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श्री संघदासगणि विरचित
व्यवहार भाष्य
VYAVAHAR BHASYA
वाचना प्रमुख
गणाधिपति तुलसी
30%
संपादिका
समणी कुसुमप्रज्ञा
प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ
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निग्गंथं पावयणं
व्यवहार भाष्य
[ मूलपाठ, पाठान्तर, पाठान्तर-विमर्श, नियुक्ति, विस्तृत भूमिका तथा
विविध परिशिष्टों से समलंकृत ]
वाचना प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी
प्रधान संपादक आचार्य महाप्रज्ञ
संपादिका समणी कुसुमप्रज्ञा
जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं
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प्रकाशक : . जैन विश्व भारती संस्थान लाडनूं-३४१३०६ (राजस्थान)
© जैन विश्व भारती, लाडनूं
प्रथम संस्करण विक्रम संवत् २०५३ सन् १९६६
पृष्ठांक सं. ८०
मूल्य : ७००/
कम्प्यूटर सेटिंग : सुदर्शन कम्प्यूटर्स, जोधपुर
मुद्रक : पवन ऑफसेट प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा
दिल्ली-११००३२ फोन : २२७३६४५, २२६६४२७
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VYĀVĀHĀR BHĀSYA
[Original text, varaint readings, critical notes, niryukti,
preface and various appendixes]
Vachanapramukha Ganadhipati Sri Tulsi
Chief Editor Acharya Mahaprajna
Editor Samani Kusumprajna
JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE, LADNUN
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Publisher : Jain Vishva Bharati Institute Ladnun-341306 (Rajasthan)
© Jain Vishva Bharati, Ladnun
First Edition Vikram Samvat 2053 August 1996
Price : Rs. 700/
Computer Setting by: Sudarshan Computers, Jodhpur Printerts : Pawan Offset Printers, Naveen Shahdara
Delhi-110032, * 2273645, 2299427
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समर्पण
पुट्ठो वि पण्णापुरिसो सुदक्खो, आणापहाणो जणि जस्स निच्चं। सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसका प्रज्ञापुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगमप्रधान था। सत्ययोग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ॥
विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झाय-सज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसने आगम दोहन कर-कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत सद्ध्यान लीन चिर चिन्तन, जयाचार्य को विमल भाव से ॥
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ॥
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अंतस्तोष
अंतस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का, जो अपने हाथों से उप्त और सिंचित द्रुमनिकुंज को पल्लवित-पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का, जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का, जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन आगमों का शोधपूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्मपरिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अतः मेरे इस अंतस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूँ, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में यह संविभाग इस प्रकार हैप्रधान संपादक
आचार्य महाप्रज्ञ संपादिका
समणी कुसुमप्रज्ञा नियुक्ति पृथक्करण
मुनि दुलहराज ग्रंथ समायोजन
मुनि हीरालाल
मुनि दुलहराज संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिन ने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने।
गणाधिपति तुलसी
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आशीर्वचन
जैन आगम ज्ञान के अक्षय कोष हैं। आगम साहित्य का प्रत्येक ग्रन्थ अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। ढाई हजार वर्षों के इस लम्बे अन्तराल में आगम ग्रन्थों पर काफी काम हुआ है। आगमों में निहित ज्ञानराशि को विस्तार देने के लिए इन पर व्याख्या ग्रन्थ लिखे गए। कुछ व्याख्याएं संक्षिप्त हैं, कुछ विस्तृत हैं। भाष्यकार आचार्यों ने अपने कार्य को बहुत विस्तार देने का प्रयास किया। निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प आदि छोटे-छोटे आगमों पर बृहद् भाष्य लिखकर उन्होंने जैन शासन की अनेक मूल्यवान् परम्पराओं को सुरक्षित रख लिया। उक्त तीनों आगम छेदसूत्रों में आते हैं। छेदसूत्रों पर विदेशी विद्वानों ने भी अच्छा काम किया है।
हमने अपने धर्मसंघ में आगम-सम्पादन का कार्य शुरू किया, उसी समय हमारा संकल्प था कि हमें मूल आगमों के साथ व्याख्या ग्रंथों पर भी काम करना है। बत्तीसी के रूप में विश्रुत आगम-सम्पादन का हमारा काम चल ही रहा है। आचार्य महाप्रज्ञ उसमें प्रारम्भ से ही संलग्न हैं। उनके निर्देशन में अनेक साधु-साध्वियां काम कर रही हैं। व्याख्या-साहित्य के सम्पादन में सबसे पहले व्यवहार सूत्र के भाष्य का काम हाथ में लिया गया।
'व्यवहार भाष्य' आकार में निशीथ और बृहत्कल्प से थोड़ा छोटा हो सकता है, पर इसका संपादन बहुत ही जटिल प्रतीत हो रहा था। इसका एक कारण था भाष्य और नियुक्ति का सम्मिश्रण। कोई भी काम कितना ही जटिल क्यों न हो, संकल्प और पुरुषार्थ का प्रबल योग हो तो उसे सहजता से सम्पादित किया जा सकता है। हमने इस कार्य में 'समणी कुसुमप्रज्ञा' को नियोजित किया। कोई भी अकेला व्यक्ति इतना बड़ा काम नहीं कर सकता। उसे भी मार्गदर्शन और सहयोग की अपेक्षा थी। संघीय जीवन में यह सुविधा सरलता से मिल सकती है। उपयुक्त मार्गदर्शल और अपेक्षित सहयोगियों के अभाव में काम लम्बा हो जाता है। अनेक व्यक्तियों की निष्ठा और लगन से व्यवहार भाष्य के संपादन का कार्य संपन्न हुआ। इस कार्य में जितना श्रम और समय लगा, उसका अनुभव कार्य करने वालों को ही नहीं, देखने वालों को भी हुआ।
प्रसन्नता की बात यह है कि यह काम हमारे धर्मसंघ की समणी कुसुमप्रज्ञा ने किया है। महिलाओं द्वारा किए गए ऐसे गुरुतर कार्य को उपलब्धि माना जा सकता है। शताब्दियों में यह प्रथम अवसर होगा, जब साध्वियां और समणियां इस रूप में आगम कार्य में अपना योगदान कर रही हैं। मैं इस कार्य को श्रुत की उपासना और संघ की सेवा के रूप में स्वीकार करता हूं। भाष्य-सम्पादन के साथ-साथ नियुक्ति का पृथक्करण, इसके परिशिष्ट और भूमिका अपने आपमें एक शोध कार्य है। विद्वद् जगत् में इस कार्य का पूरा मूल्यांकन और उपयोग होगा, ऐसा विश्वास है।
गणाधिपति तुलसी
३१ मई १६६६ जैन विश्व भारती, लाडनूं भिक्षु विहार
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मंगलवचन
आगम के वट-वृक्ष का विस्तार व्याख्या ग्रंथ रूपी शाखाओं से हुआ है। नियुक्ति से लेकर टब्बा और जोड़ तक व्याख्या ग्रंथों की अनेक विधाएं हैं और अनेक रचना शैलियां हैं। इन व्याख्या ग्रंथों में नियुक्ति साहित्य के बाद भाष्य ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीनों छेद सूत्रों पर विशाल भाष्य लिखे गए हैं। इनमें व्यवहार भाष्य का प्रकाशन अत्यंत अगम्य शैली में हुआ। उसे सामग्री की सुलभता से अधिक और कुछ नहीं कहा जा सकता। नियुक्ति और भाष्य का मिश्रण, क्रमांक की अव्यवस्था, पाठ की अशुद्धि आदि अनेक समस्याएं रही हैं।
पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में चार दशक से आगम-संपादन का कार्य अनवरत चल रहा है। इस कालावधि में अनेक आगमों, व्याख्याग्रंथों तथा कोश ग्रंथों का प्रणयन और संपादन हुआ है। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या ग्रंथ है व्यवहार भाष्य। इसका संपादन समणी कुसुमप्रज्ञा ने अत्यधिक श्रम
और जागरूकता के साथ किया है। संपादन की पृष्ठभूमि में मुनि दुलहराजजी का श्रम अत्यंत प्रखर है। वे व्यक्त की अपेक्षा अव्यक्त को अधिक पंसद करते हैं। हमारी आगम-संपादन की गति मंथर हो सकती है, शोध पूर्ण कार्य की गति बहुत त्वरित हो नहीं सकती, किन्तु उसकी पहुंच मंथर नहीं है, यह आनंदानुभूति का विषय है। इस आनंदानुभूति में पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद और कार्य में संलग्न साधु-साध्वियों, समणियों का प्रमोदभाव निरन्तर विकसित होता रहे।
२२ मई १९६६ जैन विश्व भारती,
आचार्य महाप्रज्ञ
लाडनूं
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१. प्रकाशकीय
२. संपादकीय
३. व्यवहार भाष्यः एक अनुशीलन
४. The Glimpses of Vyavahar Bhasya
५. संकेत - निर्देशिका
६. विषयानुक्रमणिका
७. मूलपाठ
-पीठिका प्रथम उद्देशक
द्वितीय उद्देशक
तृतीय उद्देशक
चतुर्थ उद्देशक
पंचम उद्देशक
षष्ठ उद्देशक
सप्तम उद्देशक
अष्टम उद्देशक
नवम उद्देशक
दशम उद्देशक
८ परिशिष्ट
व्यवहार भाष्य-गाथानुक्रम नियुक्ति-गाथानुक्रम
से संबंधित भाष्य-गाथाओं का क्रम
सूत्र
टीका एवं भाष्य की गाथाओं का समीकरण
एकार्थक
निरुक्त
देशीशब्द
कथाएं
परिभाषाएं
उपमा निक्षिप्त शब्द
ग्रंथानुक्रम
१३
१५
२६
६३
१११
११३
१-४४७
१
१८
६७
१३४
१६८
२२०
२३३
२६८
३२०
३४६
३६२
१
६१
७०
७२
१०५
१०८
११३
१२४
१६४
१७७
१८०
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सूक्त - सुभाषित अन्य ग्रंथों से आयुर्वेद और आरोग्य
तुलना
कायोत्सर्ग एवं ध्यान के विकीर्ण तथ्य
दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य विशिष्ट विद्याएं
टीका में उद्घृत गाथाएं विशेषनामानुक्रम
वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम टीका में संकेतित निर्युक्तिस्थल टीका में उद्धृत चूर्णि के संकेत वर्गीकृत विषयानुक्रम ६. प्रयुक्त ग्रंथ सूची
१८१
१६२
२१३
२१६
२२५
२३०
२३३
२३६
२४५
२५३
२५४
२५५
२५८
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प्रकाशकीय
वि. सं. २०१२ का चातुर्मास उज्जैन में हुआ। उससे पूर्व जब गणाधिपति श्री तुलसी यात्रा पर थे तब आगम-संपादन का स्वप्न संजोया। स्वप्न साकार हुआ। आज आगम-संपादन के कार्य को ४० वर्ष हो गए। इस अवधि में बत्तीस आगमों (११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद और एक आवश्यक) का मूल पाठ संपादित होकर प्रकाश में आया। इनका शब्द-इन्डेक्स भी प्रकाशित हो गया तथा अन्यान्य अनेक आगमों का सटिप्पण हिन्दी अनुवाद भी संपन्न हुआ।
अभी-अभी भगवती भाष्य तथा आचारांग भाष्य का भी प्रकाशन हुआ और उनका अंग्रेजी रूपान्तरण प्रकाशनाधीन है।
इसी बीच चार कोश-(१) एकार्थककोश, (२) निरुक्तकोश, (३) दशीशब्दकोश, (४) जैन आगम वनस्पतिकोश भी प्रकाशित हुए। सांप्रतं श्रीभिक्ष आगम विषय कोश का प्रकाशन संपन्नता पर है। ___ व्यवहार भाष्य के संपादन की वात गुरुदेव ने सोची और इस कार्य का दायित्व समणी कुसुमप्रज्ञाजी को दिया गया। पूर्व प्रकाशित सटीक व्यवहार भाष्य अस्त-व्यस्त तथा त्रुटिपूर्ण लगा। तब समणीजी ने अनेक हस्तप्रतियों से पाठ का अनुसंधान कर, सही पाठ का निर्धारण और तदनुरूप उसकी विमर्शयुक्त स्वीकृति को अंकित किया। हस्तप्रतियों से पाठ का निर्धारण सहज-सरल नहीं था। जितने आदर्श उतने ही पाठ-भेद। ऐसी स्थिति में पौर्वापर्य तथा अन्य छेद ग्रन्थों के आधार पर पाठ का निर्धारण कर व्यवहार भाष्य को अंतिम रूप दिया।
भाष्यगाथाएं और नियुक्तिगाथाएं एक साथ होने के कारण उनका पृथक्करण करना बहुत जटिल था। फिर भी उन्होंने अपनी कुछेक कसौटियां बना कर नियुक्ति गाथाओं को अलग कर दिया। यह एक दुरूह कार्य था, परन्तु गुरुकृपा से उन्होंने कार्य इस कार्य को सफलतापूर्वक संपादित कर ही दिया।
इस ग्रन्थ में पाठ-संपादन तथा पाठ-विमर्श की विशेषता तो है ही, साथ ही साथ इस ग्रन्थ में संदृब्ध २३ परिशिष्ट इस ग्रन्थ की महत्ता को बताते हुए समणीजी के परिश्रम को उजागर करते हैं। इसकी बृहद्काय भूमिका-'व्यवहार एक अनुशीलन' -भी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है और पूरे व्यवहार भाष्य का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर देता है। समणीजी ने अपनी सूक्ष्म संधित्सा के आलोक में ग्रन्थगत अनेक सूक्ष्मताओं को अनावृत किया है। हमें लगा कि अनेक अपेक्षित-अनपेक्षित कारणों से श्रम और समय की दीर्घता ने निराशा के भाव उत्पन्न किए, परंतु समणीजी की अपनी धीरता और कार्यनिष्ठा ने निराशा को क्रियान्वित नहीं होने दिया। शोधकार्य धैर्य-सापेक्ष है। वह तभी निष्ठा तक पहुंचता है जब शोधार्थी चंचल न हो, अधीर न हो। समणीजी में ये दोनों गुण हैं। ग्रन्थ की संपूर्ण समायोजना से उनके कर्तृत्व की यथार्थ झांकी प्राप्त हो जाती है।
नारी जाति द्वारा निष्पन्न यह कृति अवश्य ही एक महान् अवदान माना जाएगा। गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने नारी जाति को विद्या के क्षेत्र में अहमहमिकया बढ़ने का जो साहस और बुद्धि-वैभव दिया है वह युगयुगान्त तक याद किया जाता रहेगा। ___ ग्रन्थ की संपूर्ण समायोजना में मुनि श्री दुलहराजजी का अविकल योग रहा है। उनके सतत दिशा-निर्देशन एवं परामर्श के अभाव में इस महान् ग्रन्थ की यह प्रस्तुति कदापि संभव नहीं हो पाती।
जैन विश्व भारती के उपमंत्री श्रीयुत् कुशलराजजी समदड़िया की कार्यनिष्ठा और श्रमशीलता इस ग्रन्थ की संपूर्ति में पूर्ण सहायक रही है। तदर्थ उनको साधुवाद ।
जैन विश्व भारती, लाडनूं विकास महोत्सव सितम्बर १६६६
ताराचन्द रामपुरिया
मंत्री जैन विश्व भारती
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संपादकीय
युग-परिवर्तन के साथ परिवेश भी बदलता है । युगीन समस्याएं, सामाजिक स्थितियां, प्रचलित मान्यताएं एवं तत्कालीन अवधारणाएं मानव जीवन को ही प्रभावित नहीं करतीं, तत्कालीन साहित्य की अनेक विधाओं में भी वे अभिव्यंजित होती रहती हैं। जिस साहित्य में सत्यं शिवं सुन्दरं का दर्शन होता है, उसमें त्रैकालिकता एवं सामयिकता - दोनों का पुट होता है। प्राचीन आगम एवं उनके व्याख्या साहित्य को इसी कोटि के साहित्य में रखा जा सकता है। हजारों वर्षों का अंतराल होने पर भी इनकी महत्ता और प्राणवत्ता में कोई अन्तर नहीं आया है
समय के बदलते पहरूए के साथ भाषा और शैली में परिवर्तन होता है। कुछ शब्द अर्थयात्रा करते हैं, अतः कालान्तर में उनका अर्थबोध करना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी वाचना और पाठ-शुद्धि का कार्य सरल नहीं होता | युगप्रधान गणाधिपति तुलसी ने आगम के समुद्र-मंथन का दुरूह कार्य जो चालीस वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया, वह आचार्य महाप्रज्ञजी के निर्देशन में आज तक निर्बाध गति से चल रहा है। पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री के मन में उदग्र आकांक्षा है कि पुराने साहित्य को नए संदर्भों में प्रस्तुति दी जाए। उनका चिन्तन रहा कि यदि अनुसंधानपूर्वक तटस्थ दृष्टि से परिश्रमपूर्वक आगमों का कार्य किया जाएगा तो इसके आलोक में नए तथ्य प्रकट होंगे और जिनवाणी की गरिमा बढ़ेगी।
आगम साहित्य में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुनि की समग्र चर्या के अवबोधक होने के कारण आचारशास्त्र की दृष्टि से इन ग्रन्थों का अपना विशेष महत्त्व है। आचार में स्खलना होने पर ये ग्रन्थ नीति का निर्धारण करते हैं अतः नीतिशास्त्र की दृष्टि से भी इनका विशेष स्थान है। गीतार्थ और कृतयोगी - ये जैन मुनि की विशेष अवस्थाएं या उपाधियां हैं। इन दोनों अवस्थाओं को प्राप्त करने के लिए छेदसूत्रों का अध्ययन आवश्यक है। बिना छेदसूत्रों का अध्ययन किये मुनि आचार्य पद पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकता तथा स्वतन्त्र होकर भिक्षा आदि भी नहीं कर सकता। छेदसूत्रों को सीखकर भूलने वाला भी प्रायश्चित्त भागी होता है । ये सब तथ्य छेदसूत्रों की महत्ता को प्रकट करने वाले हैं।
I
छेदसूत्रों में व्यवहार सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पदविभाग सामाचारी का जितना व्यवस्थित वर्णन व्यवहार सूत्र में है, वैसा अन्य छेदसूत्रों में नहीं मिलता।
ग्रंथ परिचय
व्यवहार भाष्य एक आकर ग्रंथ है। इसमें कुल ४६६४ गाथाएं हैं । प्रारम्भ में भाष्यकार ने पीठिका लिखी है, जिसे आज की भाषा में भूमिका कह सकते हैं। इसमें कुल १८३ गाथाएं हैं। मूल ग्रंथ १० उद्देशकों में विभक्त है । किस उद्देशक पर कितनी गाथाएं लिखी गयीं इसका संकेत हमने परिशिष्ट नं. ३ में कर दिया है। कुछ अतिरिक्त गाथाएं, जिनको हमने मूल में नहीं स्वीकारा है, उनको पादटिप्पण में दे दिया है। मूल ग्रंथ में भी कुछ अतिरिक्त गाथाओं को लिया है पर उनको मूल क्रमांक में नहीं जोड़ा है । प्रस्तुत ग्रंथ में अनेक विषयों का प्रतिपादन है। हमने कुछ विषयों का संकलन परिशिष्टों में किया है। प्रस्तुत ग्रंथ के साथ २३ परिशिष्ट संलग्न हैं, जो इसके महत्त्वपूर्ण तथ्यों की ओर संकेत करने वाले हैं। इन परिशिष्टों के माध्यम से शोधार्थी अनेक महत्त्वपूर्ण जानकारियां हासिल कर सकते हैं। परिशिष्टों का क्रम इस प्रकार है
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१६]
व्यवहार भाष्य
व्यवहारभाष्य गाथानुक्रम
२. नियुक्ति-गाथानुक्रम ३. सूत्र से सम्बन्धित भाष्य गाथाओं का क्रम ४. टीका एवं भाष्य की गाथाओं का समीकरण ५. एकार्थक ६. निरुक्त ७. देशीशब्द ८ कथाएं ६. परिभाषाएं १०. उपमा ११. निक्षिप्तशब्द १२. सूक्त-सुभाषित १३. अन्य ग्रंथों से तुलना १४. आयुर्वेद और आरोग्य १५. कायोत्सर्ग एवं ध्यान के विकीर्ण तथ्य १६. दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य १७. विशिष्ट विद्याएं १८ टीका में उद्धृत गाथाएं १६. विशेष नामानुक्रम २०. वर्गीकृत विशेष नामानुक्रम २१. टीका में संकेतित नियुक्तिस्थल २२. टीका में उद्धृत चूर्णि के संकेत २३. वर्गीकृत विषयानुक्रम
इन परिशिष्टों के साथ एक परिशिष्ट की कमी अखर रही है। यदि हम मूल ग्रंथ की अविकल शब्दसूची प्रस्तुत कर सकते तो शोध-विद्यार्थियों के लिए बहुत उपयोगी होती। इसकी आंशिक संपूर्ति परिशिष्ट नं. १६ एवं २० से हो सकेगी।
भाषा शैली ___आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी है।' नियुक्तियां प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। इनमें अर्धमागधी एवं महाराष्ट्री का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। प्रस्तुत ग्रंथ में भाषागत अनेक वैशिष्ट्य देखे जा सकते हैं।
प्राकृत भाषा में निबद्ध होने पर भी भाष्यकार ने अनेक स्थलों पर संस्कृत से प्रभावित भाषा के प्रयोग भी किये हैं। व्याकरण की दृष्टि से निम्न उद्धरण महत्त्वपूर्ण हैं१. जद्द वि (४०५४)
३. पाहु (३७६७) २. अगुरोरवि (४६०१) ४. कासवसि (५३८)
ऐसे प्रयोग प्रायः सामान्य प्राकृत में नहीं मिलते। इनके स्थान पर 'जइ वि' 'अगुरु वि' तथा 'आह' पाठ मिलते हैं। ये प्रयोग संस्कृत के अधिक निकट हैं। ऐसे और भी अनेक प्रयोग भाष्य में यत्र-तत्र देखने को मिलते हैं।
१. सम ३४/२२ : भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। २. कस्य त्वं असि-इन तीन शब्दों से कासवसि रूप बना है।
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सम्पादकीय
[१७
भाष्यकार ने एक ही शब्द के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे-सूर्य के लिए दिणकर, आइच्च, सूर तथा गधे के लिए खर, गद्दभ, रासह आदि शब्दों का प्रयोग किया है। लेकिन कहीं-कहीं विशेष प्रयोजन से एक ही शब्द या चरण की पुनरुक्ति भी भाष्यकार ने की है
सई जंपति रायाणो, सई जंपंति धम्मिया। सई जंपंति देवावि, तं पि ताव सई वदे ॥ (३३२६)
इसी प्रकार १६८२ से १६८५ तक की चार गाथाओं का उत्तरार्ध एक जैसा है-जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमायति।
स्थान-स्थान पर अनेक एकार्थकों का प्रयोग भाष्य में मिलता है। अनेक ऐसे एकार्थक हैं, जिन्हें अन्य कोशों में नहीं देखा जा सकता। जैसे
लोट्टण लुटण पलोट्टण, ओहाणं चेव एगट्ठा। (६०७) बहुजणमाइण्णं पुण, जीयं उचियं ति एगळं। (६)
भाष्यकार ने प्रसंगवश अनेक निरुक्तों का भी उल्लेख किया है जो भाषा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे-व्यवहार शब्द का निरुक्त-विविहं वा विहिणा वा,ववणं हरणं च ववहारो (गा.३)।
आप्त शब्द का निरुक्त-णाणमादीणि अत्ताणि तेण अत्ता उ सो भवे (४०६३) अनेक स्थलों पर शब्द का संक्षिप्त अर्थ भी गाथाओं में दिया है जैसेरहिते णाम असंते (४५१०) वत्तो णामं एक्कसि (४५२२) अणुवत्तो जो पुणो बितियवारं (४५२२) तइयवारं पवत्तो (४५२२) पया उ चुल्ली समक्खाता (३७१६)
संस्कृत ग्रन्थों में ऐसे प्रयोग कम देखने को मिलते हैं। व्याकरण एवं भाषा की दृष्टि से ये महत्त्वपूर्ण प्रयोग हैं। प्रस्तुत भाष्य में कहीं-कहीं भाषा सम्बन्धी नए प्रयोग भी मिलते हैं। जैसे निरुत्तर करने के अर्थ में 'अमुहं' शब्द का प्रयोग भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। (२५६६)
सैद्धान्तिक या तात्त्विक वर्णम करते समय भाष्यकार ने अनेक पारिभाषिक शब्दों की परिभाषा भी स्पष्ट कर दी है। परिशिष्ट नं. ६ में हमने उन परिभाषाओं का संकलन किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के भाषागत वैशिष्ट्य का एक कारण है-अनेक सूक्त एवं सुभाषितों का प्रयोग। सूक्तियों के प्रयोग से ग्रन्थ की भाषा सरस, मार्मिक, वेधक एवं प्रभावोत्पादक बन गई है। कहीं-कहीं तो जीवनगत मूल्यों के गंभीरतम तथ्य बहुत सरल एवं सहज भाषा में प्रकट हुए हैं
न उ सच्छंदया सेया। (८६) तणाण लहुतरो होहं इति वज्जेति पावगं। (२७५५)
अनेक उपमाओं के प्रयोग से ग्रन्थ की भाषा में विचित्रता एवं सरसता उत्पन्न हो गई है। भाष्यकार ने अनेक नवीन उपमाओं का प्रयोग किया है। जैसे-निहाणसम ओमराइणिए (गा. २३३७)। मन की चंचलता को व्यक्त करने वाली उपमाएं भाष्यकार के मस्तिष्क की नयी उपज है (गा. २७५७६४)। किसी भी विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्तों का प्रयोग तो बहत अधिक में किया गया है। ये दृष्टान्त लौकिक दृष्टि से ही नहीं, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
भाष्यकार ने गहन विषयों को सरसता से समझाने के लिए अनेक कथाओं का संकेत दिया है। कुछ कथाओं को छोड़कर लगभग सभी कथाएं इतनी संक्षिप्त हैं कि बिना टीका के उन्हें समझ पाना कठिन है। परिशिष्ट नं. ८ में हमने भाष्य में आई
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१८]
व्यवहार भाष्य
सभी कथाओं का टीका के आधार पर अनुवाद प्रस्तुत किया है। हमने कथाओं का विषयानुगत वर्गीकरण न कर भाष्यगाथाओं के क्रम से ही उनको प्रस्तुत किया है।
टीका में कुछ कथाएं संस्कृत में तथा कुछ प्राकृत में हैं। प्राकृत की कथाएं टीकाकार ने निशीथ चूर्णि, दशवैकालिक चूर्णि, आवश्यक चूर्णि आदि चूर्णि-ग्रन्थों से ली हैं, ऐसा प्रतीत होता है। निशीथ चूर्णि के चौथे भाग में आई अनेक कथाएं व्यभा के प्रथम उद्देशक में वर्णित कथाओं से शब्दशः मिलती हैं। कथा नं. ६६ से ७२ तक की कथाएं पंचतंत्र से प्रभावित हैं। कथा परिशिष्ट में कुछ अत्यन्त संक्षिप्त कथाएं भी हैं। कहीं-कहीं भाष्यकार ने कथा का संकेत दिया है लेकिन टीकाकार ने उस कथा की कोई व्याख्या नहीं की है। उनका अनुवाद हमने प्रस्तुत नहीं किया है। जैसे ५६१ वीं गाथा में अनुशिष्टि के अन्तर्गत सुभद्रा एवं उपालम्भ में मृगावती की कथा, १०७६ वीं गाथा में भय से क्षिप्तचित्त बने सोमिल ब्राह्मण की कथा तथा ४४२० वीं गाथा में चाणक्य और सुबंधु की कथा आदि। लेकिन ऐसे प्रसंग बहुत कम हैं जहां टीकाकार ने कथा का विस्तार या स्पष्टीकरण न किया हो।
भाष्यकार ने धर्म, इतिहास, एवं समाज से सम्बन्धित कथाओं का उल्लेख किया है किंतु इनमें राजनीति से सम्बंधित कथाएं अधिक हैं। इन कथाओं के माध्यम से उस समय की राज्य व्यवस्था, युद्ध, राजा की दूरदर्शिता आदि का ज्ञान किया जा सकता है।
भाष्यकार ने अनेक स्थलों पर प्रसंगवश व्याकरण सम्बन्धी विमर्श भी प्रस्तुत किया है। एक ही अव्यय अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है इसका संकेत करते हुए भाष्यकार लिखते हैं
अपरीमाणे पिहब्भावे, एगत्ते अवधारणे। एवं सद्दो उ एतेसुं, एगत्ते तु इहं भवे ॥ (१६५४)
‘एवं'-यह अव्यय चार अर्थों में प्रयुक्त होता है-अपरीमाण, पृथक्भाव, एकत्व और अवधारण। इसी प्रकार 'सिया' (स्यात्) अव्यय आशंका एवं अवधृत अर्थ में प्रसिद्ध है-आसंकमवहितम्मि सिया 'नो' अव्यय देशतः प्रतिषेध अर्थ में प्रयुक्त होता है-नोकारो खलु देसं पडिसेहती (१३६०) ।
व्याकरण एवं भाषाशास्त्र की दृष्टि से निर्देशवाची शब्दों के प्रयोग भी द्रष्टव्य हैं-जेत्ति व से त्ति व के त्ति व निदेसा होति एवमादीया (१८७)।
प्राकृत भाषा में प्रायः अलाक्षणिक 'मकार' का प्रयोग मिलता है। परन्तु प्रस्तुत भाष्य में अलाक्षणिक 'हकार' का भी प्रयोग हुआ है। जैसे 'सीसाहा। भाष्यकार ने उच्चारण की अशुद्धि से होने वाले अनर्थ की ओर भी संकेत किया है। (गा. २०६५-६७)
__ भाष्यकार ने समास और व्यास दोनों शैलियों को अपनाया है। अनेक स्थलों पर .एक ही विषय या शब्द की विस्तृत व्याख्या की है; जैसे-'साधर्मिक' शब्द की व्याख्या तथा आचार्य को गोचरी नहीं करनी चाहिए आदि अनेक विषयों का वर्णन विस्तार से हुआ है। संक्षिप्त शैली के भी अनेक उदाहरण इस ग्रंथ में देखने को मिलेंगे। जैसे-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार एवं अनाचार की व्याख्या एक ही गाथा में बहुत कुशलता से कर दी है।
कहीं-कहीं तो इतनी संक्षिप्त शैली में वर्णन है कि बिना टीका के भाष्य को समझा ही नहीं जा सकता। जैसे- ७१वीं गाथा में 'काइ' शब्द में कायिक, वाचिक एवं मानसिक तीनों चेष्टाओं का समाहार है। तथा उसी गाथा में 'थद्ध'-शारीरिक जड़ता, 'फरुसत्त'-वाचिक कठोरता एवं 'नियडी'-मानसिक कपट का प्रतीक है।
'जाव' का प्रयोग प्रायः गद्य आगमों में मिलता है, लेकिन भाष्यकार ने इस ग्रंथ में इसका प्रयोग किया है। 'पियधम्मो जाव सुयं, (गाथा २६) में 'जाव' शब्द १४वीं गाथा का संक्षेपीकरण है। यहां 'जाव' शब्द से पियधम्म से लेकर बहुस्सुय तक के सभी विशेषण गृहीत हो जाते हैं। १४वीं गाथा नियुक्तिकार की है। इन विशेषणों का संकेत भाष्यकार ने २६वीं गाथा में किया है।
भाष्यकार ने अनेक विषयों को चतुर्भंगी के माध्यम से समझाया है। अनेक महत्त्वपूर्ण चतुर्भगिया इस भाष्य में मिलती हैं।
१. व्यभा १३२४ टी. प. ७७, हकारोऽलाक्षणिकः । २. व्यभा ४३ : आधाकम्मनिमंतण, पडिसुणमाणे अतिक्कमो होति।
पदभेदादि वतिक्कम, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥ ३. व्यभा ६३
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सम्पादकीय
[१६
अनेक लौकिक एवं सैद्धान्तिक न्यायों का प्रयोग भी भाष्य में यत्र-तत्र देखने को मिलता हैलोगम्मि सयमवज्रं, होइ अदंडं सहस्स मा एवं (१६३६)। न हि अग्गिनाणतोऽग्गीणाणं (२०६)।
कुछ न्यायों का भाष्यकार ने संकेत मात्र किया है लेकिन टीकाकार ने उनकी विस्तृत व्याख्या दी है. जैसे-'वणिग्न्याय,
अलंकार
यद्यपि प्राकृत के आचार-प्रधान ग्रंथों में अलंकारों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है, परंतु इस भाष्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का प्रयोग भी यत्र-तत्र मिलता है। रूपक अलंकार के उदाहरण
वयणघरवासिणी वि हु, न मुंडिया ते कहं जीहा? (२५८५)। पव्वयहिययं पि संपकप्पंति (२४६४) ।
तव-नियम-नाणरुक्खं (४४४७) । उपमा अलंकार के उदाहरण
कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं (२०००)।
सेविज्जतं विहंगेहिं, सरं व कमलोज्जलं, (२००१)। छंद विमर्श
भाष्य पद्यबद्ध रचना है। यह अनेक छंदों में निबद्ध है। भाष्यकार ने मुख्यतः मात्रा छंद के अन्तर्गत आर्याछंद का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त बीच-बीच में अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है। आर्या छंद की अनेक 'उपजातियां हैं। प्रस्तुत भाष्य में भी आर्या की कुछ उपजातियों का प्रयोग मिलता है।
छंद में मात्रा का बहुत महत्त्व होता है। इस दृष्टि से कभी-कभी ग्रंथकार को उत्क्रम भी करना होता है। भाष्यकार स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते हैं-बंधाणुलोमयाए, उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स (७१६)। छंद की दृष्टि से भाष्यकार ने कहीं-कहीं शब्दों का संक्षेपीकरण भी किया है। जैसे
जीवा-जीविता साग-श्रावक जीए-जीवित
आत-आयात आदि। प्रस्तुत ग्रंथ में अनेक स्थलों पर एक ही गाथा में अनुष्टुप एवं आर्या-दोनों छंदों का प्रयोग हुआ है। जैसे-तीन चरण आर्या के तथा एक अनुष्टुप् का अथवा तीन चरण अनुष्टुप् के तथा एक आर्या का। जहां भी छंदों का मिश्रण हुआ है, हमने पादटिप्पण में उसका उल्लेख कर दिया है।
कहीं-कहीं शब्द का विस्तार एवं मात्रा का दीर्धीकरण भी किया हैनिमित्ताग-निमित्त आयरीओ-आयरिओ एवमागम-एवागम
छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर भाष्यकार ने निर्विभक्तिक प्रयोग भी किए हैं। तथा जे, इ, मो, च आदि पादपूर्ति रूप अव्ययों का प्रयोग भी किया है। १. व्यमा १२०० टी. प. ५१ ।
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२०]
व्यवहार भाष्य
छंद के आधार पर भी हमने पाठ-निर्धारण करने का प्रयत्न किया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ी गयी हैं। मुद्रित टीका एवं हस्तप्रतियों में अनेक स्थलों पर पूर्वार्द्ध के शब्द उत्तरार्ध में तथा उत्तरार्ध के पूर्वार्द्ध के साथ संलग्न हैं। बिना छंद की दृष्टि से ऐसी अशुद्धियों को पकड़ना कठिन होता है। पश्चिमी विद्वान डॉ. ल्यूमेन ने दशवैकालिक तथा एल्फ्सडोर्फ ने उत्तराध्ययन का छंद की दृष्टि से अनेक स्थलों पर पाठ-संशोधन एवं विमर्श किया है।
छंद की दृष्टि से कहीं-कहीं हमने द्वित्व पाठ भी स्वीकृत किया है जैसे 'अगीत' के स्थान पर 'अग्गीत', 'सचित्त' के स्थान पर 'सच्चित्त', 'अफासु' के स्थान पर 'अप्फासु' आदि।
जहां कहीं हमें छंद की दृष्टि से पाठ संगत नहीं लगा वहां हमने उसका वैकल्पिक पाठ क्या होना चाहिए उसका निर्देश पादटिप्पण में कर दिया है। लेकिन जहां भिन्न पाठ स्वीकृत किया है, उसका उल्लेख भी प्रामाणिकता की दृष्टि से नीचे पादटिप्पण में कर दिया है-जैसे १५६वीं गाथा में प्रतियों में पढमो इंदो-इंदो त्ति' पाठ मिलता है पर हमने 'पढमो त्ति इंद इंदो' पाठ स्वीकृत किया है। इसी प्रकार प्रतियों में इस गाथा का चौथा चरण 'रस्सिणो त्ति चरमो घड पडो त्ति' पाठ मिलता है पर हमने 'रस्सी चरमो घड पडोत्ति' पाठ स्वीकृत किया है।
छंद की दृष्टि से मात्रा को ह्रस्व करने के लिए चिह्न का प्रयोग किया है। कम्प्यूटर में प्रकाशित होने के कारण चिह्न मात्रा के साथ मिलकर ऊर्ध्व 'र' की भ्रान्ति उत्पन्न करता है, जैसे-करें पगते बितिओं आदि।
अनेक स्थलों पर सप्तमी के लिए प्रयुक्त एकार विभक्ति के स्थान पर इकार विभक्ति का पाठ स्वीकृत किया है। जैसे गाथा २० में 'अवंके' और 'अवंकि' दोनों पाठ मिलते हैं, पर हमने 'अवंकि' पाठ स्वीकृत किया है।
हमने एक प्रयत्न प्रारम्भ किया था कि सम्पूर्ण ग्रंथ में कौन-सी गाथा में कौनसा छंद प्रयुक्त हुआ है, इसका एक चार्ट प्रस्तुत किया जाए लेकिन समयाभाव के कारण यह कार्य सम्पन्न नहीं हो सका।
पाठ-संपादन
भारतीय परम्परा में मौखिक ज्ञान की परम्परा या गुरुमुख से प्राप्त ज्ञान का अधिक महत्त्व रहा है। यही कारण है कि यहां हजारों वर्षों तक कंठस्थ ज्ञान की परम्परा चलती रही। ज्ञान की इस विधि में किसी बाह्य उपकरण की अपेक्षा नहीं रहती थी। गुरुमुख से साक्षात् ज्ञान होने के कारण विद्यार्थी की उच्चारण-शुद्धि एवं बोलने में शब्दों के उतार-चढ़ाव का ज्ञान भी सहज हो जाता था। मौखिक परम्परा का महत्त्व संस्कृत के निम्न सुभाषित से समझा जा सकता है
पुस्तकप्रत्ययाधीतं, नाधीतं गुरुसन्निधौ। भ्राजते न सभामध्ये, जारगर्भ इव स्त्रियः॥
वीर निर्वाण के बाद लगभग १००० वर्ष तक आगम मौखिक परम्परा से सुरक्षित रहे। भाष्य एवं नियुक्ति-साहित्य भी सैकड़ों वर्षों तक मौखिक परम्परा से संक्रान्त होते रहे। अतः लेखक द्वारा स्वतः लिखी हुई या उसके द्वारा संशोधित या प्रमाणीकृत भाष्य आदि की कोई प्रति आज नहीं मिलती।।
वैदिकों ने मौखिक परम्परा से ही वेदों की सुरक्षा अत्यन्त जागरूकता से की। ब्राह्मण वर्ग ने स्वर के आरोह-अवरोह आदि अनेक उच्चारणों से वेदपाठ की सुरक्षा की। आज भी वेदों का अस्खलित पाठ करने वाले अनेक वेदपाठी ब्राह्मण मिलते हैं। किंतु जैन आगमों का बहुत बड़ा भाग काल के अंतराल में विस्मृत एवं लुप्त हो गया। आचारांग का प्रमाण नंदी में १८ हजार श्लोक प्रमाण मिलता है लेकिन आज उसका अधिकांश भाग लुप्त हो गया है। वेदों में पाठान्तर न आने का एक कारण संभवतः यह रहा कि वेदों को अपौरुषेय मानकर उन्हें अलौकिक ग्रंथ की कोटि में रखा गया। अतः किसी भी विद्वान ने उसमें भाषा या विषय सम्बन्धी परिवर्तन की हिम्मत नहीं की लेकिन जैन आगमों के विषय में यह बात नहीं रही। वाचनाकाल में जैन आगमों का परिवर्धन एवं परिवर्तन भी हुआ है। स्थानांग में अनेक ऐसे स्थल हैं, जो बाद में प्रक्षिप्त हैं।
जैन आगमों के पाठ सुरक्षित न रहने का एक मुख्य कारण यह भी रहा है कि आचार्यों ने आगम-वाचना को केवल साधु-समुदाय तक सीमित रखा, गृहस्थों को वाचना देने का अधिकारी नहीं समझा गया।
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सम्पादकीय
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लेखन की परम्परा कब प्रारम्भ हुई इसका प्रामाणिक विवरण नहीं मिलता। पर ऐतिहासिक श्रुति के अनुसार प्राग् ऐतिहासिक काल में ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपिकला का ज्ञान कराया, जिसके आधार पर उस लिपि का नाम ब्राह्मीलिपि पड़ा । ७२ कलाओं में भी लेखनकला को एक स्थान प्राप्त है ।
आगमों को लिपिबद्ध करने का महत्त्वपूर्ण कार्य देवर्धिगणि ने प्रारम्भ किया। संभव है प्रारम्भ में साधु-साध्वी समुदाय ही लिपिक का कार्य करते थे किन्तु कालान्तर में वैतनिक लिपिकों का उपयोग अधिक किया जाने लगा यतिवर्ग ने भी आगमों की प्रतिलिपि करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। सेठ लोग प्रतिलिपि करवाकर साधुओं को दान में देते थे तथा इसे पुण्य का कार्य मानते थे। पद्मपुराण के उत्तरखंड में वर्णन आता है कि पुस्तक को दान में देने से देवत्व की प्राप्ति होती है। वैदिक परम्परा में भी प्रति लेखन को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। गरुड़ पुराण का निम्न श्लोक इसी बात की पुष्टि करता है
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प्राचीन काल में ग्रंथ के प्रचार- प्रसार का यही साधन था । आज कल्पसूत्र की हजारों प्रतियां भंडारों में मिलती हैं । उनमें अनेक स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं ।
हस्तप्रतियों से प्राचीन ग्रंथों का पाठ संपादन श्रमसाध्य एवं कष्ट साध्य कार्य है। बिना धैर्य एवं स्थिरता के यह कार्य होना कठिन है। पाठ-निर्धारण में पौर्वापर्य का अनुसंधान करना अत्यन्त अपेक्षित रहता है। उसके लिए अनुसंधाता को एक-एक शब्द पर चिन्तन केन्द्रित करना पड़ता है ।
पाठ संपादन की प्रक्रिया
इतिहासपुराणाणि लिखित्वा यः प्रयच्छति । ब्रह्मदानसमं पुण्यं प्राप्नोति द्विगुणीकृतम् ॥
३
आधुनिक विद्वानों ने पाठानुसंधान के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला है। पाश्चात्य विद्वान् इस कार्य को चार भागों में विभक्त करते हैं - १. सामग्री संकलन, २. पाठचयन, ३. पाठसुधार, ४. उच्चतर आलोचना । प्रस्तुत भाष्य के संपादन में हमने चारों बातों का ध्यान रखने का प्रयत्न किया है ।
पाठ संशोधन के लिए तीन आधार हमारे सामने रहे हैं - १. व्यवहार भाष्य की हस्तलिखित प्रतियां २. मलयगिरि की प्रकाशित टीका ३. व्यवहार भाष्य की सैकड़ों गाथाएं जो बृहत्कल्प, निशीथ एवं जीतकल्प आदि के भाष्यों में मिलती हैं।
बृहत्काय ग्रंथ होने के कारण व्यवहार भाष्य की ताड़पत्रीय प्रतियां कम लिखी गयीं । अतः पन्द्रहवीं - सोलहवीं शती में कागज पर लिखी प्रतियों का ही हमने उपयोग किया है। पाठ संशोधन में चार प्रतियां मुख्य रही हैं पाठ चयन में हमने प्रतियों के पाठ को प्रमुखता दी है किन्तु किसी एक प्रति को ही पाठ चयन का आधार नहीं बनाया है और न ही बहुमत के आधार पर पाठ का निर्णय किया है । अर्थ-मीमांसा, टीका की व्याख्या, पौर्वापर्य के आधार पर जो पाठ संगत लगा उसे मूल पाठ के अन्तर्गत रखा
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है।
पाठ-संपादन एवं निर्धारण में मलयगिरि की टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा । अनेक पाठ हस्तप्रतियों में स्पष्ट नहीं थे कि टीका की व्याख्या से उनकी स्पष्टता हो गई। जैसे २६६वीं गाथा में सभी प्रतियों में 'च इमो' पाठ है लेकिन टीका में 'व्रजामः' के आधार पर यह स्पष्ट हुआ कि 'वइमो' पाठ होना चाहिए । हस्तप्रतियों में 'च' और 'व' का अंतर करना अत्यन्त कठिन है । इसी प्रकार गाथा १६६८ में प्रतियों में 'गीयत्यो होइण्णा' एवं 'गीयत्येहाइण्णा' दोनों पाठ मिले पर टीका के 'गीतार्थैराचीर्णा' के आधार पर 'गीयत्येहाइण्णा' ( गीयत्थेहि आइण्णा) पाठ स्पष्ट हो गया।
कहीं-कहीं सभी प्रतियों में एक ही पाठ मिलने पर भी यदि पूर्वापर के आधार पर टीका का पाठ उचित लगा तो उसे हमने मूलपाठ में रखा है तथा प्रतियों के पाठ को पाठान्तर में दिया है गा. ३६६० में प्रतियों में 'अण्णवरा' पाठ मिलता है किंतु यहां १. बलाहपुरम्म नपरे देवहिपमुहेण समणसंघेण ।
पुत्थट्ठ आगमु लिहिओ, नवसय असीयाओ वीराओ ॥
२. पद्मपुराण, उत्तरखंड अ. ११७ ।
३. गरुड़पुराण अ. २१५ ।
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२२]
व्यवहार भाष्य
टीका की व्याख्या एवं पौर्वापर्य के अनुसार 'अणंतरा' पाठ अधिक संगत लगता है।
अनेक स्थलों पर जहां प्रतियों एवं टीका में एक ही अर्थ के दो पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग मिलता है, वहां हमने टीका की व्याख्या में मिलने वाले पाठ को प्राथमिकता दी है। जैसे ४३वीं गाथा में सभी प्रतियों में 'आहाकम्मामंतण' पाठ मिलता है। हमने टीका की व्याख्या के आधार पर 'आहाकम्मनिमंतण' पाठ स्वीकृत किया है। इसी प्रकार सभी प्रतियों में 'निग्गमप्पवेसे' पाठ मिलता है पर हमने टीका का 'निक्खमप्पवेसे' पाठ स्वीकृत किया है।
आवश्यक नियुक्ति, निशीथ एवं बृहत्कल्प आदि के भाष्यों की सैकड़ों गाथाएं व्यवहार भाष्य में संक्रान्त हुई हैं। अतः अनेक स्थलों पर अन्य ग्रंथों के पाठ के आधार पर भी पाठ का निर्धारण किया है। अनेक गाथाएं जो न अन्य ग्रंथों में हैं और न टीका में व्याख्यात हैं वहां केवल प्रतियों तथा प्रसंग की समीचीनता के आधार पर ही पाठ संशोधन किया है।
कहीं-कहीं किसी प्रति में कोई शब्द, चरण या गाथा नहीं है उसका निर्देश हमने पादटिप्पण में x चिह्न द्वारा किया है। जहां पाठान्तर एक से अधिक शब्दों पर या एक चरण पर है उसे ' ' चिह्न द्वारा दर्शाया है, जिससे पाठक को सुविधा हो सके।
प्रस्तुत भाष्य में जहां भी समान गाथाएं पुनरुक्त हुई हैं उनमें जहां जैसा पाठ मिला उसको वैसे ही रखा है। अपनी ओर से पाठ को संवादी या समान बनाने का प्रयत्न नहीं किया, जैसे-व्यभा १६१ तथा ६०६ ।।
जहां कहीं हमें प्रति में प्राचीन रूप मिले वहां मूलपाठ में उन्हीं को प्रधानता दी है, लेकिन जहां प्रतियों में पाठ नहीं मिले वहां उन पाठों को तद्वत् रखा है। प्राचीनता के व्यामोह में व्यञ्जनों को बदलने की कोशिश नहीं की है। प्रामाणिकता की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक था अतः इसी ग्रंथ में पाठकों को जध-जह, एते-एए, जीत-जीयं, तित्थगर-तित्थयर, होति-होइ आदि दोनों प्रकार के पाठ मिलेंगे।
प्राचीनता की दृष्टि से जहां कहीं हमें मूल व्यञ्जनयुक्त पाठ मिला हमने उसे मूल में स्वीकार किया है लेकिन पाठ न मिलने पर यकारश्रुति वाले पाठ को स्वीकृत किया है, तकारश्रुति वाले पाठ जैसे-बितितो, कणतो, आयरितो, विणतो आदि को नहीं।
प्राकृत व्याकरण के अनुसार संयुक्त व्यंजन से पूर्व का स्वर ह्रस्व हो जाता है। हमें दोनों रूप मिले पर प्राचीनता की दृष्टि से हमने दीर्घ रूप को ही स्वीकार किया है और न मिलने पर यत्र-तत्र ह्रस्व रूप भी। ..
हेमचन्द्र की व्याकरण से प्रभावित व्यञ्जनविशेष एवं स्वरविशेष से जुड़े पाठान्तरों का हमने प्रायः उल्लेख नहीं किया है। जैसेआदेस-आएस
तधा-तहा होति-होइ
बोधव्वा-बोद्धब्बा कुक्कुडग-कुक्कुडय
पण्णा-पन्ना असंखेज-असंखिज्ज
तेणोत्ति-तेणुत्ति पभू-पहू
सोधी-सोही परिसडिति-परिसडेंति
साहइ-साहई कधिति-कति आदि।
सप्तमी आदि विभक्ति के लिए 'य' का प्रयोग प्राचीन है। अतः जहां भी हमें 'य' विभक्ति वाले पाठ मिले वहां हमने उनको प्राथमिकता दी है। जैसे-वीसाय, वीसुभिताय आदि। इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति के अर्थ में जहाँ अंसि और म्मि दोनों विभक्ति वाले रूप मिले वहां हमने अंसि विभक्ति वाले रूप को प्राचीन मानकर स्वीकृत किया है। जैसे पुव्वंसि, चित्तंसि आदि।
अनेक स्थलों पर स्पष्ट प्रतीत होता था कि हस्तप्रतियों में लिपिकर्ता द्वारा लिपि सम्बंधी भूल से पाठभेद हुआ है, उन पाठान्तरों का उल्लेख प्रायः नहीं किया है। पर कहीं-कहीं उसके दूसरे रूप बनने की संभावना थी, वहां ऐतिहासिकता की दृष्टि से भी हमने उन पाठान्तरों का उल्लेख किया है, जैसे-ठावित्तु-वावित्तु।
नीचे टिप्पणों में दी गईं अतिरिक्त गाथाओं के पाठान्तरों का हमने उल्लेख नहीं किया है पर उनके पाठशोधन का लक्ष्य अवश्य रखा है।
सम्पादन की असावधानी के कारण टीकायुक्त प्रकाशित व्यवहार भाष्य में अनेक स्थलों पर अशुद्धियां रह गयी हैं। उसमें
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सम्पादकीय
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छूट
शब्दों की जोड़-तोड़ संबंधी अनेक अशुद्धियां हैं, जैसे- तु दडिव (तुद डेव ) व्यभा ६५ आदि अनेक स्थलों पर शब्द भी हैं जैसे- गा० ५८ में 'अन्नं च छाउमत्थो' के स्थान पर 'छाउमत्थो' से गाथा प्रारम्भ होती है ।
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कहीं-कहीं श्लोक के पूर्वार्द्ध के शब्द उत्तरार्ध तथा उत्तरार्ध के शब्द पूर्वार्द्ध में छप गये हैं। अनेक स्थलों पर तो संस्कृत के शब्द भी छप गये हैं। जैसे- ३०८६५वीं गाया में 'पूर्व तु किटी असतीए' आदि अनेक अशुद्धियों के कारण मुद्रित व्यवहार भाष्य के केवल महत्त्वपूर्ण पाठान्तरों का ही हमने उल्लेख किया है।
अन्य ग्रन्थों में प्रकाशित व्यभा के संवादी गाथा के पाठान्तर देने का उद्देश्य था कि विद्वानों को एक ही स्थान पर पाठभेद देखने में सुविधा हो सके।
टीकाकार की विशेष टिप्पणी का भी हमने टिप्पण में उल्लेख किया है। जहां कहीं टीकाकार ने किसी विशेष शब्द का संक्षिप्त अर्थ किया है उसका टिप्पण में उल्लेख कर दिया गया है जैसे-एकाहं नाम अभक्तार्थः आदि इसी प्रकार देशी शब्दों के लिए जहां कहीं 'देशीत्यात्' 'देशीवचनमेतत्' आदि का उल्लेख हुआ है उनका भी टिप्पणों में उल्लेख कर दिया गया है। जैसे मूइंग इति देशीपदं मत्कोटवाचकम् आदि ।
यत्र-तत्र टीकाकार ने अलाक्षणिक मकार, पादपूर्ति रूप जे, इ, र आदि का उल्लेख किया है, उसका भी हमने पादटिप्पण में उल्लेख किया है। तथा अन्य व्याकरण सम्बन्धी विशिष्ट निर्देश का उल्लेख भी पादटिप्पण में किया है। जैसे- सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात् ।
हस्तप्रतियों में अनेक गाथाओं के आगे 'दार' का उल्लेख है पर उन सबको द्वारगाथा नहीं माना जा सकता। फिर भी यदि एक भी प्रति में 'दार' का उल्लेख है तो हमने उस गाथा के आगे 'दार' का संकेत कर दिया है।
व्यवहार भाष्य में कहीं-कहीं गाथाओं का क्रमव्यत्यय मिलता है। इसका संभवतः एक कारण यह रहा होगा कि प्रति लिखते समय लिपिकार द्वारा बीच में एक गाथा छूट गयी। बाद में ध्यान आने पर वह गाथा दो या तीन गाथा के बाद लिख दी गयी । प्रति की सुंदरता को ध्यान में रखते हुए इस बात का संकेत नहीं दिया गया कि गाथा में क्रमव्यत्यय हुआ है। इस बात की पुष्टि टीका की व्याख्या के आधार पर तथा पौर्वापर्य के आधार पर हो जाती है। ऐसे स्थलों का हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है, जैसे - व्यभा. गा. ३२७ ।
कहीं-कहीं प्रतियों में लिपिकार की अनवधानता से पूर्ववर्ती गाथा का पूर्वार्द्ध तथा बाद में आने वाली गाथा का उत्तरार्ध लिख दिया गया है। बीच की दो लाइनें छूट गयीं। ऐसे प्रसंगों का हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है।
आदर्शों का लेखन मुनि एवं यतिवर्ग करते थे। वे व्याख्यान की सामग्री के लिए प्रसंगवश कुछ संवादी गाथाओं को हासिए में लिख देते थे। कालान्तर में अन्य लिपिकों द्वारा जब उस आदर्श की प्रतिलिपि की जाती तब 'हासिए' में लिखी गाथाएं मूल में लिख दी जातीं। व्यवहार भाष्य में भी अनेक गाथाएं प्रसंगवश प्रक्षिप्त हुई हैं। उदाहरण के लिए निम्न उद्धरण प्रस्तुत किया जा सकता है
गये
I
अमिलायमल्ल (गा. १२७८) गाथा का मूल भाष्य के साथ कोई संबंध नहीं है टीका में रोहिणेय की कथा दी गयी है। उसमें यह गाया रोहिणेय के मुख से कहलवाई है। लेकिन कालान्तर में यह गाथा मूल भाष्य के साथ जुड़ गयी। यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में मिलती है। अतः हमने भाष्य के क्रमांक में इसे जोड़ा है। कुछ गाथाएं अन्य आचार्यों की थीं। वे भी कालान्तर में भाष्य के साथ जुड़ गयीं, जैसे- २२४७ वीं गाथा के बारे में टीकाकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि अयमेव वृत्तबद्धोऽर्थोऽन्येनाचार्येण श्लोकेन बद्धस्तमेवाह।" यह गाथा २२४६ की ही संवादी है तथा अन्यकर्तृकी है पर यह कालान्तर में भाष्य के साथ जुड़ गयी। सभी हस्तप्रतियों में भी यह भाष्यगाथा के क्रम में है। जहां भी हमें गाथाएं प्रक्षिप्त लगीं उनके बारे में हमने पादटिप्पण में संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कर दी है।
प्राचीनकाल में पूर्ववर्ती आचार्यों की रचना को उत्तरवर्ती आचार्य आंशिक रूप से अपनी रचना के साथ बिना किसी नामोल्लेख के जोड़ लेते थे । अथवा कुछ पाठभेद के साथ उसे अपनी रचना का अंग बना लेते थे। जैसे आवश्यक निर्युक्ति की अस्वाध्याय संबंधी गाथाएं औघनियुक्ति, निशीथभाष्य तथा व्यवहारभाष्य में मिलती हैं। इस पूरे प्रकरण को भाष्यकार ने अपने ग्रंथ का अंग
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व्यवहार भाष्य
बना लिया है पर साथ ही गाथाओं में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किया है। कहीं-कहीं चरण एवं श्लोक का पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्ध भी परिवर्तित एवं आगे-पीछे मिलता है, जैसे-निशीथभाष्य की १२५३वीं गाथा का पूर्वार्द्ध व्यभा ३४२४ के पूर्वार्द्ध के समान है तथा उसका उत्तरार्ध व्यभा ३४२६ के पूर्वार्द्ध का संवादी है। हमने पादटिप्पण में भी सभी ग्रंथों के पाठभेद एवं संवादी प्रमाण दे दिये हैं जिससे शोध विद्यार्थी को यह परिवर्तन देखने में सुविधा हो सके। एक ही प्रकरण में इतने पाठभेद एवं परिवर्तन वाचनाभेद, स्मृतिभ्रंश तथा लिपिकों की असावधानी आदि अनेक कारणों से हो सकते हैं।
विद्वानों ने पाठभेद के अनेक कारणों की मीमांसा की है। उन कारणों का प्रभाव भाष्य की प्रतियों पर भी पड़ा है अतः कोई भी प्रति ऐसी नहीं मिली जिसके सभी पाठ दूसरी प्रति से मिलते हों। प्रयुक्त प्रतियों में वर्णसाम्य की त्रुटियां भी मिलती
न लिखे जाने के कारण उनका भेद करना कठिन होता है जैसे-च और व, ठ और व, द और ब। कहीं-कहीं वर्णसाम्य होने के कारण लिपिकारों द्वारा बीच का एक वर्ण छूट भी गया है जैसे-अववाय के स्थान पर अवाय, उववाय के स्थान पर उवाय आदि।
वर्ण विपर्यय से होने वाली अशुद्धियां भी इन प्रतियों में अनेक स्थलों पर मिलती हैं। जैसे-वेदयंतो-देवयंता, बितियोतिबियो गहणं-हगणं, मूलदेवो-देवमूलो आदि।
व्यञ्जन ही नहीं स्वर संबंधी विपर्यय के भी अनेक उदाहरण प्रयुक्त प्रतियों में देखने को मिलते हैं, जैसे-३६६१वीं गाथा में क प्रति में छम्मीसं के स्थान पर छम्मासं पाठ मिलता है।
प्रस्तुत ग्रंथ की हस्तप्रतियों में पाठभेद ही नहीं, गाथाओं में भी अनेक स्थलों पर विभेद मिलता है। किसी प्रति में एक गाथा मिलती है तो किसी में उसके स्थान पर उसी की संवादी अनेक गाथाएं भी प्राप्त होती हैं। औचित्य के अनुसार गाथाओं को मूल भाष्य में तथा पाठभेद की गाथाओं को टिप्पण में दे दिया है। उदाहरण के लिए देखें गा. ५८ ५६ एवं ८६८ की गाथाओं के टिप्पण।
अ प्रति में लिपिकार की लिखावट की भिन्नता अथवा उच्चारण भेद के प्रभाव से प्रायः ल के स्थान पर ण, भ के स्थान पर त तथा ध के स्थान पर व का प्रयोग मिलता है
वल्लिदुर्ग-वण्णिदुगं भिण्णपिंडं तिण्णपिंड
धमएण वमएण आदि। हमने कहीं-कहीं ही ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख किया है। प्रति परिचय
अ : यह प्रति देला के उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्त है। इसका क्रमांक ६४६६ है। इसमें १०६ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में करीबन १५ पंक्तियां हैं। प्रति साफ-सुथरी एवं स्पष्ट है। लिपिकार ने प्रशस्ति में २४ संस्कृत गाथाएं लिखी हैं तथा अंत में इति प्रशस्तिकाव्यानि पत्तनवास्तव्य सं. षीमसिंह. सहसाभ्यां। पु. समधर देवदत्त नोताइसर सुत हेमराज सोनपाल धरणा-अमोपाल-पूनपाल-आसपालप्रमुख कुटुंबयुताभ्यां लिखितमिदं पुस्तक। आचंद्रा( नंदतात्॥ सं० १५३८ वर्षे ॥२॥
ब : यह प्रति लालभाई दलपतभाई विद्या मंदिर अहमदाबाद से प्राप्त है। इसका क्रमांक १२ है। इसमें ७४ पत्र हैं। इसके अक्षर स्पष्ट एवं साफ हैं। अंतिम पत्र का पिछला पन्ना खाली है। प्रत्येक पत्र में लगभग १७ पंक्तियां हैं। इसके अंत में प्रशस्ति रूप में निम्न गाथा मिलती है
जयति जिणो वीरवरो, सक्खह तवणिज्जपुंजपिंजरदेहो। सबसुरासुरनरवर, मउडतडावली पावीढंताडो॥
गाथा ४६२६ ॥छ॥श्री॥ व्यवहारभाष्यं समाप्तं ॥श्री। अनुमानतः इसका समय १६वीं शती होना चाहिए। क : यह प्रति देला का उपाश्रय अहमदाबाद से प्राप्त है। इसका क्रमांक १०५१५ है। इसमें १२ पत्र हैं। वर्तमान में इसमें
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सम्पादकीय
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केवल दसवें उद्देशक की गाथाएं हैं। प्रत्येक पत्र में करीबन १८ पंक्तियां हैं। इसम प्रशस्तिरूप में ब प्रति वाली गाथा ही लिखी हुई है। गाथा ४६२६ व्यवहार भाष्य समाप्त ॥छ। प्रस्तुत प्रति ब प्रति से मिलती है। यह प्रति लगभग १६वीं शती की होनी चाहिए। यह प्रति किसी समय सम्पूर्ण थी लेकिन कालान्तर में इसके प्रारम्भिक पन्नों का लोप हो गया ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि पुष्पिका के अंत में ग्रंथाग्र ४६२६ लिखा हुआ है।
स : यह प्रति भंडारकर इंस्टीट्यूट पूना से प्राप्त है। इसमें कुल १२७ पत्र हैं। प्रत्येक पत्र में लगभग १३ पंक्तियां हैं। यह प्रति साफ-सुथरी है। अंत में प्रशस्ति रूप में जयति"ब प्रति वाली गाथा लिखी हुई है। प्रस्तुत गाथा के बाद “णमो सुतदेवयाए भगवतीए॥ इति व्यवहारभाष्यं समाप्तं। शुभं भवतु ।" का उल्लेख है। तथा इसके पश्चात् लिपिकर्ता की ओर से निम्न गाथा लिखी
यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा, तादृशं लक्षितं मया।
यथो (अतो) शुद्धमशुद्धं वा, मम दोषो न दीयति (दीयते)। ॥कल्याणमस्तु॥ साह श्री वच्छासुत साहसहस्रकिरणेन पुस्तकमिदं गृहीतं सुतवर्द्धमानं शांतिदासपरिपालनार्थं नवूलखा व्य उ. जो उ लेखक जो . भूपति ॥ ग्रं. ५२०० माहाजतइ।
पुस्तक का अंतिम अवतरण पुष्पिका कहलाता है। उसमें दी गयी सूचनाएं ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती हैं। पर प्राचीन प्रतियों में लिपिकर्ता विशेष जानकारी प्रस्तुत नहीं करते थे अतः व्यभा की हस्तप्रतियों में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हुई है। चारों प्रतियों में भाष्यकार और रचनाकाल आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। आगमसाहित्य का सम्पादन
आज से चालीस वर्ष पूर्व मंचर (महाराष्ट्र) में पूज्य गुरुदेव के मन में आगम-सम्पादन की तीव्र इच्छा जागृत हुई। मुनि नथमल जी (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) ने गुरुदेव की इच्छा को संकल्प का रूप दिया और आगम-सम्पादन के कार अनेक साधु-साध्वियों की इस कार्य में नियुक्ति हुई और देखते-देखते यह कार्य गुरुदेव की प्रमुख प्रवृत्ति बन गया।
तब से लेकर अब तक आगम-सम्पादन का कार्य अबाध गति से चल रहा है। गुरुदेव तुलसी आगम कार्य के प्रति अपनी अनुभूति इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-"विहार चाहे कितना ही लम्बा क्यों न हो, आगम कार्य में कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। आगम-कार्य करते समय मेरा मानसिक तोष इतना बढ़ जाता है कि समस्त शारीरिक क्लांति मिट जाती है। आगम-कार्य हमारे लिए खुराक है। मेरा अनुमान है कि इस कार्य के परिपार्श्व में अनेक-अनेक साहित्यिक प्रवृत्तियां प्रारंभ होंगी, जिनसे हमारे शासन की बहुत प्रभावना होगी।"
गुरुदेव तुलसी के वाचना प्रमुखत्व एवं आचार्य श्री के सम्पादकीय कौशल से विशाल आगम-साहित्य प्रकाश में आ चुका है। बत्तीस आगम का मूलपाठ शब्द इन्डेक्स सहित प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक आगमों के अनूदित संस्करण भी प्रकाश में आए हैं। परिपार्श्व में आगम-साहित्य संबंधी अन्यान्य कार्य भी सम्पादित हुए हैं। एकार्थककोश, निरुक्तकोश, देशीशब्दकोश, आगंम वनस्पति कोश आदि। इन प्रकाशित आगम ग्रंथों को विद्वानों ने विशेष रूप से सराहा है तथा इस कार्य को अनुपम माना है। इस कार्य की उत्तमता और प्रामाणिकता में पूज्य गुरुदेव का असाम्प्रदायिक, उदार एवं विनम्र दृष्टिकोण प्रमुख रहा है। आगमकार्य प्रारम्भ करने से पूर्व पूज्य गुरुदेव ने आगम कार्य में संलग्न साधुओं को प्रतिबोध देते हुए कहा-“यह कार्य बहुत दायित्वपूर्ण है। इस गंभीर दायित्व का हमें अनुभव करना है। आगम का जो सही अर्थ है उसे पूरी सच्चाई के साथ प्रस्तुत करना है। हमारी साम्प्रदायिक परम्परा से भिन्न अर्थ फलित होता हो तो भले हो। हमें आगम के मौलिक अर्थ की प्रस्तुति करनी है। साम्प्रदायिक परम्परा भेद को पादटिप्पण में उल्लिखित किया जा सकता है किन्तु मूल में परिवर्तन या परिवर्धन नहीं करना है।" गुरुदेव के इस असाम्प्रदायिक एवं उदार दृष्टिकोण ने इस कार्य की गुरुता एवं महत्ता को शतगुणित कर दिया। आज तक सम्पादित एवं अनूदित प्रकाशित आगम-साहित्य की सूची इस प्रकार है
१. अंगसुत्ताणि भाग १, २, ३,-मूलपाठ, समीक्षात्मक पाठान्तर आदि।
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२६ ]
व्यवहार भाष्य
२. आगम शब्दकोश-अंगसुत्ताणि के तीनों भागों की समग्र शब्द-सूची। ३. नवसुत्ताणि-चार मूल, चार छेद तथा आवश्यक। ४. उवंगसुत्ताणि (खंड-१)-प्रथम तीन उपांग। ५. उवंगसुत्ताणि (खंड-२)-शेष नौ उपांग। निम्न आगम मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा विश्लेषणात्मक टिप्पणों से युक्त प्रकाशित हुए हैं६. दसवेआलियं ७. आयारो ८. ठाणं ६. समवाओ १०. सूयगडो भाग-१ ११. सूयगडो भाग-२ १२. उत्तरज्झयणाणि भाग-१ १३. उत्तरज्झयणाणि भाग-२ १४. आचारांगभाष्यम् १५. भगवतीभाष्यम् (दो शतक)
१६. गाथा कोश साहित्य
१. एकार्थककोश २. निरुक्तकोश ३. देशीशब्दकोश
४. आगम वनस्पति कोश प्रस्तुत ग्रंथ सम्पादन का इतिहास
आज से १७ साल पूर्व महावीर जयंती के अवसर पर पूज्य गुरुदेव एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी (वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ) की सन्निधि में पारमार्थिक शिक्षण संस्था की मुमुक्षु बहिनों की एक गोष्ठी आहूत की गयी। गोष्ठी के दौरान कुछ मुमुक्षु बहिनों को साध्वियों के निर्देशन में आगम कोश का कार्य करने का निर्देश मिला । लगभग १३ साल के पश्चात् कार्य में नियुक्त कुछ बहिनों की विलक्षण दीक्षा घोषित हो गयी। दीक्षित होने के बाद भी आगम कोश का कार्य तीव्रगति से चला। हजारों कार्ड बनाए पर वह कार्य कुछ कारणों से सफल नहीं हो सका। कार्य स्थगित हो गया पर इससे हमारा अनुभव वृद्धिंगत हुआ और उसके आलोक में अन्य कोशों की समायोजना की गई। उसमें मुख्य थे-एकार्थककोश, निरुक्तकोश एवं देशीशब्दकोश।
म संवत २०४०। नाथद्वारा मर्यादा महोत्सव के बाद मुनि श्री दलहराजजी को आगम कार्य के लिए लाडनूं भेजा गया। उनके लाडनूं आगमन से साध्वियों एवं समणियों के कार्य में गति आ गई। उनके निर्देशन में उपर्युक्त तीन कोश प्रकाश में आ गए। एकार्थक कोश की सम्पन्नता पर आचार्यवर ने मुझे नियुक्तियों के संपादन कार्य का निर्देश दिया। नियुक्तियों का कार्य लगभग सम्पन्नता पर था। उस समय पूना में कलघटगे जी से मिलना हुआ। उनकी ओर से एक सुझाव आया कि प्रकाशित व्यवहारभाष्य बहुत अशुद्ध है यदि उसका सम्पादन हो जाये तो कोशनिर्माण एवं अन्यान्य शोधकार्य में बहुत सहयोग मिल सकता है। उनके इस सुझाव की ओर पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री ने ध्यान दिया और मुझे व्यवहार भाष्य के सम्पादन का निर्देश मिला।
१. मुमुक्षु सरिता (समणी स्थितप्रज्ञा), मु. कुसुम (समणी कुसुमप्रज्ञा) मु. सविता (समणी स्मितप्रज्ञा, वर्तमान साध्वी विश्रुतविभा)।
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सम्पादकीय
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सन् १९८७ की अक्षय तृतीया को यह कार्य प्रारम्भ हुआ। लगभग ६ महीने में पांडुलिपि से सम्पादन का कार्य सम्पन्न हो गया। इसी बीच देशी शब्दकोश के कार्य में जुड़ने का भी मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। भाष्य का कार्य सम्पन्न होने पर भी प्रकाशन की ओर ध्यान नहीं दिया गया। सन् १६६४ दिल्ली चातुर्मास में इसके प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ हुआ। परिशिष्टों के निर्माण एवं प्रूफ रीडिंग में दो साल का समय लग गया। यद्यपि कार्य की सम्पन्नता में बहुत अनपेक्षित समय लगा है पर इसके भी कुछ कारण रहे हैं। गुरुदेव के निर्देशानुसार पूना से प्राप्त एक प्रति के पाठान्तर प्रूफ आने के बाद जोड़े गए हैं। इस कार्य में श्रम बहुत हुआ है पर संतोष है कि कार्य यथेष्ट रूप में सम्पन्न हो गया।
पूज्य गुरुदेव ने नारी को विकास के अनेक नए क्षितिज दिए हैं। साहित्य के क्षेत्र में तेरापंथ के साध्वी समाज ने नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। पूज्य गुरुदेव एवं आचार्यश्री की प्रेरणा से अनेक साध्वियां आगम-सम्पादन के कार्य में संलग्न हैं। भगवती-जोड़ के सम्पादन का गुरुतर कार्य, जिसके विषय में कल्पना करना भी साहसिक बात थी पर महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी के कुशल सम्पादकत्व में इसके छह खंड प्रकाश में आ गए हैं, सातवें खंड का कार्य चालू है।
पूज्य गुरुदेव ने अपने जीवन में नारी विकास के अनेक स्वप्न देखे हैं। और वे फलित भी हुए हैं। एक स्वप्न की चर्चा करते हुए बीदासर में (१२/२/६७) गुरुदेव ने कहा- 'मैं तो उस दिन का स्वप्न देखता हूं, जब साध्वियों द्वारा लिखी गयी टीकाएं या भाष्य सामने आएं। जिस दिन वे इस रूप में सामने आएंगी मैं अपने कार्य का एक अंग पूर्ण समझूगा।' गुरुदेव का यह स्वप्न पूर्ण रूप से सार्थक नहीं हुआ है पर इस दिशा में प्रस्थान हो चुका है। फिर भी हमें अत्यंत जागरूक रहकर उसे पूर्ण सार्थक करने का प्रयत्न करना है।
कृतज्ञता ज्ञापन
गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का नाम मेरे लिए मंगलमंत्र है। हर कार्य के प्रारम्भ में आदि मंगल के रूप में उनके नाम का स्मरण मेरे जीवन की दिनचर्या का स्वाभाविक क्रम बन गया है। इसलिए मेरी हर सफलता का श्रेय गुरु-चरणों को जाता है। मुझे हर पल यह अहसास होता रहा है कि उनके शक्ति-संप्रेषण एवं आशीर्वाद से ही यह कार्य सम्पन्न हो सका है। समय-समय पर मिलने वाली उनकी प्रेरणा एवं प्रोत्साहन ने भी अद्भुत गति एवं स्फूर्ति का संचार किया है।
आचार्य महाप्रज्ञजी श्रुत की उपासना में वर्षों से अहर्निश लगे हुए हैं। वे मूर्तिमान श्रुतपुरुष हैं। समय-समय पर उनके मार्गदर्शन ने मेरे कार्य को सुगम, सुगमतर, सुगमतम बनाया है। भविष्य में उनकी ज्ञानरश्मियों का आलोक मुझे मिलता रहे, यह अभीप्सा है।
प्रस्तुत कार्य की निर्विघ्न संपूर्ति में महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी के आशीर्वाद एवं निश्छल वात्सल्य का बहुत बड़ा योग रहा है। जब-जब निराशा या श्लथता का अनुभव हुआ, उनकी प्रेरणा ने नयी आशा एवं सक्रियता का संचार कर दिया। प्रतिदिन कार्य की अवगति लेने एवं समणियों को इस कार्य में नियुक्त करने से ही यह कार्य सम्पन्न हो पाया है। मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके उऋण नहीं होना चाहती। आकांक्षा है कि भविष्य में भी मेरी साहित्यिक यात्रा में उनका पथदर्शन और प्रोत्साहन निरन्तर मिलता रहे। इस कार्य में महाश्रमणजी की मूक प्रेरणाएं भी मेरे लिए मूल्यवान् रही हैं।
आगम कार्य में मुनि श्री दुलहराजजी का निर्देशन मुझे पिछले कई सालों से मिल रहा है। जिस निःस्वार्थ एवं निस्पृह भाव से उनका दिशादर्शन मिला है, वह केवल उल्लेखनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। पाठ-सम्पादन में अनेक स्थलों का विमर्श, विषयानुक्रमणिका एवं अनेक परिशिष्ट उनकी ज्ञान-चेतना के आलोक में ही सम्पन्न हो सके हैं।
अनेक परिशिष्टों की अनुक्रमणिका एवं प्रूफ देखने में मुनि श्री हीरालालजी का सहयोग भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित है। अत्यन्त सूक्ष्मता एवं लगन से अपना कार्य समझकर उन्होंने इस कार्य की सम्पूर्ति में अपना सहकार दिया है।
नियोजिका समणी मंगलप्रज्ञाजी ने व्यवस्थागत सहयोग से इस कार्य को हल्का बनाया है। लिपीकरण एवं प्रूफ-संशोधन में समणी ऋजुप्रज्ञाजी, कमला बैद एवं बहिन निर्मला चोरडिया का सहयोग विशेष स्मरणीय है। इसके अतिरिक्त अल्पकालिक समय के लिए प्रफ रीडिंग एवं लिपीकरण में समणी ज्योतिप्रज्ञा, मननप्रज्ञा, संघप्रज्ञा, कंचनप्रज्ञा एवं चैतन्यप्रज्ञा का नाम भी उल्लेखनीय है। प्रो. रानाडे ने बड़ी तत्परता एवं निष्ठा के साथ ग्रंथ की भूमिका के कुछ अंशों का अंग्रेजी अनुवाद किया है। समणी चारित्रप्रज्ञा
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२८]
व्यवहार भाष्य
ना
ने इसकी प्रतिलिपि में अपना समय लगाया है। प्रकाशन व्यवस्था में कुशलराजजी समदड़ियाजी की कार्यशीलता एवं कार्यप्रतिबद्धता भी इस कार्य को निष्ठा तक पंहुचाने में उपयोगी रही है।
ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिन-जिनका सहयोग इस कार्य की सम्पूर्ति में मिला है, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना मात्र उपचार होगा। हम सब एक डोर में बंधे हैं अतः संविभाग हमारा आत्मधर्म है। सबके सहयोग की स्मृति करते हुए मुझे अत्यन्त आत्मिक आह्लाद की अनुभूति हो रही है। मैं उन सबके प्रति अपनी मंगल भावना प्रस्तुत कर सबके आत्मोत्थान की कामना करती हूं।
समणी कुसुमप्रज्ञा
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
भरा
विषयानुक्रम १. आगमों का वर्गीकरण २. छेदसूत्रों का महत्त्व ३. छेदसूत्रों का कर्तृत्व ४. छेदसूत्रों का नामकरण ५. छेदसूत्रों की संख्या ६. छेदसूत्र किस अनुयोग में? ७. साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना ८ बृहत्कल्प और व्यवहार में भेद-अभेद ६ नियुक्तिकार १०. नियुक्ति एवं भाष्य का पृथक्करण ११. भाष्य १२. भाष्यकार १३. भाष्य का रचनाकाल १४. अन्य ग्रंथों पर प्रभाव १५. टीकाकार मलयगिरि १६. व्यवहार १७. आभवद् व्यवहार
. क्षेत्र आभवद् व्यवहार • श्रुत आभवद् व्यवहार • सुख-दुःख आभवद् व्यवहार . मार्गोपसंपद् आभवद् व्यवहार
. विनयोपसंपद् आभवद् व्यवहार १८ प्रायश्चित्त व्यवहार
२१. आज्ञा व्यवहार २२. धारणा व्यवहार २३. जीत व्यवहार
. व्यवहार पंचक का प्रयोग
. अन्य धर्मों से तुलना २४. व्यवहारी
. व्यवहारी की योग्यता २५. आगम व्यवहारी २६. श्रुत व्यवहारी २७. व्यवहर्त्तव्य २८ प्रायश्चित्त
• प्रायश्चित्ताह • प्रायश्चित्तवाहक
. प्रायश्चित्तदान में अनेकान्त २६. आलोचना
. आलोचना के लाभ . आलोचनाह • आलोचक के गुण . आलोचना का क्रम . आलोचना करने की विधि . आलोचना के दोष . आलोचना का काल
. आलोचना का स्थान एवं दिशा ३०. चित्त की अवस्थाएं
. क्षिप्तचित्त . क्षिप्तचित्तता : निवारण के उपाय • दृप्तचित्त
. उन्मत्तचित्त ३१. मनोरचना में क्षेत्र का प्रभाव ३२. भावधारा और आराधना
. सचित्त प्रायश्चित्त • अचित्त प्रायश्चित्त . क्षेत्र एवं काल विषयक प्रायश्चित्त
. भाव विषयक प्रायश्चित्त १६. आगम व्यवहार २०. श्रुत व्यवहार
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व्यवहार भाष्य
३३. प्रतिमाएं
• मोकप्रतिमा . यवमध्यचंद्रप्रतिमा . वज्रमध्यचंद्रप्रतिमा
.प्रतिमाप्रतिपन्न की योग्यता ३४. ऐतिहासिक तथ्य ३५. राज्यव्यवस्था के घटक तत्त्व
३६. राज्य का उत्तराधिकारी ३७. अंतःपुर ३८ गुप्तचर ३६. राज्यकर ४०. अर्थव्यवस्था ४१. सांस्कृतिक एवं सामाजिक तथ्य
• नारी
• राजा
• वास्तुविद्या
. दासप्रथा ४२. पर्यवलोकन
. वैद्य • धनवान् . नैयतिक .रूपयक्ष
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
आगमों का वर्गीकरण
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो भागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं-१. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग। आगम संकलन के समय आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया-अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य । नंदी में आगमों का विभाग काल की दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम 'उत्कालिक' कहलाते हैं। सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगम के चार विभाग मिलते हैं-अंग, उपांग, मूल एवं छेद। वर्तमान में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है।
छेदसूत्रों का महत्त्व
जैन धर्म ने आचार-शुद्धि पर बहुत बल दिया। आचार-पालन में उन्होंने इतना सूक्ष्म निरूपण किया कि स्वप्न में भी यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त करना चाहिए। आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन मिलता है। समय के अंतराल में साध्वाचार के विधि-निषेध परक ग्रंथों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी। द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार संबंधी नियमों में भी परिवर्तन आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी बनाए गए, जिन्हें अपवाद मार्ग कहा गया।
छेदसूत्रों में साधु की विविध आचार-संहिताएं तथा प्रसंगवश अपवाद मार्ग आदि का विधान है। ये सूत्र साधु-जीवन का संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर दंड का विधान भी करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दंड-संहिता तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्त सूत्र कहा जा सकता है।
छेदसूत्रों में प्रयुक्त 'कप्पइ' शब्द से मुनि के लिए करणीय आचार तथा 'नो कप्पइ' से अकरणीय या निषिद्ध आचार का ज्ञान होता है। बौद्ध परम्परा में आचार, अनुशासन एवं प्रायश्चित्त संबंधी विकीर्ण वर्णन विनय पिटक में तथा वैदिक परम्परा में श्रोत्रसूत्र एवं स्मृतिग्रंथों में मिलता है।
छेदसूत्रों में निशीथ अधिक प्रतिष्ठित हुआ है। व्यवहार भाष्य के पांचवें-छठे उद्देशक में निशीथ की महत्ता में अनेक तथ्य प्रतिपादित हैं।
व्यवहार भाष्य में आगमों के सूत्र और अर्थ की बलवत्ता के विमर्श में सूत्र के अर्थ को बलवान् माना है। उसी प्रसंग में अन्यान्य आगमों के अर्थ के संदर्भ में छेदसूत्रों के अर्थ को बलवत्तर माना है। इसका कारण बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चारित्र में स्खलना होने पर या दोष लगने पर छेदसूत्रों के आधार पर विशुद्धि होती है अतः पूर्वगत को छोड़कर अर्थ की दृष्टि से अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र बलवत्तर हैं।
१. दशअचू. पृ. २। २. नंदी सू. ७७,७२। ३. व्यभा. १८२६ : जम्हा तु होति सोधी, छेदसुयत्येण खलितचरणस्स।
तम्हा छेदसुयत्यो, बलवं मोत्तूण पुवगत।
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३२ ]
निशीथ भाष्य में छेद - सूत्रों को उत्तमश्रुत कहा है। निशीथ चूर्णिकार कहते हैं कि इनमें प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है, इनसे चारित्र की विशोधि होती है इसलिए छेदसूत्र उत्तमश्रुत हैं ।'
छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं। उनको आलोचना देने का अधिकार है छेदसूत्रों के व्याख्याग्रंथों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है जो बृहत्कल्प एवं व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है।
1
छेदसूत्र रहस्य सूत्र हैं। योनिप्राभृत आदि ग्रंथों की भांति इनकी गोपनीयता का निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं दी जाती थी। निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जहां मृग (बाल, अज्ञानी एवं अगीतार्थ) साधु बैठे हों वहां इनकी वाचना नहीं देनी चाहिए। लेकिन सूत्र का विच्छेद न हो इस दृष्टि से द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के आधार पर अपात्र को भी वाचना दी जा सकती है, ऐसा उल्लेख भी मिलता है।
पंचकल्प भाष्य के अनुसार छेदसूत्रों की वाचना केवल परिणामक शिष्य को दी जाती थी, अतिपरिणामक एवं अपरिणामक को नहीं।' अपरिणामक आदि शिष्यों को छेदसूत्रों की चाचना देने से वे उसी प्रकार विनष्ट हो जाते हैं जैसे मिट्टी के कच्चे घड़े या अम्लरसयुक्त घड़े में दूध नष्ट हो जाता है। अगीतार्थ बहुल संघ में छेदसूत्र की वाचना एकान्त में अभिशय्या या नेषेधिकी में दी जाती थी क्योंकि अगीतार्थ साधु उसे सुनकर कहीं विपरिणत होकर गच्छ से निकल न जाएं।"
व्यवहार भाष्य
छेदसूत्रों का कर्तृत्व
छेदसूत्र पूर्वो से निर्यूढ हुए अतः इनका आगम साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ - इन चारों छेदसूत्रों का निर्यूहण प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय आचारवस्तु से हुआ, ऐसा उल्लेख नियुक्ति एवं भाष्य साहित्य में मिलता है। " दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण भद्रबाहु ने किया यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है ।" किंतु निशीथ के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् निशीथ को भी भद्रबाहु द्वारा निर्यूढ मानते हैं लेकिन यह तर्क संगत नहीं लगती। निशीय चतुर्दशपूर्वघर भद्रबाहु द्वारा निर्वृढ़ कृति नहीं है, इस मत की पुष्टि में कुछ हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं
दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति एवं पंचकल्प भाष्य में भद्रबाहु को दशा, कल्प एवं व्यवहार इन तीनों सूत्रों के कर्ता के रूप में वंदना की है, वहां आचारप्रकल्प - निशीथ का उल्लेख नहीं है । "
१. निभा. ६१८४ चू. पू. २५३ ।
२.
निभा. ६३६५; व्यभा ३२० ।
३. व्यभा. ४४३२-३५ ।
४. निभा. ५६४७ चू. पृ. १६०, व्यभा ६४६ टी. प. ५८ ।
५. निभा. ६२२७ चू. पृ. २६१ ।
६. पंकभा. १२२३: णाऊणं छेदसुतं, परिणामगे होति दायव्वं ।
७.
व्यभा. ४१००, ४१०१ ।
こ
व्यभा. १७३६ ।
६.
क व्यभा. ४१७३
सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि ।
तत्तो च्चिय चिन्हू, पकष्पकप्पो यववहारो
ख. पंकमा २३ आवारदसाकप्पो, ववहारी नवमपुव्यणीसंदो ग. आचारांगनियुक्ति २८१
आयारपकप्पो पुण, पच्चक्खाणस्स ततियवत्यूओ । आयारनामधेज्जा, वीसइमा पाहुडच्छेदा। १०. क. दशाश्रुतस्कंधनियुक्ति
चंदामि भद्दबाहुं पाईणं परिमलगतसुयनाणीं । सुत्तस्स कारगमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ॥ ख. पंकभा. १२ : तो सुत्तकारओ खलु, स भवति दसकप्पववहारे।
११. दश्रुनि १ पंकभा. १ ।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[३३
• व्यवहार सूत्र में जहां आगम-अध्ययन की काल-सीमा के निर्धारण का प्रसंग है, वहां भी दशाश्रुत, व्यवहार एवं कल्प का नाम एक साथ आता है। आवश्यक सूत्र में भी इन तीन ग्रंथों के उद्देशकों का ही एक साथ उल्लेख मिलता है। निशीथ को इनके साथ न जोड़कर पृथक उल्लेख किया गया है।
. श्रुतव्यवहारी के प्रसंग में भाष्यकार ने कल्प और व्यवहार इन दो ग्रंथों तथा इनकी नियुक्तियों के ज्ञाता को श्रुतव्यवहारी के रूप में स्वीकृत किया है। वहां निशीथ/आचारप्रकल्प का उल्लेख नहीं है। निशीथ की महत्ता सूचक अनेक गाथाएं व्यभा में हैं, पर वे आचार्यों ने बाद में जोड़ी हैं, ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि उत्तरकाल में निशीथ बहुत प्रतिष्ठित हुआ है। अन्यथा कल्प और व्यवहार के साथ भाष्यकार अवश्य निशीथ का नाम जोड़ते।
.निशीथ का निर्वृहण भद्रबाह ने किया, यह उल्लेख केवल पंचकल्पचूर्णि में मिलता है। इसका कारण संभवतः यह रहा होगा कि अन्य छेदग्रंथों की भांति निशीथ का निर्वृहण भी प्रत्याख्यान पूर्व से हुआ इसीलिए कालान्तर में निर्वृहण कर्ता के रूप में भद्रबाहु का नाम निशीथ के साथ भी जुड़ गया।
• विंटरनित्स ने निशीथ को अर्वाचीन माना है तथा इसे संकलित रचना के रूप में स्वीकृत किया है। • विद्वानों के द्वारा कल्पना की गयी है कि निशीथ का निर्वृहण विशाखगणि द्वारा किया गया, जो भद्रबाहु के समकालीन थे।
दशाश्रुतस्कंध के निर्गृहण के बारे में भी एक प्रश्नचिह्न उपस्थित होता है कि इसमें महावीर का जीवन एवं स्थविरावलि है अतः यह पूर्वो से उद्धृत कैसे माना जा सकता है? इस प्रश्न के समाधान में संभावना की जा सकती है कि इसमें कुछ अंश बाद में जोड़ दिया गया हो।
छेदसूत्रों का निर्ग्रहण क्यों किया गया, इस विषय में भाष्य साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार नौवां पर्व सागर की भांति विशाल है। उसकी सतत स्मति में बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है। जब भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी तब चारित्र की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार का नि!हण किया। इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का अभाव हो जाएगा अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रंथों का नि!हण किया।
चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि भद्रबाह ने आयुबल, धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार का निर्ग्रहण किया किन्तु आहार, उपधि, कीर्ति या प्रशंसा आदि के लिए नहीं।१० ___नि!हण के प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं-जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर फूल
के असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों पर अनकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है। उसी प्रकार चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाहु ने आरोहण किया और अनुकंपावश छेद ग्रंथों का संग्रथन किया।" इस प्रसंग में भाष्यकार ने केशवभेरी एवं वैद्य के दृष्टान्त का भी उल्लेख किया है।
१. व्यसू. १०/२७:पंचवासपरियायस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ दसाकप्पववहारे उद्दिसित्तए। २. आवसू.८.छव्वीसाए दसाकप्पयवहाराणं उद्देसणकालेहि। ३. व्यसू. १०/२५ : तिवासपरियाचस्स समणस्स निग्गंथस्स कप्पइ आयारपकप्पं नामं अज्झयणं उद्दिसित्तए। ४. व्यभा.४४३२-४४३६ । ५. पंचकल्पचूर्णि (अप्रकाशित)। ६. A History of ........p. 446. ७. व्यभा. १७३७। ८ पंकभा. २६-२६॥ ६. पंकभा.४२। १०. दश्रुचू.पृ. ३। ११. पकभा.४३-४६ । १२. पंकभा.४७, ४८।
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व्यवहार भाष्य
छेदसूत्रों का नामकरण
नंदी में व्यवहार, बृहत्कल्प आदि ग्रंथों को कालिकश्रुत के अन्तर्गत रखा है। गोम्मटसार धवला एवं तत्त्वार्थसूत्र में व्यवहार आदि ग्रंथों को अंगबाह्य में समाविष्ट किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब भद्रबाहु ने निहण किया तब तक संभवतः छेदग्रंथ जैसा विभाग इन ग्रंथों के लिए नहीं हुआ था। बाद में इन ग्रंथों को विशेष महत्त्व देने हेतु इनको एक नवीन वर्गीकरण के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया गया। फिर भी 'छेदसूत्र' नाम कैसे प्रचलित हुआ इसका कोई पुष्ट प्रमाण प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता। छेदसूत्र का सबसे प्राचीन उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में मिलता है।
विद्वानों ने अनुमान के आधार पर इसके नामकरण की यौक्तिकता पर अनेक हेतु प्रस्तुत किए हैं। छेदसूत्रों के नामकरण के बारे में निम्न विकल्पों को प्रस्तुत किया जा सकता है
. शूबिंग के अनुसार प्रायश्चित्त के दस भेदों में 'छेद' और 'मूल' के आधार पर आगमों का वर्गीकरण 'छेद' और 'मूल' के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इस अनुमान की कसौटी में छेदसूत्र तो विषय-वस्तु की दृष्टि से खरे उतरते हैं। लेकिन वर्तमान में उपलब्ध मूलसूत्रों की 'मूल' प्रायश्चित्त से कोई संगति नहीं बैठती।
. सामायिक चारित्र स्वल्पकालिक है अतः प्रायश्चित्त का संबंध छेदोपस्थापनीय चारित्र से अधिक है। छेदसूत्र तत् चारित्र सम्बन्धी प्रायश्चित्त का विधान करते हैं, संभवतः इसीलिए इनका नाम 'छेदसूत्र' पड़ा होगा।
.दिगंबर ग्रंथ 'छेदपिंड' में प्रायश्चित्त के आठ पर्यायवाची नाम हैं। उनमें एक नाम 'छेद' है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रायश्चित्त के दस भेदों में सातवां प्रायश्चित्त 'छेद' है। अंतिम तीन प्रायश्चित्त साधुवेश से मुक्त होकर वहन किये जाते हैं। लेकिन श्रमण पर्याय में होने वाला अंतिम प्रायश्चित्त 'छेद' है। स्खलना होने पर जो चारित्र के छेद-काटने का विधान करते हैं, वे ग्रंथ छेदसूत्र हैं।
. आवश्यक की मलयगिरि टीका में सामाचारी के प्रकरण में छेदसूत्रों के लिए पदविभाग सामाचारी शब्द का प्रयोग मिलता है। पदविभाग और छेद ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं।
.छेदसूत्र में सभी सूत्र स्वतंत्र हैं। एक सूत्र का दूसरे सूत्र के साथ विशेष संबंध नहीं है तथा व्याख्या भी छेद या विभाग दृष्टि से की गई है। इसलिए भी इनको छेदसूत्र कहा जा सकता है। ___नामकरण के बारे में आचार्य तुलसी (वर्तमान गणाधिपति तुलसी) ने एक नई कल्पना प्रस्तुत की है- “छेदसूत्र को उत्तमश्रुत माना है। 'उत्तम श्रुत' शब्द पर विचार करते समय एक कल्पना होती है कि जिसे हम 'छेयसुत्त' मानते हैं वह कहीं 'छेकश्रुत तो नहीं है? छेकश्रुत अर्थात् कल्याण श्रुत या उत्तम श्रुत। दशाश्रुतस्कन्ध को छेदसूत्र का मुख्य ग्रंथ माना गया है। इससे 'छेयसुत्त' का 'छेकसूत्र' होना अस्वाभाविक नहीं लगता। दशवकालिक (४/११) में 'जं छेयं तं समायरे' पद प्राप्त है। इससे 'छेय' शब्द के 'छेक' होने की पुष्टि होती है।"
.जिससे नियमों में बाधा न आती हो तथा निर्मलता की वृद्धि होती हो, उसे छेद कहते हैं। पंचवस्तु की टीका में हरिभद्र द्वारा किए गए इस अर्थ के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि जो ग्रंथ निर्मलता एवं पवित्रता के वाहक हैं, वे. छेदसूत्र हैं। अतः इन ग्रंथों का छेद नामकरण सार्थक लगता है।
१. गोजी.गा. ३६७, ३६८ । २. धवला पु. १ पृ. ६६। ३. त. २/२०॥ ४. आवनि.७७७। ५. कल्पसूत्र भू. पृ.८। ६. आवनि. ६६५ मटी- पृ. ३४१ : पदविभागसामाचारीछेदसूत्राणि। ७. दश्रुचू. पृ. २; इमं पुण छेयसुत्तपमुहभूतं । ८. निसी. भूमिका पृ. ३, ४। ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा. २ पृ. ३०६; बज्झाणुट्टाणेणं, जेण ण बाहिज्जए तयं णियमा।
संभवइ य परिसुद्धं, सो पुण धम्मम्मि छेउ ति॥
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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वर्तमान में उपलब्ध चार छेदसूत्रों का नामकरण भी सार्थक हुआ है। आयारदशा में साधु जीवन के आचार की विविध अवस्थाओं का वर्णन है। यह दस अध्ययनों में निबद्ध है अतः इसका नाम 'दशाश्रुतस्कंध' भी है। कल्प का अर्थ है-आचार। जिसमें विस्तृत रूप में साधु के विधि-निषेध सूचक आचार का वर्णन है, वह 'बृहत्कल्प' है। बृहत्कल्प नाम की सार्थकता का विस्तृत विवेचन मलयगिरि ने बृहत्कल्प भाष्य की पीठिका में किया है।
व्यवहार प्रायश्चित्त सूत्र है। इसमें पांच व्यवहारों का मुख्य वर्णन होने के कारण इसका नाम 'व्यवहार' रखा गया।
आचारप्रकल्प में आचार के विविध विकल्पों का वर्णन है। इसका दूसरा नाम निशीथ भी है। निशीथ का अर्थ है-अर्धरात्रि या अंधकार। निशीथ भाष्य के अनुसार 'निशीथ' की वाचना अर्धरात्रि या अप्रकाश में दी जाती थी इसलिए इसका नाम निशीथ प्रसिद्ध हो गया। इसका संक्षिप्त नाम 'प्रकल्प' भी है। छेदसूत्रों की संख्या
छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। जीतकल्प चूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में निम्न ग्रंथों का उल्लेख हुआ है-कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्प, महाकल्प, निशीथ आदि। आदि शब्द से यहां संभवतः दशाश्रुतस्कंध ग्रंथ का संकेत होना चाहिए। कल्पिकाकल्पिक, महाकल्प एवं क्षुल्लकल्प आदि ग्रंथ आज अनुपलब्ध हैं। पर इतना निःसंदेह कहा जा सकता है कि ये प्रायश्चित्त सूत्र थे और इनकी गणना छेदसूत्रों में होती थी।
आवश्यकनियुक्ति में छेदसूत्रों के साथ महाकल्प का उल्लेख मिलता है। संभव है तब तक इस ग्रंथ का अस्तित्व था। सामाचारी शतक में छेदसूत्रों के रूप में छह ग्रंथों के नामों का उल्लेख मिलता है। दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, महानिशीथ। पं. कैलाशचंद्र शास्त्री ने जीतकल्प के स्थान पर पंचकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना है।
हीरालाल कापड़िया के अनुसार पंचकल्प का लोप होने के बाद जीतकल्प की परिगणना छेदसूत्रों में होने लगी। कुछ मुनियों का कहना है कि पंचकल्प कभी बृहत्कल्पभाष्य का ही एक अंश था पर बाद में इसको अलग कर दिया गया जैसे ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति को। वर्तमान में पंचकल्प अनुपलब्ध है। जैन ग्रंथावली के अनुसार १७ वीं शती के पूर्वार्द्ध तक इसका अस्तित्त्व था। किन्तु
आ सकता कि इसका लोप कब हआ? पंचकल्प भाष्य की विषयवस्तु देखकर ऐसा लगता है कि किसी समय में पंचकल्प की गणना छेदसूत्रों में रही होगी।
विंटरनित्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस प्रकार है-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, महानिशीथ। विंटरनित्स ने छेदसूत्रों में जीतकल्प का समावेश नहीं किया। जीतकल्प की रचना नंदी के बाद हुई अतः उसमें जीतकल्प का उल्लेख नहीं मिलता। पिंडनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति साधु के नियमों का वर्णन करती है इसीलिए संभवतः विंटरनित्स ने इन दोनों का छेदसूत्रों के अन्तर्गत समावेश किया है।
दिगम्बर साहित्य में कल्प, व्यवहार और निशीथ-इन तीन ग्रन्थों का ही उल्लेख मिलता है, जिनका समावेश अंगबाह्य में किया गया है। जीतकल्प, पंचकल्प और महानिशीथ का उल्लेख दिगम्बर साहित्य में नहीं मिलता।
१. बृपी. पृ. ४। २. निभा.६६। ३. जीचू. पृ. १. कप्प-ववहार कप्पियाकप्पिय-चुल्लकप्प-महाकप्पसुय,
निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु अइवित्थरेण पच्छित्तं भणियं। ४. आवनि-७७७, विभा २२६५। ५. सामाचारी शतक, आगमाधिकार । ६. जैनधर्म पृ. २५६। ७ AHistory of the canonical Literature of the Jains. Page.37 ८ A History of the canonical Literature of Jains, Page 36 ६. A History of the canonical Literature of the Jains. Page 36 १०. A History... Page 464
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व्यवहार भाष्य
समवाओ में दशाश्रुत को छेदसूत्र में प्रथम स्थान दिया है। चूर्णिकार ने छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध को प्रमुख रूप से स्वीकार किया है। इसको प्रमुखता देने का संभवतः यही कारण रहा होगा कि इसमें मुनि के लिए आचरणीय एवं अनाचरणीय तथ्यों का क्रमबद्ध वर्णन है। शेष तीन छेदसूत्र इसी के उपजीवी हैं।
विंटरनित्स के अनुसार व्यवहार बृहत्कल्प का पूरक है। बृहत्कल्प में प्रायश्चित्त-योग्य कार्यों का निर्देश है तथा व्यवहार उसकी प्रयोग भूमि है। अर्थात् उसमें प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं। उनके अनुसार निशीथ की रचना अर्वाचीन है। निशीथ में बहुत बड़ा भाग व्यवहार से तथा कुछ भाग प्रथम और द्वितीय चूला से लिया गया है।
कुछ आचार्य दशाश्रुत, बृहत्कल्प एवं व्यवहार-इन तीनों को एक श्रुतस्कंध ही मानते हैं तथा कुछ आचार्य दशाश्रुत को एक तथा कल्प और व्यवहार को दूसरे श्रुतस्कंध के रूप में स्वीकृत करते हैं। छेदसूत्र किस अनुयोग में?
अनुयोग विशिष्ट व्याख्या पद्धति है। उसके मुख्य चार भेद हैं-१. चरणकरण, २. धर्मकथा, ३. गणित, ४. द्रव्य । आर्यरक्षित से पूर्व अपृथक्त्वानुयोग प्रचलित था। उसमें प्रत्येक आगम के सूत्रों की व्याख्या चरणकरण, धर्म, गणित तथा द्रव्य की दृष्टि से की जाती थी। वह प्रत्येक के लिए सुगम नहीं होती थी। आर्यरक्षित ने इस जटिलता और स्मृतिबल की क्षीणता को देखकर पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन कर दिया। उन्होंने विषयगत वर्गीकरण के आधार पर आगमों को चार अनुयोगों में बांटा-१. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग, ४. द्रव्यानुयोग।
आचार प्रधान होने के कारण छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग में किया गया। इस संदर्भ में निशीथ चूर्णि में शिष्य आचार्य से प्रश्न पूछता है कि निशीथ आचारांग की पंचमचूला होने के कारण उसका समावेश अंग में है तथा वह चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत है, लेकिन छेद सूत्र अंगबाह्य हैं वे किस अनुयोग के अन्तर्गत होंगे? निशीथ भाष्यकार ने छेदसूत्रों का समावेश चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत रखा है।' साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना
आर्यरक्षित अन्तिम आगमव्यवहारी थे। आगमव्यवहारी अपने ज्ञानबल से जान लेते थे कि इस संयती को छेदसूत्र की वाचना देने में दोषापत्ति नहीं है तो वे उसे छेदसूत्रों की वाचना देते थे। आर्यरक्षित के बाद आगमव्यवहारी नहीं रहे। साध्वियों की मनः स्थिति को स्पष्ट रूप से जानने का कोई अतिशायी ज्ञान नहीं रहा। तब स्थविरों ने सोचा कि छेदसूत्र के अध्ययन से साध्वियां संयम से च्युत न हो जाएं, इस दृष्टि से उनको वाचना देना बंद कर दिया।
प्रश्न उपस्थित हुआ कि फिर साध्वियां शोधि कैसे कर पाएंगी? इसके उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं- आचार्य आर्यरक्षित के समय तक साध्वियां साध्वियों से प्रायश्चित्त ग्रहण करती थीं और प्रायश्चित्तदात्री साध्वियों के अभाव में श्रमणों के पास भी आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करती थीं। इसी प्रकार श्रमण भी स्वपक्ष अर्थात् श्रमणों से अथवा परपक्ष अर्थात् श्रमणियों के पास आलोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करते थे। आर्यरक्षित के पश्चात् श्रमणियां श्रमणों के पास ही आलोचना करने लगीं। आर्यरक्षित के समय में भी यह परम्परा थी कि यदि साध्वियों को मूलगुण संबंधी दोषों की आलोचना करनी होती तो वे स्वयं साध्वियों के पास ही उनकी आलोचना करतीं। योग्य साध्वी के अभाव में छेदग्रंथधर स्थविर के पास आलोचना करतीं।
१. सम-२६/१। २. दश्रुचू. पृ. २ : इमं पुण छेदसुत्तपमुहसुत्तं । 3. A His. of P. 446 ४. पंकभा. २५। ५. निभा.६१६०:
जं च महाकप्पसुयं, जाणिय सेसाई छेदसुत्ताई। चरणकरणाणुओगो, कालियछेदोवगयाइ या।
व्यभा. २३६५। ७. व्यभा. २३६६-६८।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[३७
यदि कोई साध्वी सीखे हुए आचारप्रकल्प को प्रमाद से भूल जाती तो उसे जीवनभर प्रवर्तिनी पद नहीं दिया जाता।'
छेदसूत्र जैसे रहस्यमय सूत्र की विस्मृति के कुछ कारण भाष्यकार ने बताए हैं। मलयवती, मगधसेना एवं तरंगवती आदि रोचक कथा साहित्य पढ़ने से आचारप्रकल्प आदि ग्रंथों के परावर्तन का समय नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त ज्योतिषज्ञान, निमित्तविद्या, विशिष्टविद्या, मंत्र आदि की साधना तथा निमित्तशास्त्र के अध्ययन में समय अधिक लगाना पड़ता इसलिए आचारप्रकल्प आदि की विस्मृति हो जाती। इस प्रसंग में भाष्यकार ने प्रमादी अजापालक, वैद्य, योद्धा आदि के दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं, जो प्रमाद के कारण अपने व्यवसाय और कला को भूल गए। उस विस्मृति से उन्होंने अपनी आजीविका को खो दिया।
जो साध्वी ग्लान होने पर, ग्लान की सेवा में नियुक्त रहने के कारण, दुर्भिक्ष होने पर, निरंतर भिक्षा में संलग्न रहने के कारण आचारप्रकल्प की विस्मृति कर देती है तो भी उसे गणभार के योग्य मान लिया जाता था क्योंकि यह दर्प या प्रमाद से होने वाली विस्मृति नहीं है। ऐसी साध्वी को गण का भार दिया जा सकता है। बृहत्कल्प और व्यवहार में भेद-अभेद
कुछ पाश्चात्त्य विद्वान् व्यवहार को बृहत्कल्प का पूरक मानते हैं। भाष्यकार ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहार दोनों में प्रायश्चित्त का वर्णन है फिर इनमें भिन्नता या विशेषता क्या है? दोनों में अभेद स्थापित करते हुए भाष्यकार कहते हैं-जो अवितथव्यवहारी होता है, वह निश्चित रूप से आचार में स्थित रहता है तथा जो कल्प-आचार में स्थित है, वह नियम से अवितथव्यवहारी होता है अतः दोनों में अविनाभावी संबंध है तथा कल्प और व्यवहार दोनों शब्द एकार्थक हैं।
दोनों में भेद बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि कल्पाध्ययन में मूलगुण एवं उत्तरगुण से सम्बन्धित अतिचारों का वर्णन है तथा व्यवहार में प्रायश्चित्त दान की विधि का वर्णन है। अर्थात् इसमें आभवद् एवं प्रायश्चित्त व्यवहार का वर्णन है।
दूसरा भेद इन दोनों में यह है कि बृहत्कल्प में अविशेष अर्थात्-सामान्य रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन है तथा व्यवहार में विशेष रूप से अर्थात्-प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा एवं प्रतिकुंचना आदि के भेद से विस्तृत रूप से प्रायश्चित्त का वर्णन है।
शब्द भेद होते हुए भी कल्प और व्यवहार अर्थ की दृष्टि से अभिन्न हैं। इन दोनों में अर्थसाम्य को घटित करने के लिए भाष्यकार ने भाषा संबंधी चतुर्भंगी प्रस्तुत की हैशब्द अभेद अर्थ अभेद
जैसे-इंद्र इंद्र। शब्द भेद अर्थ अभेद
जैसे-इंद्र, शक्र आदि शब्द अभेद अर्थ भेद
जैसे-गो। शब्द भेद अर्थ भेद
जैसे-घट, पट आदि। अभिधान का नानात्व होने पर भी अभिधेय एक हो सकता है और अभिधान एक होने पर भी अभिधेय में नानात्व हो सकता है। कल्प और व्यवहार दोनों में व्यञ्जन का नानात्व है पर अर्थ में भेद नहीं है क्योंकि दोनों में प्रायश्चित्त का वर्णन है। प्रायश्चित्त के भेदों तथा प्रायश्चित्ताह पुरुषों का जो उल्लेख कल्प में नहीं है, वह व्यवहार में है इसलिए यह विशेष है। नियुक्तिकार
जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति सबसे प्राचीन पद्यबद्ध रचना है। सूत्र के साथ अर्थ का निर्णय जिसके द्वारा होता है, वह नियुक्ति है। नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु का नाम प्रसिद्ध है। उन्होंने १० ग्रंथों पर
१. व्यभा. २३१४-२२॥ २. व्यभा. २३२०-२१॥ ३. व्यभा. २३२३-२८। ४. व्यभा. २३२७,२३२८। ५. व्यभा. १५२। ६. व्यभा. १५३। ७. 'गो' शब्द भूप, पशु, रश्मि आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। ८ व्यभा. १५५-५७) ६. आवनि.८।
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३८ ]
निर्युक्तियां लिखीं।' इसके अतिरिक्त गोविंद आचार्यकृत गोविंदनिर्युक्ति का उल्लेख भी मिलता है।' नियुक्तिकार के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। विंटरनित्स, हीरालाल कापड़िया आदि विद्वानों ने चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु को ही नियुक्तिकार के रूप में स्वीकृत किया है। उनके मत से द्वितीय भद्रबाहु को नियुक्तिकार मानना असंगत है। मुनि पुण्यविजयजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर द्वितीय भद्रबाहु को नियुक्तिकार के रूप में सिद्ध किया है। हमने भद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तिकार के रूप में स्वीकार किया है। किंतु भद्रबाहु द्वितीय ने नियुक्तियों में परिवर्धन किया, यह भी स्वीकृत किया है क्योंकि दशवैकालिक एवं आवश्यक आदि की नियुक्तियों में चूर्णि एवं टीका की गाथा संख्या में काफी अंतर है । भद्रबाहु प्रथम नियुक्तिकार थे इसकी सिद्धि में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं। निर्युक्ति एवं नियुक्तिकार के बारे में विस्तृत विवेचन हम नियुक्तियों के प्रकाश्यमान खंड में करेंगे।
नियुक्ति एवं भाष्य का पृथक्करण
आचार्य भद्रबाहु ने . १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की। उनमें ऋषिभाषित एवं सूर्यप्रज्ञप्ति पर लिखी गई नियुक्ति आज अनुपलब्ध है। बाकी की आठ निर्युक्तियों में आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन सूत्रकृतांग एवं दशाश्रुतस्कंध की नियुक्तियां तो स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में मिलती हैं किन्तु बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीनों छेदसूत्रों पर लिखी गई नियुक्तियां वर्तमान में भाष्यों के साथ प्राप्त होती हैं। भाष्यकार ने नियुक्ति को अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है अतः भाष्य और नियुक्ति को पृथक् करना अत्यन्त कठिन है । चूर्णिकार एवं टीकाकार ने अनेक स्थलों पर नियुक्ति गाथा का संकेत किया है, इससे यह तो स्पष्ट है कि भाष्य के बाद भी नियुक्ति का स्वतंत्र अस्तित्त्व था। साथ ही चिन्तन का विषय यह भी है कि सभी स्थानों पर व्याख्याकारों ने निर्युक्ति का संकेत क्यों नहीं किया? एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि जब आगम ग्रंथ लिपिबद्ध हुए तब तक इन भाष्यमिश्रित नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्त्व था या नहीं? आवश्यक नियुक्ति पर भी भाष्य (विशेषावश्यक भाष्य) लिखा गया लेकिन आवश्यक निर्युक्ति का आज स्वतंत्र अस्तित्त्व मिलता है। आगमों पर सर्वप्रथम व्याख्या निर्युक्ति है। अतः यह तो निश्चित है कि किसी समय इन तीनों छेदग्रंथों की नियुक्तियां अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व रखती होंगी । भाष्य के साथ सम्मिश्रण होने के बाद उनके पृथक् अस्तित्त्व को जानना कठिन हो गया क्योंकि दोनों की भाषा एवं प्रतिपादन शैली में बहुत समानता है । टीकाकार के समय तक इन तीनों ग्रंथों की नियुक्तियों की स्वतंत्र सत्ता नहीं रही इसका प्रबल साक्ष्य है - बृहत्कल्प की मलयगिरि टीका। बृहत्कल्प की पीठिका में आचार्य मलयगिरि ने स्पष्ट रूप से कहा है कि सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति एवं भाष्य दोनों मिलकर एक ग्रंथ हो गए हैं।
चूर्णिकार ने सभी स्थलों पर नियुक्ति गाथा का संकेत नहीं दिया है अतः उनके समक्ष नियुक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्त्व था या नहीं, यह खोज का विषय है। फिर भी अनेक स्थलों पर निशीथ चूर्णि में 'एत्थ निज्जुत्तीगाहा' 'एसा भद्दबाहुसामिकता गाहा' आदि का उल्लेख मिलता है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि चूर्णिकार के समक्ष कुछ ऐसे कंठस्थपाठी श्रमणों की परम्परा थी, जिनको इन छेदग्रंथों की नियुक्तियां स्वतंत्र रूप से याद थीं। उसी आधार पर उन्होंने अनेक स्थलों पर नियुक्तिगाथा का संकेत किया है।
एक ही भाषा और शैली में लिखे हुए सम्मिश्रित दो ग्रंथों को अलग-अलग करना अत्यन्त कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य है पर हमने निर्युक्तिगाथाओं को पृथक् करने का प्रारम्भिक प्रयास किया है । यह दावा नहीं किया जा सकता कि सभी नियुक्त गाथाओं का पृथक्करण ठीक ही हुआ है। पृथक्करण के इस क्रम में कुछ निर्युक्तिगाथाएं छूट सकती हैं तथा कुछ भाष्य की गाथाएं निर्युक्ति में शामिल भी हो सकती हैं। पृथक्करण का यह प्रयास भविष्य में अनुसंधित्सुओं के लिए मार्गदीप अवश्य बनेगा ।
१.
२.
आवनि ८४-८६ ।
बृभा. ५४७३, निभा. ५५७३ ।
३.
A History of canonical literature of the Jains. Page. 172
४. मुनि श्री हजारीमल स्मृतिग्रंथ पृ. ७१८-७१६
व्यवहार भाष्य
५. आवनि. ८४-८६ ।
६. बृभाषी. पृ. २; सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिर्भाष्यं चैको ग्रन्थो जातः ।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[ ३६
प्रस्तुत ग्रन्थ में भाष्य और नियुक्ति गाथाएं साथ-साथ प्रकाशित हैं। निर्युक्ति गाथा की पहचान के लिए हमने उनका क्रमांक भाष्य गाथा के अन्त में (नि.) लिखकर किया है। दोनों को सर्वथा पृथक् करना उचित नहीं लगा क्योंकि भाष्यकार मुख्यतः नियुक्ति की ही व्याख्या करते हैं तथा उन्होंने नियुक्ति को अपने ग्रंथ का अंग बना लिया है दोनों को सर्वथा अलग करने से संधित्सु को विषय की असंबद्धता पग-पग पर खलती रहती ।
भाष्य से नियुक्ति गाथाओं के पृथक्करण के लिए हमने कुछ कसौटियां निर्धारित की हैं। वे इस प्रकार हैं
१. जहां कहीं भी ‘एसा भद्दबाहुसामिकता गाहा' ऐसा उल्लेख है, उसे नियुक्ति गाथा माना है क्योंकि नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामी थे।
२. जहां कहीं भी व्याख्याकार ने 'इदाणिं निज्जुत्ती' 'इमा सुत्तफासिया' अथवा 'अधुना निर्युक्तिविस्तरः' ऐसा उल्लेख किया है, उनको स्पष्ट रूप से नियुक्ति के रूप में स्वीकार किया है। इस विषय में बृहत्कल्प की टीका में अनेक स्थलों पर विरोधाभास भी मिलता है। वहां एक ही गाथा किसी प्रति में नियुक्ति, किसी में द्वारगाथा, किसी में संग्रहगाथा तथा किसी में भाष्यगाथा के रूप में हैं। मुनि पुण्यविजयजी ने छठे भाग में इन विभेदों का एक चार्ट प्रस्तुत किया है। यह खोज का विषय है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहार की टीका में ही यह विभेद क्यों मिलता है, निशीथ में क्यों नहीं? इस प्रश्न के समाधान में यह अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णि अधिक प्राचीन है अतः संभव है चूर्णि के समय तक इतना भेद न हुआ विवादास्पद गाथाओं को भी निर्युक्तिगाथा में सम्मिलित किया गया। है 1
। ऐसी ३. निशीथ चूर्णि एवं बृहत्कल्प भाष्य की टीका में अनेक स्थलों पर 'एसा चिरंतणा' 'एसा पुरातणी गाहा' का उल्लेख मिलता है। लेकिन इनके बारे में स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि ये नियुक्ति गाथाएं ही हैं क्योंकि ये गाथाएं भद्रबाहु से भी प्राचीन हो सकती हैं, जिनका उपयोग स्वयं भद्रबाहु ने अपनी नियुक्ति में किया हो । अनेक स्थलों पर निशीथ चूर्णिकार ने जिस गाथा को भद्रबाहुस्वामीकृत कहा है उसी गाथा को बृहत्कल्प की टीका में मलयगिरि ने पुरातनगाथा कहा है । जैसे निभा ७६२ की गाथा में निशीथ चूर्णि में 'भद्रबाहुकृत' का उल्लेख है । उसी गाथा को बृहत्कल्प (३६६४ ) में टीकाकार ने 'पुरातन गाथा' के रूप में स्वीकार किया है। ऐसे उद्धरणों से स्पष्ट है कि पुरातनी गाथा भद्रबाहुकृत है अतः हमने इन गाथाओं को नियुक्ति गाथा के रूप में स्वीकार किया है।
४. चिरंतण गाथा भद्रबाहु द्वितीय से पूर्व की प्रतीत होती है, क्योंकि निशीथ चूर्णिकार ने एक स्थल पर स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'एसा चिरंतणा गाहा, एयाए चिरंतणगाहाए इमा भद्दबाहुसामिकता वक्खाणगाहा' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि चिरंतनगाथा भद्रबाहु से प्राचीन है जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है। लेकिन भद्रबाहु ने ऐसी गाथाओं को अपनी नियुक्ति का अंग बना लिया । इन गाथाओं के निर्युक्तिगत होने का एक प्रमाण यह है निभा ३८२ की गाथा चिरंतन गाथा है । ३८३ की गाथा के प्रारम्भ में चूर्णिकार लिखते हैं कि 'इणमेवार्थं भाष्यकारो व्याख्यानयति' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यह चिरंतन गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए ।
५. आवश्यक, दशवैकालिक आदि नियुक्तियों की सैकड़ों गाथाएं इन तीनों ग्रंथों के भाष्यों में मिलती हैं। इसमें कहीं-कहीं तो स्वयं नियुक्तिकार ने प्रसंगवश अन्य नियुक्तियों की प्रसिद्ध गाथाओं को व्यवहार आदि की नियुक्तियों में प्रयोग किया है। लेकिन अनेक स्थानों पर नियुक्ति की गाथाओं का भाष्यकार ने भी अपने भाष्य को समृद्ध बनाने में उपयोग किया है। निशीथ भाष्य में पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति की अनेक गाथाएं अक्षरशः उद्धृत हैं। ये गाथाएं भाष्यकार द्वारा उद्धृत की गयी प्रती होती हैं। इसी प्रकार व्यवहार भाष्य में टीकाकार स्पष्ट कहते हैं- 'अथ भाष्यविस्तरः' लेकिन गाथाएं सारी आवश्यकनियुक्ति के अस्वाध्याय प्रकरण की हैं। ये गाथाएं निशीथभाष्य एवं व्यवहारभाष्य दोनों में उद्धृत हैं लेकिन इन गाथाओं में पाठभेद 'बहुत I यह खोज का विषय है कि इतना पाठान्तर लिपिकर्त्ताओं द्वारा हुआ अथवा वाचनाभेद से हुआ? कंठस्थ परम्परा के कारण हुआ या स्वयं नियुक्तिकार, भाष्यकार द्वारा प्रसंगानुसार किया गया? अनेक स्थलों पर यह स्पष्ट नहीं है कि स्वयं नियुक्तिकार ने इन नियुक्तियों का उपयोग किया है अथवा भाष्यकार ने उन्हें उद्धृत किया है। किन्तु जहां भी अन्य नियुक्तियों की गाथाएं हैं, उनका हमने पादटिप्पण में उल्लेख कर दिया है।
६. द्वारगाथाओं तथा संग्रहगाथाओं के बारे में भी स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि ये निर्युक्ति की गाथाएं हैं। क्योंकि
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व्यवहार भाष्य
भाष्यकार भी विषय को स्पष्ट करने के लिए द्वारगाथा लिखकर उसकी व्याख्या करते हैं। लेकिन अधिकांश द्वारगाथाएं एवं संग्रहगाथाएं नियुक्ति की हैं, ऐसा व्याख्याकारों की व्याख्या से प्रतीत होता है। पं. दलसुखभाई मालवणिया ने द्वारगाथाओं को नियुक्ति गाथा माना है। इसके अतिरिक्त बृहत्कल्प के छठे भाग में उल्लिखित चार्ट से स्पष्ट है कि नियुक्ति गाथा के लिए ही किसी प्रति में संग्रहगाथा तथा किसी में द्वारगाथा का संकेत है। द्वारगाथा एवं संग्रहगाथा को नियुक्ति मानने का एक कारण यह भी है कि बृहत्कल्प की टीका में जिस गाथा के लिए संग्रहगाथा का उल्लेख है वही गाथा व्यवहार की टीका में नियुक्ति के रूप में संकेतित है। कहीं-कहीं संग्रहगाथा के बारे में भाष्यकार द्वारा व्याख्या का उल्लेख भी मिलता है, जैसे बृभा १६११।।
७. नियुक्तियों की यह विशेषता है कि सभी नियुक्तियां एक ही शैली में रचित नहीं हैं। किन्तु एक ही ग्रंथ की नियुक्ति की भाषा, शैली एवं वर्णन पद्धति में बहुत समानता है। जैसे उत्तराध्ययन नियुक्ति में हर अध्ययन के प्रारम्भ में तीन गाथाएं सभी अध्ययनों में लगभग समान हैं। वैसे ही निशीथ नियुक्ति में अधिकांशतः हर सूत्र में प्रायश्चित्त स्वरूप 'सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे', 'सो पावति आणमादीणि' आदि एक जैसी गाथाएं आई हैं। इन गाथाओं को अनेक स्थलों पर चूर्णिकार ने नियुक्ति रूप में संकेतित किया है। चूर्णिकार के उल्लेख एवं एक ही रचना शैली के आधार पर ऐसी गाथाओं को नियुक्ति में सम्मिलित किया गया है। पूर्वापर सम्बन्ध से भी ‘आणमादीणि', 'आणाअणवत्थं' उल्लेख वाली गाथाएं नियुक्ति की प्रतीत होती हैं। बृहत्कल्प एवं व्यवहार की टीका में भी अनेक स्थलों पर ऐसी गाथाएं नियुक्ति के संकेत पूर्वक मिलती हैं-जैसे व्यभा १०५४ की गाथा में नियुक्तिविस्तरः' का उल्लेख है। ऐसी गाथाओं को नियुक्ति गाथा मानने का एक कारण यह भी है कि नियुक्ति के समय तक केवल आज्ञा का भंग, मिथ्यात्व आदि का भय ही साधक के लिए सबसे बड़ा प्रायश्चित्त था। अन्य प्रायश्चित्तों का बाद में प्रचलन हुआ है, ऐसा संभव लगता है।
८ नियुक्तिकार की विशेषता है कि वे किसी भी विषय को स्पष्ट करने के लिए संक्षेप में कथा या दृष्टान्त का उल्लेख करते हैं। जहां भी संक्षेप में कथा का संकेत आया है और बाद में उसी गाथा का विस्तार भाष्यकार करते हैं तो उस संक्षिप्त कथा का संकेत देने वाली गाथा को हमने नियुक्तिगत माना है। ऐसी गाथाओं को नियुक्तिगत मानने का एक कारण यह है कि अनेक स्थलों पर संक्षिप्त कथा-संकेत वाली गाथा के लिए टीकाकार ने 'अथ एनामेव गाथां भाष्यकारः विवृणोति' का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व की गाथा नियुक्ति की है। अनेक स्थलों पर टीकाकार ने नियुक्ति आदि का कुछ संकेत नहीं दिया है तो भी ऐसी गाथाओं को हमने नियुक्तिगत ही माना है।
६. अनेक स्थलों पर बृहत्कल्प में जिस गाथा को टीकाकार ने नियुक्तिगत माना है, वही गाथा निशीथ भाष्य में है पर वहां नियुक्ति का संकेत नहीं है। पर उस गाथा की अगली गाथा के पूर्व चूर्णिकार कहते हैं-'इमा वक्खाण गाहा'। इससे स्पष्ट है कि 'वक्खाण गाहा' से पूर्व वाली गाथा नियुक्ति की गाथा है। क्योंकि भाष्यकार नियुक्ति की ही व्याख्या करते हैं। यह चिन्तनीय है कि प्रत्येक व्याख्यान गाथा से पूर्व की गाथा को नियुक्ति की माना जाए या नहीं? क्योंकि ऐसे प्रसंग अनेक स्थलों पर मिलते हैं। इसी प्रकार 'इमा विभासा' 'इमा वक्खा' तथा 'इदानीं एनामेव गाथां व्याख्यानयति' आदि संकेत से पूर्व वाली गाथाएं नियुक्ति की होनी चाहिए। निशीथभाष्य में 'इमा भद्दबाहुसामिकता गाहा, एतीए इमा दो वक्खाणगाहातो' (४४०५) उल्लेख से स्पष्ट है कि नियुक्ति पर भाष्यकार व्याख्यान गाथा लिखते हैं।
१०. कहीं-कहीं व्याख्याकार ने 'भाष्यविस्तरः', 'अथ भाष्यम्' आदि का उल्लेख किया है। वे गाथाएं यदि स्पष्ट रूप से नियुक्ति की प्रतीत होती हैं तो पादटिप्पण पूर्वक हमने उन गाथाओं को नियुक्ति के क्रमांक में जोड़ दिया है। जैसे व्यभा बहि अंतो (२५२२) गाथा के प्रारम्भ में टीकाकार ने 'भाष्यविस्तरः' का उल्लेख किया है पर यह निगा की होनी चाहिए। इसका एक सशक्त प्रमाण यह है कि २५२४वीं गाथा में २५२२वीं गाथा का प्रथम चरण पुनरुक्त हुआ है। कोई भी लेखक स्वयं अपनी रचना में इतनी पुनरुक्ति नहीं करता पर व्याख्याकार अपने से पूर्ववर्ती आचार्य की रचना की व्याख्या करें तो वे पुनरावृत्ति कर सकते
हैं।
११. स्वतंत्र रूप से मिलने वाली नियुक्तियों की भाषा-शैली से स्पष्ट है कि निक्षेपपरक गाथाएं लिखना नियुक्तिकार का अपना वैशिष्ट्य है। मूल सूत्र में आए शब्द का नियुक्तिकार निक्षेप के द्वारा अर्थ-निर्धारण करते हैं। यद्यपि भाष्यकार भी निक्षेपपरक १. निपीभू. पृ. ४१, ४२।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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गाथाएं लिखते हैं लेकिन अधिकांश निक्षेपपरक गाथाएं नियुक्ति की हैं अतः नियुक्तिविस्तरः, नियुक्तिकृद् आदि का उल्लेख न होने पर भी निक्षेपपरक गाथाओं को हमने प्रायः नियुक्ति की माना है। विशेषावश्यक भाष्य में स्पष्ट लिखा है कि नियुक्ति का विषय नाम आदि का निक्षेप करना है, शेष अर्थ का विचार करना नहीं।'
ग्रंथकर्ता द्वारा मूल निक्षेप का उल्लेख करने के बाद द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि की व्याख्या नियुक्तिकार एवं भाष्यकार दोनों की हो सकती है। अनेक स्थलों पर स्वयं निर्यक्तिकार भी द्रव्य, क्षेत्र आदि की व्याख्या करते हैं, जैसे-दशवकालिक निर्यक्ति में द्रव्यमंगल, भावमंगल आदि।
भाष्य नियुक्ति की व्याख्या है, अतः संभव है कि कहीं-कहीं द्रव्य, क्षेत्र आदि की विस्तृत व्याख्या भाष्यकार ने भी की हो। जैसे व्यवहारभाष्य में टीकाकार कहते हैं-'व्यासार्थं तु भाष्यकृद् विवक्षुः इच्छानिक्षेपमाह'-इस उल्लेख से स्पष्ट है कि यहां भाष्यकार ने निक्षेप योजना की है।
१२. मूल सूत्र में आए शब्द के एकार्थक लिखना नियुक्तिकार की भाषागत विशेषता है। यदि प्रारम्भिक गाथाओं में सत्रगत शब्द के एकार्थक हैं तथा विषय की क्रमबद्धता है तो हमने उस गाथा को निगा के क्रम में रखा है, जैसे व्यभा ६ (नि ३)।
१३. एक सूत्र की दूसरे सूत्र के साथ तथा एक उद्देशक की दूसरे उद्देशक के साथ सम्बन्ध द्योतित करने वाली गाथाएं नियुक्तिकार की हैं? भाष्यकार की हैं? व्याख्याकारों की हैं? अथवा अन्य आचार्य की? इसका निर्णय करना अत्यन्त जटिल है क्योंकि इस सम्बन्ध में अनेक विप्रतिपत्तियां हैं
• व्यभा में प्रथम उद्देशक के सूत्रों में सम्बन्ध गाथाएं नहीं हैं इससे स्पष्ट है कि ये बाद में जोड़ी गयी हैं। • निभा १८६५वीं गाथा की उत्थानिका में भद्रबाहु सूत्र-सम्बन्ध की गाथा लिखते हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है।
• व्यभा १२६८वीं गाथा के पूर्व 'व्यासार्थं तु भाष्यकृद् विवक्षुः प्रथमतः पूर्वसूत्रेण सह सम्बन्धमाह' का उल्लेख मिलता है। ये तीनों उल्लेख विमर्शनीय हैं।
अधिकांश स्थलों पर सूत्र-सम्बन्ध की गाथा के बारे में व्याख्याकारों ने कोई जानकारी न देकर तुरंत बाद 'अथ भाष्यम्' 'अथ नियुक्तिविस्तरः' या 'इमा निजुत्ती' का उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सूत्र सम्बन्ध की गाथाएं संभवतः व्याख्याकारों ने बनाई हैं। इसका एक सशक्त प्रमाण यह भी है कि निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार की सैकड़ों गाथाएं आपस में संवादी हैं। पर सूत्र-सम्बन्ध की गाथाएं आपस में नहीं मिलतीं। केवल बृहत्कल्प एवं व्यवहार में कुछ गाथाएं समान हैं क्योंकि इन दोनों भाष्यों के कर्ता एक ही हैं। ऐसा संभव लगता है कि भाष्यकार अथवा व्याख्याकार ने एक सूत्र से दूसरे सूत्र के साथ सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। भाषा-शैली की दृष्टि से भी ये गाथाएं नियुक्ति की प्रतीत नहीं होती क्योंकि नियुक्ति की शैली अत्यन्त संक्षिप्त है। वे किसी भी विषय का इतना विस्तृत वर्णन नहीं करते। यदि सम्बन्ध-सूत्र की गाथाओं को छेदसूत्रों की नियुक्तियों के साथ जोड़ दिया जाए तो इनका कलेवर बहुत बड़ा हो जाएगा क्योंकि कहीं-कहीं सम्बन्ध-सूत्र के रूप में दो या तीन गाथाएं भी एक साथ मिलती हैं।
१४. व्यवहार टीका में अनेक स्थलों पर मलयगिरि 'अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः' अथवा 'अधुना भाष्यनियुक्तिविस्तरः' का उल्लेख करते हैं। लेकिन वहां यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि पहले निगा है या भागा है। क्योंकि अनेक स्थलों पर विषमपदों की व्याख्या पहले भाष्यकार भी करते हैं, जैसे-व्यभा (१४७८,१४७६)। जहां 'नियुक्तिभाष्यविस्तरः' का उल्लेख है, वहां हमने पहले नियुक्ति की गाथा का चयन किया है और कहां तक नियुक्ति गाथाएं हैं इसका निर्णय अनुमान प्रमाण, व्याख्या के पूर्वापरत्व तथा विषय की क्रमबद्धता के आधार पर किया है। जैसे-व्यभा ६१६, १२३६ आदि। जहां भाष्यनियुक्तिविस्तरः का उल्लेख है वहां हमने पहले भाष्य और फिर नियुक्ति गाथा को स्वीकार किया है। जैसे व्यभा में २०३२वीं गाथा के प्रारम्भ में 'भाष्यनियुक्तिविस्तरः का उल्लेख है लेकिन नियुक्ति की गाथा २०३८ से है।
१५. नियुक्तिगाथाएं प्रायः अध्ययन एवं उद्देशक के तत्काल बाद आती हैं, जैसे-आचारांग, सूत्रकृतांग आदि की नियुक्तिगाथाएं। पर भाष्यमिश्रित इन नियुक्तियों में प्रायः ऐसा क्रम नहीं मिलता। इस बारे में ऐसा अधिक संभव लगता है कि विषय की संबद्धता
१. विभास्वोटी. ६६१। २. निभा-१८६५ चू. पृ. ३०६ : इदानीं उद्देसकस्स उद्देसकेन सह संबंधं वक्तुकामो आचार्यः भद्रबाहुस्वामी नियुक्तिगाथामाह।
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व्यवहार भाष्य
की दृष्टि से स्वयं भाष्यकार ने गाथाओं को आगे-पीछे कर दिया है। अनेक स्थलों पर भाष्यकार ने नियुक्तिगाथा पर अपनी टिप्पणी भी दी है तथा नियुक्ति से भाष्यगाथा की क्रमबद्धता को जोड़ने का प्रयत्न भी किया है। जैसे- 'सुत्ते अत्थे...यह व्यभा की सातवीं गाथा नियुक्ति की है। इसमें भावव्यवहार के एकार्थक दिए गए हैं। पर इनमें जीत व्यवहार के एकार्थकों की प्रमुखता है। आठवीं गाथा भाष्य की है। इसमें भाष्यकार ने सातवीं गाथा से सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। यदि सातवीं गाथा को नियुक्ति की नहीं मानें तो नौवीं गाथा में पुनः जीत व्यवहार के एकार्थक दिए गए हैं। एक ही ग्रंथकर्ता ऐसी पुनरुक्ति नहीं करते।
इसी प्रकार गा. ५२ में भी भाष्यकार ने सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया है। गा. ५२ में 'पच्छित्तं वा इमं दसहा' का उल्लेख है तथा ५३वीं गाथा नियुक्ति की है जिसमें १० प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख है। व्यभा २०८६ में भाष्यकार स्पष्ट कहते हैं-'निज्जुत्ती सुत्तफासेसा।' इन कथनों से स्पष्ट है कि क्रमबद्धता को जोड़ने का प्रयत्न भी भाष्यकार करते हैं।
१६. भाष्य से नियुक्ति को पृथक् करने में सबसे बड़े मार्गदर्शक रहे हैं निशीथ चूर्णिकार और टीकाकार मलयगिरि। टीकाकार ने गाथा की व्याख्या के क्रम को जोड़ने का बहुत सुंदर प्रयत्न किया है। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि किस गाथा के किस अंश की कितनी गाथाओं में व्याख्या की गयी है। टीकाकार की व्याख्या के बिना नियुक्ति को भाष्य से पृथक् करना अत्यन्त दुरूह कार्य था। अनेक स्थलों पर सैकड़ों गाथाओं के बाद भी पूर्ववर्ती द्वारगाथा की व्याख्या चल रही है उसका भी टीकाकार ने संकेत कर दिया है। जैसे व्यभा ३५१। ।
हमने भाष्य और नियुक्ति का पृथक्करण जिन बिंदुओं के आधार पर किया है उसकी संक्षिप्त रूपरेखा यहां प्रस्तुत की है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अन्यान्य स्वतंत्र नियुक्तियों का गहन अध्ययन तथा गाथा के पौर्वापर्य का समीचीन ज्ञान कर हमने नियुक्ति गाथाओं का पृथक्करण किया है। यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह वर्गीकरण बिलकुल सही ही हुआ है। यह प्रथम प्रयास है, अंतिम प्रयत्न नहीं है। इस प्रयास में कुछ भाष्य की गाथाएं नियुक्ति में संकलित हो सकती हैं तथा कुछ नियुक्तिगाथाएं छूट भी सकती हैं लेकिन हमने अपनी विधा के अनुसार एक सुप्रयत्न किया है। इस दिशा में अनुसंधित्सु वर्ग विशेष प्रयत्नशील होकर और अधिक प्रकाश डाल सकेगा।
भाष्य
आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में 'भाष्य' का दूसरा स्थान है। व्यवहार भाष्य गाथा ४६६३ में भाष्यकार ने अपनी व्याख्या को भाष्य नाम से संबोधित किया है। नियुक्ति की रचना अत्यन्त संक्षिप्त शैली में है। उसमें केवल पारिभाषिक शब्दों पर ही विवेचन या चर्चा मिलती है। किन्तु भाष्य में मूल आगम तथा नियुक्ति दोनों की विस्तृत व्याख्या की गयी है।
वैदिक परम्परा में भाष्य लगभग गद्य में लिखा गया लेकिन जैन परम्परा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं। जिस प्रकार नियुक्ति के रूप में मुख्यतः १० नियुक्तियों के नाम मिलते हैं वैसे ही भाष्य भी १० ग्रंथों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता है। वे ग्रन्थ ये हैं
१. आवश्यक', २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. बृहत्कल्प', ५.पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, ६. ओघनियुक्ति १०. पिंडनियुक्ति।
मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर भी बृहद्भाष्य लिखा गया पर आज वह अनुपलब्ध है। इनमें बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ-इन तीन ग्रंथों के भाष्य गाथा-परिमाण में बृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प परिमाण में मध्यम, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति पर लिखे गए भाष्य ग्रंथान में अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रंथों के भाष्य ग्रंथान में अल्पतम हैं।
यह भी अनुसंधान का विषय है कि तीन छेदसूत्रों पर बृहद्भाष्य लिखे गए फिर दशाश्रुतस्कंध पर क्यों नहीं लिखा गया जबकि नियुक्ति चारों छेदसूत्रों पर मिलती है? संभव है इस ग्रंथ पर भी भाष्य लिखा गया हो पर वह आज प्राप्त नहीं है।
उपर्युक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को संकलन प्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य
१. आवश्यक पर तीन भाष्यों का उल्लेख मिलता है-मूलभाष्य, भाष्य एवं विशेषावश्यक भाष्य। २. बृहत्कल्प पर भी बृहद् एवं लघु भाष्य लिखा गया। बृहद्भाष्य तीसरे उद्देशक तक मिलता है, वह भी अपूर्ण है।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएं ही अधिक संक्रान्त हुई हैं। जीतकल्प भाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण स्पष्ट लिखते हैं- 'कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं अतः उन श्रुतरत्नों के बिंदुरूप या नवनीत रूप सार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि के समक्ष तीनों छेदसूत्रों के भाष्य थे। 'उदधि सदृश' विशेषण मूल सूत्रों के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि वे आकार में इतने बड़े नहीं हैं।
जिन ग्रंथों पर नियुक्तियां नहीं हैं वे भाष्य मूल सूत्र की व्याख्या ही करते हैं, जैसे-जीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर भी लिखे गए हैं जैसे-पिंडनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति आदि।
छेदसूत्रों के भाष्यों में व्यवहारभाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रंथ होने पर भी इसमें प्रसंगवश समाज, अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है। बिना भाष्य के केवल व्यवहार सूत्र को पढ़कर उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं किया जा सकता।
भाष्यकार
भाष्यकार के रूप में मुख्यतः दो नाम प्रसिद्ध हैं-१. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने चार भाष्यकारों की कल्पना की है-१. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, २. संघदासगणि, ३. व्यवहारभाष्य के कर्ता तथा ४. कल्पबृहद्भाष्य आदि के कर्ता।
विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता के रूप में जिनभद्रगणि का नाम सर्वसम्मत है लेकिन बृहत्कल्प, व्यवहार आदि भाष्यों के कर्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीन काल में लेखक बिना नामोल्लेख के कृतियां लिख देते थे। कालान्तर में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं नाम साम्य के कारण भी मूल लेखक का निर्णय करना कठिन होता है।
बृहत्कल्प की पीठिका में मलयगिरि ने भाष्यकार का नामोल्लेख न कर केवल 'सुखग्रहणधारणाय भाष्यकारो भाष्यं कृतवान्' इतना-सा उल्लेख मात्र किया है। निशीथ चूर्णि एवं व्यवहार की टीका में भी भाष्यकार के नाम के बारे में कोई संकेत नहीं मिलता।
पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने निशीथ पीठिका की भूमिका में अनेक हेतुओं से यह सिद्ध किया है कि निशीथ भाष्य के कर्ता सिद्धसेन होने चाहिए। उन्होंने यह भी संभावना व्यक्त की है कि बृहत्कल्प भाष्य के कर्ता भी सिद्धसेन हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए वे कहते हैं कि अनेक स्थलों पर निशीथ चूर्णि में जिस गाथा के लिए 'सिद्धसेणायरियो बक्खाणं करेति' का उल्लेख है वही गाथा बृहत्कल्प भाष्य में 'भाष्यकारो व्याख्यानयति के संकेतपूर्वक है। अतः निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार तीनों के भाष्यकर्त्ता सिद्धसेन हैं, यह स्पष्ट है। इसके साथ-साथ उन्होंने और भी हेतु प्रस्तुत किए हैं।
मुनि पुण्यविजयजी बृहत्कल्प के भाष्यकार के रूप में संघदासगणि को स्वीकार करते हैं। उनके अभिमत से संघदासगणि नाम के दो आचार्य हुए हैं। प्रथम संघदासगणि जो 'वाचकपद' से विभूषित थे, उन्होंने वसुदेवहिंडी के प्रथम खण्ड की रचना की। द्वितीय संघदासगणि उनके बाद हुए, जिन्होंने बृहत्कल्प-लघुभाष्य की रचना की। वे क्षमाश्रमण पद से अलंकृत थे। आचार्य संघदासगणि भाष्य के कर्ता हैं इसकी पुष्टि में सबसे बड़ा प्रमाण आचार्य क्षेमकीर्ति का निम्न उद्धरण है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है
"कल्पेनल्पमनघु प्रतिपदमर्पयति योऽर्थनिकुरम्बम् । ... श्रीसंघदासगणये, चिन्तामणये नमस्तस्मै॥
१. जीभा-२६०५ : कप्पव्ववहाराणं, उदधिसरिच्छाण तह णिसीहस्स।
. सुतरयणबिन्दुणवणीतभूतसारेस णातव्यो। २. बृपी.टी.'पृ. २। ३. निपीभू. पृ. ४०-४६ । ४. बृभा भाग ६, भूमिका पृ. २०॥
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व्यवहार भाष्य
“अस्य च स्वल्पग्रन्थमहार्थतया दुःखबोधतया च सकल-त्रिलोकीसुभगङ्करणक्षमाश्रमणनामधेयाभिधेयैः श्री संघदासगणिपूज्यैः प्रतिपदप्रकटितसर्वज्ञाज्ञाविराधनासमुद्भूतप्रभूतप्रत्यपायजालं निपुणचरणकरणपरिपालनोपायगोचरविचारवाचालं सर्वथा दूषणकरणेनाप्यदूष्यं भाष्यं विरचयांचक्रे।"
इस उल्लेख के सन्दर्भ में मुनि पुण्यविजयजी का मत संगत लगता है कि बृहत्कल्प के भाष्यकार आचार्य संघदासगणि होने चाहिए। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बृहत्कल्प भाष्य एवं व्यवहार भाष्य के कर्ता एक ही हैं क्योंकि बृहत्कल्प भाष्य की प्रथम गाथा में स्पष्ट निर्देश है कि 'कप्पव्यवहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि।
टीकाकार ने इस गाथा के लिए 'सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिभणितमिदम्' का उल्लेख किया है। चूर्णिकार ने इस गाथा के लिए 'आयरिओ भासं काउकामो आदावेव गाथासूत्रमाह' का उल्लेख किया है। यहां प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार का मत सम्यक् लगता है। चूर्णिकार के मत की प्रासंगिकता का एक हेतु यह भी है कि व्यवहारभाष्य के अंत में भी 'कप्पव्यवहाराणं भासं' का उल्लेख मिलता है। अतः यह गाथा भाष्यकार की होनी चाहिए, जिसमें उन्होंने प्रतिज्ञा की है कि मैं कल्प और व्यवहार की
पान-विधि प्रस्तुत करूंगा। वक्खाणविधि शब्द भी भाष्य की ओर ही संकेत करता है क्योंकि नियुक्ति अत्यन्त संक्षिप्त शैली में लिखी गयी रचना है। उसके लिए 'वक्खाणविहि' शब्द का प्रयोग नहीं होना चाहिए अतः यह नियुक्ति की गाथा नहीं, भाष्य की गाथा होनी चाहिए। कप्पव्ववहाराणं, भाष्यकार के इस उल्लेख से यह स्पष्ट ध्वनित हो रहा है कि उन्होंने केवल बृहत्कल्प एवं व्यवहार पर ही भाष्य लिखा, निशीथ पर नहीं।
पंडित दलसुख भाई मालवणिया निशीथ भाष्य के कर्ता सिद्धसेनगणि को स्वीकारते हैं क्योंकि निशीथ चूर्णिकार ने अनेक स्थलों पर 'अस्य सिद्धसेनाचार्यो व्याख्यां करोति' का उल्लेख किया है। पर इस तर्क के आधार पर सिद्धसेन को भाष्यकर्ता मानना संगत नहीं लगता क्योंकि चूर्णिकार ने ग्रंथ के प्रारम्भ और अंतिम प्रशस्ति में कहीं भी सिद्धसेन का उल्लेख नहीं किया है। यदि सिद्धसेन भाष्यकर्ता होते तो अवश्य ही चूर्णिकार प्रारम्भ में या ग्रंथ के अंत में उनका नामोल्लेख अवश्य करते। इस संबंध में हमारे विचार से निशीथ संकलित रचना होनी चाहिए, जिसकी संकलना आचार्य सिद्धसेन ने की। अनेक स्थलों पर निशीथ नियुक्ति की गाथाओं को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने व्याख्यान गाथाएं भी लिखीं। अतः निशीथ मौलिक रचना न होकर संकलित रचना ही प्रतीत होती है। यदि इसमें से अन्य ग्रंथों की गाथाओं को निकाल दिया जाए तो मूल गाथाओं की संख्या बहुत कम रहेगी। दस प्रतिशत भाग भी मौलिक ग्रन्थ के रूप में अवशिष्ट नहीं रहेगा। पंडित दलसुखभाई मालवणिया भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहते हैं-'निशीथ भाष्य के विषय में कहा जा सकता है कि इन समग्र गाथाओं की रचना किसी एक आचार्य ने नहीं की। परम्परा से प्राप्त गाथाओं का भी यथास्थान भाष्यकार ने उपयोग किया है और अपनी ओर से नवीन गाथाएं बनाकर जोड़ी हैं।' (निपीभू पृ. ३०, ३१) । . भाष्यकार ने इस ग्रंथ की रचना कौशल देश में अथवा उसके पास के किसी क्षेत्र में की है, ऐसा अधिक संभव लगता है। भारत के १६ जनपदों में कौशल देश का महत्त्वपूर्ण स्थान था। प्रस्तुत भाष्य में कौशल देश से सम्बन्धित दो-तीन घटनाओं का वर्णन है, इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि ग्रंथकार जहां क्षेत्र के आधार पर मनोरचना का वर्णन कर रहे हैं, वहां कहते हैं 'कोसलएस अपावं सतेसु एक्कं न पेच्छामो' अर्थात् कौशल देश में सैकड़ों में एक व्यक्ति भी पापरहित नहीं देखते हैं। यहां 'पेच्छामो' क्रिया ग्रंथकार द्वारा स्वयं देखे जाने की ओर इंगित करती है।
भाष्य का रचनाकाल
भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। अभी तक इस दिशा में विद्वानों ने विशेष ऊहापोह नहीं किया है। संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं- इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु प्रस्तुत किये जा सकते हैं
जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रंथ में निम्न गाथा मिलती है
१. अंगुत्तरनिकाय १/२१३। २. व्यभा.२६५६
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व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन
व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है
सीधे तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग ति । जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिक्खा य।।
२
विशेषणवती में प्रयुक्त 'ववहारे' शब्द निश्चित रूप से व्यवहारभाष्य के लिए हुआ है क्योंकि मूलसूत्र में इस कथा का कोई उल्लेख नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्रगणि के समक्ष व्यवहारभाष्य था ।
1
विशेषावश्यकभाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् हुई इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्प एवं व्यवहारभाष्य कर्त्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यकभाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रंथ में सम्मिलित करते क्योंकि वह एक आकर ग्रन्थ है, जिसमें अनेक विषयों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त है जबकि व्यभा एवं वृभा में अन्य भाष्य पंचकल्प, निशीथ आदि की सैकड़ों गाथाएं संवादी हैं व्यवहारभाष्य की 'मणपरमोधिपुलाए' गाथा विभा में मिलती है। वह व्यवहारभाष्य की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य के कर्त्ता ने उसे उधृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अतः व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं लगती।
१८
१६
सीहो चेव सुदाढो, जं रायगिहम्मि कविलबडुओ त्ति । सीसइ वबहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो॥'
व्यवहारभाष्य के कर्ता जिनभद्र से पूर्व हुए इसका एक प्रबल हेतु यह है कि जीतकल्प चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कि कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि में प्रायश्चित्त का इतने विस्तार से निरूपण है कि पढ़ने वाले के गति-विपर्यास हो जाता है शिष्यों की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की। यहां कल्प, व्यवहार शब्द से मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रंथ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी अनेक गाथाएं जीतकल्प में अक्षरशः उद्धृत हैं। जैसे-
जीतकल्प
जीतकल्प
व्यभा
व्यभा
११०
૧૧૧
१. विशेषणवती गा. ३३ ।
२. व्यभा. २६३८ ।
३. जीचू. पू. १,२ ।
४. गणधरवाद पृ. ३२-३५
[ ४५
२२
३१,३२
११४
तु. १०,११
निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था इसका एक प्रमाण यह है कि निभा में प्रमाद-प्रतिसेवना के संदर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदाहरण के रूप में निभा (१३५) में 'पोग्गल मोयग दंते' गाथा मिलती
है यह गाथा विशेषावश्यकभाष्य (२३५) में भी है लेकिन वहां स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग में विशेषावश्यक
|
|
भाष्यकार ने यह गाथा निभा से उद्धृत की है । विभा में यह गाथा प्रक्षिप्त-सी लगती है। कुछ अंतर के साथ यह गाथा बृभा (५०१७) में भी मिलती है।
पंडित दलसुख भाई मालवणिया ने जिनभद्र का समय छठीं -सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है अतः भाष्यकार संघदासगणिका समय पांचवीं, छठी शताब्दी होना चाहिए।
भाष्य ग्रंथों का रचनाकाल चौथी से छठी शताब्दी तक ही होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल सातवीं शताब्दी माना जाए तो आगे के व्याख्या ग्रंथों के काल-निर्धारण में अनेक विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। प्राचीन काल में आज की भांति मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी अतः हस्तलिखित किसी भी ग्रंथ को प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही जाता था। सातवीं शताब्दी में भाष्य लिखे गए और आठवीं में हरिभद्र ने टीकाएं लिखीं फिर चूर्णि के समय में अन्तराल बहुत कम रहता है।
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४६ ]
व्यवहार भाष्य
नियुक्तिकार के रूप में हमने चतुर्दशपूर्वी प्रथम भद्रबाहु को स्वीकार किया है, जिनका समय वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी है। भाष्य का समय विक्रम की चौथीं-पांचवी, चूर्णि का सातवीं तथा टीका का आठवीं से तेरहवीं शताब्दी का समय तर्क-सम्मत एवं संगत लगता है।
निशीथ, बहत्कल्प एवं व्यवहार-इन तीन छेदसत्रों के भाष्य के रचनाक्रम के बारे में पंडित दलसख भाई मालवणिया का अभिमत है कि सबसे पहले बृहत्कल्प भाष्य रचा गया, उसके बाद निशीथ भाष्य तथा अंत में व्यवहार भाष्य की रचना हुई। लेकिन हमारे अभिमत से निशीथ भाष्य की रचना या संकलना सबसे बाद में हुई है। उसके कारणों की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। भाष्यकार ने व्यवहार से पूर्व बृहत्कल्प की रचना की, यह बात उनकी प्रतिज्ञा से स्पष्ट है-कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविहिं पवक्खामि। इसके अतिरिक्त व्यवहार भाष्य में अनेक स्थलों पर 'पुब्बुत्तो', 'वुत्तो' 'जह कप्पे', 'वण्णिया कप्पे' आदि का उल्लेख मिलता है। व्यवहार भाष्य की निम्न गाथाओं में बृहत्कल्प की ओर संकेत है। इनमें कुछ उद्धरण बृहत्कल्प एवं कुछ उद्धरण बृहत्कल्प भाष्य की ओर संकेत करते हैं
११७२, १२२६, १३३६, १७३७, १७४८, १८३३, १६३३, २१७१, २१७३, २२७६, २२६६, २५०६, २५२३, २६६२, २८०५, २८०६, २८१७, २६२७, २६८३, ३०६२, ३२४७, ३३१३, ३३५०, ३८६६, ४२३१, ४३१४ आदि।
यह निश्चित है कि आगमों पर लिखे गए व्याख्या ग्रंथों का क्रम इस प्रकार रहा है-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका। लेकिन अलग-अलग ग्रंथों के व्याख्या ग्रंथों को लिखने में इस क्रम में व्यत्यय भी हुआ है। उदाहरण के लिए पंचकल्प भाष्य की निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है
परिजुण्णेसा भणिता, सुविणा देवीए पुप्फचूलाए।
नरगाण दंसणेणं, पव्वजाऽऽवस्सए वुत्ता॥ पुष्पचूला की कथा विशेषावश्यक भाष्य में नहीं है किन्तु आवश्यक चूर्णि में है। इससे सिद्ध होता है कि पंचकल्प के भाष्यकार के समक्ष आवश्यक चूर्णि थी।
इसी प्रकार जीतकल्प की चूर्णि के बाद उसका भाष्य रचा गया क्योंकि चूर्णि केवल जीतकल्प की गाथाओं की ही व्याख्या करती है। उसमें भाष्य का उल्लेख नहीं है। यदि चूर्णिकार के समक्ष भाष्यर्गाथाएं होती तो वे अवश्य उनकी व्याख्या करते। चूर्णिकार ने व्यवहार भाष्य की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है।
प्रसंगवश में निभा ५४५ की उत्थानिका का उल्लेख भी विद्वानों को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वहां स्पष्ट उल्लेख है कि "सिद्धसेणायरिएण जा जयणा भणिया तं चेव संखेवओ भद्दबाहू भण्णति" इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यहां द्वितीय भद्रबाहु की ओर संकेत है। प्रथम भद्रबाहु तो सिद्धसेन की रचना की व्याख्या नहीं कर सकते क्योंकि वे उनसे बहुत प्राचीन हैं। बृहत्कल्प भाष्य (२६११) में भी इस गाथा के पूर्व टीकाकार उल्लेख करते हैं कि “या भाष्यकृता सविस्तरं यतना प्रोक्ता तामेव नियुक्तिकृदेकगाथया संगृह्याह।" यह उद्धरण विद्वानों के चिन्तन या ऊहापोह के लिए है। इसके आधार पर यह संभावना की जा सकती है कि सिद्धसेन द्वितीय भद्रबाहु से पूर्व पांचवीं शती के उत्तरार्ध में हो गए थे। द्वितीय भद्रबाहु के समक्ष नियुक्तियां तथा उन पर लिखे गए कुछ भाष्य भी थे।
मुनि पुण्यविजयजी ने दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चूर्णि को दशवकालिक भाष्य से पूर्व की रचना माना है तथा उसके कुछ हेतु भी प्रस्तुत किये हैं।
भाषा की दृष्टि से भी भाष्य रचना की प्राचीनता सिद्ध होती है। अपभ्रंश की प्रवृत्ति लगभग छठी शताब्दी से प्रारम्भ होती है लेकिन भाष्य में अपभ्रंश के प्रयोग ढूंढने पर भी नहीं मिलते। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्री का प्रभाव भी कम परिलक्षित होता
१. द्वितीय भद्रबाहु ने नियुक्तियों में परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किया है, जिनका समय विक्रम की पांचवीं-छठी शताब्दी है। २. पंकभा ६०६। ३. दशअचू भूमिका पृ. १५-१७।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[४७
भाष्य में वर्णित विषयवस्तु, मुद्राएं, घटना प्रसंग एवं सांस्कृतिक तथ्य भी इसके रचनाकाल को चौथी-पांचवीं शताब्दी से पूर्व या आगे का सिद्ध नहीं करते। अतः भाष्यकार का समय विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी होना चाहिए।
अन्य ग्रंथों पर प्रभाव
व्यवहार एवं उसके भाष्य में वर्णित विषय अन्य ग्रन्थों में भी संक्रान्त हुए हैं। व्यवहार के भेद, पुरुषों के प्रकार एवं आलोचना से सम्बन्धित अनेक प्रकरण ठाणं एवं भगवती में प्राप्त होते हैं। ये सभी प्रकरण आगम-संकलन काल में व्यवहार से संग्रहीत किए गए हैं, ऐसा प्रतीत होता है।
___ व्यवहारभाष्य की अनेक गाथाएं दिगम्बर ग्रंथों में भी संक्रान्त हुई हैं। भगवती आराधना एवं मूलाचार में व्यवहार भाष्य की अनेक गाथाएं शब्दशः मिलती हैं। विद्वानों ने भगवती आराधना एवं मूलाचार को संकलित रचना के रूप में स्वीकार किया है। इसमें नियुक्तिसाहित्य एवं भाष्यसाहित्य की अनेक गाथाएं संक्रान्त हैं। आलोचना एवं प्रायश्चित्त की अनेक गाथाएं स्पष्टतः व्यवहारभाष्य से इन ग्रंथों में संकलित की गई हैं। मात्र उन गाथाओं में भाषा की दृष्टि से शौरसेनी का प्रभाव दृष्टिगत होता है। ठाणं, भगवती एवं भगवती आराधना के कुछ तुलनात्मक उद्धरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं
व्यभा
भग.
भआ
ठाणं ५/२११, २१२
१६८
४७१
२२६ ३०८ ५२० ५२१, ५२२
४१६
८/१८ ८/१८, १०/७१ १०/७०
२५/५५४ २५/५५३ २५/५५२
५२३
५६४ ४५३
५/१४६
५६६ ५६६ १७२४, ४२५२ ४०६५ ४१८०-८३ ४१८४
४३१ ६१६, ६२०
१०/७३, ८२० ५/१८४
२५/२७८
४२६६
५३०
४२६८
५२७
४२६६
५४६
४११
४३०१ ४३१२ ४३१३ ४५६-७ ४५७१, ४५७२ ४५७३, ४५७ 889
४/४१४ ४/४१५,४१६ ४/४१७ ४/४१८
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४८]
व्यवहार भाष्य
भग.
भआ
व्यभा ४५७८ ४५८१-८५ ४५६० ४५६३-६५ ४५६४ ४५६७ ४६०४
ठाणं ४/४१६ ४/४२० ४/४२२ ४/४२४, ४२५ ४/४२३ ३/१८७ ३/१८६
टीकाकार मलयगिरि
व्यवहार भाष्य के टीकाकार आचार्य मलयगिरि हैं। उनके जीवनवृत्त के बारे में इतिहास में विशेष सामग्री नहीं मिलती। न ही उनकी गुरु-परम्परा का कोई उल्लेख मिलता है। ये हेमचन्द्र के समवर्ती थे। उनके साथ उन्होंने विशिष्ट साधना से विद्यादेवी की आराधना की थी। देवी से उन्होंने जैन आगमों की टीका करने का वरदान मांगा था। इनका समय विद्वानों ने बारहवीं शताब्दी के आसपास माना है।
आचार्य मलयगिरि की प्रसिद्धि टीकाकार के रूप में अधिक हुई है। लेकिन उन्होंने एक शब्दानुशासन भी लिखा है। शब्दानुशासन के प्रारम्भ में वे 'आचार्यो मलयगिरिः शब्दानुशासनमारभते' का उल्लेख करते हैं।
आगम-ग्रंथों पर लिखी सहस्रों पद्य परिमाण टीकाएं ही उनकी सूक्ष्ममेधा का निदर्शन है। मलयगिरि की टीकाएं मूलस्पर्शी अधिक हैं। अपनी टीका में उन्होंने लगभग सभी शब्दों की सटीक एवं संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत की है। टीका के बिना मूल ग्रंथों के हार्द को समझना अत्यन्त कठिन है।
व्यवहार पर लिखी गयी उनकी टीका व्यवहार सूत्र एवं भाष्य के अनेक रहस्यों को प्रकट करनेवाली है। व्याख्या के प्रसंग में अनेक पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएं उनकी टीका में मिलती हैं, जैसे• अत्र गुरुशब्देनोपाध्याय उच्यते (१६७ टी. प. ५५)। । • चारित्रस्य प्रवर्तकः प्रज्ञापक उच्यते (४१७४ टी. प. ४७)। • धर्मे विषीदतां प्रोत्साहकः स्थविरः (२१७ टी. प. १३)।
कहीं-कहीं दो समान शब्दों का अर्थभेद भी उन्होंने बहुत निपुणता से प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार कहीं-कहीं कोई अव्यय या धातु यदि नए अर्थ में प्रयुक्त हुई है तो उसका अर्थ-संकेत भी मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है। जैसे
• पकुब्बी त्ति कुर्व इत्यागमप्रसिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः। (५२० टी. प. १८)। • नापि पश्चाच्छब्दः पश्चादानुपूर्वीवाचकः किन्तु प्रसिद्धार्थप्रतिपादको ज्ञेयः (५७ टी. प. ३८)। व्याख्या के प्रसंग में कुछ विशिष्ट न्यायों एवं लोकोक्तियों का उल्लेख भी वृत्तिकार ने किया है• कोऽयमर्धजरतीयो न्यायः (५०२ टी. प. ११)। • यत् पूर्वोक्तं तद्यथोक्तं न्यायम् (१५२४ टी. प. ३६)। • काक्यपि हि किलैकवारं प्रसूते इति प्रसिद्धिः ( १४५८ टी. प. २३)।
पाठ-संपादन में टीका का अविरल योग रहा है। प्राकृत में णं अव्यय वाक्यालंकार के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। प्राचीन लिपि में कहीं भी शब्दों या अक्षरों का अलग-अलग सिरा नहीं होता था इसलिए णं अव्यय वाक्यालंकार में प्रयुक्त हुआ है या षष्ठी विभक्ति के अर्थ में यह भेद स्पष्ट रूप से टीका के आधार पर ही ज्ञात होता है।
व्याख्या के साथ-साथ उन्होंने उस समय की परम्पराएं एवं सांस्कृतिक तत्त्वों का समावेश भी अपनी टीका में किया है
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[४६
भाष्यकार ने संक्षिप्त में कथा का संकेत किया है किन्तु उन्होंने पूरी कथा का विस्तार दिया है। बिना टीका के उन कथाओं को समझना आज अत्यन्त कठिन होता। टीका में उन्होंने किसी विषय की पुष्टि में अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिए हैं, जो उनकी बहुश्रुतता के द्योतक हैं।
आचार्य मलयगिरि द्वारा विरचित नंदी, राजप्रश्नीय आदि २५ टीका ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। कर्म प्रकृति, सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक आदि की टीका के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे केवल आगमों के ही नहीं वरन् गणितशास्त्र, दर्शनशास्त्र एवं कर्मसिद्धान्त के भी गहरे विद्वान् थे। कहा जा सकता है कि टीकाकारों में इनका स्थान प्रथम है।
व्यवहार
व्यवहार शब्द अनेक अर्थों में प्रचलित है। संस्कृत कोशों में व्यवहार शब्द विवाद अर्थ में प्रयुक्त है। लौकिक दृष्टि से व्यवहार शब्द आचरण के अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है। व्यवहार शब्द व्यापार के लिए भी प्रयुक्त होता है। मनुस्मृति में व्यवहार शब्द मुकदमे के अर्थ में प्रयुक्त है। विशेषावश्यक भाष्य में नय के प्रसंग में व्यवहार शब्द के निम्न अर्थों का उल्लेख है-१. प्रवृत्ति २. प्रवृत्तिकर्ता ३. जिससे सामान्य का निराकरण किया जाए ४. सामान्य लोगों द्वारा आचरित ५. सब द्रव्यों के अर्थ का विनिश्चय। आचार्य मलयगिरि ने व्यवहार के तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है, जिससे व्यवहार शब्द का अर्थ आचार फलित होता है।
व्यवहार शब्द भिन्न-भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। दशवैकालिक नियुक्ति में आक्षेपणी कथा के चार भेदों में दूसरी कथा का नाम व्यवहार आक्षेपणी है। सत्य के दस भेदों में एक नाम व्यवहार सत्य है। राशि के दो प्रकारों में एक नाम व्यवहार राशि है। गणित के दस भेदों में एक भेद व्यवहार है, जिसे पाटी गणित भी कहते हैं। समयसार में नय की प्ररूपणा में व्यवहार शब्द का अर्थ अभूतार्थ-अयथार्थ किया है।
कात्यायन ने व्यवहार शब्द के तीन घटकों का अर्थ इस प्रकार किया है-वि+ अव + हार अर्थात् जो नाना प्रकार से संदेहों का हरण करता है, वह व्यवहार है। प्राकृत में वव+ हार इन दो शब्दों से व्यवहार की निष्पत्ति मानी गयी है। ग्रंथकार ने अनेक रूपों में व्यवहार शब्द को व्याख्यायित किया है
दो व्यक्तियों में विवाद होने पर जो वस्त जिसकी नहीं है, उससे वह वस्तु लेकर जिसकी वह वस्तु है, उसे देना व्यवहार है। मनुस्मृति की मिताक्षरा टीका में भी व्यवहार शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त है।
• 'विविहं वा विहिणा वा, ववणं हरणं च ववहारो' अर्थात् विविध प्रकार से विधिपूर्वक अतिचारहरण हेतु तप, अनुष्ठान आदि का वपन/दान करना व्यवहार है। १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३ पृ. ३८७। २. बृहद् हिंदी कोश पृ. १०६८, शब्दकल्पद्रुम भाग ४ पृ. ५३४-४३ । ३. अमरकोश- १/६,अभिधान.२/१७६। ४. सूत्रकृतांग १/३/२५ : हिरण्णं ववहाराइ, तं पि दाहामु ते वयं। मनुस्मृति ७१३७। ५. मनुस्मृति ८१। ६. विभा.२२१२ महेटी-पृ. ४५३ । ७. व्यभा. १५२ टी. प. ५१ : कल्पो व्यवहार आचार इत्यनर्थान्तरम् । ८ दशनि. १६७। ६. अभयदेवसूरि के अनुसार जिसमें व्यवहार प्रायश्चित्त का निरूपण हो, वह व्यवहार आक्षेपणी है। (देखें ठाणं ४/२४७ स्थाटी प. २००), कुछ आचार्यों ने
व्यवहार शब्द को ग्रंथ विशेष का द्योतक भी माना है (स्थाटी. प. २००)। १०. ठाणं १०/८६ ११. ठाण १०/१००1 १२. समयसार गा. १३। १३. कात्यायन; वि नानार्थेऽव संदेहे, हरणं हार उच्यते।
नानासंदेहहरणाद्, व्यवहार इति स्थितिः ॥ १४. व्यभा.५, बृभापी. पृ. ४; यस्य नाभवति तस्य हापयति, यस्याभवति तस्मै ददाति इति व्यवहारः । १५. मनुस्मृति मिताक्षरा। परस्परं मनुष्याणां, स्वार्थविप्रतिपत्तिषु । वाक्यान्न्यायाद्यवस्थानं, व्यवहार उदाहतः।। १६. व्यभा ३, उशांटी प ६४: व्यवहारः प्रमादात् स्खलितादौ प्रायश्चित्तदानरूपआचरणम्।
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• ' जेण य ववहरइ मुणी जं पि य बवहरइ सो वि ववहारो।" अर्थात् जिसके द्वारा मुनि आगम आदि व्यवहार का प्रयोग करता है, वह व्यवहार है अथवा जिस व्यवहर्त्तव्य का मुनि प्रयोग करता है, वह भी व्यवहार है।
● 'विविधो वा अवहारः व्यवहारः' अर्थात् विविध प्रकार से निश्चय करना व्यवहार है।
भाष्य में व्यवहार के चार एकार्थक प्राप्त हैं- १. व्यवहार २ आलोचना ३. प्रायश्चित्त ४. शोधि । यद्यपि इनको एकार्थक नहीं माना जा सकता किन्तु व्यवहार विशोधि का कारण है और ये चारों शब्द विशोधि की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में व्यवहार शब्द आलोचना, शोधि एवं प्रायश्चित्त- इन तीनों अर्थों में प्रयुक्त है।
ग्रंथकार ने भाव व्यवहार के ६ एकार्थकों का उल्लेख किया है- १. सूत्र २. अर्थ ३. जीत ४. कल्प ५. मार्ग ६. न्याय ७. ईप्सितव्य ८ आचरित ६. व्यवहार ।
भाष्यकार ने स्वयं यहां एक प्रश्न उपस्थित किया है कि ये एकार्थक जीतव्यवहार के सूचक हैं फिर इसके लिए भाव व्यवहार के एकार्थकों का उल्लेख क्यों किया? प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सूत्र शब्द से आगम और श्रुत व्यवहार गृही हैं। अर्थ शब्द से आज्ञा और धारणा व्यवहार का ग्रहण है। तथा शेष शब्द जीतव्यवहार के द्योतक हैं।
भाष्यकार ने संक्षेप में निक्षेप पद्धति द्वारा व्यवहार की व्याख्या की है किंतु टीकाकार ने आगमतः- नोआगमतः द्रव्य एवं भाव व्यवहार की विस्तृत चर्चा की है।
द्रव्य लौकिक व्यवहार में टीकाकार ने आनंदपुर का उदाहरण दिया है। आनंदपुर में खड्ग के द्वारा व्यक्ति को उदीर्ण करने पर अस्सी हजार रूप्यक का तथा मारने पर भी इतने ही रूप्यकों का दंड होता था । प्रहार करने पर यदि व्यक्ति नहीं मरता तो केवल पांच रूपये का दंड तथा उत्कृष्ट रूप से कलह में प्रवृत्त होने पर अर्धत्रयोदश रुपयों का दंड दिया जाता था।
लोकोत्तर द्रव्य व्यवहार में पीत वस्त्रधारी पार्श्वस्थ साधुओं का उल्लेख है जो जिनेश्वर की आज्ञा का पालन न करके स्वच्छंद विहार करते थे तथा परस्पर अशन-पान आदि के आदान-प्रदान रूप व्यवहार भी करते थे । भाव व्यवहार में आगम, श्रुत आदि पांच व्यवहारों का समावेश है।
व्यवहार दो प्रकार का होता है - १. विधि व्यवहार २. अविधि व्यवहार । व्यवहार सूत्र आध्यात्मिक ग्रंथ होने से यहां विधि व्यवहार का प्रकरण है अविधि व्यवहार मोक्षमार्ग का विरोधी है। "
1
निर्ग्रन्थों एवं संयतों के लिए दो प्रकार के व्यवहारों का उल्लेख है - आभवद् व्यवहार एवं प्रायश्चित्त व्यवहार । सचित्तादि वस्तु को लेकर जो व्यवहार होता है, वह आभवद् व्यवहार है तथा प्रतिसेवना का आचरण करने पर अपराधी के प्रति जो व्यवहार होता है, वह प्रायश्चित्त व्यवहार है।
आभवद् व्यवहार
आभवद् व्यवहार के पांच प्रकार हैं - १. क्षेत्र २. श्रुत ३ के भेद इस प्रकार मिलते हैं-- १. सचित्त २. अचित ३. मिश्र ४
प्रायश्चित्त व्यवहार के भी पांच प्रकार हैं- सचित्त, अचित्त, क्षेत्र, काल और भाव ।
१. व्यभा• ३८८ ।
क्षेत्र आभवद् व्यवहार
आठ ऋतुमास तया चार वर्षावास के लिए क्षेत्र की मार्गणा करना क्षेत्र आभवद् व्यवहार है। क्षेत्र की मार्गणा करने के लिए
बृचू अप्रकाशित ।
२.
३. व्यभा. १०६४
४. व्यभाषी. टी. प ७ द्वावप्यर्थात्मकत्वादर्थग्रहणेन सूचिती ।
व्यवहार भाष्य
५. व्यभा. ६ टी. प ६, तुलना बृभा. ५१०४, जीभा २३७३ ।
६. व्यभा. ६ टी. प ६ ।
७. व्यभा. ५।
८
पंकभा. २३६३ ।
सुख-दुःख ४ मार्ग ५. विनय । पंचकल्पभाष्य में आभवद् व्यवहार क्षेत्र-निष्पन्न ५. काल निष्पन्न ।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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गए हुए मुनि क्षेत्र की प्रत्युप्रेक्षणा कर आचार्य के पास आकर क्षेत्र के गुण-दोष बताते हैं। उस गच्छ में अन्य गच्छ से आये हुए मुनि क्षेत्र की प्रत्युप्रेक्षणा सुनकर अपने आचार्य के पास जाकर क्षेत्र विषयक सारी बात बताते हैं तथा आचार्य को उस क्षेत्र में ले जाते हैं तो वे प्रायश्चित्तभाक् होते हैं। उनको स्वयं क्षेत्र की प्रत्युप्रेक्षणा करके आना चाहिए।
क्षेत्र-प्रत्युप्रेक्षक क्षेत्र की जानकारी विधिपूर्वक करते हैं। क्षेत्र के तीन प्रकार हैंजघन्य क्षेत्र- (१) भिक्षा-परिभ्रमण भूमि विशाल हो।
(२) उत्सर्ग की सुविधा हो। (३) भिक्षा सुलभ हो।
(४) वसति सुलभ हो। उत्कृष्ट क्षेत्र-तेरह गुणों से अन्वित क्षेत्र उत्कृष्ट क्षेत्र कहलाता है
(१) पंक-बहुल न हो। (२) सम्मूछिम जीवों का उपद्रव न हो। (३) स्थंडिल भूमि एकान्त में हो। (४) चारों दिशाओं में महास्थंडिल भूमि हो। (५) गोरस की प्रचुरता हो। (६) जहां की जनता प्रायः भद्रक हो। (७औषध सुलभ हो। (६) अन्नभण्डार प्रचुर हों। (६) जहां का राजा भद्र पुरुष हो। (१०) जहां वैद्य भद्रक हों। (११) जहां अन्यतीर्थिक अकलहकारी हों। (१२) भिक्षा सुलभ हो। तीसरे प्रहर में पर्याप्त भिक्षा मिलती हो। अन्य पौरुषियों में भी वह प्राप्त हो।
(१३) वसति में या अन्यत्र भी स्वाध्याय की सुलभता हो। मध्यम क्षेत्र-जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र से मध्यम गुणों वाला क्षेत्र मध्यम क्षेत्र कहलाता है।
क्षेत्र प्रत्युप्रेक्षणा के लिए अनेक गच्छों से अनेक मुनि गए हों और सभी एक ही स्थान की अभिलाषा रखते हों ऐसी स्थिति में अनेक विधियों का विवरण भाष्य तथा वृत्ति में प्राप्त है। वहां कौन रहे, कौन न रहे, कैसे रहे आदि की विधियां सुनिश्चित हैं। उदाहरण स्वरूप दो वर्ग हैं-एक वृषभ का और एक आचार्य का। यदि वह क्षेत्र दोनों वर्गो के लिए पर्याप्त है तो दोनों वर्ग वहां रहें। यदि ऐसा न हो तो वृषभ का वर्ग वहां से विहार कर दे, आचार्य का वर्ग रहे। यदि दोनों वर्ग तुल्य हों-दोनों गणी हों या दोनों आचार्य हों तो यह पद्धति विहित है-एक का शिष्य परिवार निष्पन्न है और एक का निष्पन्न नहीं है तो निष्पन्न शिष्य परिवार वाला वहां से विहार कर दे और अनिष्पन्न वाला वहां रहे। यदि दोनों का निष्पन्न परिवार हो तो तरुण शिष्य वाला चला जाए, वृद्ध वाला वहां रहे। दोनों तरुण या वृद्ध परिवार वाले हों तो शैक्ष परिवार वाला रहे, चिरप्रव्रजित परिवार वाला चला जाए। यदि दोनों समान हों तो जुंगित परिवार वाला रहे, अजुंगित परिवार वाला चला जाए। दोनों मुंगित परिवार वाले हों तो जो पादनुंगित हैं वे ठहरें, दूसरे चले जाएं।
इसी प्रकार साध्वी वर्ग की भी मार्गणा होती है। भाष्यकार ने क्षेत्र विषयक और भी अनेक बातों का वर्णन किया है।
१. व्यभा.३८६१-६४| २. वही ३८६७-६६1 ३. बही ३६१६-१८॥ ४. व्यभा.३६१६-५७।
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५२]
व्यवहार भाष्य
श्रुत आभवद् व्यवहार
श्रुतसंपद् के दो प्रकार हैं -अभिधारण और पठन। इन दोनों के दो-दो प्रकार हैं- अनंतर और परंपर। दो के मध्य जो श्रुतोपसंपद् होती है, वह अनंतर है और तीन आदि के मध्य होने वाली श्रुतोपसंपद् परंपर कहलाती है। इसी सदंर्भ में भाष्यकार ने सान्तरा और अनन्तरा वल्ली के विषय में जानकारी दी है। उनके अनुसार अनन्तरा वल्ली में ये छह व्यक्ति उल्लिखित हैं-माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्री और दुहिता। सान्तरा वल्ली-नानी, नाना, मातुल, मौसी, दादा, दादी, चाचा, बुआ तथा भाई की सन्तान-भतीजा, भतीजी, बहिन की सन्तान-भानजी, भानजा, पुत्र की सन्तान-पौत्र, पौत्री आदि ।
इस विषय में भाष्यकार ने विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की है।
सुख-दुःख आभवद् व्यवहार
इसके दो प्रकार हैं-अभिधार और उपसम्पन्न। मार्गोपसंपद् आभवद् व्यवहार
कोई मार्गज्ञ मुनि अन्य देश के लिए प्रस्थित है। दूसरा मुनि भी उसी देश में जाने का इच्छुक है। वह मार्गज्ञ साधु के पास उपसंपदा ग्रहण करता है। यह मार्गोपसंपद् है। इसमें मुख्यता मार्गज्ञ मुनि की होती है। विनयोपसंपद् आभवद् व्यवहार
वास्तव्य तथा आगंतुक मुनियों के विनय व्यवहार का निर्देशक तत्त्व है-विनयोपसम्पद् । आगंतुक मुनियों द्वारा वर्षा-प्रायोग्य क्षेत्र पूछे जाने पर यदि वास्तव्य मुनि मौन रहते हैं तो प्रायश्चित्त के भागी होते हैं तथा आगन्तक व्यक्ति यदि इस विषय की पृच्छा नहीं करते तो वे स्वयं प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। इसी प्रकार भाष्यकार ने रालिक तथा अवमरात्निक के पारस्परिक वंदना, आलोचना आदि के विषय में भी पर्याप्त विमर्श किया है।
प्रायश्चित्त व्यवहार
प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य के दो भेद हैं-सचित्त एवं अचित्त।
सचित्त-प्रायश्चित्त
सचित्त-प्रायश्चित्त दो प्रकार का है। प्रथम तो जीवों की विराधना होने पर तथा दूसरा सूत्र में निषिद्ध व्यक्तियों को दीक्षा देने पर। सजीव की विराधना होने पर मिलने वाले प्रायश्चित्त के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
एकेन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर उपवास। द्वीन्द्रिय जीवों का अपद्रावण होने पर बेला। त्रीन्द्रिय जीवों के अपद्रावण होने पर तेला। चतुरिन्द्रिय जीवों के अपद्रावण होने पर चोला। पंचेन्द्रिय जीवों के अपद्रावण होने पर पंचोला। अथवा जिसके जितनी इंद्रियां हैं उतनी विराधना होने पर उतने ही कल्याणक का प्रायश्चित्त आता है। एकेन्द्रिय की परितापना होने पर एक कल्याणक।
१. व्यभा. २१५७-६१, ३६५८-८०। २. व्यभा.३६८१-६२। ३. व्यभा.३६६३-६६ ४. व्यभा.४०००-४००८|
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व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन
द्वीन्द्रिय की परितापना होने पर दो कल्याणक अर्थात् पुरिमार्ध ( दो प्रहर) । त्रीन्द्रिय की परितापना होने पर तीन कल्याणक अर्थात् एकाशन ।
चतुरिन्द्रय की परितापना होने पर चार कल्याणक अर्थात् आचाम्ल । पंचेन्द्रिय की परितापना होने पर पांच कल्याणक अर्थात् उपवास।
पुरुषों में अठारह स्त्रियों में बीस तथा नपुंसक में दस प्रकार के व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य माने गए हैं। इनको प्रव्रजित करने वाला सचित्त विषयक प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसका विस्तृत वर्णन बृहत्कल्पभाष्य एवं पंचकल्पभाष्य में मिलता है । अचित्त प्रायश्चित्त
पिंड एवं उपधि ग्रहण करते समय होने वाली स्खलना से प्राप्त प्रायश्चित्त। एषणा एवं उत्पादन के दोषों से युक्त भोजन ग्रहण करने पर तथा अविधि से उपधि आदि ग्रहण करने पर प्राप्त प्रायश्चित्त ।
क्षेत्र एवं काल विषयक प्रायश्चित्त
जनपद, मार्ग, सेना का अवरोध, मार्गातीत (क्षेत्रातिक्रान्त आहार करना) – इनमें अविधि से होने वाले दोष का प्रायश्चित्त क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त है । दुर्भिक्ष, सुभिक्ष, दिन में या रात में होने वाली अविधि के कारण प्राप्त प्रायश्चित्त काल विषयक प्रायश्चित है।
भाव विषयक प्रायश्चित्त
इसका अर्थ है- योगत्रिक एवं करणत्रिक की अशुभ प्रवृत्ति, निष्कारण दर्प की प्रतिसेवना, पांच प्रकार के प्रमाद से सम्बन्धित प्रायश्चित्त । भाव विषयक प्रायश्चित्त में पुरुषों के आधार पर भी प्रायश्चित्त दिया जाता है।
पुरुषों के तीन प्रकार हैं- परिणामक, अतिपरिणामक, अपरिणामक । इन तीनों के तुल्य अपराध में भी प्रायश्चित्त में नानात्व रहता है। इसके अतिरिक्त ऋद्धिमन्निष्क्रान्त, अऋद्धिमन्निष्क्रान्त, असह, ससह, पुरुष, स्त्री, नपुंसक, बाल, तरुण, स्थिर, अस्थिर, कृतयोगी, अकृतयोगी, सप्रतिपक्ष, अप्रतिपक्ष इन सबके तुल्य अपराध होने पर भी पुरुष भेद से प्रायश्चित्त में भिन्नता रहती है। इसी प्रकार स्वभाव की दृष्टि से दारुण एवं भद्रक इन दोनों के समान अपराध में भी प्रायश्चित्तदान में भेद रहता है। "
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व्यवहार का एक अर्थ है-प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त के आधार पर व्यवहार के मुख्यतः तीन भेद किए गए हैं-गुरुक, लघुक और लघुस्वक इन तीनों के तीन-तीन प्रकार हैं
गुरुक, गुरुतरक, यथागुरुस्वक ।
लघु लघुतरक, यथालपुस्वक।
लघुस्व, लघुस्वतरक, यथालघुस्वक।
गुरुक व्यवहार अर्थात् एक मास का प्रायश्चित्त। यह तेले की तपस्या से पूरा हो जाता है । गुरुतरक व्यवहार अर्थात् चार मास का प्रायश्चित्त । यह चोले की तपस्या से पूरा हो जाता है। यथागुरुस्वक व्यवहार अर्थात् छह मास का प्रायश्चित्त यह पंचोले की तपस्या से पूरा हो जाता है। लघुक व्यवहार अर्थात् तीस दिन का प्रायश्चित्त। यह बेले की तपस्या से पूरा हो जाता है । लघुतरक व्यवहार अर्थात् पच्चीस दिन का प्रायश्चित्त यह उपवास की तपस्या से पूरा हो जाता है यथालघुस्वक व्यवहार अर्थात् बीस दिन का प्रायश्चित्त यह आचाम्ल की उपस्या से पूरा हो जाता है। लघुस्वक व्यवहार अर्थात् पन्द्रह दिन का प्रायश्चित्त यह एकलठाणा की तपस्या से पूरा हो जाता है।
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[ ५३
१. व्यभा. ४०११, ४०१२ ।
२. व्यभा. ४०१३ |
३. व्यभा. ४०१० ।
४. व्यभा. ४०१७-२६ ।
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५४ ]
व्यवहार भाष्य
लघुतरस्वक व्यवहार अर्थात् दस दिन का प्रायश्चित्त । यह पूर्वार्द्ध की तपस्या से पूरा हो जाता है। यथालघुस्वक व्यवहार अर्थात् पांच दिन का प्रायश्चित्त। यह विगयवर्जन (निर्विकृतिक) की तपस्या से पूरा हो जाता है।
गुरुक, लघुक तथा लघुस्वक आदि प्रायश्चित्तों के विधान का प्रयोजन बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि अतिपरिणामक में जागरूकता पैदा करने तथा अपरिणामक में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि प्रायश्चित्त के द्वारा यहां विशुद्धि कराई जाती है तथा शेष मुनियों में प्रतिसेवना के प्रति भय पैदा करने के लिए गुरु, गुरुतर आदि प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है।
भाष्यकार ने इस बात का निर्देश किया है कि व्यवहार शब्द में व्यवहारी एवं व्यहर्त्तव्य भी अन्तर्गर्भित हैं। इसे उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-जैसे कुंभ नाम का उच्चारण करने से कुंभकार (कत्ता) एवं मिट्टी, चक्र (करण) आदि का स्वतः ग्रहण हो जाता है, जैसे ज्ञान शब्द के उच्चारण से ज्ञानी और ज्ञान क्रिया (ज्ञेय) दोनों का अधिग्रहण हो जाता है वैसे ही व्यवहार शब्द में व्यवहारी एवं व्यवहर्त्तव्य-दोनों का समावेश हो जाता है। यहां पहले पांच व्यवहारों का वर्णन किया जा रहा है। उसके बाद व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य का वर्णन किया जाएगा।
पांच व्यवहार
ग्रंथकार ने आगम आदि पांचों व्यवहारों को द्वादशांग का नवनीत कहा है, जिसका निर्ग्रहण चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु ने द्वादशांगी से किया। भाष्यकार ने व्यवहार का महत्त्व यहां तक बता दिया कि जिसके मुख में एक लाख जिह्वा हो वह भी व्यवहार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्रस्तुत नहीं कर सकता। किन्तु चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु ने द्वादशांगी के नवनीत रूप में इसका सुंदर उपदेश हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है। ___व्यवहार का मूल अर्थ है-करण। करण अर्थात् न्याय के साधन । वे पांच हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में व्यवहार शब्द न्याय अर्थ में प्रयुक्त है। पांच व्यवहारों का उल्लेख ठाणं एवं भगवती में भी मिलता है। पर व्यवहार सूत्र से ही यह पाठ ठाणं एवं भगवती में संक्रान्त हुआ है, ऐसा अधिक संभव लगता है। आगम व्यवहार
जिसके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं, वह आगम है।" ज्ञान पर आधारित होने के कारण प्रथम व्यवहार का नाम आगम व्यवहार है। ज्ञान और आगम दोनों एकार्थक हैं।२ कारण में कार्य का उपचार करने से जिन ग्रंथों में ज्ञान निबद्ध है अथवा जो ज्ञान के साधन हैं, वे भी आगम कहलाते हैं। आगम व्यवहार के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से दर्शाया जा सकता है
१. व्यभा. १०६४-७ टी. प. २४, २५, बृभा.६०३६-४४ । २. बृभा. ६०३८ : तेसिं पच्चयहेउं जे पेसविया सुयं व तं जेहिं।
भयहेउसेसगाणं इमा उ आरोवणारयणा।। ३. व्यभा.२ टी प ४॥ ४. व्यभा.२,३। ५. व्यभा.४४३१, जीभा.५६०। ६. यहां यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि भाष्यगत 'व्यवहार' शब्द का अर्थ टीकाकार ने व्यवहारसूत्र किया है। यहां व्यवहार शब्द पांच व्यवहार का
वाचक होना चाहिए। ७. व्यभा.४५५१,४५५२। ८. व्यभा.२ : ववहारो होति करणभूतो उ। ६. व्यसू १०/६। १०. भ.८/३०१, ठाणं ५/१२४। ११. भटी. प.३८४ : आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया अर्था अनेनेत्यागम उच्यते। १२. व्यभा. ४०३६; णातं आगमियं ति य एगहें।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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आगम व्यवहार
परोक्ष
प्रत्यक्ष इन्द्रिय
पांच इन्द्रियों से होनेवाला रूपादि का ज्ञान
नोइन्द्रिय
अवधि, मनःपर्यव,
केवल
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अक्ष का अर्थ आत्मा किया है। अर्थात जो ज्ञान सीधा आत्मा से होता प्रत्यक्ष है। अक्ष का अर्थ इन्द्रिय भी है। जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त इन्द्रिय आदि से होता है, वह परोक्ष है।"
प्रश्न उपस्थित होता है कि आगम व्यवहार में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का ग्रहण क्यों किया गया? इसका समाधान जीतकल्पभाष्य में प्राप्त होता है। भाष्यकार जिनभद्रगणि लिखते हैं कि प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी भी श्रोत्रेन्द्रिय से दूसरे की प्रतिसेवना सुनकर, चक्षु से दूसरे को अनाचार का सेवन करते देखकर, घ्राण द्वारा धूप आदि की गन्ध से चींटी आदि की विराधना जानकर, कंदादि को खाते देखकर, अंधकार में स्पर्श से अभ्यंग आदि को जानकर इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आगम व्यवहारी (चतुर्दशपूर्वी आदि) व्यवहार का प्रयोग करते हैं।
नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का विस्तृत वर्णन जीतकल्पभाष्य में मिलता है।
श्रुत व्यवहार ___ जो आचार्य या मुनि कल्प और व्यवहार के सूत्रों को बहुत पढ़ चुका है और उसके अर्थ को सूक्ष्मता से जानता है तथा दोनों ग्रंथों की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है।
टीकाकार के अनुसार कुल, गण आदि में करणीय-अकरणीय का प्रसंग उपस्थित होने पर पूर्वो से कल्प और व्यवहार का नि!हण किया गया। इन दोनों सूत्रों का निमज्जन कर, व्यवहार विधि के सूत्र का स्पष्ट उच्चारण कर, उसके अर्थ का अवगाहन कर जो प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है, वह श्रुतव्यवहार है।
जीतकल्प चूर्णि के अनुसार पूर्वधर (१ से पूर्व), ११ अंग के धारक, कल्प, व्यवहार तथा अवशिष्ट श्रुत के अर्थ के धारक मुनि श्रुतव्यवहार का प्रयोग करते हैं।
आज्ञा व्यवहार
भक्त-प्रत्याख्यान में संलग्न, विशोधि एवं शल्योद्धरण का इच्छुक आचार्य या मुनि दूरस्थित छत्तीस गुण सम्पन्न आचार्य से आलोचना करना चाहता है। ऐसी अवस्था में आज्ञा व्यवहार की प्रयोजनीयता होती है। आज्ञा व्यवहार भी श्रुत व्यवहार के समान ही होता है।
आज्ञा व्यवहार को व्याख्यायित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि विशोधि का इच्छुक आचार्य या मुनि जब शोधिकारक
१. व्यभा. ४०२६४०३०। २. जीभा. ११ जीवो अक्खो तं पति, जं बट्टइ तं तु होइ पच्चक्खं।
परओ पुण अक्खस्सा, बट्टतं होइ पारोक्खं॥ ३. जीभा. २०-२२। ४. जीभा. २३-१०७। ५. व्यभा. ४४३२-३५ । ६. व्यभा. ४४३६ टी. प. ८१। ७. नवपूर्वी तक आगमव्यवहारी होते हैं। ८. जीचू-पृ. २ सुयववहारो पुण अवसेसपुब्बी एक्कारसंगिणो आकप्पववहारा अवसेससुए य अहिगय-सुत्तत्था सुयववहारिणो त्ति। ६. जीचू.पृ. ४ : आणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो।
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व्यवहार भाष्य
आचार्य के समीप जाने में असमर्थ हो तथा शोधिकारक आचार्य भी जब शोधिकर्ता के पास जाने में असमर्थ हो उस स्थिति में शोधि का इच्छुक आचार्य अपने शिष्य को दूरस्थित शोधिकारक आचार्य के पास भेजकर शोधि की प्रार्थना करता है। तब आचार्य अपने आज्ञापरिणामक तथा धारणाकुशल शिष्य को उनके पास भेजते हैं। आज्ञापरिणामक शिष्य भगवद आज्ञा के प्रति वितर्कणा नहीं करता किंतु गुरु-आज्ञा के अनुरूप अपना कर्त्तव्य निभाता है। गुरु-आज्ञा की रहस्यमयता का अवबोध कराने के लिए भाष्यकार ने अपरिणामक, परिणामक एवं अतिपरिणामक को दो उदाहरणों द्वारा समझाया है
गुरु ने शिष्य से कहा-जाओ, उस ताड़वृक्ष पर चढ़कर नीचे कूद पड़ो। शिष्य अपरिणामक था। वह गुरु से अनेक तर्क-वितर्क करते हुए क्रोधित होकर बोला-क्या साधु को सचित्त वृक्ष पर चढ़ना कल्पता है? क्या आप मुझे मारना चाहते हैं? अतिपरिणामक शिष्य बोला-मेरी भी यही इच्छा थी। मैं अभी वृक्ष से गिरता हूं। गुरु उन दोनों को समझाते हैं कि मेरे कथन का तात्पर्य यह था कि तप, नियम, ज्ञानमय वृक्ष पर आरोहण कर भवसागर से पार हो जाओ। परिणामक शिष्य सोचता है कि मेरे गुरु स्थावरजीवों की हिंसा की भी इच्छा नहीं करते फिर पंचेन्द्रिय की हिंसा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जरूर इस आदेश में कोई रहस्य होगा-ऐसा सोचकर वह वृक्षारोहण के लिए तत्पर हुआ उस समय गुरु ने उसका हाथ पकड़कर रोक लिया।
दूसरा बीज का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार कहते हैं-गुरु के द्वारा बीज लाने का आदेश देने पर अपरिणामक शिष्य तत्काल उत्तर देता है-साधु के लिए बीज लाना कल्पनीय नहीं है। अतिपरिणामक यह आदेश सुनते ही पोटली में बीज बांधकर ले आता है। आदेश प्राप्त कर परिणापक शिष्य गुरु से पूछता है-कैसे बीज लाऊं? उगने योग्य लाऊं या उगने में 3 बीजों को लाऊं? गुरु उसके विवेक को जान लेते हैं। इस प्रकार परीक्षा करके गुरु आज्ञा परिणामक एवं धारणाकुशल शिष्य को शुद्धिकर्ता आचार्य के पास भेजते हैं। वह शिष्य ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र संबंधी अतिचारों को सम्यक्तया सुनता है। दर्पविषयक एवं कल्पविषयक प्रतिसेवना को अच्छी तरह से धारण करता है।
आचार्य द्वारा प्रेषित वह धारणा कुशल शिष्य आलोचक की प्रतिसेवना को क्रमशः सुनता है, उसकी अवधारणा करता है तथा आलोचक की अर्हता, संयम एवं गृहस्थ पर्याय का कालमान, शारीरिक एवं मानसिक बल तथा क्षेत्र विषयक बातें आलोचक आचार्य से ज्ञात कर स्वयं उसका परीक्षण कर वह अपने देश में लौट आता है। वह अपने गुरु के पास जाकर उसी क्रम से सब बातें गुरु को निवेदन करता है, जिस क्रम से उसने तथ्यों का अवधारण किया था। तब व्यवहार-विधिज्ञ आलोचनाचार्य कल्प और व्यवहार दोनों छेदसूत्रों के आलोक में पौर्वापर्य का आलोचन कर सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सही अवगति करते हैं। पुनः उसी शिष्य को आदेश देते हैं-'तुम जाओ और उस विशोधिकर्ता मुनि या आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आ जाओ।' इस प्रकार आचार्य के वचनानुसार प्रायश्चित्त देना आज्ञा व्यवहार है।
आज्ञा व्यवहार की एक दूसरी व्याख्या भी मिलती है-दो गीतार्थ आचार्य गमन करने में असमर्थ हैं। दोनों दूर प्रदेशों में स्थित हैं। कारणवश वे एक दूसरे के पास जाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में यदि उन्हें प्रायश्चित्त विषयक परामर्श लेना हो तो गीतार्थ शिष्य न होने पर अगीतार्थ शिष्य को जो धारणा में कुशल हैं, उसे गूढ़ पदों में अपने अतिचारों को निगहित कर दूरदेशस्थित आचार्य के पास भेजते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी शिष्य के साथ गूढ़ पदों में उत्तर भेजते हैं, यह आज्ञा व्यवहार है। गूढ़ पदों में
को भाष्यकार ने विस्तार से प्रस्तुत किया है। उदाहरण स्वरूप यहां एक-दो गाथाएं प्रस्तुत की जा रही हैं
१. जीचू पृ. २३ : जहाभणिया सद्दहंता आयरता य परिणामगा भन्नति। २. जो उत्सर्ग में ही श्रद्धा करता है और उसका ही आचरण करता है, वह अपरिणामक है। (अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्दहति आयरंति य, जीचू.
