वे जिस बातको कहते तथा सुनते थे, उसीको घुमा फिराके व्यंगपूर्वक अध्यात्ममें घटानेकी चेष्टा किया करते थे। सारांश यह है कि, उस समय इनके जीवन का अहोरात्रिका एक मात्र यही कार्य हो रहा था । हमारे जनसमाजमें उक्त मतके अनुयायी अब भी बहुतसे लोग हैं, जो लोकशास्त्रके उल्लंघन करनेको हो ।
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