पृ. २३) ३. जो अपवाद का ही आचरण करता है और उसी में आसक्त होता है, वह अतिपरिणामक है। (अइपरिणामगा जो अववायमेवायरंति तम्मि चेव सज्जति
न उस्सग्गे, जीचू. पृ. २३)।
जो अकारण प्रतिसेवना की जाती है, वह दर्प प्रतिसेवना है। उसके दस प्रकार हैं। देखें व्यभा. ४४६१-६२ । ५. कारण उपस्थित होने पर जो प्रतिसेवना की जाती है, वह कल्प प्रतिसेवना है। उसके २४ प्रकार हैं। देखें, व्यभा. ४४६३-६६ । ६. व्यभा.४४३-४५०२।। ७. व्यभा. टी.प. ६, जीचू. पृ. २, स्थाटी.प. ३०२ ।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभितरं तु, पढमं भवे ठाण।।' बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा।
पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ यहां प्रथमपद से प्राणातिपात तथा षट्क से पृथ्वीकाय आदि का ग्रहण है।
धारणा व्यवहार
व्यवहार का चौथा प्रकार है-धारणा। मतिज्ञान का चौथा भेद भी धारणा है। संभवतः उसी आधार पर व्यवहार का एक भेद धारणा रखा गया है। धारणा व्यवहार भी श्रुत व्यवहार के सदृश है। चूर्णिकार के अनुसार श्रुत व्यवहार और धारणा व्यवहार में इतना ही अंतर है कि श्रुत व्यवहार के एक अंश का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है। भाष्यकार ने धारणा के चार एकार्थकों का उल्लेख किया है। ये सभी धारणा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं
१. उद्धारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत अर्थपदों को धारण करना। २. विधारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत विशिष्ट अर्थपदों को विविध रूप से स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा-धारण किए हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना। ४. संप्रधारणा-सम्यक् रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना।
ग्रंथकार ने धारणा व्यवहार को विविध रूपों में परिभाषित किया है। ये परिभाषाएं धारणा व्यवहार के बारे में प्रचलित उस समय की विविध अवधारणाओं एवं अवस्थाओं को प्रकट करने वाली हैं
किसी गीतार्थ संविग्न आचार्य ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना के आधार पर दिये जाने वाले प्रायश्चित्त को देखा अथवा किसी को आलोचना-शुद्धि करते देखा उसको उसी प्रकार धारण कर वैसी परिस्थिति में वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।
वैयावृत्त्यकर, गच्छोपग्राही, स्पर्धकस्वामी, देशदर्शन में सहयोगी तथा संविग्न द्वारा दिए गए उचित प्रायश्चित्त की अवधारणा धारणा व्यवहार है।
जो शिष्य सेवा आदि कार्यों में संलग्न रहने के कारण छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ है उस पर आचार्य अनुग्रह करके छेदसूत्रों के कुछ अर्थपद उसे सिखाते हैं। छेदसूत्रों का वह अंशतः धारक मुनि जो प्रायश्चित्त देता है, वह धारणा व्यवहार है।
धारणा व्यवहार का प्रयोग कैसे मुनि पर किया जाता है, इसकी निम्न कसौटियां बताई गयी हैंप्रवचनयशस्वी-जो प्रवचन एवं श्रमण संघ का यश चाहता है। अनुग्रहविशारद-जो दीयमान प्रायश्चित्त या व्यवहार को अनुग्रह मानता है। तपस्वी-जो विविध तप में संलग्न है। श्रुतबहुश्रुत-जिसको आचारांग श्रुत विस्मृत नहीं होता अथवा जो बहुश्रुत होने पर भी श्रुत के उपदेश के अनुसार चलता है। विशिष्टवाक्सिद्धियुक्त-विनय एवं औचित्य से युक्त वाक्शुद्धि वाला।
१. व्यभा.४४६८। २. व्यभा.४४७५। ३. जीचू-पृ. ४ धारणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो। सुयववहारेगदेसो धारणाववहारो। ४. व्यभा.४५०३।।
व्यभा. ४५१५-१७, जीचू. पृ. ४।
व्यभा.६ टी प. ७। ७. व्यभा.४५१८, ४५१६। ८. व्यभा.४५०८, ४५०६।
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५८]
व्यवहार भाष्य
उपर्युक्त गुणों से युक्त व्यक्ति की प्रमादवश मूलगुण अथवा उत्तरगुण विषयक स्खलना होने पर प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव में कल्प, निशीथ तथा व्यवहार-तीनों के कुछ अर्थपों की अवधारणा कर यथायोग्य प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है।
धारणा व्यवहार का प्रयोक्ता मुनि भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से छेदसूत्रों के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन करने वाला, धीर, दान्त एवं क्रोधादि से रहित होता है। ऐसी विशेषताओं से युक्त मुनि द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह धारणा व्यवहार है। जीतव्यवहार यह पाचवां व्यवहार है। इसका महत्त्व सार्वकालिक है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार जीतव्यवहार में प्रायश्चित्त दान में भी भिन्नता आती रहती है। व्यवहार भाष्यकार ने इसके तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है।-१. बहुजनआचीर्ण, २. जीत, ३. उचित। चूर्णिकार सिद्धसेनगणि के अनुसार भी इसके तीन एकार्थक हैं-जीत, करणीय एवं आचरणीय तथा नंदी टीका में इसके पांच एकार्थक प्राप्त हैं-जीत, मर्यादा, व्यवस्था, स्थिति एवं कल्प।
चूर्णिकार के अनुसार ब्राह्मण परम्परा में भी जीवघात होने पर प्रायश्चित्त का विधान है किंतु उनकी परंपरा में एकेन्द्रिय प्राणी से त्रस प्राणी आदि के संघट्टन, परितापन या अपद्रवण आदि होने पर प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। किंतु निर्ग्रन्थ शासन में जीतव्यवहार विशोधि में विशेष रूप से निमित्त भूत बनता है। जिस प्रकार पलाश, क्षार एवं पानी आदि के द्वारा वस्त्र के मल को दूर किया जाता है वैसे ही कर्ममल से मलिन जीव की अतिचार विशुद्धि में जीतव्यवहार द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का विशेष महत्त्व है। प्रायश्चित्त दान का यह भेद अन्यत्र कहीं भी उल्लिखित नहीं है।
जीत व्यवहार की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। यहां कुछ परिभाषाओं को प्रस्तुत किया जा रहा है
• जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार किसी आचार्य द्वारा प्रवर्तित होता है तथा महान् आचार्य जिसका अनुवर्तन करते हैं, वह जीतव्यवहार है।
जो प्रायश्चित्त जिस आचार्य के गण की परम्परा से अविरुद्ध है, जो पूर्व आचार्य की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, वह जीतव्यवहार है।
. अमुक आचार्य ने, अमुक कारण उत्पन्न होने पर, अमुक पुरुष को अमुक प्रकार से प्रायश्चित्त दिया, उसका वैसी ही स्थिति में वैसा ही प्रयोग करना जीतव्यवहार है। इसी बात को जीतकल्प चूर्णि में इस भाषा में कहा है कि गच्छ में किसी कारण से जो सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त का प्रवर्तन हुआ, बहुतों के द्वारा अनेक बार उसका अनुवर्तन हुआ, वह जीतव्यवहार है।
• जो व्यवहार बहुश्रुत के द्वारा अनेक बार प्रवर्तित होता है तथा किसी श्रुतधारक के द्वारा उसका प्रतिषेध नहीं किया जाता, वह वृत्तानुवृत्त व्यवहार जीतव्यवहार है।
• पूर्वाचार्यों ने जिन अपराधों की शोधि अत्यधिक तपस्या के आधार पर की, उन्हीं अपराधों की विशोधि द्रव्य, क्षेत्र, काल
१. व्यभा. ४५११-१४। २. उशांटी. प. ६३ : त्रिकालविषयत्वात् जीतव्यवहारस्य। ३. व्यभा.६ : बहुजणमाइण्णं पुण जीतं उचियं ति एगहूँ। ४. जीचू. पृ. ४ : जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्जं ति वा एगहुँ ।
नंदीटी. पृ. ११ : जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प इति पर्यायाः। ५. जीचू.पृ. २ : अन्ने वि मरुयादीया पायच्छित्तं देंति थूलबुद्धिणो जीव-घायम्मि कत्थइ सामन्नेण; ण पुण संघट्टण-परितावणोद्दवण-भेयण सव्वेसिमेगिन्दियाईणं
तस्स पज्जवसाणाणं दाउं जाणन्ति । उवएसो वा तेसिं समए एरिसो नत्थि। इह पुण सासणे सव्वमत्यि त्ति काउं विसेसेण सोहणं भण्णइ। जहा य पलास-खारोदगाइ वत्थमलस्स सोहणं तहा कम्ममलमइलियस्स जीवस्स जीय-ववहार-निद्दिटुं पायच्छित्तं । परमं पहाणयं पगिट्ठमिति वा । न अण्णत्थ एरिसं
ति जं भणियं होइ। ६. व्यभा-४५२१ । ७. व्यभा. १२॥ ८ व्यभा.४५३४। ६ जीचू.पृ.४। १०. व्यभा.४५४२।
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व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन
[ ५६
और भाव के आधार पर चिन्तन कर तथा संहनन आदि की हानि को लक्ष्य में रखकर गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रवर्तित समुचित तप रूप प्रायश्चित्त जीत व्यवहार है।
जो आचार्य आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि से रहित है, वह परम्परा से प्राप्त जति व्यवहार का प्रयोग करता है। अतः उसके आधार पर आगम से कम, समान या अतिरिक्त प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है।' जीत व्यवहार के मूल में आगम आदि कोई व्यवहार नहीं, अपितु समय की सूझ एवं परम्परा होती है।
भाष्यकार के समय में जीतकल्प के प्रवर्त्तन विषयक दो परम्पराएं प्रचलित थीं। एक परम्परा के अनुसार आचार्य जंबू के सिद्ध होने पर अंतिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया, उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन हुआ। दूसरे मत के अनुसार चतुर्दशपूर्वी के व्यवच्छिन्न होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तमुहूर्त्त में १४ पूर्वी का परावर्तन तथा आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि चारों व्यवहारों का विच्छेद हो गया। उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन ही शेष रहा । इन मान्यताओं का निराकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो चतुर्दशपूर्वधर के विच्छेद होने पर व्यवहार चतुष्क के विच्छेद की घोषणा करते हैं, वे मिथ्यावादी होने के कारण प्रायश्चित्त के भागी हैं।
चतुर्दशपूर्वी के विच्छेद होने पर मनः पर्यव, परमावधि, पुलाकलब्धि, आहारकलब्धि, क्षपक श्रेणी, उपशम श्रेणी, जिनकल्प संयमत्रिक (अंतिम तीन संयम ) केवली, सिद्धि - ये बारह अवस्थाएं विच्छिन्न हुईं, किन्तु व्यवहार चतुष्क का लोप नहीं हुआ ।
जीतकल्प चूर्णि के अनुसार जीतकल्प का अस्तित्व त्रैकालिक है।" द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना, शरीर संहनन, धृतिबल आदि के आधार पर जीत व्यवहार प्रायश्वित्त का प्रवर्तन किया गया।
जीतव्यवहार के भेद
प्रायश्चित्त के आधार पर जीत व्यवहार के दो भेद हैं- सावद्य और निरवद्य। व्यवहार का सम्बन्ध सावद्य जीत से नहीं, निरवद्य जीत से है। अपराध की विशुद्धि के लिए शरीर पर राख का लेप करना, कारागृह में बंदी करना, गधे पर बिठाकर सारे नगर में घुमाना, उदर से रेंगने का दण्ड देना- ये सब सावध जीत हैं। आलोचना आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त देना निरवद्य जीत है। कभी-कभी लोकोत्तर क्षेत्र में अनवस्था प्रसंग (दोषों की पुनरावृत्ति) के निवारण हेतु सावध जीत का प्रयोग भी किया जाता था।" साबध जीत का प्रयोग उस व्यक्ति पर किया जाता था जो बार-बार दोषसेवी, सर्वथा निर्दयी तथा प्रवचन से निरपेक्ष होता था। जो संविग्न, प्रियधर्मा, अप्रमत्त, पापभीरु होते थे उनके द्वारा यदि प्रमादवश स्खलना हो जाती तो उनके प्रति निरवद्य जीतव्यवहार का प्रयोग विहित था । '
.१०
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प्रकारान्तर से भी जीतकल्प के दो भेद किए गए हैं - १. शोधिकरजीत, २. अशोधिकरजीत ।
जो व्यवहार संवेगपरायण एवं दान्त आचार्य द्वारा आचीर्ण होता है, वह शोधिकर जीत है, फिर चाहे वह एक ही व्यक्ति द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। जो पार्श्वस्थ और प्रमत्तसंयत द्वारा आचीर्ण व्यवहार होता है, वह अशोधिकर जीत है, फिर चाहे वह अनेक व्यक्तियों द्वारा ही आचीर्ण क्यों न हो। १२
१. जीटी- पृ. ३८५ जीतव्यवहारस्तु येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपः प्रकारेण शुद्धिं कृत्वन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपः प्रकारेण या गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते ।
२. व्यभा. ४५३३ ।
३. जीचू. पू. ४
४. व्यभा. ४५२३
५. व्यभा. ४५२४ ।
६. व्यभा. ४५२५ ।
७. व्यभा. ४५२६, ४५२७।
८. जीचू. पृ. ४ जीवेइ वा तिविहे काले तेणं जीयं ।
६. जीचू. पृ. ११।
१०. व्यभा• ४५४४, ४५४५ ।
११. व्यभा. ४५४६ ।
१२. व्यभा. ४५४७-४६ ।
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६०]
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व्यवहार भाष्य
जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त में भिन्नता
___ गच्छभेद से सामान्य जीत व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता था। इसे समझाने के लिए भाष्यकार ने कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं
कुछ आचार्यों के गण में नवकारसी या पोरसी न करने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था। आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहर, दो कायोत्सर्ग न करने पर एकाशन आदि का विधान था।
कुछ गण में आवश्यक गत एक कायोत्सर्ग न करने पर निर्विगय, दो कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहर, तीन कायोत्सर्ग न करने पर आयम्बिल तथा पूरा आवश्यक न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था।
इस प्रकार उपधान तप विषयक भिन्न-भिन्न गच्छों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं थीं। वे सभी अपनी-अपनी आचार्य-परम्परा से प्राप्त होने के कारण अविरुद्ध थीं।
नागिलकुलवर्ती साधुओं के आचारांग से अनुत्तरौपपातिक तक की आगम-वाचना में उपधानतप के रूप में आचाम्ल नहीं केवल निर्विगय तप का विधान था तथा आचार्य की आज्ञा से विधिपूर्वक कायोत्सर्ग कर उन आगमों को पढ़ते हुए भी विगय का उपयोग कर सकते थे।
कुछ परम्पराओं में कल्प, व्यवहार तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को आगाढयोग के अन्तर्गत तथा कछ परम्पराओं में अनागाढयोग के अन्तर्गत माना जाता था।
इसी प्रकार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के घटन, परितापन, अपद्रावण आदि के विषय में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त निर्धारित थे।
पृथ्वी, पानी आदि एकेन्द्रिय जीवों के संघट्टन होने पर निर्विकृतिक, अनागाढ़ परितापन देने पर पुरिमार्ध, आगाढ़ परिताप देने पर एकाशन तथा प्राणव्यपरोपण होने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था।
विकलेन्द्रिय जीवों का घट्टन होने पर निर्विकृतिक, अनागाढ़ परिताप होने पर एकाशन, आगाढ़ परिताप होने पर आचाम्ल तथा प्राणव्यपरोपण होने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था।
पंचेन्द्रिय के घटन होने पर एकाशन, अनागाढ़ परितापन होने पर आचाम्ल, आगाढ़ परितापन होने पर उपवास तथा प्राण व्यपरोपण होने पर पंचकल्याणक का प्रायश्चित्त विहित था।
गच्छभेद से जिस प्रकार जीत व्यवहार में भिन्नता होती है वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना आदि के आधार पर भी जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त दान में तरतमता रहती है। द्रव्य के आधार पर जिस क्षेत्र में आहार आदि द्रव्य उत्तम सुलभ मिलते हैं वहां जीत के आधार पर अधिक तपरूप प्रायश्चित्त दिया जा सकता है तथा जहां चना, मोठ, कांजी आदि रूक्ष आहार भी बहुत गवेषणा करने पर मिलता हो, वहां जीतव्यवहार के आधार पर कम तपरूप प्रायश्चित्त भी दिया जाता है।
क्षेत्र तीन प्रकार के होते हैं-१. रूक्ष-वायु एवं पित्त को कुपित करने वाले। २. शीत-जलबहुल तथा स्निग्ध, ३. स्निग्धरूक्ष-साधारण। क्षेत्र की दृष्टि से स्निग्ध क्षेत्र में अधिक, साधारण क्षेत्र में सामान्य या मध्यम तथा रूक्ष क्षेत्र में कम प्रायश्चित्त दिया जाता है।
मा
१. व्यभा. १२ टी.प. । २. व्यभा-११ टी प. । ३. व्यभा. १२ टी प. ४. व्यभा.४५३७-४१। ५. यहाँ पंचकल्याणक का तात्पर्य निर्विगय, पुरिमार्द्ध, एकाशन, आयम्बिल, उपवास-तपस्या के इन पांच भेदों से है। ६. व्यभा-४५३७। ७. जी. ६४ दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिस-पडिसेवणाओ य।
नाउमियं चिय देज्जा, तम्मत्तं हीणमहियं वा। ८ जी. ६५ चू. पृ. २१ आहाराई दवं, बलियं सुलहं च नाउमहियं पि।
देज्जाहि दुब्बलं दुल्लहं च नाऊण हीणं पि॥ ६. जी. ६६ लुक्खं सीयल-साहारणं च खेत्तमहियं पि सीयम्मि।
लुक्खम्मि हीणतरयं, एवं काले वि तिविहम्मि॥
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
ऋतु के आधार पर काल के तीन प्रकार हैं-१. ग्रीष्म-रूक्ष, २. हेमन्त-साधारण ३. वर्षावास-स्निग्ध।
ग्रीष्म ऋतु में तीन प्रकार के प्रायश्चित्तों में जघन्य एक उपवास, मध्यम बेला तथा उत्कृष्ट तेले का प्रायश्चित्त दिया जाता है। हेमन्त में जघन्य बेला, मध्यम तेला तथा उत्कृष्ट चोला दिया जाता है। वर्षावास में जघन्य तेला, मध्यम चोला तथा उत्कृष्ट पंचोला दिया जाता है।
भाव के आधार पर नीरोग या हृष्ट-पुष्ट प्रतिसेवी पुरुष को सम या अधिक प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। किन्तु ग्लान को प्रायश्चित्त देने के निम्न विकल्प हैं
• रोगी को अल्प प्रायश्चित या अशक्तता होने पर प्रायश्चित्त नहीं भी दिया जाए। • जितनी वह तपस्या कर सके उतना ही प्रायश्चित्त दिया जाए। • अथवा जब वह नीरोग या हृष्ट हो जाए तब उससे प्रायश्चित्तस्वरूप तप कराया जाए।
पुरुष की अपेक्षा से भी प्रायश्चित्त कम या ज्यादा दिया जाता है। पुरुष अनेक प्रकार के होते हैं-गीतार्थ-अगीतार्थ, सहिष्णु-असहिष्णु, मायावी-ऋजु, परिणामक-अपरिणामक आदि। जो धृति-संहनन सम्पन्न, परिणत, कृतयोगी एवं आत्मपरतर (तपस्या एवं सेवा आदि में निपुण) हैं, उन्हें जीत व्यवहार के आधार पर अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। जो धृति, संहनन आदि से हीन हैं, उन्हें कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो धृति, संहनन आदि से सर्वथा हीन हैं, उन्हें प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है।
व्यवहार पंचक का प्रयोग
व्यवहार के प्रयोग के विषय में आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि जहां आगम व्यवहार हो वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे, जहाँ आगम न हो वहां श्रुत से, जहां श्रुत न हो वहां आज्ञा से, जहां आज्ञा न हो वहां धारणा से तथा जहां धारणा न हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। अर्थात जिस समय जिस व्यवहार की प्रधानता हो उस समय उस व्यवहार का प्रयोग राग-द्वेष से मुक्त होकर तटस्थ भाव से करना चाहिए। व्यभा में स्पष्ट उल्लेख है कि अनुक्रम से व्यवहार पंचक का प्रयोग विहित है। पश्चानुपूर्वी क्रम से या विपरीत क्रम से व्यवहार का प्रयोग करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है।
इस क्रम में भी क्षेत्र और काल के अनुसार जहां जो व्यवहार संभव हो उसी का प्रयोग करना चाहिए। अथवा जिस क्षेत्र में युगप्रधान आचार्यों द्वारा जो व्यवस्था दी गई है, उसी का व्यवहार करना चाहिए।
संघ में व्यवहार के प्रयोग में और भी अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्य-इन पांच प्रकार की उपसंपदाओं तथा क्षेत्र, काल और प्रव्रज्या का अवबोध कर संघ में व्यवहार करना चाहिए।
जैन आचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार नियम एवं प्रायश्चित्तों का विधान किया। इसीलिए नियमों एवं प्रायश्चित्त-दान में कहीं रूढता का वहन नहीं हुआ। मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि पर ही उन्होंने पांच व्यवहारों की प्रस्थापना की, ऐसा कहा जा सकता है। एक ही प्रकार के अपराध में अवस्था, ज्ञान, धृति एवं सामर्थ्य के अनुसार दंड में अंतर आ जाता है। इसी प्रकार एक व्यक्ति ने प्रथम बार गलती की, दूसरा व्यक्ति बार-बार गलती को दोहराता है तो उस स्थिति में भी प्रायश्चित्त-दान में बहुत बड़ा अंतर आ जाता है।
१. जी.६७ चू. पृ. २१॥ २. जीचू. पृ. २३ : आयतरगो नाम जो उपवासेहि दढो। परतरगो नाम जो वेयावच्चकरो गच्छोवग्गहकरो वत्ति। ३. जीचू. पृ. २४। ४. व्यभा. १०/६, भग, /१८, ठाणं ५/१२४ । ५. व्यभा-३८८३।। ६. (अ) भटी-पृ. ३८५ : यदा यस्मिन् अवसरे यत्र प्रयोजने वा क्षेत्रे वा यो य उचितस्तं तदा काले तस्मिन् प्रयोजनादौ।
(ब) व्यभा- ३३६५ टी प. १० : "तत्रापि व्यवहारः क्षेत्रं कालं च प्राप्य यो यथा संभवति तेन तथा व्यवहरणीयम्। यत्र क्षेत्रे युगप्रधानैराचार्यैः या
व्यवस्था व्यवस्थापिता तथा अनिश्रोपश्रितं व्यवहर्त्तव्यम्। ७. व्यभा. १६६२।
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६२]
व्यवहार भाष्य
अन्य परंपराओं में
बौद्ध परम्परा में व्यवहार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किंतु दीघनिकाय के 'महापरिनिब्बान सुत्त' में चार महापदेशों का उल्लेख मिलता है
१. बुद्ध द्वारा प्रवर्तित। २. संघ द्वारा प्रवर्तित ३. महान् भिक्षुओं द्वारा प्रवर्तित ।
४. किसी विहार के महान् आचार्य द्वारा प्रवर्तित। ब्राह्मण परम्परा में भी पांच व्यवहार के संवादी निम्न तत्त्व मिलते हैं
१. संपूर्ण वैदिक शास्त्र के आधार पर। २. ऋषियों द्वारा प्रणीत स्मृति ग्रन्थों के आधार पर। ३. श्रुति और स्मृति के धारक व्यक्तियों द्वारा प्रवर्तित शील। ४. सदाचार-अन्यान्य स्थितियों, क्षेत्रों, व्यक्तियों में प्रचलित वे धारणाएं, जो श्रुतियों और स्मृतियों के विपरीत न हों।
५. स्वसमाधान-आत्मा की आवाज। व्यवहारी
व्यवहारी शब्द हिंदी शब्दकोशों में मुकदमा लड़ने वाला तथा वादी आदि अर्थों में प्रयुक्त है। सूत्रकृतांग में 'व्यवहारी' शब्द का प्रयोग व्यापारी के लिए हुआ है। कौटिल्य ने व्यवहारी शब्द न्यायकर्ता के लिए प्रयुक्त किया है। जो आगम आदि व्यवहार को सम्यक् रूप से जानकर प्रायश्चित्तदान में उसका सम्यक् प्रयोग करता है, वह व्यवहारी है। शब्दकल्पद्रुम में १६ वर्ष के बाद व्यवहारज्ञ बनता है, ऐसा उल्लेख मिलता है।
जो रिश्वत लेकर व्यवहार/न्याय करते हैं, वे लौकिक द्रव्यव्यवहारी हैं तथा जो राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ भाव से न्याय करते हैं, वे लौकिक भाव व्यवहारी हैं।
भाष्यकार ने लोकोत्तर भाव व्यवहारी की निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया है-६ प्रियधर्मा- कर्त्तव्यपरायण। दृढ़धर्मा-अपने निश्चय में अटल। संविग्न-संसारभीरु। वद्यभीरु-पापभीरु। सूत्रार्थ-तदुभयविद्-शास्त्रवित्। अनिश्रितव्यवहारकारी-राग-द्वेष रहित व्यवहार करने वाला।
व्यवहारी में इन विशेषताओं का होना इसलिए आवश्यक है कि जिसको न्याय या प्रायश्चित्त दिया जा रहा है, उसका उस पर विश्वास हो सके कि यह सही न्याय/व्यवहार कर रहा है। भाष्यकार का अभिमत है कि बहुश्रुत होते हुए भी जो मुनि न्याय नहीं करता, उसका व्यवहार प्रमाण नहीं हो सकता। न्याय से व्यवहार करना व्यवहारी की योग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
दिगम्बर ग्रंथों के अनुसार पांच प्रकार के व्यवहारों को विस्तार से जानने वाले, अन्य आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखने वाले
9. Aspects of Jain Monasticism P. 3. २. सू.१/३/७८ समई व ववहारिणो। ३. व्यभा-५२० टी प. १८।
शब्दकल्पद्रुम भाग ४, पृ. ५४३ । ५. व्यभा-१३ टी-प. ८॥ ६. व्यभा. १५ टी.प. 1 ७. व्यभा. १७४।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
[६३
तथा स्वयं भी प्रायश्चित्त का प्रयोग करने वाले आचार्य को व्यवहारवान आचार्य कहते हैं।'
जिनप्रणीत आगम में कुशल, धृति सम्पन्न, व्यवहार का प्रयोग करने में कुशल तथा राग-द्वेष रहित मुनि प्रायश्चित्त देने के अधिकारी होते हैं।
केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी, कल्पधर, प्रकल्पधर, कल्प एवं व्यवहार की पीठिका के ज्ञाता तथा आज्ञा, धारणा एवं जीत व्यवहार में कुशल आचार्य या मुनि व्यवहारी अर्थात् प्रायश्चित्त देने में प्रामाणिक माने जाते हैं।
व्यवहारी के संदर्भ में शिष्य ने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित किया है कि वर्तमान में आगम व्यवहारी का विच्छेद हो चुका है अतः यथार्थ शुद्धिदायक के अभाव में चारित्र शुद्धि का भी अभाव हो गया है। आजकल कोई मासिक एवं पाक्षिक प्रायश्चित्त भी नहीं देता है अतः तीर्थ ज्ञानमय एवं दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। दूसरी बात, प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी अपराध एवं प्रतिसेवी की क्षमता के अनुसार प्रायश्चित्त देते हैं, न्यून या अधिक प्रायश्चित्त नहीं देते। किंतु कल्पधर, व्यवहारधर आदि आगम व्यवहार के अभाव में मनचाहा प्रायश्चित्त दे सकते हैं अतः आजकल निर्यापकों का भी अभाव हो गया है।
इस प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सारे प्रायश्चित्तों का विधान नौवें पूर्व प्रत्याख्यान प्रवाद की तृतीय आचार वस्तु में है। वहीं से निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार का निर्वृहण हुआ है। वे ग्रंथ एवं उनके ज्ञाता आज भी विद्यमान हैं। अतः वर्तमान में भी चारित्र के प्रज्ञापक हैं तथा प्रायश्चित्तों का वहन करने वाले भी हैं। चतुर्दशपूर्वी के काल तक दसों प्रायश्चित्तों का अस्तित्त्व रहता है। उसके पश्चात् प्रथम आठ प्रायश्चित्तों का अस्तित्त्व तब तक रहेगा जब तक तीर्थ चलेगा। यदि प्रायश्चित्त नहीं होगा तो चरित्र भी नहीं रहेगा तथा चरित्र न रहने पर तीर्थ का अस्तित्त्व भी समाप्त हो जाएगा। निर्ग्रन्थ के बिना तीर्थ का अस्तित्त्व तथा तीर्थ के बिना निर्ग्रन्थों का अस्तित्त्व नहीं रहता। अतः जब तक षट्कायसंयम है तब तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय-ये दो चारित्र रहेंगे तथा चारित्र की विद्यमानता में प्रायश्चित्त का अस्तित्त्व भी अनिवार्य है।
इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे चक्रवर्ती का प्रासाद वर्धकि रत्न द्वारा निर्मापित होता है, अतः उसकी शोभा अनुपम होती है। उसे देखकर अन्यान्य राजा भी अपने वर्धकियों से प्रासाद का निर्माण करवाते हैं वैसे ही परोक्षज्ञानी भी प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी की भांति ही व्यवहार करते हैं।
एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि व्यवहारी की प्रामाणिकता को केवल बहुश्रुत ही समझ सकते हैं दूसरे उसे प्रमाण कैसे मानेंगे? भाष्यकार कहते हैं-व्यवहारछेदक दो प्रकार के होते हैं-प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय। प्रशंसनीय वे होते हैं, जो यथार्थ व्यवहारी होते हैं और अप्रशंसनीय वे होते हैं, जो व्यवहार योग्य नहीं होते। इस प्रसंग में भाष्यकार ने तगरा नगरी के एक आचार्य के सोलह शिष्यों का उल्लेख किया है, जिनमें आठ शिष्य व्यवहारी तथा आठ अव्यवहारी थे।
भाष्यकार ने आचार्य के आठ अव्यवहारी शिष्यों का नामोल्लेख न करते हुए केवल उनके दोषों को प्रतीक एवं रूपक के माध्यम से समझाया है। लेकिन व्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है। उनकी विशेषताओं का उल्लेख नहीं किया। प्रश्न होता है कि अव्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख क्यों नहीं किया? इस प्रश्न के समाधान में ऐसी संभावना की जा सकती है कि अव्यवहारी शिष्य आठ से अधिक हो सकते हैं इसलिए उनको प्रतीक के माध्यम से समझाया है। दूसरी बात है कि गलती के रूप में किसी के नाम का उल्लेख अव्यवहारिक प्रतीत होता है इसलिए भी संभवतः भाष्यकार ने शिष्यों के नामों का उल्लेख नहीं किया हो।
१. भआ.४५०। २. भआ.४५३। ३. व्यभा. ४०३,४०४।।
व्यभा.४१६३-७१। ५. व्यभा. ४१७२-७४ ६. व्यभा. ४२१५-१७। ७. व्यभा-४१७५-७६ ८ व्यभा. १६६३।।
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६४ ]
व्यवहार भाष्य
अव्यवहारी शिष्यों के आठ दोष इस प्रकार हैं
१. कांकटुक : जैसे कोरडू धान्य अग्नि पर पकाने पर भी नहीं पकता वैसे ही कोरडूधान्य तुल्य व्यक्ति का व्यवहार दुछेद्य होता है, सिद्ध नहीं होता।
२. कुणप : जैसे शव का मांस धोने पर भी पवित्र नहीं होता वैसे ही कुणप तुल्य व्यक्ति का व्यवहार निर्मल नहीं होता।
३. पक्व : पक्व फल नीचे गिर जाता है। पक्व फल जैसे व्यक्ति का व्यवहार स्थिर नहीं रहता, गिर जाता है। जैसे चाणक्य के संन्यास लेने पर चन्द्रगुप्त की लक्ष्मी स्थिर नहीं रही, गिर गई। पक्व का दूसरा अर्थ करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि वह इस प्रकार रांभाषण करता है कि दूसरे सद्वादी भी मौन हो जाते हैं। पंचकल्पचूर्णि में पक्व का अर्थ इस प्रकार किया है-भैंस पानी पीने के लिए तालाब में उतरती है, वह सारे पानी को गुदला देती है। उसी प्रकार पक्व भी व्यवहार को जटिल बना देता है।
४. उत्तर : छलपूर्वक, उत्तर देने वाला। वह प्रतिसेवी के साथ दुर्व्यवहार करता है और गीतार्थ मुनि द्वारा उपालम्भ देने पर उन्हें छलपूर्वक उत्तर देता है। जैसे एक व्यक्ति ने दूसरे पर लात से प्रहार किया। पूछने पर कहता है-मैंने पैरों से प्रहार नहीं किया जूते पहने पैर ने प्रहार किया था।
५. चार्वाक : जो व्यर्थ ही निष्फल प्रयत्न करता है और बार-बार उसी का चर्वण करता है, उसका व्यवहार चार्वाक तुल्य होता है।
६. बधिर : बधिर की भांति कहता रहता है कि मैंने प्रतिसेवना सुनी नहीं। ७. गुंठ : माया से व्यवहार की समाप्ति करने वाला (देखें-परिशिष्ट ८ कथा सं ८६)
८. अम्ल : तीखे वचन बोलने वाला। उसके वचनों से व्यवहार का निबटारा नहीं होता। पंचकल्पचूर्णि में इसका अर्थ अंधा व्यवहार किया है।
ये आठों प्रकार के शिष्य अव्यवहारी थे। अव्यवहारी व्यक्तियों की इहलोक में अपकीर्ति तथा परलोक में दुर्गति होती है। इसलिए बहुश्रुत होने पर भी जो अन्याय करता है, न्यायोचित व्यवहार नहीं करता, वह प्रमाण नहीं होता।
आचार्य के जो आठ व्यवहारी शिष्य थे. उनके नाम इस प्रकार हैं-१.पुष्यमित्र, २. वीर, ३. शिवकोष्ठक, ४. आर्यास, ५. अर्हन्नक, ६. धर्मान्वग, ७. स्कंदिल, ८ गोपेन्द्रदत्त। ये अपने युग में प्रधान व्यवहारच्छेदक माने जाते थे। अन्यान्य । राज्यों में भी उनके व्यवहार की छाप थी। कोई उनको चुनौती नहीं दे सकता था। ऐसे सुव्यवहारी मुनियों की इहलोक में कीर्ति
और परलोक में सुगति होती है। व्यवहारी की योग्यता
व्यवहार करने का अधिकार उसे प्राप्त होता है, जो मुनि युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों से व्यवहार आदि ग्रंथों का सम्पूर्ण रूप से सम्यक् अवबोध प्राप्त कर लेता है। वे तीन परिपाटियां ये हैं
१. सूत्रार्थ का परिच्छेद पूर्वक उच्चारण। २. पदविभाग पूर्वक पारायण। ३. निरवशेष पारायण।
आचार्य उसकी ग्रहणशीलता-तीनों परिपाटियों का सम्यक् ग्रहण किया है या नहीं, की परीक्षा करते हैं। दूसरी बार पुनः परीक्षा कर जब वे जान जाते हैं कि यह व्यवहारी हो गया है, तब उसे व्यवहार योग्य मानते हैं। जब शिष्य तीनों परिपाटियों से भावतः सम्पूर्ण सूत्रार्थ का पारगामी हो जाता है, तब वह व्यवहार करने योग्य होता है। इसकी परीक्षा करने के लिए आचार्य उस ग्राहक-शिष्य को विषम स्थलों के विषय में पूछते हैं और जब वह उन विषयों के हार्द को सम्यक् रूप से व्यक्त करने में सक्षम
१. व्यभा. १६६४-१७०१। २. पंकचू.अप्रकाशित; पक्को जहा महिसो पाणीए ओइण्णो एवं सो वि महिसो विव आडुयालं करेइ। ३. वही ६ पृ. ६२८: अंबिलसमाणो नाम अंघ ववहारं करेइ । ४. व्यभा. १७०३, १७०४ । ५. व्यभा. १७०६, १७०७।
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हो जाता है तब उसे व्यवहारकरण योग्य मान लेते हैं। जब ग्राहक- शिष्य तीनों परिपाटियों से व्यवहार आदि छेद ग्रंथों का सम्यक् ग्रहण कर लेता है, बार-बार उनका अभ्यास कर अवधारित कर लेता है, उनके तात्पर्यार्थ जानकर जिसका हृदय निःशंक हो जाता है, वह व्यवहारकरण योग्य होता है।
जो तीनों परिपाटियों से अवबुद्ध होकर संविग्न आचार्य या मुनियों के पास रहकर स्थिर परिपाटी वाला हो जाता है और जब आचार्य से अनुज्ञा प्राप्त कर विहरण करता है, तब वह व्यवहारी होता है।
जो स्व-पर के लिए प्रतिकूल है, मंदधर्मा है और जो आचार्य की अनुज्ञा के बिना अपने प्रयोजन से विहरण करने लगता है, वह अप्रमाण होता है और देशान्तर गमन के अयोग्य होता है। अतः आचार्य के कथन से अवधारणा को पुष्ट कर, सम्प्रदायगत मान्यता के अभिमुख रहकर बार-बार परिपाटियों का अभ्यास करता हुआ, उनकी विस्मृति न करता हुआ, भूतार्थ से व्यवहार करने वाला व्यवहारी होता है ।
जो सचित्त व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार तथा मिश्र व्यवहार इन तीनों के विषय में आचार्य की अवधारणा को जाने बिना, अपनी स्वच्छंदबुद्धि से व्यवहार करता है, वह अयोग्य है, अधन्य है वह उन्मार्ग के उपदेश से तीर्थकरों की आशातना करता है तथा स्वयं को भवभ्रमण के आवर्त में फंसा देता है।
व्यवहारी को संघ में गौरव रहित होकर व्यवहार करना चाहिए। गौरव के आठ प्रकार हैं
१. परिवार गौरव, २. ऋद्धि गौरव ३. धर्मकथी होने का गौरव, ४. दादी होने का गौरव ५ तपस्वी होने का गौरव, ६. नैमित्तिक होने का गौरव, ७ विद्या का गौरव ८ रत्नाधिक होने का गौरव जो इन आठ गौरवों से अपने आपका प्रभुत्व स्थापित करते हैं, वे अगीतार्थ हैं; वे संघ में व्यवहार करने योग्य नहीं होते । संघ में वे ही व्यवहर्त्तव्य होते हैं, जो जिनेश्वर देव के आराधक हैं, गीतार्थ हैं। अगीतार्थ मुनि गौरव से व्यवहार करता हुआ संसार में सारभूत चातुरंग – मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम को खो बैठता हैं और अपार संसार में भटक जाता है।'
संक्षेप में भाष्यकार ने संघ में व्यवहार करने के निम्न गुणों का निर्देश किया है
•
जिसके सूत्र और अर्थ की परिपाटी स्थिर है।
• जो संविग्न है।
• जो राग-द्वेष से विप्रमुक्त है।
• जो गंधहस्ती आचार्यों के समान अनुयोगधर है।
जो इन गुणों से शून्य होता है, वह वीतराग वचनों की महती आशातना ही नहीं करता, व्रतों का लोप भी कर देता है। 'एकव्रतलोपे सर्वव्रतलोपः इस कथन के अनुसार उत्सूत्र की प्ररूपणा रूप मृषावाद के कारण एक व्रत का लोप करते हुए वह पांचों व्रतों का लोप कर देता है। वह मायावी होता है, क्योंकि वह सूत्रों का उल्लंघन कर छलपूर्वक उत्तर देता है। वह पापजीवी होता है, क्योंकि मिथ्या व्यवहार के द्वारा दूसरों को प्रभावित कर उनसे मिलने वाले आहार आदि के उपभोग से जीवित रहता है। यह मृषावाद आदि दोषों से युक्त होने के कारण अशुचि में पड़े कनकदंड के समान अस्पृश्य होता है वह यावज्जीवन आचार्य आदि पद के अयोग्य होता है।
आगम व्यवहारी
अठारह वर्जनीय स्थानों के ज्ञाता, ३६ गुणों में कुशल, आचारवान् आदि गुणों से युक्त, ' आलोचना आदि दस प्रकार के
१. व्यभा. १७०८-२४ ।
२. व्यभा. १७२५ ।
३. व्यभा. १७२६, १७२७ ।
४. व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प समाचरण, गृहिभाजन का प्रयोग, पर्यंक, भिक्षा के समय गृहस्थ के घर बैठना, स्नान, विभूषा - ये अठारह वर्जनीय स्थान हैं। (देखें व्यभा• ४०७०-७५) ।
५. आचार्य की आचार, भुत आदि आठ सम्पदाओं के चार-चार गुण होते हैं। उनके ३२ प्रकार हैं तथा आचारविनय, श्रुतविनय, विक्षेपणाविनय, दोषनिर्घातनविनय आदि चार विनय-प्रतिपत्तियां होती हैं। ये आचार्य के छत्तीस गुण कहलाते हैं। (देखें व्यभा-- ४०७६ - ४१५६) ।
६. आचारवान् आधारवान् व्यवहारवान् आदि आलोचनाई के ८ गुण हैं। (देखें व्यभा. ५१६, ५२०, ठाणं ८/१८)
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व्यवहार भाष्य
प्रायश्चित्तों के ज्ञाता.' आलोचना के दस दोषों के ज्ञाता, व्रत षटक, कायषट्क आदि के ज्ञाता तथा जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न आदि १० गुणों से युक्त, षट्स्थान पतित स्थानों को साक्षात् रूप से जानने वाले तथा राग-द्वेष रहित मुनि/आचार्य आगम व्यवहारी होते हैं। आगम व्यवहारी जिनेन्द्र की आज्ञा से व्यवहार का प्रयोग करते हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश के समक्ष दीपक का प्रकाश नगण्य है वैसे ही आगम व्यवहारी आगम व्यवहार का ही प्रयोग करते हैं, श्रुत आदि व्यवहार का नहीं।
आगम व्यवहारी अतिशय ज्ञानी होते हैं अतः वे प्रायश्चित्ताकांक्षी व्यक्ति के संक्लिष्ट, विशुद्ध एवं अवस्थित परिणामों को साक्षात् जान लेते हैं। इसलिए वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से आलोचक की विशुद्धि हो सके।
आगम व्यवहारी छह हैं-केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी एवं नौ पूर्वी। केवलज्ञानी, मनः-पर्यवज्ञानी एवं अवधिज्ञानी आगमतः प्रत्यक्ष व्यवहारी हैं। चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी एवं गंधहस्ती आचार्य आगमतः परोक्ष व्यवहार का प्रयोग करते हैं।
यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि चतुर्दशपूर्वी आदि श्रुत से व्यवहार करते हैं तो फिर उन्हें आगम व्यवहारी क्यों कहा गया? रूपक के माध्यम से इसका समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं-चतुर्दशपूर्वी आदि प्रत्यक्ष आगम के सदृश हैं इसलिए इन्हें आगम व्यवहार के अन्तर्गत गिना है। जैसे चन्द्र के समान मुख वाली कन्या को चन्द्रमुखी कहा जाता है वैसे ही आगम सदृश होने के कारण पूर्वो के ज्ञाता भी आगम व्यवहार के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। इसका दूसरा हेतु यह है कि पूर्वो का ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों का विशिष्ट अवबोधक होता है, अतिशायी ज्ञान होने के कारण इसे आगम व्यवहार के अन्तर्गत लिया गया है। दूसरा हेतु यह है-जैसे केवली सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थों को जानते हैं वैसे श्रुतज्ञानी भी इनको श्रुत के बल से जान लेते हैं अतः चतुर्दशपूर्वी आदि को आगम व्यवहारी के अन्तर्गत रखा है।"
जिस प्रकार प्रत्यक्ष आगमज्ञानी प्रतिसेवक की राग-द्वेष विषयक हानि-वृद्धि के आधार पर कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देते हैं। उपवास जितने प्रायश्चित्त की प्रतिसेवना करने पर पांच दिन का प्रायश्चित्त दे सकते हैं तथा पांच दिन जितनी प्रतिसेवना करने वाले को उपवास का प्रायश्चित्त दे सकते हैं। वैसे ही चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि के आधार पर प्रायश्चित्त प्रदान करते हैं।१३
प्रत्यक्ष ज्ञानी न्यून या अधिक प्रायश्चित्त क्यों देते हैं? इसके स्पष्टीकरण में भाष्यकार ने रत्नवणिक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। जैसे- निपुण रत्नवणिक् आकार में बड़ा होने पर भी काचमणि का काकिणी जितना ही मूल्य देता है तथा वज्र आदि छोटे रत्न का भी एक लाख मुद्रा मूल्य दे देता है।
एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि प्रत्यक्ष आगमज्ञानी तो प्रतिसेवक के भावों को साक्षात् जानते हैं लेकिन चतुर्दशपूर्वी आदि परोक्ष आगम व्यवहारी दूसरों के भावों को कैसे जानकर व्यवहार करते हैं? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने नालीधमक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे नालिका से पानी गिरने पर समय की अवगति होती है। नालिका द्वारा समय जानकर धमक
१. व्यभा.४१८० ठाणं १०/७३ । २. व्यभा. ५२३; ठाणं १०/७०। ३. व्यभा. ५२१, ५२२; ठाणं १०/७१ । ४. व्यभा.४०७०-४१६११ ५. व्यभा. ४१६२। ६. व्यभा.३९८४ : आगमववहारी आगमेण ववहरति सो न अन्नेणं।
न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति॥ ७. जीचू. पृ. ४ आगमववहारी अइसइणो संकिलिस्समाणं विसुज्झमाणं अवट्ठियपरिणामं वा पच्चक्खमुवलभन्ति, तावइयं च से दिन्ति जावइएण विसुज्झइ। ८ व्यभा.३१८ जीचू. पृ. २। ६ व्यभा. ४०३७। १०. व्यभा. ४०३५ टी. प. ३१। ११. भटी.प. ३८४: श्रुतं शेषमाचारप्रकल्पादिनवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति। १२. व्यभा.४०३६। १३. व्यभा. ४०४०, ४०४१। १४. व्यभा.४०४३-४५।
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शंख बजाकर दूसरो को भी समय की सूचना देता रहता है। वैसे ही परोक्षागम व्यवहारी भी दूसरों की शोधि और आलोचना को सुनकर आलोचक के यथावस्थित भावों को जान लेते हैं। वे आलोचक को पश्चात्ताप की उत्कटता-अनुत्कटता के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं। ___ जैसे परोक्ष आगम व्यवहारी श्रुतबल से जीव, अजीव आदि की पर्यायों को सब नयों से जानते हैं वैसे ही दूसरों के भावों को भी श्रुतबल से जानकर उसकी शोधि के लिए प्रायश्चित्त देते हैं।
आगम व्यवहारी दूसरों के द्वारा आलोचना करने पर तथा उसे सुनकर ही व्यवहार या प्रायश्चित्त का प्रयोग करते हैं। यदि शोधिकर्ता मुनि कषाय के वशीभूत होकर प्रतिसेवना के अतिचारों की सम्यक् रूप से आलोचना नहीं करता, जानबूझकर दोषों को छिपाता है तो आगमव्यवहारी उसे अन्यत्र आलोचना करने की बात कहते हैं। आलोचक यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से विशुद्ध रूप से आलोचना करता है तो आगम व्यवहारी उसके प्रति व्यवहार का प्रयोग करते हैं, अन्यथा नहीं।
यदि आलोचक प्रतिसेवना के अतिचारों की यथाक्रम आलोचना नहीं करता तो भी आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। यदि कोई व्यक्ति सहजता से अपने अपराध को भूल गया है, उसमें माया नहीं है तो आगम व्यवहारी उसे अपराध की स्मृति दिला देते हैं। स्मृति दिलाने पर यदि वह उस अपराध को सम्यक् रूप से स्वीकृत कर लेता है तो प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा अन्यत्र शोधि करने की बात कहते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि आगम एवं आलोचना में विषमता या भेद देखते हैं तो आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। श्रुतव्यवहारी
श्रुतव्यवहारी श्रुत का अनुवर्तन करते हैं। दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों के ज्ञाता तथा कल्प और व्यवहार की नियुक्ति को जानने वाले श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं।
परोक्षज्ञानी आलोचक से तीन बार उसकी प्रतिसेवना सुनते हैं, जिससे वे उसकी माया या ऋजुता को जान सकें। प्रथम बार में नींद का अभिनय करते हुए सुनते हैं, दूसरी बार आलोचना करने पर कहते हैं-मैंने अनुपयुक्त होकर सुना। अतः तुम्हारी आलोचना को धारण नहीं किया, पुनः आलोचना करो। यदि तीनों बार में आलोचक सदृश आलोचना करता है तो श्रुतव्यवहारी जान लेते हैं कि यह ऋजुता से आलोचना कर रहा है और यदि तीनों बार आलोचना करने पर भिन्नता रहती है तो वे उसकी माया या कुटिलता को जान लेते हैं। अतः वे माया और ऋजुता के अनुसार श्रुत के आधार पर व्यवहार करते हैं। ___लौकिक न्याय करते समय भी न्यायकर्ता अपराधी से तीन बार वस्तुस्थिति का ज्ञान करते थे। यदि अपराधी विसदृश बोलता है तो उसे राजकुल में मृषा बोलने एवं माया करने का अधिक दंड मिलता था।
परोक्षज्ञानी प्रतिसेवी का इंगित, आकार अर्थात् शरीरगत भाव-विशेष देखता है। जो विशुद्ध रूप से आलोचना करता है उसके शरीर के सारे आकार-प्रकार वैराग्य भाव के द्योतक होते हैं। स्वर से भी परोक्षज्ञानी प्रतिसेवक की भावशुद्धि को जान लेते हैं। विशुद्ध भाव से आलोचना करने वाले का स्वर अक्षुब्ध, अव्याकुल एवं स्पष्ट होता है। परोक्षज्ञानी वाणी से भी प्रतिसेवक की परीक्षा करते हैं। विशुद्ध भाव से आलोचना करने वाले की वाणी पूर्वापर विसंवादी नहीं होती। आलोचक का आकार, स्वर और वाणी-तीनों संतुलित होते हैं तो परोक्ष ज्ञानी जान जाता है कि यह माया से नहीं अपितु विशुद्ध भाव से आलोचना कर रहा है। जिस प्रकार चिकित्सक रोग के अनुसार औषध देता है, अधिक या कम नहीं, वैसे ही आगम व्यवहारी एवं श्रुतव्यवहारी भी
*
१. व्यभा.४०४६, व्यभा.५१३-१६। २. व्यभा. ४०४८ जीभा १२३। ३. व्यभा. ४०५५, ४. व्यभा. ४०६५ भआ ६२०।
व्यभा. ४०६६-६६। ६. जीचू-पृ. ४: जे पुण सुयववहारी ते सुयमणुयत्तमाणा। ७. व्यभा. ३२०, ४४३२-३५। ८ व्यभा. ३२०, ३२१ टी. प. ४३ । ६ व्यभा. ३२२ टी. प. ४४। १०. व्यभा. ३२३।
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व्यवहार भाष्य
जितने प्रायश्चित्त से व्यक्ति की शुद्धि होती है, उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। अंतिम तीन व्यवहारी श्रुत का ही अनुवर्तन करते हैं।
व्यवहर्त्तव्य
पांच व्यवहारों द्वारा कर्ता (व्यवहारी) जो निष्पादित करना चाहता है, वह व्यवहर्त्तव्य है। व्यवहर्त्तव्य कार्य के योग से पुरुष भी व्यवहर्त्तव्य कहलाते हैं। अर्थात् जिसके प्रति व्यवहार द्वारा प्रायश्चित्त का प्रयोग किया जाता है, वह व्यवहर्त्तव्य है। वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है।
द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य के अन्तर्गत चोर, पारदारिक, हिंसक आदि का ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार जात सूतक और मृतक सूतक तथा शूद्र आदि के घरों पर भोजन करने से ब्राह्मणों द्वारा जो बहिष्कृत कर दिए जाते हैं अर्थात् जिनसे बोल-चाल बंद कर दी जाती हो, वे ब्रह्महत्या या माता-पिता की हत्या करने वाले के समान पापी माने जाते हैं। वे यदि अपने दोष को स्वीकार नहीं करते अथवा स्वीकार करते हुए सम्यग् आलोचना नहीं करते अथवा बहाना बनाकर बात को अन्य रूप से प्रस्तुत करते हैं, वे भी द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य कहलाते हैं। जैसे-किसी ब्राह्मण ने अपनी पुत्रवधू या चंडालिन के साथ अकृत्य कर लिया फिर प्रायश्चित्त के समय चतुर्वेदी ब्राह्मण के पास उपस्थित होकर कहता है कि मैंने स्वप्न में पुत्रवधू या चंडालिन के साथ अगम्य व्यवहार कर लिया है। यह लौकिक द्रव्य-व्यवहर्तव्य है। सुरा आदि का सेवन कर प्रायश्चित्त करते समय वह कहता है-मैंने स्वप्न में सुरापान किया था। यह भी लौकिक व्यवहर्त्तव्य है। इन दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्रायश्चित्त करने वाले के मन में विशुद्धि नहीं है, माया है। यह द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य है।
मानसिक अवस्थाओं के आधार पर लोकोत्तर द्रव्य एवं भाव व्यवहर्त्तव्य को विभिन्न रूपों में व्याख्यायित किया गया है। लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्त्तव्य वह है, जो परप्रत्यय से अपनी विशोधि करता है। वह सोचता है मुझे दोष-सेवन करते हुए आचार्य, उपाध्याय अथवा किसी मुनि ने देख लिया है, इसलिए मुझे आलोचना करनी चाहिए। यह सोचकर वह बड़े दोष का सेवन कर लघु दोष की आलोचना करता है तथा स्वकृत दोष को परकृत दोष बताता है। इसके अतिरिक्त अकारण अतिचारों का प्रतिसेवी, अनुताप रहित अथवा अपने दोषों को देशतः-सर्वतः छिपाने वाला भी द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य है।
भाष्यकार ने कुम्हार एवं साधु की घटना का उल्लेख करते हुए उनकी क्षमायाचना को अव्यवहर्त्तव्य बताया है क्योंकि वहां प्रमाद से विरति नहीं, किन्तु गलती की पुनरुक्ति है।
लोकोत्तर भाव व्यवहर्त्तव्य वह होता है, जो गीतार्थ हो या अगीतार्थ, अपनी प्रतिसेवना को सद्भाव से कहता है और प्रायश्चित्त कर लेता है। वह अवक्र, अकुटिल, निरहंकारी, अलोभी, कारण-प्रतिसेवी, प्रियधर्मा, बहुश्रुत, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरु
और सूत्रार्थविद् होता है। कुछ आचार्यों का इसमें मतान्तर भी है। उनके अनुसार जो वक्र, मायावी आदि होते हैं, वे यदि सद्भावपूर्वक आलोचना करते हैं तो वे लोकोत्तर भाव-व्यवहर्त्तव्य माने गए हैं। जानबूझकर प्रतिसेवना करने वाले को लोकोत्तरिक भाव-व्यवहर्त्तव्य क्यों स्वीकृत किया इसके उत्तर में टीकाकार कहते हैं कि प्रायश्चित्त का इच्छुक होने के कारण वह मुनि जिनाज्ञा के अभिभुख है, उसमें जिनाज्ञा के प्रति प्रद्वेष नहीं है, वह अंतःकरण की विशुद्धि एवं यतनापूर्वक प्रतिसेवना में प्रवृत्त होता है, अतः वह भाव-व्यवहर्त्तव्य है।
ग्रंथकार ने भंगों के आधार पर भी भाव-व्यवहर्त्तव्य की व्याख्या प्रस्तुत की हैकदाचित कारण उपस्थित होने पर जो अयतना से दोष सेवन करता है, वह भी भावव्यवहर्त्तव्य है फिर यतना से दोषसेवन
१. व्यभा.३२६ । २. जीचू.पृ.४। ३. व्यभा.२ टी. प. ४ : तेन च पंचविधेन व्यवहारेण करणभूतेन व्यवहरन् कर्ता यन्निष्पादयति कार्यं तद् व्यवहर्त्तव्यमित्युच्यते व्यवहर्त्तव्यकार्ययोगात् पुरुषा
अपि व्यवहर्तव्याः। ४. व्यभा.१७, १८टी. प. १०॥ ५. व्यभा. १६टी. प. ११ ६. व्यभा.२४॥ ७. व्यभा. २५। ८. व्यभा.१६, २०।।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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करने वाले का तो कहना ही क्या?
अकृत्य सेवन करते समय जो यह चिन्तन करे कि मैं प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि कर लूंगा, वह भी भाव-व्यवहर्त्तव्य है।
• विशेष कारण उपस्थित होने पर या नहीं होने पर यतना से या अयतना से अकृत्य सेवन करके जो सद्भाव रूप से गुरु के समीप अपनी आलोचना कर लेता है, वह भाव व्यवहर्त्तव्य है।
• जो प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरु एवं सूत्रार्थविद् होते हैं, वे सब भाव-व्यवहर्त्तव्य हैं।
भाष्यकार के अनुसार अगीतार्थ के साथ व्यवहार नहीं करना चाहिए। वे यथार्थ निर्णय करने पर उसे स्वीकार नहीं करते अतः वे अव्यवहर्त्तव्य होते हैं। गीतार्थ व्यवहर्त्तव्य होता है क्योंकि वह किसी भी परिस्थिति को सही रूप में स्वीकार करता है। इस प्रसंग में भाष्यकार ने दो गीतार्थों में सचित्तादि वस्तु को लेकर उत्पन्न विवाद एवं उनके विधायक दृष्टिकोण की चर्चा की है।
___ व्यवहार के द्वारा दोषविशुद्धि हेतु व्यवहारी जो प्रायश्चित्त देता है, वह भी व्यवहर्तव्य है। उसके आलोचना, प्रतिक्रमण आदि दस भेद हैं। जो इन प्रायश्चित्तों का वहन करते हैं अथवा जिन पर इन प्रायश्चित्तों का प्रयोग किया जाता है, वे भी व्यवहर्तव्य
हैं।
प्रायश्चित्त
दोषविशुद्धि के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है। जिसके द्वारा चित्त की विशोधि होती है, वह प्रायश्चित्त है। दोषों की लघुता एवं गुरुता के आधार पर प्रायश्चित्त के दस भेद किए गए हैं-१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८ मूल, ६. अनवस्थाप्य, १०. पारांचित।
तत्त्वार्थ सूत्र में प्रायश्चित्त के नौ भेदों का वर्णन मिलता है। वहां मूल, अनवस्थाप्य और पारांचित्त-इन तीन प्रायश्चित्तों के स्थान पर परिहार एवं उपस्थापना- इन दो प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर साहित्य में नौ प्रायश्चित्तों का ही उल्लेख है। आचार्य अकलंक कहते हैं कि जीव के परिणाम असंख्येय हैं तथा अपराध भी उतने ही हैं लेकिन प्रायश्चित्त के भेद उतने नहीं हैं। ये भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से समुच्चय रूप में कहे गए हैं। प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन व्यवहार की पीठिका में मिलता है।
आचार-विशद्धि की तरतमता के आधार पर निर्ग्रन्थ के पांच प्रकार हैं-१. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ, ५. स्नातक।
निर्ग्रन्थों को दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का क्रम इस प्रकार है• पुलाक निर्ग्रन्थ को व्युत्सर्ग तक प्रथम छह प्रायश्चित्त दिए जाते हैं।
• बकुश एवं प्रतिसेवना कशील में जो स्थविरकल्पी होते हैं, उनके लिए दस तथा जिनकल्पिक के लिए आठ प्रायश्चित्तों का विधान है।१४
१. व्यभा-२१॥ २. व्यभा.२२। ३. व्यभा.२३ । ४. व्यभा-२६॥ ५. व्यभा. २७, २८ टी. प. १३, १४ । ६. जीभा.५। ७. व्यभा. ४१७६, ४१८०, ठाणं १०/७३ ८ त.६/२२। ६. मूला. ३६२। १०. तत्त्वार्थ वार्तिक ६/२२ पृ. ६२२ । ११. व्यभा-५३-१३५। १२. व्यभा.४१८४। १३. व्यभा.४१८६। १४. व्यभा.४१८५।
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व्यवहार भाष्य
• निर्ग्रन्थ के लिए आलोचना एवं विवेक तथा स्नातक के लिए केवल विवेक प्रायश्चित्त विहित है।' चारित्र के आधार पर भी प्रायश्चित्त/व्यवहर्त्तव्य की योजना की गई है। • सामायिक चारित्र वाले को छेद और मूल छोड़कर आठ प्रायश्चित्त दिए जाते हैं।
जिनकल्पिक सामायिक संयमी को तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त तथा छेदोपस्थापनीय में स्थित जिनकल्पी के लिए मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्तों का विधान है।
परिहारविशुद्ध स्थविरकल्पी के लिए प्रथम आठ तथा परिहार विशुद्ध जिनकल्पी के लिए प्रथम छह प्रायश्चित्तों का विधान है। सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यातचारित्री के लिए आलोचना तथा विवेक-ये दो प्रायश्चित्त विहित हैं।
जब तक तीर्थ का अस्तित्व है तब तक निर्ग्रन्थों में बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील तथा संयतों में इत्वरिक सामायिक संयत एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र-इनका अस्तित्व रहेगा। भद्रबाहु के बाद अंतिम दो प्रायश्चित्तों का लोप होने पर भी प्रथम आठ प्रायश्चित्तों का व्यवहार तीर्थ की व्यवच्छित्ति तक चलता रहेगा।
प्रायश्चित्ताह
तप के आधार पर भी प्रायश्चित्ताह के दो भेद किये गए हैं-कृतकरण और अकृतकरण। बेले-तेले आदि तप से अपने आप को भावित करने वाले कृतकरण हैं तथा जो बेले-तेले आदि का तप नहीं कर सकते, वे अकृतकरण हैं। इनके भी दो भेद हैं-सापेक्ष एवं निरपेक्ष। जिन, केवली आदि निरपेक्ष हैं तथा आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु आदि सापेक्ष हैं। इनके भेद, प्रभेद एवं विस्तार के लिए देखें व्यभा. गा. १५६-१७३ ।
प्रायश्चित्तवाहक
प्रायश्चित्तवाहक के दो भेद हैं-निर्गत तथा वर्तमान। जो छेद आदि प्रायश्चित्तों का वहन कर रहे हैं, वे निर्गत तथा जो तप पर्यन्त प्रथम छह प्रायश्चित्तों में स्थित हैं, वे वर्तमान कहलाते हैं। इनके भेद-प्रभेदों के विस्तृत वर्णन के लिए देखें (गा. ४७२-७ टी. प १-३)
प्रायश्चित्तार्ह पुरुष के चार प्रकार भाष्य में मिलते हैं(१) उभयतरक (२) आत्मतरक (३) परतरक (४) अन्यतरक।
जो षट्मासी तप करते हुए अग्लान रूप से आचार्य की भी वैयावृत्य करते हैं, वे उभयतर कहलाते हैं। जो केवल तप में शक्ति सम्पन्न होते हैं, वैयावृत्त्य की लब्धि से हीन होते हैं, वे आत्मतरक कहलाते हैं।
जो तप करने में असमर्थ होते हैं, पर आचार्य आदि की वैयावृत्त्य करते हैं, वे परतरक कहलाते हैं। जिनका तप और वैयावृत्त्य दोनों में सामर्थ्य होता है पर एक समय में एक ही कार्य कर सकते हैं, वे अन्यतरक कहलाते हैं।
आत्मतर एवं परतर-ये दो प्रायश्चित्त वहन के अभिमुख होते हैं लेकिन जो परतर और अन्यतर होते हैं, उनमें प्रायश्चित्त का निक्षेप किया जाता है। इनके विस्तृत वर्णन के लिए देखें-व्यभा. ४७६-५०२ टी. प ३-११ । प्रायश्चित्तदान में अनेकान्त
विचारशुद्धि एवं विधायक चिंतन में अनेकान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन आचार्यों ने अनेकान्त के प्रयोग को दर्शन की भूमिका के साथ-साथ व्यवहार की भूमिका पर भी उतारा और प्रत्येक क्षेत्र में इसकी महत्ता को प्रमाणित किया।
प्रायश्चित्त में विषमता को अनेकान्त दृष्टि से स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि इंद्रिय विषयों की प्राप्ति समान होने पर भी एक व्यक्ति उनसे विरक्त होता है और दूसरा आसक्त। अतः इन्द्रियों के विषय प्रधान नहीं, प्रधान है अध्यात्म। मन की
१. व्यभा-४१८७। २. व्यभा.४१८६-६२। ३. व्यभा-४१२। ४. व्यभा. ४१८२, ४१५३; जी.१०२।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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आसक्ति एवं विरक्ति ही बंध एवं मोक्ष का प्रमाण है, विषय नहीं। प्रायश्चित्त की प्राप्ति में भी आंतरिक परिणाम ही अधिक प्रमाण बनते हैं, इन्द्रियों के अर्थ नहीं। इसीलिए समान रूप से विषय सेवन करने पर भी एक व्यक्ति प्रायश्चित्त का भागी होता है और दूसरा नहीं होता।
सापेक्षता अनेकान्त का प्राण है। निरपेक्षता सत्य को एकांगी बना देती है। सापेक्षता द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार व्यवहार करने का विवेक जागृत करती है। दो व्यक्ति समान रोग से अभिभूत हैं। उनमें जो शरीर से बलवान् है, उसे वमन-विरेचन आदि कर्कश क्रिया करवाई जा सकती है किंतु जो दुर्बल है उसे मृदु क्रिया द्वारा स्वास्थ्य लाभ करवाया जाता है। वैसे ही जो धृति एवं संहनन से युक्त है उसे परिहार तप भी दिया जा सकता है किंतु जो धृति, संहनन आदि से हीन है, उसे सामान्य तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने दो आचार्यों का उल्लेख किया है-सापेक्ष एवं निरपेक्ष । निरपेक्ष आचार्य परिस्थिति को समझे बिना अपराध के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं। उसको सहने में असमर्थ मुनि कभी संयम से तथा कभी जीवन से हाथ धो बैठते हैं। इससे संघ छिन्न-भिन्न हो जाता है। निरपेक्ष आचार्य के पास कोई रहना नहीं चाहता अतः तीर्थ का विच्छेद हो जाता है।
सापेक्ष आचार्य जानते हैं कि केवल अपराध प्रायश्चित्त की तुला नहीं हो सकता। प्रायश्चित्त उतना ही दिया जाना चाहिए, जितना प्रतिसेवक वहन कर सके। अतः वे दोषों के अनवस्था प्रसंग के निवारण में कुशल होते हैं। वे चारित्र की रक्षा एवं तीर्थ की अव्युच्छित्ति में निमित्तभूत बनते हैं। वे करुणा और अनुग्रह की भावना से भावित होते हैं। वे देखते हैं कि प्रतिसेवी दीर्घ तपस्यामय प्रायश्चित्त को वहन करने में समर्थ नहीं है तो उसके समक्ष नानाविध विकल्प प्रस्तुत करते हैं और सामर्थ्य के अनुसार तपोवहन की यथार्थता बताते हैं। जैसे किसी प्रतिसेवी को पांच उपवास, पांच आयंबिल, पांच एकासन, पांच पुरिमड्ढ़ तथा पांच निर्विकृतिक-ये पांच कल्याणक प्रायश्चित्त स्वरूप आए हों तो उस प्रतिसेवी मुनि के समक्ष नानाविध विकल्प प्रस्तुत करते हैं और यथासामर्थ्य विकल्प को वहन करने की बात कहते हैं। इन पांच कल्याणकों को करने में असमर्थ मुनि को चार, तीन, दो, एक कल्याणक करने को कहते हैं। वह भी नहीं कर सकने पर उसे अंत में एक निर्विकृतिक करने की बात कहते हैं। इस उपक्रम से मुनि की विशुद्धि हो जाती है और वह संयम में स्थिर हो जाता है। उपाय के अभाव में प्रतिसेवी विशोधि को भूलकर और अधिक मलिन हो जाता है। वह संघ-विद्रोही बन जाता है। इस प्रसंग में भाष्यकार ने सापेक्ष एवं निरपेक्ष धनिक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। सापेक्ष धनिक निर्धन व्यक्ति को उधार दिया हुआ धन भी उपाय से प्राप्त कर लेता है। लेकिन निरपेक्ष धनिक स्वयं की, धन की तथा ऋण लेने वाले तीनों की हानि कर देता है। उपाय से विशोधि के प्रसंग में भाष्यकार ने वृषभ का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। वृषभ के खेत में घुसने पर यदि खेत का स्वामी उचित उपाय नहीं करता तो वृषभ पूरे खेत को रौंद डालता
के साथ उचित उपाय करता है तो वह वषभ को खेत से बाहर निकालकर खेत की रक्षा कर सकता है। इसी प्रकार आचार्य प्रतिसेवी की विशोधि यदि उचित उपायों द्वारा करते हैं तो वे व्यक्ति के संयम को बचा लेते हैं और जो ऐसा नहीं कर पाते वे गुरु हानि में रहते हैं।
प्रतिसेवी जब अपराधों की आलोचना के लिए गुरु के समक्ष उपस्थित होता है, उस समय यदि आचार्य उसको प्रोत्साहित करे कि तुम धन्य हो, कृतपुण्य हो क्योंकि तुमने गुप्त अपराधों को प्रकट करने का उत्कट साहस किया है। जो सूक्ष्मतम अपराध की आलोचना करता है, वह धन्य-धन्य है। यह सुनकर आलोचक प्रसन्न होकर ऋजता से अपनी सभी स्खलनाओं एवं अपराधों को प्रकट कर देता है।
आलोचना के समय आचार्य उसको प्रताड़ित करे या तर्जना दे कि तुम सदा स्खलना करते ही रहते हो, तुम ऐसे हो, वैसे हो आदि तो व्यक्ति चाहते हुए भी सम्यक् आलोचना नहीं कर पाता और वह अपने दोषों को छिपा लेता है। कभी-कभी असह्य
[ से कपित होकर वह आचार्य का घात भी कर सकता है तथा कलह की उदभावना कर संघ में असमाधि उत्पन्न कर सकता है क्योंकि कुपित व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं होता। सापेक्ष-निरपेक्ष व्यवहार के संदर्भ में भाष्यकार ने भिक्षणी, १. व्यभा. १०२८ १०२६ टी. प. १५ । २. व्यभा.५४४,५४५। ३. व्यभा. ४२०२। ४. व्यभा-४२०३-४२०८। ५. व्यभा ४१८७-४२०१ ।
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व्याध एवं गाय के दृष्टान्त प्रस्तुत किए हैं। (देखें-परिशिष्ट ८ कथा सं. २८-३३) इन दृष्टान्तों से स्पष्ट है कि सापेक्ष एवं निरपेक्ष व्यवहार से मनुष्य ही नहीं, पशु भी प्रभावित होते हैं।
समान अपराध होने पर भी गीतार्थ-अगीतार्थ, यतना-अयतना, संहनन-संहननहीनता आदि के आधार पर कम-ज्यादा प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। एक ही गलती में प्रायश्चित्तदान की विविधता का हेतु पक्षपात नहीं, अपितु विवेक है। भाष्यकार ने प्रायश्चित्त की विभिन्नता एवं विशोधि के प्रसंग में रजक और जलघट का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। जैसे रजक वस्त्रों के मल को जलघट से मलरहित करता है वैसे ही आचार्य प्रायश्चित्त देकर दोषों का अपनयन करते हैं। मलापनयन में मल के अनुसार जल का प्रयोग होता है। इस प्रसंग में निम्न चतुभंगी द्रष्टव्य है
एक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होता है। एक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होता है। अनेक वस्त्र एक जलकुंभ से स्वच्छ होते हैं। अनेक वस्त्र अनेक जलकुंभों से स्वच्छ होते हैं।
घर पर जलकुंभों से जो वस्त्र स्वच्छ नहीं होता, उसे नदी, तालाब आदि पर काष्ठपट्टिका से पीट-पीटकर स्वच्छ किया जाता है। उसी प्रकार पाण्मासिक प्रायश्चित्त से जो विशोधि नहीं होती उसकी विशोधि मूल, छेद, अनवस्थाप्य तथा पारांचित से होती है। प्रतिसेवक की राग-द्वेष की हानि-वृद्धि के आधार पर मासिक आदि तपःवृद्धि तथा छेद आदि प्रायश्चित्तों का आलम्बन लिया जाता है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने वातादी रोग एवं घृतकुंभ तथा औषध आदि की चतुभंगी भी प्रस्तुत की है।
प्रश्न उपस्थित होता है कि राग-द्वेष की वृद्धि से जैसे प्रायश्चित्त बढ़ता है वैसे ही राग-द्वेष की हानि से क्या प्रायश्चित्त कम भी होता है? समाधान प्रस्तुत करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि मंद अनुभाव से अनेकविध अपराध हो जाने पर भी उनकी विशोधि अल्प तप से हो जाती है। दशम प्रायश्चित्त जितना अपराध सेवन कर मुनि दसवें, नौवें यावत् निर्विकृतिक प्रायश्चित्त ग्रहण कर भी विशुद्ध हो जाता है। उसी प्रकार अन्यान्य अपराध पर भी अल्प-अल्पतम प्रायश्चित्तों से विशुद्ध हो जाता है।
प्रतिसेवना की भिन्नता होने पर भी प्रतिसेवक (गीतार्थ, अगीताथ) तथा अध्यवसाय के भेद से समान प्रायश्चित्त देने पर भी तुल्य शोधि हो सकती है। निम्न उद्धरण प्रायश्चित्तदान में अनेकान्त एवं सापेक्षता के श्रेष्ठ उदाहरण कहे जा सकते हैं
एक व्यक्ति ने तीव्र अध्यवसाय से मासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको एक मास का प्रायश्चित दिया जा सकता है।
दूसरे ने मंद अध्यवसाय से दो मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के पन्द्रह दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
तीसरे ने मंदतम अध्यवसाय से तीन मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के दस-दस दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
चौथे ने अतिमंदतम अध्यवसाय से चार मास प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना की, उसको प्रत्येक मास के साढ़े सात दिनों के अनुपात से एक मास का प्रायश्चित्त दिया जा सकता है।
इस बात की पुष्टि में भाष्यकार ने 'पांच-वणिक एवं पन्द्रह गधे' का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। देखे परिशिष्ट नं. ८ कथा सं. १५।
कोई व्यक्ति अनेक मासिक प्रायश्चित्त स्थानों का सेवन कर एक बार में ही सभी की आलोचना कर लेता है और आगे प्रतिसेवना न करने का मानस बना लेता है, वह मासिक प्रायश्चित्त से मुक्त हो सकता है। किन्तु जो मुनि बार-बार प्रतिसेवना करके आलोचना करता है उसे उसी प्रतिसेवना के लिए मूल और छेद का प्रायश्चित्त भी प्राप्त हो सकता है। इस बात को स्पष्ट १. व्यभा ५०, ५८१ टी. प. ३६-४१, १०४४-४६ । २. व्यभा ४०२६; टी. प. ३०, तुल्येऽप्यपराधे दारुणानामन्यत् प्रायश्चित्तमन्यत् भद्रकाणाम् । ३. व्यभा ५०५-५०८। 6. व्यभा ४४०-४२। ५. व्यभा ३३१.३३२, टी. प. ४६,५०॥ ६. व्यभा.३३६
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करने के लिए भाष्यकार ने गंजे पनवाड़ी की कथा को प्रस्तुत किया है (देखें परिशिष्ट नं. ८ कथा सं. १८)।
जो मुनि अशुभ परिणामों से निष्कारण ही मासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करता है, वह एक पूरे मास के प्रायश्चित्त से विशुद्ध होता है, क्योंकि वह दुष्ट अध्यवसाय के कारण प्रतिसेवना से प्रत्यावृत्त नहीं होता।
जो मुनि पुष्ट आलंबन के आधार पर शुभ परिणामों से बहुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना करता है, वह एक मास के प्रायश्चित्त से भी विशुद्ध हो जाता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति दंड पाकर अपनी आत्मा में दुःखी होता है, क्लेश पाता है।
दुष्ट अध्यवसाय से प्रतिसेवना कर जो मुनि आत्मनिंदा करता है, उसे भी बहुमासिक प्रायश्चित्त जितनी प्रतिसेवना में एक मास का ही दंड दिया जाता है।
भाष्य में प्रायश्चित्त में अनेकान्त के और भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। प्रायश्चित्त में अनेकान्त पद्धति के अनुसरण से शासन की अव्यवच्छित्ति और साधकों में शासन-प्रतिबद्धता के भाव वृद्धिंगत होते हैं। जैन आचार्य इस दृष्टि से बहुत सफल
आलोचना
प्रायश्चित्त के भेदों में आलोचना का प्रथम एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। गलती होने पर उसे सरलतापूर्वक गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है। दूसरों के समक्ष अपनी गलती प्रकट करने से व्यक्ति के आगे का रास्ता प्रशस्त हो जाता है। भाष्यकार ने आलोचना के बारे में सर्वांगीण विवेचन प्रस्तुत किया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी आलोचना का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आलोचना से होने वाले विशेष परिणामों का उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है
• आंतरिक शल्यों की चिकित्सा। • सरल मनोभाव की विशेष उपलब्धि। • तीव्रतर विकारों से दूर रहने की क्षमता और पूर्वसंचित विकार के संस्कारों का विलय। आलोचना के तीन प्रकार हैं१. विहारालोचना २. उपसंपदालोचना ३. अपराधालोचना इनके विस्तृत वर्णन के लिए देखें-व्यभा गा. २३३-३०४ । दिगम्बर साहित्य में आलोचना के दो भेद मिलते हैं - १. ओघ २. पदविभाग अर्थात सामान्य और विशेष।
आलोचना के लाभ
- जैन आगमों में अपनी स्खलना को गुरु के सामने स्पष्ट रूप से कहने का निर्देश स्थान-स्थान पर मिलता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति जब अपने मार्गदर्शक के समक्ष अपराध स्वीकार कर लेता है तब वह हल्का हो जाता है। भाष्यकार ने अनेक स्थलों पर आलोचना से होने वाले गुणों का उल्लेख किया है। वे दृष्टान्त द्वारा इस बात को समझाते हुए कहते हैं-चिकित्सा में निष्णात वैद्य भी स्वयं की चिकित्सा स्वयं नहीं करता। वह अन्य वैद्य के पास चिकित्सा करवाता है। इसी प्रकार आचार्य भी अन्य आचार्य के पास विशोधि के लिए जाते हैं और बालक की भांति ऋजुभावों से आलोचना करते हैं। उस समय वे माया और मद से शून्य हो जाते हैं।
आलोचना करने के निम्न गुण हैं
१. व्यभा. ३४०॥ २. उ. २६।६। ३. व्यभा. ४२६६-६६। ४. व्यभा ४३०१, भआ ४११॥
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• पांच प्रकार के आचार का सम्यग् पालन होता है। •विनय गुण का प्रवर्तन होता है। •आलोचना करने की परिपाटी का उद्दीपन होता है। •आत्मा को निःशल्य कर दिया जाता है। • संयम का अनुपालन होता है। • आर्जव आदि गुणों का उपवृंहण होता है। • मैं निःशल्य हो गया हूं-ऐसी परम तुष्टि होती है। • मैंने आलोचना नहीं की-इस परितप्ति का शमन हो जाता है। ग्रंथकार ने प्रकारान्तर से भी आलोचना की निष्पत्तियों का उल्लेख किया है
लघुता : जैसे भारवाहक अपने भार को उतारकर स्वयं को हल्का अनुभव करता है, वैसे ही आलोचक अपने शल्य का उद्धरण कर लघु एवं हल्का हो जाता है।
आह्लाद : उससे प्रमोदभाव उत्पन्न होता है। अतिचार ताप से तप्त व्यक्ति अपने अतिचार की तप्ति का अपनयन वैसे ही कर देता है जैसे मलयगिरि के पवन के संसर्ग से ताप का हरण होता है।
स्वपरप्रसन्नता : आलोचना से व्यक्ति स्वयं को दोषों से मुक्त अनुभव करता है। यह देखकर दूसरे भी आलोचना के अभिमुख होते हैं और दोषों से मुक्त हो जाते हैं।
आर्जवता : स्वयं के दोषों को दूसरों के समक्ष प्रकट करना आर्जव धर्म की प्रतिपालना है। विशोधि : अतिचार के पंक से मलिन चारित्र की शुद्धि प्रायश्चित्त के जल से होती है।
दुष्करकरण : प्रतिसेवना करना दुष्करकरण नहीं है, उसकी आलोचना करना दुष्कर कार्य है क्योंकि इसे वही व्यक्ति कर सकता है, जो विशेष सामर्थ्य से सम्पन्न एवं मोक्षाभिलाषी है।'
दिगम्बर परम्परा में प्रायश्चित्त करने के निम्न लाभ बताए गए हैं१. प्रमाद का निवारण। २. मानसिक प्रसन्नता। ३. निःशल्यता। ४. दोष की पुनरावृत्ति का निवारण। ५. मर्यादा-पालन। ६. संयम में दृढ़ता। ७. आराधना।
अकलंक के अनुसार बहुत बड़ा तप भी आलोचना के बिना वैसे ही फल नहीं देता जैसे विरेचन से मलशुद्धि किए बिना खाई हुई औषधि।
आलोचनाह
जैन आगमों में व्यवहारी/आलोचनाप्रदाता के निम्न गुण प्रसिद्ध हैंआचारवान-पांचों प्रकार के आचार से सम्पन्न। अवधारवान्-आलोचक के द्वारा आलोच्यमान पूरे विषय को धारण करने में समर्थ। भगवती आराधना के अनुसार चौदह
एवं नवपूर्व का धारक, महामतिमान्, सागर के समान गंभीर, कल्प एवं प्रकल्प का धारक आचार्य आधारवान् या
१. व्यभा ३१७। २. तत्त्वार्थवार्तिक ६/२२ पृ. ६२०॥ ३. तत्त्वार्थवार्तिक ६/२२ पृ. ६२१॥
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पूर्व, दसपूर्व एवं नवपूर्व का धारक, महामतिमानु, सागर के समान गंभीर, कल्प एवं प्रकल्प का धारक आचार्य आधारवान् या अवधारवान होता है।
व्यवहारवान्-पांचों प्रकार के व्यवहारों का ज्ञाता तथा उनके आधार पर प्रायश्चित्त देने में कुशल।
अपव्रीडक-आलोचक यदि लज्जावश अतिचारों का गोपन करता है तो अनेक प्रयोगों के द्वारा उसकी लज्जा का अपनयन करने वाला।
प्रकुर्वी-सम्यक प्रायश्चित्त देकर आलोचक की विशोधि करने वाला। अपरिस्रावी-आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करने वाला। निर्यापक-आलोचक को बड़े प्रायश्चित्त का निर्वहन कराने में कुशल। अपायदर्शी-आलोचक को इहलोक-परलोक के अपाय बताकर प्रायश्चित्त वहन करने के लिए प्रोत्साहित करने वाला।
ठाणं में अंतिम तीन गुणों में क्रम-व्यत्यय है। वहां अपरिस्रावी, निर्यापक एवं अपायदर्शी-यह क्रम मिलता है। भगवती आराधना में विस्तार से इन गुणों का उल्लेख मिलता है।
ठाणं के दसवें स्थान में दस गुणों का उल्लेख है। प्रियधर्मा एवं दृढ़धर्मा ये दो गुण अतिरिक्त मिलते हैं वहां इन गुणों से युक्त आचार्य या बहुश्रुत ही दूसरों को आलोचना या प्रायश्चित्त दे सकता है।
भाष्यकार ने आलोचनार्ह साध्वी की योग्यता के निम्न मानक प्रस्तुत किए हैंगीतार्थ-सूत्र, अर्थ और तदुभय में निष्णात। कृतकरण- अनेक बार जिसने आलोचना दी हो। प्रौढ़-जो सूत्र और अर्थ में समर्थ एवं प्रायश्चित्त देने में समर्थ हो। परिणामक-अतिपरिणामक या अपरिणामक न हो। गंभीर-आलोचक की महान् प्रतिसेवना को सुनकर भी अप्रतिस्रावी हो। चिरदीक्षित-चिरकाल से संयमपर्याय का पालन करने वाली हो। वृद्ध-ज्ञान, संयमपर्याय तथा वय में वृद्ध हो।।
इन गुणों से युक्त साध्वी आलोचनाई होती है। आलोचनार्ह श्रमण के लिए भी इन गुणों का होना आवश्यक है। आलोचक के गुण
भाष्य में आलोचक के निम्न गुणों का उल्लेख मिलता है
जाति सम्पन्न-जो जाति सम्पन्न होता है, वह प्रायः अकृत्य नहीं करता और यदि प्रमादवश कर लेता है तो उसका उचित प्रायश्चित्त कर शुद्ध हो जाता है।
कुल सम्पन्न-जो कुल सम्पन्न होता है, वह प्राप्त प्रायश्चित्त का सम्यग निर्वहन करता है। विनय सम्पन्न-जो विनय संपन्न होता है, वह सम्यग आलोचना करता है।
ज्ञान सम्पन्न-जो ज्ञान सम्पन्न होता है, वह श्रुत के अनुसार सम्यग् आलोचना करता है। वह जान लेता है कि अमुक श्रुत के आधार पर मुझे प्रायश्चित्त दिया गया है। अब मैं शुद्ध हो गया हूँ।
दर्शन सम्पन्न-जो दर्शन सम्पन्न होता है, वह प्रायश्चित्त से होने वाली विशुद्धि पर श्रद्धा रखता है। चारित्र सम्पन्न-जो चारित्र सम्पन्न होता है वह जानता है कि बिना सम्यग् आलोचना किए विशोधि नहीं होती।
१. भआ. ४३०॥ २. व्यभा. ५२०, भ. २५/५५४ : अट्ठहिँ ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरिहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा-आयारवं, आधारवं, ववहारवं, उव्वीलए, पकुव्वए
अपरिस्सावी, निज्जवए. अवायदंसी। ३. ठाणं च१८॥ ४. भआ. ४१-५२८। ५. ठाणं १०/७२। ६. व्यभा. २३७।
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क्षान्त-जो क्षान्त-क्षमाशील होता है, वह गुरु आदि के कठोर प्रायश्चित्त को भी सम्यक् मानता है। दान्त-जो दान्त होता है, वह प्रायश्चित्त रूप में प्राप्त तपस्या का सम्यग् निर्वहन करता है। अमायी-जो अमायी होता है, वह कुछ भी छुपाए बिना आलोचना करता है।
अपश्चात्तापी-जो अपश्चात्तापी होता है, वह यह कभी नहीं सोचता कि मैंने अभी आलोचना करके उचित कार्य नहीं किया। मैं प्रायश्चित्त को कैसे वहन करूंगा? वह मानता है-मैं कृत-पुण्य हूं कि मैंने दोषों का प्रायश्चित्त कर लिया।
आलोचना का क्रम
प्रतिसेवना होने पर साधु को अपने गच्छ में आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। उनके अभाव में क्रमशः उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए। अपने गच्छ में इन पांचों के न होने पर अन्य सांभोजिक गण के पास जाना चाहिए। वहां भी आचार्य आदि के क्रम से आलोचना करने का क्रम निर्दिष्ट है। क्रम का उल्लंघन करने पर चार लघु मास के प्रायश्चित्त का विधान है।
अन्य सांभोजिक गण के आचार्य आदि के अभाव में असांभोजिक संविग्न गण के आचार्य के पास आलोचना करनी चाहिए। उनकी अविद्यमानता में क्रमशः पार्श्वस्थ, गीतार्थ, सारूपिक, पश्चात्कृत गीतार्थ के पास आलोचना करनी चाहिए। पश्चात्कृत को इत्वरिक सामायिक व्रत देकर भी आलोचना की जा सकती है, जिससे उसकी वंदना या कृतिकर्म किया जा सके।
इन सबके अभाव में भरुकच्छ के कोरंटक उद्यान या गुणशिल उद्यान में जाकर तेले के द्वारा देवता का आह्वान कर सम्यक्त्वी देवता के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। यदि उस देवता के स्थान पर कोई दूसरा देवता उत्पन्न हो गया है तो उसको आह्वान करने पर वह देवता कहता है कि अभी महाविदेह में तीर्थंकर को पूछकर आता हूं। वह महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर से पूछकर साधु को प्रायश्चित्त देता है। उन देवताओं के अभाव में तीर्थंकर प्रतिमा के समक्ष स्वयं आलोचना करके स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण कर ले। अथवा पूर्व दिशा की ओर अभिमुख होकर अर्हत् एवं सिद्ध की साक्षी से अपनी प्रतिसेवना की आलोचना कर स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण करे। आलोचना करने की विधि
आलोचक सर्वप्रथम अपने नए वस्त्रों से अथवा नए प्रातिहारिक वस्त्रों से निषद्या तैयार करे। उस पर आचार्य पूर्वाभिमुख होकर बैठें। आलोचक दक्षिण या उत्तराभिमुख होकर खड़ा रहे। यदि आचार्य उत्तराभिमुख विराजित हों तो आलोचक वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख होकर खड़ा रहे। यदि आलोचना-प्रदाता तीर्थंकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों के विहरण की दिशा के अभिमुख बैठे हों तो आलोचक द्वादशावर्त्त वंदनक देकर, हाथ जोड़कर खड़ा रहे अथवा उत्कटुक आसन में बैठे और आलोचना करे। यदि उसकी प्रतिसेवना अति विस्तृत हो और वह लम्बे समय तक उत्कटुक आसन में बैठने में असमर्थ हो अथवा वह अर्श रोग से आक्रान्त हो तो वह गुरु को निवेदन कर निषद्या पर, औपग्रहिक पादप्रोंछन पर अथवा यथायोग्य आसन पर बैठकर बद्धाञ्जलि होकर आलोचना करे। जैसे एक भोला बालक अपने माता-पिता के समक्ष ऋजुता से अच्छा-बुरा सब कुछ बता देता है वैसे ही आलोचक भी गुरु के समक्ष माया और अहंकार से शून्य होकर ऋजुभाव से अपनी सारी प्रतिसेवना छोटी या बड़ी स्पष्ट रूप से निवेदित कर दे।
ॐॐob
१. व्यभा. ५२१, ५२२, टी. प, १८-१९ : ठाणं ८१८, १०/७१, भ. २५/५५३ । २. व्यभा.६६५। ३. जो संघ से बाहर निकलने पर भी मुनि वेश को नहीं छोड़ते, वे सारूपिक कहलाते हैं। ४. जो दीक्षित होकर पुनः उत्प्रव्रजित हो गए, वे पच्छाकड़ (पश्चात्कृत) कहलाते हैं।
कोरण्टक उद्यान का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि वहां तीर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी अनेक बार समवसृत हुए तथा अनेक साधु-साध्वियों को प्रायश्चित्त
दिया। वहां स्थित सम्यक्त्वी देवता ने यह अनेक बार देखा है अतः उसको आह्वान कर आलोचना का निर्देश है। ६. व्यभा. ६७५, ६ । ७. व्यभा.३१५। ८ व्यभा.४२६६।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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आलोचना के दोष
आकम्प्य-आलोचनाचार्य की वैयावृत्त्य करके उनकी कृपा प्राप्त कर आलोचना करना।
अनुमान्य-'ये आचार्य मृदुदंड देंगे', ऐसा सोचकर उनके पास आलोचना करना। निशीथ चूर्णि में इसका अर्थ 'मैं दुर्बल हूं अतः मुझे कम प्रायश्चित्त दें' ऐसा अनुनय कर आलोचना करना किया है।
यदृष्ट-उसी दोष की आलोचना करना, जो दूसरों के द्वारा या आचार्य के द्वारा दृष्ट या ज्ञात है। बादर-अवज्ञा के भय से केवल स्थूल दोषों की आलोचना करना, सूक्ष्म दोषों को छुपाना। सूक्ष्म-केवल सूक्ष्म दोष की आलोचना करना, स्थूल की नहीं। छन्न-प्रच्छन्नरूप से आलोचना करना अथवा मंद शब्दों में आलोचना करना, जिससे गुरु स्पष्ट न सुन सकें। शब्दाकुल-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिससे कि अगीतार्थ मुनि भी उसे सुन सके। बहुजन-इसके तीन अर्थ मिलते हैं(१) अनेक लोगों के बीच आलोचना करना। (२) जहां आलोचना करने वाले अधिक हों, वहां आलोचना करना। (३) एक के आगे आलोचना कर फिर दूसरे के पास भी आलोचना करना।
अव्यक्त-अगीतार्थ के पास आलोचना करना। __तत्सेवी-उसी गुरु के पास आलोचना करना, जो उस दोष का सेवन कर चुका है अथवा सेवन करता है। इससे शिष्य सोचता है कि गुरु स्वयं उस दोष का प्रतिसेवी है इसलिए मुझे अल्प प्रायश्चित्त देंगे। षट्प्राभृत में तत्सेवी का अर्थ-जिस दोष का प्रकाशन किया है उसका पुनः सेवन करना किया है। तत्त्वार्थवार्तिक में आलोचना के दस दोषों में कुछ अंतर मिलता है। आलोचना का काल
दोनों पक्षों की अष्टमी, नवमी, षष्ठी, चतुर्थी एवं द्वादशी-ये अप्रशस्त तिथियां हैं। इसके अतिरिक्त कुछ नक्षत्र भी आलोचना आदि के लिए अप्रशस्त माने गए हैं। सन्ध्यागत (चौदहवां-पन्द्रहवां) नक्षत्र में आलोचना करने पर कलह का उद्भव होता है। विलंबी नक्षत्र (सूर्य द्वारा परिभुक्त होकर त्यक्त) में कुभोजन की प्राप्ति, विद्वारिक नक्षत्र में शत्रु की विजय, रविगत नक्षत्र में अशांति, संग्रह (क्रूर ग्रह से आक्रान्त) नक्षत्र में संग्राम का उद्भव, राहुहत (सूर्य एवं चन्द्रग्रहण) नक्षत्र में मृत्यु तथा ग्रहभिन्न (जिसके मध्य से ग्रह चला गया) नक्षत्र में रक्तवमन होता है। अतः ये सात नक्षत्र आलोचना के योग्य नहीं हैं।
__ अप्रशस्त तिथियों के अतिरिक्त सभी तिथियां प्रशस्त हैं। व्यतिपात आदि दोष वर्जित दिवस तथा प्रशस्त मुहूर्त एवं करण में आलोचना करनी चाहिए। आलोचक को उच्चस्थानगत ग्रहों में अथवा बुध, शुक्र, बृहस्पति, चन्द्र आदि सौम्य ग्रहों में, इन ग्रहों से सम्बन्धित राशियों में तथा इन ग्रहों के द्वारा अवलोकित लग्नों में आलोचना करनी चाहिए। आलोचना का स्थान एवं दिशा
आलोचना करने में स्थान एवं दिशा आदि का विवेक भी आवश्यक है। अप्रशस्त स्थान अर्थात् भग्नगृह अथवा रुद्रदेव का मंदिर, अमनोज्ञ तिल, माष, कोद्रव आदि धान्यों के ढेर के निकट तथा अमनोज्ञ वृक्ष, जैसे-निष्पत्रक करीर, बदरी, बबूल, दवदग्ध
१. निचू ४ पृ. ३६३। २. व्यभा. ५२३ : भ. २५/५५२ : आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिलै बादरं च सुहुमं वा।
___ छन्नं सद्दाउलयं, बहुजणअव्वत्त तस्सेवी। भआ-५६४-६०८ ३. षट्प्राभृत १/ श्रुतसागरीय वृत्ति पृ. ६ ४. तत्त्वार्थवार्तिक ५२२ पृ. ६२० । ५. व्यभा.३०। ६. व्यभा.३१०,३११। ७. व्यभा.३१४। ८ व्यभा.३०६।
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व्यवहार भाष्य
वृक्ष, क्षार एवं कटुरस वाले वृक्षों के नीचे आलोचना नहीं करनी चाहिए। ऊसरभूमि, भृगुप्रपात, दग्धस्थल, विद्युत् आदि द्वारा प्रहत स्थल-ये सारे अप्रशस्त स्थान हैं। तांबा, त्रपु, शीशक के ढेर भी आलोचना के लिए वर्जनीय माने गए हैं। शून्यगृह, अरण्य, प्रच्छन्नस्थान, उपाश्रय के भीतर या मध्य का स्थान, ध्रुवकर्मिकों के काम का स्थान आलोचना के लिए अयुक्त है।
शालि आदि प्रशस्त धान्यों का ढेर तथा मणि, स्वर्ण, मौक्तिक, वज्र, वैडूर्य, पद्मराग आदि का ढेर आलोचना के लिए प्रशस्त है। इक्षुवन, फलित-पुष्पित आराम, शालिवन, चैत्यगृह, अखंडगृह, प्रतिध्वनित होने वाला स्थान, प्रदक्षिणा आवर्तोदक वाली नदी या कमल-सरोवर आदि आलोचना के प्रशस्त क्षेत्र हैं।
आलोचना के लिए तीन दिशाएं प्रशस्त मानी गई हैं-पूर्व, उत्तर अथवा वे दिशाएं जिनमें अर्हत्-केवली, मनःपर्यवज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, त्रयोदशपूर्वी, द्वादशपूर्वी एकादशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी तथा युगप्रधान आचार्य विचरण कर रहे हों।
आलोचना विशोधि का सशक्त उपक्रम है। आलोचना तब ही ठीक हो सकती है, जब आलोचक स्वस्थचित्त होता है। जब व्यक्ति अन्यमनस्क होता है या चित्त में संतुलन नहीं होता तब वह अनर्गल प्रलाप करता है तथा अपने दोषों का उचित रूप से उद्भावन नहीं कर सकता। चित्त की अवस्थाएं
चित्त की अनेक अवस्थाएं हैं। भगवान महावीर ने कहा-'अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे'-यह पुरुष अनेक चित्तवाला होता है। चित्त की मुख्य दो अवस्थाएं हैं-समाधिस्थ एवं असमाधिस्थ अर्थात् स्वस्थ चित्त एवं अस्वस्थ चित्त। मनोविज्ञान की भाषा में इसे सामान्य एवं असामान्य चित्त कहा जा सकता है।
भाष्यकार ने अस्वस्थ चित्त की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है
१. क्षिप्तचित्त्व, २. दृप्तचित्त, ३. उन्मत्तचित्त क्षिप्तचित्त
क्षिप्तचित्त का अर्थ है-चित्त-विप्लव, चित्त की रुग्णता। भाष्यकार के अनुसार निम्न कारणों से व्यक्ति क्षिप्त होता है-अनुराग, भय और अपमान।
१. अनुराग-किसी प्रिय व्यक्ति का अनिष्ट या मरण जानकर विक्षिप्त होना, जैसे-पति का अकस्मात् मरण सुनकर भार्या का क्षिप्तचित्त होना।
२. भय-विक्षिप्तता का एक बहुत बड़ा कारण भय है। भाष्यकार ने भय के अनेक कारणों का उल्लेख किया है। सिंह, मदोन्मत्त हाथी, शस्त्र आदि देखकर भयभीत हो जाना, मेघ-गर्जन, बिजली का कड़कना आदि भयंकर आवाज सुनकर भयभीत होना, आग आदि को देखकर भयाक्रान्त होना आदि। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने इन्हें असंगत भय माना है। उन्होंने भय से होने वाले मानसिक रोगों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत की है, जिसे फोबिया कहते हैं। उनके अनुसार भय के कुछ कारण ये हैं-ऊंचे स्थान का भय, खुले स्थान का भय, पीड़ा से भय, तूफान, बिजली एवं गर्जन से भय, बंद स्थानों से भय, स्त्रियों से भय, रक्त से भय, जल से भय, कीटाणुओं से भय, अकेलेपन से भय, शव का भय, अंधेरे से भय, भीड़ से भय, रोग से भय, अग्नि से भय, भोजन से भय, जानवरों से भय, रोग-संक्रमण से भय।१०
१. व्यभा.३०७, भआ.५५७। २. व्यभा.३० ३. व्यभा. २३६६, २३७०। ४. व्यभा.३१३॥
व्यभा.३१४ : भआ तु. ५६२।
आयारो ३/४२। ७. व्यभा.१०७८, १०७६। ८. व्यभा. १०८०-८५ । ६. व्यभा. १०८६ । १०. आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान पृ. २५३ ।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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भय से क्षिप्त होने में भाष्यकार ने सोमिल ब्राह्मण का उदाहरण दिया है। गजसुकुमाल कृष्ण के लघुभ्राता थे। उन्होंने प्रव्रज्या के प्रथम दिन ही एकरात्रिकी श्मशान प्रतिमा स्वीकार की। सोमिल ब्राह्मण वहाँ गया, उसने अपने जामाता को मुनि वेष में देखा। उसका मन प्रतिशोध से भर गया। वह गजसुकुमाल की मृत्यु का कारण बना। गजसुकुमाल की मृत्यु के बाद कृष्ण के भय से सोमिल ब्राह्मण क्षिप्तचित्त हो गया।'
अपमान
अपमान या असम्मान क्षिप्तचित्तता का बहुत बड़ा कारण है। जैसे सारी सम्पत्ति छीन लेने पर नगरसेठ का विक्षिप्त होना। अथवा वाद-विवाद में पराजित होने पर व्यक्ति या मुनि का विक्षिप्त हो जाना।
क्षिप्तचित्तता के निवारण के उपाय
अनुराग से उत्पन्न क्षिप्तचित्तता को मरण की अनिवार्यता और संसार की अस्थिरता का बोध कराने से दूर किया जा सकता है।
हिंस्र पशुओं को देखकर भयाक्रान्त होने पर आचार्य हस्तिपाल, सिंहपाल आदि को बुलाकर हाथी मंगाकर दूसरे छोटे मुनि को दिखाते हैं। वे डरते नहीं तब उनके उदाहरण से क्षिप्तचित्त मुनि के भय को दूर करते हैं।
व और अग्नि को देखकर क्षिप्तचित्त हआ हो तो विद्या से शस्त्र और अग्नि का स्तंभन कर क्षिप्त मनि के देखते-देखते उस शस्त्र और अग्नि को पैरों तले रौंद कर दिखाते हैं। अथवा हाथों को पानी से भिगोकर अग्नि का स्पर्श करके कहते हैं-कहाँ है अग्नि का भय?
यदि गर्जारव के भय से क्षिप्त हुआ हो तो स्थविर मुनि आकाश में शुष्क चर्म का विकर्षण-आकर्षण करते हैं और उससे गर्जारव के सदृश शब्द उत्पन्न कर उसे स्वस्थ करते हैं।
वाद में पराजित होने पर जो क्षिप्तचित्त हो जाता है, उसके समक्ष उस विजयी को लाकर कहते हैं-अरे! वास्तव में जीत तुम्हारी हुई थी। लोगों ने उसे समझा नहीं। देख, यह स्वयं अपनी पराजय स्वीकार करता है। शिष्य इस प्रतिकार को सही मानकर स्वयं स्वस्थ हो जाता है।
ये उदाहरण क्षिप्तचित्त को स्वस्थ करने के मनोवैज्ञानिक कारणों पर आधारित हैं। आज का मनोविज्ञान भी इन कारणों का प्रयोग करता है।
इसके अतिरिक्त वायु के क्षुभित होने पर तथा दैविक उपद्रव से भी व्यक्ति क्षिप्त हो जाता है। वायु रोग से उत्पन्न विक्षिप्तता स्निग्ध-मधुर भोजन एवं करीष की शय्या का प्रयोग करने से दूर की जा सकती है। तथा दैविक उपद्रव दूर करने के लिए देवता के कायोत्सर्ग का विधान है।
दृप्तचित्त
क्षिप्तचित्त व्यक्ति मौन रूप से अपने पागलपन को प्रकट करता है लेकिन दृप्तचित्त व्यक्ति असंबद्ध प्रलाप करता रहता है। यही दोनों में भेद है। क्षिप्तचित्तता का कारण अपमान या असम्मान है। लेकिन दृप्तचित्तता का कारण अत्यधिक सम्मान या लाभ प्राप्त करना है। जैसे ईंधन से अग्नि उद्दीप्त होती है वैसे ही अत्यधिक हर्ष आदि की स्थिति में व्यक्ति उद्दीप्त हो
१. व्यभा.१०७६ २. व्यभा. १०७६ । ३. व्यभा. १०८७-१११६ टी. प. २८३४। ४. व्यभा. १०६८ टी. प. ३१, ३२। ५. व्यभा. ११२३: जो होइ दित्तचित्तो सो पलवतिऽणिच्छियव्वाई। ६. व्यभा. ११२४ टी. प. ३६ ।
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व्यवहार भाष्य
जाता है। दृप्तचित्त के प्रसंग में भाष्यकार ने राजा शातवाहन का उदाहरण प्रस्तुत किया है। शातवाहन खुशी के अनेक समाचारों को सुनकर दृप्त हो जाता है। वह अनर्गल प्रलाप एवं असंबद्ध क्रिया करने लगता है। उन्मत्त चित्त
जिस स्थिति में व्यक्ति दिग्मूढ़ हो जाता है, वह उन्मत्त चित्त कहलाता है। वह आत्मसंचेतक होता है अर्थात् अपना दुःख स्वयं ही उत्पन्न करता है। दो कारणों से व्यक्ति उन्मत्त बनता है-यक्ष के आवेश से तथा मोहनीय कर्म के उदय से। इसके अतिरिक्त पित्त के उद्रेक एवं वायुक्षोभ से भी व्यक्ति उन्मत्त बन जाता है।
भाष्यकार ने मोह से उत्पन्न उन्मत्तता को दूर करने के विविध उपायों का निर्देश किया है।'
यदि वायु से उत्पन्न उन्मत्तता है तो तैल-मालिश, घृत-पान आदि उपायों द्वारा चिकित्सा की जा सकती है। यदि पित्त की प्रबलता से उन्मत्तता हुई है तो दूध में मिश्री आदि मिलाकर पिलाने से चिकित्सा की जा सकती है।
विधायक चिन्तन से व्यक्ति का मनोबल वृद्धिंगत हो जाता है और निषेधात्मक चिन्तन से भय के साथ निराशा भी बढ़ जाती है तथा मनोबल टूट जाता है। इसलिए भय-निवारण में विधायक चिंतन और उचित आश्वासन का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस संदर्भ में भाष्यकार द्वारा उल्लिखित निम्न दृष्टान्त बहुत महत्त्वपूर्ण हैं-कोई व्यक्ति कुएं में गिर गया। वह इस बात से भयभीत हो गया कि मैं इस कुएं से बाहर कैसे निकलूंगा? तब यदि कुएं के तट पर खड़े व्यक्ति आश्वासन देते हैं कि तुम डरो मत, हम तुम्हें निकाल देंगे। देखो, हम रस्सी भी लाए हैं। इस प्रकार आश्वासन मिलने पर वह निर्भय हो जाता है और स्थिरता से विघ्न का पार पा जाता है। इसके विपरीत यदि कोई कहे-देखो, यह बेचारा कएं में गिरा है। यह मर जाएगा, इसको कौन बाहर निकालेगा? तब वह निराश होकर अशक्त हो जाता है और अकारण ही भयाक्रान्त होकर मर जाता है। कोई व्यक्ति नदी के स्रोत में बहने लगा। मरने के डर से वह भयभीत हो गया। तट पर खड़े व्यक्ति यदि आश्वासन देते हैं तो वह नदी को पार कर लेता है, अन्यथा वह निराश होकर भय से मर जाता है।
इस प्रकार उन्मत्तता, क्षिप्तता आदि अवस्थाओं से आक्रान्त व्यक्ति असाधारण या असामान्य चित्त वाला हो जाता है। भाष्य में इन अवस्थाओं का सुंदर विश्लेषण हुआ है। भाष्यकार ने मनोवैज्ञानिक के रूप में चित्त की इन असामान्य या असाधारण अवस्थाओं के कारण एवं निवारण का सटीक वर्णन प्रस्तुत किया है। मनोरचना में क्षेत्र का प्रभाव
क्षेत्र भी व्यक्ति के चरित्र एवं उसकी मनोरचना को प्रभावित करता है। भाष्यकार ने क्षेत्र के आधार पर मनोरचना के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
मगध देशवासी इंगित और आकार से, कौशल देशवासी केवल देखने मात्र से तथा पांचाल देशवासी आधा कहने से पूरे अभिप्राय को जान जाते हैं। दक्षिणवासी बिना कहे कुछ नहीं जानते, साक्षात् कहने पर ही जान पाते हैं क्योंकि वे जड़प्रज्ञ होते हैं। आंध्र प्रदेशवासी अक्रूर अभिप्राय वाले, महाराष्ट्री अवाचाल तथा कौशलदेशवासी बहुदोषी एवं पापी होते हैं।
१. व्यभा. ११२४, ११२५ । २. व्यभा.११२६-३१, देखें परिशिष्ट नं. ८, कथा सं. ५६ । ३. व्यभा. ११५३ टी. प. ४२।
व्यभा. ११४७ टी. प. ४०,४१ । ५. व्यभा. ११४८-५१। ६. व्यभा.११५२।। ७. व्यभा.५४६, टी. प. २६। ८. व्यभा. ५४६, टी. प. ३०॥ ६. व्यभा. ४०२० : मागहा इंगितेणं तु, पेहिएण य कोसला। अद्भुत्तेण उ पंचाला, नाणुत्तं दक्षिणावहा॥ १०. व्यभा. २९५६ : अंधं अकूरमययं,अवि या मरहट्ठयं अवोकिल्लं । कोसलयं च अपावं, सतेसु एक्कं न पेच्छामो॥
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
भावधारा और आराधना
जैन दर्शन में चारित्राराधना भावों की विशद्धि पर आधारित है। अप्रमत्त अवस्था में यदि जीवहिंसा हो जाए तो द्रव्यहिंसा ही है। प्रमत्त अवस्था में जीवहिंसा न होने पर भी हिंसा का दोष लगता है। आलोचना के संदर्भ में निम्न प्रसंग पठनीय है-कोई व्यक्ति मैं आलोचना करूंगा इस चिन्तन से आलोचनाह के पास प्रस्थित हुआ लेकिन यदि बीच में ही वह कालगत हो गया अथवा आलोचनाई कालगत हो गया अथवा आलोचनाह के पास पहुंचकर रोग से आक्रान्त होकर वह बोलने में समर्थ नहीं रहा अथवा आलोचनार्ह रोगाक्रान्त हो गया तो वह आलोचना न करने पर भी आराधक है क्योंकि उसकी परिणामधारा विशुद्ध है, वह आलोचना करना चाहता है।
प्रतिमाएं जैन आगमों में साधना की अनेक पद्धतियों का वर्णन है, उनमें प्रतिमा का विशिष्ट स्थान है। प्रतिमा का अर्थ है-साधना का विशेष संकल्प या अभिग्रह। दूसरे शब्दों में साधना की विशेष पद्धति को प्रतिमा कहा जाता है। जैन परम्परा में बहुविध प्रतिमाओं का वर्णन है। साधु एवं श्रावकों के लिए भी अलग-अलग प्रतिमाओं का उल्लेख है। भगवान् महावीर ने साधनाकाल में अनेक प्रतिमाओं का अभ्यास किया था। ठाणं में अनेक प्रतिमाओं का वर्णन है। प्रस्तुत ग्रंथ में तीन प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है
१. मोकप्रतिमा। २. यवमध्यचन्द्रप्रतिमा ३. वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा।
मोक प्रतिमा
मोक का अर्थ है-प्रस्रवण। यह प्रस्रवण पर आधारित है अतः इसका नाम मोकप्रतिमा हो गया। निरुक्त के आधार पर इसका अर्थ करते हुए ग्रंथकार कहते हैं जो साधु को पापकर्मों से मुक्त करती है, वह मोकप्रतिमा है। भाष्यकार ने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से इस प्रतिमा की व्याख्या की है।
द्रव्यतः-प्रस्रवण पीना। क्षेत्रतः-गांव आदि के बाहर रहना।
कालतः-प्रथम निदाघकाल में अथवा अंतिम निदाघकाल में। अभयदेव सूरि ने कालतः शरद् एवं निदाघ-दोनों कालों का उल्लेख किया है।
भावतः-स्वाभाविक प्रस्रवण ग्रहण करना। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि कृमियुक्त या शुक्रयुक्त प्रस्रवण नहीं पीता। मधुमेह के रोगी का प्रस्रवण भी दोषयुक्त होने के कारण नहीं पीया जाता। स्थानांग वृत्ति में भावतः की व्याख्या देव आदि के उपसर्ग को सहन करना किया है।
इस प्रतिमा में सात दिन का उपवास किया जाता है। उपवास-काल में प्रस्रवण-पान का प्रयोग किया जाता है। प्रतिमा पालन के बाद आहार-ग्रहण की विधि इस प्रकार है१. व्यभा-४०५२, ४०५३: भआ. ४०५-४०८ । २. स्थाटी.प. १८४ : प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः । ३. विस्तार के लिए देखें दशाश्रुतस्कंध की छठी एवं सातवीं दशा। ४. ठाणं २/२४३-४८ ५. व्यभा. ३७६० : साधु मोयंति पावकम्मेहि, एएण मोयपडिमा । ६. व्यभा.३८०६) ७. स्थाटी. प. ६१ : कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते। ८ व्यभा.३७६५, ३७६६ । ६ व्यभा.३७६७ १०. स्थाटी.प. ६१ : भावतस्तु दिव्याधुपसर्गसहनमिति । ११. व्यभा.३८०३-३८०६ ।
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२]
व्यवहार भाष्य
• प्रथम सप्ताह में गर्म पानी के साथ चावल । • दूसरे सप्ताह में यूप-मांड। • तीसरे सप्ताह में तीन भाग उष्ण पानी तथा थोड़े मधुर दही के साथ चावल। • चतुर्थ संप्ताह में दो भाग उष्णोदक तथा दो भाग मधुर दही के साथ चावल । • पांचवें सप्ताह में अर्द्ध उष्णोदक और अर्द्ध मधुर दही के साथ चावल। • छठे सप्ताह में विभाग उष्णोदक और दो भाग मधुर दही के साथ चावल। • सातवें सप्ताह में मधुर दही में थोड़ा-सा उष्णोदक मिलाकर उसके साथ चावल। • आठवें सप्ताह में मधुर दही अथवा अन्य जूषों के साथ चावल । सात सप्ताह तक रोग के प्रतिकूल न हो, वैसा भोजन दही के साथ किया जाता है। प्रतिमा से होने वाले तीन लाभों की चर्चा भाष्यकार ने की है• सिद्धि की प्राप्ति। • महर्द्धिक देवत्व की प्राप्ति। • रोगमुक्ति एवं शरीर का कनकवर्ण होना।
इस प्रतिमा को बलशाली व्यक्ति ही ग्रहण कर सकता है। प्रथम तीन संहनन वाले व्यक्ति इस प्रतिमा के धारक होते हैं। अंतिम तीन संहनन वाले मुनि यदि इस प्रतिमा को धारण करते हैं तो उनकी धृति वज्रकुड्य के समान होनी चाहिए। यवमध्यचंद्रप्रतिमा
यव आदि और अंत में तनु एवं मध्य में स्थूल होता है। वज्र आदि और अंत में स्थूल और मध्य में तनुक होता है। इन आकारों के माध्यम से चन्द्रमा को प्रतीक बनाकर तपस्या का निर्देश है इसलिए ये यवमध्यचंद्रप्रतिमा एवं वज्रमध्यचंद्रप्रतिमा कहलाती हैं।
यवमध्यचन्द्रप्रतिमा मास के शुल्क पक्ष से प्रारम्भ की जाती है। जैसे शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कला प्रतिपदा से एक-एक बढ़ती जाती है और पूर्णिमा को पन्द्रह कलाएं पूर्ण हो जाती हैं वैसे ही यवमध्यचन्द्रप्रतिमाप्रतिपन्न मुनि प्रतिपदा को एक दत्ती ग्रहण करता है और प्रतिदिन एक-एक दत्ती बढ़ाता हुआ पूर्णिमा को पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है । कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चंद्रमा की चौदह कलाएं दृग्गोचर होती हैं वैसे ही प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्तियां लेता है और प्रतिदिन एक-एक दत्ती कम करते-करते अमावस्या को उपवास करता है। यवमध्यचंद्रप्रतिमा मास के आदि में तनु, मध्य में पूर्ण तथा अंत में पुनः तनु हो जाती है। इस प्रकार यह आदि-अंत में तनुक एवं मध्य में स्थूल होती है। वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा
वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा मास के कृष्णपक्ष में प्रारम्भ की जाती है। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्तियां ग्रहण करता है और प्रतिदिन एक-एक दत्ती घटाता हुआ अमावस्या को उपवास करता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ती से प्रारम्भ कर प्रतिदिन एक-एक दत्ती बढ़ाता जाता है और पूर्णिमा को पन्द्रह दत्तियां ग्रहण करता है। यह प्रतिमा मास के आदि-अंत में पृथुल और मध्य में तनुक होती है। वज्र का यही आकार होता है। प्रतिमा प्रतिपन्न की योग्यता
वज्रऋषभनाराच, नाराच एवं अर्द्धनाराच-इन तीनों में से एक संहनन वाला मुनि इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। उसका जन्म पर्याय जघन्यतः उनतीस वर्ष, उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष का होना चाहिए। सूत्र और अर्थ की दृष्टि से वह
१. व्यभा ३८०२। २. व्यभा ३८०६ टी. प. १७! ३. व्यभा ३८३३। ४. व्यभा ३३४ ५. व्यभा ३८३३, ३३४ टी. प. २।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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३
नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु का और उत्कृष्टतः कुछ कम दस पूर्वो का ज्ञाता होना चाहिए। जो मुनि संहनन और पर्याय के साथ सूत्र और अर्थ में बलीयान् होता है, वह इन प्रतिमाओं को स्वीकार कर सकता है। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि पांच व्यवहारों का ज्ञाता होना आवश्यक है।
प्रतिमाओं को स्वीकार करने वाला व्युत्सृष्टकाय एवं त्यक्तदेह होता है। व्युत्सृष्टकाय का अर्थ है-रोगातंक उत्पन्न होने पर भी शरीर का प्रतिकर्म नहीं करना। त्यक्तदेह का अर्थ है-किसी के द्वारा बांधने, मारने, पीटने एवं रोधन करने पर भी उसका निवारण नहीं करना। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि दैविक, मानुषिक, तिर्यञ्च सम्बंधी-तीनो परीषहों को समभावपूर्वक सहन करता
प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि अज्ञातोञ्छ ग्रहण करता है तथा वह भी एक ही व्यक्ति द्वारा दिया हुआ। यदि दो-तीन व्यक्ति भिक्षा दें तो वह ग्रहण नहीं करता। वह श्रमणों, भिक्षाचरों तथा द्विपद-चतुष्पदों को लांघकर भिक्षा के लिए नहीं जाता। वे जब अपना प्रयोजन सिद्ध कर चले जाते हैं तब प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि भिक्षा के लिए निकलते हैं। जिस क्षेत्र में तीन भिक्षाकाल हों, वहां वह मुनि श्रमणों से पूर्व अथवा श्रमणों के पश्चात् भिक्षा के लिए निकलते हैं। जहां दो भिक्षाकाल हों वहां श्रमणों के चले जाने पर भिक्षा करते हैं। प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि गर्भवती स्त्रियों तथा जिनका शिशु अभी स्तनपान कर रहा हो, उससे भिक्षा नहीं लेते। ऐतिहासिक तथ्य
इतिहास अतीत को वर्तमान में प्रस्तुत करता है। इससे प्राचीन और अर्वाचीन परम्परा को समझने का अवसर भी प्राप्त होता है। इतिहास से यह अवबोध सुस्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य, क्षेत्र और काल के आधार पर कब-कैसे परिवर्तन होते हैं? ऐतिहासिक तथ्य वर्तमान के लिए तो प्रेरक होते ही हैं साथ ही भविष्य के लिए भी नयी प्रेरणा देते हैं। प्रस्तुत भाष्य में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की प्रस्तुति हुई है। ग्रंथ में वर्णित ऐतिहासिक तथ्य धर्म, राजनीति, समाज आदि से सम्बन्धित हैं। इन तथ्यों के आलोक में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का केवल संकेतमात्र किया जा रहा है
.प्रथम तीर्थंकर के समय में उत्कृष्ट तप एक वर्ष का, मध्य के बावीस तीर्थंकरों के समय में उत्कृष्ट आठ मास का तथा अंतिम तीर्थकर के समय में उत्कृष्ट छह मास का तप होता है (गा. १४४)।
• चतुर्दशपूर्वी के साथ प्रथम संहनन का विच्छेद हो गया (गा. ५५६)। • चाणक्य द्वारा नंदवंश का समूल नाश हुआ (गा. ७१६)।
कोंकण देश के स्थानक नगर में सोने की खान थी। (गा. ६१५ टी. प. १२७)। • भरुकच्छ में कोरंटक उद्यान में भगवान् सुव्रतस्वामी अनेक बार समवसृत हुए तथा अनेक साधुओं को प्रायश्चित्त दिया
(गा. ६७५)। • शातवाहन राजा की उन्मत्तता का वर्णन (गा. ११२६-३१)।
आचार्य वज्र एवं रानी पद्मावती की घटना (गा. १४१४, १४१५)। • तगरा नगरी के आठ व्यवहारी एवं आठ अव्यवहारी शिष्यों का वर्णन; व्यवहारी शिष्यों का नामोल्लेख (गा. १६६४)। • मथुरा नगरी में क्षपक की घटना, जिसने देवता की सहायता से स्तूप पर श्वेत पताका फहरवा कर जैन धर्म की प्रभावना
की (गा. २३३०, २३३१)। • आर्यरक्षित अंतिम आगम व्यवहारी थे। उनके बाद साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना बंद हो गई (गा. २३६५)। • कपिल ब्राह्मण, महावीर एवं गौतम की घटना (गा. २६३८)। • राजा शातवाहन और पटरानी पृथिवी की घटना (गा. २६४५-४७)। • लोहार्य मुनि द्वारा भगवान् महावीर के लिए भिक्षा लाना (गा. २६७१) ।
१. व्यभा.३८३६।। २. व्यभा.३८३७-४२। ३. व्यभा.३८५२-६२। ४. व्यभा.३८६३।
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व्यवहार भाष्य
• आर्य समुद्र एवं आर्य मंगू का घटना प्रसंग' (गा. २६८८-६२) । • आचार्य भद्रबाहु की महापान (महाप्राण) साधना (गा. २७०३)। •मिथ्यात्व के प्रसंग में गोविंदाचार्य, जमाली, श्रावक, तच्चण्णिय एवं गोष्ठामाहिल का उल्लेख (गा. २७१३, २७१४)। • आर्य महागिरि के पश्चात् संभोज की परम्परा नहीं रही। (गा. २६०८ टी. प. १४) • आर्यरक्षित ने दशपुर नगर में इक्षुगृह नामक उद्यान में वर्षावास में एक अतिरिक्त मात्रक रखने की अनुज्ञा दी।
(गा. ३६०५, ३६०६)। • आर्यरक्षित के बाद तीसरे संहनन का विच्छेद हो गया (गा. ३७८० टी. प. १३)। • केवली के विच्छेद होने के कुछ समय बाद चतुर्दशपूर्वी का विच्छेद हो गया (गा. ४१६५)। • दुःप्रसभ आचार्य के बाद महावीर के तीर्थ की व्यवच्छित्ति (गा. ४१७४)। • प्रथम संहनन एवं चतुर्दशपूर्वी का एक साथ विच्छेद होता है। उनके विच्छिन्न होने पर अनवस्थाप्य और पारांचित-इन
दोनों अंतिम प्रायश्चित्तों का भी विच्छेद हो गया (गा. ४१८१)। तीर्थ की अवस्थिति महावीर-निर्वाण के २१ हजार वर्ष बाद तक रहेगी (गा. ४२१४)। • चेटक एवं कोणिक के मध्य महाशिलाकंटक एवं रथमुसल युद्ध का उल्लेख (४३६३-६५)। • प्रायोपगमन का विच्छेद चतुर्दशपूर्वी के साथ हो गया (गा. ४४०१)। • कुम्भकारकृत नगर में सुव्रतस्वामी के शिष्य आचार्य स्कन्दक के शिष्यों को यंत्र में पीलने की घटना (४४१७)। • सुबंधुमंत्री के द्वारा चाणक्य को कंडों के मध्य अग्नि में प्रज्वलित करने का उल्लेख (४४२०)। • चिलातपुत्र एवं कालादवैश्य के प्रायोपगमन संथारे का उल्लेख (४४२२,४४२३) । • जंबू के पश्चात् बारह अवस्थाओं के विच्छेद का उल्लेख (गा. ४५२६)। • उज्जयिनी में शक के राजा बनने की घटना (४५५७-५६)। • महावीर के शासन में १४ हजार प्रकीर्णक तथा शेष तीर्थंकरों के शासन में जितने प्रत्येकबुद्ध उतने प्रकीर्णक
(गा. ४६७१)। राज्य व्यवस्था के घटक तत्त्व
आचारप्रधान ग्रंथ होने पर भी भाष्य में राज्य एवं राजनीति सम्बंधी महत्त्वपूर्ण चर्चा प्राप्त होती है। यहां भाष्य में चर्चित कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है। राज्य व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने हेतु आधारभूत पांच व्यक्तियों की अनिवार्यता मानी गयी है-राजा, वैद्य, धनवान्, नैयतिक एवं रूपयक्ष। कौटिल्य ने शासन-तंत्र के सात अंग स्वीकार किए हैं-१. स्वामी, २. अमात्य ३. राष्ट्र अथवा जनपद ४. दुर्ग, ५. कोश ६. दण्ड, ७. मित्र।
भाष्य में उल्लिखित ये पांच व्यक्ति पांच क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि पुरुष कहे जा सकते हैं। किसी भी देश की शासन-व्यवस्था को सुदृढ़, गतिशील एवं सुचारु रूप से चलाने में इन पांच तत्त्वों की आवश्यकता रहती है
१. सृदृढ़ राजनीति। २. सम्यक् चिकित्सा। ३. आर्थिक सुव्यवस्था। ४. जीविका की सुलभता। ५. न्याय एवं धर्मपरायणता।
१. तुलना निभा. १११६ चू. पृ १२५ । २. व्यभा.६२४॥
क. अर्थशास्त्र अ. ६/१: स्वाम्यमात्य-जनपद-दुर्ग-कोश-दण्डमित्राणि प्रकृतयः । ख. मनुस्मृति ६/२६४: स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्र, कोशदण्डौ सुहत्तथा।
सप्तप्रकृतयो ह्येताः, सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते॥
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व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन
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राजा, वैद्य आदि पांचों व्यक्ति राज्य की सुव्यवस्था के सशक्त घटक होते थे । समूचे जनपद की सुख-शांति इन्हीं पर निर्भर रहती थी।
राजा
भारतीय राज्य व्यवस्था में राजा को सर्वोपरि स्थान प्राप्त था। वह देवता की भांति पूज्य होता था । प्रायः सभी प्राचीन ग्रंथों में राजा के कर्त्तव्य एवं उसके आदर्शों का वर्णन मिलता है।' राजा के सहयोगी के रूप में युवराज, महत्तरक, अमात्य और कुमार-इन चार व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है। ये पांच तत्त्व जिस शासन व्यवस्था में होते, वह गुणयुक्त विशाल राज्य माना जाता था।
भाष्य के अनुसार राजा अपने द्वारा अर्जित स्वाधीन ऐश्वर्य का भोग करने वाला, उद्वेग रहित, राज्य की किसी भी व्यवस्था की चिन्ता से मुक्त, राज्य व्यवस्था के संचालन में निरपेक्ष होता था। वह पितृपक्ष एवं मातृपक्ष से शुद्ध, प्रजा से दसवां हिस्सा कर लेकर संतुष्ट होने वाला, लौकिक आचार- समस्त धर्म-दर्शनों एवं नीतिशास्त्र आदि का ज्ञाता तथा धर्म के प्रति अत्यधिक आस्था रखने वाला होता था। ३
भाष्य - साहित्य में दो प्रकार के राजाओं का उल्लेख मिलता है- सापेक्ष एवं निरपेक्ष । सापेक्ष राजा अपने जीवन काल में ही योग्य उत्तराधिकारी को युवराज पद दे देता था, जिससे वह शासन व्यवस्था में निपुण हो जाए और लोगों की उसके प्रति आस्था जग जाए। जिस राजा के कालगत हो जाने पर सामंत या मंत्री उत्तराधिकारी का चुनाव करते, वह निरपेक्ष राजा कहलाता था। * प्रकारान्तर से भाष्य में राजा के दो भेद और मिलते हैं- आत्माभिषिक्त एवं पराभिषिक्त । जो अपने पराक्रम से राज्य में राजा के रूप में अभिषिक्त होता, वह आत्माभिषिक्त कहलाता है जैसे भरत चक्रवर्ती जिनका अभिषेक दूसरों के द्वारा किया जाता है, वे पराभिषिक्त हैं, जैसे- भरत के पुत्र आदित्ययशा आदि । "
I
जो राजा चतुरंगिणी सेना, अनेक प्रकार के वाहन, समृद्ध भाण्डागार एवं औत्पत्तिकी आदि बुद्धि से युक्त होते वे सफल राजा कहलाते थे। बल, वाहन एवं धन आदि से हीन राजा राज्य की रक्षा नहीं कर सकता था। राजाज्ञा का बहुत महत्त्व होता था। उसको भंग करने वाले को कड़ा दण्ड मिलता । कभी-कभी अपराधी को प्राणदण्ड भी दिया जाता था ।
राजा के पश्चात् दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान युवराज का था। युवराज प्रातःकाल अपने दैनिक कार्यों एवं धार्मिक अनुष्ठान से निवृत्त होकर राज्य सभा में आकर बैठता तथा राज्य की व्यवस्था को देखता था।
राज्य का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग महत्तरक था। महतरक युवराज के साथ राज्य के कार्य में हाथ बंटाता था। वह गंभीर, मृदु, नीतिशास्त्र में कुशल तथा विनयसम्पन्न होता था।" इस शब्द की विस्तृत व्याख्या डा. मोहनचंद ने अपने शोधग्रन्थ में की है। १०
राज्य शासन की व्यवस्था चलाने में मंत्री का महत्वपूर्ण स्थान होता था वह राजा के हर कार्य में सहयोगी रहता था। समय-समय पर राजा को परामर्श देने में भी उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। कौटिल्य ने राजा को निर्देश दिया है कि उसे मंत्रिपरिषद् से परामर्श लेना चाहिए कौटिल्य के अनुसार इंद्र को सहस्राक्ष इसीलिए कहा गया क्योंकि उसकी मंत्रिपरिषद् में १००० बुद्धिमान पुरुष थे, जो उसके नेत्र रूप थे।" भाष्य के अनुसार पूरे जनपद एवं देश की चिन्ता मंत्री के जिम्मे होती थी। मंत्री का व्यवहारज्ञ एवं नीतिकुशल होना अनिवार्य था । व्यवहार कुशलता से वह हर विवाद को आसानी से निपटा देता था । ' १. देखें-- महाभारत शान्ति पर्व ।
.१२
२. व्यभा. ६२६ ।
३. व्यभा. ६२७, ६२८ ।
४.
व्यभा. १८६२ - ६५ ।
५. व्यभा. २४०८ ।
६. व्यभा. २४०६, २४१० ॥
७. व्यभा. ३१०३, ४२६२, ४२६३ ।
८
व्यभा• ६२६ ।
६ व्यभा. ६३०
१०. जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज पृ. १२६-३४ ।
११. अर्थशास्त्र १/१०/५ पृ. ४७ : इंद्रस्य हि मंत्रिपरिषदृषीणां सहस्रम् । तच्चक्षुः । तस्मादिदं द्व्यक्षं सहस्राक्षमाहुः १२. व्यभा. ६३१॥
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व्यवहार भाष्य
मंत्री के चातुर्य के प्रसंग में भाष्यकार ने एक कथा का उल्लेख किया है। राजा और पुरोहित दोनों अपनी पत्नियों के परवश थे। अपनी-अपनी स्त्रियों के कहने से राजा घोड़ा बना तथा पुरोहित ने अकाल में शिर का मुंडन करवाया। मंत्री को चारपुरुषों से यह बात ज्ञात हुई। उसने सोचा, यदि पड़ोसी राजाओं को यह बात ज्ञात होगी तो वे राजा के इस कृत्य पर हंसेंगे तथा राजा का पराभव करेंगे। राजा को स्त्रीपरवश जानकर राज्य पर भी अधिकार कर लेंगे। मंत्री राजा और पुरोहित के सामने वक्रोक्ति में बोला-'उस ग्राम और नगर को धिक्कार है, जहां पर स्त्री नायिका होती है। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं, जो स्त्री के पराधीन हैं। जिस गांव या नगर में स्त्री बलवान् है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार अमात्य समय पर राजा को भी शिक्षा देता था।
राजकमार को यद्धविद्या सिखाई जाती थी। वह रणनीति में कशल होता था। पड़ोसी या अनार्य राजा द्वारा उपद्रव किए जाने पर राजकुमार उनको उपशान्त करने में सक्षम होता था। जो दुर्दान्त शत्रु होते, उनमें अपनी शक्ति से क्षोभ उत्पन्न कर देता था। वह पूरे जनपद में तथा सभी दिशाओं में अपने पराक्रम एवं दमननीति के लिए प्रसिद्ध होता था।
वैद्य
वैद्यशास्त्रों में निपुण वैद्य पूरे जनपद में सम्मानार्ह होते थे क्योंकि नागरिकों के आरोग्य के वे मुख्य संवाहक होते थे। माता-पिता द्वारा संक्रान्त अथवा आतंक या रोग से उत्पन्न दोष का समाधान वैद्य करते थे। वे सबमें शारीरिक समाधि पैदा करते थे। युद्धस्थलों में भी वैद्यों को साथ ले जाया जाता था। कुशल वैद्य घायल सुभटों की चिकित्सा कर उनको दूसरे दिन युद्ध के लिए तैयार कर देते थे।
धनवान्
धनवान एवं श्रेष्ठी लोग किसी भी देश की शोभा होते थे। उनके पास दादा-परदादा से संक्रान्त करोड़ों की सम्पदा तथा विपुल मात्रा में सोना, मणि-मुक्ता तथा विभिन्न रत्नों का भण्डार होता था। विपुल ऐश्वर्य से युक्त व्यक्ति ही धनवान् की कोटि में आते थे। नैतिक
जो धान्य वितरण की व्यवस्था में नियुक्त होते थे, वे नैयतिक कहलाते थे। उनके पास सभी प्रकार के धान्यों का विपुल संग्रह होता था। स्थान-स्थान पर उनके धान्य कोठागार होते थे। धान्य के वितरण में उनकी प्रमुख भूमिका होती थी।
रूपयक्ष
__ भारतीय राज्य व्यवस्था का यह वैशिष्ट्य रहा है कि यहाँ राजनीति धर्म से संपृक्त रही है। अशोक के शिलालेखों में धर्म-महामात्रों का उल्लेख इसी बात की ओर संकेत करता है। मलयगिरि ने रूपयक्ष का अर्थ धर्मपाठक किया है। अर्थात् जो मूर्तिमान् धर्म हो, वे रूपयक्ष कहलाते थे। रूपयक्ष को आज की भाषा में धर्माध्यक्ष (न्यायाधीश) कहा जा सकता है। ये भंभी, आसुरुक्ष आदि शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। ये माढर के नीतिशास्त्र एवं कौटिल्य द्वारा प्रणीत दण्डनीति में प्रवीण होते थे। किसी भी परिस्थिति में रिश्वत ग्रहण कर न्याय करने के पक्षधर नहीं होते थे। यह मेरा है और यह पराया-ऐसा सोचकर किसी के साथ पक्षपात नहीं करते तथा निर्णय में सदा निष्पक्ष रहते थे।
१. व्यभा. ६३२-३७। २. व्यभा. ६४७ टी प. १३१ : राज्ञोऽपि यः शिक्षाप्रदानेऽधिकारी सोऽमात्यः । ३. व्यभा.६४ ४. व्यभा. ६४६ ५. व्यभा.६५० ६. व्यभा-६५११ ७. व्यभा.८५२।
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
प्रकारान्तर से भी राज्य में प्रमुख स्थान पर आसीन पांच व्यक्तियों के नामों का उल्लेख भाष्य में मिलता है-राजा, युवराज, अमात्य, श्रेष्ठी,' पुरोहित। राज्य का उत्तराधिकारी
प्राचीन शासन पद्धति में राज्य का उत्तराधिकारी वंश परम्परा से होता था। राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता था। कौटिल्य के अनुसार राज्य का उत्तराधिकारी ज्येष्ठपुत्र को बनाने में हानि नहीं है पर वह अविनीत और उद्दण्ड नहीं होना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर राजा परीक्षा करके योग्य पुत्र को युवराज पद देता था। वह राजकुमार के शौर्य, बुद्धिबल, व्यवहार कुशलता, करुणा आदि गुणों को देखकर राज्य का भार सौंपता था।
राजा द्वारा राजकुमार की शक्ति आदि गुणों की परीक्षा के अनेक उदाहरण भाष्य में मिलते हैं। कभी-कभी राजा नैमित्तिकों से भी इस बारे में विमर्श किया करता था। जो राज्य में क्षेम (नीरोगता), शिव (कल्याण), सुभिक्ष एवं उपद्रवों का अभाव कर सके, उसे राजा अपना उत्तराधिकारी बनाता था। तथा जो डमर, मारि, दुर्भिक्ष एवं चोर आदि से जनता की रक्षा न कर सके, जो धन-धान्य एवं कोश की सुरक्षा न कर सके तथा जिसके कारण पड़ोसी राजा बलवान हो जाए ऐसे राजकुमार को युवराज पद नहीं दिया जाता था।
यदि राजा निःसंतान होता और बिना युवराज पद की घोषणा किए ही कालगत हो जाता तो मंत्री एवं सामन्तगण द्वारा अधिवासित करके घोड़े या हाथी को नगर के तिराहे-चौराहे पर घुमाया जाता था। घोड़ा या हाथी जिस व्यक्ति को अपनी पीठ देता वही राजा घोषित कर दिया जाता था। इस क्रम में चोर का भी राज्याभिषेक हो जाता था। चोर मूलदेव का राजा बनना ऐसी ही एक घटना है। अंतःपुर
राजघराने में रानियों के अंतःपुर की भांति कन्याओं के अंतःपुर भी होते थे। अंतःपुर की रक्षा हेतु राजा बहुत सावधान रहता था। उनकी सुरक्षा का भार महत्तरिकाओं पर होता था। कन्या-अन्तःपुर में यौवन प्राप्त कन्याएं अधिक रहती थीं। कन्याएं गवाक्ष में बैठकर यदा-कदा अन्यान्य व्यक्तियों के साथ आलाप-संलाप करती थीं। यदि महत्तरिका इस ओर ध्यान नहीं देती या कड़ा अनुशासन नहीं करती तो कन्याएं भाग जाती थीं। लेकिन कुछ महत्तरिकाएं कन्याओं पर पूरा अनुशासन रखती थीं, जिससे वे दुःशील नहीं बन पाती थीं। अंतःपुर में हर किसी का प्रवेश वर्जित था। राजा का विश्वासपात्र व्यक्ति ही अंतःपुर में प्रवेश कर सकता था।
- सेठ लोग यदि परदेश जाते तो वे अपनी वयःप्राप्त कन्याओं को राजा के कन्या-अन्तःपुर में रखकर चले जाते, जिससे उनकी सुरक्षा रहती थी। राजा अपनी कन्या की भांति उनकी सुरक्षा करता था।
गुप्तचर
राजनीति में गुप्तचरों का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। प्राचीन साहित्य में इनके लिए गूढपुरुष, चारपुरुष आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। राज्य की व्यवस्था को सुचारुरूप से देखने हेतु अमात्य गुप्तचरों की नियुक्ति करता था। आंतरिक उपद्रवों एवं बाह्य आक्रमणों की गुप्त जानकारी इनसे ज्ञात की जाती थी। ये गुप्तचर पड़ोसी राज्य में रहते और वहां की सूचनाएं एकत्रित कर
१. व्यभा. २१६। २. राजा द्वारा प्रदत्त देवताचिहित सुवर्णपट्ट से विभूषित तथा सम्पूर्ण नगर की चिन्ता करने वाला नागरिक श्रेष्ठी कहलाता था। ३. शान्तिकर्म करने वाला। ४. अर्थशास्त्र १/१७॥ ५. व्यभा. १६३६-४०, १६६४ देखें परि ८, कथा सं. ०। ६. व्यभा. १५६४-६७। ७. व्यभा. १८६५-६७ देखें-परिशिष्ट ८ कथा सं. ८७।
व्यभा.६६७,६६८ १९०७। ६. व्यभा.१६०४, १६०५ ।
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अमात्य तक पहुंचाते। भाष्य में चार प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख आता है-सूचक, अनुसूचक प्रतिसूचक और सर्वसूचक। • सूचक पड़ोसी राज्यों में जाकर अन्तःपुरपालक के साथ मैत्री कर वहां के सारे रहस्यों को जान लेते थे । • अनुसूचक नगर के अन्दर की गुप्त बातों को ज्ञात करते थे।
• प्रतिसूचक नगरद्वार के समीप अल्पप्रवृत्ति करते हुए अवस्थित रहते तथा पड़ोसी राज्य से आने-जाने वाले में रहते थे।
• सर्वसूचक अपने नगर में बार-बार आते-जाते रहते थे।
इन चारों प्रकार के गुप्तचरों का आपस में गहरा संबंध रहता था। सूचक जो कुछ भी नयी बात सुनते या देखते वे अनुसूचक को बता देते। अनुसूचक सारा वृत्तान्त प्रतिसूचक को तथा प्रतिसूचक सारे वृत्तान्त के साथ-साथ स्वयं द्वारा गृहीत तथ्य सर्वसूचक को बता देते और फिर सर्वसूचक अमात्य तक सारा रहस्य पहुंचा देते। इन गुप्तचरों में स्त्री और पुरुष दोनों होते थे। ये पड़ोसी नंगर, पड़ोसी राज्य अपने राज्य तथा अपने नगर एवं अन्तःपुर में रहते थे गुप्तचरी करने वाली स्त्रियों को उचित वेतन-दान मिलता था। अमात्य इन गुप्तचर पुरुष और स्त्रियों से शत्रुराज्य की सारी बातें जान लेते थे।
·
कौटिल्य ने नौ प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख किया है-कापटिक, उदास्थित गृहपतिक, वैदेहिक, तापस, सत्री, तीक्ष्ण, रसद और भिक्षुक ।'
राज्यकर
राजा प्रजा से दस प्रतिशत कर लेकर संतुष्ट हो जाता था। नगर कर से मुक्त होते थे। एक गांव से दूसरे गांव में सामान ले जाने पर चुंगी कर लगता था, जो प्रत्येक व्यापारी को बीस प्रतिशत देना पड़ता था।
जिस विधवा महिला के पुत्र नहीं होता, उसको जीवन निर्वाह योग्य धन देकर शेष सम्पदा राज्य कोष में रख ली जाती थी पर कुछ दयालु राजा इसके अपवाद भी होते थे।' यदि कहीं उत्खनन में निधि मिल जाती तो उस पर राजा का अधिकार होता था, लेकिन कभी-कभी राजा प्रसन्न होकर उस भूमि के स्वामी को ही वह निधि दे दिया करता था।
1
ब्याज का धन्धा अधिक होता था व्याज पर दिये रुपयों की वापिस तसूली कठिन होती थी जो मीठा बोलता, सापेक्ष व्यवहार करता या सहन कर लेता वह ऋण का धन वापिस ले सकता था। किसान आवश्यकता पड़ने पर धान्य भी ब्याज पर देते थे।
७
अर्थव्यवस्था
१. व्यभा· ६३६-४७१
२.
आचार प्रधान ग्रंथ होने के कारण अर्थव्यवस्था एवं व्यवसाय आदि का विशेष वर्णन इस ग्रंथ में नहीं मिलता लेकिन भाष्य में वर्णित विविध कथाओं के माध्यम से उस समय की अर्थ व्यवस्था को जाना जा सकता है ।
अर्थशास्त्र १/६/१०/१।
दुकानों के लिए शाला शब्द का प्रयोग होता था। चक्कियसाला (तेली की दुकान), गधियसाला (सुगंधित द्रव्य की दुकान), घोडगसाला, लोणियसाला आदि विविध शालाओं का वर्णन मिलता है।' विविध प्रकार के वस्त्रों का व्यापार चलता था । ताम्रलिप्त एवं सिंधुदेश के वस्त्र अधिक प्रसिद्धि प्राप्त थे । सामुद्रिक व्यापार द्वारा माल का आयात-निर्यात होता था । " समुद्र में एक
११
३. व्यभा. ६२७ ।
४.
व्यवहार भाष्य
व्यभा. ६१५ टी. प. १२७ ।
शत्रु
५. व्यभा. ४५५, ४५६ ।
६. व्यभा. ३२५१ ।
७.
व्यभा. २६१० ।
て
व्यभा. ३७२५ ।
६.
व्यभा. ३७३६ ।
१०. व्यभा. २८६५ ।
११. व्यभा. १२०१, १२०२ ।
की घात
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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
स्थान से दूसरे स्थान पर जाने हेतु बड़े-बड़े पोत तथा विविध प्रकार की नौकाएं काम में लाई जाती थीं। विशेष रूप से चार प्रकार की नौकाओं का उल्लेख मिलता है।'
• समुद्रनौ-जिससे समुद्र पार किया जा सके। • अवयानी-अनुस्रोत में चलने वाली नौका। • उद्यानी- प्रतिस्रोत में चलने वाली नौका। तिर्यग्गामिनी-नदी के पानी को तिरछा काटती हई चलने वाली नौका।
कर्जदार का यदि जहाज डूब जाता और वह स्वयं बच जाता तो उसे ऋण चुकाना अनिवार्य नहीं था। इसे वणिग्न्याय कहा जाता था। वेश्यावृत्ति खूब चलती थी। पांच या दस कौड़ी में वेश्याएं अकृत्य सेवन के लिए तैयार हो जाती थीं। कभी-कभी इस कार्य के विनिमय में वेश्याओं को बिना किनारी वाला कपड़ा भी दिया जाता था।
न्याय के क्षेत्र में रिश्वत चलता था। कार्य के प्रति अनुत्तरदायी व्यक्ति का समाज में कोई स्थान नहीं था। उनको आजीविका के साधन मिलने दुर्लभ थे। तत्कालीन प्रचलित अनेक शिल्प, शिल्पी एवं कर्मकरों का उल्लेख भाष्य में मिलता है। भाष्य में 'कोक्कास' नामक शिल्पी का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। इसका उल्लेख आवश्यकचूर्णि एवं वसुदेवहिंडी में भी मिलता है। वह यंत्रमय कबूतर एवं हंस बनाकर उनसे शालि चुगवा लेता था।
विभिन्न प्रकार की मुद्राओं के उल्लेख से भी उस समय की अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति का ज्ञान होता है। भाष्य में कार्षापण, काकणी, उंडि, रूप्यक, माषक, दीनार आदि मुद्राओं का उल्लेख मिलता है। सांस्कृतिक एवं सामाजिक तथ्य
समय जानने के लिए जल-नालिका या बालू-नालिका का प्रयोग किया जाता था। साधु लोग सूत्र एवं अर्थ परावर्तन के परिमाण के आधार पर कालज्ञान कर लेते थे। उनका सूत्र-परावर्तन इतना लयबद्ध होता कि सूर्य के मेघाच्छन्न होने पर भी वे कालज्ञान कर लेते थे।
कबूतर का नए घर पर बैठना अपशकुन माना जाता था। ज्योतिषी से पूछकर उस अपशकुन का निवारण भी किया जाता था। प्रयोजनवश बाहर जाते समय वस्त्र आदि की स्खलना को अपशकुन माना जाता था। अपशकुन आदि होने पर आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण पंच परमेष्ठी मंत्र अथवा दो श्लोकों के चिन्तन जितने समय के कायोत्सर्ग का विधान है। दूसरी बार अपशकुन होने पर सोलह श्वासोच्छ्वास तथा तीसरी बार प्रतिघात या अपशकुन होने पर बत्तीस श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग का उल्लेख है। चौथी बार प्रतिघात या अपशकुन होने पर वहां से प्रस्थान न किया जाए अथवा कोई अन्य प्रयोजन प्रारम्भ न किया जाए। विविध लौकिक मान्यताओं का उल्लेख भी भाष्य में मिलता है, जैसे नख को दांत से काटने पर कलह होता है आदि।
१. व्यभा.११० टी.प. ३६। २. व्यभा. १२०० टी. प. ५१।
व्यभा. १६२२। ४. व्यभा. १३ टी. प. । ५. व्यभा- २३२३-२५॥ ६. देखें परि. १६ एवं २०॥ ७. आवचू.भाग १ पृ. ५४१, वसुदेवहिंडी भा. १ पृ. २। ८ व्यभा. २३६३ टी. प. २०॥ ६. देखें-परिशिष्ट २०॥ १०. व्यभा.४०४७टी.प.३३। ११. व्यभा. ७.३ टी. प. ६३: सूत्रार्थचिन्तनप्रमाणेन कालं दिनरात्रिगतागतरूपं जानाति; व्यभा.७८६-७८८ । १२. व्यभा.२८८१ १३. व्यभा. ११७११८॥
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व्यवहार भाष्य
यत्र-तत्र ऐन्द्रजालिक विविध करतब दिखाते हुए घूमते थे। साथ ही संन्यासी वर्ग भी इसका प्रयोग करता था से गोले को निगलकर कान से निकाल देते थे। जादू-टोनों का प्रयोग भी खूब चलता था।
मृतक-परिष्ठापन में अन्य सावधानियों के साथ दिशा का विशेष ध्यान रखा जाता था। विपरीत दिशा में परिष्ठापन कर विशेष प्रभाव होता था। उत्तरदिशा में मृतक का परिष्ठापन उत्तम माना जाता था। आनंदपुर में साधु उत्तरदिशा में परिष्ठापन करते थे।
विविध प्रकार के भोजों का आयोजन होता था-आवाह(वरपक्ष का भोजन), वीवाह (वधूपक्ष की ओर से भोजन), जण्ण (नाग आदि देवताओ को श्राद्ध), करडुय (मृतक भोज) आदि।
वाद-विवाद के प्रसंग चलते थे। वाचिक संग्राम में जाते समय वादी अनेक बातों का ध्यान रखते थे। वाक्पाटव के लिए ब्राह्मी आदि औषधि का सेवन करते थे। बुद्धिबल, धारणाबल एवं ऊर्जा की वृद्धि के लिए दूध एवं घी का विशेष प्रयोग किया जाता था।
वाद-विवाद किनके साथ करना चाहिए और किनके साथ नहीं करना चाहिए, इसका भी सुन्दर विवेक भाष्यकार ने प्रस्तुत किया है-आर्य, विज्ञ, भव्य, धर्मप्रतिज्ञ, अलीकभीरू, शीलवान्, आचारवान् के साथ वाद करना चाहिए। अर्थपति, नृपति, पक्षपाती, बलवान्, प्रचण्ड, गुरु, नीच, एवं तपस्वी के साथ वाद नहीं करना चाहिए।
गंगायात्रा पर सार्थवाह बहुत जाते थे। मालवदेश में चोरों का प्रभाव अधिक था। चोर धन-माल की ही चोरी नहीं करते थे, व्यक्तियों एवं साध्वियों का भी अपहरण कर लेते थे। नारी
अवस्था की दृष्टि से अठारह वर्ष की युवती डहरिका तथा ४० साल की स्त्री तरुणी कहलाती थी। नारी की पराधीनता का चित्र खींचते हुए भाष्यकार कहते हैं- नारी बचपन में पिता, यौवन में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहती है, अतः नारी कभी स्वाधीन नहीं रहती।"
कभी-कभी पुरुष महिलाओं पर हाथ भी उठा लेते थे। महिलाओं की शक्ति बढ़ना उचित नहीं माना जाता था। भाष्य में स्पष्ट उल्लेख है कि जिस गांव या नगर में महिला नायिका है, वह गांव या नगर शीघ्र नष्ट हो जाता है तथा जो लोग स्त्री के परवश हैं, वे धिक्कार के पात्र हैं।
साध्वियों को कुछेक विशेष ग्रंथों की वाचना देने का निषेध था। बृहत्कल्प भाष्य में निषेध के हेतुओं का उल्लेख है।
वास्तुविद्या
वास्तुविद्या की दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत ग्रन्थ में मिलते हैं। एक खम्भे पर आधारित प्रासाद बनाए जाते थे।१२ कभी-कभी रानी या पत्नी की इच्छा से हाथीदांत से जटित सौध भी बनाए जाते थे।३
१. व्यभा. १७६ २. व्यभा. ८७६ टी. प. ११७।
व्यभा.३२६६-७३। ४. व्यभा.३२७५ टी. प. ७६ । ५. व्यभा.३७३६। ६. व्यभा-७७ टी. प. ८४। ७. व्यभा.७१२-७१५ । ८ व्यभा. १६१२-१४। ६. व्यभा-१९८१,३२५२। १०. व्यभा.२३१३, ११. व्यभा. १५६०, तुलना मनुस्मृति। १२. व्यभा.६३ टी. प. २४। १३. व्यभा.५१७ टी. प. १७॥
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व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन
[ १
मकान बनाने से पूर्व उसका रूप तैयार किया जाता था।' संघ को शीतगृह की उपमा दी गई है। इससे स्पष्ट है उस समय वातानुकूलित मकान भी बनाए जाते थे। मकान बनाने में पत्थर एवं लोहे की ईंटे काम में लाई जाती थीं। चक्रवर्ती के भवन १०८ हाथ, वासुदेव के ६४ हाथ, मांडलिक के ३२ हाथ तथा साधारण लोगों के भवन १२ हाथ ऊंचे
होते थे।
आठ मंजिल के ऊंचे प्रासादों का उल्लेख मिलता है। मकानों में तलघर भी बनाए जाते थे । राजभवन एवं सेठ लोगों के मकानों में मणिमुक्ता जड़े रहते थे।
दासप्रथा
महावीर द्वारा दासप्रथा का विरोध किए जाने पर भी भाष्यकार के समय तक इस प्रथा का समूल नाश नहीं हुआ था । निशीथ भाष्य में अनेक प्रकार के दासों का उल्लेख मिलता है। जो गर्भ से ही दास बना लिए जाते वे 'ओगालित' कहलाते । खरीदकर लाए हुए को क्रीतदास तथा ऋण से मुक्त न होने के कारण बने दास को 'अणए' कहा जाता दुर्भिक्ष के कारण भी कुछ लोग दासवृत्ति स्वीकार कर लेते। राजा का अपराध होने पर भी दण्ड के कारण व्यक्ति दास बना लिए जाते। म्लेच्छ या चोरों द्वारा अपहृत व्यक्ति कालान्तर में दास के रूप में बेच दिये जाते । कोई अपने बच्चे को मित्र के घर छोड़कर स्वयं दीक्षित हो जाता, मित्र के कालगत होने पर उस घर में आदर न मिलने पर वह दासवृत्ति स्वीकार कर लेता । "
किसी को दासत्व से मुक्त कराना कठिन कार्य था । भाष्यकार ने साधु द्वारा अपने पुत्र को दासत्व से मुक्त कराने के अनेक उपाय निर्दिष्ट किए हैं। कभी-कभी दास या दासी को किसी कार्य से प्रसन्न होकर स्वामी उसका मस्तक प्रक्षालित कर देता, जिससे उसे दासता से मुक्ति मिल जाती। " दास को दीक्षित करने का निषेध था पर संथारे के इच्छुक दास को दीक्षित करने का विधान भी था ।
११
पर्यवलोकन
व्यवहार भाष्य एक आकर ग्रंथ है। अनेक विषयों का इसमें समावेश है। टीकाकार मलयगिरि ने इस पर टीका लिखकर इसको और अधिक प्रशस्त बना दिया है। यद्यपि इस ग्रंथ का मुख्य प्रतिपाद्य प्रायश्चित्त देकर साधक की विशोधि करना है, परन्तु इस प्रतिपाद्य के परिपार्श्व में ग्रंथकार ने और भी अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भाष्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति पर विशद प्रकाश डालता है। ग्रंथकार ने जैन परम्परागत विधि-विधानों का अविकल संकलन कर उनकी पारंपरिकता को अविच्छिन्न रखा है।
भाष्य में अनेक मत-मतान्तरों का उल्लेख है। पांचों व्यवहारों के संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण मंतव्यों का उल्लेख भाष्य एवं टीका में प्राप्त है। हमने भाष्यगत अनेक विषयों को छुआ है फिर भी अनेक विषय अछूते ही रह गए हैं। इसमें वर्णित चतुर्भंगियों पर विशद प्रकाश डाला जा सकता है और उनके माध्यम से अनेक नए-नए तथ्य सामने आ सकते हैं दशवें उद्देशक में वर्णित चतुर्भंगियां मानव मन का सुंदर विश्लेषण प्रस्तुत करती हैं ।
।
१. व्यभा. ४१७६ ।
२. व्यभा. १६८१ ।
३. व्यभा. २२८३ ।
४. व्यभा. ३७४८, ३७४६ ।
५.
व्यभा. ३७४७ ।
६. निभा. ११७४ ॥
७. निभा. ३६७६, व्यभा ११७४ ।
て
व्यभा. ११८०, ११८१ ।
६. व्यभा. ११८२-६२ ।
१०. व्यभा. २६५४ टी. प. ३८ ।
११. व्यभा. ११७२ ।
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२]
व्यवहार भाष्य
सभ्यता एवं संस्कृति के तथ्यों को हम बहुत अल्पमात्रा में प्रस्तुत कर पाए हैं। इसका एक कारण तो यह है कि कुछेक तथ्य अनेक परिशिष्टों में समाहित हो चुके हैं अतः उनको पुनः यहां दोहराना उचित नहीं लगा।
इतना लिखे जाने पर भी महसूस हो रहा है कि अभी भी बहुत कुछ लिखना शेष है।
१ जून १९६६ जैन विश्व भारती, लाडनूं
मुनि दुलहराज समणी कुसुमप्रज्ञा
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The glimpses of Vyavahara Bhasya
Classification of the Agamas
The Agamas are divided into two classes: Anga and Purva. Aryarakṣita has classified them into four divisions. (1) Caranakaraṇānuyoga, (2) Dharma-kathanuyoga, (3) Ganitanuyoga, (4) Dravyanuyoga.1 At the time of compilation of the canonical literature the Agamas were divided into two types-Anga pravista (inner corpus) and Anga Bähya (outer corpus). Nandi Sutra mentions the division keeping in view the time. Some Āgamas studied in the first and the last quarters of the day are known as Kalika and those which can be studied at all times, are known as Utkalika. The latest classification of Agamas, however, falls into four categoriesAnga, Upanga, Mula and Cheda. At the present time this very classification is more popular.
Importance of Cheda Sutras
Jainism has been much emphatical on the purification of conduct, to such an extent that even in dream if one commits violence or speaks falsehood, he has to undergo repentance. References to it are found in the canonical works in the form of 'Prakira'. In due course of time, however, independent need for the literature on do's and don'ts about asceticism began to be felt. From the point of view of dravya, kṣetra, kala etc. there emerged some changes in ethical code. According to circumstances some alternative rules were also framed which came to be known as exceptions. Cheda Sutras deal with various ethical compendium of the monk but at the same time there is provision for occasional exceptions. These sutras, not only frame the mode of an ascetic's life but suggest punishment too in event of slightest infringement of rules. In the colloquial language they are known as Penal code but in ethico-metaphysical language they were known as rules of 'Prayaścitta'. The word 'kappai' indicates the rules for an ascetic to be practised. But 'no kappai' means that the saint is not allowed to perform such deeds. In Buddhist tradition are find diffuse reference of ethics, discipline and repentance as in the 'Vinaya Pitaka'. Similarly such rules are found in 'Srouta sutra' and 'Smṛtis' of the Vedic legacy. Amidst huge number of Cheda Sutras, Niśitha occupies a prominent place. The Vyavahara Bhasya refers to the significance of Niśitha with several instances in its fifth and sixth uddeśakas. Daśāśrutaskandha is entirely different from the three works from the point of view of subject matter and the style of composition. This work also contains the monastic rules which have to be observed and also to be avoided in a systematic way. Hence this work is subsumed under Cheda Sutras.
While discussing the supremacy between the aphorism of the Agama and its meaning, the latter is regarded more prominent in Vyavahara Bhasya. In the same context, while dealing with the meaning of other Agamas, the meaning of Cheda Sutras is attached more significance. The reason stated thereof is that the commentators are of the opinion that whenever there are moral aberrations and defects imposed, the Cheda sutra have purificatory effect, so leaving aside the purvas, the Cheda Sutras are superior to other Agamas as regards the meaning. Cheda Sutras have been referred to as 'Uttama Sruta' in the Niśitha Bhasya. The reason for naming it as 'Uttama Śruta' has been explained by the Curnikära that there is the direction of repentance (prayaścitta), by which the conduct becomes purified that is why Cheda Sutra is regarded as 'Uttama Śruta',' There is an explicit reference to Nikitha that without studying Acaranga, the teaching of Cheda Sutra by any
1. Dasa Agas. Chur. p. 2
2. Nandi Su, 77, 78
3. Vyavahāra Bhāṣya 1829: jamhā tu hoti sodhi, chedasuyatthena khalitacaranassa tamhã chedasuyattho, balavam mottuna puvvagatam.
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व्यवहार भाष्य Acārya invites repentance; in other words if the Acārya teaches Cheda Sutras without studying Acaranga he has to face the punishment of Prayascitta.The knower of Cheda Sūtra is known as 'Sruta-Vyavahārī.4 Cheda Sūras are basically mystical literature. Like 'Yoni Prabhsta' etc, it is also to be kept secret. The teaching of Cheda Sutras are restricted to a few. Niśītha Bhasya and Curni clearly mention that the work should not be taught in the assembly of simpleton ignorant and also those ascetics whc have not finished their studies. However an exception is made by permitting even the undeserving to be taught Niśitha in view of the cessation due to dravya, kşetra, kāla and bhāva. According to Pancakalpa Bhāsya Cheda Sutra was permitted for teaching only to the experienced disciples whereas the improvident and extra-improvident were debarred from it.? Cheda Sutra taught to apariņāmaka disciples are ruined like the milk poured in a clay-built and verjuiced pot. In the Order containing abundant novice ascetics, Cheda Sūtra was taught in perfect secrecy lest the novice ascetics change their minds and leave the Order. The authorship of Cheda Sutras
The Cheda Sutras were culled from the 'Purvas'. The literature 'Niryukti' and 'Bhāsya' refer to the third Ācāra Vastu of Pratyakhyāna Purva from which the four Cheda Sutras, such as Daśāśrutaskandha, Brhatkalpa, Vyavahara and Niśitha originated. Regarding the author-ship of Niśitha there is no unanimity of opinion amongst the scholars. Some scholars are of the view that Niśitha is also the work of Bhadrabahu. But this does not appear to be logical. Actually Niśitha is not the work of Caturdaśapūrvadhar Bhadrabahu. Arguments can be advanced in the support of this hypothesis.
1. Daśāśrutaskandha's niryukti and Pancakalpa bhasya respectfully pay obeisance to Bhadrabahu the author of Dasa, Kalpa and Vyavahara but no reference at all is found of Acārakalpa and Niśitha.
Regarding the time limit of the study of the Agamas as stated in Vyavahāra Sūtra, there is a simultaneous reference of Daśāśruta, Vyavahāra and Kalpa. 12 Particularly Āvaśyaka sūtra invariably refers to uddeśakas
1. Niśitha bhāsya 6184 cūrni, p. 253. 2. Niśitha; 19/18 3. Nisitha bhāsya, 6395, Vyavahārabhāsya, 320 4. Vyavahāra bhå' c6-sya 4432-35 5. Vyavhara bhasya 646, Commentary p. 58 Niśitha bhasya 5947, curni. p. 190 6. Niśitha bhäsya, 1223: nauna chedasuttam parinämage hoti dāyavvam. 7. Pancakalpa bhāsya, 1223 : näuna chedasuttam pariņāmage hoti dāyavvam.
Vya. Bh. 1739 8. Vyavahāra bhasya 4100, 4101. 9. Vyavahāra bhāsya : 4173 (a) savvam pi ya pacchittam, paccakkānassa tatiyavatthummi/
tatto cciya nijjudham, pakappakappo ya vavaharoll (b) Pancakal pa bhāsya 23:
ayāradasa kappo, vavahāro navama puvva nisando/ (c) Ācāranga niryukti 291:
āyārapakappo puna, paccakkhänassa tatiyavatthüo/
ayaranāmadhejjā, visaima pahudacchedā/l 10. (a) Daśāśrutaskandha, niryukti:
vandāmi bhaddabāhum, painam carimasagalasuyanānim/
suttasa karagamisim dasāsu kappe ya vavahare// (b) Pancakalpa bhāsya 12:
to suttakārao khalu, sa bhavati dasakappavavahare/ 11. Daśāśrutaskanadha, niryukti : Pancakalpa bhāsya / 12. Vyavahahara Sūtra 10/27
pancavāsapariyāyassa samanassa nigganthassa/ kappai dasa kappavavahäre addisittae//
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The glimpses of Vyavahāra Bhäsya
TEL of these three works,' excluding, however, the Niśītha which has been referred to separately.? Referring to the Sruta-vyavahāri, the Commentator has accepted Kalpa and Vyavahaa and the knower of their Niryuktis on these works as Srutavyavahari. There also is no reference to Niśitha and Acāraprakalpa yet the significance of Niśitha has been indicated in various gathers in the Vyavahara bhāsya, but it appears that these lines are added later on. Because Niśitha later on gained a prominent and prestigious place; otherwise, the Commentator would have definitely referred to Nišitha as having compiled this work. Winternitz has accepted Niśitha as modern one and had dubbed Niśītha as anthological one. There is a common agreement among the scholars that Niśitha was compiled by Visakha Gani, who was contemporary of Bhadrabāhu.
Similarly there is a problem regarding the compilation of Daśāśrutaskandha which contains the life and (sthaviravali) ascetic order of Bhagavāna Mahavira. If so, how can it be regarded as derived from Pūrvas? It looks probable, some part of it has been supplemented to it later on. The bhāsya literature elaborately discusses the circumstances leading to the compilation of Cheda Sutras. According to the Commentator the ninth Purva is as vast as the ocean, so it should be remembered constantly, it should be forgotten lest. When Bhadrabahu found the degradation of physical and mental powers, he felt the need for the protection of character and its purificatory process, and that is why he complied Kalpa and Vyavahāra.? The other reason told by bhāsyakāra is that in the absence of Caranakaranānuyoga there will be the interruption of conduct and character. Therefore, to protect the character and to preserve this Caranakaranānuyoga Bhadrabahu had compiled these
works. 8
Curnikāra clearly mentions that Bhadrabahu has composed Daśa, Kalpa and Vyavahāra due to decomposition of the power of life-span and memory and not for food, attribute or popularity etc.
The Bhasyakāra it with illustration-just as a man tries to collect fragrant flowers, by climbing up the Kalpavrkșa, but is incapable, so another one climbs up the tree out of mercy, collects the flowers and supplies them to the incompetent persons. Similarly Bhadrabahu climbs up the Kalpavřksa, as it were, and compossed the Cheda works out of mercy for incompetent persons. In this connection the bhāsyakāra has mentioned Keśava Bihari and Vaidya citing their examples.
The title of the work
"Cheda Sutra' is a part of canonical works. The title 'Cheda Sutra' is found in the Jain tradition alone. In Buddhist and Vedic legacies such classification is not found. Nandi sutra declares that the Vyavahara and Brhatkalpa, etc., are subsumed under the category of 'Kalika Sruta' (to be recited at a particular time). The Gommațasāra, Dhavala! and Tattvārtha sūtrall treat the Vyavahāra and other works as 'Anga Bahya (outside the fold of canonical works). It appears that when Bhadrabahu was compiling the monastic rules, there was not such groups of literature like Cheda Sutras. Later on when such literature gained
1. Avasyaka sūtra, 8: 2. Vyavahāra bhāsya 10/15 :
tivasaparivāyassa samanassa nigganthassa kappai āyārapakappam nāmam ajjhayanam addisittae. 3. Vyavahāra bhāsya, verses 4432, 4436 4. Pancakalpa curnii-unpublished 5. A History of Indian literature, p. 446 6. Vyavahāra bhāsya, 26-29 8. Pancakalpa bhāsya-42
Dasa Sru Chu, p. 3 Pan. kalpa Bh., 43-46 PKB, 47-48. 9. Gominatasära jiva kanda, 367, 368 10. Dhavala, Text, I. P. 96. 11. Tattavārtha 2/20
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व्यवहार भाष्य importance, he had to classify this new literature under special category; Yet, how the word Cheda Sūtra became prevalent is not traced in the ancient literature. The most ancient description of 'Cheda Sūtra' is found in Avaśyaka niryukti. In the light of inferential approach of several scholars, several arguments about the appropriateness of the title 'Ched Sutra' have been furnished. According to Shubbring : out of ten categories of repentance, on basis of Cheda and Mula the classification of Agamas acquired two names as 'Cheda' and 'Mula'. On the basis of this inference the 'Cheda Sutra' are genuine as regards the subject matter. The present Müla Sutras' are not in conformity with the 'Mula' repentance.
Since the sāmāyika caritra conduct is of a short duration, the role of repentance is confined to Chedopasthāpainya conduct. These 'sūtras' make provision for repentance. Hence they are knwon as 'Cheda Sūtra'. In the Digambara Agama 'Cheda pinda' refers to repentance with eight synonymes, one of which is 'Cheda'. According to Svetāmbara tradition out of ten types of 'prayascitta' the seventh is Cheda. The last three are adopted not as an ascetic. However, in the śramanic tradition the last 'prayascitta' is Cheda itself. Hence Cheda Sutra is that literature which provides a method to remove the stigma of moral aberration, hence the Cheda Sutra. The Cheda Sutra has been equated with the conduct common to the entire monastic order as per a chapter on 'right conduct' found in the 'çika' by Malayagiri on Avaśyaka.? The words ‘padavibhāga' and 'Cheda', are equivalent in their connotation. All the sutras of 'Cheda Sūtra' are independent. One sutra has nothing to do with the other one. Even the explanation is furnished from the view-point of 'cheda' or 'vibhaga'. Also for this reason this is known as 'Cheda Sūtra'.
Regarding the title of the work Cheda Sutra Acarya Tulsi (present Gaņādhipati) has provided a new clue for this. 'Cheda Sutra' is regarded as 'uttama śruta'. 'Uttama śruta' while analysing the word, we doubts whether 'cheyasutta' is not the same as 'cheka śruta'. Cheta śruta is equivalent to 'Kalyāna śruta' (benevolent literature) or 'uttama śruta auspicious literature. Daśāśrutaskandha is regarded a prominent work on Cheda Sutra. From this it appears that cheya sutta and cheka sutta are not incongruent. What Dasa vaikälika (4/11) contains 'Jam-Cheyam taromanm samayare', confirms 'cheya' as 'cheka'.
Cheda Sutra is that which does not provide an obstacle in the observance of rules (of Monastic order), leading to the path of purification. Haribhadra's centention also has been expressed in his Tika on 'Pancavastu, which designates Cheda Sutra as advocation serenity and holiness; thus the title Cheda-Sutra' appears to be quite appropriate.
The four 'Cheda Sutras as available today have meaningful titles, and are subsumed under Ayāradaśa, containing monastic order in various stages. It is divided into ten chapters; hence it comes to be known as Dasasrutaskandha. Kalpa means conduct. The work which contains the monastic disciplinary rules on an extensive scale is known as Brhatkalpa. Malyagiri has elucidated the suitability of the title 'Brhatkalpa' in his Brhatkalpa bhāsya, a commentary on 'Bịhatkalpa'. The 'Vyavahāra is fundamentally the sutra on repentance. It is appropriately called vyavahār because of the five types of vyavahāra (behaviour).
The work 'Acara prakalpa' contains various types and alternatives of conduct. It has another title-Niśitha which means midnight or darkness. According to the commentary on Niśītha it was taught at midnight or in
1. Avaśyaka niryukti, 777. 2. Kalpasútra p. 8. 3. Āvaśyaka niryukti 665. Malayagiri Commentary. p. 341. padavibāga sa mācāri chedasutrani. 4. Daśāśrutaskandha cūrni, p. 2. imam puna ccheyasuttapamuhabhūtam. 5. Nisīthajjhayanam introduction, p. 3-4. .
Jainendra-siddhānta-kosa; 11/306: bajjhānutthanenam jenaśna bahijjae tayam nyamā/
samhava : ya parisuddham so puna dhammanmmi cheutti/ 6. Brhatkal pa bhāsyapithikā. p. 4.
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The glimpses of Vyavahāra Bhasya the absence of light'. Hence the short title of Niśitha'.
The number of Cheda sutras
The scholars are not unanimous about the number of Cheda Sutras. According to Jita Kalpa Curņi the following works are subsumed under the Cheda Sutras-Kalpa, Vyavahāra, Kalpikakalpika, Kșullakalpa, Mahakalpa and Niśitha etc. The word 'etc.' is probably, an indication of Daśaśrutaskandha. The works—Kalpikalpik, Mahākalpa and Kșullakalpa etc. are not available today. It is indisputable that these works refer to repentance sutras, hence they are included the category of Cheda Sūtras.
The Avaśyaka Niryukti refers of Mahākalpa alongwith Cheda Sūtra. Hiralal Kapadia's opinion is that after the extinction of Pañcakalpa, Jitakalpa was counted as Cheda Sūtra. Some hold that Pancakalpa was the part of Brhatkalpa Bhasya some time ago. But it was later on separated just as the Ogha niryukti and the Pinda Niryukti.?
In modern times Pañcaklpa is not available. The work existed upto the carly part of seventeenth century according to the list of Jain works, yet it cannot be asserted when actually is disappeared. In the light of the topics discussed in the Pañcaklpa Bhasya, it appears that Pañacakapla was regarded as a branch of Ched Sūtras. According to Winternitz the composition of Cheda Sūtra falls in this order--Kalpa, Vyavahara, Niśītha, Pinda Niryukti, Ogha Niryukti and Maha Niśitha: Winternitz did not include Jitakalpa as one of the Cheda Sutra. Jīta Kalpa was composed after Nandi sutra, hence Jīta Kalpa is not referred to in the work. Pinda Niryukti and Ogha Niryukti describe the monastic disciplinary rules, and perhaps for this reason Winternitz has included these two works in the category of Cheda sutras. The Digambara literture also refers to Kalpa, Vyavahāra and Niśitha, in the form of 'Anga-(Outer Corpus) Bhasya' literature. But Digambara literature does not mention Jīta Kalpa, Pancakalpa and Mahānisitha. Daśāśruta is treated as the first Cheda Sūtra as mentioned in the 'Samavão.10 The Commentator has accepted in a prominent way Daśāśrutaskandha among Cheda Sūtras 11 for the reason that it describes logically the conduct of an ascetics to be followed or not.
According to Winternitz, Vyavahāra is supplementary to Brhatkalpa. In Brhatkalpa there is provision for 'Prāyaścitta', determining deeds, whereas Vyavahāra is its practical area. Of course there is room for prāyascitta in it. According to him (Winternitz) Niśith. is a modern work since the major part of Niśītha is borrowed form Vyavahara and some part from the first and the second Cula.l2 Some Acāryas maintain the view that Daśāśruta, Běhatkalpa and Vyavahāra below to the same Śrutaskandha; alone but some Acāryas hold the opinon that Daśāśruta belongs to one Śrutaskandha and Kalpa and Vyavahāra belong to the second Śrutaskandha. 13
1. Niśitha bhāsya, 69. 2. Jitakalpa cūrni P.1. Kappa-vavahāra kappiyakappiya—cullckapa-mahakappa-suya nisithāiesu-chedasuttesu aivittharena pacchittam
bhaniyam. 3. Āvasyaka niryukti, 777, Viseşāvaśyaka bhāsya, 2295 4. Sāmācāri salaka, Agamadhikara. 5. Jainadharama. P. 259 6. History of the Canonical literature of the Jainas, P. 37 7. History of the Canonical literture of the Jainas, P. 36 8. History of the Canonical literature of the Jainas, P. 36 9. A History of Indian Literature, P. 464 10. Samavāyanga 26/1 11. Daśāśrutaskandha cūrni, p. 2. imam puna Chedasuttapamuhasuttam 12. A History of Indian Literature, P. 446 13. Pancakalpa Bhäsya, 25
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Cheda Sutras and the Anuyogas
Anuyogas are the method of writting special explanatory notes. They are mainly of four types. (1) Caranakaraṇanuyoga, (2) Dharmakathanuyoga, (3) Ganitanuyoga (4) Dravyanuyoga.
Prior to Aryarakṣita, the study of all works was done keeping in view all the four anuyogas but later on, when memory became less and less strong. Aryarakṣita classified anuyoga into four parts. From the point of view of the significance of the subject, anuyoga was classified to interpret Agamas. On the strength of this classification the Agamas were also divided under four heads. Since Cheda Sutra is chiefly based on conduct, it was subsumed under Caraṇakarananuyoga. In this context a disciple asks his Guru, as stated in Nikitha Curr whether Nisitha being pañcamacula of Acaranga had been included in the Anga literature, and since it belongs to Caranakarana, but under which anuyoga should the Anga Bahya Cheda Sutras be included? But bhasyakar of Nisitha has included the Cheda Sutras in the category of Caraṇa Karaṇānuyoga.
Niryuktikara
Acarya Bhadrabahu is well-known as the 'Niryuktikara' even Govinda Acarya's 'Govinda Niryukti' is mentioned in some places.2 There are controversies among scholars regarding Bhadrabahu. Winternitz and Kapadia etc, hold Bhadrabahu I (a knower of fourteen Purvas) as the 'niryuktikara' in their assessment, but Bhadrabahu II, is the author of niryuktis on several grounds. Here some agruments are put forth so that the historical period can be determined.4
1. 'Niryukti' forms the first commentary on Agama in the Prakrit-verse style. The Bhasyas were written on niryukti, leading to inference that the intervening period must be sufficient, since there was no provision for publication and propagation of literature. On the basis of the oral tradition and manuscripts, the knowledge was acquired from any work; if Bhadradbahu II is accepted as the author of 'niryuktis', then the work belongs to 1th Century A.D., whereas the bhāṣyakara belongs to the 4th or 5th century A.D.5 From this it is clear that the period of niryukti is 2nd or 3rd century.
2. There are several verses belonging to Avaśyaka niryukti in Mulacara. Mulácara was written before Bhadrabahu II. It looks improbable that the verses from Mulácara were added to Avaśyaka niryukti. After Gautama Ganadhara, Bhadrabahu became an outstanding Acarya who was accepted by both the sects with the same honour. It looks more probable that Vajakera has adopted the work of Bhadrabahu I.
3. There are certain indications like, 'Puratani gäha' or 'ciranatana gaha' at several places of Bṛhat. Kalpa and Nikitha bhaṣya. These verses appear to be complied by Bhadrabahu I. There are reference like, 'Esa cirantana gahá', 'eyae cirantanagahãe ama bhaddabahusamikata vakkhan gaha" that before Bhadrabahu II there were niryuktis in existence. The adjective 'Puratana' indicates its historical priority-indicative of Bhadrabahu I. It looks, therefore, that because of the synonymous names the difference between two Bhadrabahus could not be clear.
4. Mailavadi, the author of 'Nayacakra' belongs to 5th century A.D. He has quoted Niryukti gatha in his works, from which the ancient period of niryukti is established.
5. In the Tika by Santyäcarya on 'Uttaradhyayana there are some stories concerning the Pariṣahas
1. avaśyakaniryukti 777, niśīthabhāṣya 6190
jam ca mahakappasuyam, jāni ya sesaim chedasuttaim
caranakaraninuyoga, kaliya chedovagy- ya.
2. Brhat bhāṣya, 5473, ni, bhā 5573
व्यवहार भाष्य
3. The history of Canonical Literature of Jainas. p. 172
4. Muni Śri, Hajārīmal Smriti grantha P. 718, 719
5.
in Agama Sahitya main Bharatiya Samaj. P. 35-37
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Ser addition pañcajñana drabah
The glimpses of Vyavahāra Bhasya
[Et (afflictions) which declare that Niryuktis were written before Bhadrabahu I, the Caturdaśapūrvi (knower of Purvas) should not be doubted. It is clear from this statement that Bhadrabahu I, wrote the Niryuktis in brief, but were elaborated by Bhadrabahu II. The modern authors like Pädalipta, Kalakācārya, Aryavajra, Simhagiri, Somadeva, Phalgurakṣita etc. were included in the Niryukti literature, just as 'Samavão' and 'Thanam include, at several places, some names.
6. Maladhari Hemacandra states in 'Višeşāvaśyaka Bhāşya,' that, although the Ganadharas (disciples of Mahāvīra,) wrote the Agamas in aphoristic (sutra) style, Bhadrabahu I, the knower of 14 Purvas, elaborated the doctrines for the benefit of monks and nuns by writing Niryuktis, containing samāyika' etc. into six sections. Besides, Bhadrabahu I wrote 'Kalpa' and 'Vyavahāra sutra in the form of sutra.? This view is supported by Kșemakīrti.
śīlanka accepts that Bhadrabahu 1 is the author of Niryukti. Silanka flourished in 9th or 10th century; again;4 Dronācārya in his Tikā on 'Oglaniryukti' has stated likewise."
7. That Bhadrabahu I, was not the author of Niryukti has been opined by 'Vandami Bhaddabāhu', the first verse (gātha) in the 'Daśāśrutaskandha'. The scholars are of the view that if he is the author of Niryuktis, how could he greet himself?
It one closely refers to Agama literature, it appears that the 'mangalacarana' tradition is of later times, but, if at all stated like this, it seems that it has been a later addition. Acārya Bhadrabahu has written the 'mangalacārana', by way of 'Pañcajñana' in the Avasyaka-niryukti'. Further, 'mangalācarna' verse of other 'Niryukti' have been added either by Bhadrabahu II or his successors, as for example, the verse of 'mangalacarana' occuring in Acaranga and The 'mangalacarana' or ‘Ācāranganiryukti', and the first verse on the same, has not been commented. The Commentator Silanka' through 'amgogadayaga' has hinted Bhadrabahu I, as the author of Niryukti. 'The mangalācarana' of 'Daśavaikālika' verse has not been explained by Agastyasimha and Jinadasa. Besides, 'mangalācarana' verse(s) are not found in the 'Uttaradhyayna', 'Niśitha', and 'Niryuktis', which looks 'Pancakalpabhasya' has been added to the 'Niryukti' of 'Daśāśrutaskandha', because, the Niryuktis-Niśitha', 'Vyavahāra' and 'Brhatkalpa' are merged with Bhaśya, But the 'Niryukti' on 'Daśāśrutaskandha', was separate one. Bhadrabahu I, was the author of 'Daśaśrutas. The, 'mangalācarana' verse appears to be added to it by the succeeding Acāryas; the legacy appears to be continued in 'Pancakalpabhāsya' and its elaboration is also available; yet, it is a matter of further investigation.
8. The original author of 'Niryuktis' is Bhadrabahu I, but additional verses were furnished by Bhadrabahu II. One more proof of it lies therein, that the three verses (365, 3667 and 367), of 'Acaranganiryukti' are neither indicated nor explained, meaning thereby that these verses are added later on. There is a mention of "pañcamaculanisiham tassa ya uvarim bhanihāmi" in ‘niryukti' verse, indicative of the author of Nisitha Niryukti' is Niryuktikara' himself. There is a mention of Niryukti' in 'Avaśyakaniryukti'; there is no indication of writing the Niśītha Niryukti', yet it looks probable, that these three verses are written by Bhadrabahu II, and the idea of writing down the Niśitha-Niryukti' was declared by him. The method of composition of ‘Niśithaniryukti' is quite different from other 'Niryuktis' also, making Bhadrabahu II, as the author. By way of conclusion, the redaction (writing of) of Niryukti literature had started by the second or third centuries of Vīranirvana, however the systematisation of ‘Niryukti' was effected by Bhadrabahu II, the
1. Utt. Säntyācāri Commentary, P. 139, 140 2. Višesäva Bhāsya Maladhari Hemachandra Commentary, P. 1 3. Brha bhās. Pīthikā, P. 2 4. Ācāranga Tikā, p. 4 5. Ogha nir, Dronācārya : comm. p. 3 6. Acaranga Tika, P. 4 7. This number is taken from compiled and unpublished Ācāranga Niryukti.
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व्यवहार भाष्य
proofs of which are the works-Daśavaikalîka' and 'Avaśyakaniryukti", there is difference of 100 verses between the 'Niryukti", on the first chapter of 'Daśavaikālika' and the Ţika and Niryukti' on 'curni', similarly, hundreds of verses of 'Avaśyakaniryukti are not commented or indicated. The difference of verses and the above stated arguments (proofs) confirm my hypothesis that they are later additions; the stories concerning the afflictions in 'Uttaradhyayana' appear to be later additions. The author of 'Niryukti' states the stories in brief only, pushing the argument in the directions that Bhadrabahu I is the author of 'niryukti", but elaborated and elucidated by Bhadrabahu II.
Impact on other Agamas
The subjects dealt with in Vyavahara and Bhasya on it are found in other works too. The types of Vyavahara and types of persons and several chapters concerning self-examination are found in Sthananga and Bhagavati. All these prakaranas appear to be collected at the time of codification of the Agamas; there are several verses from the Vyavahara Bhasya traced in Digambara literature. For example, Bhagavati Aradhana and Mulácara contains several verses from the Vyavahāra bhäṣya. Some scholars have accepted the Bhagavati Aradhana and Mulácara as the works of compilation in which the Niryukti and Bhasya are found. The verses dealing with self-examination and expiation are explicitly borrowed from Vyavahāra Bhasya although the influence of Sauraseni is distinct from the point of view of language.
Classification of Niryukti and Bhasya
Acarya Bhadrabahu promised to write ten Niryuktis or critical works. The Niryukti on Rṣibhāṣita and Suryaprajñapti are not available. There are Niryuktis on the eight works such as Avaśyaka, Daśavaikālika, Uttaradhyayana, Sutraktanga and Daśāśrutaskandha. But they are found practically as independent works. but the Niryuktis or commentaries on the three Cheda-sutras, viz., Bṛhatkalpa, Vyavahara and Niśitha are available, with their Bhasya. The Commentator (Bhasyakara) has taken the Niryuktis as a part of his own work, hence it is extremely difficult to make the distiction between Bhasya and Niryukti. The Curṇikara and Tīkākāra both have quoted the verses from Niryukti, indicating that the Niryukti was in existence after the Bhasya. Further, it becomes the matter of conjecture as to why the Commentator has not indicated niryukti in all the places. Another problem crops up, when the canonical works were codified and redacted, whether the Niryuktis mixed with Bhasya were in existence or not. One Bhasya (Viśeşävaśyaka Bhāṣya) was written on Avasyaka niryukti but Avaśyakaniryukti exists today as an independent work.
Niryukti is the first commentary on the Agamas. Hence it is clear and certain that the Niryukti on the three Cheda works must be having independent place. Since Nirtuktis were mixed with Bhaṣya, it becomes difficult to locate an independent place since the language of both and the style of presentation are quite similar. Right until the time of the Commentator, the Niryukti on the three works had no independent place, the strong evidence which is available, is the lika of Malayagiri on Bṛhatkalpa. Acarya Malayagiri has explicitly stated in his preface to Bhatkalpa that 'Sutrasparśika' Niryukti and Bhasya form a single work itself.2
The Curnikara has not given any indication at all places about the Niryuktis. It is presumed that whether the Niryukti had an independent place or not, is a matter of investigation yet, at several places one can find in the Niśitha curni such quotations 'ettha nicuttigaha' and 'esa Bhaddahahu şamikatagaha' etc. It looks more probable that there were some Śramanas who had committed to the memory the old works particularly the Niryuktis or the Cheda works. For this reason alone there are verses from Niryukti at several places.
It is a formidable task to separate the works written if the linguistic style is the same and mixed, yet, an
1. ava. Nir. Gatha 88.
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The glimpses of Vyavahāra Bhāsya
1909 attempt is made to separate the verses from Niryukti. However, it is not claimed that the Niryuktis are separated from the Vyavahāra. In the process of separation it is possible to miss some verses from Niryukti. Also there is a possibility that the verses of the Bhasya are mingled with Niryukti. Several scholars have attempted the task of separation (separation of Niryukti from Vyavahāra Bhāsya and Cheda Sutras.)
In the present Edition, Bhasya and Niryukti verses are published simulataneously. In order to distinguish Niryukti verses they are shown with the letters 'ni' in the verses of the Bhasya. If, however, they separated exclusively the consistency, fluency and the order of the verses from Niryukti and Bhāsya will not be maintained, For, the Bhasyakára makes use fo the Niryukti only while commenting. Hence, he has made Niryukti as an inseparable part of the Bhāsya. In the event of total separation, the discrepancy of the subject of the total work will be felt at every step. We have adopted certain rules to determine the niryuktis from Bhāsya as follows--
(1) Wherever there is a quotation-essa Bhaddabah uşamikatagahā it is presumed that it has been adopted from the Niryukti since Bhadrabahu is the real author of the Niryuktis.
(2) Wherever the Commentator uses the work 'idānim nugutti',. 'imā suttaphasiya', and 'ādhunā niryuktivistārah', meaning thereby the Commentator has used them as a nirukti itself.' In this, at several places one comes across some antagonistic ideas in the sīkā of the Brhatkalpa. Only one gathā appears to be taken from Niryukti, and in the another work from Dvāragatha; Yet in some other from Sarograha gātha and in some from Bhāșya gāthā. Muni Punyavijayaji has prepared a chart of such verses, (gātha) indicating their differences in the sixth volume. It is a matter of reasearch that the discrepancies amongst the verses are found in the tikā on BỊhatkalpa and Vyavahāra''; but, why not in Niśitha? The only satisfactory answer which can be inferred is that the Curņi is oldest historically; by that time, probably, there might not be differences of its views. Even such controversial verse's are made part and parcel of Niryukti verses.
(3) The Niśitha Cūrni refers to at several places like "esā cirantana' and 'esā puratanigaha' but one cannot assert that these verses are from Niryukti only. Possibly they might be older verses also whose use Bhadrabahu might have made in his Niryukti. But at several places the Niśītha Curnikāra has ascribed the verse to Bhadrabahu Svāmi. The same verse is taken to be the older verse of from the old legacy by Malayagiri in his commentary on the Brahatkalpa. Just as Niśītha Bhāsya 762 verse contains in Nišitha Curni as 'Bhadrabāhukrita'; the same verse has been accepted as 'purātanagātha in the commentary on Brhatkalpa (3664). From the above stated quotation it is self evident that the old verse were composed by Bhadrabāhu. Hence we have accepted them as Niryukti verses.
(4) Cirantanagathā appears to be older than Bhadrabahu II. For, the Niśitha Conimentator has stated clearly that-esa Cirantanagahā eyāye Cirantanagaha imā Bhaddabahu Samikata Vakkhanagaha'. From this it is clear that-Cirantanagātha is prior to the time of Bhadrabāhu II, as it is explicit from the very name of it. Bhadrabahu has adopted these verses and made them inseparable part of Niryukti. There is another proof that these verse are part of Niryukti has been borne by Bệhatkalpa Bhasya, 383 is Cirantangātha. The Curņikāra states in the begining of the 383 verse as, 'Cinamevārtham Bhasyakhāro Vyakyānayati'. From it, is self-evident that the work Cirantanagāthā must be from Niryukti only.
Hundreds of verses from Avaśyaka, Daśavaikālik, and Niryuktis are found in the Bhāsya on the three Cheda sutras. Sometimes the Niryuktikara himself had adopted and incorporated verses from other Niryuktis in Vyavahāra and other Niryuktis also. But at several places the Commentator has used the verses from Niryukti is his own Bhāşya to enrich the contents. In the Niśisuvtha bhāsya there are several verses from Pinda Niryukti and Ogha Niryukti. It appears that the Commentator has quoted them verbatim. In the same way the Commentator states in Vyavahāra Bhāsya 'Atha bhāsyavistārah' but it appears that the verses are from the chapter-Asvādhyaya of Avaśyaka Niryukti--these verses are quoted in Niśītha Bhāsya and Vyavahāra Bhāsya but there is much difference in the meanings in the matter of research. Under what circumstances
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व्यवहार भाष्य these differences emerged due to scriptographist or the reading methods? It is due to the custom of memorising them or by the writer of niryuktis as occasion demanded? At several places it is not clear and self-evident, that the Niryuktikāra himself has utilized the niryuktis or the Bhasyakára has quoted, wherever there are verses from the Niryuktis, I have indicated them separately.
(5) Nothing can be said definitely about Dvāragathā (introductory verse) and Samgraha gātha (collected verse). Mostly the Bhasyakāra writes the Dvaragatha in order to elucidate and comment, but inost of the introductory verses and collected verses are from the Niryuktis, as explained by the Commentator. Pandita Malavania treats Dvāragathā as Niryukti gātha.' Besides this, the sixth part of Brhatkalpa and the chart made out of it, proves that the Niryukti gathas are taken as Samgraha gatha and some as Dvaragatha. The reason stated to regard Dvāragatha as Niryukti gātha is that the gāthā which is to be treated as Samgraha gathā in the tikā on Brhatkalpa, the same verse is treated as Niryukti in ţika on Vyavahara.
(6) Special feature of Niryukti is that all Niryuktis are not written in the same style; yet, a Niryukti on one work contains uniformity in language, style and description. e.g. in the Niryukti on Uttaradhyayana three verses in the beginning of each chapter are on repentance in every aphorism— 'So anannavattham, micchatta viradhanam pave', so pavati anamadini'.
The Curņikāra has indicated that at several places the verses are adopted in the form of Niryukti only. The references by Cūrnikāra and the composition style become the basic for treating the verses, subsuming them under the category of Niryukti. At several places such verses indicative of Niryukti are found in the tikā on Brhatkalpa and Vyavahāra . For example, in the Vyavahara Bhasya 1054th verse, there is a reference to Niryukti-vistarah. One more reason can be cited to regard such verses as verses of niryukti---since the verse guruka, laghuka, māsika, caturmāsika-etc. pertaining to Prayascitta cxpiation became popular after the author of Niryukti. At the time of Niryukti spiritual adherent took Prayascitta, at the slightest breach of order and practice of mithyātva etc. However it appears that several cases of prāyaścitta became popular.
(7) The speciality of the author of Niryukti lies therein that he adopts stories and example to explain any topic pertaining to prayaścitta. Wherever there is an indication of such stories and wherever the commentator explains such verses, the explaination provided by Bhasyakara in the context of such stories, I view them to be from the niryukti itself.
The reason for substantiating the verses found in Niryukti is that at several places the Commentator has hinted at the brief stories—'Atha enāmeva gātham bhasyakāra vivrnoti'. From this it is self-evident that the verse is from Niryukti only, although the commentator has not indicated at several places, still, such verses are taken to be from the Niryukti itself.
(8) Wherever the Commentator has treated the verse from Brhatkalpa as having been drawn from Niryukti but such verses are in Nišitha also, without naming Niryukti. The Curņikara maintains that—'imā vakkhānagaha', it is clear that the privious verse is from the Niryukti made sell-evident by Vakkhayagāhū, since the Commentator is explaining the Niryukti only.
Now the question arises whether the verse preceding 'vakhāna gatha' should be regarded as of Niryukti or not because such reference are at several places, similarly the gathā preceding-imā vibhāsā', 'ima vakkha' and idanim cnameva gatham, vyakhyānayati' etc. must be from Niryukti only. In the same way 'ima Bhaddabāhusāmikata gāhā etie ima do Vakkhāṇagahão' (4005) found in Niśītha Bhāșya, it is clear that the commentator is writting Vyakhyanagatha, on Niryukti.
(9) At some places the commentator uses, 'Bhasyavistarah, Atha bhasyam'ctc. but these verses appear to be obviously from the Niryukti.
I have shown these verses in the footnote in the serial order, at the initial stage, e.g.; vyabhābāhi upto
1. Niśí bhās. Pithikā, p. 41-42
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The glimpses of Vyavahāra Bhāsya
1903 (2522). The commentator has used 'Bhasyavistārah' but it looks belonging to Niryukti gatha. The strong reason for this inference is that the first line of the verse no 2522 occurs in verse no. 2524. Any author will not repeat the verses unless the Commentator quotes from his previous Acāryas. In that case alone repetition is possible.
(10) It is clear from the independent Niryukti works, by the linguistic style, the author of Niryukti has his own peculiarity to adopt the verses reflecting Niksepa. The author of Niryukti interprets the verse from the Mula-sutra on the basis of niksepa (etymological connotation). Although Bhasyakāra writes down the verse which are niksepa-oriented, but most of the verses which are of etymological nature, are certainly from Niryukti. Hence despite the fact that no verse like Niryukti-vistarah niryuktiksta, yet the niksepa-oriented verse are deemed to be of Niryukti only. Višesavasyaka Bhāsya clearly mentions that the main purpose of Niryukti is to interpret the work on the basis of niksepa and not what else it means."
After such an interpretation the niryuktikara and bhāsyakara are to interpret from the point of vicw of dravya, kşetra, kāla and bhāva. At several places the niryuktikāra himself interprets the verse dravya, kşctra etc. e.g. the Niryukti on Daśavaikälika furnishes the meaning dravya mangala, Bhava mangala etc. Bhasya is nothing but an explanation of Niryukti. Hence it is possible that the bhāsyakara has tried to interpret at certain places the connotation of dravya, kşetra etc; eg; the ţikakara has observed in Vyavahāra Bhasya which is 197 vyāsārtham to bhasyakrtavikksuh icchāruk-sapamaha--from this quotation it becomes clear that the bhāsyakára has planned on the basis of niksepa.
The problem arises whether the one aphorism with the other and one chapter with the other one and the verses indicative of such a relation belong to niryuktikara or bhāsyakāra ? or belong to vyakhyākāra? or belong to any Acārya? The satisfactory solution is extremely difficult, for the simple reason that several controversies arise.
The related verse does not exist in the aphorism of the first chapter of Vyavahāra bhasya, clearly meaning thereby that it has been added later on. It is mentioned that Bhadrabahu writes a verse concerning the sutra in the verse no. 1895 of Niryukti Bhasya quoted therein.
Vyavahara Bhāsya contains a verse no. 1298
'Vyāsārtham to bhāsyakst vivakşuh prathamatah purvasütrena saha sambandhamāha' is found to be quoted. These three references need to be explained. At many places in the verses concerning the sutras, the vyākhyākāra has not given any clarification; however, they have added 'atha Bhasya', Atha niryuktivistarah, or "imā nigguttiare mentioned. From this one point becomes clear probably the vyakhyākāra himself has composed the verses pertaining to the sutras. Another strong evidence for this assumption is that there are several verses which are in congruency with the verses quoted in Nisitha, Brhatkalpa and Vyavahāra. However, the verses concerning the sūtras do not tally with one another. Only the verses in Brhakalpa and Vyavahāra tally with each other because both the commentaries have the same author. It looks probable that the bhāsyakāra or Vyakhyakara have tried to bring about the relation between one sutra with the other. The one from the language point of view the verses in Brhatkalpa and Vyavahāra tally with each these verses do not symbolize that they belong to Niryukti, since the style of Niryukti is very brief. They never explain any subject in details, however, the concerned verses based upon these sutras arc conjoined with the Niryuktis on the Cheda Sutras; it would increase in size, since there occur two or three verses simulataneously indicating the meaning involved in the said sutra.
Malayagiri mentions at several places in his tika on Vyavahara like this—'Adhuna niryuktibhāsya-vistārah' or 'Adhunā bhāşya-niryukti-vistārah' but it becomes very difficult to decide whether the Niryukti Gatha is first or Bhasya Gathā, because at several places the bhäsyakära explains the dissimilar
1. Višesāva bhāsya, self commentary 961
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908)
व्यवहार भाष्य works e.g. wherever there is the statement-niryukti bhāsya-vistarah, there the Niryukti verse is selected first. So for as Niryukti works occur, it should be decided on the merit of inference, priority of explanation and the serial order of the subjects, but wherever-Bhasya niryukti-vistarah, there the Niryukti verse is selected first. So far as niryukti works occur, it should be decided on the merit of inference, priority of explanation and the serial order of the subjects, but wherever-Bhasya niryukti-vistārah is mentioned, there primarily Bhasya and secondarily Niryukti verses are accepted. Just as in the Vyavahāra Bhāsya Niryuktis are found after adhyayana and uddeśaka, e.g.; Ācāranga, Sūtrarkņtānga etc. but in the hybrid Niryukti there is no serial order at all. In this conection it appears probable that the bhāsyakāra has rearranged the verses keeping in view of to maintain consistency in the gathas. At several places the bhasyakāra has commented upon Niryukti verse and at several places he has tried to establish an order between Bhasya Gatha and Niryukti,'as for example; 'Sutte atthe belonging to Vyavahāra Bhāşya (6th verse) actually belongs to Niryukti verse. In this, only one category of, or onesided meaning has been imposed on Bhāva Vyvahāra.
But in these, Jīta Vyavahāra, the prominence is given to the single meaning or it is unambiguous. The eighth verse is from Bhasya. In this process, the bhāsyakāra has tried to establish the relation with the seventh verse. If, however, the seventh verse is not regarded as from Bhāsya. In this process, the bhāșyakāra has tried to establish the relation with the seventh verse. If, however, the seventh verse is not regarded as from Niryukti Gathā, then the ninth gātha will again have the same onesided meaning as in Jita. The author of the single work will rarely commit repetitions. Similarly in the verse no. 52 the bhāsyakära has tried to relate one gatha with rarely commit repetitions. Similarly in the verse no. 52 the bhasyakāra has tried to relate one gatha with the other. In gathā no. 52 it is mentioned like 'Pacchittam va imam dasaha' and in verse no 53 belongs to Niryukti which contains ten types of repentance. The Bhasyakāra tries to relate this serial order. The Curnikára of Niśitha and Malayagiri, a Commentator has tried to separate Niryukti from Bhasya. The tikākāra has attempted to relate the explanation of the verse to the order of the verses. From this it becomes clear, from which verse and which part it, has been explained in so many verses. Without the explanations by tīkāra it is extremely difficult to isolate niryukti from Bhasya. At several places after hundreds of verses, the initial verse is explained as indicated by the tikākāra. A brief analysis has been provided on certain points concerning the separation of Bhāsya and Niryukti.
One can make in-depth study of independent Niryuktis and having studied the verses in their serial order it can lead to the separation of Niryukti Gathās. In this attempt my own arguments stay. However, it cannot be claimed whether the classification is perfectly proved. This is my first attempt and not the last one. In this process it is possible that some verses from Niryukti may be missed, despite our careful efforts. We hope in this direction the research scholars will throw some light in due course.
Bhasya
Bhāsya occupies the second place amongst the commentaries on Agama. In the Vyavahāra bhāsya, verse no. 4693 the bhāsyakāra has named these commentaries as Bhasya. The Composition of Niryukti is of very brief style. There are ten Niryuktis with their names. Similarly there are then Bhasyas on ten works. 1. Avaśyaka' 2. Dasavaikalika
3. Uttaradhyayana 4. Bțhatkalpa? 5. Pancakalpa
6. Vyavahāra 7. Niśītha 8. Jītakalpa
9. Ogha niryukti 10. Pinda niryukti.
According to Muni Punyavijaya, the detailed Bhāşyas were written on Vyavahāra, and Niśitha. But are
1. There are three commentaries on Avaśyaka-Mulabhasya, bhasya and Visesavaśyaka Bhāsya. 2. There is extensive and short commentary on Brhatkalpa. The Brhat bhâsya is available up to 3rd uddesaka only and that too is
incomplete.
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The glimpses of Vyavahara Bhasya
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today untraceable, out of which Bhatkalp Vyavahara and Niśitha, are in the verse form. Jitakalpa, Viścṣāvasyaka. and Pañcaka'pa. are of medium extent, Pinda. Niryukti and Ogha Niryukti of small size and Daśaśrutaskandha and Utträdhyana, the Bhasya on these are of very small size.
It is a matter of investigation why on three Cheda Sutras the Bhāṣya is extensive; if so, why not the Bhāṣya is written on Daśasutraskandha? If the Niryukti, is written on four Cheda Sutras there must be some Bhasya on Daśasutraskandha, but unfortunately it is not available. Out of the above mentioned then Bhasyas, the Bhasya is mainly of compilation on Niśith. Jitakalp. and Pañcakalp because the Bhāṣyas on other works and verses from Niryukti are mostly of collective nature.
Jinabhadragani Kṣamaśramana clearly mentions in his Bhasya on Bṛhatkalp, "Kalpa, Vyavahara and Niśitha are as vast as ocean." Hence it is stated herein that the jewels of the śruta are like drops in such an ocean, there by they form the essence of the contents of literature. From this it is self-evident that the Bhasya on three Chedasutras existed before Jinabhadragani 'Udadhi sadṛśa'. This objective is not applicable or appropriate in the context of Mula-sutras, since they are not such a vast liteature. On whichever works Niryuktis are not written, the explanation (Vyakhya) on the Bhasya sutras are adopted, e.g.. Jitakalpa Bhāṣya etc. Some Bhasyas are written on the Niryuktis also, just as on Pinda and Ogha niryukti. Amongst the Bhāṣyas on Cheda Sutras, Bhasya on Vyavahara is very important, though it deals chiefly with expiation (prayaścitta); occasionaly there is a discussion pertaining to Society, Economics, Politics, and Psychology etc. The Bhasyakara has explained every sutra of Vyavahara Without the help of Bhasya, by mere reading the aphorisms of Vyavahara it is difficult to understand the work.
Bhasyakara
Among Bhāṣyakaras, two names of Commentators are prominent. (1) Jinabhadragani Kşamasramana (2) Sanghadisagani, Muni Punyavijayaji is of the view that there are four Commentators (i) Jinabhadragani kşam śramana, (ii) Sanghadasagani. (3) the author of Vyavahara Bhāṣaya., and (4) that of Kalpabṛhat bhāṣya. It is well known that Jinbhadragani is the author of Viseṣavaśyak Bhāṣya. However there is not unanimity of rules regarding the authorship of Bhasyas on Brhatkalpa and Vyavahara. The ancient writers had the custom to write works without personal discussions viz; regarding their place of writing, the patronage extended to them and some hints about their personality, all leading to difficulty about the authorship of any work after the lapse of long time. Similarly the synonymity of names led to search of the orignal author. Malayagiri in his preface to Bṛhat has said "Sukhagrahanadharanaya bharaṇāya bhāsyakāra, bhasyam kṛtavan', without naming the author.2 Exactly in the tikas of Niśitha Curni and Vyavahāra, the Commentator has not given any hint about the bhāṣyakära.
Pandit Dalsukhabhai Malvania in his Introduction of Niśitha Pithika has tried to prove that Siddhasena might be the author of Nisitha. He has indicated in this aspect: Siddhasena, is the author of Bṛhatkalpa. Bhāṣya. In support of his argument he cites a verse from Niśītha curni, suggesting that it is the work of Siddhasena'Siddhaseṇayariyo Vakkhanam Kareti,'. The same verse occurs in Bṛhatkalpa Bhasya-'Bhāṣyakaro Vyakhyanayati'. Therefore it is surmised that Siddhasena is the Commentator of Niśitha. Brhat Bhasya, and Vyavahara. Besides these arguments cited above, there are some more additonal reasons. Muni Punyavijayaji accepts Sanghadásagani as the Commentator of Bṛhatkalpa Bhāṣya. In to his opinion these were two Acaryas named Sanghadasagani, The first Sanghadasagani, had the honorific title-Vacaka-who wrote the first part of Vasudevahindi. The second Sanghadasagani. lived after the first one who wrote Laghubaṣhya' on Bṛhatkalpa Bhasya. He was having the title of 'Kṣmasramana.4 Acarya Sanghadasagani is decidedly the author
1. Jitakalpa bhāṣya 2605; Kapavvavahārāṇam udadhisaricchāṇa taha nisihassa/
bhutasaresa Sutarayana bindunavanita natavvao//
2. Bhatkalpabhāṣya pīthikā, P. 2
3. Niśīthabhāṣya pithika, preface, p. 40-44
4. Bṛhatkalpabhäṣya; vol. 6, preface p. 20
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90€ ]
व्यवहार भाष्य
of Bhasya in support of whirh the Citation of Ksemakirti is clear and distinct.
kalpenalpamanartham pratipadamarpayati yo'rthanikurambam śri sanaghadssaganaye cintamanaye namastasmai// asya ca svalpagranthamaharthataya duhkhabodhataya ca sakalatrilokisubhaganakaranakşamaśramananāmadheyabhidheyaihsrisanghadāsaganipujyaih Pratipadaprakațitasarvajñajñaviradhanasamudbhuta-prabhutapratyapayajalam nipunacaranakaranaparipalanopayagocaravica ravācalam sarvatha dușanakaranenapyadusyam bhasyam viracayāmcakre.'
In the context of this quotation the opinion of Muni Punyavijayaji appears to be appropriate that Acarya Sanghdāsagani must be a Commentator of Brhat kalp. Bhasya. A point has to be elucidated that the author. Bịhat kalp Bhasya and Vyavahara. Bhasya must be one and the same, because the first verse of the Brhat kalp Bhasya clearly suggests that.
Kappavvavahārāņam vakhānavihim pavakkhāmi'.
The Tīkākāra has referred to this verse as 'sūtrasparsika niryuktibhanitamidam' Similarly Chūrnikära has said--Ayario bhasam kadakamo ādaveva gathā sutramaha'. From the point of view of priority, the opinion of Churnikāra looks correct.
Again, the relevancy of the opinion of Cūrnikāra is that at the end of Vyavahārakalp Bhāsya. There is a mention of 'Kappavvavahārānam bhāsam...' this verse must be of Bhasyakāra in which he vows that he declares to write a commentary on Kalpa and Vyavahāra. The word 'vakkhānavidhi' indicates in the direction of Bhasya because Niryukti is written in very brief stylc. For this the phrase 'vakkhānavihim' should not have been used.
Therefore the said verse is not of Niryukti but must be of Bhāşya. The phrase used by bhaśyakāra *kappavvavaharanam' makes it clear that here the written Bhasya is on only Brhat kalpa Bhasya and Vyavahāra, but not on Niśitha.
Pandita Dalsukha Malvania accepts Siddhasenagani as the author of Niśītha Bhasya because the curņikāra of Niśitha Bhasya has mentioned as, 'Asya Siddhasenācāryo Vyakhyām karoti' at several places; yet it looks inconsistent to regard Siddhascna as the author of Bhasya, for Curņikāra has not referred to Siddhasena in prologue or cpilogue. If Siddhasena would have been the author of Bhaşya, he would have been necesarily referred by the curņikära, cither at the begining or at the end of the work.
In this context my personal opinion is that the Niśiha Bhasya must be a compilation work which must have been compiled by ācārya Siddhasena. At several places he has written the commentary in verscs in order to explain the verses of Niryukti. Hence Niśīha Bhasya should not be regarded as the original work but appears to be a compilation. If an attempt is made to eliminate the verses from this work, the number of original verses would be much less. Further, the rest of the original work would not remain at all. Pandita Malavaniā accepts this truth and he is of the opinion that Niśiha Bhāşya must have been written not by one Acārya but by others. The bhāśyakára has utilized the verses which have come down from tradition and had added"new verses to it.
It looks more Probable that the Bhashykāra composed this work either in Kausaladesa or in an area nearby, as there are some incidents or episodes concerning Kausaladeśa. Beside this the decisive proof is that on the ground of that area (Kausala deśas) he describes 'kausalayeşu apavam satesu ekkam na pecchamo, meaning thereby that not even one among hundreds is free from sinful life. The author suggests that, through
1. Niśithabhāśya pī thikā; p. 29-30 2. Viścsanavati gatha. 33 3. Vyavahārabhāsya, 2638
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The glimpses of Vyavahara Bhāsya
1900 peccahāmo, he himself has witnessed the life. The period of the Composition of Bhasya
Sanghadasagani, the author of Bhasya is also controversial; the scholars have not thought of his time; it appears that Sanghadasagani is prior to Jinabhadra, in support of which several arguments may be made:
There occurs the following verse in Viseasanavati of Jinabhadragani: Siho ceva sudadho, jam rayagihammi ya ka vibaduotti sisas vavahare goyamovasamio sa nikkhanto.2 Also there is a verse in Vyavahāra Bhasya : sibo tivittha nihato, bhamium rayagiha ka vilabhadugatti jinavirakahanamanuvasam gotamovasama dikhha ya."
The reference to, 'vavahāre' in Višeşanavati certainly refers to Vyavahārabhasya, as there is no reference of this story in the Mülasutra.
The Viścsavasyaka Bhasya is composed after Vyavaharabhāsya. The obvious reason for this is that if the Visesavasyaka Bhasya would have been before the author of Bịhatakalpa and Vyavahārabhāsya, he would have incorporated the gathā of Visesavaśyaka Bhasya in his work, as the Višeşā vaśyaka is a model work, in which there is detailed description of several topics, where several verses are in the bhasya, Pañcakalpa, Niryuktibhasya etc. in Vyavahārabhāsya and Brhat Bhasya. 'Mano paramodhipuaye' of Bhāsya occurs in Visesavaśyaka-bhasya. It is from Vyavahāra-bhasya of Visesavaśyaka - Bhasya that the author has quoted it; this is self evident. Hence Vyavahāra-bhāsya is prior to Višeşāvaśyaka-bhasya which is quite plain.
The author of Vyavahāra-Bhasya flourished before Jinabhadra, as is clear from the fact that the Jitakalpacūrņi and Niśitha etc. describe the concept of expiation (prāyaścitta) one gets mentally deranged). Jinabhadragani Kșamāśramana wrote Jitakalpa on the request of his disciples, explaining the concepi of prāyaścitta.!
Kalpa, Vyavahāra indicate the Bhasya and not merely the Mülasutras, since original work is small in magnitude. There are several verses from Vyavahara-bhasya concerning prayascitta in Jitakalpa mentioned verbatin. Jitakalpa VyaVyavahāra=Bhasya Jīta kalp
Vyavahāra-Bhasyaā 18 110
22 111 31, 32
conp. 10,11 Nisītha-bhäsya. was collected before Jinabhadragani, as the Niśitha Bhasya mentions pramada etc; with the description of sleep. Niśitha-bhasya. (135) mentions 'poggala dante' verse in the context of 'Styanardhi' sleep. This verse also occurs in Višeşāvaśyaka-(235); but it becomes clear that Višeşāvaśyaka-Commenatator has quoted from Niśitha-bhasya-in-the context of Vyañjanavagraha. With a little alteration, this verse is mentioned in Bệhat-Bhasya. (5016)
The commetator Sanghadās gani flourished in 5th or 6the century A.D. Pt. Dalsukha Malvania has proved that Jinabhadra belonged to 6th or 7th C.A.D.
The Bhasya works seem to be written down between 4th and 6th centuries. If the composition of Bhasyaworks are pushed to 7th C.A.D. then there would be several discrepancies in the determination of the period of Vyakhyā literature. In ancient time, there was not printing system at all and as such the manuscript(s) would take practically a century or so to gain popularity or propagation. The Bhāşyas were written in the seventh century and Haribhadra wrote the commentatries in the 8th C.A.D., but at the time of Cūrnis, the interval is quite limited.
114
19
1. Jitakalpacūrni p. I, 2 2. Bhadrabahu 11 has changed and added in Niryukti, whose time is V.S. 6th Century,
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900]
व्यवहार भाष्य I have accepted the First Bhadrabahu-Caturdaśapurvi as the author of Niryuktis, whose time is in V.S. 2nd crntury.- Bhasyas were written in Vikram Samvat 4th, or 5th, Curnis in 7th and Tikā from 8th C. till 13th C.AD. This fixation of the priod appears quite logical. The second Bhadrabāhu, belonging to 6th Cen. has introduced soine changes in the Niryukti and has made it extensive.
It is but definite that the order of the Vyakhyas on Agamas is as follows: 1. Niryukti 2. Bhasya 3. Curni] and 4. Tikā
However, while writting Vyakhyā on different works, including the writting of the original work for the purpose of Vyakhyā, there are some deficiencies or defects. For example, the Bhasya on Pancakalpa can be cited:
Parijunnesa bhanita, suvina de vie puptanculae nagarana damsanenam, pavvajjassvassae vutta
The story of Puspacūlā does not ocur in the Bhāsya on Višeşāvaśyaka, but is found in the Avaśyakacūrni. Therefore, it is clear that the Avaśyakacurni existed before the Bhāsyakära of Pancakalpa.
The Bhāsya was written after Cūrni on Jita kalpa because Cūrni explains the verses of Jītakalpa in which there is no mention of Bhāsya. If the Bhāsya verses would be available to the Cūrnikāra he would have definitely commented upon them. The Cūrnikara has quoted several verses from Vyavahara-bhāsya.
The scholars are led to think over the matter that the Niśitha bhasya 545 has been quoted in the svia.bha. which is self evident-Siddhasenayariyena ja jayana bhaniya tam ceva samkhevao Bhaddabahu bhannati' From this it is clear that it points to the second Bhadrabahu. The first Bhadrabahu obviously cannot comment on Siddhesena.
For this reason Bhadrabahu I preceded Siddhesena by some centuries. The tikakāra mentions in his Brhat kalp Bbhasya. (2611) this verse. 'Bhasyakrta Savistaram yatana prokta tāmeva niryuktikrdekagathayā samgrhaha.'
This quotation has served as an incentive for the scholars to think over; on the basis of this, it looks probable that Sidhesena flourished before Bhadrabahu II in the last quarter of 5th Century A.D. The Niryukti and some Bhāşyas on the Niryukti were available to Bhadrabahu II. Muni Punyavijayaji regarded Agastyasimha Cūrni prior to Daśvai.bha. and he advanced some arguments in this connection. The Bhasya. from the linguistic style appears to be much earlier work. The tendency to adopt apabhramsa begins approximately from the 6th century but even if one tries to locate the apabhramsa words in the Bhāsya, it is not possible. On the other hand the Maharastri has more influence in this aspect.
In the light of subject matter, coinage system and cultural aspects as described in the bha. it compels us to conclude that the work belongs to 4th or 5th century A.D. Therefore the Bhashyakāra's period should be 4th or 5th century A.D.
The teaching of Cheda Sutras to nuns
Aryarakṣita was the last observant of Āgama. On the strength of his knowledge they could understand that the nuns were to be instructed in the Cheda Sūtras, which was not to be treated as deviation. Then, the
1. Daśa. Agastyasimgh commentary, p. 1517 2. Vyavahāra bhasya. 2365 3. Vyavaharabhāsya 2366-68 4. Ibid., 2314-22
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The glimpses of Vyavahāra Bhasya
૧૦૬ nuns were allowed to read Cheda Sūtras. After Aryarakṣita, there were no agama-observants. To understand the mind of the nuns there was total absence of such insightful knowledge. After that period, the nuns were promoted to read Cheda sutras so that they may not give up their self-control.2 Then the question arose if they are prohibited to read Cheda sutra, how would they be on the path of self-purification. In reply to this problem the author declares that the nuns used to take 'prāyaścitta' from the senior nuns until the time of Aryarakshita, and in the absence of such nuns, who could administer the prayaścitta ? The saints also started approaching the nuns for prāyaścitta, leaving the saints of their own sangh. After Aryarakṣia the nuns could approach the saints for self-introspection and prāyaścitta.
Even at the time of Āryarakṣita the same practice was in vogue. If the nuns had violated the rules of observing 'mula gunas', they has to go to the senior nuns and explained the whole process. In the absence of suitable nun, the sādhvi could go to a saint, who was well-versed in Cheda literature.3
If, however, any nun, despite her studies forgot the literature and rules laid therein out of inertia, she would never become the head of the nunnery throughout life. Some reasons are cited by the Bhāsyakāra to the effect that the secret of Cheda sutra could be forgotten. Some interesting stories pertaining to Malayavati, Magadhasena and Tarangavati reveal that the revision of these works mostly of character and conduct is not practicable. Besides this, the astrology, ominology and occult knowledge, mantra elc. replaced the conduct-improving literature and were practically forgotten because of the method of self-realisation and the knowledge of 'Nimitta Šāstra.' The Bhasyakara gives the example of the ayurvedic practitioner and warriors etc. who damaged their own career of living due to the inertia.?
The nun who become physicaly handicapped, engaged in the service of the handicapped, busy with the collection of aims, during the time of famine, is likely to forget the ethical doctrines: she was allowed to remain in the nunnery. But this, forgetfulness is not the cause of vanity and incrtia. Such nuns were assigned the works of Gana.
There are 4694 verses in VBh. There is a long pithikā in the beginning, which can be called as 'preface' in modern terminology. The whole text is divided into ten uddesakas (chapters).
The present work discusses many topics, some have been complied in the appendices. We have given 23 appendices whcih throw light on important facets of the text. The appeandices are as follow:
1. The alphabetical index of verses of VBh.
The " " " " "Niryukta verses 3. The number of Sutras and the order of bhasya verses related to them. 4. Equivalence of the verses of Bhasya and ?ikā. 5. Synonyms 6. Etymology 7. The lexicon of the desi words 8. The stories. 9. The Definitions 10. The Similies 11. The list of the words, niknpa of which is given 12. Thc Maxims
1. Vyavahārabhāsya 2320-22 2. Ibid., 2323-28
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व्यवहार भाष्य
990] 13. Comparison with other works. 14. The facts concerning the Ayurvaidic system of medicine and health. 15. Collection of important facts about meditation and kayotsarga. 16. Collection of miscellaneuous references to Dentivada 17. The Oriental learnings 18. Quotations of verses in the Tīkā. 19. Name Index (Proper-AMES) 20. Classified index 21. References of Niryukti mentioned in Tikā. 22. References of Curņi in Tika. 23. Classified Index of subjects.
Conclusion
The VBh is a classical work like a treasure of knowledge. It contains various branches of knowledge. Commentator Malayagin has added to its magnificance by his commentary (Tikā). The main subject of the text is 'to purify the soul of he ascetic through expiation'. Nevertheless, the author has dealt with many other important topics in the course of his main subject. It elucidates elaborately the culture compilation of the rules and regulations of the Jain monastic tradition, the author has maintained the continuity of traditions.
In addition, the author refers to the difference of opinions wherever possible. For example, we get allusions to many important schools relating to the five vyavahāras. In our preface in Hindi, we have given a detailed account of five vyavahāras and many other important topics discussed in the texts yet there are many more which are left out.
Although the complete translation of the preface in English would have been profitable, but for the want of time, only a part of it has been translated.
--Muni Dulaharaj -Samani Kusum Prajña
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संकेत-निर्देशिका
'' -यह दो या उससे अधिक शब्दों के स्थान में पाठान्तर होने का सूचक है। X क्रास का चिह्न पाठ न होने का द्योतक है। पाठ के पूर्व या अंत में खाली बिंदु (0) अपूर्ण पाठ का द्योतक है।
अनुद्वा-अनुयोगद्वार अनुदामटी-अनुयोगद्वारमलधारीया टीका अभि अभिधान चिंतामणि नाममाला अमर-अमरकोश अर्थशास्त्र-कौटिलीय अर्थशास्त्र आनि-आचारांग नियुक्ति आवचू-आवश्यक चूर्णि आवनि-आवश्यक नियुक्ति आवभा-आवश्यक भाष्य आवमटी-आवश्यक मलयगिरिटीका आवसू-आवश्यक सूत्र आवहाटी-आवश्यक हारिभद्रीया टीका उ-उत्तराध्ययन उनि-उत्तराध्ययन नियुक्ति उशांटी-उत्तराध्ययन शांत्याचार्य टीका ओनि-ओघ नियुक्ति गा-गाथा गोजी-गोम्मटसार जीवकाण्ड चू-चूर्णि जंबूटी-जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका जी-जीतकल्प जीचू-जीतकल्प चूर्णि जीटी-जीतकल्प टीका जीभा-जीतकल्प भाष्य जैनेन्द्र-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज्ञा-ज्ञाताधर्मकथा
ज्ञाटी-ज्ञाताधर्मकथा टीका टी-टीका त-तत्त्वार्थ सूत्र दश-दशवैकालिक दशअचू-दशवैकालिक अगस्त्यसिंहचूर्णि दशचू-दशवैकालिक चूलिका दशनि-दशवैकालिक नियुक्ति दश्रुचू-दशाश्रुतस्कंध चूर्णि दश्रुनि-दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति नि-निशीथ निगा-नियुक्ति गाथा निचू-निशीथ चूर्णि निपीभू-निशीथपीठिका भूमिका निभा-निशीथ भाष्य निसी-निसीहज्झयणं पंकचू-पंचकल्प चूर्णि पंकभा-पंचकल्प भाष्य प-पत्र परि-परिशिष्ट पिनि-पिंड नियुक्ति पृ-पृष्ठ प्र-प्रकाशित प्राश-प्राकृत शब्दानुशासन भ-भगवती मनु मिता-मनुस्मृति मिताक्षरा मूला-मूलाचार
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११२]
संकेत निर्देशिका
भआ-भगवती आराधना भटी-भगवती टीका भागा-भाष्यगाथा भू-भूमिका वृचू-बृहत्कल्प चूर्णि बृपी-बृहत्कल्पभाष्य पीठिका बृपीटी-बृहत्कल्पभाष्य पीठिका टीका वृभा-बृहत्कल्प भाष्य मवृ-(व्यवहार) मलयगिरि टीका मवृपा-मलयगिरि टीका पाठान्तर मु-मुद्रित व्यवहार भाष्य वा प्र-वाचना प्रमुख विभा-विशेषावश्यक भाष्य विभामहेटी-विशेषावश्यक भाष्य मलधारीहेमचंद्र टीका
विभास्वोटी-विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञ टीका राजटी-राजप्रश्नीय टीका राजेन्द्र-राजेन्द्र अभिधान कोश रावा-तत्त्वार्थ राजवार्तिक व्यभा-व्यवहार भाष्य व्यभापी-व्यवहार भाष्य पीठिका व्यसू-व्यवहार सूत्र शब्द-शब्दकल्पद्रुम सं-संपादित, संपादक सम-समवाओ सू-सूयगडो सूनि-सूत्रकृतांग नियुक्ति स्थाटी-स्थानांग टीका
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विषयानुक्रम
-
३५.
३६.
ॐ
३७,३८
*
३६
s
८६ १०-१२.
१३.
१४.
१७,१८
१६
व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्त्तव्य की प्ररूपणा। ज्ञानी, ज्ञान और ज्ञेय की मार्गणा तथा 'व्यवहार' शब्द का निरुक्त। वपन एवं हार शब्द के एकार्थक। व्यवहार की परिभाषा। व्यवहार शब्द के निक्षेप। भावव्यवहार के एकार्थक। एकार्थकों में पांचों व्यवहारों का समवतार। जीतव्यवहार के आधार पर प्रायश्चित्त-विधि। व्यवहारी के निक्षेप। भावव्यवहारी का स्वरूप। प्रायश्चित्त दाता के चार गुण। निश्रा तथा उपश्रा शब्द की व्याख्या। लौकिक व्यवहर्त्तव्य का स्वरूप। लोकोत्तरिक व्यवहर्त्तव्य का स्वरूप। भावव्यवहर्त्तव्य का स्वरूप, प्रकार एवं उसके गुण। प्रकारान्तर से भावव्यवहर्त्तव्य के लक्षण। द्रव्य व्यवहर्त्तव्य के लक्षण। अव्यवहर्त्तव्य के अन्तर्गत कुंभार का दृष्टान्त। व्यवहर्त्तव्य के अधिकारी। अगीतार्थ के साथ व्यवहार करने का निषेध । गीतार्थ की व्यवहार ग्रहण सम्बन्धी योग्यता का वर्णन। उदाहरण द्वारा गीतार्थ की विशेषता का वर्णन। प्रायश्चित्त के समय व्यवहर्त्तव्य का सीमाविस्तार। अगीतार्थ को पहले उपदेश तथा बाद में प्रायश्चित्त देने का विधान। प्रायश्चित्त के निरुक्त, भेद आदि के कथन की
प्रतिज्ञा। प्रायश्चित्त के निरुक्त। प्रायश्चित्त के चार भेद। प्रतिसेवक, प्रतिसेवना एवं प्रतिसेवितव्य का स्वरूप कथन। प्रतिसेवना के प्रकार। प्रतिसेवना और प्रतिसेवक का एकत्व तथा नानात्व। मूलगुण तथा उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना की व्याख्या। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि के भेद से उत्तरगुण प्रतिसेवना के चार प्रकार। अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि का उदाहरण द्वारा स्वरूप-कथन। अतिक्रम आदि के लिए प्रायश्चित्त विधान। मूलगुण प्रतिसेवना के पांच भेद। संरंभ, समारंभ और आरंभ की परिभाषा। शुद्ध, अशुद्ध नयों का प्रतिपादन और मीमांसा। पहले उत्तरगुण प्रतिसेवना की व्याख्या क्यों? प्रश्न और समाधान। प्रतिसेवना प्रायश्चित्त के दस भेदों का उल्लेख। आलोचना प्रायश्चित्त का विवेचन। आलोचना प्रायश्चित्त की इयत्ता और आलोचना किसके पास? आलोचना प्रायश्चित्त का पात्र। आलोचना प्रायश्चित्त कब? कैसे? क्यों? प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का विवेचन। प्रतिरूप विनय के चार प्रकार। ज्ञान विनय के आठ प्रकार। दर्शन विनय के आठ प्रकार।
२०-२२.
४५.
४६.
२३.
४७५०.
५१.
५२,५३.
५६.
२६,३०. ३१,३२.
५७५६. ६०,६१.
३३.
६२.
६३.
३४.
६४.
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११४]
व्यवहार भाष्य
११६.
पहले प्रस्थापना फिर उद्देश आदि का
समाधान। ११७११८ वस्त्रादि के स्खलित होने पर नमस्कार महामंत्र
का चिंतन अथवा सोलह, बत्तीस आदि
श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग। ११६ प्राणवध आदि में सौ श्वासोच्छ्वास का
कायोत्सर्ग। १२०. प्राणवध आदि में २५ श्लोकों का ध्यान तथा
स्त्रीविपर्यास में १०८ श्वासोच्छ्वास के
कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त। १२१. उच्छ्वास का कालमान-श्लोक का एक चरण। १२२,१२३. कायोत्सर्ग में कौन सा ध्यान-कायिक, वाचिक
या मानसिक? प्रश्न तथा उत्तर। १२४. कायोत्सर्ग के लाभ १२५,१२६. तपोर्ह प्रायश्चित्त का कथन तथा उसके विविध
७६.
प्रकार।
१२७-३४. १३५.
चारित्र विनय के आठ प्रकार। प्रतिरूप विनय के भेद, प्रभेद ।
कायिक विनय के आठ प्रकार। ६८ वाचिक विनय के चार प्रकार।
ऐहिक हितभाषी का स्वरूप। परलोक हितभाषी का स्वरूप। अहितभाषित्व का कथन । मितभाषिता का स्वरूप। अपरुषभाषिता का स्वरूप। प्रासंगिकभाषिता की सफलता। अप्रासंगिकभाषिता का स्वरूप। अनुविचिन्त्यभाषिता।
मानसिक विनय के दो भेद। ७-८४. औपचारिक विनय के सात भेद तथा उनका
विस्तृत विवेचन। स्वपक्ष और विपक्ष में किया जाने वाला लोकोपचार विनय।
प्रतिरूप विनय के भेद तथा उनका वर्णन। ८७-६०. अनुलोमवचन का अनुपालन। ६१,६२. प्रतिरूपकायक्रिया विनय। ६३. विश्रामणा (शरीर चांपने) के लाभ। ६४,६५.
गुरु के प्रति अनुकूल-वर्तन के दृष्टान्त। अप्रशस्त समिति, गुप्ति के लिए प्रायश्चित्त का
विधान। ६७. गुरु के प्रति उत्थानादि विनय न करने पर
प्रायश्चित्त का उल्लेख। ६८. प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त। ६६-१०५.
तदुभय प्रायश्चित्त का वर्णन। १०६,१०७. महाव्रत अतिचार सम्बन्धी तदुभयाई प्रायश्चित्त
का कथन। १०८,१०६. विवेकाह प्रायश्चित्त । ११०.
व्युत्सर्गार्ह प्रायश्चित्त। १११-१३. कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त का विषय, परिमाण, कब
और क्यों का समाधान। ११४. उद्देश, समद्देश आदि में कितने श्वासोच्छ्वास
का प्रायश्चित्त। पहले उद्देश तथा पश्चात् प्रस्थापना का उल्लेख।
१३६-३६ १४०. १४१-४३.
।
१४४. १४५-४८ १४६,१५०. १५१.
मासिक आदि विविध प्रायश्चित्तों का विधान। मूल, अनवस्थित और पारांचित प्रायश्चित्त के विषय। प्रतिसेवना प्रायश्चित्त का औचित्य । आरोपणा प्रायश्चित्त का कालमान। आरोपणा प्रायश्चित्त छह मास ही क्यों? धान्य पिटक का दृष्टान्त किसके शासनकाल में कितना तपःकर्म ? विषम प्रायश्चित्त दान में भी तल्य विशोधि । प्रतिकुंचना प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद। बृहत्कल्प और व्यवहार दोनों सूत्रों में विशेष कौन? दोनों के अभिधेय भेद का दिग्दर्शन तथा विविध उदाहरण। कल्प और व्यवहार में प्रायश्चित्त दान का विभेद। अभिन्न व्यंजन में भी अर्थभेद। शब्द-भेद से अर्थ-भेद। प्रायश्चित्तार्ह पुरुष। कृतकरण के भेद-सापेक्ष तथा निरपेक्ष । निरपेक्ष कृतकरण के तीन भेद। अकृतकरण के दो भेद-अनधिगत तथा
१५२,१५३.
१५४.
१५५. १५६. १५७,१५८
१५६
११५.
१६०.
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________________
विषयानुक्रम
[११५
१७२.
२१८
१७६.
अधिगत। १६१. प्रकारान्तर से पुरुषभेद मार्गणा। १६२. कृतकरण का स्वरूप। १६३,१६४. निरपेक्ष कृतकरण के प्रायश्चित्त का स्वरूप। १६५-६७. सापेक्ष कृतकरण के प्रायश्चित्त का स्वरूप । १६८ अकृतकरण की अधिगत विषयक प्ररूपणा। १६६१७. प्रायश्चित्तदान के भेद से आचार्य आदि के
तीन भेदों का उल्लेख।। १७१. गीतार्थ और अगीतार्थ के दोषसेवन में अंतर।
दोष के अनुरूप प्रायश्चित्तदान का उल्लेख । १७३. गीतार्थ के दर्प प्रतिसेवना की प्रायश्चित्त
विधि। १७४. अज्ञानवश अशठभाव से किए दोष का
प्रायश्चित्त नहीं। १७५. जानते हुए दोष का सेवन करने वाला दोषी।
तुल्य अपराध में भी प्रायश्चित्त की विनमता
क्यों? कैसे? १७७. गीतार्थ के विषय में विशोधि का नानात्व। १७९-८०. आचार्य आदि की चिकित्साविधि का भंडी और
पोत के दृष्टान्त से नानात्व का समर्थन। १८१. चिकित्सा का सकारण निर्देश।
अकारण चिकित्सा का निषेध। १८३. सालंबसेवी की चिकित्सा का समर्थन। १८४-८६. कल्प और व्यवहार भाष्य में प्रायश्चित्त तथा
आलोचना विधि का भेद। १८७. निर्देशवाचक जे. के आदि शब्दों का संकेत।
भिक्षु शब्द के निक्षेप। १८६ 'भिक्षणशीलो भिक्षुः' निरुक्त की यथार्थता। १६० भिक्षु शब्द की प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति की मीमांसा। १६१. सभी भिक्षाजीवी भिक्षु नहीं-इसका विवेचन। १६२. सचित्त आदि लेने वाला भिक्षु कैसे? १६३. भिक्षु कौन? १६४. 'क्षुधं भिनत्ति इति भिक्षुः' इस निर्वचन की
यथार्थता। १६५. भिक्षु शब्द के एकार्थकों का निर्वचन। १६६,१६७. मास शब्द के निक्षेप।
कालमास के प्रकार। १६६. नक्षत्रमास आदि के दिन-परिमाण।
२००. दिनराशि की स्थापना। २०१-२०४. अभिवर्द्धित मास का दिन-परिमाण निकालने
का उपाय-अभिवद्धितकरण। २०५-२०८. ऋक्ष आदि नक्षत्र मासों के विषय में विशेष
जानकारी। २०६ भावमास का प्रतिपादन। २१०-१२. परिहार शब्द के निक्षेप एवं उनकी व्याख्या। २१३. स्थान शब्द के निक्षेप और उनकी व्याख्या। २१४. द्रव्य स्थान और क्षेत्र स्थान। २१५. ऊर्धादि स्थान। २१६. प्रग्रहस्थान। २१७. आचार्य आदि पांच प्रकार का प्रग्रह।
योध-स्थान के पांच प्रकार। २१६२२०. संधना-स्थान। २२१.
प्रतिसेवना के प्रकार। २२२-२४. दर्प और कल्प-प्रतिसेवना। २२५. कर्मोदय हेतुक तथा कर्मक्षयकरणी प्रतिसेवना। २२६. प्रतिसेवना और कर्म का हेतुहेतुमभाव। २२७. प्रतिसेवना का क्षेत्र, काल और भाव से विमर्श । २२८-३०. आलोचना और शल्योद्धरण के लाभ। २३१,२३२. आलोचना के तीन प्रकार। २३३. आलोचना महान् फलदायी। २३४,२३५. विहार-आलोचना के भेद-प्रभेद।
आलोचना का काल-नियम।
विविध-आलोचना का स्वरूप। २३८ ओघ-आलोचना के प्रकार। २३६ विहार-विभाग आलोचना-विधि। २४०-४३. आलोचना की विधि। २४४. विहार-आलोचना का स्वरूप।
विहार आलोचना से उपसंपदा आलोचना तथा
अपराध आलोचना का नानात्व। २४६. उपसंपदा आलोचना देने का प्रशस्त और
अप्रशस्त काल। २४७. उपसंपद्यमान के प्रकार तथा आलोचना विधि। २४८ दिनों के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि।
मुनि को गण से बहिष्कृत करने के १० कारण। २५०-५५. अयोग्य मुनि को गण से बहिष्कृत न करने
पर प्रायश्चित्त।
१८२.
२३६.
२३७
१८८,
२४५.
२४६
१६८
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११६ ]
व्यवहार भाष्य
२६७.
२६८ २६६
३००,३०१. ३०२. ३०३. ३०४.
३०५.
३०६. ३०७.
२७४.
२५६. कलह आदि करने पर प्रायश्चित्त। २५७-६०. एकाकी, अपरिणत आदि दोषों से युक्त के
लिए प्रायश्चित्त का विधान। २६१,२६२. शिष्य, आचार्य तथा प्रतीच्छक के प्रायश्चित्त
की विधि। २६३,२६४. निर्गमन-आगमन के शुद्ध-अशुद्ध की चतुर्भंगी। २६५. आचार्य और शिष्य में पारस्परिक परीक्षा। २६६. परीक्षा के 'आवश्यक' आदि नौ प्रकार। २६७. आचार्य द्वारा शिष्य की परीक्षा। २६८ पंजरभग्न अविनीत की प्रवृत्तियां। २६६ परीक्षा-संलग्न शिष्य का गुरु को आत्मनिवेदन। २७०,२७१. परीक्षा के प्रतिलेखन आदि बिन्दुओं की
व्याख्या। २७२. उपसंपद्यमान शिष्य का दो स्थानों से आगमन। २७३. पंजर शब्द विविध संदर्भ में।
संगृहीतव्य और असंगृहीतव्य का निर्देश। २७५-७७. वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की
वारणा-विधि। २७८, स्वच्छंदमति के निवारणार्थ वाग्यतना। २७६. अलस आदि के प्रति वाग्यतना। २८०-८२. वाग्यतना के विषय में शिष्य का प्रश्न और
सूरि का उत्तर। २८३. प्रत्यनीक के लिए अपवाद। २८४. ज्ञान आदि के लिए उपसंपद्यमान का नानात्व। २८५,२८६. ज्ञान, दर्शन, चारित्र के लिए उपसंपद्यमान का
नानात्व। २८७ विभिन्न स्थितियों में शिष्य और आचार्य दोनों
को प्रायश्चित्त। २८८ उपसंपन्न की सारणा-वारणा।
ज्ञानार्थ उपसंपद्यमान की प्रायश्चित्त-विधि। २६०. दर्शनार्थ तथा चारित्रार्थ उपसंपद्यमान की
प्रायश्चित्त-विधि। गच्छवासी की प्राघूर्णक द्वारा वैयावृत्त्य विधि । वैयावृत्त्यकर की स्थापना संबंधी आचार्य के
दोष। २६३. उपसंपद्यमान क्षपक की चर्चा ।
तप से स्वाध्याय की वरिष्ठता। २६५,२६६. गण में एक क्षपक के रहते दूसरे के ग्रहण का
३०८,३०६. ३१०-१२. ३१३. ३१४.
विवेक। क्षपक की सेवा न करने से आचार्य को प्रायश्चित्त। प्रायश्चित्त-दान में आचार्य का विवेक। विशेष प्रयोजनवश छह माह पर्यन्त दोषी को प्रायश्चित्त न देने पर भी आचार्य निर्दोष। अन्य कार्यों में व्यापृत आचार्य की यतना। आलोचना कैसे दी जाए? अपराध-आलोचना का विमर्श। अपराधालोचना करने वाले की मनःस्थिति जानकर उसे समझाना। अपराधालोचना के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। अप्रशस्त द्रव्य के निकट आलोचना वर्जनीय। अमनोज्ञ धान्यराशि आदि के क्षेत्र में आलोचना वर्जनीय। अप्रशस्त काल में आलोचना वर्जनीय। वर्जनीय नक्षत्र एवं उनमें होने वाले दोष। प्रशस्त क्षेत्र में आलोचना देने का विधान। प्रशस्त काल में आलोचना का विधान। आलोचनाह की सामाचारी। आलोचनीय का विमर्श। आलोचना के लाभ। आलोचनाह के दो प्रकार-आगमव्यवहारी, श्रुतव्यवहारी। आगम व्यवहारी के छः प्रकार। आलोचना में आगमव्यवहारी की श्रेष्ठता। श्रुतव्यवहारी कौन? उनकी आलोचना कराने की विधि। आलोचक की माया का परिज्ञान करने में अश्व का दृष्टान्त। आलोचक द्वारा तीन बार अपराध कथन का उद्देश्य । माया करने का प्रायश्चित्त भिन्न तथा अपराध का प्रायश्चित्त भिन्न। श्रुतज्ञानी द्वारा आलोचक की माया का ज्ञान करने के साधन। प्रतिकंचक के लिए प्रायश्चित्त तथा तीन दृष्टान्त। प्रायश्चित्त-दान में विषमता संबंधी शिष्य का
३१५.
३१६. ३१७. ३१८
३१६
३२०.
३२१.
२८६
३२२.
२६१.
२६२.
३२३.
३२४.
२६४.
।
३२५.
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________________
विषयानुक्रम
[११७
३२६..
३२७. ३२८
३२६,३३०.
३३१.
३३२..
३६१.
३३३-३५.
३३६,३३७.
३३८ ३३६-४१.
प्रश्न तथा आचार्य का समाधान। आगम श्रुतव्यवहारी के प्रायश्चित्त दान का औचित्य। तीन दृष्टान्त-गर्दभ, कोष्ठागार और खल्वाट। प्रायश्चित्त-दान की विविधता का हेतु अर्हद्-वचन। प्रतिसेवना की विषमता में भी प्रतिसेवक के भेद से तुल्यशोधि में पांच वणिक और पन्द्रह गधों का दृष्टान्त। प्रायश्चित्त भित्र, शोधि समान। गीतार्थ और अगीतार्थ के विषम प्रायश्चित्त संबंधी शिष्य का प्रश्न तथा आचार्य का उत्तर । दंडलातिक दृष्टान्त का विवरण और उसका उपनय। विषम प्रायश्चित्त संबंधी शिष्य का प्रश्न, आचार्य का उत्तर। खल्वाट के दृष्टान्त का उपनय। प्रतिसेवक के परिणाम के आधार पर प्रायश्चित्त
और उसका फल। दण्ड ग्रहण करने व न करने पर साधु के लाभ-अलाभ। दण्ड ग्रहण करने व न करने पर गृहस्थ के लाभ-अलाभ। मूल विषयक शिष्य की शंका और आचार्य का विकल्प प्रदर्शन द्वारा समाधान। उद्घात, अनुद्घात आदि के विविध संयोगों के विकल्प। प्रायश्चित्त की वृद्धि-हानि विषयक चर्चा । प्रायश्चित्त में वृद्धि-हानि का आधारसर्वज्ञ-वचन। बहुक के प्रकार तथा जघन्य और उत्कृष्ट बहुक के विकल्प। द्वारगाथा द्वारा स्थापना, संचयराशि आदि का कथन। स्थापनारोपण के तारतम्य का हेतु। अपरिणामक को स्थापनारोपण से प्रायश्चित्त न देने में दोष। अतिपरिणामक को स्थापनारोपण से प्रायश्चित्त
न देने में दोष। ३५६. चार प्रकार के स्थापना स्थान तथा आरोपणा
स्थान। ३५७. किस जघन्य स्थापना स्थान में जघन्य
आरोपणा स्थान। ३५८ जघन्य स्थापना बीस रात दिन, उत्कृष्ट स्थापना
एक सौ पैंसठ दिन रात। ३५६ जघन्य और उत्कृष्ट आरोपणा का कालमान
तथा पांच-पांच दिन का प्रक्षेप। ३६०. स्थापना तथा आरोपणा में चरमान्त तक
पांच-पांच की वृद्धि।
उत्कृष्ट आरोपणा की परिज्ञान-विधि। ३६२.
आरोपणा स्थान में उत्कृष्ट स्थापना का
परिज्ञान। ३६३. प्रथम स्थान में स्थापना स्थान और आरोपणा
स्थान आदि कितने? ३६४,३६५. संवेध संख्या जानने का उपाय। ३६६,३६७. स्थापना तथा आरोपणा के पदों का परिज्ञान। ३६-४३१. स्थापना एवं आरोपणा का विविध दृष्टियों से
विमर्श। ४३२.
अतिक्रम, व्यतिक्रम आदि के गुरु, गुरुतर का
विवेक। ४३३.
प्रायश्चित्त का विधान अतिक्रम आदि के
आधार पर। ४३४. सूत्र में अभिहित सभी प्रायश्चित्त स्थविरकल्प
के आचार के आधार पर। ४३५. निशीथ का परिचय। ४३६,४३७. निशीथ के उन्नीस उद्देशकों में प्रतिपादित दोषों
का एकत्व कैसे? प्रश्न और आचार्य का
समाधान। ४३८
दोषों के एकत्व विषयक घृतकुटक तथा
नालिका दृष्टान्त। ४३६४२.
दोषों के एकत्व विषयक औषध का दृष्टान्त। ४४३. चतुर्दशपूर्वी के आधार पर दोषों का एकत्व
तथा प्रायश्चित्त-दान।
नालिका से कालज्ञान की विधि। ४४५. जाति के आधार पर दोषों का एकत्व। ४४६-५२. अनेक अपराधों का एक प्रायश्चित्त : अगारी
३४२.
३४३.
३४४,३४५.
३४६,३४७.
३४८ ३४६
३५०.
३५१.
३५२,३५३. ३५४.
३५५.
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________________
११८]
व्यवहार भाष्य
४६०.
एवं चोर का दृष्टान्त। ४५३-५६ प्रायश्चित्त-दान के विविध कोण तथा मरुक
का दृष्टान्त। छह मास से अधिक प्रायश्चित्त न देने का
विधान। ४६१-६६ छेद और मूल कब, कैसे? ४७०,४७१. पिंडविशोधि, समिति, भावना, तप, प्रतिमा,
अभिग्रह आदि उत्तरगणों की संख्या का
परिज्ञान। ४७२. प्रायश्चित्त वहन करने वालों के प्रकार। ४७३,४७४. निर्गत और वर्तमान तथा संचित और असंचित
प्रायश्चित्तवाहकों का परिज्ञान। ४७५. संचय, असंचय तथा उद्घात, अनुद्घात की
प्रस्थापन-विधि। ४७६.,४७७. असंचय के तेरह तथा संचय के ग्यारह
प्रस्थापना-पद।
संचयित प्रायश्चित्त के पद। ४७६,४८०. प्रायश्चित्त के योग्य पुरुष। ४८१,४८२. उभयतर प्रायश्चित्त में सेवक का दृष्टान्त। ४८३. उभयतर पुरुष द्वारा वैयावृत्त्य न करने पर
प्रायश्चित्त का विधान। ४८४. उभयतर तथा परतर के प्रायश्चित्त दान में
अन्तर।
भिन्न मास आदि प्रायश्चित्त देने की विधि।। ४८६,४८७. उद्घात और अनुद्घात प्रायश्चित्त वहन करने
वाले के लघु-गुरु मासिक का निर्देश।
उद्घात और अनुद्घात के आपत्ति स्थान । ४८६-६१. उद्घात और अनुद्घात की प्रायश्चित्त विधि। ४६२. अनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त। ४६३. निरनुग्रहकृत्स्न प्रायश्चित्त।
दुर्बल और बलिष्ठ को यथानुरूप प्रायश्चित्त।
प्रायश्चित्त-दान का विवेक। ४६७५००. आत्मतर तथा परतर को प्रायश्चित्त देने की
४७८,
विवेक। ५०६-१२. राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि से प्रायश्चित्त में
वृद्धि और हानि विषयक प्रश्नोत्तर। ५१३,५१४. हीन या अधिक प्रस्थापना क्यों? आचार्य का
समाधान। ५१५,५१६. राग और द्वेष की हानि और वृद्धि का परिज्ञान
कैसे? ५१७. निकाचना का विवरण तथा आलोचना संबंधी
दन्तपुर का कथानक। ५१८
आलोचना, आलोचनार्ह तथा आलोचक-तीनों
की समवस्थिति। ५१६५२०. आलोचनाह की योग्यता तथा गुण। ५२१,५२२. आलोचक की योग्यता तथा गुण। ५२३. आलोचना के दस दोष।। ५२४.
प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना
करने का विधान। ५२५. सातिरेक, बहुसातिरेक आदि सूत्रों के अनेक
विकल्प। ५२६,५२७. भिक्षाग्रहण के समय होने वाले पांच दोषों का
वर्णन तथा प्रायश्चित्त। ५२८२४. परस्पर संयोग से होने वाले विकल्प।
परिहार तप की योग्यता के परीक्षण
बिन्दु-पृच्छा, पर्याय, सूत्रार्थ, अभिग्रह आदि। ५५६
परिहार तप करने वाले का वैयावृत्त्य। ५६०,५६१. वैयावृत्त्य के तीन प्रकार तथा सुभद्रा आदि के
दृष्टान्त। ५६२,५६३. त्रिविध-अनुशिष्टि की भावना। ५६४. आत्मोपलम्भ का स्वरूप। ५६५. उपग्रह के दो प्रकार। ५६६. उपग्रह का प्रवर्तन समस्त गच्छ में। ५६७. समस्त गच्छ में अनुशिष्टि का प्रवर्तन। ५६८५६६. कौन आचार्य इहलोक में हितकारी और कौन
परलोक में? ५७०. सारणा न करने वाला आचार्य समीचीन क्यों
नहीं? ५७१.
कृत्स्न प्रायश्चित्त का आरोपण। ५७२,५७३. कृत्स्न के छह प्रकार। ५७४. पहले किस कृत्स्न से आरोपण?
४८५.
४८८
४६४.
विधि।
५०१. . अन्यतर को प्रायश्चित्त देने की विधि। ५०२. 'मूल' प्रायश्चित्त किसको? ५०३,५०४. प्रायश्चित्त विषयक प्रश्न तथा उत्तर। ५०५-५०८, जलकुट और वस्त्र के दृष्टान्त से शुद्धि का
।
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________________
विषयानुक्रम
[११६
।
६७६
५७५,५७६. प्रतिसेवना और आलोचना की चतुभंगी। ५७७ प्रथम पूर्वानुपूर्वी की व्याख्या। ५७८,५७६. पूर्वोक्त चतुर्भंगी का स्पष्टीकरण । ५८०-८४. प्रतिकुंचना-अप्रतिकुंचना की चतुर्भगी, व्याध,
गोणी और भिक्षुकी का दृष्टान्त।
शुद्धि का उपाय मायारहित आलोचना। ५८६.
तीन प्रकार के आचार्य और तीन प्रकार के
आलोचनाह। ५८७६६. स्वस्थानानुग तथा परस्थानानुग के आधार पर
आचार्य के नौ भेद तथा प्रायश्चित्त की
विविधता। ५६७५६८ प्रायश्चित्त देने की प्रस्थापना के भेद-प्रभेद। ५६६-६०३. आरोपणा के पांच प्रकारों की व्याख्या। ६०४.
प्रायश्चित्त वहन करने वालों के दो
प्रकार-कृतकरण तथा अकृतकरण। ६०५. अकृतकरण के दो भेद। ६०६. प्रायश्चित्तवाहक के दो भेद। ६०७११. कृतकरण के स्वरूप की व्याख्या। ६१२-१६. निरपेक्ष का एक और सापेक्ष के तीन भेद क्यों? ६१७२३. भंडी और पोत का दृष्टान्त। ६२४. पारिहारिक और अपारिहारिक की सामाचारी। ६२५,६२६. पारिहारिक कौन का समाधान। ६२७. छलना के दो प्रकार। ६२८ भावछलना की व्याख्या और प्रकार। ६२६३१. नैषेधिकी और अभिशय्या की चर्चा । ६३२. नैषेधिकी और अभिशय्या में निष्कारण जाने
से प्रायश्चित्त। ६३३-३८ वसतिपालक के अभिशय्या में जाने से दोष । ६३६४३. निष्कारण अभिशय्या अथवा नैषेधिकी में जाने
के दोष। ६४४-४८ कारण से अभिशय्या में न जाने का प्रायश्चित्त। ६४६ अभिशय्या में जाने का निषेध। ६५०. अभिशय्या में नायक कौन? ६५१,६५२.. अगीतार्थ को नायक क्यों और कैसे? ६५३-५७ असामाचारी के दोषों का निरूपण। ६५८ सम्यक् प्रायश्चित्त-दान का दृष्टान्तों द्वारा
कथन। ६५६६६०. अधिक प्रायश्चित्त देने के अलाभ।
६६१. प्रायश्चित्त उतना ही जितने से शोधि हो। ६६२-६४. प्रायश्चित्त न देने से हानि में व्याध का
दृष्टान्त। ६६५. प्रायश्चित्त न देने वाले आचार्य का अधःपतन। ६६६-६६ उचित प्रायश्चित्त देकर शोधि कराने वाले
आचार्य की सुगति। अंतःपुरपालक का
दृष्टान्त। ६७०. अभिशय्या में जाने की आपवादिक विधि। ६७१-७५. अभिशय्या में जाने की यतना का निर्देश। ६७६. अभिशय्या में जाने का अन्य मुनियों को
निर्देश। ६७७६७८. प्रतिषिद्ध अभिशय्या का अपवाद तथा वृषभों
की स्वीकृति।
अभिशय्या और नैषेधिकी के भेद। ६८०. अभिनषेधिकी और अभिशय्या का स्वरूप। ६८१. शय्यातर को पूछकर अभिशय्या में जाने का
समय। ६८२. आवश्यक सम्पन्न करके अभिशय्या में जाने
का निर्देश। ६८३.
अभिशय्या में रात्रि में न जाने के कारणों का
निर्देश। ६८४,६८५. आवश्यक को पूर्ण कर या न कर अभिशय्या
में जाने का विधान। ६८६-८६.
अभिशय्या से लौटने पर करणीय कार्य। ६६०.
परिहार सामाचारी। ६६१. भिक्षु शब्द की चालना और प्रत्यवस्थान से
व्याख्या। ६६२,६६३. वैयावृत्त्य करने में गणी, आचार्य आदि के
प्रतिषेध का कारण और समाधान। ६६४,६६५. पारिहारिक अन्य गच्छ में क्यों जाए? कारणों
का निर्देश। ६६६-६६ पारिहारिक मुनि के माहात्म्य का अवबोध तथा
आचार्य का कर्तव्य। ७००-७०२. कार्य की प्राथमिकता में व्रण का दृष्टान्त और
उपनय। ७०३,७०४. पारिहारिक के साथ कौन जाए? ७०५-७०८. कारणवश पारिहारिक
कारणवश पारिहारिक तप छोड़ने वाले मुनि की चर्या का निर्देश।
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________________
१२० ]
व्यवहार भाष्य
७८२.
७३.
७८४.
७१५.
७५,७८६. ७८७. ७८८,७८६. ७६०. ७६१,७६२. ७६३. ७६४. ७६५,७६६. ७६७. ७६८-८०६. ८०७. ८०८
७२६.
८०६
८१०.
८११.
७०६-११. वाद करने का विवेक-दान। ७१२. वाद किसके साथ? ७१३. जीतने के पश्चात् स्व-समय की प्ररूपणा करने
का निर्देश। ७१४. राजा यदि स्वयं वाद करने की इच्छा प्रकट
करे तब मुनि का कर्तव्य। वाद किन-किन के साथ नहीं करना, इसका
निर्देश। ७१६. नलदाम का दृष्टान्त। ७१७,७१८ वाद की सम्पन्नता के पश्चात् एक दो दिन
वसति में रहने का निर्देश। ७१६२१. समस्त गण का निस्तारण न कर सकने की
स्थिति में आचार्य आदि पंचक का निस्तारण। ७२२,७२३. साधुओं की निस्तारण-विधि । ७२४,७२५. साध्वियों की निस्तारण-विधि ।
साधु-साध्वी दोनों की निस्तारण विधि। ७२७,७२८. भिक्षु, क्षुल्लक आदि के निस्तारण का क्रम। ७२६७३०. भिक्षुक आदि के क्रम का कारण। ७३१-३३. भिक्षुकी क्षुल्लिका के क्रम का कारण। ७३४-४२. संयमच्युत साधु-साध्वियों का निस्तारण-क्रम। ७४३. क्षुल्लक आदि के क्रम का प्रयोजन। ७४४-४७. दुर्लभ भक्त निस्तारण-विधि । ७४८७४६. भक्त-परिज्ञा और ग्लान। ७५०-५४. वृषभ, योद्धा और पोत का दृष्टान्त। ७५५. भक्त प्रत्याख्यात व्यक्ति की सेवा के बिन्दुओं
का निर्देश। ७५६-६०. वादी के लिए करणीय कार्यों का निर्देश। ७६१-६७. परिहारतप का निक्षेपण कब? कैसे? ७६८७६६. प्रतिमा-प्रतिपन की सामाचारी। ७७०. दृष्टान्तों द्वारा एकाकी विहार प्रतिमा के लिए
योग्य-अयोग्य की चर्चा। ७७१-७४. शकुनि और सिंह का दृष्टान्त तथा उपनय। ७७५,७७६. परिकर्मकरण सामाचारी का निर्देश। ७७७. . प्रतिमाप्रतिपन्न मुनि की तप, सत्त्व आदि पांच
तुलाएं। ७७८,७७६. तपो भावना। ७०. सत्त्व भावना। ७८१. सूत्र भावना।
एकत्व भावना। बल भावना। सहस्रयोधी की कथा। परिकर्मित का तपस्या द्वारा परीक्षण। बलभावना। प्रतिमाप्रतिपत्ति के लिए आचार्य को निवेदन। गृहिपर्याय ओर व्रतपर्याय का काल-निर्देश । परिकर्म के लिए अनेकविध पृच्छा। आत्मोत्थ, परोत्थ तथा उभयोत्थ परीषह। शैक्ष को एडकाक्ष की उपमा। देवता द्वारा आंख का प्रत्यारोपण। भावित और अभावित के गुण-दोष। प्रतिमा-प्रतिपत्ति की विधि और उसके बिन्दु। आचार्य आदि की प्रतिमा-प्रतिपत्ति विधि। प्रतिमा की समाप्ति-विधि और प्रतिमाप्रतिपन्न का सत्कारपूर्वक गण में प्रवेश। सत्कारपूर्वक गण में प्रवेश कराने के गुण। अधिकृत सूत्र का विस्तृत वाच्यार्थ। सत्कार-सम्मान को देख अव्यक्त मुनि प्रतिमा स्वीकार करने के लिए व्यग्र। रानी का संग्राम के लिए आग्रह करना। अव्यक्त के लिए प्रतिमा का वर्जन। आचार्य द्वारा निषेध करने पर प्रतिमा स्वीकार करने का परिणाम और प्रायश्चित्त। भयग्रस्त भिक्षु द्वारा पत्थर फेंकने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त। देवता कृत उपसर्ग। बहुपुत्रा देवी का दृष्टान्त। पुरुषबलि का दृष्टान्त। देवताकृत अन्य उपद्रवों में पलायन करने का प्रायश्चित्त। देवीकृत माया में मोहित श्रमण को प्रायश्चित्त। अन्यान्य प्रायश्चित्तों का विधान। राजा और योद्धाओं के दृष्टान्त का निगमन तथा विविध प्रायश्चित्तों का विधान। निंदा और खिंसना के लिए प्रायश्चित्त।
अननुज्ञात अभिशय्या से निर्गमन प्रतिषिद्ध । पार्श्वस्थ, यथाछंद आदि पांचों के नानात्व
८१२..
८१३. ८१४-१६.
८१७,८१८
८१६ ८२०. २१. ५२२,८२३.
८२४,८२५. ८२६. ८२७३१.
३२. ८३३. ३४.
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________________
विषयानुक्रम
[ १२१
६१६,६१७. १८६१६.
६२०.
।
६२१.
तलना।
६२२. ६२३.
६२४,६२५.
८६१.
६२६. ६२७,६२८. ६२६ ६३०,६३१ ६३२-३४. ६३५. ६३६.
कथन की प्रतिज्ञा। ८३५,८३६. पार्श्वस्थ का स्वरूप एवं उसके प्रायश्चित्त की
विधि। ८३७४३. उत्सव के बिना अथवा उत्सव में शय्यातरपिंड
ग्रहण का प्रायश्चित्त। ८४४-४६. रागद्वेष युक्त आचार्य की दुर्गन्धित तिल से
तुलना। ८४७,८४८, प्रशस्ततिल का दृष्टान्त और उपनय। ८४६८५०. पार्श्वस्थ के विविध प्रायश्चित्तों का विधान।
परिपूर्ण प्रायश्चित्त से शुद्धि । ५५२-५६. पार्श्वस्थ के निरुक्त तथा भेद-प्रभेद ।
अभ्याहृतपिंड और नियतपिंड की व्याख्या। ५८. पार्श्वस्थ होकर संविग्नविहार का स्वीकरण। ८५६ आलोचना के लिए तत्पर होना। ८६०.
यथाछंद का स्वरूप-कथन।
उत्सूत्र एवं यथाछंद का स्वरूप। ८६२-८६८ यथाछंद का स्वरूप-कथन। ८६६ अकल्पिक की व्याख्या। ८७०. संभोज की व्याख्या। ८७१,८७२. यथाच्छंद की प्ररूपणा तथा उसके दोष। ८७३.
पार्श्वस्थ एवं यथाछंद के मान्य उत्सव। ८७४,८७५. पार्श्वस्थ तथा यथाछंद के प्रायश्चित्त ।
कुशील आदि की प्रायश्चित्त विधि। ८७७-८०. कुशील के प्रकार और प्ररूपणा। ८८१. कौतुक आदि का प्रायश्चित्त । ८८२-६७ अवसन की प्ररूपणा और भेद-प्रभेद। ८८८
अवसन्न का स्वरूप एवं संसक्त के प्रकार। ८६,८६०. संक्लिष्ट एवं असंक्लिष्ट संसक्त का स्वरूप। ८६१-६३. गण से अपक्रमण और पुनरागमन। ८६४,९०६. भिक्षुक लिंग में देशान्तरगमन विहित तथा
अन्यलिंग कब? कैसे? ६०७ निर्गमन एवं अवधावन के एकार्थक। ९०८,६०६. अवधावन के कारण और वेश परित्याग कब? ६१०. लिंग-परित्याग की विधि एवं अक्षभंग का
दृष्टान्त। ६११,६१२. शकटाक्ष का दृष्टान्त एवं निगमन। ६१३. मुद्रा एवं चोर का दृष्टान्त । ६१४,६१५. सूत्र से संबंध जोड़ने वाली गाथाएं।
अकृत्यस्थान सेवन का विषय। आचार्य आदि दूर होने पर आलोचना की अनिवार्यता। आचार्य, उपाध्याय आदि पांच में से किसी एक के पास आलोचना।। आलोचना बिना सशल्य मरने पर सद्गति दुर्लभ। प्रवृत्ति और परिणाम का समन्वय। आचार्य आदि पंचक न होने पर संघ में क्यों नहीं रहना चाहिए? जहां राजा, वैद्य आदि पंचक न हों वहां वणिक् का रहना व्यर्थ। गुणयुक्त विशाल राज्य के पांच घटक। राजा का लक्षण। युवराज का स्वरूप। महत्तर और अमात्य का लक्षण। स्त्री परवश राजा और पुरोहित का दृष्टान्त। स्त्री के वशवर्ती पुरुषों को धिक्कार। जहां स्त्रियां बलवान् उस ग्राम या नगर का विनाश। स्त्री के वशवर्ती पुरुष का हिनहिनाना और अपर्व में मुडंन। गुप्तचरों के प्रकार। कुमार का स्वरूप। वैद्य का स्वरूप। धनवान् का स्वरूप। नैयतिक का स्वरूप। रूपयक्ष का स्वरूप। आचार्य, उपाध्याय आदि पंचक से हीन गण में रहने का निषेध। आचार्य का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। उपाध्याय का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। प्रवर्तक का स्वरूप एवं कर्त्तव्य। स्थविर का स्वरूप। गीतार्थ का स्वरूप। राजा आदि पंचक से हीन राज्य की स्थिति। आचार्य आदि पंचक परिहीन गण में आलोचना का अभाव।
६३७,
६३८-४७ ६४८ ६४६ ६५०. ६५१. ६५२. ६५३.
६५४,६५५. ६५६,६५७. ६५८६५६ ६६०,६६१.
६६२.
६६३. ६६४.
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________________
१२२ ]
व्यवहार भाष्य
E७६
६६५-७१. आचार्य आदि पंचक न होने पर आलोचना
एवं प्रायश्चित्त किससे? ६७२-७४. आहार, उपधि आदि की गवेषणा। ६७५,६७६. प्रायश्चित्त ग्रहण करने के विविध ऐतिहासिक
एवं प्रागैतिहासिक तथ्य। ६७७. प्रायश्चित्त का वहन करते समय दूसरे
प्रायश्चित्तार्ह कार्य की भी आलोचना करने का
निर्देश। ६७८ सम्बन्ध गाथा के माध्यम से प्रायश्चित्त दान
की भिन्न-भिन्न विधियों का संकेत। दुग, साधर्मिक एवं विहार आदि शब्दों के
निक्षेप कथन की प्रतिज्ञा। ९८०-८५. दुग शब्द के छह निक्षेप तथा उनका विस्तार । ६८६-६४. साधर्मिक के बारह निक्षेप तथा उनका विस्तृत
विवरण। ६६५-६८ विहार के चार निक्षेप एवं उनका वर्णन। ६E-१००२. अगीतार्थ के साथ विहार का निषेध तथा
गोरक्षक-दृष्टान्त। १००३. द्वारगाथा द्वारा मार्ग, शैक्ष, विहार आदि द्वारों
का कथन। १००४-१००८, अगीतार्थ के साथ विहार करने से होने वाले
आत्मसमुत्थ दोषों का विस्तृत वर्णन। १००६-१४. भाव-विहार की परिभाषा और भेद-प्रभेद। १०१५. दो मुनियों के विहार करने में होने वाले दोष। १०१६. ग्लान को एकाकी छोड़ने के दोष। १०१७-२०. एकाकी ग्लान के मरने पर होने वाले दोष
तथा उनका प्रायश्चित्त। १०२१,१०२२. शल्यद्वार का निरूपण। १०२३,१०२४. शिष्य द्वारा सूत्र की निरर्थकता बताना और
आचार्य द्वारा समाधान। १०२५,१०२६. दो का विहार कब? कैसे? १०२७-३०. समान अपराध पर प्रायश्चित्त में भेद क्यों? १०३१. दो साधर्मिकों की परस्पर प्रायश्चित्त विधि। १०३२-३५. अनेक प्रायश्चित्तभाक साधर्मिकों की
आलोचना-विधि और परंपरा। १०३६-४१. परिहारकल्पस्थित भिक्षु के प्रायश्चित्त-वहन में
मृग का दृष्टान्त एवं उपनय। १०४२-४६. योद्धा एवं वृषभ का दृष्टान्त।
१०४७,१०४८. प्रायश्चित्त वहन न कर सकने वाले मुनि की
चर्या । १०४६.
परिहारी के अशक्त होने पर अनुपरिहारी द्वारा
वैयावृत्त्य का निर्देश। १०५०. समर्थ होने पर सेवा लेने से प्रायश्चित्त। १०५१. तपःशोषित मुनि को रोग से मुक्त करने का
दायित्व। १०५२. ग्लान होने के कारणों का निर्देश। १०५३. गिला की व्याख्या। १०५४-५६. परिहारी का आगमन और नि!हणा (वैयावृत्त्य)
न करने पर प्रायश्चित्त का विधान । १०५७. अशिव से गृहीत-अगृहीत के चार विकल्प। १०५८ अशिवगृहीत मुनि का संघ में प्रवेश होने पर
हानियां। १०५६,१०६०. अशिवगृहीत मुनि का गांव के बाहर या
उपाश्रय में एकान्त स्थान में रहने का विधान। १०६१-६३. अशिवगृहीत मुनि के साथ व्यवहार करने की
सावधानियां। १०६४. व्यवहार के एकार्थक एवं लघु प्रायश्चित्त का
प्रस्थापन। १०६५-७. गुरुक, लघुक एवं लघुस्वक आदि तीन
व्यवहारों के भेद-प्रभेद। १०७१,१०७२. नौवें प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि की वैयावृत्त्य करने
का निषेध, परन्तु राजवेष्टि एवं कर्म-निर्जरा
के लिए करने का आदेश। १०७३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त का
स्वरूप। १०७४,१०७५. पारांचित के प्रति आचार्य का कर्तव्य। १०७६.
घोर प्रायश्चित्त से क्षिप्त होने वाले साधु की
वैयावृत्त्य। १०७७८०. क्षिप्तचित्तता के लौकिक एवं लोकोत्तरिक
कारण। १०८१-५.
राग से क्षिप्त होने वाले जितशत्रु राजा के भाई
की कथा। १०८६. तिर्यंच के भय से होने वाली क्षिप्तचित्तता। १०८७. अपमान से होनेवाली क्षिप्तचित्तता एवं उसकी
यतना का निर्देश। १०५-११०५. विभिन्न कारणों से होने वाली क्षिप्तचित्तता के
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________________
विषयानुक्रम
[१२३
११२४.
निवारण के उपाय। ११०६,११०७. परिणाम के आधार पर चारित्र के चार
विकल्प। ११०८-१६. राग-द्वेष के अभाव में क्षिप्तचित्त के कर्मबंध
नहीं, नर्तकी का दृष्टान्त। १११७२२. क्षिप्तचित्त मुनि के स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त
की विधि। ११२३. दीप्तचित्तता व्यक्ति की स्थिति।
दीप्तचित्तता और दीप्तचित्त में अन्तर। ११२५. मद से दीप्तचित्तता
दीप्तचित्तता में शातवाहन राजा की दृप्तता
और उसका निवारण। ११३२-३६.
लोकोत्तरिक दीप्तचित्तता के कारण एवं
निवारण की विस्तृत चर्चा । ११४०-४५. यक्षाविष्ट होने के कारणों में अनेक दृष्टान्तों
का कथन। ११४६. यक्षाविष्ट की चिकित्सा। ११४७५१. मोह से होने वाले उन्माद की यतना एवं
चिकित्सा। ११५२.
वायु से उत्पन्न उन्माद की चिकित्सा। ११५३. आत्मसंचेतित उपसर्ग के दो कारण-मोहनीय
कर्म का उदय तथा पित्तोदय। ११५४. तीन प्रकार के उपसर्ग। ११५५-६२. मनुष्य एवं तिर्यञ्चकृत उपसर्ग-निवारण के
विभिन्न उपाय। ११६३-६५. गृहस्थ से कलह कर आये साधु का संरक्षण
तथा उसके उपाय। ११६६,११६७. कलह की क्षमायाचना करने का विधान तथा
प्रायश्चित्तवाहक मुनि के प्रति कर्त्तव्य। ११६८ इत्वरिक और यावत्कथिक तप का प्रायश्चित्त। ११६८७१. भक्तपानप्रत्याख्यानी का वैयावृत्त्य।
उत्तमार्थ (संथारा) ग्रहण करने के इच्छुक दास
को भी दीक्षा। ११७३,११७४. सेवकपुरुष, अवम आदि द्वारों का कथन। ११७५-७६. सेवकपुरुष दृष्टान्त की व्याख्या। ११८०-६०. अभाव से दास बने पुत्र की दासत्व से मुक्ति
के उपाय। ११६१-६७. ऋणमुक्त न बने व्यक्ति की प्रव्रज्या सम्बन्धी
चर्या। ११६८-१२०२. ऋणात प्रव्रजित व्यक्ति की ऋणमुक्ति : विविध
उपाय। १२०३. अनार्य एवं चोर द्वारा लूटे जाने पर साधु का
कर्तव्य। १२०४. अशिवादि होने पर परायत्त को भी दीक्षा तथा
अनार्य देश में विहरण का निर्देश। १२०५. अनवस्थाप्य कैसे? १२०६. गृहीभूत करके उपस्थापना देने का निर्देश । १२०७. गृहीभूत करने की विधि। दाक्षिणात्यों का
मतभेद। १२०८,१२०६. गृहीभूत क्यों? १२१०. गृहीभूत करने की आपवादिक विधि। १२११-१३. अनवस्थाप्य अथवा पारांचित प्रायश्चित्त वहन
करने वाले का कल्प और उसके ग्लान होने
पर आचार्य का दायित्व। १२१४,१२१५. प्रायश्चित्त वहन करने वाला यदि नीरोग है तो
उसका आचार्य के प्रति कर्तव्य और गण में
आने, न आने के कारण। १२१६.
ग्लान के पास सुखपृच्छा के लिए जाने के
विविध निर्देश। १२१७१६. राजा द्वारा देश-निष्कासन का आदेश होने पर
परिहार तप में स्थित ग्लान मुनि द्वारा अपनी
अचिंत्य शक्ति का प्रयोग। १२२०-२८ ग्लानमुनि द्वारा राजा को प्रतिबोध और देश
निष्कासन की आज्ञा का निरसन । १२२६. अगृहीभूत की उपस्थापना। १२३०,१२३१. व्रतिनी द्वारा आचार्य पर मिथ्याभियोग। १२३२,१२३३. आचार्य को गृहीभूत न करने के लिए शिष्यों
की धमकी। १२३४-३६. दो गणों के मध्य विवाद का समाधान। १२३७-३६. दूसरे को संयमपर्याय में लघु करने के लिए
मिथ्या आरोप लगाने का कारण। १२४०-४२. मिथ्या आरोप कैसे? आचार्य द्वारा गवेषणा
और यथानुरूप प्रायश्चित्त। १२४३-४८ भूतार्थ जानने की अनेक विधियों का वर्णन। १२४६. अभ्याख्यानी और अभ्याख्यात व्यक्ति की मनः
स्थिति का निरूपण।
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________________
१२४ ]
व्यवहार भाष्य
१२५०, १२५१.मुनि-वेश में अवधावन के कारणों की मीमांसा। १२५२,१२५३. अवधावित मुनि की शोधि के प्रकार। १२५४. द्रव्यशोधि का वर्णन। १२५५,१२५६. प्रायश्चित्त के नानात्व का कारण। १२५७. क्षेत्रविषयक शोधि। १२५८. काल से होने वाली विशोधि। १२५६-६४. द्रव्य, क्षेत्र आदि के संयोग की विशुद्धि एवं
विभिन्न प्रायश्चित्त। १२६५-७६. भावविशोधि की प्रक्रिया। १२७७. सूक्ष्म परिनिर्वापण के दो भेद। १२७८. रोहिणेय का दृष्टान्त लौकिक निर्गपण। १२७६-८२. लोकोत्तर निर्वापण। १२८३,१२८४. प्रतिसेवी और अप्रतिसेवी कैसे? १२८५,१२८६. महातडाग का दृष्टान्त तथा उसका निगमन। १२८७-६१. गच्छ-निर्गत मुनि पुनः गण में आने का प्रतिषेध
करता है तो उससे उपधिग्रहण की प्रक्रिया। १२६२-६७. प्रतिसेवना का विवाद और उसका निष्कर्ष । १२६८ व्यक्तलिंग विषयक मुनि के प्रायश्चित्त का
निरूपण। १२६६,१३००. एक पाक्षिक मुनि के प्रकार। १३०१. सापेक्ष एवं निरपेक्ष राजा का दृष्टान्त। १३०२-१३०५. इत्वर आचार्य, उपाध्याय की स्थापना विषयक
ऊहापोह। १३०६. श्रुत से अनेकपाक्षिक इत्वर आचार्य की
स्थापना के दोष। १३०७-१३०६. श्रुत से अनेकपाक्षिक यावत्कथिक आचार्य की
स्थापना के दोष। १३१०. स्थापित करने योग्य आचार्य के चार विकल्प। १३११-२१. इत्वर तथा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना
के अपवाद एवं विविध निर्देश। १३२२-२४. प्रथम विकल्प में स्थापित आचार्य सम्बन्धी
निर्देश। १३२५. लब्धि रहित को न आचार्य पद और न
उपाध्याय पद आदि। आचार्य के लक्षणों से सहित मुनियों को
दिशा-दान-आचार्य पद पर स्थापन। १३२७. आचार्य पद पर स्थापित गीतार्थ मुनियों को
उपकरण-दान।
१३२८. अनिर्मापित मुनि को गणधर पद देने पर
स्थविरों की प्रार्थना। १३२६. उसे संघाटक देने का निर्देश। १३३०-३३. स्थापित आचार्य का गण को विपरिणमित
करने का प्रयास और ग्वालों का दृष्टान्त। १३३४-३६. गण द्वारा असम्मत मुनि को आचार्य बनाने
पर प्रायश्चित्त। १३३७. परिहारी तथा अपरिहारी के पारस्परिक संभोज
का वर्जन। १३३८-४२. परिहार तप का काल और परिहरण विधि। १३४३-४६. परिहार कल्पस्थित मुनि का अशन पान लेने
व देने का कल्प तथा अकल्प। १३४७. संसृष्ट हाथ आदि को चाटने पर प्रायश्चित्त। १३४८ आचार्य आदि के आदेश पर संसृष्ट हाथ आदि
चाटने का विधान। १३४६. सूपकार का दृष्टान्त। १३५०. बचे हुए भोजन से परिवेषक को देने का
परिमाण। १३५१. सूत्र की संबंध सूचक गाथा। १३५२-५६. पारिहारिक की सामाचारी आदि। १३५७-६२. गण धारण कौन करे? सपरिच्छद या
अपरिच्छद? १३६२-६४. इच्छा शब्द के निक्षेप। १३६५-६८. गण-शब्द के निक्षेप। १३६६-७. गण-धारण का उद्देश्य-निर्जरा। गणधर को
महातडाग की उपमा।
गुणयुक्त को गणधर बनाने का निर्देश । १३७३.
गणधर प्रतिबोधक आदि पांच उपमाओं से
उपमित। १३७४. प्रतिबोधक उपमा का स्पष्टीकरण। १३७५. देशक उपमा की व्याख्या। १३७६,१३७७. सपलिच्छन्न एवं अपलिच्छन्न के विविध
उदाहरण एवं कथाएं। १३७८
बुद्धिहीन राजकुमार की कथा। १३७६. भावतः अपलिच्छन्न की व्याख्या। १३८०. लघुस्रोत का दृष्टान्त। १३८१. अगीतार्थ से गण का विनाश । १३८२. जंबूक एवं सिंह की कथा।
१३७२.
१३२६..
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विषयानुक्रम
[१२५
१३५३,१३८४. अगीतार्थ की चेष्टाओं की नीलवर्णी सियार से
तुलना एवं उपनय। १३८५,१३८६. जंबूक की बुद्धिमत्ता एवं सिंह की पराजय। १३.७. द्रव्य एवं भाव से अप्रशस्त उदाहरण। १३८८,१३८६. द्रमक/भिखारी का दृष्टान्त एवं उसका
निगमन। १३९०,१३६१. ग्वाले का दृष्टान्त एवं निगमन। १३६२. द्रव्यतः पलिच्छन्नत्व के दोष। १३६३-१८ लब्धिमान होने पर भी गण-धारण में क्षम नहीं,
क्यों? १३६६. गणधारी के गुण। १४००. पूजा के निमित्त गण-धारण का निषेध । १४०१. कर्मनिर्जरण के लिए गण-धारण। १४०२-१४०५. पूजा के निमित्त गण-धारण की अनुज्ञा। १४०६,१४०७. गण-धारण करने वाले को कितने शिष्य देय? १४००-१२. परिच्छद के भेद-प्रभेद तथा उदाहरण। १४१३. द्रव्य-भाव परिच्छद की चतुर्भगी। १४१४,१४१५. भरुकच्छ में वज्रभूति आचार्य की कथा। १४१६. द्रव्य परिच्छद का मूल है-औरस बल और
आकृति। १४१७२०. अबहुश्रुत और गीतार्थ की चतुर्भगी तथा
प्रायश्चित्त कथन। १४२१-२६. गणधारण के योग्य की परीक्षा-विधि। १४३०-३३. शिष्य का प्रश्न और गुरु द्वारा परीक्षा-विधि
का समर्थन। १४३४-४१. राजकुमार के दृष्टान्त से गणधारण की योग्यता
का कथन। १४४२.
गणधारण के लिए अयोग्य। १४४३. अयोग्य को आचार्य पद देने से हानि।। १४४४-४६. सामाचारी में शिथिलता के प्रसंग में
अंगारदाहक का दृष्टान्त।
गणधारण के लिए अनर्ह कौन-कौन? १४६५-६७. देशान्तर से आगत प्रव्रजित मुनियों की चर्या। १४६८ पुरुषयुग के विकल्प। १४६६,१४७० सात पुरुष युग। १४७१-७४. स्थविरों को पूछे बिना गण-धारण का
प्रायश्चित्त। १४७५,१४७६. स्वगण में स्थविर न हो तो दूसरे गण के
स्थविरों के पास उपसंपदा लेने का निर्देश। १४७७-७६. गणधारक उपाध्याय आदि का श्रुत परिमाण
तथा अन्यान्य लब्धियां। १४८०. आचारकुशल, प्रवचनकुशल आदि का निर्देश
तथा आचारकुशल के भेद। १४८१-८७. आचारकुशल की व्याख्या। १४८८-६४. संयमकुशल की व्याख्या। १४६५-६८. प्रवचनकुशल की व्याख्या। १४६६-१५०५. प्रज्ञप्तिकुशल की व्याख्या। १५०६-१४. संग्रहकुशल की व्याख्या। १५१५-१६. उपग्रहकुशल का विवरण। १५२०,१५२१. अक्षताचार की व्याख्या। १५२२. क्षताचार, सबलाचार आदि पदों की व्याख्या। १५२३. आचारप्रकल्पधर कौन? चार विकल्प। १५२४-२६. आचार्यपद-योग्य के विषय में शिष्य का प्रश्न
तथा पुष्करिणी आदि अनेक दृष्टान्तों से
आचार्य का समाधान। १५२७.
पुष्करिणी का दृष्टान्त। १५२८ आचारप्रकल्प का पूर्व रूप और वर्तमान रूप। १५२६. प्राचीनकाल में चोर विविध विद्याओं से सम्पन्न,
आज उनका अभाव। १५३०. प्राचीनकाल में गीतार्थ चतुर्दशपूर्वी, आज
प्रकल्पधारी। १५३१. प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा से उपस्थापना,
आज दसवैकालिक के चौथे अध्ययन
षड्जीवनिकाय से उपस्थापना। १५३२. पहले और वर्तमान में पिंडकल्पी की मर्यादा
में अन्तर। १५३३.
पहले आचारांग से पूर्व उत्तराध्ययन का
अध्ययन, अब दशवैकालिक का अध्ययन। १५३४. पहले कल्पवृक्ष का अस्तित्व अब अन्यान्य वृक्षों
की मान्यता। १५३५. प्राचीन और अर्वाचीन गोवर्ग की संख्या में
अन्तर। १५३६.
प्राचीन एवं अर्वाचीन मल्लों के स्वरूप में
अन्तर। १५३७,१५३८. प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रायश्चित्त के स्वरूप में
अन्तर।
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________________
१२६ ]
व्यवहार भाष्य
१५३६
पहले चतुर्दशपूर्वी आदि आचार्य आज
युगानुरूप आचार्य। १५४०,१५४१. त्रिवर्ष पर्यायवाला केवल उपाध्याय पद, पांच
वर्ष पर्याय वाला उपाध्याय तथा आचार्य पद
एवं अष्ट वर्ष पर्याय वाला सभी पद के योग्य। १५४२. अपवाद सूत्र। १५४३-४८ तत्काल प्रव्रजित को आचार्य पद क्यों? कैसे? १५४६५३. राजपुत्र, अमात्यपुत्र आदि की दीक्षा, उत्प्रव्रजन,
पुनः दीक्षा तथा पद-प्रतिष्ठापन। १५५४-६०. तत्काल प्रव्रजित राजपुत्र आदि को आचार्य
बनाने के लाभ। १५६१-६६. पूर्व पर्याय को त्याग पुनः दीक्षित होने वाले
राजकुमार आदि को आचार्य पद देने के लाभ। १५६७. श्रुत समृद्ध पर गुणविहीन को आचार्य पद देने
का निषेध। १५६८१५६६. श्रुतविहीन पर लक्षणयुक्त को आचार्य पद देने
की विधि। १५७-७५. स्वगण में गीतार्थ के अभाव में अध्ययन
किसके पात? आचार्य और उपाध्याय-दो का गण में होना
अनिवार्य। १५७७.
नवक, डहरक, तरुण आदि के प्रव्रज्या पर्याय
की अवस्था का निर्देश। १५७८,१५७६. अभिनव आचार्य और उपाध्याय के संग्रह का
निर्देश। १५८०-८७. नए आचार्य का अभिषेक किए बिना पूर्व
आचार्य के कालगत होने की सूचना देने से
हानियां। १५८८ गण में आचार्य और उपाध्याय के भय से
आचार-पालन में सतर्कता। १५८६.
प्रवर्तिनी की निश्रा में साध्वियों के
आचार-पालन में तत्परता। १५८६/१. स्त्री की परवशता और उसका संरक्षण। १५६०,१५६१. स्त्री परवश क्यों? १५६२,१५६३. मुनि की गणस्थिति के लिए आचार्य, उपाध्याय
अनिवार्य। साध्वी की गणस्थिति के लिए 'आचार्य-उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी की अनिवार्यता-उत्सर्ग और अपवाद ।
१५६४,१५८५. गण से अपक्रमण कर मैथुनसेवी मुनि को तीन
वर्ष तक कोई भी पद देने का निषेध। १५६६-६६. सापेक्ष एवं निरपेक्ष मैथुनसेवी का विस्तृत
वर्णन। १६००-१०. मोहोदय की चिकित्सा-विधि। १६११-१४. आचार्य आदि पदों के लिए यावज्जीवन अनर्ह
व्यक्तियों का दृष्टान्तों से विमर्श।। १६१५-२३. वेदोदय के उपशान्त न होने पर परदेशगमन
तथा अन्यान्य उपाय। १६२४-२७. पुनः लौटने पर गुरु के समक्ष आलोचना एवं
प्रायश्चित्त। १६२८
प्रतिसेवी मुनि को तीन वर्ष तक वंदना न करने
का विधान। १६२८-३३. तीन वर्ष में यदि वेदोदय उपशान्त न हो तो
यावज्जीवन पद के लिए अनह। १६३४. महाव्रत के अतिचारों का प्रतिपादन। आचार्य
की स्थापना का विवेक। १६३५, १६३६.अभीक्ष्ण मायावी, मैथुनप्रतिसेवी, अवधानकारी
मुनि बहुश्रुत होने पर भी आचार्यादि पद के
लिए यावज्जीवन अनर्ह । १६३७-३६. एकत्व बहुत्व का विमर्श । १६४०. अशुचि कौन? मायावी। १६४१,१६४२. अशुचि के दो भेद। १६४३-४७. मायावी आदि मुनि सूरि पद के लिए अनर्ह । १६४८ मायावी का अनाचरण। १६४६. मायावी कौन? १६५०-५४. संघ में सचित्त आदि के लिए विवाद होने पर
उसके समाधान की विधि। . १६५५-५६. संघ की घोषणा पर मुनि को अवश्य जाने का
निर्देश और न जाने पर प्रायश्चित्त। १६६०,१६६१. सचित्त के निमित्त विवाद का समाधान। १६६२-६६. प्रतिपक्ष के बलवान होने पर व्यवहारछेत्ता का
कर्तव्य। १६६७,१६६८ संघ-मर्यादा की महानता एवं विभिन्नता। १६६-७४. पर्षद् का विवाद निपटाने की प्रक्रिया। १६७५,१६७६. तीर्थंकर की आज्ञा ही प्रमाण। १६७७-८१. संघ की विशेषता और उसकी सपरीक्षित
कारिता।
१५७६.
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________________
विषयानुक्रम
[ १२७
१६८२-८५. आचार्य आदि ही नहीं किन्तु संयमाराधना
संसार-मुक्ति का साधन। १६८६. संघ को शीतगृह की उपमा क्यों? १६८७. संघ शब्द की व्युत्पत्ति। १६८८-६१. असंघ की व्याख्या और परिणाम। १६६२. संघ में रहकर कहीं भी प्रतिबद्ध न होने का
निर्देश। १६६३. व्यवहारछेदक के दो प्रकार। १६६४-१७०२. आचार्य के आठ अव्यवहारी एवं व्यवहारी
शिष्यों का स्वरूप। १७०३,१७०४. दुर्व्यवहारी का फल। १७०५-१७०७. आठ व्यवहारी शिष्यों के नाम और उनके
व्यवहार का सुफल। १७०८,१७०६. युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटी ग्रहण
करने वाला व्यवहारी। १७१०-१२. व्यवहारकरण योग्य कौन? १७१३. अव्यवहारी का स्वरूप। १७१४.
राग-द्वेष रहित व्यवहार का निर्देश । १७१५-१७. स्वच्छंदबुद्धि का निर्णय अश्रेयस्कर और उसका
प्रायश्चित्त।
गौरव रहित होकर व्यवहार करने का निर्देश । १७१६-२५. आठ प्रकार के गौरव और उनका परिणाम। १७२६,१७२७, व्यवहार और अव्यवहार की इयत्ता और
परिणति। १७२८
गणी का स्वरूप। १७२६. कालविभाग से दो या तीन साधु के विहार का
कल्प-अकल्प। १७३०. बृहद्गगच्छ से सूत्रार्थ में हानि। १७३१. पंचक और सप्तक से युक्त गच्छ तथा जघन्य
और मध्यम गच्छ का परिमाण। १७३२. ऋतुबद्धकाल में पंचक और वर्षाकाल में सप्तक
से हीन को प्रायश्चित्त। १७३३. उपर्युक्त गच्छ परिमाण का सूत्रार्थ से विरोध । १७३४-४७. दो मुनियों के विहरण के कारणों का निर्देश
एवं उनकी व्याख्या। १७४८,१७४६. वर्षावास में वसति को शून्य न करने का
निर्देश। १७५०-६२. वसति को शून्य करने से होने वाले दोष तथा
प्रायश्चित्त। १७६३-६५. वर्षावास में दो मनियों का साथ कैसे? १७६६,१७६७. वर्षावास के योग्य जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र। १७६८ वर्षावासयोग्य उत्कृष्ट क्षेत्र के तेरह गुण। १७६६. अयोग्य क्षेत्र में वर्षावास बिताने से प्रायश्चित्त। १७७०,१७७१. कीचड़युक्त प्रदेश के दोष। १७७२. प्राणियों की उत्पत्ति वाले प्रदेश के दोष। १७७३. संकड़ी वसति में रहने के दोष। १७७४-७८ दूध न मिलने वाले प्रदेश में रहने के दोष। १७७६. जनाकुल वसति में रहने के दोष। १७८०. वैद्य और औषध की अप्राप्ति वाले स्थान के
दोष। १७८१. निचय और अधिपति रहित स्थान के दोष। १७८२. अन्यतीर्थिक बहुल क्षेत्रावास से होने वाले
दोष। १७८३,१७८४. सुलभभिक्षा वाले क्षेत्र में स्वाध्याय, तप आदि
की सुगमता। १७८५. संग्रह, उपग्रह आदि पंचक का विवरण। १७८६,१७८७. उत्कृष्ट गुण वाले वर्षावासयोग्य क्षेत्र में तीन
मुनियों के रहने से होने वाले संभावित दोष।
बालक को वसतिपाल करने के दोष। १७८६. आचार्य के रहने से वसति के दोषों का वर्जन। १७६०-६२. दो-तीन मुनियों के रहने से समीपस्थ घरों से
गोचरी का विधान। १७६३-६७. एक ही क्षेत्र में आचार्य और उपाध्याय की
परस्पर निश्रा। १७६८-१८००. एकाकी और असमाप्तकल्प कैसे? १८०१. स्थविरकृत मर्यादा। १८०२. सूत्रार्थ के लिए गच्छान्तर में संक्रान्त होने पर
क्षेत्र किसका? १८०३. तीन और सात पृच्छा से होने वाले क्षेत्र का
आभवन। १८०४,१८०५. अक्षेत्र में उपाश्रय की मार्गणा कैसे? १८०६. उपाश्रय के तीन भेद। १८०७,१८०८. उपाश्रय-निर्धारण की विधि। १८०६. प्रव्रज्या विषयक उपाश्रय की पृच्छा। १८१०-१७. प्रव्रज्या के इच्छुक व्यक्ति को विपरिणत करने
के नौ कारणों का निर्देश।
१७८८
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________________
१२८]
व्यवहार भाष्य
।
१८१८-२३. वर्षाकाल में समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प
वाले मनियों की परस्पर उपसंपदा कैसे? १८२४. सूत्रार्थ भाषण के तीन प्रकार। १८२५. सूत्र में कौन किससे बलवान् ? १८२६. सूत्रार्थ में कौन किससे बलवान? १८२७,१८२८ सूत्र से अर्थ की प्रधानता क्यों? कारणों का
निर्देश। १८२६. सभी सूत्रों से छेद सूत्र बलीयान् कैसे? १८३०.
मंडली-विधि से अध्ययन का उपक्रम। १८३१. आवलिका विधि और मंडलिका विधि में कौन
श्रेष्ठ? १८३२. घोटककडूयित विधि से सूत्रार्थ का ग्रहण। १८३३-३५ समाप्तकल्प की विधि का विवरण। १८३६-४३. प्रव्रज्या के लिए आए शैक्ष एवं विभिन्न मनियों
से वार्तालाप। १८४४-४८ प्रव्रजित होने के बाद शैक्ष किसकी निश्रा में
रहे? १८४६. शैक्ष के दो प्रकार-साधारण और पश्चात्
कृत। १८५०,१८५१. ऋतुबद्धकाल में गणावच्छेदक के साथ एक ही
साधु हो तो उससे होने वाले दोष एवं
प्रायश्चित्त विधि। १८५२. चार कानों तक ही रहस्य संभव। १८५३. गणावच्छेदक को दो साधुओं के साथ रहने
का निर्देश। १८५४. गीतार्थ एवं सूत्र की निश्रा।
घोटककंडूयन की तरह सूत्रार्थ का ग्रहण । १८५६-६०. क्षेत्र पूर्वस्थित मुनि का या पश्चाद् आगत मुनि
का। १८६१-६३. पश्चात्कृत शैक्ष के भेद एवं स्वरूप। १८६४,१८६५. गण-निर्गत मुनि संबंधी प्राचीन और अर्वाचीन
विधि, भद्रबाहु द्वारा तीन वर्ष की मर्यादा। १८६६-७६. विविध उत्प्रव्रजित व्यक्तियों की पुनः प्रव्रज्या
का विमर्श। १८७७-८८, वागन्तिक व्यवहार का स्वरूप और विविध
दृष्टान्त। १८८६. पुरुषोत्तरिक धर्म के प्रमाण का कथन। १८६०,१८६१. ऋतुबद्ध काल में आचार्य आदि की मृत्यु होने
पर निश्रा की चर्चा। १८६२-६५. लौकिक उपसंपदा में राजा का उदाहरण। १८६६,१८६७. निर्वाचित राजा मूलदेव की अनुशासन विधि। १८६८,१८६६. लोकोत्तर सापेक्ष-निरपेक्ष आचार्य का विवरण। १६००. उपनिक्षेप के दो प्रकार। १६०१-१९०८. उपनिक्षेप में श्रेष्ठीसुता का लौकिक दृष्टान्त। १६०६.
परगण की निश्रा में साधुओं का उपनिक्षेप
कब कैसे? १६१०-१२. साधुओं की परीक्षानिमित्त धन्य सेठ की चार
पुत्रवधूओं का दृष्टान्त एवं निगमन। १६१३-१५. आचार्य गण का भार किसको दे? १६१६-२१. उपसंपदा के लिए अनर्ह होने पर निर्गमन और
गमन के चार विकल्प। १६२२-३३. अन्य मुनियों के साथ रहने से पूर्व ज्ञानादि
की हानि-वृद्धि की परीक्षा विधि। १६३४,१६३५. उपसंपन्न गच्छाधिपति के अचानक कालगत
होने पर कर्त्तव्य-निदर्शन। १६३६-४१. सापेक्ष उपनिक्षेप में राजा द्वारा राजकुमारों की
परीक्षाविधि। १६४२-४८ नवस्थापित आचार्य का कर्तव्य और मनियों
की विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्ति। १८४६५१. सूत्रार्थ की वृद्धि न होने से उत्पन्न दोष और
गुरु का अनुशासन। १६५२. वृषभ द्वारा सारणा-वारणा। १९५३-५५. गच्छ और गणी विषयक चार विकल्प।
स्थविरों द्वारा सारणा-वारणा। १९५७-६६. आचारप्रकल्प के सूत्रार्थ से सम्पन्न और
असम्पन्न अनगार के विहार का क्रम। १६७-७६. मुनि किसके साथ रहे-इस विवेक का विस्तृत
वर्णन। १९८०-८२. अपान्तराल में समनोज्ञ के साथ एक रात, तीन
रात अथवा अधिक रात रहने के कारणों का
निर्देश। १६८३-८६. वर्षावास में भिक्षा, वसति और शंका समाधान
के लिए अन्यत्र गमन का विवेक। १६६०-६२. आचार्य पद पर स्थापना विषयक विविध
विकल्प। १६६३-६८. जीवित अवस्था में पूर्व आचार्य द्वारा नए
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विषयानुक्रम
[१२६
२०१६.
आचार्य की स्थापना, परीक्षा और राजा का
दृष्टान्त। १६६-२००३. मरण शय्या पर स्थित आचार्य का विवरण। २००४-२००७. अगीतार्थ का मरणासन्न आचार्य को निवेदन । २००८,२००६. मरणासन्न आचार्य को अगीतार्थ मुनि द्वारा भय
दिखाना। २०१०. भिन्न देश से आए मुनि की अनहता। २०११. वाचक और निष्पादक ही आचार्य के योग्य। २०१२. आचार्य द्वारा अनुमत शिष्य को गण न सौंपने
पर प्रायश्चित्त। २०१३.
अयोग्य मुनि द्वारा आचार्य पद न छोड़ने पर।
प्रायश्चित्त। २०१४. आचार्य द्वारा अनुमत शिष्य यदि विशेष
साधना पर जाए तो अन्य मुनि को निर्मापित
करने की प्रार्थना। २०१५.
विशेष साधना की अपेक्षा गच्छ का परिचालन विपुल निर्जरा का कारण। गीतार्थ मुनियों के कथन पर यदि कोई आचार्य
पद का परिहार न करे तो प्रायश्चित्त। २०१७. आचार्य के प्रति शिष्य का अवश्यकरणीय
कर्त्तव्य। २०१८,२०१६. आचार्य और उपाध्याय का रोग और मोह के
कारण अवधावन। २०२०-२२. रोग से अवधावन की चिकित्सा-परिपाटी,
परिपाटी के चार घटक और उनका
चिकित्सा-विवेक। २०२३-३०. रोग से अवधावनोत्सुक मुनि की चिकित्सा
विधि। २०३१-५२. भग्नव्रत की उपस्थापना और प्रायश्चित्त
विधि। २०५३-५६. प्रायश्चित्त की विस्मृति के चार कारण। २०५७-६२. स्मरण-अस्मरण विषयक विवरण। २०६३,२०६४. गणापक्रमण करने वाले का विवरण। २०६५-६६. 'अट्टे लोए परिजुण्णे' सूत्र की व्याख्या। २०७०-७३. सूत्रार्थ का सही अर्थ जान लेने पर
गणापक्रमण। २०७४. गुरु की आज्ञा की प्रधानता। २०७४-७८. अभिनिचारिकायोग का विवरण तथा
प्रायश्चित्त। २०७६,२०८०. चरिकाप्रविष्ट द्वितीय सूत्र की व्याख्या। २०८१. उपपात के एकार्थक। २०६२,२०८३. मितगमन आदि का निर्देश तथा ध्रव की
व्याख्या। २०८४. सूत्रगत 'वेउट्टिय' शब्द का भावार्थ कथन। २०८५. कायसंस्पर्श की व्याख्या। २०८६. स्मारणा, वारणा आदि भिक्षुभाव के घटक। २०८७. गणमुक्त साधना करने के कुछ हेतु। २०८८,२०८६. आचार्य की अनुज्ञा के बिना गणमुक्त होने
पर प्रायश्चित्त। २०EO.
आचार्य द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना। २०६१.
क्षेत्र की प्रतिलेखना न करने के दोष । २०६२-२१०१. चरिकाप्रविष्ट आदि चार सूत्रों की नियुक्ति।
चरिका से निवृत्त विपरिणत मुनि विषयक
विवरण और प्रायश्चित्त। २१०२,२१०३. विदेश अथवा स्वेदश में दूर प्रस्थान करने की
विधि। २१०४,२१०५. उपसंपद्यमान की परीक्षा। २१०६,२१०७. परीक्षा में अनुत्तीर्ण साधुओं का विसर्जन। २१०९-१२. प्रतीच्छक कितने समय तक प्रतीच्छक? २११३-१६. निर्गम की अनुज्ञा और उसकी यतना। २११७.
आभवद् व्यवहार विधि तथा प्रायश्चित्त-विधि । २११८-२४. आगाढ और अनागाढ़ स्वाध्याय भूमि का
कालमान। २१२५-२७. योग को वहन करने वाले मुनि के योग का
भंग कब कैसे? २१२८-३६. योग विसर्जन का कारण और विधि। २१३७-४६. निर्विकृतिक आहार-विधि तथा अन्य विवरण। २१४७-४६. माया से योग विसर्जन का परिणाम। २१५०-५७ मायावी मुनि के व्यवहार के अनेक कोण। २१५८
नालबद्ध और वल्लीबद्ध के प्रकार और
व्यक्तियों का निर्देश। २१५६-६४. उपस्थापना पहले पीछे किसको? २१६५-७६. आचार्य के लिए आभाव्य शिष्य कौन? २१७७-८५. दो के विहरण की मर्यादा तथा प्रायश्चित्त आदि
का विवरण। २१८६-८६. रत्नाधिक का शैक्ष के प्रति कर्त्तव्य।
।
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१३०]
व्यवहार भाष्य
२१६०-२२०६. दो संख्याक भिक्ष, गणावच्छेदक आदि विषयक
वर्णन। २२०७-१५. आभवद् व्यवहार के भेद तथा विवरण। २२१६-२६. अवग्रह के तीन भेदों का विवरण । २२३०-४२. निर्गमन की चतुर्भगी और उसका विवरण। २२४३-५४. असंस्तरण में साधुओं की चतुर्भगी आदि का
वर्णन। २२५५. काल के आधार पर अवग्रह के तीन भेद । २२५६,२२५७. वृद्धावास का निर्वचन तथा कालमान। २२५८-६३. वृद्धावास में रहने के हेतुओं का निर्देश। २२६४-६८ जंघाबल की क्षीणता का अवबोध । २२६६-७२. स्थविर का क्षेत्र और काल से अपराक्रम जानने
का निर्देश। २२७३-७५. गच्छवास को सहयोग देने की विधि। २२७६,२२७७. वृद्धों के प्रति चतुर्विध यतना। २२७९-८२. वृद्धावास के प्रति कालगत यतना। २२८३-८८. वृद्धावास की वसति एवं संस्तारक यतना का
निर्देश। २२८६,२२६०. ग्लानत्व, असहायता तथा दौर्बल्य के कारण
होने वाला वृद्धावास। २२६१. अनशन-प्रतिपन्न की निश्रा में प्रतिचारक के
रहने का कालमान। २२६२-६७. सूत्रार्थ के निष्पादक की वृद्धावास में रहने की
काल-मर्यादा। २२६८
एक क्षेत्र में रहने के कारणों का निर्देश । २२६६.
संलेखना-प्रतिपन्न के साथ तरुण साधु के रहने
की काल-मर्यादा। २३००-२३०३. अवग्रह के तीन प्रकार एवं उनके कल्प-अकल्प
की काल मर्यादा। २३०४. साध्वियों की विहार संबंधी मर्यादा। २३०५,२३०६. ऋतुबद्ध काल में सात तथा वर्षाकाल में नौ
साध्वियों के विहार का निर्देश एवं उसके
कारण। २३०७११. प्रवर्तिनी के कालगत होने पर आचार्य के समीप
जाने की परम्परा। २३१२.
साध्वियों की प्रमादबहुलता एवं अस्थिरता की
कथा। २३१३,२३१४. नव, डहरिका तथा तरुणी की व्याख्या और
प्रवर्तिनी बनने की अर्हता। २३१५-१८ अन्यगच्छ से समागत साध्वी की विज्ञप्ति। २३१८-२१. प्रकल्प अध्ययन की विस्मृति करने वाले को
यावज्जीवन गण न सौंपने का निर्देश तथा
प्रकल्प की विस्मृति के कारणों की खोज। २३२२-२६. विद्यानाश में अजापालक, योध आदि के अनेक
दृष्टान्त। २३२७,२३२८. प्रमत्त साध्वी को गण देने, न देने का विमर्श। २३२६. प्रमत्त मुनि को गण देने, न देने का विमर्श। २३३०,२३३१. मथुरा नगरी में क्षपक का वृत्तान्त। २३३२,२३३३. प्रकल्पाध्ययन नष्ट होने पर स्थविर और
आचार्य की कर्त्तव्यता। २३३४. सूत्रार्थधारक ही गणधारी। २३३५. कृतयोगी के सूत्र-नाश का कारण। २३३६. गण को स्वयं धारण करने का विवेक २३३७. कृतिकर्म का विधान और निधान का दृष्टान्त । २३३८,२३३६. गर्व से कृतिकर्म न करने पर प्रायश्चित्त। २३४०-४२. अविधि से कृतिकर्म करने पर प्रायश्चित्त। २३४३-४५. कृतिकर्म की विधि। २३४६,२३४७. स्थविरों के द्वारा कतिकर्म करने से तरुणों को
प्रेरणा। २३४८ आलोचना किसके पास? २३४६-५५. संभोज (पारस्परिक व्यवहार) के छह प्रकार
तथा विवरण। २३५६-६०. सांभोजिक एवं असांभोजिक का विभाग कब? २३६१-६४. आलोचना-विधि तथा दोष। २३६५. आर्यरक्षित तक आगमव्यवहारी अतः साध्वियों
को छेदसूत्र की वाचन की परम्परा। २३६६. आगमव्यवहारी के अभाव में साध्वियों द्वारा
प्रायश्चित्तदान-विधि। २३६७-७२. साध्वियों का श्रमणों के पास तथा श्रमणों का
साध्वियों के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान। २३७३-७८ साध्वी का श्रमणों के पास आलोचना करने
की विधि तथा दृष्टिराग की चिकित्सा। २३७६-८५. सांभोजिक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की पारस्परिक
सेवा कब? कैसे? २३८६-६१. ग्लान श्रमण की वैयावृत्त्य करने वाली आर्यिका
की योग्यता के बिन्दु।
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विषयानुक्रम
[१३१
२३९२,२३६३. श्रमण द्वारा ग्लान श्रमणी की तथा श्रमणी
द्वारा ग्लान श्रमण की वैयावृत्त्य करने की
विधि। २३६४,२३८५. आगाढ प्रयोजन में द्विपक्ष वैयावृत्त्य अनुज्ञात । २३६६. वैयावृत्त्य का सामान्य नियम। २३६७. सूत्र से अर्थ का सम्बन्ध कैसे? २३६८-२४००. विपक्ष के वैयावृत्त्य से दोष। २४०१-२४०७. औषध आदि का ग्रहण तथा वैद्य का दृष्टान्त । २४०८. राजा के दो प्रकार-आत्माभिषिक्त और
पराभिषिक्त। २४०६. पराक्रमी राजा के चार बिंदु । २४१०. सूत्रार्थविहीन एवं औषधविहीन आचार्य की
व्यर्थता। २४११-१५. औषधि आदि निचय सम्बन्धी शिष्य का प्रश्न
और आचार्य का उत्तर। २४१६-२२. औषध के संचय का निषेध। २४२३. समाधि के लिए शिष्य का प्रश्न और आचार्य
का उत्तर। २४२४-२७. विद्या और मंत्र का संनिचय विहित। २४२८-३२. गणधारी के चिकित्साज्ञान की अनिवार्यता। २४३३,२४३४. लवसप्तमदेव का स्वरूप। २४३५ स्वपक्ष से चिकित्सा, विपक्ष से नहीं। २४३६.
वैयावृत्त्य विषयक सूत्र और अर्थ में विपर्यास
की चर्चा। २४३७,२४३८. वैद्य के अभाव में वैयावृत्त्य किससे? २४३६-४३. दूती विद्या, आदर्श विद्या आदि द्वारा
रोगनिवारण का निर्देश। २४४४. निर्ग्रन्थ के निर्ग्रन्थी द्वारा तथा निर्ग्रन्थी के
निर्ग्रन्थ द्वारा वैयावृत्त्य करने पर प्रायश्चित्त का
विधान। २४४५,२४४६. जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के वैयावृत्त्य
का विधान। २४४७. सर्पदंश के लिए ज्ञातविधि का ज्ञान। २४४८-५५. ज्ञातविधि का संज्ञान, प्रायश्चित्त तथा विविध
दोषों की समापत्ति। २४५६-५६. सेनापति का दृष्टान्त। २४६०,२४६१. लोभ की समुदीरणा में रत्नस्थाल का दृष्टान्त। २४६२-७३. ज्ञातविधिगमन के दोष तथा संयम से चालित
करने के ११ उपाय।
२४७४-७६. उत्प्रव्रजित मुनि द्वारा होने वाले दोषों का
वर्णन। २४८०-५२. ज्ञातविधिगमन के उत्सर्ग, अपवाद तथा
यतना। २४८३. स्वाध्याय तथा भिक्षाभाव द्वारा शिष्य की
परीक्षा। २४८४,२४५५. मंदसंविग्न और तीव्रसंविग्न कौन?. . २४८६-८८. उपसर्ग-सहिष्णु की परीक्षा। २४८६. स्वजनों से प्रतिबद्ध या अप्रतिबद्ध की पहचान। २४६०-६३. ज्ञातविधि में जाने वाले की योग्यता और
सहयोगियों की चर्चा। २४६४. स्वज्ञातिक मुनि द्वारा धर्मकथा करने का निर्देश
और विधि। २४६५. थावच्चापुत्र का दृष्टान्त कहने का निर्देश। २४६६-६६. पूर्वायुक्त और पश्चादायुक्त भोजन की
व्याख्या। २५००. भिक्षु को द्रव्यों के प्रमाण आदि का ज्ञान। २५०१. सात प्रकार का ओदन। २५०२. शाक, व्यञ्जन आदि का परिमाण। २५०३. द्रव्य ग्रहण का परिमाण। २५०४. भिक्षा-वेला का ज्ञान तथा संविग्न संघाटक। २५०५-२५०६. ग्लान मुनि की चिकित्सा में पुरःकर्म तथा
पश्चात् कर्म का विवेक। २५१०-१३. ग्लान के प्रयोजन से ज्ञातविधि प्राप्त करने
वाले मुनियों की यतना। २५१४-१८ ज्ञातविधि प्राप्त करने के हेतु। २५१६,२५२०. बहुश्रुत के अनेक अतिशय। २५२१. आचार्य के पांच अतिशेषों का वर्णन। २५२२-२६. आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि। अविधि
से करने पर दोष तथा प्रायश्चित्त । २५३०,२५३१. आचार्य के बहिर्गमन का हेतु तथा शैक्ष का
प्रश्न। २५३२-३७. आचार्य के वसति के बाहर ठहरने के दोष । २५३८-४१. क्या भिक्षु वसति के बाहर रह सकता है? प्रश्न
का समाधान। २५४२-५२. दूसरा अतिशय-संज्ञाभूमि में गमन, निषेध
और अपवाद। २५५३-५७. लौकिक विनय बलवान या लोकोत्तर विनय? २५५८,२५५६. आचार्य के संज्ञाभूमि-गमन के अवसर पर
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१३२]
व्यवहार भाष्य
मुनियों का कर्त्तव्य। २५६०-६५. . आचार्य की रक्षा का दृष्टान्त द्वारा समर्थन। २५६६. आचार्य की रक्षा के लाभ। २५६७,२५६८. तीसरा अतिशय-अतिशायी प्रभुत्व। २५६६-७. आचार्य को भिक्षा के लिए न जाने के हेत। २५७२-६६. आचार्य को गोचरी से निवारित न करने पर
प्रायश्चित्त तथा उससे होने वाले दोष। २६००-२६०२. आचार्य द्वारा भिक्षार्थ न जाने के गण। २६०३-२६०६. कारणवश आचार्य का भिक्षार्थ जाने पर शिष्य
का कर्त्तव्य। २६०७-२६०६. गोचरचर्या सम्बन्धी आचार्य और शिष्य का
ऊहापोह। २६१०-१४. कौटुम्बिक से आचार्य की तुलना। २६१५-१७. निरपेक्ष और सापेक्ष दंडिक का दृष्टान्त।
आचार्य के भिक्षार्थ जाने के कारणों का निर्देश
तथा भिक्षार्थ न जाने पर प्रायश्चित्त। २६२६-२८ भिक्षा की सुलभता न होने पर आचार्य किन
किन को भिक्षार्थ भेजे? २६२६,२६३०. गणिपिटक पढ़ने वालों की वैयावृत्त्य से महान्
निर्जरा। २६३१. विभिन्न आगमधरों की वैयावृत्त्य से निर्जरा की
तरतमता। २६३२. प्रावचनी आचार्य की वैयावृत्त्य से महान्
निर्जरा। २६३३-३६. भावों के आधार पर निर्जरा की तरतमता। २६३७,२६३८ निश्चयनय से निर्जरा का विवेचन। २६३६.
सूत्रधर, अर्थधर एवं उभयधर की वैयावृत्त्य से
निर्जरा। २६४०-४६. सूत्र और अर्थ से सूत्रार्थ श्रेष्ठ तथा शातवाहन
का दृष्टान्त। २६४७,२६४८. अर्थमंडली में स्थित आचार्य का अभ्युत्थान
विषयक गौतम का दृष्टान्त। २६४६-६०.
अभ्युत्थान से व्याक्षेप आदि दोष । २६६१-६४. अभ्युत्थान के तीन कारण। २६६५. अभ्युत्थान का क्रम। २६६६-६६. सापेक्ष-निरपेक्ष शिष्य के सम्बन्ध में शकट का
दृष्टान्त। २६७०,२६७१. द्रव्य और भाव भक्ति में लोहार्य और गौतम
का दृष्टान्त।
२६७२. गुरु की अनुकम्पा और गच्छ की अनुकम्पा से
तीर्थ की अव्यवच्छित्ति। २६७३. गुरु की गच्छ के प्रति अनुकम्पा से ही दशविध
वैयावृत्त्य का समाचरण। २६७४-८२. आचार्य के पांच अन्य अतिशयों का विवरण। २६६३. हाथ, मुंह आदि धोने के लाभ। २६८४. आचार्य के योगसंधान के प्रति शिष्यों की
जागरूकता। २६८५-६२ अतिशयों को भोगने में विवेक, आर्य समुद्र
तथा आर्य मंगु का निदर्शन। २६६३-२७२. पूर्व वर्णित पांच अतिशयों में अंतिम दो
अतिशयों का वर्णन। २७०३. भद्रबाहु का 'महापान' ध्यान और महापान की
व्युत्पत्ति। २७०४.
आचार्य का वसति के बाहर रहने का कारण। २७०५.
गणावच्छेदक तथा गणी के दो अतिशयों का
कथन। २७०६,२७०७. भिक्षु के दश अतिशय। २७०८.
सूत्राध्ययन किए बिना एकलवास करने का
निषेध और उसका प्रायश्चित्त । २७०६,२७१०. अपठित श्रुत वाले अनेक मुनियों का एक
गीतार्थ के साथ रहने का विधान। २७११-१८ अपठितश्रुत मुनियों का गच्छ से अपक्रमण एवं
उससे होने वाले दोष। २७१६,२७२०. अपठितश्रुत मुनियों के एकान्तवास का
विधान। २७२१-२४. एक या अनेक का एकलवास और सामाचारी
का विवेक। २७२५-२८ गीतार्थनिश्रित की यतना और मुनियों के
संवास की व्यवस्था। २७२६-३३. पृथक् पृथक् वसति में रहने का विधान और
उसकी यतना-विधि। २७३४-३८ अपठितश्रुत मुनियों के साथ आचार्य का
व्यवहार और तीन स्पर्धकों का सहयोग। २७३६-४४. एक दिन में अपठितश्रुत स्पर्धकों का शोधन
और प्रायश्चित्त। २७४५,२७४६. बहुश्रुत को भी अकेले रहने का निषेध। २७४७ अभिनिर्वगड़ा के प्रकार एवं एकाकी रहने का
प्रायश्चित्त।
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विषयानुक्रम
[ १३३
२७४८-५७. लज्जा, भय आदि के कारण पापाचरण से
रक्षा। २७५८-६४. शुभ-अशुभ मनःपरिणामों की स्थिति का
विभिन्न उपमाओं से निरूपण। २७६५,२७६६. एक लेश्यास्थान में असंख्य परिणाम-स्थानों
का कथन। २७६७. लेश्यागत विशुद्ध भावों से मोह का अपचय। २७६८. शुभ परिणाम से मोह कर्म का क्षय होता है
या नहीं? २७६-७८ एकाकी विहरण के दोष। २७७६-८१. बहुश्रुत के एकाकीवास का समर्थन। २७८२. बहुश्रुत के त्वग्दोष होने के कारण एकाकी
रहने का विधान। २७८३-८५. त्वग्दोष के प्रकार तथा उसकी सावधानी के
उपाय। २७८६-८८. त्वग्दोषी की आचार्य द्वारा सारणा-वारणा
अन्यथा प्रायश्चित्त। २७८६-६२. त्वग्दोष संक्रमण के हेतु। २७६३-२८०२. अबहुश्रुत के त्वग्दोष होने पर यतना विधि। २८०३-२८०६. हस्तकर्म आदि से शुक्र निष्कासन। २८०७-१२. शुक्र निष्कासन के विविध उपाय। २८१३-१८. साध्वी के एकाकी रहने के दोष। २८१६-२३. संयम भ्रष्ट साध्वी के पुनः प्रव्रजित होने की।
आकांक्षा। २८२४-३१. संयमभ्रष्ट साध्वी को गण से विसर्जित करने
की विधि। २८३२,२८३३. इत्वरिक और यावत्कथिक दिग्बंध का कथन। २८३४. सूत्र की संबंध गाथा। २८३५-३८. गण से निर्गत भिक्षुणी का पुनः आना। २८३६-४१. अन्यदेशीय वस्त्रों से प्रावृत भिक्षुणी को देखकर
वृषभों का ऊहापोह। २८४२-४५. साध्वियों द्वारा लब्ध वस्त्रों को गुरु को दिखाने
की परम्परा और न दिखाने पर प्रायश्चित्त। २८४६,२८४७. प्रवर्तिनी को गुरुतर दंड के लिए शिष्य का
प्रश्न एवं आचार्य का उत्तर। २८४८-५३. पति द्वारा परित्यक्त स्त्री की प्रव्रज्या और उसे
पुनः गृहस्थ जीवन में लाने में परिव्राजिका की
भूमिका। २८५४-६०. प्रव्रज्या के पारग-अपारग का परीक्षण।
२८६१-६६. मायावी भिक्षुणी द्वारा छिद्रान्वेषण। २८६७. सूत्र और अर्थ की पारस्परिकता। २८६८ अन्य गण से आगत साध्वियों को वाचना
आदि। २८६६. आभीरी की प्रव्रज्या, विपरिणाम और उसका
प्रायश्चित्त। २८७०-७७. समागत निर्ग्रन्थी को गण में न लेने के कारण
और प्रायश्चित्त। २८७-६१. प्राघूर्णक मुनि की विविध शंकाएं एवं उनके
आधार पर विसांभोजिक करने पर प्रायश्चित्त। २८६२-६५. परोक्ष में दिसांभोजिक करने के दोष । २८६६-२६०५ सांभोजिक और विसांभोजिक व्यवहार किसके
साथ? २६०६. आगत मुनियों की द्रव्य आदि से परीक्षा और
फिर सहभोज। २६०७. ज्ञात-अज्ञात के साथ बिना आलोचना के
सहभोज करने पर प्रायश्चित्त। २६०८.
ज्ञात-अज्ञात की परीक्षा आर्य महागिरि से पूर्व
नहीं, बल्कि आर्य सुहस्ति के बाद। २६०६-११. विभिन्न क्षेत्रों से आए मुनियों के आने पर की
जाने वाली यतना। २६१२. स्वदेशस्थ मुनियों के प्रति की जाने वाली
यतना। २६१३,२६१४. अभिनिवारिका से आगत मुनि गुरु के पास
कब जाए? २६१५. कालवेला के अपवाद के कारण। २६१६. कालवेला में न आने पर प्रायश्चित्त । २६१७,२६१८. प्राघूर्णक मुनियों के आने पर तत्रस्थ मुनियों
का कर्तव्य। २६१६,२६२०. आगत मुनियों का तीन दिनों का आतिथ्य
और भिक्षाचर्या की विधि। २६२१,२६२२. निर्ग्रन्थ सूत्र के बाद निर्ग्रन्थी सूत्र का कथन
और उसकी प्रासंगिकता। २६२३. साध्वी के परोक्षतः सम्बन्ध-विच्छेद का कथन। २६२४-२८. संयतीवर्ग को विसांभोजिक करने की विधि । २६२६. निर्ग्रन्थिनी की दीक्षा का प्रयोजन। २६३०-३३. सूत्रगत प्रयोजन के बिना साध्वी को प्रव्रजित
करने के दोष। २६३४-४०. मुनि पुरुष को और साध्वी स्त्री को प्रव्रजित
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१३४]
व्यवहार भाष्य
साध्वियों को पढ़ाने का निर्देश। ३०५४,३०५५. अप्रशस्त भाव से दिए जाने वाले प्रवाचना के
दोष।
करे-इस विषयक शिष्य का प्रश्न और आचार्य
का समाधान। २६४१-५०. स्त्री को प्रव्रजित करने की चार तुलाएं एवं
उनका विवरण। २६५१,२८५२. साध्वी का साधु को प्रव्रजित करने का उद्देश्य । २८५३-६१. क्षेत्रविकृष्ट तथा भवविकृष्ट दिशा संबन्धी
विवरण तथा दृष्टान्त। २६६२-६८. अन्य आचार्य के पास जाने की इच्छुक भिक्षुणी
के मार्गगत दोष। २६६६-७२. क्षेत्रविकृष्ट, भवविकृष्ट विषयक अपवाद । २६७३-७८. निर्ग्रन्थ सम्बन्धी क्षेत्रविकृष्ट तथा भव-विकृष्ट
का विवरण। २६७६-३००६. कलह और अधिकरण के विविध पहलू तथा
उपशमन विधि। ३००७-१३. निर्ग्रन्थिनियों के पारस्परिक कलह के कारण
एवं उपशमन विधि। ३०१४,३०१५. स्वपक्ष के द्वारा परपक्ष को स्वाध्याय के लिए
उद्दिष्ट करने पर प्रायश्चित्त। ३०१६. स्तुति और स्तव की परिभाषा। ३०१७. अकाल स्वाध्याय में ज्ञानाचार की विराधना। ३०१८ कालादि उपचार के बिना विद्या की सिद्धि नहीं
तथा क्षुद्र देवताओं द्वारा उपद्रव। ३०१६. सूत्र देवताधिष्ठित क्यों? ३०२०,३०२१. विद्याचक्रवर्ती का यत्किंचित् कथन विद्या क्यों?
दृष्टान्त और उपनय। ३०२२,३०२३. जिनेश्वर की वाणी के आठ गुण। ३०२४,३०२५. अकाल में अंग पढने का निषेध। ३०२६. अकाल में आवश्यक का निषेध क्यों नहीं? ३०२७. अकाल में स्वाध्याय के दोष। ३०२८-३१. द्रव्य और भाव विष का कथन। ३०३२,३०३३. श्रमण-श्रमणियों को स्वपक्ष में ही वाचना देने
का निर्देश। ३०३४-४४ स्वाध्यायकरण काल तथा स्वपक्ष-परपक्ष की
उद्देशन-विधि और अपवाद। ३०४५-४७. साध्वी का साधु की निश्रा में स्वाध्याय करने
के गुण-दोष। ३०४८ ज्ञान और चारित्र के बिना दीक्षा निरर्थक । ३०४६,३०५०. विशुद्धि के अभाव में चारित्र का अभाव। ३०५१-५३. ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना के लिए
३०५६-५८. साधु साध्वी को प्रवाचना कब दे? ३०५८,३०६०. मुनि और साध्वी की परीक्षा के बिंदु । ३०६१-७७. परीक्षा न करने पर होने वाले दोष और उसका
प्रायश्चित्त। ३०७८-८२. वाचना के लिए योग्य साध्वी का
स्वरूप-कथन। ३०८३,३०८४. भार्या-साध्वी आदि को वाचना देने का निषेध। ३०८५-६३. कौन किसको वाचना दे? तथा वाचना की द्रव्य
आदि से यतना। ३०६४,३०६५. गणधर साध्वियों को वाचना देते समय कैसे
बैठे? ३०६६. वाचना किनको न दे? ३०६७. उपाध्याय भी स्थविर की सनिधि में वाचना
दे। ३०६८३०६६. वाचना के समय साध्वियां कैसे बैठे? ३१००. स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय करने का निर्देश। ३१०१,३१०२. अस्वाध्याय के भेद-प्रभेद तथा दोष। ३१०३,३१०४. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने के दोष तथा
राजा का दृष्टान्त। ३१०५-३१०६. अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने के हेतु
उससे होने वाले दोष तथा पांच पुरुषों का
दृष्टान्त। ३११०-१३. संयमोपघाती अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३११४-१६. औत्पातिक अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३११७-२४. देव सम्बन्धी अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३१२५-३०. व्युद्ग्रह सम्बन्धी अस्वाध्यायिक का निरूपण। ३१३१-५२. औदारिक शरीर सम्बन्धी अस्वाध्यायिक के
भेद-प्रभेद। ३१५३-५६. स्वाध्याय-काल में स्वाध्याय करने का निर्देश
तथा कालग्रहण की सामाचारी। ३१५७,३१५८ काल प्रत्युपेक्षण की २४ भूमियां। ३१५६. काल की तीन भूमियों के प्रत्युपेक्षण का
निर्देश। ३१६०,३१६१. दैवसिक अतिचार का चिन्तन। ३१६२-६७. आवश्यक के बाद तीन स्तुति करने का निर्देश
और तदनन्तर काल प्रत्युपेक्षणा की विधि।
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विषयानुक्रम
[१३५
३१८८-६३. प्रादोषिक कालग्रहण कर गुरु के पास आने
की विधि और गुरु को निवेदन। ३१६४-३२१४. काल चतुष्क की उपघात विधि। ३२१५-२१. स्वाध्याय की प्रस्थापन विधि। ३२२२. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने का निषेध
किन्तु वाचना की अनुमति । ३२२३-२७. आत्मसमुत्थ अस्वाध्यायिक के भेद और उसकी
यतना। ३२२८,३२२६. अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय करने से दोष। ३२३०-३३. शरीरगत रक्त का अस्वाध्यायिक क्यों नहीं?
शिष्य का प्रश्न और आचार्य का उत्तर। ३२३४-३६. राग, द्वेष, मोह वश अस्वाध्यायिक में स्वाध्याय
करने के दोष। ३२४०-४२. साधु एवं साध्वी के परस्पर वाचना देने का
प्रयोजन एवं दीक्षा पर्याय का कालमान। ३२४३,३२४४. आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी का संग्रह
क्यों? साध्वियों के अवश्य संग्रह का निर्देश तथा
अनेक दृष्टान्तों द्वारा समर्थन। ३२५३. जरापाक मुनि की व्याख्या। ३२५४-५७. मृत साधु की परिष्ठापन-विधि तथा उपकरणों
का समर्पण। ३२५८३२५६. मृत परिष्ठापन में स्थण्डिल की प्रत्यपेक्षणा। ३२६०,३२६१. प्रत्युपेक्षण न करने के दोष और प्रायश्चित्त। ३२६२-६४. स्थण्डिल में परिष्ठापन के दोष। ३२६५,३२६६. मृत के लिए वस्त्रों का विवेक। ३२६७-७३. मृत के परिष्ठापन में दिशा का विवेक। ३२७४-७६. परिष्ठापन करने योग्य स्थण्डिल का निर्देश। ३२७७-७६. श्मशान में परिष्ठापन की विधि। ३२८०-८२. सात से कम मुनि होने पर परिष्ठापन की
विधि। ३२८३. गृहस्थों द्वारा मुनि के शव का परिष्ठापन,
उसके दोष और प्रायश्चित्त। ३२८४-८६. मुनि द्वारा ही मुनि के शव का परिष्ठापन करने
का निर्देश। ३२८७-६६. अकेले मुनि द्वारा शव के परिष्ठापन की विधि। ३३००-३३०५. परिष्ठापन की विशेष विधि एवं प्रायश्चित्त का
विधान। ३३०६. शव को परलिंग क्यों किया जाता है?
३३०७,३३०८, शव के उपधिग्रहण की विधि। ३३०६-४२. अवग्रह विषयक अवधारणा, शय्यातर कब,
कैसे? ३३४३. विधवा आदि को शय्यातर बनाने का विधान। ३३४४. विधवा और धव शब्द का निरुक्त। ३३४५,३३४६. शय्यातर से सम्बन्धित प्रभु और अप्रभु की
व्याख्या। ३३४७३३४८ शय्यातर की अनुज्ञापना किससे? ३३४६-५३. मार्ग आदि में भी अवग्रह की अनुज्ञापना। वृक्ष
पडालिका आदि को शय्यातर बनाने का
निर्देश। ३३५४. राज्यावग्रह का निर्देश। ३३५५,३३५६. संस्तृत, अव्याकृत और अव्यवच्छिन्न की
व्याख्या। ३३५७,३३५८. पूर्वानुज्ञात अवग्रह का कालमान। ३३५६. भिक्षुभाव की व्याख्या। ३३६०-६२. राजा के कालगत होने पर अनुज्ञापना किसको? ३३६३-६५. भद्रक को अनुज्ञापित करने पर राजा का
दातव्य सम्बन्धी प्रश्न और उत्तर। ३३६६. प्रायोग्य का स्वरूप कथन। ३३६७. भद्रक द्वारा दीक्षा की अनुज्ञा का निषेध।' ३३६८ राजा को अनुज्ञापित किए बिना देश छोड़ने
पर प्रायश्चित्त। ३३६६
देश छोड़ने के उपायों का निर्देश। ३३७-७७. प्रव्रज्या के लिए अनुज्ञा-अननुज्ञा का कथन। ३३७८-८१. राजा को अनुकूल बनाने का विधान। ३३८२. साधर्मिक अवग्रह का कथन । ३३८३. गृह शब्द के एकार्थक और साधर्मिक अवग्रह
के भेद। ३३८४. गृह के तीन प्रकार। ३३८५. शिष्य द्वारा शय्यासंस्तारक भूमि के लिए गुरु
को निवेदन। ३३८६,३३८७. आचार्य द्वारा उस याचित भूमि की स्वीकृति।
ऋतुबद्धकाल, वर्षावास और वृद्धावास के योग्य
शय्या-संस्तारक। ३३८६-६४. संस्तारक के विविध विकल्प, उनकी व्याख्या
और प्रायश्चित्त। ३३८५. सूत्र का प्रवर्तन सकारण, कारण की जिज्ञासा। ३३६६. संस्तारक के लिए तण ग्रहण करने की विधि।
३३८८
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१३६ ]
व्यवहार भाष्य
३३६७,३३६८. जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक के लिए तणों
का परिमाण। ३३६६,३४००. ग्लान और अनशन किए हए मुनि के संस्तारक
का स्वरूप। ३४०१. अग्लान के लिए तृणमय संस्तारक का वर्जन। ३४०२. कल्प और प्रकल्प की व्याख्या। ३४०३. ऋतुबद्ध काल में तृण ग्रहण करने की यतना। ३४०४,३४०५. ऋतुबद्ध काल में फलकग्रहण की यतना और
फलक के पांच प्रकार। ३४०६.
यतना से गृहीत फलक का प्रायश्चित्त । ३४०७. फलक को उपाश्रय के बाहर से लाने की
विधि। ३४०८. गोचरान के लिए जाते समय भिक्षा और
संस्तारक दोनों लाने का निर्देश। ३४०६. ऋतुबद्ध काल में संस्तारक न लेने पर
प्रायश्चित्त। ३४१०-१२. वर्षाकाल में संस्तारक ग्रहण न करने पर
प्रायश्चित्त और उसके कारण। ३४१३. वर्षाकाल में फलक-संस्तारक ग्रहण की विधि। ३४१४-७३. वर्षाकाल में फलक के ग्रहण, अनुज्ञापना आदि
पांच द्वारों का विस्तृत वर्णन। ३४७४,३४७५. वृद्धावास योग्य. संस्तारक का कथन और
उसका कालमान। ३४७६. सहाय रहित वृद्ध की सामाचारी। ३४७७-८१. दंड, विदंड आदि पदों की व्याख्या और उनका
उपयोग। ३४८२. दंड आदि उपकरणों की स्थापना विधि । ३४८३. दंड आदि के स्थापना संबंधी शिष्य का प्रश्न
और आचार्य का उत्तर। ३४८४-८८. अतिवृद्ध मुनि का उपकरणों को रखकर भिक्षा
के लिए जाने का कारण और यतना का
निर्देश। ३४८६-६१. मार्ग में स्थविर के भटक जाने पर
अन्वेषण-विधि। ३४६२-६४. स्थविर द्वारा खोज की अन्य विधि में उपकरणों
की स्थापना करने के वर्जनीय स्थानों का
निर्देश। ३४५. उपकरणों को स्थापित करने के स्थानों का
निर्देश।
३४६६-३५०५. लोहकार आदि ध्रवकर्मिक को उपकरण
संभलाने तथा उसके नकारने पर उपधि प्राप्त
करने की विधि। ३५०६-३५०८. शून्यगृह में आहार करने की विधि। ३५०६,३५१०. अवग्रह का अनुज्ञापन तथा अनुज्ञापक। ३५११-१७. प्रातिहारिक तथा सागारिक शय्या-संस्तारक को
बाहर ले जाने की विधि और प्रायश्चित्त । ३५१८ अननुज्ञाप्य संस्तारक के ग्रहण का विधान। ३५१६. अननुज्ञाप्य शय्या-संस्तारक ग्रहण करने के
दोष तथा प्रायश्चित्त। ३५२०-२३. दत्तविचार और अदत्तविचार अवग्रहों में तृण
फलक आदि लेने की विधि और निषेध । ३५२४. अननुज्ञात अवग्रह में रहने के दोष। ३५२५-३०. अननुज्ञात अवग्रह का ग्रहण किन कारणों से? ३५३१-३५. वसति स्वामी को अनुकूल करने की विधि। ३५३६-५०. लघुस्वक उपधि के प्रकार तथा परिष्ठापित
उपधि ग्रहण के दोष एवं प्रायश्चित्त । ३५५१-६१. पथ में विश्राम करने से मिथ्यात्व आदि दोष। ३५६२-६५. मार्ग में विश्राम करने का अपवाद मार्ग। ३५६६-६८ विश्राम के पश्चात् प्रस्थान के समय
सिंहावलोकन, विस्मृत वस्तु को न लाने पर
• प्रायश्चित्त। ३५६६,३५७०. कैसी वस्तु विस्मृत होने पर न लाए? ३५७१-७६. विस्मृत उपधि की दूसरे मुनियों द्वारा निरीक्षण
विधि।
३५८०-८२. विस्मृत उपधि को ग्रहण करने के पश्चात मनि
क्या करे? उपधि-परिष्ठापन की विधि तथा आनयन
विधि। ३५६३. अतिरिक्त पात्र ग्रहण की विधि। ३५६४. उद्देश एवं निर्देश की व्याख्या। ३५८५. प्रमाणोपेत उपकरण धारण का निर्देश। ३५६६,३५६७. अतिरिक्त पात्र धारण के दोष, शिष्य का प्रश्न
तथा समाधान। ३५६५-३६०३. अनेक मुनियों द्वारा एक ही पात्र रखने के
दोष। ३६०४-१०. आचार्य आर्यरक्षित द्वारा मात्रक की सकारण
अनुज्ञा। ३६११-१५. कारण के अभाव में मात्रक प्रयोग का
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विषयानुक्रम
[१३७
प्रायश्चित्त। ३६१६,३६१७. अतिरिक्त पात्र ग्रहण के हेतु। ३६१८,३६१६. आभिग्रहिक मुनि के प्रकार तथा आचार्य द्वारा
पात्र लाने का आदेश। ३६२०-२५. अतिरिक्त पात्र ग्रहण के तीन प्रकार। ३६२६. आचार्य द्वारा संदिष्ट आभिग्रहिकों की
सामाचारी। ३६२७. पात्र-प्रतिलेखन। ३६२८. आनीत पात्रों की वितरण विधि। ३६२६-३३. पुराने पात्र ग्रहण करने के अनेक हेतु, पात्र
दुर्लभता के कारण नंदी आदि पांच प्रकार के
पात्रों के ग्रहण का निर्देश। ३६३४. पात्र देने वालों के दो प्रकार-एक या अनेक। ३६३५. निर्दिष्ट को पात्र न देने पर प्रायश्चित्त। ३६३६.
भिक्षणी सम्बन्धी निर्देश्य के पांच प्रकार और
विभिन्न विकल्प। ३६३७४१. ग्लान आदि को पात्र न देने पर प्रायश्चित्त। ३६४२ छह प्रकार के जंगित। ३६४३-४५. ग्लान आदि को पात्र आदि देने की विधि। ३६४६-४६ पात्र देने वाला सांभोजिक अथवा असांभोजिक
प्रश्न तथा उत्तर। ३६५०,३६५१. उपकरण सांभोजिक तथा असांभोजिक कैसे? ३६५२-५४. गच्छनिर्गत मुनि के संवेग प्राप्ति के तीन
स्थान। ३६५५-५७. अवधावन करने वाले मुनि की सारणा-वारणा। ३६५८-६४. अवधावित मुनि का पुनः आगमन तथा
उपकरण सम्बन्धी निर्देश। ३६६५-७६. अगार लिंग तथा स्वलिंग में अवधावन । ३६८०-६५. आहार की मात्रा का विवेक, जघन्य, उत्कृष्ट
मात्रा तथा अमात्य का दृष्टान्त। ३६६६-६६. शिष्यों को उपयुक्त आहार न देने वाले
आचार्य। ३७००-३७०२. उपयुक्त आहार-ग्रहण करने की विधि। ३७०३.
सागारिक पिंड संबन्धी निर्देश। ३७०४. आदेश शब्द की व्याख्या। ३७०५. आदेश, दास और भृतक के पिंड की आठ
सूत्रों से मार्गणा। ३७०६-३७०८. प्रातिहारी और अप्रातिहारी का वर्णन। ३७०६. भद्रक एवं प्रान्त व्यक्ति के चिन्तन में भेद ।
३७१०-१४. सूत्र में आज्ञा फिर अर्थ गत निषेध क्यों? ३७१५. निसृष्ट अप्रातिहारी पिंड। ३७१६. पूर्व-संस्तुत एवं पश्चात्-संस्तुत आदि का
वर्णन। ३७१७-२०. सागारिक दोष एवं प्रसंग दोष से भक्तपान
ग्रहण का निषेध। ३७२१-२३. एगचुल्ली आदि की व्याख्या। ३७२४-३६. साधारण शालाओं के भेद एवं उनमें भक्त
ग्रहण का निषेध। ३७३७. व्यंजन ग्रहण विषयक सामाचारी। ३७३८-४२. गोरस, गुड़ आदि औषधियों के दो प्रकार। ३७४३-५७. वृक्ष आदि से सम्बन्धित शय्यातर के अवग्रह
का विवेक। ३७५-७५. विभिन्न दृष्टियों से कल्प-अकल्प का विवेचन। ३७७६-८८ प्रतिमाओं (विशेष साधना) के विभिन्न प्रकार
और विवरण। ३७८६-३८०२. क्षुल्लिका एवं महल्लिका मोक प्रतिमा का स्वरूप
एवं विवरण। ३८०३-३८०६. मोकप्रतिमा सम्पन्न कर उपाश्रय में अनुसरणीय
विधि। ३८१०. मोकप्रतिमा सम्पन्न साधक के गुण। ३८११-१७. दत्तियों का विवरण। ३८१८३८१६. उपहृत के प्रकार और विवरण। . ३८२०-२२. शुद्ध आदि पदों की व्याख्या। ३८२३-२७. अवगृहीत के तीन प्रकार तथा व्याख्या। ३८२८-३०. दीयमान प्रयोग्य तथा संहृत की व्याख्या। ३८३१-३६. यवमध्यचन्द्रप्रतिमा तथा वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा
का स्वरूप, दत्तिया तथा संहनन। ३८३७४१. प्रतिमाधारी और व्युत्सृष्ट काय। ३८४२-५१. उपसर्गों के प्रकार एवं दृष्टान्तों से उनका
अवबोध। ३८५२-६४. अज्ञातोञ्छ के प्रकार और ग्रहण विधि। ३८६५-७७. देहली का अतिक्रमण करने से उत्पन्न दोष। ३८७८-८० प्रतिमाधारी द्वारा उद्यान आदि में पिण्ड-ग्रहण
की विधि। ३८८१-८५. पांच प्रकार के व्यवहार की उपयोग-विधि। ३८८६. आज्ञा के दो प्रकार। ३८८७. आज्ञा व्यवहार की आराधना के प्रकार और
उसका परिणाम।
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१३८]
व्यवहार भाष्य
३८८८ व्यवहार के दो अर्थ। ३८८६. व्यवहर्त्तव्य के दो प्रकार-आभवत् और
प्रायश्चित्त। ३८६०.
आभवत् और प्रायश्चित्त व्यवहार के पांच-पांच
प्रकार। ३८६१-६६. क्षेत्र विषयक आभवतु और क्षेत्र प्रतिलेखना। ३८६७. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट क्षेत्र के गुण। ३८६८. जघन्य क्षेत्र का स्वरूप। ३८६६. क्षेत्र के चौदह गुण। ३६००,३६०१. वर्षायोग्य क्षेत्र का अनुज्ञापन। ३६०२-१५. क्षेत्र के अनुज्ञापन में पूर्वनिर्गत, पश्चानिर्गत
आदि। ३६१६-२२. क्षेत्र यदि अपर्याप्त हो तो कौन वहां रहे और
कौन न रहे? ३६२३. आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षावास की मर्यादा
का उल्लेख ३६२४-२७. सारूपिक आदि को अनुज्ञापित कर वसति से
बाहर रहने की विधि। ३६२८-३१. संविग्नबहुल काल में आषाढ़ शुक्ला दशमी
को वर्षावास की मर्यादा। वर्तमान में इस
मर्यादा के अतिक्रमण के कारणों का उल्लेख । ३६३२-४२. पार्श्वस्थों का स्वरूप। ३६४३-४६. वर्षावास के लिए क्षेत्र की घोषणा तथा
बाधाएं। ३६५०. क्षेत्र का अन्वेषण और क्षेत्र का व्यवहार। ३६५१-५५. वृषभ क्षेत्र के प्रकार तथा वहां रहने की विधि। ३६५६,३६५७. पूर्वसंस्तुत एवं पश्चात्संस्तुत की व्याख्या तथा
क्षेत्र सम्बन्धी विचार।। ३६५८-६०. श्रुतसम्पत् के दो प्रकार तथा विवरण। ३६६१-६३. ज्ञान अभिधारण के विविध विकल्प। ३६६४,३६६५. माता पिता आदि निर्मिश्र वल्ली और उसके
लाभ। ३६६६,३६६७. मिश्र वल्ली के अन्तर्गत कौन-कौन? ३६६८-७१. अभिधारक के दो प्रकार और उनका विवरण। ३६७२-७४. अभिधार्यमाण आचार्य के जीवित और
कालगत अवस्था पर संपादनीय विधि। ३६७५. ज्ञान, दर्शन आदि के अभिधार्यमाण का
विवरण। ३६७६. चारित्र के लिए अभिधारण करने के लाभ।
३६७७,३६७८. अभिधार्यमाण किसकी निश्रा में? ३६७६. अर्थप्रदाता की बलवत्ता का कथन। ३६८०. श्रुतसम्पत् का विवरण। ३६८१-६२. सुख-दुःख उपसम्पदा का प्रतिपादन । ३६६३-६६. मार्गोपसम्पद् का विवरण। ४०००-४००७. विनयोपसम्पद का विवरण। ४००८,४००६. आभवत् व्यवहार का उपनय। ४०१०-१६. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार। ४०२०-२२. मागध आदि के दृष्टान्तों से मन से कराना
तथा मन से अनुज्ञा। ४०२३,४०२४. काया से अनुज्ञा । ४०२५-२७, प्रमाद विषयक प्रायश्चित्त में नानात्व क्यों? ४०२८. पांच व्यवहारों के नाम। ४०२६-३६. आगम व्यवहार के भेद-प्रभेद। ४०३७. आगमतः परोक्ष व्यवहारी कौन? ४०३८
श्रुत से व्यवहार करने वाले आगमव्यवहारी
कैसे? ४०३६.
जानने की अपेक्षा केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी
की समानता। ४०४०,४०४१. प्रत्यक्षज्ञानी और परोक्षज्ञानी में प्रायश्चित्त दान
की समानता। ४०४२ ४५. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी प्रदत्त प्रायश्चित्त
में शिष्य का प्रश्न और गुरु का उत्तर। ४०४६,४०४७. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी के ज्ञान विषयक
धमक का दृष्टान्त। ४०४८,४०४६. श्रुतज्ञानी और प्रत्यक्षज्ञानी विशोधि के ज्ञाता। ४०५०-५३. विशोधि की विधि। ४०५४. आगमव्यवहारी के सामने आलोचना करने के
गुण। ४०५५. द्रव्य, पर्याय आदि से आलोचना की परिशद्धि । ४०५६-६०. अज्ञान, भय आदि कारणों से प्रतिसेवना। ४०६१,४०६२. प्रतिसेवना के कारणों का आगम-विमर्श । ४०६३. आप्त की परिभाषा।। ४०६४-६६. आगमव्यवहारी प्रायश्चित्त कब और कैसे देते
४०७७-७६. ४०८०-८२.
आलोचनाह कौन? आचार्य की आठ संपदाएं तथा उनके भेद-प्रभेद। आचार संपदा के चार प्रकार।
४०८३-८६.
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विषयानुक्रम
[१३६
20.
४०८७६०. श्रुत संपदा के चार प्रकार। ४०६१-६४. शरीर संपदा के चार प्रकार। ४०६५-६७. वचन संपदा के चार प्रकार। ४०९-४१०३. वाचना संपदा के चार प्रकार। ४१०४-१५. मति संपदा के चार प्रकार। ४११६-२४. संग्रह परिज्ञा के चार प्रकार। ४१२५-२८. व्यवहार समर्थ के ३६ स्थान। ४१२६-३१. विनयप्रतिपत्ति के चार भेद। ४१३२-३६. आचार विनय के चार प्रकार तथा उनका
विवरण। ४१४०-४२. श्रुत विनय के चार प्रकार तथा उनका विवरण। ४१४३-४६. विक्षेपणा विनय का विवरण। ४१५०-५५. दोष-निर्घातन विनय के प्रकार तथा उनका
विवरण। ४१५६. छत्तीस स्थानों में कशल ही आगमव्यवहारी। ४१५७-६२. आगमव्यवहारी के अन्यान्य गुण। ४१६३,४१६४. वर्तमान में आगमव्यवहारी एवं चारित्र शद्धि
का व्यवच्छेद। ४१६५. चतुर्दश पूर्वधर का व्यवच्छेद। ४१६६.
केवली आदि के व्यवच्छेद से क्या प्रायश्चित्त
का भी व्यवच्छेद ? ४१६७. प्रायश्चित्त के व्यवच्छेद से चारित्र-निर्यापकों
की व्यवच्छित्ति कैसे? ४१६८-७१. परोक्षज्ञानी द्वारा प्रायश्चित देना महान पाप,
कारण का निर्देश। ४१७२.
व्यवच्छित्ति के विषय में आचार्य का उत्तर। ४१७३. निशीथ, कल्प और व्यवहार का नि!हण नौवें
पूर्व से। ४१७४. दस प्रकार के प्रायश्चित्त तथा आठ प्रायश्चित्त
का विधान कब तक? ४१७५-७६. प्रायश्चित्तों की यथावत अवस्थिति में चक्रवर्ती
के वधकिरत्न का उदाहरण। ४१८०. प्रायश्चित्त के दस प्रकार। ४१८१-८३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त चतुर्दश
पूर्वी के साथ विच्छिन्न। ४१८४-८७. पुलाक आदि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा उनके
प्रायश्चित्तों का विवरण।। ४१८०-६३. सामायिक आदि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा
उनके प्रायश्चित्तों का विधान ।
४१६४-४२०३. प्रायश्चित्तों के वाहक क्यों नहीं? धनिक का
दृष्टान्त। ४२०४-१२. तीर्ण की अव्यवच्छित्ति का उपाय-उपयुक्त
प्रायश्चित्त दान, तिल का दृष्टान्त। ४२१३,४२१४. दर्शन और ज्ञान से ही तीर्थ की रक्षा, पक्ष
विपक्ष का विवरण। ४२१५.
प्रायश्चित्त के बिना चारित्र की अवस्थिति
नहीं। ४२१६. चारित्र के बिना निर्वाण नहीं। ४२१७. तीर्थ और निर्ग्रन्थ अन्योन्याश्रित। ४२१८ चारित्र की धुरा : महाव्रत और समिति की
आराधना। ४२१६ तीर्थ की धुरा : ज्ञान और दर्शन की आराधना। ४२२०. निर्यापकों के प्रकार एवं उनकी अव्यवच्छित्ति। ४२२१-२६. तीन प्रकार के अनशनों का विवरण। ४२२७-३०. निर्व्याघात भक्तपरिज्ञा से सम्बन्धित द्वारों का
उल्लेख। ४२३१-३५. भक्तपरिज्ञा के लिए गणनिस्सरण और
परगणगमन के गुणों का वर्णन। ४२३६,४२३७. प्रशस्त अध्यवसायों में आरोहण का उल्लेख। ४२३८-५०. संलेखना के प्रकार, १२ वर्ष में की जाने वाली
तपस्या का विवरण। ४२५१-६४. अगीतार्थ के पास अनशन करने के अनेक
दोष अतः गीतार्थ की मार्गणा करने का
निर्देश। ४२६५-६७. असंविग्न के समीप अनशन करने के दोष
और प्रायश्चित्त। ४२६८-७२. संविग्न की मार्गणा का निर्देश। ४२७३-७४. अनशन में अनेक निर्यापक रखने का निर्देश। ४२७६-७६. अनशन की पारगामिता के लिए देवता आदि
का सहयोग, तद्विषयक कंचनपुर की घटना। ४२८०,४२८१. अनशनकर्ता का व्याघात कैसे? ४२८२-८४. गच्छ को पूछे बिना अनशन करने वाले आचार्य
को प्रायश्चित्त तथा अनापृच्छा के दोष। ४२८५-६४.
अनशनकर्ता की गच्छ, आचार्य तथा अन्य अनशनकत्ता का गच्छ, मुनियों द्वारा परीक्षा, कोंकणक तथा अमात्य
का दृष्टान्त। ४२६५-४३००. अनशनकर्ता की शोधि का उपाय
आलोचना।
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१४०]
व्यवहार भाष्य
४३०१. आलोचना के गुण। ४३०२-१०. ज्ञान, दर्शन, चारित्र संबंधी अतिचारों की
आलोचना। ४३११-१५. अनशनकर्ता के लिए प्रशस्तस्थान का निर्देश। ४३१६-१६. अनशनकर्ता के लिए प्रशस्त वसति का
निर्देश। ४३२०-२३. अनशनकर्ता के लिए निर्यापकों के गुण और
कर्तव्य। ४३२४-३२. अनशनकर्ता को चरम आहार देने के गुण। ४३३३,४३३४. चरमाहार में द्रव्य-संख्या की परिहानि। ४३३५-३७. अनशनकर्ता के प्रति प्रतिचारकों का कर्तव्य। ४३३८-४१. प्रतिचारक और प्रतिचर्य के महान निर्जरा कब?
कैसे? ४३४२-४४. अनशनकर्ता के लिए संस्तारक का स्वरूप। ४३४५,४३४६. अनशनकर्ता का उद्वर्तन विषयक विवेक। ४३४७-५६. अनशनकर्ता को समाधि उत्पन्न करने के
उपाय। ४३६०-७०. अनशनकर्ता द्वारा आहार-पानी मांगने पर
प्रतिचारकों का कर्त्तव्य। ४३७१-७३. अनशनकर्ता को आहार के बिना समाधि न
होने पर आहार देने का निर्देश। ४३७४-७६. कालगत अनशनकर्ता का चिह्रकरण, प्रकार
और विधि। ४३७७-८०. भक्तपरिज्ञा अनशन में व्याघात आने पर
गीतार्थ द्वारा प्रयुक्त उपाय। ४३८१-६०. व्याघातिम बालमरण के हेतु। ४३६१. इंगिनीमरण अनशन और पांच तुलाएं। ४३६२-६४. भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण में अन्तर । ४३८५-६८. पादोपगमन (प्रायोपगमन) अनशन का स्वरूप
और विधि। ४३६६. प्रायोपगमन अनशनकर्ता के भेदविज्ञान का
चिन्तन। ४४००.
प्रायोपगमन अनशनकर्ता के मेरु की भांति
अप्रकंपध्यान। ४४०१. प्रायोपगमन अनशनकर्ता की अर्हता। ४४०२, ४४०३.अनशनकर्ता के देव और मनुष्यों द्वारा
अनुलोम-प्रतिलोम द्रव्यों का मुख में प्रक्षेप और
उसका विवरण। ४४०४. अनशनकर्ता का संहरण।
४४०५. अनशनकर्ता की फलश्रुति। ४४०६. अनशनकर्ता को अनुलोम उपसर्गों में सम रहने
का निर्देश। ४४०७, ४४०८. पूर्वभव के प्रेम से देवता द्वारा अनशनकर्ता
का संहरण। ४४०६-१३. पुरुषद्वेषिणी विभिन्न गुणकलित राजकन्या द्वारा
बत्तीस लक्षणधर अनशनी का ग्रहण तथा
उसके द्वारा की जाने वाली चेष्टाएं। ४४१४-१६. अनशनी के अचलित होने पर उस कन्या द्वारा
शिला-प्रक्षेप तथा अनशनी के महान निर्जरा। ४४१७,४४१८. मुनि सुव्रतस्वामी के शिष्य स्कन्दक कां
वृत्तान्त। ४४१६,४४२०. श्वापदों द्वारा खाए जाने पर तथा अग्नि से
जलाए जाने पर भी पादपोपगत का
अविचलन। ४४२१,४४२२. चिलातिपुत्र की सहनशीलता के समान
प्रायोपगमन अनशनकर्ता की सहनशीलता। ४४२३-२६. प्रायोपगमन अनशनी के निष्प्रतिकर्म का
कालायवेसी, अवंतीसुकुमाल आदि अनेक
दृष्टान्तों से समर्थन। ४४३०,४४३१. आचार्य भद्रबाहु द्वारा नियूंढ पांच व्यवहारात्मक
श्रुत। ४४३२,४४३३. श्रुतव्यवहारी कौन? ४४३४,४४३५. कल्प और व्यवहार की नियुक्ति का ज्ञाता ही
श्रुतव्यवहारी। ४४३६. कल्प और व्यवहार का निर्वृहण क्यों?, श्रुत
व्यवहारी का स्वरूप। ४४३७-३६. आज्ञाव्यवहारी का स्वरूप और विवरण। ४४४०-४४५८ दूरस्थ आचार्य के पास आलोचना करने की
विधि में आज्ञाव्यवहार का निर्देश तथा शिष्य
की परीक्षा-विधि। ४४५६,४४६०. आलोचना के अठारह स्थान। ४४६१-६७. दर्पप्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना के विविध
विकल्प। ४४६८-४५०२. दर्प प्रतिसेवना और कल्पप्रतिसेवना के ३४
प्रकार की आलोचना का क्रम। ४५०३-४५०६. धारणा के एकार्थक तथा उनके व्युत्पत्तिलभ्य
अर्थ। ४५०७-११. धारणा व्यवहार किसके प्रति?
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विषयानुक्रम
४५१२-२०. धारणा व्यवहार प्रयोक्ता की विशेषताएं। ४५२१.४५२२. जीत व्यवहार का स्वरूप।
४५२३.
जीतव्यवहार कब से? शिष्य का प्रश्न। ४५२४, ४५२५. प्रथम संहनन, चतुर्दश पूर्वधरों की व्यवच्छिति के साथ व्यवहार चतुष्क का लोप मानने वालों का निराकरण और प्रायश्चित्त ।
४५२६, ४५२७ जंबूस्वामी के निर्माण के बाद १२ अवस्थाओं का व्यवच्छेद।
४५२६८
४५२६,४५३०. व्यवहार चतुष्क के धारकों का विवरण।
४५३१.
चौदहपूर्वी के व्यवच्छेद होने पर व्यवहार चतुष्क का व्यवच्छेद मानना मिथ्या ।
४५३२.
४५३३-४६.
४५५०-५३.
४५५४-६६.
तित्थोगाली में सूत्रों के व्यवच्छेद का विवरण । जीत व्यवहार के विविध प्रयोग ।
पांच प्रकार के व्यवहारों का गुणोत्कीर्तन | चार प्रकार के पुरुष - अर्थकर, मानकर, उभयकर, नोउभयकर का विवरण तथा शक राजा का दृष्टान्त । चार प्रकार के पुरुष-गणार्थकर आदि तथा राजा का दृष्टान्त ।
४५७१,४५७२. चार प्रकार के पुरुष गणसंग्रहकर आदि । ४५७३,४५७४. चार प्रकार के पुरुष - गणशोभकर आदि । ४५७५,४५७६. चार प्रकार के पुरुष - गणशोधिकर आदि । ४५७७-८०. लिंग और धर्म के आधार पर चार प्रकार के पुरुष ।
४५८१-८४. गणसंस्थिति और धर्म के आधार पर चार प्रकार के पुरुष
प्रियधर्म और धर्म के आधार पर पुरुषों के
४५६७-७०
चतुर्दशपूर्वी की व्यवच्छित्ति होने पर तीन वस्तुओं का व्यवच्छेद- प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वी का परावर्तन |
४५८५-८८
चार प्रकार ।
चार प्रकार के आचार्य ।
४५८६-६४. ४५६५, ४५६६. चार प्रकार के अंतेवासी।
४५९७४६०१. तीन प्रकार की स्थविरभूमियां । ४६०२-४६०६. तीन शैक्षभूमियां ।
४६०७.
४६०८.
परिणामक के दो प्रकार आज्ञा परिणामक, दृष्टान्त परिणामक ।
आज्ञा परिणामक का विवरण ।
-
४६०६.
४६१०-१२.
श्रद्धा का उत्पादन ।
४६१३-२४. इन्द्रियावरण और विज्ञानावरण विषयक
वर्णन।
४६२५-२८. षड्जीवनिकाय में जीवत्व सिद्धि । जडु के प्रकार और विवरण ।
४६२६-३५.
४६४५.
४६४६-५१.
४६३६. जलमूक आदि व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य । ४६३७-४४. प्रव्रजित करने के विषय में व्यक्ति विशेष का
विवरण |
प्रव्रज्या की अल्पतम वय का निर्देश ।
आठ वर्ष से कम बालक में चारित्र की स्थिति नहीं, कारणों का निर्देश ।
आचारप्रकल्प निशीय के उद्देशन का
-
४६५२-५४.
४६६०.
कालमान ।
४६५५-५६ सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि आगमों के अध्ययन का दीक्षा पर्यायकाल ।
. द्वादशवर्ष पर्याय वाले मुनि को अरुणोपपात, वरुणोपपात आदि पांच देवताधिष्ठित सूत्रों का अध्ययन विहित ।
४६६१, ४६६२. अरुणोपपात आदि के परावर्तन से देवता की उपस्थिति ।
४६६३-६५. तेरह वर्ष की संयम पर्याय वाले मुनि के लिए उत्थान श्रुत आदि चार ग्रंथों का अध्ययन विहित तथा इन ग्रंथों के अतिशयों का कथन | चौदह वर्ष के संयम पर्याय वाले मुनि के लिए स्वप्नभावना ग्रंथ का अध्ययन विहित । पन्द्रह वर्ष के संयमपर्याय वाले मुनि के लिए चारणभावना ग्रंथ का अध्ययन विहित और उससे चारणलब्धि की उत्पत्ति का कथन । तेजोनिसर्ग आदि ग्रंथ के अध्ययन का संयम पर्याय काल और उन ग्रंथों का अतिशय । प्रकीर्णकों तथा प्रत्येक बुद्धों की संख्या का
४६६६.
४६६७.
[ १४१
दृष्टान्त परिणामक का स्वरूप।
दृष्टान्त परिणामक में विविध दृष्टान्तों द्वारा
४६६८-७०.
४६७१.
कथन ।
४६७४. ४६७५-८१.
४६७२, ४६०३. प्रकीर्णक को पढ़ाने से विपुल निर्जरा। आचारांग आदि अंगों के अध्ययन की विधि। दस प्रकार का वैयावृत्त्य और उनकी क्रियान्विति के तेरह पद ।
४६८२,४६८३. साधर्मिक के प्रति वैयावृत्त्य का विशेष निर्देश।
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१४२]
व्यवहार भाष्य
४६८४-८८
तीर्थंकर के वैयावृत्त्य का कथन क्यों नहीं? शिष्य का प्रश्न और आचार्य का उत्तर। दस प्रकार के वैयावृत्त्य से एकान्त निर्जरा।। ज्ञाननय और चरणनय का कथन।
४६६१. ४६६२. ४६६३.
४६८६.
नय की परिभाषा। ज्ञाननंय और क्रियानय में शुद्धनय कौन? कल्प और व्यवहार के मूल भाष्य के अतिरिक्त सारा विस्तार पूर्वाचार्य कृत। भाष्य के अध्ययन की निष्पत्ति।
४६६४.
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व्यवहार भाष्य
ववहारो ववहारी, ववहरियव्वा य 'जे जहा पुरिसा" ।
एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छंरे ॥ २. ववहारी खलु कत्ता, ववहारो होति करणभूतो उ ।
ववहरियव्वं कज्ज, कुंभादितियस्स जह सिद्धी नि.१ ॥ नाणं नाणी णेयं, अन्ना वा मग्गणा भवे तितए । विविहं वा विहिणा वा, ववणं हरणं' च ववहारो ॥ ववणं ति रोवणं ति य, पकिरण परिसाडणा य एगटुं । हारो ति य हरणं ति य, एग8 हीरते व त्ति ॥ अत्थी पच्चत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स ।
एतेण उ ववहारो, अधिगारो' एत्थ उ विहीए ॥ ६. ववहारम्मि चउक्कं , दव्वे पत्तादि 'लोइयादी वा११ ।
नोआगमतो पणगं, भावे एगट्ठिया तस्स, दारं ॥नि.२ ॥ ७. सुत्ते अत्थे जीते, कप्पे मग्गे तधेव नाए य ।
तत्तो य इच्छियव्वे, आयरियव्वे य२ ववहारो ॥नि.३ ।। ८. एगट्ठिया अभिहिया, न य ववहारपणगं३ इहं१४ दिहुँ ।
'भण्णति एत्थेव तयं"५, दट्ठव्वं अंतगयमेव ॥ आगमसुताउ सुत्तेण, सूइया अत्थतो उ ति-चउत्था । बहुजणमाइण्णं पुण, जीतं उचियं ति एगटुं ॥ दद्दुरमादिसु१६ कल्लाणगं, तु विगलिदिएसऽ भत्तट्ठो ।
परियावण एतेसिं, चउत्थमायंबिला होति ॥ ११. अपरिण्णा८ कालादिसु, अपडिक्कंतस्स निध्विगतियं तु ।
निविगतिय९ पुरिमड्डो, अंबिल खमणा२० य आवासे ॥
i
पाठांतरं जे जहा काले (म)। भाष्यकृदेतदाह (मवृ)। वि य (अ.स)। विविहो (अ)। धरणं (अ, स)।
०सायणा (स)। ७. एक्कट्ठ (अ.स)। ८. एकस्सत्ति सूत्रे षष्टी पंचम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ)।
अहि० (ब)। १०. चउक्के (ब, स)।
११. ०यादिया (अ), ०यादीया (स)। १२. व(ब)। १३. ववहारे० (अ)। १४. इदं (ब)। १५. आभण्णति एत्येव (स)। १६. मकारोऽलाक्षणिकः प्राकृतत्वात् (म)। १७. ०दिए अभत्तट्ठो (स)। १८. सूत्रे विभक्तिलोप आर्षत्वात् (मवृ)। १९. निवित्तिय () निव्वीतिय (ब)। २०. खवणा (स)।
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२
]
व्यवहार भाष्य
१२. जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराएँ अविरुद्धं ।
जोगा य' बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ ॥दारं ॥ दव्वम्मि लोइया खलु, लंचिल्ला भावतो उ मज्झत्था । उत्तरदव्वर अगीता, गीता वा लंचपखेहि ॥ नि.४ ॥ पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेवऽवज्जभीरू य । सुत्तत्थ-तदुभयविऊ, अणिस्सियववहारकारी य ॥नि.५ ॥ पियधम्मे' दढधम्मे, य पच्चओ होइ गीतसंविग्गे । रागो उर्फ होति निस्सा, ‘उवस्सितो दोससंजुत्तो" ॥ अहवा आहारादी, दाहिइ मज्झं तु एस निस्सा उ । सीसो पडिच्छिओ वा, होति उवस्सा कुलादी वा ॥दारं ।। लोए चोरादीया, दव्वे भावे विसोहिकामा उ । जाय-मयसूतगादिसु, निज्जूढा 'पातगहता य९ ॥नि.६ ॥ फासेऊण अगम्मं, भणाति सुमिणे गतो अगम्मं ति ।
एमादि लोगदव्वे, उज्जू११ पुण होति भावम्मि ॥नि.७ ॥ ___ परपच्चएण१२ सोही, दव्युत्तरिओ३ उ१४ होति एमादी५ ।
गीतो व६ अगीतो वा, सब्भावउवट्ठितो भावे ॥नि.८॥ अवंकि अकुडिले ८ यावि, कारणपडिसेवि तह य आहच्च ।
पियधम्मे य बहुसुते, बिढ़ियं उवदेस पच्छित्तं ॥नि.९ ॥ २१. आहच्च कारणम्मि य२९, सेवंतो अजयणं सिया कुज्जा ।
एसो विर होति भावे, किं पुण जतणाएँ सेवंतो२२ ॥ २२. 'पडिसेवितम्मि सोधि'२३, काहं आलंबणं कुणति जो उ ।
सेवंतो वि अकिच्चं, ववहरियव्वो स खलु भावे२४ ॥
व (ब, अ)। २. °दव्वे (आ),°दव्वेग (ब), द्रव्यशब्दोऽत्राप्रधानवाची (मव)। ३. लंचपासेहिं (अ, स)। ४. दिढ (ब)। ५. धम्मो (ब)। ६. य (ब)। ७. 'स्सिए देस (अ)। ८. "छत्तो (अ)। ९. पायगहणंतो (ब), पायकहता उ(स)। १०. भणेति (ब)। ११. सामान्यविवक्षायामेकवचनं (मव) । १२. परमच्च (ब)
१३. ०त्तरिते (ब), 'त्तरितो ()। १४. वा (ब)। १५. पढमादी (अ)। १६. उ(ब)। १७. छंद की दृष्टि से यहां अवंकि पाठ स्वीकृत किया है। १८. अकुविले (अ)। १९. बहुस्सुते (स)। २०. x (ब)। २१. व (ब)। २२. सेवितो (अ), सेवित्ता (स)। २३. °सेविय विसोही (ब)। २४. भावो (अ)।
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पीठिका
२३. अधवा कज्जाकज्जे, जताऽजतो वावि सेवितुं साधू ।
सब्भावसमाउट्टो, ववहरियव्वो हवइ भावे ॥ २४. निक्कारण पडिसेवी, कज्जे निद्धंधसो य अणवेक्खो ।
देसं वा सव्वं वा, गहिस्सं दव्वतो एसो ॥ २५. सो वि हु ववहरियव्वो, अणवत्था वारणं तदन्ने यं ।
घडगारतुल्लसीलो', अणुवरतोसन्न मज्झत्ति ॥ २६. पियधम्मो जाव सुयं, ववहारण्णा उ जे समक्खाता ।
सव्वे वि जहुद्दिठ्ठा, ववहरियव्वा य ते होंति ॥ अग्गीतेणं. सद्धिं, ववहरियव् न चेव पुरिसेणं ।
जम्हा सो ववहारे, कयम्मि सम्म न सद्दहति ॥ २८. दुविहम्मि वि ववहारे, गीतत्थो पट्ठविज्जती जं तु ।
तं सम्म पडिवज्जति, गीतत्थम्मी गुणा चेव ॥ २९. सच्चित्तादुप्पण्णे, गीतत्था सति दुवेण्ह गीताणं ।
एगतरे उ निउत्ते, सम्मं ववहारसद्दहणा ॥ ३०. गीतो यऽणाइयंतो"२, छिंद तुमं चेव छंदितो१३ संतो४ ।
कहमंतरं ठावेति, तित्थगराणंतरं५. संघ ॥ ३१. पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गे चेव जे उ पडिवक्खा'६ ।
ते वि हु ववहरियव्वा, किं पुण जे तेसि पडिवक्खा ॥ ३२. बितियमुवएस अवंकादियाण८ जे होति तु९ पडिवक्खा ।
ते वि हु ववहरियव्वा, पायच्छित्ताऽऽभवंते य ॥ ३३. उवदेसो उ अंगीते, दिज्जति बितिओ उ सोधि२० ववहारो ।
गहिते वि२१ अणाभव्वे, दिज्जति बितियं तु पच्छित्तं ॥ दारं ॥
सेवितं (अ)।
विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् (मवृ)। ३. निद्धंधसो देशीवचनमेतद् अकृत्यं प्रतिसेवमानो (मवृ)।
व्व (अ.स)।
सील (अ.स)। अणवर उस्सन्न (ब), अणवर तुस्सण्ण (स)। मज्झम्मि (अ), मज्झं तु (स)।
तेणिं (अ), छंद को दृष्टि से ग द्वित्व हुआ है।
पाठांतरं पण्णविज्जइ (म)। १०. ०वज्जसि (अ) ११. निवत्ते (ब)।
१२. णाइतंतो (अ)। १३. छिंदितो (अ.स)। १४. सत्तो (ब)। १५. गरेणंतरं (अ, ब)। १६. ०वक्खो (अ)। १७. मकारोऽलाक्षणिकः द्वितीयं मतान्तरमित्यर्थः (मव)। १८. मवंका० (ब)। १९. तू ()। २०. सो वहु (आ), सो वि (ब)। २१. व (आ, य (ब)।
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४
]
व्यवहार भाष्य
३४. पायच्छित्तनिरुत्तं, भेदा जत्तो' परूवणपुहत्तं ।
अज्झयणाण विसेसो, 'तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो ॥दारं ॥नि.१० ॥ ३५. पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेण ।
पाएण वा वि चित्त, विसोहए' तेण पच्छित्तं ॥नि.११ ॥ पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा । पलिउंचणा चउत्थी, पायच्छित्तं चउद्धा उ ॥दारं ॥नि.१२ ।। पडिसेवओ६ य° पडिसेवणा य पडिसेवितव्वगं चेव । एतेसिं तु पयाणं", पत्तेय परूवणं वोच्छं ॥दारं ॥नि.१३ ।। पडिसेवओं सेवंतो, पडिसेवण मूलउत्तरगुणे य ।
पडिसेवियव्वदव्वं, रूविव्व सिया अरूविव्व ॥नि.१४ ।। ___ पडिसेवणा तु भावो, सो पुण कुसलोव होज्जऽकुसलो १ वा ।
कुसलेण होति कप्पो, अकुसलपरिणामतो २ दप्पो ॥नि.१५ ॥ नाणी न विणा नाणं१३, णेयं पुण तेसऽणनमन्नं च४ । इय दोण्हमणाणत्तं५, भइयं पुण सेवितव्वेण ॥ मूलगुण-उत्तरगुणे, दुविहा पडिसेवणा समासेणं । मूलगुणे पंचविहा, पिंडविसोहादिया इयरा ॥ सा पुण अइक्कम ६ वइक्कमे७ य अतियार तह अणायारे ।
संरंभ८ समारंभे, आरंभे रागदोसादी ॥ ४३. आधाकम्मनिमंतण९, पडिसुणमाणे२० अतिक्कमो होति ।
पदभेदादि वतिक्कम२९, गहिते ततिएतरो गिलिए ॥दारं ॥ ४४. तिनि य२२ गुरुकामा सा, विसेसिया तिण्ह व अहरे३गुरुअंते ।
एते चेव उ२४ लहुया, विसोधिकोडीय५ पच्छित्ता ॥
१. जत्ते (ब), जुत्तो (अ)। २. परूवणाबहुलं (B)। ३. परिसाइ (स)।
अत्र चित्तशब्देन जीवोऽभिधीयते (मवृ)। ५. सोहए य (अ.स)। ६. सेवितो (ब), सेवतो (अ)। ७. तु (निभा ७३)। ८. तिहं पि (निभा)। ९. सेवणं (अ)। १०. ब्व (अ, स)। ११. ०अकुसलो (निभा ७४), होइ अकुसलो (स)। १२. ० पडिसेवणा (अ, निभा)। १३. णाणा यं (ब), नाणा उ (अ)।
१४. वा (ब, निभा)। १५. दोन्नम ० (अ), दोण्ह व अणा ० (निभा ७५)। १६. अविकम्म (ब)। १७. वइकम्मे (ब)। १८. सारंभ (अ.स)। १९. ० कम्मामंतण (अ, ब, स)। २०. ० माणं (ब)। २१. वइक्कमो (अ)। २२. वि (स), उ(ब)। २३. उ (ब, स)। २४. य (ब)। २५. ०कोडीए (ब)।
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पीठिका
[
५
४५. पाणिवह -मुसावाए, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे चेव ।
मूलगुणे पंचविहे, परूवणा तस्सिमा होति ॥ संकप्पो संरंभोरे, परितावकरो भवे समारंभो ।
आरंभो उद्दवतो, सव्वनयाणं पि सुद्धाणं ॥ ४७. सव्वे वि होंति सुद्धा, नत्थि असुद्धो नयो उ सट्ठाणे ।
पव्वा व पच्छिमाणं, सद्धा ण उ पच्छिमा तेसिं ॥ ४८. वेणइए मिच्छत्तं, ववहारनया उ जं विसोहिंति ।
तम्हा तेच्चिय सुद्धा, भइयव्वं होति इयरेहि ॥ ४९. ववहारनयस्साया, कम्मं काउं फलं समणुहोति ।
इति वेणइए कहणं', विसेसणे माहु मिच्छत्तं ॥ संकप्पादी ततियं, अविसुद्धाणं तु होति उ१० नयाणं ।
इयरे बाहिरवत्थु, नेच्छंताया जतो हिंसा ॥ ५१. चोएइ ‘किं उत्तरगुणा, पुव्वं५१ बहुय-थोव-लहुयं च१२ ।
अतिसंकिलिट्ठभावो, . मूलगुणे सेवते पच्छा ॥ ५२. पडिसेवियम्मि दिज्जति१३, 'पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे'१४ ।
'तेण पडिसेवणच्चिय'५ पच्छित्तं ‘वा इमं१६ दसहा ॥दारं ।। ५३. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे ।
तव-छेय-मूल-अणवट्ठया य पारंचिए चेव८ ॥दारं ॥नि.१६ ॥ ५४. आलोयण त्ति का पुण, कस्स सगासे व होति कायव्वा ।
केसु व कज्जेसु भवे, गमणागमणादिएसुं९ तु ॥ ५५. बितिए नस्थि वियडणा, ‘वा उ'२० विवेगे तथा विउस्सग्गे ।
आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते२१ य केसिंचि ॥
१.
पाण
पाण० (स)। सारंभो (अब)। सुद्धाणमित्यत्र प्राकृतत्वात् पूर्वस्याकारस्य लोपो द्रष्टव्यः
सर्वनयानामप्यशुद्धानाम् (मवृ)। ४. सुद्धो (अ, ब)।
० माण उ (अ, स)। व्यवहारभाष्य की हस्तप्रतियों एवं मुद्रित टीका वाली भाष्य गाथाओं में क्रमव्यत्यय है। हस्तलिखित प्रतियों में ५१ वीं गाथा ४८ वीं के बाद है फिर ४९ एवं ५० वीं गाथा है। विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से हमने मुद्रित पुस्तक वाली गाथाओं का क्रम स्वीकृत किया है।
कवणं (अ)। ८. मकारोऽलाक्षणिक: (मवृ)।
९. तितियं (अ)। १०. न उ(ब)। ११. उत्तरगुणा किं (ब)। १२. x (अ.स)। १३. देज्जति (ब)। १४-१५. x (अ)। १६. चिमं (ब), तं चिमं (स)। १७. अणवट्ठतो (स), अणवट्ठिया (ब)। १८. नियुक्ति संक्षेपार्थः विस्तरार्थं तु प्रतिद्वारं भाष्यकृदेव वक्ष्यति
(मवृ)। १९. ठाणागम० (स)। २०. तवे (अ), वो उ(स)। २१. गीतमिति प्राकृतत्वात् षष्ठ्यर्थे प्रथमा (मवृ)।
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व्यवहार भाष्य
५६. करणिज्जेसु उ' जोगेसु, छउमत्थस्स भिक्खुणो ।
आलोयणा व पच्छित्तं, गुरुणं अंतिए सिया ॥नि०१७ ।। ५७. भिक्ख-वियार-विहारे, अन्नेसु य एवमादिकज्जेसु ।
अविगडियम्मि अविणओ, होज्ज असुद्धे व परिभोगो ॥ ५८. अन्नं च छाउमत्थो, तधन्नहा वा हवेज्ज उवजोगो ।
आलोएंतो ऊहइ, सोउं च वियाणते सोता ॥ आसंकमवहितम्मि य, होति सिया अवहिए तहिं पगतं । गणतत्तिविप्पमुक्के, विक्खेवे वावि आसंका ॥दारं ॥ गुत्तीसु य समितीसु य, पडिरूवजोगें तहा पसत्थे य । वतिक्कमें" अणाभोगे, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ॥दारं ॥नि.१८ ॥ केवलमेव अगुत्तो, सहसाणाभोगतो व ‘ण य हिंसा ।
तहियं तु पडिक्कमणं, आउट्टि तवो न वाऽदाणं ॥ ६२. पडिरूवग्गहणेणं, विणओ खलु सूइतो चउविगप्पो ।
नाणे दंसण-चरणे, पडिरूव 'चउत्थओ होति ९ ॥ ६३. काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तहा अनिण्हवणे ।
वंजण-अत्थ-तदुभए, अट्ठविधो 'नाणविणओ उ० ॥ ६४. निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य ।
उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्लपभावणे अट्ठ१ ॥ ६५. पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहिँ तिहिं य१२ गुत्तीहिं ।
एस 'उ चरित्तविणओ५३, अट्ठविहो होति नायव्वो ॥ ६६. पडिरूवो खलु विणओ, काय-वइ४-मणे तहेव उवयारे ।
अट्ठ चउव्विह दुविहो, सत्तविह परूवणा५ तस्स६ ॥ ६७. अब्भुट्ठाणं१७ अंजलि-आसणदाणं अभिग्गह-किती य ।
सुस्सूसणा य अभिगच्छणा८ य संसाहणा चेव९ ॥ अनुष्टुप् छंद की दृष्टि से उ पाठ अतिरिक्त है।
१२. उ(अ.स)। गहियम्मि (स)।
१३. चरितायारो (निभा ३५, दशनि १५९)। आशंकमिति प्राकृतत्वादाशंकायाम् (मवृ)। वक्खे वे (अ.स)।
१५. पवत्तणा (स)। ०कमे य (ब)।
६६. दशनि (२९७) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ इस प्रकार हैव्यासार्थं तु भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः प्रथमतो गुत्तीसु य समिइसु
पडिरूवो खलु विणओ, कायियजोगे य वाय-माणसिओ। य व्याख्यानयति (म)।
अट्ठ चउबिह दुविहो, परूवणा तस्सिमा होति ।। अप्पहिंसा (मवृ, मु)।
१७. ०ट्ठाण (अ.स)। ८. सूतिओ (ब)।
१८. सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् (म)। ९. चउत्थो वा होइ (अ)।
१९. दशनि (२९८) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है१०. णाणपयारो (निभा ८, दशनि १५८)।
सुस्सूसण- अणुगच्छण संसाधण काय अट्ठविहो । ११. निभा २३, दशनि १५७, उत्त. २८।३१।
१४. व्वइ (स)।
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पीठिका
६८. हित-मित-अफरुसभासी', अणुवीइभासि स वाइओ विणओ ।
एतेसिं तु विभागं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए२ ॥ वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कुणति । आयासऽ काल' चरियादिवारणं एहियहियं तु ॥ सामायारी सीदंत चोयणा' उज्जमंत संसा य ।
दारुणसभावयं चिय', वारेति' परत्यहितवादी ॥ ___ अत्थि पुण काइ चिट्ठा, इह-परलोगे य अहियया होति ।
थद्ध-फरुसत्त-नियडी, अतिलुद्धत्तं व इच्चादी ॥दारं ।। तं पुण अणुच्चसई, 'वोच्छिण्ण मितं५१ 'च भासते१२ मउयं ।
मम्मेसु अदूमंतो१३, सिया व परियागवयणेणं ॥ ७३. तं पि य अफरुस-मउयं, हिययग्गाहिं सुपेसलं भणइ ।
नेहमिव उग्गिरंतो, नयण-मुहेहिं च४ विकसंतो५ ॥दारं ॥ _ 'तं पुण१६ऽविरहे भासतिन चेव तत्तोऽपभासियं८ कुणति९ । जोएति२° तहा कालं, जह वुत्तं होइ सफलं तु ॥ अमितं अदेसकाले, भावियमविर भासियं निरुवयारं ।
आयत्तो वि न गेण्हति, किमंग पुण जो पमाणत्थो ॥ ७६. पुलं बुद्धीएँ पासित्ता, ततो२२ वक्कमुदाहरे ।
अचक्खुओ ब्व२३ नेतारं, 'बुद्धिं अन्नेसए'२४ गिरा२५ ॥दारं ।। ७७. माणसिओ पुण विणओ, दुविहो उ समासतो मुणेयव्वो ।
अकुसलमणो निरोहो, कुसलमणउदीरणं चेव ॥दारं ।। ७८. अब्भासवत्ति छंदाणुवत्तिया२६ कज्जपडिकिती२७ चेव ।
अत्तगवेसण कालण्णुया२८ य सव्वाणुलोमं च२९ ॥नि.१९ ॥
अपरुस० (स)। दशनि (२९९) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है
अकुसल मणोनिरोहो, कुसलमणउदीरणा चेव । ३. ०अकाल (ब, स)।
एहिंतधियं (अ)। चोवणं (ब)।
शंसा प्रशंसा उपवृंहणमुद्यच्छंसा (मवृ)। ७. सभावतम्मि य (अ), भावतं (स)। ८. पि य (ब), तिय (स)।
वारिति (ब)। १०. अहितिया (ब, स)। ११. वोच्छिण्णं तं (अ), ०ण्णम्मि तं (स)। १२. पभासए (अ), वि भासते (स)। १३. अडूमेंतो (स), अदूमेयंतो (ब)। १४. व (अ)। १५. संकेतो (ब)।
१६. तम्मि या (अ, ब), तं पि य (स)। १७. भासणे (ब)। १८. तत्तोऽवहासियं (ब), अवहासितं (स)। १९. कुणेति (ब)। २०. जोएइत्ति देशीवचनमेतद् निरूपयति (मवृ)। २१. भासियमवि (अ)। २२. तत्तो (अ)। २३. व (अ)। २४. बुद्धी अन्ने उ ते (अ, स)। २५. दशनि २६८। २६. परच्छंदवत्तिया (अ.स)। २७. कज्जे प ० (ब)। २८. कालण्णया (ब)। २९. व्यासार्थं तु भाष्यकृद् बिभणिषुः प्रथमतोऽभ्यासवर्तित्वं
व्याख्यानयत्राह (म)।
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८]
१.
२.
३.
४.
७९.
८०.
८१.
८२.
८३.
८४.
८५.
८६.
८७.
८८.
लाह ० (ब)।
आहार उवही (ब) :
उब० (अ, स) ।
● संभविमु० (अ)।
गुरुणोय लाभकखी', आगार - इंगिएहिं,
कालसभावाणुमता,
नाउं
अब्भासे वट्टते सया साधू । संदिट्ठो वत्ति काऊणं ॥ दारं ॥ आहारुवही उवस्सया चेव । ववहरति तहा, छंद
अणुवत्तमाणो उ ॥ दारं ॥
इह-परलोगासंसविमुक्कं कामं मोक्खाहिगारिएसुं, अविरुद्धो सो एमेव य अनिदाणं वेयावच्चं तु' होति
कायव्वं
/
विणओ
गुरुणो १२
पडकिती 'विजुज्जति ६, न कुणति सव्वत्थ तं जइ वि ॥दारं ॥ दव्वावदिमादीसुं, अत्तमणत्ते व गवेसणं' आहारादिपयाणं, छंदम्मि उ छट्ठओ सामायारिपरूवण ९, निद्देसे चेव बहुविहे " " एमेव त्ति त ति य १३, सव्वत्थऽणुलोमया एसा १४ लोगोवयारविणओ, इति एसो वण्णितो सपक्खम्मि । आसज्ज कारणं पुण, कीरति जतणा विपक्खे वि || चउधा वा पडिरूवो, तत्थे गणुलोमवयणसहितत्तं । पडिरूवकायकिरिया १५, फासणसव्वाणुलोमं १६ च ॥ नि.२० ॥ अमुगं कीरउ आमंति, भणति अणुलोमवयणसहितो उ वयणपसादादीहि य, अभिनंदति तं वई१७ गुरूणो ॥ चोदयंते १८ परं थेरा, इच्छाणिच्छे १९ य तं वई० । जुत्ता २१ विणयजुत्तस्स, गुरुवक्काणुलोमता२२ ॥
T
x (ब) ।
स वि बुज्झति (ब)।
दव्वावितिमा ० (अ) ।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. ० परूविणं (ब)।
११. बहुविविहे (ब)।
१२. गुरुणो इत्यत्र कर्त्तरि षष्ठी (मवृ)। १३. आसेतत्ति तहत्ति य (स) ।
८९. गुरवो २३ जं पभासंति२४ तत्थ खिप्पं २५ समुज्जमे । लोए किमुत उत्तरे ॥
न ऊ सच्छंदया सेया,
गविसणं (स) ।
छंदम्मि इति तृतीयार्थे सप्तमी (मवृ) ।
वयंति विणयं
दुपक्खे
तु
वि
१७. वयं (ब) ।
१८. चोयंति (अ) ।
१९. ० णिच्छिय (ब) ।
२०. व सिं (अ) ।
२१. जुत्तं (ब)।
।
॥ दारं ॥
२२. गुरुवक्खाणु ० (अ) ।
२३. गुरुवो (ब)।
२४. पसाहंति (ब) ।
२५. खिप्प (अ) ।
॥ दारं ॥
।
||
१४. ८५.८६ की गाथा अ प्रति में नहीं है।
१५. अणुलोमका० (स) ।
१६. सूत्रे सर्वानुलोममिति भावप्रधानो निर्देशः (मवृ) ।
व्यवहार भाष्य
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पीठिका
९०. जधुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आदिसती मुणी ।
तस्सा वि विहिणा जुत्ता', गुरुवक्काणुलोमता ॥दारं ।। ९१. अद्घाणवायणाए, निण्णासणयाएँ परिकिलंतस्स ।
सीसादी जा पाया, किरिया पादादऽविणओ तु ॥ जत्तो व भणाति गुरू, करेति कितिकम्म मो' ततो पुव्वं । संफासणविणओ पुण, परिमउयं वा जहा सहति ॥दारं ।। वातादी सट्ठाण, वयंति बद्धासणस्स जे खुभिया ।
खेदजओ तणुथिरया', बलं च अरिसादओ नेवं ॥दारं ।। ९४. सेतवपूर१ मे कागो१२, दिवो चउदंतपंडरो१३ वेभो ।
आमं ति१४ पडिभणंते, सव्वत्थऽणुलोमपडिलोमे५ ॥ ९५. मिणु१६ गोणसंगुलेहिं, गणेह से१८ दाढवक्कलाइंसे ।
अग्गंगुलीय वग्धं, तुद डेव गडं भणति आमं ॥ तत्थ उ पसत्थगहणं, परिपिट्टण२० छिज्जमादि वारेति ।
'ओसन्नगिहत्थाण व्य'२१, उट्ठाणादी य पुबुत्ता ॥दारं ।। ९७. जो जत्थ उ करणिज्जो, उट्ठाणादी उ अकरणे तस्स ।
होति पडिक्कमियव्वं, एमेव य वाय-माणसिए ॥ ९८. अवराहअतिक्कमणे, वइक्कमे चेव तह२२ अणाभोगे२३ ।
भयमाणे उ अकिच्चं, पायच्छित्तं पडिक्कमणं ॥दारं ।। संकिए सहसक्कारे२४ भयाउरे आवतीसु य । महव्वयातियारे य, छण्हं ठाणाण बज्झतो२५ ॥नि.२१॥
१. २.
जं जुत्तं (अ)। वुत्ता (अ, ब, स)। णिच्चासणतो य (स), निच्चासण० (अ, ब), निन्यासनतयानिरंतरोपवेशनतः (मवृ)।
५. तो (ब), मो इति पादपूरणे (मव) ।
संफरिसण ० (मु, मवृ)। ७. सत्थाणं (अ)। ८. . जत्तो (ब)। ९. ० थिरयं ()। १०. आयरिसादतो (ब)। ११. • वउ (अ)। १२. कातो (ब)। १३. ० पडुरो (मु)
१४. च (अ, ब)। १५. x (ब)। १६. मिण (ब,स)। १७. गणेहिं (ब), मिणेहि (अ), मिणाहि (स)। १८. वा (ब)। १९. ०चक्कलाई (स)। २०. परिपट्टण (ब), परिपेट्टण (अ)। २१. थाणं (ब)। २२. वह (अ)। २३. अहाभोगे (ब)। २४. सहसागारे (मु)। २५. मबज्झतो (अ)।
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१० ]
व्यवहार भाष्य
१०१.
इंडियन
१०३.
५.
१००. हित्थो व ण हित्थो मे, सत्तो भणियं व न भणियं मोसं ।
उग्गहणुण्णमणुण्णा, ततिएरे फासे चउत्थम्मि ॥ इंदियरागद्दोसा, उ पंचमे किं 'गतो मि न गतो नि ।
छटे लेवाडादी, धोतमधोतं न वा मेति ॥ १०२. इंदियअव्वागडिया, जे अत्था अणुवधारिया' ।
तदुभयपायच्छित्तं, पडिवज्जति भावतो ॥ सद्दा सुता बहुविहा, तत्थ य केसुइ गतो मि रागं तिः ।
अमुगत्थ मे वितक्का", पडिवज्जति तदुभयं तत्थ ॥ १०४. एमेव सेसए१ वी, विसए आसेविऊण जे पच्छा ।
काऊण एगपक्खे, न तरति तहियं तदुभयं तु ॥दारं ।। उवयोगवतो सहसा, भएण वा पेल्लिते१२ कुलिंगादी ।
अच्चाउरावतीसु य, अणेसियादी-गहण-भोगा ॥दारं ॥ १०६. सहसक्कार'३ अतिक्कम-वतिक्कमे चेव तह अतीयारे१४ ।
भवति च सद्दग्गहणा, पच्छित्तं तदुभयं तिसु वि दारं ॥ १०७. अतियारुवओगे१५ वा, एगतरे तत्थ होति आसंका ।।
नवहा जस्स विसोही, तस्सुवरि छण्ह बझं तु ॥दारं ॥ १०८. कडजोगिणा तु गहियं, सेज्जा-संथार ६-भत्त-पाणं वा ।
अफासु-अणेसणिज्ज', नाउ८ विवेगो ,उ पच्छित्तं ॥नि.२२ ।। १०९. पउरण्ण-पाणगामे, कि 'साहूण ठंति५९ सावए२ पुच्छा ।
नत्थि वसहि२१ त्ति य कता, ठिएसु२२ अतिसेसिय विवेगो ॥दारं ॥ ११०. गमणागमण-वियारे २३, सुत्ते वा सुमिण-दसणे राओ ।
नावा नदिसंतारे, पायच्छित्तं विउस्सग्गो ॥नि.२३ ॥
१. हित्थो त्ति देशीपदमेतत् हिंसितः (म)। २. तरिति (अ)। ३. कामे (ब)। ४. गत्तो त्ति न गतो मि (अ)। ५. मोत्ति (अ.स)। ६. अव्वोगडिया (स)।
० धारया (ब)। ८. केसुति (अ.स), केचिदपि (मवृ)।
१३. सहसाकारे (मु) १४. अइयारे (ब)। १५. अतियारुवया (ब)। १६. संथारं (ब) १७. अप्फास० (ब)। १८. x ()। १९. साहु न वेति (मु)। २०. भावए (अ), षष्टीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदात् श्रावकस्य (म)। २१. ०हिए (ब)। २२. थिएसुं (अ, स)। २३. विहारे (स)।
१०. व तक्का (ब)। ११. सेवए (ब)। १२. पेल्लतो (अ)।
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पीठिका
[ ११
१११. भत्ते पाणे सयणासणे य, अरहंत-समणसेज्जासु ।
उच्चारे पासवणे, पणवीसं होंति ऊसासा ॥ वीसमण असतिकाले, पढमालिय-वास संखडीए वा ।
इरियावहियट्ठाए', गमणं तु पडिकमंतस्स ॥ ११३. एमेव सेसगेसु वि, होति निसज्जाय अंतरा गमणं ।
आगमणं जं तत्तो', निरंतर गयागयं होति ॥ ११४. उद्देस-समुद्देसे, सत्तावीसं तहा अणुण्णाए ।
अटेव य ऊसासा, पट्ठवणा पडिकमणमादी ॥ ११५. पुव्वं पट्ठवणा खलु, उद्देसादी य पच्छतो होति ।
पट्ठवणुद्देसादिसु, अणाणुपुची कया किन्नु ॥ ११६. अज्झयणाणं तितयं, पुव्वुत्तं पट्ठविज्जती जेहिं ।
तेसिं उद्देसादी, पुव्वमतो पच्छ११ पट्ठवणा ॥ सव्वेसु खलियादिसु२, झाएज्जा पंचमंगलं ।
दो सिलोगे व चिंतेज्जा, एगग्गो वावि तक्खणं ॥ ११८. बितियं पुण खलियादिसु, उस्सासा 'तह यहोति १२सोलसया ।
ततियम्मि उ बत्तीसा, चउत्थएँ'५ 'न गच्छते"६ अन्नं ॥ ११९. पाणवध'७-मुसावादे, अदत्त-मेहुण-परिग्गहे सुमिणे ।
सयमेगं ति अणूणं, 'ऊसासाणं भवेज्जासि१८ ॥ १२०. महव्वयाइँ झाएज्जा, सिलोगे पंचवीस वा ।
इत्थीविपरियासे तु, सत्तावीससिलोइओ९ ॥ १२१. पायसमा ऊसासा, कालपमाणेण२० होंति नायव्वा२१ ।
एतं कालपमाणं, काउस्सग्गे .मुणेयव्वं२२ ॥
१२. ०याईसु (ब)। १३. होंति तह य (अ)। १४. सोलस्स (अ.स)। १५. चउत्थम्मि (स)।
१. पणु० (अ.स)। २. यट्ठीए (ब)। ३. एसेव (ब)।
अंतरे (ब)। ५. ततो (ब)। ६. होति (स)। ७. उ(स)। ८. ०द्देसादीण (अ, स)। ९. तिगयं (अस)। १०. पट्टवेज्जती (ब)। ११. पुव्व (अ)।
१७. पाणि (अ)। १८. ०साणब्भवे० (अ)। १९. सिलोतितो ()। २०. कालमाणेण (ब)। २१. कायव्वा (अ, स)। २२. मुणे एवं (ब)।
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१२ ]
व्यवहार भाष्य
१२४.
१
२६.
१२२. कायचेटुं निलंभित्ता', मणं वायं च सव्वसो ।
वट्टतिर 'काइए झाणे, सुहमुस्सासवं मुणी ॥ १२३. न विरुझंति 'उस्सग्गे, झाणे 'वाइय-माणसा५ ।
तीरिए पुण उस्सग्गे, तिण्हमण्णतरं सिया ॥ मणसो एगग्गत्तं, जणयति देहस्स हणति जड्डुत्तं ।
काउस्सग्गगुणा खलु, सुह-दुहमज्झत्थया चेव ॥दारं ॥ १२५. दंडग्गहनिक्खेवे", आवस्सियाय निसीहियाए य ।
गुरुणं च अप्पणामे, पंचराइंदिया होति ॥ वेंटियगहनिक्खेवे१, निट्ठीवण१२ आतवा उ छायं च ।
थंडिल्लकण्हभोमे, गामे राइंदिया पंच ॥ १२७. एतेसिं३ अण्णतरं, निरंतरं अतिचरेज्ज तिक्खत्तो ।
निक्कारणमगिलाणे, पंच उ राइंदिया ४ छेदो ॥ १२८. हरिताले हिंगुलए५, मणोसिला अंजणे य लोणे य ।
मीसग पुढविक्काए, जह उदउल्ले१८ तधा मासो ॥ १२९. सज्झायस्स अकरणे, काउस्सग्गे१९ तहा 'य पडिलेहा २० ।
पोसहिय-तवे य तधा, अवंदणा२१ चेइयाणं२२ च ॥नि.२४ ।। सुत्तत्थपोरिसीणं, अकरणें मासो उ होति 'गुरु-लहुगो २३ ।
चाउक्कालं पोरिसि, उवाइणं२४ तस्स चउलहुगा ॥दारं ।। १३१. जइ उस्सग्गे न कुणति२५, तति मास निसण्णए२६ निवण्णे य ।।
सव्वं चेवावासं२५, न कुणति तहियं 'चउलहुं ति२८ ॥दारं ।।
१. निरुभेत्ता (ब)। २. वट्टते (अ)। ३. कायज्झाणे (अ, ब)।
उस्सग्गज्झाणा (ब)। ५. कातिय माणसा (अ, स) सूत्रे च द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात्
(मवृ)। ६. जणति (अ, स)। ७. निक्खेवा (अ)। ८. आवसियाए (मु)।
निसीहिया (अ, स)।
चउराई ० (ब)। ११. बेंदिय ० (स)। १२. निट्ठसणा (ब), निट्ठहणे (अ, स)। १३. एसेसिं (अ)। १४. रायंदिया (ब)।
१५. हिंगुलुए (ब)। १६. मीसीग (ब)। १७. पुढविकाए (ब)। १८. उदल्ले (अ)। १९. कायोत्सर्गस्य सूत्रे सप्तमी षष्ठीसप्तम्योरथं प्रत्यभेदात् (मवृ)। २०. अपडिलेहे (स), लेहे (आ, पडिलेहा इति विभक्तेरत्र लोपः
प्राकृतत्वात् (मवृ)। २१. वंदणे (ब), अवंदणे (अ)। २२. चेईयाणं (ब)। २३. लहुगुरुओ (अ, स)। २४. उवातिणं (ब)। २५. कुणती (ब)। २६. निसज्जए (ब)। २७. ०वस्स (मु)। २८. ०लहुत्ते (ब)।
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पीठिका
[ १३
१३४.
१३२. चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंच उ जहन्ने ।
उवहिस्स अपेहाए', एसा खलु होति आरुवणा ॥ चउ-छट्ठट्ठमऽकरणे', अट्ठमि-पक्ख चउमास-वरिसे य । लहु-गुरु-लहुगा गुरुगा, अवंदणे चेइराधूणं ॥ “एतेसु तिठाणेसुं', भिक्खू जो वट्टती पमादेणं ।
सो मासियं ति लग्गति, उग्घातं वा अणुग्घातं ॥नि.२५ ॥ १३५. छक्काय चउसु लहुगा, परित्तलहुगा य गुरुग साहारे ।
संघट्टण परितावण', लहु-गुरुगऽतिवायणे मूलं ॥दारं ॥नि.२६ ॥ पडिसेवणं विणा खलु, संजोगारोवणा न विज्जति ।
माया चिय पडिसेवा, अइप्पसंगो य इति एक्कं ॥दारं ॥नि.२७॥ १३७. एगाधिगारिगाण वि, नाणत्तं केत्तिया व दिज्जति ।
आलोयणाविही वि य. इय नाणत्तं चउण्हं पि ॥ १३८. सेज्जायरपिंडे या, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे११ य ।
आहाकम्मे य • तहा, सत्त उ सागारिए मासा ॥ १३९. रण्णो आधाकम्मे, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे१२ य।
दसमास रायपिंडे१३, उग्गमदोसादिणा चेव ॥दारं ।। १४०. पंचादी आरोवण'नेयव्वा जाव होति छम्मासा ।
तेण पणगादियाणं, छण्हुवरिं१६ झोसणं कुज्जा ॥दारं ।।नि.२८ ॥ १४१. किं कारणं न दिज्जति, छम्मासाण परतो उ आरुवणा ।
भणति गुरू पुण८ इणमो, ‘जं कारण१९ झोसिया सेसा ॥ १४२. आरोवणनिप्फण्णं२९, छउमत्थे जं जिणेहिँ उक्कोसं ।
तं तस्स उ तित्थम्मी२१, ववहरणं धनपिडगं२२ वा२३ ॥नि.२९ ।।
१. उपेहाए (ब)। २. 8 अकरणे (अ, स)। ३. एतेसु तिसु ठाणेसु (ब), एतेसुं ठाणेसु (अ, स)।
वट्टति (ब)। ५. ०वणु (ब)। ६. वादणे (ब)। ७. दिज्जति (अ.स)। ८. वियं (अ)। ९. एक्काधि० (अ)। १०. कित्तिया (ब)। ११,१२. अभिकडे (ब)। १३. पिंडे य (ब)। १४. यारो० (अ)।
१५. परमासियाणं (अ, स), परमातियाणं (ब)। १६. छिण्हु० (अ) १७. सणति (ब)। १८. मुण (अ.स)। १९. अत्र हेतौ प्रथमा (मवृ)। २०. निष्फण्णा (स)। २१. म्मि (ब), म्मिं (स)। २२. पिडगा (ब)। २३. यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में है किन्तु मुद्रित टीका में उड़त
गाथा के रूप में है।
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१४ ]
व्यवहार भाष्य
१४३. जो जया पत्थिवो होति, सो तदा धनपत्थगं ।
ठावितेऽन्नं पुरिल्लेणं, ववहरते य दंडए ॥दारं ।। १४४. संवच्छरं तु पढमे, मज्झिमगाणऽट्ठमासियं होति ।
छम्मास पच्छिमस्स उ, माणं भणियं तु उक्कोसं ॥ १४५. पुणरवि चोएति ततो, पुरिमा चरमा य विसमसोहीया ।
किह सुझंती ते ऊ, चोदग ! इणमो सुणसु वोच्छं ॥ १४६. कालस्स' निद्धयाए, देहबलं धितिबलं च जं पुरिमे ।
तदणंतभागहीणं, कमेण जा पच्छिमा अरिहा ॥ १४७. संवच्छरेणावि न तेसि आसी, जोगाण हाणी दुविहे बलम्मि ।
जे याविधिज्जादि अणोववेया', तद्धम्मया सोधयते ‘त एव'११ ॥ १४८. पत्थगा१२ जे पुरा आसी, हीणमाणा उ तेऽधुणा ।
माण भंडाणि धन्नाणं, सोधिं जाणे तहेव उ ॥ १४८/१. जो जया पत्थिवो होति, सो तदा धनपत्थगं ।
ठावितेऽन्नं पुरिल्लेणं, ववहरते य दंडए१३ ॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे पलिउंचणा चउविगप्पा ।
चोदग ! कप्पारोवण, इहइं१४ भणिता पुरिसजाया'५ ॥दारं ॥नि.३० ॥ १५०. ‘सच्चित्ते अच्चित्तं १६, जणवयपडिसेवितं तु१७ अद्धाणे ।
सुब्भिक्खम्मि दुभिक्खे, हटेण तधा गिलाणेणं१८ ॥ कप्पम्मि वि पच्छित्तं, ववहारम्मि वि तमेव पच्छित्तं । कप्पव्ववहाराणं, को णु विसेसो त्ति चोदेति ॥
१५१.
१. ठावेत.()। २. डंडए (अ), यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है। ३. ०ट्ठम्मासितं (अ)
मुणसु (स, ब)। काले (अ.स)। निद्धे ओसधि (ब, स)।
पुरिसे (अ)। ८. धीयादि (अ.स), धैर्यादि (मव)। ९. अणोविवेया (ब)। १०. ते धम्मया (अ), ते धम्म वा (स)। ११. तहावि (अ), तधा वि (स)। १२. पच्छगा (अ)।
१३. सभी हस्तप्रतियों में १४८वीं गाथा के बाद (जो जया... १४३
वीं गाथा का पुनरावर्तन हुआ है। किन्तु हमने इस गाथा को
भाष्य गाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। १४. इं इति पादपूरणे 'इजेराः पादपूरणे' इति वचनात् सानुस्वारता
प्राकृतत्वात् (म)। इस गाथा के बाद अ और स प्रति में एक गाथा अतिरिक्त मिलती है किन्तु वृत्ति में इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं है । छंद की दृष्टि से भी यह गाथा संगत नहीं है
दव्वम्मि सच्चित्तं, पडिसेवंते वि अच्चित्तं ।
खेत्ते जणवय सेवियं तु अद्धाणे सेवियं वेति ।। १६. सचित्ते अचित्तं (ब)। १७. व (ब)। १८. मिलाणं वा (ब)।
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पीठिका
[ १५
५३.
१५२. जो अवितहववहारी, सो नियमा वट्टते तु कप्पम्मि ।
इति' वि हु नत्थि विसेसो', अज्झयणाणं दुवेण्हं पि नि.३१॥ कप्पम्मि कप्पिया खलु, मूलगुणा चेव उत्तरगुणा' य ।
ववहारे ववहरिया, पायच्छित्ताऽऽभवंते य ॥ १५४. अविसेसियं च कप्पे, इहइं तु विसेसितं इमं चउधा ।
पडिसेवण संजोयण, आरोवण कुंचियं० चेव ॥ १५५. नाणत्तं दिस्सए अत्थे, अभिन्ने वंजणम्मि वि ।
वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न भिज्जति ॥ १५६. 'पढमो त्ति इंद-इंदो'११, बितीयओ२ होइ इंद-सक्को त्ति ।
ततिओ गो-भूप१३-पसू, 'रस्सी चरमो घड-पडो त्ति४ ॥ १५७. वंजणेण य नाणत्तं, अत्थतो य विकप्पियं५ ।
दिस्सते कप्पणामस्स, ववहारस्स तधेव य ॥ १५८. वस॒तस्स अकप्पे, पच्छित्तं तस्स वणिया ६ भेदा ।
जे पुण परिसज्जाया, तस्सरिहा ते इमे७ होति ॥नि.३२ ।। कतकरणा इतरे वा, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा ।
निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी ॥नि.३३ ॥ १६०. अकतकरणा८ वि दुविहा,अणभिगता अभिगता य बोधव्वा ।
जं सेवेति अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा२० ॥नि.३४ ॥ १६१. अहवा सावेक्खितरे, निरवेक्खा सव्वसोर उ कयकरणा ।
इतरे कयाऽकया२२ वा, थिराऽथिरा२३ होति गीतत्था ॥नि.३५ ।। १६२. छट्ठट्ठमादिएहिं, कयकरणा ते उ उभयपरियाए ।
अभिगतकयकरणत्तं२४, जोगायतगारिहा२५ केई ॥
१५९.
कतकरण
र
१. इय (अ.स)। २. विसेसियं (ब)।
१४. प्रतियों में 'रस्सिणो त्ति चरमो घड-पडो त्ति' पाठ मिलता है पर
छंद की दृष्टि से 'रस्सी चरमो घड-पडो त्ति' पाठ संगत लगता
१५. सवि० (ब)। १६. वट्टिया (स)। १७. इमा (अ, ब)। १८. कयकरणा (ब)।
४. ति (अ)। ५. गुणे (ब)। ६. सेवियं (अ)। ७. वि (आ)। ८. इः पादपूरणे (म)। ९. आरुवणा (ब)। १०. लुचियं (अ, स)। ११. हस्तप्रतियों में पढमो इंदो इंदो त्ति' पाठ मिलता है किन्तु छंद
की दृष्टि से 'पढमो त्ति इंद इंदो' पाठ होना चाहिए। १२. बितियओ (ब, स)। १३. x (अ.स)।
२०. अत्था (स)। २१. नियमसो (अ,स), सव्वहा (मु)। २२. कया अकया (अ, स)। २३. थिरा अथिरा (अ, ब)। २४. ०गते कय० (अ)। २५. आयतकयोगार्हा (मव), हेतावत्र प्रथमा (मवृ)।
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१६ ]
व्यवहार भाष्य
१६३. निव्वितिए पुरिमड्ढे, “एक्कासण अंबिले चउत्थे य ।
पणगं दस पण्णरसा, वीसा तह पण्णवीसा य ॥ १६४. मासो लहुओ गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा ।
छम्मासा 'लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च ॥ १६५. पढमस्स होति मूलं, बितिए मूलं च छेदों छग्गुरुगा ।
जयणाय होति सुद्धो, अजयण गुरुगा तिविधभेदो ॥नि.३६ ।। १६६. सव्वेसिं अविसिट्ठा, आवत्ती तेण पढमता मूलं ।
सावेक्खे गुरु' मूलं, कताकते होति छेदो उ ॥ १६७. सावेक्खो ति च काउं, गुरुस्स कडजोगिणो भवे छेदो ।
अकयकरणम्मि छग्गुरु, इति अड्ढोकंतिए नेयं ॥ १६८. अकयकरणा तु गीता, जे य अगीता य अकय अथिरा य ।
तेसावत्ति० अणंतर, बहुयंतरियं व झोसो वा ॥ १६९. आयरियादी तिविधो, सावेक्खाणं तु किं कतो भेदो ।
एतेसिं पच्छित्तं, दाणं चऽण्णं अतो तिविधो २ ॥ १७०. कारणमकारणं वा, जयणाऽजयणा व नत्थिऽगीयत्थे ।
एतेण कारणेणं, आयरियादी भवे३ तिविधा ॥ कज्जाकज्ज४ जताजत, अविजाणतो अगीतों५ जं सेवे ।
सो होति तस्स दप्पो, गीते दप्पाऽजते दोसा ॥ १७२. दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि६ किमुत उत्तरिए ।
तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न य विसोही ॥ १७३. अहवा कज्जाकज्जे, जयाजयं ते य कोविदो७ गीतो ।
दप्पाऽजतो निसेवं, अणुरूवं पावए दोसं ॥ १७४. कप्पम्मि अकप्पम्मि य, जो पुण अविणिच्छितो ९ अकज्जं पि'२० ।
कज्जमिति सेवमाणो, 'अदोसवं सो'२१ असढभावो२२ ॥
१७१.
१. सणं० (ब), ० सणयंबिले (अ)। २. गुरुलहुगा (अ)। ३. अजयणा (अ)।
गुवगा (अ)। गुरौ आचायें गाथायां विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् (मवृ)।
अत्र गुरुशब्देनोपाध्यायः प्रोच्यते (मवृ)। ७. ०करणं व (अ)। ८. अड्ढोकंतेए (ब)।
अवयक० (ब)। १०. तेसामस्थि (स)। ११. मणंतर (अ)
१२. तिविधे (ब)। १३. भवे इति बहुत्वेप्येकवचनं प्राकृतत्वात् (म)। १४. कज्जमकज्जे (अ)। १५. अगीतो व्व (अ)। १६. उ(अ), तु (स)। १७. कोवितो (ब, स)। १८. निसेवे (मु)। १९. ०च्छतो (आ)। २०. x (ब)। २१. सवंतो (अ)। २२. असढे० (अ), अत्र हेतौ प्रथमा (म)।
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पीठिका
[ १७
१७५. जं वा दोसमजाणतो, हेहंभूतोरे निसेवती ।
'होज्ज निद्दोसवं केण, विजाणतो तमायरं ॥ १७६. एमेव य तुल्लम्मि वि, अवराहपयम्मि वट्टिता दो वि ।
तत्थ वि जहाणुरूवं, दलंति दंड दुवेण्हं पि ॥ एसेव' य दिलुतो, तिविधे गीतम्मि सोधिनाणत्तं ।
वत्थुसरिसो उ दंडो, दिज्जति लोए वि पुव्वुत्तं ॥ १७८. 'तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग-वाउलण-साहुणा चेव ।
पण्णवणमणिच्छंते, दिटुंतो भंडिपोतेहिं ॥नि.३७ ।। १७९. सुद्धालंभिर अगीते, अजतण करण-कहणे भवे गुरुगा ।
कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ १८० जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा तु करेति कज्जं ।
जा दुब्बला २"संठविया वि संती५३,न तं तु सीलंति विसण्णदारु४ ॥ १८१.
जो एगदेसे अदढो उ पोतो. सीलप्पए सो उ करेति कज्जं ।
जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तंत् सीलंति विसण्णदारूं ॥ १८२. संदेहियमारोग्गं५, पउणो'६ वि न पच्चलो तु जोगाणं ।
इति सेवंतो दप्पे, वट्टति न य सो तथा गीतो७ ॥ १८३. काहं अछित्ति अदुवा अधीत१९, तवोवधाणेसु य उज्जमिस्सं । गणं व 'नीइए य'२० सारविस्सं, सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ॥
इति पीठिका
१. x (ब)। २. देह० (अ), हेहंभूतो नाम गुणदोषपरिज्ञानविकलोऽशठभावः (म)। ३. निद्दोसवं केण हुज्जा (मु)। ४. डंडं (अ)। ५. एमेव (ब)। ६. उ(),तु (स)। ७. विसोहिना ० (ब)। ८. विज्जति (स)। ९. तेह वि तेइच्छम्मि (अ, स)। १०. सुद्धालभे (अ, स) सुद्धालाभे (मवृ)।
११. जयणा (अ)। १२. दुब्बली (स) । १३. संठविज्जा व संता (ब)। १४. विसिण्ण० (अ)। १५. संडेहिय० (अ)। १६. पउतो (अ)। १७. कज्जो (ब)। १८. अछित्ती य(ब), अछित्ति (स)। १९. अधीहं (स)। २०. णीए व उ (अ, स)।
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________________
प्रथम उद्देशक
१८४. दुहओ' भिन्नपलंबे, मासियसोही उ वण्णिया कप्पे ।
तस्स पुण इमरे दाणं, भणियं आलोयणविधी य ॥ १८५. एमेव सेसएसु वि, सुत्तेसुं कप्पनामअज्झयणे ।
जहि मासिय आवत्ती', तीसे दाणं इहं भणियं ॥ छ?अपच्छिमसुत्ते, जिण-थेराणं ठिती समक्खाया । तधियं पि होति मासो, अमेरतो' सो तु निष्फण्णो ॥ जे त्ति व से त्ति व के त्ति व, निद्देसा होंति एवमादीया । भिक्खुस्स परूवणया, जे त्ति कओ होति निद्देसो ॥नि.३८ ॥ नाम ठवणाभिक्खू, दव्वभिक्खू य भावभिक्खू य । दव्वे सरीरभविओ, भावेण तु संजतो भिक्खू ॥नि.३९ ॥ भिक्खणसीलो भिक्खू, अण्णे विन ते अणण्णवित्तित्ता ।
निप्पिसितेणं णातं, पिसितालंभेण सेसा उ ॥नि.४० ॥ १९०. अविहिंस बंभचारी, पोसहिय अमज्जमंसियाऽचोरा ।
सति' लंभ परिच्चाई, होति तदक्खा 'न सेसा उ० ॥ अधवा १ एसणासुद्धं, जधा गिव्हंति साधुणो'२ ।
भिक्खं नेव३ कुलिंगत्था, भिक्खजीवी 'वि ते जदि"४ ॥ १९२. दगमुद्देसियं चेव, कंद-मूल-फलाणि य ।
सयंगाहा परत्तो य, गिण्हंता किह५ भिक्खुणो६ ॥ १९३. अचित्ता एसणिज्जा य, मिता काले परिक्खिता ।
जहालद्धा विसुद्धा य, एसा वित्ती य भिक्खुणो ॥
१.
१. दुहुतो (ब), दुहतो (स)। २. इहं (अ, ब)। ३. जहिं य (ब)।
आवित्ती (स)। ५. अमेरतओ (ब)। ६. अधुना नियुक्तिकृद् विस्तरं वस्तुकाम आह (मवृ), निभा ६२७३ ।
सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तेरवसरप्राप्तः (मवृ), निभा ६२७४, दशनि (३०९) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
दव्वम्मि आगमादी, अन्नो वि य पज्जवो इणमो। .. निभा ६२७५।
९. सय (स)। १०. न पुण सेसा (निभा ६२७६) । ११. अहव वा (ब)। १२. भिक्खुणो (निभा ६२७७)। १३. नेवं (स)। १४. ति ते जती (ब), ति ते जधा (अ, स)। १५. कह (अ)। १६. तुलना-व्यभा १९२-१९६-निभा ६२७८-६२८२
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प्रथम उद्देशक
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१९४.
१९५.
१९६.
१९७.
१९८.
१९९.
२००.
२०१.
२०२.
२०३.
२०४.
२०५.
'दव्वे य भाव" भेयग, भेदण भेत्तव्वगं च तिविहं तु । नाणादि भाव-भेयण, कम्मखुधेगट्ठयं भेज्जं भिदतो यावि खुधं, भिक्खू जयमाणगो जती हो तव - संज तवस्सी, भवं खवंतो भवंतो उरे
1
नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य मासस्स परूवणया, पगतं पुण कालमासेणं ॥ नि.४३ ॥
दव्वे भविओ निव्वत्तिओ, य खेत्तम्मि जम्मि वण्णणया काले जहि वणिज्जति, नक्खत्तादी च पंचविहो नक्खत्ते चंदे या', उडु आदिच्चे य होति बोधव्वा अभिवड्ढितेय तत्तो, पंचविधो कालमासो
१.
दव्वे भावे (स) ।
२. कम्मक्खुहे० (ब), ० खहेकट्ठया (अ) ।
३.
रिक्खादी मासाणं, 'आणयणोवायकरणमिणमं
तु” ।
जुगदिरासी ठाविय", अट्ठारसयाइँ तीसाई ॥
दशनि (३१८) में यह गाथा कुछ पाठांतर के साथ मिलती है
भिदंतो यह खुधं, भिक्खू जतमाणओ जती होति । संजमचरओ चरओ, भवं खवेंतो भवंतो तु ॥
दिणकरंताणं ।
'ताधे हराहि ११ भागं, रिक्खादीयाण सत्तट्ठी बावट्ठी, गट्टी सद्विभागेहिं ॥
णिव्वित्तिओ (निभा ६२८३) ।
दीर्घत्वमार्षत्वात् (मवृ) ।
अणूणाई १४ ॥
कायव्वं I
मुव्वा ॥
अभिवड्ढितकरणं पुण ठाविय रासि इमं तु कायव्वं । उणयालीससताई १३, पणट्ठाई एतस्स भागहरणं, चउवीसेणं सत्तेण जे लद्धा ते दिवसा, सेसा भागा अहवा वि तीसतिगुणे, सेसे भइयम्मि १५ जं तु लब्भति, ते उ मुहुत्ता तस्स वि जं अवसेसं, बावट्ठीए उ तस्स गुणकार-भागहारे, बावी उ१६
तेणेव भागहारेणं ।
मुणेयव्वा ॥ गुणकारो । अववट्टो१७ ॥
उउ (ब)।
अहिव० (अ), अतिवद्धिते (स) ।
दोहिं तु हिते भागे, जे लद्धा ते बिसट्ठिभागा १८ उ 1 एतेसिमागयफलं १९, कमेण इमं २०
रिक्खादीणं
11
य (ब)।
करणमिणमं तु आणणोवाए (अ, स), मूल पाठ हमने टीका की
व्याख्या के अनुसार स्वीकृत किया है।
१०.
११.
१२.
१३.
भाविय (स) ।
ताधिं हरासि (ब) ।
० वद्धित० ( अ, ब) ।
० सतातिं (अ) ।
१४. अणूणायं (ब) ०णाईस (स) ।
१५. भतितम्मि (ब)।
॥नि.४१ ॥
।
॥नि.४२ ॥
१६.
य (स) ।
१७. उववट्टो (अ), उवउट्टो (ब)।
I
॥ नि. ४४ ।।
।
१८. x (ब) ।
१९. एतेसिं आगय० (ब)।
२०. इमो (ब), इमे (अ) ।
॥
[ १९
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________________
२०
]
व्यवहार भाष्य
२०६. अहरत्त सत्तवीसं, तिसत्तसत्तट्ठिभागनक्खत्ते ।
चंदो उ अगुणतीसं२, बिसट्ठिभागा य बत्तीसं ॥ २०७. उडुमासे तीस दिणा, आइच्चो तीस होति अद्धं च ।
अभिवड्ढितेक्कतीसा, इगवीससतं च भागाणं ॥ एक्कत्तीसं च दिणा, इगतीसमहत्त-सत्तरसभागा ।
एत्थं पुण अधिगारो, नायव्वो कम्ममासेणं ॥ २०९. मूलादिवेदगो खलु, भावे जो ‘वावि जाणओ८ तस्स ।
न हि अग्गिनाणतोऽग्गीणाणं भावे ततोऽणण्णो ॥नि.४५ ।। २१०. नामं ठवणा दविए, परिरय-परिहरण वज्जणुग्गहता ।
भावावण्णेऽसुद्धे, नव परिहारस्स नामाइं ॥नि.४६ ॥ २११. कंटगमादी दव्वे, गिरि-नदिमादीण परिरयो होति ।
परिहरण-धरण भोगे, लोउत्तर वज्ज इत्तरिए१२ ॥ २१२. खोडादिभंगणुग्गह, भावे आवण्णसुद्धपरिहारो१३ ।
मासादी आवण्णे, तेण तु पातं न अन्नेहिं ॥दारं ।। २१३. नाम ठवणा दविए, खेत्तऽद्धा, ‘उड्ढ वसहि विरती य"४. ।
संजम-पग्गह-जोहे, अचल-गणण-संधणा भावे ॥नि.४७ ॥ २१४. सच्चित्तादी दव्वे, खेत्ते गामादि अद्ध-दुविहा उ ।
सुर-नारग भवठाणं, सेसाणं काय-भवठाणं५ ॥ २१५. ठाण-निसीय-तुयट्टण१६, उड्ढादी वसहि निवसए जत्थ ।
विरती देसे सव्वे, संजमठाणा असंखा उ१८ ॥दारं ।। २१६. पग्गह 'लोइय इतरे'१९, एक्केक्को तत्थ होइ पंचविहो ।
राय-जुवरायऽमच्चे, सेट्ठी२० पुरोहिय२१ लोगम्मि२२ ॥ अहोरत्त (ब), छंद की दृष्टि से अहरत पाठ स्वीकृत किया है।
लोगे जह माता ऊ पुत्तं परिहरति एवमादी उ। २. उगुण० (अ), अउणत्तीसं (निभा ६२८४)।
लोउत्तरपरिहारो, दुविहो परिभोग धरणे य॥ ३. बिउट्ठभागा० (अ,ब)।
१३. ०हारे (निभा ६२९५)। अभिवद्धिएक० (अ, स)।
१४. उड्ढ उवरती वसही (आ, उड्डओ विरति वसही (निभा ६२९६)। एगवीस० (अ)।
१५. निभा (६२९७) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैइस गाथा का उत्तरार्ध निभा (६२८५) में इस प्रकार है
तिरियनरे कायठिती, भवठिति चेवावसेसाण । अभिवड्ढितो य मासो, पगतं पुण कम्ममासेणं ।
१६. अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् (मवृ)। निभा ६२८६ ।
१७. उद्धादी (अ,ब)। ८. वा वियाणतो (निभा ६२९१)।
१८. निभा ६२९८ । ९. गहिता (ब) वज्जणोग्गहे चेव (निभा ६२९२) ।
१९. लोतियरे य (आ। १०. भावाविण्णे (ब)।
२०. सेट्टि (ब, स)। ११. मादीसु (निभा ६२९३)।
२१. पुरोधिय (अ)। १२. तित्तिरिए (ब), इत्तिरिए (अ, स) इस गाथा के बाद टीका में लोगे २२. निभा (६२९९) में २१६ और २१७ के स्थान पर निम्न गाथा जह'... गाथा 'उक्तं च' उल्लेख के साथ, उद्धृत गाथा के रूप
मिलती हैमें दी है तथा व्याख्यात भी है। किन्तु यह हस्तप्रतियों में नहीं
रायाऽमच्च पुरोहिय, सेट्ठी सेणावती य लोगम्मि । मिलती है। निशीथभाष्य (६२९४) में यह गाथा भागा के क्रम
आयरियादी उत्तरे, पग्गहणं होइ उ निरोहो ।
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प्रथम उद्देशक
"य समपाए "
1
आयरिय उवज्झाए, पवत्ति-थेरे तहेव गणवच्छे । सो लोगुत्तरिओ, पंचविहो पग्गहो होति ॥ दारं ॥ आलीढ-पच्चलीढे, वेसाहे मंडले अचले निरेयकाले, गणणे एक्कादि जा कोडी २ ॥ दारं ॥ २१९. रज्जुयमादि अछिन्नं, कंचुयमादीण छिन्नसंधणया सेढिदुगं अच्छिन्नं, अपुव्वगहणं तु
1
भावम्मि
मीसाओ ओदइयं, गतस्स मीसगमणे पुणो अपसत्थ' पसत्थं वा, भावे पगतं तु २२१. मूलुत्तरपडिसेवा, मूले पंचविध उत्तरे एक्केक्का विय दुविहा, दप्पे कप्पे य
२१७.
२१८.
२२०.
२२२.
२२३.
२२४.
२२५.
२२६.
२२७.
५.
६.
७
८.
९.
१०. व्व (स) ।
११. विसमं च (ब) ।
१२. वि (निभा ६३०५) ।
१.
समपदे य (स, निभा ६३००) ।
२.
यावत् (मवृ)।
३. रज्जुमादि (निभा ६३०१) ।
४.
तहा पुणो (ब)।
० सत्थं (निभा ६३०२) ।
० सेवण (ब) ।
x (ब) 1
निभा ६३०३ ।
किह (ब, निभा ६३०४) ।
छिन्नं
छिन्नेण
दसधा I
नायव्वा'
||
किध भिक्खू जयमाणो, आवज्जति मासियं तु परिहारं कंटगपहे व छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो तिक्खम्मि उदगवेगे, विसमम्मि ११ व १२ विज्जलम्मि वच्चतो । कुणमाणो विपयचं, अवसो जह पावए ३ पडणं तह समण-सुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं । कम्मोदयपच्चइया१४, विराहणा कस्स हवेज्जा १५ अन्ना विहुपडि सेवा, सा तु१६ न कम्मोदएण जा जयतो १७ सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाऽजत १८ कम्मजणणी उ१९ पडिसेवणा उ२० कम्मोदएण कम्ममवि २१ तं निमित्तागं I अण्णोणउसिद्धी, तेसिं बीयंकुराणं२२ च२३
11
I
।
॥ दारं ॥
१३. पावती (निभा) ।
१४. ० पच्चतिया (निभा ६३०६) ।
१५. भवेज्जा (ब)।
॥ नि.४८ ॥
दिट्ठा खलु पडिसेवा, सा उ कहिं होज्ज पुच्छि एवं । भण्णति अंतोवरसय, बाहि व वियारमादीसु ॥
२०. वि (निभा ६३०८) ।
२१. कम्मम्मि (स) ।
२२. २३. वा (अ)।
।
||
||
11
१६. ऊ (ब)।
१७. जयतु (अ), जतणा (स, निभा ६३० ७) ।
१८. दप्पाजति (अ) !
१९. तो (ब) ।
[ २१
बीजांकुरयोरिव गाथायां द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
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२२ ]
१.
२.
३.
४.
२२८.
२२९.
२३०. -
२३१.
२३२.
२३३.
२३४.
२३५.
२३६.
२३७.
पडिसेविऍ दप्पेणं, कप्पेणं वावि 'अजतणाए उ” 1 न वि णज्जति वाघातो, कं वेलं होज्ज जीवस्स 11 तं न खमं खु पमातो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं । आयरियपादमू 'गंतूण समुद्धरे " सल्लं ॥
नहु सुज्झती ससल्लो, जह भणियं सासणे जिणवराणं । उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झति जीवो धुकलेसो ॥
अहगं च सावराधी', आसो विव पत्थितो गुरुसगासं । इयग्गा संखडि, 'पत्ते आलोयणा" तिविहा ॥ नि. ४९ ॥ सिग्घुज्जुगती आसो', अणुयत्तति" सारहिं न अत्ताणं । इय संजममणुयत्तति, वइयादि ११ अवंकितो साधू ॥ आलोयणापरिणतो, सम्मं संपद्धितो १२ गुरुसगासं । जदि अंतरा उ१३ कालं, 'करेति आराहओ सो उ१४ पक्खिय चउ संवच्छर, उक्कोसं बारसह समणुण्णा आयरिया, फड्डगपतिया १६
॥
1
तं पुण ओह - विभागे १७, दरभुत्ते ओह जाव भिन्नो उ तेण परेण विभागो, 'संभम-सत्थादि भयणा उ १९ ॥ नि. ५१ ॥ ओहेणेगदिवसिया, विभागतो एगऽणेग २१ दिवसा उ 'रत्तिं च २२ दिवसतो वा, विभागतो ओघतो दिवसं २३ ॥ नि.५२ ॥ विभागओ २४ अपसत्थे, दिणम्मि रत्तिं विवक्खतो वावि
1
1
आदिल्ला दोणि भवे, विवक्खतो होति ततिया उ२५ ॥ नि. ५३ ॥
० णाओ (ब) ।
मातो इति अत्र दकारस्य लोपः प्राकृतत्वात् प्रमादतः (मवृ)। आसिड (मु) ।
गंतूणं उद्धरे (निभा ६३०९) ।
० राही (ब)।
इव (निभा ६३१०) ।
पच्छितो (अ), पच्छिउं (ब) ।
पत्तेयालो ० (स) ।
वासो (ब) ।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. अणुवत्तति (निभा ६३११) ।
११. वतियादि (अ) ।
१२. संपत्थितो (मु) ।
१३. य (ब) ।
१४. करेज्ज आराहओ तह वि (निभा ६३१२) ० हओ सो वि (ब)।
।
वरिसाण १५ विगडेंति ॥ नि.५० ॥
व्यवहार भाष्य
१५. द्वादशभिवर्षैः सूत्रे षष्ठी तृतीयार्थे (मवृ)।
१६. उ (अ), वि (निभा ६३१३) ।
१७. ओहविभागे इति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी (मवृ)।
१८. तेनेत्यव्ययमनेकार्थत्वात् तत इत्यर्थे द्रष्टव्यम् (मवृ)।
१९. ० सत्थादिसुं भइतं (निभा ६३१४) अ और स प्रति में इस गाथा के बाद अप्पा मूल... (गा. २३८) है। उसके बाद ओहेणेग.. (गा. २३६) विभागओ... (गा. २३७) गाथाएं हैं।
२०. ओहे एगदि० (निभा ६३१५) ।
२१. णेग एग (अ)
२२. रतिं पि (निभा), रात्रौ वा गाथायां द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्
(मवृ)।
२३. दिवसे अत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे (मवृ)।
२४. विभागेण (अ)।
२५. गाथाओं के क्रम में निभा में यह गाथा अनुपलब्ध है।
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________________
प्रथम उद्देशक
[ २३
२.
२३८. अप्पार मूलगुणेसुं, 'उत्तरगुणतोरे विराधणा अप्पा'३ ।
अप्पा पासत्थादिसु, दाणग्गहसंपयोगोहा ॥नि.५४ ॥ २३९. भिक्खादिनिग्गएसुं, रहिते विगडेंति फड्डगवईओ५ ।
सव्वसमक्खं केई, ते वीसरियं तु सारेंति ॥ २४०. मूलगुण पढमकाया, तत्थं वि पढमं तु पंथमादीसु ।
‘पाद अपमज्जणादी', बितिए उल्लादि पंथे° वा ॥ २४१. ततिए पतिट्ठियादी१, अभिधारणवीयणादि वाउम्मि ।
बीयादिघट्ट पंचम'२, इंदिय अणुवायतो३ छठे ॥ दुब्भासिय हसितादी१४, बितिए'५ ततिए अजाइउग्गहणं'६ ।
घट्टणपुव्वरतादी, इंदिय-आलोय मेहुण्णे ॥ २४३. मुच्छातिरित्त पंचम, छटे लेवाड अगद१८-सुंठादी ।
गुत्ति-समिती विवक्खा, अणेसिगहणुत्तरगुणेसु९ ॥ २४४. संतम्मि वि° बलविरिए, तवोवहाणम्मि२१ जं न उज्जमियं ।
एस२२ विहारवियडणा२३, वोच्छं उवसंप नाणत्तं ॥ २४५. एगमणेगा दिवसेसु, होति ‘ओघे य२४ पदविभागे य२५ ।
उपसंपयावराहे, नायमनायं परिच्छंति ॥ २४६. दिव-रातो उवसंपय, अवराधे दिवसतो२६ पसत्थम्मि ।
उव्वातो२७ तद्दिवसं, तिण्हं तु२८ अतिक्कमे२९ गुरुगा ॥नि.५५ ॥
अप्प (ब)। २. गुणत्तो (ब)।
विराहणा अप्पउत्तरगुणेसुं (निभा ६३१६)।
वियडंति (ब)। ५. फड्डुगपती उ(अ, स), फद्दगपती वा (ब) ।
कहयंति (निभा ६३१७)। तेसु (निभा ६३१८)। पादप्पम० (निभा)
उल्ला उ(अ, स)। १०. पंते (स)। ११. पदिट्ठियादि (ब)। १२. पंचमे (ब)। १३. ०वातिओ (निभा ६३१९) । १४. हस्सादी (अ.स)।
बीए (ब)। १६. अजाइयग्गहणं (अ), आजातीउग्गहणे (ब), अजाइतो गहणे (निभा
६३२०)।
१७. यहां छंद की दृष्टि से पंचम शब्द में सप्तमी विभक्ति का लोप
हुआ है। १८. अगत (अ.स)। १९. निभा (६३२१) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
उत्तरभिक्खऽविसोही, असमितत्तं च समितीसु । २०. य(निभा ६३२२)। .२१. ततो वहीणम्मि (ब), तवोवहाणेणं (अ)। २२. एसि (ब)। २३. वियार० ()। २४. ओहे य इत्यादि तृतीयार्थे सप्तमी (मवृ) ओघेण (निभा ६३२३) । २५. या (ब)। २६. दिवसतो इति सप्तम्यन्तात् तद्दिवसे (मवृ)। २७. उच्चातो (ब)। २८. पि(ब)। २९. वइक्कमे (अ,निभा ६३२५), उवक्कमे (स)।
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________________
२४ ]
व्यवहार भाष्य
२४७.
२४८
२४९.
२५०.
२५१.
समणुण्णदुगनिमित्तं, उवसंपज्जंत' होति एमेव । अन्नमणुण्णे नवरिं, विभागतो कारणे भइयं । पढमदिणमविष्फाले , 'लहुओ बितिए गुरु'५ तइए' लहुया । 'तेच्चिय तस्स अकधणे", सुद्धमसुद्धो विमेहिं तु ॥ अधिकरण -विगतिजोगे, पडिणीए° थद्ध-लुद्ध-निद्धम्मे । अलस-अणुबद्धवरे, सच्छंदमती पयहियव्वे'२ ॥दारं ॥नि.५६ ॥ गिहि-संजय-अधिगरणे, लहु गुरुगा३ तस्स अप्पणो छेदे । विगति१४ न देइ घेत्तुं, भुत्तुव्वरितं५ च गहिते१६ वि ॥दारं ॥ नववज्जियावदेहो, पगतीए दुब्बलो अहं१८ भंते ! । तब्भावितस्स९ एण्हिं, न य गहणं धारणं कत्तो ॥दारं ॥ एगंतरनिविगती, जोगो पच्चत्थिगो व 'मे तत्थ'२० । 'चुक्क-खलितेसु'२१ गेण्हति, छिद्दाणि२२ कहेति य२३ गुरूणं ॥दारं ॥ चंकमणादुट्ठाणे२४, कडिगहणं झाओ२५ नत्थि थद्धेवं२६ । 'भुंजति सयमुक्कोसं२७, न य देंतऽन्नेसि८ लुद्धेवं ॥दारं ।। 'आवस्सिया-पमज्जण'२९, ‘अकरणता उग्गदंड निद्धम्मो'३० । बालादट्ठा दीहा, 'भिक्खाचरिया य उब्भामा ३१ ॥दारं ।। पाण-सुणगा व भुंजति, एगत्तो भंडिउं पि अणुबद्धो । एगागिस्स न३२ लब्भा, चलिउं३३ थेवं पि सच्छंदो३४ ॥दारं ॥
२५२.
२५३.
२५४.
२५५.
०संपज्जे ते (अ, ब), संपज्जते वि (स)। २. नवरं (स)। ३. भतिय (अ.स), भयइयं (ब), निभा ६३२४ । निभा में २४६ और
२४७ की गाथा में क्रमव्यत्यय है। ४. प्रथमदिवसमिति सप्तम्यर्थे द्वितीया (मवृ), विष्फालेइ
देशीवचनमेतत् न पृच्छतीत्यर्थः (म)।
लहु बितिए गुरुतो (अ, स)। ६. तति (ब), ततियए (निभा)।
तस्स विकहणे तेच्चिय (निभा ६३२६)। इमेहिं (अ, निभा), एतेहिं (स)।
०करणं (अ)। १०. पडणीए (अ) ११. ०बद्धरोसो (अ)। १२. परिहियव्वे (निभा ६३२७)। १३. गुरुणा (अ)। १४. विगती (निभा ६३२८)। १५. भुत्तुद्धरियं (मु)। १६. गथिते (अ)। १७. ०वज्जियव्व देहो (ब), वज्जियाए देहो (स), वज्जियावो नाम
देशी- वचनत्वादिक्षुः (मवृ), ०य वज्जिया य (निभा ६३२९)। १८. मिहं (अ, ब)।
१९. सब्भा० (अ)। २०. तहि साहू (निभा ६३३०), मे अस्थि (मु)। २१. x (ब), बुक्क० (मवृ, स)। २२. छिड्डाणि (निभा, स)। २३. ते (ब)। २४. चंकमणादि उट्ठाणे (ब), चक्क० (स) चंकमणादि उट्ठण (निभा
६३३१)। २५. ज्झातो (अ)। २६. लद्धेवं (अ)! २७. उक्कोस सयं भुंजति (निभा)। २८. देय अत्रेसि (ब)। २९. आवासिय अप० (अ.स), आवासियमज्जणया (निभा)। ३०. अकरण अति उग्ग० (निभा ६३३२)। ३१. रिया सउब्भामा (स), भिक्खालसिओ य उन्भामं (निभा)। ३२. नु(ब)। ३३, दलिउं (स), वलिउं (अ)। ३४. निभा (६३३३) में यह गाथा कुछ पाठांतर से मिलती है
पाणसुणगा व भुंजंति, एक्कउ असंखडेवमणुबद्धो । एक्कल्लस्स न लब्भा, चलितुं पेवं तु सच्छंदो ।
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प्रथम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
२५६.
२५७.
२५८.
२५९.
२६०.
२६१.
२६२.
२६३.
जइ भंडण पडिणीए, लुद्धे अणुबद्धरोस चउगुरुगा । सेसाण होंति लहुगा, एमेव पडिच्छमाणस्स ॥ दारं ॥ 'एगे अपरिणए वा ३, गिलाणे बहुरोगे" य,
२६५.
तारिसं
'सीसायरिय
सहितं ।
गाणियं तु मोत्तुं वत्थादि अकप्पिएहि वा अप्पाधारो वायण, तं चेव य पुच्छिउं देति ॥ थेरमतीवमहल्लं', अजंगमं मोत्तु आगतो' 'गुरुं तु" । सोच परिसा व थेरा, अहं तु वट्टावओ" तेसिं ॥ तत्थ गिलाणो एगो, जप्पसरीरो तु" होति बहुरोगी । निद्धम्मा गुरु- आणं, न करेंति ममं पमोत्तूण १२ ॥ विउसज्ज १३ विप्पवासो १४ न कप्पति I पडिच्छे १५, पायच्छित्तं विहिज्जइ १६ "एगे गिलाण पाहुड, तिण्ह वि गुरुगा उ सिस्समादीणं १८ लहुगा १९ गुरू सरिसं ॥
I
सेसे सिस्से गुरुगा, 'पडिच्छ
राइंदियाणि २१ पंचेव । वि२२ गुरुगा, दोवेते पडिच्छमाणस्स ॥ २६४. एतद्दोसविमुक्कं, वइयादी २३ अपडिबद्धमायातं ।
सीस - पडिच्छे पाहुड, छेदो आयरियस्स
सेसाणं (अ) ।
निभा (६३३४) में इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है—
समणऽधिकरणे पडिणी लुद्ध अणुबद्धवेरे चउगुरुगा ।
० णए या (स), अहवा एगेऽपरिणते (निभा ६३३५) । अप्पाहारे (अ, निभा) ।
० रोगी (मु) ।
निभा (६३३६) में कुछ अंतर के साथ यह गाथा मिलती हैएक्कल्लं मोत्तूणं, वत्थादि अकप्पिएहि सहितं वा ।
सो उ परिसा व थेरा, अहऽण्णसेहादि वट्टावे ||
अप्पा धारे य मंदधम्मे य
० महनं (ब), थेरं अतीम० (अ) ।
मागतो (ब) ।
दाऊणं २४ पच्छित्तं, पडिबद्धं पी२५ पडिच्छेज्जा ॥नि.५८ ॥
७.
८.
९.
गुरुगं (अ)।
१०. वज्जावओ (अ) वर्त्तापकः प्रतिजागरकः (मवृ) ।
।
सुद्धं पडिच्छिऊणं, अपडिच्छणे २६ लहुग तिण्णि २७ दिवसाणि सीसे२८ ' आयरिए वा २९ पारिच्छा तत्थिमा होति ॥
११. य (मु) ।
१२. पि मोत्तूणं (अ, स), निभा ६३३७ ।
१३. वियोसज्ज (अ)
१४. विप्पि० (ब)।
थेरए । पाहुडे ॥नि.५७ ॥
||
१५. सीसपडिच्छायरिए (निभा ६३३८) ।
१६. विपज्जते ( अ, ब ), विवज्जइ (स) ।
१७.
एगे गिलाणगे वा (ब)।
१८.
१९. लहुय पडिच्छे (निभा) ।
२०. सिस्स (स) ।
२१. रायंदियाण (ब) ।
सीसगा० (निभा ६३३९) ।
२७. दुण्णि (ब)।
२८. सिस्से (ब) ।
२२.
उ ( ब, स निभा ६३४०) ।
२३.
वयाती (ब), वतियादी (अ) ।
२४. दाऊण व (निभा ६३४१) ।
२५. पि (स), छंद की दृष्टि से इकार दीर्घ हुआ है।
२६. अपरिछिण्णे (स, निभा ६३४२) ।
२९. ० रियादी (अ), ० रियं वा (ब)। ३०. होवे (ब) ।
[ २५
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२६ ]
१.
२.
३.
४.
२६६.
२६७.
२६८.
२६९.
२७०.
२७१.
२७२.
२७३.
२७४.
२७५.
'आवस्सग - पडिलेहण, सज्झाए " भुंजणे य भासा । वीयारे गेलणे, भिक्खरगहणे पडिच्छंति ॥नि.५९ ॥
।
I
केई पुव्वनिसिद्धा, केई सारेति तं न सारेति । संविग्गों सिक्ख' मग्गति, मुत्तावलि मो अणाहोऽहं ॥ हीणाधियविवरीते सति वि' बले पुव्वऽठति चोदेति" I अप्पणए चोदेती, न ममंति" ' सुहं इहं" २ वसितुं ॥ जो पुण चोइज्जते, दट्ठूण 'नियत्तए ततो ठाणा १३ भणति १४ अहं भे चत्तो, चोदेह ममं पि सीदंतं ॥ दारं ॥ पडिलेहणसज्झाए, एमेव य हीणमधियविवरीतं " दोसेहिँ वावि भुंज, गारत्थियढड्डूरा१६ भासा ॥ थंडिल्लसमायारिं १७, हावति" अतरंतगं १९ न पडिजग्गे । अणित भिक्खन हिंडति, 'अणेसणादी व पिल्लेई २१ ॥ जतमाण परिहवंते, आगमणं तस्स दोहि ठाणेहिँ । पंजर भग्गमभिमुहे २२, आवस्सगमादि २३ आयरिए ॥ पणगादिसंगहो होति, पंजरो जा य सारणऽण्णोणे । पच्छित्तं चढणाहिँ २४, निवारणं सउणिदितो ॥ ते पुण एगमणेगा, गाणं सारणा २५ आउट्टे २७, उट्टे अण्णहिं
उपसंपद
निग्गमणे निग्गमणे
आवासग सज्झाए पडिलेहण (निभा ६३४३) ।
केयं (स) ।
केयि (अ) ।
x (ब) ।
भिक्ख (अ), भिक्खं (ब)।
मो इति निपातः पादपूरणे (मवृ)।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. चोतीति (ब) ।
११. इमं ति (अ) ।
१२. इहई सुहं (अ, ब ) ।
१३. ततो नियत्तती ठाणा (निभा ६३४६), ०तउट्ठाणा (ब) ।
निभा ६३४४ ।
व (अ), च (निभा ६३४५) ।
पुव्वट्ठते (ब), पुव्वगते (निभा) ।
१४. भावति (ब) ।
१५. हीण अहिय० (ब, निभा ६३४७) ।
पच्छित्तं ।
परिसुद्धे आगमणेऽसुद्ध२८ देंति अपरिसुद्धे 'इमाइ जयणाय वारेंति२९
धापुव्वं २६ ।
गच्छे ॥
१६. ० ढड्ढता (ब) ।
१७. थंडिलसामायारी ( ब, स ) ।
१८. हवेति (स) ।
२८.
२९.
॥नि.६० ॥
१९. अतरंगतं (ब), अतरंतरं (स)।
२०. अभणतितो (अ) ।
२१. अणेसाई वा पल्लेइ (अ), ०पेल्लेति (निभा ६३४८) ।
२२. ० भग्गहभिमुहे (अ), भग्गअभिमुहे (स, निभा ६ ३४९) ।
२३. आवासयमादि (निभा) ।
२४. ०ढणादी (निभा ६३५०) ।
२५. सारणं ( अ, ब, निभा ६३५१) ।
२६. जहाकप्पे (निभा) ।
२७.
व्यवहार भाष्य
अविउट्टे (ब), षष्टीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् (मवृ) ।
० असुद्धे (स), x (ब)।
इमा उ जयणा तहिं होति (निभा ६३५२) ।
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प्रथम उद्देशक
[ २७
२७६. नत्थी संकियसंघाडमंडली भिक्खबाहिराणयणे ।
पच्छित्तविउस्सग्गे', निग्गमसुत्तस्स छण्णेणं ॥दारं ॥नि.६१ ॥ २७७. नत्थेयं में जमिच्छसिरे, ‘सुतं मया" आम संकितं तं तु ।
न य संकितं तु दिज्जति, निस्संकसुते गवेस्साहि ॥ २७८. एगागिस्स' न लब्भा, 'वीयारादी वि जयण'६ सच्छंदे ।
भोयणसुत्ते मंडलिय, पढ़ते वा नियोयंति ॥ ___ अलसं भणंति बाहिं, जई१० हिंडसि 'अम्ह एत्थ'बालादी ।
पच्छित्तं हाडहडं२, अविउस्सग्गो तहा विगती ॥ २८०. तत्थ 'वि मायामोसो५३, एवं तु भवे अणज्जवजुतस्स४ ।
वुत्तं च उज्जुभूते, सोही तेलोक्कदंसीहिं ॥ २८१. एस अगीते जयणा, गीते वि करेंति जुज्जती जं तु५ ।
विद्देसकरं इहरा, मच्छरिवादो वि६ फुडरुक्खे ७ ॥ २८२. निग्गमऽसुद्धमुवाएण, वारितं गेण्हते समाउढें ।
अधिगरण पडिणिऽणुबद्धमेगागि८ जढं न सातिज्जा१९ ॥ २८३. पडिणीयम्मि उ भयणा, गिहिम्मि आयरियमादिदुट्ठम्मि२० ।
संजयपडिणीए पुण, 'न होंति उवसामिते भयणा'२१ ॥ २८४. सो पुण उवसंपज्जे, नाणट्ठा२२ दंसणे चरित्तट्ठा२३ ।
एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥ २८५. वत्तणा२४ संधणा चेव, गहणे सुत्तत्थ-तदुभए२५ ।
वेयावच्चे खमणे, काले 'आवकहादि य२६ ॥नि.६२ ।।
अविउस्सगो (ब), विओसग्गे (निभा ६३५३) ।
णिच्छत्त (ब)। ३. जमिच्छह (निभा ६३५४) ।
सुत्तं मए (निभा)।
एक्कल्लेण (निभा ६३५५)। ६. बीया जयणा (ब)। ७. पडते (ब)। ८. वी (निभा)।
निओएति (अ, ब)। १०. जति (निभा ६३५६)। ११. एत्थ अम्ह (अ)। १२. आडहडं (स), हाडहडं देशीपदमेतत् तत्कालमित्यर्थः (मवृ)। १३. भवे माय० (अ, निभा ६३५७)। १४. अणवज्जुयस्स (अ)।
१५. इस गाथा का पूर्वार्ध निभा (६३५८) में इस प्रकार है
एसा उ अगीयत्थे, जयणा गीते वि जुज्जती जंतु । १६. य (निभा)। १७. ०रुक्खा (अ)। १८. पडिणीएणु० (ब)। १९. सातिज्जे (अ, स), संगिण्हे (निभा ६३५९)। २०. उवसामितवणुवसंते (अ, ब, स)। २१. ०मिए जयणा (अ), न होति तं खाम भयणा वा (निभा ६३६०)। २२. नाणट्ठाई (अ)। २३. चरित्ते य (मु)। २४. वर्तनेति अत्र सप्तमीलोपः प्राकृतत्वात् वर्तनायां एवमेव
संधनायाम् (म)। २५. अत्र निमित्तं सप्तमी (म)। २६. आवकहादीया (अ.स),निभा ६३६१ ।
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२८ ]
२८६.
२८७.
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२८९.
२९०.
२९३.
२९४.
वत्तणा य (मु) ।
निभा ६३६२ ।
दंसण - नाणे
उपसंपदा
सुत्तत्थ - तदुभए वत्तणादि' एक्क् । चरित्ते, वेयावच्चे य खमणे य ||
।
11
सुद्धऽपडिच्छण लहुगा, अकरेंते सारणा अणापुच्छा । तीसु वि मासो लहुओ, वत्तणादीस ठाणेसु सारेयव्वो नियमा, उवसंपन्नो सि जं निमित्तं तु तं कुणसु मं भंते! अकरेमाणे विवेगो उ अणणुण्णमणुण्णाते', देंत पडिच्छंत भंग चउरो 'भंगतियम्मि वि मासो”, दुहओऽणुण्णाऍ सुद्धो एमेव दंसणे वी, वत्तणमादी पदा उ जध वेयावच्चकरो' पुण, इत्तरितो आवकहिओ य"
नाणे
1
11
||
२९१. तुल्लेसु जो सलद्धी, अन्नस्स व वारएणऽनिच्छंते ११ तुल्लेसु व आवकही, ' तस्सऽणुमएण च इत्तरिओ” ३ २९२. अणणुण्णाते लहुगा, अचियत्तमसाह जोग्गदाणादी १४ । निज्जरमहती हु भवे, तवस्सिमादीण 'करणे वी १५ आवकही इत्तरिए १६, इत्तरियं 'विगिट्ठ तहऽ विगिट्ठे १७ य सगणामंतण १८ खमणे, अणिच्छमाणं न तु निओए ९ अविकिट्ठे किलम्मंतं, भांति मा खम करेहि सज्झायं । सक्का किलम्मितुं जे वि२१ विगिट्ठेणं २२ तहिं वितरे ॥ २९४/१. बारसविहम्मि वि तवे,
|
॥
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
० वच्चाइकरो (ब)
९.
आवकहाए (मवृ)।
१०. वा (अ, ब) निभा (६३६५) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है— सगणामंतण खमण, अणिच्छमाणं ण उ निओए ।।
० अपडिच्छण्णे (ब)।
सारणा अत्र विभक्तिलोपः आर्षत्वात् (मवृ) ।
निभा ६३६३, चौथा चरण अनुष्टुप् छंद है।
मकारोऽलाक्षणिकः (मवृ), अणणुण्णाऽणुण्णाते (निभा ६ ३६४) । भंगतिए मासलहु (निभा) ।
११. ० णइच्छंते (निभा ६३६६), अणिच्छंते (ब, स) ।
१२. वि (ब), य (निभा) ।
१३. तस्साणुमते व इत्तरिए (निभा) ।
१४. उग्गदाणादी (स) ।
सब्भितरबाहिरें कुसलदिट्ठे ।
न वि अत्थि न वि होही, सज्झायसमं तवोकम्मं२३ 11
१५. उ करेंते (निभा ६३६७) । १६. इत्तरिते (अ) ।
१७. विकिट्ट तध विकिट्टे (अ) ।
१८.
० मंतणा (ब) ।
१९. नियोगो (ब) ।
२०.
उ
I
उ ॥ दारं ॥
॥नि.६३ ॥
किलामंत (निभा ६३६८) ।
२१. x (अ) ।
२२. तिकिट्ठेणं (स) ।
२३.
I
11
व्यवहार भाष्य
यह गाथा तीनों हस्तप्रतियों में अप्राप्त है। मुद्रित भाष्य की प्रति में इस गाथा के आगे भा. १११ का उल्लेख है। पर यह संख्या गलती से लगी है क्योंकि इससे पूर्व की गाथा में भी १११ का क्रमांक है। इसके अतिरिक्त टीकाकार ने 'यत उक्तं' कहकर इसे उद्धृत किया है तथा इस गाथा की व्याख्या भी नहीं की है। प्रसंगानुसार भी यह भाष्य के क्रम में नहीं जुड़ती । यह दशवैकालिक नियुक्ति (१६०) की गाथा है।
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प्रथम उद्देशक
[ २९
२९५. अण्णपडिच्छण लहुगा, असति' गिलाणोवमे 'अडते य२ ।
पडिलेहण-संथारग, पाणग तह 'मत्तगतिगं च३ ॥नि.६४॥ २९६. दुण्हेगतरे खमणे, अण्ण पडिच्छंतऽसंथरे आणा ।
अप्पत्तिय परितावण', सुत्ते हाणिऽन्नहिं वइमो ॥ २९७. गेलण्णतुल्लगुरुगा, अडत परितावणा सयंकरणे ।
णेसणगहणागहणे, दुगट्ठ हिंडंत मुच्छा य० ॥ २९८. 'पढमदिणम्मि न पुच्छे'११, लहुओ मासो उ१२ बितिय 'गुरुओ य१३ ।
ततियम्मि होति१४ लहुगा, तिण्हं तु वतिक्कमे५ गुरुगा६ ॥ २९९. कज्जे भत्तपरिण्णा, गिलाण ‘राया व१७ धम्मकहि-वादी ।
'छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वतिक्कमे गुरुगा ॥
अन्नेण पडिच्छावे, तस्सऽसति८ सयं पडिच्छते रत्ति९ । उत्तरवीमसाए, खिन्नो य२० 'निसिं पि२१ न पडिच्छे२२ ॥ दोहि तिहिं वा दिणेहिं, जइ विज्जति२३ तो न होति पच्छित्तं ।
तेण२४ परमणुण्णवणा, कुलादि रण्णो२५ व दीवेंति२६ ॥ ३०२. आलोयण तह चेव य, मूलुत्तर नवरि२७ विगडिते२८ मं२९ तु ।
इत्थं सारण चोयण, निवेदणं३० ते वि एमेव ॥दारं ॥ ३०३. एमेव य अवराहे, किं ते न कया तहिं चिय विसोधी ।
अहिकरणादी साहति, गीयत्थो वा तहिं नत्थि ॥
३०१
१. गुरुग (निभा ६३६९)। २. अडंतिया (ब)। ३. तिगम्मि (निभा)। ४. संधरे (अ)। ५. परियावण (अ)। ६. अन्नहिं (स), अन्यत्र (म)। ७. वतिमो (निभा ६३७०)। ८. अडते (अ)। ९. यावणा उ(अ, ब)। १०. निभा ६३७१ । ११. पढमदिणे ण पडिच्छे (अ.स)। १२. य (ब)। १३. गुरुतम्मि (अ, स)। १४. होति (अ, ब)। १५. अतिक्कमे (मवृ)। १६. निभा (६३७२) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
पढमदिणाणापुच्छे, लहुगो गुरुगा य होति बितियम्मि।
१७. रायाइ (ब), राय (अ.स),रायाए (मव),राया य (निभा ६३७३)। १८. तस्सासति (ब)। १९. रती (स)। २०. वा (निभा)। २१. निसि व (अ), निशायामपि (मवृ)। २२. पविसे (निभा ६३७४) । २३. छिज्जति (स, निभा ६३७५) । २४. तेनेत्यव्ययं ततः इत्यर्थे (मव)। २५. रण्णा (ब)। २६. दीवति (ब), दीहिंति (स)। २७. x (ब)। २८. विगलिते (अ)। २९. इमं (मु, निभा ६३७६), छंद की दृष्टि से इमं के स्थान पर मं पाठ
स्वीकृत किया है। ३०. निवेयणा (आ)। ३१. कहयती (निभा ६३७७)।
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३०
]
व्यवहार भाष्य
३०४. नत्थि' इहं पडियरगारे, खुलखेत्त उग्गमवि य पच्छित्तं ।
संकितमादी व पदे, जधक्कम ते तह विभासा ॥ ३०५. दव्वादिचतुरभिग्गह, पसत्थमपसत्थए दहेक्केक्के ।
अपसत्थे वज्जेउं, 'पसत्थएहिं तु आलोए'६ ॥नि.६५ ।। ३०६. भग्गघरे कुड्डेसु य, रासीसु य जे दुमा य अमणुण्णा ।
तत्थ न आलोएज्जा, तप्पडिवक्खे दिसा तिण्णि ॥नि.६६ ।। ३०७. अमणुण्णधन्नरासी, अमणुण्णदुमा य होति दव्वम्मि ।
भग्गघर-रुद्द-ऊसर, पवाय दड्ढादि खेत्तम्मि ॥ ३०८. 'निप्पत्त कंटइल्ले११, विज्जुहते१२ खार-कडुग-दड्डे य ।
अय-'तउय-तंब"३-सीसग, दव्वे धन्ना य अमणुण्णा'४ ॥ ३०९. पडिकुटेल्लगदिवसे५ वज्जेज्जा अट्ठमि च नवमिं च ।
छट्टिं च चउत्थिं च, बारसिं दोण्हं पि पक्खाणं१६ ॥नि.६७ ॥ ३१०. संझागतं रविगतं, विड्डे१७ संगह१८ विलंबिं च ।
राहुहतं गहभिन्नं, व वज्जए९ सत्तनक्खत्ते ॥ ३११. संझागतम्मि कलहो, होइ कुभत्तं विलंबिनक्खत्ते२० ।
विड्डेरे२९ परविजयो, आदिच्चगते अनिव्वाणी२२ ॥ ३१२. जं संगहम्मि२३ कीरति, नक्खत्ते तत्थ वुग्गहो होति ।
राहुहयम्मि य मरणं, गहभिन्ने सोणिउग्गालो२४ ॥ ३१३. तप्पडिवक्खे 'खेत्ते, उच्छुवणे सालि-चेंइयघरे वा'२५ ।
गंभीरसाणुणाए, पयाहिणावत्तउदए य ॥
१. न वि य (निभा ६३७८)। २. परिय० (अ, निभा)। ३. खेत्तं (स), खुलक्षेत्रं नाम मंदभिक्षं (मवृ)। ४. उज्जम० (अ)।
विभासे (स)। ६. आलोयण मो पसत्थेसु (निभा ६३७९)।
पाठांतरं रुद्देसु (अपा, स, मवृ)। ८. निभा ६३८०।
१५. पडिकुव्वेल्लग० (ब), दिवस (स) इह इल्लप्रत्ययः प्राकृते स्वार्थे
प्रतिकुष्टा इव प्रतिकुष्टेल्लकाः (मवृ)। १६. निभा ६३८३। १७. विड्डिर (ब)। १८. संगहं च (ब), सग्गहं (निभा ६३८४)। १९. वज्जेए ()। २०. विलंब० (अ.स)। २१. विद्देरे (अ)। २२. अणेव्वाणी (ब, निभा ६३८५)। २३. सग्गहम्मि (निभा ६३८६)। २४. लोहिउ० (ब, स)। २५. दव्वे खेते उच्छुवण चेइयधरे वा (निभा ६३८७) ।
१०. दड्ढा य (अ), दद्धा य (ब) निभा ६३८१ । ११. निपत्त कंटइवेल्ले (ब), निप्पत्तग कंदइले (अ)। १२. ०हरे (स)। १३. तउए तंबे (अ, मवृ)। १४. निभा ६३८२ में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है
अय- तंब - तउय कयवर, दव्वे धण्णा य अपसत्था
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प्रथम उद्देशक
[ ३१
३१४. उत्तदिणसेसकाले, उच्चट्ठाणा' गहा. य भावम्मि ।
पुव्वदिसिरे उत्तरा वा, चरंतिया जाव नवपुव्वी ॥ निसेज्ज ऽसति'३ पडिहारिय, कितिकम्मं काउ पंजलुक्कुडुओ ।
बहुपडिसेवऽरिसासु य, अणुण्णावेउ निसेज्जगतो ॥ ३१६. चेयणमचित्तदव्वे, 'जणवयमद्धाण होति"५ खेत्तम्मि ।
'दिण-निसि'६ सुभिक्ख-दुभिक्खकाले भावम्मि हट्ठितरे ॥नि.६८ ।। ३१७. लहुयल्हादीजणणं', अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही ।
दुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व, सोधिगुणा । ३१८. आगम-सुतववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी ।
केवल-मणोधि-चोद्दस-दस-नवपुव्वी य नायव्वो० ॥नि.६९ ॥ ३१९. पम्हढे पडिसारण, अप्पडिवज्जंतयं न खलु सारे ।
जइ पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं पि पच्चक्खी'२ ॥नि.७० ॥ ३२०. कप्पपकप्पी१३ तु सुते, आलोयाति ते उ तिक्खुत्तो ।
सरिसत्थमपलिकुंची, 'विसरिसपरिणामतो कुंची२५ ॥नि.७१ ॥ ३२१. तिमि उ वारा जह दंडियस्स.६ पलिउंचियम्मि अस्सुवमा ।
सुद्धस्स होति मासो, पलिउंचिते१७ तं विमं चण्णं१८ ॥नि.७२ ।। ३२२. अत्थुप्पत्ती असरिसनिवेयणे१९ दंड पच्छ ववहारो ।
इय लोउत्तरियम्मि वि, कुंचियभावं तु दंडेति ॥दारं ।। ३२३. आगारेहि ‘सरेहि य, पुव्वावर-वाहताहि२१ य गिराहि ।
नाउं कुंचियभावं, परोक्खनाणी ववहरंति२२ ॥नि.७३ ।।
उद्धट्ठाणा (निभा ६३८८)। २. दिस (ब, निभा)। ३. ज्जासति (ब, निभा ६३८९) । ४. ०दव्वं (ब)। ५. वय मग्गे वि होइ (अ.स),०मग्गे य होति (निभा ६३९०)।
णिसिदिण (निभा)। हिट्ठि० (ब), हटेयरे इति सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ) इस गाथा के बाद टीका की मुद्रित पुस्तक में जह बालो... गाथा मिलती है। किंतु तीनों हस्तप्रतियों में यह गाथा नहीं है। निभा (६३९२) में यह
गाथा ६३९१ के बाद भागा के क्रम में है। ८. जणयं (निभा ६३९१)। ९. ब प्रति में इस गाथा का केवल पहला चरण ही मिलता है। १०. णायव्वा (निभा ६३९३), ब प्रति में इस गाथा का पूर्वार्द्ध नहीं है। ११. तिधारि (अ)। १२. निभा ६३९४।
१३. ०पकप्पा (निभा ६३९५)। १४. ०थअपलिउंची (ब, स), त्थेऽपलिउंची (निभा)। १५. असरिस० (अ, स), रिस पडिकुंचितं जाणे (निभा)। १६. डंडीतस्स (स)। १७. उंचइ (अ)। १८. निभा (६३९६) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
आसेण य दिट्ठतो, चउव्विहं तिण्णि दंडिएण जहा। १९. x (ब), विसरिस० (निभा ६३९७)। २०. x (ब)। २१. वाहिताहिं (अ), महयाहि (ब)। २२. निभा ६३९८ ।
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३२ ]
व्यवहार भाष्य
३२६.
३२४. कुंचिय जोहे' मालागारे, मेहेरे पलिउंचिते तिगट्ठाणा ।
पंचगमा नेयव्वा, बहूहिं उक्खड्डमड्डाहिं ॥ ३२५. बहुएसु एगदाणे, 'रागो एक्केक्कदाण दोसो उ ।
एवमगीते चोदग, “गीतम्मि य अजयसेविम्मि ॥ जो जत्तिएण रोगो, पसमति तं देति भेसजं वेज्जो' ।
एवागम-सुतनाणी', 'सुज्झति जेणं तयं देति ॥ ३२७. ___चोदग मा गद्दभत्ति, कोट्ठारतिगं दुवे य खल्लाडा ।
अद्धाणे सेवितम्मि, सव्वेसिं१ ‘घेत्तु णं१२ दिण्णं१३ ॥नि.७४ ॥ ३२८. अवि य हु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं५ ति मा भणसु एवं ।
संभवति 'न सो हेऊ५६, अत्ता जेणालियं बूया७ ॥ ३२९. कामं विसमा वत्थू, तुल्ला सोही तथा वि८ खलु तेसिं ।
पंचवणि तिपंचखरा, अतुल्लमुल्ला य आहरणा९ ॥नि.७५ ॥ ३३०. विणिउत्तभंडभंडण, मा भंडह तत्थ एगु सट्ठीए ।
दो तीस तिन्नि२० वीसग, चउ पन्नर पंच बारसगे२१ ॥ ३३१. कुसलविभागसरिसओ, गुरू२२ य साधू य होंति वणिया वा२३ ।
रासभसमा य मासा, मोल्लं पुण रागदोसा उ२४ ॥ ३३२. वीसुं दिण्णे पुच्छा२५, दिटुंतो तत्थ दंडलतिएण२६ ।
दंडो रक्खा तेसिं, भयजणणं चेव सेसाणं ॥नि.७६ ॥ ३३३. दंडतिगं२७ तु पुरतिगे, ठवितं पच्चंतपरनिवारोहे ।
भत्तट्ठ तीसतीसं२८, कुंभग्गह 'आगया जे तु२९ ॥
जोधि (अ), सल्ले (निभा ६३९९)। २. मेढि (अ)। ३. देशीपदमेतत् पुनः पुनः शब्दार्थः (मवृ), भाष्यकृदाह (मव) । ४. रागो दोसो य एगदाणे उ (निभा ६४०१)।
गीए वि अजयसेवेमि (ब)।
देवति (ब)। ७. विज्जे (अ)। ८. मकारस्य लोपः प्राकृतत्वात् (मवृ)। ९. तं देंति विसुज्झते जेण (निभा ६४०२) । १०. गद्दहेति (अ)। ११. सब्वेसु वि (निभा ६४००)। १२. घेत्तूणं (स)। १३. टीका में इस गाथा के लिए संग्रहणीय गाथा का उल्लेख है। यह
गाथा हस्तप्रतियों तथा निभा में ३२४ के बाद मिलती है । किन्तु मुद्रित टीका में यह गाथा जो जत्तिएण... (३२७) के बाद मिलती है । विषयवस्तु के अनुसार यही क्रम उचित लगता है।
१४. भणियं च (अ)। १५. समं (अ)। १६. पसाहेऊ (ब)। १७. भावार्थं स्वयमेव भाष्यकृद् वक्ष्यते (मव), निभा ६४०३ । १८. व (अ.स)। १९. ब प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध नहीं है, निभा ६४०४ । २०. तिन्न (आ)। २१. ब प्रति में यह गाथा नहीं है, निभा ६४०५ । २२. गुरुतो (अ, ब)। २३. व(स २४. निभा ६४०६ । २५. पुच्छसि (ब)। २६. डंडलइतेण (निभा ६४०७)। २७. डंडतियं (स)। २८. वीस तीसं (स)। २९. पराइ आगमणं (अ.स), मागमो जेत्तुं (निभा ६४०८)।
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प्रथम उद्देशक
[ ३३
३३४. कामं ममेदकज्जं, कयवित्तीएहि' कीस भे गहितं ।
एस पमादो तुझंरे, दस दस कुंभे दलहरे दंडं ॥ ३३५. तित्थगरा रायाणो, जतिणो दंडा या कायकोट्ठाराप ।
असिवादिवुग्गहा पुण, अजय-पमायारुहण दंडो ॥ ३३६. _ 'बहुएहि वि मासेहिं', एगो जइ दिज्जती तु पच्छित्तं ।
एवं बहु सेवित्ता, एक्कसि विगडेमु चोदेति ॥दारं ।। ३३७. मा वद एवं एक्कसि, विगडेमो सुबहुए वि सेवित्ता ।
लब्भिसि एवं चोदग!, देंते खल्लाड 'खडुगं वा० ॥ ३३८. खल्लाडगम्मि खडुगा, दिन्ना तंबोलियस्स एगेणं ।
सक्कारेत्ता जुयलं, दिन्नं बितिएण वोरवितो ॥ ___ एवं तुमं पि चोदग!, एक्कसि पडिसेविऊण मासेणं ।
मुच्चिहिसी बितियं२ पुण, ‘लब्भसि मूलं तु पच्छित्तं १३ ॥ ३४०. असुहपरिणामजुत्तेण४, सेविए एगमेग१५ मासो तु ।
दिज्जति ‘य बहुसु१६ एगो, सुहपरिणामो जया सेवे ॥ ३४१. दिण्णमदिण्णो दंडो, 'सुह-दुहजणणो५८ उ दोण्ह वग्गाणं ।
साहूणं दिण्णसुहो, अदिण्णसोक्खो गिहत्थाणं ॥ ३४२. उद्धितदंडो साहू, अचिरेण उवेति सासयं९ ठाणं ।
सोच्चिय°ऽणुद्धियदंडो, संसारपवट्टओ२२ होति ॥ उद्धियदंडगिहत्थो, 'असण-वसणविरहितो २३ दुही होति । सोच्चिय२४ऽणुद्धियदंडो, असण-वसणभोगवं होति ॥ कसिणारुवणा२५ पढमे, बितिए बहुसो वि सेवितो२६ सरिसा । संजोगो पुण ततिए, तत्थंतिमसुत्त२७ वल्ली वा ॥
३४४.
१. वित्तीएवि (अ.स)। २. तुम्भं (ब, स, निभा ६४०९) । ३. वहह (निभा)।
तित्थंकर (निभा ६४१०)। ५. उ(ब, स)। ६. कोठारा (ब)। ७. ०रुवण (अ)। ८. बहुकेष्वपि मासेसु सूत्रे तृतीया सप्त्यम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ)। ९. डेमि (निभा ६४११)। १०. खलुयं व (अ, स), यह गाथा ब प्रति में प्राप्त नहीं है, निभा
६४१२। ११. जुवलं (स), जुयलं वि (ब), निभा ६४१३ । १२. बीयं (अ)। १३. लब्भिहिसी छेदमूलं तु पच्छित्तं (निभा ६४१४) ।
१४. जुएण (ब)। १५. एगएव (अ), एवमेग (ब)। १६. बहूसु (स)। १७. जतो (स)। १८. हित दुह० (निभा ६४१५)। १९. सासणं (ब)। २०. सो विय (अ,ब)। २१. अणुट्ठिय० (ब)। २२. ० पकट्ठओ (अ, स, निभा ६४१६) ०पवड्ढतो (ब)। २३. वसणमाधिओ (आ), वसणरहिओ (निभा ६४१७)। २४. चिय (ब), विय (अ) । २५. किसणारु० (ब)। २६. सेविता (निभा ६४१८)। २७. सूत्रेण गृहीतः विभक्तिलोपोऽत्र प्राकृतत्वात् (म)।
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३४ ]
व्यवहार भाष्य
३४८.
३४५. जे भिक्खू बहुसो मासियाणि' 'सुत्तं विभासियव्वं तु'२ ।
दोमासिय तेमासिय, कयाइ एगुत्तरा वुड्डी ॥नि.७७ ॥ ३४६. उग्घातमणुग्घाते, मूलुत्तरदप्पकप्पतो चेव ।
संजोगा कायव्वा, पत्तेगं मीसगा चेव ॥नि.७८ ॥ ३४७. एत्थ पडिसेवणाओ, एक्कग-दुग-तिग-चउक्क-पणगेहिं ।
दस दस पंचग एक्कग, अदुव अणेगाउ' एयाओ० ॥ जध११ मन्ने बहुसो मासियाणि सेवित्तु २ वड्वती'३ उवरि ।
तह हेट्ठा४ परिहायति, दुविहं तिविधं च आमं५ ति६ ॥ ३४९. केण पुण कारणेणं, जिणपण्णत्ताणि काणि पुण ताणि८ ।
जिण 'जाणंति उ१९ ताई२०, चोयग पुच्छा बहुं नाउं ॥ तिविहं च होति बहुगं, जहन्नगं२२ मज्झिमं च उक्कोसं ।
जहन्नेण२३ तिन्नि बहुगा, 'उक्कोसो पंचचुलसीता'२४ ॥ ३५१. ठवणा-संचय-रासी, माणाइ२५ पभू य कित्तिया२६ लिद्धा ।
दिट्ठा निसीधनामे, सव्वे वि तहा अणायारा२७ ॥दारं ॥नि.७९ ॥ ३५२. बहुपडिसेवी 'सो विय२८, 'गीतोऽगीतो वि अपरिणामो य'२९ ।
अहवा अतिपरिणामो, तप्पच्चयकारणा ठवणा० ॥नि.८० ॥ ३५३. एगम्मि णेगदाणे, णेगेसु य एगदाणमेगेगं३१ ।
जं दिज्जति तं गिण्हति, गीतमगीतो३२. य परिणामी ॥
३५०.
१. ०याई (अ, निभा ६४२०)। २. सेवितुं तह चेव (अ)। ३. x (ब)। ४. कया उ(ब), कया य (अ)। ५. घाताणुग्धाते (निभा ६४२१)। ६. यह गाथा अप्रति में नहीं है। ७. x (ब)। ८. दह (अ)।
अणेगातो (ब)। १०. णेयाओ (निभा ६४२२) । ११. जे व (ब)। १२. सेवितं (अ), सेवितुं (मु)। १३. वट्टती (ब, स)। १४. चेट्ठा (अ)। १५. आमशब्दोऽनुमतौ सम्मतमेतत् (मवृ)। . १६. ती (निभा ६४२३), इस गाथा के बाद निभा (६४२४) में एक
अतिरिक्त गाथा मिलती है। १७. कारणेण य (अ)।
१८. भणिया (स)। १९. जाणते (निभा ६४२५)। २०. ताई (ब)। २१. बहुशः शब्दो विशेषितेषु सूत्रेषु बहुशब्दोऽस्ति (मव)। २२. जहन्न (ब)। २३. छंद की दृष्टि से जहणेण पाठ होना चाहिए। २४. पंचसयुक्कोस चुलसीता (निभा ६४२६) । २५. माणाति (ब)। २६. कत्तिया (), केत्तिया (स, निभा ६४२७) । २७. अतीयारा (ब)। २८. सो या (अ, ब)। २९. गीईओ विपरिणामे वि (ब) निभा (६४२८) में इसका पूर्वार्द्ध इस
प्रकार है
बहुपडिसेविय सो यावि, अगीओ अवि य अपरिणामो वि। ३०. ठवणं (निभा), स प्रति में ३५२-३५४ तक की तीन गाथाएं
अनुपलब्ध हैं। ३१. एगणेगणेगा वा (निभा ६४२९) । ३२. गीय अगीतो (अ)।
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प्रथम उद्देशक
[ ३५
३५४. बहुएसु एगदाणे, सोच्चिय सुद्धो न सेसगा मासा ।
'माऽपरिणामे संका", सफला मासा कता तेणं ॥ ३५५. ठवणामेत्त आरोवणत्ति इति णाउमतिपरीणामो ।
कुज्जा व अतिपसंगं, बहुए' सेवित्तु मा विगडे ॥ ३५६. ठवणा वीसिग पक्खिग, पंचिगर्न एगाहिया य" बोधव्वा ।
आरोवणा वि पक्खिग, पंचिग तह 'पंच एगाहा ॥ वीसाएँ अद्धमासं, पक्खे पंचाहमारुहेज्जाहि० ।
पंचाहे११ पंचाहं, एगाहे चेव एगाहं१२ ॥ ३५८. ___ठवणा होति जहन्ना, वीसं राइंदियाणि पुण्णाइं१३ ।
पण्णटुं चेव४ सयं, ठवणा उक्कोसिया होति५ ॥ आरोवणा जहन्ना, पन्नरराइंदियाई६ पुण्णाइं ।
उक्कोसं सट्ठिसतं, दोसु८ वि पक्खेवगो१९ पंच ॥ ३६०. पंचण्हं परिवुड्डी२०, ओवड्डी२१ चेव होति पंचण्हं ।
एतेण पमाणेणं, नेयव्वं जाव चरिमं ति२२ ॥ ३६१. 'जा ठवणा'२३ उद्दिट्ठा, छम्मासा ऊणिगा२४ भवे ताए ।
आरोवण उक्कोसा, तीसे ठवणाय२५ नायव्वा ॥ ३६२. आरोवण२६ उद्दिट्ठा, छम्मासा ऊणगा भवे ताए ।
आरोवणाइ तीसे, ठवणा उक्कोसिया होति२७ ॥ ३६३. तीसं ठवणाठाणा, तीसं आरोवणाय ठाणाइं२८ ।
ठवणाणं संवेधो, चत्तारिसया तु२९ पण्णट्ठा० ॥
१. अपरिणते तु संका (निभा ६४३०)। २. मेत्त (ब) मात्रशब्दस्तात्पर्यार्थविश्रांतेस्तुल्यवाची (म)। ३. इय (ब)। ४. तु (निभा ६४३१) ५. बहुगं (स, निभा)।
पंचय (ब) पंचिया (अ)।
उ(मु)। ८. णायव्वा (निभा ६४३२)।
४ (अ), पंचिया एगा (स), पंचिगेगाहा (निभा ६४३२)। १०. ०रुभिज्जा (अ, ब)। ११. पंचाह (ब)। १२. निभा ६४३३ । १३. पुनाति (ब)। १४. चेव य.(ब)। १५. निभा ६४३४।
१६. पत्ररस० (ब)। १७. सट्ठिसयं (मु)। १८. दोहि (निभा ६४३५)। १९. पक्खेवंतो (अ)। २०. परिघट्टी (ब) परिवड्ढी (स)। २१. ओवट्टी (अ)। २२. निभा ६४३६ । २३. जाव ठवण (निभा ६४३६), जो ठ०(ब)। २४. ऊणगा (ब, स)। २५. ठवणाइ (ब)। २६. ०वणा (म)। २७. निभा ६४३८ । २८. टाणाति (ब)। २९. य (ब)। ३०. निभा ६४३९ ।
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३६ ]
व्यवहार भाष्य
३६
३६४. गच्छुत्तरसंवग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिवे आदी ।
अंतिमधणमादिजुयं', गच्छद्धगुणं तु सव्वधर्ण ॥ ३६५. दो रासी ठावेज्जा', रूवं पुण पक्खिवेहि एगत्तो ।
जत्तो' य देति अद्धं, तेण गुणं जाण संकलियं ॥ ३६६. आसीता दिवससया, दिवसा पढमाण ठवणरुवणाणं ।
सोधित्तुत्तरभइए, ठाणा दोण्हं पि रूवजुता ॥ ३६७. 'ठवणरुवणाण तिण्हं, उत्तरं तु° पंच पंच विण्णेया ।
एगुत्तरिया एगा, सव्वावि५ हवंति अद्वैव ॥ ३६८. तीसा तेत्तीसा वि य, पणतीसा अउणसीय सयमेव ।
एते१२ ठवणाण पदा, एवइया चेव रुवणाणं ॥ ___ठवणारोवणदिवसे, माणा उ विसोधइत्तु३ जं सेसं ।
इच्छितरुवणाय भए, असुज्झमाणे खिवइ४ झोसं ॥ ३७०. 'जेत्तियमेत्तेणं सो५५, सुद्धं भागं पयच्छती रासी ।
तत्तियमेत्तं पक्खिव, अकसिणरुवणाइ झोसग्गं१६ ॥ ३७१. ठवणा दिवसे माणा, विसोधइत्ताण भयह रुवणाए ।
जो छेदं सविसेसो, अकसिणरुवणाएँ सो झोसो ॥ ३७२. जत्थ -पुण देति सुद्धं, भागं आरोवणा उ सा कसिणा ।
दोण्हं पि गुणय८ लद्धं, इच्छियरुवणाएँ जदि मासा ॥ ३७३. दिवसा पंचहि भइया, दुरूवहीणा उ ते भवे मासा ।
मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे दिवसा१९ ॥ ३७४. ठवणारोवणसहिता, संचयमासा हवंति एवइया ।
कत्तो किं 'गहियं ति'२० य, ठवणामासे ततो सोधे२१ ॥ ३७५. दिवसेहि जइहि मासो, निष्फण्णो भवति सव्वरुवणाणं ।
ततिहि गुणिया उ मासा, ठवणदिणजुता उ छम्मासा ॥ १. आदि (ब, स)।
१२. एतेण (अ)। २. जुयगं (अ, ब)।
१३. विसोधयंतु (ब)। ३. गच्छट्ठगणं (ब)।
१४. खिवे (अ.स)। करणगाथामाह (मव),निभा ६४४० ।
१५. मेत्तेण वि सो (अ), मेतेण य सो (स)। ५. उठविज्जा (मु), भावेज्जा (स)।
१६. कोसग्गं (ब)।
१७. भतित (अ.स)। जुत्तो (निभा ६४४१,६४४७)।
१८. गुणसु (ब)। ८. ०ठवणाणं (अ)।
यह गाथा अ और स प्रति में नहीं है । इस गाथा का आगे गाथा ९. ०ठवणाणं तिण्हं तु (ब, स)।
३७७ में पुनरावर्तन हुआ है। १०. x (ब, स)। ११. सन्नादि (अ)।
२१. सोहे (ब)।
६.
०वाहि (ब, स)।।
१९.
२०. गहिय ति (ब)।
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प्रथम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
३७६.
३७७.
३७८.
३७९.
३८०.
३८१.
३८२.
३८३.
३८४.
३८५.
३८६.
रुवणाए जइ मासा, तइभागं तं करे सेसं च पंचगुणियं ठवणादिवसा जुता
रुवणाई (ब)।
जुत्ता (अ)।
यह गाथा व प्रति में नहीं है।
७.
८.
९.
० दीया (मु) ।
१०. चोद्दसओ (अ) ।
११. परतो य (ब) ।
१२. होज्जा व (ब)। १३. जहिं (ब) ।
दिवसा
II
दिवसा पंचहि भइता, दुरूवहीणा उ४ ते भवे मासा 1 मासा दुरूवसहिता, पंचगुणा ते भवे जत्थ उ दुरूवहीणं, न होज्ज भागं च पंचहि न 'तहि ठवणरुवणमास्ते, एगे तु दिणा " तु ते एक्कादिया' तु दिवसा, नायव्वा जाव होंति चउदसओ" । एकातो मासातो, निष्फण्णा परतों दुगहीणा ॥
१
य (अ) ।
वे (ब)।
यह गाथा पुनरुक्त हुई है । देखें गा. ३७३, विषयवस्तु की दृष्टि
यह यहां भी संगत है ।
० हीणा (अ, ब ) ।
० तहि तत्त न रुवणामासो एगो दिणा (अ) ।
तिपंचगुणं ।
दिवसा 11
जइ वा दुरूवहीणे, कतम्मि होज्जा १२ तहिं तु आगासं 1 तत्थ वि एगो मासो, दिवसा ते चेव दोन्हं पि 11 उक्कोसारुवणाणं, मासा जे होंति करणनिधिट्ठा । ते ठवणामासजुता १४, संचयमासा उ सव्वेसि पढमा ठवणा वीसा पढमा आरोवणा भवे १५ तेरसहि मासेहिं, पंच उ१६ राइंदिया पढमा ठवणा वीसा, बितिया आरोवणा अट्ठारसमासेहिं", एसा पढमा भवे पढमा ठवणा वीसा, ततिया आरोवणा उ तेवीसा मासेहिं पक्खो तु तहिं भवे एवं एता गमिता, गाहाओ २२ होंत एतेण कमेण भवे, चत्तारिसता उ तेत्तीसं ठवणपदा, तेत्तीसारोवणाय ठवणाणं संवेहो, पंचेव 'सया तु२४
भवे
देज्जा ।
चेव
वीसा
कसिणा १९
पक्खे 1
झोसो१७ ॥
1
11
पणुवीसा २० । झोसो २१
||
एगट्ठा २५
१४. ठवणमासजुत्ता (अ, स) ।
१५. x (अ) ।
१६. पंचमयं (ब)।
आणुपुव्वी । पणा २३
||
१७. निभा ६४४३ |
१८. अट्ठारसहिं मासेहिं (अ, स) ।
१९. निभा ६४४४ ।
२०. पण ० (स) ।
२१. निभा ६४४५ ।
२२. गाहातो (ब) ।
२३. निभा ६४४६ ।
॥नि. ८१ ॥
ठाणाई ।
11
२४. सयाए (ब)।
२५. निभा ६४४८ ।
||
[ ३७
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________________
३८
]
व्यवहार भाष्य
३८८.
३८९.
३८६/१ ठवणारोवण वि जुया, छम्मासा पंचभागभइया जे ।
रूवजुया ठवणपया, तिसु चरिमा देसभागेक्को' ॥ ३८७. पढमा ठवणा पक्खो, पढमारे आरोवणा भवे पंच ।
चोत्तीसामासेहि, एसा पढमा भवे कसिणा ॥ पढमा ठवणा पक्खो, बितिया आरोवणा भवे दस उ । अट्ठारसमासेहिं', पंच य राइंदिया झोसो ॥ पढमा ठवणा पक्खो, ततिया आरोवणा भवे पक्खो । बारसहिं मासेहिं, एसा बितिया भवे कसिणा ॥ एवं एता गमिता, गाहाओ होंति आणुपुव्वीए ।
एतेण० कमेण भवे, पंचेव सता उ११ एगट्ठा१२ ॥ ३९१. पणतीसं ठवणपदा, पणतीसारोवणाइ ठाणाइं ।
ठवणाणं संवेधो, छच्चेव सता भवे तीसा१३ ॥ ३९२. पढमा ठवणा पंच य४, पढमा आरोवणा भवे पंच ।
छत्तीसामासेहिं, एसा पढमा भवे कसिणा५ ॥ ३९३. पढमा ठवणा 'पंच य१६, बितिया आरोवणा भवे दस उ ।
एगूणवीसमासेहिं, पंच तु७ राइंदिया झोसो ॥ ३९४. पढमा ठवणा 'पंच य१८, ततिया आरोवणा भवे पक्खो ।
तेरसहिं१९ मासेहिं०, पंच तु राइंदिया झोसो ॥ एवं एता गमिता, गाहाओ होंति आणुपुव्वीए ।
एतेण कमेण भवे, छच्चेव सयाइ तीसाइं२९ ॥ ३९६. अउणासीत२२ ठवणाण, सतं२३ 'आरोवणा वि२४ तह चेव ।
सोलस चेव सहस्सा, दसुत्तरसयं च संवेधो ॥
३९५.
यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में अप्राप्त है। इसकी व्याख्या टीकाकार ने की है। टीकाकार इस गाथा के पूर्व लिखते हैं'गच्छानयनाय पूर्वसूरिप्रदर्शितेयं करणगाथा' इस वाक्य से स्पष्ट है कि यह भाष्यकार से पूर्व किसी आचार्य द्वारा लिखी गई है तथा प्रसंगवश इसे उद्धृत कर दिया गया है। निशीथभाष्य में इस क्रम में यह गाथा नहीं मिलती है। तइया (ब)। पक्खो (ब)। निभा ६४४९ । अट्ठारसहिं मा० (अ, निभा ६४५०)। उ(ब,स)।
कोसो (अ) ८. निभा ६४५१ । ९. अणुपु० (ब)। १०. एए तेण (अ)।
११. x (ब)। १२. निभा ६४५२। १३. निभा ६४५३ । १४ उ )। १५. निभा ६४५४। १६. पंचा (निभा ६४५५)। १७. एवं उ(ब)। १८. पंच उ(ब), पंचा (निभा ६४५६)। १९. तेरसएहि (ब)। २०. x (ब)। २१. निभा ६४५७। २२. ०णातीसं (अ)। २३. संति (अ)। २४. ०वणाण (निभा ६४५८)।
لا
و شی نو
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प्रथम उद्देशक
[३९
३९७. पढमा ठवणा एक्को, ‘पढमा आरोवणा भवे एक्को" ।
आसीतंरे माससतं, एसा पढमा भवे कसिणारे ॥ ३९८. पढमा ठवणा एक्को, बितिया आरोवणा भवे दोन्नि ।
एक्कानउतिमासेहि, एक्को उ तहिं भवे झोसो' ॥ पढमा ठवणा एक्को, ततिया आरोवणा भवे तिन्नि ।
एगट्ठीमासेहि', एक्को उ तहिं भवे झोसो ॥ ४००. एवं खलु गमिताणं, गाहाणं होति सोलससहस्सा ।
सतमेगं च दसहियं', नेयव्वं आणुपुवीए ॥ ४०१. असमाहीठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि ।
पलितोवम - सागरोवम, परमाणु ततो असंखेज्जा'१ ॥दारं ॥नि.८२ ॥ ४०२. ___ बारस अट्ठग छक्कग, माणं भणितं जिणेहि सोधिकरं ।
तेण परं जे मासा, साहण्णंता१२ परिसडंति१३ ॥नि.८३ ।। ४०३. केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा ।
चोद्दस-दस-नवपुबी, 'कप्पधर पकप्पधारी य५४ ॥नि.८४ ॥ ४०४. 'घेप्पंति च सद्देणं'१५, निज्जुत्ती-सुत्त-पेढियधरा य ।
आणा-धारण-जीते, य होंति पभुणो उ१६ पच्छित्ते ॥दारं ॥ ४०५. अणुघातियमासाणं१५, दो चेव सता हवंति बावण्णा ।
तिण्णि सया बत्तीसा, होति य उग्घातियाणं८ पि ॥नि.८५ ॥ ४०६. पंचसता चुलसीता९, सव्वेसिं२० मासियाण बोधव्वा ।
तेण परं वोच्छामी, चाउम्मासाण२२ संखेवं२३ ॥ ४०७. छच्चसता चोयाला, चाउम्मासाण२४ होतऽणुग्घाया२५ ।
सत्त सया चउवीसा, चाउम्मासाण उग्धाता ॥
१. x (अ)। २. · आसीया (स, ब)। ३. निभा ६४५९। ४. एगानेउईमा०(ब)।
निभा ६४६०। ६. इगसट्ठीमा० (निभा ६४६१)। ७. दससहियं (अ)। ८. नायव्वं (ब, म)। ९. आणुपुब्वेए (ब), निभा ६४६२ । १०. x (अ)। ११. निभा ६४६३। १२. संभहण्णंता (निभा ६४६६)। १३. ०सडिंति (ब)।
१४. कप्पवर पकप्पवर चेव (अ), निभा ६४६७ । १५. अन्ना वि य आएसा (अ, स)। १६. य (निभा ६४६८)। १७. अणुग्घाइमा० (ब, निभा ६४६९)। १८. उवग्घा० (ब)। १९. चुलुसीया (ब)। २०. सव्वेसि य स (अ), सव्वे य (स)। २१. वोच्छामि (ब)। २२. चाउरमा० (ब)। २३. निभा ६४७०। २४, ०म्मासा य (निभा ६४७१)। २५. अणुग्घाया इत्यत्र षष्ठ्यर्थे प्रथमा प्राकृतत्वात् (म) ।
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४०
]
व्यवहार भाष्य
४११.
४०८. तेरससतअट्ठट्ठा', चाउम्मासाण होंति सव्वेसिं२ ।
तेण परं वोच्छामी, सव्वसमासेण संखेवं३ । नवयसता 'य सहस्सं, ठाणाणं५ पडिवत्तिओ । 'बावण्णा ठाणाई", सत्तरि आरोवणा कसिणा ॥ सव्वेसिं ठवणाणं, उक्कोसारोवणा भवे कसिणा । सेसा चत्ता कसिणा, ता खलु नियमा अणुक्कोसा ॥ वीसाए तू 'वीसा, चत्त असीया'१० य तिण्णि कसिणाओ । तीसाएँ पक्ख पणवीस, तीस पण्णास२ पणसतरी१३ ॥ चत्ताए वीस पणतीस४, सत्तरी चेव तिण्णि कसिणाओ ।
पणयालाए पक्खो, पणयाला चेव दो कसिणा५ ॥ ४१३. पण्णाए पण्णट्ठी६, पणपण्णाए य७ पण्णवीसा य८ ।
सट्ठिठवणाएँ पक्खो, वीसा तीसा य चत्ता य९ ॥ सयरीए२० पणपण्णा, तत्तो पण्णत्तरी' 'पक्ख पणतीसा'२१ ।
असतीए२२ ठवणाए२३, वीसा पणुवीस पण्णासा२४ ॥ ४१५. नउतीय पक्ख तीसा२५, पणताला चेव तिण्णि कसिणाओ ।
सतियाएँ२६ वीस चत्ता, पंचुत्तर२७ पक्ख पणवीसा२८ ॥ ४१६. दस्सुत्तरसतियाए२९, पणतीसा वीस उत्तरे पक्खो ।
वीसा तीसा य तधा, कसिणाओ तिणि 'बीए य३१ ॥
४१२.
४१४.
१. २.
H
तेरसय अट्ठसट्ठा (ब)। सव्वेहिं (स)। निभा ६४७२। नवसयता (अ)। ०स्सट्ठाणाणं (ब), सहस्सं व ठाणाणं (स)। ०वत्तिओ होंति (मु)। बावन्नट्ठा० (निभा ६४७३), गाथा के द्वितीय चरण में अनुष्टुप छंद
*
5
चत्ता य (अ)।
निभा ६४७४। १०. वीसं चत्तमसीती (निभा ६४७५),०चत्त वसीती (स)। ११. पणु० (अ, निभा)। १२. पण्णा य (अ)। १३. पण्णसयरी (अ) १४. पणुवीस (अ.स)। १५. निभा ६४७६, ४१०-४१३ तक की गाथाएं ब प्रति में नहीं है। १६. , पन्नट्ठा (अ)। १७. उ(अ, निभा ६४७७)।
१८. उ (अ, निभा)। १९. x (ब)। २०. सत्तरीए (अ.स)। २१. पण्णरस पणुतीसा (अ, ब,स)। २२. असीतेण (ब), असीतिए (आ)। २३. x (ब)। २४. पण्णा य (अ, ब), निभा (६४७८) में कुछ शाब्दिक अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती है
सयरीए पणपण्णा, तत्तो पणसत्तरी य पन्नरसा।
पणतीसा असितीए, वीसा पणुवीस पण्णा य ।। २५. तीया (अ)। २६. सति आयाए (ब)। २७. ०त्तरे (ब)। २८. पणु० (अ, निभा ६४७९)। २९. दस उत्तर०(निभा ६४८०)। ३०. तीसा (अ)। ३१. बीए वा (स), वीसऽहिए (निभा)।
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प्रथम उद्देशक
[ ४१
४१७. तीसुत्तरपणवीसा, पणतीसा पक्खिया भवे कसिणा ।
'चत्तालीसा वीसा", पण्णासं पक्खिया कसिणाः ॥ ४१८. सव्वासिं ठवणाणं, एत्तो सामण्णलक्खणं वोच्छं ।
मासग्गे झोसग्गे. हीणाहीणे य गहणे य । _ 'जति मि भवे आरोवण", ततिभागं तं करे ति-पंचगुणं ।
सेसं पंचहि गुणिए', ठवणादिजुता उ छम्मासा ॥ ४२०. __जति मि भवे आरुवणा, ततिभागं तस्स ‘पण्णरसहि गुणे ।
ठवणारोवणसहिता, छम्मासा होति नायव्वा० ॥ ४२१. जेण तु पदेण गुणिता, होऊणं सो न होति गुणकारो ।
तस्सुवरिं जेण गुणे, होति समो सो हु१ गुणकारो ॥ ४२२. जतिहि२ गुणे आरोवण, ठवणाजुत्तो३ हवंति छम्मासा ।
तावतियारुवणाओ, हवंति सरिसाऽभिलावाओ ॥ ४२३.
ठवणारोवणमासे'४, नाऊणं तो५ भणाहि मासग्गं । जेण६ समं तं कसिणं, जेणऽहियं तं च झोसग्गं ॥ जत्थ उ दुरूवहीणा, न होंति तत्थ उ भवंति साभावी ।
'एगादी जा'१८ चोद्दस, एक्कातो सेस९ दुगहीणा२० ॥ ४२५. 'उवरिं तु २१ पंचभइए, 'जे सेसा तत्थ केइ'२२ दिवसा उ ।
ते सव्वे एक्काओ, मासाओ होंति नायव्वा ॥ ४२६. होति समे समगहणं, तह वि य पडिसेवणा उ नाऊणं ।
हीणं वा ‘अहियं वा'२३, सव्वत्थ समं च२४ गेण्हेज्जा२५ ॥
४२४.
१. चत्ताले इगवीसा (निभा), चत्ताले वीसा उ (ब)। २. ०णासे (ब, निभा ६४८१) । ३. इस गाथा के बाद निभा (६४८२) में निम्न गाथा अतिरिक्त
मिलती है । टीका में इस गाथा की संक्षिप्त व्याख्या मिलती है किंतु हस्तप्रतियों तथा टीका की मुद्रित प्रति में यह गाथा नहीं मिलती
वीसिगठवणाए त. एयाओ हवंति सत्तरी कसिणा।
सेसाण वि जा जत्तिय, नाऊणं ता भणिज्जाहि ।। ४. निभा ६४८३ । ५. आरुवणा जति मासा (निभा ६४८४)।
ततियभंग (ब)। ७. गुणायए (ब) गुणाए (अ, स)। ८. ४२० से ४२३ तक की गाथाएं ब प्रति में नहीं है। ९. पणरसहि गुणए (अ)। १०. यह गाथा स प्रति में नहीं है, निभा ६४८५ ।
११. तु (निभा ६४८६)। १२. जईह (स)। १३. ठवणाए जुता (निभा ६४८७)। १४. रोवण दिवसे (निभा ६४८८)। १५. ता ()। १६. जंच (निभा)। १७. ०ठियं (स)। १८. ०दीया (अ)। १९. जाव (स)। २०. निभा ६४८९ । २१. उवरिंसु (अ)। २२. जे सेसा केइ तत्थ (निभा ६४९०), जति सेसा० (अ)। २३. x (ब)। २४. वा (ब)। २५. निभा ६४९१ ।
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४२ ]
व्यवहार भाष्य
४२७. विसमा आरुवणाओ', विसमं गहणं तु होति नायव्वं ।
सरिसे वि सेवितम्मी, जध झोसो तध खलु विसुद्धो३ ॥ ४२८. एवं खलु ठवणातो, आरुवणाओ', विसेसतो होति ।
ताहि गुणा तावइया, नायव्व तहेव झोसा य ॥ ४२९. 'कसिणा आरुवणाए', समगहणं 'होति तेसु मासेसु ।
'आरुवणा अकसिणाय, विसमं झोसो ‘जधा सुज्ञ११ ॥ ४२९/१ जइ इच्छसि नाऊणं, ठवणारोवण जहाहि मासेहिं ।
गहियं तद्दिवसेहि, तम्मासेहिं हरे भाग१२ ॥ ४३०. एवं तु समासेणं, भणियं३ सामण्णलक्खणं४ बीयं ।
एतेण लक्खणेणं, 'झोसेतव्वा व५ सव्वाओ ॥दारं ।। ४३१. कसिणाऽकसिणा एता, सिद्धा उ भवे पकप्पनामम्मि६ ।
चउरो अतिक्कमादी, सिद्धा७ तत्थेव अज्झयणे ॥ ४३२. अतिक्कमे वतिक्कमे, चेव अतियारे तधा अणायारे ।
गुरुओ८ य९ अतीयारो, गुरुयतरागो° अणायारो ॥ तत्थ भवे न तु सुत्ते, अतिक्कमादी तु वण्णिता केई२९ ।
चोदग सुत्ते सुत्ते, अतिक्कमादी उ जोएज्जा ॥ ४३४. सव्वे वि य पच्छित्ता, जे सुत्ते ते पडुच्चऽणायारं ।
थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे चतुसु वि पदेसु२२ ॥ निसीध२३ नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ । आयारनामधेज्जा, वीसतिमे२४ पाहुडच्छेदा२५ ॥दारं ॥नि.८६ ॥
४३३.
तत्थ भवन
४३५.
आरोवणाए (स, निभा ६४९२) । व (अ)।
विसुज्झो (स), विसुज्झे (निभा)। ४. ०णाउ (अ)।
x (अ)। समासओ (निभा ६४९३)।
जोसा (ब) सर्वत्र । ८. कसिणाए रुवणाए (निभा ६४९४) । ९. ते तेसु (अ), तेसु होइ (निभा)। १०. ०वण अकसिणाए (निभा)। ११. जह विसुज्झे (अ) १२. यह गाथा हस्तप्रतियों में नहीं मिलती है। टीका में यह गाथा
भाष्यगाथा के क्रम में व्याख्यात है। किन्तु यह करणगाथा के रूप में किसी अन्य ग्रन्थ से उद्धृत की गई प्रतीत होती है । निशीथ भाष्य में इस गाथा को भाष्यगाथा के साथ न जोड़कर उद्धृत गाथा के रूप में रखा है।
१३. भत्रियं (ब)। १४. ०खणे (ब)। १५. झोसेयव्वाओ (स, निभा ६४९५)। १६. नामंसि (ब)। १७. सुद्धा (निभा ६४९६)। १८. असतो (ब)। १९. उ(अ.स)। २०. गुरुगतरो उ (निभा ६४९७)। २१. केति (अ, ब, निभा ६४९८)। २२. निभा ६४९९। २३. निसीह (ब)। २४. वीसतिमा (ब)। २५. निभा ६५००।
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प्रथम उद्देशक
[४३
४३
४३६. पत्तेयं पत्तेयं, पदे पदे भासिऊण अवराधे ।
ते केण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्ना' नि.८७ ॥ जिणचोद्दसजातीए, आलोयणदुब्बले य आयरिए । एतेण कारणेणं, दोसा एगत्तमावन्नारे ॥नि.८८ ॥ 'घतकुडगो उ' जिणस्सा, चोद्दसपुब्बिस्स' नालिया होति ।
दव्वे एगमणेगे, निसज्ज एगा अणेगा य ॥निं. ८९ ॥ ४३९.
उप्पत्ती रोगाणं, तस्समणे ओसधे . य विभंगी । नाउं तिविधामयिणं', देंति तथा ओसधगणं तु० ॥ एक्केणेक्को १ छिज्जति, एगेण१२ अणेग णेगहिं एक्को ।
णेगेहिं पि अणेगे३, पडिसेवा एव मासेहिं ॥ ४४१. एक्कोसहेण छिज्जति४, केइ कुविता य५ तिण्णि वातादी ।
बहुएहिं छिज्जंती१६, बहूहि१७ एक्केक्कतो वावि ॥ विब्भंगी व१८ जिणा खलु, रोगी साहू य९ रोग अवराहा ।
सोधी य औसहाई२९, तीए जिणा उ वि सोहंति२१ ॥दारं ॥ ४४३. एसेव य दिलुतो, विन्भंगिकतेहि२२ वेज्जसत्थेहिं ।
भिसजा करेंति किरियं, सोहेति तथैव पुव्वधरा२३ ॥ ४४४. नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो ।
तध पुव्वधरा भावं, 'जाणंति विसुज्झए४ जेणं ॥दारं ॥ ४४५. मास-चउमासिएहिं, बहूहि वेगं२५ तु दिज्जते सरिसं ।
असणादी दव्वाओ, विसरिसवत्थूसु२६ जं गुरुगं ॥दारं ।।
४२.
my
१६. वि छिज्जंति (निभा)। १७. बहुएहि (अ, निभा ६५०६)। १८. वा (ब), वि (स)। १९. उ(ब,स)। २०. उसहाति (ब) २१. निभा (६५०७) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती
;
मेगत्त० (ब, निभा ६५०१)।
यह गाथा अ प्रति में नहीं है, निभा ६५०२ । ३. ०कुडवो य (अ, निभा ६५०३)।
जिणस्स (स)। चोदस० (अ)। उप्पत्ति (अ)। तस्स कम्मे (ब)।
ओसधि (अ)। ९. ०मइणं (ब)। १०. निभा ६५०४॥ ११. एगेणेगो (निभा ६५०५)। १२. x(अ)। १३. तेणेगा (ब)। १४. किज्जति (अ), भिज्जति (ब)। १५. उ(स)।
८.
आ
धण्णंतरितुल्लो जिणो, णायव्यो आतुरोवमो साहू।
रोगा इव अवराहा, ओसहसरिसा य पच्छित्ता ।। २२. विभंगगएहिं (ब)। २३. निभा ६५०८। २४. जाणंती सुज्झते (निभा ६५०९)। २५. एग (निभा ६५१०)। २६. विसरस० (ब), वत्थूओ (निभा)।
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व्यवहार भाष्य
४४६. अगारीय दिटुंतो, एगमणेगे ‘य ते य२ अवराधा ।
भंडी चउक्कभंगो, सामियरे पत्ते य तेणम्मि ॥ ४४७. णीसज्ज' वियडणाए, एगमणेगे य होति चउभंगो' ।
वीसरि उस्सण्णपदे, बिति-तति चरिमे सिया दोवि ॥ ४४८. गावी पीता 'वासी, य११ हारिता'२ भायणं च ते भिन्नं ।
अज्जेव३ ममं सुहयं, करेहि१४ पडओ वि ते नट्ठो५ ॥ ४४९. एगावराहदंडे, अण्णे य६ कहेतऽगारि१७ हम्मंती ।
एवं णेगपदेसु वि, दंडो८ लोगुत्तरे एगो ॥ ४५०.. णेगासु चोरियासुं१९, मारणदंडो न सेसंगा दंडा ।
एवं णेगपदेसु वि, एक्को दंडो उ न२० विरुद्धो ॥दारं ।। ४५१.
संघयणं जध सगडं, धिती उ 'धोज्जेहि होंति उवणीया'२१ । सघयण जय
बिय तिय चरिमे भंगे, तं दिज्जति२२ जं तरति वोढुं दारं ॥ ४५२. निवमरण मूलदेवो२३, आसऽहिवासे व'२४ पट्ठि न तु दंडो ।
'संकप्पिय गुरुदंडो, मुच्चति'२५ जं वा तरति वोढुं ॥दारं ।। ४५२/१ एगत्तं दोसाणं, दिटुं कम्हा उ अन्नमन्नेहिं ।
मासेहिं२६ तो घेत्तुं, दिज्जति एगं तु पच्छित्तं२७ ॥ ४५३. चोदग पुरिसा दुविधा, 'गीताऽगीत-परिणामि इतरे य'२८ ।
दोण्ह वि पच्चयकरणं, सव्वे सफला कता मासा ॥नि.९० ॥
१. अगारीए य (ब), आगारीय य (स),आगारिय (निभा ६५११)। २. ण तेण (आय तेण (ब)। ३. सामी (ब)। ४. म्मि (स)।
णिसज्जाय (अ), निसेज्जा य(निभा ६५१२)। ६. विगडणं (अ)। ७. भंगी (ब), इह स्त्रीत्वे पुंस्त्वम् प्राकृतत्वात् (मवृ) । ८. चरमे (ब)। ९. गोवी (ब)। १०. विहिया (अ), पिता (स)। ११. वासिया (ब)। १२. धारिता (अ.स)। १३. अज्जे वि(अ)। १४. कारउ (ब)। १५. दंडो (अ, स), हरिओ (निभा ६५१४) निभा में ४४८ और ४४९
की गाथा में क्रमव्यत्यय है। १६. x (अ), वि (निभा ६५१३)।
१७. कधिय अगा० (अ), कहेह गारि (स)। १८. डंडो (स)। १९. व्यासू (निभा ६५१५)। २०. स (स)। २१. धुज्जेहि होति उवणीतो (स, निभा ६५१६)। २२. विज्जति (निभा)। २३. देवमूलो (अ)। २४. आसाहिवासा य (ब), आसऽहिवासे य (निभा ६५१७) । २५. x (अ), मुंचति (निभा)। २६. ४(अ)। २७. यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में भाष्य गाथा के क्रम में नहीं
है। किन्तु टीका में संक्षिप्त व्याख्या है। सभी हस्तप्रतियों में यह गाथा मिलती है। यह गाथा उपसंहारात्मक है। ऐसा संभव लगता है कि बाद के आचार्यों ने विषय की स्पष्टता के लिए इस गाथा को बाद में जोड़ दिया हो । निशीथ भाष्य में भी इस क्रम
में यह गाथा नहीं मिलती है। २८. वणिए मरुए णिहीण दिट्ठतो (निभा ६५१८)।
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प्रथम उद्देशक
४५८.
४५४. वणिमरुगनिही य पुणो, दिटुंता तत्थ होंति कायव्वा' ।
गीत्थमगीताण य, उवणयणं तेहि कायव्वं२ ॥नि.९१ ।। ४५५. वीसं वीसं भंडी, वणिमरुसव्वा य तुल्लभंडीओ ।
'वीसतिभागं सुंक", मरुगसरिच्छो इहमगीतो ॥ ४५६. अहवा वणिमरुगेण य, निहिलंभऽनिवेदिते वणियदंडो ।
मरुए पूयविसज्जण, इय कज्जमकज्ज जतमजते ॥ ४५७. मरुगसमाणो उ गुरू, पूतिज्जति मुच्चती य 'सव्वं से ।
साधू वणिओ व जधा, वाहिज्जति सव्वपच्छित्तं ॥ अधवा महानिहिम्मी, जो उवयारो स एव थोवे वि ।
विणयादुवयारो'१ पुण, 'जो छम्मासे स१२ मासे वि ॥ ४५९. सुबहूहि वि मासेहिं, छम्मासाणं३ परं न दातव्वं ।
अविकोवितस्स एवं, विकोविए अन्नहा होति ॥ ४६०. सुबहूहि वि मासेहिं, 'छेदो मूलं तहिं१४ न दातव्वं ।
अविकोवितस्स ,एवं, विकोविते अन्नहा होति ॥ गीतो विकोविदो खलु, कतपच्छित्तो सिया अगीतो वि ।
छम्मासिय 'पद्रवणाय तस्स१५ सेसाण पक्खेवो ॥ ४६२. 'मूलऽतिचारे चेतं१६, पच्छित्तं होति उत्तरेहिं वा ।
तम्हा खलु मूलगुणे, नऽतिक्कमे उत्तरगुणे वा ॥ ४६३. मूलव्वयातियारा, जदऽसुद्धा चरणभंसगा होति ।
उत्तरगुणातियारा, 'जिणसासण कीस ८ पडिकुट्ठा ९ ॥ ४६४. उत्तरगुणातियारा, जदसुद्धा चरणभंसगा होति ।
मूलव्वयातियारा, जिणसासण कीस पडिकुट्ठा२० ॥ ४६५. मूलगुण उत्तरगुणा, जम्हा भंसंति२१ चरणसेढीतो ।
तम्हा जिणेहि दोण्णि२२ वि, पडिसिद्धा सव्वसाहूणं२३ ॥ १. णाय० (स)।
१२. छम्मासे तहेव (निभा)। २. ४५४ से ४५९ तक की गाथाओं में निशीथ भाष्य में क्रमव्यत्यय १३. छहं मासाण (निभा ६५२०)।
है। विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से व्यवहार भाष्य का क्रम १४. छहं मासाण परं (निभा ६५२४)। संगत प्रतीत होता है।
१५. पट्ठवणा एतस्स निभा ६५२५)। x (अ)।
१६. चारेहितो (निभा ६५२७)। ४. भंडा (अ, स)।
१७. x (अ)। वीसतिभाओ सुक्कं (निभा ६५२१)।
१८. ०सणे किं (ब, निभा)। ०मतीगतो (ब), इय अगीओ (निभा)।
१९. ०क्कुट्ठा (निभा ६५२८)। ७. लंभणिवेदणे (निभा ६५२२)।
२०. पडिक्कुट्ठा (निभा ६५२९)। ८. से सव्वं (निभा ६५१९,६५२३)।
२१. भासंति (ब) ९. निहिम्मि (अ, ब),निहिम्मि य (स)।
२२. दोण्ह (स)। १०. चेव (निभा ६५२६)।
२३. निभा ६५३०। ११. विणियातोपयारो (अ)
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४६ ]
४६६.
४६७.
४६८.
४६९.
४७०.
४७१.
४७२.
४७३.
४७४.
४७५.
४७६.
४७७.
१.
२. मूला० (अ) ।
३.
॥
I
1
।
॥
'अग्गघातो ह मूलं, मूलघातो य अग्गयं । तम्हा खलु मूलगुणा, न संति न य उत्तरगुणा उरे चोदग छक्कायाणं, तु संजमो मूलगुण उत्तरगुणा, दोणि वि इत्तरिसामाइय छेद संजम तह दुवे नियंठा य बउस - पडिसेवगाओ", अणुसज्जते य जा तित्थं मूलगुणदतिय-सगडे, उत्तरगुण मंडवे सरिसवादी छक्कायरक्खणट्ठा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी पिंडस्स जा विसोधी, समितीओ भावणा तवो दुविधो १२ पडिमा अभिग्गहा वि य, उत्तरगुण मो ३ वियाणाहि१४ बायाला अट्ठेव य, पणुवीसा बार बारस उ चेव । दव्वादि चउरभिग्गह, भेदा खलु उत्तरगुणानं १५ ॥ निग्गयवट्टंता 'वि य१६, संचइता खलु तहा असंचइता | एक्केक्काए दुविधा, उग्घात तहा अणुग्घाता ॥ नि. ९२ ॥ छेदादी आवण्णा, उ निग्गता ते तवा उ बोधव्वा । जे पुण वट्टंति तवे, ते वट्टंता मुणेयव्वा ॥ मासादी आवणे, जा छम्मासा असंचयं होति । छम्मासाउ१७ परेणं, संचयं तं मुव्वं ॥ मासादि असंचइए, संचइए छहि तु होति । तेरसपद संचइए, संचऍ१८ "एक्कारसपदाई ॥
अग्गग्धाते हतं (अस) ।
निभा (६५३१) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है
छक्कायसंजमो जाव, तावऽ णुसज्जणा दोन्हं ।
इस गाथा के बाद अ प्रति तथा निभा (६५३२) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है
जा संजमता जीवेसु, ताव मूला य उत्तरगुणा य ।
इत्तरिय छेद संजम नियंठ बकुसा य पडि सेवा ||
४.
जावाऽणु० (ब)।
५.
बाउस० (अ)।
६.
अणुकज्जते (ब)।
सरियवादी (स), सर्षपादिः (मवृ)
७.
८.
अत्र गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
९.
निभा ६५३३ ।
१०. विसुद्धी (ब) ।
जाऽणुधावते ताव अणुधावते ताव
'तवतिग छेदतिगं वा १९, मूलतिगं अणवट्ठाणतिगं २० च I चरमं च एक्कसरयं, पढमं तववज्जियं बितियं ॥ बितिय संचइयं खलु तं आदिपएहि दोहि रहियं छम्मासतवादीयं, एक्कारसपदेहि २१
तु
चरमेहिं
११. तधा (ब)।
१२. दुविहिं (ब)। १३. मो इति पादपूरणे (मवृ) ।
॥
11
या (निभा ६५३६) ।
० मासाओ (ब)।
1
।
॥ दारं ॥
१४. ० णाहे (ब) निभा ६५३४ ।
१५.
निभा (६५३५) में इस गाथा के स्थान पर कुछ अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती है
१६.
१७.
१८. संचति (निभा ६५३७) ।
१९. तवतिगं छेदतिग (निभा ६५३८) ।
व्यवहार भाष्य
तिग बाताला अट्ठ य, पणुवीसा बार बारस च्चेव ।
छण्णउदी दव्वादी, अभिग्गहा उत्तरगुणा उ ।
२०. अणवट्ठावण ० ( अ, स)।
२१. छंद की दृष्टि से एक्कारपएहि पाठ होना चाहिए।
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प्रथम उद्देशक
[ ४७
४७८. छम्मासतवो छेदादियाण, तिग तिग तहेक्क 'चरमं वा ।
संवट्टितावराधे, एक्कारसपयारे उ संचइए ॥ ४७९. पच्छित्तस्स उ अरहा, इमे उ पुरिसा चउब्विहा होति ।
उभयतर आततरगा, परतरगा अण्णतरगा य ॥ ४८०. आततर-परतरे या, आततरे अभिमुहे य निक्खित्ते ।
एक्केक्कमसंचइए", संचइ उग्घातऽणुग्घाते ॥नि.९३ ।। ४८१. जह मासओ उ लद्धो, सेवयपुरिसेण जुयलयं चेव ।
तस्स दुवे तुट्टीओ, वित्ती य कया जुयलयं च ॥ ४८२. एवं उभयतरस्सा, दो तुट्ठीओ उ सेवगस्सेव ।
सोही य कता मे त्ती, वेयावच्चे निउत्तो य ॥ ४८३. सो पुण जइ वहमाणो, आवज्जति इंदियादिहि१० पुणो वि ।
तं पि य से आरुभिज्जइ, भिन्नादी पंचमासंतं ॥ ४८४. तवबलितो सो जम्हा, तेण र१२ अप्पे वि दिज्जते बहुगं ।
परतरओ पुण जम्हा, दिज्जति बहुए वि तो थोवं३ ॥ ४८५ वीसट्ठारस लहु-गुरु, भिन्नाणं 'मासियाण आवण्णो १४ ।
सत्तारस पण्णारस, लहुगुरुगा मासिया होति५ ॥ ४८६. उग्घातियमासाणं, सत्तरसेव य अमुच्चयंतेणं१६ ।
णेयव्व दोण्णि तिण्णि य, गुरुगा पुण होंति पण्णरसा ॥ ४८७. सत्त-चउक्का उग्घातियाण, पंचेव होतऽणुग्घाता७ ।
पंच लहुगा उ पंच उ, गुरुगा पुण पंचगा तिण्णि१८ ॥ ४८८. उक्कोसा उ पयाओ, ठाणे ठाणे दुवे परिहवेज्जा ।
एवं दुगपरिहाणी, नेयव्वा जाव तिण्णेव९ ॥
१. चरिमं च (अ)। २. छंद की दृष्टि से 'एक्कारपया' पाठ होना चाहिए। ३. निभा (६५३९) में इस गाथा की संवादी निम्न गाथा मिलती
४. ५.
छेदतिगं मूलतिगं, अणवट्ठतिगं च चरिममेगं च ।
संवट्टितावराधे, एक्कारसपया उ संचइए॥ x (अ)। ब प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। वि य (ब), वा (निभा ६५४०)। ०क्क असंच ०(अ.स)। उग्घायमणु ०(आ), ब प्रति में ४८०-८२ तक की तीन गाथाएँ नहीं
१०. इंदियाइहि (ब)। ११. भिन्नाइं (अ)। १२. रेफ: पादपूरणे इजेरा: पादपूरणे इति वचनात् (मवृ) व (निभा
६५४२)। १३. अप्पं (निभा)। १४. मासियावन्नो (अ)। १५. निभा ६५४३ । १६. अणुमुयंतेण (अ, निभा ६५४४) । १७. होति अणुघाया (ब), अनुद्घातिका नाम अत्र गाथायां प्रथमा
षष्ठ्य र्थे (मवृ)। १८. निभा ६५४५। १९. यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है । निभा ६५४६ ।
७.
९.
जुवलयं (स)।
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४८
]
व्यवहार भाष्य
४९१.
४८९. अट्ठट्ठ उ अवणेत्ता', सेंसा दिज्जति जाव तु तिमासो ।
जत्थट्ठगावहारो, न होज्जरे तं झोसए सव्वं ॥ ४९०. बारस दस नव चेव य?, सत्तेव जहन्नगाइ ठाणाइं ।
'वीसऽट्ठारस सत्तर", "पन्नर ठाणाण बोधव्वा ॥ पुणरवि जे अवसेसा, मासा जेहिं पि छण्हमासाणं ।
उवरिं झोसेऊणं, छम्मासा सेस दायव्वा ॥ ४९२. छहि दिवसेहि गतेहिं, छण्हं मासाण होंति पक्खेवो ।
छहि चेव य सेसेहिं, छण्हं मासाण पक्खेवो ॥ एवं बारसमासा, छद्दिवसूणा तु जेट्ठपट्ठवणा ।
छद्दिवसगतेऽणुग्गह, निरणुग्गह 'छाग ते खेवो५१ ॥ ४९४. चोदेति रागदोसे, दुब्बलबलिते य२ जाणते चक्खू ।
भिण्णे खंधग्गिम्मि य, मासचउम्मासिए चेडे३ ॥दारं ।। ४९५. सत्त चउक्का उग्घातियाण पंचेव होतऽणुग्धाता ।
'पंच लहु पंच गुरुगा"४, गुरुगा पुण पंचगा तिण्णि ॥ ४९६. सत्तारस पण्णारस, 'निक्खेवा होति मासियाणं तु१५ ।
वीसऽट्ठारस भिन्ने, तेण परं निक्खिवणता उ ॥ ४९७. आततरमादियाणं, मासा लहु गुरुग सत्त पंचेव ।
चउ-तिग-चाउम्मासा, तत्तो उ चउव्विहो भेदो१६ ॥दारं ॥नि.९४ ।। ४९८. सत्त उ१७ मासा उग्घातियाण, छच्चेव होतऽणुग्घाया ।
पंचेव य चतुलहुगा, चतुगुरुगा होंति चत्तारि१८ ॥ ४९९. आवण्णो इंदिएहि, परतरए झोसणा ततों परेण ।
मासलहुगा य सत्त उ, छच्चेव य होति मासगुरू ॥
१. उवणेत्ता (अ)। २. होति (निभा ६५४८)। ३. निभा में ४८९ एवं ४९९ की गाथा में क्रमव्यत्यय है। ४. तु (निभा)। ५. वीसट्टारा ० (ब), वीसट्ठार सत्तरस (अ)।
पन्नरहाणी मुणेयव्वा (निभा ६५४७)। तेसिं (अ)। सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे (मव)। निभा ६५४९, इस गाथा के बाद निभा (६५५०,६५५१) में दो निम्न गाथाएं और मिलती हैं
जे ते झोसियसेसा, छम्मासा तत्थ पट्ठवित्ताणं। छद्दिवसूणे छोढुं, छम्मासे सेस पक्खेवो । अहवा छहि दिवसेहिं, गतेहि जति सेवती तु छम्मासे। तत्थेव तेसि खेवो, छद्दिणसेसेसु वि तहेव ॥
१०. x (स)। ११. छागते खेवो (निभा ६५५२) । १२. उ(अ)। १३. निभा ६५५३ । १४. पंच लहुगा य गुरुगा (आ, पंच लहुगा उपंच उ(निभा ६५५४)। १५. निक्खेवो होति मासियाणं पि (निभा ६५५५)। १६. निभा ६५५६ । १७. अ (निभा ६५५७)। १८. मुद्रित टीका में भाष्यगाथा के क्रमांक में यह गाथा नहीं है किन्तु
इसकी व्याख्या टीका में उपलब्ध है। सभी हस्तप्रतियों एवं निभा में यह गाथा इसी क्रम में मिलती है । विषयवस्तु की दृष्टि से भी यह गाथा यहां प्रासंगिक लगती है।
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प्रथम उद्देशक
[ ४९
५०१.
५००. चउलहुगाणं पणगं, चउगुरुगाणं तहा चउक्कं च ।
तत्तो छेदादीयं, होतिर चउक्कं मुणेयव्वं ॥ तं चेव पुव्वभणियं, परतरए नत्थि एगखंधादी ।। दो जोए अचयंते, वेयावच्चट्ठया झोसो दारं ॥ तवऽतीतमसद्दहिए, तवबलिए चेव होति परियागे' ।।
दुब्बलअपरीणामे, अत्थिर अबहुस्सुते मूलं ॥नि.९५ ॥ ५०३. जध मन्ने एगमासियं, सेविऊण एगेण सो उ निग्गच्छे ।
तध मन्ने एगमासियं, सेविऊण 'चरमेण निग्गच्छे ॥ ५०३/१. जध मन्ने एगमासियं, सेविऊण एगेण सो उ निग्गच्छे ।
तध मन्ने एगमासियं, सेविऊण भिन्नेण निग्गच्छे० ॥ जिणनिल्लेवणकुडए१, मासे अपलिकुंचमाणे सट्ठाणं ।
मासेण१२ विसुज्झिहिती, तो देंति१३ गुरूवदेसेणं१४ ॥नि.९६ ॥ ५०५. एगुत्तरिया घडछक्कएण, छेदादि होति निग्गमणं ।
एतेहि दोसवुड्डी१५, 'उप्पत्ती रागदोसेहिं१६ ॥नि.९७ ।। अप्पमलो होति सुची७, कोइ पडो जलकुडेण८ एगेण । मलपरिवुड्डीय भवे, कुडपरिवुड्डीय२० जा 'छ तू२१ ॥ तेण परं२२ सरितादी, गंतुं सोधेति२३ बहुतरमलं तु । मलनाणत्तेण भवे, आदंचण२४-जत्त-नाणत्तं ॥
५०४.
५०६:
५०७.
१. गाण (स)। २. होति (अ, ब)।
निभा (६५५८) में ४९९ एवं ५०० इन दोनों गाथाओं के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है :
आवण्णो इंदिएहि, परतरए झोसणा ततो परेणं ।
मासा सत्त य छच्च य, पणग चउक्कं चउ चउक्कं ।। ४. ट्ठिया (निभा ६५५९)। ५. ०याते (ब)। ६. अपरिणामे (अ, ब, स)। ७. अथिरे (अ), अस्थिरं (निभा ६५६०)। ८. स्सुए (अ)।
निग्गच्छते दोहिं (निभा ६५६१)। १०. यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं है किन्तु सभी
हस्तप्रतियों में उपलब्ध है । टीकाकार ने इस गाथा के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया है। यह गाथा ५०३ की ही संवादी है तथा अतिरिक्त सी प्रतीत होती है । निशीथ भाष्य में भी इस क्रम में यह गाथा नहीं है। हमने इसे भागा के क्रम में नहीं जोड़ा है।
११. कुडवे (ब)। १२. मासेहि (निभा ६५६२) । १३. दिति (ब)। १४. व्यभा ५१२। १५. ० वड्ढी (अ, ब)। १६. कपिज्जइ दोहि ठाणेहिं (ब), उप्पज्जति दोहि ठाणेहिं (सपा)
उप्पज्जति रागदोसेहिं (निभा ६५६३) व्यभा ५११ । १७. सुती (ब)। १८. कुढेण (आ.पडेण (स)। १९. ० वड्ढीए (ब)। २०. ० वड्ढीउ (अ)। २१. यं तु (स), छन्नू(ब) निभा ६५६४ । २२. परि (ब)। २३. सोहिंतु (ब)। २४. आयंचण (ब, निभा ६५६५)।
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५० ]
व्यवहार भाष्य
५०८. बहुएहि जलकुडेहिं', बहूणि वत्थाणि काणि विर विसुज्झे ।
अप्पमलाणि बहूणि वि, ‘काणिइ सुज्झति एगेणं ॥नि.९८ ॥ ५०९. जध मने दसमं सेविऊण, निग्गच्छते तु दसमेण ।
तध मन्ने दसमं सेविऊण एगेण निग्गच्छे ॥ ५१०. जधमन्ने बहुसो मासियाणि सेवित्तु" एगेण निग्गच्छे ।
तध मन्ने बहुसो मासियाइ सेवित्तु बहूहि निग्गच्छे११ ॥ एगुत्तरिया'२ घडछक्कएण, छेदादि होंति निग्गमणं । एतेहि१३ दोसवुड्डी, उप्पत्ती५ रागदोसेहिं१६ ॥ जिणनिल्लेवणकुडए, मासें अपलिकुंचमाणे सट्ठाणं ।
मासेण७ विसुज्झिहिती, तो८ देंति गुरूवदेसेणं१९ ॥ ५१३. पत्तेयं पत्तेयं, पदे पदे भासिऊण२० अवराधे ।
तो केण कारणेणं, हीणब्भहिया व पट्ठवणा ॥नि.९९ ॥ मणपरमोधिजिणाणं२२, 'चउदस दसपुब्वियं२३ च नवपुष्वि ।
थेरेव समासेज्जा, ऊणऽब्भहिया च पट्ठवणा ॥नि.१०० ।। ५१५. हा दुडु कतं हा दुहु कारितं दुट्ठ अणुमयं 'मे त्ति'२४ ।
अंतो अंतो डज्झति२५, पच्छातावेण वेवंतो२६ ॥ जिणपण्णत्ते भावे, असद्दहंतस्स 'तस्स पच्छित्तं'२७ ।
हरिसमिव२८ वेदयंतो, तधा तधा वढ्ढते उवरिं ॥ ५१७. एत्तो२९ निकायणा मासियाण, जधर घोसणं पुहविपालो ।
दंतपुरे कासी या३२, आहरणं तत्थ कायव्वं ॥
१. कुंडेहिं (स)। २. य(अ)। ३. काणिवि सुझंति (अ), काणिति सुज्झंति (निभा ६५६६)। ४. णिग्गच्छे (निभा ६५६७)।
नवमेण (ब)।
०याइं (अ, ब)। ७. सेवित (अ)।
एगेण सो उ(अ.स)। ९. याई (ब)। १०. सेविउं (ब)। ११. निभा ६५६८। १२. एक्कुत्त० (अ)। १३. तेहिं तु (ब)। १४. ०वड्डी (ब, निभा)। १५. उप्पज्जति (निभा ६५६९)। १६. निभा ६५६३, यह गाथा पुनरुक्त हुई है, देखें व्यभा ५०५ । १७. मासेहि (निभा)। १८. ता (अ)।
१९. जिणोवएसेणं (अ,ब, स, निभा) पाठांतरे जिनोपदेशेन (मवृ) निभा
६५७०,६५६२। यह गाथा पुनरुक्त हुई है। देखें व्यभा
५०४। २०. भाणिऊण (स, निभा ६५७१)। २१. ०हियं (अ.स) २२. जिणं च (ब), जिणं वा (अ, निभा ६५७२) । ०३. चोद्दस दसपुदिव (ब)। २४. मित्ति (ब)। २५. भिज्जती (ब)। २६. निभा ६५७३ | २७, अपत्तियं तस्स (अ), पत्तियं तस्स (निभा ६५७४) । २८. हरिसं विव (निभा)। २९. इत इति तृतीयाथै पञ्चमी ततोऽयमर्थ: (मवृ)। ३०. णिक्का ०(निभा ६५७५)। ३१. जंव (स)। ३२. उ(अ)।
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प्रथम उद्देशक
[५१
५१८. आलोयणारिहालोयओ य' आलोयणाय दोसविधी ।
पणगातिरेग जा पणवीस, पंचमसुत्ते अध विसेसोरे ॥नि.१०१ ।। आलोयणारिहो खलु, निरावलावी उ जह उ दढमित्तो ।
अट्ठहि 'चेव गुणेहिं, इमेहि जुत्तो उ' नायव्वो ॥नि.१०२ ।। ५२०. आयारवं आधारवं', ववहारोव्वीलए ‘पकुव्वी य" ।
निज्जवगऽवायदंसी", अपरिस्सावी १ य बोधव्वो'२ ॥नि.१०३ ॥ ५२१. आलोएंतो एनो, दसहि गुणेहिं तु होति उववेतो ।
जाति-कुल-विगय-नाणे, दंसण-चरणेहि संपण्णो ॥नि.१०४ ॥ ५२२. खंते दंते अमायी य, अपच्छतावी य होति बोधव्वे ।
आलोयण.ए दोसे, एत्तो वोच्छं समासेणं ॥नि.१०५ ।। ५२३.
आकंपयित अणुमाणयित्ता ३, जं दिटुं बादरं च सुहमं वा । आकपायत्त
छण्णं सद्दाउलगं, बहुजण अव्वत तस्सेवी४ ॥नि.१०६ ॥ ५२४. आलोयणाविधाणं, तं चेव उ५ दव्व-खेत्त-काले य ।
पावे सुद्धमसुद्धे, ससणिद्धे सातिरेगाइं ॥नि.१०७ ।। ५२५. पणगेणऽहिओ मासो, दसपक्खेणं च वीसभिण्णेणं१६ ।
संजोगा कायव्वा, गुरु-लघुमासेहि य अणेगा ॥ ५२६. ससणिद्ध बीयघट्टे, काएK८ मीसएसु९ परिठविते२० ।
इत्तर-सुहुम-सरक्खे, पणगा एमादिया२२ होति२३ ॥
१. उ(अ)। २. यह गाथा ब प्रति में नहीं है । निभा (६५७६) में यही गाथा इस प्रकार मिलती है :
पणगातिरेग जा पणवीससुत्तम्मि पंचमे विसेसो।
आलोयणारिऽऽहालोयओ य आलोयणा चेव।। ३. निरव ०(अ, स)। ४. य गुणेहिं तू (अ, स)। ५. x (ब)।
इन गाथाओं के क्रम में निभा में ५१९,५२१ एवं ५२२ ये तीन गाथाएं नहीं मिलती हैं।
आहारवं (निभा, अ)। ८. ० हारुव्वीलीए (ब)।
पकुव्वी य त्ति कुर्व इत्यागम प्रसिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति
प्रयोगः (म)। १०. निज्जव अवाय ०(अ)। ११. अप्परि ०(ब)। १२. निभा में यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप में है। चूर्णिकार ने
विस्तार से इसकी व्याख्या की है (निचू ४ पृ. ३६३)।
१३. ०णतित्ता (ब) माणविता (स)। १४. यह गाथा निभा में उद्धृत गाथा के रूप में है। चूर्णिकार ने
इसकी विस्तार से व्याख्या की है (निचू ४ पृ ३६३)। १५. य (अ.स), x (निभा ६५७८)। १६. x (अ)। १७. निभा (६५७७) में यह गाथा इस प्रकार मिलती है :
अहवा पणएणऽहिओ, मासो दस-पक्ख-वीसभिण्णेणं ।
संजोगा कायव्वा, लहु-गुरुमासेहि य अणेगा । १८. काएसू (ब)। १९. मास० (अ,ब)। २०. परिठ्ठवए (ब)। २१. इत्तिरि (अ, स), इतरस्मिन् (म)। २२. एगादिया (आ। २३. निभा ६५७९ ।
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५२ ]
५३०.
व्यवहार भाष्य ५२७.
ससणिद्धमादि अहियं, 'पारोक्खी सोच्च देति" अहियं तुरे ।
हीणाहियतुल्लं वा, नाउं भावं तु पच्चक्खी ॥ ५२८. एत्थ पडिसेवणाओ, एक्कग-दुग-तिग-चउक्क-पणगेहिं ।
छक्कग - सत्तग- अट्ठग - ‘नव - दसगेहिं अणेगा उ'३ ॥ ५२९. करणं एत्थ उ इणमो, एक्कादेगुत्तरा दस ठवेउं ।
हेट्ठा पुण विवरीयं, काउं रूवं गुणेयव्वं ॥ दसहि गुणेउं रूवं, एक्केण हितम्मि भार्गे जं लद्धं ।
तं पडिरासेऊणं, पुणो वि नवहिं गुणेयव्वं ॥ ५३१. दोहि हरिऊण भागं, पडिरासेऊण तं पि जं. लद्धं ।
एतेण कमेणं तू , कायव्वं आणुपुवीए ॥ ५३२. उवरिमगुणकारेहि, हेट्ठिल्लेहिं व भागहारेहिं ।
जा' आदिमं तु ठाणं, गुणितेमे ९ होंति संजोगा ॥ ५३३. दस चेव य पणताला, 'वीसालसतं च दो दसहिया य१२ ।
दोण्णि सया बावण्णा, दसुत्तरा दोण्णि य३ सता उ ॥ ५३४. वीसालसयं४ पणतालीसा, दस चेव होंति एक्को य ।
तेवीसं च सहस्सं, 'अदुव अणेगा"५ उणेगाओ ॥ ५३४/१. कोडिसयं सत्तऽहियं, सत्तत्तीसं च होति लक्खाइं ।
एयालीससहस्सा, अट्ठसया अहियू तेवीसा६ ॥ ५३५. जच्चिय७ सुत्तविभासा, हेट्ठिल्लसुतम्मि वण्णिता एसा ।
सच्चिय इहं पि नेया, नाणत्तं ठवणपरिहारे८ ॥ ५३६. को भंते ! परियाओ९, सुत्तत्थाभिग्गहो२० तवोकम्मं ।
'कक्खडमकक्खडे वा२१, सुद्धतवे मंडवा दोण्णि ॥नि.१०८ ।।
१. तु परोक्खी सो उ देंति (निभा ६५८०)। २. य(ब)। ३. ०वणेगा उ (आ, णवग दसहिं च णेगाओ (निभा ६५८१)
गाथाओं के क्रम में निभा में ५२९ से ५३२ तक की गाथाएं नहीं मिलती है।
एक्काएगु० (ब)। ५. काऊ (ब)।
भागेण (ब)। ७. उणेयव्वं (स)। ८. जे (अ) ९. गुणिगारेहिं (ब)। १०. यावत् (मवृ)। ११. गुणिते इमे (स)।
१२. वीस य सयं च दो दसहिगाई (निभा ६५८२)। १३. उ(निभा)। १४. वीसा य सयं (निभा ६५८३)। १५. अट्टे वणेगा (अ)। १६. यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में नहीं मिलती है । मुद्रित टीका में
यह भाष्यगाथा के क्रम में है, किन्तु टीकाकार ने इसकी व्याख्या नहीं की है। निशीथभाष्य में यह गाथा चूर्णि में उद्धृत गाथा के
रूप में है (निचू ४ पृ ३६६)। १७. जे च्चिय (अ)। १८. यह गाथा निभा में अनुपलब्ध है। १९. परितातो (अ)। २०. सुत्तट्ठा ०(अ)। २१. ०खडे या (अ.स), ०क्खडेसु (निभा ६५८४) ।
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प्रथम उद्देशक
५३७. सगणम्मि नत्थि पुच्छा, अन्नगणा आगतं तु जं जाणे ।
अण्णातं पुण पुच्छे, परिहारतवस्स जोग्गट्ठारे ॥ ५३८. गीतमगीतो गीतो, अहं ति किं वत्थु कासवसि जोग्गो ।
'अविगीते त्ति य भणिते, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो ॥दारं ॥ ५३९. गिहिसामने य तहा, परियाओ दुविहर्ष होति नायव्वो ।
इगुतीसा वीसा वा, जहन्न उक्कोस देसूणा ॥दारं ॥ ५४०. नवमस्स ततियवत्थू, जहन्न-उक्कोस-ऊणगा दसओ ।
सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दव्वादि तवोरयणमादी दारं ॥ ५४१. _ 'एतगुणसंजुयस्स उ'१०, किं कारण दिज्जते तु परिहारो ।
कम्हा 'पुण परिहारो"१, न दिज्जती २ तव्विहूणस्स ॥ जं मायति'३ तं छुब्भति, सेलमए मंडवे न एरंडे ।
उभयबलियम्मि४ एवं परिहारो दुब्बले सुद्धो ॥ ५४३. अविसिट्ठा'६ आवत्ती, सुद्धतवे 'चेव तह य परिहारे १७ ।
वत्थु पुण आसज्जा', दिज्जति इतरो व इतरो वा ॥ ५४४. वमण-विरेयणमादी, कक्खडकिरिया जधाउरे बलिते९ ।
कीरति न२० दुब्बलम्मी', अह दिट्ठतो तवे दुविधो ॥ ५४५. सुद्धतवो अज्जाणं, ऽगीयत्थे२२ दुब्बले असंघयणे२३ ।
धिति-बलिते य 'समन्नागत सव्वेसि पि२४ परिहारो ॥ ५४६. विउसग्गजाणणट्ठा, ठवणाभीतेसु२५ दोसु ठवितेसु ।
अगडे 'नदी य२६ राया, दिटुंतो भीयआसत्थो ॥
५४२.
व (निभा)। २. निभा (६५८६) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
परियाओ जम्मदिक्खा, अउणत्तीस वीस कोडी य । ३. महं (स)। ४. अगीतो ति य (निभा ६५८५), अविगीए ति भणिए (ब)। ५. यह गाथा निभा में क्रमव्यत्यय से मिलती है। ६. दुविहो (ब)। ७. उगु ०(अ.स)। ८. गाथाओं के क्रम में निभा में ५३९ एवं ५४१ ये दो गाथाएं
अनुपलब्ध हैं। ९. . ०वत्थु (अ, स, निभा ६५८७)। १०. संजुत्तस्स (स)। ११. उ परीहारो (स)। १२. दिज्जए (ब)। १३. माइय (ब)।
१४. ० बलिए वि (निभा ६५८८)। १५. एयं (स)। १६. ० सिद्धा (ब)। १७. तह य होति परि ०(निभा ६५८९)। १८. आसच्छे (स)। १९. पलिते (अ.स)। २०. य (अ, स)। २१. दुब्बलम्मि वि (निभा ६५९०)। २२. अगीयत्थे (निभा ६५९१)। २३. ण संघ ०(ब)। २४. गते य सव्वेसिं (अ.स)। २५. भीए य (निभा ६५९२) । २६. नदीसर (ब)।
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५४ ]
व्यवहार भाष्य
५४८.
५४७. निरुवस्सग्गनिमित्तं, भयजणणट्ठाय सेसगाणं च ।
तस्सऽप्पणो य गुरुणो, य साहए होति पडिवत्ती ॥ कप्पट्ठितो अहं ते, अणुपरिहारी य एस ते गीतो ।
पुदि' कतपरिहारो, तस्सऽसतितरो वि दढदेहो ॥ ५४९. एस तवं पडिवज्जति, न किंचि आलवति' मा य आलवह
अत्तचिंतगस्सा, वाघातो भे ण कायव्वो ॥नि.१०९ ॥ ५५०. आलावण पडिपुच्छण, परियदृट्ठाण वंदणग मत्ते ।
पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव० ॥नि.११० ॥ ‘संघाडगा उ जाव उ११, लहुओ मासो दसण्ह उ पदाणं । लहुगा य भत्तदाणे१२ संभुंजण३ होतऽणुग्घाता४ ॥ संघाडगा५ उ जाव उ, गुरुगो मासो दसण्ह उ पयाणं । भत्तपयाणे१६ संभुंजणे य परिहारिगे गुरुगा ॥ कितिकम्मं च पडिच्छति, परिण्ण पडिपुच्छणं१८ पि से देति ।
सो चिय९ गुरुमुवचिट्ठति, उदंतमवि पुच्छितो कहए२० ॥ ५५४. उद्वेज्ज निसीएज्जा, भिक्खं हिंडेज्ज भंडगं पेहे ।
कुविय-पियबंधवस्स व, करेति इतरो वि तुसिणीओ२१ ॥दारं ।। ५५५. अवसो२२ व रायदंडो, 'न एवमेवं तु २३ होति पच्छित्तं ।
संकर-सरिसवसगडे, मंडववत्थेण दिटुंता ॥ ५५६. अणुकंपिता च२४ चत्ता, अहवा सोधी न विज्जते तेसिं ।
कप्पट्ठगभंडीए, दिलुतो धम्मया५ सुद्धो ॥
५५३.
४.
अन
१. ०णट्ठाए (ब)। २. समगाणं (अ)। ३. साधूए (ब)।
अ प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है ।निभा २८७८,६५९३ । पुव्वं (अ)।
गाथा का पूर्वार्द्ध अप्रति में नहीं है। निभा २८७९,६५९४ । ७. आलवे (ब)। ८. आलवहा (बृभा)।
निभा २८८०,६५९५, बृभा ५५९७ । १०. चेय (ब), निभा ६५९६,२८८१,१८८७ बृभा ५५९८ । ११. ० गातो जाव उ (अ, ब)। १२. भत्तपाणे (निभा २८८२,६५९७)। १३. संभुंजणे (निभा, अ)। १४. बृभा ५५९९ ।
१५. ०डगो (ब)। १६. भत्तप्प० (अ, ब), भत्ते पाणे (निभा २८८३, ६५९८)। १७. तु निभा ६५९९, २८८४ । १८. ०पुच्छियं (ब)। १९. वि य (निभा, अ)। २०. कहति (ब)। २१. निभा २८८५,६६०० । २२. अवसो इत्यत्र प्रथमा तृतीयार्थे आर्षत्वात् (मवृ) । २३. न य एवं च (निभा ६६०१), न एवमेवं तु (ब)। २४. व (निभा ६६०२)। २५. धम्मया स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् (म)।
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[ ५५
प्रथम उद्देशक ५५७. जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसुज्झते असढभावो ।
गृहितबलो न सुज्झति, धम्म-सभावो त्ति एगटुं ॥ ५५८. आलवणादी उ पया, सुद्धतवे तेण२ कक्खडो न भवे ।
इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति ॥ ५५९. तम्हा उ कप्पट्ठितं. अणुपरिहारिं च तो ठवेऊणं ।
कज्ज वेयावच्चं, किच्चं तं वेयविच्चं तु ॥ ५६०. वेयावच्चे तिविधे, अप्पाणम्मि य परे तदुभए य' ।
अणुसट्ठि उवालंभे, उवग्गहे चेव तिविधम्मि ॥नि. १११ ।। ५६१. अणुसट्ठीय सुभद्दा, उवलंभम्मि य मिगावती देवी ।
'आयरिओ दोसु उवग्गहो य सव्वत्थ वायरिओ५० ॥नि. ११२ ।। दंडसुलभम्मि लोए, मा अमति १ कुणसु दंडितो मित्ति ।
एस दुलभो हु दंडो, भवदंडनिवारओ२ जीव३ ! ॥ ५६३.
अवि य हु विसोधितो४ ते, अप्पणायार मइलितो जीव! ।
इति अप्प परे उभए, 'अणुसट्ठि थुतित्ति'५ एगट्ठा१६ ॥ ५६४. तुमए चेव कतमिणं, न सुद्धकारिस्स दिज्जते दंडो ।
इह मुक्को वि न मुच्चति, परत्थ 'अह होउवालंभो१७ ॥दारं ।। ५६५. दव्वेण य भावेण य, उवग्गहो दव्८ अण्णपाणादी ।
भावे पडिपुच्छादी, करेति जं वा गिलाणस्स९ ॥ ५६६. परिहारऽणुपरिहारी, दुविहेण उवग्गहेण२० आयरिओ ।
उवगेण्हति२१ सव्वं वा, सबालवुड्डाउलं गच्छं२२ ॥
१. एगट्ठा (निभा ६६०३)। २. अस्थि तेण (अ.स)। ३. कक्खडो (ब, स)। ४. भवेऊणं (स)। ५. वेज्जवच्चं (अ, स)।
निभा (६६०४) में व्याकी ५५८-५५९ इन दोनों गाथाओं के स्थान पर निम्न गाथा मिलती हैसुद्धतवे परिहारिय, आलवणादीसु कक्खडे इतरे।
कप्पट्ठिय अणुपरियट्टण वेयावच्चकरणे य॥ ७. या (ब)। ८. अणुसिट्टि (ब)। ९. निभा ६६०५। १०. आयरिओ दोसु वि उवग्गहेसु सव्वत्थ आयरिओ (निभा
६६०६) आयरितो पुण दोसुवग्गहे सव्वत्थ वायरितो (अ, स)।
११. अमती (), अमती (स)। १२. ०णिवारणी (निभा ६६०७) । १३. जीवा (ब)। १४. विसोही उ (ब)। १५. अणुसिट्ठी थुइ ति (अ)। १६. निभा ६६०८। १७. अहा उवा ०(), निभा ६६०९ । १८. दवे इति तृतीयार्थे सप्तमी (मव)। १९. निभा ६६१०। २०. दुवग्गहेण (स)। २१. उवगिण्हति (ब)। २२. निभा ६६११।
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५६ ]
१.
२.
३.
४.
११.
५६७.
५६८.
५६९.
५७०.
५७१.
५७२.
५७३.
५७४.
५७५.
५७६.
५७७.
अधवाऽणुसडुवालंभुवग्गहे' कुणति तिन्नि वि गुरू से । सव्वस्स 'वि गच्छस्सा', अणुसट्ठादीणि सो कुणति ॥ आयरिओ केरिसओ, इहलोए केरिसो व परलोए । इहलोएऽ सारणिओ, परलोएँ फुडं भणंतो उ' 11 भद्दओ जत्थ सारणा नत्थि 1 स भद्दओ सारणा जीवियववरोवणं नरो आयरिओ असारओ
जत्थ 11
जीहाए विलिहतो, न दंडेण वि ताडेंतो,
जह सरणमुवगयाणं, एवं सारणियाणं,
अधवा अणु ० ( अ, स) ।
गच्छस्स व (अ), वा गणस्सा (निभा ६६१२, स) ।
बोधव्वे
।
एवं पि कीरमाणे, अणुसट्टादीहि 'वेयवच्चे 'कोवि य" पडिसेवेज्जा, सेविय कसिणेऽऽरुहेयव्वे पडिसेवणा य संचय, आरुवणअणुग्गहे य अणुघातनिरवसेसं १, कसिणं पुण छव्विहं होति ॥नि. ११३ ॥ पारंचि १२ सतमसीतं छम्मासारुवणछद्दिणगतेहिं३ । 'कालगुरुनिरंतरं व १४, अणूणमधियं भवे छटुं ॥नि. ११४ ॥ तो " समारुभेज्जा १६ ऽणुग्गह कसिणेण चिण्णसेसम्म । आलोयणं सुणेत्ता १७, पुरिसज्जातं च विण्णाय १८
१५
||
अणुसत्था० (स) ।
० लोए असार ० ( ब ) ।
वि (ब) निभा ६६१३ ।
५.
६.
निभा ६६१४ ।
७.
निभा ६६१५ ।
८.
वेज्जवच्चे उ (ब, स), ० वच्चेसु (अ) ।
९.
को यं (अस) ।
१०. कसिणारुभेदव्वे (अ), अ और स प्रति में यह गाथा ५६८ के बाद
है उसके बाद ५६९ एवं ५७० की गाथा है। गाथाओं के क्रम
में निभा में यह गाथा नहीं मिलती है।
० सेसे (निभा ६६१६) ।
।
पुव्वाणुपुव्वि९ दुविधा, पडिसेवणाय तदेव आलोए पडसेवण आलोयण, पुव्वं पच्छा य२१ चउभंगो ॥नि. ११५ ॥ पुव्वाणुपुव्वि पढमो, विवरीते बितिय आयरियकारणा वा, पच्छा पच्छा २२ पच्छित्तऽणुपुव्वी, जयणा-पडिसेवणाय एमेव वियडणाए २३, बितिय - ततियमादिणो
कुणति । गच्छे" ॥
उद
ततियए गुरुगो
व
२२.
२३.
२४.
1
॥
।
सुण्णो उ ॥ नि. ११६ ॥
अणुपुव्वी । २४ गुरुगो ॥
१२. पारंची (स) ।
१३.
१४. कालकनिरंतरं वा (अ, निभा ६६१७) ।
१५. एत्तो इति प्राकृतशेशीवशात् षष्ठ्यर्थे पंचमी (मवृ) ।
१६.
० रोहेज्जा (ब)।
१७. सुणेज्जा (निभा ६६१८) ।
१८. विण्णेयं (अस) ।
व्यवहार भाष्य
१९. ० पुव्वी (निभा ६६१९) ।
२०.
२१.
छद्दिणगएहिं ति अत्र तृतीया सप्तम्यर्थे (मवृ) ।
० सेवणता (निभा), ०वणाए (ब)।
उ ( निभा) ।
पुच्छा (निभा ६६२०) ।
० डणाय (ब), ०डणादी (निभा ६६२१) ।
० मायणो (ब) ।
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प्रथम उद्देशक
[५७
५८२.
५७८. पुव्वं गुरूणि' पडिसेविऊण, पच्छा लहूणि सेवित्ता ।
लहुए पुव्वंर कधयतिरे, मा मे दो देज्ज पच्छित्ते ॥ ५७९. अधवाऽजतपडिसेवि, ति नेव दाहिति मज्झ पच्छित्तं ।
इति दो मज्झिमभंगा, चरिमो पुण पढमसरिसो ४ ॥ ५८०. पलिउंचण चउभंगो', वाहे गोणी य पढमतो सुद्धो ।
तं चेव य मच्छरिते, सहसा पलिउंचमाणे उप ॥नि.११७ ॥ खरंटणभीतो रुट्ठो, सक्कारं देति ततियए सेसं । भिक्खुणि वाधि' चउत्थे, सहसा पलिउंचमाणो उ ॥ अपलिउंचिय पलिउंचियम्मि य चउरो हवंति भंगा उ ।
वाहे य गोणि भिक्खुणि, चउसु वि भंगेसु दिटुंतो'५ ॥ ५८३. पढम-ततिएसु पूया २, खिसा इतरेसु 'पिसिय-पय-खोरे३ ।
एमेव उवणओ खलु, 'चउसु वि भंगेसु वियडेंते२५ ॥ ५८४. इस्सरसरिसो'६ उ गुरू, 'वाधो साधू'१७ पडिसेवणा मंसं ।
णूमणता८ पलिउंचण, सक्कारो वीलणा९ होति ॥ ५८५. 'आलोयण त्ति'२० य पुणो, जा 'एसाऽकुंचिया उभयतो'२१ वि ।
सच्चेव होति सोही, तत्थ य मेरा इमा होति ॥नि.११८ ॥ ५८६. आयरिए२२ कह सोधी, सीहाणुग-वसभ-कोल्हुगाणूए२३ ।
अधवा वि सभावेणं, निमंसुगे२४ मासिगा तिण्णि ॥नि.११९ ॥ ५८७. 'सट्ठाणाणुग केई'२५, परठाणाणुग य केइ गुरुमादी२६ ।
स निसिज्जाए कप्पो, पुच्छ२७ निसेज्जा च उक्कुडुओ२८ ॥
35
गुरूण (ब), अत्र गुरुशब्दो बृहदभिधायी (मवृ)। २. पुदिव (निभा ६६२२, अ)। ३. कहई (ब,स)।
निभा ६६२३। ५. चतुभंगी गाथायां पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् (मव)।
निभा ६६२४ । देंति (निभा ६६२५)। वाधे (ब)।
पलिंयचियम्मि (ब) १०. गोणु (अ)। ११. गाथाओं के क्रम में निभा में ५८२ एवं ५८३ ये दोनों गाथाएं
अनुपलब्ध हैं। १२. पूरिया (ब)। १३. बितिय प० (स)। १४. एसेव (अ, स)। १५. भंगे चउसु वि य विगडते (ब), विगदेंतो (स)।
१६. ईसर ० (ब)। १७. साहू वाहो (निभा ६६२६)। १८. तूमणयेति देशीपदमेतत् स्थगनमित्यर्थः (मव), मुद्रित टीका में
लिपिदोष से णू के स्थान पर तू छप गया है, ऐसा प्रतीत होता है। १९. वीलणं (ब), पीलणं (अ.स)। २०. ० यणो त्ति (आ,०यणा वि (ब)। २१. एसाकुंचीया भयतो (ब), एस अंकुचिया० (अ, स, निभा
६६२७)। २२. रिएहिं (ब)। २३. कोल्लुयाणुए (निभा)। २४. निम्मंसुगे (निभा ६६२८)। २५. ० णुगा केती (ब), केयिं (स)। २६. गुरुगादी (निमा ६६२९)। २७. पुंच्छ (ब)। २८. तुक्कुडुतो (आ, उक्कुडए (निभा)।
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५८ ]
व्यवहार भाष्य
५८७/१. सीहाणुगस्स गुरुणो, सीहाणुग-वसभ-कोल्हुगाणूए ।
वसभाणुयस्स सीहे, वसभाणुय कोल्हुयाणूए' ॥ ५८७/२. अधवा वि कोल्हुयस्सा, सीहाणुग वसभ-कोल्लुए चेव ।
आलोयंताऽऽयरिए, वसहे भिक्खुम्मि चारुवणारे ॥ ५८८. मासो दोन्नि उ सुद्धो, चउलहु लहुओ य अंतिमो सुद्धो ।
गुरुया लहुया लहुओ, भेदा गणिणो नवगणिम्मि ॥ ५८९. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं ।
वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होंति भिक्खुम्मि ॥ ५९०. लहुगा लहुगो सुद्धो, गुरुगा लहुगो य अंतिमो सुद्धो ।
छल्लहु चउलहु लहुओ", वसभस्स तु नवसु ठाणेसु ॥ ५९१. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं ।
वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होति भिक्खुम्मि ॥ ५९२. चउगुरु चउलहु सुद्धो, छल्लहु चउगुरुग अंतिमो सुद्धो ।
छग्गुरु चउलहु लहुओ, भिक्खुस्स तु नवसु ठाणेसुं० ॥ ५९३. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं ।
वसभम्मि यर तवगुरुगा, कालगुरू होति भिक्खुम्मि ॥ ५९४. सव्वत्थ वि सट्ठाणं, अमुंचमाणस्स२ मासियं लहुयं ।
परठाणम्मि३ य सुद्धो, जइ उच्चतरे भवे इतरो ॥ ५९५. चउगुरुगं मासो या, मासो छल्लहुग चउगुरू मासो ।
'छग्गुरु१५ छल्लहु चउगुरु, बितियादेसे भवे सोही१६ ॥
१. कोल्लुगा० (स) सर्वत्र ।
५८७/१-२ ये दोनों गाथाएं हस्तप्रतियों में मिलती हैं पर टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं हैं । किन्तु टीकाकार ने 'इयमत्र भावना' कहकर इनकी व्याख्या की है। संभव लगता है कि विषय को स्पष्ट करने के लिए टीका की व्याख्या के अनुसार बाद में इन गाथाओं को जोड़ दिया गया हो । निशीथ भाष्य में भी इस क्रम
में ये गाथाएं नहीं मिलती हैं। ३. य (ब, निभा ६६३०), वा (स) । ४. ० लहुतो (अ)।
निभा ६६३१, इस गाथा के बाद निभा (६६३२) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैएमेव य वसभस्स वि, आयरियादी नवसु ठाणेसु।
नवरं चउलहुगा पुण, तस्सादी छल्लहू अंते । ६. x (ब)।
निभा ६६३३ । ८. वि (निभा ६६३४)।
९. निभा (६६३५) में इस गाथा के बाद निम्न गाथा अतिरिक्त
मिलती हैएमेव य भिक्खुस्स वि, आलोएंतस्स नवसु ठाणेसु ।
चउगुरुगा पुण आदी, छग्गुरुगा तस्स अंतम्मि ।। १०. निभा ६६३६। ११. वि (निभा ६६३७)। १२. अमुयंत० (ब), अणुमुयंतस्स (अ, स, निभा ६६३९) । १३. x (ब)। १४. वा (ब)। १५. चउगुरुयं (ब)। १६. छग्गुरुयं छल्लहुयं, चउगुरुयं वा बितिएणं (अ, स), निभा
६६४०।
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प्रथम उद्देशक
५९६. सव्वत्थ वि' 'समासणे, आलोएतस्स' चउगुरू होति ।
विसमालण नीयतरे३ अकारणे अविहिए मासो ॥ ५९७. मासादी पट्ठविते, जं अण्णं सेवती' तगं सव्वं ।
साहणिऊणं मासा, 'छद्दिज्जते परे'६ झोसो ॥ ५९८. दुविहा पट्ठवणा खलु, एगमणेगा य होतऽणेगा य ।
तवतिग परियत्ततिगं, तेरस ऊ जाणि य पदाणि ॥नि.१२० ।। पट्ठविता 'ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा । आरोवण पंचविहा, पायच्छितं पुरिसजाते० ॥नि.१२१ ॥ पट्ठविता य१ वहंते, वेयावच्चट्ठिता ठवितगा'२ उ ।
कसिणा झोसविरहिता३, जहि झोसो सा अकसिणा उ१४ ॥ ६०१. उग्घातमणुग्घातं५, मासादि तवो उ दिज्जते सज्ज'६ ।
मासादी निक्खित्ते, जं सेसं तं अणुग्घातं१७ ॥ ६०२. छम्मासादि वहंते, अंतरें आवण्ण जा तु आरुवणा ।
सा होति अणुग्घाना, तिन्नि विगप्पा तु चरिमाए ८ ॥ ६०३. 'सा पुण'१९ जहन्न-उक्कोस-मज्झिमा होति तिन्नि'२° तु विगप्पा ।
मासो छम्मासा वा, अजहन्नुक्कोस जे मज्झे२ ॥ ६०३/१. 'एगूणवीसति विभासितस्स'२३ हत्थादिवायणं तस्स ।
आरोवणरासिस्स तु, वहंतगा होंतिमे पुरिसा२४ ॥ ६०४. कयकरणा इतरे या, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा ।
निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी२५ ॥
१६. जत्थ (अ.स)। १७. निभा ६६४५ । १८. निभा ६६४६ । १९. अधवा (अ.स)। २०. तिन्नि होति (अ)। २१. या (अ.स)। २२. निभा ६६४७। २३. एक्कूणविसतिविभासियम्मि (निभा ६६४८)। २४. यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में भागा के क्रम में नहीं है
तथा इसकी व्याख्या भी टीकाकार ने नहीं की है। हस्तप्रतियों में यह गाथा प्राप्त है। निशीथभाष्य की गाथाओं के क्रम में यह गाथा मिलती है। संभव है लिपिकारों द्वारा यह प्रसंगवश बाद
में जोड़ दी गई हो। २५. निभा ६६४९, व्यभा १५९ ।
1.
१. वी (स)।
सट्ठाणं अणुमुयंतस्स (निभा ६६३८)। ३. निच्चतरे (अ, ब, स)। ४. इस गाथा में निभा में क्रमव्यत्यय है।
सेवितं (स)। ६. ० ज्जतेतरे (अ, निभा ६६४१)। ७. उ(निभा),
पताई (निभा ६६४२)।
ठवितिया (स)। १०. निभा ६६४३, अ, ब प्रति में ५९८ से ६०३ तक की गाथाएं नहीं
मिलती है । उसके स्थान पर व्यभा की दुहओ... (गाथा १८४) से
नाम... (गाथा १८८) तक की गाथाएं मिलती है। ११. उ(ब)। १२. ठवितिगा (अ, स)। १३. विरया (अ)। १४. तू (निभा ६६४४)। १५. ०धाता (अ)।
पता
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६०
]
व्यवहार भाष्य
६०५. अकतकरणा वि' दुविधा, अणभिगता अभिगता य बोधव्वा ।
जं सेवेतिरे अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा ॥ ६०६. अहवा साविक्खितरे, निरवेक्खा नियमसा उ कयकरणा ।
इतरे कताऽकता वा, थिराऽथिरा नवरि गीयत्था ॥ ६०७. छट्ठट्ठमादिएहिं, कयकरणा ते उ उभयपरियाए ।
अभिगतकयकरणत्तं, जोगायतगारिहा केई ॥ ६०८. सव्वेसिं अविसिट्ठा, आवत्ती तेण पढमता मूलं ।
सावेक्खे गुरुमूलं', 'कताकते होति छेदो उ१० ॥ ६०९. पढमस्स होति मूलं, बितिए मूलं च छेद छग्गुरुगा ।
जतणाय होति सुद्धो, अजयण गुरुगा तिविधभेदो २ ॥ ६१०. सावेक्खो त्ति च काउं, गुरुस्स कडजोगिणो'३ भवे छेदो ।
अकयकरणम्मि छग्गुरु, इति ‘अड्डोकंतिए नेयं ४ ॥ ६११. अकयकरणा उ१५ गीता, जे य 'अगीता य अकय१६ अथिरा य।
तेसावत्ति अणंतर, बहुयंतरियं व झोसो वा७ ॥ ६१२. आयरियादी तिविधो, सावेक्खाणं तु किं कतो भेदो ।
एतेसिं पच्छित्तं, दाणं चाणं अतो तिविधो८ ॥ कारणमकारणं वा, जतणाऽजतण 'व नत्थिऽगीयत्थे १९ । एतेण कारणेणं, आयरियादी भवे तिविधा० ॥
६१३.
य (ब)। २. सेवति (अ, स)।
निभा ६६५०,व्यभा १६०। गाथा ६०४ से ६१८ तक की गाथाओं का पुनरावर्तन हुआ है। ये व्यभा १५९-१८१ तक की गाथाएं हैं। बीच में कुछ गाथाएं छूट भी गई हैं। तथा कुछ गाथाओं में क्रमव्यत्यय भी हुआ है। टीकाकार स्वयं इस बात का उल्लेख करते हुए कहते हैं -एतत्प्रभृतिका गाथा यद्यपि प्रागपि व्याख्याता तथापि मूलटीकाकारेणापि भूयो पि व्याख्याता इति तन्मार्गानुसारत: स्थानाशून्यार्थं वयमपि लेशेन व्याख्याम: (मवृभाग ३ प ४८) इनमें कुछ गाथाएं टीका में व्याख्यात नहीं हैं किन्तु हमने इन्हें
भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। ४. मसो (स)।
निभा ६६५१, व्यभा १६१ । ६. ०परियारा (निभा ६६५२) । ७. जोगा य तवारिहा (निभा), तधारिधा (अ.स)। ८. कोइ (स), व्यभा १६२ ।
९. गुरौ आचार्य गाथायामत्र विभक्तिलोप: प्राकृतत्वात् (म)। १०. कतमकते छेदमादी तु (निभा ६६५५), व्यभा १६६ । ११. अकरण (स)। १२. निभा ६६५६, यह गाथा टीका में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में
प्राप्त है ।प्रथम भाग में प्राप्त गाथाओं के अनुसार ६०९-६१०
की गाथा में क्रम व्यत्यय है। १३. कय० (अ)। १४. अड्डोक्कंतीए णेयव्वं (निभा ६६५७), एवड्डोकंतीए नेयं (आ),
व्यभा १६७। १५. य (निभा, स)। १६. अगीयाऽकता य (निभा ६६५८)। १७. व्यभा १६८। १८. यह गाथा टीका में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त है । प्रथम
भाग में भी इस क्रम में यह गाथा मिलती है, व्यभा १६९ । १९. य तत्थ गीयत्थे (निभा ६६५३)। २०. व्यभा १७०,निभा में ६६५३ एवं ६६५४ ये दोनों गाथाएं व्यभा
(६०७) गाथा के बाद हैं।
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प्रथम उद्देशक
[ ६१
६१७.
६१४. कज्जाऽकज्ज' जताऽजत, अविजाणतो अगीतों जं सेवे ।
सो हो। तस्स दप्पो, गीते दप्पाजते दोसारे ॥ ६१५. दोसविभवाणुरूवो, लोए दंडो वि किमुत उत्तरिए ।
तित्थुच्छेदो इहरा, निराणुकंपा न “वि सोही'३ ॥ ६१६. तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग-वाउलण-साहणा चेव ।
पण्णवणमणिच्छंते, दिलुतो भंडिपोतेहिं ॥ सुद्धालंभि' अगीते, अजयणकरणकधणे भवे गुरुगा ।
कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ ६१८. जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा उ करेति कज्जं ।
जा दुब्बला संठविता वि संती, न तं तु सीलेंति विसण्णदारु ॥ जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ° करेति कज्जं । जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तं तु सीलंति विसण्णदारु'२ ॥ निवितिए१३ पुरिमड्ढे, एक्कासण अंबिले 'चउत्थे य१४ ।
'पण दस पण्णरसे या, वीसा तत्तो य पणुवीसा'१५ ॥ ६२१. मासो लहुगो गुरुगो, चउरो लहुगा य होति गुरुगा य ।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च६ ॥ एसेव गमो नियमा, मास - दुमासादिगा तु संजोगा ।
उग्घातमणुग्घाए, 'मीसम्मि य सातिरेगे य१७ ॥ ६२३. एसेव गमो नियमा, समणीणं दुगविवज्जितो होति ।
आयरियादीण जहा, पवित्तिणिमादीण वि तधेव८ ॥
६१९.
कज्जमकज्जे (स), कज्जमकज्ज (अ, निभा ६६५४)। व्यभा १७१, ६१५-६१६ ये दोनों गाथाएं टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं हैं। किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त है । व्यवहारभाष्य के प्रथम भाग (१७१-७२) में भी इस क्रम में ये दोनों गाथाएं मिलती हैं। य विसोही (अ), निभा ६६५९, इस गाथा के बाद पहले भाग में पांच गाथाएं (१७३-७७) और मिलती हैं। उनका टीका एवं हस्तप्रति दोनों में कोई उल्लेख नहीं है। भंडिवोदेहिं (स), निभा ६६६१, व्यभा १७८ । ० लंभे (अ, निभा ६६६०)। यह गाथा टीका में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त है । व्यभा में भी १७९ के क्रमांक में यह गाथा मिलती है। ण दढा (स)। व्यभा १८०। ण दढो (स)।
१०. य (ब)। ११. सीलवितो (अ.स)। १२. व्यभा १८१ । १३. निव्वितीय (अ.स), निविगितिय (निभा)। १४. अभत्तट्टे (निभा)। १५. गाथा का उत्तरार्ध निभा (६६६२) में इस प्रकार है
पण दस पण्णर वीसा, तत्तो य भवे पणुव्वीसा (निभा, व्यभा १६३), (६१९-६२०) ये दोनों गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में
नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में प्राप्त हैं। १६. निभा ६६६३, व्यभा १६४ । १७. मीसं मीसाइरेगे य (निभा ६६६४)। यह गाथा टीका की मुद्रित
पुस्तक में नहीं है किन्तु हस्तप्रतियों में मिलती है। निशीथ भाष्य
में भी इस क्रम में यह गाथा मिलती है। १८. निभा ६६६५।
९.
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________________
६२ ]
व्यवहार भाष्य
६२४. परिहारियाण' उ विणा, भवंति इतरेहि वा अपरिहारी ।
मेरावसेसकधणं, इति मिस्सगसुत्तसंबंधो ॥ ६२५. पुव्वंसिरे अप्पमत्तो, भिक्खू उववण्णितो. भदंतेहिं ।
‘एक्के दुवे व होज्जा, बहुया उ कह' समावण्णा ॥ ६२६. चोदग बहुउप्पत्ती, जोधा व जधा तथा समणजोधा ।
दव्वच्छलणे जोधा, भावच्छलणे समणजोधा ॥नि.१२२ ।। ६२७. आवरिता वि रणमुहे, जधा छलिज्जंति अप्पमत्ता वि ।
छलणा ‘वि होति दुविहा', जीवंतकरी य इतरी य ॥ ___ मूलगुण-उत्तरगुणे, जयमाणा वि हु तधा छलिज्जंति ।
भावच्छलणाय जती, 'सा वि य देसे य सव्वे य० ॥ एवं तू परिहारी, अप्परिहारी११ य हुज्ज बहुया उ१२ । 'तेगेंतो व निसीहिं१३, अभिसेज्जं वावि तेज्जा'४ ॥नि.१२३ ।। ठाणं निसीहिय त्ति य, एगटुं जत्थ५ ठाणमेवेगं ।
चेतेति'६ निसि दिया वा, सुत्तत्थनिसीहिया सा तु ॥नि.१२४ ।। ६३१. सज्झायं काऊणं, निसीहियातो निसिं चिय उवेंति ।
अभिवसिउं१८ जत्थ निसिं, उवेंति पातो९ तई सेज्जा२० ॥ ६३२. निक्कारणम्मि गुरुगा, कज्जे लहुगा अपुच्छणे लहुओ ।
पडिसेहम्मि य लहुया, गुरुगमणे होतऽणुग्घाता ॥नि.१२५ ॥ ६३३. तेणादेस गिलाणे झामण'२१ इत्थी नपुंस मुच्छा य ।
ऊणत्तणेण दोसा, हवंति एते उ वसधीए ॥दारं ॥नि.१२६ ॥
६
२९.
ن
ن
१. पारिहा० (स)। २. पुव्वीसु (अ.स)। ३. ०ण्णिउं (ब)। ४. एक्क व दुए (ब)।
कध (अ), कह (ब)। अ और स प्रति में ६२५वीं गाथा के बाद ६२९ एवं ६३०वीं गाथा मिलती है फिर ६२६वीं गाथा है। हमने मुद्रित टीका के क्रम को स्वीकृत किया है।
वि य होति दुहा (अ.स)। ८. जीयंत ० (ब)। ९. जइमाणा (स)। १०. x (ब)। ११. अपरिहारिय (ब)। १२. ऊ(स)। १३. ते एगतो निसीधि (स)।
१४. यह गाथा अ और स प्रति में प्राप्त है। टीका की मुद्रित पुस्तक
में यह गाथा नहीं है किन्तु इसकी व्याख्या प्राप्त है। संभव लगता है संपादक के द्वारा यह गाथा छूट गई है। विषयवस्तु की
दृष्टि से भी यह गाथा यहां संगत लगती है। १५. तत्थ (स)। १६. चिंतिति (स)। १७. दिवा (स)। १८. • वसिओ (ब)। १९. पादो (अ), प्रात: (मवृ)। .२०, अ और स प्रति में चोयग, (गाथा ६२६) से मूलगुण. (गाथा
६२८) ये तीन गाथाएं इस गाथा (६३१) के बाद है। संभव है
लिपिकार द्वारा यह क्रमव्यत्यय हो गया हो। २१. भामण (ब), तामण (आ) ।
ا
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________________
प्रथम उद्देशक
६३६.
६३४. दुविधाऽवहार सोधी, एसणघातो य जा य परिहाणी ।
आएसमविस्सामण', परितावणता य एक्कतरे ॥ ६३५. आदेसमविस्सामण, परितावण' तेसऽवच्छलत्तं च ।
गुरुकरणे वि य दोसा, हवंति परितावणादीया ॥दारं ।। सयकरणमकरणे वा, गिलाण परितावणा य दुहओ वि ।
बालोवधीण' दाहो, तदट्ठ अण्णे वि आलित्ते ॥दारं ॥ ६३७. इत्थी नपुंसगा वि य, ओमत्तणतो तिहा भवे दोसा' ।
अभिघात पित्ततो वा, मुच्छा अंतो व बाहिं व ॥दारं ।। ६३८. जत्थ वि य ते वयंती९, अभिसेज्जं वा वि अभिणिसीधिं वा ।
तत्थ वि य इमे दोसा, होति गयाणं मुणेयव्वा २ ॥ ६३९. वीयार तेण आरक्खि, तिरिक्खा इथिओ नपुंसा य ।
सविसेसतरे दोसा, दप्पगयाणं हवंतेते ॥दारं ॥नि.१२७ ॥ ६४०. अप्पडिलेहियदोसा, अविदिन्ने वा हवंति उभयम्मि३ ।
वसधीवाघातेण , य, एंतमणिते य दोसा उ ॥ ६४१. सुण्णाइ गेहाइ उवेंति तेणा, आरक्खिया ताणि य संचरंति ।
तेणो त्ति एसो पुररक्खितो वा, अन्नोन्नसंका'४ अतिवायएज्जा५ ॥दारं ॥ ६४२. दुगुंछिता६ वा अदुगुंछिता वा, दित्ता अदित्ता व तहिं तिरिक्खा ।
चउप्पया वाल सिरीसवा वा, एगोव'दो तिण्णि व" जत्थ“दोसा ॥ संगारदिन्ना व उवेंति तत्था, 'ओहा पडिच्छंति'२° निलिच्छमाणा ।
इत्थी नपुंसा च करेज्ज दोसे, 'तस्सेवणट्ठा व'२१ उवेंति जे उ ॥ ६४४. कप्पति उ२२ कारणेहिं, अभिसेज्जं गंतुमभिनिसीधि२३ वा ।
लहुगाओ अगमणम्मि, ताणि य कज्जाणिमाइं तु ॥
६४३.
१. x (ब), आएस अविस्सा० (अ)। २. गाथायां मकारोऽलाक्षणिक: एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम् (मवृ)। ३. परिभावण (स)।
तेसं अवच्छलत्थं (स), तेषु अवत्सलत्वं (मवृ)।
होति (अ.स)। ६. दुहितो (ब)। ७. वालोवि० (स)। ८. नपुंसिकया (ब), नपुंसगता (अ)। ९. उमत्तणहो (अ), उम्मत्त० (स)। १०. वेसा (ब) ११. वियंती (स)। १२. अप्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध नहीं है।
१३. उदयम्मि (स)। १४. x (अ)। १५. दयइ वादएज्जा (ब)। १६. दुग्गुंछिता (स)। १७. दो व तिण्णि (ब)। १८. तत्थ (स). १९. सिंगार० (स)। २०. अहवा य दिच्छंति (स)। २१. ०णट्ठाए (ब)। २२. ऊ (स)। २३. गंतु अभि० (स)।
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६४ ]
१.
२.
३.
४.
६४५.
६४६.
६४७.
६४८.
६४९.
६५०.
६५१.
६५२.
६५३.
६५४.
असज्झाइय पाहुणए, पढमचरमे दुगं तू, सेसेसु य होति
संसत्ते वुट्टिकाय सुयरहसे' । अभिसेज्जा ॥ नि. १२८ ॥
पाहुड - अविगीत-महिसदिट्ठतो । पोरिसीभंगो
पढमपदे
जग्गणे
अजिण्णादी' I
वा
I
अतिसंघट्टे हत्थादिघट्टणं दोसु य संजमदोसा, जग्गण 'उल्लोवहीया दिट्ठे कारणगमणं, जइ उ गुरू वच्चती" ततो गुरुगा ओराल" इत्थि पेल्लण, संका पच्चत्थिया दोसा 'गुरुकरणे पडियारी १२, भएण बलवं 'करेज्ज जे रक्खं १४ कंदप्प - विग्गही वा, अचियत्तो
1
वा ॥
छेदसुत-विज्जमंता, इति दोसा चरमपदे,
पडिलेहण सज्झाए, न करेंति सेज्जो वहि- संथारे,
० रहस्से (स) ।
० चरिमे (ब) ०चरमे य (अ) ।
चरिम० (ब) सर्वत्र ।
पोरुसी ० (स) ।
अजीरादी (अ, ब)
५.
६.
७.
८.
९.
१०. वच्चए (ब)।
११. ओराले (ब, स) ।
१२. गुरुमादी पडियरतो (अस) ।
१३. भए व (अ) ।
इमे सुसु ॥
गंतव्व गणावच्छो, पवत्ति थेरे य गीतभिक्खू य 1 एतेसिं असतीए, अग्गीते मेरकहणं तु ॥नि.१२९ ॥ मज्झत्थोऽकंदप्पी १५, जो दोसे लिहति लेहओ १६ चेव । केसु१७ य ते सीएज्जा", दोसेसुं ते थेर-पवत्ती गीता, ऽसतीऍ मेरं कहंतऽगीयत्थे १९ भयगोरवं च० जस्स उ करेंति सयमुज्जओ जो य२१ पडिलेहणऽसज्झाए, आवस्सग दंड विणय राइत्थी २२ तेरिच्छ वाणमंतर,
1
||
पेहा नहवीणि२३ कंदपे ॥ दारं ॥नि. १३० ॥ हीणऽहियं च विवरीतं । दंडगउच्चारमादीसु ॥ दारं ॥
उ (अ, स) ।
उल्लोवती आता (अ) ।
कारणे० (अ) ।
जती (स) ।
१४. करेस्सति पक्खं (अ, ब)। १५.
मज्झतो अकंदप्पी (अ, ब) ।
१६. लेहितो (ब) ।
१७. तेसु (ब), तेसि (अ) ।
१८. सिंदेज्जा (स) ।
१९. अगीयत्थे (अ) ।
॥ दारं ॥
॥दारं ॥
व्यवहार भाष्य
२०. व (ब) ।
२१. अ और स प्रति में यह गाथा प्राप्त नहीं है ।
२२. रायती (ब)।
२३.
० वीण (ब)।
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प्रथम उद्देशक
[ ६५
६५९.
६५५. 'न करेंताऽऽवासंवा", हीणहियनिविट्ठपाउय निसण्णा ।
दंडग्गहादि विणयं, रायणियादीण न करेंति ॥दारं ॥ ६५६. रायं' इथि तह अस्समादि वंतर रधे य पेहेंति ।
तध नक्खवीणियादी, 'कंदप्पादी व कुव्वंतिः ॥ एतेसु वट्टमाणे, अट्ठिय पडिसेहिए° इमा मेरा ।
हियए करेति दोसे, गुरुय कहिते ‘स ददे सोधि १ ॥ ६५८. अतिबहुयं पच्छित्तं, अदिन्न वाहे य रायकन्ना उ१२ ।
ठाणासति'३ पाहुणए, न उ गमणं 'मास कक्करणे५५ ॥नि.१३१ ॥ अति वेढिज्जति भंते !, मा हु दुरुव्वेढओ७ भवेज्जाहि ।
पच्छित्तेहि८ अकंडे, निद्दयदिण्णेहि -भज्जेज्जा ॥ ६६०. तं दिज्जउ२० पच्छित्तं, जं तरती सा य कीरती मेरा ।
जा तीरति परिहरिउं२९, मोसादि अपच्चओ इहरा२२ ॥ जो जत्तिएण२३ सुज्झति, अवराधो तस्स तत्तियं देति२४ । पुव्वमियं परिकहितं, घड-पडादिएहि२५ नाएहिं ॥ कंटगमादिपविटे, नोद्धरति६ सयं न 'भोइए कहति २७ ।
कमढीभूत वणगते, आगलणं खोभिता मरणं ॥ ६६३. बितिओ सयमुद्धरती, अणुद्धिए भोइयाय२८ णीहरति ।
परिमद्दण दंतमलादि पूरण२९ 'धाडण पलातो° व्व ॥ ६६४. वाहत्थाणी साधू, वाहि३१ गुरू कंटकादि अवराधा ।
सोही य ओसधाइं, पसत्थनातेणुवणओ२ उ ॥
६६२.
४.
डड
१. न करेंती आवस्सं (ब)। २. निवट्ठ (अ,ब)। ३. निवण्णो (स)।
डंडग्गहीइ (स)। ५. राइं (ब, स)।
इत्थी (स)। ७. धि (आ)। ८. पोहेंति (ब)। ९. कंदप्पे या विकुव्वंति (अ, स), कंदष्पायाई निकुवंति (ब)। १०. पडिसेविए (अ, ब)। ११. ददे सोधी वा ()। १२. य (ब)। १३. ठागा० (स)। १४. x()। १५. मासे अक्करणे (स) मासो उ फक्क ० (ब)। १६. वढि० (ब)।
१७. दुरुब्बूढत्तो (ब)। १८. अच्छिन्तेहि (स)। १९. अयंडे (ब)। २०. दिज्जति (अ. ब)। २१. परिहरीउ (ब), पाठांतरं वा परिवहिउमिति (म)। २२. इतरा(स)1 २३. जत्तिएहि (स)। २४. देति (बस)। २५. पडगादीहि (स)। २६. नो उव्वरति (अ.स), नोव्वरति (ब)। २७. वेइए कहति (आन चोइए कहए (स) । २८. भोतियाए से (आ, भोतिया सि (स)। २९. पुण्णं (ब)। ३०. वणगयप० (ब, मु)। ३१. वाहो (ब), वाही (अ) ३२. नातेण विणओ उ(अ)।
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६६ ]
व्यवहार भाष्य
६६५. पडिसेविते' उवेक्खति, न य णं उव्वीलतेरे अकुव्वंतं ।
संसारहत्थिहत्थं, पावति विवरीतमितरो उ ॥ ६६६. आलोयमणालोयण, ‘गुणा य दोसा य५ वण्णिया एते ।
अयमन्नो दिटुंतो, सोहिमदंते य देंते . य ॥ ६६७. निज्जूहादि पलोयण, अवारण' पसंग अग्गदारादी ।
धुत्तपलायाण निवकहण दंडणं अनठवणं च ॥ ६६८. निज्जूहगत दटुं. बितिओ अनो उ वाहरित्ताणं ।
विणय करेति तीसे, सेसभयं पूयणा रण्णा ॥ ६६९. राया इव तित्थयरा, महत्तर गुरू तु साधु कनाओ ।
ओलोयण अवराहा, अपसत्थपसत्थगोवणओ५ ॥ ६७०. असज्झाइएँ असंते, ठाणासति२ पाहुणागमे चेव ।
अन्नत्थ न गंतव्वं, गमणे गुरुगा तु पुव्वुत्ता ॥ ६७१. वत्थव्वा वारंवारएण, जग्गंतु मा य वच्चंतु ।
एमेव य पाहुणए, जग्गण गाढं१३ अणुव्वाए ॥ ६७२. एमेव य संसत्ते, देसे अगलंतए य सव्वत्था ।
अम्हवहा पाहुणगा, उवेति रिक्का उ कक्करणा ॥ ६७३. बितियपयं४ आयरिए, निद्दोसे दूरगमणऽणापुच्छा ।
पडिसेहिय५ गमणम्मी, तो६ तं वसभा 'बला नेति ॥ ६७४. जत्थ गणी न वि णज्जति, भद्देसु य८ जत्थ नत्थि ते दोसा ।
तत्थ वयंतो सुद्धो, इयरे वि वयंति९ जयणाए ॥ ६७५. वसधीय असज्झाए, सण्णादिगतो य पाहुणे दटुं ।
सोउं२० च असज्झायं, वसधिं उवेंति भणति अन्ने ॥
० सेवंत (मु) २. ओवीलए (अ)। ३. व कुव्वंतं (अ), अकुव्वंतो (ब)। ४. विवरिम्मि इयरो (अ.स)।
दोसा य गुणा य (अ, ब, स)। ० जूढादि (अ)।
आगरण (स)। ८. वहरत्ताणं (ब)। ९. करेंति (ब)। १०. आलो ० (ब)। ११. ० थगो उवणओ (अ), पसत्थवणओ तु (स)।
१२. ठागासति (स)। १३. बाढ़ (ब, स)। १४. ०पदे (स)। १५. पडिसेविय (स)। १६. वो (ब)। १७. पलाणंति (अ.स) यहां ब के स्थान पर लिपिदोष से प हो गया
है। अ और स प्रति में प्राय: स्थानों पर ब के स्थान पर प लिखा
हुआ है। १८. व (अ.स) या (ब)। १९. वसंति (ब,स)। २०. मोत्तुं (स)।
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प्रथम उद्देशक
[ ६७
६७६. दीवेध' गुरूण' इमं, दूरे वसही इमो वियालो य ।
संथार-काल-काइयभूमी पेहट्ठ एमेव ॥दारं ॥ ६७७. एमेव य पडिसिद्धे, सण्णादिगतस्स किंचि पडिपुच्छाः ।
तं पि य होढा असमिक्खिऊण पडिसेहितो जम्हा ॥ ६७८. जाणंति व णं वसभा, अधवा वसभाण तेण सब्भावो ।
कहितो' न मे दोसो, तो णं वसभा बला नेति ॥ ६७९. अभिसेज्ज अभिनिसीहिय, एक्केक्का दुविध होंति नायव्वा ।
एगवगडाय अंतो, बहिया संबद्धऽसंबद्धा नि. १३२ ॥ जा सा तु अभिनिसीधिय, सा नियमा होति तू असंबद्धा ।
संबद्धमसंबद्धा, अभिसेज्जा होति नायव्वा ॥ ६८१. धरमाणच्चिय सूरे, संथारुच्चार-कालभूमीओ ।
पडिलेहितऽणुण्णविते, वसभेहि वयंतिमं वेलं ॥ ६८२. आवस्सगं तु काउं, निव्वाघातेण होति गंतव्वं ।
वाघातेण तु भयणा, देसं सव्वं वऽकाऊणं ९ ॥ ६८३. तेणा सावय° वाला, गुम्मिय आरक्खि ठवण पडिणीए ।
इत्थि - नपुंसग - संसत्त - वास - चिक्खल्ल - कंटे य ॥ ६८४. थुतिमंगलकितिकम्मे, काउस्सग्गे११ य तिविधकितिकम्मे ।
तत्तो य२ पडिक्कमणे, 'आलोयण अकयकितिकम्मे५३ ॥ ६८५. काउस्सग्गमकाउं१४, कितिकम्मालोयणं५ जहण्णेणं ।
गमणम्मि उ१६ एस विधी, आगमणम्मी१७ विहिं वोच्छं ॥ ६८६. आवस्सगं अकाउं, निव्वाघाएण होति आगमणं ।
वाघायम्मि उ भयणा, देसं सव्वं च काऊणं ॥ ६८७. काउस्सग्गं काउं, कितिकम्मालोयणं पडिक्कमणं ।
कितिकम्मं तिविहं वा, काउस्सग्गं परिण्णाय ॥
दीवेह (ब)। २. गुरुणा (ब)।
पुच्छे (अ)। होढो (अ), होढा देशीपदमेतत् दत्तमेव कृतमेवेत्यर्थे (म)। गहितो (स)। मित्थ (ब), मेत्थि (स)।
तो (ब)। ८. इमां वेलामिति कालाध्वनोाप्ताविति सप्तम्यर्थे द्वितीया
(मवृ)। ९. अकाऊणं (ब)।
१०. सावयं (ब)। ११. उस्सग्गो (अ)। १२. x (अ)। १३. ० यणा य किति० (आ), . यण तो य किति० (स), अ और स
प्रति में यह गाथा आवस्सगं...(६८६) गाथा के बाद है।' १४. ०ग्ग उ काउं(ब)। १५. कति० (अ) १६. वि(ब), य (अ)। १७. ० णम्मि (अ, स)।
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६८ ]
व्यवहार भाष्य
६८९.
६८८. थुतिमंगलं च काउं, आगमणं होति अभिनिसेज्जाओ ।
बितियपदे ‘भयणा ऊ', गिलाणमादीसु कायव्वा ॥ गेलण्णवास महिया, पदुट्ठ' अंतेपुरे निवे अगणी ।
अधिगरण हत्थिसंभम, गेलण्ण निवेयणा नवरिं ॥ ६९०. परिहारो खलु पगतो, अदिन्नगं वावि पावपरिहारं ।
सक्खेत्तनिग्गमो वा, भणितो इमगं तु दूरे वि ॥ ६९१. पडिहारियगहणेणं, भिक्खुग्गहणं ति होति 'किं न ६ गतं ।
किं च गिहीण वि भण्णति, गणि-आयरियाण पडिसेधो ॥ ६९२. वेयावच्चुज्जमणे, गणि-आयरियाण किण्णु पडिसेधो ।
भिक्खुपरिहारिओ वि हु, करेति किमुतायरियमादी ॥ ६९३. जम्हा आयरियादी, निक्खिविऊणं करेति परिहारं ।
तम्हा आयरियादी, वि भिक्खुणो होंति नियमेणं ॥ ६९४. परिहारिओ उ गच्छे, सुत्तत्थविसारओ सलद्धीओ ।
अन्नेसिं गच्छाणं', इमाई कज्जाइ जायाइं ॥नि.१३३ ।। ६९५. अकिरिय' जीए पिट्टण, संजमबद्धे१ य लब्भऽलब्भंते१२ ।
भत्तपरिण्णगिलाणे, संजमऽतीते य ‘वादी य२३ ॥नि.१३४ ॥ ६९६. नविय समत्थो वन्नो, अहयं गच्छामि 'निक्खिवय भूमिं५' ।
सरमाणेहि य भणियं, आयरिया जाणगा'६ तुझं७ ॥ ६९७. जाणंता माहप्पं, कहेंति८ सो वा सयं परिकधेति ।
'तत्थ स वादी१९ हु मए, वादेसु पराजितो बहुसो ॥ ६९८. चोएति कहं तुब्भे, परिहारतवं गतं२० पवण्णं तु ।
निक्खिविउं पेसेहा, चोदग! सुण कारणमिणं तु ॥
१. भयणातो (अ), ०यणा उ(स)। २. पकुट्ठ (अ)।
पाव एतं तु (अ.स)। ४. भणिओ य (ब)। ५. तु (ब)।
किन्नु (ब)। ७. कारेति (ब)। ८. गच्छादीनां षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (म)।
इमाई (ब)। १०. अकिरिया (स)। ११. बंधे (मव)।
१२. लभंतमलभंते (ब)। १३. बादीए (ब)। १४. ०धन्नो (अ)। १५. निक्खिवए भूमी (अ.स)। १६. जाणवा (अ)। १७. तुभं (ब, स)। १८. करेंति (स)। १९. बलवादीसु (स)। २०. पगतं (स)। २१. पेसेधो (अ)।
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प्रथम उद्देशक
[६९
७०२.
७०४.
६९९. तिक्खेसु' तिक्खकज्जं, सहमाणेसु य कमेण कायव्वं ।
न य नाम न कायव्वं, कायव्वं वा उवादाए२ ॥ ७००. वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया ।
काउमुवद्दवकिरियं, समेति तो तं वणं वेज्जा ॥ ७०१. जह आरोग्गे पगतं, एमेव इमं पि कम्मखवणेणं" ।
इहरा उ अवच्छल्लं, ओभावण तित्थहाणी यः ॥ अप्परिहारी गच्छति, ‘तस्सऽसतीए व जो उ११ परिहारी ।
उभयम्मि वि अविरुद्ध २, आयरहेतुं१३ तु तग्गहणं ॥नि. १३५ ॥ ७०३. 'संविग्गमणुण्णजुतो, असती१४ अमणुण्णमीसपंथेण ।
समणुण्णेसुं भिक्खं, काउं वसतेऽमणुण्णेसुं ॥ एमेव य संविग्गेऽसंविग्गे चेव एत्थ५ संजोगा ।
पच्छाकड साभिग्गह, सावग-संविग्ग पक्खी'६ य ॥ ७०५. 'आहारोवहि-झाओ१७, 'सुंदरसेज्जा वि१८ होति हु१९ विहारो ।
कारणतो तु वसेज्जा, इमे उ ते कारणा होति ॥ उभतो गेलण्णे वा, वास नदी सुत्त अत्थ पुच्छा वा ।
विज्जानिमित्तगहणं, करेति आगाढपण्णे२० वा ॥ ७०७. वहमाण अवहमाणो, संघाडेगेण वा असति एगो ।
असती मूलसहाए, अन्ने वि सहायए देति ॥ ७०८. मोत्तूण भिक्खवेलं, जाणिय कज्जाइ पुवभणियाइं ।
अप्पडिबद्धो वच्चति, कालं थामं च आसज्ज२२ ॥ ७०९. गंतूणं य सो तत्थ, पुव्वं२३ संगेण्हते ततो परिसं ।
संगिण्हिऊणं२४ परिसं, करेति वादं समं तेण ॥
७०६.
१. तिणक्खेसु (अ) २. उवाताए (अ, स)।
०किरियाण वि (ब)। वावरा (ब)। वण्ण (ब)।
यमं (ब)। ७. कम्मब्भवणेण (ब), कम्मब्भधणेण (अ)। ८. वणं (ब)। ९. या (अ, ब)। १०. अपरीहारी (स)। ११. तस्सासतीए उ जाति (स)। १२. विरुद्धे (ब)।
१३. द्वितीया पञ्चम्यर्थे आदरख्यापनार्थम् (मवृ) । १४. जुता सतीय (स)। १५. पंथ (अ.स)। १६. पक्खा (स)। १७. ०वहिज्झातो (आ), आहार उपधि स्वाध्याय: (म)। १८. सेज्जाए (अ), सेज्जा य (स)। १९ तु (स)। २०. ०पक्खे (ब)। २१. सहावो (स)। २२. आसज्जा (ब)। २३. पुचि (ब)। २४. संगिहित्ता (ब)।
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७० ]
५.
६.
७१०.
७११.
७१२.
७१३..
७१४.
७१५.
७१६.
७१७.
७१८.
७१९.
१.
२. कोट्टु (अ), कोट्ठा (ब)।
३.
४.
अव्वभरिया (अ), पुव्वं भयारि (स) ।
I
अबंभचारी एसो, किं नाहिति कोट्ठ? एस उवगरणं वेसित्थीय पराजित, निव्विसयपरूवणा' समए ॥ जो
पुण अतिसयनाणी, सो जंपती" एस भिन्नचित्तो त्ति 1 को णेण समं वादो, 'दहुंपि न जुज्जते एस" ॥ अज्जेण भव्वेण वियाणएण, धम्मप्पतिष्णेण अलीयभीरुणा । सीलंकुलायारसमन्नितेण, तेणं समं वाद समायरेज्जा ११ || परिभूयमति एतस्स, एतदुत्तं १ २ न एस णे समओ । समएण विणिग्गहिते, गज्जति वसभोव्व परिसाए ॥ अणुमाउं राय, सण्णातग गेण्हमाण १३ विज्जादी 1 'पच्छाकडे चरित्ते १४, जधा तधा नेव सुद्धो उ
बलवा पडे
॥
अत्थवतिणा निवतिणा, पक्खवता गुरुणा नीएण तवस्सिणा य सह वज्जए १५ वादं नंदे 'भोइय खण्णा १६, आरक्खिय'" 'घडण गेरु १८ नलदामे । मूतिंग ९ गेह डहणा, ठवणा भत्ते
||
सपुत सिरा समतीतम्मि तु कज्जे, परे वयंतम्मि २० 'एग दुविहं वा २१ 1 संवासो न निसिद्धो, तेण परं छेदपरिहारो २२ सुत्तत्थपाडिपुच्छं, करेंति२३ साधू तु तस्समीवम्मि । आगाढम्मि य जोगे, तेसि २४ गुरू होज्ज कालगत बंधाला उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स । आगाढम्म २५ कज्जे, दप्पेण वि ते भवे छेदो ॥ दारं ॥
अहिगरणं (मवृ) ।
वेस० (अ), वेसे ० (ब) ।
निव्विसिय० (अ):
समत्थो (ब) ।
भणाति (ब) 1
१२. एतदुग्ग (स)।
१३. अगेण्ह (स) । १४.
७.
८.
X (ब) ।
९.
वियारएण (अ) ।
१०. सील शब्द में छंद की दृष्टि से अनुस्वार अतिरिक्त है ।
११. समारभेज्जा (अ, स), ब प्रति में यह गाथा नहीं है।
० कडोव्वरित्ते (स) ।
||
२३.
२४.
२५. उ (अ)।
करेति (स) ।
तेसिं (ब), तेसि य (अ) ।
।
१५. वच्चए (अ) ।
१६. तोतिय वेणा (अ), खण्णा इति देशीपदमेतत् सर्वात्मना लूषिताः
(मवृ) ।
१७. आयरक्खिता (ब) ।
||
१८. घडण गह (ब) घडणाग (स) ।
१९. मूयंग (ब), मुईग इति देशीपदं मत्कोटवाचकं (मवृ) ।
२०. वयंतंसि (मु), ववंतम्मि (स) 1
२१. एग दु तिहं वा (ब)।
२२. ० छेद ववहारो (अ) ।
व्यवहार भाष्य
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प्रथम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
७२०.
७२१.
७२२.
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७२९.
७३०.
७३१.
आयरिए अभिसेगे, भिक्खू खुड्डे तहेव थेरे य 1 गहणं तेसिं इणमो, संजोगगम' तुरे वोच्छामि " तरुणे निष्पन्नपरिवारे, लद्धिजुत्ते तहेव अब्भासे ।
चेव गमा
अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच
० कम (निभा ६०२०) ।
च (अ) ।
गणा (अ) ।
खुद्दा (अ), खुड्डग (ब)।
भिक्खुणि खुड्डा तहेव थेरी य (मु)
अभिसेगाए चउरो, जल-थलवासीसु संजोगा (निभा ६०२२) ।
० सेयाए (स) ।
गणि (अ) ।
तरुणे बहुपरिवारे, सलद्धिजुत्ते तव अभासे । एते वसभस्स गमा, निप्फन्नो जेण सो
नियमा "
तरुणे निप्फन्ने या, बहुपरिवारे सलद्धि अब्भासे । भिक्खू खुड्डा थेराण, होंति एते गमा पंच ॥ पवत्तिणि अभिसेगपत्त, 'थेरि तह भिक्खुणी य खुड्डी य 'गहणं तासि इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि तरुणी निष्पन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होति अब्भासे अभिसेयाणं चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा आयरिय गणिणि' वसभे', कमसो गहणं तहेव अभिसेया सेसाण पुव्वमि मीसगकरणे कमो एस भिक्खू खुड्डग थेरे, अभिसेगे" चेव तध य आयरिए । गहणं. तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ॥ तरुणे निफन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे । अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा असहंते १२ पच्चत्तरणम्मी १३ मा होज्ज सव्वपत्थारो । खुड्डो भीरऽणुकंपो१४, असहो घातस्स थेरो य गणि आयरिया उ सहू, ‘देहवियोगे तु १५ साहस विवज्जी एमेव भंसणम्मि वि, उदिण्णवेदो त्ति नाणत्तं ॥ दारं ॥ भिक्खुणी खुड्डी थेरी, अभिसेगा य पवत्तिणी चेव । करणं तासि इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि !
11
।
१२.
१३.
१४.
१५.
11
भीरुऽणु० (ब), हीर० (स) ।
देहविएहिं (स) ।
I
॥ दारं ॥
।
॥ दारं ॥
९.
वसधे (अ) ।
१०.
० सेगा (ब)।
११. शेषेषु षष्ठी सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
षष्ठ्यर्थे च सप्तमी (मवृ) ।
पच्चासूरणम्मि ( अ, ब, स) प्रत्यास्तरणं नाम संमुखीभूय
युद्धकरणं (मवृ) ।
।
॥ दारं ॥
||
[ ७१
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________________
७२ ]
१.
२.
३.
४.
७३२.
७३३.
७३४.
७३५.
७३६.
७३७.
.७३८.
७३९.
७४०.
७४१.
७४२.
७४३.
सलद्धेए (ब)।
च वज्जते (अ) ।
पुव्वं (ब)।
अपरि० (स) ।
किं व (स)।
॥ दारं ॥
अभिसेयाए पंतावणमीसाणं,
।
तरुणी निष्पन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होति अब्भासे 1 चउरो, साणं पंच चेव गमा दोन्हं वग्गाण होति करणं तु पुव्वं तु संजतीणं, पच्छा पुण संजताण भवे || भिक्खू खुड्डे थेरे, अभिसेगायरिय संजमे करणे तेसि इणमो, संजोगगमं तु
५.
६.
७.
८.
९.
० वार (अ)।
१०. चट्टेण लहंति (अपा), वज्रेण लहंति (सपा) ।
- तरुणे निप्फन्नपरिवारे, सलद्धिए' जे य होति
अभासे ।
अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा 11 अपरिणतो सो जम्हा, अन्नं भावं वएज्ज अपरीणामो अधवा, न वि नज्जति किंचि' भिक्खुण खुड्डी थेरी, अभिसेग पवत्तिणि' संजमें करणं तासिं इमो, संजोगगमं तु तरुणी निप्पन्न परिवारा सलद्धिया जा य होति अभिसेगाए चउरो, सेसाणं पंच चेव खुड्डे थेरे भिक्खू, अभिसेगायरिय 'भत्तपाणं तु १० । करणं १ तेसिं इमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ॥ तरुणे निष्पन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अभासे । 'अभिसेयम्मि य १२ चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा #1 खुड्डिय’३ थेरी भिक्खुणि, अभिसेग पवत्तिणी 'भत्तपाणं तु१४ । करणं तासिं१५ इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ॥ तरुणी निष्प्फन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होति अब्भासे । अभिसेगाए ६ चंउरो, सेसाणं पंच चेव गमा -11 अणुकंपा जणगरिहा१७, तिक्खखुधो" तेण १९ खुड्डुओ पढमं I इति भत्तपाणरोहे, दुल्लभभत्ते वि० एमेव ॥ दारं ॥
काधिति (अ), काहिंतु (ब) ।
भिक्खु (ब)।
पवत्तणि (अ) ।
डुप । वोच्छामि ॥
तो पुवि
।
काहीई ॥
डुणे ।
वोच्छामि ॥
अब्भासे ।
गमा ॥ दारं ॥
११. करणं तु (ब)।
१२. ० सेयम्मी (निभा ६०२१) ।
१३. खुड्डीया (स) ।
१४. चट्टेण लहंति (अपा), वज्रेण लहंति (सपा) ।
१५. तेसि (ब)।
१६. अभिसेयम्मि य (अ, स) ।
१७.
० गरहा (ब, स)।
१८. तिक्खब्बाधा (अ), तिक्खखुहो (ब)।
१९. होइ (अ) ।
२०. या (ब)।
व्यवहार भाष्य
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________________
प्रथम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
७४४. खुड्डे थेरे भिक्खू, अभिसेगायरिय दुल्लभं भत्तं । करणं तेसिंइणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि ॥
७४५.
७४६.
७४७.
७४८.
७४९.
७५०.
७५१.
७५२.
७५३.
७५४.
तरुणे निष्पन्नपरिवारे, सलद्धिए जे य होति अब्भासे । अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा
||
७४४ से ७४७ तक की चारों गाथाएं हस्तप्रतियों में प्राप्त नहीं हैं किन्तु टीका की मुद्रित प्रति में भाष्यगाथा के क्रम में हैं। यद्यपि ये गाथाएं पुनरावृत्त हुई हैं किन्तु 'दुर्लभ भक्त द्वार' को स्पष्ट करने वाली हैं अतः हमने इन्हें भाष्यगाथा के क्रम में जोड़ा है। परिण्णाय (ब) ।
णिइयत्तइ (ब)।
अप्पाणितो (स) ।
I
"
1
खुड्डिय थेरी भिक्खुणि, अभिसेयपवित्ति दुल्लभं भत्तं करणं तासि इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि तरुणी निष्पन्नपरिवारा, सलद्धिया जा य होति अब्भासे । अभिसेयाए चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा परिणाय गिलाणस्स य, दोण्ह वि कतरस्स होति कायव्वं असतीय 'गिलाणस्स य ३, दोण्ह वि संते परिण्णाए सावेक्खो उ गिलाणो, निरवेक्खो जीवितम्मि उपरिण्णी 1 इति दोह वि कायव्वे, उक्कमकरणे करे असहू ॥ 'वसभे जोधे " य तहा, निज्जामगविरहिते जहा पोते पावति विणासमेबं 'भत्तपरिणाय संमूढो ६ ॥ नामेण वि गोत्तेण य, विपलायंतो वि सावितो संतो अवि भीरू वि नियत्तति", वसभो अप्फालितो ' पहुणा ॥ अप्फालिया जह० रणे जोधा भंजंति परबलाणीयं 1 गीतजुतो उ परिण्णी, तध जिणति परीसहाणीयं ॥ सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो गीतत्थविरहियस्स उ तहेव नासो परिण्णिस्स १२ निउणमतिनिज्जामगो१३, पोतो जह इच्छितं १४ वए भूमिं १५ । गीतत्ववेतो, तह य१६ परिण्णी लहति सिद्धिं
1
।
॥
० णस्सा (स) ।
०करणं (स)।
जोहे वसभे (ब)।
परिण्णाए मूढसण्णो उ (स) ।
९.
पुहुणा (ब) पडणा (अ) ।
जह उ (अ) ।
१०.
११.
१२. परिण्णस्स (स) ।
१३. विउण्णमती ० (ब) ।
१४. इच्छयं (ब) ।
१५.
भूमी (स) ।
१६.
ऊ (ब), उ (अ) ।
०
जुत्तो (ब), ० जतो (अ) ।
11
।
॥
11
[ ७३
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________________
७४ ]
व्यवहार भाष्य
७५५. 'उव्वत्तणा य" पाणग, धीरवणारे चेव धम्मकहणा य ।
अंतो बहि नीहरणं, 'तम्मि य काले णमोक्कारो ॥दारं ।। ७५६. जोच्चिय भंसिज्जते, गमओ सो चेव भंसियाणं पि ।
हेट्ठा अकिरियवादी, भणितो इणमो' किरियवादी ॥ ७५७. वादे जेण समाधी, विज्जागहणं च वादि पडिवक्खो ।
न सरति विखेवेणं', निव्विसमाणो तहिं गच्छे ॥दारं ।। ७५८. वाया पोग्गललहुया, मेधा उज्जा य धारणबलं च ।
तेजस्सिता य सत्तं, वायामइमम्मि संगामे ॥ ७५९. तत्थ गतो वि य संतो, पुरिसं थामं च नाउ तो° ठवणा५ ।
साधीणमसाधीणे, गुरुम्मि ठवणा असहुणो उ ॥ ७६०. कामं अप्पच्छंदो, निक्खिवमाणो तु दोसवं होति'२ ।
तं पण जुज्जति असढे, तीरितकज्जे पण वहेज्जा ॥ ७६१. सरमाणो जो उ१३ गमो, अस्सरमाणे१४ वि होति एमेव ।
एमेव मीसगम्मि वि, देसं सव्वं च आसज्ज ॥नि.१३६ ।। ७६२. विज्जानिमित्त उत्तरकहणे५ अप्पाहणा'६ य ‘बहुगा उ'१७ ।
अतिसंभम तुरित८ विणिग्गयाण दोण्हं पि विस्सरितं२० ॥ ७६३. पुव्वं सो सरिऊणं, संपत्थित२९ विज्जमादिकज्जेहिं ।
जस्स पुणो विस्सरियं, निव्विसमाणो तधिं पि वए ॥ ७६४. देसं वा वि वहेज्जा, देसं च ठवेज्ज अहव झोसेज्जा ।
सव्वं वा वि वहेज्जा, ठवेज्ज सव्वं व२२ झोसेज्जा ॥ ७६५. निक्खिव न निक्खिवामी, पंथेच्चिय देसमेव वोज्झामि२३ ।
असहू पुण निक्खिवते, झोसंति मएज्ज२४ तवसेसं ॥
१. ०त्तणाइ (ब)। २. धीरा ०(अ)। ३. . कधणया (अ)। ४. धम्मिय (स)। ५. य इमो (ब)।
वाहे (स)। ७. ०वक्खे ० (ब) ८. लपडुवा (अ),०लपडवा (स)। ९. नातो (ब)। १०. वा (अ)। ११. ठवणं (ब)। १२. भणितो (ब, स)। १३. य (ब)।
१४. असर० (अ, ब)। १५. ० करणे य (ब)। १६. अप्पाहणा य संदेशका बहुका: कथिता: (म)। १७. पहुगा उ(अ, स)। १८. तरिति। १९. ० ग्गमे वि (अ)। २०. वीस० (ब)। २१. संपच्छिते (स)। २२. पि (आ), च (ब)। २३. वोच्छामि (स)। २४. वसेज्ज (अ, ब, स)।
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प्रथम उद्देशक
[ ७५
७६६ एमेव य 'सव्वं पिरे हु, दूरद्धाणम्मि तं भवे नियमा ।
‘एमेव सव्वदेसे', वाहणझोसा पडिनियत्ते'६ ॥ ७६७. वेयावच्चकराणं, होति' अणुग्घातियं पि उग्घातं ।
सेसाणमणुग्घाता, अप्पच्छंदो ठवेंताणं ॥ ७६८. निग्गमणं तु 'अधिकितं, अणुवत्तति'११ वा तवाधिकारो उ ।
तं पुण वितिण्णगमणं, इमं तु सुत्तं उभयधा वि ॥नि.१३७ ॥ ७६९. संथरमाणाण३ विधी, आयारदसासु वण्णितो पुट्वि ।
सो चेव य होति इहं, तस्स विभासा इमा होति ॥ ७७०. घरसउणि सीह ४ पव्वइय, सिक्ख परिकम्मकरण दो जोधा ।
थिरकरणेगच्छखमदुग, ‘गच्छारामा ततो णीति"५ ॥दारं ॥नि.१३८ । ७७१. वासगगतं.६ तु पोसति, चंचूपूरेहि सउणिया छावं७ ।
वारेति तमुडुतं', जाव समत्थं न जातं तु ॥ ७७२. एमेव वणे सीही, सा रक्खति छावपोयगं२१ गहणे ।
खीरमिउपिसियचव्विय२२, जा खायइ अट्ठियाइं पि ॥ ७७३. 'मारितममारितेहि य२३, तं 'तीरावेति छावएहिं तु'२४ ।
वण- महिस- हत्थि- वग्घाण पच्चलो जाव सो जातो ॥ ७७४. अकतपरिकम्ममसहर, दुविधा सिक्खा अकोविदमपत्तं ।
पडिवक्खेण उवमिमो, सउणिग२६-सीहादि छावेहिं ॥दारं ॥ ७७४/१. पव्वज्जा सिक्खावय२७, अत्थग्गहणं च२८ अणियतो वासो ।
निष्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिती चेव२९ ॥
१. एसेव (अ)। २. सव्वम्मि (अ.स)। ३. वि(अ)। ४. दूरट्ठाणं पि (), दूरठाणम्मि (स) ।
देसि सव्वे (ब)। ६. पडिवन्ने सव्वट्ठ वि वाहण झोसो पडिनियत्ते (अ)।
होंति (स)। ८. .तिया (अ.स)। ९. उग्घातिए (अ), उग्धाता (स)। १०. सेसाणअणु० (ब)। ११. अहिकयं अणुयत्तति (ब)। १२. विदिण्ण० (ब, स)। १३. . माणम्मि (अ)। १४. सीध (अ)। १५. x (अ)।
१६. वासगगयं ति प्राकृतत्वादाद्याकारस्य लोप आवासो नीडमावास
एवावासकस्तद्गतं (मवृ)। १७. सावं (म)। १८. सउडिति (अ, स)। १९. गाथायां नपुंसकनिर्देशः (मवृ)। २०. सावी (अ)। २१. छावणावयं (स)। २२. मउपि० (), मयुपि (स) । २३. ० रिएहिं (अ)। २४. णीराए तु सावपोतेहिं (स) । २५. ० मसहू (अ),०मसहु (स)। २६. सउणादि (ब) सउणग (स)। २७. ०वती (अ)। २८. तु (अ, ब), निभा ३८१३, बृभा ११३२,१४४६ । २९. यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है।
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७६ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
७७४/२. पव्वज्जा सिक्खावय, अत्थग्गहणं तु' सेसए सामायारिविसेसो, नवरं 'वुत्तो उ
७७५.
७७६.
७७७.
७७८.
७७९.
७८०.
७८१.
७८२.
७८३.
आइन्ना (अस) ।
तेहि (अस) ।
अत्थि
1
गणहरगुणेहि जुत्तो, जदि* अन्नो गणहरो गणे 'नीति गणातो इहरा ५, कुणति गणे चेव परिकम्मं ॥
I
जइ वि हु दुविधा सिक्खा, आइल्ला होति गच्छवासम्मि तह वि य एगविहारे, जा जोग्गा तीय' भावेति ॥
तवेण
सत्तेण
पंचधा
होइ (ब)।
णीति ततो इहरा पुण (स) ।
सुण,
वुत्ता,
तुलणा
'चउभत्तेहिं तिहिं उ१०, छट्ठेहिं बारस - चउदसमेहि१२ य, धीरो धितिमं
व (ब)। नवरि (ब)।
डिमाए वुत्तो उ (अस) ।
७७४ । १-२ ये दोनों गाथाएं अ, ब हस्तप्रतियों एवं टीका में उपलब्ध हैं। टीकाकार ने ७७४ ।१ गाथा के लिए 'संग्राहिका चेयं गाथा' का उल्लेख किया है तथा ७७४ । २ के लिए 'तथा चाह' का उल्लेख किया है। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि प्रसंगवश इन्हें उद्धृत कर दिया गया है। विषय की दृष्टि से भी गाथाएं यहां प्रासंगिक नहीं लगतीं ।
गण
डिमं
भयणा 1
पडिमा ए३ ॥
1
अट्ठमेहि दसमेहिं " तुलेतऽप्पं १३ ॥
जह सीहो तह साधू, गिरि-नदि सीहो तवोधणो साधू । वेयावच्चऽकिलंतो, अभिन्नरोमो य आवासे ॥ दारं ॥
॥ दारं ॥
।
पढमा उवस्सयम्मी, बितिया बाहि ततिया चउक्कम्मि । सुण्णघरम्मि १४ चउत्थी, 'पंचमिया तह १५ मसाणम्मि १६ उक्कतितोवत्तियाई ७, सुत्ताइं सो करेति सव्वाइं मुहुत्तद्धपोरिसीऍ, दिणे य 'काले अहोरत्ते९९ ॥ दारं ॥ अण्णो देहाओऽहं नाणत्तं जस्स एवमुवलद्धं । सो किंचि आहिरिक्कं न कुणति देहस्स भंगे वि ॥ दारं ॥ एमेव य देहबलं, अभिक्खआसेवणाए" तं होति । खग - मल्ले उवमा, आसकिसोरे व्व जोग्गविते ॥ दारं ॥
1
बलेण य पडिवज्जतो ॥ नि. १३९ ॥
व्यवहार भाष्य
८.
ताय (स) ।
९.
जिणकप्प (बृभा १३२८) ।
१०. चउभत्तेणं जतिडं (ब, मु), चउभत्तेण जतितुं (स) ।
११. x (ब) ।
१२.
चोदस० (अ) ।
१३. तुले अप्पं (ब), तुलंतप्पं (स) ।
१४.
० यम्मि य (अ, स) ०म्मि (स) ।
१५.
तह पंच ० (स) 1
१६. सुसा० (बृभा १३३५, ब) ।
१७. ० वत्तिराति (ब) ।
१८. ० पोरुसीए (स) ।
१९. कालेहो० (अ), काले य होरते (स) ।
२०. मासेव० (स) ।
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प्रथम उद्देशक
। ७७
७८८.
७८४. पज्जोयमवंतिवति खंडकण्ण' सहस्समल्लरे पारिच्छा ।
महकाल छगल सुरघड, तालपिसाए करे मंसं ॥ ७८५. न किलम्मति दीघेण वि, तवेण न वि तासितो वि बीहेति ।
छण्णे वि ठितो वेलं', साहति पुट्ठो अवितधं तु ॥ ७८६. पुरपच्छसंथुतेहिं, न सज्जती११ दिद्विरागमादीहिं ।
दिट्ठी-मुहवण्णेहि य, अब्भत्थबलं समूहं ति ॥ ७८७. उभओ किसो २ किसदढो, दढो किसो यावि३ दोहि वि दढो य४।
बितिय-चउत्थ५ पसत्था, धितिदेहसमस्सिया'६ भंगा ॥दारं ॥ सुत्तत्थझरियसारा, ‘कालं सुत्तेण१७ तु८ सुट्ट नाऊणं ।
परिजिय९ परिकम्मेण य, सुटू तुलेऊण अप्पाणं२० ॥ ७८९. तो विष्णवेंति२१ धीरा२२, आयरिए२३ एगविहरणमतीया ।
परियागसुतसरीरे, कतकरणा तिव्वसद्धागा२४ ॥ ७९०. एगूणतीसवीसा, कोडी आयारवत्थु दसमं च ।
संघयणं पुण आदिल्लगाण तिहं तु अन्नतरं ॥ ७९१. जइ विऽसि तेहुववेओ२५, आतपरे दुक्करं२६ खु वेरग्गं
आपुच्छणा विसज्जण, पडिवज्जण गच्छसमवायं२७ ॥नि.१४० ।। ७९२. परिकम्मितो वि वुच्चति, किमुत अपरिकम्म२८ मंदपरिकम्मा२९ ।
आतपरोभयदोसेसु, होति दुक्खं खु वेरग्गं ॥ ७९३. पढम-बितियादलाभे३९, रोगे पण्णादिगा य आताए ।
सीउण्हादी उ परे, निसीहियादी१ उ उभए वि ॥
१. ० कण्णि (ब)। २. साहस्सि० (स)। ३. महाकाल (अ) ४. सुरकुड (ब)।
किलस्सति (स)।
य (अ.स)। ७. बीधिति (आ), पीहेइ (स)।
ति (अ)। ९. मूलं (स)। १०. गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे (मवृ)। ११. सक्कइ (अ), सज्जति (ब)। १२. कसो (ब)। १३. उ(अ)। १४. वि (अ), या (ब)। १५. चरमा (मु)। १६. समन्भिया (स)।
१७. सुत्तेण कालं (ब)। १८. x (अ)। १९. परिचिय (ब)। २०. मप्पाणं (स)। २१. विण्णिवेंति ()। २२. वीरा (अ.स)। २३. ०रियं (ब)। २४. सट्ठागा (अ, ब)। २५. तिए उववेओ (ब) तेधुववेतो (स)। २६. उक्करं (अ)। २७. गच्छतोसवणो (आ, गच्छओसवणं (स)। २८. परिकम्म (अ, ब), परीकम्म (स)। २९. ०परीकम्मो (स)। ३०. बीयतोदलाभे (ब)। ३१. ०याए (स)।
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७८ ]
व्यवहार भाष्य
७९४. एतेसुप्पण्णेसुं, दुक्खं वेरग्गभावणा काउं ।
पुव्वं अभावितो खलु, 'जध सेहो एलगच्छो उ२ ॥ ७९५. परिकम्मणाय खवगो, सेह 'बलामोडि सो" वितध ठाति ।
पाभातियउवसग्गे, कतम्मि पारेति सो सेहो ॥ पारेहि तं पि भंते !, देवयअच्छी चवेडपाडणया ।
काउस्सग्गाऽऽकंपण, एलगस्सपदेस निवित्ती ॥ ७९७. भावितमभाविताणं, गुणा गुणण्णा 'इय त्ति तो थेरा ।
वितरंति भावियाणं, दव्वादि सुभे य पडिवत्ती ॥ ७९८. निरुवस्सग्गनिमित्तं, उस्सग्गं वंदिऊण आयरिए ।
आवस्सियं तु काउं, निरवेक्खो वच्चए भगवं ॥ परिजितकालामंतण, खामण' तव-संजमे य संघयणा ।
भत्तोवधिनिक्खेवे, आवण्णो लाभगमणे य दारं ॥नि.१४१ ॥ ८००. परिचियसुओउमग्गसिरमादि जा जे? कुणति परिकम्मं ।
एसोच्चिय सो कालो, पुणरेति गणं उवग्गम्मि ॥ जो जति मासे काहिति, पडिमं सो तत्तिए जहण्णेण ।
कुणति मुणी परिकम्म, उक्कोसं भावितो जाव ॥ ८०२ तव्वरिसे कासिंची१, पडिवत्ती अन्नहिं उवरिमाणं१२ ।
आइण्णपतिण्णस्स१३ तु, इच्छाए भावणा सेसे ॥दारं ॥ ८०३. आमंतेऊण गणं, सबालवुड्डाउलं खमावेत्ता ।
उग्गतवभावियप्पा, संजम पढमे व बितिए वा ॥दारं ।। ८०४. पग्गहियमलेवकडं, भत्तजहण्णेण नवविधो उवही ।
'पाउरणवज्जियस्स उ१५, इयरस्स दसादि जा बारा६ ॥दारं ॥ ८०५. वसहीए१७ निग्गमणं, हिंडंतो सव्वभंडमादाय ।
न य निक्खिवति९ जलादिसु, जत्थ से सूरो वयति अत्थं ॥दारं ॥
८०१.
|m3;
१. एते समुप्पण्णेसु (मु)। २. सो होए एलगच्छो वा (ब)। ३. ० कम्मणा उ (अ, स)।
बलामोडिए (ब)।
उ इय ते (अ), य ईया तो (ब), ति ईय तो (स)। ६. विचरंति (स)।
कामण (ब)। ८. यावत् (मवृ)। ९. जेट्टो (अ)। १०. x (अ)।
११. कासिंचा (ब)। १२. तुवरि ० (ब) १३. आतिण्ण ० (अ), आदिन्न ० (ब)। १४. वि (ब)। १५. ० यस्सा (ब)। १६. थेरा (अ, ब), पारा (स)। १७. ० हीय उ (ब)। १८. निक्खमणं (अ), निविखवणं (स)। १९. निक्खवइ (अ)। २०. वइ (ब)।
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प्रथम उद्देशक
[ ७९
८१०.
८०६. मणसा वि अणुग्घाया, सच्चित्ते यावि' कुणति उवदेसं ।
अच्चित्तजोग्गगहणं, भत्तं पंथो य ततियाए ॥दारं ॥ ८०७. एमेव गणायरिए, गणनिक्खिवणम्मि नवरि नाणतं ।
पुव्वोवहिस्स अहवा, निक्खिवणमपुव्वगहणं तु ॥ ८०८. तिरियमुब्भामरे णियोग, दरिसणं साधु सण्णि वप्पाहे ।
दंडिग भोइग' असती, सावगसंघो व सक्कारं ॥दारं ।।नि.१४२ ॥ ८०९. उदभावणा पवयणे, सद्धाजणणं तहेव बहुमाणो ।
ओहावणा कुतित्थे, जीतं तह तित्थवुड्डी' य ॥ एतेण सुत्त न गतं, सुत्तनिवातो इमो उ अव्वत्ते ।
उच्चारितसरिसं० पुण, परूवितं पुव्व ‘भणितं पि११ ॥ ८११. आगमणे सक्कारं२, कोइं१३ दट्ठण जातसंवेगो ।
आपुच्छण पडिसेहण, देवी संगामतो णीति५ ॥ ८१२. संगामे निवपडिमं, 'देवी काऊण"६, जुज्झति रणम्मि ।
बितियबले नरवतिणा, नातुं गहिता धरिसिता य ॥ ८१३. दूरे ता पडिमाओ, गच्छविहारे८ वि सो न निम्माओ९ ।
निग्गंतुं आसन्ना, नियत्तइ२० लहुय गुरू दूरे ॥ सच्छंदो सो गच्छा, निग्गंतूणं ठितो उ सुण्णघरे२१ । सुत्तत्थसुण्णहियओ, संभरति इमेसिमेगागी ॥ आयरिय-वसभसंघाडए य कंदप्प२२ मासियं लहुयं ।
एगाणिय२३ सुण्णघरे, अत्थमिते पत्थरे गुरुगा ॥ ८१६. पत्थर छुहए२४ रत्ती२५, गमणे गुरुलहुग दिवसतो होति ।
आतसमुत्था एते, देवयकरणं२६ तु वोच्छामि२७ ॥नि.१४३ ॥
८१५.
वा वि (अ), चेव (ब)। २. तीरिय उब्भाम (न)।
णितोध (ब), णिओत (स)। वप्पाहो (ब), मप्पाहे (स)।
भोविग (अ), तोइग (स)। ६. उब्भावणा (स)। ७. ०वड्डी (अ)। ८. य (ब) इ (अ) ९. अच्चित्ते (स)। १०. उच्चारिं स० (अ), उच्चारिए स० (ब)। ११. भणितम्मि (अ, ब)। १२. थक्कारं (ब)। १३. कोति (ब), कोइ (अ)। १४. पडिवज्जण (अ)।
१५. णीती (ब)। १६. काऊण देवि (ब)। १७. कुज्झति (स)। १८. ० विहारेण (अ)। १९. निम्मगतो (ब)। २०. ० तए (ब, स)। २१. ० घरं (ब)। २२. कंदप्पत्ति अत्र विभक्तिलोपो मत्वर्थीयलोपश्च प्राकृतत्वात् (मवृ)। २३. एक्काणिय (ब)। २४. छुहणे (अ.स), छुहइ त्ति प्रवेशयति (मवृ)। २५. रत्ता (स)। २६. देवकरणं (ब)। २७. गाथा के पूर्वार्द्ध में मात्राएँ अधिक है।
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८० ]
व्यवहार भाष्य
८१७. पत्थरमणसंकप्पे, मग्गण दिढे य गहित खित्ते य ।
पडित परितावित मएँ, पच्छित्तं होति तिण्डं पि ॥ मासो लहओ गरुगो, चउरो लहगा य होंति गरुगा य । छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ बहुपुत्ति पुरिस मेहे, उदयग्गी जड्ड सप्प चउलहुगा । अच्छण अवलोग' नियट्ट, कंटग गेण्हण दिढे य भावे या ॥नि. १४४ ।। बहुपुत्तत्थी' आगम, दोसूवलेसु तु थालि-विज्झवणं' । अण्णोण्णं पडिचोयण, वच्च गणं 'मा छले पंता० ॥ ओवाइयं११ समिद्धं, महापसुं१२ देमु३ सज्जमज्जाए ।
एत्थेव ता निरिक्खह, दिढे वाईं५ व समणो१६ वा ॥दारं ।। ___ उदगभएण पलायति, पवति व रुक्खं व रोहए सहसा ।
एमेव 'सेसएसु वि५७, भएसुस पडिकार मो कुणति ॥ जेट्ठज्ज९ पडिच्छाही, अहं पि तुब्भेहि समं२० वच्चामिर । इति सकलुणमालत्तो, मुज्झति२२ सेहो अथिरभावो२२ ॥ अच्छति२४ अवलोएति य, लहुगा पुण 'कंटगों मे लग्गो त्ति २५ । गुरुगा निवत्तमाणे२६, तह कंटगमग्गणे चेव ॥ कंटगपायग्गहणे२५, छल्लहु छग्गुरुग चलणमुक्खेवे२८ ।
दिट्ठम्मि वि छग्गुरुगा, परिणयकरणे ,य सत्तट्टे९ ॥ ८२६. लहुगा य दोसु दोसु य, गुरुगा छम्मास लहु गुरुच्छेदो ।
ल भिक्खु गणायरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची ॥
८२२.
८२३.
८२४.
८२५.
१. खत्ते (ब)। २. मूले (अ.स)। ३. ० पुत्तिस्थि (ब), पुत्तियं (स)। ४. जड्डे (अ)। ५. ०लोकण (अ)। ६. गाथा के उत्तरार्ध में मात्राएं अधिक हैं। ७. पुत्तित्थी (अ)। ८. दोसुपलेसु (स), द्वयोरुपलयोः (मवृ)।
विब्भवणं (ब)। १०. पंतमालवणे (अ), पंत मा छलणा (स)। ११. उपवातिय (ब), उवातियं (अ)। १२. महापशु म पुरुष: (म)। १३. देमो (ब)। १४. अज्जम० (अ, ब)। १५. वाडं (अ), वाडु देशीवचनमेतत् नशनं करोति नश्यतीत्यर्थः
(म)।
१६. सरणं (अ.स)। १७. ० एसुं(ब)। १८. पदेसु (स)। १९. जेट्टे य ()। २०. समग (अ, ब)। २१. गच्छामो (अ)। २२. मुच्छइ (अ)। २३. अस्थिर० (ब)। २४. अच्छति त्ति प्रतीक्षते (म)। २५. कंटओ मे य उग्गो त्ति (ब), कट्ठओ मे लगोत्ति (अ, स)। २६. नियत्त ० (अ, स)। २७. ०पाउग्ग ० (अ.स)। २८. चलण उ० (अ)। २९. सत्तट्ठ त्ति अत्र पूरणप्रत्ययास्तस्य लोपः प्राकृतत्वात् (मवृ)।
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प्रथम उद्देशक
८२७. आसन्नातो लहुगो, दूरनियत्तस्स गुरुतरो दंडो' ।
चोदग संगामदुर्ग, नियट्ट खिसंतऽणुग्घाया ॥ ८२८. दिलृ लोए आलोगभंगि वणिए य अवणिएँ नियत्तोरे ।
अवराधे नाणत्तं, न रोयए केण तोरे तुझ ॥ ८२९. अक्खयदेहनियत्तं, बहुदुक्खभएण' जं समाणेह ।
'एयं महं न रोयति, ‘को ते विसेसो भवे एत्थ ॥ ८३०. एसेव व दिट्ठतो, पुररोधे जत्थ वारितं रण्णा ।
मा णीह तत्थ णिते, दूरासन्ने य नाणत्तं ॥ सेसम्मि चरित्तस्सा, आलोयणता पुणो पडिक्कमणं । छेदं परिहारं वा, 'जं आवण्णे तयं पावे ॥ एवं सुभपरिणाम, पुणो वि गच्छम्मि तं पडिनियत्तं । जो हीलतिर खिसति वा, पावति गुरुए'२ चउम्मासे ३ ॥ उत्ता४ वितिण्णगमणा, इदाणिमविदिण्ण निग्गमे सुत्ता । पडिसिद्धमवत्तस्स व, इमेसु५ सव्वेसु पडिसिद्धं ॥ पासत्थ अहाछंदो'६, कुसील ओसन्नमेव संसत्तो । एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अधाणुपुवीए८ ॥नि.१४५ ।। गच्छम्मि केइ पुरिसा, सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा
सारण - पंजर - चइया, 'पासत्थगतादि विहरंति'२० ॥ ८३६. तेसिं पायच्छित्तं, वोच्छं ओघे य पदविभागे२१ य ।
ठप्पं तु पदविभागे, ओहेण इमं तु वोच्छामि२२ ॥ ८३७. ऊसववज्ज कदाई, लहुओ लहुया अभिक्खगहणम्मि ।
ऊसवकदाइ लहुगा, गुरुगा य अभिक्खगहणम्मि२३ ॥
१. डंडो (स)। २. य अंते (ब)। ३. तं (स)। ४. तुब्भं (ब,स)। ५. ०ख हतेण (अ, स)। ६. एवं महन्नं (अ), एवं तहण्णं (स)। ७. को व (अ.स)। ८. एमेव (स)। ९. जहि आवाए तं (ब)। १०. सुद्धप० (ब)। ११. हीले (अ, ब, स)। १२. गुरुओ य (ब), गुरुए व (अ) ।
१३. छम्मासा (ब)। १४. वुत्ता (अ.स)। १५. इमे (अ)। १६. महाछंदो (अ.स)। १७. उस्सण्ण (स)। १८. निभा ४३५०। १९. जतिया (अ) २०. ० गता पविह ० (अ.स), ब प्रति में इस गाथा का केवल प्रथम
चरण प्राप्त है। २१. गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। २२. ब प्रति में यह गाथा नहीं है । २३. ब प्रति में इस गाथा का केवल प्रथम चरण है।
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व्यवहार भाष्य
८३८.
चउ-छम्मासे वरिसे, कदाइ 'लहु गुरुग तह य" छग्गुरुगा ।
एतेसु चेवऽभिक्खं, चउगुरु तह छग्गुरुच्छेदो ॥ ८३९. एसो उ होति ओघे, एत्तो पदविभागतो पुणो वोच्छं ।
चउत्थमासे चरिमे, ऊसववज्जं जदि कदाइ ॥ गेण्हति लहुओ लहुया, गुरुया इत्तो अभिक्खगहणम्मि ।
चउरो लहुया गुरुया, छग्गुरुया ऊसवविवज्जा ॥ ८४१. उस्सव कदाइगहणे, चउरो लहुगा य गुरुग छग्गुरुगा ।
एवं अभिक्खगहणे, छग्गुरु चउ छग्गुरुच्छेदो" ॥ ऊसववज्ज न गेण्हति, निब्बंधो ऊसवम्मि गेण्हति उ । अज्झोयरगादीया, इति अहिगा ऊसवे सोही ॥ एवं उवट्ठियस्सा, पडितप्पिय२ साधुणो पदं हसति'३ । चोदेति राग-दोसे, दिलुतो पण्णगतिलेहिं ॥ जो तुम्ह१४ पडितप्पति५, तस्सेगट्ठाणगं तु हासेह७ ।
वड्लेह८ अपडितप्पे, इति रागद्दोसिया तुब्भे ॥ ८४५. इहरह वि ताव चोदग !, कडुयं 'तेल्लं तु१९पन्नगतिलाणं ।
किं पुण निंबतिलेहिं२९, भावितयाणं भवे खज्ज२१ ॥ ८४६. एवं२२ सो पासत्थो, अवण्णवादी पुणो य साधूणं ।
तस्स य२३ महती सोधी, बहुदोसो सोत्थ भो चेव२४ ॥ ८४७. 'जह पुण ते चेव'२५ तिला, उसिणोदग धोत खीरउव्वक्का२६ ।
तेसिं जं तेल्लं तू, तं घयमंडं विसेसेति ॥
८४४.
१. लहगा गुरुगा य(ब) । २. ०अभिक्खं (अ, स)। ३. तो (स)। ४. ऊसग०(अ.स)। ५. ऊसव (स)।
होंति (स)। ब प्रति में तथा टीका की मुद्रित पुस्तक में कुछ अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती है पर टीकाकार ने व्याख्या ऊपर वाली गाथा की की है।
चउरो लहुया गुरुगा, छम्मासा ऊसवम्मि उ कयाई। __ एवं अभिक्खगहणे, छग्गुरु चउ छग्गुरुच्छेदो ॥ ८. ऊसग० (ब) सर्वत्र । ९. गेण्हती (अ)। १०. अज्झोवर० (अ)। ११. ०स्स (अ)।
१२. ० तप्पए (ब)। १३. हुसियं (अ.स)। १४. तुभं (स)। १५. परित० (ब)। १६. तस्सेगं ठाणगं (ब)। १७. हासे वा (अ), हासे य (ब)। १८. वदेह (ब), वड्डेध (अ)। १९. तेल्लेसु (ब)। . २०. किंच फलेहि (अ.स)। २१. अखज्ज (अ)। २२. एग (अ, स)। २३. तु (अ)। २४. ८५० की गाथा अ और स प्रति में इस गाथा (८४६) के बाद है। २५. x (ब)। २६. खीरतोवक्का (अ, ब)।
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प्रथम उद्देशक
[ ८३
८५०.
१.
८४८. कारण संविग्गाणं, आहारादीहि तप्पितो जो उ ।
नीयावत्तणुतावी, तप्पक्खिय वण्णवादी यरे ॥ ८४९. पावस्स उवचियस्स वि, पडिसाडण मो करेति ‘एवं तु ।
सव्वासिरोगिउवमा, सरदे य पडे अविधुयम्मि ॥ पण्णे य यंते किमिणे, य अणुवातं च ठितो उल्लो य । केण वि से वातपुढेण, बुभुलइयं मुणेऊणं ॥ थोवं भिन्नमासादिगाउ, य राइंदियाइ' जा पंच ।
सेसेसु पदं हसती, पडितप्पिय एतरे सकलं.१ ॥ ८५२. दुविहो खलु पासत्थो, देसे सव्वे य होति नायव्वो
सव्वे तिन्नि विकप्पा'१२, देसे सेज्जातरकुलादी१३ ॥नि.१४६ ।। ८५३. दंसण-नाण१४-चरित्ते-तवे य५ अत्ताहितो पवयणे य ।
तेसिं पासविहारी१६, पासत्थं तं वियाणाहि१७ ॥ ८५४. दंसण-नाण-चरित्ते, सत्यो अच्छति तहिं न उज्जमति ।
एतेणउ१८ पासत्थो, एसो अन्नो वि पज्जाओ९ ॥ ८५५. पासो ति बंधणं ति य, एगटुं बंधहेतवो पासा ।
पासत्थिय पासत्थो, अन्नो वि एस पज्जाओ२० ॥ ८५६. सेज्जायरकुलनिस्सित, ठवणकुलपलोयणा अभिहडे य ।
पुचि पच्छासंथुत, 'णितियग्गपिंडभोइ य२१ पासत्थो२२ ॥ ८५७.
आइण्णमणाइण्णं, निसीधऽभिहडं२३ च णो निसीहं च । साभावियं च नियतं२४, निकायण२५ निमंतणा२६ ।
१. इस गाथा का पूर्वार्ध अ और स प्रति में इस रूप में मिलता
है-एवं संविग्गाणं, गिलाणमाईण वट्टितो जो उ।
० त्तणुतप्पी (मु)। ३. उ(अ)। ४. मो इति पादपूरणे (मवृ)। ५. सो एवं (ब)।
इस गाथा का उत्तरार्ध अ और स प्रति में इस प्रकार है-.
निययगुणेण झोसेति, न एत्थ रागो व दोसो वा । ७. थोवे तु (ब)। ८. याई (ब)। ९. सेसे उ(मु)। १०. हसन्ति (ब)। ११. इस गाथा का पूर्वार्ध अ और स प्रति में इस प्रकार है
थोवं पणगादीयं, जा भिन्नतो व झोसए तस्स । १२. णाणातितिग (अ, स)।
१३. निभा ४३४०। १४. नाणं (ब)। १५. x (अ)। १६. ० हारो (ब, स)। १७. निभा ४३४१ । १८. वि (ब)। १९. निभा ४३४२। २०. निभा ४३४३ । २१. नियागपिंडभोई उ(ब), • भोति (निभा ४३४४)। २२. उत्तरार्ध में मात्रा अधिक होने से छंदभंग है। २३. निसीधाभि० (स)। २४, नितियं (ब) णतियं (स)। २५. निकाय (अ)। २६. निमंतणे (ब)।
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८४ ]
व्यवहार भाष्य
८६०
८५८. संविग्गजणो जड्डो', जह सुहिओ सारणाएँ चइओ उ ।
वच्चति संभरमाणो, तं चेव गणं पुणो एतिरे ॥ ८५८/१. किह पुण एज्जाहि पुणो, जधवणहत्थी तु बंधणं चतितो ।
गंतूण वणं एज्जा, पुणो वि सो चारिलोभेणं ॥ ८५८/२. एवं सारणवतितो, पासत्थादीसु गंतु सो एज्जा ।
सुद्धो विचारिलोभो, सारणमादीणवठ्ठाए ॥ ८५८/३. आलोइयम्मि सेसं, जति चारित्तस्स अस्थि से किंचि ।
तो दिज्जति तव-छेदो, अध नत्थि ततो सें मूलं तु ॥ ८५९. अत्थि य सि सावसेसं, जइ नत्थी मूलमत्थि तव-छेदा ।
थोवं जति आवण्णो, पडितप्पिय साहुणं सुद्धोः ॥ उस्सुत्तमायरंतो, उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो । एसो उ अधाछंदो, इच्छाछंदो त्ति' एगट्ठा ॥नि. १४७ ।। उस्सुत्तमणुवदिटुं, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी ।
परतत्तिपवित्ते" तितिणे य इणमो अहाछंदो ॥ ८६२.
सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची' सुहसायविगतिपडिबद्धो ।
तिहि गारवेहि मज्जति, तं जाणाहि य अधाछंदं ॥ ८६३. अहछंदस्स फ्रूवण, · उस्सुत्ता दुविध होति नायव्वा ।
चरणेसु ‘गतीसुं जा१९, तत्थ य चरणे इमा होति ॥ ८६४. _ 'पडिलेहण मुहपोत्तिय'११, रयहरण'२-निसेंज्ज-मत्तए पट्टे१४ ।
पडलाइ चोल उण्णादसिया५ पडिलेहणा पोत्ते ॥ ८६५.
दंतच्छिन्नमलितं, हरियठित ६ पमज्जणा य जिंतस्स । अणुवादि१७ अणणुवादी, 'परूवणा चरणमादीसु१८ ॥
८६१.
२.
३.
जड्डो व (ब)। अ और स प्रति में ८५८ गाथा के स्थान पर ८५८ ११-३ ये तीन गाथाएं मिलती हैं। इन तीनों का भाव ८५८ की गाथा में संक्षिप्त रूप से प्राप्त है। ये गाथाएं व्याख्यात्मक प्रतीत होती हैं। टीकाकार ने भी इन गाथाओं की व्याख्या नहीं की है। अ और स प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है- थोवं जदि आवण्णो, पणगाती जाव भिण्णमासो उ।
पडितप्पितो य बहुसो, साधूणं तो भवे सुद्धो ।। वण्ण० (ब)। य (ब)। ० वायं (ब),०वाई (बपा)। . पवत्ते (अ, निभा ३४९२)। एसो (ब)।
९. कंची (ब)। १०. गती ताव (), गतीसु ता (स) । ११. पडिलेहणि मुहपत्ती (अ), • मुहपोती (स, निभा ३४९३) । १२. रयहर (अ, ब)। १३. पाय मत्तए (अ.स)। १४. चोलपट्टक: (मवृ)। १५. इण्णाद० (स)। १६. हरियट्टि (निभा ३४९४)। १७. ० वाय (ब)। १८. एमादी परूवणा क्तिहा (), परूव चरणगतीसं पि(ब), एमादि
पवतणा वितधा (स)।
७. ८.
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प्रथम उद्देशक
[८५
८६६.
'अणुवाति त्ती णज्जति', जुत्तीपडितं तु भासए एसो ।
जं पुण सुत्तावेयं, तं होही अणणुवाइ ति ॥ ८६७. सागारियादि पलियंकनिसेज्जासेवणा य गिहिमत्ते ।
निग्गंथिचिट्ठणादी, पडिसेहो मासकप्पस्स ॥ ८६८. चारे वेरज्जे या', पढमसमोसरण तह य नितिएसु ।
सुण्णे अकप्पिए या', अण्णाउंछे य संभोए ॥ ८६८/१. सागारियपिंडे को दोसो, फासुए ठवण चेव पलियंके ।
गिहिनिसेज्जाएँ को दोसो, उवसंतेसु गुणाहिओ ॥ ८६८/२. गिहिमत्तेणुड्डाहो, निग्गंथीचिट्ठणादि को दोसो ।
जस्स तु तधियं दोसो, होही तस्सण्णठाणेसु ॥ ८६८/३. पडिसेधो मासकप्पे, तिरियादी उ बहुविधो दोसो ।
सुत्तत्थपारिहाणी, विराधणा संजमातो य ॥ ८६८/४. वेरज्जे चरंतस्स, को दोसो चत्तमेव देहं तु ।
___फासुयपढमोसरणे, . को दोसो णितियपिंडे य ॥ ८६८/५. सुण्णाए वसधीए, उवघातो किन्नु होति उवधिस्स ।
पाणवधादि असंते, अधव असुण्णा वि ऊहम्मे ॥
'किंवा अकप्पिएणं१०, गहियं फासं११ त होति अब्भोज्ज२ । । अन्नाउंछं१३ को वा, होति गुणो कप्पिते गहिते१४ ॥ ८७०. पंचमहव्वयधारी, समणा सव्वे वि किं न भुंजंति ।
इय चरणवितधवादी५, एत्तो वोच्छं गतीसुं तु ॥ ८७१. खेत्तं गतो उ१६ अडवि७, एक्को संचिक्खती१८ तहिं चेव ।
तित्थकरो ति य पियरो, खेत्तं पुण९ भावतो सिद्धी ॥
८६९.
१. अणुवाइ तिग विज्जइ (ब)। २. जुत्तीए पडितं (ब)। ३. ०वेडं (ब)। ४. होइ (अ)। ५. निभा ३४९५ ।
वा (ब, निभा)। ७. नितिए य (निभा), नीए या (ब)। ८. वा (निभा ३४९८), य (ब)। ९. ८६८११-५ ये पांचों गाथाएं केवल अ और स प्रति में प्राप्त हैं।
८६७-६८ इन दोनों गाथाओं में संक्षिप्त में इन गाथाओं का सार है। ये गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। टीकाकार ने भी इन गाथाओं का कोई उल्लेख नहीं किया है। तुलना के लिए देखें-निभा ३४९५-९७ ।
१०. किं च अकप्पियएणं (अ, ब)। ११. फासुयं (मु)। १२. आभोयं (ब)। १३. अन्नातोच्छे (अ), उंछे (स)। १४. अत्र गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। १५. चरणे० (अ)। १६. य(ब, मु)। १७. अडवी (अ, ब)। १८. ०क्खए (ब)। १९. तू (निभा ३४९९)।
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व्यवहार भाष्य
८७२. जिणवयणसव्वसारं, मूलं संसारदुक्खमोक्खस्स ।
सम्मत्तं मइलेत्ता, ते दुग्गतिवड्ढगा' होति ॥ ८७३. सक्कमहादीया पुण, पासत्थे ऊसवा मुणेयव्वा ।
अधछंद ऊसवो पुण, जीए परिसाय उ कधेति ॥ ८७४. जधि लहुगो तधि लहुगा, जधि लहुगा चउगुरू तधिं ठाणे ।
जधि ठाणे चउगुरुगा, छम्मासा 'ऊ तहिं जाणे । ८७५. जधियं पुण छम्मासा, तहि छेदो छेदठाणए मूलं ।
पासत्थे जं भणियं, अहछंद विवड्डियं जाणे ॥ पासत्थे आरोवण, ओहविभागेण० वण्णिता पुव्वं११ ।
सच्चेव१२ निरवसेसा, कुसीलमादीण णेयव्वा२३ ॥ ८८७७. एत्तो तिविधकुसीलं, तमहं वोच्छामि आणुपुवीए ।
दंसण-नाण-चरित्ते, तिविध कुसीलो मुणेयव्वो ॥नि. १४८ ।। ८७८. नाणे नाणायारं, जो तु विराधेति१४ कालमादीयं ।
दंसणे दंसणायारं, चरणकुसीलो इमो होति ॥ कोउगभूतीकम्मे, पसिणाऽपसिणे निमित्तमाजीवी ।
कक्क-कुरुया५ य लक्खण, उवजीवति मंत-विज्जादी'१६ । ८८०. जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे१७ तवे सुते चेव ।
सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो सो८ ॥ ८८१. भूतीकम्मे लहुओ, लहु गुरुग निमित्त 'सेसएँ इमं तु १९ ।
लहुगा य सयंकरणे, परकरणे होतऽणुग्घाता ॥ ८८२. दुविधो खलु ओसण्णे, देसे सवे य होति नायव्यो ।
देसोसण्णो तहियं२०, आवासादी इमो होति ॥नि. १४९ ॥
|m3
१२. सा चेव (स)। १३. णायव्वा (अ)। १४. विरोधिति (स)। १५. ० कुरुए (स)।
विज्जमतादी (ब), निभा (४३४५) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस
१६.
१. दोग्गइ. (अ)। २. अधाछंद (स)।
पुणो (ब)। ४. जा वि (अ), जाधे (स)।
कहिति (ब), कधिति (अ) जहिं (अ)। तत्थ ऊ (ब)।
जहिं य (ब)। ९. जह (मु) १०. ० भागे य (अ.स)। ११. पुचि (अ,स)।
कक्क-करुय-सुमिण-लक्खण-मूल-मंत-विज्जोवजीवी कुसीलो
१७. मग्गे (स)। १८. उ(ब)। १९. छंद की दृष्टि से 'सेसए मं तु पाठ संगत लगता है। २०. गहियं (स)।
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प्रथम उद्देशक
[८७
८८३. आवस्सग'-सज्झाए 'पडिलेहण-झाण-भिक्ख भत्तट्टे ।
आगमणे निग्गमणे, ठाणे य' निसीयण तुयट्टे६ ॥नि. १५० ॥ ८८४. आवस्सगं अणियतं, करेति हीणातिरित्तविवरीयं ।
'गुरुवयणे य नियोगो, वलाति" इणमो उ ओसन्नो ॥ ८८५. जध उ बइल्लो बलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव ।
गुरुवयणं अकरेंतो, वलाति १ कुणती ‘च उस्सोढुं१२ ॥ ८८६. उउबद्धपीढफलगं, ओसन्नं संजयं वियाणाहि ।
ठवियग-रइयगभोई१३, एमेया पडिवत्तिओ४ ॥ ८८७. सामायारी वितह, कुणमाणो५ जं च१६ पावए जत्थ ।
संसत्तो च अलंदो, नडरूवी एलगो चेव ॥नि. १५१ ॥ ८८८. गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडोव्व८ एलगो चेव ।
___ संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य ॥नि. १५२॥ ८८९. पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते ।
पियधम्मो पियधम्मे१९, 'असंकिलिट्ठो उ संसत्तो'२० ॥ ८९०.
पंचासवप्पवत्तो२९, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो ।
इत्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो ‘सो य नायव्वो'२२ ॥ ८९१. देसेण अवक्कंता२३, सव्वेणं चेव भावलिंगा उ ।
इति समुदिता तु सुत्ता, इणमन्नं दव्वतो विगते२४ ॥
१४. इस गाथा के स्थान पर अऔर स प्रति में निम्न गाथा प्राप्त होती
१. आवासग (निभा)। २. ० लेहज्झाण (निभा)। ३. अन्ये तु व्याचक्षते अभत्तट्ठ त्ति (मवृ) । ४. अतिग०(अ), अभिग० (स)।
ऊ (ब)। इस गाथा का उत्तरार्ध निभा (४३४६) में इस प्रकार है
काउसग्गपडिकमणे, कितिकम्मं णेव पडिलेहा । ७. अ और स प्रति में गाथा का पूर्वार्ध इस प्रकार है
आवस्सगमादियाई ण करे अधवा वि हीणमधियाइं । ८. गुरुवयणनियोगवलायमाणे (निभा ४३४७, स)। ९. उस्सन्नो (अ)। १०. णो (स)। ११. वली वि (अ)। १२. उ वा सोढुं (ब), उत्शब्दोऽत्र निषेधार्थे असोढा इत्यर्थ: (मव)। १३. ०भोती (निभा ४३४८) ।
एसो क्षेसोसण्णो, सव्वोसण्णो इमो उ बोधव्यो ।
ठवियगरतियगभोती, उउबद्धगपीढफलगो य ।। १५. ओसन्नो (निभा ४३४९) । १६. तु (अ, स)। १७. इस गाथा का उत्तरार्ध अ और स प्रति में इस प्रकार है
जं च ततं सीततं, दद्दूण ऽत्रे वि सीदंति (अ)। १८. ०रूवो० (अ, ब)। १९. पियधम्मेसु (स, निभा ४३५०)। २०. चेव असंकिलिट्ठो भवे एसो (), चेव इणमो तु संसत्तो (निभा)। २१. ० पसत्तो (अ, स)। २२. संकलिट्ठो सो (अ), निभा ४३५१ । २३. उव० (अ.स)। २४. अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः (मवृ)।
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________________
८८ ]
१.
८९२.
1
वा ॥नि. ९५३ ॥
तु
I
कंदप्पा परलिंगे, मूलं गुरुगा य गरुलपक्खम्मि सुत्तं तु भिक्खुगादी, कालक्खेवो व गमणं ८९२/१. कंदप्पा लिंगदुगं, जो कुणइ तस्स होइ मूलं गरुलक्खे, गुरुगा उ अद्धंसे चोलपट्टे ८९२/२. लहुगा संजतिपाते, सीसदुवारी य चोदेत फलं सुत्ते, सुत्तनिवातो
य
॥
लहुयतो खंधे 1
उ
कारणितो ॥
८९३.
८९४.
८९५.
८९६.
८९७.
८९८.
८९९.
९००.
मूलं
खंधे दुबार संजति, गरुलद्धंसे य पट्ट लहुओ लहुओ लहुया, तिसु चउगुरु दोसु असिवादिकारणेहिं', 'रायपदुट्ठे व होज्ज कालक्खेवनिमित्तं, पण्णवणट्ठा व
जं जस्स' अच्चितं तस्स, पूयणिज्जं तमस्सिया' लिंगं । खीरादिलद्धिजुत्ता, गति तं छन्नसामत्था
॥
कलासु सव्वासु सवित्थरासु, आगाढपण्हेसु 'य संथवेसु" । जो जत्थ सत्तो तमणुष्पविस्से, अव्वाहतो तस्स स एव पंथा 11 अणुवसमंते निग्गम, लिंगविवेगेण होति आगाढे 1 देसंतरसंकमणं, भिक्खुगमादी
८९२ १, २ ये दोनों गाथाएं अ औ स प्रति में प्राप्त हैं। ये गाथाएं व्याख्यात्मक एवं संक्षिप्त सी प्रतीत होती हैं। टीकाकार ने इन गाथाओं का कोई उल्लेख नहीं किया है।
आरियसंकमणे' परिहरेंति दिट्ठम्मि 'जा तु १० पडिवत्ती असतीय पविसणं थूभियम्मि ११ गहियम्मि २ जा जतणा आरिय-देसारियलिंगसंकमो 'एत्थ होति १३ चउभंगो१४ बितिचरमेसुं १५ अन्नं, असिवादिगतो करे लिंगं परिहरति उग्गमादी, विहारठाणा य तेसि लिंगीणं अप्पुव्वेसा गमितो, आयरियत्तेतरो इमं तु ॥ दारं ॥
I
गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
२.
३. रायदुट्टे वा (ब)।
४.
जं तु (अस) ।
५.
व अस्सिया (अस) ।
६.
७.
८.
लिंगदुवे ।
तु ॥
परलिंगं ।
गमणट्ठा ॥
कालासु (स)।
पसत्यवेसु (स) ।
अणुवसते (अ) ० सयंति (ब) ।
आयरिए सं. (अ)।
व्यवहार भाष्य
।
॥ दारं ॥नि. १५४ ॥
।
॥ दारं ॥
९.
१०. जा य (ब)।
११. थूभणं ति (ब), धूभयं ति (अ, स) ।
१२. गहयम्मि (ब), गधिय० (अ) ।
१३. यत्ति एत्थ (ब) ।
१४. चतुर्भंगी गाथायां पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् (मवृ)। १५. बितियच० (ब)।
१६. यमं (ब), छंद की दृष्टि से यहां मं पाठ संगत लगता है
1
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________________
प्रथम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९०१.
९०२.
९०३.
९०४.
९०५.
९०६.
९०७.
९०८.
९०९.
९१०.
मोणेण जं च गहियं', तु' कुक्कुडं उभयतो वि अविरुद्धं । पच्चय उपणामो, जिणपडिमाओ मणे
९.
१०. जध (अ) ।
११. ० गाढं (ब) ।
भावेति पिंडवातित्तणेण घेत्तुं च वच्चति अपत्ते' कंदादिपोग्गलाण य, 'अकारगमहं ति पडिसेधो ६ बितियपयं 'तु गिलाणो, निक्खेव चकमणादि कुणमाणो । 'लोयं वा कुणमाणो, कितिकम्मं वा सरीरादी" || अह पुण 'रूसेज्जाही, तो घेत्तु" विगिंचते जधा " विहिणा | एवं तु तहिं जतणं, कुज्जाही कारणागाढे ११ इति कारणेसु १ २ गहिते, परलिंगे तीरिते तहिं कज्जे । जयकारी १३ सुज्झति विगडणाय इतरो जमावज्जे ॥ एगतरलिंगविजढे, इति सुत्ता वण्णिता तु जे हेट्ठा ।
जहियं (अ), गहेय (ब) ।
X (ब) ।
कुक्कड (ब)।
अ प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
भत्तासति पविसंतो, भूभपणामे जिणपणामं ।
अयं पात्रे अपते इति अत्र प्राकृतत्वात् यकारलोपः (मवृ) ।
० रग एवं (ब)।
तिमिलाणो (ब)।
यह गाथा अ और स प्रति में नहीं है। ब प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
लोयं च बारमाणो, कितिकम्मम्मी सरीरो वी ।
रुसेज्जा इहि घेतुं (ब)।
उभय अयमन्नो, आरंभो होति सुत्तस्स ॥नि. १५५ ॥ निग्गमणमवक्कमणं, निस्सरण - पलायणं च 'लोट्टण - लुठण- पलोट्टण १५, ओहाणं ९६ विसयोदएण१७ अधिगरणतो व चइतो" व दुक्खसेज्जाए । इति९ लिंगस्स विवेगं करेज्ज पन्चक्खपारोक्खं ॥
चेव
उवसामिते परेण व, सयं च समुवट्ठिते उवट्ठवणा तक्खणचिरकालेण य२२, दिट्ठतो अक्खभंगण
एग १४
एग
अंतो उवस्सए छड्डणा उ, बहि गाम मज्झ 'पासे वा २० 1 बितियं गिलाणलोए, कितिकम्मसरीरमादीसुं२१
11
१४. एगट्ठा (ब)।
१५. लुटण लोट्टण ० (मु) ।
१६. उड्डाणं (अ)।
१७.
१८.
॥दारं ॥
१९.
२०.
!
विस उदरणं (अ, ब) ।
चतिओ (ब) ।
11
१२. ०णेण (अ) ।
१३. जतवाती (अ, स), जकारि (ब) ।
।
॥ नि. १५६ ॥
1
||
इह (ब)।
पासत्ये (ब)।
२१. इस गाथा के स्थान पर अ और स प्रति में निम्न गाथा मिलती है
आयरिए अणुसो, जति भावो तस्स सणियते । अंतोवस्सयबाहिं गामा तथ गामबहितो वा ॥ २२. व (ब)।
[ ८९
Page #235
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________________
९०
]
व्यवहार भाष्य
९११.
९१२.
९१३.
९१४.
९१५.
मूलगुण-उत्तरगुणे, असेवमाणस्स तस्स अतियारं । तक्खण उवट्ठियस्स उ, किं कारण दिज्जतेरे मूलं ॥दारं ।। सेवउ मा व वयाणं, अतियारं तध वि देंति से मूलं । विगडासवा जलम्मि उ, ‘कहं तु" नावा न वुडेज्जा ॥ 'चोरिस्सामि त्ति'६ मति', जो खलु संधाय फेडए मुदं । अहियम्मि वि सो चोरो, एमेव इमं पि पासामो ॥ अतियारे खलु नियमेण, विगडणा एस सुत्तसंबंधो । किंचि न तेणाचिण्णं, दोन्नि वि लिंगा जढा जेणं ॥ अहवा हेट्ठाणंतरसुत्ते, आलोयणा० भवे नियमा । इहमवि१ हु१२ जं निमित्तं, उल्लट्टो तस्स कायव्वो ॥ अन्नतरं तु१३ अकिच्चं, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । 'मूलं च सव्वदेसं", एमेव य उत्तरगुणेसु५ ॥नि. १५७ ॥ अहवा पणगादीयं, मासादी वावि जाव छम्मासा । एयं१६ तवारिहं खलु, छेदादि चउण्ह वेगतरं ॥ तं सेविऊणऽकिच्चं७ विगडेयव्वं कमेणिमेणं तु । सगुरुकुलमादिएणं, जाव उ अरहंतसक्खीयं८ ॥ आउयवाघातं वा, दुल्लभगीतं व एसकालं१९ तु । अपरक्कममासज्ज व, सुत्तमिणं 'त. दिसा'२० जाव ॥ ‘सुत्तमिणं कारणियं'२१, आयरियादीण२२ जत्थ गच्छम्मि । पंचण्हं होतऽसती, एगो च तहिं२३ न वसितव्वं ॥नि. १५८ ॥
९१७.
९१८.
९१९.
९२०.
१. लक्खण (अ)। २. दिज्जती (अ, स)। ३. कुलम्मि (ब)। ४. कहन्नु (अ)।
पूरेज्जा (अ, स)। ६. स्सामी ति (स)।
इमं (ब)। ८. स प्रति में ९१३वीं गाथा के बाद 'बितियपदं तु गिलाणो' (व्यभा
९०३) गाथा और मिलती है। २. किंति (ब), किंच (अ)। १०. आलोवणा (ब)। ११. इह विय (अ.स)। १२. य (ब)।
१३. व (ब)। १४. मूले सव्वं देसं (स)। १५. अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तर: (मवृ) । १६. एते (अ, स)। २७. अकिच्चं (स)। १८. यह गाथा केवल अ और स प्रति में प्राप्त है। टीका की मुद्रित
प्रति में इसकी संक्षिप्त व्याख्या है किंतु गाथा नहीं मिलती है।
विषय वस्तु की दृष्टि से यह यहां संगत लगती है। १९. एण्हकालं (अ)। २०. तद्दिसा (ब), तु दिसा (अ)। २१. सुत्तस्सेतं कारण (अ), सुत्तं से तं कारण (स)। २२. ० रियाण (ब)। २३. जहिं (अ, ब, स)।
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प्रथम उद्देशक
[ ९१
९२१. एवं' असुभ-गिलाणे, परिण्णकुलकज्जमादि ‘वग्गे उ'३ ।
अण्ण , सति ससल्लस्सा', जीवितघाते चरणघातो ॥दारं ।। ९२२. एवं होति विरोधो, 'आलोयणपरिणतो य सुद्धो य" ।
एगतेण पमाणं, परिणामो वी न खतु अम्हं ॥ ९२३. चोदग' किं वा कारण, पंचण्हऽसती 'न तत्थ वसितव्वं ।
दिटुंतो वाणियए, 'पिंडिय अत्थे'१० वसिउकामे ॥ ९२४. तत्थ न कप्पति १ वासो, आधारा१२ जत्थ नत्थि पंच इमे३ ।
राया वेज्जो धणिमं, नेवइया ४ रूवजक्खा'५ य ॥ ९२५. दविणस्स जीवियस्स व, वाघातो होज्ज जत्थ णत्थेते ।
वाघाते चेगतरस्स, दव्वसंघाडणा६ अफला ॥ ९२६. रण्णा'७ जुवरण्णा वा, ‘महयरग अमच्च८ तह कुमारेहिं ।
एतेहिं परिग्गहितं, वसेज्ज रज्ज१९ गुणविसालं२० ॥ ९२७. उभओ जोणीसुद्धो, राया दसभागमेत्तसंतुट्ठो ।
लोगे वेदे समए, कतागमो धम्मिओ राया ॥ ९२८. पंचविधे कामगुणे, साहीणे भुंजते२१ निरुब्बिग्गे ।
वावारविप्पमुक्को. राया एतारिसो होति ॥ आवस्सयाइ२२ काउं. जो पुवाइं२३ तु निरवसेसाई !
अत्थाणी मज्झगतो४, पेच्छति कज्जाइँ२५ जुवराया दारं ।। ९३०. गंभीरो मद्दवितो, 'कुसलो जो'२६ जातिविणयसंपन्नो ।
जुवरण्णाए सहितो२७, पेच्छइ कज्जाइ महतरओ२८ ॥दारं ।।
१. एग (ब)। २. किलाणे (स)। ३. ०य (ब) वग्गि वा । ब)। ४. ०ऽसती (अ)। ५. ०ल्लादी (अ)।
जीए वि० (ब)। ७. परिणइ तिजं भाणतो (ब) परिणते तिजं भणियं (अ)। ८. चोयणग (ब) ९. तहिं न (ब)। १०. पिडियत्थे (अ.स)। ११. करेति ()। १२. आहारा (अ)। १३. यमे (ब)। १४. नेवतिया (अ) नीतिकारिण: (मव) ।
१५. रूवरक्खा (अ), रूपयक्षा: धर्मपाठका: (मवृ) । १६. ०संपिंडणा (अ, स)। १७. रण्णो (ब)। १८. ० यरगऽमच्च (ब)। १९. x (ब)। २०. गुणसमिद्धं (अ.स)। २१. भुंजति (ब)। २२. ० स्सगादि (ब), आवासगाइं (अ, स)। २३. सव्वाइं (अ, स)। २४. ० गई (ब)। २५. कयाइं (ब)। २६. कुलजो सो (स)। २७. सहियं (अ)। २८. मयहरतो (अ)।
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९२ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
९३१.
९३२.
९३३.
o
९३४.
९३५.
९३६.
९३७.
९३८.
९३९.
९४०.
निवे खलिणं । दो वि१२
सजणवयं च पुरवरं, चिंतंतो' अच्छाई' 'नरवतिं च* T ववहारनीतिकुसलो, अमच्चो एयारिसो अधवा 11 राया पुरोहितो वा', संगिल्ला नगरम्मि दो वि जणा 1 अंतेउरे धरिसिया, अमच्चेण खिसिता दो वि 11 छंदाणुवत्ति ' तुब्भं, मज्झं वीमंसणा निसिगमण मरुगथालं, धरेति भुंजंति ता११ पडिवेसिय रायाणो, सोउमिणं परिभवेण थीनिज्जितो पमत्तो, त्ति णाउ ३ रज्जं पि धित्तेसिं ५ गामनगराणं, जेसि इत्थी ते यावि धिक्कया १६ पुरिसा, जे इत्थीणं इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु वापि, खिप्पमेव
सो गामं नगरं
चिंतितो (ब), चिंतेतो (स) ।
अच्छए (अस) ।
नरवरं तु (अ), ० वई तु (स) ।
होइ (अ) ।
1
इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु नगरेसु वा जत्थ हेसंति', 'अपव्वम्मि य मुंडणं १९ सूयग तहाणुसूयग २०, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव
अणस्सा
पुरिसा कतवित्तीया, वसंति
सामंतरज्जेसुं
सूयिग तहाणुसूयिग २२, पडिसूयिग महिला कयवित्तीया, वसंति सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग पुरिसा कयवित्तीया, वसंति ९४१. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग महिला कयवित्तीया,
वसंति
या (स)।
संघिल्लाउ (ब), सग्घिल्लाउ (स) ।
अमच्चेणं (ब), अमच्चेण य (स) ।
यत्ति (ख)।
७.
८.
९.
तुझं (ब)।
१०. धीमं० (अ)।
११. या (स)।
१२. इस गाथा का उत्तरार्ध अ प्रति में नहीं है।
१३. वावि (ब, स) ।
हसिहिंति
पेलेज्जा १४
11
1
11
पणायिगा 1
वसंगता ॥
नगरेसु वा 1
विणस्सति १७
॥
11
1
॥
।
3
सव्वसूयिगा चेव सामंतरज्जेसु २३ सव्वसूयगा चेव ।
सामंतनगरे ॥
11
सव्वसूयिगा चेव । सामंतनगरेसु ॥
१४. यह गाथा अ प्रति में नहीं है।
१५. धिक्किया (स), धिग्योगे द्वितीयाप्राप्तावपि षष्ठी प्राकृतत्वात्
(मवृ) ।
१६. धिद्धिकया (ब), वेक्किया (अ)।
१७.
१८.
१९.
व्यवहार भाष्य
यह गाथा अ और स प्रति में नहीं है।
हिंसंति (अस) ।
अपव्वे मुंडितं सिरं (अ) इस गाथा का पूर्वार्ध अ और स प्रति में
नहीं है।
२०. तहा अणुसू० ( अ, स) सर्वत्र ।
२१.
परंतरज्जेसु (बपा) ।
२२. ० सूयग (ब, स) सर्वत्र, महिला से सम्बन्धित सभी गाथाओं में सूटिंग के स्थान पर सूयग पाठ है।
२३. निययम्मि रज्जम्मि (ब), परंतरज्जेसु (बपा) ।
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प्रथम उद्देशक
[ ९३
९४२. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव ।
पुरिसा कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि रज्जम्मि ॥ ९४३. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव ।
महिला कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि रज्जम्मि ॥ सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव । पुरिसा कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि नगरम्मि सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव ।
महिला कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि नगरम्मि' ॥ ९४६. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव ।
पुरिसा कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रण्णो ॥ सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव । महिला कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रण्णो ॥ पच्चंते खुब्भंते, दुईते सव्वतो दमेमाणो ।
संगामनीतिकुसलो,• 'कुमार एतारिसो होति'३ ॥ ९४९. अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहिं ।
वेज्जा देंति समाधि, जहिं कता आगमा होति ॥दारं ।। ९५०. कोडिग्गसो हिरणं, मणि-मुत्त-'सिल-प्पवाल-रयणाई'६ ।।
अज्जय-पिउ-पज्जामय, एरिसया होति धणमंता ॥दारं ।। ९५१. सणसत्तरमादीणं, धन्नाणं कुंभकोडिकोडीओ ।
जेसिं तु भोयणट्ठा, एरिसया होंति नेवतिया० ।।दारं ।। ९५२. भंभीय११ मासुरुक्खे, माढरकोडिण्णदंडनीतीसु१२ ।।
अधऽलंचऽपक्खगाही३, एरिसया रूवजक्खा तु४ ॥दारं ।।
EEEEEEEEEEEEE
९४८.
१. ९४४-४५ ये दोनों गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं । ९४५ वाली गाथा
टीका की मुद्रित प्रति में प्राप्त नहीं है। किंतु अ और स प्रति में उपलब्ध है। ये गाथाएं विषय वस्तु की दृष्टि से यहां संगत लगती हैं। क्योंकि ९४४ वाली गाथा पुरुष से सम्बन्धित है और ९४५ वाली महिला से । पिछली गाथाओं में पुरुष और महिला दोनों से सम्बन्धित गाथाएं आई हैं राज्य के बाद ये नगर से सम्बन्धित गाथाएं है। खलु भंते (ब)। कुमारा एयारिसा होंति (ब)।
जस्स (स)। ५. दिति (ब)।
६. सिला पवालयं च (अ), सिला पवालयाई च (स)। ____७. ० मंतु (ब), मंतो (अ)।
८. ० कोडाकोडीणं (अ, स)। ९. ता (मु)। १०. निवतिया (ब), नियतिर्व्यवस्था तत्र नियुक्तास्तथा वा चरंतीति
नियतिका: (मवृ) ११. हंभीय (अ.स)। १२. ०कोडल्ल डंडनीती य (अ, स)। १३. ०अपक्ख० अ, स)। १४. ९५२ से ९५४ तक की गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं।
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९४ ]
व्यवहार भाष्य
९५३. तत्थ न कप्पति वासो, गुणागरा जत्थ नत्थि पंच इमे ।
आयरिय-उवज्झाए', पवित्ति-थेरे य गीतत्थे ॥ ९५४. सुत्तत्थतदुभएहि, उवउत्ता नाण-दसण-चरित्ते ।
गणतत्तिविप्पमुक्का, एरिसया होति आयरिया ॥ ९५५. एगग्गया य झाणे, वुड्डी तित्थगरअणुकिती गुरुया ।
आणाथेज्जमिति गुरू, कयरिणमोक्खो न वाएति ॥दारं ।। ९५६. सुत्तत्थतदुभयविऊ, उज्जुत्ता' नाण-दंसण-चरित्ते ।
निप्फादगसिस्साणं, एरिसया होंतुवज्झाया ॥ ९५७. सुत्तत्थेसु थिरत्तं, रिणमोक्खो आयतीय पडिबंधो ।
पाडिच्छा मोहजओ', 'तम्हा वाए उवज्झाओ८ ॥दारं ।। ९५८. तव-नियम-विणयगुणनिहि, पवत्तगा नाण-दंसण-चरित्ते ।
संगहुवग्गहकुसला, पवत्ति एतारिसा होति ॥ ९५९. संजम-तव-नियमेसुं, 'जो जोग्गो तत्थ तं पवत्तेति ।
असहू य नियत्तेती१०, गणतत्तिल्ला पवत्तीओ ॥दारं ।। ९६०. संविग्गो मद्दवितो, पियधम्मो नाण-दंसण-चरित्ते ।
जे अढे परिहायति, ते सारेंतो हवति थेरो ॥ ९६१. थिरकरणा पुण थेरो, पवत्ति वावारितेसु अत्थेसु ।
जो जत्थ सीदतिर जती, संतबलो२ तं पचोदेति१३ ॥ उद्धावणा१४ पधावण, खेतोवधिमन्गणासु१५ अविसादी ।
सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होति ॥दारं ॥ ९६३. जध पंचकपरिहीणं, रज्जं डमर-भय-चोर-उव्विग्गं ।
उग्गहितसगडपिडगं, 'परंपरं वच्चते सामि१६ ॥ ९६४. इय पंचकपरिहीणे, गच्छे आवन्नकारणे१७ साधू ।
आलोयणमलभंतो, परंपरं वचते सिद्धे ॥नि. १५९ ॥
९६२.
१०. वियत्तेती (स)। ११. सायति (ब)। १२. अ प्रति में ब के स्थान पर प्राय: सभी स्थानों पर प पाठ मिलता
१. ज्झाया (स)।
इड्डी (अ) ३. ०अणुगिई (ब)। ४. छेज्ज ० (ब), ० थेज्जम्मि (स)। ५. उज्जतो (अ.स)।
पारिच्छे (स)। ७. ० जुतो (अ)। ८. तम्हा उ गणी पवाएइ (अ, ब), तम्हा उ गणी उ वाएति (मवृपा): ९. जोगो जत्थ तत्थ (ब):
१३. च सारेति (अ, स)। १४. उट्ठावणा (स), उद्धावनं प्राकृतत्वात् स्त्रीत्वनिर्देशः (मवृ)। १५. खेत्ते बहि० (स)। १६. परं व वए सामी (ब)। १७. आसन्न० (अ,ब, स)।
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प्रथम उद्देशक
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९६५. आयरिए आलोयण, पंचण्हं असति गच्छबहिया जो२ ।
वोच्चत्थे चउलहुगा, अगीयत्थें होति चउगुरुगा ॥ संविग्गे गीयत्थे, असती पासत्थमादि सारूवी ।
गीतत्थे अब्भुट्ठित, असति ‘मग्गणं व" देसम्म ॥नि. १६० ।। ९६७. खेत्ततों दुवि मग्गेज्जा, जा चउत्थ सत्त जोयणसताई ।
बारससमा उ कालतो उक्कोसेणं विमग्गेज्जा ॥ ९६८. एवं पि विमग्गंतो, जति न लभेज्जा तु गीत-संविग्गं ।
पासत्थादीसु ततो, विगडे अणवट्ठितेसुं पि ॥ ___ तस्सऽसति सिद्धपुत्ते, पच्छकडे चेव होतिऽगीयत्थे ।
आवकधाए लिंगे. तिण्हा वि अणिच्छिइत्तिरियं ॥नि.१६१ ॥ ९७०. असतीय लिंगकरणं, सामाइयइत्तरं च कितिकम्मं ।
तत्थेव य सुद्धतवो, 'सुह-दुक्ख गवेसती सो वि" ॥नि. १६२ ।। ९७१. लिंगकरणं निसेज्जा, कितिकम्ममणिच्छतो पणामो य ।
एमेव देवयाए, नवरं सामाइयं मोत्तुं० ॥ ९७२. आहार-उवधि-सेज्जा, ‘एसणमादीसु होति ११ जतितव्वं ।
अणुमोयण कारावण, सिक्खत्ति'२ पयम्मि सो सुद्धो ॥ ९७३. चोदति१३ से परिवार, अकरेमाणे भणाति वा सड्ढे ।
अव्वोच्छित्तिकरस्स उ, सुतभत्तीए कुणह पूयं ॥ ९७४. 'दुविधाऽसतीय तेसिं१५, आहारादी करेति सव्वं से ।
पणहाणीय जयंतो, अत्तट्ठाए वि एमेव ॥ ९७४/१. तेसि पि य असतीए, ताधे आलोएँ देवयसगासे ।
कितिकम्मनिसेज्जविधी, तधाति सामाइयं णत्थि६ ॥
पधिता (अ), पहिया (ब)।
७. गवेसणा जाव सुह-दुक्खे (ब)। ८, पणामेउं (ब)।
गीयत्थे (अ)। वि मग्गणं (स)। ९६६-६९ ये चार गाथाएं अ और स प्रति में मिलती हैं। इन गाथाओं के स्थान पर टीका और ब प्रति में निम्न गाथा मिलती
संविग्गे गीयत्थे, सारूवि पच्छकडे य गीयत्थे ।
पडिक्कत अब्भुट्ठित, असती अन्नत्थ तत्थेव ॥ टीकाकार ने इसी गाथा की व्याख्या की है। किन्तु विषयवस्तु की स्पष्टता की दृष्टि से ऊपर वाली चारों गाथाएं अधिक स्पष्ट प्रतीत होती हैं। संभव है टीकाकार के समक्ष ये गाथाएं नहीं थीं। ० इत्तिरं (अ)।
१०. यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है। ११. तस्सट्ठा एसणाति (अ)। १२. सिक्खा ति (ब)। १३. चोदति (अ, स)। १४. या (मु)। १५. ० सईया तेसि (ब)। १६. यह गाथा केवल अ और स प्रति में प्राप्त है । टीकाकार ने भी
इसकी कोई व्याख्या नहीं की है।
६.
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९६ ]
१.
२.
३.
९७५.
९७६.
कोरंटगं जधा भावितट्ठमं पुच्छिऊण वा अन्नं 1 असति अरिहंत-सिद्धे, जाणंतो सुद्धों जा चेव सोधीकरणा दिट्ठा, गुणसिलमादीसु जाहि साधूणं । तो देंति विसोधीओ, पच्चुप्पण्णा' व पुच्छति ॥
इति प्रथम उद्देश
पुट्ठिऊण (अ)। वासति (स) ।
० सीलमादीहि (अ.स) ।
४.
||
जह य (मु) । पच्चपिण्णा (ब), ० पण्णो (अ) ।
व्यवहार भाष्य
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द्वितीय उद्देशक
९८१.
९७७. अब्भुट्ठियस्स पासम्मि, वहंतो' जदि कयाइ२ आवज्जे ।
'अत्थेणेव उ जोगो', पढमाओ होति बितियस्स ॥ ९७८. अधवा एगस्स विधी, वुत्तो' णेगाण होति अयमन्नो ।
आइण्णविगडिते वा, पट्ठवणा एस संबंधो ॥दारं ॥ ९७९. दो साहम्मिय छब्बारसेव लिंगम्मि होति चउभंगो ।
चत्तारि 'विहारम्मि उ, दुविहो भावम्मि भेदो उ ॥नि. १६३ ॥ ९८०. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य होति बोधव्वे ।
भावे य दुगे एसो, निक्खेवो छब्विहो होति ॥नि. १६४ ॥ चित्तमचित्तं एक्केक्कगस्स जे जत्तिया 'उ दुगभेदा ।
खेत्ते दुपदेसादी, दुसमयमादी उ कालम्मि ॥नि. १६५ ।। ९८२. भावे पसत्थमियरं० होति पसत्थं त णाणि-णोणाणे ।
केवलियछउम णाणे१, णोणाणे दिट्ठि-चरणे य ॥नि. १६६ ।। ९८३. एक्केक्कं पि य तिविहं, सट्ठाणे नत्थि खइय अतियारो ।
उवसामिएसु दोसु, अतियारो होज्ज सेसेसु१२ ॥नि. १६७ ॥ ९८३/१. भावे अपसत्थ-पसत्थगं च दुविधं तु होति णायव्वं ।
अविरय-पमायमेव य, अपसत्थं होति दुविधं तु ॥ ९८३/२. णाणे णोणाणे या, होति पसथम्मि ताव दुविधं तु ।
णाणे खओवसमितं, खइयं च तहा मुणेयव्वं ॥ ९८३/३. णोणाणे विय दिट्ठी, चरणे एक्केक्कयं तिधा मुणेयव्वं ।
मीसं तधोवसमितं, खइयं च तधा मुणेयव्वं ॥
१. व वहतो (अ), वहंति (ब) २. कथं वि (अ), कहं वि (स)। ३. अस्येणे उ जोगो व (ब)।
होहिति (ब)। ५. उत्तो (स)।
आयण्ण० (ब), आवण्ण० (अ.स)। ७. विहारं पि (ब)।
८. इस गाथा के स्थान पर अ और स प्रति में निम्न गाथा प्राप्त है
दुयगम्मि निक्खेवो, उक्कोसा.धम्मिते य बारसगो।
चउभेदो य विहारे, णेयव्वा आणुपुवीए ॥ ९. ते दुभेया (ब)। १०. अपस० (अ)। ११. केवलछ० (स)। १२. ९८२ एवं ९८३ ये दो गाथाएं अ और स प्रति में अप्राप्त हैं।
किन्तु इनके स्थान पर ९८३/१-४ ये चार गाथाएं मिलती हैं। देखें टिप्पण ९८३/४ की गाथा का टिप्पण।
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९८ ]
व्यवहार भाष्य
९८६.
९८३/४. णाणादीसुं तीसु वि, सट्ठाणे णत्थि खइय अतिचारो ।
उवसामिए वि दोसुं, दिट्ठी चरणे य सट्ठाणे ॥ ९८४. सट्ठाणपरट्ठाणे, खओवसमितेसु तीसु वी भयणा ।
दंसण-उवसम-खइए, परठाणे होति भयणा उ ॥ ९८५. दव्वदुए दुपदेणं, सच्चित्तेणं च एत्थ अहिगारो ।
मीसेणोदइएणं, भावम्मि वि होति 'दोहिं पि"५ ॥दारं ।। नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे ।
दंसण-नाण-चरित्ते, अभिग्गहे भावणाएं य दारं ॥नि.१६८ ।। ९८७. नामम्मि सरिसनामो, ठवणाए कट्ठकम्ममादीसु ।
दव्वम्मि 'जो उ' भविओ, साधम्मि सरीरगं जं च ॥ ९८८. खेत्ते समाणदेसी, कालम्मि तु एक्ककालसंभूतो ।
पवयणसंधेकतरो, लिंगे रयहरण-मुहपोत्ती ॥ दंसण-नाणे-चरणे, तिग पण-पण 'तिविध होति व चरित्तं० ।
दव्वादी तु अभिग्गह, अह भावण मो अणिच्चादी ॥ ९९०. 'साहम्मिएहि कहितहि"१, लिंगादी होति एत्थ चउभंगो१२ ।
नाम ठवणा दविए, भाव विहारे य चत्तारि ॥नि. १६९ ॥ लिंगेण उ साहम्मी, नोपवयणतो य निण्हगा सव्वे ।
पवयणसाधम्मी पुण, न लिंग दस होति ससिहागा२३ ॥ ९९२. साधू तु लिंग पवयण, णोभयतों कुतित्थ-तित्थयरमादी ।
उववज्जिऊण एवं, भावेतव्वो तु सव्वे वी४ ॥ ९९३. एमेव य लिंगेणं, दंसणमादीसु होंति भंगा उ ।
भइएसु उवरिमेसुं, हेट्ठिल्लपदं तु छड्डेज्जा ॥
९८९.
2. उजो (अ.स)। ९. ० पत्ती (स)। १०. तिविहो होइ चरिते (म)। ११. गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ)। १२. चतुर्भगी गाथायां पुंस्त्वमार्षत्वात् (मवृ) । १३. अ और स प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती
९८३/१-४ ये चारों गाथाएं केवल अ और स प्रति में मिलती हैं। ये गाथाएं ९८२-९८३ इन दोनों गाथाओं के स्थान पर हैं। ये व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। ये गाथाएं बाद में बनाई गई या पहले, यह खोज का विषय है। प्रति के पाठांतर के रूप में मुद्रित टीका के संपादक ने टीका में इन गाथाओं का उल्लेख किया है। पर मूल टीकाकार ने इन गाथाओं का कोई उल्लेख नहीं किया है। ० परठाणे (अ)। खंतिए (ब)। ०दएण य (स)। दुविध तु (अ), दोहि तु (स)। भावयाओ (स)। उ(ब).
२. ३.
पवयणतो लिंगेण य, चउभंगो एत्थ होति णायव्यो ।
जो जत्थ निवडति तहिं भंगम्मि सो उ कायव्यो । हमने टीका की व्याख्या के आधार पर ९९१ वी गाथा को मूल में स्वीकृत किया है। यह गाथा केवल अऔर स प्रति में प्राप्त है । टीकाकर ने इसकी व्याख्या नहीं की है। किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से यह यहां संगत प्रतीत होती है।
६. ७.
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द्वितीय उद्देशक
[ ९९
९९४. पत्तेयबुद्धनिण्हव', उवासए केवली य आसज्ज ।
खइयादिए य भावे, पडुच्च भंगेरे तु जोएज्जा ॥ नाम ठवणा दविए, भावे या चउब्विहो विहारो उ । विविधपगारेहि रयं, हरती जम्हा विहारो उ ॥नि. १७० ।। आहारादीणट्ठा, जो या विहारो अगीत-पासत्थे । जो यावि अणुवउत्तो, 'विहरति दव्वे'६ विहारो उ ॥नि. १७१ ॥ गीतत्थो तु" विहारो, बितिओ- 'गीतत्थेनिस्सितो होति ।।
एत्तो ततियविहारो, नाणुण्णातो जिणवरेहिँ ॥नि. १७२ ॥ ९९८. जिणकप्पितों गीतत्थो, 'परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो२० ।
गीयत्थे इड्डिदुर्ग, सेसा गीयत्थनिस्साए ॥नि. १७३ ॥ चोदेइ अगीयत्थे, किं कारण मोर निसिझति विहारो । सुण१२ दिटुंत१३ चोदग !, सिद्धकरं१४ तिण्ह वेतेसिं५ ॥ तिविधे संगेल्लम्मी६, जाणते निस्सिते अजाणते । पाणंधि७ छित्तकुरुणे, अडवि जले ‘सावए तेणा१९ ॥ एते सव्वे२० दोसा, जो जेण उ निस्सितो य परिहरति ।
निवडइ दोसेसुं पुण, अयाणतो नियमया तेसु ॥ १००२. एवं उत्तरियम्मि वि, अयाणतो निवडई तु दोसेसुं ।
मग्गाईसु इमेसू, ण य होती निज्जराभागी२२ ॥ १००३. मग्गे सेहविहारे, मिच्छत्ते एसणादि विसमे य२२ ।
सोधी गिलाणमादी, तेणा दुविधा व२३ तिविधा वा दारं ॥नि. १७४ ॥
१. २. ३. ४.
निण्हय (स)। भावो (अ)। x (अ)। जम्हा ततो (अ.स)। उ(ब)। विहार दव्वे (अ)।
१४. सिद्धिगतं (स)। १५. व तेसिं (ब), एतेसिं (अ)। १६. संगिल्लो नाम गोसमुदाय: (मवृ)। १७. पाणंधीति देशीपदमेतत् वर्तिनी वाचकम् (म) । १८. छेत्तकुरुणे (स)। १९. आवए सीमे (स)। २०. दवे (अ.स)। २१. १००१-१००२ ये दोनों गाथाएं केवल अ और स प्रति में
मिलती हैं। १००० वी गाथा की टीका में इनका संक्षिप्त भावार्थ मात्र मिलता है किन्तु स्वतंत्र व्याख्या नहीं है। विषय
वस्तु की दृष्टि से ये गाथाएं यहां संगत प्रतीत होती हैं। २२. या (अ)। २३. वि (ब)।
८. बीतो ()। ९. ० मीसतो भणितो (अ, ब, स), गीतार्थमिश्रित: (मवृपा)। १०. x (अ)। ११. मो पादपूरणे (मवृ)। १२. मुणि (अ)। १३. दिट्ठतो (ब, अ)।
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१०० ।
व्यवहार भाष्य
१००४. मग्गं सद्दव रीयति, पाउस उम्मग्ग अजतणा एवं ।
सेहकुलेसु य विहरति, नऽणुवत्तति ते ण गाहेति ॥दारं ।। १००५. दसुदेसे पच्चंते, वइगादि विहार पाणबहुले य ।
अप्पाणं च परं वा, न मुणति मिच्छत्तसंकंतं ॥दारं ।। १००६. आहार-उवधि सेज्जा, उग्गमउप्पायणेसणकडिल्ले० ।
लग्गति अवियाणतो, दोसे एतेसु सव्वेसु११ ॥दारं ॥ १००७. मूलगुण उत्तरगुणे, आवण्णस्स य न याणई१२ सोहिं ।
पडिसिद्ध३ त्ति न कुणति, गिलाणमादीण तेगिच्छं१४ ॥ १००८. अप्पसुतो त्ति व काउं, वुग्गाहेउं हरति खुड्डादी५ ।
तेणा सपक्ख इतरे, सलिंगगिहि अन्नहा६ तिविधा ॥ १००९. एते चेव य ठाणे, गीतत्थो निस्सितो उ१७ वजेति ।
भावविहारो एसो, दुविहो तु समासतो भणितो ॥ १०१०. सो पुण होती दुविधो, समत्तकप्पो तधेव असमत्तो८ ।
'तत्थ समत्तो इणमो, जहण्णमुक्कोसतो होति१९ ॥ १०११. गीतत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहन्नतो होति ।
बत्तीससहस्साइं, हवंति२० उक्कोसओ एस२९ ॥ १०१२. तिण्ह समत्तो कप्पो, जहण्णतो 'दोन्नि ऊ'२२ जया२३ विहरे२४ ।
गीतत्थाण वि लहुगो, अगीत गुरुगा इमे दोसा ॥ १०१३. दोण्हं२५ विहरताणं, सलिंग-गिहिलिंग-अन्नलिंगे य ।
होति बहुदोसवसही, गिलाणमरणे य सल्ले य ॥दारं ॥नि. १७५ ॥
3
सदेव (अ, स)। पायस (अ)।
मजत० (ब)। ४. वा (ब)।
हु (स)।
नणुय ०(ब)। ७. गाहेंति (ब)। ८. ० देसु (ब), देसुद्देसे (स)।
वतिया ० (ब)। १०. ण उग्गम० (अ)। ११. इस गाथा का उत्तरार्ध अ और स प्रति में इस प्रकार है
खलितस्स य पच्छित्तं, अमुणंतो णासए चरणं । १२. याणए (ब)। १३. ० सिद्धे (ब)।
१४. अ और स प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा है
पडिसिद्ध त्ति न कुणते, तेइच्छं कुणति वा विवच्चासं।
असिवोम-रायदुट्ठत्ति, मद्धजतणादिगहणेणं । १५. कुड्डाई (स)। १६. अन्नावा (ब)। १७. व(अ)। १८. असमत्थो (स)। १९. इणमो जहण्णमुक्कोस, उ होति गीयत्थाणं ति (ब) । २०. वहति (स)। २१. एसो (ब)। २२. दोन्नितो (अ, ब)। २३. जहा (स)। २४. विहारे (ब)। २५. दोण्ह वि (ब)।
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द्वितीय उद्देशक
[ १०१
१०१४. एगस्स सलिंगादी, वसहीए हिंडतो य साणाही' ।
दोसा दोण्ह वि हिंडंतगाण वसधीय होति इमेरे ॥ १०१५. मिच्छत्त बडुग चारण, भडे य मरणं तिरिक्ख-मणुयाणं ।
आदेस-वाल-निक्केयणे य सुण्णे भवे दोसा ॥दारं ॥नि. १७६ ॥ १०१६. गेलण्णसुण्णकरणे, खद्धाइयणे गिलाणअणुकंपा ।
साणादी य दुगुंछा, तस्सट्ठगतम्मि कालगते ॥दारं ॥ १०१७. गिहि-गोण-मल्ल-राउल, निवेदणा पाण कड्डणुड्डाहे ।
छक्कायाण विराधण, झामित मुक्के य. वावण्णे ॥ १०१८. गोण 'निवे साणेसु'१० य, गुरुगा सेसेसु चउलहू होंति५ ।
उड्डाहो ति च काउं, निववज्जेसुं भवे लहुगा२ ॥ १०१९. बिंति य मिच्छादिट्ठी१३, कत्तो धम्मो तवो व एतेसिं ।
इहलोगे फलमेयं, परलोए मंगुलतरागं१५ ॥ १०२०. जदि एरिसाणि पावंति, दिक्खिया खु अम्ह दिक्खाए ।
पव्वज्जाभिमुहाणं, • पुणरावत्ती भवे दुविधा ॥ १०२१. वालेण विप्परद्धे, सल्ले वाघातमरणभीतस्स ।
एवं दुग्गतिभीते'६, वाघातो सल्लमोक्खट्ठा ॥ १०२२. मरिउं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि ।
सुचिरं भमंति जीवा, अणोरपारम्मि ओतिण्णा७ ॥ १०२३. जम्हा एते दोसा, तम्हा दोण्हं न कम्पति विहारो ।
एयं८ सुत्तं अफलं१९, अह सफलँ निरत्थओ अत्थो ॥नि. १७७ ।। १०२४. मा वद सुत्तनिरत्थं२९, न निरत्थगवादिणो भवे२१ थेरा ।
कारणियं पुण सुत्तं, इमे य ते कारणा होति ॥
१. सुण्णाई (अ)। २. यमे (अ), यह गाथा केवल अ और स प्रति में प्राप्त है। इससे
पूर्व की गाथा की टीका में इसका भावार्थ मात्र मिलता है । किन्तु स्वतंत्र व्याख्या एवं गाथा नहीं मिलती। विषयवस्तु की दृष्टि से
यह यहां संगत प्रतीत होती है तथा अगली गाथा से जुड़ती है। ३. मिच्छत्ति व (अ)। ४. बदुग (ब)। ५. खद्धाययणे (स)। ६. दुर्गच्छा (ब)। ७. गोणं (ब, स)। ८. व(अ)। ९. यावण्णे (ब)।
१०. ० पाणेसु (अ, स) निक्कासणे (ब)। ११. होइ (अ)। १२. लहुगो (ब)। १३. मिच्छद्दि ० (ब)। १४. मेवं (स)। १५. मंगुलोपमं (बपा)। १६. दुर्गतिभीते षष्ठीसप्तम्योरथं प्रत्यभेदात् (मव) १७. उत्तिण्णा (अ)। १८. एए (ब), एवं (स).. १९. अहलं (अ)। २०. सुत्तमणत्थं (स), सुत्तअणत्थं (अ)। २१. जतो (अ)।
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१०२ ]
१.
२.
३.
४.
१०२५. असिवे ओमोदरिए, रायासंदेसणे' जतंता वा । अज्जाण गुरुनियोगा, पव्वज्जा णातिवग्ग दुवे ॥
अणुण्णवणं । आवण्णो " ""
॥
१०२६. समगं भिक्खग्गहणं, निक्खमण-पवेसणं एगो कधमावण्णो, एगोत्थ' 'कहं न १०२७. एगस्स खमणभाणस्स, धोवणं बहिय इंदियत्थेहिं । एतेहिं कारणेहि, आवण्णो वा अणावणो ॥ १०२८. तुल्ले 'वि इंदियत्थे", "सज्जति एगो ” विरज्जती बितिओ" । अज्झत्थं खु११ पमाणं, न इंदियत्था १२ जिणा बेंति ॥ मणसा उवेति विसए, 'मणसेव य" ३ सन्नियत्तस तेसु । इति विहु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं १०३०. एवं १४ खलु आवण्णे, तक्खण आलोयणा तु गीतम्मि १५ ठवणिज्जं ठवइत्ता १६, वेयावडियं" करे बितिओ १०३१. बितिए निव्विस एगो, निव्विद्वेतेण निव्विसे इतरो ९९ । एगतरम्मि २० अगीते, दोसु व २१ सगणेतरो सोधी || १०३२. एमेव ततियसुत्ते, 'जदि एगो बहुगमज्झ २२ आवज्जे । आलोयण गीतत्थे, सुद्धे २३ परिहार जध पुव्विं ॥ १०३३. सरिसेसु२४ असरिसेसु व, अवराधपदेसु जदि गणो २५ लग्गे बहुकतम्मि वि दोसो २६ ति होति सुत्तस्स संबंधों ॥ नि. १७८ ॥ १०३४. सव्वे वा गीतत्था, मीसा व जहन्न एग परिहारिय आलवणादि भत्तं देंत व २७
।
.
गीतत्थो । गेण्हंता ॥
१०२९.
१०३५.
० संदेहए (ब) । दुगे (म्) |
कध आ० (अस) ।
एगो व (मु) ।
x (स)।
धोयणं (ब) ।
इंदिएहिं वा (अ)।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. एगो (मु) ।
वियंदि ० (ब)।
एगो सज्जति (ब)।
११. मु(ब)।
१२. ० यट्ठा (अ) । १३. मणसा वि (ब)। १४. एयं (स) ।
१५. गीयत्थ (ब) ।
१६. च ठवेत्ता ( अ, स) ।
१७. वेज्जाव० (स) ।
१८. निव्वोद्वेतेण (ब) ।
१९. बितितो (अस) ।
२०. एगयणम्मि (अ) ।
लहु गुरु लहुगा गुरुगा, सुद्धतवाणं च होति पण्णवणा 1 अध होंति ८ अगीतत्था, अन्नगणे सोधणं कुज्जा ॥
I
२७. य (ब)। २८. होति (स) ।
||
२१. य (ब)।
२२. बहुमज्झे जति उ एगो (अ, स) ।
२३. सुद्ध (अस) ।
२४.
० सम्मि (मु) । २५. जणो (अस) । २६. दोसि (ब) ।
व्यवहार भाष्य
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द्वितीय उद्देशक
[१०३
१०३६. परिहारियाधिकारे', अणुवत्तंतेरे अयं विसेसो उ ।
आवण्ण दाण संथरमसंथरे चेव नाणत्तं ॥ १०३७. उभयबलं३ परियागं, सुत्तत्थाभिग्गहे य वण्णेत्ता ।
न हु जुज्जति वोत्तुं जे, जं तदवत्थो वि आवज्जे ॥ १०३८. 'दोहि वि गिलायमाणे', पडिसेवंते मएण टुिंतो ।
आलोयणायऽफरुसे", जोधे वसभे य दिटुंतो ॥दारं ॥नि.१७९ ॥ १०३९. गिम्हेसु मोक्खितेसुं, दटुं वा हम्मतो जलोतारे ।
चिंतेति जदि न पाहं, तोयं तो मे धुवं मरणं ॥ १०४०. पिच्चा मरिउं पि° सुहं , कयाइ वर सचे?तो पलाएज्जा'२ ।
इति३ चिंतेउं पाउं, नोल्लेउं४ तो गतो वाहं५ ॥ १०४१. मिगसामाणो साधू, दगपाणसमा अकप्पपडिसेवा ।
वाहोवमो य बंधो, सेविय'६ तो तं पणोल्लेति७ ॥दारं ।। १०४२. परबलपहारचइया, वायासरतोदिता१८ य ते पहुणा ।
. परपच्चूहअसत्ता'९, • तस्सेव भवंति२० घाताए ॥ १०४३. नामेण य२१ गोत्तेण व, पसंसिया चेव पुव्वकम्मेहिं ।
भग्गवणिया वि जोधा, जिणंति सत्तुं उदिण्णं पि ॥ १०४४. इयर आउरपडिसेवंत, चोदितो२३ अधव तं निकायंतो२४ ।
लिंगारोवणचागं, करेज्ज घातं च कलहं वा ॥दारं ॥ १०४५. जंपि'न चिण्णं२५ तं तेण, चमढियं२६ पेल्लितं वसभराए । केदारेक्कदुवारे, पोयालेणं२७
निरुद्धणं ॥
१. ० याहिगारं (मु)। २. अणुय ० (अ)। ३. बले (ब)।
जे इति पादपूरणे (मवृ)। ५. यावण्णे (ब)।
पढमबितितोदएणं (अ, स)।
० यणा अफरुसो (ब)। ८. जलोवारे (अ)। ९. पाउं (स)। १०. मि(ब)। ११. x (अ)। १२. पलेज्जामि (अ.स)। १३. इति य (ब), इयं (स)। १४. ०ल्लेयं (ब)।
१५. वाहिं (ब)। १६. सो विय (अ)। १७. पुणोल्लेति (अ.स)। १८. ० चोतिया (अ)। १९. ० च्चुहासत्ता (ब)। २०. व ठंति (), वदृति (ब)। २१. व (स)। २२. इति (अ)। २३. चोतिते (ब) चोइया (स) । २४. निकाएतो (अ)। २५. मचिण्णंत (ब)। २६. चमहितं (अ)। २७. पोवालेणं (स), सांडवृषभेन (मव)।
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१०४ ]
१.
२.
३.
४.
نون و نو نو
५.
६.
७.
८.
९.
१०४६. तणुयम्मि वि अवराधे, कतम्मि अणुवाय चोदितेणेवं' । सेसचरणं पि मलियं, अपसत्थ-पसत्थबितियं तु ॥ १०४७. तेणेव सेवितेणं, असंथरंतो वि संथरो जातो । 'बितिओ पुण सेवंती, अकप्पियं'३ नेव संथरति ॥ १०४७/१. जं से अणुपरिहारी, करेति तं जइ बलम्म न निसिद्धति जा सातिज्जणा तु तहियं तु १०४८. एमेव बितियसुत्ते", नातं करणं अणुपरिहारी, चोदग" ! १०४९. पेहाभिक्खग्गहणे, उझेंत निवेसणे
संतम्मि ।
सट्टा ॥ नवरऽसंथरंतम्मि । गोणीय दिट्ठतो ॥ नि. १८० ॥ य धुवणे य
I
I
जं जं न तरति काउं, तं तं से करिति बितिओ तु ॥नि. १८१ ॥ १०५०. जं से अणुपरिहारी, करेति जइ बलम्मि संतम्मि न निसेहइ सा सातिज्जणा उ तहियं तु सट्ठाणं ॥ १०५१. तवसोसियस्स वातो, खुभेज्ज पित्तं व दो वि" समगं वा सन्नग्गिपारणम्मी, गेलन्नमयं तु संबंधो
1
11
१०५२. पढमबितिएहि न तरति, गेलपणेणं तवो किलंतो वा 1 निज्जूहणा अकरणं १२, ठाणं च न देति वसधीए ॥ १०५३. 'निववेट्ठि च कुणंतो १३, जो कुणती १४ एरिसा गिला होति । पडिलेहुट्ठवणादी, वेयावडियं १५ . तु पुव्वत्तं ॥ चउगुरुगा 1
१०५४. परिहारियकारणम्मि १६, आगमनिज्जूहणम्मि १७ आणादिणो य दोसा, जं सेवति तं च पाविहिति १८ ॥ नि. १८२ ॥ १०५५. कालगतो से सहाओं, असिवे राया व १९ बोहिय भए वा 1 कारणेहि गागी परिहारी ॥
एतेहिं
होज्ज
चोदिते एवं (स) ।
संधरं (अस) ।
fare पुण सेवित्ता अकप्पिए (अस) ।
यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में इसी क्रम में प्राप्त है किन्तु टीका में यह गाथा १०४९ के बाद है। विषय वस्तु के क्रम की दृष्टि से यह वहीं संगत प्रतीत होती है। देखें टिप्पण न. ९ ।
०
सुत्तेण (ब)।
करणे (अस) ।
रोयग (अ) ।
करेति (अ) ।
यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में १०४७ वीं गाथा के बाद प्राप्त होती है। टीका में यह गाथा इसी क्रम में प्राप्त है । ब प्रति में यह गाथा पुन: इस क्रम में प्राप्त है। विषयवस्तु की दृष्टि से टीका का क्रम सम्यक् प्रतीत होता है।
१०. वाऊ (मु) । ११. व (ब) ।
१२.
० रणे (अस) ।
• विट्ठ पि कु० (ब) ० वेढिं च करेंतो (स) ।
१३.
१४.
कुणति (ब)।
१५. वेज्जाव ० (अ), वेयावट्ठियं (ब) ।
१६. परिहारकारणम्मी (ब) ।
१७. आगमे नि० (स), ०निज्जुह० (ब)।
१८. अत्र नियुक्तिविस्तरः (मवृ) ।
१९. य (अ) ।
२०. य (अ) ।
व्यवहार भाष्य
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द्वितीय उद्देशक
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६.
७.
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९.
'तम्हा कप्पठितं से, अणुपरिहारिं व ठावित करेज्जा" I बितियपदे असिवादी), अगहितगहितम्मि आदेसो ॥ १०५७. गहितागहिते भंगा, चउरो न उ विसति पढम-बितिसु । इच्छाय ततियभंगे, सुद्धो उ चतुथओ भंगो ॥
१०५६.
11
१०५८. अतिगमणे चउगुरुगा, साहू सागारि गाम 'बहि ठंति " 1 कप्पट्ठ सिद्ध सण्णी, साहु गिहत्थं 'व पेसेति७ १०५९ गंतूण पुच्छिऊणं', 'तस्स य वयणं” करेंति 'न गाभोगण सव्वे, बहिठाणं वारणं १०६०. वोच्छिन्नघरस्सऽसती", पिहद्दुवारे वसंत
संबद्धे ।
एगो १२ पडिजग्गति, जोग्गं सव्वे वि झोसंति३ ॥ १०६१. सागारियअचियत्ते, 'बहि- पडियरणा १४ तधा वि नेच्छं । अदिट्ठे कुणति एगो न पुणो त्ति य बेंति दिट्ठम्मि ॥ १०६२. बहुपाउग्गउवस्सय १५, असती वसभा दुवेऽहवा तिणि । कइतवकलहेणऽण६ि, उप्पायण बाहि१७ संछोभो १८ धोवेज्जा २०
I
१०६३. ते तस्स सोधितस्स य१९ उव्वत्तण संतरं व अच्छिक्कोवधि २१ पेहे, अच्चितलिंगेण जो पउणो ॥ १०६४. ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा I थोवो उ अधालहुसो, पट्ठवणा होति दाणं तुर२ ॥ १०६५. गुरुगो गुरुगतरागो, अधागुरूगो य होति ववहारो । 'लहुसो लहुसतरागो २३, 'अहालहूसो य ववहारो २४ ॥
तम्हा कायव्वं से कप्पट्ठिय अणुपरिहारियं ठवेऊण (ब, मु) ।
० वादि य (ब)।
X (ब) ।
अतिरमणे (ब)।
बहियादि (ब), बहिठाति (अ, स) ।
साहू (अ) ।
च पासेति (ब)।
पुणिऊणं (अ) ।
सागारिय वयणं ० (ब), तस्सं उ वयणेण (स)
१०. x (अ) 1
११. विच्छिन्न ० (ब) 1
१२. णं (अ, ब) ।
१३. जोसंति (ब)।
१४. बाहि पडियरण (ब) ।
१५.
१६.
करेंति १० ॥ नि. १८३ ॥
इतरे
||
० ग्गमुव० (अस) ।
कयकलहे अण्णेहिं (ब), कलहेण तहिं (स) ।
१७. बोधि (अ) ।
१८. संथोभो (अ) ।
॥
१९. उ (स) ।
२०. धोए० (ब), धोवेइज्जा (स) ।
२१. अच्छिक्का अस्पृष्टास्संतः बहुवचनप्रक्रमेऽप्येकवचनं गाथायां
प्राकृतत्वात् वचनव्यत्ययोऽपि हि प्राकृते (मवृ)
२२. अ और स प्रति में यह गाथा इस प्रकार है—
थोवे उ अधालहुसो, ववहारो रोवणा य पच्छित्तं । सोहि ति य एग, पट्ठवणं होति दाणं तु ॥ लहुओ लहुयतरागो (स) ।
[ १०५
२३.
२४. लहुओ य होति क्व० (ब) बृभा ६२३५, व्यभा १११७ ।
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१०६ ]
व्यवहार भाष्य
१०६६. लहुसो लहुसतरागो, 'अहालहूसो य" होति ववहारो ।
एतेसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए' ॥ १०६७. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो भवे' चउम्मासो ।
अहगुरुगों छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती' ॥ १०६८. तीसा य पण्णवीसा, वीसा पण्णरसेव य ।
दस पंच य दिवसाई, लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती ॥ १०६९. गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु ।
'अहगुरुग दुवालसमं", गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती१२ ॥ १०७०. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण१३-पुरिमटुं ।
निवितिगं४ दायव्वं, अधालहुसगम्मि५ सुद्धो वा६ ॥ १०७१. पच्छित्तं खलु पगतं, निज्जूहणठाणुवत्तते जोगो७ ।
होति तवो छेदो वा, 'गिलाण तुल्लाधिगारं वा८ ॥ १०७२. सगणे गिलायमाणं, कारण९ परगच्छमागयं वा वि ।
मा हु न कुज्जा निज्जूहगो° ति इति सुत्तसंबंधो ॥ १०७३. अणवट्ठो२१ पारंची, पुव्वं भणितं२२ इमं तु नाणत्तं ।
कायव्व गिलाणस्स तु, अकरणें गुरुगा य आणादी ॥ नि. १८४॥ १०७४. ओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि ।
उप्पण्णकारणम्मी२३, सव्वपयत्तेण कायव्वं२४ ॥ १०७५. जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं ।
आरोवणा तु तस्सा, कायव्वा पुवनिद्दिट्ठा ॥ १०७६. घोरम्मि तवे दिन्ने, भएण सहसा भवेज्ज खित्तो२५ उ ।
'गेलन्नं वा'२६ पगतं, अगिलाकरणं२७ च संबंधो ॥
१. अधालहुसाइ (ब)। २. बृभा ६२३६,व्यभा १११८! ३. हवे (ब), य होइ (बृभा ६२३७)।
अधागुरुतो (अ.स)।
व्यभा १११९ । ६. पणु०(स)। '७. या (ब)।
लहुसप० (अ) ९. गाथा के द्वितीय चरण में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग है। बृभा.
६२३८,व्यभा ११२० । १०. x(ब)। ११. अधागुरुयं बारसगं (अ.स), अहागुरुगं दुवालस (बृभा ६२३९)। १२. व्यभा ११२१ । १३. एगल्लाण (ब)।
१४. निव्वतिगं (अ), निवियगं (बृभा ६२४०)। १५. ० सगमे (अ)। १६. य (ब), व्यभा ११२२ । १७. जग्गो (अ)। १८. ० हिगारो व (ब), गारं च (स)। १९. कारणे (अ)। २०. ० ढतो (आ), • ढगो (ब)। २१. अणवट्ठपो (ब)। २२. भणितो (ब, मु)। २३. उप्पण्णो गेलण्णे (अ.स)। २४. १०७४-७७ तक की चार गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं। २५. खेत्तो (अ)। २६. गेलन्नमिव (अ), गेलण्णम्मि व (स)। २७. अगिलाए करणं (ब)।
८.
ला
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द्वितीय उद्देशक
[ १०७
१०७७. लोइय लोउत्तरिओ, दुविहो खित्तो समासतो होति ।
कह' पुण हवेज्ज खित्तो, इमेहि सुण कारणेहिं तुरे ॥नि. १८५ ॥ १०७८. रागेण वा भएण व, अधवा 'अवमाणितो नरिंदेणं'३ ।
____एतेहिं खित्तचित्तो, वणियादि परूविया लोगे ॥नि. १८६ ॥ १०७९. भयतो सोमिलबडुओ, सहसोत्थरितो व संजुगादीसु ।
'धणहरणेण पहूण" व, विमाणितो लोइया खित्तो ॥ १०८०. रागम्मि रायखुड्डो, जड्डादि तिरिक्ख चरग' वादम्मिः ।
रागेण जहा१ खित्तो, तमहं वोच्छं समासेणं१२ ॥ १०८१. 'जितसत्तुनरवतिस्स उ१३, पव्वज्जा सिक्खणा विदेसम्मि ।
काऊण पोतणम्मी'४ 'सव्वायं निव्वुतो भगवं१५ ॥ १०८२. 'एगो य तस्स भाया'६, रज्जसिरिं पयहिऊण पव्वइतो ।
भाउगअणुरागेणं, खित्तो जातो इमो उ विधी ॥ १०८३. तेलोक्कदेवमहिता, तित्थगरा८ नीरया गता सिद्धि१९ ।
थेरा वि गता • केई, चरणगुणपभावगा धीरा२० ॥ १०८४. न हु होति सोइयव्वो२१, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि ।
सो होति सोइयव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे२२ ॥ १०८५. जो जह व तह व लद्धं, भुंजति आहार-उवधिमादीयं ।
समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवड्डगो२३ भणितो२४ ॥ १०८६. जड्डादी तेरिच्छे, सत्थे 'अगणी य थणियविज्जू य२५ ।
ओमे पडिभेसणता, चरगं२६ पुव्वं२७ परूवेउं ॥
किह (अ)। यह गाथा अ और स प्रति में अनुपलब्ध है किन्तु टीका में यह गाथा व्याख्यात है । विषय वस्तु की दृष्टि से भी यह गाथा यहां
प्रासंगिक है। ३. कालगतो सेसाओ (अ)।
चिता (बृभा), बृहत्कल्प भाष्य में क्षिप्तचित्त के पूरे प्रसंग में स्त्रीलिंग का प्रयोग हुआ है। हमने उन पाठांतरों को नहीं लिया
०वितो (ब)।
बृभा ६१९५। ७. णरवतिणा व पतीण (बृभा ६१९६)। ८. रागे सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। ९. चरिय (ब)। १०. वाडम्मि (अ.स)। ११. जह (अ.स)। १२. बृभा ६१९७। १३. जियसत्तू य णरवती (बृभा ६१९८)।
१४. ०णस्सा (ब)। १५. वायं सो निबुतो भगवं (ब) संवायं निष्फतो भयवं (अ), संवादं
नि (स)। १६. एक्का य तस्स भगिणी (बृभा ६१९९)। १७. भाउं अणु० (स)। १८. ० यराई (ब)। १९. मुक्खं (अ), मोक्खं (स)। २०. बृभा ६२०० । इस गाथा के बाद बृभा (६२०१) में निम्न
गाथा और मिलती है।
बंभी य सुंदरी या, अत्रा वि य जाउ लोगजेट्ठाओ।
ताओ वि य कालगया, किं पुष सेसाओ अण्णाओ। २१. सोविय ० (ब), सोतिय ० (अ)। २२. बृभा ६२०२। २३. ० डतो (अ), ट्टतो (स)। २४. होइ (अ), बृभा ६२०३ । २५. अगणि य थणियविज्जाउ (अ)। २६. चरियं (बृभा६२०४)। २७. पत (स)।
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१०८ ]
व्यवहार भाष्य
१०८७. अवधीरितो व गणिणा', अहवण सगणेण कम्हिइ पमाए ।
वायम्मि वि चरगादी, 'पराजितो तत्थिमा जतणा ॥ कण्णम्मि एस सीहो, गहितो अध धाडितो य सो हत्थी ।
'खुड्डुलतरगेण तु मे, ते वि य गमिया पुरा पाला ॥ १०८९. सत्थऽग्गिं थंभेडं, पणोल्लणं णस्सते' य सो हत्थी ।
थेरीचम्मविकड्डण", अलातचक्कं वर दोसुं तु ॥ १०९०. एतेण जितो मि अहं, तं पुण सहसा न लक्खियं णेण ।
धिक्कयकइतवलज्जावितेण१२ ‘पउणो ततो'५३ खुड्डो ॥ १०९१.
तह वि य अठायमाणे, संरक्खमरक्खणे१४ य चउगुरुगा ।
आणादिणो य दोसा, ‘जं सेवति जं च पाविहिति"५ ।नि. १८७ ॥ १०९२. छक्कायाण विराधण, 'झामण तेणाऽतिवायणं१६ चेव ।
'अगडे विसमे पडिते, तम्हा रक्खंति जतणाए ॥नि.१८८ ॥ १०९३. सस्सगिहादीणि डहे, 'तेणे अहवा८ सयं व हीरेज्जा ।
मारण-पिट्टणमुभए, तद्दोसा जं च सेसाणं ॥ १०९४. महिड्डिए उट्ठनिवेसणा य, आहार-विगिचणा-विउस्सग्गो ।
‘रवखंताण य१९ फिडिते, अगवेसणे होंति चउगुरुगा२० ॥नि.१८९ ।। १०९५. अम्हं एत्थ पिसाओ२९, रक्खंताणं पि फिट्टति२२ कयाई ।
सो हु परिक्खेयव्वो, महिड्डियाऽऽरक्खिए कधणा ॥दारं ।। १०९६. मिउबंधेहि तधा णं, जमेंति जह सो सयं तु उठेति२३ ।।
उव्वरगसत्थरहिते, बाहि कुडंगे२४ असुण्णं च२५ ॥दारं ॥
१. गणिणो (स) गुरुणा (बृभा ६२०५)। २. अहवा (अ)। ३. कम्मिति ()। ४. परातियाए इमा जयणा (बृभा)।
धारिओ (बृभा ६२०६)। ६. खुड्डुलतरिया तुझं (बभा)।
इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पाला इत्युक्ते हस्तिपालाः (म)। ८. ०ग्गी (ब,स)।
णासए (अ.स)। १०. थेरीय चम्मकडण (अ, स)। ११. तु (बृभा ६२०७)। १२. ०वितो य (ब)। १३. पउणायइ (वृभा ६२०८)।
१४. सारक्खण अर० (ब)। १५. विराहण इमेहि टाणेहिं (बृभा ६२०९)। १६. कामण तेणेति ०(ब), तेणे निवा० (बृभा)। १७. अगड विसमे पडेज्ज व (बृभा ६२१०)। १८. तेणेज्ज व (स, बृभा ६२११) तेणे अवसो (ब)। १९. ताणं (अ.स)। २०. बृभा ६२१२। २१. पिसादी (बृभा ६२१३)। २२. पिट्टति (स)। २३. उट्ठाति (अ.स)। २४. कुडंडे (आ कुदंडे (स)। २५. बृभा ६२१४।
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द्वितीय उद्देशक
[ १०९
१०९७. उव्वरगस्स उ' असती, पुव्वखतऽसती य खम्मते अगडो ।
तस्सोन रिं च चक्कं, न छिवति जह उप्फिडंतो' वि ॥ १०९८. निद्ध-महुरं च भत्तं, करीससेज्जा य नो जधा वातो ।
दिव्विय धातुक्खोभे', 'नातुस्सग्गे ततो किरिया ॥ १०९९. अगडे पलाय मग्गण, अन्नगणा वा वि जे न सारक्खे ।
गुरुगा ‘य जं च जत्तो, तेसिं च निवेयणाकरणं१० ॥ छम्मासे पडियरिउं१, अणिच्छमाणेसु भुज्जतरगो वा२ ।
कुल-गण-संघसमाए, पुव्वगमेणं१३ निवेदेज्जा'४ ॥ ११०१. रण्णो निवेदितम्मि, तेसि वयणे गवेसणा होति ।
ओसधवेज्जासंबंधुवस्सए तीसु वी५ जतणा६ ॥नि.१९० ॥ ११०२. पुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि कोइ कारेज्जा७ ।
अणुजाणते य तहिं, इमे वि८ गंतुं पडियरंति ॥ ११०३. ओसध वेज्जे देमो१९, 'पडिजग्गह णं'२० 'तहिं ठितं चेव'२१ ।
तेसिं च ‘णाउ भावं'२२, न देंति मा णं गिही कुज्जा ॥ ११०४. आहार-उवहि-सेज्जा, उग्गम-उप्पायणादिसु जतंता२३ ।
वातादी खोभम्मि वि२९, जयंति पत्तेगमिस्सा वा ॥ ११०५. पुबुद्दिट्ठो२५ य विधी, इह वि करेंताण होति तह चेव ।
तेगिच्छम्मि 'कयम्मि य२६, आदेसा तिन्नि सुद्धो वा२७ ॥ ११०६. चउरो य होंति भंगा, तेसिं वयणम्मि२८ होति पण्णवणा ।
परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते२९ ॥ य(ब)।
१३. पुबकमेणं (अ, स)। २. पुब्बिखया ० (ब), पुवकय (अ)।
१४. ०एज्जं(ब), णिवेदेति (बृभा ६२१८)। ३. x (अ)।
१५. वि (अ)। जं(अ)।
१६. बृभा ६२१९ । ५. उप्फिडंती (बृभा ६२१५), उप्फडंतो (स)।
१७. कारेति (बृभा ६२२०)। वाऊ (ब)।
१८. य (अ.स)। देविय० (बृभा ६२१६)।
१९. देमि (ब), देमि (स)। ८. नाउ उस्सग्गतो (ब)।
२०. पडिजग्ग पवयणं (ब)। अगडे इति सप्तमी पंचम्यर्थे (मवृ)।
२१. इहं ठिताऽऽसनं (बृभा ६२२१)।
२२. विरूवभावं (म)। १०. जंवा जत्तो, तेसिंच निवेयणं काउं (बृभा ६२१७) अप्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
२३. जयंति (बृभा ६२२२) । रक्खंताण य फिडिते, अगवेसणे गुरुगा जो वि अन्नगणे।
२४. य ()। न वि सारक्खति गुरुगा, जं च जो निवेयणं च करे ।। २५. पुवद्दि० (ब)। ब प्रति में १०९९ से पूर्व निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है- २६. ०यम्मी (अ.स)। उच्चार-विगिचणया, उट्ठनिवेसण तहा विउस्सग्गो।
२७. बृभा ६२२३। रक्खंताण य फिडिए, अगवेसणे होंति चउगुरुगा।
२८. गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (म)। ११. पडिसरिओ (ब)।
२९. बृभा ६२२४ । १२. ब्व(ब)।
. ९.
अगड
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११० ]
१.
२.
३.
४.
११०७. वड्डति हायति उभयं, अवट्ठियं च चरणं भवे चउधा I खइयं तहोवसमियं, मीसमहक्खाय' खित्तं च
11
1
#1
उवचओ होति । परव्वसो" कासी'
बंधगा होंति
।
'वि अविगीतो” ॥
|
||
।
११०८. कामं आसवदारेसु, वट्टितोर पलवितं बहुविधं च लोगविरुद्धा य पदा, 'लोगुत्तरिया य" आइण्णा' ११०९. न य बंधहेतुविगलत्तणेण कम्मस्स लोगो वि एत्थ सक्खी, जह एस १११०. रागद्दोसाणुगता, जीवा कम्मस्स रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो ११११. कुणमाणी १० वि य चेट्ठा, परतंता नट्टिया बहुविहा उ किरियाफलेण जुज्जति, न जधा एमेव एतं पि १११२. जदि इच्छसि सासेरी १२, अचेतणा तेण से चओ नत्थि जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समता ॥ १११३. चेतणमचेतणं १ ३ वा, परतंतत्तेण 'दो वि१४ तुल्लाई । न तया विसेसितं १५ एत्थ, किंचि भणती सुण विसेसं ॥ ११.१४. नणु सो चेव विसेसो, जं एगमचेतणं सचित्तेगं । जध चेतणे विसेसो, तह भणसु इमं णिसामेह १६ १११५. जो पेल्लितो परेणं, हेऊ वसणस्स होति कायाणं तत्थ न दोसं इच्छसि लोगेण समं तहा तं च १७ १११६. पासंतो१८ वि य काये, अपच्चलो अप्पगं विधारेउं । जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं १९ पि १११७. गुरुगो गुरुगतरागो, अधागुरूगो य होति लहुगो लहुयतरागो, अहालहूगो य
11
1
11
मिस्स० (बृभा ६२२५) ।
वट्ठितो (स) ।
० विओ (ब) ।
उत्तरिया चैव (अस) ।
बृभा ६२२६ ।
उवचतो (अ) ।
परस्स सो (स) ।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. कुणमाणा (बृभा ६२२९) । ११. एव (ब)।
बृभा ६२२७ ।
य इति गीतो (अ, बृभा ६२२८) ।
||
पासामो ॥ ववहारो । ववहारो २० ॥
१२. सासेरीति देशीवचनमेतद् यंत्रमयी नर्तकी (मवृ), सासेरा (स, बृभा
६२३०) ।
१३. चेयणं अचे० (ब) ।
१४. णणु हु (बृभा ६२३१) ।
१५. विसेसयं (अ) ।
१६. पि सामेहिं (अ), बृभा ६२३२ ।
१७. बृभा ६२३३ /
१८. पस्संतो (बृभा ६२३४) ।
१९. मिमं (ब)।
२०. बृभा ६२३५, व्यभा १०६५ ।
व्यवहार भाष्य
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[ १११
द्वितीय उद्देशक १११८. लहुसो लहुसतरागो, अधालहूसो य होति ववहारो ।
एतेसिं' पच्छित्तं, वोच्छामि अधाणुपुवीए२ ॥ १११९. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो ।
अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती ॥ ११२०. तीसा य पण्णवीसा', वीसा पण्णरसेव य ।
दस पंच य दिवसाई, लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती ॥ ११२१. गुरुगं च अट्ठमं खलु गुरुगतरागं च होति दसमं तु ।
अहगुरुगं बारसमं', गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती' ॥ ११२२. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमड्ढे ।
निवितिगं दायव्वं, अधालहुसगम्मि सुद्धो वा० ॥ ११२३. एसेव गमो नियमा, दित्तादीणं पि होति नायव्वो ।
जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवतिऽनिच्छियव्वाइं११ ॥ ११२४. इति एस असम्माणो, खित्तोऽसम्माणतो भवे दित्तो ।
अग्गी व इंधणेहि२, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु ॥ ११२५. लाभमदेण व मत्तो, अधवा जेऊण दुज्जए. सत्तू ।
दित्तम्मि३ सातवाहण, तमहं वोच्छं समासेणं४ ॥नि. १९१ ।। ११२६. 'मधुरा दंडाऽऽणत्ती, निग्गत सहसा १५ अपुच्छिउँ कतरं ।
तस्स व तिक्खा'६ आणा, दुधा गता दो वि पाडेउं ॥नि. १९२ ।। ११२७. सुतजम्म महुरपाडण, निहिलंभनिवेयणा जुगव दित्तो ।
सयणिज्जखंभकुड्डे, कुट्टे७ इमाइ पलवंतो८ ॥ ११२८. सच्चं भण गोदावरि !१९, पुव्वसमुद्देण साधिता संती ।
साताहणकुलसरिसं२९, जदि ते कूले कुलं अत्थिरेर ॥ ११२९. उत्तरतो हिमवंतो, दाहिणतो सातवाहणो२२ राया ।
समभारभरक्कंता, तेण न पल्हत्थए पुढवी२३ ॥
ARTHDRANCHI
एतेसं (ब)। २. बृभा ६२३६, व्यभा १०६६ । ३. यहोइ (ब, बृभा ६२३७)। ४. अधागु०(स), व्यथ१०६७।
पणुवीसा (स)। लहुयग० (अ)। बृभा ६२३८, व्यभा १०६८, गाथा के द्वितीय चरण में अनष्टप
छंद का प्रयोग हुआ है। ८. दु ससमं (ब)। ९. बृभा ६२३९, व्यभा १०६९ । १०. बृभा ६२४०,व्यभा १०७० । ११. बृभा ६२४१ ।
१२. इंधणेणं (बृभा ६२४२) । १३. दिहम्मि (अ)। १४. बृभा ६२४३ १५. महराऽऽणत्ती दंडे सहसा निग्गम (बभा ६२४४)। १६. तिक्ख य (ब)। १७. कोट्टेइ (अ)। १८. बृभा ६२४५। १९. गोता ०(ब,स)। २०. साताहतण०(ब)। २१. बृभा ६२४६ । २२. सालवा ० (ब), सालिवा० (बृभा ६२४७)। २३. पुधवी (स) पुहवी (बृभा)।
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११२ ]
१.
२.
३.
४.
११३२.
११३०. एताणि य अन्नाणि य, पलवियवं सो अभाणियव्वाइं । कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उवाएणं ॥ ११३१. विद्दवितं केणं ति य, तुब्भेहिं पायताणा खर । कत्थ त्ति मारितो सो, दुट्ठ" ति य दंसणे भोगा 11 महज्झयण भत्त खीरे, कंबलग-पडिग्गहे 'फलग सड्ढे पासादे कप्पट्टे, वादं काऊण वा दित्तो ॥ नि. ९९३ ॥
।
११३३. पुंडरियमादियं खलु
अज्झयणं कड्डिऊण दिवसेणं ।
हरिसेण दित्तचित्तो, एवं होज्जाहि कोई उ
११३४. दुल्लभदव्वे देसे, पडिसेधितगं अलद्धपुव्वं वा 1 आहारोवधिवसधी, 'अहुण विवाहो व कप्पट्टो १०
११३५. दिवसेण 'पोरिसीय व ११,
तुझं ॥ असरिसेणं ।
तुमए ठवियं १ २ इमेण अद्धेण । एतस्स नत्थि गव्वो, दुम्मेधतरस्स को ११३६. तद्दव्वस्स दुगंछण, दिट्ठतो भावणा पगयम्मि पण्णवेत्ता, विज्जादिविसोहि जा ११३७. उक्कोस १४ बहुविधीयं, आहारोवगरणफलगमादीयं । पणो १५ 11
खड्डेणोमतरेणं, आणीतो भामितो ११३८. आदिट्ठ" सडकहणं, आउट्टा अभिणवो य कतमेत्ते य विवाहे, सिद्धादिसुता • ११३९. चरगादि पण्णवेडं, पुव्वं तस्स पुरतो ओमतरागेण ततो, पगुणति ओभामितो
पासादो १७ 1 कइतवेणं ॥
अभाणि सव्वाई (स), अणिच्छियव्वाइं (बृभा ६२४८) ।
X (37) 1
तुज्झेहिं (बं) ।
खरिते (अस) ।
दुट्ठि (ब) ।
दरिसिते (बृभा ६२४९) ।
५.
६.
७.
८.
९.
० सेहिय तं (ब) ।
१०. अक्खतजोणी व धूया वि (बृभा ६२५३), ११३४-३८ तक की गाथाओं में बृभा एवं व्यभा की गाथाओं में क्रमव्यत्यय है ।
११४०. पोग्गल असुभसमुदओ, एस अणागंतुको दुवेहं१९ पि | क्खावेसे २० पुण,
नियमा
आगंतुगो
होति ॥
य फलए य (बृभा ६२५०) ।
कोइ (अ), कोई (स) 1
॥
११. पोरुसीय य (स) ।
१२. पढितं (बृभा ६२५१) ।
11
कम्मं ३ ॥ नि. १९४ ॥
जिणावेंति I
एवं १८ ॥
व्यवहार भाष्य
१३. बृभा (६२५२) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैकाऊण होति दित्ता, वादकरणे तत्थ जा ओमा ।
१४. उक्कोसं (स) ।
१५. पडुणो (ब), बृभा (६२५४) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा
है
१६. अद्दिट्ठ (स, बृभा ६२५५) ।
१७. पासादी (स) ।
१८. यह गाथा बृभा में अनुपलब्ध है।
१९. व दोन्हं (बृभा ६२५६)
२०. जक्खादेसेणं (स) ।
पगयम्मि पण्णवेत्ता, विज्जातिविसोधिकम्ममादी वा । खुड्डीय बहुविहे आणियम्मि ओभावणा पउणा ||
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द्वितीय उद्देशक
[ ११३
११४४.
११४५.
११४१. अहवा भयसोगजुतो, चिंतद्दण्णो व अतिहरिसितो वा ।
आविस्सति जक्खेहिं, अयमन्नो होति संबंधोः ॥ ११४२. पुव्वभवियवेरेणं, अहवा रागेण रंगितो संतो ।
एतेहि जक्खविट्ठो, 'सेट्टी सज्झिलग वेसादी ॥नि. १९५ ।। ११४३. सेट्ठिस्स दोन्नि महिला, पिया य वेस्सा य वंतरी जाता ।
सामन्नम्मि पमत्तं', छलेति तं पुव्ववेरेणं ॥ जेट्ठगभाउगमहिला, अज्झोवण्णाउ होति खुड्डुलए । धरमाण मारितम्मी, पडिसेहे वंतरी जाया ॥ भतिया कुटुंबिएणं, पडिसिद्धा वाणमंतरी जाया ।
सामन्नम्मि ‘पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं११ ॥ ११४६. तस्स य२ भूततिगिच्छा, भूतरवावेसणं सयं वावि ।
णीउत्तमं१३ तु भावं, नाउं किरिया जधापुव्वं१४ ॥ ११४७. उम्माओ खलु दुविधो, जक्खावेसो५ य मोहणिज्जो य६ ।
जक्खावेसो वुत्तो, मोहेण इमं तु वोच्छामि ॥ ११४८. रूवंगि७ दलूणं, उम्मादो अहव पित्तमुच्छाए ।
कह रूवं दणं, हवेज्ज उम्मायपत्तो तु८ ॥ ११४९. दह्ण नडिं कोई१९, उत्तरवेउब्वियं मयणमत्तो२० ।
तेणेव ‘य रूवेण'२१ उ, ‘उड्डम्मि कतम्मि२२ निविण्णो ॥ ११५०. पण्णविता य विरूवा२३, उम्मंडिज्जंति तस्स पुरतो तु ।
'रूववतीय तु२४ भत्तं, तं दिज्जति जेण छड्डेति२५ ॥
१. चिंतद्दितो (अ)। २. . हरिसिउं(ब)।
बृभा ६२५७। ४. सवत्ति भयए य सझिलगा (बृभा ६२५८)।
पेस्सा (स)। ६. पयत्तं (ब)।
११४३वीं गाथा के स्थान पर बृभा (६२५९) में निम्न गाथा मिलती है
वेस्सा अकामतो निज्जराए मरिऊण वंतरी जाता।
पुवसवत्तिं खेतं, करेति सामण्णभावम्मि ।। ८. गाथायामतीतकालेऽपि वर्तमानता प्राकृतत्वात् (मवृ), इस गाथा
के स्थान पर बृभा (६२६१) में निम्न गाथा मिलती है
जेट्ठो कणिट्ठभज्जाए, मुच्छिओ णिच्छितो य सो तीए।
जीवंते य मयम्मी, सामण्णे वंतरो छलए । ९. ० त्रं पि (ब)। १०. मत्ति छलेहिंति (स)। ११. बृभा ६२६० १२. उ (स)।
१३. विणीउ० (ब), णीउत्तिमं (स)। १४. ० पुब्बि (स, बृभा ६२६२)। १५. ० एसो (ब, बृभा ६२६३)। १६. उ (अ)। १७. रूवंगं (स)। १८. बृभा (६२६४) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
तद्दायणा णिवाते, पित्तम्मि य सक्करादीणि। १९. केती (ब) कोयिं (स)। २०. मतणखेत्ता (बृभा ६२६५)। २१. परूवेणं (स)। २२. गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (मवृ)। २३. दुरूवो (बृभा ६२६६)। २४. ०वतो पुण (भा)। २५. छुड्डेति (ब)।
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११४ ]
व्यवहार भाष्य
११५१. गुज्झंगम्मि उ' वियडं, पज्जावेऊण खडियमादीणंरे ।
तद्दायणा विरागो', 'होज्ज जधासाढभूतिस्स ॥ ११५२. वाते अब्भंगसिणेहपज्जणादी तहा निवाते य ।
सक्करखीरादीहि य, पित्ततिगिच्छा उ कातव्वा ॥ ११५३. मोहेण पित्ततो वा, आयासंचेयओ' समक्खातो ।
एसो उ उवस्सग्गो, इमो तु अण्णो परसमुत्थो ॥ ११५४. तिविहे य उवस्सग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य ।
दिव्वो उ पुव्वभणितो, 'माणुस-तिरिए अतो वोच्छं'६ ॥ ११५५. विज्जाए मंतेण व, 'चुण्णेण व" जोइतो अणप्पवसो ।
अणुसासणा लिहावण', खमगे महुरा तिरिक्खादी ॥नि. १९६ ॥ ११५६.
विज्जा मंते चुण्णे, अभिजोइय बोहिगादिगहिते वा ।
अणुसासणा लिहावण, महुरा खमगादि व बलेणं ॥ ११५७. विज्जादऽभिजोगो पुण, दुविहो माणुस्सिओ य दिव्यो य ।
तं पुण जाणंति कधं', जदि नामं गिण्हते तेसिं११ ॥ ११५८. अणुसासितम्मि अठिते१२, विद्देसं देंति तह वि य अठंते१३ ।
जक्खीए कोवीणं, तस्स उ पुरतो४ लिहावेंति१५ ॥ ११५९. विसस्स विसमेवेह, ओसधं अग्गिमग्गिणो ।
मंतस्स पडिमंतो उ, दुज्जणस्स. विवज्जणा१७ ॥ ११६०. जदि पुण होज्ज गिलाणो, निरुज्झमाणोततो सि९ तेगिच्छं ।
संवरितमसंवरिता, उवालभंते निसि वसभा ॥दारं ॥ ११६१. थूभमह सड्ढि समणी, बोधियहरणं य° निवसुताऽऽतावे२१ ।
मझेण य अक्कंदे, कतम्मि जुद्धेण मोएति२२ ॥दारं ॥
२. खदियमा ०(ब)।
विरामो (स)। तीसे तु हवेज्ज दद्दूणं (बृभा ६२६७)।
संचेइतो (ब), आतासंवेतिओ (बृभा ६२६८)। माणुस्से आभिओग्गे य (बृभा ६२६९)। चुण्णेणं (अ.स)। जोतिया (बृभा ६२७०)।
०वणा (ब)। १०. कहिं (ब)। ११. तस्स (बृभा ६२७१)। १२. अट्ठिए (ब)।
१३. अट्ठते (ब, मु)। १४. पुरिओ (ब)। १५. बृभा ६२७२। १६. ०वेहं (स)। १७. ०ज्जणं (बृभा ६२७३)। १८. चिरुन्भमाणी (बृभा ६२७४)। १९. से (अ)। २०. तु (भा)। २१. निवस्स ता (अ)। २२. बृभा ६२७५।
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द्वितीय उद्देशक
[ ११५
११६२. गामेणारण्णेण' व, अभिभूतं संजतं तु तिरिएणंरे ।
थद्धं पकंपितं वा, रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा ॥ ११६३. अभिभवमाणो समणं, परिग्गहो ‘वा सि वारितो कलहो ।
उवसामेयवः ततो, अह कुज्जा दुविधभेदं तु ॥ ११६४. संजमजीवितभेदे, सारक्खण साधुणो य कायव्वं ।
पडिवक्खनिराकरणं, तस्स ससत्तीय कायव्वं ॥ ११६५.
अणुसासण भेसणया, जा लद्धी जस्स तं न हावेज्जा ।
किं वा सति' सत्तीए, होति सपक्खे उवेक्खाए ॥ ११६६. अधिकरणम्मि कतम्मि, खामित समुवट्ठितस्स पच्छित्तं ।
तप्पढमता भएण व, होज्ज किलंतो च वहमाणो० ॥ ११६७. पायच्छित्ते दिन्ने, भीतस्स विसज्जणा५ किलंतस्स ।
अणुसट्ठिवहंतस्स२ उ, भयेण खित्तस्स३ तेगिच्छं ॥ ११६८. पच्छित्तं इत्तरिओ, होति तवो वण्णितो उ जो एस ।
आवकहिओ पुण तवो, होति परिण्णा" अणसणं तु५ ॥ ११६९. अटुं वा हेउं वा, समणस्स उ विरहिते कहेमाणो ।
मुच्छाय६ विवडियस्स उ, कप्पति गहणं" परिण्णाए८. ॥ ११७०. गीतत्थाणं१९ असती, सव्वऽसतीए व कारणपरिण्णा ।
पाणग-भत्तसमाधी, कहणा आलोग२० धीरवणा ॥ ११७१. जदि वा न निव्वहेज्जा, असमाधी ‘वा सें२१ तम्मि गच्छम्मि ।
करणिज्जंऽणत्थगते२२, ववहारो पच्छ सुद्धो वा ॥
० ण अर ० (ब) २. तिरिगेणं (बृभा ६२७६)। ३. बद्धं (ब)। ४. • पिया (ब), पक्कपितं (स)। ५. वावि (ब)। ६.. सामितो व्व (अ)।
इस गाथा का भाव बृभा (६२७७,६२७८) में प्राप्त है
अभिभवमाणो समणि, परिगहो वा सें वारिते कलहो। किं वा सति सतीए, होइ सपक्खे उविक्खाए । गणपणे अहिगरणे ओसमण दुविहऽतिक्कम दिस्स ।
अणुसासण भेस निरंभणा य तो तीऍ पडिवक्खो।
उ(स)। ९. सती (स)। १०. बृभा ६२७९ ।
११. ०सज्जणं (बृभा ६२८०)। १२. अणुसद्वितं व० (अ)। १३. खेत० (अ)। १४. पुरिण्णा (ब)। १५. बृभा ६२८१। १६. मुच्छाणो (ब)। १७. महणं (ब)। १८. बृभा ६२८२। १९. गीतज्जाणं (बृभा ६२८३)। २०. आलोकं आलोचनं (म)। २१. वसे (आ), वासं (ब), वावि (बृभा ६२८४)। २२. अण्णत्थ वि (बृभा)।
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११६ ]
व्यवहार भाष्य
११७२. वुत्तं हि उत्तमढे, पडियरणट्ठा व दुक्खरे' दिक्खा ।
एत्तोरे य तस्समीव, जदि हीरति अट्ठजायमतो ॥ ११७३. अत्थेण जस्स कज्जं, संजातं एस अट्ठजातो तु ।
सो पुण संजमभावा, चालिज्जतो परिगिलाति ॥ ११७४. सेवगपुरिसे ओमे, आवन्न अणतः बोहिगे तेणे ।
एतेहिं अट्ठजातं, उप्पज्जति संजमठितस्स० ॥दारं ॥नि. १९७ ।। ११७५. अपरिग्गहगणियाए, सेवगपुरिसो उ कोइ आलत्तो५ ।
सा तं अतिरागेणं, ‘पणयइ तओं अट्ठजाता य१२ ॥ ११७६. सा रूविणि ति काउं, रण्णाऽऽणीता तु खंधवारेण ।
इतरो तीय विउत्तो, दुक्खत्तो ‘सो उ१३ निक्खंतो ॥ ११७७. 'पच्चागता य५४ सोउं, निक्खंतं बेति गंतु णं तहियं ।
बहुयं मे उवउत्त५, जदि दिज्जति तो विसज्जामि ॥ ११७८. सरभेद वण्णभेदं, अंतद्धाणं विरेयणं वावि ।
वरधणुग-पुस्सभूती, कुसलो६ सुहुमे य झाणम्मि१७ ॥ ११७९. 'अणुस४ि उच्चरती१८, गति णं मित्त-णायगादीहिं ।
एवं पि अठायते१९, काति सुत्तम्मि जं वुत्तं२० ॥दारं ।। ११८०. सकुडुबो निक्खंतो, अव्वत्तं दारगं तु निक्खिविउं ।
मित्तस्स घरो सोच्चिय, कालगतो 'तोऽवमं जायं'२१ ॥दारं ।। ११८१. तत्थ अणाढिज्जतो, तस्स य पुत्तेहि सो ततो चेडो ।
घोलतो आवण्णो, दासत्तं तस्स आगमणं ॥
१. दुयक्ख रं (ब)।
इंती (बृभा ६२८५)। ३. व(अ.स)।
गाथायां द्वितीया पंचम्यर्थे (म)। धीरंति (स)।
विवक्षायामत्र षष्ठी येनेत्यर्थ: (मवृ)। ७. चोलि० (स)। ८. ० लादी (ब) समवलंबे (बृभा ६२८६)। ९. अणते (ब)।
नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः (मवृ, बृभा), बृभा ६२८७, इस गाथा के बाद बृभा (६२८८) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैपियविपयोगदुहिया, णिक्खंता सो य आगतो पच्छा।
अगिलाणिं च गिलाणिं, जीवियकिच्छं विसज्जेति ।। ११. आलग्गो (अ)। १२. न पणयते अट्ठजाताती (स), १९७५-७७ तक की गाथाओं के
स्थान पर बृभा (६२८९) में निम्न गाथा मिलती है
अपरिग्गहियागणियाऽविसज्जिया सामिणा विणिक्खंता।
बहुगं मे उवउत्तं, जति दिज्जति तो विसज्जेमि ।। १३. तेय (अ)। १४. पच्चागयं तु (अ)। १५. उववतं (ब)। १६. गुलिया (अ, ब, बृभा ६२९०) गुलया (स)। १७. व्यभा १९४ । १८. ० सट्ठिमणुवरतं (बृभा ६२९१), सद्विमुच्च० (स)। १९. अट्ठाइयंते (ब)। २०. अ प्रति का एक पत्र प्राप्त न होने से ११७९ से १२०१ तक की
गाथाओं के पाठभेद नहीं लिए हैं। २१. मंचओ जातो (अ.स) १९८०-८१ इन दोनों गाथाओं के स्थान
पर बृभा (६२९२) में निम्न गाथा मिलती हैसकुडुंबो मधुराए, निक्खिविऊणं गयम्मि कालगतो। ओमे फिडित परंपर, आवण्णा तस्स आगमणं ।।
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[ ११७
द्वितीय उद्देशक ११८२. 'अणुसासकहण ठवितं', भीसणववहार लिंग जं जत्थरे ।
दूराऽऽ भोग-गवेसण, पंथे जतणा य जा जत्थ ॥नि. १९८ ॥ ११८३. नित्थिण्णो तुज्झ घरे, रिसिपुत्तो' मुंच होहिती धम्मो ।
धम्मकहपसंगेणं कधणं थावच्चपुत्तस्स ॥ ११८४. तह वि अठते ठवितं, भीसणववहार निक्खमंतेणं ।
तं घेत्तूणं दिज्जति, तस्सऽसतीए इमं कुज्जा ' ॥ ११८५. नीयल्लगाण तस्स व, भेसण ता राउले सयं वावि ।
अविरिक्का मो अम्हे, कहं व लज्जा ण तुझं ति१ ॥ ११८६. ववहारेण य२ अहयं, भागं घेच्छामि ‘बहुतरागं भे१३ ।
अच्चियलिंगं व करे, पण्णवणा दावणट्ठाए४ ॥ ११८७. पुट्ठा व अपुट्ठा वा, चुतसामिनिधिं कधिंति ओहादी ।
घेत्तूण जावदट्ठो, पुणरवि सारक्खणा जतणा५ ॥ ११८८. सोऊण अट्ठजातं, अटुं पडिजग्गते१६ उ आयरिओ ।
संघाडगं च देती, पडिजग्गति णं 'गिलाणं पि२८ ॥ ११८९. काउं निसीहियं अट्ठजातमावेदणं गुरूहत्थे । .
दाऊण पडिक्कमते, मा पेहंता मिगा परसे९ ॥ ११९०. सण्णी व सावगो वा, केवतिओ२० देज्ज अट्ठजातस्स ।
पच्चुप्पण्णनिहाणे२९, कारणजाते गहणसोधी ॥दारं ।। ११९१. थोवं पि धरेमाणो, कत्थति दासत्तमेति अदलंतो ।
परदेसम्मि वि२२ लब्भति, वाणियधम्मे 'ममेस त्ति२३ ॥
१४. बृभा (६२९६) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती
१. ०सासण कह ०(स) ०सासण कह ठवणं (ब भा६२९३)। २. सत्थ (ब)। ३. दूराभंग०(ब)। ४. इसिकण्णा (बृभा)।
बृभा (६२९४) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
सेहोवट्ठविचित्तं, तेण व अण्णेण वा णिहितं । ६. तेणा (ब)। ७. यह गाथा बृभा में नहीं है। ८. भीसणं (ब), भेसणं (स)। ९. 'x (स)। १०. वि (ब)। ११. बृभा ६२९५। १२. व (स)। १३. ० तराभंगेते (ब), रागं ते (स)।
णीयल्लएहि तेण व, सद्धिं ववहार कातु मोदणता ।
जं अंचितं व लिंग, तेण गवेसित्तु मोदेइ ।। १५. बृभा ६२९७ । १६. ० जगारणं (ब), जग्गती (बृभा ६२९८)। । १७. पडिजत्तइ (स)। १८. ० णम्मि (ब)। १९. बृभा ६२९९। २०. केवाडिए (ब), केवडिए (स)। २१. पुव्वुप्पण्ण० (बृभा ६३००)। २२. व(स)। २३. मणेस ति (ब), बृभा ६३०१ ।
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११८ ]
व्यवहार भाष्य
११९५.
११९२. नाहं विदेस आहरणमादि विज्जा' य मंत-जोगा य ।
निमित्ते य रायधम्मे, पासंड गणे धणे चेव ॥दारं ॥नि. १९९ ।। ११९३. सारिक्खतेण जंपसि, जातो अण्णत्थ ते वि आमं ति ।
'बहुजणविण्णायम्मि उ", थावच्चसुतादिआहरणं ॥ ११९४. 'विज्जादी सरभेदण", अंतद्धाणं' विरेयणं वावि ।
वरधणुग-पुस्सभूती, . गुलिया सुहुमे य झाणम्मि ॥ असतीए विण्णवेंति, रायाणं सो वि होज्ज अह भिन्नो ।
तो से कहेज्ज धम्मो', अणिच्छमाणे इमं कुज्जा ॥ ११९६. पासंडे व सहाए, गेहति तुझं पि एरिसं होज्जा ।
होहामो य सहाया, तुब्भं पि जो व गणो बलिओ ॥ ११९७. एतेसिं असतीए, संता व जदा ण होति उ सहाया ।
ठवणा दूराभोगण, लिंगेण व एसितुं देंति१२ दारं ।। ११९८. एमेव अणत्तस्स३ वि, तवतुलणा नवरि एत्थ' नाणत्तं ।
जं जस्स होति भंडं, सो ‘देति ममंतिगो धम्मो'१५ ॥ ११९९. जो णेण कतो धम्मो, तं देउ१६ ण एत्तियं समं तुलति ।
हाणी जावेगाहिं८, तावइयं विज्जथंभणता ॥ १२००. जदि पुण नेच्छेज्ज तवं, वाणियधम्मेण ताधि सुद्धो उ ।
को पुण वाणियधम्मो, सामुद्दे, 'संभवे इणमो१९ ॥ १२०१. वत्थाणाऽऽ भरणाणि य, सव्वं छड्डित्तु एगविंदेणं२० ।
पोतम्मि विवण्णम्मि, वाणियधम्मे हवति सुद्धो ॥ १२०२. एवं इमो वि साधू, तुझं नियगं च सार मोत्तूणं ।
निक्खंतो तुज्झ घरे, करेउ२१ इण्हं२२ तु वाणिज्जं ॥दारं ॥
35
१. वेज्जा (ब)। २. x (ब)। ३. बृभा ६३०२। ४. सारक्ख एणं (स)।
यम्मि (बृभा ६३०३)।
सरभेद वण्णभेदं (बृभा ६३०४)। ७. अत्तद्धाणं (ब)। ८. वि धम्मो (ब)। ९. गेहम्मि (ब)। १०. अस्थि (वृभा ६३०५)। ११. तुझं (ब)। १२. बृभा ६३०६।
१३. अणंतस्स (स)। १४. तत्थ (ब, स, बृभा)। १५. नोदति म ति णो धम्मो (ब) बृभा (६३०७) में इस गाथा का
उत्तरार्ध इस प्रकार है
बोहिय तेणेहि हिते, ठवणादि गवेसणे जाव। १६. देसु (स)। १७. हीणा (स)। १८. ०गाहं (बृभा ६३०८)। १९. संभमे इमो तु (स), यह गाथा बृभा में नहीं है। २०. ०वंदेणं (स), वत्थेणं (बृभा ६३०९)। २१. करेऊ (ब)। २२. ईण्हं (ब)।
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द्वितीय उद्देशक
[ ११९
१२०३. बोधियतेणेहि हिते, विमग्गणा साधुणो नियमसा उ ।
अणुसासणमादीओ२ एसेव कमो निरवसेसो ॥ १२०४. तम्हा अपरायत्ते, 'दिक्खेज्ज अणारिए य वज्जेज्जा ।
अद्धाणअणाभोगा, विदेस' असिवादिसु, दो वि ॥ १२०५. अट्ठस्स कारणेणं, साधम्मियतेणमादि जदि कुज्जा ।
इति अणवढे जोगो, नवमातो यावि दसमस्सा ॥ १२०६. अणवट्ठो पारंचिय', पुव्वं भणिया इमं तु नाणत्तं ।
गिहिभूतस्स य करणं, अकरण गुरुगा य आणादी ॥ १२०७. वरनेवत्थं एगे, हाणविवज्जमवरे- जुगलमेत्तं ।
परिसामज्झे धम्म, सुणेज्ज कधणा पुणो दिक्खा ॥ १२०८. ओभामितो न कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीचारं ।
होति भयं सेसाणं, गिहिरूवे धम्मता चेव ॥ १२०९. किं वा तस्स न दिज्जति, गिहिलिंगं जेण भावतो लिंगं ।
अजढे वि दव्वलिंगे, -सलिंग पडिसेवणा विजढं ॥ १२१०. अग्गिहिभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुटु सगणो वा ।
परमोयावणइच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा ॥नि. २०० ।। १२११. ओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि ।
उप्पण्णे कारणम्मि२, सव्वपयत्तेण कायव्वं ३ ॥नि. २०१॥ १२१२. जो ‘उ उवेहं कुज्जा'१४, आयरिओ५ केणई पमादेणं ।
आरोवणा उ तस्सा, कायव्वा पुव्वनिद्दिट्ठा'६ ॥ १२१३. आहरति भत्तपाणं, उव्वत्तणमादियं पि से कुणति ।
सयमेव गणाधिवती, अध अगिलाणो सयं कुणति८ ॥ १२१४. उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं, वोढुं९ सरीरस्स य वट्टमाणिं ।
आसासइत्ताण तवो किलंत, तमेव खेत्तं समुति थेरा२० ॥
د ن ن
६.
०तेणाति (स)। २. ० मादीसु (ब)। ३. ०राजयत्ते (ब)। ४. जाणारिए (स)।
विसए (अ)।
०वादि तु (अ), वादिसू (बृभा ६३१०)। ७. चितो य (अ, ब)। ८. ० मधरे (स)। ९. गिण्ह रूवे (ब)। १०. सलिंगे (अ.स)। ११. ० णुवित्तिए () वत्ती य (स)। १२.०णम्मि य (अ)।
१३. यह गाथा ब प्रति में नहीं है । बृभा ५०३६ । १४. कुज्जाहि उवेहं (अ, स)। १५. ०रिया (ब)। १६. बृभा १९८३,५०३७, निभा ३०८४ । १७. ०दयं (ब)। १८. बृभा ५०३८ । १९. x (ब)।
बृभा ५०३९, इस गाथा के बाद बृभा (५०४०) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैअसहू सुतं दातुं, दो वि अदाउं व गच्छति पए वि। संघाडओ से भतं, पाणं चाऽऽणेति मग्गेणं ।
२०.
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१२०
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व्यवहार भाष्य
१२१५. गेलण्णेण व पुट्ठो, अभिणवमुक्को ततो व रोगातो' ।
कालम्मि दुब्बले वा, 'कज्जे अण्णे'२ व वाधातोः ॥ १२१६. पेसेति उवज्झायं, अन्नं गीतं व जो तहिं जोग्गो ।
पुट्ठो व अपुट्ठो वा, स वावि दीवेति तं कज्ज ॥ १२१७. जाणंता माहप्पं, सयमेव भणंति एत्थ तं जोग्गो ।
अस्थि मम एत्थ विसओ, अजाणते 'सो व ते बेंति" ॥ १२१८. अच्छउ महाणुभागो, जधासुहं गुणसयागरो संघो ।
गुरुगं पि इमं कज्ज, मं पप्प भविस्सते लहुगं ॥ अभिधाणहेतुकुसलो, बहूसु नीराजितो विदुसभासु ।
गंतूण° रायभवणे, भणाति तं रायदारिटुं५ ॥ १२२०. पडिहाररूवी भण रायरूविं, 'तं इच्छते५२ संजतरूवि३ दटुं ।
निवेदयित्ता य स पत्थिवस्स, जहिं निवो तत्थ तयं पवेसे ॥ १२२१. तं पूयइत्ताण५ सुहासणत्थं, पुच्छिसु रायाऽऽगतकोउहल्ले ।
पण्हे उराले असुते कदाई१६, स यावि आइक्खति पत्थिवस्स" ॥ १२२२. जारिसग आयरक्खा, सक्कादीणं न तारिसो एसो ।
तुह 'राय ! दारपालो'९, तं पि य चक्कीण२° पडिरूवी२५ ॥ १२२३. समणाणं पडिरूवी२२, जं पुच्छसि राय तं कधमहं ति ।
निरतीयारा समणा, न तहाहं२३ तेण पडिरूवी२४ ॥ १२२४. निज्जूढो२५ मि नरीसर !, खेत्ते वि जतीण अच्छिउं२६ न लभे ।
अतियारस्स विसोधि२९, पकरेमि पमायमूलस्स८ ॥
१. रोतातो (स), रोगावो (ब)। २. अत्र सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् (मवृ)। ३. बृभा ५०४१ । ४. यावि (स)। ५. बृभा ५०४३। ६. एओ (ब)। ७. ते विसो बेति (अ.स), सो पवन्नएति (ब), बृभा ५०४४ । ८. ममं (ब)। ९. बृभा ५०४५। १०. गव्वण (ब)। ११. ० दारटुं (बृभा ५०४६)। १२. तमिच्छए (बृभा ५०४७)। १३. संजइरूवि (ब)। १४. तहिं (अ), तय (ब)। १५. पूययत्ताण (अ)। १६. कयाती (ब), कदायि (स)
१७. पत्थितस्स (स) बृभा ५०४८ । १८. आतरिक्खा (स)। १९. राया दाणपालो (ब)। २०. चक्काण (स)। २१. बृभा ५०४९ । २२. स पडि ० (ब)। २३. तवाहं (अ), तह (ब)। २४. बृभा ५०५०। २५. निजूहो (स)। २६. अस्थिउं (ब)। २७. विसोधी (स)। २८. बृभा ५०५१ ।
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द्वितीय उद्देशक
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कधणाऽऽउट्टण' आगमणपुच्छणं दीवणा य कज्जस्स ।
वीसज्जियं ति य मया', हासुस्सलितो भणति राया ॥ १२२६. वादपरायणकुवितो, चेइयतद्दव्वसंजतीगहणे ।
पुव्वुत्ताण' चउण्ह वि, कज्जाण हवेज्ज अण्णतरं ॥ १२२७. संघो न लभति कज्जं, लद्धं कज्जं महाणभागेणं ।
तुझं 'तु विसज्जेमी, सो वि य संघो ति पूएति ॥ १२२८. अब्भत्थितो व रण्णा, सयं वि संघो विसज्जयति तट्ठो ।
आदी१२ मज्झऽवसाणे, स यावि दोसो धुतो होति१३ ॥दारं ।। १२२९. सगणो य पदुट्ठो सो, आवण्णो तं च कारणं नत्थि ।
एतेहि कारणेहिं, अगिहिब्भूते उवट्ठवणा ॥ १२३०. ओहासणपडिसिद्धा, बहुसयणा देज्ज छोभगं वतिणी ।
तं चावण्ण अन्नत्थ, कुणह 'गिहीयं ति ते१४ बेंति५ ॥ १२३१. ते नाऊण पदुढे, मा होहिति६ तेसि गम्मतरओ ति ।
मिच्छिच्छा७ मा सफला, होहिति तो सो अगिहिभूतो ॥दारं ॥ १२३२. सोउ गिहिलिंगकरणं, अणुरागेणं भयंतऽगीतत्था ।
मा गिहियं कुणह गुरुं, अध कुणह इमं निसामेह ॥ १२३३. विद्धंसामो अम्हे, एवं ओभावणा जइ गुरुणं ।
एतेहिं८ कारणेहिं, अगिहिब्भूते१९ उवट्ठवणा ॥दारं ।। १२३४. अण्णोण्णेसु गणेसुं, वहति तेसि गुरवो अगीताणं ।
ते बेंति अण्णमण्णं, किह काहिह२० अम्ह थेर त्ति ॥ १२३५. गिहिभूते ति य वुत्ते, अम्हे वि करेमु२१ तुज्झ गिहिभूतं ।
अगिहि त्ति दोन्नि वि मए, भणंति थेरा इमं दो वी ॥
१. कहण उट्टण (ब)। २. मए (बृभा ५०५२)। ३. ० स्सभितो (ब), • स्सलितो (अ)। ४. ० संजतिग्ग ० (ब) संजति तग्गहणे (स)। ५. ०त्तणि (आ)। ६. बृभा ५०४२, यह गाथा बृभा व्यभा (१२१५) के बाद है।
ति विसज्जेमि (बृभा)। ८. यं(ब)। ९. पुज्जो त्ति (आ पुज्जेति (स), बृभा ५०५३ । १०. वि (ब)। ११. व(ब, बृभा)।
१२. आदं (ब)। १३. बृभा ५०५४। १४. गिहियं ति तो (स)। १५. देंति (ओ, बंति (ब)। १६. होही (ब)। १७. मिच्छत्ता (ब)। १८. एतेसिं (बपा)। १९. अगिहे भूते (ब)। २०. कहिह (ब)। २१. करणेमो (ब)।
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१२२ ]
व्यवहार भाष्य
१२३६. न विसुज्झामो' अम्हे, अगिहिभूतो य तधावऽणिच्छेसु ।
इच्छा सिरे पूरिज्जति, गणपत्तियकारगेहिं तु ॥ पुवं वतेसु ठविते, रायणियत्तं अविसहंत कोई ।
ओमो भविस्सति इमो, इति छोभगसुत्तसंबंधो ॥ १२३८. पत्तियपडिवक्खो' वा, अचियत्तं तेण छोभगं देज्जा ।
पच्चयहेतुं च परे, सयं च पडिसेवितं भणति ॥ १२३९. रायणियवायएणं, खलियमिलिय" पेल्लणाय उदएणं ।
देउलमेधुण्णम्मि य, अब्भक्खाणं कुडंगम्मि ॥नि. २०२ ॥ १२४०. जेट्ठज्जेण अकज्जं, सज्जं अज्जाघरे कतं अज्ज ।
उवजीवितोऽत्य भंते !, मए वि संसट्ठकप्पो त्य० ॥ १२४१. अधवा उच्चारगतो, कुडंगमादी१ कडिल्लदेसम्मि२ ।
तत्थ य कतं अकज्जं, जेट्ठज्जेणं सह 'मए वि५३ ॥ १२.४२. तम्मागते१४ वताई, दाहामो१६ देंति ‘वा तुरंतस्स१७ ॥
भूतत्थे पुण णाते, अलियनिमित्तं न मूलं तु८ ॥ १२४३. चरिया-पुच्छण-पेसण, कावालि° तवो य संघों जं भणति ।
चउभंगो२९ हि निरिक्खी, देवय तहियं विही एसो ॥नि.२०३ ।। १२४४. आलोइयम्मि निउणे, कज्जं से सीसते तयं सव्वं ।
पडिसिद्धम्मि य इतरो, भणाति ‘बितियं पि'२२ ते नत्थि ॥दारं ।। दोण्हं पि अणुमतेणं, चरिया२३ वसभेहि पुच्छिय२४ पमाणं
अन्नत्थ वसभ तुब्भे२५, जा कुणिमो देवउस्सग्गं ॥ १२४६. अट्ठिगमादी वसभा, पुब्बि पच्छा व गंतु निसिसुणणा ।
आवस्सग आउट्टण, सब्भावे वा२६ असब्भावे ॥
विसुज्झेमो (स)। २. सं इति तेषां (मवृ)। ३. राइणि० (स)।
होइ (ब) ५. ०पडिबंधो (स)।
सणति (अ)। ७. ०मितिय (स)। ८. अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः (मव)। ९. उवजीविए स्थ (स)। १०. त्था (अ.स)। ११. कडंग० (स)। १२. ०देसं (ब)। १३. मेती (ब)।
१४. ० गमे (अ, ब), तम्हा गते (स), तस्मिन् आगते (म)। १५. विवाइं (अ)। १६. दाहीमो (ब), दाहेमो (अ)। १७. चाउरंत० (अ)। १८. व (ब)। १९. - तस्स पडिच्छण (अ, स)। २०. x (ब)। २१. गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (मवृ)। २२. बितियत्थि (ब)। २३. चरियया (ब)। २४. पुच्छइ (ब) पुच्छते (अ)। २५. तुल्लो (स)। २६. व(स)।
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द्वितीय उद्देशक
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१२४७. सेहो त्तिमं भाससि निच्चमेव,बहूण मज्झम्मि व किं कधेसि ।
अभाएमाणाण' परोप्परं वा, दिव्वाणमुस्सग्गः तवस्सि कुज्जा ॥ १२४८. किंचि तधा तह दिस्सति', चउभंगे पंतदेवता भद्दा ।
अन्नीकरेति मूलं, इतरे सच्चप्पतिण्णा तु ॥ १२४९. छोभगदिण्णो दाउं, व छोभगं सेविउं व तदकिच्चं ।
सच्चाओ वर असच्चं, ओहावणसुत्तसंबंधो२ ॥ १२५०. सो पुण लिंगेण सम, ओहावेमो तु लिंगमधवा वि ।
किं पुण लिंगेण सम, ओधावि'३ इमेहि कज्जेहिं१४ ॥नि. २०४ ॥ १२५१. जदि जीविहिति५ भज्जाइ, जइ वा वि 'धण धरति जति व वोच्छंति ।
लिंगं मोच्छं संका, पविट्ठ तत्थेव उवहम्मे ॥नि. २०५ ।। १२५२. गच्छम्मि केइ पुरिसा, सीदंते विसयमोहियमतीया ।।
ओधावंताण गणा, चउबिहा तेसिमा सोही ॥नि. २०६ ॥ १२५३. दव्वे खेते काले, भावे सोही उ तत्थिमा दव्वे ।
राया जुवे९ अमच्चे, पुरोहित-कुमार-कुलपुत्ते ॥ १२५४. एतेसिं रिद्धीओ, द8 लोभाउ सन्नियत्तंते२० ।
पणगादीया सोधी, बोधव्वा मासलहुगं ता ॥ १२५५. चोदेती कुलपुत्ते, गुरुगतरं राइणो उ लहुगतरं५ ।
पच्छित्तं किं कारण, भणंति२२ सुण चोदग ! इमं तु ॥ १२५६. दीसति धम्मस्स फलं, पच्चक्खं तत्थ२३ उज्जमं कुणिमो२४ ।
इड्डीसु पतणुवीसु२५, व२६ सज्जते२७ होति णाणत्तं ॥
मम (ब)। २. भावति (बपा)। ३. पभूण (स)। ४. वि (व)। ५. .माणे (अ, ब, स)। ६. .स्सग्गि(अ)। ७. दीसति (स)। ८. पंचदे० (अ)।
अत्तीकरेंति (स)। १०. सेवियं (स)। ११. x (ब), वा (अ)। १२. ० सच्चसं० (स)। १३. ओधावइ (ब)। १४. अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः (मवृ)।
१५. जीवेहिति (अ, ब)। १६. बंधणं धरइ जं वोच्छत्ति (ब)। १७. वुत्थेव (स)। १८. गणो (ब)। १९. जुते (ब)। २०. सन्नियत्तुतो (ब), षष्ठीसप्तम्योरर्थं प्रत्यभेदात् सम्यम्
निवर्तमानस्य (म)। २१. ० गतरग (अ)। २२. भणति (स)। २३. तस्स (ब)। २४. कुणिइमो (ब)। २५. पणुईसु (अ), पतणुईसु (स) । २६. वि(अ)। २७. सज्जतो (अ)।
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१२४ ]
व्यवहार भाष्य
१२५७. खेत्ते 'निवपधनगरद्दारे उज्जाणं परेण सीमतिक्कंते ।
पणगादी जा लहुगो, एतेसुरे उप सन्नियत्तते ॥ १२५८. पढमदिणनियत्तंते, लहुओ दसहि सपदं भवे काले ।
संजोगो पुण एत्तो, 'दव्वे खेत्ते य काले य ॥ १२५९. दव्वस्स य खेतस्स य, संजोगे 'होति सा इमा सोधी ।
रायाणं रायपधे, दटुं जा सीमतिक्कंते ॥ १२६०. पणगादी जा मासो, जुवरायं निवपधादि दट्ठणं ।
दसराइंदिवमादी', मासगुरू होति अंतम्मि ॥ १२६१. सचिवे पण्णरसादी, लहुगं तं वीसमादि उ पुरोधे ।
अंतम्मि उ चउगुरुगं, कुमार भिन्नादि जा छ तू ॥ १२६२. कुलपुत्ते मासादी, छग्गुरुगं होति 'अंतिमं ठाणं१० ।
एत्तो उ१ दव्वकाले, संजोगमिमं तु वोच्छामि ॥ १२६३. रायाणं तद्दिवसं, दट्ठण नियत्ति'२ होति मासलहुं ।
दसदिवसेहिं सपदं, जुवरण्णादी१३ अतो वोच्छं ॥ १२६४. मासगुरू चउलहुया, चउगुरु-छल्लहू छग्गुरुगमादी ।
नवहिं अट्ठहि सत्तहि, छहि पंचहि चेव चरमपदं१५ ॥ १२६५. इति दव्व खेत्त काले, भणिता सोधी उ 'भाव इणमण्णा'१६ ।
दंडिग भूणग८ संकेत, 'विवण्णे भुंजणे१९ दोसु ॥नि. २०७ ॥ १२६६. दंडित सो उ नियत्ते, पुत्तादि२० मते व चउलह होति ।
संकेत मताए वा, भोईए२२ 'चउगुरू होंति २३ ॥ १२६७. अह पुण भुंजेज्जाही, दोहि तु वग्गेहि तत्थ समगं तु ।
इत्थीहिं पुरिसेहिं व९, तहिं य आरोवणा इणमा ॥
१. जाणे परेण (ब, ), छंद की दृष्टि से 'निवपथनगरे उजाण
परेण पाठ होना चाहिये। २. गाथायां सप्तमी पंचम्यर्थे (मव)।
य (मु)। ४. कालं (अ)। ५. x(ब)।
जोगो (अ)। ७. होति सा भवे सोधी (अ), होतिमा भवे सोधी (स)। ८. ० माइ (ब)।
होंति (अ)। १०. अंतिमट्ठाणं (अ.स)। ११. य (स)। १२. नियत्ते (अ.स)।
१३. जुय ०(ब)। १४. ततो (म)। १५. चरिम० (अ)। १६. भावतो इणमण्णाइं (अ, ब)। १७. डंडित (स)। १८. भूणके देशीपदमेतत् बालके (मव) । १९. विसण्णे भंजणा० (स) दोसु ति तृतीयार्थे सप्तमी (मवृ)। २०. पुत्ता य (ब)। २१. होइ (अ)। २२. भोतीते (अ.स) भोइए (ब)। २३. हुंति चउगुरुगा (अ, स)। २४. य (स)।
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द्वितीय उद्देशक १२६८. लहुगा य दोसु दोसु य, गुरुगा' छम्मास लहु-गुरुच्छेदो ।
निक्खियणम्मि य मूलं, जं चऽन्नं सेवते दुविधं ॥नि. २०८ ॥ १२६९. 'पुरिसे उ नालबद्धे', अणुव्वतोवासए य चउलहुगा ।
एयासुं चिय थीसुं, अनालसम्मे य चउगुरुगा ॥ १२७०. अणालदंसणित्थीसु', दिट्ठाभट्ठपुरिसे य छल्लहुगा ।
'दिट्ठ ति" पुम अदिट्ठो, मेहुणभोईय छग्गुरुगा ॥ १२७१. अदिट्ठआभट्ठासुं थीसुं संभोइ संजती छेदो ।
अमणुण्णसंजतीए, मूलं थीफाससंबंधो ॥ १२७२. अधवा वि पुव्वसंथुत, पुरिसेहिं सद्धि चउलहू होति ।
पुरसंथुतइत्थीए, पुरिसेतर दोसु वी गुरुगा ॥ १२७३. पच्छासंथुतइत्थीए, छल्लहु मेहुणिया'२ छग्गुरुगा ।
समणुण्णेतर संजति, छेदो मूलं जधाकमसो ॥ १२७४. अहव पुरसंथुतेतर, पुरिसित्थीओ य सोयवादीसु१३ ।
समणुण्णेतरसंजति; अड्डोकंतीय मूलं तु ॥ १२७५. थीविग्गह-किलिबं वा, मेधुणकम्मं च चेतणमचेतं५ ।
मूलोत्तरकोडिदुर्ग१६, परित्तऽणंतं च एमादी१७ ॥ १२७६. एतेसिं तु पदाणं, जं सेवति पावती तमारुवणं ।
अन्नं च जमावज्जे, पावति तं तत्थ तहियं ८ तु ॥ १२७७. तत्तो य पडिनियत्ते, सुहुमं परिनिव्ववेंति ९ आयरिया ।
भरित२० महातलागं, तलफलदिटुंतचरणम्मि२१ ॥ १२७८. अमिलायमल्लदामा, अणिमिसनयणा य नीरजसरीरा ।
चउरंगुलेण भूमि, न छिवंति सुरा जिणो कहति२२ ॥
१. लहुगा (स)। २. सेविए (स)। ३. सर्वत्र सप्तमी तृतीयार्थेषु पुरुषेण (मव)। ४. ० तोसावए (ब)। ५. ० णत्थिसु (ब)। ६. दिट्ठासेट्ठपु० (ब)। ७. दिट्ठिस्थि (स)। ८. अदिट्ठा सट्ठासु (ब), अदिट्ठाभट्ठासु (स) । ९. X(स)। १०. पुरि० (ब)। ११. पुरिसंतर (ब)।
१२. ० णीया (ब), मेहुणीए (म)। १३. सोयमादीसु (अ.स)। १४. अजोकं (अ)। १५. ० मईया (ब)। १६. ० दुविहं (अ)। १७. दुविधाए (सपा)। १८. तर्हि (ब)। १९. ० निव्वेवेंति (अ)। २०. वरितं (अ)। २१. उ वणम्मि (ब) उवधिम्मि (स)। २२. कधए (अ.स)।
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१२६ ]
व्यवहार भाष्य
१२७९. 'सुहुमा य कारणा' खलु, लोए एमादि उत्तरे इणमो ।
मिच्छद्दिट्ठीहि कता, किण्णु हु भेरे 'तत्थ उवसग्गा३ ॥ १२८०. अवि सिं धरति सिणेहो, पोराणो आओं निप्पिवासाए" ।
इति गारवमारुहितो, कधेति सव्वं जहावत्तं० ॥ १२८१. एवं भणितो संतो, उत्तुइओ'१ सो कधेति'२ सव्वं तु ।
जं णेण समणुभूतं, जं वा से तं कयं तेहिं ॥ १२८२. ण्हाणादीणि कताई, देह वते मज्झ बेति'३ तु अगीतो'४ ।
पुव्वं च उवस्सग्गा, किलिट्ठभावो५ अहं आसी ॥ १२८३. वेसकरणं पमाणं, न होति न य मज्जणं णऽलंकारो ।
सातिज्जितेण सेवी, अणणुमतेणं असेवी तु ॥ १२८४. जो सो विसुद्धभावो, उप्पण्णो तेण ते चरित्तप्पा६ ।
धरितो निमज्जमाणी, 'जले व नावा कुविदेण८ ॥ १२८५. जध वा महातलागं, भरितं भिज्जंतमुवरि पालीयं ।
तज्जातेण९ निरुद्धं, तक्खणपडितेण२० तालेण ॥ १२८६. एवं चरणतलाग२९, णातय उवसग्गवीचिवेगेहिं२२ ।
भिज्जंतु२३ तुमे धरियं, धिति-बलवेरग्गतालेणं२४ ॥ १२८७. पडिसेहियगमणम्मी, आवण्णो जेण तेण सो पुट्ठो ।
संघाडतिहे वोच्छो, उवधिग्गहणे ततो विवदो२५ ॥नि. २०९ ॥ १२८८. एगाह तिहे पंचाहए य ते बेंति णं सहायाणं ।
___वच्चामोऽणिच्छंते, भणंति२६ उवहिं पि२७ ता२८ देहि ॥
१.
सुकुमालका ० (अ.स), सुहम कारणा य (ब)।
३. तत्थुवस्स ० (अ.स)। ४. सिंति एतेषां (मवृ)। ५. थिरइ (अ)।
अतो (ब)। ७. ०वासाई (स)। ८. रारवमा ० (बपा)। ९. कहिति (ब), करेति (अ)। १०. जहावितं (मु)। ११. उत्तूइओ ति देशीपदमेतत् गवें वर्तते (मवृ)। १२. कधिति (अ) १३. एति (अ)। १४. गीतो (अ)। १५. किलट्ठ ० (ब)।
१६. ० तातो (अ.स)। १७. जलेण (ब)। १८. कुविंडेण (ब)। १९. तज्जामेण (स), तज्जातेनेति प्राकृतत्वात् तृतीया पंचम्यर्थे (म)। २०. पडिगेण (अ)। २१. चरित ० (अ, ब, स)। २२. ०वीति०(अ)। २३. भिज्जंतं (स)। २४. धीबल०(अ)। २५. वितातो (ब), १२८७ से १२९१ तक की पांच गाथाएं स प्रति में
नहीं हैं। २६. गणंति (अ)। २७. ति ()। २८. तो (ब)।
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[ १२७
द्वितीय उद्देशक १२८९. 'न वि देमि त्ति य भणिते", गएसु जदि सो ससंकितो सुवतिर ।
उवहम्मति निस्संके, न हम्मए अपडिबझंते ॥ १२९०. संवेगसमावन्नो, अणुवहतं घेत्तु एति तं चेव ।
अध होज्जाहि उवहतो, सो वि य जदि होज्ज गीतत्थो ॥ १२९१. तो अन्नं उप्पायंते', चोवहयं विगंचिउं६ एति” ।
अप्पडिबझंते तू, सुचिरेण वि हूँ न उवहम्मे ॥ १२९२. गंतूण तेहि कधितं, स यावि आगंतु तारिसं कहए ।
तो तं होति पमाणं, विसरिसकधणे° विवादो उ ॥ १२९३. अधवा बेंति अगीता, मज्जणमादीहि एस गिहिभूतो ।
तं 'तु न"१ होति पमाणं, सो चेव तहिं पमाणं तु१२ ॥ १२९४. पडिसेवि३ 'अपडिसेवी, एवं ४ थेराण५ होति उ विवादो६ ।
तत्थ वि होति पमाणं, स एव पडिसेवणा न खलु ॥ १२९५. मज्जण-गंधपरियारणादी१७ जह नेच्छतो अदोसा य८ ।
'अणुलोमा उवसग्गा"९ एमेव इमं पि पासामो ॥ १२९६. जध चेव य पडिलोमा, अपदुस्संतस्स होतऽदोसा य२० ।
एमेव य अणुलोमा, होति२९ असातिज्जणे अफला ॥ १२९७. साहीणभोगचाई२२, अवि महती२३ निज्जरा उ एयस्स ।
हुमो वि२४ कम्मबंधो, न होति तु नियत्तभावस्स ॥ १२९८. निक्खित्तम्मि उ लिंगे, मूलं सातिज्जणे य पहाणादी ।
दिण्णेसु य२५ होति दिसा२६ दुविधा वि वतेसु संबंधो ॥
१. जंवि देमि य भणिए (अ)। २. x(अ)। ३. अप्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। ४. १२९०,९१ ये दोनों गाथाएं अप्रति में नहीं है। ५. उप्पाएंत (ब)। ६. चिओ (ब)। ७. होइ (स)। ८. व (ब)। ९. छंद की दृष्टि से उकार दीर्घ हुआ है। १०. ० करणे (ब)। ११. तु व न (अ)। १२. सो (बपा)। १३. ० सेवी (ब)। १४. x (ब)।
१५. स्थविरैः सह गाथायां षष्टी तृतीयार्थे (मवृ)। १६. वितादो (ब)। १७. ० याणयादि (ब)। १८. उ(स)। १९. ० लोमतोव ० ()। २०. x (ब)। २१. x (अ, ब)। २२. ० भोगभागी (आ)। २३. महइं (ब)। २४. मे (ब)। २५. x (ब)। २६ .दिसाण (ब)।
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१२८ ]
व्यवहार भाष्य
१२९९. दुविहो य एगपक्खी', पव्वज्जसुते य होति नायव्वो ।
सुत्तम्मि एगवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वादी ॥नि.२१० ।। १३००. सकुलिव्वओं पव्वज्जाओ', पक्खिओ एगवायणसुतम्मि ।
अब्भुज्जयपरिकम्मे, मोहे रोगे व इत्तरिओ ॥ १३०१. दिटुंतो जध राया, सावेक्खो खलु तधेव निरवेक्खो ।
सावेक्खो जुगनरिंद, ठवेति इय गच्छुवज्झायं ॥ १३०२. गणधरपाउग्गाऽसति, पमादअट्ठावि एव कालगते ।
थेराण पगासेंति', जावऽन्नो ण ठावितो तत्थ ॥ १३०३. पव्वज्जाय कुलस्स य, गणस्स संघस्स चेव पत्तेयं ।
समयं सुतेण भंगा, कुज्जा कमसो दिसाबंधो ॥ १३०४. आणादिणो य दोसा, विराहणा होति इमेहि ठाणेहिं ।
संकितअभिणवगहणे, तस्स व दीहेण कालेण ॥नि. २११ ॥ १३०५. परिकम्मं कुणमाणो, मरणस्सऽन्भुज्जयस्स" 'व विहारो ।
मोहे रोगचिगिच्छा', 'ओहावेंते य° आयरिए११ ॥ १३०६. दुविध तिगिच्छं काऊण, आगतो संकियम्मि कं पुच्छे ।
पुच्छंति१२ व कं इतरे, गणभेदो पुच्छणा हेउं१३ ॥ १३०७. न तरति सो संधेलं, अप्पाहारो व४ पुच्छिउँ१५ देति ।
अन्नत्थ व पुच्छंते'१६, सच्चित्तादी उ गेण्हंति ॥ १३०८. सुततो अणेगपक्खिं", एते दोसा भवे ठवेंतस्स ।
पव्वज्जऽणेगपक्खिय५, ठवयंत भवे इमे दोसा ॥ १३०९. दोण्ह वि बाहिरभावो, सच्चित्तादीसु भंडणं नियमा ।
होति स९ गणस्स भेदो, सुचिरेण न एस अम्ह त्ति२० ॥ १३१०. अन्नतरतिगिच्छाए, पढमाऽसति ततियभंगमित्तिरियं'२१ ।
ततियस्सेव२२ तु असती, बितिओ 'तस्साऽसति चउत्थो'२३ ॥
१. ० पक्खा (ब)। २. ०व्वओतु (अ.स)।
इत्तिरिया (अ.स)। ० पाउन्माऽसति (आपातोग्गा ० (ब)। पगासेती (स)।
० हण (ब)। ७. मरणस्सा .(अ)। ८. ववहारो (बस)।
० वितिच्छा (ब)। १०. ओहाविते वि(स)। ११. आरिणिए (ब)। १२. पुच्छंतु (ब, स)।
१३. होउं (ब)। १४. ब्व (ब)। १५. पुच्छिउ (ब)। १६. x(ब)। १७. • पक्खं (ब)। १८. ०पक्खिं (स)। १९. x (ब)। २०. अ और स प्रति में १३०८ और १३०९ की गाथा में क्रमव्यय
२१. • भंग इत्तिरिओ (ब)। २२. पढमस्सेव (अ.स)। २३. अपुज्जतेगतरे (अ)
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द्वितीय उद्देशक
[ १२९
पगतीए मिउसहावं, पगतीए सम्मतं विणीतं वा ।
णाऊण गणस्स गुरुं, ठावेंति अणेगपक्खि पि ॥ १३१२. साधारणं तु पढमे, बितिए खेत्तम्मि ततिय सुह-दुक्खे ।
अणभिज्जते सीसे, सेसे एक्कारसविभागों ॥ १३१३. पुव्वुद्दिटुं तस्सा, पच्छुद्दिढे पवाययंतरस ।
संवच्छरम्मि पढमे, पडिच्छए. जं तु सच्चित्तं ॥ १३१४. पुव्वं पच्छुद्दिटुंः, पडिच्छए जं तु होति सच्चित्तं ।
संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स" ॥ १३१५. पुव्वं पच्छुद्दिटुं, सीसम्मि 'जं तु होति"सच्चित्तं ।
संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं गुरुस्स आभवति ॥ १३१६. पुव्बुद्दिटुं तस्सा९ पच्छुद्दिटुं पवाययंतस्स ।
संवच्छरम्मि बितिए, सीसम्मि तु 'जं व५५ सच्चित्तं ॥ १३१७. पुव्वं पच्छुद्दिटुं, सीसम्मि जं तु होति सच्चित्तं ।
संवच्छरम्मि ततिए, तं सव्वं पवाययंतस्स२ ॥ १३१८. पुव्वुद्दिटुं तस्सा, पच्छुद्दिष्टुं पवाययंतस्स'३ ।
संवच्छरम्मि पढमे, 'तं सव्वं सिस्सिणीए तु"४ ॥ १३१९. पुव्वं पच्छुद्दिटुं, सिस्सिणिए'५ जं तु होति सच्चित्तं ।
संवच्छरम्मि बितिए, तं सव्वं पवाययंतस्स६ ॥ १३२०. पुव्वं पच्छुद्दिटुं, 'पडिच्छियाए उ जं तु' सच्चितं७. ।
संवच्छरम्मि पढमे, तं सव्वं पवाययंतस्स ॥ १३२१. जम्हा एते दोसा, दुविहे उ८ अपक्खिए तु ठवितम्मि ।
तम्हा उ ठवेयव्वो, कमेणिमेणं तु आयरिओ ॥
१२. बृभा ५४१३, निभा ५५१०, यह गाथा अ और ब
हस्तप्रति में अप्राप्त है। टीका में इसकी व्याख्या उपलब्ध है । विषय वस्तु की दृष्टि से यह यहां सगत प्रतीत होती
१. वणीय (अ), वणियं (ब)। २. सिस्से (स)। ३. समे (ब), सेसेसु (अ)। ४. बृभा ५४०७, निभा ५३०३ ।
बृभा ५४०९, निभा ५५०६।
दिट्टे (अ, ब) सर्वत्र। पव्याय० (ब) यह गाथा स प्रति में नहीं है बृभा ५४१०, निभा ५५०७। होति जंतुं (स)।
आलवति (अ), बृभा ५४११, निभा ५५०८ । १०. गणस्स उ(ब)। ११. होइ (अ),नं तु (बृभा ५४१२, निभा ५५०९)।
१३. पव्वाय० (ब)। १४. सिस्सिए जंतु सच्चित्तं (ब), बृभा ५४१४, निभा ५५११ । १५. सिस्सीए (अ.स)। १६. पव्वा० (ब), ब प्रति में १३१८ एवं १३१९ की गाथा में
क्रमव्यत्यय है। १३१८ वाली गाथा पुनरुक्त हुई है, बृभा
५४१५, निभा ५५१२। १७. पडिच्छ० (, पडिच्छगा जं तु होति (बृभा ५४१६), निभा
५५१३। १८. वि (स)।
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१३० ]
व्यवहार भाष्य
१३२२. एतस्सेगदुगादी, निष्फण्णा तेसि बंधति दिसाओ ।
संपुच्छण-ओलोयण, दाणे' मिलितेण दिटुंतो ॥नि. २१२ ।। १३२३. गीतमगीतारे बहवो, गीतत्थसलक्खणा उ जे तत्थ ।
तेसिं दिसाउ दाउँ, वितरति सेसे जहरिहं तु ॥ १३२४. मूलायरि' राइणिओ', अणुसरिसो तस्स होउवज्झाओ ।
गीतमगीता सेसा, सज्झिलगा होति सीसाहा ॥ १३२५. राइणिया गीतत्था, अलद्धिया धारयंति पुवदिसं ।
अपहुव्वंत सलक्खण, केवलमेगे दिसाबंधो ॥ १३२६. सीसे य पहुव्वंतं, सव्वेसिं तेसि होति दायव्वा ।
अपहुप्पंतेसुं. पुण, केवलमेगे दिसाबंधो ॥ १३२७. अच्चितं च° जहरिहं, दिज्जति 'तेसुं च११ बहुसु गीतेसु ।
एस विधी अक्खातो, अग्गीतेसुं इमो उ विधी ॥ १३२८. अरिहं व अनिम्माउं१२, णाउं थेरा भणंति जो ठवितो ।
एतं१३ गीतं काउं, देज्जाहि दिसिं. अणुदिसिं४ वा५ ॥ १३२९. सो१६निम्माविय"ठवितो, अच्छति जदि तेण सह ठितो लद्ध९ ।
अह न वि चिट्ठति तहियं, संघाडो तो सि दायव्वो२० ॥ १३३०. पेसेति गंतुं व सयं व पुच्छे, संबंधमाणो उवधिं च देती'२९ ।
सज्झंतिया सिं च समल्लिया वि, सच्चित्तमेवं न लभे करेंतो ॥ १३३१. गोवालगदिद्रुत२२, करेंति२३ जध दोन्नि भाउगा गोवा२४ ।
रक्खंती गावीओ५, पिहप्पिहा असहिया दो वि ॥
दोण्णि (ब)। २. गीतमगीतत्था (ब)। ३. सलक्खमो (अ)। ४. माउं(अ,ब,स)। ५. यरिय (अ)।
राय० (ब)।
सीसा य (स), हकारो अलाक्षणिक: (मव)। ८. राय ०(ब)। ९. यह गाथा अ और स प्रति में नहीं है। १०. x(स)। ११. तेसि एव (अ)। १२. ०म्मायं (स)। १३. एवं (ब)।
१४. ०दिसं(आ) १५. व (अ)। १६. तं (अ)। १७. निम्म० (अ), निम्मे० (स)। । १८. सद्धि तो (स)। १९. लद्धिं (अ)। २०. ब प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
सो निम्मवियं ठवितो, पढदिसो वावि जो अपरिवारो।
कप्पसहाए दिन्ने, विप्परिणामेंति मामेरा ।। २१. देहीई (ब)। २२. गोवालदि ० (ब)। २३. करेइ (ब)। २४. गोवो (ब)। २५. गोणीउं (ब), गोणीओ (स)।
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[ १३१
द्वितीय उद्देशक १३३२. गेलण्णे एगस्स उ, दिण्णा 'गोणी उ ताहि" अन्नस्स ।
इय नाऊणं ताहे, सहिया जाया दुवग्गा वि ॥ १३३३. एवं दोण्णि वि अम्हे, पिहप्पिहा तह वि विहरिमो समयं ।
वाघाते अण्णोण्णे, सीसा व 'परं च न भयंति ॥ १३३४. असरिसपक्खिगठविते, परिहारो एस सुत्तसंबंधो ।
काऊण व तेगिच्छं, सातिज्जियआगते" सुत्तं ॥ १३३५. अहवा गणस्स अप्पत्तियं तु ठावेति होति परिहारो ।
एसो त्ति ण एसो त्ति व, ठविज्जते भंडणं सगणे१० ॥ १३३६. परिहारो वा भणितो, न तु परिहारम्मि वण्णिता मेरा ।
ववहारे वा पगते, अह ववहारो भवे१२ तेसिं१३ ॥ १३३७. कारणिगा४ मेलीणा, बहुगा परिहारिगा भवेज्जाही ।
अप्परिहारियभोगो६, परिहार न भुंजति८ वहंतो ॥ १३३८. गिम्हाणं आवण्णो, चउसु वि मासेसु देंति आयरिया ।
पुण्णम्मि मासवज्जण९ अप्पुण्णे मासियं लहुयं ॥ १३३९. पणगं पणगं मासे, वज्जेज्जति२० मास२१ छण्हमासाणं ।
न य भद्द-पंतदोसा, पुवुत्तगुणा ततो२२ वासो ॥ १३४०. वासासू बहुपाणा, बलिओ२३ कालो चिरं न२५ ठायव्वं ।
सज्झाय-संजम-तवे, धणियं अप्पा नियोतव्यो ॥ १३४१. मासस्स गोण्णणामं, परिहरणा पूतिनिव्वलणमासो ।
तत्तो२६ पमोयमासो, भुंजणवज्जण न सेसेहिं ॥
१. ० उ ताहे (ब) गोणीए ताहे (अ) । २. दुयग्गा (स)।
दोहि (स)। ४. वाघायाणं णोण्णे (अ)।
६. परतण (अ.स)। ७. साइज्जिमागते (अ.स)। ८. ठावेंतो (स), ठाविते (ब)। ९. . ज्जतू (ब)। १०. समणे (स)। ११. गणितो (स)। १२. हवे (स)। १३. तिसिं (ब)। १४. कारणगा (ब)।
१५. मेलाणे (ब)। १६. x (ब), अपरीहा० (स)। १७. ० हार (ब)। १८. भुज्जए (अ), भुज्जइ (स)। १९. मासे० (स)। २०. वज्जि ०(ब)। २१. मासो (अ)। २२. अतो (अ.स)। २३. बलिय (ब)। २४. कालि (ब)। २५. व (स)। २६. पत्तो (स)।
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१३२ ]
व्यवहार भाष्य
१३४२. दिज्जति सुहं च वीसुं, तवसोसियस्सय जं बलकरं तु ।
पुणरवि य होति जोग्गो', अचिरा दुविहस्स वि तवस्स ॥ १३४३. एसा वूढे मेरा, होति अबूढे अयं पुण विसेसो ।
सुत्तेणेव निसिद्धे, होति. अणुण्णा उ सुतेण ॥ १३.४४. किह तस्स दाउ किज्जति', चोदग ! सुत्तं तु होति कारणियं ।
सो दुब्बलो गिलायति, तस्स उवाएण देंतेवं ॥ १३४५. तवसोसियस्स मज्झो, ततो व तब्भावितो भवे अधवा ।
थेरा णाऊणेवं, वदंति भाएहि तं अज्जो० ॥ १३४६. परिमित असती अण्णो, सो वि य परिभायणम्मि कुसलो उ । उच्चूरपउरलंभे,
अगीतवामोहणनिमित्तं ॥ परिभाइयसंसढे, जो हत्थं संलिहावइ परेण ।
फुसति व कुड्डे छड्डे, अणणुण्णाए भवे लहुओ ॥ १३४८. कप्पति य विदिण्णम्मी१२, चोदगवयणं च सेसस्वस्स ।
एवं कप्पति अप्पायणं च कप्पट्टिती चेसा१३ ॥ १३४९. एवतियाणं भत्तं, करेहि दिण्णम्मि सेसयं तस्स ।
इय भोइय४ पज्जत्ते, सेसुव्वरियं च देंतस्स ॥ १३५०. दव्वप्पमाणं तु विदित्तु पुव्वं, 'थेरा सि दापंति१५ तयं पमाणं ।
जुत्ते वि सेसं भवती६ जहा उ, उच्चूरलंभे तु पकामदाणं ॥ १३५१. आदाणाऽवसाणेसु५, संपुडितो८ एस होति उद्देसो ।
एगाहिगारियाणं९, वारेति अतिप्पसंगं वा ॥ १३५२. सपडिग्गहे परपडिग्गहे, य बहि पुव पच्छ तत्थेव ।
आयरिय-सेहऽभिग्गह२९, समसंडासे अहाकप्पो२१ ॥नि. २१३ ।।
१. व (ब)। २. जुग्गो (अ)। ३. छूढे (ब)। ४. होउ (अ)।
तेणेव (अ.स)। कजति (अ.स)।
देंते व (ब)। ८. वा (अ)। ९. वयंत (अ), वदंत (स)। १०. कुज्जो (अ)। ११. उप्परप० (अ)।
१.२. व दिण्णंसि (अ.स)। १३. चेव (अस)। १४. भाइय (स)। १५. थेराण से दाएति (स)। १६. भवते (अ, स)। १७. ० ण्णादवसाणेसु (ब)। १८. संपुट्ठितो (स)। १९. एकाहिकारियाई (स)। २०. सेह पडिग्गह (स)। २१. अधुना नियुक्तिभाष्यविस्तरः (मवृ)।
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द्वितीय उद्देशक
१.
२.
३.
१३५३. कारणिय' दोन्नि थेरा, सो व गुरू अधव केई असहू । पुव्वं सयं तु गेहति, पच्छा घेत्तुं च थेराणं ॥ १३५४. जइ एस समाचारी, किमट्ठसुत्तं इमं तु आरद्धं । डिग्गतरेण व, परिहारी वेयवच्चकरे * १३५५. दुल्लभदव्वं पडुच्च व तवखेदितो समं वसति काले । चोदग ! कुव्वंति तयं, जं वुत्तमिव सुत्तम्मि ॥ नि. २१४ ॥ १३५६. पास उवरिव्व गहितं, कालस्स दवस्स वावि असतीए । पुव्वं भोत्तुं थेरा, दलंति समगं च भुंजंति ॥
इति द्वितीय उद्देशक
० णिया (अ, ब ) । अपडिग्ग० (अस) । वेज्जव० (ब) ।
४.
५.
तु मिहेव (अ), वुत्तमिमेव (स) ।
भत्तं (अ) ।
[ १३३
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तृतीय उद्देशक
१३५७. तेसिं चिय दोण्हं पी, 'सीसायरियाण पविहरंताणं" ।
इच्छेज्ज गणं वोढुं, जदि सीसोर एस संबंधो ॥ १३५८. तेसिं कारणियाणं, अन्नं देसं गता य जे सीसा ।
तेसिमागंतु कोई, गणं धरेज्जाह वा जोग्गो ॥ १३५९. थेरे अपलिच्छन्ने, अपलिच्छन्ने सयं पि चग्गहणा ।
दव्वाऽछन्नो थेरो, 'इतरो सीसो भवे दोहि ॥ १३६०. नोकारो खलु देसं, पडिसेहयती कयाइ कप्पेज्जा ।
ओसन्नम्मि उ थेरे, सो चेव परिच्छओ तस्स ॥ १३६१. भिक्खू इच्छा गणधारए, अपव्वाविते० गणो नत्थि ।
इच्छातिगस्स अट्ठा, महातलागेण ओवमं२ ॥दारं ॥नि. २१५ ।। १३६२. जो जं इच्छति'३ अत्थं, नामादी तस्स सा भवति इच्छा ।
नामम्मि ४ जं तु इच्छा, इच्छति नामं च जस्सिच्छा ॥ १३६३. एमेव होति ठवणा, निक्खिप्पति इच्छते व जं ठवणं ।
सामित्तादी५ जधसंभवं तु ‘दव्वादि . जं भणसु१६ ॥ १३६४. भावे पसत्थमपसत्थिया" य अपसत्थियं न इच्छामो ।
'इच्छामो य पसत्थं १८, नाणादीयं९ तिविधइच्छं२० ॥ १३६५. नामादि गणो चउहा, दव्वगणो खलु पुणो भवे तिविधो ।
लोइय-कुप्पावणिओ, लोगुत्तरिओ य बोधव्वो ॥नि. २१६ ॥
१. ० याणं विह ० (ब)। २. सिस्सो (अ.स)। ३. देसस्स (अ)। ४. उ(अ,स)।
सिस्सा () सर्वत्र । ते मागंतु (ब)। इयरो पुण वा भवे दोहिं (अ.स),टीका की मुद्रित पुस्तक में यह गाथा कुछ अंतर के साथ मिलती है । छंद की दृष्टि से भी यह गाथा ठीक नहीं है
थेरे अपलिच्छन्ने, सयं पिच गहणा तत्थ ।
छन्नो थेरो पुण वा, इयरो सीसो भवे दोहिं । ८. पलिच्छाओ (स)।
१०. ० विउं (ब)। ११. इट्ठा (स)। १२. ० वम्मो (अ, ब), एष नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थ: (मव) । १३. इच्छिति (ब)। १४. नामं (स)। १५. सामता०(ब)। १६. ० दिसु गणस्स (ब, स)। १७. मकारोऽलाक्षणिकः (मवृ): १८. x(ब)। १९. णाणादयं (ब)। २०. ०इच्छा (ब)।
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तृतीय उद्देशक
[ १३५
१३६६. सच्चित्तादिसमूहो, लोगम्मि गणो उ मल्लपोरादी ।
चरगादिकुप्पवयणो, लोगोत्तरओसन्नऽगीताणं ॥नि. २१७ ।। १३६७. गीतत्थ उज्जुयाणं, गीतपुरोगामिणं चऽगीताणं ।।
एसो खलु भावगणो, नाणादितिगं च जत्थत्थि ॥दारं ॥नि. २१८ ।। १३६८. भावगणेणऽहिगारो, सो उरे अपव्वाविए न संभवति ।
इच्छातियगहणं पुण, नियमणहेतुं तओ कुणति ॥नि. २१९ ॥ १३६९. 'किं नियमेति निज्जरनिमित्तं 'न उ' पूयमादिअट्ठाए ।
धारेति गणं जदि पहु, महातलागेण सामाणो ॥नि. २२० ।। १३७०. तिमि-मगरेहि न खुब्भति, जहंबुनाधो वियंभमाणेहिं ।
सोच्चिय महातलागो, पफुल्लपउमं च जं अन्नं ॥ १३७१. परवादीहि न खुब्भति, संगिण्हंतो गणं च न गिलाति ।
होती य सदाभिगमो, सत्ताण- सरोव्व पउमड्डो ॥ १३७२. एतगुणसंपउत्तो, ठाविज्जति गणहरो उ गच्छम्मि ।
पडिबोधादीएहि य जइ होति गुणेहि संजुत्तो ॥ १३७३. पडिबोहग देसिय सिरिघरे य निज्जामगे य बोधव्वे ।
तत्तो. य महागोवो, एमेता पडिवत्तिओ० ॥ १३७४. जह आलित्ते९ गेहे, कोइ पसुत्तं नरं तु बोधेज्जा ।
जरमरणादिपलिते, संसारघरम्मि तध उ जिए ॥ १३७५. बोहेति अपडिबुद्धे, 'देसियमादी वि२ जोएज्जा।
एयगुणविप्पहूणे१३, अपलिच्छन्ने य न धरेज्जा ॥नि. २२१ ॥ १३७६. दोहि वि अपलिच्छन्ने, एक्केक्केणं वऽपलिच्छन्ने४ य ।
आहरणा होति इमे, भिक्खुम्मि गणं धरंतम्मि ॥नि. २२२ ॥ १३७७. भिक्खू५ कुमार विरए'६, झामणपंती सियालरायाणो ।
वित्तत्थजुद्ध असती, दमग भतग दामगादी या८ दारं ।।नि. २२३ ।।
चौथे चरण में मात्रा अधिक होने से छंदभंग है। २. य (स)। ३. पुणो (अ.ब.स)।
णियमेण ती (स)। ५. तओ (ब)।
जहंपुनाहो (अ.स)। ७. मिलाति (स)। ८. सत्ताणु (अ)। ९. पडिबोधिक (स)।
१०. गाथा के अंतिम चरण में अनुष्टुप् छंद का प्रयोग है। ११. आदित्ते (स)। १२. दिसियमादी एव (ब)। १३. विप्पहीणे (स)। १४, अवलि० (स)। १५. भिक्ख (अ, ब)। १६. वियर (ब) वियरए (स)। १७. ०त्थसुह (स)। १८. य (अ)।
६.
जह
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१३६ ]
व्यवहार भाष्य
१३७८. बुद्धिबलपरिहीणो, कुमार पच्चंतडमरकरणं तु ।
अप्पेणेव बलेणं, गेण्हावण सासणा' रण्णा ॥ १३७९. सुत्तत्थअणुववेतो, अगीतपरिवार गमणपच्चंतर ।
परतित्थिगओभावण, सावग सेहादवण्णो उ ॥ १३८०. वणदवसत्तसमागम, विरए सीहस्स पुंछ डेवणया ।
तं दिस्स जंबुगेण वि, विरए छूढा मिगादीया ॥ १३८१. अद्धाणादिसु एवं, दुटुं सव्वत्थ एव मण्णंतो ।
भवविरयं अग्गीतो, पाडेतऽन्ने वि पवडतो ॥दारं ।। १३८२. जंबुगकूवे चंदे, सीहेणुत्तारणाय पंतीए ।
जंबुगसपंतिपडणं, एमेव अगीतगीताणं ॥दारं ।। नीलीराग खसढुम, हत्थी सरभा सियाल 'तरच्छा उ ।
बहुपरिवार अगीते, विज्जुयणोभावणपरेहिं० ॥ १३८४. सेहादी कज्जेसु व, कुलादिसमितीसु जंपउ अयं तु ।
गीतेहि विस्सुयं तो, निहोडणमपच्चतो'२ सेहे१३ ॥ १३८५. एक्केक्क एगजाती, पतिदिणसम एव कूवपडिबिंबं ।
सीहे१४ 'पुच्छण एज्जण, कूवम्मि य डेव उत्तरणं ॥दारं ॥ १३८६. एमेव जंबुगो वी, कूवे पडिबिंबमप्पणो दिस्स ।
डेवणय तत्थ मरणं, समुयारो१६ गीतऽगीताणं ॥ १३८७. एते य उदाहरणा, 'दव्वे भावे७ अपलिच्छन्नम्मि ।
दव्वेणऽपलिच्छन्ने, भावेऽपलिछण्ण होंति इमे८ ॥नि. २२४ ।। १३८८. दमगे वइया खीर घडि, खट्ट चिंता य कुक्कुडिप्पसवो ।
धणपिंडण१९ समणेरि० ऊसीसग भिंदण घडीए ॥
१. सासणे (स)।
०वच्चंतं (स)। तोभा० (अ,ब)। वियरयो नाम लघुस्रोतोरूपो जलाशयः स च षोडशहस्तविस्तारो (मवृ)। भवे वियरयमिति द्वितीया प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे (मवृ)।
पडितन्ने (आ), पडेतन्ने (ब)। ७. सीहणु ० (ब), रणीए (अ) । ८. कच्छू य (अ, स)। ९. परीवार (स)। १०. विज्जयणो० (अ)। ११. विब्बुसं (अ.स)।
१२. ०डण अप०(स)। १३. शैक्षे प्राकृतत्वात् षष्ठ्यर्थे सप्तमी एकवचने बहुवचनं (मवृ)। १४. सीधि (अ)। १५, पुच्छ कतिजणा (अ, स)। १६. समोत्तारो (स)। १७. द्रव्ये भावे च सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे (मवृ)। १८. होति इमे तइयभंगम्मि (ब) भावेण पलि० (स), भावे सप्तमी
तृतीयार्थे (म)। १९. पिण्हण (स)। २०. समणारि (आ समणेरी (स) समानेतर (म)।
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तृतीय उद्देशक
॥ दारं ॥
१३८९. पव्वावइत्ताण बहू य सिस्से', पच्छा करिस्सामि गणाहिवच्चं । इच्छाविगप्पेहि विरमाणो, सज्झायमेवं न करेति मंदो १३९०. गावीओ रक्खंतो, घेच्छं भत्तीय पड्डिया वडुंतो गोवग्गो, होहिंति य वच्छिगा तत्थ ' १३९१. 'तेसिं तु दामगाई करेमि मोरंगचूलियाओ य
तत्तो ।
11
I
एवं तु ततियभंगे, वत्थादी पिंडणमगीतो 11 १३९२. 'ताणि बहूणि' पडिलेहयंतो अद्धाणमादीसुय संवहंतो ।
o
एमेव 'वासं मतिरित्त से, वातादी खोभो य सुते य हाणी ॥ १३९३. चोंदेति न११ पिंडेति१२ य, कज्जे गेहति य जो सलद्धीओ । तस्स न दिज्जति किं गणो, भावेउ जो य१४ऽसंच्छन्नो ॥ १३९४. चोदग ! अप्पभु असती, पूयापडिसेध १५ निज्जरतलाए । सतं से अणुजाणाति, पव्वविते" तिण्णि 'इच्छा से १८ १३९५. भण्णति १९ अविगीतस्स हु, उवगरणादीहि जदि वि संपत्ती I तह विन सो० पज्जत्तो, करीलकाउव्व वोढव्वो ॥ १३९६. न य जाणति वेणइयं २१ कारावेडं न 'यावि कुव्वंति२२ । ततियस्स परिभवेणं, सुत्तत्थेसुं२३ अपडिबद्धा ॥
५.
६.
१३९७. बियभंगे२४ पडिसेहो, जं पुच्छसि तत्थ कारणं सुणसु २५ जइ से २६ होज्ज धरेज्जं तदभावे किण्णु धारेउं ॥ १३९८. तं पिय हु दव्वसंगहपरिहीणं २७ परिहरति संगहरिते य सगलं, गणधारित्तं २८ कहं होति ? ॥
सेहादी ।
सीसे (अ) ।
१.
२.
० मेव (ब) ।
३. फड्डिया (ब) ।
४.
दोहिति (स) ।
तस्स (ब)।
होहिंति (ब)।
७.
या (ब)।
६८.
ताई बहूहिं (ब)।
९. वायं मत्तिरित्त संगो ( अ, स) ।
१०. हासं (ब)।
११. य (अ)।
१२. पिंडइ (ब) ।
१३. भावेण उ (अ)।
१४. उ (अ) ।
१५.
० सेहा (अ, स) ।
१६.
संतं (अ) ।
१७. पव्वाविते (अ) ।
१८. इच्छामि (ब)।
१९. भणति (स) ।
२०. गाथायां तृतीया षष्ठ्यर्थे (मवृ)।
२१. विणयशब्दस्य पुंस्त्वेऽपि प्रत्यये समानीते नपुंसकलिंगता (मवृ) ।
२५. जाणसि (ब)।
२६. सो (अ) ।
॥ नि. २२५ ॥
२२. या विगुव्वंति (अ) ।
२३. सूत्रार्थाभ्यां गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
२४. बितिए (अ) बितिय भंगे (स) ।
२७. ० संगहुप० । २८. गणधीरितं (ब) ।
[ १३७
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१३८ ]
व्यवहार भाष्य
१३९९. 'आहारवत्थादिसु लद्धिजुत्तं", आदेज्जवक्कं च अहीणदेहं ।
सक्कारभज्जम्मि इमम्मि लोए, पूयंति सेहा य पिहुज्जणाय ॥दारं ।। १४००. पूयत्थं णाम गणो, धरिज्जते एव ववसितो सुणय' ।।
आहारोवहिपूयाकारण न गणो धरेयव्वो ॥दारं ।। १४०१. कम्माण निज्जरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो ।
निज्जरहेतुववसिता, पूर्व पि च केइ इच्छंति ॥दारं ।। १४०२. गणधारिस्साहारो', उवकरणं संथवो या उक्कोसो ।
सक्कारो सीसपडिच्छगेहि गिहि-अन्नतित्थीहिं ॥ १४०३. सुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ, आगाढपण्णेसु य भावितप्पा ।
जच्चन्नितो ‘वा वि५१ विसुद्धभावो, संते गुणेवं पविकत्थयंतो ॥ १४०४. आगम्म एवं ३ बहुमाणितो हु१४, आणाथिरतं च अभावितेसु ।
विणिज्जरा वेणइयाय निच्चं, माणस्स५ भंगो वि य पुज्जयते ॥ १४०५. लोइयधम्मनिमित्तं, तडागखाणावितम्मि पदुमादी१६ ।
न वि गरहिताणि१७ भोत्तुं एमेव इमं पि पासामो दारं ॥ १४०६. संतम्मि उ केवइओ८, सिस्सगणो१९ दिज्जती ततो तस्स ।
पव्वाविते समाणे, तिण्णि जहन्नेण दिज्जति ॥ १४०७. एगो चिट्ठति पासे, सण्णा आलित्तमादि२० कज्जट्ठा ।
भिक्खादि वियार दुवे, पच्चयहेउं च दो होउं ॥ १४०८. दव्वे भावपलिच्छद२१, दव्वे तिविहो उ होति चित्तादी२२ ।
लोइय लोउत्तरिओ, दुविधो वावार जुत्तितरो ॥नि. २२६ ॥ १४०९. दो भाउगा विरिक्का, एक्को पुण तत्थ उज्जतो कम्मे ।
उचितभतिभत्तदाणं२३, अकालहीणं च परिवुड्डी२४ ॥
१. . थादि सलद्धि० (ब)। २. आगज्ज० (अ)
सक्कारहज्जम्मि (ब, मवृपा)। ४. पूइत्थं (अ)।
सुणता (अ, स)।
कारणतोऽत्र विभक्तिलोप: प्राकृतत्वात् (मवृ)। ७. य (अ),x (ब)। ८. गणं धरि० (ब)।
उ (अ, ब)। . १०. सुतेण (स)। ११. या वि (अ.स)। १२. x (अ)।
१३. एव (ब)। १४. या (अ.स)। १५. मणुव्व (स)। १६. पडुमादी ()। १७. गरधि० (अ), हियाण (ब)। १८. केवलितो (ब)। १९. सिस्सगुणो (स)। २०. अलित०(ब)। २१. पलिच्छग (अ, ब, स)। २२. चित्ताइं (ब)। २३. ०भत्तपाणं (स)। २४. ० वड्डी (ब, स)।
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तृतीय उद्देशक
१.
२.
३.
४.
६.
७.
८.
कतमकतं न वि जाणति, न य उज्जमते सयं न वावारे । भरि भत्तकालहीणे', किसी परिहाणी ॥ १४११. जो जाए लद्धीए, उववेतो तत्थ तं नियति । उवकरणसुते अत्थे, वादे कहणे गिलाणे य || १४१२. जध जध वावारयते, जधा य वावारिता न हीयंति । तध तध गणपरिवुड्डी, निज्जरवुड्डी वि एमेव ॥ १४१३. दंसण-नाण- चरित्ते, तवे य विणए य होति भावम्मि I संजोगे चभंगो, बितिए नायं वइरभूती १४१४. भरुयच्छे नहवाहण, देवी पउमावती
वइरभूती । ओरोह कव्वगायण, कोउय निव पुच्छ देविगमो ॥ १४१५. कत्थ त्ति निग्गतो सो, सयमासण एस चैव चेडिकधा । विप्परिणाममदाणं, विरूवपरिवाररहिते'
य ॥
१४.१०.
०
१४१६. मूलं खलु दव्वपलिच्छदस्स' सुंदेरमोरसबलं च 1 आकितिमतो हि नियमा, सेसा वि हवंति लद्धीओ 11 १४१७. जो सो उ पुव्वभणितो, अपभू सो उ अविसेसितो तहियं । सो चेव विसेसिज्जति, इह सुत्ते य अत्थे य
१४१८. अबहुस्सुतऽ गीतत्थे, 'दिट्ठता
० हीणं (अ) ।
वाय (अ) वादी (ब)।
1
सप्पसीसवेज्जसुते१० अत्थविहूण धरेंते, मासा चत्तारि भारियया ११
11
१४१९. अबहुस्सुते अगीतत्थे, निसिरए वावि धारए व गणं 1 तद्देवसियं 'तस्स उ१२ मासा चत्तारि भारियया १३ 11
१४२०. सत्तरत्तं तवो होति ४ ततो छेदो छेदेणऽछिन्नपरियार, ततो मूलं ततो
भावे य होति
१४२१. जो सो चउत्थभंगो १६, दव्वे गणधारणम्मि अरिहो,
सो
सुद्धो
या (ब) ।
हावेंति (अ, ब) ।
भूमि (ब), वतिरभूई (अ)।
नरवाहणे (ब)।
वरभूमी (ब)।
विरुयपरिहार० (अ), विरुयपरिवार० (स) ।
॥ नि. २२७ ॥
पधावती 1
दुगं९५ ॥ संच्छण्णो 1
होति नायव्वो ॥नि. २२८ ॥
१२. तस्सा (बृभा) ।
१३. भारीता (अ, स), बृभा ७०३ ।
11
९.
० पलिच्छगस्स (ब, स) ।
१०. ससप्पे तहा होति वेज्जपुत्ते य (ब) ।
११. हारीता (अ) ।
१४. होही (अ) होती (ब)।
१५. बृभा ७०५ निभा ५५८६ ।
१६. चउत्थं० (ब) ।
[ १३९
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१४० ]
व्यवहार भाष्य
१४२३.
१४२२. सुद्धस्स य पारिच्छा, खुड्डय थेरे य तरुणखग्गूडे ।
दोमादिमंडलीए, सुद्धमसुद्धे ततो पुच्छा ॥दारं ।।नि. २२९ ।। उच्चफलो अह खुड्डो, सउणिच्छावो व पोसिउं दुक्खं ।
पुट्ठो वि होहिति न वा, पलिमंथो सारमंतस्सरे ॥ १४२४. पुट्ठो वासु मरिस्सति, दुराणुयत्ते न वेत्थ पडिगारो ।
सुत्तत्थपारिहाणी, थेरे बहुयं 'निरत्थं तु ॥दारं ॥ १४२५. अहियं पुच्छति ओगिण्हते बहुं किं गुणो मि रेगेणं ।
होहिति य विवद्धंतो', एसो हु ममं पडिसवत्ती ॥दारं ॥ १४२६. कोधी व निरुवगारी, फरसो सव्वस्स वामवट्टो य ।।
‘अविणीतो ति च काउं", हंतुं सत्तुं च निच्छुभती११ ॥दारं ।। १४२७. वत्थाहारादीभि य, संगिण्हऽणुवत्तए१२ य जो जुयलं ।
गाहेति अपरितंतो, गाहण 'सिक्खावए तरुणं५३ ॥दारं ॥ १४.२८. खरमउएहिऽणुवत्तति, खग्गूडं जेण पडति पासेण ।
देमो विहार विजढो, तत्थोड्डणमप्पणा कुणति ॥दारं ।। १४२९. इय सुद्धसुत्तमंडलि, दाविज्जति अत्थमंडली चेव ।
दोहिं पि असीदंते, देति५ गणं चोदए पुच्छा ॥ १४३०. चोदेति भाणिऊणं, उभयच्छन्नस्स दिज्जति गणो त्ति ।
सुत्ते य अणुण्णातं, 'भगवं! धरणं१६ पडिच्छन्ने ॥ १४३१. अरिहाऽणरिहपरिच्छं, अत्थेणं जं पुणो परूवेध७ ।
एवं होति विरोधो, सुत्तत्थाणं दुवेण्हं पि ॥ १४३२. संति हि आयरियबितिज्जगाणि सत्थाणि चोदग ! सुणेहि१८ ।
सुत्ताणुण्णातो वि हु, होति कदाई अणरिहो तु ॥
२.
३.
४.
वि (अ), वा (ब)। सारवंत० (अ)। ० णुवत्ते (स)।
चेत्थ (अ). निरत्थए (ब)। अधितं (अ)। विवढेंतो (ब)। वाम अट्टो (अ, ब,स)। अग्विणीतो त्ति व काउ (ब)।
१०. वत्थु (ब)। ११. निच्छहती (अ)। १२. ०अणुयत्तते (अ)। १३. सिक्खावती तरुणं (अ), सिक्खा य तरुणं च (ब)। १४. •णुयत्तति (स)। १५. देंति (अ.स)। १६. धरणं भगवं! (ब)। १७. ० वेहु (ब) ० वेहो (अ)। १८. सुणाहि (अ.स)।
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तृतीय उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१४३३. तेण परिच्छा कीरति, सुवण्णगस्सेव ताव निहसादी 1 तत्थ ' इमो दिट्ठतो, रायकुमारेहि कायव्वो १४३४. सूरे वीरे सत्तिय ववसायि थिरे चियाग-धितिमंते । बुद्धी विणीयकरणे, सीसे वि तथा परिच्छाए ॥ १४३५. निब्भय ओरस्सबली, अविसायि पुणो करेति संठाणं । न विसम्मति देती, अणिस्सितो चउहाऽणुवत्ती य १४३६. परवादी उवसग्गे, उप्पण्णे
11
सूर आवई तरति | अद्धा तेणमादि, ओरस्सबलेण संतरति ॥ १४३७. अब्भुदए वसणे वा, अखुब्भमाणो उ सत्तिओ होति । आवति कुलादिकज्जेसु, चेव ववसायवं तरति || १४३८. कायव्वमपरितंतो, काउं वि थिरो अणाणुतावी" तु । थोवा तो विदलंतो ११, चियाग य वंदणसीलो उ १४३९. उवसग्गे सोढव्वे, झाए१२ किच्चेसु यावि धितिमंत । बुद्धिचक्कविणतो, अधवा गुरुमादिविणितो १३ उ
||
वत्थ (ब) 1
सत्ती (अ, ब, स)।
० साधि (ब) ।
०साती (स)।
विसमइ (अ)।
निस्सितो (अ), ०स्सितो य (स) ।
गाथा १४३५ से १४४७ तक की गाथाएं ब प्रति में नहीं है।
१४४०. दव्वादी जं जत्थ उ, जम्मि व किच्चं तु जस्स वा जं तु । किच्चति १४ अहीणकालं जितकरण-विणीय एगट्ठा 11 १४४१. एवं जुत्तपरिच्छा, जुत्तो वेतेहि एहि उ अजोग्गो । आहारादि १५ धरेंतो, तितिणिमादीहि दोसेहिं ॥नि. २३० ॥ १४४२. बहुसुत्ते गीतत्थे, धरेति आहार- पूयणट्ठाई । तिंतिणि- चल - अणवद्विय, दुब्बलचरणा अजोग्गा उ 11 १४४३. एवं परिक्खितम्मी, पत्ते दिज्जति अपत्ति १६ पडिसेहो । दुपरिक्खितपत्ते पुण, वारिय१७ हावेंतिमा १८ मेरा ॥
तं तरति (अ) ।
दातुं (स) ।
१०.
० णुभावी (अ)।
११. विवलंतो (अ) ।
१४. कुच्चइ (अस) ।
१५.
१६. अपत्ते (स) ।
१२. साए (अ)।
१३. ० विणओ (स), छंद की दृष्टि से इकार ह्रस्व हुआ है।
आधारादि (अ) ।
11
१७. चारिया (अ) ।
१८. धावेंतिमा (स) ।
II
[ १४१
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१४२ ]
व्यवहार भाष्य
१४४४. दिट्ठो व समोसरणे, अधवा थेरा तहिं तु वच्चंति ।
परिसा य घट्ठ-मट्ठा, चंदणखोडी२ खरंटणया । १४४५. इंगालदाहरे खोडी, पविसे दिट्ठा उ वाणिएणं तु ।
जा मुल्लं' आणयते, इंगालट्ठाय सा दड्डा ॥ १४४६. इय चंदणरयणनिभा, पमायतिक्खेण परसुणा भेत्तुं ।
दुविध पडिसेवि सिहिणा', ति-रयण खोडी तुमे दवा ॥ १४४७. एतेण अणरिहेहिं', अण्णे इय सूइया अणरिहा उ ।
के पुण ते इणमो ऊ, दीणादीया मुणेयव्वा० ॥ १४४८. दीणा जंगित चउरो, जातीकम्मे य सिप्पसारीरे ।
पाणा डोंबा५ किणिया २, सोवागा चेव जातीए ॥नि. २३१ ॥ १४४९. पोसग-संवर'३-नड-लंख वाह-मच्छंध-रयग-वग्गुरिया ।
पडगारा य परीसह, सिप्प-सरीरे य वोच्छामि ॥ १४५०. हत्थे५ पादे कण्णे, नासे उद्धेहि१६ वज्जियं७ जाणे ।
वामणग मडभर८ कोढिय, काणा तध पंगुला चेव ॥ १४५१. दिक्खेउं पि न कप्पति, जुंगिता कारणे वि९ अदोसा वा ।
अण्णायदिक्खिते वा, गाउं न करेंति आयरिए ॥ १४५२. पच्छा वि होति विकला२९, आयरियत्तं न कप्पती तेसिं ।
सीसो ठावेतव्वो२९, काणगमहिसो व निण्णम्मि२२ ॥ १४५३. गणि अगणी वा गीतो, जो व अगीतो विश् आगितीमंतो ।
लोगे स पगासिज्जति, हावेंति२४ न किच्चमियरस्स२५ ॥दारं ॥ १४५४. 'एते दोसविमुक्का'२६, वि अणरिहा होंतिमे तु अण्णे२७ वि ।
अच्चाबाधादीया, तेसि विभागो उ कायव्वो ॥नि. २३२ ।।
७.
वि(अ)। २. ०खोरी (अ)। ३. डाह (स)। ४. वाणितेवं (अ)
मूलं (अ.स)। ६. ता (स)।
सिहिण (अ)। ८. x(अ)।
अणरिसेणं (स)। १०. अप्रति में इसका एक चरण ही मिलता है। ११. डेंबा (ब)। १२. किरिया (ब,स)। १३. संपय (स)। १४. पग्गह (ब)।
१५. हस्ते सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे (म)। १६. उहिहिं (ब)। १७. वज्जिओ (अ)। १८. वडभ (स)। १९. व (ब)। २०. विकलया (ब)। २१. ठावे तत्थ (अ)। २२. निसणम्मि (ब)। २३. व (ब)। २४. ठावेंति (अ.स)। २५. ० मियरे उ(अ, ब, स)। २६. एतद्दो० (मु)। २७. अन्नि (ब)।
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[ १४३
तृतीय उद्देशक १४५५. अच्चाबाध अचायते, नेच्छती अप्पचिंतए ।
एगपुरिसे कहं निंदू, कागबंझा कधं भवे? ॥नि. २३३ ॥ १४५६. अच्चाबाहो बाधं, मन्नति बितिओ धरेउमसमत्थो ।
ततिओ न चेव इच्छति, तिण्णि वि एते अणरिहा उ ॥दारं ।। १४५७. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिस्सं ति अत्तचिंतो उ ।
जो वा गणे वसंतो, न वहति तत्ती उ अन्नेसि ॥दारं ॥ १४५८. एवं मग्गति सिस्स', पणढे मरंति' विद्धसंते वा ।
सत्तमयस्स वि एवं, नवरं पुण ठायते एगो ॥दारं ।। १४५९. 'अधवा इमे अणरिहा', देसाणं दरिसणं करेंताणं० ।
जे पव्वावित तेणं, थेरादि पयच्छति गुरूणं ॥नि. २३४ ।। १४६०. थेरे अणरिहे सीसे, खग्गूडे१२ एगलंभिए ।
उक्खेवग इत्तिरिए, पंथे३ कालगते 'ति या१४ ॥नि. २३५ ॥ १४६१. थेरा उ अतिमहल्ला३५, अणरिहा उ काण-कुंटमादीया ।।
खग्गूडा य अवस्सा, एगालंभी पधाणो उ ॥दारं ॥ १४६२. तं एगं न वि देती, अवसेसे देति सो६ गुरूणं तु ।
अधवा वि एगदव्वं, लभंति ते देति तु गुरूणं ॥ १४६३. उक्लेवेणं दो तिन्नि, व उवणेति सेसमप्पणो गिण्हे ।
आयरियाणित्तिरियं, बंधति दिसमप्पणो ८ व कई९ ॥ १४६४. पंथम्मि य कालगता, पडिभग्गा वावि तुम्ह२१ जे सीसा ।
एते सव्वअणरिहा, तप्पडिवक्खा भवे अरिहा ॥दारं ।। १४६५. एसा गीते मेरा, इमा उ अपरिग्गहाणऽगीताणं२२ ।
गीतत्थ-पमादीण व, अपरिग्गहसंजतीणं च२३ ॥दारं ॥
१. चिंतइए (अ)। २. अ प्रति में १४४७ के बाद यह गाथा मिलती है। ३. ०3 अस० (स)। ४. वि संतो (अ, ब,स)। ५. सीसं (अ.स)।
पण छट्टे (अ, स), पणट्टि (ब)। ७. मरंत (अ)। ८. अधव इमे ऽणरिहा ऊ (अ, ब)। ९. देसणं (अ)। १०. करेंतेणं (स)। ११. सिस्से (अ.स)। १२. खग्गडे (आ)।
१३. x (ब)। १४. तिय (ब), विय (स)। १५. अवि मह० (स)। १६. जे (मु)। १७. सेस अप्पणा (अ.स)। १८ दिस अप्पणा (अ, स)। १९. १४६१-६३ तक की तीन गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं। २०. यावि (अ)। २१. तुज्झ (अ.स)। २२. ०अगीताणं (स)। २३. वा (ब)।
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१४४ ]
व्यवहार भाष्य
१४६९.
१४६६. गीतत्थमगीतत्थे, अज्जाणं खुड्डुए उ' अन्नेसिं ।
आयरियाण सगासे, अमुयत्तणेण तु निष्फण्णो३ ॥ १४६७. सीस पडिच्छे होउं', पुव्वगते कालिए य निम्माओ ।
तस्सागयस्स सगणं, किं आभव्वं इमं सुणसु ॥ १४६८. सीसो सीसो सीसो, चउत्थर्ग पि पुरिसंतरं लभति ।
हेट्ठा वि लभति तिण्णी, पुरिसजुगं सत्तहा होति ॥नि. २३६ ॥ मूलायरिए वज्जित्तु”, उवरि सगणो उ हेट्ठिमे तिन्नि ।
अप्पा य सत्तमो खलु, पुरिसजुगं सत्तधा होति ॥ १४७०. अधवा न लभति उवरिं, हेट्ठिच्चिय लभति तिण्णि तिण्णेय ।
तिण्णि तल्लाभ-परलाभ, तिण्णि दासक्खरे णातं ॥ १४७१. दुहओ वि पलिच्छन्ने, अप्पडिसेधो २ त्ति मा अतिपसंगा ।
धारेज्ज३ अणापुच्छा, गणमेसो सुत्तसंबंधो ॥ १४७२. काउं देसदरिसणं, आगतऽठवितम्मि४ उवरता५ थेरा ।
असिवादिकारणेहिं, व ठावितो'६ साधगस्सऽसती ॥ १४७३. सो कालगते तम्मि उ,. गते विदेसम्मि तत्थ व अपुच्छा ।
थेरे धारेति गणं, भावनिसटुं अणुग्घाता८ ॥ १४७४. सयमेव दिसाबंधं, अणणुण्णाते१९ करे अणापुच्छा२० ।
थेरेहि य पडिसिद्धो, सुद्धा लग्गा, उवेहंता ॥ १४७५. सगणे थेरा ण संति, तिगथेरे वा तिगं उवट्ठाति२२ ।
सव्वाऽसति इत्तिरियं२३, धारेति२४ न मेलितो जाव ॥ १४७६. जे उ अधाकप्पेणं, अणणुण्णातम्मि२५ तत्थ साहम्मी ।
विहरंति तमट्ठाए, न तेसि छेदो न परिहारो ॥
१. व (स)। २. अमुतित्त० (स)।
निम्माओ (मु, मव)। ४. होति (ब)।
आभज्ज (अ)।
चउत्था (अ)। ७. x (ब) वज्जतु (अ, स)। ८. हेट्ठिट्ठिय (ब)। ९. लब्भइ (मु)। १०. उ(ब)। ११. पलिछन्ने (ब)। १२. अपडि० (अ)। १३. वारेज्ज (ब)।
१४. ० अट्ठवितम्मि (अ, स)। १५. उवगया (ब)। १६. ण ठवितो (स)। १७. विदेसं व (स)। १८. पणुग्घाता (अ), पुणग्याता (ब)। १९. अणणुवन्ने (ब)। २०. यणा ० (अ)। २१. सती (स)। २२. दुवठाति (अ)। २३. इत्तरियं (स)। २४. धारति (ब)। २५. अणुण्णायम्मि (ब, अ)।
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तृतीय उद्देशक
१४७७. भावपलिच्छायस्स उ परिमाणट्ठाय होतिमं सुतचरणे उ पमाणं, सेसा य हवंति जा १४७८. एक्कारसंगसुत्तत्थधारया बहुसुत- बहुआगमिया, १४७९. एतग्गुणोववेता, सुतनिघसा णायगा आयरिय-उवज्झाए, पवत्ति
सुत्तत्थविसारदा
थेरा
६.
७.
८.
९.
महाणस्स I
अण्णा ॥
१४८०. आचारकुसल संजम पवयण पण्णत्ति अक्खुय असबलऽभिन्न
संगहोवगहे । संकिलिट्ठायारसंपणे
१४८१. अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरणमविभत्ती । नियोगपूजा जधाकमसो ॥ दारं ॥नि. २३८ ॥
-
१४८४. अब्भासकरण धम्मुज्जुयाण
पडरूवजोग जह पेढियाय जुंजण १४८५. पूयं जधाणुरूवं, गुरुमादीणं करेति १२ ल्हादीजणणमफरुसं, अणवलया
१.
महाजनस्य (मवृ)।
२.
अणुण्णुता (अ)।
३. संगहो गहितो (अ, ब, स) ।
४.
५.
-
पडिरूवजोगजुंजण,
१४८२. अफरुस - अणवल' - अचवलमकुक्कुयमदंभगोमसी भरगा ।
सहित- समाहित-उवहित- गुणनिधि आयारकुसल उ ॥ दारं ॥ २३९ ॥ १४८३. अब्भुट्ठाणं गुरुमादी', आसणदाणं च होति तस्सेव 1 गोसे व य आयरिए संदिसहे किं करोमि त्ति ॥ अविभत्तसीसपाडिच्छे । करेति ११ धुवं कमसो उ
॥ दारं ॥
कुडतं
१४८६. अचवलथिरस्स भावो, अप्फंदणया३ य होति १४ अकुयत्तं उल्लावलालसीभर, सहिता काले
नाणादी १५
१४८७. सम्म आहितभावो, समाहितो उवहितो १६ नाणादीणं 'तु ठितो १७, गुणनिहि जो
०बलाऽभिन्न (ब) ० असबल अभिन्न (स) ।
अणवल ति अत्र प्राकृत्वात् यकारलोपः तेन अवलया इति द्रष्टव्यं
(मवृ)।
०मकक्कुय ० (अ) ।
मायार० (स) ।
गुरुमादियाण (बस) 1
सेवं (बस) ।
सुतं ।
लद्धी ॥
१४८८. आयारकुसल एसो, संजमकुसलं अतो उ वोच्छामि । सत्तर से जो
पुढवादिसंजमम्मी,
।
धीरा ॥
१०.
११.
भुंजण (स)।
करेमि (अ) ।
समीवम्मि 1
आगर गुणाणं ॥
॥ नि. २३७ ॥
1
॥ दारं ॥
।
भवे कुसलो ॥ नि. २४० ॥
१६. उयहितो (ब), समहितो (स)
१७. तुट्ठेतो (ब) ।
॥दारं ॥
१२. करेह (मु) ।
१३.
अकंडणता (स) ।
१४.
होंति (अ, ब ) ।
१५. अ और स प्रति में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार हैउल्लावेंतेण णिति उ, सीभरा सहिय णाणादी ।
[ १४५
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१४६ ]
व्यवहार भाष्य
१४८८/१. पुढवि-दग-अगणि मारुय-वणस्स-बि-ति-चउ-पणिदि-अज्जीवो ।
पेहुप्पेह-पमज्जण, परिठवण मणो वई काए' ॥ १४८९. अधवा गहणे निसिरण, एसण-सेज्जा-निसेज्ज -उवधी य ।
आहारे वि' य सतिमं', पसत्थजोगे य जुंजणया ॥दारं ॥नि. २४१ ॥ १४९०. इंदिय-कसायनिग्गह, पिहितासव 'जोग झाणमल्लीणो ।
संजमकुसलगुणनिधी, तिविधकरण भाव सुविसुद्धो ॥दारं ॥नि. २४२ ॥ १४९१. गेण्हति पडिलेहेङ, पमज्जिङ तह य निसिरए यावि ।
उवउत्तो एसणाएँ, सेज्ज-निसेज्जोवहाहारे ॥ १४९२. "एतेसुं सव्वेसुं, जो ति ण पम्हुस्सते तु सो सतिमं ।
सृजति पसत्थमेव तु, मण-भासा-काय-जोगं तु ॥ १४९३. सोतिंदियादियाण निग्गहणं चेव तह कसायाणं ।
पाणातिवाइयाणं, संवरणं आसवाणं च ॥ १४९४. झाणेऽपसत्थ एयं, पसत्थझाणे य जोगमल्लीणो ।
संजमकुसलो एसो, सुविसुद्धो तिविधकरणेणं दारं ॥ १४९५. सुत्तत्थहेतुकारण,
वागरणसमिद्धचित्तसुतधारी ।। पोराणदुद्धरधरो", सुतरयणनिधाणमिव पुण्णो ॥नि. २४३ ।। १४९६. धारिय-गुणिय समीहिय, निज्जवणा विउलवायणसमिद्धो ।।
पवयणकुसलगुणनिधी, पवयणऽहियनिग्गहसमत्थो२ ॥नि. २४४ ।। १४९७. नयभंगाउलयाए, दुद्धर इव सद्दो होति ओवम्मे३ ।
धारियमविप्पणटुं, गुणितं परिवत्तियं५ बहुसो ॥ १४९८. पुव्वावरबंधेणं'६, समीहितं वाइयं तु निजवितं ।
बहुविधवायणकुसलो, पवयणअहिए य निग्गिण्हे ॥ १४९९. लोगे वेदे समए, तिवग्गसुत्तत्थगहितपेयालो ।
धम्मत्थ-काम-मीसग, कधासु कहवित्थरसमत्थो ॥नि. २४५ ॥
यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में नहीं है । टीकाकार ने सत्तरह संयम के प्रसंग में इस गाथा को उद्धृत किया है अत: इसे भाष्य के क्रम में नहीं जोड़ा है। ति (अ)।
सत्तिमं (ब)। ४. जोग्गज्झाणमल्लीणा (स)। ५. वि(ब)।
एएसू सव्वेसू (स) ७. ० दियायाण (अ, ब)। ८. तह य (ब)।
९. पाणतिवायादौणं (स)। १०. ० धरं (स)। ११. मुणिय (ब)। १२. निग्गमस० (स, मवृपा), . निग्गह पसत्थो ()। १३. ओधम्मे (स)। १४. धारिय ण विप्प० (अ.स)। १५. परियत्तियं (मु)। १६. ०बंधिणं (अ)। १७. कधा वि (ब)।
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तृतीय उद्देशक
[ १४७
१५००. जीवाजीवा' बंध, मोक्खं गतिरागतिं सुहं दुक्खं२ ।
पण्णत्तीकुसलविदूरे, परवादिकुदंसणे महणो ॥नि. २४६ ॥ १५०१. पण्णत्तीकुसलो खलु, जह खुड्डुगणी मुरुंडराईणं ।
पुट्ठो कध न वि देवा, गतं पि कालं न याणंति ॥ १५०२. तो उछितो गणधरो, राया वि य उट्ठितो ससंभंतो ।
अध खीरासवलद्धी, कधेति सो खुड्डगगणी उ ॥ १५०३. जाहे य पहरमेत्तं', कधियं न य मुणति कालमध राया ।
तो बेति खुड्डगगणी, रायाणं एव जाणाहि ॥दारं ॥ १५०४. जध उट्ठितेण वि तुमे, न वि णातो एत्तिओ इमो कालो ।
इय गीत-वादियविमोहिया उ देवा न जाणंति१ ॥ १५०५. अब्भुवगतं च रण्णा, कधणाए'२ एरिसो भवे कुसलो ।
ससमयपरूवणाए, महेति सो कुसमए'३ चेव ॥दारं ।। १५०६. दव्वे भावे संगह, दव्वे तू उक्ख'४ हारमादी५ तु ।
साहिल्लादी१६ भावे, परूवणा तस्सिमा होति ॥नि. २४७ ॥ १५०७. साहिल्ल७ वयण-वायण-अणुभासण-देस-कालसंसरणं१८ ।
अणुकंपणमणुसासण९, पूयणमब्भंतरं करणं ॥दारं ॥नि. २४८ ।। १५०८. संभुंजण संभोगे, भत्तोवधिअन्नमन्नसंवासो२० ।।
संगहकुसलगुणनिधी२९, अणुकरणकरावणनिसग्गो२२ ॥दारं ॥नि. २४९ ।। १५०९. वयणे तु अभिग्गहियस्स, केणती तस्स उत्तरं भणति ।
वायणाए२३ किलते उ, गुरुम्मी वायणं देती ॥ १५१०. साधूणं अणुभासति, आयरिएणं तु भासिते संते ।
सारेताऽऽयरियाणं२४, देसे काले गिलाणादी ॥दारं ॥
१. जीवं (स)। २. x(अ)।
विहु (अ)। ४. ०दसणु (ब)। ५. ०रायाणं (अ.स)। ६. गणिवरो (अ, ब, स)। ७. कधिते (अ.स)। ८. ०मेत्थं (स)। ९. काल अध (आ) १०. दुट्टितेण (अ.स)। ११. याणति (ब)। १२. कधणे (ब)। १३. कुम्मए (अ)।
१४. उक्खु (अ)। १५. भार० (स), आहारादिकश्च (मवृ)। १६. सादिल्लादी (स)। १७. साहिज्ज (मु)। १८. ०संवरणं (ब)। १९. ०मणुभासण (अ),०अणु ० (अ)। २०. ०संवाहो (ब, स)। २१. निदी (अ)। २२. ०करणं करा० (ब) कारा० (स)। २.३. वायणयाए (स)। २४. सायणायरियणं (ब)।
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१४८
]
व्यवहार भाष्य
१५११. दुक्खत्ते अणुकंपा, अणुसासण भज्जमाणरुटे वा ।
जो वा जहुत्तकारी, अणुसासणकिच्चमेतं तु ॥दारं । १५१२. 'पूयण अधागुरूणं', अभंतर दोण्ह उल्लवेंताणं ।
'ततियं कुणती'३ बहिया, बेति गुरूणं च तं इठ्ठो ॥दारं ।। १५१३. संभुंजण संभोगेण, भुज्जते जस्स कारगं भत्तं ।
तं घेत्तुमप्पणागं, देती एमेव उवहिं पि ॥दारं ॥ १५१४. अणुकरणं 'सिव्वण लेवणादि', अणुभासणा तु दुम्मेधो ।
एरिस तस्स निसग्गो, जं भणियं एरिससभावो ॥दारं ॥ १५१५. 'बाला सहु' वुड्डेसुं, संत तवकिलंतवेयणातंके ।
सेज्ज - निसेज्जोवधि - पाणमसण - भेसज्जुवग्गहिते. नि. २५० ।। १५१६. दाण-दवावण-कारावणेसु, करणे य कतमणुण्णाए१० ।
उवहितमणुवहितविधी, जाणाहि उवग्गहं एयं ॥नि. २५१ ।। १५१७. बालादीणं तेसिं, सेज्जनिसेज्जोवधिप्पदाणेहिं ।
भत्तऽन्नपाण-भेसजमादीहि उवग्गहं कुणति ॥ १५१८. देति सयं दावेति य, करेति११ कारावए य अणुजाणे ।
उवहित जं जस्स गुरुहिं, 'दिण्णं तं"२ तस्स उवणेति ॥दारं ॥ १५१९. अणुवहितं जं तस्स उ, दिन्नं तं देति सो उ अन्नस्स ।
खमासमणेहि दिण्णं, तुब्भं ति उवग्गहो एसो ॥दारं ।। १५२०. आधाकम्मुद्देसिय, 'ठविय रइय'१३ कीय कारियच्छेज्जं ।
उब्भिण्णाऽऽहडमाले, वणीमगाऽऽजीवग निकाए ॥नि. २५२ ॥ १५२१. परिहरति असण-पाणं, सेज्जोवधिपूति-संकितं मीसं ।
अक्खुतमसबलमभिन्नऽसंकिलिट्ठमावासए जुत्तो ॥नि. २५३ ।। १५२२. ओसन्न खुयायारो, सबलायारो य होति पासत्थो ।
भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलिट्ठो उ ॥ १५२३. तिविधो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव ।
सुत्तधरवज्जियाणं, तिग-दुगपरिवड्वणा५ गच्छे ॥नि. २५४ ॥ १.
९. ०वणे य (मु)। २. समं० (स)।
१०. ०ण्णायं (स)। ३. तेसिं ति य कुणति (अ.स)।
११. करे य (मु)। ४. जुज्जते (अ.स)।
१२. दिन्नयं (अ)। भुत्तं (स)।
१३. ठवियतर (ब)। सिव्व संलेव० (स), सिव्वणुले ० (ब)।
१४. खुवायारो (ब)।
१५. ० परिकट्ठणा (अ), परिकवणा (ब)। ८. समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् सप्तमी षष्ठ्यर्थे (मव) ।
०ण महागु० (स)।
७.
बाल सह (अ)।
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तृतीय उद्देशक
[ १४९
१५२४. पुव्वं वण्णेऊणं, दीहं परियागसंघयणसद्ध ।
'दसपुवीए धीरे', मज्जाररडियः परूवणया ॥ १५.२५. पुक्खरिणी आयारे, आणयणा तेणगा' य गीतत्थे ।
'आयारम्मि उ'६ एते, आहरणा होंति नायव्वा ॥दारं ॥नि. २५५ ।। १५२६. सत्थपरिण्णा छक्कायअधिगमं पिंड उत्तरज्झाए ।
रुक्खे व वसभ गावे', जोधा सोही य पुक्खरिणी ॥दारं ॥नि. २५६ ॥ १५२७. पुक्खरिणीओ पुट्विं, जारिसया तो ण तारिसा एण्हि ।
तह वि य ता पुक्खरिणी, हवंति 'कज्जा य२ कीरंति ॥ १५२८. आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य ।
तत्तो च्चिय निज्जूढो३, 'इधाणितो एण्हि किं न भवे१४? ॥नि. २५७ ।। १५२९. तालुग्घाडिणि५-ओसावणादि, विज्जाहि तेणगा आसि ।
एण्हि ताउ'६ न संती, तधावि किं तेणगा न खलु ॥दारं ।। १५३०. पुट्विं चोद्दसपुव्वी, एण्हि जहण्णो पकप्पधारी उ ।
मज्झिमगकप्पधारी, • कह८ सो उ न होति गीतत्थो ॥दारं ॥ १५३१. पुदि सत्थपरिणा, अधीत-पढिताइ होउवट्ठवणा ।
एण्हि छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा ॥दारं ।। १५३२. बितियम्मि बंभचेरे, पंचमउद्देस९ आमगंधम्मि२० ।
सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो२१ ॥दारं ॥ १५३३. आयारस्स उ उवरिं, उत्तरायणाणि२२ आसि पुट्विं तु ।
दसवेयालिय उवरिं, इयाणि किं ते न होंति२३ उ ॥दारं ॥
१. सव्वं (अ)। २. ० वीए य धरे (ब)। ३. ०ररूवे (अ), ररूते (ब)। ४. पुप्फरणी (अ), करणी (स)।
तेणुगा (अ)।
आयरियम्मि (ब, स)। ७. जूए (अ), जूधे (स)।
जोधि (ब)। ९. उ(ब)। १०. तारिसिया (मु)। ११. ०रिणि (ब)। १२. कज्जाइं (म)।
१३. निज्जोढं (ब)। १४. इधाणि उ सोहि किं न भवे (ब), किं न तवे (स)। १५. ०ग्घाडणि ( तालुग्घो० (ब)। १६. तातो (अ, ब)। १७. ०पकप्प० (मु)। १८. किं (मु)। १९. पंचमुद्देस (ब)। २०. ० गंधिम्मि (अ, स)। २१. एओ (स)। २२. ज्झयणा उ(ब)। २३. होता (ब)।
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१५० ]
५.
६.
॥ दारं ॥
।
॥ दारं ॥
तु
तु
1
१५३४. 'मत्तंगादी तरुवर ", न संति एहि न होंति किं रुक्खा 1 महजूाहिव दप्पिय, पुव्विं वसभाण 'पुण एहि ३ ॥ दारं ॥ १५३५. पुव्वि कोडीबद्धा, जूहाओ नंदगोवमादीणं । एहि न संति ताई, किं जूहाई' न होंती १५३६. साहस्सी मल्ला खलु महपाणा पुव्वि आसि जोहाओ ते 'तुल्ला नत्थेहि", किं ते जोधा न होंती उ १५३७. पुव्वि छम्मासेहिं परिहारेणं व आसि सोधी सुद्धतवेणं निव्वितियादी एहि वि सोधी १५३८. किध१० पुण एवं सोधी, जह पुव्विल्लासु पच्छिमासुं च पुक्खरिणीसुं११ वत्थादियाणि सुज्झति तथ सोधी १५३९. एवं आयरियादी चोद्दसपुव्वादि यासि पुव्विं तु एहि १२ जुगाणुरूवा, आयरिया होंति नायव्वा १३ 11 १५४०. तिवरिसएगट्ठाण १४, दोन्नि १५ य ठाणा 3 पंचवरिसस्स । सव्वाणि विकिट्टो १६ पुण, वोढुं वा एति ठाणाई ॥ १५.४१. नोइंदिइंदियाणि य, कालेण जियाणि तस्स दीहेण १८ । कायव्वेसु 'बहूसु य ९९, अप्पा खलु भावितो तेणं ॥ १५४२. उस्सग्गस्सऽववादो, होति विवक्खो उ णमं सुतं । नियमेण विकिट्ठो २० पुण, तस्सासी" पुव्वपरियाओं ॥ चोदेति तिवासादी २२ तद्दिवसमेव एहि २३,
।
पुव्वं वण्णेउ आयरियादीणि २४
७.
८.
१५४३.
१.
२.
२. पुन्हिं (ब)।
४.
मज्जगादी० (ब), तरुवए (अ) । ० जूधाविव (स) ।
जूहाऊ (अ), जूधातू (स) ।
जूहाती (ब)।
संती (ब)।
जो धत्ते (अ) ।
तुल्ल नत्थि एहिं (मु) ।
९.
च (मु) ।
१०. किं च (स) ।
११. पुक्खरणीसुं (ब)।
१२. एवं (स) 1.
१३. इस गाथा के बाद सभी हस्तप्रतियों में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है
आसन्न खुतायारो, सबलायारो य होति पासत्थों
१४. ० रिसे एगं ठाणं (मु) ।
१५. दोन्हि (अ) ।
१६. वियट्ठो ( अ, ब ) ।
दीहपरियागं । किं देह ॥
१७. जयाणि (ब) ।
१८. देहेण (अ, ब ) ।
उ
भिन्नायारकुसीलो, संसत्तो संकिलिट्ठो उ ॥
यह गाथा पुनरावृत्त हुई है । (द्र. व्यभा १५२२)
१९. य बहूसु (स) ।
२०. विकट्ठो (अ) किलिट्ठो (ब) ।
२९. तस्सीसी (ब)।
२२. तिसवासादी (ब) ।
२३. एण्हं (स) ।
२४.
।
॥ दारं ॥
० याईणं (ब), ०रियाणं (स) ।
दारं ॥
व्यवहार भाष्य
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तृतीय उद्देशक
[ १५१
१५४४. भण्णति तेहि कयाई, वेणइयाणं तु उवधिभत्तादी ।
गुरुबालासहुमादी, णेगपगारा उवग्गहिता ॥ १५४५. ताई पीतिकराइं३, असई अदुव त्ति होति थेज्जाइं ।
वेसिय' अणवेखाए, जिम्ह जढाइं तु विस्संभो ॥ १५४६. सव्वत्थअविसमत्तेण', कारगो होति सम्मुदी नियमा ।
बहुसो य विग्गहेसुं, अकासि गणसम्मुदि° सो उ ॥ १५४७. थिरपरिचियपुव्वसुतो, सरीरथामावहार'२ विजढो उ ।
पुदि विणीतकरणो, करेति सुतं सफलमेयं ॥नि. २५८ ।। किह पुण तस्स निरुद्धो, परियाओ होज्ज तद्दिवसतो उ ।
पच्छाकड१३ सावेक्खो, सण्णातीहिं४ बलाणीतो१५ ॥ १५४९. पव्वज्ज अप्पपंचम, कुमारगुरुमादि उवधि ते नयणं ।
निज्जंतस्स निकायण, पव्वइते तद्दिवसपुच्छा ॥ १५५०. पियरो व६ तावसादी, पव्वइउमणा उ ते फुरावेंति७ ।
ठविता रायादीसुं, • ठाणेसुं ते जधाकमसो ॥ १५५१. नीता वि फासुभोजी८, पोसधसालाए पोरिसीकरणं ।
धुवलोयं.९ च करेंती, लक्खणपाढे य पुच्छंती ॥ १५५२. जो तत्थऽमूढलक्खा, रितुकाले तीय एक्कमेक्कं तु ।
उप्पाएऊण सुतं, ठावित२१ ताधे पुणो एंति ॥ १५५३. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउकाम२२ थेरऽसति अन्ने ।
'तद्दिवसमागते ते २३, ठाणेसु ठवेंति तेसेवं२४ ॥ १५५४. कह दिज्जति तस्स गणो, तद्दिवसं चेव पव्वतियगस्स ।
भण्णति तम्मि य ठविते, होंती सुबहू गुणा उ इमे ॥
१. ०इयाणि (अ)। २. उवरिभ० (स)। ३. पिति (अ.स)। ४. असई (स)।
विसिय (ब)। ६. अणधिक्काए (अ)। ७. विस्संतो (अ.स)। ८. अच्चस्थ वि० (स), समत्येण (ब)। ९. कारतो (अ)। १०. ० सम्मुइयइ (ब), साम्मुती (अ, स)। ११. सुत्तो (ब)। १२. ०थामाविहार (ब)।
१३. पच्छावड (ब)। १४. सण्णातेहिं (अ)। १५. तहिं णीतो (ब)। १६. य (ब)। १७. फुराविति (ब), फुराविति ति देशीपदमेतद् अपहारयन्ति (मवृ)। १८. परुसभोजी (अ), भोइं (स)। १९. ०लोवं (स)। २०. तत्थामूढ० (स)। २१. ठवेइ (अ)। २२. पडिवज्जति काम (स)। २३. ०मागतेसु (म)। २४. ते चेव (ब), तस्सेव (मु) ।
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१५२ ]
१.
२.
३.
४.
कज्जे (स) ।
०
१५५५. साधू विसीयमाणे, अज्जा' गेलण्ण भिक्ख उवगरणे । ववहारइत्थियाए वादे य अकिंचणकरे य ॥नि. २५९ ॥ १५५६. एते गुणा भवंती, तज्जाताणं कुडुंब
॥ दारं ॥
ओहाणं पि य तेसिं, अणुलोमुवसग्गतुल्लं तुरे ॥ नि. २६० ।। १५५७. साहूणं अज्जाण य, विसीदमाणाण होति थिरकरणं 1 जदि एरिसा वि धम्मं, करेंति अम्हं किमंग पुणो १५५८. किं च भयं गोरव्वं, बहुमाणं चैव तत्थ कुव्वं गेलणोसहिमादी, सुलभं उवकरण-भत्तादी ॥ दारं ॥ १५५९. संजतिमादी गहणे, ववहारे होति' दुप्पधंसो उ
।
1
1
।
गोरवा उ वादे, हवंति अपराजिता एव ॥ दारं ॥ १५६०. पडिणीय अकिंचकरा, होंति अवत्तव्वअट्ठजाते य तज्जायदिक्खिएणं, होति विवड्डी वि य गणस्स || १५६१. अपवदितं तु निरुद्धे १२, आयरियत्तं तु पुव्वपरियाए । इमओ पुण अववादो १३, असमत्तसुयस्स तरुणस्स || १५६२. तिणी १४ जस्स य पुण्णा, वासा पुण्णेहि वा तिहि उ१५ तं तु वासेहि१६ निरुद्धेहिं, लक्खणजुत्तं पसंसंति ॥ दारं ॥ १५६३. किं अम्ह लक्खणेहिं तव-संजमसुट्ठियाण १७ समणाणं 1 गच्छविवड्ढिनिमित्तं" इच्छिज्जति १९ सो जहा कुमरो२० ॥ १५६४. बहुपुत्तओ नरवती, सामुद्दं भणति कं२९ ठवेमि दोस- गुण एगऽणेगे, सो वि य तेसिं परिकधेति २२ ॥ १५६५. निद्धूमगं च डमरं, मारी - दुब्भिक्ख-चोर-पउराइं२३ धण-धन्न-कोसहाणी, बलवति पच्चंतरायाणो
निवं
I
परिवड्ढी (अ)
च (ब)।
अवहारे (मवृ)।
होंति (अ) ।
५.
६.
वुप्प० (अ)।
७.
चेव (अस) ।
८.
अकिंच्च० (ब), अकिंचि० (स) ।
९.
या (ब) 1
१०. तज्जाति० (स) ।
११. अधवा तियं (स) । १२. निरुद्धं (मु) ।
१३. अधवातो (अ) ।
१४. तिण्णि उ (ब) ।
१५. वा (अ)।
१६. वीसेहि (स) ।
१७. ० सुत्थियाण (ब)।
१८. ० विवुट्ठिनि ० (ब)।
१९. इच्छइ (अ) ।
२०. कुमारो (ब) ।
२१. किं (ब)।
२२. परिहरेति (ब)।
२३. डमराई (अ) पउराई (ब) ।
व्यवहार भाष्य
1
॥
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[१५३
तृतीय उद्देशक १५६६. खेमं सिवं सुभिक्खं, निरुवस्सग्गं गुणेहि उववेतं ।
अभिसिंचंति कुमारं, गच्छे 'वि तयाणुरूवं" तु ॥ १५६७. 'जह ते'२ रायकुमारा, सलक्खणा जे सुहा जणवयाणं ।
संतमविरे सुतसमिद्धं, न ठवेंति गणे गुणविहणं ॥ १५६८. लक्खणजुत्तो जइ वि हु, न समिद्धो सुतेण तह वि तं ठवए ।
तस्स पुण होति देसो', असमत्तो' पकप्पणामस्स ॥ १५६९. देसो सुत्तमधीतं, न तु अत्थो अत्थतो व असमत्ती ।
सगणे अणरिहगीताऽसतीय गिण्हेज्जिमेहिंतो० ॥ १५७०. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय-सिद्धपुत्तपच्छण्णे ।
'पडिकंत अब्भुट्टिते", असती अन्नत्थर तत्थेव१३ ॥ १५७१. सगणे व परगणे वा, मणुण्ण अण्णेसि वा४ वि असतीए ।
संविग्गपक्खिएसुं, सरूवि-सिद्धेसु पढमं ति५ ॥ १५७२. मुंडं व धरेमाणे, 'सिहं च फेडंतऽणिच्छससिहे वि१६ ।
लिंगेण मसागरिए७, वंदणादीणि न हार्वेति ॥ १५७३. आहार-उवधि-सेज्जा-एसणमादीस् होति जतितव्वं ।
अणुमोदण-कारावण, सिक्ख ति पदम्मि तो सुद्धो ॥ १५७४. चोदति८ से परिवारं, अकरेमाणं भणाति९ वा सड्ढे ।
अव्वोच्छित्तिकरस्स हु, सुतभत्तीए कुणह पूयं ॥ १५७५. दुविधाऽसतीय तेसिं, आहारादी२० करेति से सव्वं ।
पणहाणीय जतंतो, अत्तट्ठाए वि२१ एमेव ॥ १५७६. आयरियाणं२२ सीसो, परियाओ वा वि अधिकितो एस ।
सीसाण केरिसाण व, ठाविज्जति सो तु आयरिओ ॥
१. तु ताणुरूविं (ब) वि तताणु ० (स)। २. जधतू (ब)। ३. संतयमि (ब)। ४. मं(अ)। ५. ठवइ (आ), ठविए (ब)।
दोसो (अ.स)। ७. ० मत्थो (अ)। ८. शं(ब)। ९. अधव उ(ब)। १०. ० जमेहिं ततो (ब), ज्जिमे अत्थं (अ, स)। ११. पडिक्कंत अन्भुठिए(ब)।
१२. अन्नस्स (अ)। १३. वत्थेव (स)। १४. या (अ)। १५. तु (स)। १६. सिहं वत्थो तेणिच्छ ससिहो वि(ब)। १७. ० मा सगा (स)। १८. चोदेति (अ), नोयइ (म)। १९. भणति (मु)। २०. ० राई (ब)। २१. x (ब)। २२. ० रियातो (अ,ब,स)।
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१५४ ]
व्यवहार भाष्य
१५७७. तेवरिसो होति नवो, आसोलसगं तु. डहरगं बेंति ।
तरुणो चत्ता सत्तरुण, मज्झिमो थेरओ सेसो ॥ १५७८. अणवस्स वि डहरगतरुणगस्स नियमेण संगहं बेति ।
एमेव तरुणमज्झे, थेरम्मि य. संगहोरे नवए ॥ १५७९. वा खलु मज्झिमथेरे, गीतमगीते य होति नायव्वं ।
उद्दिसणा उ अगीते, पुवायरिए उ गीतत्थे ॥ १५८०. नवडहरगतरुणगस्स, विधीय वीसुभियम्मि आयरिए ।
पच्छन्ने अभिसेओ, नियमा गुण संगहट्ठाए ॥नि. २६१ ॥ १५८१. आयरिए कालगते, न पगासेज्जऽट्ठविते. गणहरम्मि ।
'रण्णो ब्व" अणभिसित्ते, रज्जे खोभो तधा गच्छे ॥नि. २६२ ।। १५८२. अणाधोऽधावण° सच्छंद, खित्त - तेणे सपक्खपरपक्खे ।
लतकंपणा य तरुणोऽसारण माणावमाणे य ॥नि. २६३ ।। १५८३. जायामो अणाहो११ त्ति, अण्णहि गच्छंति केइ ओधावे२ ।
सच्छंदा३ व भमंती, केई खित्ता व होज्जाही ॥दारं ॥ १५८४. पासत्थ-गिहत्थादी५, उन्निक्खावेज्ज खुड्डगादी उ ।
लता व१६ कंपमाणा उ, केई तरुणा उ अच्छंति१७ ॥दारं ।। १५८५. आयरियपिवासाए, कालगतं सोउ 'ते वि१८ गच्छेज्जा ।
गच्छेज्ज धम्मसद्धा, व९ केइ सारेतगस्सऽसती दारं ।। १५८६. माणिता वा गुरूणं२०, थेरादी तत्थ केइ तू२१ नत्थि ।
माणं तु ततो अण्णो, अवमाणभया व गच्छेज्जा ॥ १५८७. तम्हा न पगासेज्जा२२,. कालगतं एयदोसरक्खट्ठा२३ ।
अण्णम्मि ववट्ठविते२४, ताधि पगासेज्ज कालगतं ॥
Miss
१. आसोलगं (ब)। २. सत्तरूए (ब)।
संगहो व (ब)। ० मगीयं ति (अ)। विहीउ (ब), विधी उ(स)। वीसंतियम्मि ()
संगहे ठाति (ब)। ८. ०अट्टिते (अ)। ९. रण्णा वि (अ, स)। १०...धारण (ब)। ११. अणाह (स)। १२. तोधावे (अ)। १३. अच्छंदा (ब)।
१४. भवंती (अ) भवंता (स)। १५. ० थाइ उ (अ)। १६. वा (अ,ब)। १७. गच्छंति (अ, सपा)। १८. तेसि (अ), सो वि (ब)। १९. वि (मु)। २०. गुरूणं तु (ब) गुरुभि:अत्र गाथायां षष्ठी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात्
(मवृ)। २१. उ(ब)। २२. ० सेज्ज (ब)। २३. एतद्दोस० (स)। २४. वत्थविते (अ, ब, स)।
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तृतीय उद्देशक
[ १५५
१५८८. दूरत्थम्मि वि कीरति', पुरिसे गारव-भयं सबहुमाणं ।
छंदे य अवतॄती, चोदेउं जे२ सुहं होति ॥ १५८९. मिधोकहा 'झड्डर-विड्डरेहिं', कंदप्पकिड्डा बकुसत्तणेहिं ।
पुव्वावरत्तेसु य निच्चकालं, संगिण्हते णं गणिणी साधीणा ॥ १५८९/१. जाता पितिवसा नारी, दिण्णा नारी पतिव्वसा ।
विहवा पुत्तवसा नारी, नत्थि नारी सयंवसा ॥ १५९०. जातं पिय रक्खंती, माता-पिति-सासु-देवरादिण्णं ।
पिति-भाति-पुत्त-विहवं, गुरु-गणि-गणिणी य अज्ज पि ॥ १५९१. एगाणिया अपुरिसा, सकवाडं० परघरं तु नो पविसे ।
सगणे व परगणे वा, पव्वतिया वी तिसंगहिता ॥ १५९२. आयरिय-उवज्झाया, सततं साहुस्स संगहो दुविहो ।
आयरिय-उवज्झाया, अजाण पवत्तिणी ततिया २ ॥ १५९३. 'बितियपदे सा५३ थेरी, जुण्णा गीता य४ जदि खलु भविज्जा।
आयरियादी तिण्ह •वि, असतीय न उद्दिसावेज्जा ॥ १५९४. नवतरुणो मेहुण्णं, कोई सेवेज्ज एस संबंधो ।
अव्वंभरक्खणादिव्व, संगहो एत्थ विसए व ॥ १५९५. अपरीयाए५ वि.६ गणो, दिज्जति वुत्तं ति मा अतिपसंगा ।
सेवियमपुण्णपज्जय, दाहिति गणं१८ अतो सुत्तं ॥ १५९६. दुविधो साविक्खितरो, निरवेक्खोदिण्ण१९ जातऽणापुच्छा२० ।
जोगं च अकाऊणं, जो व स वेसादि२९ सेवेज्जा ॥ १५९७. सावेक्खो उ उदिण्णो, आपुच्छ गुरुं तु सो जदि उवेहं ।
तो 'गुरुगा उ'२२ भवंती, सो व अणापुच्छ जदि गच्छे ॥
१. करइ (स)। २. जे इति पादपूरणे (म)। ३. सदूरखदूरेहिं (अ, स), वडुरमड्डुरेहिं (ब) । ४. ० विड्डा (ब), ० कीडा (स) ।
सव्वाण (ब)। इस गाथा के लिए सभी हस्तप्रतियों में 'इमा अन्नपरिवाडीए गाहा' का उल्लेख है। टीका में भी लोकेएखपि स्त्रियस्त्रिविधं संग्रहमाह' का उल्लेख है । १५९० वीं गाथा इसी की संवादी
है। इसलिए हमने इसे मूलगाथा के क्रम में नहीं रखा है। ७. देवराइन्नं (अ.स)। ८. भाइ (ब), तात (अ)।
एगाविया (स)। १०. सकव्वाड (ब)।
१२. यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है। १३. बितिए एसा (ब)। १४. उ(ब)। १५. अपरिणयाए (अ), अपवियाए (स)। १६. व (ब)। १७. सेवय ० (अ), णपुव्वय (ब)। १८. x (ब)। १९. निरवेक्खो उदिण्णं य (ब)। २०. जात अणा० (स)। २१. देसादि (स)। २२. उ गुरुगा (अ)।
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१५६ ]
व्यवहार भाष्य
१५९८. अधवा सई' दो वा वी, आयरिए पुच्छ अकडजोगी वा ।
गुरुगा तिण्णि उ वारे', तम्हा पुच्छेज्ज आयरिए ॥ १५९९. बंधे य घाते य पमारणेसु, दंडेसु अन्नेसु य दारुणेसु ।
पमत्तमत्ते पुण चित्तहेउं, लोए व पुच्छंति उ तिण्णि वारे ॥ १६००. आलोइयम्मि गुरुणा, तस्स तिगिच्छा' विधीय कायव्वा ।
निव्वीतिगमादीया, नायव्व कमेणिमेणं तु ॥नि. २६४ ॥ १६०१. 'निव्विति ओम तव वेय'६, वेयावच्चे तधेव ठाणे य ।
आहिंडणा य मंडलि, चोदगवयणं च कप्पट्ठी ॥नि. २६५ ।। १६०२. एवं पि अठायंते, अट्ठाणादेक्कमेक्क तिगवारा ।
वज्जेज्ज सचित्ते पुण, इमे उ ठाणे पयत्तेणं ॥ १६०३. सदेससिस्सिणि सज्झंतिया सिस्सिणि 'कुल-गणे" य संघे य ।
कुलकन्नगा य विधवा, वधुका य तधा सलिंगेण ॥ १६०४. लिंगम्मि उ चउभंगो, पढमे भंगम्मि होति चरमपदं ।
मूलं चउत्थभंगे, बितिए ततिए य भयणा उ११ ॥ १६०५. सलिंगेण सलिंगे, सेवते'२ चरिमं१३ तु होति बोधव्वं ।
सलिंगेणऽन्नलिंगे, देवी कुलकन्नगा५ चरिमं ॥ नवमं तु अमच्चीए, विधवीय६ कुलच्चियाय मूलं तु ।
'परलिंगे य१७ सलिंगे, सेवंते होति भयणा उ८ ॥ १६०७. सदेससिस्सिणीए९, सज्झंती कुलच्चियाएँ२० चरमं तु ।
'नवमं गणच्चियाए २९, य संघच्चियाएँ मूलं तू ॥ १६०८. परलिंगेण परम्मि उ, मूलं अहवा वि होति भयणा उ ।
एतेसिं भंगाणं, जतणं वोच्छामि सेवाए ॥ १६०९. तत्थ तिगिच्छाय विही, निव्वितीयमादियं२२ अतिक्कंते ।
उवभुत्तथैरसहितो, अट्ठाणादीसु तो पच्छा ॥
सई (स)। २. वारा (ब)। ३. पमारणे य (ब, स)। ४. वि (म)।
चिगि० (अ)। ६. निवितोम तवे वेए (अ), निव्वितीय ओम० (ब)। ७. उ(अ)। ८. कुलमण्णे (आ, कुलग गणा (ब)। ९. इ(अ)। १०. बहुगा (अ)। ११. तू (अ)।
१२. सेवेते ()। १३. चरम (ब)। १४. सलिंग अन्नलिंगे (स)। १५. कुलकन्यकां वा गाथायां विभिक्तिलोप: प्राकृतत्वात् (मवृ)। १६. विहविए (अ), विधव (ब)। १७. परलिंगेण (स)। १८. अप्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। १९. सिस्सणीए (अ)। २०. कुलिच्चि० (स)। २१. x (अ)। २२. णितियमा० (स)।
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तृतीय उद्देशक
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१६१०. अट्ठाण सद्द हत्थे, अच्चित्ततिरिक्ख भंगदोच्चेणं ।
एग-दु .-तिण्णि वारा', सुद्धस्सरे उवट्ठिते • गुरुगा ॥ १६११. एमेव गणायरिए, निक्खिवणा 'नवरि तत्थ" नाणतं ।
अयपालग-सिरिघरिए, जावज्जीवं अणरित उ ॥ १६१२. अइयातो रक्खंतो, अयवालो दट्ट 'तित्थजत्ती उ ।
कहिं वच्चह' तित्थाणि, बेति अहगं पि वच्चामि ॥ १६१३. छड्डेऊण० गतम्मी, सावज्जादीहि खइत-हित नट्ठा५ ।
पच्चागतो व दिज्जति, न लभति य भति२ न वि अयाओ१३ ॥ १६१४. एवं सिरिघरिए वी, एवं तु गणादिणो अणिक्खित्ते'५ ।
जावज्जीवं न लभति'६, तप्पत्तीयं गणं सो उ ॥ १६१५. जार तिन्नि अठायते१८, सावेक्खो वच्चते१९ उ परदेसं ।
तं चेव य ओधाणं२०, जं उज्झति दव्वलिंगं तु ॥ १६१६. एमेव बितियसुत्ते, 'बियभंगनिसेवियम्मि वि'२१ अठते ।
ताधे पुणरवि जयती२२, निव्वीतियमादिणा विधिणा ॥ १६१७. 'जदि. तह २३ वी न उवसमे, ताधे जतती चउत्थभंगेणं ।
पुव्वुत्तेणं विधिणा, निग्गमणे नवरि२४ नाणत्तं ॥ १६१८. उम्मत्तो व पलवते, गतो व५ आणेत्तु बज्झते सिढिलं ।
भावित वसभा मा णं, बंधह" नासेज्ज मा दूरं ॥
१. दारा (मु)। २. समुद्धस्स (स)।
गाथायां सप्तमी षष्ठ्यर्थे (मवृ)। ४. नवरित्थ (अ)। ५. अतिवालग (अ, ब)।
अतियारो (आ)। ७. जत्ता उ.(ब), जत्तासु (अ)।
वच्चहे (अ)। ९. अहिगं (ब)। १०. रक्खे ऊण (अ)। ११. x (अ)। १२. भत्तिं (ब)। १३. अतातो (ब)।
इस गाथा के बाद टीका की मुद्रित पुस्तक में निम्न गाथा भागा के क्रम में मिलती हैकोई भईए अजाओ, रक्खति तेण अडवीएँ आया उ।
चारयंतेण व रक्खंतेण, कप्पडियादी दिट्ठा ।। यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में नहीं है। विषयवस्तु की दृष्टि से भी यह यहां प्रासंगिक नहीं है क्योंकि कथा का सार गाथा
१६१२-१६१३ इन दो गाथाओं में आ गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि टीका के गद्य भाग को ही पद्य के रूप में लिख दिया गया है। इसीलिए छंद की दृष्टि से भी यह असंगत है। टीका की गद्य भाग की कथा 'गंगं संपट्ठिया तेण पुच्छिया', से प्रारम्भ
होती है । इसे गद्य भाग में जोड़ देने से कथा सम्पूर्ण लगती है। १४. x(अ, ब)। १५. व अक्खितो (ब)। १६. लभते (अ)। १७. जो ()। १८. अभायंते (स)। १९. पच्चते (अ)। २०. ओहावण (ब)। २१. बितिए भंगे वि सेवितम्मि उ (स)। २२. जायति (स)। २३. ततित तध (अ)। २४. x(अ)। २५. वि(अ)। २६. आणितु (ब)। २७. बंधइ (ब)।
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१५८ ]
व्यवहार भाष्य
१६१९. गुरु आपच्छ पलायण, 'पासुत्तमिगेसु अमुगदेसं ति" ।
___ मग्गण वसभाऽदिढे, भणंति मुक्का मु सेसस्स ॥ १६२०. विहरण वायण खमणे, वेयावच्चे गिहत्थधम्मकधा ।
वज्जेज्ज समोसरणं, पडिवयमाणो हितट्ठीओ६ ॥ १६२१. गंतूण अन्नदेसं, वज्जित्ता पुव्ववण्णिते देसे ।
लिंगविवेगं काउं, 'सड्ढि किढी पण्णवेत्ताणं ॥ १६२२. पण पण्णिगादि किड्डिसु१९, किंचि अदेंतो उ१२ अहव अदसादी ।
अपया य अंतो छग्गुरु, बाहि तू चउगुरु निसेगे ॥ १६२३. सपया अंतो मूलं, छेदो पुण होति बाहिरनिसेगे ।
अणुपुदि पडिसेवति, वजंत सदेसमादीओ३ ॥ १६२४. फासुयपडोयारेण, न यऽभिक्खनिसेव जाव छम्मासा ।
चउगुरु छम्मासाणं, परतो मूलं मुणेयव्वं ॥ १६२५. आगंतुं अन्नगणे, सोधि४ काऊण वूढपच्छित्तो ।
सगणे गणमुब्भामे५, दरिसेती ताधि६ अप्पाणं ॥ १६२६. बेति य लज्जाए अहं, न तरामि गंतु गुरुसमीवम्मि१७ ।
न य तत्थ जं कतं मे, निग्गमणं चेव सुमरामि ॥ १६२७. तेहि निवेदिएँ गुरुणो, गीता गंतूण आणयंति तयं ।
मिगपुरतो य८ खरंटण, वसभ निवारेंति मा भूतो ॥ १६२८. कत्थ गतो अणपुच्छा'९, साधु किलिट्ठा तुमं विमग्गंता ।
मा णं अज्जो वंदह, तिणि उ वरिसाणि दंडो२० से ॥ १६२९. तिण्डं समाण पुरतो२९, होतऽरिह२२ पुणो वि२३ निम्विकारो उ ।
जावज्जीवमणरिहा, इणमन्ने२४ तू गणादीणं ॥
१. ० मिगेऽमुगदेसम्मि (अ)। २. वसभा अदिढे (अ, स)। ३. मो (मु)।
मोसस्स (स)। वीयण (अ)।
हियट्ठाओ (ब)। ७. वज्जेतो (आ), वज्जतो (स)। ८. दोसे (ब)। ९. सन्निकढी (अ), कढी (स)। १०. पण्ण० (स)। ११. किढिसु (ब)। १२. वि (अ)।
१३. मादीतो (ब)। १४. सोहि (ब)। १५. ० सब्भामे (ब)। १६. ताहे (मु)। १७. ० समीवं तु (मु)। १८. उ (मु)। १९. अणा० (अ.स)। २०. डंडो (स)। २१. परतो (स)। २२. होतेरिहो (ब)। २३. x (ब)। २४. अणमण्णे (स)।
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तृतीय उद्देशक
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१६३०. पढमोऽनिक्खित्तगणो', बितिओ पुण होति अकडजोगि त्ति ।
ततिओ जम्म' सदेसे, चउत्थ उ विहारभूमीए ॥ १६३१. पंचम निक्खित्तगणो, कडजोगी जो भवे सदेसम्म ।
जदि सेवंति अकरणं, पंचण्ह वि' बाहिरा होति ॥ १६३२. आयरियमादियाणं, पंचण्हं जज्जियं अणरिहा उ ।
चउगुरु य सत्तरत्तादि, जाव आरोवण धरेतो ॥ १६३३. अधव अणिक्खित्तगणादिएसु चउसु पि सोलसउ भंगा ।
चरिमे० सुत्तनिवातो, जावज्जीव ऽणरिहा२ सेसा ॥ १६३४. वतअतिचारे पगते, अयमवि अण्णो य१३ तस्स अतियारो ।
इत्तिरियमपत्तं वा, वुत्तं इदमावकहियं४ तु ॥ १६३५. अधवा एगधिगारो, उद्देसो ततियओ य५ ववहारो ।
केरिसओ आयरिओ, ठाविज्जति केरिसो ‘णे त्ति१६ ॥ १६३६. __ अधवा दीवगमेतं, जध पडिसिद्धो अभिक्खमाइल्लो७ ।
सागारिसेवि एवं, अभिक्खओधाणकारी८ य ॥ १६३७. एगत - बहुत्ताणं९, सव्वेसिं 'तेसि एगजातीणं'२० ।
सुत्ताणं पिंडेणं२९, वोच्छं अत्थं समासेणं ॥ एगत्तियसुत्तेसुं, भणिएसुं किं 'पुणो बहुग्गहणं२२ ।
चोदग! सुणसू२३ इणमो, जं कारण मो२४ बहुग्गहणं ॥ १६३९. लोगम्मि सतमवज्झं, होतमदंड२५ सहस्स मा एवं२६ ।
होही२७ उत्तरियम्मि वि, सुत्ता उ कया बहुकए . वि ॥
१६३८.
१. २. ३.
अणिक्खित्त० (अ)। तस्स (ब)। जा()। सेवंती (अ)। वी (मु)। ०दिवाणं (अ) जज्जितं (अ)। व (ब)।
५.
१५. तु (स)। १६. णित्ति (अ)। १७. ०मादिल्लो (अ)। १८. ०ओहाण. (स)। १९. पुहुताणं () पुहेत्ताणं (स)। २०. तेसिमेग ० (ब)। २१. पंडणं (ब)। २२. बहु पुणोग्गहणं (अ, ब)। २३. सुणेसु (ब)। २४. मो इति पादपूरणे (मव)। २५. होइ अदंडं (अ)। २६. एयं (अ)। २७, होहिति (ब)।
१०. चरमे (म)। ११. अहरिहा (ब)। १२. अण० (स)। १३. उ(ब) व (स)। १४. इमावक ०(ब)।
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१६० ]
व्यवहार भाष्य
१६४०. कुलगणसंघप्पत्तं, 'सच्चित्तादी उ१ कारणागाढंर ।
छिद्दाणि निरिक्खंतो', मायी' तेणेव असुईओ६ ॥ १६४१. दवे भावे असुई, भावे आहारवंदणादीहिं ।
कप्पं कुणति अकप्पं, विविहेहि य रागदोसेहिं ॥नि. २६६ ॥ १६४२. दब्वे भावे असुई, दव्वम्मी विट्ठमादिलित्तो उ
पाणतिवायादीहि उ, भावम्मि उ होति असुईओ ॥ १६४३. तप्पत्तीयं तेसिं, आयरियादी न देंति जज्जीवं' ।।
के पुण ते भिक्खु इमे, अबहुस्सुतमादिणो होंति ॥ १६४४. अबहुस्सुते य ओमे, पडिसेवते१० अयतोऽप्पचिंते १ य ।
निरवेक्ख-पमत्त माई, अणरिहे जुंगिते चेवर२ ॥नि. २६७ ।। १६४५. अबहुस्सुतो पकप्पो, अणधीतोमो३ तु तिवरिसारेणं ।
निक्कारणो वि भिक्खू, कारण 'पडिसेवओ जो उ१५ ॥ १६४६. अब्भुज्जतनिच्छियओ'६ अप्पचिंतो निरवेक्खबालमादीसु ।
अन्नतरपमायजुतो, असच्चरुइ।८ होति माई तु ॥ १६४७. अवलक्खणा अणरिहा, अच्चाबाधादिया९ य जे वुत्ता ।
चउरो य जुंगिता खलु, 'अच्चंति य२० भिक्खुणो एते२१ ॥ १६४८. अधवा जो आगाढं, वंदणआहारमादि संगहितो२२ ।
कप्पं कुणति अकप्पं, विविहेहि यु रागदोसेहिं ॥ १६४९. मायी कुणति अकज्जं, को माई जो२३ भवे मुसावादी ।
को पुण मोसावादी, को असुई२४ पावसुतजीवी२५ ॥ १६५०. किह पुण कज्जमकज्जं, करेज्ज आहारमादिसंगहितो ।
जह कम्हिइ२६ नगरम्मी, उप्पण्णं संघकज्ज तु ॥
३.
३
१. ० तादीसु (ब)। २. कारणा आगाढं (ब)।
छिड्डाणि (ब, स)। ४. निरक्ख० (स)। ५. माती (अ, ब)। ६. असुतीओ (ब)। ७. विविकेहि (ब)। ८. विट्ठिमा० (ब)। ९. जज्जीयं (स)। १०. पडिसेवति (आ)। ११. आयतो०(ब),०तो अणचिंते (स)। १२. नियुक्तिकृदाह (मवृ)। १३. अधीतोमो (स)।
१४. भिक्खं (स)। १५. ० सेवी व अजतो (स)। १६. ० निच्छित्ति (अ), निच्छित्तो (अ)। १७. ० जुत्तो (ब, स)। १८. असच्चभूय (ब)। १९. ० बाहादिया (अ)। २०. अच्चंत य (ब)। २१. एंतो (ब)। २२. सग्गहिओ (ब)। २३. जे (ब)। २४. असुती (अ, ब)। २५. ०जीवा (ब)। २६. कम्हि (अ.स)।
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[१६१
तृतीय उद्देशक १६५१. बहुसुत-बहुपरिवारो, य आगतो तत्थ कोई आयरिओ ।
तेहि य नागरगेहिं, सो तु निउत्तो तु ववहारो ॥ १६५२. नाएण छिण्ण ववहार, कुल-गण-संघेण कीरति पमाणं ।
तो सेविउं३ पवत्ता, 'आहारादीहि य५ कज्जिया ॥ १६५३. तो छिंदिउं पवत्तो', निस्साए तत्थ सो उ ववहारं ।
पच्चत्थीहिं नायं, जह छिंदइ एस निस्साए ॥ १६५४. को णु हु हवेज्ज अन्नो, जो नाएणं नएज्ज१ ववहारं ।
अध अन्नयसमवाओ, घुट्ठो वा तोरे य तत्थ विदू ॥ १६५५. घुटुम्मि३ संघकज्जे, धूलीजंघो 'वि जो१४ न एज्जाही५ ।
कुल-गण-संघसमाए, लग्गति गुरुगे चउम्मासे ॥ १६५६. 'जं काहिति२६ अकज्जं, तं पावति सति बले अगच्छंतो ।
अनहि१७ ताव ओधाणमादी१८ जं कुज्ज तं पावे ॥ १६५७. तम्हा तु संघसद्दे, घुट्टे१९ गंतव्व धूलिजंघेणं ।
धूलीजंघनिमित्तं, 'ववहारो उठ्ठितो२० सम्मं ॥ १६५८. तेण य सुतं२१ जहेसो, तेल्ल-घतादीहि संगिहीतो उ ।
कज्जाइ२२ नेइ वितधं, माई२३ पावोवजीवी२४ उ ॥ १६५९. सो आगतो उ संतो, वितधं दट्ठण तत्थ ववहारं ।
समएण निवारेती२५, कीस२६ इमं कीरति अकज्जं ॥ १६६०. निद्ध-महुरं निवातं, विणीतमविजाणएसु जंपतो ।
सच्चित्तखेत्तमीसे, अत्थधर२७ निहोडणं२८ विधिणा ॥
१. X(ब)। २. ब प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। ३. सेवेउं (स)। ४. पयत्ता (अ.स) ५. दीहिं (स)। ६. गा १६५२ से १६५४ तक की तीन गाथाएं ब प्रति में नहीं है। ७. पयत्तो (अ.स)। ८. ०थीहित। ९. य णाति (स)। १०. को (अ)। ११. तु नेज्ज (अ), तु वेज्ज (स)। १२. आयो (अ.स)। १३. पुट्ठम्मि (ब)। १४. विज्जो (अ)।
१५. एज्जाहि (ब)। १६. न कहिति (मु)। १७. अण्णादी (अ)। १८ तोहाण ० (ब)। १९. पुढे (अ)। २०. उवहितो (ब)। २१. सुत्तं (अ)। २२. कज्जाइं (ब)। २३. माती (ब), माया (स)। २४. पावोविजीवी (ब)। २५. निवारिंती (ब)। २६. कीसा (ब)। २७. अट्ठ० (ब)। २८. ०हणा (अ.स)।
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१६२ ]
व्यवहार भाष्य
१६६१. एवं चेव य सुत्तं, उच्चारेउं दिसं अवहरंति ।
अप्पावराह आउट्ट, दाण इतरे३ तु जज्जीव ॥ १६६२. एवं५ ताव बहूसं, मज्झत्थेसु तु सो उ ववहरति ।
अह होज्ज बली इतरो, तो बेति तु तत्थिमं वयणं ॥ १६६३. रागेण व दोसेण व, पक्खग्गहणेण एक्कमेक्कस्स ।
कज्जम्मि कीरमाणे, किं अच्छति संघमज्झत्थो ॥ १६६४. रागेण व दोसेण व, पक्खग्गहणेण एक्कमेक्कस्स ।
कज्जम्मि कीरमाणे, अण्णो वि भणेउ० ता किंचि ॥ १६६५. बलवंतो सव्वं वा, भणाति अण्णो वि लभति को एत्थ१ ।
वोत्तुं जुत्तमजुत्तं, उदाहु न वि लब्भतेऽण्णस्स ॥ १६६६. जदि बेंती 'लब्भते वि, वोत्तु तुमं१२ जं तु जाणसी जुत्तं ।
तो अणुमाणेऊणं, बेति३ तहिं नायतो सो उ ॥ १६६७. संघो महाणुभागो, अहं च वेदेसिओ इहं भयवं ।
संघसमिति न जाणे, तं भे५ सव्वं खमावेमि ॥ १६६८. देसे देसे ठवणा'६, अण्णऽण्णा अत्थ होति समितीणं ।
गीयत्येहाइण्णा, अदेसिओ तं न जाणामि ॥ १६६९. अणुमाणेउं संघ, परिसग्गहणं करेति तो पच्छा ।
किह पुण गेण्हति परिसं, इमेणुवायेा सो कुसलो ॥ १६७०. परिसा ववहारी या, मज्झत्था रागदोसनीहूया ।
जइ१९ होंति दो वि पक्खा , ववहरिउं तो सुहं होति ॥ १६७१. ओसन्नचरणकरणे, सच्चव्ववहारया दुसद्दहिया ।
चरणकरणं जहंतो, सच्चव्यवहारयं पि जहे ॥ १६७२. जइया जेणं चत्तं, अप्पणतो नाण-दसण-चरितं ।
ताधे२० तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु ॥
१. दिसिं (ब)। २. आअट्ट (अ)। ३. इयरे उ इति सप्तमी षष्ठ्य र्थे (मव)।
जा जीव (अ), जज्जीय (स)। एयं (अ), एतं (स)। ततो (ब)।
११. अत्थ (ब)। १२. ते लब्भते ते वि तुमं (अ), लबत्ते ऊवेहि तुम (ब)। १३. बिति (ब)। १४. ० समिति (ब), समितं (अ)। १५. ते (ब)। १६. x (ब) १७. अण्णण्णा (अ)। १८. गीतार्थैराचीर्णा (मवृ)। १९. जहिं (ब)। २०. तइया (ब)।
८. पली (स)। ९. य(ब)। १०. भणाउ (अ)
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तृतीय उद्देशक
[ १६३
१६७३. भवसतसहस्सलद्धं, जिणवयणं भावतो जहंतस्स ।
जस्स न जातं दुक्खं, न तस्स दुक्खं परे दुहिते ॥ १६७४. आयारे वट्टतो, आयारपरूवणा असंकियओ' ।
आयारपरिब्भट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ ॥ १६७५. तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगुरू ।
जो न करेति पमाणं, न सो पमाणं सुतधराणं ॥ १६७६. तित्थगरे. भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगुरू ।
जो उ करेति पमाणं, सो उ पमाणं सुतधराणं ॥ .१६७७. संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं ।
रागद्दोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं ॥ १६७८. परिणामियबुद्धीए, उववेतो होति समणसंघो उ ।
कज्जे निच्छयकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो ॥ किह सुपरिच्छियकारी, एक्कसि दो तिण्णि वावि पेसविते ।
न वि उक्खिवए सहसा, को जाणति नागतो केणं ॥ १६८०. नाऊण परिभवेणं, नागच्छंते ततो उ निज्जुहणा ।
आउट्टे ववहारो, एवं सुविणिच्छकारी उ ॥ १६८१.
आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि ।
अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु. सव्वेसि ॥नि. २६८ १६८२. सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वा न सोम्गती' नेति ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ १६८३. सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वावि' एतें इहलोए ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ १६८४. सीसो पडिच्छओ वा, कुल-गण-संघो न 'सोग्गतिं नेति'८ ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ १६८५. सीसो पडिच्छओ वा, कुल-गण-संघो व एतें इधलोए ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥
१. २.
असंकेतो (अ)। सुद्धं च० (अ)।
६. निति (ब)। ७. x(ब)।
सोगति निति (ब)। ९. यह गाथा ब प्रति में नहीं है ।
४. सुविदिट्ठकारी (अ) सुगविट्ठकारी (ब)। ५. सोगती (अ)
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१६४ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
1
१६८६. सीसे कुलव्विए 'व गणव्विय" संघव्विए य समदरिसी ववहारसंथवे य सो सीतघरोवमो संघो 11 १६८७. गिहिसंघातं जहितुं, संजमसंघातगं उवगए ३ 1 णाण-चरण- संघातं, संघायंतो हवति संघो ॥
१६८८. नाण- चरणसंघातं,
रागद्दोसेहि" जो
विसंघाए ।
सो संघाते अबुहो, गिहिसंघातम्मि १६८९. नाण- चरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो सो भमिही संसारे, चउरंगंत
अप्पाणं || विसंघाते ।
अणवदग्गं ॥
य ॥
१६९०. दुक्खेण लभति बोधि, बुद्धो वि य न लभते चरितं तु । उम्मदेसा तित्थगरासायणाए १६९१. उम्मग्गदेसणाए संतस्स य छायणाय मग्गस्स I बंधति कम्मरयमलं, जरमरणमणंतकं १० घोरं ॥ १६९२. 'पंचविधं उवसंपय ११, नाऊणं खेत्तकालपव्वज्जं । तो संघमज्झयारे, aaहरियव्वं अणिस्साए ॥नि. २६९ ॥
I
१६९३. उस्सुत्त ववहरंतो, 'तु वारितो २ नेव होति ववहारो बेति१३ जदि बहुस्सुतेहि, कतो त्ति तो१४ भण्णती इणमो १६९४. तगराए नगरीए एगायरियस्स पास १५ निष्फण्णा १६ सोलस सीसा तेसिं, अव्ववहारी १७ उ अट्ठ इमे ॥ नि. २७१ ॥ मा कित्ते कंकडुकं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वाई ८ बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं १६९६. कंकडुओ विव मासो, सिद्धि ९ न उवेति जस्स" ववहारो । कुणिम" नहो व न सुज्झति, दुच्छेज्जो जस्स ववहारो ॥ दारं ॥
I
॥ नि. २७२ ।।
१६९५.
गणिव्वए य (अ), X (ब) ।
जधितुं (अ) ।
णमिति वाक्यालंकारे (मवृ) ।
संघाततो (अ) 1
० दोसेहि (अ) ।
मुद्रित टीका में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है—
अहो गिहि संघायम्म, अप्पाणं मेलितो न सो संघो ।
अउयदग्गं (ब)।
वण्णितं (ब)।
प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है।
७.
८.
९.
१०. ० मरणऽणंतयं (ब) ।
११. ० विध उवसंपया (अ) ।
१२. उवाणितो (ब) ।
१३.
बिति (अ) ।
१४. णो (अ) ।
१५. फास (अ) । १६. निसण्णा (मवृ) । १७. अत्थवव० (ब)।
१८.
चव्वाती (ब) ।
१९.
सद्धि (अ)।
२०.
२१.
तस्स (ब) ।
कुणिमा (ब)।
व्यवहार भाष्य
।
॥नि. २७० ॥
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तृतीय उद्देशक
[ १६५
१६९७. फलमिव पक्कं पडए, पक्कस्सऽहवा न गच्छते पागं ।
ववहारो तज्जोगा', ससिगुत्तसिरिव्व सन्नासे ॥दारं ।। १६९८. पक्कुल्लोव्वर भया वा, कज्जं पि न सेसया उदीरेंति ।
पाएण आहतो ति व, उत्तर सोवाहणेणं ति ॥ १६९९. रोमंथयते कज्जे, चव्वागी नीरसं च विसनेत्तं ।
कहिते कहिते कज्जे, भणाति बधिरो व न सुतं मे ॥दारं ।। मरहठ्ठलाडपुच्छा, केरिसया लाडगुंठ साधिंसु' ।
पावार, भंडिछुभणं, दसिया गणणे पुणो दाणं ॥ १७०१. गुंठाहि एवमादीहि, हरति मोहित्तु तं तु ववहारं ।
अंबफरिसेहि अंबो, न ताणि° सिद्धिं तु ववहारं ॥दारं ।। १७०२. एते अकज्जकारी, तगराए आसि तम्मि 'उ जुगम्मि'१२ ।
जेहि कता ववहारा, खोडिज्जंतऽण्णरज्जेसु ॥ १७०३. इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं ।
अणाणाय जिणिंदाण, जे ववहारं३ ववहरंति ॥ १७०४. तेण न बहुस्सुतो वी, होति पमाणं अणायकारी१४ तु ।
नाएण ववहरंतो, होति पमाणं जहा उ इमे ॥ १७०५. कित्तेहि१५ पूसमित्तं, वीरं सिवकोट्ठगं१६ व अज्जासं७ ।
अरहन्नग धम्मण्णग, खंदिल गोविंददत्तं च ॥ १७०६. एते उ कज्जकारी, तगराए आसि तम्मि उ जुगम्मि९ ।
जेहि कया ववहारा, अक्खोभा अण्णरज्जेसु ॥ १७०७. इहलोगम्मि य कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं ।
आणाएँ जिणिंदाणं, जे ववहारं ववहरंति ॥ १७०८. केरिसओ' ववहारी, आयरियस्स उ जुगप्पहाणस्स ।
जेण सगासेग्गहितं२९, परिवाडीहिं तिहि असेसं ॥नि. २७३ ।।
१. २.
वा जोगा (अ)। पक्कुल्ला व (ब)। सेसयं (अ)।
व (अ)
साहिंतु ()।
पावारे (ब)। ७. भंजि छु०(ब)। ८. गणिणे (अ, ब)। ९. फरसेहि (अ)। १०. णेति (अ, ब)। ११. सिद्धं (ब)।
१२. उज्जुगम्मि (ब)। १३. ववहारी (अ) १४. ० कारि(अ)। १५. किं तेहि (अ, ब)। १६... कोट्ठकिं (अ)। १७. अज्जासा (अ)। १८. धम्मल्लग (ब)। १९. जगम्मि (अ)। २०. केरिसितो (ब)। २१. सकासे गहियं (ब)।
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१६६ ]
व्यवहार भाष्य
१७०९. सूयपारायणं पढम, बितियं पदुब्भेदयंरे ।
तइयं च निरवसेसं, जदि सुज्झति गाहगो३ ॥नि. २७४ ।। १७१०. 'गाहगआयरिओ ऊँ, पुच्छति सो जाणि विसमठाणाणि ।
जति निव्वहती तहियं, ति' तस्स हिययं ततो सुज्झे ॥ १७११. अहवा गाहगो सीसो, तिहि परिवाडीहि जेण निस्सेसं ।
गहितं गुणितं अवधारितं च सो होति ववहारी ॥ १७१२. पारायणे समत्ते, थिरपरिवाडी पुणो उ संविग्गे ।
जो निग्गतो वितिण्णो', गुरुहिं सो होति ववहारी ॥ १७१३. पडिणीय-मंदधम्मो, जो निग्गतो अप्पणो सकम्मेहिं ।
न हु तं११ होति पमाणं, असमत्तो देसनिग्गमणे१२ ॥ १७१४. आयरियादेसऽवधारितेण अत्थेण गुणियक्खरिएण३ ।
तो संघमज्झयारे'", ववहरियव्वं अणिस्साए'५ ॥ १७१५. आयरियअणादेसा, धारिय-सच्छंदबुद्धिरइएण६ ।
सच्चित्तखेत्तमीसे, जो ववहरते१७ न सो धण्णो ॥ १७१६. सो अभिमुहेति लुद्धो, संसारकडिल्लगम्मि अप्पाणं ।
उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए य९ ॥ १७१७. उम्मग्गदेसणाए२९, संतस्स. य छायणाय मग्गस्स ।
ववहरिउमचायंते, मासा चत्तारि भारीयार ॥ १७१८. गारवरहितेण तहिं, ववहरियव्वं तु संघमज्झम्मि ।
को पुण गारव इणमो, परिवारादी२२ मुणेयव्वो ॥ १७१९. परिवार-इड्डि२३ - धम्मकहि-वादि - खमगो२४ तहेव नेमित्ती ।
विज्जा राइणियाए२५, गारवो त्ति अट्ठहा होति२६ ॥
१. मूलगपा० (अ), मूगपा० (ब)। २. पडुब्भे० (ब)। ३. गाहातो (ब)। ४. गाहगो उ आ० (अ)। ५. x (ब)।
हियउं (अ)। ७. तहिं (अ), तिहं (ब)। ८. जहिं (ब)। ९. इ(ब), वि (अ)। १०. विदिण्णे (अ)।
११. सो (ब)। .१२. होति नि० (ब)। १३. गुणिवधारितेणं (अ)।
१४. कारशब्दोऽत्र स्वरूपमात्रे संघमध्ये (मवृ)। १५. साणं (अ,ब)। १६. ० बुद्धिधारिएण स० (ब)। १७. ववहारए (ब)। १८. धण्णे (म)। १९. x (ब)। २०. x (ब)। २१. हारिया (ब)। २२. ० रादि (अ, ब)। २३. वुड्डी (ब)। २४. खमए (अ)। २५. रायणि० (अ)। २६. होति (ब)।
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तृतीय उद्देशक
[ १६७
१७२०. बहुपरिवार-महिड्डी, निक्खंतो वावि धम्मकहि' वादी ।
जदि गारवेण जंपेज्ज, अगीतोरे भण्णती इणमो ॥ १७२१. जत्थ उ परिवारेणं, पयोयणं तत्थ भण्णिहह तुज्झे ।
इड्डीमतेसु तधा, धम्मकहा' वादिकज्जे वा ॥ १७२२. पवयणकज्जे खमगो, नेमित्ती' चेव विज्जसिद्धे य ।
रायणिए वंदणगं, जहि दायव्वं तहि भणेज्जा ॥ १७२३. न हु गारवेण सक्का, ववहरिउं संघमज्झयारम्मि ।
नासेति' अगीतत्थो, अप्पाणं चेव कज्जं तु० ॥ १७२४. नासेति:१ अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोएँ सारंगं ।
नट्ठम्मि२ उ चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंगं ॥ १७२५. थिरपरिवाडीएहिं, संविग्गेहिं अणिस्सियकरहिं ।
कज्जेसु जंपियव्वं, अणुयोगियगंधहत्थीहिं ॥ १७२६. एयगुणसंपउत्तो, ववहरती संघमज्झयारम्मि ।
एयगुणविप्पमुक्के, • आसायण सुमहती होति ॥ १७२७. आगाढमुसावादी, बितिय तईए१४ य५ लोवितवते'६ तु । माई य पावजीवी, असुईलिते७ कणगदंडे ॥
इति तृतीय उद्देशक
१. धम्मिकधि (ब)। २. गीतो (अ)। ३. ० यणंत (ब)। ४. मुझे (ब)।
१०. च (ब)। ११. नासे य(ब)। १२. नेट्ठम्मि (ब)। १३. ० विष्पहूणो (अ, ब)। १४. ततिए (अ) १५. उ (ब)। १६. लोइय ० (अ)। १७. असुइलिते (ब)।
खमणा ()।
निमित्ती (अ, ब)। ८. या (अ)। ९. नासिति (ब)।
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चतुर्थ उद्देशक
१७२८. एतद्दोसविमुक्को, होति गणी भावतो पलिच्छन्नो ।
दव्वपलिच्छागस्स उ, परिमाणट्ठा इमं सुत्तं ॥ १७२९. आदिमसुत्ते दोण्णि वि, भणिया ततियस्स इह पुणं तेसिं ।
__कालविभागविसेसो, कत्थ दुवे कत्थ वा तिण्णि ॥ १७३०. पारायणे समत्ते, व निग्गतो अस्थतो भवे जोगो ।
बहुकायव्वे' गच्छे, एगेण समं बहिं ठाति ॥ १७३१. पणगो व सत्तगो वा, कालदुवे खलु जहण्णतो गच्छो ।
'बत्तीसती सहस्सो', उक्कोसो सेसओ मज्झो ॥ १७३२. उडुवासे लह लहुगा, एते गीते अगीत गुरु' गुरुगा ।
अकयसुताण बहूण वि, लहुओ लहुया वसंताणं ॥ १७३३. एवं सुत्तविरोहो, अत्थे वा उभयतो भवे दोसो ।
कारणियं पुण सुत्तं, इमे य तहिं कारणा होति ॥ १७३४. संघयणे' वाउलणा, नवमे पुव्वम्मि गमणमसिवादी ।
सागर जाते जयणा, उडुबद्धाऽऽलोयणा भणिता ॥नि. २७५ ॥ १७३५. आयरिय-उवज्झाया, संघयणा धितिय 'जे उ° उववेया ।
सुत्तं अत्थो वर बहुं, गहितो गच्छे य वाघातो ॥ १७३६. 'धम्मकहि महिड्डीए'१२, आवास-निसीहिया य आलोए ।
पडिपुच्छवादिगहणे, रोगी१३ तह४ दुल्लभं भिक्खं ॥ १७३७. वाउलणे सा भणिता, जह उद्देसम्मि पंचमे कप्पे ।
नवम 'दसमा उ१५ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा ॥दारं ॥
१. २. ३. ४.
वि (अ)। पिहु काय० (ब)। बत्तीसा य सह० (अ)। उउ० (ब) सर्वत्र। x (ब)। कारिणियं (ब)। ० यणा (अ)। .यण ()।
९. धियाय (ब) १०. ते य (अ)। ११. य (अ, ब)। १२. धम्मकहिड्डीए (ब)। १३. रोगि (अ)। १४. मह (ब)। १५. दसातो (अ)।
६. ७. ८.
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चतुर्थ उद्देश
१७३८. असिवादिकारणेणं', उम्मुगणायं ति होज्ज जा दोणि । सागरसरिसं नवमं, अतिसयनयभंगगुविलत्ता ॥ १७३९. पाहुडविज्जातिसया, निमित्तमादी सुहं च पतिरिक्के । छेदसुतमिव गुणणा', 'अगीतबहुलम्म गच्छम्मि" १७४०. कयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुतरहस्सा । जे य समत्था वोढुं कालगताणं उवहिदेहं ॥ १७४१. एय गुणसंपत्ता, कारणजातेण ते
०
१७४४.
तहेव
दुयग्गा वि I उउबद्धम्मि विहारो, एरियाणं अण्णातो ॥ दारं ॥ १७४२.. जातो य अजातो वा, दुविधो कप्पो उ होति' नायव्वो एक्केक्को वि य दुविहो, समत्तकप्पो य असमत्तो १७४३. गीतत्थो जातकप्पो, अगीतो खलु भवे पण समत्तकप्पो, दूगो अहवा जातसमत्तो, जातो' चेव 3° अज्जातो य समत्तो, अज्जातो चेव १७४५. तेसिं जयणा इणमो, भिक्खग्गह र निक्खमप्पवेसे १२ य अणवणं पिय समगं, बेंति य गिहि देज्ज ओधाणं१३ ॥ १७४६. उडुबद्धे १४ अविरहितं एतं जं तेहि १५ होति साधूहिं । कारेति कुणति व सयं, गणी वि आलोयणमभिक्खं ॥ दारं ॥ १७४७. एतेहि कारणेहिं, हेमंते घिसु अप्पबीयाणं । धितिदेहमकंपाणं१६, कप्पति वासो दुवेहं पि ॥नि. २७६ ॥ १७४८. नियमा होति असुण्णा'", वसधी नयणे" य वण्णिता दोसा 'दुस्संचर बहुपाणा १९, वासावासे वि उच्छेदो २०
|
।
11
णेहिं (मु) ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
x (ब)।
१०. व (ब) ।
११.
य (ब) ।
० भंग गहणत्ता (ब) ।
० चिज्जातीया (अ, ब ) ।
वि (ब)।
गणणा (ब)।
गाथायां सप्तमी षष्ठ्यर्थे (मवृ) ।
होंति (ब)।
० गहा (अ) ।
अजातो उ
असमत्तो
असमत्तो
असमत्तो
१२. निग्गमप्प० ( अ, ब) ।
१३. वोधाणं (ब), उपधानं (मवृ) ।
१४. उदु० (अ)
१५. वेहि (ब)
१६. धीतिदेहमकंपं (ब) ।
१७. मसुण्णा (अ), x (ब)।
१८. न य मे (ब) ।
१९. णिस्संचरपहु० (अ) । २०. तोच्छेदो (ब) ।
11
।
॥ दारं ॥
1
॥ दारं ॥
।
॥ दारं ॥
[ १६९
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१७०
]
व्यवहार भाष्य
१७४९. वासाण दोण्ह लहुगा, आणादिविराधणा वसधिमादी ।
संथारग उवगरणे, गेलण्णे सल्लमरणे य ॥दारं ॥नि. २७७ ।। १७५०. सुण्णं मोतुं वसहिरे, भिक्खादी कारणओ जदि दो वि ।
वच्चंत ततो दोसा, गोणादीया हवंति इमे ॥ १७५१. गोणे साणे छगले, सूगर'-महिसे तहेव परिकम्मे ।
मिच्छत्तबडुगमादी, अच्छते सलिंगमादीणि ॥नि. २७८ ॥ १७५२. गोणादीय पविटे, धाडंतमधाडणे" भवे लहुगा ।
अधिकरणवसधिभंगा, तह पवयण-संजमे दोसा ॥ १७५३. दुक्खं ठितेसु वसधी, परिकम्मं कीरति त्ति इति नाउं ।
भिक्खादिनिग्गतेसुं, सअट्ठमीसं विमं कुज्जा ॥ १७५४. उच्छेव बिलट्ठगणे, भूमीकम्मे समज्जणाऽऽमज्जे ।
कुड्डाण लिंपणं दूमणं, च एयं तु परिकम्मं ॥ जदि ढक्कितोच्छेवा, तति मास बिलेसु 'गुरुग सुद्धेसु१२ ।
पंचेदियउद्दाते, एग-दुग-तिगे उ मूलादी ॥ १७५६. भूमीकम्मादीसु उ, फासुगदेसे१३ उ होति मासलहू ।
सव्वम्मि लहुगा अफासुएण देसम्मि सव्वे य ॥दारं ॥ १७५७. सोच्चा गत ४ ति लहुगा, अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेदो ।
बडु-चारण-भडमरणे, पाहुण निक्केयणा सुण्णे ॥दारं ।। १७५८. अह चिट्ठति तत्थेगो, एगो हिंडति य उभयहा दोसा ।
सल्लिगसेवणादी, आउत्थ परे५ उभयतो वा ॥ १७५९. सुण्णे सगारि दटुं, संथारे१६ पुच्छ कत्थ समणा उ ।.
सोउं गय त्ति लहुगा, अप्पत्तिय छेद चउगुरुगा ॥ १७६०. कप्पट्ठग संथारे, खेलण लहुगो तुवट्ट गुरुगो उ ।
नयणे दहणे चउलहु, एत्तो उ महल्लए वोच्छं ।
१. २. ३.
० रणं (अ)। वसही (अ)। तो (ब)। छगणा (ब)। सूगरे (ब)। x(अ)। धाडित० (अ)। बिलच्छगणे (अ)। जेइ (ब)।
१०. ढक्केतो. (अ)। ११. तिलेसु (अ)। १२. गुरुगमुच्चेसु ()। १३. ० दोसे (अ) १४. गति (अ)। १५. परे य ()। १६. सप्तमी प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे (मव)। १७. खेलणु (ब)।
५. ६.
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चतुर्थ उद्देशक
[ १७१
१७६१. तुवट्ट नयणे दहणे, लहुगा गुरुगा हवंतऽणायारे ।
अह उवहम्मति उवधि, त्ति घेत्तुं हिंडति मासलहू ॥दारं ॥ १७६२. उल्ले लहुग गिलाणादिगा य सुण्णे ठवेंति चउलहुगा ।
अणरक्खितोवहम्मति, हडे व पावेंति जं जत्थ ॥दारं ॥ १७६३. गेलण्णमरणसल्ला, बितिउद्देसम्मि वण्णिता पुव्वं । ।
ते चेव निरवसेसा, नवरं इह इं तु बितियपदं ॥दारं ॥ १७६४. असिवादिकारणेहिं, अहवा फिडिता उ खेत्तसंकमणे ।
तत्तियमेत्ता व भवे, दोण्हं वासासु “जयण इमा" ॥ १७६५. एगो रक्खति वसधिं, भिक्ख वियारादि बितियतो याति ।
संथरमाणेऽसंथर, निद्दोस्सुवरि ठवित्तुवहि ॥ १७६६. सुत्तेणेवुद्धारो, कारणियं तं तु होति सुत्तं ति ।
कप्पो त्ति अणुण्णातो, वासाणं' केरिसे खेत्ते ॥ १७६७. महती वियारभूमी, विहारभूमी य सुलभवित्ती य५ ।
सुलभा वसही व जहिं, जहण्णयं वासखेत्तं तु ॥नि० २७९ ॥ १७६८. चिक्खल्ल पाण थंडिल, वसधी-गोरस-जणाउलो वेज्जो ।
ओसधनिययाऽहिवती, पासंडा भिक्ख-सज्झाए१३ ॥नि० २८० ।। १७६९. पाणा थंडिल वसधी, अधिपति४ पासंड भिक्ख-सज्झाए ।
लहुगा सेसे लहुगो, केसिंची५ सव्वहिं लहुगा ॥ १७७०. नीसिरण६ कुच्छणागार, कंटका सिग्ग आयभेदो८ य ।
संजमतो पाणादी, आगाह निमज्जणादीया ९ ॥ १७७१. धुवणे२० वि होंति दोसा, उप्पीलणादि२२ य बाउसत्तं च ।
सेधादीणमवण्णा२३, अधोवणे२४ चीरनासो वा ॥दारं ।।
१. डहणे (अ)। . २. घेत्तुं णं (ब)।
पुचि (स)। नवर (ब)। इकारः पादपूरणे (म)।
x (ब)। ७. जयणयमो (ब), जइणमो (आ। ८. जाति (अ)।
.वही (ब)। १०. गाथायां षष्ठी सप्तम्यर्थे (मव)। ११. या (ब)। १२. ०निवया०(अ)।
१३. मज्झाए (आ)। १४. अहिवति (ब), अहिए य (ब)। १५. केसि वा (ब)। १६. नीसिरणं (ब), निसि (स)। १७. सिज्ज (अ), सिग्ग ति देशीपदमेतत् परिश्रम इत्यर्थ: (मवृ)। १८. ताय ० (ब)। १९. निमज्जणे सीया (अ)। २०. धुवणा (ब)। २१. x (अ)। २२. ० णादी (स)। २३. दीण अवण्णा (अ.स)। २४. अहोवणो (ब)।
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१७२ ]
१७७२. मूइंगविच्छुगादिसु', दो दोसा संजमे य सेसेसु । नियमा दोस दुगुछिय, अथंडिल निसग्ग धरणे य ॥ दारं ॥ १७७३. वसहीय संकुडाए, विरल्ल' अविरल्लणे भवे दोसा । वाघातेण व अण्णाऽसतीय दोसा उ वच्चंते ॥दारं ॥ १७७४. अतरंत बालवुड्डा, अभाविता चेव गोरसस्सऽसती' । जं पाविहिंति दोसं, आहारमएसु पासु ॥ १७७५. नणु भणिय रसच्चाओ, पणीयरसभोयणे य दोसा उ किं गोरसेण भंते !, भण्णति सुण चोयग ! इमं तु ॥ १७७६. कामं तु रसच्चागो, चतुत्थमंगं तु बाहिरतवस्स सो पुण सहूण जुज्जति, असहूण य° सज्जवावत्ती ११ अगिलाय तवोकम्मं, परक्कमे संजतो त्ति इति वृत्तं । तम्हा १२ उ रसच्चाओ, नियमातो होति सव्वस्स
I
I
11
11
१७७७.
जस्स उ सरीरजवणा, रिते१३ सो वि य१५ हु भिण्णपिंडं, चउभंगो अजणाउल१६ कुलाउले चेव ततियतो भंगो । भोइयमादि जणाउल, कुलाउलमडंबमादीसु ॥ १७८०. वेज्जस्स ओसधस्स व, असतीय गिलाणतो व जं पावे । 'वेज्जसगासे नितो, आणेंतो१७ चेव जे दोसा ॥ दारं ॥ १७८१. नेचइया १८ पुण धन्नं, दलति 'असारा य अंचितादीसु १९ अधिवम्मि होति रक्खा, निरंकुसेसुं २० पासंडभावितेसुं२१, लभंति ओमाण मो अवि य विसेसुवलद्धी, हवंति
।
बहू दोसा ॥ दारं ॥ अतिबहूसु । उ२२ सहाया ॥ दारं ॥
कज्जेसु
१७७८.
१७७९.
१७८२.
मूर्तिग० (अ) । दुगुच्छिय (अस)
वरणे (अ, ब, स ) ।
संकडाए (ब) ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
तु (स) ।
१०. तु (स) । ११.
x (ब) ।
भवे य (ब)। सभाविता (स) ।
० सस्स असती (ब) ।
० वावत्ति (ब)।
पणीयं१४ न होति साहुस्स 1 भुंजउ अहवा जधसमाधी
१२. अम्हा (अ)।
१३. रुते (ब)।
१४. पणीए (ब)।
१५. व (ब)।
१६. उ जणा० (अ) ।
१७. ०समाण णंते आणेते (अ) ।
१८. निवईया (अ) नेवतिया (ब) ।
॥ दारं ॥
१९. आसार अंछिता० (स) ।
२०. ०सेसू (स) ।
२१. गाथायं सप्तमी पंचम्यर्थे (मवृ) । २२. व (स)।
व्यवहार भाष्य
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[ १७३
चतुर्थ उद्देशक १७८३. नाण-तवाण विवड्डी, गच्छस्स य संपया सुलभभिक्खे ।
न र एसणाय घातो, नेव य ठवणाय भंगो उ ॥दारं ।। १७८४. वायंतस्स उ पणगं, पणगं च पडिच्छतो भवे सुत्तं ।
एगग्गं बहुमाणो, कित्ती य गुणा य सज्झाए ॥दारं ।। १७८५. संगहुवग्गहनिज्जर, सुतपज्जवजायमव्ववच्छित्ती ।
पणगमिणं पुव्वुत्तं, जे चायहितोपलंभादी' नि. २८१ ॥ एवं ठिताण पालो, आयरिओ सेस मासियं सहुयं ।
कप्पट्ठिनीलकेसी', आयसमुत्था परे उभए ॥ १७८७. तरुणे वसहीपाले, कप्पट्ठिसलिंगमादि आउभया' ।
दोसा उ पसज्जंती, अकप्पिए दोसिमे अण्णे १ ॥ १७८८. बलि धम्मकहा किड्डा, पमज्जणा वरिसणा य पाहुडिया ।
खंधार अगणिभंगे, मालवतेणा य णाती या२ ॥ १७८९. तम्हा पालेति'३ गुरू'४, पुव्वं काऊण सरीरचितं तु ।
इहरा आउवधीणं, विराधण धरतमधरेते ॥ १७९०. जदि संघाडो तिण्ह वि, पज्जत्ताणीति५ तो गुरु न नीति ।
अह न वि आणे'६ ताहे, वसधी आलोग हिंडणया ॥ १७९१. आसण्णेसुं गेहति, जत्तियमेत्तेण होति पज्जतं ।
जावइए ‘णं ऊणं१५, इतराणीयं तु तं गिण्हे ॥ १७९२. सव्वे वप्पाहारा, भवंति गेलण्णमादि दोसभया ।
एवं जतंति तहियं, वासावासे वसंता उ ॥ १७९२/१. एमेव य गणवच्छे, अप्पचउत्थस्स होति वासास ।
नवरं दो चिटुंति, दो हिंडित संथरे इयरे८ ॥
१. भिक्खा (स)। २. x (ब)। ३. परिच्छतो (स)। ४. एगत्तं (अ)। ५. ० ग्गहा नि० (अ)।
० पज्जव साय० (ब)। ७. वातहितो ० (ब)। ८. कपट्ठीनी० (स)। ९. (ब)। १०. उप्पज्जति (ब)। ११. यन्ने (अ)।
१२. या (अ)। १३. पालेयति (ब)। १४. गुरुं (अ)। १५. ० त्ताणेति (स)। १६. याणे (अ)। १७. ण व ऊणा (स)। १८. यह गाथा केवल ब प्रति में प्राप्त है। टीका में यह गाथा अप्राप्त
है। विषयवस्तु की दृष्टि से भी यह यहां प्रासंगिक प्रतीत नहीं होती।
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१७४ ]
व्यवहार भाष्य
१७९४.
१७९३. इति पत्तेया सुत्ता', पिंडगसुत्तारे इमे पुण गुरूणं ।
दुप्पभिई तिप्पभिई', बहुत्तमिह' मग्गणा खेत्ते ॥ हेट्ठा दोण्ह विहारो, भणितो किं पुण इयाणि बहुयाणं' ।
एगक्खेत्तठिताणं, तु मग्गणा खेत्त अक्खेत्ते ॥ १७९५. उडुबद्धसमत्ताणं', उग्गह एग दुग पिंडियाणं पि ।
साधारणपत्तेगे, संकमति पडिच्छए पुच्छा० ॥नि. २८२ ।। १७९६. अप्पबितियप्पततिया १, ठिताण खेत्तेसु दोसु दोण्हं तु ।
उडुबद्ध होति खेत्तं२, गमणागमणं जतो अत्थि ॥नि. २८३ ।। १७९७. खेतनिमित्तं सुहदुखितो व सुत्तत्थकारणे वावि ।
असमत्ते उवसंपय, समत्त सुहदुक्खयं मोत्तुं ॥नि. २८४ ।। १७९८. पडिभग्गेसु मतेसु व, असिवादी कारणेसु फिडिता वा ।
एतेण तु एगागी, असमत्ता३ वा भवे थेरा'४ ॥नि. २८५ ।। १७९९. एग-दुगपिंडिता वि हु, लभंति अण्णोण्णनिस्सिया खेत्तं ।
असमत्ता बहुया वि हु, न लभंति अणिस्सिया खेत्तं ॥ १८००. जदि पुण समत्तकप्पो, दुहा ठितो तत्थ होज्ज चउरन्ने ।
चउरो वि अप्पभूते, लभंति दो ते इतरनिस्सा ॥ १८०१. एगागिस्स उ दोसा, असमत्ताणं च तेण थेरेहिं ।
एस ठविता उ मेरा, इति व५ हु मा होज्ज एगागी ॥ १८०२. दोमादि ठिता साधारणम्मि सुत्तत्थकारणा एक्कं.६ ।
जदि तं उवसंपज्जे, पुवठिता वावि संकंतं ॥ १८०३. पुच्छाहि तीहि दिवसं, सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति ।
अक्खेत्तुवस्सए पुच्छमाण दूरावलिय मासो ॥नि. २८६ ।। १८०४. पहाणऽणुयाण अद्धाण, सीसे कुल ‘गण चउक्क संघे य१९ ।
गामादिवाणमंतर, महे व उज्जाणमादीसु ॥
१. सुत्तादि (ब)। २. x (अ)। ३,४. ० भितिं ()। ५. बहुमिह (ब)। ६. इहाणि (स)। ७. बहुयराणं (अ)। ८. x(अ)। ९. उउ०(ब)। १०. नियुक्तिकृत् सविस्तरमाह (मवृ)। ११. • यप्पतियाइ (ब)।
१२. खेते (ब)। १३. असमत्था (स)। १४. १७९७-९८ ये दोनों गाथाएं ब प्रति में नहीं है। १५. वि (ब)। १६. एक्क य (ब)। १७. ० माणा (स)। १८. ० हाणाणुजाण (ब)। १९. गणे व चउक्के या (ब)।
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चतुर्थ उद्देशक
[ १७५
१८०५. इंदक्कील' मणोग्गाह, जत्थर राया जहिं व पंच इमे ।
अमच्च-पुरोहिय-सेट्टि, सेणावति-सत्थवाहोय ॥ १८०६. पुप्फावकिण्ण मंडलियावलिय उवस्सया भवे तिविधा ।
जो अब्भासे तस्स उ, दूरे कहत' न लभे मासो ॥ १८०७. किह पुण साहेयव्वा, उद्दिसियव्वाई जहक्कम सव्वे ।
अध पुच्छति संविग्गे, 'तत्थ व 'सव्वे व अद्धा वा ॥ १८०८. मोत्तूण असंविग्गे, जे जहियं ते उ° साहती११ सव्वे ।
सिट्ठम्मि जेसि पासं, गच्छति तेसिं न अन्नेसिं ॥ नीयल्लगाण'२ व भया, हिरिव त्ति असंजमाधिकारे वा ।
एमेव देसरज्जे, गामेसु य पुच्छकधणं तु ॥ १८१०. अहवा वि अण्णदेसं, संपट्ठियगं१३ तगं मुणेऊणं४ ।
'माया-नियडिपधाणो५, विप्परिणामो इमेहिं तु ॥ १८११. चेइय साधू वसही, वेज्जा व न संति'६ तम्मि देसम्मि ।
पडिणीय सण्णि * साणे, विहारखेत्ताऽहिगो मग्गो ॥नि. २८७ ।। १८१२. वंदण पुच्छा कहणं, अमुगं देसं वयामि पव्वइउं ।
नत्थि तहि चेइयाई, दंसणसोधी जतो हुज्जा ॥ १८१३. 'पूया उ१७ दटुं जगबंधवाणं, साहू विचित्ता समुवेंति तत्थ ।
चागं च दद्दूण उवासगाणं, सेहस्स 'वी थिरइ१८ धम्मसद्धा दारं ॥ १८१४. न संति साहू तहियं विवित्ता, ओसण्णकिण्णो खलु सो कुदेसो ।
संसग्गिहज्जम्मि२° इमम्मि लोए, सा भावणा तुज्झ वि मा भवेज्जा ॥ १८१५. सेज्जा न संती२२ अहवेसणिज्जा इत्थी पसू-पंडगमादिकिण्णा ।
आउत्थमादीसु२३ य तासु निच्चं, ठायंतगाणं२४ चरणं न सुज्झे ॥दारं ॥
१. २. ३.
इंदक्खील (ब)। जत्थ य (अ)। उवस्सग (ब)।
५. कहतो (स)। ६. x (ब)।
किं नु (अ)। ८. तत्येव (ब)। ९. x (ब)। १०. य(अ)। ११. साहयंती (अ)। १२. निय० (ब)।
१३. संपच्छि० (अ.स)। १४. तु णाऊणं (अ, स)। १५. माय नियडिप्पहाणो (ब, स)। १६. संत (स)। १७. पूयातो (ब)। १८. वित्थारति (ब), वित्थि ० (अ.स)। १९. उस्स० (स)। २०. संसग्गितज्ज० (आ), संसग्गभज्ज० (स)। २१. तुम्भ (स)। २२. संति (ब)। २३. आतित्थ०(ब), आउत्थि० (अ.स)। २४. ठावंत० (स)।
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१७६
]
व्यवहार भाष्य
१८१६. वेज्जा तहिं नत्थि तहोसहाई, लोगो य पाएण सपच्चणीओ ।
दाणादि सण्णी य तहिं न संती,साणेहि किण्णो सह लूसएहिं ।।दारं ॥ १८१७. अणूवदेसम्मि वियारभूमी, विहारखेत्ताणि य तत्थ नत्थी ।
साहूसु आसण्णठितेसु तुझं, को दूरमग्गेण मडप्फरो ते ॥ १८१८. 'वासासु अमणुण्णा', असमत्ता 'जे ठिता" भवे वीसुं ।
तेसिं न होति खेतं. अह पुण समणुण्णय करेंति ॥नि. २८८ ॥ १८१९. तो तेसिं होति खेत्तं, को उ पभू तेसि जो उ रायणिओ ।
लाभो पुण . जो तत्था, सो सव्वेसिं तु सामण्णो ॥नि. २८९॥ १८२०. अहव' जइ वीसु वीसु, ठिता उ असमत्तकप्पिया होज्जा ।
अण्णो समत्तकप्पी, एज्जाही तस्स तं१ खेतं ॥ १८२१. अहवा दोण्णि व तिण्णि व २, समगं पत्ता समत्तकप्पी उ ।
सव्वेसिं तो तेसिं, तं खेत्तं होति साधरणं१३ ॥ १८२२. अपुण्णकप्पो व दुवे तओ वा, जं काल कुज्जा समणुण्णयं तु ।
तक्कालपत्तो५ य समत्तकप्पो, साधारणं तं पि हु तेसि खेत्तं ॥ १८२३. साधारणट्ठिताणं, जो भासति तस्स तं भवति खेत्तं ।
वारग तद्दिण पोरिसि, मुहुत्त भासे उ जो ताहे१६ ॥ १८२४. आवलिया मंडलिया, घोडग कंडूइतए७ व भासेज्जा ।
सुत्तं भासति सामाइयादि जा अट्ठस्मति८ तु ॥नि. २९० ॥ १८२५. सुत्ते जहुत्तरं९ खलु, बलियाजा होति दिट्ठिवाओ त्ति ।
अत्थे२० वि होति एवं, छेदसुतत्थं नवरि मोत्तुं ॥नि. २९१ ॥ १८२६. एमेव मीसगम्मि वि, सुत्ताओ बलवगो पगासो उ ।
पुव्वगतं खलु बलियं, हेट्ठिल्लत्था किमु सुयातो२२ ॥
१. यस(अ)। २. अण्णगदे ० (अ), अणूग० (स)।
विहारि (अ)। ४. तुभं (स)। ५. तो (स)।
वासाए समणुण्णा (ब), वासासू अ० (स)। ७. जीविता (अ)।
x (ब)। ९. अह (ब)। १०. असमत्ते क० (अ)। ११. तु (स)।
१२. वि(स)। १३. साधारं (ब), यह गाथा अ प्रति में नहीं है। १४. बाल (ब)। १५. तक्काय० (अ)। १६. ताधे (मु)। १७. कंडूइए (ब)। १८. ० सीई (ब)। १९. ० त्तर (ब)। २०. अस्थि (स)। २१. सुतं तु (स)।
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________________
चतुर्थ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
१८२७. परिकम्मेहि य. अत्था, सुत्तेहि य जे य सूइया' तेसिं । होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु १८२८. तित्थगरत्थाणं खलु, अत्थो सुत्तं तु गणहरत्थाणं
1
1
अत्थेण य वंजिज्जति, सुत्तं तम्हा उ सो बलवं जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स तम्हारे छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ॥ नि. २९४ ॥ १८३०. एमेव मंडलीय वि, पुव्वाहिय नट्ठ 'धम्मकह-वादे' अधव पइण्णग' सुत्ते, अधिज्जमाणे बहुसुते वि ॥नि. २९५ ॥ १८३१. छिण्णाछिण्णविसेसो, आवलियाए उ अंतए मंडलीय सट्टा, सच्चित्तादी १८३२. दोन्हं तु संजताणं, घोडगकंडूइयं
ठाति 1 संकमति ॥
I
'जो जाहे जं पुच्छति, सो ताधि १० पडिच्छओ तस्स १८३३. एवं 'ताव समत्ते ११, कप्पे भणितो विधी उ जो एस एत्तो समत्तकप्पो, वोच्छामि विधि १२ समासेण ॥ १८३४. गणिआयरियाणं तो१३, खेत्तम्मि ठिताण दोसु गामेसु । वासासु होति खेत्तं, निस्संचारेण बाहिरतो ॥ उग्गह एगदुगपिंडिताणं पि । वोच्छं दुविहं च पच्छकडं ॥ नि. २९७ ॥ खेत्ते व ६ समट्टिताण १७ साधा । वायंतियववहारे, कयम्मि जो जस्सुवट्ठाति१८ ॥ नि. २९८ ॥
१८२९.
०
१८३५. वासासु समत्ताणं १४,
साधारणं तु केसि, १८३६. अक्खेत जस्सुवट्ठति १५,
१८३७. साधारणट्ठिताणं, से दूरत्थं 'पि हु९९ निययं,
सूलिता (स) ।
उ (ब) ।
तम्हा उ (अ) ।
कहि वादी (स) ।
पतिष्णग (ब)।
अविज्ज० (ब)।
ठामि (ब)।
७.
८. मुट्टा (ब)।
९.
०
कंडुइतगं (स) ।
१०. जो जाहे णु पुच्छति तस्सो ताहे (ब)।
११. ता असमत्ते (ब)। १२. विहिं (ब), विधी (स) ।
१३. ता (स) ।
१४. समत्ता (ब)।
१५. ० वट्टितो (स) ।
४
१६. वा (अ)।
१८.
१७. समठिताण (स) । ट्ठामि (अ) । १९. वा (ब), पी (स)।
०
२०.
० गुरु (अ.स)।
॥ नि. २९२ ॥
करेंताणं ।
।
॥ नि. २९३ ॥
पुच्छंतुवस्सए जो उ । साहती उ तस्स मासगुरू २० ॥
॥ नि. २९६ ॥
[ १७७
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________________
१७८ ]
१.
२.
१८३८. सव्वे उद्दिसियव्वा, अह पुच्छे कतर एत्थ आयरिओ । बहुस्सुय तवस्सि व पव्वायगो र य तत्थ वि तहेव ॥ १८३९. सव्वे सुतत्था य बहुस्सुया य, पव्वायगा आयरिया पहाणा 1 एवं तु वुत्ते समुवेति जस्स', सिट्ठे विसेसे 'चउरो य" किण्हा ॥ १८४०. धम्ममिच्छामि सोउं जे', पव्वइस्सामि रोइए' । कहणा लद्धितोऽहीणो, जो पढमं सो उ साहति 11 १८४१. पुणो वि कहमिच्छंते, तत्तुल्लं भासते एवं तु९९ कहिते जस्स, उवट्ठायति१२ तस्स १८४२. अणुवसंते च१४ सव्वेसिं, सलद्धिकहणा १५ रायणियादि उवसंतो१६, तस्स सो 'मा य नासउ १७ जं जाणह आयरियं तं देह" ममं ति एव भणितम्मि ९ जदि बहुया ते सीसा, दलंति सव्वेसिक्केक्कं २० रायणिया थेराऽसति, कुल - गण - संघे दुगादिणो भेदो २१ एमेव वत्थ- पाए, तालायर 'सेवगा भणिता १२२
पुणो ।
1
॥
।
॥ नि. २९९ ॥
१८४३.
१८४४.
१८४५.
१८४६.
१८४७.
पट्टे (ब) 1 पव्वावगा (अ.स)
ते (स) ।
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०. परं (स) ।
वा (ब)।
पहाणो (ब)।
११. तू (स) ।
१२. उवट्ठायंति (ब) ।
जस्सु (अ) ।
तुगे तु (स) ।
जे इति पादपूरणे (मवृ)।
रोतितो (स) ।
रायणियस्स उ एगं, दलंति तुल्लेसु तुल्लेसु जस्स असती, तहावि तुल्ले साकुलगा २४ कुलथेरे, गण-थेर गणिव्वएयरे २५ रायणिय थेर असती, कुलादिथेराण वि तहेव
संघे
१३. यह गाथा अ प्रति में नहीं है। १४. वि (स) ।
परो" 1
सो ३
11
थेरगतरस्स
इमा मेरा
१५. सलद्धी ० (स)।
१६. 'तोवसंते (अ) ।
1
साधारणं व काउं, दोपह६ वि सारेंत" जाव अण्णो२८ उ उप्पज्जति सिं सेहो, एमेव
य थत् ॥
१७. मादि नासतो (अ)।
१८. देहत्ति दर्शयतेत्येवं (मवृ) ।
१९. भणितं पि (अ) ।
२०. सव्वेसि एक्के० (स) ।
२१. विभेया (ब) ।
२२. सेवए वणिए (अ) ।
11
।
11
।
॥
व्यवहार भाष्य
२३. ब प्रति में इस गाथा का प्रथम एवं अंतिम चरण है।
२४. सोडलगा (ब) ।
२५. गणिच्छए ० (ब) ।
२६. दोण्णि (स) ।
२७. सारेंति (स)।
२८. अण्णा (अ) ।
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चतुर्थ उद्देश
।
॥
१८४८. चोदेति वत्थपाया, कप्पंते' वासवासि घेत्तुं जे । जहर कारणम्मि सेहो, तह तालचरादिसु वत्थाई ॥ १८४९. साधारणो अभिहितो, इयाणि पच्छाकडस्स' अवयारो | सो उ गणावच्छेइय, पिंडगसुत्तम्मि भणिहिती ॥ १८५०. एमेव गुणावच्छे, एगत्त-पुहत्त' दुविधकालम् । जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ जह होति पत्थणिज्जा, कप्पट्टी 'नीलकेसि सव्वस्स १० तध 'चेव गणावच्छो११, किं कारण जेण १२ तरुणो उ १८५२. 'दोहं चउकण्णरहं १३, भवेज्ज छक्कण्ण १४ मो१५ न संभवति । सिद्धं लोके तेण उ, परपच्चयकारणा तिन्नि१६ ॥ जया तत्थुडुबद्धे, समभिक्खाऽणुण्ण निक्खम १७ पवेसा वासासु दोन्नि चिट्ठे, दो हिंडेऽसंथरे १८५४. एमेव बहूणं पी, जहेव भणिता" उ आ जाव उ१९ सुतोवसंप्रद, नवरि इमं तत्थ १८५५. साधारणट्ठितासुंख, थाई परोप्परं वारंवारेण तहिं, जह आसा कंडुयं १८५६. अह पुव्वठिते पच्छा, अण्णो एज्जाहि बहुसुते" सो खेत्तुवसंपन्नो, 'पुरिमल्लो खेत्तिओ
/
इतरे ॥
१८५७. खेत्तिओ जइ इच्छेज्जा, सुत्तादी किंचि सीसं जइ मेधावी, पेसे खेत्तं तु
१८५१.
१८५३.
"
कप्पति (अ), कप्पंति (स) ।
वासे वासे (स) ।
१.
२.
३.
अह (ब) ।
४.
० दिसू (स) ।
५.
० कडिस्स (ब) ।
६.
ववहारो (ब) ।
७.
पंडग ० (ब)।
८.
पुहुत्त (ब)।
९.
एत्थ (अ) ।
१०.
० केसिस्स (ब)।
११. चैव उ गणि वि (स) ।
१२. जेण उ (ब) ।
१८५८. असती तव्विधसीसेऽणिक्खित्तगणे उ वाऍ ३ संकमति T
अहवावि अगीतत्थे, निक्खिवती २४ गुरुग न य खेत्तं
||
नाणतं ॥ गिरहे ।
वा 11
खेत्ते 1
||
गेण्हिउं । तस्सेव ॥
तत्थ २२
१३. दोण्ह चउकण्णरहसं (ब) ।
१४. ० ण्णग (ब) ।
१५.
१६. तिन्नी (स) ।
१७. निग्गम (ब)।
१८. गणिया (ब)।
२३. वायए (स)
२४.
० वति (ब)
मो इति पादपूरणे (मवृ) ।
१९. य (ब)।
२०. ० ठिता तु (स) ।
२१. बहुस्सुतो (स) ।
२२. मज्झिल्लो पुरिसो खेत्तिओ (अ), मज्झिल्लो पुरिमो खेत्तीउ (स) ।
[ १७९
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________________
१८० ]
व्यवहार भाष्य
१८५९. अध निक्खिवती' गीते, होही खेत्तं तु तो गणस्सेव ।
तस्स पुण अत्तलाभो, वायंत न निग्गतो जाव ॥ १८६०. 'आगंतुगो वि' एवं, ठवेंत खेत्तोवसंपदं लभति ।
साधारणे य दोण्हं, एसेव गमो य नायव्वो ॥ १८६१. साधारणो अभिहितो', इयाणि पच्छाकडं तु वोच्छामि ।
सो दुविधो बोधव्वो, गिहत्थ सारूविओप चेव ॥नि. ३०० ।। १८६२. 'असिहो ससिहगिहत्थो', रयहरवज्जो उ होति सारूवी ।
धारेति निसिज्जं तू, एगं ओलंबगं चेव ॥नि. ३०१ ॥ १८६३. गिहिलिंगं पडिवज्जति, जो ऊ तद्दिवसमेव जो तं तु ।
उवसामेती अण्णो, तस्सेव ततो पुरा आसी ॥ १८६४. एण्हि पुण जीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं वियाणेत्ता ।
तो भद्दबाहुणा ऊ, तेवरिसा ठाविता ठवणा ॥ १८६५. परलिंग निण्हवे वा, सम्मइंसण जढे तु संकंते ।
तद्दिवसमेव इच्छा, सम्मत्तजुए समा तिण्णि ॥ १८६६. एमेव देसियम्मि वि, सभासितेणं तु समणुसिट्ठम्मि० ।
ओसण्णेसु१ वि२ एवं, अच्चाइण्णे न पुण एण्हि ॥ १८६७. सारूवी जज्जीवं, पुव्वायरियस्स जे य पव्वावे ।
अपव्वविय सच्छंदो, इच्छाए जस्स सो देति३ ॥नि० ३०२॥ १८६८. जो पुण गिहत्थमुंडो, अधवा मुंडो उ तिण्ह वरिसाणं ।
आरेणं पव्वावे, सयं च पुवायरिय सव्वं१४ ॥ १८६९. अपव्ववित५ सच्छंदा, तिण्डं उवरिं तु जाणि पव्वावे ।
अपव्वविताणि जाणि य, सो वि य जस्सिच्छते१६ तस्स ॥ गंतूणं 'जदि बेती'१५, अहयं तुझं इमाणि१८ अन्नस्स । एयाणि तुज्झ नाहं, दो वी तुझं दुवेण्हस्स१९ ॥
१. निक्खे ०(अ)।
होति (स)।
आगंतु ततो (ब)। ४. ठवेंतो (स)।
उ भणितो (ब)। ६. ०वितो (ब)। ७. ससिहे असिहगि० (अ, स)।
ओलबगं (ब)। ९. निण्हते (स)। १०. ०णुसट्ठम्मि (ब, स)।
११. उस्स० (अ)। १२. उ(ब)। १३. स प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। १४. यह गाथा स प्रति में नहीं है। १५. अपव्वाविते (अ.स)। १६. जस्सच्छिते (अ), जस्सेत्थए (ब)। १७. जइ भणइ (ब)। १८. इमाणि (स)। १९. दुवेण्णस्स (अ)।
८.
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________________
चतुर्थ उद्देशक
[ १८१
१८७१. छिण्णम्मि उ परियाए, उवट्ठियंते हु' पुच्छिउंरे विहिणा ।
तस्सेव अणुमतेणं, पुव्वदिसा पच्छिमा वावि ॥ १८७२. संविग्गमुद्दिसते, पडिसेहं तस्स संथरे गुरुगा ।
किं अम्हं तु परेणं, अधिकरणं जं तु तं तेसि ॥ १८७३. एवं खलुरे संविग्गेऽसंविग्गे वारणा न उद्दिसणा ।
अब्भुवगत जं भणती, पच्छ भणंते न से इच्छा ॥ १८७४. एमेव निच्छिऊणं', . उढितो पच्छ तेसिमाउट्टो ।
इतरेहि व रोसवितो, सच्छंद दिसं पुणो न लभे ॥ १८७५. अण्णाते परियाए, पुण्णे न कधेज जो समुटुंतो ।
लज्जाय मा व घेच्छिति', मा व न दिक्खेज्जिमा भयणा ॥ १८७६. णाते व जस्स भावो, न नज्जते तस्स दिज्जते लिंगं ।
दिण्णम्मि दिसिं नाहिति, कालेण व सो सुणंतो वा ॥ १८७७. अधवा अण्णऽण्णकुला ,पडिभज्जिउकाम समण समणी य ।
अणुसिट्ठा५१ परे न ठिता, करेंति वायंतववहारं१२ ॥ १८७८. अध न कतो तो पच्छा, तेसिं अब्भुट्ठिताण१३ ववहारो ।
गोणी आसुब्भामिग, कुडुबि खरए य खरिया य ॥ १८७९. गोणीणं संगेल्लं, उब्भामइला य नीत५ परदेसं ।
तत्तो खेत्ते देवी, रण्णो अभिसेचणे१६ चेव ॥ १८८०. संजइइत्त भयंती, संडेणऽण्णस्स जं तु गोणीए ।
जायति तं१७ गोणिवतिस्स८. होति एवम्ह१९ एताई ॥दारं ॥ १८८१. बेंतितरे अम्हं तू, जध वडवाए२० उ अण्णआसेणं२९ ।
जं जायति मोल्लम्मी२२, अदिण्ण तं आसिगस्सेव ॥दारं ।।
१. तु(स)। २. पुच्छिओ (ब)। ३. खलु ऊ (अ)। ४. भणति (अ)।
णेच्छि ० (स)।
एस आउट्टो (ब), तेसि आउट्टो (स)। ७. घेच्छति (स)। ८. ०ज्ज मा (ब)। ९. दिसं (अ)। १०. अण्णोऽण्ण ० (ब)। ११. अणुसट्ठा (अ.स)।
१२. ० तवावार (ब), वायंतिव ० (स)। १३. पुवट्टि ० (अ)। १४. आसू भामिग (अ.स)। १५. णाय (स)। १६. अभिचेयणा (ब)। १७. ता (ब)। १८. गोणिपयस्स (अ)। १९. एयम्ह (ब), एवण्ह (स)। २०. वलवाए (अ, स)। २१. अण्णयासेणं (ब)। २२. मूलम्मी (स)।
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१८२ ]
व्यवहार भाष्य
१८८२. जस्स महिलाय जायति, उब्भामइलाय तस्स तं होति ।
संजतिइत्त' भणंती, 'इतरे बेंती इम'२ सुणसु ॥ १८८३. तेणं कुटुंबितेणं, उब्भामइलेण दोण्ह वी दंडो' ।
दिण्णो सावि य तस्सा, जाया एवम्ह' एताइं ॥ १८८४. पुणरवि य संजतित्ता, बेंती खरियाय अण्णखरएणं ।
जं६ जायति खरियाधिवस्स', होति एवम्ही एताई ॥ १८८५. गोणीणं संगेल्लं, नटुं अडवीय अण्णगोणेणं ।
जायाइ वत्थगाई, गोणाहिवतीउ गेण्हंति ॥ १८८६. उब्भामिय पुव्वुत्ता, अहवा नीता उ जा परविदेसं ।
.तस्सेव उ सा भवती, एवं अम्हं तु आभवती ॥दारं ॥ १८८७. इतरे भणंति बीयं, तुब्भं तं नीयमन्नखेत्तं० तु ।
तं होति खेत्तियस्सा, एवं अम्हं तु एताई ॥दारं ॥ १८८८. रण्णो धूयातो खलु, न माउछंदा 'उ ताउ'१२ दिज्जंति ।
न य पुत्तो अभिसिच्चति'३, तासि छंदेण एवम्हं ॥ १८८९. एमादि उत्तरोत्तर'४, दिटुंता बहुविधा न उ५ पमाणं ।
पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होति पमाणं पवयणम्मि ॥ १८९०. आयरियउवज्झायम्मि'६, अधिकिते अधिकिते य कालम्मि ।
निस्सोवसंपय ति य, एगट्ठमयं तु संबंधो ॥ १८९१. अधवा एगतरम्मि उ, आयरियगणिम्मि७ वावि आहच्च ।
वीसुंभूते८ गच्छंति, फड्डगं१९ फड्डगा व गणं२० । १८९२. लोगे य उत्तरम्मी२९, उवसंपद लोगिगी उ रायादी ।
राया वि होति२२ दुविधो, सावेक्खो चेव निरवेक्खो२३ ॥नि. ३०३ ॥
१. ० तितत्त (ब)। २. उभामइल्ले इमे (ब)। ३. ० मइल्लेण (ब)।
डंडो (स)। वेवम्ह (ब), एवम्मि (स)। जा (ब)।
जायति तं (स)। ८. खरियाहिवतिस्स (मु)। ९. छंद की दृष्टि से होतेवाह (होति एवम्ह) पाठ होना चाहिए। १०. नीय अण्ण ० (स)। ११. खत्तिय ० (ब)। १२. तो ततो (अ)
१३. अभिणिसि ० (स)। १४. उत्तरुत्तर (ब)। १५. य (स)। १६. ० उवज्झाए (आ)। १७. ० गणम्मि (ब)। १८. वीसंभूए (ब)। १९. फडुगं (अ) २०. गाथा के उत्तरार्ध में छंदभंग है। २१. ० म्मि य (स)। २२. इति (अ)। २३. अधुना नियुक्तिविस्तरः (मवृ)।
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________________
चतुर्थ उद्देशक
१.
२.
१८९३. जुवरायम्मि' उठविते, 'पया उ' बंधंति आयति तत्थ । नेव य कालगतम्मी, खुब्भंति पडिवेसिय नरिंदा ॥नि. ३०४ ॥ पच्छन्नराय तेणे, आत- परो दुविधा होति निक्खेवो । लोइय'- लोगुत्तरिओ, लोगुत्त ठष्पितर वोच्छं ॥नि. ३०५ ॥ १८९५. निरवेक्खे कालगते, भिन्नरहस्सा तिमिच्छऽमच्चो य । अहिवास' आस हिंडण ं, वज्झो त्ति य मूलदेवों उ ॥नि. ३०६ ॥ आसस्स पट्ठिदाणं, आणयणं" हत्थचालणं रण्णो 1 अभिसेग भोइ परिभव, तण जक्ख निवायणं आणा ॥ जक्खऽतिवातियसेसा, सरणगता जेहि कुव्वं रण्णो, अत्ताण परे १८९८. पुव्वं आयतिबंधं १३, करेति १४ सावेक्ख अट्ठविते पुव्वुत्ता, दोसा उ १८९९. आसुक्कारोवरते, अट्ठविते गणहरे
तोसितो पुव्वं १२ । य निक्खेवं ॥ दारं ॥ गणधरे ठविते ।
अणाहमादीया ॥ नि. ३०७ ॥ इमा मेरा ।
चिलिमिलि १५ हत्थाणुण्णा, परिभव सुत्तत्थहावणया ॥ नि. ३०८ ॥ १९००. दंडे १६ उ अणुसट्टा, लोए लोगुत्तरे य अप्पाणं । उवनिक्खिवंति१७ सो पुण, लोइय लोगुत्तरे दुविहो१८ ॥
१८९४.
१८९६.
१८९७.
जह" कोई वणिगो १ तू धूयं २२ सेट्ठिस्स हत्यें निक्खिविरं । दिसिजत्ताए २३ गतो त्ति, कालगतो सो य सेट्ठीओ ॥ १९०२. सेट्ठिस्स तस्स धूता, वणियसुतं घेत्तु रणों समुवा । अहयं एस सही मे, पालेयव्वा उ२४ तुब्भेहिं ॥ १९०३. इति २५ होउ त्ति य भणिउं, कण्णा अंतेउरम्मि तुट्ठेणं । पक्खित्ताओ, भणिता वाहरिउ पाला उ ॥
रण्णा
१९०१.
० राणम्मि (स) ।
पयातो (ब)।
छंद की दृष्टि से 'खुब्भंती पाडिवेसिय नरिंदा' पाठ होना चाहिए।
३.
४. तेणं (अ) ।
५.
लोतिय (ब) ।
६.
तिरिच्छ ० (स) ।
७.
अहियास (अ)।
८.
भिंडण (स)।
९.
मूलभद्दो (स) ।
१०. पुट्ठ० (स), पट्ठ ० (अ), पृष्ठं दत्तं गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् ।
११. अणायणं (ब) ।
१२. पुव्वि (अ), पुव्विति (स) ।
१३. आतति ० (ब), आयती ० (स)।
१४. करिति (स) ।
१५. ० मिणी (स) । १६.
डंडेण (स) ।
१७. उवनिक्खेवंती (ब) ।
१८. दुविधं (स) ।
१९. कध (अ) ।
२०. कोति (अ), कोती (ब) ।
२१. वाणितो (ब)।
२२. तयं (अ)।
२३.
दिसयत्ताए (अ) । २४. तो (अ)।
२५. इय (स)।
[ १८३
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________________
१८४ ]
व्यवहार भाष्य
१९०४. जध रक्खह मज्झ सुता, तहेव एया उ दोवि पालेह ।
'तीए वि ते उ पाले, विण्णविय विणीतकरणाए ॥ १९०५. जध कन्ना एयातो, रक्खह एमेव रक्खह ममं पि ।
जह चेव ममं रक्खह, तह रक्खहिमरे सहिं मज्झ ॥ १९०६. इय होउ अब्भुवगते, अह तासि तत्थ संवसंतीण ।
कालगतमहत्तरिया, जा कुणती' रक्खणं तासि ॥ १९०७. सविकारातो दटुं, सेट्ठिसुया विण्णवेति रायाणं ।
महतरित दाणनिग्गह, वणियागम रायविण्णवणं ॥ १९०८. पूएऊण विसज्जण, सरिसकुलदाण उ दोण्ह वी भोगो ।
एमेव उत्तरम्मि वि, अवत्तराईदिए हुवमा ॥ १९०९. एते अहं च तुब्भं, वत्तीभूतो सयं तु धारेति ।
जसपच्चया उराला, मोक्खसुहं चेव उत्तरिए ॥ सावेक्खो पुण पुवं, परिक्खते१० जध धणो उ सुण्हाओ१ । अणियतसहाव२ परिहाविय भुत्ता छड्डिया१३ वुड्डा ॥ 'ओमेऽसिवमतरते, य१४ उज्झिउं१५ आगतो न खल जोग्गो ।
कितिकम्मभारभिक्खादिएसु१६ भुत्ता उ१७ भुत्तीए ॥दारं ।। १९१२. न य छड्डिता न भुत्ता, नेव य परिहाविया ८ न परिवूढा९ ।
ततिएणं ते चेव उ, समीव. पच्चाणिता गुरुणो ॥ १९१३. उवसंपाविय पव्वाविता य अण्णे य तेसि संगहिता ।
एरिसए देति गणं, 'कामं ततियं पि पूएमो'२० ॥ १९१४. तम्मि गणे अभिसित्ते२१, 'सेसगभिक्खूण अप्पनिक्खेवो २२ ।
जे पुण फड्डगवतिया, आतपरे तेसि२३ निक्खेवो ॥
१९१
तीय वि ते तू (ब)। रक्खहम (अ)।
सत्थ (ब)। ४. संवसिंधीणं (स)।
कुणति (ब)। महहरिय (अ)।
अव्वत्त ० (स)। ८. उवमा (अ.स)। ९. ब प्रति में यह गाथा १९१० वी गाथा के बाद पुनरावृत्त हुई है। १०. परिक्खहह (ब)। ११. सुण्हा वी (ब)। १२. अणितिय ० (ब), सहाय (अ)।
१३. तत्तिया (), तच्चिया (स) १४. ० सिव अतरते व (ब)। १५. उज्झितं (अ)। १६. ० दिए (स)। १७. य (अस)। १८. परिहारिया (अस)। १९. परिवुड्डा (स)। २०. x(ब)। २१. ० सित्तं (अ)। २२. ० भिक्खूणप्प ० (स)। २३. होति (बस)।
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________________
चतुर्थ उद्देशक
[ १८५
१९१५. एवं कालगते तू, ठविते' सेसाण आयनिक्खेवो ।
फड्डगवतियाणं' पुण, आयपरो होति निक्खेवो ॥ १९१६. उवसंपज्जण अरिहे, अविज्जमाणम्मि होति गंतव्वं ।
गमणम्मि सुद्धऽसुद्धे, चउभंगो होति नायव्वो ॥ १९१७. 'असतीए वायगस्स३, जं वा तत्थत्थि तम्मि गहितम्मि ।
संघाडो एगो वा, दायव्वो असति एगागी ॥ १९१८. अध सव्वेसिं तेसिं', नत्थि उ उवसंपयारिहो अन्नो ।
सव्वे घेत्तुं गमणं, जत्तियत्ता व इच्छंति ॥ १९१९. एवं सुद्धे निग्गम, गच्छे वइयादि अपडिबझंतो ।
संविग्गमणुण्णेहिं, तेहि वि दायव्व संघाडो ॥ १९२०. एग व दो व दिवसे, संघाडट्ठाय' सो पडिच्छेज्जा ।
असती ‘एगागी तो जतणा उवही न उवहम्मे ॥ १९२१. एसो पढमो भंगो, एवं सेसा कमेण जोएज्जा ।
आसन्नुज्जयठाणं,• गच्छे दारा य तत्थ इमे ॥ १९२२. पारिच्छहाणि असती, आगमणं निग्गमो असंविग्गे ।
निवेदण 'जतण निसटुं९९, दीहखद्धं परिच्छंति१ ॥नि. ३०९ ॥ १९२३. पासस्थादिविरहितो, काहियमादीहि । वावि दोसेहिं ।
संविग्गमपरितंतो, साहम्मियवच्छलो जो उ ॥ १९२४. अब्भुज्जतेसु ठाणं, परिच्छिउं हायमाणए१२ मोत्तुं ।
केसु पदेसुं हाणी, वुड्डी१३ वा तं निसामेहि ॥ १९२५. तव-नियम-संजमाणं, जहियं हाणी न कप्पते तत्थ ।
तिगवुड्डी तिगसोही, पंचविसुद्धी 'सुसिक्खा य१४ ॥दारं ॥नि. ३१०॥ १९२६. 'बारसविधे तवे तू"५, इंदिय-नोइंदिए य 'नियमे उ'१६ ।
संजमसत्तरसविधे, हाणी जहियं तहिं न वसे ॥दारं ।।
१. २. ३.
ठविह (अ)। फडुगपति ० (अ) । असतीय वायगस्सा (स)। असई वा ०(ब)। तेणं (स)। सव्वो (ब)। संघाडत्थं (ब)। एगाणितो (ब), एगामितो (स) । पाडिच्छ ० (ब)।
१०. जणण निसट्टे (अ.स)। ११. पडिच्छंति (ब)। १२. ० माणीय (ब)। १३. वड्डी (ब)। १४. सुसिक्खिया (ब)। १५. ० विधे उ तवे तु (अ, स)। १६. नियमेसु (स)। १७. तहिय (ब)।
६.
८. ९.
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________________
१८६ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
१९२७. तव-नियम- संजमाणं नाणादीण व तिण्हं,
०
१९२८.
कुसील - संसत्त तह अहाछंदे । पंचविसुद्ध हवति सो उरे ॥
पंच य महव्वयाई, अहवा वी नाण- दंसण-चरितं । तव - विणओ वि य पंच उ पंचविधुवसंपदा वावि ॥ दारं ॥ १९३०. सोभणसिक्खसुसिक्खा', सा पुण आसेवणे य ग य । दुविधाए वि न हाणी, जत्थ 'य तहियं निवासो उ ॥ १९३१. एतेसुं ठाणेसुं सीदंते चोदयंति हावेंति उदासीणा, न तं पसंसंति
१९२९.
१९३२. आयरिय-उवज्झाया, नाणे चरणे जोगा, नाण-चरणे
१९३३.
१९३६.
नाणुणाता जिणेहि सिप्पट्ठा । पावगा 'उ तो १० अणुण्णाता ॥ निउत्ता, जा पुव्व परूविया चरणसेढी । सुहसीलठाणविजढे, निच्चं सिक्खावणा कुसला ॥ दारं ॥
१९३४. जेण वि पडिच्छिओ सो, कालगतो सो वि होति आहच्च ।
सो वि य सावेक्खो वा, निरवेक्खो वा गुरू आसी ॥नि. ३११ ॥ १९३५. सावेक्खो सीसगणं, संगह कारेति आणुपुवीए । 'पाडिच्छ आगते त्ति ११ व एस वियाणे अह महल्लों ॥ जह राया व कुमार, रज्जे ठावेउमिच्छते ११ जं तु१३ । भड जोधे१४ वेति तगं १५, सेवह तुभे कुमारं
11
अहयं अतीमहल्लो, तेसि
वित्ती उ९६ तेण दावेति । सो पुण परिक्खिऊ१७, इमेण विहिणा" उ ठावेति९ ॥ परमन्न भुंज सुणगा, छड्डण दंडेण वारणं बिति । भुंजति देति य ततिओ २१, तस्स उ दाणं न इतरेसिं ॥
१९३७.
पासत्थे ओसणे, एतेहि जो विरहितो,
१९३८.
वड्डी (ब)।
० दीणि (स) ।
एतेसिं चेव तिह तिगवुड्डी' । तिगसुद्धी उग्गमादीणं ॥ दारं ॥
तू (स) ।
वावी (स) ।
सोभिक्खसुभिक्खा (अ) ।
गहणा (अ) ।
उवहितं (अ), तो तहियं (ब) ।
८.
एते उ (अ) ।
९.
चोदेंति (स) ।
१०. ततो (अब) ।
११. पाडिच्छागते व तीए (अ.स) ।
१२.
दावित्तु ० (स) ।
१३.
च (अ.स) ।
१४. जोधि (अ) ।
१५. तिगं (अ) ।
१६. तो (ब) ।
१७.
१८. विहि य (ब)।
१९. भावेंति (ब) ।
आयरिया । आयरिया ||
परिच्छि० (अ) ।
२०. भुंजंति (अ) । २१. वइतो (अ) ।
व्यवहार भाष्य
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चतुर्थ उद्देशक
[ १८७ १९३९. परबलपेल्लिउ नासति, बितिओ' दाणं न ‘देति तु भडाणं'२ ।
___ 'न वि जुज्जते ते ऊ'३, एते दो वी अणरिहाओ । १९४०. ततिओ रक्खति कोसं, देति य भिच्चाण ते य जुझंति ।
___ पालेतव्वो अरिहो, रज्जं तो तस्स तं दिण्णं ॥ १९४१. अभिसित्तो सट्ठाणं, अणुजाणे भडादि अहियदाणं च ।
वीसुंभिय आयरिए, गच्छे वि तयाणुरूवं तु ॥ १९४२. दुविधेण संगहेणं, गच्छं संगिण्हते महाभागो ।
तो विण्णवेति ते वी, तं चेव य ठाणयं अम्हं ॥ १९४३. उवगरण बालवुड्डा, खमग गिलाणे य धम्मकधि वादी ।
गुरुचिंत वायणा-पेसणेसु कितिकम्मकरणे य ॥ १९४४. एतेसुं ठाणेसुं, जो आसि समुज्जतो'० अठवितो वि ।
ठवितो वि य न विसीदति, ‘स ठावितुमलं११ खलु परेसिं२ ॥ १९४५.
एवं ठितो ठवेती१३, अप्पाण परस्स'४ गोविसो५ गावो ।
अठितो न ठवेति मरं, न य तं ठवितं चिरं होति.६ ॥ १९४६. पउरतणपाणियाइं१७, 'वणाइ रहियाइ८ खुड्डजंतूहिं९ ।
नेति वि सो गोणीओ२०, जाणति व उवट्ठकालं२९ च ॥ १९४७. जह गयकुलसंभूतो, गिरिकंदर-विसम-कडगदुग्गेसु ।
परिवहति अपरितंतो, निययसरीरुग्गते२२ दंते२३ ॥ १९४८. इय पवयणभत्तिगतो, साहम्मियवच्छलो असढभावो ।
परिवहति साधुवग्गं, खेत्तविसमकालदुग्गेसु२४ ॥दारं ।। १९४९. जत्थ पविट्ठो जदि तेसु, उज्जता होउ पच्छ हावेंति ।
'सीसे आयरिए'२५ वा, परिहाणी तत्थिमा होति ॥दारं ॥नि. ३१२ ।।
१. बितिदो (अ)। २,३. x (ब)। ४. वि(अ.स)। ५. X(ब)। ६. तो (स)। ७. भयादि (अ.स)। ८. गिलाणा (अ)। ९. पेसणासु (अ)। १०. सुज्जओ (ब)। ११. संठावि ० (स)। १२. गाथायां षष्ठी द्वितीयार्थे प्राकृतत्वात् (म)। १३. ठविइ (ब)।
१४. परं च (ब)। १५. गोवृष: (मवृ)। १६. होति (ब)। १७. ० तणपूयमाई (ब)। १८. रहियाई वणाई (स)। १९. खुद ० (स)। २०. मो लाभे ()। २१. उवच्छकाले ()। २२. नियसरी ० (ब)। २३. दश्रुनि २९ । २४. दश्रुनि ३०। २५. सीसा आयरिया (आ)।
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१८८ ]
व्यवहार भाष्य
१९५०. 'पडिलेह दिय" तुयट्टण, निक्खिव आदाण विणय-सज्झाए ।
आलोगरे ठवण मंडलि, भासा गिहमत्त सेज्जतरो ॥नि. ३१३ ।। १९५१. एमादी सीदंते, वसभा चोदेंति चिट्ठति ठितम्मि ।
असती थेरा गमणं, अच्छति ताहे" पडिच्छंतो ॥नि. ३१४ ॥ १९५२. गुरुवसभगीतऽगीते, 'न चोदेति' गुरुगमादि चउलहुओ ।
सारेति 'सारवेति य", खरमउएहिं जहावत्थु ॥ १९५३. गच्छो गणी य सीदति, बितिए न गणी तु ततिय१ न वि गच्छो ।
जत्थ गणी ‘अवि सीयति२२, सो पावतरो न पुण१३ गच्छो । १९५४. आयरिए१४ जतमाणे, चोदेतुं५ जं.६ सुहं हवति गच्छो ।
तम्मि उ विसीदमाणे, चोदणमियरे कधं गिण्हे१७ ॥ १९५५. आसण्णट्ठितेसु१८ उज्जएसु जहति सहसा न तं गच्छं ।
मा दूसेज्ज९ अदुढे, दूरतरं२० वा पणासेज्जा । १९५६. कुलथेरादी आगम २१, चोदणता जेसु विप्पमादंति ।
'चोदयति तेसु'२२ ठाणं, अठितेसु२३ तु निग्गमो भणितो ॥दारं ।। १९५७. कप्पसमत्ते विहरति, असमत्ते२४ जत्थ होंति आसण्णा ।
'साधम्मि तहिं २५ गच्छे, असतीए ताहि दूरं पि ॥नि. ३१५ ।। १९५८. वइयादीए दोसे, असंविग्ग२६ यावि सो परिहरंतो२७ ।
के उ असंविग्गा खलु, निययादीया२८ मुणेयव्वा ॥ १९५९. णितियादीए अधच्छंद, वज्जित२९ पविस दाण गहणे य ।
लहुगा भुंजण° गुरुगा, संघाडे मास जं चण्णं ।।
१. पडिलेहिय (अ) २. आलोयग (ब)। ३. चिट्ठसि (अ) ४. भयम्मि (स)। ५. गाहे वि (अ): ६. अचोदते (अ)। ७. जा लहुओ (स)। ८.० वेती (ब)। ९.० वत्थू (स) १०. बितिओ (अ)। ११. ततिए (ब)। १२. अवसीदति (ब,स)। १३. सो (ब)। १४. आयरियए (अ)। १५. चोयणं (ब)।
१६. जे (ब,स)। १७. x (अ)। १८.० ठितेसु तु (स)। १९. हासेज्ज (स)। २०.०तरे (ब)। २१. आगमो (स)। २२. चोतिए वि एसु (ब), चोदित ठितेसु (स) । २३. अच्छितेसु (स)। २४. असमत्थे (बस)। २५. साहम्मिएहिं (अ.स)। २६. अतिसंवि ०(ब)। २७. ० हरंति (स)। २८. नितिया (अ.स)। २९. वज्जिता (अ)। ३०. भुंजणु (ब)।
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चतर्थ उद्देशक
१.
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६.
७.
८.
९.
पच्छित्ता होंति तू अधाछंदे । संभुंजण होंति चउगुरुगा ॥ असति एगो ।
१९६१. संविग्गेगंतरिया, पडिच्छ
संघाड
साहम्मिएस जतणा, तिणिण दिण पडिन्छ सज्झाए ॥नि. ३१६ ॥ १९६२. बहिगाम घरे सण्णी, सो वा 'सागारिओ उ बहि'" अंतो । ठाण-निसेज्ज- तुयट्टण, गहितागहितेण जागरणा ॥ नि. ३१७ ॥ वसधीरे समणुण्णाऽसति, गामबहिं ठाति सो निवेदेउं । अनिवेदितम्मि लहुगो आणादिविराधणा चेव ॥ १९६४. गेलणे न काहिती, कोधेणं जं च पाविहिति तत्थ । तम्हा उ निवेदेज्जा, जतणाए तेसिमाए उ ॥ १९६५. तुब्भं अहेसि दारं, उस्सूरो 'त्ती जुताएँ" एवं तु । न य नज्जति सत्थो वी, चलिहिति किं केत्तियं वेलं ॥ १९६६. साहुसगासे वसिउं अतिप्पियं" मज्झ किं करेमि त्ति । सत्थवसो " हं भंते !, गोसे मे वहेज्जह १२ उदंतं १३ 11 १९६७. एवं न ऊ दुरुस्से१४, अह बाहिं होज्ज पच्चवाता उ । सुणघरादिसु वसति निवेदेज्ज १५ तह चेव ॥ १९६८. अधुणुव्वासिय सकवाड 'निब्बिलं निच्चलं १६ वसति सुणे । तस्साऽसति १७ सण्णिघरे १८, इत्थीरहिते वसेज्जा वा ॥
१९६०. एते 'चेव य" गुरुगा,
मासो,
१९६३.
१९६९. सहिते वा अंतो बहि, बहि अंतो वीसु घरकुडी वा । तस्साऽसति नितियादिसु वसेज्ज उ इमाऍ जाए || नितियादि उवहि भत्ते, सेज्जा सुद्धा य उत्तरे मूले । संजतिरहिते कालेकाले सज्झायऽभिक्ख च ॥नि. ३१८ ॥ १९७१. सेज्जुवधि-भत्तसुद्धे, संजतिरहिते संजति अकालचारिणि, सहिते
१९७०.
चेय ण (ब) !
सागारितो बहि (अ) ।
वसतीए (अ), वसहा (ब) ।
कहिंति (ब), काहिंती (स) ।
पाविही (स)।
जत्थ (ब) ।
अहेसी (स) ।
त्ती जुई उ (ब), ति जुती तु (स) ।
वेलां सप्तम्यर्थे व्याप्तौ द्वितीया (मवृ) ।
य भंग सोलसओ । बहुदोसला व
१०.
० प्पिउं (अ)। ११. सत्थिवसो (स) । १२. वहज्जह (ब) ।
१३. उवदंत (ब) ।
१४. दुरस्से (ब)।
१५.
• एज्जा (ब), निवेदं तु (स) । १६. निव्वले निच्चले (अ, स) ।
१७. तस्स असती (स) ।
१८. सुण्णघरे (ब)।
[ १८९
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१९० ]
व्यवहार भाष्य
१९७२. सागारि-तेणा-हिम-वास दोसा, दुसोहिता तत्थ उ होज्ज' सेज्जा।
वत्थष्णपाणाणिव तत्थ ठिच्चा, गिण्हंति जोग्गाणुवभुंजते वा ॥ १९७३. आहारोवधिसेज्जा, उत्तरमूले असुद्ध सुद्धे य ।
अप्पतरदोसपुचि, असतीय महंतदोसे वि ॥ १९७४. पढमाऽसति बितियम्मि वि', तहियं पुण ठाति कालचारीसु ।
एमेव सेसएसु वि, उक्कमकरणं पि पूएमो ॥ १९७५. सेज्जं सोहे उवधिं, भत्तं सोहेति संजतीरहिते ।
पढमो बितिओ संजतिसहितो पुण कालचारिणिओ५ ॥ १९७६. आदियणे कंदप्पे, वियालओरालिय वसंतीणं ।
नितियादी छद्दसहा', 'संजोएमो अहाछंदो ॥ १९७७. ठिय निसिय तुयट्टे वा, गहितागहिते य जग्ग° सुवणं वा ।
पासत्थादीणेवं१ नितिए २ मोत्तुं अपरिभुत्ते ३ ॥ १९७८. 'एमेव अधाछंदे १४ पडिहणणा झाण - अज्झयण कण्णा ।
ठाणठितो वि निसामे, 'सुण आहरणं"५ च गहितेणं ॥ १९७९. जध कारणे निगमणं९६, दिटुं एमेव सेसगा चउरो ।
ओमे असंथरते, आयारे वइयमादीहि ॥ समणुण्णेसु वि वासो, एगनिसिं किमु व१८ अण्णमोसण्णे ।
असढो पुण जतणाए, अच्छेज्ज चिरं पि तु इमेहिं ॥नि. ३१९ ।। १९८१. वासं खंधार नदी, तेणा सावय वसेण सत्थस्स ।
एतेहि कारणेहिं, अजतणजतणा ‘य नायव्वा१९ ॥नि. ३२० ।। १९८२. दोसा उ ततियभंगे, गाणंगणिता य गच्छभेदो य ।
सुयहाणी कायवधो, दोण्णि वि दोसा भवे चरिमे ॥नि. ३२१ ॥
१०
होइ (मु)।
णिव्वा (अ)। ३. ति (अ)।
संजति ० (अ)।
अकालचारिणी उ (ब), कालचारिणीओ (अ.स)। ६. वियालितोरालियं (अ.स)।
• सता (स)। ८. संजोएमु तहाच्छंदो (बस)। ९. ण(स)। १०. x(ब)।
११. ०दीणं (ब)। १२. नियए (ब)। १३. यह गाथा अप्रति में नहीं है। १४. x (अ)। १५. सुणणाहरणं (अ,ब)। १६. अतिगमणं (ब), अधिगमणं (स)। १७. वइयामा ० (अ)। १८. वि (ब)। १९. ततो सव्वा (अ.स)।
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चतुर्थ उद्देशक
[ १९१
१९८३. एमेव य वासासुं', भिक्खे वसधीय संक नाणत्तं ।
एगाह चउत्थादी, असती अन्नत्थ तत्थेवरे ॥नि. ३२२ ॥ १९८४. अपरीमाण पिहब्भावे, एगत्ते अवधारणे ।
एवं सद्दो उ एतेसुं', एगत्ते तु इहं भवे ॥ १९८५. एगतं उउबद्धे, जधेव गमणं तु भंगचउरो यः ।
तध चेव य वासासुं, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं ॥दारं ॥ १९८६. पउरण्णपाणगमणं, इहरा परिताव एसणाघातो ।
खेत्तस्स य१ संकमणे, गुरुगा लहुगा य आरुवणा दारं ॥ १९८७. वारग जग्गण दोसा, जागरियादी१२ 'हवंति अन्नासु१३ ।
तेणादि संक लोए, भाविणमत्थं व पासंति ॥दारं ॥ १९८८. आसण्णखेत्तभावित'४, भिक्खादि'५ परोप्परं मिलतेस्६ ।
जा अट्ठमं अभावित, माणं१७ अडंत ८ बहू पासे ॥ १९८९. पायं न१९ रीयति जणो२०, वासे पडिवत्तिकोविदो२१ जो य ।
असतोवबद्धदूरे, न्य अच्छते जा पभायम्मि२२ ॥ १९९०. आयरियत्ते पगते, अणुयत्तंते तु२३ कालकरणम्मि ।
अत्थे सावेक्खो वा, वुत्तो इमओ९ वि सावेक्खो ॥ १९९१. अतिसयमरिट्ठतो वा, धातुक्खोभेण वा धुवं मरणं ।
नाउं सावेक्खगणी, भणंति सुत्तम्मि जं वुत्तं ॥ १९९२. अन्नतर उवज्झायादिगा उ गीतत्थपंचमा पुरिसा ।
उक्कसण 'माणणं ति२५ य, एगटुं ठावणा चेव२६ ॥
'१. वासासू (स)। २. इस गाथा के लिए टीकाकार ने भाष्यप्रपंच: का उल्लेख
__ किया है किन्तु यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए। ३. एव (स)। ४. एतेसिं (अ)।
ब प्रति में इसका केवल प्रथम चरण प्राप्त है। ६. उदुबद्धे (अस)। ७. तधेव (अ)। ८. उ(स)। ९. x (ब) । १०. इधरा (अ)। ११ उ(ब) । १२. सागारियादी (अस)। १३. होति अन्नेसु (स)।
१४. ० भावण (ब)। १५. भिक्खादी (ब)। १६. मिलभिः गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। १७. माणमिति वाक्यालंकारे (म) । १८. अडतं (ब) १९. न य (अ)। २०. यणो (ब)। २१. पडिसेवति को ० (ब)। २२. पहायम्मि (ब), पभायंति (स)। २३. य (अ)। २४. तिमओ (स)। २५. माणण त्ति (ब)। २६. इस गाथा का उत्तरार्ध अप्रति में नहीं है।
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१९२ ]
व्यवहार भाष्य
१९९३. पुव्वं ठावेति गणे, जीवंतो गणधरं जहा राया ।
कुमरे उ परिच्छित्ता, रज्जरिहं ठावए रज्जे ॥ १९९४. दहिकुड अमच्च आणत्ति, कुमारा ‘आणयण तहिं'३ एगो ।
पासे निरिक्खिऊणं, असि मंति पवेसणे रज्जं ॥ १९९५. दसविधवेयावच्चे, नियोग कुसलुज्जयाणमेवं तु ।
ठावेति 'सत्तिमंतं, असत्तिमंते"६ बहू दोसा ॥ १९९६. दोमादी गीतत्थे, पुव्वुत्तगमेण सति गणं विभए" ।
मीसे व अणरिहे वा, अगीतत्थे वा भएज्जाहि ॥ गीताऽगीता मिस्सा', अधवा अत्थस्स देस' गहितो तू११ ।
तत्थ अगीत अणरिहा२, आयरियत्तस्स३ होती उ ॥ १९९८. 'कहमरिहो वि५४ अणरिहो, 'किण्णु हु'१५ असमिक्खकारिणो थेरा ।
ठावेंति जं अणरिहं, चोदग ! सुण कारणमिणं तु ॥ १९९९. उप्पियण'६ भीतसंदिसण, अदेसिए१७ चेव फरुससंगहिते ।
वायगनिप्फायग८ अण्णसीस इच्छा अधाकप्पो ॥नि. ३२३ ।। २०००. सन्निसेज्जागतं दिस्स९, सिस्सेहि२० परिवारितं ।
कोमुदीजोगजुत्तं वा९, तारापरिवुडं ससिं२२ ॥ २००१. गिहत्थपरतित्थीहिं, संसयत्थीहि निच्चसो ।
सेविज्जंत२३ विहंगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं'२४ ॥ २००२. खग्गूडे अणुसासंतं, सद्धावंतं समुज्जते ।
गणस्स अगिला कुव्वं, संगहं विसए सए ॥ २००३. इंगितागारदक्खेहिं, सदा छंदाणुवत्तिहिं ।
अविकूलितनिद्देसं२५, रायाणं व अणायग२६ ॥
*35
१. जध व (स)। २. कुमारे (स)। ३. अतिणणं बहि (ब), अतिणण तहिं (स)। ४. परिक्खि ०(ब)।
ठावेंति (ब,स)। सत्तमत्तं असत्त ० (अ, ब, स)।
वितए (अ)। ८. सए ० (अ), ० ज्जाही (स)। ९. मीसा (स)। १०. दोसो (अ)। ११. उ(अ)। १२. णरिहा (ब)। १३. आयरिया तस्स (ब)।
१४. अध अरिहो उ (अ.स)। १५. किण्हु (अ)। १६. उप्पेयण (अ)। १७. संदेविए (ब)। १८. निप्फायक (अ)। १९. पस्स (स)। २०. सीसेहि (अ)। २१. व (ब)। २२. ससी (स)। २३. . ज्जते (ब, स)। २४. व कमलु ० (अ, स)। २५. अविकूडित ० (ब)। २६. अपाणगं (अ)।
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चतुर्थ उद्देश
१.
२.
३.
४.
५.
६.
२००४. उप्पन्नगारवे एवं, उप्पियंतं गणि दिस्स,
२००५.
२०१२
२००६. अट्ठाविते व३ पुव्वं आम दाहामु एतस्स, २००७. गीतत्थो 'य वयत्थो
य,
सम्मतो एस सव्वेसिं, साधू ते ठावितो गणे६ ॥ दारं ॥ २००८. असमाहियमरणं ते, करेमि जइ मे गणं ण ऊ देसि । इति 'गीते तु अगीते, संदिसए गुरु ' ततो भीतो ० ॥ २००९. आमं ति वोत्तु गीतत्था, जाणंता तं च कारणं । कट्ठे तं तु निज्जूहे, 'अतिसेसी य११ संवसे ॥ दारं ॥ २०१०. अरिहो वऽणरिहो होति, जो उ तेसिमदेसिओ । तुलसी व फरसो १२, मधुरोव्व १३ असंगहो ॥ दारं ॥ २०११. वायंतगनिष्फायग १४, चउरो भंगा तु पढमगो गज्झो । तिओ तुहोति सुणो १५, अण्णेण व सो पवाएति १६ ॥ असती व अन्नसीसं, ठावेंति गणम्मि" जाव निम्मातो १८ । एसो चेव अणरिहो, अहवा वि इमो ससिस्सो ९ वि २०१३. जो अणुमतो 'बहूणं, गणधर २१ अचियत्त २२ दुस्समुक्किट्ठो २३ । दोसा अणिक्खिवंते, सेसा दोसं च पावेंति२४ ॥
किमेय (ब) ।
मो (अ) ।
वि (अ) ।
अलं मज्झ गणेणं ति, किमेतं तेहि पुट्ठो उ
२०१४. अब्भुज्जतमेगतरं, ववसितुकामम्मि होति ते बेंति कुणसु एक्कं गीतं पच्छा
आमो (बस) ।
तधवत्थो (अ), य ववत्थो (स) ।
X (ब) गणो (स) ।
० माधीय० (स)।
७.
८.
९.
१०. x ( अ, ब ) ।
११. अतिसीसे य (अ), ० सेसिय (स) । १२. फरसो (मवृ) ।
करेंति (ब)।
भीतो उ (अ) ।
गणि त्ति परिकंखितो । अगीतो भासते इमं ॥ तुब्भे जीवह मे चिरं । दिज्जते मे गणो किल ॥
गीतत्था उप्पियंतए । सम्मतो एस अम्ह वि ॥
१३.
० व (अस) ।
१४. वायंतिगनिप्फावग (ब) 1
१५. पुण्णो (ब)।
सुत्तं I जहिच्छाते ॥
१६. वा वाएइ (मु) ।
१७. गणिम्मि (स) ।
१८. णिप्फातो (ब) ।
१९. ससीसो (अस) ।
२०. जा (अ)।
२१. x (ब) ।
२२. अच्छियत्तो (ब) ।
२३. ० मुक्कट्ठो (स) ।
२४. पावति (स) ।
11
[ १९३
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१९४ ]
२०१५. 'निम्माऊणं एगं", इमं पि निज्जराय दार तु । निक्खिव न निक्खिवामी, इत्थं इतरे तु खभं ॥ दुसमुक्कट्ठे निक्खिव, भणंत' गुरुगा 'अणुट्ठितं तह य३ । एमेव अण्णसीसे, निक्खिवणा गाहिते" नवरिं ॥ २०१७. आवस्सर्ग सुत्थे, भ आलोयणा उणे । पडिले ' कितिकम्म, मत्तग संथारगतिगं च ॥ २०१८. गेलण्णम्मि अधिकते, अठायमाणे सिया तु ओधाणं । भवजीवियमरणा वा, संजमजीवा १२ इमं होति ॥
.
२०१६.
२०१९
२०२०.
२०२१.
२०२२.
२०२४.
२०२३. पयत्तेोसधं से, करेंति सुद्धे
२०२५.
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०. उट्ठाणं (अ) ।
११.
१२.
१३. च (ब) ।
० मरणं (ब)।
० जीया (अ) ।
पुव्वभणितं,
मोहेण व १३ रोगेण १४ व ओधाणं भेसयं पयत्तेणं । धम्मक धानिमित्तेण १५, अणाधसाला गवेसणता १६ ॥ नि. ३२४ ॥ मोहेण रोगेण करेंतिमाएँ जतणाए । आयरियकुलगणे वा 'संघे व १७ कमेण पुव्वत्तं ॥ छम्मासे आयरिओ, कुलं तु संवच्छराणि तिन्नि भवे । संवच्छरं गणो खलु जावज्जीवं भवे संघो ॥ अधवा बितियादेसो, गुरुवसभे भिक्खुमादि तेगिच्छं । जहरिह१८ बारसवासा, तिछक्कमासा १९ द्धे
निम्माणकुणेहिं (ब), निम्माणेऊण एगं (स)।
भणाति (ब) ।
० द्विहंते य (स) ।
असण्णीसे (अ) ।
गाहितं (ब) ।
आवास (अ, ब ) ।
सुत्तत्था (ब)।
पडिलेहा (ब)।
अतिकते (अ), अतिगते (ब) ।
उग्गमादीहिं । पणहाणीय अलंभे, धम्मकहाहिं२२ निमित्तेहिं ॥ नि. ३२५ ।। तह वि३ न लभे असुद्धं, बहिठिय२४ सालाहिवाणुसद्वादी २५ । नेच्छंते बहिदाणं, सलिंगविसणेण उड्डाहो ॥नि. ३२६ ॥
अलब्भमाणे बहिं तु पाउग्गे । पभुस्साणुसद्वादी' २६ ।।
तत्थ
पणगादी जा गुरुगा, बहिठित सालगवेसण,
१४. X (ब) ।
१५. धम्मकहादिनिमित्ते (अ) ।
१६. अधुना निर्युक्तिविस्तरः (मवृ) ।
१७. संघेण (अ.स)।
१८. जहारिय (ब)।
व्यवहार भाष्य
१९. ति छक्कि ० (स) ।
२०. पयत्तेण ओसधं (स) ।
२१. असंते (अ)।
२२.
० कहादी (स)। २३. व (अ)।
२४. बहिट्ठित्त (स) ।
२५. सालादिवा ० (ब)।
२६. स प्रति में यह गाथा अनुपलब्ध है ।
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चतुर्थ उद्देशक
[ १९५ २०२६. 'असती अच्चियलिंगे', पविसण पतिभाणवंत वसभाओ ।
जदि पडिवत्तियकुसला, भावेंति नियल्लगत्तं से ॥ २०२७. अधव पडिवत्तिकुसला, तो तेण समं करेंति उल्लावं ।
पभवंतो वि य सो वी, 'वसभे उ अणुत्तरीकुणति ॥ २०२८. तो भणति कलहमित्ता, तुब्भे वहेज्जह' मे उदंतं ति ।
ते वी य पडिसुणंती, एवं एगाय छम्मासा ।। २०२९. छम्मासा छम्मासा, बितिए ततियाय एव सालाए ।
'काऊ अट्ठारस' ऊ, अपउण ताहे विवेगो उ । २०३०. गुरुणो जावज्जीवं, फासुयअप्फासुएण तेगिच्छं ।
वसभे बारसवासा, अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥ २०३१. ओहाविय भग्गवते, होति उवट्ठा पुणो उवटुंते ।
उक्कसणा१ वा पगता, इमा वि अण्णा समुक्कसणा'२ ॥ २०३२. संभरण उवट्ठावण, तिण्णि उ पणगा हवंति उक्कोसा ।
माणणिज्ज पितादी उ१३, तेसऽसती छेद परिहारो ॥ २०३३. अच्छउ ता उट्ठवणा, पुव्वं पव्वावणादि१४ वत्तव्वा ।
अडयाल पुच्छ सुद्धे, भण्णति दुक्खं खु सामण्णं ॥ २०३४. गोयर अचित्तभोयण, सज्झायमण्हाण-भूमिसेज्जादी ।
अब्भुवगतम्मि दिक्खा, दव्वादीसु पसत्थेसुं ॥ २०३५. लग्गादी व तुरंते, अणुकूले दिज्जते उ अहजायं ।
सयमेव तु थिरहत्थो, गुरू जहण्णेण तिण्णट्ठा ॥ २०३६. अण्णो वा थिरहत्थो५, सामाइयतिगुणमट्ठगहणं१६ च ।
तिगुणं पादक्खिण्णं, नित्थारग१७ गुरुगुणविवड्डी१८ ॥ २०३७. फासुयआहारो से, अणहिंडंतो य गाहए सिक्खं ।
ताहे उ उवट्ठावण, छज्जीवणियं तु पत्तस्स ॥ २०३८. अप्पत्ते अकहित्ता ९, अणभिगतऽपरिच्छ अतिक्कमे वा से ।
एक्केक्के चउगुरुगा, चोयग ! सुत्तं तु कारणियं ॥नि. ३२७ ।।
१. x(अ)। २. पविभा ० (ब)। ३. वसभा तु (स)।
वसभे तु उत्तरी ० (स)। ५. वधेज्जह (अ)।
वि (ब)।
कालत्तट्ठारस (अ.स)। ८. तेयच्छ (ब)।
९. भग्गविते (अ)। Jain Education ente अबढ़ते (ब)।
११. उवक्क० (अ)। १२ ० सणं (अ)। १३. अधुना भाष्यनियुक्तिविस्तरः (मवृर, गाथा के तृतीय चरण में
अनुष्टुप् छद है। १४. पव्वायणा (अ)। १५. वरहत्थो (अ)। १६. ० गुण अट्ठ ० (अ)। १७. x (अ)।
१८. गुरुगण ० (अ, ब)। For Private & Person४९s अकहितो (ब)।
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व्यवहार भाष्य
२०३९. अप्पत्ते तु सुतेणं, परियागमुवट्ठवेंतरे चउगुरुगा ।
आणादिणो य दोसा, विराहणा छह कायाणं ॥दारं ।। २०४०. 'सुत्तत्थं अकहित्ता'३ जीवाजीवे य बंधमोक्खं च ।
उट्ठवणे चउगुरुगा, विराहणा जा भणितपुव्वं ॥दारं ।। २०४१. अणधिगतपुण्णपावं, उवट्ठवेंतस्स चउगुरू होति ।।
आणादिणो य दोसा, मालाए होति दिलुतो ॥ दारं ॥नि. ३२८ ॥ २०४२. उदउल्लादि परिच्छा, अहिगय नाऊण तो वते देंति ।
एक्केक्कं तिक्खुत्तो, जो न कुणति तस्स चउगुरुगा ॥ २०४३. उच्चारादि अथंडिल, वोसिर ठाणादि वावि पुढवीए ।
नदिमादि दगसमीवे, सागणि निक्खित्त तेउम्मि । २०४४. वियणऽभिधारण' वाते, हरिए जह पुढविए तसेसुं च ।
एमेव गोयरगते, होति परिच्छा उ काएहिं ॥ २०४५. दव्वादिपसत्थवया, एक्केक्क तिगं तु उवरिमं हेट्ठा ।
दुविधा तिविधा य दिसा, आयंबिल निव्विगितिया वा ॥ २०४६. पिय-पुत्त खुड्ड थेरे, खुड्डगथेरे अपावमाणम्मि ।
सिक्खावण पण्णवणा, दिद्रुतो दंडियादीहिं । २०४७. थेरेण अणुण्णाते, 'उवट्ठऽणिच्छे व ठंति'८ पंचाहं ।
ति पणमणिच्छे उवरिं, वत्थुसहीवेण जाहीयं ॥ २०४८. दो थेर खुड्ड'१ थेरे, खुड्डग २ वोच्चत्थ मग्गणा होति ।
रण्णो अमच्चमादी, संजतिमज्झे महादेवी ॥ २०४९. दो पत्त पिता-पुत्ता, एगस्स उ 'पुत्त पत्त१३ न उ थेरा ।
गहितो व सयं वितरति, राइणिओ होतु एस ‘वि य"५ ॥
My 35
१. अपत्ते (अ)। २. ० गउट्ठावेंते (ब)। ३. मकहिता (अ), अवकहेंता (ब)।
वोसिरण (अ)। वियाण ० (ब)। ति (ब)।
खुद्द (ब)। ८. उवउट्ठव, णिच्छो ठवंति (ब)।
९. ० मतिच्छे (ब)। १०. वुवरि (अ)। ११. खुद्द (अ)। १२. खुद्दग (अ) सर्वत्र । १३. पुत्तो पत्तो (अ, स)। १४. गधितो (ब)। १५. वितो (अ, ब), विया (स)।
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चतुर्थ उद्देशक
[ १९७ २०५०. राया रायाणो वा, दोण्णि वि समपत्त दोसु पासेसु ।
ईसर-सेट्ठि-अमच्चे, निगम घडाकुल दुए खुड्डे ॥ २०५१. समगं तु अणेगेसुं, पत्तेसुं अणभिजोगमावलिया ।
एगतो दुहतो ठविता, समराइणिया जधासन्नं ॥ २०५२. ईसि अवणय अंतो, वामे पासम्मि होति आवलिया ।
अभिसरणम्मि' य वुड्डी, ओसरणे सो व अण्णो वा ॥ २०५३. दप्पेण पमादेण व, वक्खेवेण व गिलाणतो वावि ।
एतेहि असरमाणे, चउब्विहं होति पच्छित्तं ॥नि. ३२९ ॥ २०५४. वायामवग्गणादिसु, दप्पेण अणुट्ठवेंति चउगुरुगा ।
विकधादिपमादेण व, चउलहुगा होति बोधव्वा ॥ २०५५. सिव्वण-तुण्णण-सज्झाय-झाण-लेवादि दाण कज्जेसुं ।
वक्खेवे होति गुरुगो, गेलण्णेण तु मासलहू ॥ २०५६. धम्मकधा इड्डिमतो, वादे अच्चुक्कडे व गेलण्णे ।
- ‘बितियं चरमपदेसुं, दोसुं 'पुरिमेसु तं१० नत्थि ॥ २०५७. सरमाणे पंचदिणा, असरमाणे वि१ तत्तिया चेव ।
कालो त्ति व समयो ति व, अद्धा कप्पो त्ति एगटुं ॥ २०५८. जाहे सुमरति१२ ताहे, असाहगं रिक्खलग्ग दिणमादी ।
बहुवक्खेवम्मि य गणे, सरियं पि पुणो वि विस्सरति ॥ २०५९. दसदिवसे चउगुरुगा, दसेव उ छल्लहु-छग्गुरू चेव ।
तत्तो छेदो मूलं, अणवठ्ठप्पो य पारंची१३ ॥ २०६०. एसादेसो पढमो, बितिए तवसा अदम्ममाणम्मि ।
उभयबलदुब्बले वा, संवच्छरमादि साहरणं ॥ २०६१. एते दो आदेसा, मीसगसुत्ते हवंति नायव्वा ।
पढमबितीएसुं पुण, सुत्तेसु इमं तु नाणत्तं ॥
१. x (ब)। २. नियम (अ, ब)। ३. x (ब)।
अण्णो (स) ५. ० सरयम्मि (स)। ६. ०णादीसु (स)।
अणुवटवंति (ब), णुट्ठवेंति (अ)।
८. गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ) । ९. बितियपयं चरिमे (अ, स) 1 १०. परमेसु ते (स)। ११. व (ब)। १२. सुमिरति (ब)। १३. २०५९-२०६१ ये तीन गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं।
७.
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________________
१९८ ]
व्यवहार भाष्य
२०६२. चउरो य पंच दिवसा, चउगुरू छ एव होति छेदो वि ।
तत्तो 'मूलं नवम", चरम पि य एगसरगं तु ॥ २०६३. कीस गणो मे गुरुणो, हितो त्ति इति भिक्खु अन्नहिं गच्छे ।
गणहरणेण कलुसितो, स एव भिक्खू वए अण्णं । २०६४. पव्वावितोऽगीतेहि, अन्नहि गंतूण उभयनिम्मातो ।
आगम्म सेससाहण', ततो य साधू गतोऽण्णत्थ ।। २०६५. तत्थ वि य अन्नसाधु, अटे ती अहिज्जमाण साधूणं ।
बेती' मा पढ एवं, 'किं तिय- अत्थो न होएवं ॥ २०६६. अत्थो वि अत्थि एवं, आम नमोक्कारमादि सव्वस्स ।
केरिस पुण अत्थो११ ती, बेती सुण 'सुत्तमट्ट त्ति'१२ ।। २०६७. अट्टे चउब्विधे खलु, दब्वे नदिमादि जत्थ तणकट्ठा ।
आवत्तंते पडिया, अहव'३ सुवण्णादियावट्टे ॥ २०६८. अहवा अत्तीभूतो, सच्चित्तादीहि होति दव्वेहि१४ ।
भावे कोहादीहिं५, अभिभूतो होति अट्टो उ ॥ २०६९. परिजुण्णो१६ उ दरिद्दो, दब्वे धणरयणसारपरिहीणो ।
भावे नाणादीहिं१७, परिजुण्णो एस८ लोगो उ ॥ २०७०. एवं सिद्धे अत्थे, सो बेती कत्थ मे अधीयं ति ।
'अमुगस्स सन्निगासे'१९, अहगं पी तत्थ वच्चामि ॥ २०७१. सो तत्थ गतोऽधिज्जति, मिलितो 'सझंतिएहि उब्भामे ।
पुट्ठो सुत्तत्था ते, सरंति ‘निस्साय कं विहरे'२० ।। २०७२. अमुगं निस्साऽगीतो, विहरति कप्पेण गीतसिस्सस्स ।
अहमवि य तस्स२२ कप्पा, जं वा भगवं उवदिसंति ॥
१. नवम मूल (अ)। २. हतो (ब)। ३. भिक्ख (अ)। ४. अगीतेहि (स)। ५. ० साहसण (ब)।
आडि त्ति (अ), अट्टेत्ति य (स)।
बिंती (ब)। ८. कित्तिय (ब)। ९. अत्थ (अ, ब)। १०. आमं (स)। ११. अत्थी (अ)।
१२. ० मम्मि (अ)। १३. अधवा (अ)। १४. दव्वम्मि (ब)। १५. ० दीहि उ (अ)। १६. परिभूतो (ब)। १७. ० दीह (ब)। १८. सव्व (अ)। १९. अमुग ति सन्नि ० (अ), अमुग सगासे (ब)। २०. वा कहं विहरे (ब)। २१. कस्स (म)।
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चतुर्थ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
रायणियस्स ऊ गणो', गीतत्थोमस्स' विहरती निस्सा । जो जेण होति महितो ३, तस्साणादी 'न हावेमि ॥ २०७४ इति खलु आणा बलिया, आणासारो य गच्छवासो उ । मोत्तुं आणापा सा कज्जा सव्वहिं जोगे ॥
२०७३.
अहवा तदुभयहेडं, आइण्णो सो बहुस्सुत गणो उ 1
उस्सूरभिक्खखेत्ते, चइयाणं चारिया जोगो ॥ २०७६. पंचाहग्गहणं पुण, बलकरणं होति पंचहि एग-दुग-तिणि-पणगा, आसज्ज बलं
दिहिं ।
विभासा ॥
२०७५.
दत्ताऽऽलोयणा'
पुरा ।
अवसण्णेहि आगम्म, पडिक्कंतो उ भावतो ॥
२०७८. जा याण्णवणा पुव्वं,
कता साधम्मि
उग्गहे ।
संभावणाय सालंद, जा भावो अणुवत् ॥ २०७९. परं ति परिणते भावे, परिभूतो तु सो
.
नवोवसंपदा १२ व, तत्थाऽऽलोए१३ पडिक्कमे ॥
वासगाणुण्णा ॥
२०८०. जइ पुण किं वावण्णो, तत्थ तु१४ आलोइउं उवट्ठाति १५ । विप्परिणयम्मि भावे, एमेव अविप्परिणयम्मि ॥ २०८१. उववातो निद्देसो, आणा विणओ य होंति१६ एगट्ठा । तस्सट्ठाए पुणरवि १७, मितोग्गहो २०८२. मितगमणं १८ चेट्ठणतो, मितभाति मितं च मज्झ धुवं अणुजाणह, जा य धुवा १९ निययं २० च तहावस्सं अहमवि ओधायमादि जा निच्चं जाव सहाए, न लभामि इधाऽऽवसे
भोयणं भंते । गच्छमज्जाया
॥
२०७७. उवसंपज्जमाणेण, जा
२०८३.
गुरु (अ) 1
० त्योमिस्स (ब) ।
अधितो (अ) ।
निभावेमो (ब) ।
X (अ) ।
आदिण्णो (ब)।
चययाणं (ब), वइयाणं (स) ।
५.
६.
७.
८.
उत्ता ० (अस) ।
९.
ओसन्नेहि (अस) । १०. जो (ब) ।
११. ता णुअत्तती (स) ।
१२. न चेव संप ० (अ) ।
१३. जत्था ० ( अ, स) ।
१४. वि (अ) 1
१५. अव ० (स) ।
१६.
१७.
१८.
होति (स) ।
पुणिरवि (ब) ।
० गमण (स)।
१९. धुया (स) । २०. नितियं (अस) ।
मेरा ।
ताव ॥
[ १९९
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________________
२०० ]
व्यवहार भाष्य
२०८४. दिवसे दिवसे वेउट्टिया उ पक्खे व वंदणादीसु ।
पट्ठवणमादिएसुं', उववाय पडिच्छणा बहुधा ॥ २०८५. अब्भुवगते तु गुरुणा, सिरेण संफुसति तस्स कमजुगलं ।
कितिकम्ममादिएसु य, नितमणिते य जे फासा ॥ २०८६. भिक्खूभावो' सारण, वारण पडिचोदणं जधापुर' ।
___ तह चेव इयाणिं पी, निज्जुत्ती सुत्तफासेसा ॥ २०८७. आकिण्णो सो गच्छो, सुह-दुक्खपडिच्छएहि सीसेहि ।
दुब्बल-खमग-गिलाणे, निग्गम संदेसकहणे" य ॥नि. ३३० ।। २०८८. अहमवि ‘एहामो ता", अण्णत्थ इहेव मं० मिलिज्जाह ।
अतिदुब्बले १ य नाउं, विसज्जणार नत्थि'३ इतरेसिं ॥ २०८९. तं चेव पुव्वभणितं, आपुच्छण मास दोच्चऽणापुच्छा ।
उवजोग बहिं सुणणा, साधू सण्णी गिहत्थेसु ॥ २०९०. नाऊण य निग्गमणं, पडिलेहण सुलभ-दुल्लभं भिक्खं ।
जे य गुणा आपुच्छा, जे वि य दोसा अणापुच्छा ॥ २०९१. पच्चंत१४ सावयादी५, तेणा दुब्भिक्ख तावसीओ य ।
नियगपदुद्रुद्धाणा'६, फेडणा य७ हरियपण्णी१८ य९ ॥ २०९२. अण्णत्थ तत्थ 'विपरिणते या'२० गेलण्णे होति चउभंगो ।
फिडिता२१ गतागतेसु य, 'अपुण्ण 'पुण्णेसु'२२ वा दोच्चं२३ ॥नि. ३३१ ॥ २०९३. अवरो परस्स निस्सं, जदि खलु सुह-दुक्खिया करेज्जाहि ।
अब्भंतरा२४ उ सेहं, लभति गुरू पुण न लभती तु ॥ २०९४. गेलण्णे चउभंगो, तेसिं अहवा वि होज्ज आयरिए ।
दोण्हं पी होज्जाही, अहव न होज्जाहि दोण्हं पि२५ ॥
INTIikirlili
१. ० एसु य (स)।
जा (अ, ब)।
भिक्खोवतो (अ, स)। ४. x (अ)। ५. ० पुब्बि (अ)।
सिस्सेहिं (अ, स)। ७. ० करणे (स)। ८. साम्प्रतमेषा वक्ष्यमाणा सूत्रस्पर्शिकानियुक्ति: (मवृ)। ९. एहमेत्तो (अ), एहमोत्त (स) । १०. मि (स) ११. इति ० (स)। १२. विभज्जणा (स)। १३. नत्थि य (ब)।
१४. पुच्छंत (ब)। १५. सावताइं (स)। १६. दुट्ठद्धाणे (अ)। १७. या (ब),x (स)। १८. ० पल्ली (स)। १९. या (ब)। २०. विप्परिणते य (स)। २१. फेडिया (अ)। २२. पुण्णऽ पुण्णेसु (अ)। २३. नियुक्तिमाह (मवृ)। २४. ० तर (अ)। २५. पी (स)।
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________________
[ २०१
चतुर्थ उद्देशक २०९५. आयरिय अपेसते, लहुओ अकरेंत चउगुरू होति ।
परितावणादि दोसा, तेसि अप्पेसणे' एवं ॥ २०९६. अहवा दोण्ह वि होज्जा, ऽसंथरमाणेहि तह वि गविसणयारे ।
___ तं चेव य पच्छित्तं, असंथरंता भवे सुद्धा ॥ २०९७. हटेणं न गविट्ठा, अतरंत न ते य विप्परिणया उ ।
तत्थ वि न लभति सेहे, लभति कज्जे विपरिणया वि ॥ २०९८. लटुं' अविप्परिणते, कधेति भावम्मि विप्परिणयम्मि ।
इति मायाए गुरुगो, सच्चित्तादेसगुरुगा वा ॥ २०९९. सुहदुक्खिया गविट्ठा, सो चेव य उग्गहो य सीसा य ।
विप्परिणमंतु मा वा, अगविट्ठेसुं तु सो न लभे ॥ २१००. विप्परिणतम्मि भावे, लद्धं अम्हेहि बेंति जइ पुट्ठा ।
पच्छा पुणो वि जातो, लभंति दोच्चं अणुण्णवणा ।। २१०१. आगतमणागताणं, उडुबद्धे १० सो विधी तु जा भणिता ।
अद्धाणसीसगामे'१, एस विहीए ठिय२ विदेसं ॥ २१०२. सत्थेणं सालंब१२ गतागताण इह मग्गणा होति'४ ।
तत्थऽण्णत्थ५ गिलाणे, लहु-गुरु-लहुगा चरिम जाव ॥ २१०३. पुण्णे व६ अपुण्णे वा, विपरिणतेसु जा होतऽणुण्णवणा ।
गुरुणा वि न.७ कायव्वा, संकालद्धे१८ विपरिणते उ ॥ २१०४. पारिच्छनिमित्तं वा, सब्भावेणं च बेति९ तु पडिच्छे ।
उवसंपज्जितुकामे, मज्झं तु अकारगं इहइं ॥ २१०५. अण्णं गविसह खेतं, पाउग्गं 'जं च'२० होति सव्वेसि । बालगिलाणादीणं,
सुहसंथरणं
महाणस्स ॥
१. पि अपेसणे (अ) २. गवेस ०(ब)। ३. लब्भति (अ)। ४. वी (स)। ५. अटुं (ब)। ६. विपरि ० (स)। ७. लभवे (ब)। ८. होंति (स)।
पुच्छा (ब)। १०. उउ ०(ब)।
११. ० सीसगम्मि वि (ब, म)। १२. पट्ठिय (स)। १३. सावलभं (स)। १४. होति (आ)। १५. तत्थ नस्थि (ब), ण्णस्थि (स)। १६. वा (अ.स)। १७. हु (ब)। १८. ० लद्धम्मि (स)। १९. वण्णति (स)। २०. जत्थ (अ)।
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२०२ ]
१.
२.
३.
४.
६.
७.
८.
९.
२१०६.
कतसज्झाया एते, पुव्वं गहितं पि नासते अम्हं । खेत्तस्स अपडिलेहा, अकारका तो विसज्जेति ॥ २१०७. सव्वं करिस्सामु ससत्तिजुत्तं इच्चेवमिच्छंत पडिच्छिऊणं निद्देसबुद्धीय न यावि भुंजे, तं वाऽगिला पूरयते सि इच्छं ॥ २१०८. निट्ठितमहल्लभिक्खे, कारण उवसग्गऽगारिपडिबंधो । निग्गम सेसेसु ववहारो ॥ नि. ३३२ ॥ निग्गमो तस्स होति जह अन्ने सो वि
पढमचरिमाइ
इच्छाए ।
२१०९. सम्मत्तम्मि सुते तम्मि, मंडलि महल्लभिक्खे,
जावए ॥ दारं ॥ निग्गमो ।
२११०. कारणे असिवादिम्मि, सव्वेसि दंसमादि उवसग्गे, सव्वेसि २१११. नीयल्लएहि " उवसग्गो, जदि
तू " 11
गच्छंति
नेतरे १२ 1 भावतो ॥
पडिबंधो ।
निग्गच्छति ततो एगो, पडिबंधो वावि१३ २११२. आतपरोभयदोसेहि, जत्थऽगारीय होज्ज तत्थ न संचिट्ठेज्जा १४, नियमेण तु निग्गमो २११३. पढमचरिमेसऽणुण्णा, निग्गम सेसेसु होति ववहारो । पढमचरिमाण निग्गम, इमा उ जयणा हिं होति ॥
तत्थ ॥
२११४. सरमाणे उभए वी, पम्हुट्ठे दोह वि २११५. दूरगतेण तु सरिए
काउस्सग्गं १५ तु काउ वच्चेज्जा 1 ऊ, आसन्तो नियट्टेज्जा १६ तस्सगासम्म । च पेसेति ॥
२११६.
२११७. सज्झायभूमि ८ वोलंते, सज्झायभूमि
दुविधा,
गधितं (अ) ।
अमुं (अ)।
ता (अ)।
विसज्जेहि (अ), यह गाथा ब प्रति में नहीं है ।
० स्सामो (स) ।
० एकारि ० (अ)।
तह (स) ।
सव्वे से (ब) ।
० मेवं (स) ।
एवमेव
साधम्मि दडु जं लद्धं तं
काउस्सग्गं काउं, पढमचरमाण एसो, निग्गमणविही समासतो तो मज्झिल्लाणं, ववहारविधि तु
छम्मास
होति
आगाढा
१०. x ( अ, ब ) ।
११. णीयणएहिं (ब) ।
१२. ते नरे (ब)।
१३.
१४.
१५.
X (ब) 1
१६. नियत्तेज्जा (स) ।
१७. साधम्मी (स) ।
१८.
॥
पाहुडे
चेवऽणागाढा ॥नि. ३३३ ॥
टीका की व्याख्या एवं छंद की दृष्टि से वावि के स्थान पर व पाठ होना चाहिए।
संचिक्खेज्जा (अ, स) ।
० भूमी (अस) ।
भणितो ।
वोच्छामि ॥
व्यवहार भाष्य
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चतुर्थ उद्देशक
[ २०३ २११८. जहण्णण तिण्णि' दिवसा, णागाढुक्कोस होति बारस तु ।
एसा दिट्ठीवाए', महकप्पसुतम्मि बारसगं ॥नि. ३३४ ।। २११९. सकंतो या वहतो, काउस्सग्गं तु छिन्नउवसंपा ।
अकयम्मी उस्सग्गो, जा पढती तं सुतक्खंधं ॥ २१२०. ता लाभो उद्दिसणायरियस्स जदि वहति वट्टमाणिं से ।
अवहंतम्मि उ लहुगा, एस विधी होइऽणागाढे ॥ २१२१. आगाढो वि जहन्नो, कप्पिगकप्पादि तिण्णऽहोरत्ता ।
उक्कोसो छम्मासो, वियाहपण्णत्तिमागाढे ॥नि. ३३५ ॥ २१२२. तत्थ वि° काउस्सग्गं, आयरियविसज्जितम्मि छिन्ना तु ।
संसरमसंसरं वा, 'अकाउस्सगं तु भूमीए'११ ॥ २१२३. तीरित अकते उ गते, जावन्नं २ न पढते उ१३ ता पुरिमा ।
आसन्नाउ नियत्तति, दूरगतो वावि अप्पाहे ॥दारं ।। २१२४. अतोसविते१४ पाहुडे, णिते छेदो पडिच्छर५ चउगुरुगा ।
जो वि य तस्स उलाभो, तं पि य न लभे६ पडिच्छंतो ॥ २१२५. तत्थ वि य अच्छमाणे, गुरुलहुया सव्वभंग जोगस्स ।
आगाढमणागाढे, देसे भंगे उ गुरु-लहुओ ॥ २१२६. आयंबिलं न कुव्वति, भुंजति विगती उ१९ सव्वभंगो उ ।
चत्तारि पगारा पुण, होंति इमे देसभंगम्मि ॥ २१२७. न करेति२० भुंजिऊणं, करेति काउं सयं च भुंजति२१ उ ।
वीसज्जेह२२ ममंतिय, गुरु-लहुमासो विसिट्ठो उ । २१२८. एक्केक्के आणादी, विराधणा होति संजमायाए२३ ।
अहवा कज्जे२४ उ इमे, दहूं जोगं विसज्जेज्जा२५ ॥नि.३३६ ।।
१. तन्नि (ब)। २. अणागा ० (स)। ३. दिट्ठिवाए (अ)। ४. तधक ० (अ)। ५. उ(अ,स)। ६. पढति (अ), पढम (स)। ७. उव ०(अ)।
होति अणगाढे (अ, स)।
विवाह ० (ब)। १०. वि य (अ), वि उ(स)। ११. अकए लभंतो भूमी ए(अ)। १२. जाययणं (ब),जा अन्नं (स)। १३. x (ब)।
१४. अविओसते (अ)। १५. परिच्छ (अ)। १६. लंभे (अ)। १७. सव्वे भंगे (अ)। १८. आगाढ अणा ० (ब)। १९. तो (स)। २०. करेंति (स)। २१. भुंजती (स)। २२. ० ज्जेहि (स)। २३. संजमतीते (ब)। २४. करेज्ज (अ)। २५. विवेज्जे ० (अ, स)।
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२०४ ]
१.
२.
३.
४.
२१२९. दट्टु विसज्जण जोगे,
आगाढ नवगवज्जण,
गेलणं वय महामहद्धाणे । निक्कारण कारणे विगती ॥नि. ३३७ ॥ आगाढियरे य होति चउभंगोरे । बितिओ ततिओ य एक् ॥ 'दड्डे पक्कुद्धरेहि ̈ तिणि दिणे । मक्खेंति' अठायंते, पज्जंत धरे दि तिन्नि ॥ २१३२. जत्तियमेत्ते दिवसे, विगतिं सेवति न उद्दिसे तह वि य अठायमाणे, निक्खिवणं
२१३१. उभयम्मि वि आगाढे,
सव्वहा जोगो ॥ २१३३. जदि निक्खिप्पति दिवसे, भूमीए तंत्तिए उवरि वड्ढे । अपरिमितं तुद्देसो, भूमीए उवरितो कमसो ॥
२१३०. जोगे गेलण्णम्मि य पढमो उभयागाढो,
२१३४. गेलण्णमणागाढे, रसवति"
तह वि य अठायमाणे, २१३५. तिणि तिगेगंतरिते, तिणि तिगा अंतरित २१३६. वइया अजोगि जोगी, निव्विगितियमाहारो १४,
२१३७. आयंबिलस्सऽलंभे,
महट्ठाणे (स) ।
नेहोव्वरे असति पक्का । आगाढतरं ११
२१३८. जदि निक्खिप्पति दिवसे, भूमीए
६.
पच्चंत (स, अ) ।
७.
तं तु (स) ।
८.
तु वुड्ढे (ब)।
९.
रिए (स) ।
१०. रसमणि (अस) ।
o
० रणे (अ)।
चतुर्भयी गाथायां पुंस्त्वनिर्देश: प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
दल्लग पक्कएहि (स) ।
मक्खेति (स) ।
तु निक्खिवणा ॥ दारं ॥ निक्खिव परेण ।
लण्णा गाढ
चउत्थभंगे व १२ निक्खिवणा १३ ॥ दारं ॥
व अदढ अतरंतगस्स दिज्जंते । अंतरविगतीय निक्खिवणं ॥ चउत्थमेगंगियं"
तक्कादी ।
असतेतरमागाढे, निक्वणु
२१३९. सक्कमहादीएसु व, 'पमत्त मा तं १७ सुरा छले ठवणा । पीणिज्जंतु व अदढा, इतरे वहंति १८ न पढंति ॥
' उ
तत्तिए उवरि वड्ढे ।
अपरिमितं तुद्देसो, भूमीए उवरितो कमसो १६ ||
११.
१२.
च
तह
१७.
१८.
मागाढ ० (अ, ब, स)।
वि (अ.स) ।
० वणि (ब) ।
१३.
१४. निव्वीति ० (स) ।
चेव ॥ दारं ॥
व्यवहार भाष्य
१५.
उत्थ एगंगियं (अ) ।
१६. यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में नही है किन्तु टीका की मुद्रित प्रति में प्राप्त है। विषयवस्तु की दृष्टि से यह गाथा यहां
प्रासंगिक प्रतीत होती है।
पमत्तगाणं (अ) ।
उवहुति (अ, ब ) ।
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________________
चतुर्थ उद्देश
१.
२.
३.
४.
'निक्खिव
२१४०. अद्धार्णा म असतीय २१४१. आगाढम्म उ जोगे, दसमाय" होति भयणा,
एसिय गाण पणगादी । सव्वाऽसती'३ इतरे ॥ दारं ॥ विगतीओ नवदिवज्जणीया उ । सेसग भयणा वि इतरम्मि ॥
जोगवाहिणो ।
२१४२. निक्कारणे न कप्पंति, विगतीओ कप्पंति कारणे भोत्तुं अण्णा
गुरूहि उ ॥ बले ।
११०
२१४३. विगतीकए ण जोगं, निक्खिवए अदढे स भावतो अनिक्खित्ते", निक्खित्ते वि य तम्मि उ ॥ २१४४. विगतिकते जोगं 'दढ-दुब्बले " से भावतो • अनिक्खित्ते", २१४५. सालंबो विगति जो उ
ण
1
निक्खिवे उववातेण
गुरूण उ ॥
आपुच्छित्ताण १२
स जोगे देभंगो उ सव्वभंगो
२१४९.
२१४६. जह कारणे१४ असुद्धं, वह कारणम्मि जोगं, २१४७. अण्णो इमो पगारो,
माया- नियडीजुत्तो १७, २१४८. उप्पण्णे उप्पण्णे, सच्चित्ते जो उ सव्वेसि गुरुकुलाणं, उवसंपद१९ बहिया २० य अणापुच्छा, गुरुवयणे पच्छकडो २९,
अद्धाणो मे (स, ब) ।
सेसाण (ब)।
निक्खिवण सव्वऽसति (ब) ।
जोगीणं, अणागाढे,
२१५०. अहिज्जमाणे २२ उ सचित्तं, निक्खिप्पतं भंते !,
य (स) 1
५.
दसगाय (स)।
६.
अणुणतो (स)।
उ निक्खिते (ब) ।
७.
० करणे (अ) 1
८.
९.
जा जोगं (अ, ब)
१०. अदढे बले (अ) ।
११. उ निक्खित्ते (अ) ।
सेवए १३ ।
विवज्जए ॥ भुंजतो न उ असंजतो १५ होति । न खलु अजोगी ठवेंतो उ१६ ॥ पडिच्छयस्स उ अहिज्जमाणस्स । ववहार सचित्तमादिम्मि १८ ॥
उप्पण्णं तु जया भवे जोगो । कज्जं मे किंचि
बेती
तु ॥
निक्खिवे जोगं । लोविता तेण ॥नि. ३३८ ॥
विहीय आपुच्छणाय मायाए ।
अब्भुवगम तस्स इच्छाए ॥ नि. ३३९ ॥
१२.
० ताणि (बस) । १३. सेवइ (अस) ।
१४. करणे (अ)।
१५. असंजमो (ब)। १६.
वि (स) ।
१७. ० जुओ (अ) ।
१८. ० मादम्मि (ब)।
१९. उवसपज्ज (ब) ।
२०. बधिता (अ) ।
[ २०५
२१. पच्छु ० (अ)। २२. ० माणं (स) ।
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________________
२०६ ]
व्यवहार भाष्य
२१५१. बहिया व अणापुच्छा, उन्भामे लभिय सहमादी२ तु ।
नेति सय पेसवेति व, आसन्नठिताण तुरे गुरूणं ॥दारं ।। २१५२. अहवुप्पण्णे सच्चित्तादी मा मे य एतहच्छिन्ती ।
मायाए आपुच्छति, नायविधिं गंतुमिच्छामि ॥ २१५३. पव्वावेउं तहियं, नालमणाले य पत्थवे गुरुणो ।
आगंतुं च निवेदति', लद्धा मे 'नालबद्ध ति ॥दारं ।। २१५४. पहाणादिसु इहरा' वा, दट्ठ पुच्छा कया सि पव्वविता ।
अमुएण अमुगकालं, इह पेसवियाणिता वावि ॥ २१५५. सो तु पसंगऽणवत्था१, निवारणट्ठाय मा हु अण्णो वि ।
काहिति एवं होउं, गुरुयं आरोवणं देति २ ॥ २१५६. अब्भुवगतस्स सम्म, तस्स उ पणिवइय वच्छला कोवि३ ।
वितरति तच्चिय सेहे, एमेव य वत्थपत्तादी१४ ॥ २१५७. एवं तु अहिज्जते, ववहारो अभिहितो समासेण ।
अभिधारेंते इणमो, ववहारविधिं पवक्खामि ॥ २१५८. जं होति नालबद्धं, धाडियणाती व जो ‘व तल्लाभं१५ ।
भोएहिति विमग्गंतो, छव्विह सेसेसु आयरिओ१६ ।। २१५९. उवसंपज्जते१७ जत्थ, तत्थ पुट्ठो भणाति तू ।
वयचिंधेहि संगारं, वण्ण सीते यऽणंतगं ॥
१. बाधिता (अ)। २. ०मादि (स)। ३. य (ब)। ४. एतहिच्छती (स)। . ५. निवेदं (अ), निवेदे (स) । ६. लद्धं (ब)। ७. बद्धति (ब)। ८. इहरो (स)। ९. पव्वतितो (अ, स)। १०. अमुइकालं (स)। ११. ० गं अण ०(अ)।
१२. देंति (स)। १३. कोइ (अ.स)। १४. ० पत्तावि (स)। १५. तहिं लंभो (अ, स)। १६. इस गाथा के बाद टीका की मुद्रित पुस्तक में निम्न गाथा भागा
के क्रम में मिलती है किन्तु सभी हस्तप्रतियों में यह गाथा अप्राप्त है। यह गाथा प्रसंगवश यहां उद्धृत कर दी गई है, ऐसा प्रतीत होता हैवल्ली संतरऽणंतर, अणंतरा छज्जणा इमे हुँति ।
माया पिया य भाया, भगिणी पुत्तो य धूया य ।। १७. उवसंपज्जते ()। १८. अपुट्ठो (अ, स)।
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चतुर्थ उद्देशक
[ २०७ २१६०. नालबद्धा उ लब्भंते, जया तमभिधारए ।
जे यावि चिंधकालेहि, संवतंति उवट्ठिता ॥ २१६१. अण्णकाले वि' आयाता, कारणेण उ केण वि ।
ते वि तस्साभवंती उ, विवरीयायरियस्स उ ॥ २१६२. विप्परिणयम्मि भावे, जदि भावो सिं२ पुणो वि उप्पण्णो ।
ते होंतायरियस्सरे उ, अधिज्जमाणे य जो लाभो ॥ २१६३. जे यावि वत्थपातादी', चिंधेहि संवयंति उ ।
आभवंती६ उ ते तस्सा, विवरीयायरियस्स उ° ॥ २१६४. नालबद्धे उ लब्भंते, जया तमभिधारए ।
जो य लाभो तहिं कोइ, वल्लीसंतरणंतेण° ॥दारं ।। आभवंताधिगारे उ, वट्टते तप्पसंगता ।
आभवंता इमे वण्णे, सुहसीलादि आहिता ॥ २१६६. सुहसीलऽणुकंपातट्ठिते१२, य३ संबंधि खमग गेलण्णे ।
सच्चित्तेसऽसिहाओ, पकट्ठए४ धारए उ दिसा ॥नि.३४० ।। २१६७. सुहसीलताय पेसेति५, कोइ दुक्खं खु६ सारवेउं जे ।
देति उ आतट्ठीणं, सुहसीलो दुट्ठसीलो त्ति ॥ २१६८. तणुगं पि नेच्छए दुक्खं, सुहमाकंखए सदा ।
सुहसीलतए वावी१७ सायागारवनिस्सितो.८ ॥दारं ।। २१६९. एमेव य असहायस्स, देति कोइ अणुकंपयाए उ ।
नेच्छति परमातट्ठी९, गच्छा निग्गंतुकामो वा ॥दारं ॥ २१७०. पेसवे सो उ२० अन्नत्थ, सिणेहा णातगस्स वा । ___ खमए वेयवच्चट्ठा२१, देज्ज वा तहि कोति तु ॥दारं ।।
१०. यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक एवं स प्रति में अप्राप्त है। २. सि (अ, ब)।
किन्तु अ, ब प्रति में यह मिलती है। होति आय ० (ब), आचार्यस्य गाथायामेकवचन
११. x (ब) अण्णे (अ)। प्राकृतत्वात् (मवृ)।
१२. सुहसीला ० (अ), ० कंपा इति ठिते (ब)। ४. अहि ० (ब)।
१३. व (स)। ५. गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
१४. पयट्टए (ब), पयङ्कए (स)। ६. ० वंति (क)।
१५. देसेति (स)। यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में भागा के क्रम में न होकर १६. व (स)। उद्धृत गाथा के रूप में है किन्तु सभी हस्तप्रतियों में यह उपलब्ध है १७. वादी (ब)। तथा विषयवस्तु के क्रम में भी संगत प्रतीत होती है।
१८. सदागा ० (अ,ब)। ८. लाभा (अ)।
१९. परमाठिती (ब)। २०. ० वेसि (ब), पेसवेति (अ) । २१. वेयाव ० (ब), वेज्जव ० (स)।
९.
० मंतरण (ब)।
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________________
२०८ ]
१.
२.
३.
४.
२१७१. पेसेति गिलाणस्स व अधव गिलाणे सयं अचायतो' । पेसंतस्स उ असिहो,
ससिहो पुण पेसितो जस्स ॥ दारं ॥ भणितं तु पेसितो जस्स । असंथरे सो तु 'तस्सेव ॥ भणति पुव्वत्तातो पच्छा वुत्तो विही भवे बलवं । कामं कप्पेऽभिहितं इह असिहं दाउ न लभति तु ॥ २१७४. संविग्गाण विधी एसो असंविग्गे न दिज्जते । कुलिच्चो व गणिच्चो वा, दिण्णं पि तं तु कट्ठे ॥
व
२१७२. चोदेती' कप्पम्मी, पुव्वं ससिहो वा असिहो वा
२१७३.
२१७५. खित्तादी आउरे भीते, सच्चित्तादी कुलादीओ,
२१८२.
अचाएतो (स) ।
चोदेति (अ) ।
०म्मि (स)।
भणती (स)।
५.
ति (ब) ।
६. पुव्वत्तातो (स)।
७.
अदिसित्थी (स) ।
८.
मग्गणा ।
२१७६. नालबद्धे अनाले वा, सीसम्म नत्थ दोक्खरक्खरदिट्ठता, सव्वं आयरियस्स
उ ॥
२१७७. चारियसुत्ते भिक्खू, थेरो वि य अधिकितो" इहं तेसिं । दोह वि विहरंताणं, का मेरा लेसतो जोगो ॥ २१७८. साहम्मियत्तणं वा अणुयत्तति होतिमे वि साधम्मी उवसंपया व ११ पगता, 'इहं पि उवसंपया १२ तेसिं ॥ २१७९. साधम्मि पडिच्छन्ने, उवसंपय दोण्ह वी पलिच्छेदो ।
वोच्चत्थ मासलहुओ, कारण असती सभावो वा १३ ॥ नि. ३४१ ॥ २१८०. सज्झंतियंतवासिणो, दो वि भावेण नियमसो छन्नो । रायणि उवसंपय, सेहतरगेण य कायव्वो ॥ २१८१. आलोइयम्मि सेहेण तस्स विगडे उ पच्छराइणिओ । इति अकरणम्मि १४ लहुगो, अवरोवर" गव्वतो लहुगा ॥ एगस्स उ१६ परिवारो१५, बितीए ८ रायणियत्तवादो १९ य । इति गव्वो न कायव्वो, दायव्वो चैव संघाडो २० ॥
तत्थ (अ) ।
९.
भिक्ख (अ)।
१०. अधिकितं (अ), अधिकतो (स)।
अदिसत्थी
भुज्जो
तं
जं दए ।
परिकट्ठए ॥
११. य (ब, स) ।
१२.
इहई पुवसंपया (मु) ।
१३. टीकाकार ने इस गाथा के लिए भाष्यविस्तर का उल्लेख किया है किन्तु यह नियुक्ति की होनी चाहिए।
१४. अकार ० (अ) ।
१५. अपरोप्पर (स) ।
१६. य (स) ।
१७. परीवारो (स)।
१८. बितिए (अस) ।
१९. रातिणित्तवादो (अ) ।
२०.
व्यवहार भाष्य
गाथा के द्वितीय चरण में आर्या छंद है।
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चतुर्थ उद्देशक
[ २०९ २१८३. पेहाभिक्खकितीओ, करेंति सो यावि' ते पवाएति ।
न पहुप्पंते दोण्ह वि, गिलाणमादीसु च न देज्जा ॥ २१८४. अत्तीकरेज्जा खलु जो विदिण्णे, एसो वि मॉति महंतमाणी ।
न तस्स ते देति बहिं तु नेउं, तत्थेव किच्चं पकरेंति' जं से । २१८५. वारंवारेण से देति, न य दावेति वायणं ।
तह वि भेदमिच्छंत, अविकारी तु कारए ॥ २१८६. रायणियपरिच्छन्ने, उवसंप पलिच्छओ य इच्छाए ।
सुत्तत्थकारणा पुण, पलिच्छदं देंति आयरिया ॥ २१८७. सुत्तत्थं जदि गिण्हति, तो से देति पलिच्छदं ।
गहिते वि देति संघाडे, मा से नासेज्ज' तं सुतं ॥ २१८८. अबहुस्सुते न देती, निरुवहते तरुणए य संघाडं ।
घेत्तूण जाव वच्चति, तत्थ उ गोणीय दिलुतो ॥ २१८९. साडगबद्धा गोणी, जध तं घेत्तुं पलाति दुस्सीलो ।
इय विप्परिणामेंते, न देज्ज संते वि हु सहाए ॥ २१९०. संखऽहिगारा तुल्लाधिगारिया १ एस लेसतो जोगो ।
आयरियस्स व सिस्सो, भिक्खु अभिक्खू३ अह तु भिक्खू ॥ २१९१. एमेव सेसएसु वि, गुणपरिवड्डीय ठाणलंभो उ ।
दुप्पभिई१४ खलु संखा, बहुओ पिंडो तु तेण परं ॥ २१९२. संभोइयाण दोण्हं, खेत्तादी पेहकारणगताणं ।
पंते समागताणं, भिक्खूण५ इमा भवे'६ मेरा ॥ २१९३. भिक्खुस्स मासियं७ खलु, पलिच्छणाणं च सेसगाणं तु ।
चउलहुगऽपलिच्छण्णे, तम्हा उवसंपया तेसिं१८ ॥नि. ३४२ ॥ २१९४. दो भिक्खूऽगीतत्था९,गीता 'एक्को व'२० होज्ज२१ उ अगीते ।
राइणियपलिच्छन्ने, पुव्वं इतरेसु लहुलहुगा ॥ १. वावि (अ), तावि (स)।
११. तुण्णाधि ० (ब)। २. . करेज्ज (स)।
१२. सीसो (स)। ३. पगरेंति (अ)।
१३. अभिक्खु (अ.स)। ४. सो (ब)।
१४. ० भिति (स)। ५. ० वारएण (स)।
१५. भिक्खण (अ)। ६. अधिकारी (अ, ब)।
१६. ठवे (स)। ७. पलिच्छगो (ब)।
१७. मासयं (स)। ८. नासेति (अ)।
१८. एनामेव नियुक्तिगाथां भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः .... (मवृ) । ९. देति (स)।
१९. ० अगीतत्थी (ब)। १०. जा परिणामेंते (अ.स)।
२०. एक्केक्कं (ब)। २१. होउ (ब)।
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________________
२१० ]
व्यवहार भाष्य
२१९५. दोसु अगीतत्थेसुं, अधवा गीतेसु सेहतर पुव्वं' ।
जदि नालोयति' लहुगो, न विगडे इयरो वि जदि पच्छा ॥ २१९६. 'रायणिए गीतत्थेण'३. राइणिए चेव विगडणा पुचि ।
देति विहारविगडणं, तो पच्छा राइणियसेहे ॥ २१९७. सेहतरगे वि पुव्वं', गीयत्थे दिज्जते' पगासणया ।
पच्छा गीतत्थो वि हु, ददाति आलोयणमगीतो ॥ २१९८. अवराहविहारपगासणा य दोण्णि व भवंति गीतत्थे ।
अवराहपयं मोत्तुं, पगासणं होतऽगीतत्थे ॥ २१९९. भिक्खुस्सेगस्स गतं, पलिच्छण्णाण इदाणि वोच्छामि ।
दव्वपलिच्छाएणं, जहण्णेण अप्पततियाणं ॥ २२००. तेसिं गीतत्थाणं, अगीतमिस्साण एस चेव विधी ।
एत्तो सेसाणं पि य, वोच्छामि विधी जधाकमसो ॥दारं ।। २२०१. सेसा तू.१ भण्णंती, अप्पबितीया उ जे जहिं१२ केई१३ ।
गीतत्थमगीतत्थे, मीसे य विधी उ सो चेव ॥ २२०२. संजोगा उ च सद्देण, अधिगता जध य एग दो चेव ।
एगो जदि न वि दोण्णी, उवगच्छे चउलहूओ५ से ॥ २२०३. पच्छा इतरे एगं, जदि न वि उवगच्छ मासियं लहुयं ।
जत्थ वि एगो तिण्णी, न उवगमे तत्थ वा६ लहुगा ॥ २२०४. एमेव अप्पबितिओ५, अप्पतईयं८ तु जइ न उवगच्छे ।
इयरेसि मासलहुयं१९, एवमगीते य गीते य ॥ २२०५. मीसाण एग गीतो, होति अगीता उ दोन्नि तिण्णी वा२० ।
एग२१ उवसंपज्जे, ते उ अगीता इहर मासो ॥
१. पुचि (स)। २. नालोएस)।
४. पुब्बि (अ)।
दिज्जती (अ, स)। पगासणा (स)।
उ(ब),तो (अ)। ८. दोण्ह (स)। ९. होतिऽगीत ० (ब)। १०. ० मीसाण (स)। ११. उ(अ,ब)।
१२. तहिं (स)। १३. केपि (अ.स)। १४. दोण्हि (ब)। १५. ० लहुओ (स)। १६. वी (स)। १७. ०बीतो (अ)। १८. ० तइय (अ.स)। १९. मासियं तु (अ.स)। २०. वि (अ.स)। २१. एवं (ब)।
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चतुर्थ उद्देशक
[ २११ २२०६. 'सो वि य" जदि न वि इतरे, तस्स वि मासो उ एव सव्वत्थ ।
उवसंपया यो तेसि, भणिता अण्णोण्णनिस्साए । २२०७. अण्णोण्णनिस्सिताणं, अग्गीताणं पि उवगहो तेसि ।
गीतपरिग्गहिताणं, इच्छाए" तेसिमो होति ॥नि. ३४३ ।। २२०८. इच्छित-पडिच्छितेणं, खेत्ते वसधीय दोण्ह वी लाभो ।
अच्छं न होति उग्गह, निक्कारण कारणे दोण्हं ॥ २२०९. समयपत्ताण साधारणं तु दोण्हं पि होति तं खेत्तं ।
विसमं पत्ताणं पुण, ‘इमा उ तहि मग्गणा'११ होति ॥ २२१०. पडियरते व गिलाणं, सयं गिलाणाउरे व मंदगती ।
अपत्तस्स.२ वि एतेहिं, उग्गहो दप्पतो नत्थि ॥ २२११. एमेव गणावच्छे, पलिछण्णाणं व १३ सेसगाणं त् ।
पलिछन्ने ववहारो, दुविधो४ वागतिओ नाम ॥ २२१२. पहगाम५ चित्तऽचित्तं, थीपुरिसं१६ बाल-वुड्डू-सत्थादी७ ।
इच्छाए८. 'वा देती १९, जो जं लभइ२० भवे बितिओ ॥ २२१३. समगीतागीता वा, गीतत्थपरिग्गहे य२१ सति कज्जे ।
असमत्ताण वि खेत्तं, अपहू पच्छा समत्तो वि ॥ २२१४. समपत्तकारणेणं२२, खेत्ते वसधीय दोण्ह वी लाभो ।
रातिणिय२३ होति उग्गह, 'गीतत्थसमम्मि दोण्हं पि ॥ २२१५. एमेव बहूणं पी, ‘पिंडे नवरोग्गहस्स'२४ उ विभागो ।
किं कतिविह कस्स कम्मि२५, केवइयं वा भवे कालं२६ ॥नि. ३४४ ।। २२१६. किं उग्गहो त्ति भणिए, उग्गहतिविधो उ होति चित्तादी ।
एक्केक्को पंचविधो, देविंदादी मुणेयव्वो ॥दारं ॥
१. x (अ), सोधी (स)। २. उ(अ.स)। ३. गणिता (स)। ४. ० निस्साणं (ब)। ५. इत्थीए (स)। ६. ० तेण य (स)।
पत्ते (स)। ८. अच्छंत (अ), अच्छते (स)। ९. समय प० (स)। १०. होति (ब)। ११. इमातो मग्गणा तहि (ब)। १२. सपत्त ० (स)। १३. वा (ब)।
१४. दुविध (अ)। १५. ० मामे ()। १६. ० पुरिस (स)। १७. वत्थादी (स), वस्थिती (ब)। १८. इच्छाई (अ)। १९. वायंति (अ, ब), वायंती (स)। २०. लाभी (स)। २१. ० ग्गहाण (स), ० ग्गहेण (अ) । २२. समपुब्बिका ० (स)। २३. रातिणिए (अ)। २४. पिंडण नवरोवग्ग ० (अ)। २५. कम्मि व (अ), व कहिं (स) । २६. कालो (स)।
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२१२ ]
व्यवहार भाष्य २२१७. कस्स पुण उग्गहो त्ती', परपासंडीण उग्गहो नत्थि ।
निण्होसन्ने संजति, अगीते य गीत एक्के वा ॥ २२१८. ओसण्णाण बहूणरे वि, गीतमगीताण उग्गहो नत्थि ।
सच्छंदियगीताणं, असमत्त अणीसगीते वि ॥ २२१९. एवं ता सावेक्खे, निरवेक्खाणं पि उग्गहो नत्थि ।
मोत्तूण अधालंदे, तत्थ 'वि जे गच्छपडिबद्धा ॥ २२२०. आसन्नतरा जे तत्थ, संजता सो व जत्थ नित्थरति' ।
तहियं देंतुवदेसं, आयपरं ते न इच्छंति ॥ २२२१. 'अगीत समणा'६ संजति, गीतत्थपरिग्गहाण खेत्तं तु ।
अपरिग्गहाण गुरुगा, न लभति सीसेत्थं आयरिओ ।। २२२२. गीतत्थागत गुरुगा, असती एगाणिए वि गीतत्थे ।
समुसरण नत्थि उग्गह, वसधीय उ मग्गणऽक्खेत्ते ॥दारं ।। २२२३. सेसं सकोसजोयण, पुव्वग्गहितं तु जेण तस्सेव ।
समगोग्गह° साधारं, पच्छागत होति अक्खेत्ती ॥ २२२४. अण्णागते कहतो, उवसंपण्णो तहिं च ते सव्वे ।
संकंतं तु कहती२, साधारण तस्स जो भागो ॥ २२२५. निक्खित्तंगणाणं वा, तेसि वि.३ य होति तं तु खेत्तं तु ।
खेत्तभया वा कोई, माइट्ठाणेण सुण एवं ।। २२२६. कुड्डेण चिलिमिणीए, अंतरितो सुणति कोइ माणेणं'४ ।
अधवा चंकमणीयं५, करेंत१६ पुच्छागमो तत्थ ॥ २२२७. पुच्छाहि तीहि दिवसं, सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति ।
अधवा विसेसमन्नो, इमो तु तहियं अहिज्जते । २२२८. जदि१८ निक्खिविऊण गणं, उवसंपाएऽहवा९ वि सीसं तु ।
तो२० तेसिं चिय खेत्तं, वायंतो२१ लाभ खेत्तबहिं२२ ॥ १. त्ति (स)।
१२. कधिते (अ), कधेतो (स)। २. बहूया (स)।
१३. पि(स)। ३. सच्छंदय अगीताण य (स)।
१४. मोणेणं (ब)। ४. कते (ब)।
१५. चक्कमणीयं (अ, स)। निच्छरइ (स)।
१६. करेमो (स)। अग्गीत समण (स)।
१७. हरिति (ब)। ७. सीसत्थ (ब)।
१८. इति (स)। ८. ०थागीते (अ)।
१९. ० संपादे अहवा (अ)। समोस ० (ब, स)।
२१. वायति (ब)। १०. समत्तोग्गह (अ)। ११. कहिते (स)।
२२. खेत्तुवहिं (ब)
२०. ता(ब)।
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चतुर्थ उद्देशक
[ २१३
२२२९. अह बेती' वायंतो, लाभो णो नत्थि 'हं ति',३ वच्चामो ।
इतरेहि य सो रुद्धो, मा वच्चसु अम्ह साधारं ॥ २२३०. निग्गमणे चउभंगो, निट्ठित सुहदुक्खयं जदि करेंति ।
निट्ठित पधावितो वा, रुद्धो पच्छा य वाघातो. नि. ३४५ ॥ २२३१. वत्थव्व णेति न उ जे, ऊ पाहुण पाहुणाण इतरो वा ।
उभयं च नोभयं वा, चउभयणा होति एवं तु ॥ २२३२. आगंतु भद्दगम्मी, पुवठिता गंतु जइ पुणो एज्जा ।
तम्मि अपुण्णे मासे, संकमति पुणो वि सिं खेतं ॥ २२३३. वत्थव्वभद्दगम्मी, संघाडग जतण तह 'वि उ'१० अलंभे ।
आगंतुं वंति१ ततो, अच्छति उ पवायगो नवरं ॥ २२३४. सुहदुक्खितो समत्ते, वाएंतो'२ निग्गतेसु सीसेसु ।
वाइज्जतो वि तधा, निग्गतसीसो समत्तम्मि ॥दारं ।। २२३५. दोण्ह'३ वि विणिग्गतेसुं, वाएंतो तत्थ खेत्तिओ होति ।
तम्मि सुए असमन्चे समत्त तस्सेव संकमति २२३६. 'संथरे दो'१४ वि न णिति', तेहि उववाइया तु जदि सीसा ।
लाभो नत्थि महं ति य, अहव समत्ते पधावेज्जा ७ ॥ २२३७. जदि वायगो समत्ते, "णितो तु१८ पडिच्छितेहि रुंभेज्जा९ ।
असिवादिकारणे वा, न णित° लाभो इमो होति ॥ २२३८. आयसमुत्थं२१ लाभं, सोसपडिच्छेहि सो२२ लभति२३ रुद्धो ।
एवं छिण्णुववाते, अछिण्ण सीसा गते दोण्हं ॥ २२३९. एवं ता उडुबद्धे२४, वासासु इमो विधी हवति तत्थ ।
खेतपडिलेहगा२५ तू, पवट्टिया२६ तेण अन्नत्थ ॥
mi
१. बेंति (अ), बिती (स) । २. वाइंतो (ब)। ३. ध त्ति (अ),व त्ति (स)।
x(अ)। न ठिते (अ)।
पधाइतो (स)। ७. रुट्ठो (अ)। ८. जति (अ)।
स(ब)। १०. ति य (अ)। ११. णेति (ब)। १२. एवं तो (ब)। १३. द्रोण्णि (स)।
१४. संथरितो (ब)। १५. णिती (स)। १६. तेही उ(अ, ब)। १७. य धाएज्जा (स)। १८. णितिहिं (अ)। १९. रुब्भेज्जा (स)। २०. नेति (ब)। २१. अत्तसमुक्कं (स)। २२. सा(ब)। २३. लभय (अ) २४. उउ०(ब)। २५. खेतप्पडिलेहगा उ(ब) । २६. पयट्टिया (अ.स)।
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२१४ ]
व्यवहार भाष्य
२२४०. जा तुब्भे पेहेहा', ताधेतेसिं२ इमं तु सारेमि ।
____ तं च समत्ते तेसिं, वासं च पबद्धमालग्गं ॥ २२४१. निग्गंतूण न तीरति, चउमासे तत्थ लाभमायगतं ।
लभते वोच्छिण्णेवं, कुव्वंति गिलाणगस्स वि य ॥ २२४२. अध पुण अच्छिण्णसुते, ते आया बेंतिमे न तुब्भे तु ।
अम्हे खेत्तं देमो, साधारण तम्मि तेसिं तु ॥ २२४३. असंथरण, जिंतऽणिते, चउभंगो होति तत्थ वि तधेव ।
एवं ता खेत्तेसुं, इणमन्ना मग्गणविधादी ॥ २२४४. अद्धाणादिसु नट्ठा, अणुवट्ठविता तहा० उवट्ठविया ।
अगविट्ठा य गविठ्ठा, निप्फण्णा धारणदिसासु ॥ २२४५. संभममहंतसत्थे, भिक्खायरिया गता१ व ते नट्ठा ।
सिग्घगतिपरिरएण व, आउरतेणादिएसुं वा ॥ २२४६. गवेसऊ'२मा व कतव्वया जे१३, ‘स एव'१४ तेसिं तु दिसा पुरिल्ला ।
गवेसमाणो लभते ऽणुबद्धे, अणाढिता संगहिता तु जेणं ॥ २२४७. गवेसिए पुव्वदिसा, अगविढे तु पच्छिमा५ ।
'अणुवठ्ठविते एवं१६, अभिधारेते उ इणमन्ना७ ॥ २२४८. अभिधारेंतो वच्चति, वत्त-अवत्तो व वत्त एगागी ।
जं लभति खेत्तवज्ज, अभिधारेज्जंत८ तं सव्वं ॥ २२४९. अव्वत्ते९ ससहाये, परखेत्तविवज्जलाभ२० दोण्हं पि ।
सव्वो सो मग्गिल्लो, जाव न निक्खिप्पए तत्थ ॥ २२५०. निक्खित्तनियत्ताणं, खेत्तं यो२१ लाभ होति वाएंते ।
तस्स वि य 'जाव न णीति'२२, लाभो सो ऊ पवायंते२३ ॥
१. पहेधा (अ)। २. ताधि तेसिं (अ)। ३. लभती (अ.स)। ४. यावि (ब)।
य (स)।
०रणे (अ)। ७. जेणंताणं (ब)। ८. गाथाया च स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् (मवृ)।
अणुवट्ठविया (ब)। १०. तह (ब)। ११. वाता (अ)। १२. गवेसयत्तू (अ), गवेसिता (स) ।
१३. जो (ब)। १४. सव्वे वा (स)। १५. पच्छा (ब)। १६. अणुबद्ध ठिते (ब), अणुवट्ठिए य (अ)। १७. इस गाथा के प्रारम्भ में टीका में ऐसा उल्लेख है-अन्येन
आचार्येण श्लोकेन बद्धस्तमेव श्लोकमाह (मव)। १८. अतिधा ० (ब)। १९. सव्वत्ते (ब)। २०. ०विवज्जो लाभे (अ)। २१. तो (स), ते (अ)। २२. जाव णीइ (ब)। २३. व वायंते (ब)।
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चतुर्थ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
11
अहवा आयरिओ वी, निक्खित्तगणागतो उ आउत्थं 1 वायंत देति' लाभं, जं खेत्तीओ तओ णीसो 11 २२५२. आरब्भसुत्ता सरमाणगा तू, जा पिंडसुत्तं इणमंतिमं तु । एमेव वच्चो खलु संजतीणं, वोच्छिन्नमीसेसु' अयं विसेसो २२५३. वोच्छिन्ने उ उवरते, गुरुम्मि गीताण उग्गहो तासिं दोह बहूण व पिंडे कुलिच्चमन्नं जमभिधारे २२५४. मीसो उभयगणावच्छेए', तत्थ समणीण जो लाभो सो खलु गणिणो नियमा, पुव्वठिता जाव
२२५१.
ददेइ (ब) ।
जो (स) ।
T
तत्थऽण्णा
॥ दारं ॥ २२५५. केवतिकालं उग्गह, तिविधो उउबद्ध" वास वुड्ढे १२ य 1 मास - चउमासवासे, गेलणे सोलमुक्ोसो ॥ नि. ३४६ ।। २२५६. वुड्ढस्स उ जो वासो, वुद्धिंढ व गतो तु कारणेणं १३ तु । एसो उ वुड्ढवासो, तस्स उ कालो इमो होति || २२५७. अंतो जहन्नमुक्कोसपुव्वकोडीओ मोत्तुं गिहिपरियागं, मं जस्स उ आउगं तिथे २२५८. 'विज्जा कया १४ चारिय लाघवेण, तत्तो" तवो देसितसिद्धिमग्गो अहाविहिं१६ संजम पालइत्ता, दीहाउणो वुड्ढवासस्स कालो १७
मुहुत्तकालं,
||
२२५९. सुत्तागम बारसमा १८, चरियं देसाण दरिसणं तु कतं | उवकरण- देह- इंदिय, तिविधं पुण लाघवं होति ॥ २२६०. चउत्थछट्ठादि तवो कतो उ१९, अव्वोच्छित्ताय" होति सिद्धिपहो । सुत्तविही संजम, वुड्डो अह दीहमाउं च २२६१. अब्भुज्जतमचएंतो, अगीतसिस्सो २१ अच्छति जुण्णमहल्लो, कारणतो वा
व
आणीसो (ब)।
तो (अ, ब) ।
० मिस्सेसु (अ) ।
पिंडए (अ) ।
जतभि० (ब), जलभि ० (स) ।
० गणावच्छेइ उ (अस) ।
७.
८.
९.
जा (स) ।
१०. केयति ० (ब)।
११. उदु ० (स)| १२. घुट्टे (स)।
१३.
अकारणेणं (स) ।
१४. कया विज्जा (अ, स) । १५. ततो (ब)।
I
||
२१.
सीसा (स)। २२. जहण्णो (अ)।
२३.
वि (स) ।
०
11
T
गच्छपडिबद्धो । अजुण्णो २२ वी २३ ॥
१६.
० विहं (ब) ।
१७. गाथा के चौथे चरण में छंदभंग है।
॥
१८.
बारससमा (ब) ।
१९. गाथा के प्रथम चरण में उपेन्द्रवज्रा छंद है।
२०.
० च्छित्ति उ (अ), ० च्छित्ती उ (स) ।
[ २१५
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२१६ ]
व्यवहार भाष्य
२२६२. जंघाबले च खीणे, गेलण्णऽसहायता व दुब्बल्ले' ।
अहवावि उत्तमढे, निष्फत्ती चेव तरुणाणं ॥नि. ३४७ ।। २२६३. खेत्ताणं च अलंभे, कतसंलेहे या तरुणपडिकम्मे ।
एतेहिं कारणेहिं, वुड्डावासं वियाणाहि ॥नि. ३४८ ।। २२६४. दुण्णि वि दाऊण दुवे, सुत्तं दाऊण अत्थवज्ज' च ।
दोण्णी दिवड्डमेगं, तु गाउयं तीसु अणुकंपा ॥ २२६५. खेत्तेण अद्धजोयण, कालेणं जाव भिक्खवेला उ ।
खेत्तेण य कालेण य, जाणसु सपरक्कम थेरं ॥ २२६६. जो गाउयं समत्थो, सूरादारब्भ भिक्खवेला उ ।
विहरउ एसो सपरक्कमो, न विहरे उ तेण परं ॥ २२६७. वीसामण उवगरणे, भत्ते पाणेऽवलंबणे चेव ।
गाउय दिवड्डदोसु, अणुकंपे सा तिसुं होति ॥ २२६८. अधवा आहारुवधी, सेज्जा अणुकंप एस तिविधा उ ।
पढमालिदाणविस्सामणादि, उवधी य वोढव्वे५ ॥ २२६९. खेत्तेण अद्धगाउय२, कालेण य जाव भिक्खवेला उ ।
खेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरक्कम थेरं ॥ २२७०. अण्णो जस्स न जायति, दोसो देहस्स जाव मज्झण्हो ।
सो विहरति सेसो पुण, अच्छति मा दोण्ह वि किलेसो ॥ २२७१. भमो वा पित्तमुच्छा वा, उद्धसासो व खुब्भति ।
गतिविरए१३ वि संतम्मि मुच्छादिसु४ न रीयति ॥ २२७२. चउभाग-तिभागद्धे, सव्वेसिं गच्छतो परीमाणं ।
संतासंतसतीए, वुड्डावासं वियाणाहि ॥ २२७३. अट्ठावीसं१५ जहण्णेण, उक्कोसेण सतग्गसो ।
• सहाया तस्स६ जेहिं तु, उट्ठवणा न जायति७ ॥
१. दुब्बले (स)। २. व (अ.स)। ३. वियाणेहि (स)। ४. पुव्वे (ब)। ५. सुत्तवज्ज (अ.स)।
गाऊय (ब)। ७. सूरदा० (अ)। ८. उन विहरे (स)। ९. ० वधिं (अ, स)।
१०. पढमालिपाण ० (ब)। ११. बोधव्वे (स)। १२. अद्धागा ० (स)। १३. ० विरिए (अ.स)। १४. इच्छादी (अ), इच्छाइसु (स)। १५. ० वीस (ब)। १६. जस्स (अ)। १७. जायंति (अ)।
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चतुर्थ उद्देशक
१.
२.
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५.
६.
७.
८.
९.
1
चत्तारि सत्तगा तिण्णि, दोणि एक्को व होज्ज असतीए । संतासती अगीता, ऊणा तु असंतओ असती 11 २२७५. दो संघाडा भिक्खं, एक्को बहि 'दो य" गेण्हते थेरं आलित्तादिसु जतणा, इहरा परिताव - दाहादी * २२७६. आहारे जतणा वुत्ता, तस्स जोग्गे य पाणए छवित्ताणेसणादिसु ॥ नि. ३४९ ॥
।
निवाय ''
उ
संथारे
I
||
चेव, जतणा, खेत्ते काले वसही नवगमादी, परिहाणी एक्कहिं वसही ॥ नि. ३५० ॥ भागे भागे मासं, काले वी जाव एक्कहिं सव्वं पुरिसेसु वि सत्तण्हं, असतीए जाव एक्को उ २२७९. 'पुव्वभणिता तु जतणा, वसही ” भिक्खे वियारमादी य सच्चेव " य होइ इहं, वुड्डावासे ११ २२८०. धीरा कालच्छेदं करेंति अपरकम्मा हिं थेरा कालं वा विवरीयं, करेंति तिविहा तहिं १२ जतणा 11 अव्विवरीतो नाम, काल ३ उवट्ठाण दोसपरिहाणी १४ । असती वसधीए पुण, अव्विवरीतो उवट्ठे वि 11
1
पणगपरिहाणी
॥ दारं ॥
पिंडदारुघरे ।
२२८२. तिविधा जतणाहारे, उवही १५ सेज्जासु होति कायव्वा 1 उग्गमसुद्धा तिणि वि, असतीए २२८३. सेलियकाणिट्टघरे १६, कडितं १८ कडगतणघरे, २२८४. कोट्टिमघरे वसंतो, आलित्तम्मि विन इज्झती तेण । सेलादीणं गहणं, रक्खति य निवातवसधी उ ॥ दारं ॥
चउगुरुगा ||
२२७४.
२२७७. वुड्ढावा खेत्तम्मि
२२७८.
२२८१.
दोण्ह (अ) ।
आदित्ता ० (ब)।
दाहाई (अ) ।
पाणुए (स)
नियाय (अ) ।
मउयं (स) ।
वसहि (स) ।
वसती (अस) ।
हा उपव्वभणिया तु जयणा वसही (ब)।
पक्केट्टामेय १७ वोच्चत्थे होत
१०. स एव (ब)।
११. ० वास (स) ।
१२. जहि (स) ।
१३. कालो (ब) ।
||
I
वसंताणं ॥ दारं ॥
१४.
१५.
१६.
१७.
१८. कडिते (अस) ।
1
० परिहरति (बस) ।
उवहि (ब)।
० णिट्टहरे (अ, ब ) ।
० ट्टा आमेय (अ), पक्के आमेय (ब, स) ।
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२१८
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व्यवहार भाष्य
२२८५. थिरमउयस्स उ असती, अप्पडिहारिस्स' चेव वच्चंति ।
बत्तीसजोयणाणि वि, आरेण अलब्भमाणम्मि ॥ २२८६. वसधिनिवेसण साही, दूराणयणं पि जो उ पाउग्गो ।
असतीय पाडिहारिय, मंगलकरणम्मि नीणेति ॥ २२८७. ओगाली फलगं पुण, मंगलबुद्धीय सारविज्जतं ।
पुणरवि मंगलदिवसे, अच्चितमहितं पवेसेंति ॥ २२८८. पुवम्मि' अप्पिणंती, अण्णस्स व वुड्डवासिणो देति ।
मोत्तूण वुड्डवासिं, आवज्जति चउलहू सेसे ॥ २२८९. पडियरति गिलाणं वा, सयं गिलाणो वि तत्थ वि तधेव ।
भावितकुलेसु अच्छति, असहाए रीयतो दोसा ॥दारं ॥ २२९०. ओमादी तवसा वा, अचायतो दुब्बलो वि एमेव ।
संतासंतसतीए, बलकरदब्वे य जतणा उ ॥ २२९१. पडिवण्ण उत्तमटे, पडियरगा वा वसंति तन्निस्सा ।
आयपरे२ निप्फत्ती, कुणमाणो वावि अच्छेज्जा'३ ॥दारं ॥ २२९२. संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि ।
सोलस य दिट्ठिवाए , एसो उक्कोसतो कालो ॥ २२९३. बारसवासे गहिते, उ कालियं झरति वरिसमेगं तु ।
सोलस उ१४ दिट्ठिवाए , गहणं झरणं दसदुवे य५ ॥ २२९४. झरए'६ य कालियसुते, पुव्वगते य जइ एत्तिओ कालो ।
आयारपकप्पनामे, कालच्छेदे उ कयरेसिं ॥ २२९५. सुत्तत्थतदुभएहिं, जे उ समत्ता महिड्डिया थेरा ।
एतेसिं तु पकप्पे, भणितो कालो नितियसुत्ते१८ ॥ २२९६. थेरे निस्साणेणं१९, कारणजातेण एत्तिओ कालो ।
अज्जाणं पणगं पुण, नवगग्गहणं तु सेसाणं ॥
१. अपडि० (अ)। २. वावि (अ) साधी (स)।
णीणती (स)।
ओयाली (अ, ब)। पुण्णम्मि (ब, स)। अप्पणती (ब)।
वि (ब)। ८. ० लहुं (स)। ९. व(स)। १०. वचसा (स)।
११. अचइतो (ब)। १२. आयपरेण (अ)। १३. अद्वेज्जा (स)। १४. य (स)। १५. या (स)। १६. झरिए (ब)। १७. काले (अ)। १८. नियय० (ब)। १९. निस्सेण्णं (अ)।
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[ २१९
चतुर्थ उद्देशक २२९७. जे गेण्हिउं धारइउं' च जोग्गा, थेराण ते देंति ‘सहायए तु'२ ।
गेण्हरि ते ठाणठिता सुहेणं, किच्चं च थेराण करेंति सव्वं ॥दारं ॥ २२९८. आसज्ज खेत्त-काले, बहुपाउग्गा न संति खेत्ता वा ।
__निच्चं च विभत्ताणं, सच्छंदादी बहू दोसा ॥दारं ।। २२९९. जध चेव उत्तमढे, कतसंलेहम्मि ठंति तध चेव ।
तरुणप्पडिकम्मं पुण, रोगविमुक्के बलविवड्डी ॥दारं ।। २३००. वुड्डावासातीते, कालातीते न उग्गहो तिविधो ।
आलंबणे विसुद्धे, उग्गह तक्कज्जवुच्छेदो ॥नि. ३५१ ।। २३०१ आगास कुच्छिपूरो, उग्गह पडिसेधितम्मि जो कालो ।
न हु होति उग्गहो सो, कालदुगे' वा अणुण्णातो ॥ २३०२. गिम्हाण चरिममासो, जहिं कतो तत्थ जदि पुणो वासं ।
ठायंति अन्नखेत्ताऽसतीय दोसुं पि तो लाभो ॥ २३०३. एमेव व समतीते, वासे तिण्णि दसगा उ उक्कोसं । वासनिमित्तठिताणं, • उग्गह छम्मास उक्कोसा ॥
इति चतुर्थ उद्देशक
१. २. ३.
धारदिउं (अ, स)। सहायहेउं (ब)। थाणं ० (स)।
४. उत्तिमढे (स)। ५. ० दुवे (ब)। ६. सितीय (स)।
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पंचम उद्देशक
२३०४. उद्देसम्मि चउत्थे, जा मेरा वण्णिता तु साहूणं ।
सा चेव पंचमे संजतीण गणणाय नाणतं. ॥ २३०५. वुत्तमधवार बहुत्तं', पिंडगसुत्ते चउत्थचरमम्मि ।
अबहुत्ते पडिसेहं, काउमणुण्णा बहूणं तु ॥ २३०६. संघयणे वाउलणा, छठे अंगम्मि गमणमसिवादी ।
- सागर जाते जतणा, उडुबद्धालोयणा भणिता ॥नि. ३५२ ॥ २३०७. जध भणित चउत्थे पंचमम्मि 'तहेव इमं तु नाणत्तं ।
गमणिथि मीस संबंधि', वज्जिते पूजिते लिंगे ॥ २३०८. वीसुभिताय सव्वासि, गमणमद्धद्ध आव दोण्हेक्का ।
संबंधि इत्थिसत्थे, भावितमविकारितेहिं वा ॥ २३०९. असिवादिएसु फिडिया, कालगते वावि तम्मि आयरिए ।
तिगथेराण' य असती, गिलाणओधाण१ सुत्ता उ ॥ २३१०. साहीणम्मि वि२ थेरे, पवत्तिणी१३ चेव तं परिकधेति ।
एसा पवत्तिणी भे, जोग्गा गच्छे बहुमता य४ ॥ २३११. अब्भुज्जयं विहारं, पडिवज्जिउकाम५ दुस्समुक्कटुं ।
जह६ होती समणाणं, भत्तपरिण्णा तथा तासिं ॥ २३१२. जइ वि य पुरिसादेसो, पुल्वं तह वि य विवच्चओ जुत्तो ।
जेण समणी उ पगता, पमादबहुला य अथिरा य ॥ २३१३. तेवरिसा होति नवा, अट्ठारसिया तु डहरिया होति ।
तरुणी खलु जा जुवती, चउरो दसगा य९ पुव्वुत्ता ॥नि. ३५३
१. २. ३.
खुत्तम ०(ब)। पहुत्तं (ब)। अपहत्ते (ब)। उठब० (ब)। तह चेव म (स)। गमणस्थि (स, ब)।
११. गिलाणि ० (अ)। १२. व(अ)। १३. पवित्तिणी (स)। १४. या (स)। १५. परिव ०(ब)। १६. कह (ब)। १७. दिवजओ (स)। १८. पगतं (अ)। १९. व (स)।
६. गमणात्यात ७. सबध (ब)
८. वज्जए (अ)। ९. . ० ण अट्ठट्ठ (ब), ० अद्धद्ध (स)। १०. गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् (न)।
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पंचम उद्देशक
[ २२१
२३१४. सा एय' गुणोवेता, सुत्तत्थेहिं पकप्पमज्झयणं ।
सज्जिता इतोरे यावि, आगता नवसु या' अण्णा ॥ २३१५. अत्थेण मे पकप्पो, समाणितो न य जितो महं भंते ! ।
अमुगा मे संघाडं, ददंतु वुत्ता तु पा गणिणा ॥ २३१६. सा दाउं आढत्ता, नवरि ‘य णटुं५ न किंचि आगच्छे ।
एमेव मुणमुणंती, चिट्ठति मुणिया य सा तीए ॥ २३१७. पुणरवि साहति गणिणो, सा नट्ठसुता दलाह मे अण्णं ।
अब्भक्खाणं पि सिया, वाहेउं होतिमा पुच्छा ॥दारं ।। २३१८. दंडग्गहनिक्खेवे, आवसियाए निसीहियाऽकरणे ।
गुरुणं च अप्पणामे, य भणसु आरोवणा का उ० ॥ २३१९. पुट्ठा अनिव्वहंती, किधर नहुँ १२ ऽबाधतो पमादेणं ।
साहेति३ पमादेणं, सो य पमादो इमो होति ॥ २३२०. धम्मकहनिमित्तादी, तु पमादो तत्थ होति नायव्वो
मलयवति - मगधसेणा, तरंगवइयाइ४ धम्मकहा ॥दारं ॥ २३२१. गह-चरिय-विज्ज-मंता, चुण्ण-निमित्तादिणा पमादेणं ।
नट्ठम्मी१५ संधयती१६ असंधयंती व सा न लभे ॥ २३२२. जावज्जीवं तु गणं, इमेहि नाएहि लोगसिद्धेहिं ।
अइपाल-वेज्ज-जोधे, धणुगादी भग्गफलगेणं१८ ॥ २३२३. खेलंतेण तु अइया'९, पणासिया जेण सो पुणो न लभे ।
सूलादिरुजा नट्ठा, वि लभति एमेव उत्तरिए ॥दारं ।। २३२४. जदि से सत्थं नटुं, पेच्छह से सत्थकोसगं गंतुं ।
हीरति कलंकितेसुं२०, भोगो जूतादिदप्पेणं ॥दारं ॥
१. एव (अ.स)। २. इंतो (स)।
ता (अ.स)। ददातु (अ.स)। पण8 (अ)।
मुणुमुणिंता (अ)। ७. ता ()। ८. ०याय (स)। ९. तरुणं (ब)। १०. उं(स)।
११. किह (अ)। १२. नट्ठा (स)। १३. सोहेति (ब)। १४. ० वइया उ()। १५. नट्ठम्मि य (स)। १६. संचयती (स)। १७. जोहे (ब)। १८. ० फलएहिं (ब, स)। १९. अतिया (अ)। २०. कलिकिएसु (ब)।
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२२२ ]
व्यवहार भाष्य
२३२५. चुक्को जदि सरवेधी', 'तहा वि पुलएह'२ से सरे गंतुं ।
अकलंक कलंकं वा, भग्गमभग्गाणि य धणूणि दारं ॥ २३२६. फालहियस्स वि एवं, जइ फलओ भग्गलुग्ग तो भोगो ।
हीरति सव्वेसि वि य, न भोगहारो भवे कज्जे ॥ २३२७. एवं दप्पपणासित, न वि देंति गणं पकप्पमज्झयणे ।
आबाहेणं, नासिते, गेलण्णादीण दलयंति ॥ २३२८. गेलण्णे असिवे वा, ओमोयरियाय रायदुढे य ।
एतेहि नासियम्मी', संधेमाणीय' देति गणं ॥ २३२९. एमेव य साधूणं, वाकरणनिमित्तछंद११ कधमादी ।
बितियं१२ गिलाणओ मे, अद्धाणे चेव .. थूभे य ॥नि. ३५४ ।। २३३०. मधुरा खमगातावण, देवय आउट्ट आणवेज्ज'३ त्ति ।
किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्जं ॥ २३३१. थूभविउव्वण भिक्खू४, विवाद छम्मास संघ को सत्तो ।
खमगुस्सग्गा कंपण, खिसण सुक्का कयपडागा५ ॥ २३३२. एवं ताव पणढे, भिक्खुस्स गणो न दिज्जते१६ सुत्ते ।
नट्ठसुते मा हु गणं, हरेज्ज थेरे अतो सुत्तं ॥ २३३३. सुत्ते अणित लहुगा, अत्थे अणित धरेति१८ चउगुरुगा ।
सुत्तेण वायणा अत्थे, सोही तो९ दो वऽणुण्णाया ॥ २३३४. अवि य विणा सुत्तेणं, ववहारे तू२० अपच्चओ होति ।
तेणं उभयधरो२१ ऊ, गणधारी सो अणुण्णातो ॥ २३३५. असती कडजोगी पुण, अत्थे एतम्मि२२ कप्पति धरेउं२३ ।
जुण्णमहल्लो सुत्तं, न तरति पच्चुज्जयारेउं ॥
१. सरवेहा (ब)। २. तहा पुलोएह (ब)।
x (ब)। भोगाहारो (ब)। वेज्जो (स)।
अपावेणं (अ) ७. नासितो (ब)।
या (ब, स)। ९. नासिएणं (अ, ब, स)। १०. संवेमा ० (अ)। ११. ० छेद (ब)। १२. बीयं (स)।
१३. . वेज्जो (आ। १४. भिच्चू (अ)। १५. ०पडागा य (अ, स)। १६. दिज्जती (आ)। १७. आणते (अ)। १८. धारइ (अ)। १९. ता (स)। २०. पि (अ), ऊ णं (ब)। २१. उभयधारो ()। २२. पुत्तम्मि (ब) । २३. धारणे (अ)।
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________________
पंचम उद्देशक
[ २२३
२३३६. उभयधरम्मि उ सीसे, विज्जते' धारणारे तु इच्छाए ।
मा परिभवनयणं वा, गच्छे व अणिच्छमाणम्मि ॥ २३३७. एमेव बितियसुत्तं, कारणियं सति बले न हावेति ।
जं जत्थ उ कितिकम्मं, निहाणसम ओमराइणिए ॥ २३३८. सुत्तम्मि य चउलहुगा, अत्थम्मि य चउगुरुं च गव्वेणं ।
कितिकम्ममकुव्वंतो, पावति थेरो सति बलम्मि ॥ २३३९. उवयारहीणमफलं, होति निहाणं 'करेति वाऽणत्थं ।
इति निज्जराएँ लाभो, न होति विब्भंगकलहो वा ॥ २३४०. दूरत्थो वा पुच्छति, अधव निसेज्जाय सन्निसण्णो उ ।
अच्चासण्णनिविठ्ठट्ठते य चउभंग बोधव्वो ॥ २३४१. अंजलिपणामऽकरणं, विपेक्खंते दिसऽहो उड्डमुहं ।
भासंत अणुवउत्ते, व हसते पुच्छमाणो उ ॥ २३४२. एतेसु यः सव्वेसु वि, सुत्ते लहुओ उ अत्थे गुरुमासो ।
नाभीतोवरि लहुगा, गुरुगमधो कायकंडुयणे ॥ २३४३. तम्हा वज्जंतेणं, ठाणाणेताणि पंजलुक्कुडुणा० ।
सोयव्व पयत्तेणं, कितिकम्मं वावि कायव्वं ॥ तेण वि धारेतव्वं पच्छावि य उट्ठितेण मंडलिओ ।
वेढुट्ठनिसण्णस्स१ व, सारेतव्वं'२ हवति भूओ ॥ २३४५. अह से 'रोगो होज्जा'१३, ताहे भासंत एगपासम्मि ।
सन्निसण्णो तुयट्टो, व अच्छते णुग्गहपवत्तो ॥ २३४६. थेरस्स तस्स किं तू, एदेहेणं१५ किलेसकरणेणं ।
भण्णति एगत्तुवओगसद्धाजणणं च तरुणाणं ॥ २३४७. सो तु गणी अगणी वा, अणुभासंतस्स सुणति पासम्मि१६ ।
न चएति जुण्णदेहो, होउं बद्धासणो सुचिरं ॥
२३४४
१. विज्जते (स)। २. धारणे (अ)। ३. ० रातिणिए (ब)। ४. कति वा अणत्थं (अ.स)।
गा. २३३९-२३४० ये दोनों गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं। ६. अच्छति (स)। ७. ० म अकरणं (स)। ८. दिसाहो (स)।
९. उ(ब)। १०. ० लुक्कडुणा (अ)। ११. ० निवण्णस्स (अ, ब, स)। १२. ० तव्वा (स)। १३. रोगो न होज्ज (मु)। १४. तुवट्टो (अ)। १५. X(स)। १६. पारम्मि (ब), भासम्मि (स) ।
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________________
२२४ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
२३५०.
अगीतेसु ॥
२३४८. थेरो अरिहो आलोयणाय, आयारकम्पिओ जोग्गो 1 सा य न होति विवक्खे, नेव सपक्खे २३४९. ' संभोग त्ति भणिते, संभोगो छव्विहो उ आदीए । भेदप्पभेदतो वि य, णेगविधो होति नायव्वो ओह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणाय उववाते ! संवासम्मि य छट्टो, संभोगविधी मुणेयव्वो । नि. ३५५ ।।
पुण बारसहा, उवधीमादी कमेण बोधव्वो
परूवणया,
||
एतेसिं अंजलि पग्गहे त्ति य 1 अब्भुट्ठाणे ति यावरे वेयावच्चकरणे ति य कधाए य पबंधणा २३५४. उवहिस्स य छब्भेदा, उग्गम - उप्पायणेसणासुद्धो । परिकम्मण परिहरणा, संजोगो छट्टओ होति ॥ २३५५. एवं जधा निसीधे " पंचम उद्देसए समखातो I संभोगविधी सव्वो, तधेव इह इं पि वत्तव्वो ॥ २३५६. अगडे' भाउय तिल- तंदुले, व सरक्खे य गोणि असिवे य अविणट्टे संभोगे, सव्वे संभोइया आसी २३५७. आगंतु तदुत्थेण व दोसेण विणट्ठ 'कूवें तो १० पुच्छा कउ आणीयं उदगं, अविणट्ठे नासि सा पुच्छा ॥ दारं ॥ २३५८. भोइकुल ११ सेवि भाउग, दुस्सीलेगे तु 'जो ततो १२ पुच्छा एमेव सेसएसु वि, होति विभासा तिलादीसु ॥ दारं ॥ 'साधम्मिय वइधम्मिय१३ निघरिसभाणे तधेव कूवे य 'गावी पुक्खरिणीया १४, नील्लग सेवगागमणे १५
F
1
/
२३५१. ओघो
कातव्व
२३५२. उवहि- सुत- भत्तपाणे,
दावणा य निकाए य, २३५३. कीकम्मस्स य करणे, समोसरण सन्निसेज्जा,
२३५९.
जुग्गो (अ) ।
संभोतिगति (अ), संभोगोत्ति (ब) ।
कितिकम्म० (अस) ।
एयं (स) ।
निसीहे (ब) ।
सद्दो (स) ।
बोधव्वो (ब) ।
अगदे (अस) ।
-
९.
य (स) ।
१०. कुते ततो (स) ।
११. भोति ० (अ)।
|
आणुपुवी ॥
१२. जाव तओ (ब) ।
१३. साधम्मत वतिधम्मय (अ) ।
१४. वावी पुक्खरणीया (स) । १५. सेवं आग० (स) ।
11
I
॥
1
॥ दारं ॥
व्यवहार भाष्य
||
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________________
पंचम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
॥
I
२३६०. एतेसिं कतरेणं, संभोगेणं तु होंति” संभोगी 1 समणाणं समणीओ, भण्णति अणुपालणाए उ २३६१. आलोयणा सपक्खे, परपक्खे? चउगुरुं च आणादी भिन्नकधादि विराधण, दट्ठूण व भावसंबंधो ॥नि. ३५६ ॥ २३६२. मूलगुणेसु चउत्थे, विगडिज्जते विराधणा होज्जा णिच्छक्क दिट्ठमुहगतो य भावं विजाणंति
२३६३.
२३६४.
२३६५.
२३६९.
I
पगासेंती वंद वा उट्ठे वा, गच्छो तध लहुसगत्त आणयणे विगडेंत पंजलिउड १९, दड्डूणुड्डाह कुवियं तू " तो १२ जाव अज्जरक्खित, आगमववहारतो ३ वियाणेत्ता न भविस्सति दोसो ती१४, तो वायंती उ छेदसुतं ॥ २३६६. आरेणागमरहिया, मा विद्दाहिंति १५ तेण कथं कुव्वंलं, सोधि तु २३६७. तो जाव अज्जरक्खिय सट्ठाण पगासयंसु १७ वतिणीओ असतीय विवक्खम्म वि, एमेव य होंति समणा वि २३६८. मेहुणवज्जं आरेण, केइ १८ समणेसु ता पगासेंति तं तु न जुज्जति जम्हा, लहुसगदोसा सपक्खे वि असती कडजोगी पुण मोत्तूणं धुवकम्मिय १९, तरुणी
आइणे सुण्णघर देउलुज्जाण - रण एय विवज्जे ठायंति, तिण्णि
२३७०.
अप्पच्चय निब्भयया, पेल्लणया जइ पगासणे दोसा वतिणी वि होति गम्मा, नियए दोसे
X (31) 1
X (ब) +
विगडियंति (अ), विगडिज्जते (ब) ।
णिछक्वकतोय (स) 1
भाव (ब)।
निब्भयिया (ब)।
६.
७.
गम्म (अ) ।
८.
उट्ठो (अ)
९.
विगलेंत (अ) ।
१०. पंजलिअडं (अ, स)।
1
11
१२. ततो ( ब ) ।
1
11
'तो न १६ वाएंति । अयाणमाणीओ
11
० हारिणो (स) ।
1
॥
1
11
संकिताई ठाणाई I थेरस्स दिट्ठिपधे ॥ पच्छण्णुवस्सयस्संतो । चउरोऽहवा पंच ॥
१९. ध्रुवगम्मिय (अ) ।
२०. ठायंती (स) ।
११. इस गाथा की व्याख्या टीका में नहीं है। मात्र
1
11
'द्वितीयगाथा सम्प्रदायात् व्याख्येया' इतना उल्लेख है।
१३.
१४. त्ति (ब)।
१५. विद्दाहोति (अ), विद्दति (स) ।
१६. तेण (स)।
१७. पगासतिंसु (अ, स), पगासविंसु (ब)।
१८. कोति (स) ।
[ २२५
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________________
२२६ ]
व्यवहार भाष्य
२३७१. थेरतरुणेसु भंगा, चउरो सव्वत्थ परिहरे दिट्ठि ।
दोण्हं पुण तरुणाणं, थेरे थेरी य पच्चुरसिं ॥ २३७२. थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया ।
सरिसवयं च विवज्जे, 'असती पंचम" पहुं कुज्जा ॥ २३७३. ईसि ओणा उद्धट्ठिया उ आलोयणा विवक्खम्मि ।
सरिपक्खे उक्कुडुओ, पंजलिविट्ठो वणुण्णातो ॥ दिट्ठीय होति गुरुगा, सविकारा ओसर त्ति सा भणिता ।
तस्स विवड्ढित' रागे, तिगिच्छ जतणाय कातव्वा ॥ २३७५. अण्णेहि पगारेहि, जाहे नियत्तेउ सो न तीरति उ ।
घेत्तूणाभरणाई, तिगिच्छ जतणाय कातव्वा ॥ २३७६. जारिससिचएहि ठिया, तारिसएहिं तमस्सणी वरिया ।
संभलि विणोयकेतण, विलेवणं चिहुरगंडेहिं ॥ २३७७. अधवा वि सिद्धपुत्ति, 'पुव्वं गमिऊण तीय" सिचएहिं ।
आवरिय कालियाए, सुण्णागारादि संमेलो ॥ २३७८. गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा ।
'चिरदिक्खिया य१० वुड्डा, जतीण आलोयणा जोग्गा १ ॥ २३७९. आलोयणाय दोसा, वेयावच्चे वि होति ते१२ चेव ।
नवरं पुण नाणत्तं, बितियपदे१३ होति कायव्वं ॥ २३८०. उडुभयमाणसुहेहिं१४, देह सभावाणुलोमभुजेहिं५ ।
कढिणहिययाण वि मणं, वंकंतऽचिरेण कइतविया'६ ॥ २३८१. जह चेव य बितियपदे, दलंति आलोयणं तु जतणाए ।
एमेव य बितियपदे, वेयावच्चं१८ तु अण्णोण्णे ॥ २३८२. भिक्खू मयणच्छेवग,१९ एतेहि गणो उ होज्ज आवण्णो ।
वायपराइओं२० वा से, संखडिकरणं च वित्थिण्णं२१ ॥
असतीए पंचम (स)। २. X(ब)। ३. तोसर (अ)। ४. कस्स (अ)।
विवद्धित (ब)। ० सिवकेहु (स)। संभणि (स)।
मे कुणती य (ब)। ९. आवलिय (अ)। १०. ० दिक्खितया (अ, स)। ११. जुग्गा (अ)।
१२. तह (ब)। १३. बितियए (अ)। १४. उदुभय० (स)। १५. ० भुजेहिं (स)। १६. कतिविधिया (ब), केतविया (अ)। १७. लभंति (ब)। १८. वेज्जावच्चं (अ)। १९. मदणिच्छेवग (स)। २०. वायापरियाओ (अ)। २१. विच्छिण्णं (स)।
;
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________________
पंचम उद्देशक
२३८३. कइतवधम्मकथाए', आउट्टो बेति भिक्खुगाणा । परमण्णमुवक्खडियं, मा जातु
असंजयमुहाई ॥
२३८४. तं
२३८५. आयंबिल खमगाऽसति, लद्वाण चरंतएण उ विसेण 1 बितियपदे जतणाए, कुणमाणि इमा तु निद्दोसा ॥ २३८६. संबंधिणि गीतत्था ववसायि थिरत्तणे य कतकरणा 1 चिरपव्वइया य बहुस्सुता परीणामिया जाव २३८७. गंभीरा मद्दविता, मितवादी अप्पकोउहल्ला
२३९०.
कुणऽणुग्गहं मे, साहूजोग्गेण एसणिज्जेण । पडिलाभणाविसेणं, पडिता' पडिती य सव्वेसिं ॥
य
साधुं गिलाणगं खलु, पडिजग्गति ११ एरिसी अज्जा २३८८. ववसायी १२ कायव्वे, थिरा उ जा संजमम्मि होति दढा कतकरण जीय' ३ बहुसो, वेयावच्चा 'कया कुसला १४ २३८९. चिरपव्वइयसमाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी परिणामिय परिणामं, "सा १५ जाणति पोग्गलाणं तु१६ काउं न उत्तुणई, गंभीरा मद्दविया अविम्हइया १७ कज्जे परिमियभासी, मियवादी होइ अज्जा उ २३९१. कक्खतं गुज्झादी १८, न निरिक्खे अप्पकोउहल्ला १९ एरिसगुणसंपन्ना २०, साहूकरणे २१ भवे २२ जोग्गा 11 २३९२. पडिपुच्छिऊण वेज्जे, दुल्लभदव्वम्मि हो विसघाई २३ खलु कणगं, निधि जोणीपाहुडे २४ सढे ॥ २३९३. असतीए अण्णलिंगं, तं पि जतणाय 'होति कायव्वं २५ गणे पण्णवणे २६ वा आगाढे हंसमादी २७
||
1
उ I
1
वि
कतितवं० (अ)। पेति (अ) ।
भिच्छुगा० (स) ।
मं (अ)।
X (अ)।
चरंतए (अ)।
कुणमाणो (ब)।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०. जाया (स) ।
११. पडिजयति (ब) ।
१२. ० साया (अ), ० साती (ब)। १३. जो य (अ) ।
० साय (ब) ।
परिणा ० (स) ।
१४. य कुसला या (ब) । १५. जो (ब)।
१६. यह गाथा स प्रति में नहीं है।
१७. विम्ह० (ब) ।
१८. गुज्झाती (ब) ।
१९. तु (स)।
२०.
२१.
२२.
० सपुन्ना (अ) ।
०करणा (स) ।
हवइ (अ) ।
॥ नि. ३५७ ॥
I
॥नि. ३५८ ॥
t
||
I
11
I
11
२३.
० घाइं (स)।
२४. जोणि० (स) ।
२५. होज्ज जोयव्वं (अ), होति जोयव्वं (स) ।
२६. ० वगो (अ) ।
२७. हंसपाई (स)।
[ २२७
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________________
२२८
]
व्यवहार भाष्य
२३९४. पडिसिद्धमणुण्णातं, वेयावच्चं इमं खलु दुपक्खे ।
‘सा चेव" य समणुण्णा, इहं पि कप्पेसु नाणत्तं ॥ २३९५. अत्थेण व आगाढं, भणितं इहमवि य होति आगाढं ।
अहवा अतिप्पसत्तं, तेण निवारेति जिणकप्पे' ॥ २३९६. सुत्तम्मि कड्ढियम्मी, वोच्चत्थ करेंत चउगुरू होंति ।
आणादिणो य दोसा, विराधणा जा भणितपुव्वं ॥नि. ३५९ ।। २३९७. संबंधो दरिसिज्जति, उस्सुत्तो खलु न विज्जते अत्थो ।
उच्चारित छिण्णपदे, विग्गहते चेव अत्थो उ ॥ २३९८. अक्खेवो पुण कीरति, कत्थतिऽक्खेव विणा वि तस्सिद्धी ।
जत्थ अवायनिदरिसण', एसेव उ होति अक्खेवो ॥ २३९९. किं कारणं न कप्पति, अक्खेवो दोसदरिसणं सिद्धी० ।
लोगे वेदे समए, विरुद्धसेवादयो १ णाता ॥ २४००. तम्हा सपक्खकरणे, परिहरिता पुव्ववण्णिता दोसा ।
कप्पे छढुद्देसे, तह चेव इहं पि दट्ठव्वा ॥ २४०१. चोएती परकरणं, नेच्छामो दोसपरिहरणहेत् ।
किं पुण भेसज्जगणो, घेत्तव्व गिलाणरक्खट्ठा ॥ २४०२. पुव्वं१२ तु अगहितेहिं१३ दूरातो'४ ओसहाइ आणिंति५ ।
तावत्तो६ उ गिलाणो, दिद्रुतो दंडियादीहिं ॥ २४०३. उवद्रुितम्मि संगामे, रणो — बलसमागमो ।
एगो वेज्जोत्थ७ वारेती, न तुब्भे जुद्धकोविया ॥ २४०४. घेप्पंतु ओसधाई, 'वणपट्टा मक्खणाणि'१९ विविहाणि ।
सो बेतऽमंगलाई, मा कुणह अणागतं चेव ॥ २४०५. किं घेत्तव्वं रणे जोग्गं, पुच्छित्ता इतरेण ते ।
भणंति वणतिल्लाई, घतदव्वोसहाणि य० ॥
१. सच्चेव (अ, स), सं चेव (ब)। २. कज्जेसु (अ)। ३. भणिउ (ब)।
निवारिति (ब)। जिणिंदो (ब)।
करेंति (ब)। ७. तस्सड्ढी (स)।
०सणं (स)। ९. अक्खे इवो ()। १०. सुद्धी (स)।
११. ० दतो (अ)। १२. पुल्बि (अ)। १३. अग्गहि० (ब), माथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (मवृ)। १४. दूरा जा (अ)। १५. आणंती (ब), आणेती (स)। १६. ताणत्तो (स)। १७. वेज्जो व (ब)। १८. घेत्तुं तु (अ)। १९. वणवट्टमक्खणाणं (ब), पिवण. (स)। २०. यह गाथा अ प्रति में नहीं है।
८.
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पंचम उद्देशक
[ २१९
२४०६. भग्गसिव्वित संसित्ता, वणा वेज्जेहि जस्स उ ।
सो पारगो उ संगामे, पडिवक्खो विवज्जते ॥ २४०७. एमेवासणपेज्जाइं, खज्जलेज्झाणि जेसि उ ।
भेसज्जाइं सहीणाई, पारगा ते समाहिए । २४०८. अधवा राया दुविधो, आतभिसित्तो पराभिसित्तो य ।
आतभिसित्तो भरहो, तस्स उ पुत्तो परेणं तु ॥ २४०९. बलवाहणकोसा या', बुद्धी उप्पत्तियाइया ।
साधगो उभयोवेतो, सेसा तिण्णि असाधगा ॥ २४१०. बलवाहणत्थहीणो, बुद्धीहीणो न रक्खते रज्जं ।
इय सुत्तत्थविहीणो, ओसहहीणो उ गच्छं तु ॥ २४११. आयपराभिसित्तेणं, तम्हा आयरिएण उ ।
ओसधमादीणि चओ, कातव्यो 'चोदए सिस्सो" ॥ २४१२. सीसेणाभिहिते एवं, बेति आयरिओ ततो ।
वदतो गुरुगा -तुब्भं, आगादीया विराधणा ॥नि. ३६० ॥ २४१३. दिटुंतसरिस काउं, अप्पाण परं च केइ नासंति ।
ओसधमादीनिचओ, कातव्व जधेव राईणं ॥ २४१४. कोसकोट्ठारदाराणि, पदातिमादियं० बलं ।
एवं १ मणुयपालाणं, किण्णु तुझं पि रोयति ॥ २४१५. जो वि
जो वि ओसहमादीणं, निचओ सो वि अक्खमो ।
न संचये सुहं अस्थिर, इहलोए परत्थ य ॥ २४१६. आदिसुतस्स विरोधो, समणचियत्ता गिहीण अणुकंपा ।
पुवायरियऽन्नाणी, अणवत्था वंत मिच्छत्तं ॥दारं ॥नि. ३६१ ॥ २४१७. जं वुत्तमसणपाणं, खाइमं साइमं तधा ।
संचयं तु न कुव्वेज्जा, “एवं दाणि विरोधितं५३ ॥दारं ।। २४१८. 'परिग्गहे निजुज्जंता१४, परिचत्ता तु संजता ।
भारादिमादिया दोसा, पेहा 'पेहकतादि य१५ ॥
१. २.
४.
एवमेवसंपज्जाई (स), ० वासण दिप्पई (ब)।
लेझिणि (स)। पेसज्जाति (अ)। परभि० (स)। य(ब)। ० यात्ति य (अ)। जन्हा (स)। चोयती सीसो (ब)।
रातीणं (अ)। १०. पदादिमा०(अ)। ११. एयं (ब)। १२. अत्थी (स)। १३. इयं दाई विराधितं (स)। १४. परिग्गहेण निज्जुत्ता (ब)। १५. ०दिह (अ)।
६. ७. ८.
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२३० ]
व्यवहार भाष्य
२४१९. अधवा तप्पडिबंधा, अच्छंते नितियादओ' ।
अणुग्गहो गिहत्थाणं, सदा ‘वि ताण'२ होति उ३ ॥दारं ॥ २४२०. पडिसिद्धा सन्निही जेहिं, पुवायरिएहि ते वि तु ।
अण्णाणी उ कता एवं, अणवत्थापसंगतो ॥दारं ।। २४२१. वंत निसेवितं होति, गेण्हंता संचयं पुणो ।
मिच्छत्तं न जधावादी, तधाकारी भवंति उ ॥दारं ।। २४२२. एते अन्ने य जम्हा उ, दोसा होंति सवित्थरा ।
तम्हा ओसधमादीणं, संचयं तु न कुव्वए ॥ २४२३. जदि दोसा भवंतेते, किं खु धेत्तव्वयं ततो ।
समाधिठावणट्ठाए', भण्णती सुण तो इतो ॥ २४२४. नियमा विज्जागहणं, कायव्वं होति दुविधदव्वं तु० ।
संजोगदिट्ठपाढी, असती गिहि - अण्णतित्थीहिं । २४२५. चित्तमचित्तपरित्तं, मणंत - संजोइमं १ च इतरं च ।
थावर - जंगम - जलजं, थलजं चेमादि दुविधं तु ॥ २४२६. जध चेव दीहपट्टे, विज्जामंता य दुविधदव्वा य ।
एमेव सेसएसु वि, विज्जा दव्वा य रोगेसु ॥ २४२७. संजोगदिट्ठपाढी,१२ हीणधरंतम्मि३ छग्गुरू होति ।
आणादिणो य दोसा, विराधण इमेहि ठाणेहिं ॥नि. ३६२ ।। २४२८. उप्पण्णे गेलण्णे, जो गणधारी न जाणति तिगिच्छं ।
दीसंततो विणासो, सुहदुक्खी तेण५ तू चत्ता ॥नि. ३६३ ।। २४२९. आतुरत्तेण कायाणं, विसकुंभादि६ घातए ।
डाहे छज्जे य जे अण्णे, भवंति समवद्दवा ॥ २४३०. एते पावति दोसा, अणागतं अगहिताय विज्जाए ।
असमाही सुयलंभं, केवललंभं तु उप्पाए १७ ॥
२. ३.
निययादओ (अ)। देवाण (स)। य (अ.स)। धंत (अ)। धम्मा (अ)। नु (ब)। समाधिसंधाव० (स)। आभणति (स)। x(अ)।
१०. च (स)। ११. णातव्वं (अ)। १२. संजोगे ० (अ)। १३. हीणचरेतम्मि (स)। १४. विणासे (अ)। १५. ते (अ)। १६. विसं कुं० (स)। १७. चुक्केज्जा (ब), भुक्केज्जा (अ)।
७.
.
९.
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पंचम उद्देशक
[ २३१
२४३१. इह लोगियाण परलोगियाण लद्धीण फेडितो होति ।
इहलोगे मोसादी, परलोगेऽणुत्तरादीया ॥ २४३२. असमाधीमरणेणं, एवं सव्वासि फेडितो होति ।
जह आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाता ॥ २४३३. सत्तलवा जदि आउं, पहुप्पमाणं ततो तुरे सिझंतो ।
तत्तियमेत्त न भूतं, तो ते लवसत्तमा जाता ॥ २४३४. सव्वट्ठसिद्धिनामे, उक्कोसठितीय विजयमादीसु ।
एगावसेसगब्भा, भवंति लवसत्तमा देवा ॥ २४३५. तम्हा उ सपक्खेणं, कातव्व गिलागगस्स तेगिच्छं ।
विवक्खेण न कारेज्ज, एवं उदितम्मि चोदेति ॥ २४३६. सुत्तम्मि अणुण्णातं, इह इं पुण अत्थतो निसेधेहरे ।
कायव्व सपक्खेणं, चोदग सुत्तं तु कारणियं ॥ २४३७. वेज्जसपक्खाणऽसती, गिहि-परतित्थी उ तिविधसंबंधी ।
एमेव असंबंधी, असोयवादेतरा सव्वे ॥ २४३८. एतेसिं' असतीऍ गिहि-भगिणि परतित्थिगी तिविहभेदा" ।
एतेसिं असतीए, समणी तिविधा करे जतणा ॥ २४३९. दूती अदाए ता, वत्थे अंतेउरे य दब्भे वा ।
वियणे य तालवंटे०, चवेड ओमज्जणा जतणा ॥ २४४०. दूयस्सोमाइज्जइ, असती अद्दाग परिजवित्ताणं११ ।
परिजवितं वत्थं वा, पाउज्जइ'२ तेण वोमाए ॥ २४४१. एवं दब्भादीसुं१३ ओमाएऽसंफुसंत४ हत्थेणं ।
चावेडीविज्जाएँ व५, 'ओमाए चेडयं१६ दितो ॥ एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्यो । विज्जादी मोत्तूणं, अकुसलकुसले य७ करणं च ॥
१. होउ (अ.स)। २. य (ब)।
निसेहेध (अ)। ४. गाथा के तृतीय चरण में अनुष्टुप् छंद है। ५. एतेहिं (स)। ६. तित्थिगि (स)। ७. ति लेभे उ (ब)। ८. विविहं (ब)। ९. करेंति (अ)।
१०. तालिएंटे (अ, स), तालियंदे (ब)। ११. परिज ० (अ)। १२. पावेज्जति (अ)। १३. दब्भादिसु (अ), • दीसु वि (स) । १४. ० संतो य (ब)। १५. य (स)। १६. तोमाए चावेडयं (ब)। १७. न (अ.स)।
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२३२ ]
व्यवहार भाष्य
२४४३. मंतो हवेज्ज कोई', विज्जा उ ससाहणा न दायव्वा ।
तुच्छा गारवकरणं, पुव्वाधीता य उरे करेज्जा ॥ २४४४. अज्जाणं गेलण्णे, संथरमाणे सयं तु कायव्वं ।
वोच्चत्थ मासचउरो, लहु-गुरुगा थेरए तरुणे ॥ २४४५. जिणकप्पिए न कप्पति, दप्पेणं अजतणाय थेराणं ।
कप्पति य कारणम्मि, जयणाय गच्छे स सावेक्खो ॥ २४४६. चिट्ठति परियाओ से, तेण च्छेदादिया न पावेंति । परिहारं च न पावति, परिहार तवो त्ति एगटुं ॥
इति पंचम उद्देशक
१. २. ३.
कोती (ब)। य (स)। सव्वं (ब)।
४. ५. ६.
भूया (ब)। x (स)। जेण (ब, स)।
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षष्ठ उद्देशक
२४४७. छेदण-दाहनिमित्तं', मंडलिडक्के या दीहगेलण्णे ।
पाउग्गोसधहेउं, णायविधी सुत्तसंबंधो ॥ २४४८. गेलण्णमधिकतं वा, गिलाणहेउं इमो वि आरंभो ।
आगाढं व तदुत्तं, सहणिज्जतरं इमं होति ॥ २४४९. अम्मा-पितिसंबंधो, पुव्वं पच्छा व संथुता जे तु ।
एसो खलु णायविधी, णेगा भेदा य एक्केक्के ॥ २४५०. 'नायविधिगमण लहुगा', आणादिविराधण संजमायाए ।
संजमविराधणा खलु , उग्गमदोसा तहिं होज्जा ॥नि. ३६४ ।। २४५१. दुल्लभलाभा समणा, नीया नेहेण आहकम्मादी ।
चिरआगयस्स कुज्जा, उग्गमदोसं तु एगतरं ॥नि, ३६५ ॥ २४५२. इति संजमम्मि एसा, विराधणा होतिमा उ आयाए ।
छगलग सेणावति कलुण, रयणथाले य एमादी. नि. ३६६ ।। २४५३. जध रण्णो सूयस्सा, मंसं मज्जारएण अक्खित्तं ।
सो अद्दण्णो मंसं, मग्गति इणमो य तत्थातो ॥ २४५४. कडुहंड० पोट्टलीए, गलबद्धाए उ छगलओ तत्थ ।
सूवेण१ य सो वहितो, थक्के आतो त्ति नाऊणं ॥ २४५५. एवं अद्दण्णाइं१२, ताइं मग्गंति तं समंतेणं ।
सो य तहिं संपत्तो, ववरोवित संजमा तेहिं ॥दारं ।। २४५६. सेणावती मतो ऊ३, 'भाय-पिया"४वा वि तस्स जो आसी५ ।
अण्णो य नत्थि अरिहो ६, नवरि इमो तत्थ संपत्तो ॥
१. दाहसमुत्थं (अ,ब,स)। २. व (अ.स)। ३. विही (ब)। ४. . लहुगाणा य ० ()। ५. अधुना नियुक्तिविस्तः (मव)। ६. एसो (अ,ब)।
एमातो (ब)। ८. सूतस्सा (अ)।
९. आक्खेत्तं (अ)। १०. कलहुंड (अ). ११. सूतेण (अ, स)। १२. अट्टणाई (अ)। १३. उउ (अ,ब)। १.४. भाव पिवा (अ)। १५. आसि (ब)। १६. अरुहो (अ.स)।
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२३४ ]
व्यवहार भाष्य
२४५७. तो कलुणं कंदंता, बेति' 'अणाहा वयं'२ विणा तुमए ।
मा य इमा सेणावति, लच्छी संकामओ अन्नं ॥ २४५८. तं च कुलस्स पमाण, बलविरिए' तुज्झऽहीणमंतं च ।
पच्छावि पुणो धम्मं, काहिसि दे ! ता पसीयाहि ॥ २४५९. एवं कारुण्णेणं, इड्डीय तु लोभितो तु सो तेहिं ।
ववरोविज्जति ताधे, संजमजीवाउ सो तेहिं ॥दारं ।। २४६०. अविभवअविरेगेणं, विणिग्गतो° पच्छ इड्ढिमं जातं ।
थाल'९ वत्थूण पुण्णं, उवणेति 'गेण्हिमेतं ति१२ ॥ २४६१. तस्स वि दट्ठण तयं, अह लोभकली ततो उ समुदिण्णो ।
वोरवितो'३ संजमाउ, एते दोसा हवंति तहिं ॥दारं ॥ २४६२. अधवा न होज्ज एते, अण्णे दोसा हवंति५ तत्थेमे ।
जेहिं तु संजमातो, चालिज्जति सुट्ठितो ठियओ६ ॥ २४६३. अक्कंदठाणससुरे, उव्वरए पेल्लणाय उवसग्गे१७ ।
पंथे रोवण भतए१८ ओभावण अम्ह कम्मकरा९ ॥नि. ३६७। २४६४. छाघातो२० अणुलोमे, अभिजोग्ग विसे सयं च ससुरेण२१ ।
पंतवण२२ बंधरुंभण, तं ‘वा ते २३ वाऽतिवायाए२४ ॥दारं ॥नि. ३६८ ॥ २४६५. दीसंतो२५ वि हु नीया२६, पव्वयहिययं पि२७ संपकप्पंति ।
कलुणकिवणाणि किं पुण, कुणमाणा एगसेज्जाए ॥ २४६६. अक्कंदट्ठाणठितो२८, तेसिं सोच्चा 'तु नायगादीणं ।
पुवावरत्त रोवण, जाय ! अणाहा वयं२९ कोइ ॥दारं ॥
१.
बात
बंति (ब)। २. अणाहावितं (अ.स), अणाभावियं (ब)। ३. X(अ)।
पहाणं (मु)।
० रियं (स)। ६. तुभ ० (अ, स), णमत (अ)। ७. काहिति (ब)। ८. ० याही (अ)। ९. ०जीवितातो (आ), ० जीविता वा (स) । १०. वणियत्तो (ब), व णिग्गितो (अ)। ११. थालं (अ), थाणं (स)। १२. गेण्हिमायं ति (ब), मेतं ती (स)। १३. वोउविओ (ब)। १४. संजमतो (स)। १५. हवेज्ज (ब), हवंत (स)।
१६. ठिततो (आथितओ (स)। १७. उवस्सगे (ब)। १८. भयए (अ)। १९. कम्मपरा (ब)। २०. छागघातः (मवृ), वाधातो (अ.स)। २१. असुरेणं (अ)। २२. पंता ० (अ)। २३. ताते (अ)। २४. ० वायाति (ब)। २५. सीदंता (स)। २६. निजका (मवृ)। २७. व (अ)। २८. • ट्ठाणद्वितो (स)। २९. वए (स)।
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षष्ठ उद्देशक
२४६७. महिलाएँ समं छोढुं नातविश्विमागतं
२४६८. मोहुम्मायकराई,
1
कुवितो ॥ दारं ॥
1
ससुरेणं ढक्कितो तु उव्वरए 1 वा, पेल्ले उभामिसगाए ॥ दारं ॥ उवसग्गाई करेति से विरहे भज्जा र जेहिं तरुविवरे, वातेणं भज्जने सज्जं २४६९. कइवेण' सभावेण व, भयओ भोई पहम्मि पंतावे हिययं अमुंडितं मे, भयवं ' पंतावए २४७०. कम्महतो पव्वइतो, भयओ एयम्ह आसि मा वंद उब्भामकए वोद्दे, छाघातं ११ तस्स सा देति 11 मा छिज्जउ १२ कुलतंतू, धणगोत्तारं वत्थऽन्नमादिएहिं अभिजोग्गेतुं १४ नेच्छति देवरा मं१६, जीवंति ७ इमम्मि इति विसं देज्जा अणेण व दावेज्जा, ससुरो वा' से 'करेज्ज इमं १९ २४७३. पंतवण बंधरोहं, तस्स वि२० णीएल्लगार व खुब्भेज्जा । अधवा कसाइतो ऊ२२, सो वऽतिवाएज्ज एक्कतरं एक्कम्मि दोसु तीसु व २३, मूलऽणवट्ठो तधेव पारंची अध सो अतिवाइज्जति, पावति पारंचियं ठाणं ॥ दारं ॥ अहवावि धम्मसद्धा२४, साधू तेसिं घरे न गेण्हंती उग्गमदोसादिभया, धे नीता भणंति इमं 11 अम्हं अणिच्छमाणो, आगमणे लज्जणं २५ कुणति एसो । ओभावण हिंडतो, अण्णे लोगो व णं भणति || २४७७. णीयल्लस्स वि भत्तं, न गेहे २७ भुंजसु वुत्ते,
11
1
1
तरह दाउं ति तुब्भ किवणं ती २६ भणाति २८ नो कंप्पियं
२४७१.
२४७२.
२४७४.
२४७५.
२४७६.
वेढुं (ब) ।
भज्जाए (ब)।
० विधि (स) ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
भययं (स), भवं (अ) ।
९.
०हितो (स) ।
१०. पोट्टे (अ, ब, स ) ।
भज्जते (स) ।
कतएण (स), कयतेण (अ) ।
य (ब)।
भोए (स) ।
११. वाघात (अ)
१२. विज्जउ (अ), छिज्जइ (ब)
१३.
धणकतार (अ) ।
तु जणय मेगसुतं ।
च तं नेति९५
11
१८. व (अ) ।
१९. करेज्जतिमं (अ) ।
२०. व (अ) ।
२१.
१४.
० जोग्गेहिं (ब)। १५. र्णेति (स) ।
१६. मे(स), १७. जीवंते (स) ।
० ल्लए (अ)।
२२. उ (अस) । २३. वि (स) ।
२४. ० सड्डा (ब)।
२५. भज्जणं (स) ।
।
॥ दारं ॥
1
भुंजे ॥ दारं ॥
२६. ति (अ), किवणं वी (ब) ।
२७. गोहे (स) ।
२८. भणति (ब) ।
|
11
[ २३५
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२३६ ]
व्यवहार भाष्य
२४७८. किं तं ति खीरमादी, दामो' दिन्ने य भाइभज्जाओ ।
बेंति सुते जायंते, पडिता णे कर बहू पुत्ता ॥ २४७९. दधि-धय-गुल-तेल्लकरा, तक्ककरा चेव पाडिया अम्हं ।
रायकर पेल्लिता णं, समणकरा दुक्करा वोढुं ॥ २४८०. एते अण्णे य तहिं, नातविधीगमणे होंति 'दोसा उ ।
तम्हा तु न गंतव्वं, कारणजाते भवे गमणं ॥ २४८१. गेलण्णकारणेणं, पाउग्गाऽसति तहिं तु गंतव्वं ।
जे तु समत्थुवसग्गे, सहिउं ते जंति' जतणाए ॥ २४८२. बहिय अणापुच्छाए, लहुगा लहुगो य दोच्चऽणापुच्छा ।
आयरियस्स वि' लहुगा, अपरिच्छित पेसवेंतस्स ॥ २४८३. तम्हा परिच्छितव्वो, सज्झाए वह य भिक्खऽभावे य ।
थिरमथिरजाणणट्ठा, सो उ उवाएहिमेहिं तु ॥ २४८४. चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ ।
एत्थ परितम्ममाणं, तं जाणसु मंदसंविग्गं ॥ २४८५. चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ ।
एत्थ उ उज्जममाणं९, तं जाणसु तिव्वसंविग्गं११ ॥ २४८६. कइएण२ सभावेण य३, अण्णस्स य साहसे कहिज्जते ।
मात-पिति-भात-भगिणी, भज्जा-पुत्तादिएसुं तु ॥ २४८७. सिरकोट्टणकलुणाणि१४ य, कुणमाणाइं तु पायपडिताइं ।
अमुगेण न गणियाई, जो जंपति५ निप्पिवासो त्ति ॥ २४८८. सो भावतों१६ पडिबद्धो, अप्पडिबद्धो वएज्ज जो एवं ।
सोइहिति'७ केत्तिए८ तू, नीया जे आसि संसारे ॥ २४८९. 'मुहरागमादिएहि य"९, तेसिं२० नाऊण राग-वेरग्गं ।
नाऊण थिरं ताधे, ससहायं२९ पेसवेंति ततो ॥
ददामो (ब, स)। बेति (अ.स)। जावते (स)। दोसाए (ब)। जाति (ब)। ० पुच्छीए (अ)। व (ब)।
चेव (मु)। ९. ब प्रति में इस गाथा का केवल एक चरण है। १०. उज्जय ० (स)। ११. यह गाथा ब प्रति में नहीं हैं।
१२. कतएण (ब,स)। १३. व (स)। १४. ० कलुसाणि (ब)। १५. जंपिति (ब)। १६. भावो (ब)। १७. सोइहए (अ)। १८. कत्तिए ()। १९. ० रागमादीहिं (अ.स), रागमातिहिं (ब)। २०. तेहिं (अ)। २१. ससहाइयं (स)।
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[ २३७
षष्ठ उद्देशक २४९०. अबहुस्सुतो अगीतो, बाहिरसत्थेहि विरहितो इतरो ।
तब्दि रोते गच्छे, तारिसगसहायसहितो व ॥ २४९१. धम्मकही-वादीहिं, तवस्सि-गीतेहि संपरिवुडो उ ।
णेमित्तिएहि य तधा, गच्छति सो आपछट्ठो उ ॥ २४९२. पत्ताण वेल पविसण, अध पुण पत्ता पगे हवेज्जाहि ।
तं बाहिं ठावेउं, वसहिं गिण्हंति अन्नत्थ ॥ २४९३. पडिवत्तीकुसलेहिं, सहितो ताधे उ वच्चए तहियं ।
वास-पडिग्गहगमणं, नातिसिणेहासणग्गहणं ॥ २४९४. सयमेव उर्फ धम्मकधा, सासग' पंते य निम्मुहे कुणति ।
अपडुप्पण्णे य तर्हि, कहेति तल्लद्धिओ अण्णो ॥ २४९५. मलिया य पीढमद्दा, पव्वज्जाए य थिरनिमित्तं तु ।
थावच्चापुत्तेणं, आहरणं तत्थ कायव्वं ॥ २४९६. कहिए य अकहिए वा, जाणणहेउं अइंति १ भत्तघरं२ ।
पुवाउत्तं३ तहिये, पच्छाउत्तं व 'जं तत्थ१४ ॥ २४९७. पुव्वाउत्तारुहिते, केसिंचि समीहितं तु जं जत्थ ।
एते न होति दोण्णि५ वि, पुव्वपवत्तं तु जं जत्थ ॥ २४९८. पुव्वारुहिते य समीहिते य किं छुब्भते ६ न खलु अण्णं ।
तम्हा खलु जं उचितं, तं तु पमाणं न इतरं तु ॥ २४९९. बालगपुच्छादीहिं, नाउं आयरमणायरेहिं च ।
जं जोग्गं तं गेहति, दव्वपमाणं च जाणेज्जा ॥दारं २५००. दव्वप्पमाणगणणा, खारित - फोडिय तधेव अद्धा य ।
संविग्ग एगठाणा, अणेगसाधूसु पन्नरस नि. ३६९ ॥ २५०१. सत्तविधमोदणो खलु, साली-वीही य कोद्दव-जवे य ।
गोधुम-रालग-आरण्ण, कूरखज्जा य णेगविधा ॥
१. वा (स)। २. वादीहि य(ब)। ३. निमित्तएहि (स)। ४. मगति (मु)।
साधितो (आ)। x (अ, ब)।
सासण ()। ८. कधिति (अ)। ९. वा (स)।
१०. x(ब)। ११. अइति (स)। १२. भत्तभरं (अ), सत्त० (स)। १३. उव्वाउत्तं (अ, ब)। १४. जेणत्थ (स)। १५. दोण्ह (स)। १६. छुब्मति (अ.स)। १७. मकारोऽलाक्षणिक: (मवृ)।
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२३८
]
व्यवहार भाष्य
२५०२. सागविहाणा य तधा, खारियमादीणि वंजणाई च ।
खंडादिपाणगाणि य, नाउं तेसिं तु परिमाणं ॥ २५०३. परिमितभत्तगदाणे, दसुवक्खडियम्मि एगभत्तट्ठो ।
अपरिमिते आरेण वि, गेण्हति २ एवं तु जं जोग्गं ॥ २५०४. 'अद्धा य'३ जाणियव्वा, इहरा ओसक्कणादयो दोसा ।
संविग्गे संघाडो, एगो इतरेसु न विसंति ॥दारं ॥ २५०५. तहियं गिलाणगस्सा, अधागडाई हवंति सव्वाइं । अब्भंगसिरावेधो,
अपाणछेयावणेज्जाइं ॥ २५०६. जइ नीयाण गिलाणो, नीओ वेज्जो व कुणति अण्णस्स ।
तत्थ हु न पच्छकम्म, जायति अब्भंगमादीसु ॥ २५०७. पुव्वं च मंगलट्ठा, तुप्पे जइ करेति गिहियाणं ।
सिरवेध - वत्थिकम्मादिएसुन उ पच्छकम्मेयं० ॥ २५०८. अत्तट्ठा उवणीया१, ओसधमादी वि होंति २ ते ३ चेव ।
पत्थाहारो४ य तहिं, अधाकडो५ होति साधुस्सा ॥ २५०९. अगिलाणे उ गिहिम्मी६, पुवुत्ताए करेंति जतणाए ।
अण्णत्थ पुण अलंभे, नायविधिं नेंति अतरंत१७ ॥ २५१०. अधुणा८ तु लाभचिंता, तत्थ गयाणं इमा भवति तेसिं ।
जदि२० सव्वेगायरियस्स, होति तो मग्गणा नत्थि ॥ २५११. संतासंतसतीए , अह अण्णगणा२२ बितिज्जगा णीया२३ ।
तत्थ 'इमा मग्गणा उ२४, आभब्वे होति नायव्वा ॥ २५१२. जं सो२५ उवसामेती, तन्निस्साए य आगता जे उ ।
ते सव्वे आयरिओ, लभते पव्वावगो२६ तस्स ॥
खारीमादीण (स)। २. गेण्हे (स)। ३. अद्धाइ (अ) ४. उक्कोसणा ० (अ, ब)। ५. विसंती (अ, ब)।
० लद्धा (स)। ७. उप्पेउ (तुष्पेउ) देशीपदमेतत् अब्भङ्गया (मवृ)। ८. सिरि०(स)। ९. वत्थक० (अ.स)। १०. पत्थक० (ब)। ११. ० णीयं (स)। १२. हवंति (ब)। १३. तध (अ)।
१४. पच्छा ० (मु) १५. अहा ० (अ)। १६. गिहम्मी (अ), गिहम्मि (स)। १७. अणंतरं (ब)। १८. अहुणो (ब)। १९. हवइ (अ)। २०. जति (ब)। २१. तं(ब)। २२. पुण्णगणा (अ) २३. ० ज्ज आणीया (ब)। २४. इम मग्गणा ऊ (ब)। २५. सिं (ब)। २६. पव्वयगो (अ)।
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षष्ठ उद्देशक
[ २३९
२५१३. जे पुण अधभावेणं', धम्मकही सुंदरो ति वा सोउं ।
उवसामिया य तेहिं, तेसिं चिय ते हवंती उ ॥ २५१४. अण्णेहि कारणेहि व, गच्छंताणं तु जतण एसेव ।
ववहारो सेहस्स य, ताइं च इमाइ कज्जाइं ॥ २५१५. तवसोसिय अप्पायण, ओमेव असंथरेंत गच्छेज्जा ।
रमणिज्जं वा खेत्तं, तिकालजोग्गं तु गच्छस्स ॥ २५१६. वासे निच्चिक्खिल्लं', सीयलदव पउरमेव गिम्हासु ।
सिसिरे य घणणिवाया, वसधी तह घट्ठमट्ठा य ॥ २५१७. छिन्नमडंबं च तगं, सपक्खपरपक्खविरहितोमाणं ।
पत्तेय उग्गहं ति य, काऊणं तत्थ गच्छेज्जा ॥ २५१८. उवदेसं काहामि यः, धम्म १ गाहिस्स पव्वयावेस्सं२ ।
सड्ढाणि व वुग्गाहे१३, भिक्खुगमादी४ ततो गच्छे ॥ २५१९. अतिसेसित५ दव्वट्ठा, नायविधि ६ वयति बहुसुतो संतो ।
णेगा य अतिसया बहुसुतस्स एसो उ पस्सेसो ॥ २५२०. अण्णो वि अत्थिर जोगो, असाधुदिट्ठीहि हीरमाणाणं१८ ।
वायादतिसयजुत्ता ९, तहियं गंतुं नियत्तेति ॥ २५२१. पुणरवि भण्णति जोगो, नायविधि२° गंतु पडिनियत्तस्स ।
वसहि२९ विसतो सुत्तं, संसाहितुमागते वावि ॥ २५२२. बहि-अंतविवच्चासो२२, पणगं२३ सागारि चिट्ठति मुहत्तं ।
बितियपदं विच्छिण्णे, निरुद्धवसहीय जतणाए ॥नि. ३७० ।।
अह०। २. कम्म० (अ)। ३. X(स)। ४. असंथरतो (ब)।
० क्खिण्णं (अ), अ प्रति में अनेक स्थानों पर ण्ण के स्थान पर ल्ल तथा ल्ल के स्थान पर ण्ण पाठ मिलता है।
X(ब)। ७. X(अ)। ८. मंडवं (स)। ९. गाथायामपमानशब्दएस्यान्यथोपनिपातः प्राकृतत्वात् (म)। १०. व(ब)। ११. धम्मे (अ)।
१२. पव्वयाविस्से (ब)। १३. वग्गाहे (अ)। १४. भिच्छुग ० (ब)। १५. अतिसीसिय (ब)। १६. ० विहं (ब)। १७. अस्थ (अ, ब)। १८. ०माणेणं (ब)। १९. बालादति ० (स)। २०. ० विहं (ब)। २१. वसही (अ), वसधी (स)। २२. अंतो वि० (अ)। २३. पुणगं (अ)
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________________
२४० ]
२५२३. बाहिं अपमज्जंते, पणगं गणिणो उ सेसए' मासो । अप्पडिहदुपे, पुव्वुत्ता सत्तभंगा
उरे
॥
I
२५२४. बहि- अंतविवच्चासो, पणगं सागारिए असंतम्मि सागारियम्मि उ चले, अच्छंति मुहुत्तगं थेरा थिरवक्खित्ते" सागारिए अणुवउत्तें पमज्जिडं पविसे 1 निव्विक्खित्तुवउत्ते, अंतो तु पमज्जणा ताहे ॥ अभिहितस्स असती, तस्सेव रयोहरणेण ́ ऽण्णतरे । पाउंछते १० व, पुच्छंति अणण्णभुत्तेणं ११ २५२७. विपुलाए अपरिभोगें, अप्पणोवासए १२ व चिट्ठस्स १३ एमेव य भिक्खुस्स वि, नवरिं बाहिं चिरतरं तु || २५२८. निग्गिज्झ पमज्जाही, अभणतस्सेव मासियं गुरुणो । पादरए१४ खमगादी, चोदगकज्जे गते दोसा ॥ नि. ३७१ ॥ २५२९. तवसोसितो व खमगो१५, 'इड्डिम - वुड्डो व कोच्चितो १६ वावि मा भंडण खमगादी, इति सुत्त निगिज्झ जतणाए थाणे कुप्पति खमगो१५, किं चेव गुरुस्स निग्गमो भणितो " भति९ कुल-गणकज्जे, चेइयनमणं च पव्वे २५३१. जदि एवं निग्गमणे, भणाति तो 'बाहि चिट्ठ२० पुच्छे वुच्चति बहि" अच्छंते, चोदग२२ गुरुणो इमे २३ दोसा ॥
1
।
२५२५.
२५२६.
२५३०.
o
सेसतो (ब)।
च (ब), यह गाथा स प्रति में नहीं है।
सागरि ० (ब) ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
सती (अ, ब) ।
रतोह० (ब)।
८.
९.
अन्नतरो (अस) ।
१०. पाउंछोणु० (ब) ।
स (ब) ।
थिर वक्खेत्ते (अ) ।
अभिगाधि० (ब)।
११.
सुतेणं (ब) । १२. अप्पणतोवा ० (अ) ।
१३. वेट्ठस्स (अ), पेढस्स (ब) ।
२५३२. तण्हुहादि अभावित, वुड्डा वा अच्छमाण मुच्छादी२४ । विणए गिलाणमादी, साधू सण्णी पडिच्छंती ॥ नि. ३७२ ॥ २५३३. तिण्हुण्ह भावियस्सा, पडिच्छमाणस्स
खद्धादियणगिलाणे,
मुच्छमादी २५ सुविधा
१४. वाद० (अ, ब) ।
१५.
१६.
१७.
खमतो (ब) प्राय: सर्वत्र ।
कोवितो (अ, ब, स ) ।
खमओ (स) ।
11
२२. वायग (ब) ।
२३. यमे (ब)।
२४. मुच्छाती (ब)। २५. या (स)।
/
11
||
|
॥
1
चेव ॥ दारं ॥
१८.
भणइ (अ) ।
१९. भणाति (स)।
२०. बाहितीच्छिते (अ), बाहितिट्ठिय (ब) ।
२१. विहिं (स) ।
व्यवहार भाष्य
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षष्ठ उद्देशक
[ २४१
२५३४. वुड्डाऽसह' सेधादी, खमगो वा पारणम्मि भुक्खुत्तो ।
अच्छति पडिच्छमाणो, न भुंजऽणालोइयमदिटुं२ ॥ २५३५. परिताव अंतराया, दोसा होति अभुंजणे ।
भुंजणऽविणयादीया, दोसा तत्थ भवंति तु ॥ २५३६. 'गिलाणस्सोसधादी तु", न देंति गुरुणो विणा ।
ऊणाहियं च देज्जाही, तस्स वेलाऽतिगच्छति ॥दारं ॥ २५३७. पाहुणगा गंतुमणा, वंदिय जो तेसि उण्हसंतावो ।
पाणगे० पडिच्छंते, सद्धे वा अंतरायं तु ॥दारं ॥ २५३८. जम्हा एते दोसा, तम्हा गुरुणा न चिट्ठियव्वं तु ।
भिक्खूण चिट्ठियव्वं, तस्स न किं दोस होंतेते ॥नि. ३७३ ॥ २५३९. अणेग बहुनिग्गमणे, अब्भुट्ठण१२ भाविता य हिंडंता३ ।
दसविधवेयावच्चे, सग्गाम बहिं च वायामो ॥ २५४०. सीउण्हसहा भिक्खू, न य हाणी वायणादिया तेसिं ।
गुरुणो पुण ते • नत्थी, तेण पमज्जति४ खेयण्णो'५ ॥दारं ॥ २५४१. धुवकम्मियं च नाउं, कज्जेणऽण्णेण वा अणतिवाति ६ ।
अव्वक्खित्ताउत्तं", न उ दिक्खति बाहि भिक्खू वि ॥दारं ।। २५४२. बहिगमणे१८ चउगुरुगा, आणादी वाणिए य मिच्छत्तं ।
पडियरणमणाभोगे, खरिमुह९ मरुए तिरिक्खादी२० ॥दारं ॥नि. ३७४ २५४३. सुतवं तम्मि२१ परिवारवं२२ चा२३ वणियंतरावणुट्ठाणे ।
उट्ठाण२४ निग्गमम्मि य, हाणी य परं मुहावण्णा ॥ २५४४. गुणवं तु२५ जतो२६ वणिया, पूजतेऽण्णे२७ वि सन्नता तम्मि ।
पडितो ति अणुट्ठाणे, दुविधनियत्ती अभिमुहाणं ॥दारं ॥
35
१. बाला सहु (अ.स)। २. ०णालोतिय ० (ब)। ३. अतंराराती (अ.स), अंतरायाइ (ब)। ४. य (स)।
० सधादीसु (अ)।
देति (स)। ७. ऊणा (ब)। ८. वेलावतिच्छति (अ)। ९. . णगो (अ), पाहुणा (स) । १०. पारणग (ब, स), पारणए (अ)। ११. ० यव्वं तु (अ)। १२. ०ट्ठाणे (अ)। १३. छिंडता (ब)। १४. ०ज्जतो (अ.स)।
१५. खेत्तण्णो (अ, ब) १६. ० तिवाइ (ब)। १७. ० त्तावतं (आ)। १८. बहग ०(स)। १९. परिमुह (ब)। २०. ०खाई (ब)। २१. तवम्मि (अ, ब, स)। २२. परियारवं (स)। २३. x (ब),च (अ)। २४. उत्थाण (अ.ब)। २५. तो (अ.स)। २६. जति (ब)। २७. पूजतेणं (अ)
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________________
२४२ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
२५४५. आउट्टो ति व लोगे, पडियरितुच्छन्न' मारए मरुगो । खरियमुहढगं वा, लोभेउ तिरिक्खसंगहणं ॥ दारं ॥ २५४६. आदिग्गहणारे उब्भामिगा' व तह अन्नतित्थिगा' वावि 1 अधवा वि अणदोसा हवंतिमे वादिमादीया ॥ २५४७. वादी दंडियमादी", सुत्तत्थाणं व गच्छपरिहाणी 1 आवस्सगदिट्ठतो', कुमार करते ऽकरें य ॥ दारं ॥ नि. ३७५ ॥ २५४८. सन्नागतो त्ति सिट्टे, भयातिसारो त्ति बेति परवादी । मा होहिति रिसिवज्झा, वच्चामि अलं विवादेणं ॥ चंदगवेज्झसरिसगं२, आगमणं राय इड्ढमंताणं । पव्वज्ज साव१३ भद्दग, इच्चादिगुणाण १४ परिहाणी २५५०. सुत्तत्थे परिहाणी, वीयारं गंतु जा पुणो एति तत्थेव य वोसिरणे, सुत्तत्थेसुं न सीदंति१५ २५५१. तीरगते ववहारे, खीरादी होंति ' तदिह उट्ठाणे १६ कोसस्स हाणि १७ परचमुपेल्लण रज्जस्स अपसत्थे २५५२. वेलं सुत्तत्थाणं, न भंजते ९ दंडियादिकधणं २० वा पच्छण्णो भयकोसे, पुच्छा २१ पुण साहणा २५५३. निद्धाहारो वि अहं, असई २२ ' उट्ठेमि णो २३ पासगतो मण्णे मत्तं वत्थंतरिय २४
॥ दारं ॥
1
||
1
विण ॥ स कधयंतो पणामेति २५
२५४९.
२५५४.
० छिन्ने (ब)।
तरुगो (अ) ।
आदियहणा (ब), ० गहणे (स) ।
उब्धामियगा (ब)।
अन्नउत्थिगा (अ) |
वादीया दीया (स)।
डंडिय ० (अस) ।
७.
८. आवासग० (स)।
९.
१०. ० सागो (अ) ।
११. तिसिवज्झ (ब) ।
१२. ० वेज्जासरिसं (स) ।
अकारेंते करेंते (ब), अकरेऽकरेंते (स) ।
१३. श्रावक (मवृ) ।
१४. इट्ठादि ० ( अ, ब) ।
विणओ 'उत्तरिओ त्ति', २६ य, बलिओ गंगा कतोमुही वहति 1 पुव्वमुही अचलंतो २७, भणति २८ निवं आगितिजुतो वि
||
१५.
१६.
सीदंती (स) ।
तदुभयट्ठाणे (अस) ।
१७.
हाण (अ) ।
१८. वंकं (स)।
१९.
भुंजते (स) ।
२०. ० कहणे (स) 1
२१. पच्छा (अ) ।
२२. असयं (बपा) ।
२३. उट्ठेमिणे (अ, ब) ।
1
||
I
11
२४.
वत्युंत० (अ) ।
२५. पणाणेति (ब) पणावेति (अस) ।
२६. उत्तरिय त्ति (ब) ।
२७. अवलंतो (अ, ब) ।
२८. भणति (स) ।
व्यवहार भाष्य
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षष्ठ उद्देशक
[ २४३
२५५५. रण्णा' पदंसितो एस, वयउरे अविणीयदंसणो समणो ।
पच्चागयउस्सग्गं, काउं३ आलोयए गुरुणो ॥ २५५६. आदिच्च दिसालोयण , तरंगतणमादिया य पुवमुही ।
मा होज्ज दिसामोहो', पुट्ठो वि जणो तहेवाह ॥ २५५७. वध-बंध-छेद-मारण, निग्विसिय धणावहार लोगम्मि ।
भवदंडो उत्तरिओ, उच्छहमाणस्स तो बलिओ ॥दारं ।। २५५८. बितियपयं'० असतीए, अण्णाय उवस्सए व सागारो१ ।
न पवत्तति'२ संते वी, जे य समत्था समं जाति ॥ २५५९. कुपहादी निग्गमणं१३, नातिगभीरे अपच्चवायम्मि४ ।
वोसिरिणम्मि१५ य गुरुणा, निसिरंति१६ महंतदंडधरा ॥ २५६०. जह राया तोसलिओ, मणिपडिमा रक्खते पयत्तेण ।
तह होति रक्खियव्वो, सिरिघरसरिसो उ आयरिओ ॥ २५६१. पडिमुप्पत्ती वणिए . उदधीउप्पात उवायणं भीते ।
जिणपडिमा, करेमि जदि उत्तरेऽविग्धं ॥ २५६२. उप्पा उवसम उत्तरणमविग्घं एक्कपडिमकरणं वा९ ।
देवयछंदेण ततो२९, जाता बितिए वि२१ पडिमा उ ॥ २५६३. तो भत्तीए वणिओ, सुस्सूसति ता परेण जत्तेण ।
ता दीवएण पडिमा, दीसंतिधरा उ रयणाइं२२ ॥ २५६४. सोऊण पाडिहेरं, राया घेत्तूण सिरिहरे छुभति ।
मंगलभत्तीय ततो, पूएति परेण जत्तेण ॥ २५६५. मंगलभत्ती अहिता, उप्पज्जति तारिसम्मि दवम्मि ।
रयणग्गहणं तेणं२३, रयणब्भूतो तधायरिओ ॥
१. रण्णो (अ)। २. वियतु (स)।
कालो (ब)। तरंगहामाइया (ब)।
तिसा० (ब)। ६. ततेवाह (अ)।
निब्बिसय (स)। ८. भवरण्णो (स)। ९. रिए (अ, स), रिउ (ब)। १०. ० पयम्मी (अ)। ११. साभारो (स)। १२. पवत्ति (ब)।
१३. ० मणे (ब)। १४. अपच्चकयम्मि (स)। १५. वोसरणम्मि (ब, स) । १६. निसिरंत (स)। १७. ० उप्पाउ (अ)। १८. ० दुगो (ब)। १९. च (स)। २.० जतो (ब)। २१. x (ब)। २२. रयणाति (अ), रयणायं (बपा)। २३. x (ब)।
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२४४ ]
व्यवहार भाष्य
२५६६. पूयंति य रक्खंति' य, सीसा सव्वे गणिं सदा पयतारे ।
इध परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा ॥दारं ॥ २५६७. जेणाहारो उ गणी, स बालवूडस्स होति गच्छस्स ।
तो अतिसेसपभुत्तं, इमेहि दारेहि तस्स भवे ॥ २५६८. तित्थगरपवयणे निज्जरा य सावेक्ख भत्तवुच्छेदो ।
एतेहि कारणेहिं, अतिसेसा होति आयरिए ॥दारं ॥नि. ३७६ ।। २५६९. देविंदचक्कवट्टी, मंडलिया ईसरा तलवरा य ।
अभिगच्छंति जिणिंदे, तो गोयरियं न हिंडंति ॥ २५७०. संखादीया कोडी, सुराण णिच्चं जिणे उवासंति ।
संसयवागरणाणि' य, मणसा वयसा च पुच्छंति ॥ २५७१. उप्पण्णणाणा जह णो अडंती, चोत्तीसबुद्धातिसया जिणिंदा ।
एवं गणी अट्ठगुणोववेतो, सत्था व नो हिंडति इड्ढिमं तु ॥ २५७२. गुरुहिंडणम्मि गुरुगा, वसभे लहुगाऽनिवाययंतस्स ।
गीताऽगीते गुरु-लहु, आणादीया बहू दोसा ॥नि. ३७७ ॥ २५७३. वाते पित्ते गणालोए, कायकिलेसे अचिंतया ।
मेढी अकारगे वाले, गणचिंता वादि इड्ढिणो दारं ॥नि. ३७८ ॥ २५७४. भारेण वेयणाए, हिंडते उच्चनीयसासो वा ।
बाहु-कडिवायगहणं, विसमाकारेण 'सूलं वा१० ॥ २५७५. अच्चुण्हताविए'१ उ१२, खद्ध-दवादियाण छडणादीया ।
अप्पियणे असमाधी, गेलण्णे सुत्तभंगादी ॥दारं ।। २५७६. बहिया य पित्तमुच्छा, पडणं उण्हेण वावि वसधीए ।
आदियणे१३ छड्डणादी, सो चेव'४ य पोरिसीभंगो ॥दारं ।। २५७७. आलोगो तिन्निवारे, गोणीण जधा तधेव गच्छे वि ।
नटुं न नाहिति५ नियट्टदीह सोधी निसेज्जं च ॥
२.
टीकाकार ने सुस्सूसइ पाठ को आधार मानकर शुश्रुषन्ते छाया की है। पत्ता (स)। तसरा (ब)।
तीया (ब)। ०वाहरणाणि (स)। ० गणो० (ब)। अत्थो (स)। x (ब)।
९. ० सासे (ब)। १०. मूलव्व (ब) लिपि प्रमाद से यहां सकार के स्थान पर म हो
गया है। ११. सव्वुण्ह ० (स)। १२. ऊ (स)। १३. ० यणो (अ)। १४. भवे (अ)। १५. नाभिति (स)।
५.
७. ८.
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षष्ठ उद्देशक
२५७८.
1
1.
समुव्वातो
।
॥ दारं ॥
२५७९. हिंडतो उव्वातो, सुत्तत्थाणं च गच्छपरिहाणी नासेहिति हिंडतो, सुत्तं अत्थं 'च रेगेणं" ॥ दारं ॥ २५८०. जा आससिउं भुंजति, भुत्तो खेयं व जाव पविणेती ताव तो सो दिवसो, नट्ठसती दाहिती किं वा २५८१. रेगो नत्थि दिवसतो, रत्तिं पि न जग्गते नय अगुणेउं दिज्जति, जदि दिज्जति संकितो दुहतो " २५८२. मेढीभूते बाहिं, भुंजण आदेसमादि आगमणं ११ विणए १२ गिलाणमादी १३, अच्छंतो मेढिसंदेसो ॥ २५८३. आलोय दावण १४ वा, कस्स करेहामों कं च छंदेमो । आयरिए य अडते १५, को अच्छिउमुच्छहे अन्नो १६ २५८४. णीणिति अकारगम्मी ७, दव्वे पडिसेहणा" हवति दुक्खं रायनिमंतणगहणे, खिसणवावारणा
1
॥ दारं ॥
दुखं
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०. दुहितो (स) ।
तेणं तिसंझलोग (x) ।
करेंति (स) ।
उव्वातो त्ति परिश्रांतो (मवृ)।
आरगेण (ब) च आरेणं (अ) ।
पवणेती (अस) ।
से (अ) मे (ब)।
रोगा (अ)
अमुणेउं (ब)।
सक्किओ (ब)।
मा आवस्सयहाणी, करेज्ज भिक्खालसा व अच्छेज्जा I 'तेण तिसंझालोगं " सिस्साण करेति अच्छंतो It
भंदणं २०
I
11
२५८५. जेणेव कारणेण १९, सीसमिणं मुंडियं वयणघरवासिणी २१ वि हु, न मुंडिया ते कहं २२ जीहा ? २५८६. गतमागतम्मि२३ लोए, सीसा वि तव तस्स गच्छंत सयमेव दुट्ठजिब्भो, सीसे२४ विणइस्सती २५ २५८७. पडिसेहं तमजोग्गं, अण्णस्स वि दुल्लहं भवति२६ भिक्ख सद्धाभंग २७ऽचियत्तं२८ जिब्भादोसो २९
11
अवण्णो
य
११. याग० (अ) ।
१२. विणते (ब) ।
१३.
० मादि (अ) । १४. दायणं (स) ।
१५. x (ब) ।
·
१६.
१७.
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
आणा (अ) ।
० गम्मि (ब, स)।
० सेहणे (स) ।
आयरेण (ब)।
भणतेणं (अ), भडतेण (स)।
• वासणी (स) ।
कहि (ब)।
० गमम्मि (ब, अ) ।
२३.
२४. सिस्से (स) ।
२५. को णं (अ) ।
२६. लहइ (अ) । २७. ० भंगि (अ) । २८. वियत्तं (ब) । २९. जे सो दोसो (अ) ।
।
॥ ॥
/
I
|| दारं ||
[ २४५
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________________
२४६ ]
1
२५८८. पुव्वि अदत्तदाणा, अकोविया इह उ संकिलिस्संति काऊण अंतरायं, नेच्छतिट्ठ पि दिज्जंतं ॥ दारं ॥ २५८९. गहण पडिसेध' भुंजण', अभुंजणे चेव मासियं लहुयं । अमगुण अलंभे वा, खिसेज्ज व सेहमादी य 11 २५९०. वावारियगिलाणादियाण, गेण्हह जोग्गं ति ते तओ बेंति 1 तुब्भे कीस न गेहह, हिंडता ऊ सयं चेव २५९१. एवाणाएँ परिभवो बेंति दीसए' य पाडिरूवं भे१० I आणेह जाणमाणा, खिसंती एवमादीहिं ॥ २५९२. वाले य साणमादी, दिट्ठतो तत्थ होति छत्तेणं । लोभे य आभिओगे, विसे य इत्थीकए वावी ॥ दारं ॥ २५९३. मोएडं असमत्था, बद्धं रुद्धं व नच्चणं कुसिया । जुवतिकमणिज्जरूवो, सो पुण सव्वे वि तो सत्तो ॥ २५९४. एमेवायरियस्स वि दोसा पडिरूववं च सो होति । दिज्ज विसं १२ भिक्खुवासो, अभिजोग्ग" वसीकरणमादी २५९५. नच्चणहीणा व नडा, नायगहीणा व रूविणी वावि चक्कं च तुंबहीणं, न भवति एवं गणो गणिण १५ २५९६. लाभालाभद्धाणे १६, अकारगे सेह खमए न नाहिति, अच्छंतो नाहिती १७ सव्वे २५९७. सोऊण गतं खिसति, पडिच्छ" उव्वात वादि पेल्लेति अच्छंति१९ सत्थचित्ते, न होंति दोसा तवादीया २० २५९८. पागडियं माहप्पं, विण्णाणं चेव सुट्टु भे गुरुणो । जदि सो वि२१ जाणमाणो, न वि तुब्भमणाढितो २२ होता २३
बालवुड्डुमासे ।
11
I!
० दाण (स) ।
fa (31)
गहणे (अ)।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०. ते (स) ।
११. आणेध (अ) ।
१२. विस (ब) ।
X (ब) ।
भुज्जणे (अ) ।
वा (ब) ।
छंद की दृष्टि से यहां वावारियगिलाणादि पाठ होना चाहिए।
बेंति य (ब)।
दीसति (स) ।
१३. भिच्छवासो (अ) ।
१४. अभिउग्गं (अ) ।
१८. पडिच्छि (स) ।
१९.
अच्छंते (स) ।
२०.
तपादयः (मवृ) ।
२१. व (ब)।
२२. ० अणा ० (ब) ।
२३. होंति (स)।
||
1
I
||
१५. यावि (स) ।
१६. ० द्धाणि (ब) ० लाभुट्ठाणे (स) ।
१७. नाहिई (ब) ।
||
व्यवहार भाष्य
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________________
षष्ठ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
1
न वि उत्तराणि पासति, पासणियाणं' पि होति परिभूतो । सेहादि भद्दगा वि य, दट्टु अमुहं परिणमंति 11 २६००. सुत्तत्थाणं गुणणं, विज्जा मंता निमित्त जोगाणं 1 वीसत्थे पतिरिक्के, परिजिणति रहस्ससुत्ते य ॥ दारं ॥ २६०१. रण्णा वि' दुवक्खरओ, ठवितो सव्वस्स उत्तमो" होति गच्छम्मि व आयरिओ, सव्वस्स वि उत्तमो होति ॥ रायाऽमच्च पुरोहिय, सेट्ठी सेणापती- तलवरा य I अभिगच्छंतारिए, तहियं' च इमं उदाहरणं २६०३. सोऊण य उवसंतो, अमच्च रण्णो तगं निवेदेति । राया वि बितियदिवसे, ततिएऽमच्ची य देवी य ॥
२५९९.
२६०२.
२६०४.
१०
सोउं पडिच्छिऊणं, व गता अधवा पडिच्छणे खिसा 1 हिंडंत होंति दोसा, कारण पडिवत्तिकुसलेहिं ॥ कारण भिक्खस्स गते, वि कज्जं अन्नं निवस्स साहित्ता 1 निज्जोग नयण पढमा 'कमादि धुवणं ११ मणुण्णादी १२ २६०६. कयकुरुकुय आसत्थो, पविसति पुव्वरइया निसेज्जाए पयता य होंति सीसा जध चकितो १३ होति 'राया वि१४
॥
२६०५.
२६०७.
२६०८.
वातादीया दोसा, गुरुस्स इतरेसि किं न रक्खप्प सिस्सचाए, हिंडणतुल्ले २६०९. दसविधवेयावच्चे, निच्चं अब्भुट्ठिया 'सीसा य९७ परिच्चत्ता, २६१०. वड्डी धन्नसुभरियं, कोट्ठारं९९ डज्झए किं अम्ह मुहा देती, केई २१ तहियं न
अणुज्जमंताण
पासतियाणं (ब) ।
अपरि ० (अ)।
समुह (अ)।
गणण (ब) ।
य (स) ।
भवितो (स) ।
उत्तिमो (अस) ।
७.
८.
९.
१०. हिंडते (बस) ।
११. पढमालिका (मवृ) पढमालिमादी ( अ, स) ।
तदियं (अ) ।
सोउ (ब)
1
सीसा १५ य परिच्चत्ता, चोदगवयणं कुटुंबि१६ झामणया दिट्ठतो दंडिएण, सावेक्खे चेव निरवेक्खे ॥ नि. ३७९ ॥
ते होंति ?
असमताया
असढभावा
दंडो" य
१२.
अणु० (ब)।
१३. चक्की (अ), १४. रायादि (स) ।
11
१५. वीसा (ब)।
१६. कोडुबि (अस) । १७. ते ताणि (स) ।
१८. डंडो (स) ।
१९. कोट्ठागारे (ब) ।
२०. करिज्जए (ब)। २१. केयं (अ), केयि (स) ।
।
||
कुडुबिस्स । अल्ला 11
||
I
॥ दारं ॥
[ २४७
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________________
२४८ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
॥
एतस्स पभावेणं, जीवा' अम्हे त्ति एव नाऊणं 1 'अण्णे उ२ समल्लीणा, विज्झविते तेसि सो तुट्ठो २६१२. जे ऊ सहायगत्तं, करेसु तेसिं अवद्धिय दिन्नं । 'दद्धं ति" न दिण्णितरे, 'य कासगा ६ दुक्खजीवी य २६१३. आयरियकुडुंबी वा, सामाणियथाणिया " भवे साधू । वाबाधअगणितुल्ला', सुत्तत्था जाण धन्नं तु ॥
||
२६११.
२६१४. एमेव विणीयाणं, करेंति सुत्तत्थसंग्रहं हावेंति उदासीणे, किलेस भागी य संसारे उप्पण्णकारणे पुण, जइ सयमेव सहसा गुरू हिंडे अप्पाण गच्छमुभयं, ११ परिचयती १२ तत्थिमं नायं
11
२६१६. सोउं परबलमायं, सहसा एक्काणिओ१३ उ१४ जो राया I निग्गच्छति सो चयती, अप्पाणं रज्जमुभयं च सावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहि परबलं खविया १५ असि पि जुज्झति, उवमा एसेव गच्छे वि अद्धाणकक्खडाऽसति, गेलण्णादेसमादिएसुं संथरमाणे भइतो, हिंडेज्ज असंथरंतम्मि ॥नि. ३८० ॥
t
पंच वि आयरियादी, अच्छंति जहन्नए वि१६ संथरणे
1
सयमेव गण अति ग 11
एवं पिऽसंथरंते १७, मंडलगतम्मि सूरे, ता एंति भुत्त
२६१५.
२६१७.
२६१८.
२६१९.
२६२०.
२६२१.
जीवा अच प्रत्ययः जीविता इत्यर्थः मवृ ।
अण्णेसु (अ) अण्णे ऊ (ब)।
X (ब)।
अवट्टियं (स) ।
दिट्ठति (ब) ।
अकासगा (अ) ।
सामाइय० (अस) ।
वावारगणी ० (अस) ।
हवेंति (ब)।
१०. समए (अ), साम एव (ब)।
११. गच्छं उभयं (स) ।
१२.
१३.
परिच्चई (ब) ।
एक्कागिओ (अ) ।
१४. य (ब) ।
१५.
।
सणाउ आगताणं च पोरिसी मज्झिमं हवति २१ एयं २२ समतिच्छंते जहण्ण तु 11
विसुयावितमत्थदिणे,
भविया (ब) ।
·
उत्तिणा ९ जाव पट्ठवणवेला । सण्णागता च उक्कोससंथरणे ॥
१६.
व (अ)।
१७. पसंथरंते (ब)।
१८. मंगल ० (अ) ।
१९. उइण्णा (ब) ।
२०. पोरुसी (अ)।
२१.
हवंति (ब) ।
थेरा 1
२२. एवं (स) ।
॥ दारं ॥
I
11
1
||
व्यवहार भाष्य
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________________
षष्ठ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
पलंबे I
२६२२. अद्धाणेऽसंथरणे, अकोवियाणं य' विकरण एमेव कक्खडम्मि वि, असति त्ति सहायगा नत्थि || २६२३. बहुया तत्थ तरंता, अहव गिलाणस्स सो परं लभति F य आदेसे, सेसेसु विभासबुद्धीए ॥ २६२४. अब्भुज्जयपरिकम्मं, कुणमाणं जा गणं न वोसिरति । ताव सयं सो हिंडति, इति भयणा संथरंतम्मि ॥
२६२५. अद्धाणादिसुवेहं, सुहसीलत्तेण
करेज्जाही ।
।
॥ नि. ३८२ ॥
जो गुरुगा व जं च जत्थ व सव्वपयत्तेण कायव्वं २६२६. असती पडिलोमं 'तू, सग्गामे " गमण - दासड्ढे पेर्सेति बितियदिवसे', आवज्जति मासिय गुरुयं २६२७. गणावच्छेएँ' पुव्वं, ठवणकुलेसुं च हिंडति सगा I एवं थेरपवत्ती", अभिसेए गुरुगपडिलोमं १२ ॥ २६२८. ओभासिय पडिसिद्धं तं चैव न तत्थ पट्ठवेज्जा तु पडिलोमं गणिमादी, गोरव्वं १३ जत्थ वा कुणति ॥ दारं ॥ २६२९. तित्थगरे त्ति समत्तं अधुणा पावयणनिज्जरा
।
I
I
चेव । वच्वंति दो वि समगं, दुवालसंगं पवयणं तु ॥ २६३०. तं तु अहिज्जंताणं, वेयावच्चे उ निज्जरा तेसिं कस्स भवे केरिसया १४, सुत्तत्थ जहोत्तरं बलिया ॥ नि. ३८३ ॥ २६३१. सुत्तावासगमादी १५, चोद्दसपुव्वीण तह१६ जिणाणं च भावे सुद्धमसुद्धे, सुत्थे मंडली चेव पावयणी खलु जम्हा, आयरिओ तेण तस्स कुमाणो । महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि जारिसगं जं वत्युं सुतं च तिन्हं व ओहिमादीणं तारिसओ १७ च्चि भावो, उप्पज्जति वत्थुतो तम्हा“
॥ नि. ३८४ ॥
२६३२.
२६३३.
व (ब), वि (स) ।
० करेंता (अ.स) ।
० माणे (स)।
इय (अ)।
भवित (अ)।
य (ब), उ (स) ।
तस्सगामे (अ), तू सगामे (ब) ।
• बीय दिवसे (ब), बहुया दिवसे (अ)।
० छेइयो (अ) ।
१०.
पुव्वि (अस) ।
११.
० पवित्ती (ब)।
१२. ० लोमे (ब) ।
१३. गोरवं (अ) ।
१४. केरिसिया (स) ।
१५. सुत्तावाईऽमुगाई (अ) ।
१६. तहि (अ)।
१७.
१८. जम्हा (स) ।
तारिसिओ (ब) ।
॥ नि. ३८१ ॥
11
1
11
[ २४९
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________________
२५० ]
व्यवहार भाष्य
२६३४. गुणभूइटे दव्वे, जेण य मत्ताहियत्तणं भावे ।
इति वत्थूओ इच्छति, ववहारो निज्जरं विउलं ॥ २६३५. लक्खणजुत्ता पडिमा, पासादीया समत्तऽलंकारा' ।
पल्हायति जध वयणं, तह निज्जर मो वियाणाहि ॥ २६३६. सुतवं अतिसयजुत्तो सुहोचितो तध वि तवगुणुज्जुत्तो ।
जो सो मणप्पसादो, जायति सो निज्जरं कुणति ॥ २६३७. निच्छयतो पुण अप्पे, 'जस्स वि वत्थुम्मि जायते भावो ।
तत्तो सो निज्जरगो, जिण-गोतम-सीहआहरणं ॥ २६३८. सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग त्ति ।
जिणवीरकहणमणुवसम, गोतमोवसम दिक्खा य ॥ २६३९. सुत्ते अत्थे उभए', पुव्वं भणिता जहोत्तरं बलिया ।
मंडलिए पुण भयणा', जदि जाणति तत्थ भूयत्थं ॥ २६४०. अत्यो उ महिद्धीओ, कडकरणेणं घरस्स निप्फत्ती ।
अब्भुट्ठाणे गुरुगा, रण्णो याणे० य देवी य१ ॥नि. ३८५ ।। २६४१. आराधितो णरवती, तीहि २ उ पुरिसेहि तेसि संदिसति ।
अमुगपुरि सतसहस्सं, घरं च एतेसि दातव्वं ॥ २६४२. पट्टग३ घेत्तूण गतो, उंडियबितिओ४ उ ततियओ५ उभयं ।
निष्फलगा दोण्णि तहिं, मुद्दा पट्टो य सफलो उ१६ ॥ २६४३. एवं पट्टगसरिस, सुत्तं अत्थो । य उंडियत्थाणे ।
उस्सग्गऽववायत्थो, उभयसरिच्छो य तेण बली ॥दारं ॥ २६४४. सुत्तस्स मंडलीए, नियमा उट्ठति आयरियमादी ।
मोत्तूण पवायंत१५, न उ अत्थे दिक्खण गुरुं पि ॥दारं ॥ २६४५. पतिलीलं करेमाणी, नोट्ठिता सालवाहणं१८ ।
पुढवी१९ नाम सा देवी, सो य रुट्ठो तधि२० निवो ॥
१. ०अलं ०(अ),०कारं (ब)। २. भणत (अ)। ३. सतव्वं (अ)।
निच्छियत्तो (अ), णिच्छति तो (स)। वि जस्स (स)।
तिविट्ठ (स)। ७. तदुभए (ब)। ८. भतगो (स)।
महिढिओ (स)। १०. पाणे (अ, ब, स)।
११. या (ब)। १२. तिहिं (ब)। १३. पगट्ठ (आ)। १४. उंडुबितिओ (ब)। १५. तइओ (ब)। १६. य (स)। १७. पवाएंतो (स), पवाएयतं (अ) १८. सातवा (अ.स)। १९. पुहवी (स)। २०. ते (स)।
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________________
षष्ठ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
दासा
२६४६. ततो णं आह सा देवी, अत्थाणीए वि सामियं एतं नोट्ठति अवि २६४७. तं वावि गुरुणो मोत्तुं न वि उट्ठेसि न ते लीला कया होती, उहेंती हरे स
२६४८. कधेंतो गोयमो अत्थं, मोत्तुं
तित्थगरं सयं
आहरणे ॥ नि. ३८७ ॥
1
२६५२. उच्चारियाऍ
न वि उट्ठेति अन्नस्स, तग्गतं चेव गम्मति २६४९. सोतव्वे उ विही इणमों, अवक्खेवादि होति नायव्वो I वक्खेवम्म य दोसाँ आणादीया मुणेतव्वा ॥ नि. ३८६ ॥ २६५०. काउस्सग्गे वक्खेवया य विकधा विसोत्तिया पयतो 1 उवणय वाउलणादि य अक्खेवो होति २६५१. आरोवणा परूवण, उग्गह तह निज्जरा य वाउलणा एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु पडिकुटुं ॥नि. ३८८ ॥ नंदीए, वक्खेवे गुरुओ भवे अप्पसत्थे पसत्थे - य, दिट्ठतो हत्थिलावगा १० २६५३. जह सालिं लुणावेंतो, कोई " ' अत्थारितेहिं तु १२ सेयं ३ 'हस्थि तु दावेति १४ धाविता ते य मग्गतो न लूओ अध साली उ वक्खेवेण य तेण उ वक्खेवे रयाणं तु, पोरिसी एव भज्जति विकधा चउव्विधा वुत्ता, इंदि विसोत्तिया I अंजलीपग्गहो चेव, दिट्ठी बुद्धुवत्तया १५ ॥ २६५६. नस्सए saat सो, अन्नहा वोवणिज्जति नातं १६ वागरणं वा वि, पुच्छा अद्धा च भस्सति १७ सावगो वावि, तिव्वसंजायमाणसो ओहिलं भादी", मुडिंबगो १९ मुणी ॥
1
1
२६५७. भासओ
1
लभंतो
जधा
२६५४.
२६५५.
अच्छाणीए (स)।
पत्तं (ब) ।
हिं (अस) ।
गोधमो (स) ।
गम्मते (स) ।
वक्खेतम्मि (अ) ।
५.
६..
७.
वेसा (अ) ।
८.
विक्खे ० (ब)।
९.
विक्खेवे (ब)।
१०. लच्छिला ० (ब), होति लावगा (अ) ।
तवारिहा I
पत्थिवं
११.
कोथिं (स) ।
१२. अत्थारिओ हिओ (ब) ।
१३. सेति (अ) ।
१४. हत्थित्त दावेवि (अ) ।
१५.
१६. णत्तं (ब) ।
१७. हस्सदी (अ) ।
कस्सति I
तोसितो 11
1
11
० जुव्वया (ब)।
||
1
11
11
11
1
॥
१८. उवलिभादी (अ), विउलंभाती (ब) । १९. मुडिंयओ (अस) ।
२५१
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________________
२५२ ]
१.
२.
३.
४.
२६५८.
२६५९.
२६६०.
एते चेव य दोसा, अब्भुट्ठाणे वि
इमेहि तिहि'
नवरं अब्भुट्ठाण, पगतमत्ते काले', एतेहि कारणेहिं,
• अज्झयणुद्देस अब्भुट्ठाणं
1
11
२६६२. कप्पम्मि दोन्नि पगता, पलंबसुत्तं च १ मासकप्पे य१२ दो चेव य ववहारे, पढमे दसमे य जे भणिता २६६३. पेढियाओ य सव्वाओ, चूलियाओ १३ तधेव य I निज्जुत्ती कप्पनामस्स, ववहारस्स
य
11
२६६१.
२६६४.
आरोवणमक्खेवं व' दाउकामो तहिं तु आयरिओ I वाउलणाए फिट्टति, 'उग्गहिउमणो न ओगिण्हेर 1 गग्गो उवगिहति वक्खिप्पंतस्स रे वीसुई जाति । इंदपुरइंददत्ते, अज्जु य दिट्ठतो ॥
२६६५. केवलिमादी चोद्दस-दस - नवपुव्वी जेहि ऊतरगा, समाण १८ २६६६. सावेक्खे निरवेक्खे २०, गच्छे
२६६८. एव२४ न करेंति सीसा, विय सीस त्ति
अणोवि य आएसो, जो राइणिओ य१४ तत्थ सोतव्वे अणुयोगधम्मयाए, कितिकम्म तस्स कायव्वं
X (37) 1
वक्खवो उग्ग सेसे व (अ, स) ।
विक्ख ० (ब), वक्खिपि ० (स) ।
विस्सुतिं (मु) वीसुई (ब) ।
य१५ उट्ठणिज्जो १६ उ अगुरुं १९ न उट्ठेति दिट्ठत गामसगडेणं । राउलकज्जनिमित्तं, जध गामेणं २१ कतं सगडं || २६६७. अस्सामिबुद्धियाए, पडितं सडितं 'व नावि' २२ रक्खंति I रण्णाणत्ते दंडो, सयं व सीदंति कज्जेसु२३ ॥
X (37) I
एगो (ब), एतो (अ)।
X (ब) ।
तहि (अ), तेहि (स) ।
५.
६.
७.
८.
९.
X (ब)।
१०. अणुतोगो (ब) ।
११. व्व (स) ।
१२. ते (स) ।
१३. चुल्लियाउ (अ, स), चूलिया उ (ब)।
1
होंति नातव्वा " कारणेहिं तु 11
अंगसुखंधे । अणुओगो
11
काहिति २५ पडिच्छियं २६ ति काऊणं
ततो,
हिंडणपेहादिसुं सिग्गो २७
१४. उ (स) ।
१५. उ (अ)।
१६. ० ज्जा (अ) ।
१७. तिहिं (ब)।
१८. समासे (अ) ।
१९. अगुरू (ब)।
२०.
X (ब)।
२१. णामेणं (स) ।
२२.
नावय (अ, स), न विय (ब) । २३. सव्वकज्जेसु (अ) ।
२४. एवं (ब)।
२५. कहिंति (ब)।
२६. पडिच्छयं (स) ।
२७ सिग्गत्ति परिश्रान्तः (मवृ) ।
1
||
1
॥ दारं ॥
1
11
व्यवहार भाष्य
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षष्ठ उद्देशक
[ २५३
२६६९. बितिएहि तु सारवितं', सगडं रण्णा य उक्करा उ कता ।
इय जे करेंति गुरुणो, निज्जरलाभो य कित्ती य ॥दारं ॥ २६७०. दव्वे भावे भत्ती, दव्वे गणिगा 'उ दूति-जाराणं ।
भावे उ सीसवग्गो', करेति भत्ति सुतधरस्स ॥ २६७१. जइ वि य लोहसमाणो, गेण्हति खीणंतराइणो उंछ ।
तह वि य गोतमसामी, पारणए गिण्हती गुरुणो ॥दारं ।। २६७२. गुरुअणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो ।
गच्छाणुकंपयाए, अव्वोच्छित्ती कता तित्थे ॥ २६७३. किह तेण न होति कतं, वेयावच्चं तु दसविधं जेणं ।
तस्स पउत्ता० अणुकंपितो उ थेरो थिरसभावो ॥ २६७४. अन्ने वि अस्थि भणिता२, अतिसेसा पंच होंति आयरिए ।
जो अन्नस्स न कीरति, न यातिचारो असति१३ सेसो ॥ २६७५. भत्ते पाणे धोव्वण४, पसंसणा हत्थ-पायसोए य ।
आयरिए अतिसेसा, अणातिसेसा अणायरिए ॥दारं ॥नि. ३८९ ।। २६७६. कालसभावाणुमतं, भत्तं पाणं च अच्चितं खेत्ते ।
मलिणमलिणा य जाता, चोलादी तस्स धुव्वंति५ ॥दारं । २६७७. परवादीण६ अगम्मो, नेव अवण्णं करेंति सुइसेहा७ ।
जध अकधितो वि नज्जति, एस गणी उज्जपरिहीणो ॥ २६७८. जध उवगरणं सुज्झति, परिहरमाणो अमुच्छितो साहू ।
तह खलु विसुद्धभावो, विसुद्धवासाण परिभोगो ॥दारं ॥ २६७९. गंभीरो मद्दवितो, अब्भुवगतवच्छलो सिवो सोमो ।
विच्छिण्णकुलुप्पण्णो, दाया य कतण्णु तह१९ सुतवं० ॥ २६८०. खंतादिगुणोवेओ, पहाणणाण-तव-संजमावसहो ।
एमादि संतगुरुगुणविकत्थणं संसणातिसए ॥
१. ०विते (अ)। २. अगड (स)। ३. उक्कडा (स)। ४. उद्देति जागरणं (आ)।
सीसगवगो (ब)। करोति (अ)। वग्गं (स)।
महाणुभागो (स)। ९. किय (अ)। १०. प्रयोक्ता (मवृ)।
११. • पिउं (ब), पितं (अ)। १२. भणितो (अ), भणिउं (ब)। १३. उ सति (अ.स)। १४. धोवण (अ)। १५. पुवति (ब)। १६. ० वाईण (अ, ब)। १७. सुयसेहा (ब)। १८. नज्जए (अ)। १९. उ (स)। २०. सुभवं (अ)।
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२५४ ]
व्यवहार भाष्य
२६८१. संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो ।
अवि होज्ज संसईणं, पुच्छाभिगमे दुविधलंभो ॥ २६८२. कर-चरण-नयण-दसणाइ,धोव्वणं पंचमो उ अतिसेसो ।
आयरियस्स उ सययं, कायव्वो होति नियमेणं ॥ २६८३. मुह-नयण-दंत-पायादिधोव्वणे को गुणो त्ति ते बुद्धी ।
अग्गि मति-वाणिपडुया', होति अणोत्तप्पया चेव ॥दारं ।। २६८४. असढस्स जेण जोगाण, संधणं जध उ होति थेरस्स ।
तं तह करेंति तस्स उ, जध से जोगा न हायंति ॥ २६८५. एते पुण अतिसेसे, णोजीवे वावि' को वि दढदेहो ।
निदरिसणं एत्थ भवे, अज्जसमुद्दा य मंगू य ॥ २६८६. अज्जसमुद्दा दुब्बल, कितिकम्मा तिण्णि तस्स कीरति ।
सुत्तत्थपोरिसि समुट्ठियाण ततियं तु चरमाए ॥ २६८७. सड्ढकुलेसु० य तेसिं, दोच्चंगादी उ वीसु घेप्पंति ।
मंगुस्स य कितिकम्मं, न य वीसुं घेप्पते किंची११ ॥ २६८८. बेंति ततो णं सड्ढा, तुज्झ वि२ वीसु१३ न घेप्पते कीस ।
तो बेंति अज्जमंगू, तुब्भेच्चिय एत्थ दिलुतो ॥ २६८९. जा भंडी · दुब्बला उ, तं४ तुब्भे बंधहा५ पयत्तेण ।
न वि बंधह बलिया ऊ, दुब्बलबलिए व कुंडी वि ॥ २६९०. एवं अज्जसमुद्दा१६, दुब्बलभंडी१७ व संठवणयाए ८ ।
धारंति सरीरं तू, बलि भंडीसरिसगर वयं तु ॥ २६९१. निप्पडिकम्मो वि अहं, जोगाण तरामि संधणं२० काउं ।
नेच्छामि य बितियंगे, वीसुं इति बेंत ते मंगू ॥
१. ०लभा (अ)। २. X(ब)।
धोवणं (ब)। ४. पययं (स)। ५. ताणि पडुता (अ, ब)। ६. तं (ब)। ७. उवजीव (ब)। ८. यावि (स)। ९. तहियं (ब)। १०. सढं कु० ()
११. किंचि (ब)। १२. व (ब)। १३. वीसू (अ.स)। १४. ततो (ब)। १५. बंधह (अ.स)। १६. ० समुदं (अ, स)। १७. ० हंडी (अ, स)। १८. ० वणताए (अ)। १९. पलि ० (अ)। २०. साहणं (अ.स)।
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षष्ठ उद्देशक
[ २५५
२६९२. न तरंती तेण विणा, अज्जसमुद्दा उ तेण वीसं तु ।
इयरे अतिसेसायरिए, सेसा पंतेण लाढेती३ ॥दारं ।। २६९३. अंतो बहिं च वीसुं, वसमाणो मासियं तु भिक्खुस्स ।
संजमआतविराधण, सुण्णे असुभोदओ होज्जा ॥ २६९४. तब्भावुवजोगेणं, रहिते कम्मादिसंजमे भेदो ।
मेरावलंबिता मे, वेहाणसमादि निव्वेगो ॥ २६९५. जइ वि य निग्गयभावो, तह वि य रक्खिज्जते स अण्णेहिं ।
वंसकडिल्ले छिण्णो, वि वेलुओ पावए न महि ॥ २६९६. वीसु वसंते दप्पा, गणि आयरिए ‘य होति' एमेव ।
सुत्तं पुण कारणियं, भिक्खुस्स वि कारणेऽणुण्णा ॥ २६९७. विज्जाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे य देंति आयरिया ।
मासद्धमासियाणं, पव्वं पुण होति मज्झं तु ॥ २६९८. पक्खस्स अट्ठमी खलु , मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं ।
अण्णं पि होति पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥ २६९९. चाउद्दसीगहों होति, कोइ अधवावि सोलसिग्गहणं ।
वत्तं तु अणज्जते, होति दुरायं तिरायं वा ॥ २७००. वा सद्देण चिरं पी, महपाणादीसु१२ सो३ उ अच्छेज्जा ।
ओयविए१४ भरहम्मी, जह राया 'चक्कवट्टी वा'१५ ॥ २७०१. बारसवासा भरधाधिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं ।
तिण्णि य मंडलियस्सा, छम्मासा पागयजणस्स ॥ २७०२. जे जत्थ अधिगया ६ खलु , अस्सा दब्भक्खमादिया रण्णा ।
तेसि भरणम्मि ऊणं, भुंजति भोए अडंडादी ॥ २७०३. इय पुव्वगताधीते, बाहु सनामेव . तं मिणे पच्छा ।
पियति त्ति व अत्थपदे, मिणति त्ति व दो वि अविरुद्धा ॥
१. २. ३. ४. ५.
य (अ)। इति (स)। लाडेति (स)। . ० होदतो (ब)। वेहाणिस ० (स)। निव्वेदो (मु)। वि होति (स)। x (ब)। चउद्दसीगहो (अ)
१०. केइ (अ)। ११. अणल्लंते (आ), आण ०(स)। १२. महावा ० (स)। १३. णो (अ, स)। १४. उसिए (ब), ० विते (अ)। १५. ० वट्टादी (स)। १६. अधिगिया (अ)। १७. तेति (ब)। १८. वि (स)।
७. ८. ९.
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२५६ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
२७०४.
२७०८.
२७१०.
गणी (ब)।
X (37) :
० हणा (अ) ।
अच्छंते (अ)।
पंचमी (ब)।
२७०५. पंचेते अतिसेसा, आयरिए होंति दोण्णि उ गणिस्स 1 भिक्खुस्स कारणम्मि उ अतिसेसा 'पंच वी" भणिया ॥ नि. ३९० ॥ २७०६. जे सुत्ते अतिसेसा, आयरिए अत्थतो व जे भणिया ते कज्जे जतसेवी, भिक्खू वि न बाउसी होति ॥ नि. ३९९ ॥
I
२७०७. बालाऽसहुमतरंतं', सुइवादिं पप्प
वा 1
दसवि भइयातिसेसा ", भिक्खुस्स जहक्कमं कज्जे कप्पति गणिणो वासो, बहिया एगस्स अतिपसंगेण 1 मा अगडसुता वीसुं, वसेज्ज अह सुत्तसंबंधो ॥ २७०९. एगम्मि वी" असंते, ण कप्पती कप्पती 'य संतम्मि १२ उडुबद्धे१३ वासासु य, गीयत्थे देसिए चेव किध पुण होज्ज 'बहूणं, अगडसुताणं १४ तु एगतो वासो होज्जाहि कक्खडम्मी १५, खेत्ते अरसादि चइयाण १६ २७११. चइयाण१७ य सामत्थं, संघयणजुयाण आउला १८ पि उडुवासे १९ लहु - लहुगा, सुत्तमगीयाण आणादी० ॥ नि. ३९२ ॥ २७१२. मिच्छत्तसोहि सागारियाइ गेलण्ण अधव कालगते | अद्धाण-ओम" - संभम२२ भए य रुद्धे य ओसरिए ॥ दारं ॥ नि. ३९३ ॥ २७१३. मतिभेदा पुव्वोग्गह, संसग्गीए य अभिनिवेसेणं गोविंदे य जमाली, सावग तच्चणि गो २७१४. मतिभेदेण जमाली, पुव्वग्गहितेण २३ होति गोविंदों । संसग्गि साव भिक्खू, गोट्ठामाहिलऽभिनिवेसेणं २४
I
•
।
॥ दारं ॥
X (ब) ।
णो (ब) ।
० सग्गमत० (अ) ।
सुइमादि (ब), सुहमई (स) ।
८.
९.
१०. धतियाति० (अ) ।
वा अंतो गणि' व गणो, वक्खेवो मा हु' होज्ज अग्गहणं वसभेहि परिक्खित्तो, उ अच्छते' कारणे तेहिं
११. वा (स) ।
१२. पसंतिम्मि (अ) ।
१३. उउ० (अ) ।
१४. बहूणमगड० (ब) ।
१५. ० डम्पि (अस) ।
१६. चतियाणं (ब)।
१७. वतियाण (अ), चेतियाण (ब) ।
१८. माउलाणं (मु) ।
१९.
उउ ० (स) ।
२०.
माणादी (मु) ।
२१.
तोम (अ) ।
२२. संसय (अ), संभय (ब) ।
२३.
२४.
1
11
11
1
I
1
||
० गहरण (ब)।
गाथा के उत्तरार्ध में छंदभंग है।
व्यवहार भाष्य
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षष्ठ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
11
आवण्णमणावण्णे, सोहिं न विदंति ऊणमधियं वा I जे य वसधीय दोसा, परिहरति न ते अयाणंता २७१६. गेलणे वोच्चत्थं करेंति न य े मुयविधि वि जाति अद्धाणमडंति' सया, जयण ण याणेंति ओमे वि २७१७. अगणादिसंभमेसु य, बोहिगमेच्छादिसु य भए य, विराहगा जतणऽयाणंता २७१८. संभमनदिरुद्धस्स वि, उन्निक्खंतस्स अधव फिडितस्स ओसरियसहायस्स" व, छड्डेई बहिं उवहतो ति २७१९. एतेण कारणेणं, अगडसुयाणं बहूण विन कप्पो । बितियपद यदु असिवोमगुरूण संदेसा ॥
या
२७१५.
विदिति (ब)।
० महियं (अ) ।
ते (अस) ।
अद्धाण अडति (ब) ।
याणे (स) ।
० जयागंता (अ) ।
५.
६.
७.
८. छड्डेउ (स) ।
९.
सिज्ज (अ)।
० सहावस्स (ब)।
२७२०. तध नाणादीणट्ठा, एतेसिं गीतो दिज्ज' एक्केक्को । असती एगागी वा, फिडिता वा जाव न मिलंति 11 २७२१. एगाहिगमट्ठाणे, व अंतरा तत्थ होज्ज वाघाते तेणऽच्छेज्जा तत्थ १०, सेहस्स नियल्लगार बेंति २७२२. तत्तो वि पलाविज्जति गीतत्थबितिज्जगं तु दाऊणं असतीए संगारो, कीरति अमुगत्थ मिलियव्वं || २७२३. रायादुट्ठादीसु य१९ सव्वेसुं चेव होति संगारो । हाणादि समोसरणे १३ गीतत्थबितिज्जगं
1
मग्गे 11 बहूणऽगीताणं । निरंभित्ता १६ 11
१०. वि (अ)।
११.
नीय ० (ब)।
२७२४. असती एगाणीओ १४, निब्बंधे १५ वा सामायारीकहणं, मा बहिभावं २७२५. अण्णे गामे वासं, नाऊण निवारितं
अगीयाणं I
सग्गामे वा बीसुं, वसेज्ज अगडा अयं लेसो ॥ २७२६. अगडसुता वाधिकता, समागमो एस होति दोण्हं पि सच्छंदऽणिस्सिया वा निस्सियजतणा विही१७ भणिया
1
11
१२. व (अस) ।
१३. व तोसरणे (अ) ।
१४. एगागी उ (मु) ।
१५. निव्वेवय (अ) ।
1
॥ दारं ॥
१६. निरूं भंत (स) ।
१७. विधि (अ), विहिं (स) ।
।
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1
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२५८ ]
१.
२.
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७.
८.
॥नि. ३९४ ॥
२७२७. गामे उवस्सए वा अभिनिव्वगडाय दोस ते चेव । नवरं पुण नाणत्तं, तिहि दिवसे गीतसंवसणं 11 २७२८. एवं पि भवे दोसा, दोसुं दिवसेसु जे भणियपुव्वि । कारणियं पुण वसही असती भिक्खोभए जतणा २७२९. संकिट्ठा वसधीए, निवेसणस्संत अन्नवसधीए । असतीय वाडगंतो तस्सऽसती होज्ज दूरे वा 11 २७३०. वीसुं पि वसंताणं, दोण्णि वि आवासगा सह गुरूहिं । दूरे पोरिसिभंगे, उघड विगडेंति || गीतसहाया उगता, आलोयण तस्स अंतियं गुरुणं । अगडा पुण पत्तेयं, आलोती गुरुसगासे ॥ २७३२. एंताण 'य जंताण " य, पोरिसिभंगो ततो गुरु वयंती T थेरे अजंगमम्मि उज्झ वावि आलोए ॥ २७३३. एवं पि दुल्लभाए, पडिवसभठिया न एंति पतिदिवस I समगुणदढधिती य, अतरुणे बाहि विसज्जेंति || २७३४. दुल्लभभिक्खे जतिउं, सग्गामुब्भाम पल्लियासुं च 1 अतिखेव' पोरिसिवहे, 'न वावि"" ठायंति'" तो वीसुं ॥ दारं ॥ २७३५. उभयस्स अलंभम्मि वि, गीताऽसति वीसु ठंति अगडसुता दुसु१३ तीसु व१४ ठाणेसुं, पतिदिवसालोय आयओ 11 २७३६. सइरी १५ भवंति ६ अणवेक्खणाय १७ जइ भिन्नवायणा लोए । पडिपुच्छ सोहि चोयण, तम्हा उ गुरू सया वय १८ तन्हाइयस्स पाणं, जोग्गाहारं १९ 'च णेंति '२० पव्वोणि २१ कितिकम्मं च करेंती, मा जुण्णरहोव्व
11
सीदेज्जा
२७३१.
२७३७.
० निव्वग ० (स)।
तहि (अ) ।
वागडतो (अ) ।
सो वि य (अ, ब, स ) ।
व यंताण (अ, स) ।
X (ब) ।
पविदि० (ब)। बहिं (ब)।
१९.
० खेत्त (ब, स) ।
१०. वि यावि (अ) ।
११. वायंति (ब) ।
१२. वीसुं (ब)।
१३. दस्सु (अ)।
१४.
१५.
१६.
१७. अक्खेणाय (ब) ।
उ (स)।
सतिरी ( अ, ब, स) ।
भणति (स) ।
१८. वदती (स) । १९. जोग्गाहाणं (ब) ।
२०. चरेंति (ब) ।
२१. पव्वोणी (ब)।
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व्यवहार भाष्य
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षष्ठ उद्देशक
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२७३८. 'असती निच्चसहाए", गेण्हति पारंपरेण अण्णोऽण्णे३ ।
ते चिय अण्णेहि समं, तं मेलेउं नियत्तेति ॥ २७३९. एगस्थ वसितो संतो, तेसिं' दाऊण पोरिसिं ।
मज्झण्हे बितियं गंतुं, भोत्तुं तत्थावरं वए ॥ २७४०. एवमेगेण दिवसेण, सोहिं कुणति तिण्ह वि ।
पडिपुच्छणं तु बलवं, आह सुत्तमवत्थयं ॥ २७४१. सुत्तनिवातो थेरे, कलावकाउं तिहेण वा सोधि ।
बितियपयं च गिलाणे, कलाव काऊण आगमणं० ॥ २७४२. एवं अगडसुताणं, वीसुठियाणं तु तीसु१ गामेसु ।
लहुया असंथरते, तेसि अणिताण२ वा३ लहुओ ॥ २७४३. एगदिणे४ एक्केक्के, तिट्ठाणत्थाण दुब्बलो वसधी५ ।
अह सो अजंगमोच्चिय, ताधे इतरे तधिं एंति१६ ॥ २७४४. एति व पडिच्छते वा, मेधावि कलावकाउमवराधे७ ।
अतिदूरे पुण पणुए, पक्खे मासे परतरे वा ॥ २७४५. अगडसुताण न कप्पति, वीसुं मा अतिपसंगतो सुतवं ।
एगाणिओ८ वसेज्जा, निकायणं१९ चेव परिमाणं ॥ २७४६. अंतो वा बाहिं२० वा. अभिनिव्वगडाय ठायमाणस्स ।
गीतत्थे मासलहू२१ गुरुगो मासो अगीतत्थे ॥नि. ३९५ ॥ २७४७. अंतो निवेसणस्सा, सोहीमादी व जाव सग्गामो ।
घरवगडाए सुत्तं, एमेव य सेसवगडासु ॥ २७४८. आणादिणो य दोसा, विराधणा होति संजमायाए ।
लज्जा-भय-गोरव-धम्मसद्ध-रक्खा चउद्धा उ ॥नि. ३९६ ॥
१. असतीए निच्चसहा (अ)। २. ० परे व (स)। ३. ०अण्णो त्ति (ब)। ४. X(ब)।
नियत्तिति (अ,ब)।
वसिउ (ब)। ७. तिसिं (ब)। ८. च (अ.स)।
तिविहेण (ब)। १०. २७४१-२७४३ ये तीन गाथाएं अ प्रति में नहीं हैं। ११. तीस (ब)।
१२. अणंताण (ब)। १३. वी (ब,स)। १४. एते दिण (ब), दिणं (स)। १५. वसति (स)। १६. तेंति (ब)। १७. ० मवराधी (अ)। १८. एगाणितो ()। १९. निगायाण (अ.स)। २०. बहिं (ब)। २१. ० लहुं (ब)।
९. तिावह
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२६० ]
व्यवहार भाष्य
२७४९. लज्जणिज्जो उ होहामि', लज्जएरे वा समायरं ।
कुलागमतवस्सी वा, सपक्खपरपक्खतो ॥ २७५०. असिलोगस्स वा वाया, जोऽतिसंकति कम्मसं ।
तहावि साधु तं जम्हा, जसो वण्णो य संजमो ॥ २७५१. जसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो ।
अलेस्सा तत्थ सिझंति, 'सलेसा तु" विभासिता ॥ २७५२. दाहिति गुरुदंडं तो, जइ नाहिति' तत्ततो ।
तं च वोढुं न चाएस्सं, घातमादी तु लोगतो ॥ २७५३. जोऽहं सइरकहासु, चक्कामि गुरुसन्नही ।
. सोऽहं कहमुवासिस्सं, तमणायारदूसितो ॥ २७५४. लोए 'लोउत्तरे चेव'१२, गुरवो'३ मज्झ सम्मता ।
मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसि लहुत्तया ॥ २७५५. 'माणणिज्जो उ१४ सव्वस्स, न मे कोई न पूयए ।
तणाण लहुतरो होहं, इति वज्जेति पावगं ॥ २७५६. आयसक्खियमेवेह५, पावगं जो वि वज्जते ।
अप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु धम्मतो ॥ २७५७. निसग्गुस्सग्गकारी य६ सव्वतो छिन्नबंधणो ।
एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्खति ॥ २७५८. मणपरिणामो वीई१५, सुभासुभे कंटएण८ दिलुतो ।
खिप्पकरणं जध लंखियव्वं तहियं इमं होति ॥ २७५९. परिणामाणवत्थाणं, सति मोहे उ देहिणं ।
तस्सेव उ · अभावेणं, जायते१९ एगभावया ॥ २७६०. जधाऽवचिज्जते मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो२० ।
तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवड्ढते२१ ॥
१. होहामी (स)। २. लज्जाए (ब)।
तमायरं (ब)। ४. सलेस्सा (स)।
नाहिं वि (अ)। ६. चाइ (ब)।
० कहासु पि (अ, स)। ८. चकामि (ब)। ९. ० सन्निभो (स)। १०. सोह (स)।
११. ० दूमितो (स)। १२. उत्तरे यावि (ब)। १३. गुरुवो (स)। १४. ० णिज्जामि (स)। १५. ० वेहण (ब)। १६. व्व (स)। १७. वीयी (सं)। १८. कंडएण (स)। १९. जाए (ब)। २०. राइणो (अ)। २१. परिवट्टइ (अ)।
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षष्ठ उद्देशक
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२७६१. जधा य कम्मिणो कम्मं, मोहणिज्जं उदिज्जति ।
तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवडती ॥दारं ।। २७६२. जहा य अंबुनाधम्मि, अणुबद्धपरम्परा' ।
वीई उप्पज्जई एवं, परिणामो सुभासुभो ॥ २७६३. कण्हगोमी जधा चित्ता, कंटयं वा विचित्तयं ।
तधेव परिणामस्स, विचित्ता कालकंटया ॥ २७६४. लंखिया वा' जधा खिप्पं, उप्पतित्ताप समोवए ।
परिणामो तहा दुविधो, खिप्पं एति अवेति य ॥ २७६५. लेस्सट्ठाणेसु एक्केक्के, ठाणसंखमतिच्छिया ।
किलिटेणेतरेणं वा, जे तु भावेण खुंदती० ॥ २७६६. भवसंहणणं१९ चेव, ठितिं वासज्ज देहिणं ।
परिणामस्स जाणेज्जा, विवड्डी जस्स जत्तिया ॥ २७६७. विसुझंतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति ।
मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया ॥ २७६८. उक्कड्डूंत ३ जधा तोयं, सीतलेण झविज्जती१४ ।
गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेण तहोदओ ॥ २७६९. असुभोदयनिष्फण्णा, संभवंति बहुविधा ।
.. दोसा एगाणियस्सेवं, इमे अन्ने वियाहिया ॥ -२७७०. मिच्छत्तसोधि सागारियादि गेलण्ण खद्धपडिणीए ।
बहि पेल्लणित्थि५ वाले, रोगे तध सल्लमरणे य ॥नि. ३९७ ॥ २७७१. ओगाढं पसहायं.६ तु, पण्णवेंति कुतित्थिया ।
समावण्णो विसोधिं च, कस्स पासे करिस्सति ॥दारं ॥ २७७२. भया आमोसगादीणं८, सेज्जं वयति सारियं९ ।
असहायस्स गेलण्णे, को से किच्चं करिस्सति दारं ॥
१. अणुपबद्ध ०(ब)। २. उपजते (स)। ३. कण्हसगोम्ही (ब)। ४. कंडयं (स), सर्वत्र । ५. यं (ब)। ६. उप्पइत्ता (इ), उप्पतेत्ता (ब)। ७. समोयइ (आ), समोयए (ब)। ८. ० हाणे उ (अ)। ९. तिच्छया (स)। १०. २७६५-६६ ये दोनों गाथाएं व प्रति में नहीं है।
११. ० संघतणं (स), संघयणं (अ)। १२. यावि (स)। १३. उक्कथंव (ब), उक्कंतं (स)। १४. स विज्जति (अ)। १५. पेल्लणिच्छि (अ)। १६. अपि असहायं (मवृ)। १७. समं वण्णो (ब)। १८. समोस. (स)। १९. सारिया (स)।
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२६२ ]
व्यवहार भाष्य
२७७३. मंदग्गी । भुंजते खद्धं, ऊसढं' ति निरंकुसो ।
एगो परुट्ठगम्मो य, पेल्ले उब्भामिया व णं ॥ २७७४. वभिचारम्मि परिणते, जिंती दट्ठण समणवसहीओ ।
पंतावणादगारो, उड्डाहपदोस एमादी२ ॥दारं ॥ २७७५. वालेण वावि डक्कस्स, से को कुणति भेसजं ।
दीहरोगे विवद्धिं च, गतो किं सो करिस्सति ॥दारं ॥ २७७६. सल्लुद्धरणविसोही, मते य दोसा बहुस्सुते वावि ।
सविसेसा अप्पसुते, रक्खंति परोप्परं दोवि ॥ २७७७. अप्पेग जिणसिद्धेसु, आलोएंतो बहुस्सुतो ।
अगीतो तमजाणतो, ससल्लो जाति दुग्गति ॥ २७७८. सीहो रक्खति तिणिसे, तिणिसेहि वि रक्खितो तधा सीहो ।
एवण्णमण्णसहिता, बितियं अद्धाणमादीसुं ॥ २७७९. कारणतो वसमाणो, गीतोऽगीतो० व होति निद्दोसो ।
पुव्वं च वण्णिता १ खलु , कारणवासिस्स२ जतणा तु ॥ २७८०. सुत्तेणेव उ सुत्तं, जोइज्जति'३ कारणं तु आसज्ज ।
संबंधघरुव्वरए४, कप्पति वसिउं बहुसुतस्स ॥ २७८१. चरणं तु भिक्खुभावो, सामायारीय जा तदट्ठाए ।
पडिजागरणं करणं, उभओ५ कालं महोरत्तं ॥ वक्खारे कारणम्मि६, निक्कारण पव्ववण्णिता दोसा ।
किं पुण हुज्जा कारण, तद्दोसादी१७ मुणेयव्वा८ ॥नि. ३९८ ॥ २७८३. संदंतमसंदंतं, अस्संदण चित्त९ मंडलपसुत्ती२० ।
किमिपूयं लसिगा२१ वा, पस्संदति तत्थिमा जतणा ॥नि. ३९९ ॥ २७८४. संदंते वक्खारो, अंतो बाहिं च सारणा तिण्णि ।
जत्थ विसीदेज्ज ततो, णाणादी उग्गमादी२२ वा ॥नि. ४०० ।।
१. उस्स ढ (स)। २. २७७४-७५ ये दो गाथाएं अ और स प्रति में नहीं हैं।
विवत्ति (ब)। ४. यावि (स)।
आलोएहि (ब)। ६. य मजाणतो (अ)। ७. दुग्गवि (ब)। ८. सीधो (अ)। ९. बितिओ (स)। १०. गीतागीतो (स)। ११. वल्लिया (अ)।
१२. ० वासी स (स)। १३. ० ज्जती (ब)। १४. ० घरोयरए (ब), ० घरोव्वरते (अ)। १५. उभतो (अ, ब)। १६. ० णम्मि (स)। १७. त्वग्दोषादीनि (मवृ)। १८. सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मव)। १९. सित्त (आ)। २०. ० पवुत्ती (स)। २१. रसिंगा (अ)। २२. ०मातो (ब)।
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षष्ठ उद्देशक २७८५. अहवा भत्ते पाणे, सामायारीय वा विसीदंतं ।
एतेसु तीसु सारे, तिण्णि वि काले गुरू पुच्छे ॥ २७८६. गोसे केरिसियं ति य, 'कतमकतं वा किं ति आवासं ।
भिक्खं लद्धमलद्धं, किं दिज्जउ वा ते मज्झण्हे ॥ २७८७. पेहितमपेहितं वा, वट्टति ते केरिसं च अवरण्हे ।
निज्जूहणम्मि गुरूगा, अविधी परियट्टणे वावि ॥ २७८८. आणादिणो य दोसा, विराहणा होतिमेहि ठाणेहिं ।
पासवण-फास-लाला', पस्सेए मरुयदिटुंतो ॥नि. ४०१॥ २७८९. पासवण अन्नअसती, भूतीए लक्खि मा हु दूसियं मोयं ।
चलणतलेमु कमज्जा, १० एमेव य निक्खमपवेसो ॥ २७९०. णिती विसो काउ तली कमेसुं, संथारओ दूर अदंसणे वि१३ ।
मा फासदोसेण कमेज्ज तेसिं, तत्थेक्कवत्थादि व४ परिहरंति ॥ २७९१. न य भुंजतेगट्ठा५, लालादोसेण संकमति'६ वाही ।
सेओ से वज्जिज्जति, जल्लपडलंतरकप्पो७ य ॥ २७९२. एतेहि कमतिर८ वाही, एत्थं खलु सेउएण दिटुंतो ।
कुट्ठक्खय कच्छुयऽसिवं, नयणामयकामलादीया ९ ॥ २७९३. एस जतणा बहुस्सुत,ऽबहुस्सुय न कीरते तु वक्खारो ।
ठावेंति एगपासे, अपरिभोगम्मि उ जतीणं । व२० ॥ २७९४. विवज्जितो उट्ठविवज्जएहिं, मा बाहिभावं अबहुस्सुतो उ ।
कट्ठाए२१ भूतीव२२ तिरोकरेंति, मा एक्कमेक्कं सहसा फुसेज्जा ॥ २७९५. अगलंत न वक्खारो, लालासेयादिवज्जण तधेव ।
उस्सास-भास-सयणासणादीहि होति२३ संकंती ॥नि. ४०२॥
१. कयं अकयं व (ब)। २. कं (अ)। ३. ते (ब)।
० मविहियं (ब)। यावि (स)। होयमेहिं (स)।
णाला (ब)। ८. मरुएण दि० (स)।
चवण ०(अ)। १०. कमेज्जं (स)। ११. णिती (अ),णिति (स)। १२. व (ब)।
१३. वी (स)। १४. वि (स, ब)। १५. भुंजतेगल्ला (ब)। १६. ० मई (अ)। १७. ० तरप्पो (अ)। १८. संकमति (स)। १९. ० णामल०(अ)। २०. व्व (स)। २१. कट्ठाति (अ, स)। २२. भूति व (ब)। २३. कोति (अ)।
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२७९६. अवणेतु' जल्लपडलं, धरेंति भाणं स काइयादि गतो । सीते व दाउ कप्पं, उवरमध परिहरति 11 २७९७. असहुस्सुव्वत्तणादीणि, कुव्वतो छिक्क जत्तियं I खेदमकुव्वत धोवेज्ज मट्टियादीहि तत्तियं २७९८. असती मोयमहीए, कयकप्पऽगलंतमत्तए निसिरे । तेणेव कते कप्पे, इतरे निसिरंति" जतणाए || २७९९. एसा जतणा उ तहिं कालगते पुण इमो विधी होति । अंतरकप्पं जल्लपडलं च अगलंत उज्झंति 11 धोतावि न निद्दोसा, तेण छुडुंति ते दुवे | सेसगं तु कते कप्पे, सव्वं से परिभुंजति संदंतस्स वि किंचण,“ असतीए मोत्तु भायणुक्कोसं । लेवमत्तमवणेत्ता, अण्णमयं धोविउं लिपे
॥
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२८००.
२८०१.
अगलंतमत्तसेवी असतीए कप्प काउ भुंजती । एसा जतणा उ भवे, सव्वेसिं तेसि नायव्वा || गाणिस्स दोसा, के त्ति भवे एस सुत्तसंबंधो । कारणनिवासिणो वा, दुविधा सेविस्स" पच्छित्तं 11 २८०४. बाहिं वक्खारठिते, 'महिला आगम १२ अवारणे ३ गुरुगा । वारण वासे पेल्लण, उदए पड्रिसेवणा भणिया 11 'पडिसेधो पुव्वत्तो १४, उज्जु१५ अणुज्जू मिहुणचउत्थम । निग्गममनिग्गमे वि य, जहिं च सुत्तस्स पारंभो 11 "जुगछिद्द १६ नालिगादिसु१७ पढमगजामादिसेवणे सोधी मूलादी पुव्वुत्ता, पंचमजामे भवे सुतं ॥ दुविधं वा पडिमेतर, सन्निहितेतर बाहिं व देउलादिसु, सोही तेसि
२८०२.
२८०३.
२८०५.
२८०६.
२८०७.
मोत्तूण (अ) ।
भाणे (स)।
कायादि (ब)।
णसिरे (अ)।
सिरंति (अ), निसिणंति (स) ।
छंद की दृष्टि से 'धोया अवि' पाठ होना चाहिए ।
परिसुज्झति (स) ।
किंचणं (स)
अचित्तसच्चित्ते
९.
कप्पे (ब) ।
१०. को त्ति (ब) ।
११. सो उ (स) ।
१५.
१६.
१७.
I
तु पुव्वुत्ता 11
१२. महिला य आ ० (ब), महिलादागम (स) । १३. अकारणे (स) ।
१४. पुव्वत्तो पडिसेधो (अ, ब)।
उज्ज (अ, ब) ।
० छिड्डू (अ, स) ।
० गादीसु (ब)।
व्यवहार भाष्य
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________________
षष्ठ उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
२८०८. संगारदिण्ण उ एस, साईयं वा तहिं अपेच्छंती 1 'पेलेज्ज व तं२ कुलडा, पुत्तट्ठा 'देज्ज रूवं वा३
नायव्वं ६
च संगीतं ।
||
11
२८०९. जइ सेव पढमजामे, मूलं सेसेसु गुरुग सव्वत्थ 1 अधवा दिव्वादीय', सच्चित्तं होति २८१०. जं 'सासु तिधा तितयं", नादिव्वं पासवं जह वुत्तं उवहाणं, तं 'न पुण्णं इहावण्णं १० २८११. बितियपदे तेगिच्छं निव्वीतियमादियं अतिक्कंते । ताहे १९ इमेण विधिणा, जतणाए तत्थ सेवेज्जा || २८१२. खलखिलमदिट्ठविसय १२, विसत्त अव्वंगवं १३ गणं काउं 1 ता इमंसि१४ लेसे, गीतत्थ जतो निलिज्जेज्जा १५ २८१३. अभिनिव्वगडादीसुं१६, समणीण पडिस्सगस्स दोसेण । दोसबहुला गणतो, अवक्कमे कावि१७ संबंधो ॥ २८१४. इत्थी पण्हाति जहिं, व सेवए" तेण सबलियायारो उज्जतविहारमण्णं १९, उवेज्ज बितिओ भवे जोगो ॥ जा होति परिभवंतीह, निग्गया सीयए कहं सत्ति संवासमादिएहिं स छलिज्जति उज्जमंता वी २१ २८१६. अद्धाणनिग्गयादी, कप्पट्ठी २२ संभरंति जा आगमणदेसभंगे, चउत्थि २३ पुण मग्गते २८१७. गोउम्मुगमादीया, नाया पुव्वं मुदाहडा ओमे असिवें २४ दुट्ठे, सत्थे २८१८. अन्नत्थ दिक्खिया थेरी, तीसे वारिज्जती य सा एज्जा,
|
२८१५.
सात्तियं (अ, ब, स ) ।
० ज्ज वतं (अ, ब) ।
वा रमणीयं (अ, ब)।
जय (ब) ।
० दियं (स) ।
नेयव्वं (ब)।
सासू होति तियं (अ) ।
पुत्तं (अ) ।
वुव ० (अ), उवधाणी (स) ।
० वण्णा (अ) ।
१०.
११. तधा (स) । १२.
० विसया (स) ।
१३. सव्वंगवि (स, अ) ।
१४. इमम्मि (अ) ।
१५. निलिच्छेज्जा (अ, ब) । १६. दीसु व (अ) ।
०
१७. काति (ब) ।
१८. सोतए (अ, स) ।
१९. उज्जुय० (ब, मु) । ० तीहिं (स) ।
२०.
२१. वि (ब)।
"
बितिया । सिक्खं ॥ नि. ४०३ ॥ ओमे । वा तेण अभिते ॥ धूता य अन्नहि 1 धूयानेहेण तं गणं
11
1
11
11
२२. कप्पट्ठिय (स) ।
२३. चउत्बी (स)।
२४. छंद की दृष्टि से 'य' पाठ अतिरिक्त है ।
[ २६५
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________________
२६६ ]
व्यवहार भाष्य
२८१९. परचक्केण रट्ठम्मि, विद्दुते बोहिकादिणा ।
जहा सिग्घे पणट्ठासु, एज्ज एगाऽसहायिकारे ॥दारं ।। २८२०. सोऊण काइ धम्म, उवसंता परिणया य पव्वज्जं ।
निक्खंत मंदपुण्णा, सो चेव जहिं तु आरंभो ॥ २८२१. आभीरी पण्णवेत्ताण, गता ते आयतट्ठिया ।
अह तत्थेतरे पत्ता, निक्खमंति तमुज्जति ॥ २८२२.
दटुं वा सोउं वा, मग्गती तओ पडिच्छिया विहिणा ।
संविग्गसिक्ख मग्गति', पवत्तिणी 'आयरि-उवज्झं ॥ २८२३. हाणादिएसु मिलिया, पव्वावेंते भणंति ते तीसे ।
होह व उज्जुयचरणा, इमं च वइणिं वयं णेमो ॥ २८२४. भण्णति पवत्तिणी वा, तेसऽसति विसज्ज वतिणिमेतं ति ।
विसज्जिए य नयंती, अविसज्जंतीय मासलहू० ॥ वसभे य१ उवज्झाए, आयरियकुलेण वावि थेरेण२ ।
गणथेरेण गणेण वा, संघथेरेण संघेण ॥ २८२६. भणिया न विसज्जेती, लहुगादी सोहि जाव मूलं तु ।
तीसे हरिऊण ततो३, अण्णीसे'४ दिज्जते५ उ गणो ॥ २८२७. एमेव उवज्झाए, अविसज्जते हवंति लहुगा उ ।
भण्णते'६ गुरुगादी, वसभा वा जाव नवमं तु ॥ २८२८. एमेव य आयरिए, अविसज्जते हवंति गुरुगा उ ।
वसभादिएहि भणिए, छल्लहुगादी उ जा चरिमे ॥ २८२९. साहत्थमुंडियं गच्छवासिणी बंधवे विमग्गंती ।
अण्णस्स देति संघो, णाण-चरणरक्खणा जत्थ ॥ २८३०. नाणचरणस्स पव्वज्जकारणं नाणचरणतो सिद्धी ।
जहि नाणचरणवुड्डी, अज्जाठाणं तहिं वुत्तं ॥
२८२५
१. सिग्ध (आ)। २. ० सुहातिका (ब, स)। ३. जहं (अ)।
पल्लवे ० (अ)। ५. तमुज्जयं ():
१०. ० लहुं (स)। ११. व (स)। १२. राण (स)। १३. तत्तो (स)। १४. अण्णसी (ब), अण्णेसी (स) । १५. दिज्जउ (आ)। १६. भयंते (स)। १७. जाव (अ)।
८. ९.
X(ब)। आरिओवज्झं (स)। वयणि ० (स)।
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________________
षष्ठ उद्देशक
१.
२.
२८३१. मोत्तूण इत्थ चरिमं, इत्तिरिओ होति ऊ ' दिसाबंधो 1 ओसण दक्खियाए, आवकहाए दिसाबंधो
२८३२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथाणं पि होइ नायव्वो । नवरं पुण नाणनं, अणवटुप्पो 'य पारंची २ 11 २८३३. अद्धाणनिग्गतादी, कप्पट्ठगसंभरं ततो आगमणदेस भंगे, चउत्थओ
मग्गए
उ (स) । णो य पारंती (स) ।
३.
11
बितिओ ।
सिक्खं
इति षष्ठ उद्देशक
० दुगं ० (स)।
||
[ २६७
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________________
सप्तम उद्देशक
२८३४. निग्गंथीणऽहिगारे, ओसण्णत्ते य समणुवत्तंते' ।
सत्तमए आरंभो, नवरं पुण दो वि निग्गंथी ॥ २८३५. सुतं धम्मकहनिमित्तमादि घेत्तूण निग्गया गच्छा ।
पण्णवणचेइयाणं, पूयं काऊण आगमणं ॥ २८३६. 'धम्मकहनिमित्तेहि य, विज्जामंतेहि चुण्णजोगेहिं ।
इन्भादि जोसियाणं, संथवदाणे जिणायतणं ॥ २८३७. संबोहणट्ठयाए', विहारवत्ती वर्ष जिणवरमहे वा ।
महतरिया तत्थ गया, निज्जरणं भत्तवत्थाणं ॥ २८३८. अणुसट्ठ उज्जमंती, विज्जते चेइयाण सारवए ।
पडिवज्जति अविज्जंतए उ गुरुगा अभत्तीए ॥ २८३९. आगमणं१० सक्कारं, हिंडंति१ जहिं विरूवरूवेहिं१२ ।
लाभेण सन्नियट्टा, हिंडंति तो तहिं दिट्ठा ॥ २८४०. सक्कारिया य आया ३, हिंडंति तहिं विरूवरूवेहिं ।
वत्थेहि पाउया ता, दिट्ठा य तहिं तु वसभेहिं ॥ २८४१. भिक्खा ओसरणम्मि व५, अपुव्ववत्था 'उ ताउ'१६ दट्ठणं ।
गुरुकहण तासि पुच्छा, अम्हमदिना न वा दिट्ठा ॥ २८४२. निवेदणियं च वसभे, आयरिए दिट्ठ एत्थ किं जायं८ ।
तुम्हे अम्ह निवेदह२०, किं तुब्भऽहियं नवरि दोण्णि२१ ॥
समुणुवणते (ब)। २. त्तेहिं (अ)।
इब्भा य (अ)। ४. संठवठाणे (स)।
संबाह ० (ब)।
वि(अ)। ७. य विज्जते (अ.स)। ८. चितियाण (ब)। ९. जंतिए (ब), अवज्ज ० (स)। १०. ० मणे (स)। ११. हिंडवी (ब)।
१२. व रूवबोधेहि (स)। १३. आयाता (मवृ)। १४. तो (ब)। १५. वि (ब, स)। १६. तो ततो (स)। १७. निवेतियं (ब)। १८. जाइ (ब)। १९. तुब्धे (स)। २०. निवेदेह (ब)। २१. दाणि (ब)।
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सप्तम उद्देशक
[ २६९
२८४३. लहुगो लहुगा गुरुगा', छम्मासा होंति लहुगगुरुगा य ।
छेदो मूलं च तहा, 'गणं च'२ हाउं विगिचेज्जा ॥ २८४४. अण्णस्सा देति गणं, अह नेच्छति तं ततो विगिंचेज्ज ।
तं पि पुणरवि दिंतस्स', एवं तु कमेण सव्वासि ॥ २८४५. पवत्तिणिममत्तेणं, गीतत्था उ गणं जई ।
धारइत्ता ण इच्छंति, सव्वासिं पि विगिचणा ॥ २८४६. चोदग गुरुगो दंडो, पक्खेवग० चरियसिद्धपुत्तीहिं ।
विसयहरणट्ठया तेणियं च एयं न नाहिंति ॥ २८४७. अवराहो गुरु तासिं, सच्छंदेणोवधिं तु जा घेत्तुं१२ ।
न कहती१३ भिन्ना वा, जं निझुरमुत्तरं बेति ॥ २८४८. अचियत्ता निक्खंता, निरोहलावण्णऽलंकियं दिस्स ।
विरहालंभे चरिया, आराहण दिक्खलक्खेण ॥ २८४९. अहवावि अण्ण कोई१४, रूवगुणुम्मादिओ५ सुविहिताए ।
चरियाए६ पक्खेवं, करेज्ज छिदं १७ अविंदंतो ॥ २८५०. सिद्धी वि कावि८ एवं, अधवा उक्कोसणंतगा भिन्ना ।
होहं वीसंभेउं अगहियगहिए य लिंगम्मि ॥ २८५१. वीसज्जिय नासिहिती९, दिटुंतो तत्थ२० घंटलोहेणं२१ ।
तम्हा पवित्तिणीए, सारणजयणाय कायव्वा ॥ २८५२. धम्मं जइ२२ काउ समुट्ठियासि, अज्जेव दुग्गं तु कम सएहिं ।
तं दाणि वच्चामु गुरूण पासं, भव्वं अभव्वं च विदंति२३ ते ऊ ॥ २८५३. जो जेणऽभिप्पाएण, एती२४ तं भो२५ गुरू विजाणंति ।
पारगमपारगं ति य, लक्खणतो दिस्स जाणंति ॥
*
१. X(ब)। २. गणस्स (ब, स)। ३. ०स्स (स)।
णेच्छिति (स)। तो (ब)। विगिंचए (अ, स)। दिन्नं से (ब)।
सव्वेसिं (स)। ९. धारियत्ता (ब)। १०. ० वगो (ब)। ११. तेणयं (अ)। १२. चित्तु (ब)। १३. कहेता (ब, स), कधंता (अ)।
१४. कोती (ब), कोइ य (अ)। १५. रूवीगु ० (स)। १६. चरिगातो (ब), चरिगादी (अ.स)। १७. छेदं (स)। १८. काति (अ) १९. हिइ (ब)। २०. एत्य (ब)। २१. कडुगालोहेणं (अ)। २२. जवि (स)। २३. वदंति (ब)। २४. एति (अ)। २५. भे (स)।
5
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२७० ]
व्यवहार भाष्य
२८५४. पत्ता पोरिसिमादी, छाता उव्वाय' वुत्थ साहति ।
चोदेति पुव्वदोसे, रक्खंती नाउ से भावं ॥नि. ४०४ ॥ २८५५. जा जीय होति पत्ता, नयंति तं तीय पोरिसीए उ ।
छाउव्वातनिमित्तं, 'बितिया ततियाए चरिमाएँ'४ ॥ २८५६. चरमाए जा दिज्जति, भत्तं विस्सामयंति णं जाव ।
सा' होति निसा दूरं, व अंतरं तेण 'वुत्थं ति'६ ॥ २८५७. नाहिंति ममं ते तू, काई" नासेज्ज अप्पसंकाए ।
जा उ न नासेज्ज तर्हि, तं तु गयं बेंति आयरिया ॥ २८५८. न हु कप्पति दूती वा, चोरी वा अम्ह 'काइ इति वुत्ते ।
गुरुणा नाया मि अहं, वएज्ज नाहं ति वा१ बूया ॥ २८५९. अतिसयरहिता थेरा, भावं इत्थीण नाउ दुन्नेयं ।
'रक्खेहेयं उप्पर"२, लक्खेह३ य से अभिप्पायं ॥ २८६०. उच्चारभिक्खे४ अदुवा विहारे, थेरीहि जुत्तं गणिणी उ पेसे ।
थेरीण असती अत्तव्वयाहि ५, ठावेति१६ एमेव उवस्सयम्मि ॥ २८६१. कइतविया उ पविट्ठा, अच्छति छिडं तहिं निलिच्छंती ।
विरहालंभे१७ अधवा, भणाइ इणमो तहिं “सा तू८ ॥ २८६२. अविहाडा ह९ अव्वो, मा मं पस्सेज्ज नीयवग्गो२० वा ।
तं दाणि चेझ्याई, वंदह रक्खामहं वसधिं ॥ २८६३. उव्वण्णो सो धणियं२१, तुज्झ२२ धवो जो तदा२३ सि नित्तण्हो२४ ।
वभिचारी वा अण्णो, इति णात विगिंचणा तीसे२५ ॥
१. उव्वाउ (स)। २. साहिति (ब,स)।
ते उ(ब)। बितिया य सिया ति चरिमा य (अ), २८५५-२८५८ तक की गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं। ता (स)।
वोच्छंति (स)। ७. केई (स)। ८. मयं (स)। ९. काइ ति (अ)। १०. गुरुणो (स)। ११. णो (स)। १२. रक्खेह एवं तुट्ठिय (ब)।
१३. लक्खेहि (स)। १४. ० र भावे (ब)। १५. असव्वयाहि (ब), अतव्व (स)। १६. ठावेंति (अ, ब)। १७. ० ते (ब)। १८. सत्ते (अ)। १९. णं (ब)। २०. ते य वग्गो (ब)। २१. खलिउ (ब)। २२. तुम्भ (अ.स)। २३. तहिं (स)। २४. तो य सुतो (ब), तु व असुतो (स)। २५. तीसो (अ, ब)।
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सप्तम उद्देशक
[ २७१
२८६४. पारावयादियाइं', दिट्ठा f२ तासिरे णंतगाणि मए ।
तुज्झ नत्थि महतिरिए, वुत्ता खुड्डीओं दंसेंति ॥ २८६५. कोठेंब तामलित्तग, सेंधवए कसिणगँगिए" चेव ।
बहुदेसिए य अन्ने, पेच्छसु अम्हं खमज्जाणं ॥ २८६६. सच्छंद गेण्हमाणीण, होति दोसा जतो तु इच्चादी ।
इति पुच्छिउँ पडिच्छा, न तासि सच्छंदता सेया० ॥ २८६७. अत्थेण गंथतो वा, संबंधो सव्वधा अपडिसिद्धो१ ।
सुत्तं अत्थमुवेक्खति, अत्थो वि न सुत्तमतियाति३ ॥ २८६८. नदिसोय सरिसओ वा, अधिगारो एस होति दट्ठव्यो ।
छट्ठाणंतरसुत्ता, समणीणमयं तु जा जोगो४ ॥ २८६९. संविग्गाणुवसंता, आभीरी५ दिक्खिया य इतरेहिं ।
तत्थारंभं दटुं, विपरिणमेतर'६ व७ दिट्ठा उ ॥ २८७०. तह चेव अब्भुवगता, जध छद्देस वण्णिता पुवि ।
अविसज्जंताणं१८ पि य, दंडो१९ तह चेव पुव्वुत्तो ॥ २८७१. तं पुण संविग्गमणो, तत्थाणीतं तु जइ न इच्छेज्जा ।
'नियगा उ'२० संजतीओ, ममकारादीहि२१ कज्जेहिं ॥ २८७२. पासत्थिममत्तेणं२२, पगती२३ वेसा२४ अचक्खुकता वा ।
गुरुगणतण्णीयस्स तु, नेच्छंती पाडिसिद्धी या२५ ॥ ओमाणं नो काहिति, संखलिबद्धा व२६ ताउ२७ सव्वाओ । मा होहिति सागरियं 'सीदंति च उज्जतं'२८ नेच्छे ॥
२८७३.
35
वक्खेतीदीयाहिं (स)। २. णमिति वाक्यालंकारे (म)। ३. णासि (अ, स)। ४. इहरहे (), इतिरहे (ब)।
खुड्डातो (ब)। दंसती (स)।
० जुगए (ब)। ८. खमंजाणं (अ)। ९. इच्छाई (ब) १०. सेयं (ब)। ११. अपडिसेधो (स)। १२. ० मवेक्खति (ब)। १३. ० मदिजाति (ब)। १४. जोग्गो (स)।
१५. आभीरा (ब)। १६. ० णमतेतरे (स)। १७. य (ब)। १८. विसेज्जंती (स)। १९. डंडो (स)। २०. नियगातो (ब)। २१. ममीकारा ० (अ)। २२. ० मणत्तेण (ब)। २३. पगता (ब)। २४. बितिया (स)। २५. वा (अ.स)। २६. य (स)। २७. ततो (अ.स)। २८. सीयंती चुज्जतं (अ, स)।
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२७२
]
व्यवहार भाष्य
२८७४. भणति' वसभाभिसेए, आयरिकुलेण२ गणेण संघेण ।
लहुगादि जाव मूलं, अण्णस्स गणो य दातव्वो ॥ २८७५. एवं पुव्वगमेणं, विगिचणं जाव होति सव्वासि ।
देंतण्ण मणुण्णाणं', अमणुण्ण चउण्हमेगतरं ॥ २८७६. समणुण्णमणुण्णाणं, संजत तह संजतीण 'चउरो य" ।
पासत्थिममत्तादि व, अद्धाणादि व्व जे चउरो ॥ २८७७. सेहि त्ति नियं ठाणं, एवं सुत्तम्मि’ ‘जं तु भणियमिणं ।
एवं कयप्पयत्ता, ताधि मुयंता उ ते सुद्धा ॥ २८७८. संभोइउं° पडिक्कमाविया कप्पति अयं पि संभोगो ।
सो उ विवक्खे वुत्तो, इमं तु सुत्तं सपक्खम्मि ॥ २८७९. संभोगो पुवुत्तो, पत्तेयं पुण वयंति पडिएक्कं ।
तप्पंते समणुण्णे, पडितप्पणमाणुतप्पं च२ ॥ . २८८०. सागारिए गिहा निग्गते य वडघरिय जंबुघरिए१३ य ।
धम्मिय गुलवाणियए , हरितोलित्ते य दीवे य४ ॥नि. ४०५ ॥ २८८१. नवघरकवोतपविसण१५, दोण्हं नेमित्ति६ जुगव पुच्छा य७ ।
अण्णोण्णस्स घराई. पविसध८ नेमित्तिओ भणति ॥ २८८२. आदेसागमपढमा, भोत्तुं९ लज्जाएँ गंतु गुरुकहणं ।
सो जइ करेज्ज वीसुं, संभोगं एत्थ सुत्तं तु ॥ २८८३. धम्मिओ देउलं तस्स, पालेति जइ भद्दओ२० ।
सो य२९ संवड्डितं२२ तत्थ, लद्धं देज्जा जतीण२३ उ ॥दारं ॥ २८८४. वाणियओ गुलं तत्थ, विक्किणंतो उ तं दए ।
'तत्थ मोव्वरिए'२४ हुज्जा२५, अडं कच्छउडेण२६ वा ॥दारं ।।
भणित (स)। २. आयरिय कुले (ब)। ३. स (स)। ४. ब प्रति में गाथा का केवल पूर्वार्द्ध है। ५. मणुण्णीणं (स)।
संजम (अ) ७. चउभेदे (स)।
सुत्तं णिम (ब)।
भणियं जंतु मिणं (स)। १०. संभुंजियं (स)। ११. पुत्तो (ब)। . १२. तु (स)। १३. ० घरियं (स)।
१४. सम्प्रति निर्युक्त्यवसरः (मवृ)। १५. वक्खरक० (अ)। १६. निमित्ति (ब)। १७. या (ब)। १८. पविसहि (अ)। १९. मोत्तु (अ)। २०. भद्दतो (ब) २१. वि (स)। २२. संवट्टियं (अ)। २३. जतीणं (स)। २४. एत्थ मोवरिए (अ.स)। २५. हुज्ज (ब)। २६. कत्थ ० (स)।
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सप्तम उद्देशक
[ २७३
२८८५. हरितोलित्ता कता सेज्जा, कारणे ते य संठिता ।
पसज्झा 'वावि पालस्स', चेइयट्ठा गणे गते ॥ २८८६. छिण्णाणि वावि हरिताणि, पविट्ठो दीवएण वा ।
कतकज्जस्स पम्हढे, सो वि जाणे दिणे दिणे ॥ २८८७. दर्दू साहण लहुओरे, वीसु करेंताण लहुग आणादी ।
अद्धाणनिग्गतादी', दोण्हं गणभंडणं चेव ॥नि. ४०६ ॥ २८८८. तं सोउ मणसंतावो, संततीए तिउट्टति ।
अण्णे वि ते विवज्जंती', वज्जिता अमुएहि तो ॥ २८८९. ततो णं अन्नतो वावि', ते सोच्चा इह निग्गता ॥
वज्जेता जं तु पावेंति, निज्जरंतो० य हाविता ॥ २८९०. तं कज्जतो अकज्जे, वा सेवितं जइ वि तमकज्जेण१ ।
न हु कीरति पारोक्खं२, सहसा इति भंडणं होज्जा ॥ २८९१. निस्संकियं व काउं, आसंक 'निवेदणा तहिं १३ गमणं ।
सुद्धेहि कारणमणाभोग जाणया४ दप्पतो५ दोण्हं ॥नि. ४०७ ॥ २८९२. कज्जेण वावि गहियं, सगार'६ परियट्टतो व सो अम्हं ।
कारणमजाणतो वा, गहियं किं वीसुकरणं तु ॥ २८९३. जाणंतेहि व दप्पा, घेत्तुं आउट्टिउं कता सोही ।
तुब्भेत्थ निरतियारा, पसियह भंते ! कुसीलाणं ॥ २८९४. पढमबितिओदएणं, जं सव् आउरेहिं तं गहियं ।
दिट्ठा दाणि भवंतो, जं बितियपएसु नित्तण्हा ॥ २८९५. सत्तमए ववहारे, अवराहविभावितस्स साधुस्स ।
आउट्टमणाउट्टे, पच्चक्खेणं विसंभोगे ॥ २८९६. संभोगऽभिसंबंधेण आगते'९ केरिसेण सह२० णेओ ।
केरिसएण विभागो, भण्णति सुणसू समासेणं ॥
१. वसहिपालस्स (मवृ)। २. निग्गते (ब)
लहुतो (ब)। ० गेण्हतादी (अ)। संततीय ति (स)।
ज्जते (ब)। ७. उ(स)। ८. विहि (ब), विह (अ, स)।
११. तं अकज्जेण (स)। १२. पामोक्खं (स)। १३. ० णाए बहि (स)। १४. जणया (स)। १५. दप्पए (ब)। १६. सागर (ब)। १७. गहिते(अ,ब)। १८. संभोगे विसं ० (ब), संभोग विसंभोगो (अ)। १९. आगतं (ब)। २०. अह (ब)।
१० निज्जरातो (स)।
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२७४ ।
व्यवहार भाष्य
२८९७. पडिसेधे' पडिसेधो, असंविग्गें दाणमादि तिक्खुत्तो ।
- अविसुद्धे चउगुरुगा, दूरे साधारणं काउंरे ॥नि. ४०८ ॥ २८९८. पासत्थादिकुसीले, पडिसिद्धे ‘जा तु तेसि संसग्गी ।
पडिसिज्झति एसो खलु, पडिसेधे होइ पडिसेधो' ॥ २८९९. सूयगडंगे एवं, धम्मज्झयणे निकाचितं भणियं ।
अकुसीले सदा भिक्खू, नो य संसग्गियं वए ॥ २९००. दाणादी संसग्गी, सई कयाए पडिसिद्धे लहुगो ।
आउट्टे सब्भाम त्ति, असुद्धगुरुगा तु तेण परं ॥दारं ॥ २९०१. तिक्खुत्तो मासलहूँ, आउट्टे गुरुगों मास तेण परं ।
अविसुद्धे तं वीसुं, करेति जो भुंजती गुरुगा ॥ २९०२. सइ दोण्णि तिन्नि वावी, होज्ज 'अमाई तु५१ माइ तेण परं ।
सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो ॥ २९०३. एवं तू पासत्यादिएस१२ संसग्गिवारिता एसा ।
समणुण्णे वि३ ऽपरिच्छित, विदेसमादी गते एवं ॥ २९०४. समणुण्णेसु विदेसं, गतेसु पच्छण्ण होज्ज अवसन्ना'४ ।
ते वि तहिं गंतुमणा, आहत्थि५ तहिं मणुण्णा णो ॥ २९०५. अत्थि त्ति होति लहुगो'६ कदाइ ओसन्न भुंजणे दोसा ।
नत्थि वि लहुगो भंडण, न खेत्तकहणे व पाहुण्णं ॥ २९०६. आसि तदा समणुण्णा, भुंजह दव्वादिएहि पेहित्ता ।
एवं भंडणदोसा, न होंति अमणुण्णदोसा य ॥ २९०७. णातमणाते आलोयणा'७ तु९८ऽणालोइए भवे गुरुगा ।
गीतत्थे आलोयण, सुद्धमसुद्धं विगिचंति९ ॥नि. ४०९ ।।
१. ० सेधि (अ)। २. दाणमा या (अ, ब)। ३. एष नियुक्तिगाथासमासार्थः (म)।
लहु उ(अ)। ___ इस गाथा का उत्तरार्ध ब प्रति में नहीं है।
गाथा के उत्तरार्धमें अनुष्टुप् छंद है। ७. सयं (ब)। ८. कते (अ, स)। ९. लहुं (ब)। १०. करोति (अ)।
११. ० ईसु (अ)। १२. ० स्थादीएसु (ब)। १३. व (अ.स)। १४. उवसण्णा (अ, स)। १५. आहच्च (ब)। १६. बहुतो (स)। १७. ० यणे (ब)। १८. तो (ब)। १९. विविंचति (ब) एष नियुक्तिगाथासमासार्थः (मवृ)।
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[ २७५
सप्तम उद्देशक २९०८. अविणढे संभोगे, अणातणाते. य नासि पारिच्छा ।
एत्थोवसंपयं खलु, सेहं वासज्ज आरे वी ॥ २९०९. महल्लयाय गच्छस्स, कारणेहऽसिवादिहिं ।
देसंतरगताऽणोण्णे, तत्थिमा जतणा भवे ॥ २९१०. दोण्णि वि जदि गीतत्था, राइणिए तत्थ विगडणा पुदि ।
पच्छा इतरो वि दए, समाणतो छत्तछायाओ ॥ २९११. निक्कारणे असुद्धो उ, कारणे वाणुवायतो ।
उज्झंति उवधिं दो वि, तस्स सोहिं करेंति य ॥ २९१२. एवं तु विदेसत्थे, अयमन्नो खलु भवे सदेसत्थे ।
अभिणीवारीगादी, विणिग्गते. गरुसगासातो१ ॥नि. ४१० ॥ २९१३. अभिणीवारी निग्गत, अहवा अन्नेण वावि कज्जेण ।
विसणं समणुण्णेसुं, काले को यावि कालो उ ॥ २९१४. भत्तट्ठिय आवासग, “सोधेत्तु मतित्ति'१२ पच्छ अवरण्हे ।
अब्भुट्ठाणं दंडादियाण१३, गहणेगवयणेणं ॥ २९१५. खुड्डग विगिट्ठ गामे, उण्हं अवरह तेण तु पगे वि ।
पक्खित्तं मोत्तूणं, निक्खिव उक्खित्त मोहेणं१४ ॥नि. ४११ ।। २९१६. जइ वि५ तवं आवण्णो, जा भिन्नो अहव होज्ज नावन्नो ।
तहियं ओहालोयण, तेण परेणं विभागो उ ॥ २९१७. अधवा भुत्तुव्वरितं.६, 'संखडि अन्नेहि'१७ वावि कज्जेहिं ।
तं मुक्कं पत्तेयं, इमे य पत्ता तहिं होज्जा ॥ २९१८. भुंजह भुत्ता अम्हे, जो वा 'इच्छति य१८ भुत्त सह भोज्जं ।
सव्वं व तेसि दाउं, अन्नं गेण्हंति वत्थव्वा ॥ २९१९. तिण्णि दिणे पाहुण्णं, सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं ।
जे तरुणा सग्गामे, वत्थव्वा बाहि हिंडंति ॥
१. २.
णायमणाए (मु)। पच्छोव ० (ब)। ० ल्लभाए (स)।
गयं (अ)। रातिणिए (ब)। ०छायावो (अ)। x (ब)। मज्झं ति (ब)। सय०(ब)।
१०. व णिग्गए (ब)। ११. नियुक्तिगाथां भाष्यकारो विवृणोति (म)। १२. सोहेउमति त्ति (ब)। १३. दंडाई (ब)। १४. मा ओघेन (मवृ), एष नियुक्तिगाथासमासार्थ: (म)। १५. उ(अ.स)। १६. भुत्तुद्धरियं (अ)। १७. संखडियण्णहि (स)। १८. अच्छइ (अ)।
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२७६ ]
व्यवहार भाष्य
२९२०. संघाडगसंजोगे, आगंतुग भद्दएतरे बाहिं ।
आगंतगा व बाहिं, वत्थव्वग भद्दए हिंडे ॥ २९२१. मंडुगगतिसरिसोरे खलु , अहिगारो होइ बितियसुत्तस्स ।
संपुडतो वा दोण्ह वि, होति विसेसोवलंभो वा ॥ २९२२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो ।
जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं३ समासेणं ॥ २९२३. किं कारणं परोक्खं, संभोगो तासु कीरती वीसुं ।
पाएण ता हि तुच्छा, पच्चक्खं भंडणं कुज्जा ॥ २९२४. दोण्णि वि ससंजतीया, गणिणो एक्कस्स वा दुवे वग्गा ।
वीसुकरणम्मि ते चिय, कवोयमादी उदाहरणा ॥ २९२५. पडिसेवितं तु नाउं, साहंती अप्पणो गुरूणं तु ।
ते वि य वाहरिऊणं, पुच्छंती दो वि सब्भावं ॥ २९२६. जइ ताउ एगमेगं, अहवा वि ‘परं गुरुं व एज्जाही ।
अहवा वी' परगुरुओ, परवतिणी तीसु वी गुरुगा ॥ २९२७. भंडणदोसा होती, वगडासुत्तम्मि जे भणितपुव्वं ।
सयमवि य वीसुकरणे, गुरुगा चावल्लया कलहो ॥ २९२८. पत्तेयं भूयत्थं, दोण्हं पि य गणहरा १ तुलेऊणं ।
मिलिउं तग्गुणदोसे, परिक्खिउं१२ सुत्तनिद्देसो ॥ २९२९. संभोगम्मि पवत्ते, इमा वि संभुंजते१३ उवट्ठविउं ।
सीसायरियत्ते वा, पगते न दिक्खंति१४ 'दिक्खे या'१५ ॥ २९३०. अण्णट्ठमप्पणो वा, पव्वावण चउगुरुं च आणादी ।
मिच्छत्त तेण संकट्ठ, मेहुणे गाहणे१६ जं च ॥ २९३१. तेण8 मेहुणे वा, हरति अयं संकऽसंकिते सोधी ।
कक्खादभिक्खदंसण७ णित्थक्कं वोभए'१८ दोसा ॥
१. ०व्वक (ब)। २. मंदुग ० (स)। ३. वुच्छं (अ)। ४. असंज० (स)। ५. सेविडं (ब)। ६. अप्पणा (अ)। ७. परगुरुं (ब)।
ज्जाहि (ब)। ९. वि(ब)। १०. ० पुब्बि (स)।
११. ० हरो (ब)। १२. पडिक्खि० (अ), परिक्खितं (स)। १३. संभुज्जए (अ, स)। १४. दिक्खंत (अ, ब)। १५. दिक्खतो (ब)।, यहां 'दिक्खे या' पाठ के स्थान पर वृत्ति के
अनुसार 'अन्तट्ठा' पाठ की संभावना की जा सकती है। १६. गहणे (ब)। १७. कक्खाअभिक्ख ०(ब)। १८. नित्थक्को वा भए (अ), णित्थक्का ० (स)।
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[ २७७
सप्तम उद्देशक २९३२. 'हरति त्ती" संकाए, लहुगा गुरुगा य होति नीसके ।
मेहुणसंके गुरुगा, निस्संकिय होति मूलं तु. दारं ॥ २९३३. अवि धूयगादिवासो, पडिसिद्धो तह य वास सइगाहिं ।
वीसत्थादी दोसा', विजढा एवं तु पुव्वुत्ता ॥ २९३४. पव्वावणा सपक्खे, परिपुच्छउ' दोसवज्जिते दिक्खा ।
एवं सुतं अफलं, सुत्तनिवातो तु कारणिओ ॥ २९३५. कारणमेगमडंबे', खंतियमादीसु मेलणा होति ।
पव्वज्जमब्भुवगते, अप्पाण चउविधा तुलणा ॥नि. ४१२ ।। २९३६. असिवादिकारणगतो, वोच्छिन्नमडंब संजतीरहिते ।
कधिताकधितउवट्ठित, असंक 'इत्थी इमा" जतणा ॥ २९३७. आहारादुप्पायण, दव्वे समुइंच जाणती११ तीसे२ ।
जदि तरति गंतु खेत्ते, आहारादीणि वद्धाणे ॥ २९३८. गिम्हादिकालपाणग, निसिगमणमादिसु वावि जइ सत्तो ३ ।
भावे क्रोधादिजओ, गाहणणाणे य चरणे य ॥ २९३९. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउकाम जो उ पव्वावे ।
गुरुगा अविज्जमाणे, अन्ने गणधारणसमत्थे ॥ जो वि य अलद्धिजुत्तो, पव्वावेंतस्स होति गुरुगा उ ।
तम्हा५ जो उ समत्थो, सो पव्वावेति'६ ताओ वा७ ॥ २९४१. एव तुलेऊणऽप्पं, सा वि तुलिज्जति उ दव्वमादीहिं . ।
कायाण दायणं८ दिक्ख, सिक्ख इत्तरदिसा९ नयणं२० ॥नि. ४१३ ।। २९४२. पेज्जादिपायरासा, सयणासण-वत्थ-पाउरणदव्वे२१ ।
दोसीण दुब्बलाणि य, सयणादि असक्कया एण्हि ॥
२९४०.
39
१. हरती य (अ)। २. सयाहिगा (ब)। ३. दोसे (स)। ४. तू (अ)।
• पुच्छित (स)। विवज्जिए (+
कारण एय ०(ब), कारण एग ० (अ.स)। ८. खंतीमा ० (स)। ९. इत्थी सिमे (स)। १०. ० यणे (ब) ११. जाणते (ब,स)
१२. तीसि (ब)। १३. तत्तो (स)। १४. जे (ब), ता (स)। १५. जम्हा (स,ब)। १६. पव्वाविंति (ब)। १७. तु (स)। १८. दायाणं (अ)। १९. इत्तिरि ० (, इतरा ० (ब)। २०. एष नियुक्तिगाथासमासार्थ: (मवृ । २१. ०दव्वं (ब)।
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२७८
]
व्यवहार भाष्य
२९४३. पडिकारा य बहुविधा, विसयसुहा' आसि भे ण पुण एहि ।
वत्थाणिरे पहाण धूवण, विलेवणं ओसधाइं५ च ॥ २९४४. अद्धाण दुक्खसेज्जा, सरेणु तमसा य वसहिओ खेत्ते ।
परपादेहि गताणं, 'वुत्थाण य" उदुसुहघरेसुं ॥दारं ।। २९४५. __ आहारा उवजोगो, जोग्गो जो जम्मि होति कालम्मि ।
सो अन्नहा न य निसिं, कालेऽजोग्गो० य हीणो य ॥दारं ॥ २९४६. सव्वस्स पुच्छणिज्जा, न य पडिकूलेण सइरि११ मुदितासि ।
खुड्डी वि पुच्छणिज्जा, चोदण फरुसा गिरा भावे ॥ २९४७. जा२ जेण वयेण१३ जधा, व लालिता'४ तं तदन्नहा भणति ।
सोयादि कसायाणं, जोगाण य निग्गहो समिती ॥दारं ॥ २९४८. आलिहण५ सिंच तावण, वीयण दंतधुवणादि कज्जेसु ।
कायाण अणुवभोगो, फासुगभोगो परिमितो य ॥दारं ।। २९४९. अब्भुवगयाएँ लोओ, कप्पट्ठग लिंगकरण दावणया'६ ।
भिक्खग्गहणं कधेति, वदति ८ वहंते दिसा तिण्णि ॥ २९५०. माऊय'९ एक्कियाए, संबंधी इत्थि-पुरिससत्थे२० य ।
एमेव संजतीण वि, लिंगकरण मोत्तु बितियपदं ॥ २९५१. उठेत निवेसंते, सति करणादी य२९ लज्जनासो य ।
तम्हा उ सकडिपट्ट, गाहेति२२ तयं , दुविधसिक्खं ॥ २९५२. आयरिय उवज्झाओ२३, ततिया२४ य पवत्तिणी२५ उ समणीणं ।
अण्णेसि अट्ठाए, त्ति होति एतेसि तिण्हं पि ॥ २९५३. पव्वावियस्स नियमा, देंति दिसिं दुविधमेव तिविधं वा ।
सा पुण कस्स२६ विगिट्ठा२७, उद्दिस्सति२८ सन्निगिट्ठा वा ॥
१. विसुय ० (अ)। २. चक्कमण (अ.स)
धूवा (अ)।
० वणा (स)। ५. ० हाई (ब)। ६. अडाणं (ब)। ७. वुत्थाण (ब)। ८. उऊसुह ० (ब), उउ घरसुहेसु (अ)। ९. उवभोगो (अ, स)। १०. अकालजोग्गो (ब)। ११. सहर (ब)। १२. जो (ब)। १३. वएण (स), गाथाया तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् (म)। १४. लसिता (स)।
१५. आलिहिति (स)। १६. दायणया (अ.स)। १७. कधिति (अ)। १८. वदिति (ब) १९. माऊए (ब)। २०. सार्थेन सह गाथाया सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। २१. X(ब)। २२. गाहंति (ब,स)। २३. ० ज्झाया (ब)। २४. तत्तिया (ब)। २५. ०त्तिणा (ब)। २६. किंचि (अ)। २७. विसिट्ठा (ब)। २८. उद्दिसंति (अ), उद्दिसति (स)।
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सप्तम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
I
||
अहवा वि सरिसपक्खस्स अभावा दिक्खणा विपक्खे वि तत्थ वि कस्स विगिट्ठा, उद्दिस्सति' कस्स वा नेति २९५५. दुविधं पिय वितिगिट्ठ, निग्गंथीणुद्दिसंति चउगुरुगा । आणादिणो य दोसा, दिट्ठतो होति कोसलए ॥ २९५६. उवसामिता जतंतेण, कोसलेणं ४ गते य सा तम्मि 1 तं चेव ववदिसंती, निक्खता अन्नगच्छम्मि २९५७. वारिज्जती वि गया, पडिवण्णा सा य तेण पावेणं । जिणवयणबाहिरेणं, कोसलएणं अकुल
11
||
11
२९५८. कोसलए किं कारण, गहणं बहुदोसलो उ कोसलओ । तम्हा दोसुक्कडया, गहणं इह कोसले अविय २९५९. अंध अकूरमययं, अवि या मरहट्ठयं अवोकिल्लं कोसलयं च अपावं, सतेसु एक्कं न पेच्छामो ' २९६०. कोसलए जे दोसा, उद्दिस्संतम्मि किन्न सेसाणं ते तेसि' होज्ज वन वा इमेहि पुण नोद्दिसे ते वि १० २९६१. अन्नं उद्दिसिऊणं, निक्खता वा सरागधम्मम्मि अण्णोण्णम्मि ममत्तं, न हु वग्गाणं ११ पि संभवति २९६२. सुचिरं पि सारिया गच्छिहिती ममता ण याति गच्छस्स T सीदंतचोयणासु य, परिभूया मि त्ति र मज्जा ॥ २९६३. 'गमणुस्सुएण चित्तेण १३, 'सिक्खा दो १४ वि 'न गेण्हती १५ वारिज्जंती वि गच्छेज्जा, पंथदोसे इमे लभे ॥ २९६४. मिच्छत्त- सोहि - सागारियादि पासंड खेत्तवगिट्ठे दोसा, अमंगलं 'भवविगिट्ठ पि१६ ॥ नि. ४१४ ॥ २९६५. उवदेसो न सिं अत्थि, जेणेगागी उ१७ हिंडती १८ इति मिच्छं जणो गच्छे, कत्थ सोधि च
तेण सच्छंदा 1
२९५४.
विगट्ठा (अ) विकिट्ठा (स) ।
उद्दिसति (स) ।
० द्दिसंते (स) ।
कोसलएणं ।
अकुसलएणं (अ)।
X (ब) !
य (स) ।
पेच्छामि (स)। तेहिं (स) 1
१०.
वी (अ)।
११. अग्गाणं (स) ।
१७. ऊ (ब) ।
१८.
हिंडए (ब) 1
1
||
I
11
|
||
१२. तू (ब)।
१३. छंद की दृष्टि से गमणुस्सुयचित्तेण पाठ होना चाहिए।
१४. सिक्खातो (मु) ।
१५. निगिण्हती (अ), ० हेती (स)।
१६. ० विगिट्ठम्मि (अ), ०टुं वा (स) ।
I
कुव्वउ ॥ दारं ॥
[ २७९
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२८० ]
व्यवहार भाष्य
२९६६. सागारमसागारे, एगीय उवस्सए भवे दोसा ।
चरगादि' विपरिणामण, सपक्ख-परपक्ख-निण्हादी ॥दारं ।। २९६७. तेणेहि वावि हिज्जतिरे सच्छंदुट्ठाण गमणमादीया ।
दोसा भवंति एते, किं व न पावेज्ज सच्छंदा ॥ २९६८. गोरव-भय-ममकारा', अवि दूरत्थे वि होंति जीवंते ।
को दाणि समुग्घातस्स कुणति न य तेण जं किच्चं ॥ २९६९. कोसलवज्जा ते च्चिय, दोसा सविसेस 'भवविगिट्टे वि' ।
दुविधं पी० वितिगिटुं, तम्हा उ न उद्दिसेज्जाहिं ॥ २९७०. बितियं तिव्वऽणुरागा, संबंधी वा न.१ ते य२ सीदति ।
इत्तरदिसा३ उ नयणं, अप्पाहं१४ एव दूरम्मि ॥ २९७१. भवविगिढे वि एमेव, समुग्घातो त्ति वा न वा५ ।
तत्थ आसंकिते बंधो, निस्संके तु न बज्झति ॥ २९७२. अधवा तस्स सीसं तु, जदि ‘सा उ समुद्दिसे'१६ ।
विप्पकढे तहिं खेत्ते, जतणा जा तु सा भवे ॥ २९७३. निग्गंथाण विगिटे, दोसा ते चेव मोत्तु कोसलयं ।
सुत्तनिवातोऽभिगते१५, संविग्गे सेस इत्तरिए८ ॥ २९७४. सड्ढो१९ व पुराणो वा, जदि लिंगं घेत्तु वयति अन्नत्थ ।
तस्स२° वितिगिट्ठबंधो२९, जा अच्छति२ ताव इत्तरिओ ॥ २९७५. मिच्छत्तादी दोसा, जे वुत्ता ते तु गच्छतो तस्स ।
एगागिस्स२३ वि न भवे, इति दूरगते वि उद्दिसणा ॥नि. ४१५ ।। २९७६. गीतपुराणोवटुं, धारतो सततमुद्दिसंत२४ तु ।
'आसणं उद्दिस्सति'२५, पुव्वदिसं वा२६ सयं धरए ॥
१. चरिगादि (स)। २. हज्जति (ब)। ३. सच्छंदुत्थाण (ब, स)। ४. ० मादी य (अ)
० ममिकारा (अ)।
होइ (ब)। ७. समुज्जा .(अ.स)।
कुप्पइ (अ)। ९. विगिट्ठम्मि (ब)। १०. पि (स)। ११. णु (ब)। १२. उ(ब)। १३. इत्तिरि ० (अ, स)।
१४. अप्पाण (ब), अप्पाहे (स)। १५. व (ब)। १६. साहस्स मुद्दिस्से (स)। १७. ० निवाउ अभि० (अ, ब)। १८. इत्तिरिए (अ, स)। १९. सद्धो (अ)। २०. वसति (स)। २१. विगिट्ठ ० (अ)। २२. इच्छति (ब)। २३. एगस्स य (ब) एगागियस्स (ब)। २४. सनिमु ० (ब)। २५. आसण्णमुद्दीसती (स)। २६. ता (ब) य (अ)।
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सप्तम उद्देशक
[ २८१
२९७७. चोदिज्जतो जो पुण, उज्जमिहिति' तं पि नाम बंधंति ।
_सेसेसु न उद्दिसणा, इति भयणा खेत्तवितिगिढे ॥ २९७८. एमेव य कालगते, आसण्णं तं च उद्दिसति गीते ।
पुव्वदिसि धारणं वा, अगीत' मोत्तूण कालगतं ॥ २९७९. वितिगिट्ठा समणाणं, अन्वितिगिट्ठा य होति समणीणं ।
मा पाहुडं पि एवं, भवेज्ज सुत्तस्स आरंभो ॥ २९८०. सेज्जासणातिरित्ते, हत्थादी घट्ट भाणभेदे य० ।
वंदंतमवंदंते, उप्पज्जति पाहुडं एवं ॥ २९८१. अधिकरणस्सुप्पत्ती, जा वुत्ता पारिहारियकुलम्मि ।
सम्ममणाउट्टते, अधिकरण ततो समुप्पज्जे ॥ २९८२. अहिगरणे उप्पन्ने, अवितोसवियम्मि२ निग्गयं समणं ।
जे सातिज्जति भुंजे३, मासा चत्तारि भारीया ॥ २९८३. सगणं परगणं वा वि, संकंतमवितोसिते ।
छेदादि वण्णिया सोही, नाणत्तं तु इमं भवे ॥ २९८४. मा देह ठाणमेतस्स, पेसवे जइ४ तू गुरू ।
चउगुरू ततो तस्स, कहेति५ य१६ चऊ लहू७ ॥ २९८५. ओधाणं वावि वेहासं, पदोसा८ जं तु काहिती ९ ।
मूलं ओधावणे होति, वेहासे चरिमं२० भवे ॥ २९८६. तत्थण्णत्थ व वासं, न२१ देंति२२ मे ण वि य नंदमाणेणं ।
नंदति ते खलु मए, इति कलुसप्पा करे पावं ॥ २९८७. आलीवेज्ज व वसधि, गुरुणो अन्नस्स घायमरणं वा ।
कंडच्छारिउ२३ सहितो, सयं व ओरस्स२४ बलवं तु ॥
१. ० मिही (अ.स)। २. पुण (स)। ३. णं (ब,स)। ४. . दिस (अ.स)।
गीयं (स)। विगिट्ठा (ब)। अविगिट्ठा (स)।
पाहुणं (अ)। ९. हत्यादि (स)। १०. यं (अ, ब)। ११. ० रणमुष्पत्ती (स)। १२. अविउस ० (आ)।
१३. संभुज्जए य (स, ब)। १४. जंति (ब)। १५. कहेंति (ब)। १६. या (ब)। १७. चऊ (स)। १८. पडया (ब)। १९. काहिती (स) कहेंति (ब)। २०. चरम (स)। २१. ना (ब)। २२. दिति (ब)। २३. ० च्छारिय (स)। २४. तोरस्स (ब)।
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२८२ ]
२९८८. जदि' भासति गणमज्झे, अवप्पयोगा य तत्थ गंतूण । अवितोसविए एसागतो त्ति ते चेव ते दोसा !
11
जम्हा एते दोसा, अविधीए पेसणे य कहणे य 1 तम्हा इमेण विहिणा, पेसणकहणं तु कायव्वं २९९०. गणिणो अस्थिर निब्भेयं, रहिते किच्च पेसिते । गमेति तं रहे चेव, नेच्छे सहामहं " २९९१. गुरुसमक्खं गमितो, तहावि जदि णं गणमज्झम्मि, भासते
खु ते नेच्छति 1 डुरं ॥
गणिणो चेव, तुमम्मि निग्गते तदा 1 महती आसी, सो विपक्खो' य तज्जितो 11 गणिणा चेव, सारिज्जतो स झंपिए । अन्नावदेसेण, विवेगो से" विहिज्जइ ॥
२९८९.
२९९२. गणस्स
अद्धिती २९९३. गणेण
ता
२९९५.
॥
२९९४. महाजणो इमो अम्हं, खेत्तं पि न हु । वसधी सन्निरुद्धा वा ११, वत्थपत्ता वि नत्थि नो सगणिच्चपरगणिच्चेण १२ समणेतरेण वा I रहस्सा वि व उप्पन्नं, जं जहिं तं तहिं खवे१३ 11 २९९६. एक्को व दो व निग्गत, उप्पण्णं जत्थ तत्थ वोसमणं गामे गच्छे दुवे गच्छा१४, कुल - गण - संघे य १५ बितियपदं१६ २९९७. तं जत्तिएहि दिट्ठ, तत्तियमेत्ताणं मेलणं काउं गिहियाण व साधूण व पुरतो च्चिय दो वि खामंति नवणीयतुल्लहियया, साहू एवं गिहिणो तु नाहेंति । न य दंडभया साहू, काहिंती १९ तत्थ वोसमणं बितियपदे वितिगिट्ठे, वितोसवेज्जा" उवट्ठिते" बहुसो । बितिओ जदि न उवसमे गतो य सो अन्नदेसं तु ॥
1
11
२९९८.
२९९९.
जति (ब)।
कहण (स) ।
अत्थ (अ) ।
रधे (स) 1.
साहा ० (स)।
१.
२.
३.
४.
4.
६.
७.
८.
९.
१०. मे (अ) ।
११. य (स) ।
तुमम (अ)।
अद्धीती (स)।
विवक्खो (अ) ।
विवग्गो (ब) ।
11
१८. खामिति (अ) ।
१९. काहती (स) । २०. वितिउस ० (ब) ।
२१. दुवट्ठिते (स) ।
I
11
11
१२. छंद की दृष्टि से 'सगणपरगणिच्चेण' पाठ अधिक संगत
लगता है।
१३. भवे (अ), य ते (स) ।
१४. गाथा के तृतीय चरण में अनुष्टुप छंद है।
१५. ण (स) ।
१६. इस गाथा का उत्तरार्ध अ प्रति में नहीं है।
१७. तत्तियमत्ताण (ब) ।
व्यवहार भाष्य
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________________
सप्तम उद्देशक
३०००.
I
पडिचरती "
वज्जिज्जतो व अन्नमन्नेहिं । व, देवय गेलण्णपुट्ठो वार 11 ३००१. गंतुं खामेयव्वो, अधवरे न गच्छेज्जिमेहि दोसेहिं । नीयल्लगउवसग्गो तहियं गतस्स व होजा तु ॥ ३००२. सो गामो उट्ठितो होज्जा, अंतरा वावि जणवतो निहवगणं गतो वा न तरति अधवावि ३००३. अब्भुज्जय' पडिवज्जे, भिक्खादि अलंभ अंतर 'राया दुट्ठे" ओमं, असिवं वा अंतर ३००४. सबरपुलिंदादिभयं, अंतर तहियं च अधव होज्जाहि " 'एतेहिं कारणेहि ११, वच्वंतं 'कं पि१२ अप्पाहे || ३००५. गंतूण सो वि तहियं, सपक्खपरपक्खमेव मेलित्ता । खामेति सो वि१३ कज्जं व दीवए१४ नागतो १५ जेण अह नत्थि कोवि६ वच्चंतो, ताधे उवसमेती१७ अप्पणा १८
1
N
I
खामेती१९ जत्थ णं, मिलती अदिट्ठे गुरुणंतियं ॥ निग्गंथीणं पाहुड, वितोसवेयव्व होति वितिद्विं । किध पुण होज्जुप्पण्णं, चेइयघरवंदमाणीणं २० ॥ ३००८. चेइयथुतीण भणणे, उण्हे अण्णाउ बाहि२१ अच्छंती २२ परिताविया मु२३ धणियं, कोइलसद्दाहि तुब्भाहिं ॥ नग्घंति णाडगाई, कलं पि कलभाणिणीण२४ विप्पगते भवतीणं, जायंत भयं
I
३००६.
३००७.
३००९.
वि (ब)।
या (स) ।
अहव (ब)।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
रायदुट्ठ (स)।
९.
व (ब) ।
१०. हुज्जाहिं (ब)।
११. एतेण कारणेण (अ) ।
१२. किं वि (ब)। १३. त्ति (अस) ।
कालेण व उवसंतो, खीर दिसली
तू (अ, स) ।
गाथा के पूर्वार्द्ध में अनुष्टुप् तथा उत्तरार्ध में आर्या छंद है।
० ज्जयं च (स)।
पडिवज्जेति (ब)।
१४. दीवणा (ब)। १५. एगतो (ब)।
१६. कोइ (अ)।
१७.
१८.
मप्पणा (ब)।
१९. खामेति (अ) ।
तहिं वा
तहिं वा
० समति (स) ।
२०. ० माणी तं (स) ।
कहि (स) ।
२१.
२२. अच्छंति (ब) ।
२३. उ (ब)।
२४.
२५.
० भासिणीण (अ) ।
० वतीतो (अ)।
||
I
11
भाणं । २५ ||
[ २८३
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२८४ ]
व्यवहार भाष्य
३०१०. इति असहण उत्तुयया' मज्झत्थातो समंति तत्थेव ।
असुणावरे सव्वगणभंडणे व गुरुसिट्ठिमा मेरा ॥ ३०११. गणधर गणधरगमणं, एगायरियस्स दोन्नि वा वग्गा ।
आसन्नागम दूरे, व पेसणं तं च बितियपदं ॥ ३०१२. चेइयघरं णिइत्ता', जत्थुप्पन्नं च तत्थ विज्झवणं ।
लज्जभया व असिटे, दुवेगतर निग्गम इमं तु ॥ ३०१३. आसन्नमणावाए, 'आणते व जहिं'१० गणहरागम्म ।
जणणात अभिक्खामण, आणाविज्जऽन्नहिं१२ वावि ॥ ३०१४. वितिगिटुं खलु पगतं, एगंतरिओ३ य होति उद्देसो४ ।
अव्वितिगिट्ठविगिटुं, जध पाहुडमेव नो सुत्तं ॥ ३०१५. लहुगा य सपक्खम्मी, गुरुगा परपक्ख'५ उद्दिसंतस्स ।
अंग६ सुतखंधं वा, अज्झयणुद्देस थुतिमादी७ ॥ ३०१६. एग दुगे तिसिलोगा, थुतीसु८ अन्नेसि होति जा सत्त ।
देविंदत्थयमादी, तेणं तु परं थया होति ॥ ३०१७. अट्ठहा नाणमायारो, तत्थ काले य आदिमो ।
अकालझाइणा१९ सो तु, नाणायारो विराधितो ॥ कालादिउवयारेणं, 'विज्जा न२० सिज्झए२१ विणा देति२२ ।
रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा व से तहिं ॥ ३०१९. सलक्खणमिदं सुत्तं, जेण सव्वण्णुभासितं ।
सव्वं च लक्खणोवेयं, समधिटुंति देवया ॥ ३०२०. जधा विज्जानरिंदस्स२३, जं किंचिदपि भासियं ।
विज्जा भवति२४ सा चेह, देसे काले य२५ सिज्झति२६ ॥
उत्तुयय (अ), उत्तुइतं (स)। २. असुणासु (स)। ३. गणवर ०(अ)। ४. ० गमण (अ)। ५. य(स)।
० घरि (स)। णितिता (ब)। वि(अ)।
निग्गमे (अ), निग्गते (स)। १०. आणंतह वा से (अ), आणते वी से (स) । ११. अविक्खमेण (आ। १२. आणातत्थनहिं (ब, स)। १३. एतंत (अ)।
१४. निद्देसो (ब)। १५. ० पक्खे (अ)। १६. अंग (ब)। १७. ०माती (ब)। १८. कतीसु (अ)। १९. ० झातिणा (ब) ० झायणो (स)। २०. न विज्जा (स)। २१. सिज्झति (स)। २२. देंति (स)। २३. विज्जाहरि ० (स) २४. भवती (अ.स)। २५. उ(ब), व (स)। २६. सिझंति (ब)।
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सप्तम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
३०२१.
३०२२. तहेहट्ठगुणोवेता',
जिणसुत्तीकता
ई
पुज्जते न य सव्वत्थ, तीसे झाओ तु जुज्जती ॥ ३०२३. निद्दोसं सारवंतं च, हेतुजुत्तमलंकितं । उवणीयं सोवयारं च, मितं मधुरमेव य H ३०२४. पुव्वण्हे वावरण्हे य, अरहो जेण भासती १० 1 एसा १ वि देसणा अंगे, जं च पुत्तकारणं ॥ ३०२५. रत्तीदिणाण मज्झेसु, उभओ १२ संज्झओ अवि 1 चरंति गुज्झगा केई १३, तेण तासि 'तु नो १४ सुतं ॥ ३०२६. जाव होमादिकज्जे, उभओ संज्झओ सुरा / लोगेण भासिया १५ तेण संझावासगदेसणा | ३०२७. एते उ सपक्खम्मी १६, दोसा आणादओ समक्खाया 1 परपक्खम्मि विराधण, दुविधेण विसेण दितो ॥ नि. ४१६ ॥ दव्वविसं खलु दुविधं, सहजं संजोइमं १७ च तं बहुहा एमेव य भावविसं, सचेतणाऽचेतणं बहुधा " ॥ ३०२९. सहजं सिंगियमादी १९, संजोइम-घत - महुं च समभागं । दव्वविसं गविहं, तो भावम्मि वोच्छामि || ३०३०. पुरिसस्स निसग्गविसं, इत्थी एवं पुमं पि इत्थीए । संजोइमो सपक्खो, दोण्ह वि परपक्ख नेवत्थो ॥ घाण-रस- फासतो वा, दव्वविसं वा सइंऽतिवाएति २१
|
1
सव्वविसयाणुसारी,
भावविसं
दुज्जयं असई २२
||
३०२८.
३०३१.
X (ब) ।
वावि (ब) ।
जहा य' चक्किणो चक्कं, पत्थिवेहिं पि पुज्जति । न दावि? कित्तणं तस्स, जत्थ तत्थ '३
जुज्जती ॥
अत्थ जत्थ (स) ।
जुज्जति (अ) ।
ता अट्ठगुणो ० (स) ।
उकारणचोइयं (निभा) ।
निभा ३६२०, बृभा २८२, आवनि ८८५ ।
यावरण्हे (ब) !
८.
९.
अरहा (अ) ।
१०. भासति (स) ।
११. एता (अ)।
१२. उभयतो (ब) ।
१३. केति (ब), केयिं (स) ।
१४. तो (ब), पुणो (स) ।
१५. भाविता ( अ, ब ) । १६.
०म्मि (अ, ब, स ) ।
१७. संजोइयं (अ)।
१८.
१९.
२०. X (अ)।
२१.
० वातेति (अ) । २२. असति (ब)।
गाथा का उत्तरार्ध ब प्रति में नहीं है।
० माती (ब)।
[ २८५
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________________
२८६ ]
व्यवहार भाष्य
३०३२. जम्हा एते दोसा, तम्हा उ सपक्खसमणसमणीहिं ।
उद्देसो कायव्वो, किमत्थ पुण कीर उद्देसो ॥नि. ४१७ ॥ ३०३३. 'बहुमाणविणयआउत्तया य" उद्देसतो गुणा होति ।
पढमोद्देसोरे सव्वो, एत्तो वोच्छं करणकालं ॥ ३०३४. थवथुतिधम्मक्खाणं, पुव्बुद्दिटुं तु होति संज्झाए ।
कालियकाले इतरं, पुवुद्दिटुं विगिढे वि ॥ ३०३५. पत्ताण समुद्देसो, अंगसुतक्खंध पुव्वसूरम्मि ।
इच्छा निसीहमादी, सेसा दिण पच्छिमादीसु ॥ ३०३६. दिवसस्स पच्छिमाए, निसिं तु पढमाय पच्छिमाए वा ।
उद्देसज्झयऽणुण्णा', न य रत्ति निसीहमादीणं० ॥ आदिग्गहणा दसकालिओत्तरज्झयण चुल्लसुतमादी । एतेसि भइयऽणुण्णा'२, पुवण्हे वावि३ अवरण्हे ॥ नंदीभासणचुण्णे१४, उ१५ विभासा होति अंगसुतखंधे ।
मंगलसद्धाजणणं, अज्झयणाणं१६ च वुच्छेदो ॥ ३०३९. बितियपदं आयरिए, अंगसुतक्खंधउद्दिसंतम्मि१७ ।
मंगलसद्धा-भय-गोरवेण८ तध निट्ठिते चेव ॥ ३०४०. एमेव संजती वा९, उद्दिसती संजताण बितियपदे२० ।
असतीय संजताणं, अज्झयणाणं च वोच्छेदो ॥ ३०४१. एवं ता उद्देसो, अज्झाओ२१ वी न 'कप्प वितिगिढे २२ ।
दोण्हं पि होति लहुगा, विराधणा चेव२३ पुव्वुत्ता ॥ ३०४२. बितियविगिट्टे२४ सागारियाएँ२५ कालगत२६ असति वुच्छेदो ।
एवं कप्पति तहियं, किं ते दोसा न संती उ ॥
१. उत्तताति (अ.स)। २. पढमाएसो तु (स)। ३. थयथुति ० (स)।
त्तितरं (ब)। ०मादीणि (स)।
०मादी (ब)। ___ णुण्णाया (अ)। ८. x(अ)।
रत्ति (ब)। १०. ०मादीणि (ब)। ११. ०कालियुत्त० (स)। १२. ० अणुण्णा (अ)। १३. यावि (ब)।
१४. चुल्ले ()। १५. य (अ)। १६. सुयपूय भेत्ता (ब)। १७. ० खंध पुव्वसूरम्मि (अ, स)। १८. गोरवे य (स)। १९. वी (ब)। २०. गाथायां सप्तमी तृतीयाथें (मवृ)। २१. सज्झाओ (अ)। २२. कप्पति विगिटे (अ.स)। २३. से एव (अ.स), एस (स) । २४. बितियं विगढे (ब)। २५. रियाति (अ, स)। २६. ०गत ति (ब)।
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________________
सप्तम उद्देशक
। २८७
३०४३. भण्णति' जेण जिणेहिं, समणुण्णायाइ२ कारणे ताई ।
तो दोस न संजायति, जयणाइ तहिं करेंतस्स ॥ ३०४४. कालगतं मोत्तूणं, इमा अणुप्पेहदुब्बले जतणा ।
अन्नवसधिं अगीते, असती तत्थेवणुच्चेणं ॥ ३०४५. कप्पति' जदि निस्साए , वितिगिट्टे संजतीण सज्झाओ ।
इति सुत्तेणुद्धारे, कतम्मि उप कमागतं भणति ॥ ३०४६. पुव्वं वण्णेऊणं, संजोगविसं च जातरूवं च ।
आरोवणं च गुरुयं, न हु लब्भं वायणं दाउं ॥ ३०४७. कारणियं खलु सुत्तं, असति पवायंतियाय वाएज्जा ।
पाढेण विणा तासिं, हाणी चरणस्स होज्जाही ॥ ३०४८. जाओ° पव्वझताओ, सग्गं मोक्खं च मग्गमाणीओ५ ।
जदि नत्थि नाण-चरणं, 'दिक्खा हु निरस्थिगा"५ तासि ॥ ३०४९. सव्वजगुज्जोतकर, नाणं नाणेण नज्जते चरणं ।
नाणम्मि असंतम्मी,, अज्जा किह नाहिति विसोधि३ ॥ ३०५०. नाणम्मि असंतम्मी, चरितं पि न विज्जते ४ ।
चरित्तम्मि असंतम्मी, तित्थे नो सचरित्तया ॥ ३०५१. 'अचरित्ताएँ तित्थस्स५५, निव्वाणं नाभिगच्छति ।
'निव्वाणस्स असती य१६, दिक्खा होति निरत्थिगा७ ॥ ३०५२. तम्हा इच्छावेती, एतासिं नाण-दसण-चरित्तं ८ ।
'नाण चरणेण१९ अज्जा, काहिति अंतं भवसयाणं ॥ ३०५३. नाणस्स दंसणस्स य, चारित्तस्स य महाणुभावस्स२० ।
तिण्हं पि रक्खणट्ठा, दोसविमुक्को पवाएज्जा२१ ॥
१. भणति (स)। २. अणुण्णायाइ तु (स)।
०णाए (ब)। ४. x (स)।
कपंति (स)।
x (ब)। ७. गुरुई (स)।
लब्भा (स)। ९. पवाएंतीयाए (अ)। १०. जो जं (स)। ११. ०माणी उ(अ)।
१२. दिक्खा होति निरत्थया (ब)। १३. ३०४९-५० ये दोनों गाथाएं ब प्रति में नहीं हैं। १४. चिट्ठति (स)। १५. x (ब)। १६. असती जेव्वाणस्स य (स)। १७. निरत्थया (स)। १८. चरिताणं (अ, स), समाहारत्वादेकवचनम् (मवृ) । १९. एतेण कारणेणं (अ, स)। २०. ०भागस्स (स)। २१. पवादेज्जा (ब)।
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२८८ ]
व्यवहार भाष्य
३०५४. अप्पसत्थेण भावेण, वायतो दोससंभवे ।
केरिसो अप्पसत्थो उ, इमो सो उ पवुच्चति ॥ ३०५५. परिवारहेउमन्नट्ठयाय वभिचारकज्जहेउं वा ।
आगारा वि 'बहुविधा, असंवुडादी उ दोसा उ ॥ ३०५६. गणिणी कालगयाए, बहिया 'न य" विज्जते जया अण्णा ।
संता वि मंदधम्मा, मज्जायाए पवाएज्जा ॥ ३०५७. आगाढजोगवाहीए, कप्पो वावि होज्ज असमत्तो ।
सुत्ततो अत्थतो वावी', कालगया य पवत्तिणी ॥ ३०५८. अन्नागय सगच्छम्मी, जदि नत्थि पवाइगा११ ।
अण्णगच्छा मणुण्णं तु, आणयंति'२ ततो तहिं ॥ ३०५९. सा तत्थ निम्मवे३ एक्कं, तारिसीए असंभवे ।
उग्गहधारणकुसलं, ताधे नयति'४ अन्नत्थ५ ॥ ३०६०. संविग्गमसंविग्गा ६ परिच्छियव्वा य दो वि वग्गा तु ।
अपरिच्छणम्मि गुरुगा, पारिच्छ१७ इमेहि ठाणेहिं१८ ॥ ३०६१. वच्चंति तावि'९ एंती, भत्तं गेण्हंति 'ताए व'२०देति ।
कंदप्प-तरुण-बउसं२९, अकालऽभीता य सच्छंदा२२ ॥ ३०६२. अट्ठमी पक्खिए२३ मोत्तुं, वायणाकालमेव य ।
पुव्वुत्ते कारणे वावि, गमणं होति अकारणं२४ ॥ ३०६३. थेरा सामायारि, अज्जा पुच्छंति ता२५ परिकधेती ।
आलोयण सच्छंद, वेंटल गेलण्ण पाहुणिया ॥नि. ४१८ ।।
१. वाएतो (ब)। २. स प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
कारणे दोसे जे तु, पवाएति अपसत्येण भावेण । ३. बहुधा असंपुडादी य (स)। ४. बहिता (ब)।
पुण (अ)। अण्णं (ब)।
समत्तो (स)। ८. यावि (अ.स)। ९. गाथा के उत्तरार्ध में अनुष्टुप् छंद है। १०. ०च्छम्मि (स)। ११. पवातिगा (ब)। १२. आणियंति (अ), आणंति (ब)।
१३. मण्णवे (स)। १४. नयंति (अ.स)। १५. ब प्रति में इस गाथा का केवल प्रथम चरण है। १६. संविग्ग असं० (स)। १७. पडिच्छ (स)। १८. यह गाथा व प्रति में नहीं है। १९. तावी (स)। २०. तावन्न (अ), ताव (स)। २१. पाउसं (अ, स)। २२. गाथा का पूर्वार्द्ध ब प्रति में नहीं है। २३. वावि (ब)। २४. ०रणे (स)। २५. ततो (ब)।
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[ २८९
सप्तम उद्देशक ३०६४. चित्तलए सविकारा, बहुसो उच्छोलणं च कप्पढे ।
थलि घोड' वेससाला, जंत' वए काहिय निसेज्जा ॥नि. ४१९ ।। ३०६५. जा जत्थ गता सा ऊ, नालोए" दिवसपक्खियं वावी ।
सच्छंदाओ वयणे, महतरियाए न ठायंति- दारं ।। ३०६६. विंटलाणि पउंजंति, 'गिलाणाए वि न पाडितप्पंति'२ ।
'आगाढ वऽणागाढं१०, करेंति ऽणागाढ११ आगाढं ॥ ३०६७. अजतणाय व कुव्वंती'२, पाहुणगादि अवच्छला ।
चित्तलाणि नियंसेंति३, चित्ता रयहरणा तथा ॥दारं ॥ ३०६८. गइविन्भमादिएहिं४, आगार-विगार तह१५ पदंसेंति ।
जध किढगाण६ वि मोहो, समुदीरति किं णु तरुणाणं ॥दारं ॥ ३०६९. बहुसो उच्छोलेंती, मुह-नयणे-हत्थ-पाय-कक्खादी ।
गेण्हण मंडण रामण, भोइंति ९ व ताउ२० कप्पटे ॥दारं ।। ३०७०. थलि२१ घोडादिट्ठाणे, वयंति ते यावि२२ तत्थ समुति ।
वेसित्थी२३ संसग्मी, उवस्सओ वा समीवम्मि ॥ ३०७१. तह चेव हत्थिसाला, घोडगसालाण चेव आसन्ने ।
जंति तह जंतसाला, काहीयत्तं२४ च कुव्वंती२५ ॥ ३०७२. थलि२६ घोडादिनिरुद्धा२७, पसज्झगहणं२८ करेज्ज तरुणीणं२९ ।
संकाइ३० होति तहियं, गोयर किमु पाडिवेसेहिं ॥
مر
१. कप्पट्टी (स)।
घोडि (ब)। जंतु (ब)।
ताधिया (अ), काहिया (स)। ५. जतो (ब), जुत्तो (स)। ६. उ(अ)। ७. आलोए (स)। ८. ठाएती (स)। ९. गिलाणे या वि न तप्पंति (आ, पडिव तप्पति (स)। १०. आगाढे वा अणागाढं (ब, स)। ११. णागाढि (अ)। १२. कुव्वंति (स)। १३. य नियंसंति (ब)। १४. ०भमादीएहिं (स)। १५. तहिं (ब), तथा य (स)।
१६. कढगाण (अ.स)। १७. सूदीरति (ब)। १८. वामण (स)। १९. भोयंति (ब), भोएंति (स)। २०. तातो (स)। २१. थणि (अ), थला (स)। २२. वावि (स)। २३. वेसत्थी (ब)। २४. काधीयत्तं (अ.स)। २५. कुव्वंति (ब)। २६. थडि (स)। २७. घोला य रुद्धा (अ)। २८. पसण्णगहणं (अ)। २९. समणीणं (ब)। ३०. संकाय (स)।
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________________
२९० ]
१.
२.
३.
४.
।
३०७३. सज्झायमुक्कजोगा, धम्मकधा विकह पेल्लणगिहीणं गिहीनिसेज्जं च बाहंति संथवं व करेंती उ ३०७४ एवं तु ताहि सिट्ठे', निक्खिवितव्वा उ ताउ कहियं तु दो वि संविग्गेमुं ̈, निक्खिवितव्वा भवे ताउ 11 ३०७५. संजत-संजतिवग्गे', संविग्गेक्केक्क' अहव दोहिं निक्खिवण होंति गुरुगा, अध पुण सुद्धे विमे दोसा तरुणा सिद्धपुत्तादि, पविसंति" नियल्लगाण १२ नीसाए । महयरिय१३ न वारेती, जे १४ वि य पडिसेवते १५ तहिं १६ किं च
तु I
॥
11
३०७६.
३०७७.
३०७८.
गुणसंपन्ना,
३०७९. संविग्गा भीयपरिसा २२,
३०८२.
पेसण० (स) ।
वायंती (स) ।
३०८१. एयारिसाय असती,
संथरं (ब)।
करेंति (ब)।
निक्खिवण तत्थ गुरुगा, अह पुण होज्जा हु सा समुज्जुत्ता७ । चरणगुणे
नियतं,
वियक्खणा
सीलसंपन्ना ॥
पडिच्छपणे १९,
समा सीस"
गणिणी
संगहे य विसारया
सज्झायझाणजुत्ता य, ३०८०. विगहा विसोत्तियादिहिं ३, वज्जिता जा य निच्चसो । २५ पासम्म निक्खिवे 11
एयग्गुणोववेया २४
५.
६.
७.
८.
९.
१०. दोसुं (स) ।
सट्टे (अ) ।
निक्खियव्व (ब)। संविग्गेसू (अ) ।
संजमव० (अ)।
संविग्ग एक्केक्के (अ) ।
चोदणासु पसज्झा २१
उग्गदंडा य
११. ० संत (स) ।
१२. नीय० (बस)।
१३. महरियाए (ब), ० यरिया (स) ।
१४. जति (अ) ।
१५. पडिसेवी (अ) ।
वाज्जाहि ततो सयं२६ 1 वाय इमा तत्थ, विधी २७ उ परिकित्तिया
11
माता भगिणी धूता, मेधावी उज्जुया य एतासिं असतीए, वाएज्जिमा २९
सेसा
अणालसा 1
पुरिसाणुगा ॥
कारणे ।
1
॥ दारं ॥
आणत्ती २८
"
२४. एयगुणो ० (ब)।
२५. तीय (स) ।
१६. छंद की दृष्टि से तहि पाठ अतिरिक्त है।
१७. ० समुज्जता (ब) ।
१८. णीस (अ) ।
१९. पडिच्छीणं (स) ।
२०. चोदणेसु (अ) ।
२१. पसिज्झ (स) अप्रसह्या (मवृ)।
1
मोत्तुं ॥
२२. भीयपुरिसा य (स) ।
२३. गाथा के प्रथम चरण में आर्याछंद है।
२६. सई (स)।
२७. स्त्रीत्वं गाथायां प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
२८. याणंती (ब)।
२९.
० ज्जिमं (ब)।
व्यवहार भाष्य
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सप्तम उद्देशक
[२९१
३०८३. तरुणिं पुराण भोइय', मेहुणियं पुबहसिय वभिचरियं ।
एतासु होंति दोसा, तम्हा उरे न वायए 'ते ऊ'३ ॥ ३०८४. वज्जकुड्डुसमं चित्तं, जदि होज्जाहि दोण्ह वी ।
तहा वि संकितों ोति, एयाओ वाययंत उ ॥ ३०८५. पुव्वं तु किढी' असतीय, मज्झिमा 'दोसरहित वाएती'६ ।
गणधर अण्णतरो वावि, परिणतो तस्स असतीए ॥ ३०८६. तरुणेसु सयं वाए, दोसन्नतरेण वावि जुत्तेसु ।
विधिणा तु इमेणं तू, दव्वादीएण उ जतंतो ॥ ३०८७. दवे खेत्ते काले, मंडलि दिट्ठी तथा पसंगो य ।
एतेसु जतणं वुच्छं, आणुपुव्वि समासतो ॥ ३०८८. जं खलु पुलागदव्वं, तविवरीतं दुवे वि भुंजंति ।
पुव्वुत्ता खलु दोसा, तत्थ निरोधे° निसग्गे य ॥ ३०८९. सुन्नघरे पच्छन्ने, उज्जाणे देउले सभारामे ।
उभयवसधिं च मोनुं, वाएज्ज असंकणिज्जेसु ॥ ३०९०. उभयनिए २ वतिणीय व, सण्णि अधाभद्द तह य धुवकम्मी ।
आसण्णेऽसति'३ अज्जाणुवस्सए अप्पणो वावि ॥दारं ।। ३०९१. जइ अत्थि वायणं दितो, अदाउं ताधि४ गच्छति ।
अध नत्थि ताहे दाऊणं, सुत्तइत्ताण५ पोरिसी ॥ ३०९२. अह अत्थइत्ता ६ होज्जाहि, तो जाति पढमाए तू ।
असती८ दोण्ह वी दाणे, इमा उ जतणा तहिं ॥ ३०९३. कडणंतरितो९ वाए , दीसंति जणेण२० दो वि जह वग्गा ।
बंधंति मंडलिं२१ ते उ, एक्कतो यावि२२ एक्कतो ॥
१. भोतिक (अ)। २. य ()। ३. ताउ (ब), ते तू (आ। ४. वि (ब)। ५. कढी (अ.स)।
दोसरहितो उ वायवी (अ)। ७. तु (अ)। ८. मंडल (ब) ९. गाथा के उत्तरार्ध में अनुष्टुप छंद का प्रयोग है। १०. निरोह (अ)। ११. ०ज्जा (ब)।
१२. ० निते (अ) ० निगे (स) । १३. आतिण्णा असति (अ), अतिण्णे असति (ब) । १४. ताधे (ब, स)। १५. ० इत्थाण (अ)। १६. अत्थअत्ता (स)। १७. होज्जा (ब)। १८. असतीय (अ, स) १९. कडिणं ० (अ)। २०. जणे (आ)। २१. मंडली (स)1 २२. वावि (ब)।
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२९२ ]
व्यवहार भाष्य
३०९४. लोगे वि पच्चओ खलु, वंदणमादीसु' होंति वीसत्था ।
दुग्गूढादी दोसा, विगारदोसारे य नो एवं ॥ ३०९५. चिलिमिलि छेदे ठायति', जह पासति दोण्ह वी पवाएंतो ।
दिट्ठी संबंधादी, इमे य तहियं न वाएज्जा ॥ ३०९६. संगार मेहुणादी य, जे याविधितिदुब्बला ।
अण्णेण वायते ते तु, निसिं वा पडिपुच्छणं ॥ ३०९७. असंतऽण्णे पवायंते, पढंति सव्वे तहिं अदोसिल्ला ।
अणिसण्णथेरिसहिया, थेरसहायो पवाएंतो ॥ ३०९८. जा दुब्बला होज्ज चिरं व झाओ, ताधे निसण्णा न य उच्चसद्दा ।
पलंबसंघाडि न उज्जला य, अणुण्णता वास तिरंजली१ य ॥ ३०९९. एतविहिविप्पमुक्को, संजतिवग्गं तु जो , पवाएज्जा ।
मज्जायातिक्कंतं, तमणायारं वियाणाहि ॥ ३१००. सज्झाओ खलु पगतो'२, वितिगिढे नो य कप्पति जधा उ ।
एमेव असज्झाए, तप्पडिवक्खे तु सज्झाओ ॥ ३१०१. असज्झायं३ च दुविधं, आतसमुत्थं च परसमुत्थं च ।
जं तत्थ४ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायव्वं५ ॥ ३१०२. संजमघाउप्पाते, सादिव्वे६ वुग्गहे य सारीरे ।
एतेसु करेमाणे, आणादि इमो तु दिलुतो१७ ॥ ३१०३. मेच्छभयघोसणनिवे८, दुग्गाणि अतीह मा विणिस्सिहिहा९ ।
फिडिता जे उ अतिगता, इतरे हियसेस२० निवदंडो२१ ॥
| admio Gi
१. ० मातीसु (ब)। २. धिक्कारदोसा (अ)। ३. ०मिणि (अ.स)।
ट्ठायति (स)। ५. पावति (स)।
वा (ब)।
दिट्ठ (ब)। ८. तहिं (अ)। ९. सविकारा (अ)। १०. ० थेरसहिया (ब)। ११. रितंजली (अ)। १२. x (ब)। १३. ०ज्झाइयं (स)।
१४. तं तु (अ, ब)। १५. निभा ६०७४, आवनि १३२३ । १६. सादेवे (अ)। १७. निभा (६०७५) एवं आवनि (१३२३) में गाथा का उत्तरार्ध इस
प्रकार है-घोसणय मेच्छरण्णो, कोइ छलिओ पमाएणं । १८. नृपेन गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। १९. ० स्सिहेहा (ब)। २०. हय ० (ब)। २१. निभा (६०७६) एवं आवनि (१३२४) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
मेच्छभयघोसणनिवे, हियसेसा ते उ डंडिया रण्णा । एवं दुहओ दंडो, सुरपच्छित्ते इह परे य ।।
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सप्तम उद्देशक
[ २९३
३१०४. राया इव तित्थगरो, जाणवया' साधु घोसणं सुत्तं ।
मेच्छो य असज्झाओ, स्तणधणाइं च नाणादी२ ॥ थोवावसेसपोरिसि, अज्झयणं वावि जो कुणइ सोउं३ ।
नाणादिसारहीणस्स, तस्स छलणा तु संसारे ॥ ३१०६. अहवा दिटुंतऽवरो', जध रण्णो 'केइ. पंच'६ पुरिसा उ ।
दुग्गादि परितोसितो, तेहि य राया अध कयाई ॥ ३१०७. तो देति तस्स राया, नगरम्मी इच्छियं पयारं तू ।
गहिते य देति मोल्लं, जणस्स आहारवत्थादी ॥ ३१०८. एगेण तोसिततरो, गिहमगिहे तस्स सव्वहिं वियरे ।
रत्थादीसु चउण्हं, ‘एविध ऽसज्झाइए उवमा १० ॥ ३१०९. पढमम्मि सव्वचेट्ठा, सज्झाओ वा निवारतो नियमा ।
सेसेसु असज्झाओ९, चेट्ठा न निवारिया २ अण्णा ॥ ३११०. महिया य भिन्नवासे, सच्चित्तरए य संजमे तिविधे ।
दब्वे खेते काले, • जहियं वा जच्चिरं सव्वं१३ ॥ ३१११. महिया तु४ गब्भमासे, वासे पुण होति तिन्नि उ पगारा ।
बुब्बुय तव्वज्ज फुसी, सच्चित्तरजो य आतंबो५ ॥ ३११२. दव्वे तं चिय दव्वं, खेत्ते 'जहियं तु१६ जच्चिरं काले ।
ठाणादिभासभावे, मोत्तुं उस्सासउम्मेसं१९ ॥ ३११३. वासत्ताणावरिता, णिक्कारण ठंति कज्जें जतणाए ।
हत्थच्छिगुलिसण्णा२९, पोत्तावरिता२१ व भासंति२२ ॥
जण ० (स)।
निभा ६०७७, आवनि १३२५ । ३. सोउ (स) सोच्चा (निभा ६०७८)। ४. साररहियस्स (आवनि १३२६)। ५. ० अवरो ()। ६. पंच केति (स)।
दुग्गाति (स)। ८. नगरम्मि (अ, ब)।
३१०६ -३१०७ इन दोनों गाथा के स्थान पर निभा ६०८० एवं आवनि १३२८ में निम्न गाथा मिलती है
दुग्गादि तोसियनिवो, पंचण्हं देइ इच्छियपयारं ।
गहिए य देति मुल्ल, जणस्स आहारवस्थादी ।। १०. एवं पढमं तु सव्वत्थ (निभा ६०८१, आवनि १३२९) । ११. सज्झाओ (स)। १२. वि वारिया (ब), चेव वारितो (स) ।
१३. निभा (६०७९) एवं आवनि (१३२७) में इस गाथा में
क्रमव्यत्यय है। १४. य (ब)। १५. निभा (६०८२) एवं आवभा (२१६) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
महिया तु गन्भमासे, सच्चित्तरयो तु ईसि आयंबो ।
वासे तिन्नि पगारा, बुब्बुय तव्वज्ज फुसिता य ।। १६. जहि पडति (निभा ६०८३)। १७. सच्चिरं (अ)। १८. ठाणभासादिभावे (निभा)। १९. ० उम्मेसु (अ)। २०. हत्थच्छंगु ० (आवनि १३३०), हत्थत्थंगु ० (स)। २१. पोत्तोवरिया (निभा ६०८४) । २२. सासंति (स)।
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२९४ ]
व्यवहार भाष्य
३११४. पंसू य मंसरुधिरे , केस-सिलावुट्टि' तह रउग्घाते ।
__ मंसरुधिरऽहोरत्त, अवसेसे जच्चिरं सुतं ॥ ३११५. पंसू अच्चित्तरजो, 'रयस्सलाओ दिसा रउग्घातो'३ ।
तत्थ सवाते निव्वातएं य सुत्तं परिहरंति ॥ ३११६. साभाविय तिण्णि दिणा, सुगिम्हए' निक्खिवंति जइ जोगं ।
तो तम्मि पडतम्मी', कुणंति संवच्छरज्झायं ॥दारं ।। ३११७. गंधव्वदिसाविज्जुक्क, गज्जिते जूव 'जक्खलिते य११ ।
एक्केक्कपोरिसी'२ गज्जितं तु दो पोरिसी३ हणति ॥ ३११८. गंधव्वनगरनियमा, सादिव्यं४ सेसगाणि भजिताणि५ ।
जेण न नज्जति फुडं६, तेण य७ तेसिं तु परिहारो८ ॥ ३११९. दिसिदाह९ छिन्नमूलो, उक्कसरेहा पगासजुत्ता वा ।
संझाछेदावरणो, उ जूवओ सुक्क दिण२० तिन्नि२१ ॥ ३१२०. केसिंचि होतऽमोहा, उ जूवओ 'ते य२२ होंति आइण्णा ।
जेसिं२३ तु अणाइण्णा, 'तेसिं खलु पोरिसी दोण्णि'२४ ॥ ३१२१. चंदिमसूरुवरागे२५, निग्घाते गुंजिते अहोरत्तं ।
चंदों जहण्णेणट्ठ उ, उक्कोसं पोरिसी बि छक्कं ॥ ३१२२. सूरो जहण्ण बारस, उक्कोसं पोरिसी उ सोलस उ ।
सग्गह२६ निव्वुड एवं, सूरादी जेणऽहोरत्ता२७ ॥
१. सिल वृद्धि (निभा ६०८५)। २. ० रुहिरे अहोरत्त (ब, आवनि १३३१) । ३. रयुग्घातो धूलिपडणसव्वत्तो (निभा ६०८६),
रयस्सलाउ दिसा० (ब)। सव्वायइ (अ)।. परिहवंति (स),आवनि १३३२ ।
उ गिम्हए (अ)। ७. पडते वी (निभा ६०८७), ० तम्मि (स) । ८. करंति (आवनि १३३३)। ९. विज्जुग (निभा ६०८८), विजंक्क (ब) । १०. जूय (ब)। ११. जक्ख आलित्ते (आवनि १३३४, निभा)। १२. पोरिसिं (अ)। १३. ० पोरसी (आवनि), • पोरिसं (स)। १४. सादेव्यं (अ)। १५. भतियाणि (ब)।
१६. फुडं तु (अ)। . १७. तु (अ, स)।
१८. यह गाथा निभा और आवनि में नहीं है। १९. ० दाहे (ब)। २०. दिणा (स)। २१. निभा ६०८९, आवनि १३३५ । २२. ताय (आवनि १३३६), ताव (निभा), ता उ(स)। २३. तेसि (अ)। २४. ० पोरिसी तिन्नी (ब), तेसिं दो पोरिसी हणति (निमा ६०९०)। २५. ० सूरवरागे ( आवनि (१३३७) और निभा (६०९१) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
संझा चउपाडिवए, जं जहि सुगिम्हए नियमा ।। २६. संगह (ब)। २७. ३१२२ वी गाथा के स्थान पर निभा (६०९२-६०९३), तथा
कुछ शब्दभेद के साथ आवनि (१३४२-१३४३) में निम्न गाथाएं मिलती है
उक्कोसेण दुवालस, अट्ठ जहण्णेण पोरिसी चंदे। सूरो जहण्ण बारस, पोरिसि उक्कोस दो अट्ठा । सग्गहणिव्वुड एवं, सूरादी जेण होतऽहोरत्ता। आइण्णं दिणमुक्के, सो चिय दिवसो य राई य॥
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सप्तम उद्देशक
[ २९५
३१२३. आइन्नं दिणमुक्के, 'सो चिय५ दिवसो य राती यर ।
निग्घात गुंजितेसुं, सा चिय वेला उ जा पत्ता ॥दारं ।। ३१२४. चउसंझासु न कीरति, पाडिवएसुं तधेव चउसु पि ।
जो तत्थ पुज्जती तू, सव्वहिं सुगिम्हओ नियमाः ॥दारं ॥ ३१२५. वुग्गहदंडियमादी', संखोभे दंडिए य कालगते ।
अणरायए य सभए, जच्चिर निद्दोच्चऽहोरत्तं ॥ ३१२६. 'सेणाहिवई भोइय, महयर" पुंसित्थिमल्लजुद्धे य ।
लोट्टादिभंडणे वा, 'गुज्झग उड्डाहमचियत्तं ॥ ३१२७. दंडियकालगयम्मी, जा संखोभो न कीरते ताव ।
तद्दिवस भोइ महयर, वाडगपति'२ सेज्जतरमादी३ ॥ ३१२८. पगतबहुपक्खिए वा, सत्तघरंतरमते व तद्दिवसं१४ ।
निढुक्खत्ति य गरहा५, न पढंति'६ सणीयगं वावि ॥ ३१२९. हत्थसयमणाहम्मी, जइ सारियमादि तू विगिंचेज्जा ।
तो सुद्धं अविविते, अन्नं वसहिं विमग्गंति१९ ॥ ३१३०. अण्णवसहीय असती, ताधे रत्ति वसभा विगिचंति ।
विक्खिण्णे व समंता, जं दिट्ठमसढेतरे सुद्धा दारं ॥ ३१३१. सारीरं पि य दुविधं, माणुसतेरिच्छिगं समासेणं ।
तेरिच्छं 'तत्थ तिहा'२९, जल-थल-'खहजं पुणो चउहा'२२ ॥
१. सो च्चिय (ब),सच्चिय (अ.स)। २. गाथा के पूर्वार्द्ध में २७ मात्राएं हैं। यह उत्तरार्ध होना चाहिए।
आवनि और निभा में भी यह उत्तरार्ध के रूप में मिलता है।
४. यह गाथा आवनि एवं निभा में नहीं हैं इसका सारांश निभा
(६०९१) तथा आवनि (१३३७) में आया हुआ है। ० डंडिय ० (स)।
आवनि १३४४, निभा ६०९४ । ७. सेणाहिव भोतिय महत्तर (ब)।
सेणाहिव भोइ महयर पुंसित्वीणं च मल्लजुद्धे वा (निभा ६०९५)।
गुज्झ उड्डाह० (आ. ० उड्डाह अचियत्तं (ब), आवनि १३४५ । १०. ० गयम्मि (स)। ११. महत्तर (अ)। १२. वागिमपति (अ)। १३ इस गाथा के स्थान पर निभा (६०९६), आवनि (१३४६) में
निम्न गाथा मिलती है
तद्दिवस भोयगादी, अंतो सत्तण्ह जाव सज्झाओ।
अणहस्स य हत्थसयं, दिट्ठिविवित्तम्मि सुद्धं तु ।। १४. गाथा का पूर्वार्ध निभा (६०९७) और आवनि (१३४७) में इस
प्रकार है-महयरपगते बहुपक्खिते व सत्तघरअंतरमते वा। १५. गरिहा (ब)। १६. करेंति (निभा)। १७. ० हम्मि (अ), . हम्मि (ब)। १८. अविगित्ते (ब)। १९. यह गाथा निभा और आवनि में नहीं है। २०. असुद्धा (स), इस गाथा के स्थान पर निभा (६०९८) एवं आवनि (१३४८) में निम्न गाथा मिलती है
सागारियादिकहणं, अणिच्छ रत्तिं वसभा विगिचंति ।
विविखण्णे व समंता, जं दिटुं सढेयरे सुद्धा । २१. पि य तिविहं (निभा ६०९९)। २२. खयरं चउद्धा तु (निभा), खहजं चउद्धा उ(आवनि १३४९)।
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व्यवहार भाष्य
३१३२. चम्मरुधिरं च मंसं, अटुिं' पि य होति चउविगप्पं तु ।
अहवा दव्वादीयं, चउव्विहं होति नायव्वं ॥ ३१३३. पंचिंदियाण दव्वे, खेत्तें सट्ठिहत्थर पोग्गलाइण्णं ।
तिकुरत्थ महंतेगा, नगरे बाहिं तु गामस्स ॥ ३१३४. काले 'तिपोरिसट्ठ व', भावे सुत्तं तु मंदिमादीयं ।
बहि धोय-रद्ध-पक्के, बूढे वा होति सुद्धं तु ॥ ३१३५. अंतो पुण सट्ठीणं, धोतम्मी अवयवा तहिं होति ।
तो तिणि पोरिसीओ, परिहरितव्वा तहिं होति ॥ ३१३६. महकाएऽहोरत्तं० मज्जारादीण मसगादिहते ।
अविभिन्ने भिन्ने वा, पढंति एगे जइ पलाति १ ॥ ३१३७. अंतो बहिं च भिन्नं१२, अंडगबिंदू तथा विजाताए१३ ।
रायपह बूढ सुद्धे , परवयणे४ साणमादीणि ॥ ३१३८. अंडगमुज्झितकप्पे, न य भूमि५ खणंति इहरहा१६ तिण्णि ।
असज्झाइयपमाणं, मच्छियपादा जहिं खुप्पे८ ॥दारं ॥ ३१३९. अजरायु तिण्णि पोरिसि, जराउगाणं जरे पडिय तिण्णि ।
निज्जंतुवस्स पुरतो, गलितं जदि निग्गलं२० होज्जा२१ ॥ ३१४०. रायपहे न गणिज्जति, अध पुण अण्णत्थ पोरिसी तिण्णि ।
अध पुण वूढं होज्जा, वासोदेणं ततो सुद्धं ॥
१. अस्थि (ब)। २. सट्ठ० (स)। ३. ० लाकिण्णे (ब)।
तिकुरच्छ (अ)।
निभा ६१०० ६. सि अट्ठेव (अ, स), • पोरिसिऽट्ठ व (अ)। ७. निभा (६१०१) एवं आवनि (१३५१) में इसका उत्तरार्ध इस
प्रकार है-सोणिय-मंसं चम्म, अट्ठी वि य होंति चत्तारि। धोयम्मि (अ, स)। इस गाथा के स्थान पर निभा (६१०२,६१०३) तथा कुछ शब्दभेद के साथ आवनि (१३५२, १३५३) में निम्न दो गाथाएं मिलती हैं
अंतो बहिं च धोतं, सट्ठीहत्थाण पोरिसी तिण्णि । महकाये अहोरतं, रद्धे वूढे य सुद्धं तु॥ बहिधोयरद्ध सुद्धो, अंतो धोयम्मि अवयवा होति ।
महकाए विरालादी, अविभिण्णं केइ णेच्छति ॥ १०. ० काए अहोरत्त (अ, स) । ११. निभा (६१०४) तथा आवभा (२१८) में यह गाथा कुछ अंतर के
साथ इस प्रकार मिलती है
मूसादिमहाकाय, मज्जारादी हताऽऽघयण केती ।
अविभिण्णे गेण्हेतुं, पढ़ति एगे जति पलाति ।। १२. भिण्णे (स)। १३. विआता य (स, निभा, आवनि, १३५४), वियायया (ब)। १४. ० वयणं (निभा ६१०५)। १५. भूमी (अ.स) । १६. इधरा (अ)। १७. ० पादाणं (ब)। १८. वुड्डे (निभा ६१०६), आवभा २१९ । १९. अजराउगतो (ब)। २०. निग्गहं (अपा), पोग्गलं (ब)। २१. निभा (६१०७) एवं कुछ अंतर के साथ आवभा (२२०) में
३१३८ एवं ३१३९ इन दो गाथाओं के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
अजराउ तिण्णि पोरिसि, जराउगाणं जरे चुते तिण्णि । रायपहबिंदुगलिते, कप्पति अण्णस्थ पुण वूढे ॥
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सप्तम उद्देशक
[ २९७
३१४१. चोदेति समुद्दिसिउं, साणो जदि पोग्गलं तु एज्जाही ।
उदरगतेणं चिट्ठति', जा ता चउहा असज्झाओ ॥ ३१४२. भण्णति जदि तेरे एवं, सज्झाओ एव तो उ नत्थि तुहं ।
असज्झाइयस्स जेण, पुण्णो सि तुमं सदाकाल ॥ ३१४३. जदि फुसति तहिं तुंडं', 'जदि वा'६ लेच्छारितेण संचिढे ।
इधरा न होति चोदग, वंतं वा परिणतं जम्हा ॥दारं ।। ३१४४. माणुस्सगं चउद्धा, अढेि मोत्तूण सयमहोरत्तं ।
परियावण्णविवण्णे, सेसे तिग 'सत्त अद्वैव ॥ ३१४५. रत्तुक्कडया' इत्थी, अट्ठ दिणा तेण सत सुक्कऽधिए ।
तिण्ह० दिणाण परेणं, अणोउगं तं महारत्तं१२ ॥ ३१४६. दंते दिट्ठ विगिचण३, सेसट्ठिग४ बारसेव वरिसाइं५ ।
झामित वूढे१६ सीताण, पाणमादीण रुद्दघरे'१७ ॥ ३१४७. सीताणे जं दडं, न तं तु मोत्तूणऽणाह८ निहताई ।
आडंबरे य रुदे, माइसु हेट्टट्ठिया वारा ९ ॥ ३१४८. असिवोमाघतणेसुं, बारस अविसोधितम्मि न करेंति ।
झामित-वूढे कीरति, आवासियसोधिते२० चेव२१ ॥ ३१४९. डहरग्गाममयम्मी२२, न करेंती जा न नीणितं होति ।
पुरगामे व महंते, वाडगसाहि२३. परिहरंति ॥ ३१५०. जदि तु उवस्सयपुरतो, नीणिज्जइ२४ तं मएल्लयं ताधे ।
हत्थसयं तो जाव उ, ताव उ न करेंति सज्झायं२५ ॥
१. चिट्ठति (स)। २. ति (ब)। ३. चेव (आ)। ४. यह गाथा निभा और आवनि नहीं है।
तोंड (अ, स)। जति व (आ), अहवा (आवभा २२१)।
संचिक्खे (निभा ६१०८)। ८. सत्तठेव (ब), निभा ६१०९, आवनि १३५५ । ९. रतुक्कु० (स), रतुक्कडा उ (आवनि), रत्तुक्कडाओ (निभा ६११०)। १०. तिन्नि (आवनि १३५६) । ११. वरेणं (ब)। १२. महासत्तं (स)। १३. चणं (स)। १४. सेसट्ठी (निभा, आवनि)।
१५. वासाइं (अ, स, आवनि)। १६. सुद्धे (निभा ६१११)। १७. पाणरुद्ध य मायहरे (आवनि १३५७), पाणमादी य ० (निभा)। १८. मोत्तुं अणाह (निभा ६११२) । १९. आवभा २२२। २०. ०.सित मग्गिते (निभा ६११४) । २१. णं च (ब), आवनि १३५९ । २२. डहरगगाममए वा (स, आवभा २२३), डहरगामम्मि मते
(निभा ६११५)। २३. वागड ० (अ), साही (निभा, आवभा)। २४. नीनेज्जइ ()। २५. ३१५० एवं ३१५१ ये दो गाथाएं निभा एवं आवनि में
अनुपलब्ध हैं।
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२९८ ]
व्यवहार भाष्य
३१५१. को वी' तत्थ भणेज्जा, पुष्फादी जा उ तत्थ परिसाडी२ ।
___ जा 'दीसंती ताव उ', न कीरए तत्थ सज्झाओ ॥ ३१५२. भण्णति 'मययं तु तहिं, निज्जंतं मोत्तु होतऽसज्झायं ।
जम्हा चउप्पगारं, सारीरमओ न वज्जेति ॥ ३१५३. एसो उ असज्झाओ, तव्वज्जिय झाओं तत्थिमा जतणा० ।
सज्झाइए वि कालं, कुणति अपेहित्तु १ चउलहुगा२ ॥ ३१५४. जइ नत्थि असज्झायं३, किं व निमित्तं तु घेप्पए कालो ।
तस्सेव जाणणट्ठा, भण्णति किं अस्थि नत्थि त्ति४ ॥ पंचविधमसज्झायस्स१५, जाणणट्ठाय पेहए कालं६ ।
काए विहीय पेहे, सामायारी इमा तत्थ ॥ ३१५६. चउभागऽवसेसाए, चरिमाए पोरिसीए उ ।
तओ तओ तु पेहेज्जा, उच्चारादीण७ भूमीओ८ ॥ ३१५७. अहियासियाय९ अंतो, आसन्ने 'चेव मज्झ दूरे य'२० ।
तिण्णेव अणहियासी२९, अंतो छच्छच्च२२ बाहिरओ ॥ ३१५८. एमेव य पासवणे, बारस चउवीसतिं तु पेहित्ता ।
कालस्स य तिन्नि भवे, अह सूरो अस्थमुवयाति२३ ॥ ३१५९. जदि२४ पुण निव्वाघात२५, 'आवस्सं तो २६ करेंति सव्वे वि ।
सड्डादिकहणवाघातयाय२७ पच्छा, गुरू ठंति२८ ॥
१८. ३१५५-५६ इन दोनों गाथाओं के स्थान पर आवनि (१३६२)
और निभा (६११८) में निम्न गाथा मिलती हैपंचविहमसज्झायस्स, जाणणट्ठाय पेहए कालं।
चरिमा चउभागऽवसेसियाए भूमि ततो पेहे ॥ ओनि (६३२) में यह गाथा इस प्रकार मिलती हैचउभागऽवसेसाए, चरिमाए पडिक्कमित्तु कालस्स ।
उच्चारे पासवणे, ठाणे चउवीसई पेहे ।। १९. अहियासियाइं (आवनि १३६३) । २०. मज्झ दूर तिण्णि भवे (निभा ६११९),
मझि तह य दूरे य (जोनि६३३)
पि (स)। २. परिसंढी (अ)। ३. दीसंति ता पुण (ब)। ४. कीरति (ब), कीरउ (स)।
ततियं तु (ब), न तयं तु (स)। ६. ० झाई (ब), होज्ज स० (स)। ७. तम्हा (अ)।
निभा (६११६) और आवनि (१३६०) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध
इस प्रकार है-णिज्जत मोत्तूणं, परवयणे पुष्फमादि पडिसेहो। ९. x (ब)। १०. मेरा (आवनि, निभा)। ११. सपेहेत्तु (स)। १२. आवनि (१३६१) और निभा (६११७) में इस गाथा का उत्तरार्ध
इस प्रकार है-कालपडिलेहणाए, गंडगमरुएण दिट्ठतो ।। १३. ० ज्झाई (स)। १४. यह गाथा आवनि और निभा में नहीं है। १५. ० विह असज्झा ० (अ.स)। १६. काले (ब)। १७. ०दीणि (ब)।
२१. ० यासिय (निभा)। २२. छ छच्च (अ)। २३. निभा ६१२०, आवनि १३६४, ओनि ६३४ । २४. अह (आवनि)। २५. ० घातो (स), गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (मवृ)। २६. आवासंतो (अ.स) २७. ० वाघाततो य (निभा)। २८. निभा ६१२१, आवनि १३६५ ओनि ६३५ ।
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[ २९९
सप्तम उद्देशक ३१६०. सेसा उ जधासत्ती', आपुच्छित्ताण ठंति सट्ठाणे ।
सुत्तत्थझरणहेउं२, आयरियठितम्मि देवसियं ॥ जो होज्ज उ असमत्थो, बालो वुड्डो ‘व रोगिओ वावि ।
‘सो आवस्सगजुत्तो', 'अच्छेज्जा निज्जरापेही'६ ॥ ३१६२. 'आवस्सय काऊणं", जिणोवदिटुं गुरूवदेसेणं ।
तिन्नि थुती पडिलेहा, कालस्स 'इमो विधी तत्थ ॥ ३१६३. दुविधो य होति कालो, वाघातिम एतरो य नायव्वो ।
वाघातों घंघसालाय, घट्टणं धम्मकहणं वा ॥ ३१६४. वाघाते ततिओ० सिं, दिज्जति तस्सेव ते११ निवेदंति ।
इहरा२ पुच्छंति दुवे, जोगं कालस्स काहामो१३ ॥ ३१६५. 'कितिकम्मे आपुच्छण"४, आवासिय खलिय पडिय वाघाए ।
इंदिय दिसा य तारा, वासमसज्झाइयं चेव५ ॥ ३१६६. कितिकम्मं कुणमाणो१६, आवत्तगमादियं७ तहिं वितहं ।
कुणति 'गुरूण व वितधं८, पडिच्छती तत्थ कालवधो ॥ ३१६७. एवं आवासा सेज्जमादि१९ वितहं खलिते ‘य पडिते य'२० ।
णिताण छीय जोती२९, व होज्ज२२ ताधे नियत्तेति२३ ॥ ३१६८. अह पुण निव्वाघातं, ताहे वच्चंति कालभूमिं तु ।
जदि तत्थ गोणमादी, संसप्पादीव तो२४ एंति२५ ॥
१. सत्ति (आवनि १३६६)। २. ०करणहेउं (ब, आवनि), सरणहेउं (निभा ६१२२) । ३. ओनि ६३६ ।
गिलाण परितंतो (निभा, ६१२३ आवनि, १३६७, ओनि ६३७) । ५. सो विकहाएँ विरहिओ (आवनि, निभा) सो आवासय ० (स)।
ठाएज्जा जा गुरू ठति (निभा)। आवासगं तु काउं (आवनि १३६८, ओनि ३३८), आवासग
कातूणं (स, निभा ६१२४) । ८. विधी इमो (ब, ओनि)। , ९. सडकहणं (स, निभा ६१२५, आवनि १३६९, ओनि ६३९)।। १०. तत्तिओ (अ)। ११. ति (अ)। १२. इयरे (आवनि १३७०)। १३. घेच्छामो (ब), निभा (६१२६) तथा ओनि (६४०) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
णिव्वाधाते दोण्णि , पुच्छंति उ काल घेच्छामो।
१४. आपुच्छण कितिकम्मे (निभा ६१२७, आवनि १३७१) । १५. ओनि ६४१। १६. कुणइमाणो (अ) १७. आवासगमा० (अ.स)। १८. गुरु वि अवितहा (ब)। १९. ० मादी (अ)। २०. पडिलेहा (स)। २१. जोए (ब)। २२. होज्जा (अ)। २३. निव्वत्तेंता (स)। २४. ततो (स)। २५. ३१६६-६८ तक की तीन गाथाओं के स्थान पर आवनि
(१३७२) निभा (६१२८) तथा ओनि (६४२) में कुछ शब्दभेद के साथ निम्न गाथा मिलती है
जदि पुण गच्छंताणं, छीयं जोइं ततो नियत्तेंति । निव्वाघाते दोन्नि उ, अच्छंति दिसा णिरिक्खंता॥
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३०० ]
व्यवहार भाष्य
३१६९. एमादिदोसरहिते, संडासादी पमज्जिउ निविट्ठो ।
अच्छंति निलिच्छंतो, दो दो तु दिसा 'दुयग्गा वि ॥ ३१७०. सज्झायमचिंतेंता, कविहसिते विज्जु गज्जि उक्का वारे ।
कणगम्मि य कालवधो, दिढेऽदिढे इमा मेरा ॥ ३१७१. कालो संझा य तधा, दो वि समप्येति जध समं चेव ।
तध तं तुलेंति कालं, चरमदिसं' वा असज्झायं ॥ ३१७२. नाऊण कालवेलं, ताधे उट्ठेउ दंडधारी । उ ।
गंतूण निवेदेती", बहुवेला 'अप्पसदं ति" ॥ ३१७३. ताधे उवउत्तेहिं, उ अप्पसद्देहि तत्थ होयव्वं० ।
जदि न सुयत्थ केहि११ वि, दिलुतो गंडएण तहिं ॥ ३१७४. जध२ गंडगमुग्घुटे, बहूहि असुतम्मि गंडए दंडो ।
अह थोवेहिं न सुतं१३, निवयति४ तेसिं ततो दंडो ॥ ३१७५. एविध५ वी दट्ठव्वं, दंडधरो होति दंडों तेसिं च ।
आवेदेउं गच्छति, तमेव ठाणं१६ तु दंडधरो ॥ ३१७६. ताहे१७ कालग्गाही, उठेति गुणेहिमेहि जुत्तो तु ।
पियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो वज्जभीरू य ॥ ३१७७. खेयण्णो य अभीरू, एरिसओ सो उ कालगाही तु ।
उठेति८ गुरुसगासं, ताधे विणएण, सो एति ॥ ३१७८. तिण्णि य निसीहियाओ, नमणुस्सग्गो९ य पंचमंगलए ।
कितिकम्मं तह चेव य, काउं कालं तु पडियरती२० ॥
दुसग्गादि (अ), तुयग्गाती (स) । या (ब), य (स)। यमा (ब)। इस गाथा के स्थान पर निभा (६१२९), आवनि (१३७३) में कुछ अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती है
सज्झायमचिंतेता, कणगं दद्दूण पडिनियत्तेति ।
पत्ते य दंडधारी, मा बोलं गंडए उवमा ।। इसके बाद निभा एवं आवनि में दो अतिरिक्त गाथाएं और मिलती हैं।
०दिसि (निभा ६१३२)। ६. चरिमं च दिसं अस ० (आवनि १३७६), ओनि ६४६ । ७. निवेयंती (ब)।
० सद्द त्ति (ब), ० सदं ती (अ, स)। ९. मप्प ० (ब)।
१०. दायव्वं (स)। ११. कहिं (स)। १२. अह (स)। १३. सुयम्मि (ब)। १४. वयति (ब)। १५. एविधा (स)। १६. थाणं (अ)। १७. तीसे (आ। १८. उट्टेउ (स)। १९. नमणुस्सेधो (ब)। २०. निभा (६१३४) एवं आवनि (१३७८) में इसकी संवादी गाथा
इस प्रकार मिलती है
णिसीहिया णमोक्कारे, काउस्सग्गे य पंचमंगलए। कितिकम्म च करेत्ता, बितिओ कालं च पडियरती ।।
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सप्तम उद्देशक
[ ३०१
३१७९. थोवावसेसियाए, संझाए ठाति उत्तराहुत्तो ।
दंडधरो पुवमुहो, ठायति' दंडंतरा काउं ॥ ३१८०. गहणनिमित्तुस्सग्गं, अट्ठस्सासे . य चिंतितुस्सारे ।
चउवीसग दुमपुफिय, पुब्विगः ‘एक्केक्क य दिसाए ॥ ३१८१. बिंदू य छीयऽपरिणय, 'भय-रोमंचेव होतिर्फ कालवधो ।
भासंत- मूढ संकिय, इंदियविसए य अमणुण्णो ॥ ३१८२. गिण्हंतस्स उ कालं, जदि बिंदू तत्थ १ कोइ निवडेज्जा'२ ।
छीयं व परिणतो वा, भावो होज्जा सि अन्नत्तो ॥ ३१८३. भीतो बिभीसियाए भासंतो वावि गेण्ह१३ न विसुज्झे ।
मूढो व दिसज्झयणे, संकितं वावि उवघातो ॥ ३१८४. अन्नं व४ दिसज्झयणं५, संकेतो होज्जऽणिट्ठविसए वा ।
इढेसु वा विरागं, जदि वच्चति तो हतो५६ कालो ॥ ३१८५. जदि उत्तरं अपेहिय, गिण्हति सेसा उ१७ ता हतो कालो ।
तीसु अदीसंतीसु, वि, तारासु भवे जहण्णेणं१८ ॥ ३१८६. वासं च निवडति जई१९, अहव असज्झाइयं२° व निवडेज्जा२१ ।
एमादीहि न सुज्झे, तव्विरहम्मी२२ भवे सुद्धा२३ ॥ ३१८७. गहितम्मी२४ कालम्मी, दंडधरो अच्छती तहिं चेव ।
इयरो पुण आगच्छति, जतणाए पुव्वभणिताए ॥
१. ठाति (ब)। २. चितउस्सासे (अ, म)। ३. पुन्वय (आ)। ४. एक्केक्किय (स)।
निभा (६१३५), आवनि (१३७९) और ओनि (६५०) में ३१७९ एवं ३१८० इन दोनों गाथाओं के स्थान पर निम्न गाथा मिलती
थोवावसेसियाए, संझाए ठाति उत्तराहुत्तो।
चउवीसग दुमपुप्फियं, पुव्वग एक्केक्कय दिसाए । ६. होंति (ब)। ७. सगणे वा संकिए भवे तिण्हं (आवनि१३८०, निभा ६१३६) । ८. भावंत (अ)। ९. ओनि (६५१) में यह गाथा इस प्रकार है
भासत मूढ संकिय, इंदियविसए य होइ अमणुण्णे।
बिंदू य छीयऽपरिणय, सगणे वा संकियं तिण्हं ।। १०. काले (स)। ११. तो य (स)।
१२. निवदेज्जा (अ, स)। १३. गिण्ह (अ)। १४. वा (अ)। १५. ० ज्झयणो (स)। १६. ताधे तो (स)। १७. व (स)। १८. ३१८४ एवं ३१८५ इन दो गाथाओं के स्थान पर निभा (६१३७) एवं आवनि (१३८१) में निम्न गाथा मिलती है
मूढो य दिसज्झयणे, भासंतो वावि गेण्हति न सुज्झे।
अण्णं च दिसज्झयणं, संकतोऽणिट्ठविसए वा ॥ १९. जती (ब)। २०. सज्झा ० (अ)। २१. निवड्डेज्जा (अ)। २२. ०म्मि य (ब) विरहितम्मि (स)। .. २३. सुज्झे (स)। २४. ० तम्मि य (स)।
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३०२ 1
व्यवहार भाष्य
३१८८. जो गच्छंतम्मि' विही, आगच्छंतम्मि होति सच्चेवरे ।
जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ ३१८९. 'अकरण निसीहियादी, आवडणादी य होति जोतिक्खे'३ ।
'अपमज्जिते य भीते, छीते छिन्ने य कालवधो' ॥ ३१९०. इरियावहिया हत्थंतरे वि, 'मंगलनिवेदणा समयं'६ ।
सव्वेहि वि पट्ठविते, पच्छाकरणं अकरणं वा ॥ ३१९१. सन्निहिताण वडारो, पट्ठविते पमादिणो दए कालं ।
'बाहि ठिते" पडियरए, 'पविसति ताधे य दंडधरो"० ॥ ३१९२. पट्ठवित 'वंदिते वा, ताहे पुच्छंति११ किं५२ सुतं भंते ।
. ते वि य कधेति सव्वं, जं जेण सुतं व दिटुं वा३ ॥ ३१९३. एगस्स दोण्ह वा संकितम्मि कीरति ४ न कीरते५ तिण्हं ।
सगणम्मि संकिते ‘परगणं तु५६ गंतु न पुच्छंति८ ॥ ३१९४. पादोसितो अभिहितो१९, इदाणि सामन्नतो तु वोच्छामि ।
कालचउक्कस्स वि तू, उवधायविधी उ२° जो जस्स२२ ॥ ३१९५. इंदियमाउत्ताणं२२, हणंति कणगा उ सत्त२३ उक्कोसं ।
वासासु य तिन्नि दिसा, उडुबद्धे तारगा तिन्नि२४ ॥ ३१९६. कणगा हणंति कालं, ति पंच सत्तेव घि-सिसिरवासे२५ ।
उक्का उ सरेहागा, रेहारहितो भवे कणगो'२६ ॥
१. वच्चंतम्मि (निभा ६१३८, ओनि ६५२)। २. स चेव (स)। ३. आवस्सिया निसीहियादी आवडणादि य होति जोतिक्खे (निभा
६१३९), निसीहिया नमुक्कार, आसज्जावड-पडण जोइक्खे
(ओनि ६५३)। ४. अपमज्जियभीए व (ओनि)।
निभा ६१३९ । ० दणं दारे (निभा ६१४१) ० यणा दारे (आवनि १३८३), ओनि (६५४) में इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
आगम इरियावहिया, मंगल आवेयणं तु मरुनायं । ७. x(अ)। ८. पमायणो (ओनि)। ९. बाहिट्टिते (निभा ६१४२, आवनि १३८४)। १०. विसई ताए वि दंडधरो (ओनि ६५५) ११. पुच्छेइ (ओनि ६५६)। १२. वंदिते ताहे पुच्छति केण किं ((),निभा, ६१४३ । १३. आवनि १३८५।
१४. कारति (ब)। १५. कीरवी (आवनि १३८६), कीरई (निभा ६१४४) । १६. • गणम्मि (ब)। १७. गंतू (ब)। १८. ओनि ६५७। १९. अभिहतो ()। २०. य (ब)। २१. निभा (६१४५) ओनि (६५८) आवनि (१३८७) में इसकी
संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है
कालचउक्के जाणत्तगं तु, पाओसियम्मि सव्वे वि।
समयं पट्टवयंती, सेसेसु समं च विसमं वा ।। २२. ० मापुताणं (आ)। २३. तिण्णि (निभा ६१४६, आवनि १३८८)। २४. ओनि ६५९ । २५. गिम्हि सिसिर ० (आवनि १३८९) ओभा ३१० । २६. पगासजुत्ता व णायव्वा (निभा ६१४७)।
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सप्तम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
11
1
11
||
३१९७. वासासु' पाभातिए, तिण्णि दिसा जइ पगासजुत्ता सेसेसु तिसु वि चउरो, उडुम्मि चउरो चउदिसिं पि ३ १९८. तिसु तिन्नि तारगाओ, उडुम्मि पाभातिए अदिट्ठे वि वासासु 'अतारगा उ३, चउसे छण्णे निविट्ठो वि ठाणाऽसति बिंदूसु वि, गण्हति विट्ठो वि पच्छिमं कालं पडियरति बहिं एक्को, 'एक्को अंतद्वितो गेहे " ३२०० पादोसियऽडरते, उत्तरदिसि' पुव्व पेहए वेरत्तियम्मि भयणा, पुव्वदिसा पच्छिमे कालचउक्कं उक्कोसेण जहणणेण तिगं तु बितियपदम्मि दुगं तू, माइट्ठाणा विमुक्का १९ ॥ ३२०२. पादोसिएण १२ सव्वे, पढमं पोरिसि करेंति सज्झायं 1 ताधे उ सुत्तइत्ता, सुवंति जग्गंति वसभा उ 11 फिडितम्मि अद्धरत्ते १३, कालं१४ घेत्तुं सुवंति जागरिता । ताहे गुरू गुणंती २५, चउत्थ सव्वे गुरू सुवति१६ 11 ३२०४. एवं तु होंति चउरो, कह पुण होज्जाहि तिणि काला तु । पादोसियम्मि पढिते, गहितम्मी १७ अड्ड १८
बोधव्वं
1
३१९९.
३२०१.
३२०३.
३२०५. जदि वेरत्ति न सुज्झे, ताधे तेणेव पढिउं २० पाभाईयं २१, गिण्हंती होंति ३२०६. अहवा२३ पढमे सुद्धे, बितियअसुद्धम्मि होंति पादोसिय वेरत्तिय २५ अतिउवयोगा
वासासु (स) ।
गाथा का पूर्वार्द्ध निभा (६१४८), आवनि (१३९०) एवं ओभा
(३११) में इस प्रकार है
वासासु य तिन्नि दिसा, हवंति पाभाइयम्मि कालम्मि ।
अतरागा (स, निभा ६१४९, आवनि १३९१) ।
ति स, ओभा (३१२) ।
ठाणास (आवनि १३९२, ओनि ६६१) ।
य (आवनि) व (निभा ६१५० ) ।
५.
६.
७.
८.
९.
० दिसा (अ)।
१०. निभा ६१५१, ओनि ६६२, आवनि १३९३ ।
११. निभा ६१५२, आवनि १३९४ । १२. पाउसि ० (अ)।
बाहि (ब)।
मेहति अंतठिओ एक्को (निभा) ।
कालं
काले १०
उरे
१३. अड्ढ ० (स) ।
१४.
काले (अ) ।
1
१५.
१६.
१७.
१८. उ ( अ, स) ।
१९. ० रत्तीण (ब) ।
२०. पढियं (ब) ।
२१. पाभातियं (ब) ।
२२. तिण्णे व (ब)।
1
1
अड्डूरत्तीण९९ । तिण्णेते २२
11
||
तिष्णेवं२४ । भवे दोन्नि २६
॥1
11
गुणेंती (अ, ब ।
निभा ६१५३, आवनि १३९५ ।
० तम्मि य (स) ।
२३. अधव्वा (ब) ।
२४. तिण्णे वा (अस) ।
२५. वेरित्तिय (ब) ।
२६. दोन्निं वी (अ), दोण्णी (स), आवनि १३९७ ।
[ ३०३
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३०४ ]
व्यवहार भाष्य
३२०७. अधवा वि' अद्धरत्ते, गहिए वेरत्तिए असुद्धम्मि ।
तेणेव य पढितम्मी, पाभातियऽसुद्ध दोण्णेव ॥ ३२०८. नवकालवेलसेसे, 'उवग्गहित अट्ठया पडिक्कमते ।
न पडिक्कमते वेगो, - नववारहते असज्झाओ" ॥ ३२०९. एक्केक्क तिन्नि वारे, छीयादि हतम्मि गेण्हती. कालं ।
___ गेहऽसती एक्को वि हु०, नववारे गेण्हती ताधे११ ॥ ३२१०: पाभातियम्मि काले, संचिक्खे२ तिण्णि छीतरुण्णेसु१३ ।
चोदेतऽणि?'४ सद्दे, जदि होती कालघातो तु५ ॥ ३२११. एवं बारसवरिसे, खरसद्देणं तु. हम्मती कालो ।
भण्णति१६ माणुसऽणिढे, तिरियाणं तू पहारम्मि ॥ ३२१२. 'पावासि जाइया ऊ१७. जदि रोविज्जाहि कालवेलम्मि ।
ताधे घेप्पयऽणागत, अध१८. पुण रोवे१९ पगे चेव ॥ ३२१३. ताधे तु पण्णविज्जति, अध अन्न ठिया जया न ‘वा एक्का'२१ ।
ताधे उग्घाडेज्जति, अध पुण बालं रुवेज्जासि२२ ॥ ३२१४. वीसरसरं२३ रुवंते२४, अव्वत्तगडिंभगम्मि२५ मा गिण्हे ।
अप्पेण. वि. विरसेणं, महल्लचेडं - तु उवहणती२६ ॥ ३२१५. गोसे य पट्ठवेंते२७, छीते छीते तु तिन्नि वारा उ ।
आइण्ण पिसिय महियादि पेहणट्ठा , दिसा पेहे२८ ॥
.
१. x (ब)। २. ० तम्मि (स)।
दोण्णे वा (ब)। ४. उग्गहितट्ठिता (अ), • हितट्ठया (स)। . ५. मई (ब)।
एगो (अ) निभा ६१५६ ।
छीता वि (अ) ९. गेण्हए (ब)। १०. उ (स)। ११. निभा ६१५७। १२. गाथायां तु सप्तमी द्वितीयार्थे (मवृ) । १३. छीत भिन्नेसु (ब)। १४. चोएऽणिट्ठ (ब), चोदेति णिट्ठ (स)।
१५. आवनि १३९८, निभा ६१५५ । १६. भण्णेति (ब)। १७. पावासियं तु जाति तु (ब), जाइयाई (स) । १८. अह (अ) १९. रोए (अ), रोधे (स)। २०. जहा (ब)। २१. ठाएज्जा (अ, ब)। २२. भवेज्जासि (अ), ज्जासी (ब)। २३. वीसरसद्द (निभा)। २४. भवंत (ब)। २५. ० डिब्भग ० (अ)। २६. निभा ६१५९1 २७. पट्टवेति (ब)। २८. पेहा (ब) निभा ६१६०।।
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सप्तम उद्देशक
[३०५
३२१६. सेज्जातर-सेज्जादिसु, छारादिट्ठायरे विसिउ पेहेंति ।
तिण्हः परेणऽण्णत्थ उ, तत्थ जई' तिण्णिवारा उ ॥ ३२१७. ताधे पुणो वि अण्णत्थ, गंतुं तत्थ वि य तिन्नि वारा तु ।
एवं नववारहते, ताधे पढमाएँ न पढंति ॥ ३२१८. पट्ठवितम्मि सिलोगे, घाणालोगा य वज्जणिज्जा उ ।
सोणिययचिरिक्काणं', मुत्तपुरीसाण तह चेव ॥ ३२१९. आलोगम्मि चिलिमिणी, गंधे अन्नत्थ गंतु १ पगरेंति१२ ।
एसो तू सज्झाओ, तब्विवरीतो असज्झाओ३ ॥ ३२२०. एतेसामण्णतरे, असज्झाए।४ जो करेति५ सज्झायं ।
सो . आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे'६ ॥नि. ४२० ।। ३२२१. बितियागाढे सागारियादि कालगत असति७ वुच्छेदे ।
एतेहि . कारणेहि, जतणाए कप्पती काउं ॥ ३२२२. अच्चाउलाण निच्चोउलाण१८ मा होज्ज निच्चऽसज्झाओ ।
अरिसा९ भगंदलादिसु, इति वायण सुत्तसंबंधो२१ ॥ ३२२३. आतसमुत्थमसज्झाइयं तु एगविध होति दुविधं वा ।
एगविहं समणाणं, दुविधं पुण होति समणीणं२२ ॥ ३२२४. धोतम्मि य२३ निप्पगले, बंधा तिण्णेव होंति उक्कोसा२४ ।
परिगलमाणे जतणा, दुविहम्मि य होति कायव्वा२५ ॥ ३२२५. समणो तु 'वणे व २६ भगंदले व'२ बंधेक्कगा उ वाएति'२८ ।
__ तह वि गलते छारं, छोढुं२९ 'दो तिण्णि'३० 'बंधा उ'३१ ॥
E
पढात
१. ०ज्जातीसु (ब)। २. छारादट्ठाय (अ)।
पेहेति (अ)। ४. तिण्णि ()।
वि त्ति (अ, स)।
पढेति (ब)। ७. उ(स)। ८. सोणियवच्चिक्काण (अ.स)।
निभा (६१६१) और आवनि (१४००) में इसकी संवादी गाथा निम्न प्रकार से मिलती है
पट्ठवितम्मि मिलोगे, छीए पडिलेह तिन्नि अण्णत्थ ।
सोणियमुत्तपुरीसे, घाणालोग परिहरेज्जा ।। १०. वि चिलिमिणि (अ), ० मिली (निभा)। ११. तं तु (अ,स)। १२. पकरेंति (ब)। १३. निभा (६१६२) एवं आवनि (१४०१) में इसका उत्तरार्ध इस
प्रकार है-वाघाइमकालम्मी, गंडगमरुगा नवरि नस्थि ।।
१४. असज्झाते (निभा)। १५. करेंति (ब)। १६. निभा ६१६३, आवनि १४०२। । १७. अहव (निभा ६१६४)। .... १८. निच्चोउल्लाण (ब)। १९. अदिसा (निभा)। २०. ० दरादिसु (मु)! २१. निभा ६१६५। . २२. निभा ६१६६, आवनि १४०३ । २३. उ(आवनि १४०४)। २४. ० कोस (आवनि)। २५. निभा ६१६७ । २६, वणिव्व (आवनि १४०५) । २७. भंगदरिव्व (आवनि), ० दलेवं (ब)।। २८. बंधं करित्तु वाएति (आवनि) । २९. दाउं (आवनि, निभा ६१६८)। ३०. इति दोण्णि (स)। ३१. वा बंधे (निभा)।
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३०६ ]
व्यबहार भाष्य
३२२८.
३२२६. जाधे तिन्नि विभिन्ना, ताधे हत्थसय बाहिरा धोउं ।
बंधितु पुणो वि वाए, गंतुं अण्णत्थ व पढंति २ ॥ ३२२७. एमेव य समणीणं, वणम्मि इतरम्मि सत्तबंधा उ ।
तध वि य अठायमाणो, धोऊण अहव अन्नत्य ॥ एतेसामण्णतरे, असज्झाएँ अप्पणो 'उ सज्झायं'६ ।
जो कुणति अजयणाए, सो पावति आणमादीणि ॥नि. ४२१ ॥ ३२२९. सुतनाणम्मि अभत्ती', लोगविरुद्धं पमत्तछलणा य ।
विज्जासाहण वइगुण्णधम्मयाए य मा कुणसु० ॥ ३२३०. चोदेती जदि एवं, सोणियमादीहि होतऽसज्झाओ ।
तो भरितो च्चिय देहो, एतेसिं१२ किह णु कायव्वं ॥ ३२३१. 'कामं भरितो तेसिं०३, दंतादी अवजुया तध विवज्जा ।
'अणवजुता उ अवज्जा, लोए तह उत्तरे चेव५ ॥ ३२३२. अभितरमललित्तो६ वि कुणति 'देवाण अच्चणं "लोए ।
बाहिरमललित्तो पुण, ण कुणति अवणेति१८ च ततो णं१९ ॥ ३२३३. आउट्टियावराहं, सन्निहिता न खमए जधा पडिमा ।
इय परलोमे दंडो, पमत्तछलणा 'इह सिया उ'२० ॥ ३२३४. 'रागा दोसा मोहा'२१, असज्झाएँ जो करेति२२ सज्झायं ।
आसायणा व२३ का से, को वा भणितो अणायारो२४ ॥नि. ४२२ ।। ३२३५. गणिसद्दमादिमहितो, रागे दोसम्मि न सहते२५ सदं ।
सव्वमसज्झायमयं, एमादी होति मोहो तु ॥
२. निशीथ चूर्णि में इस गाथा का भाव ६१६८ वाली गाथा में
मिलता है किन्तु गाथा नहीं मिलती है।
४. घोएउं (आवनि १४०६)।
निभा ६१६९। असज्झायं (स)।
ऊणति (ब)। ८. निभा ६१७०,आवनि १४०७। ९. य भत्ती (निभा)। १०. निभा ६१७१, आवनि १४०८ । ११. वेदेति (अ), चोदेति (स)। १२. एतेहिं (स)। १३. कामं देहावयवा (निभा, आवनि)।
१४. अणवज्जुया न वज्जा (आवनि) उन वज्जा (निभा)। १५. तु. निभा ६१७२, आवनि १४०९ । १६. अब्भंतर ० (अ निभा ६१७३)। १७. देवाणमच्चणं (अ)। १८. अवणाति (स)। १९. आवनि १४१०। २०. य इति आणा (निभा ६१७४), आवनि १४११ । २१. रागेण व दोसेण व (आवनि १४१२) । २२. करेज (निभा)। २३. तु (निभा)। २४. निभा ६१७५ । २५. सहती (निभा ६१७६), आवनि १४१३ । ३२३३-३५ तक की
तीन गाथाएं ब प्रति में नहीं है।
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सप्तम उद्देशक
[ ३०७
३२३६. उम्मायं च लभेज्जा, रोगातंकं च पाउणे दीहं ।
तित्थगरभासिताओ, 'भस्सति सो संजमातो वा'२ ॥ ३२३७. इहलोए फलमेयं, परलोएँ फलं न देंति विज्जाओ ।
आसायणा सुतस्स उ, कुव्वति दीहं च संसारं ॥दारं ॥ ३२३८. नाणायार विराहितों, दंसणायार तहा चरित्तं च ।
चरणविराधणताए, मोक्खाभावो मुणेयव्वो ॥नि. ४२३ ॥ ३२३९. बितियागाढे सागारियादि कालगत असति वुच्छेदे ।
एतेहि कारणेहिं, 'जतणाए कप्पती काउं'१० ॥ ३२४०. संगहमादीणट्ठाय, वायणं देति अन्नमन्नस्स ।
अयमवि य संगहो च्चिय, दुविधदिसा सुत्तसंबंधो ॥ ३२४१. ततियम्मि उ उद्देसे, दिसासु जो गणधरो समक्खातो ।
सो चेव य होति इहं, परियाओ वण्णितो नवरं ॥ ३२४२. तेवरिस१२ तीसियाए'३, जम्मण चत्ताय कप्पति उवज्झो४ ।
बितियाय सट्ठि-सतरी, य जम्म पणवास आयरिओ ॥ ३२४३. गीताऽगीता'५ 'वुड्डा, अवूड्डा'१६ व जाव तीसपरियागा ।
अरिहति७ तिसंगहं सा, दुसंगहं वा भयपरेणं ॥ ३२४४. वयपरिणता य८ गीता९, बहुपरिवारा य निव्वियारा य ।
होज्जउ अणुवज्झाया, अपवत्तिणि२० यावि२१ जा सट्ठी ॥ ३२४५. एमेव अणायरिया, थेरी गणिणी व होज्ज इतरा२२ य ।
कालगतो सण्णाय२३ व, दिसाएँ धारेंति पुव्वदिसं ॥ ३२४६. बहुपच्चवाय अज्जा२४, नियमा पुणऽसंगहे य परिभूता ।
संगहिता पुण अज्जा, थिरथावरसंजमा होति ॥
१. व (आवनि १४१४)। २ खिप्पं धम्माओ भसेज्जा (निभा ६१७७)। ३. य (स, निभा ६१७८) । ४. व (ब), तु (अ, स, निभा)। ५. आवनि १४१५ । ६. यादि तं (अ)। ७. सति (अ)। ८. वुच्छेउ (ब)। ९. एतेसि (अपा)। १०. कप्पति जयणाए काउंजे (निभा ६१७९) । ११. ० णट्ठा तु (अ.स), णट्ठा (ब)। १२. रिसा (स)।
१३. वीरियाए (अ)। १४. उवज्झा (ब)। १५. गीतमगीया (ब)। १६. वुड्डिमवुड्डि (ब, स)। १७. अरहति (स)। १८. तु (अ, स)। १९. गीयत्थे (अ)। २०. पवित्तिणी (ब)। २१. वावि (अ)। २२. इयरी (अ, स)। २३. सण्णाइ (ब)। २४. अज्जा उ(ब)।
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३०८ ]
व्यवहार भाष्य
३२४७. पेसी अइयादीया', जे पुव्वमुदाहडा अवाया उ ।
ते सव्वे वत्तव्वा, दुसंगहं वणियंतेणं ॥ ३२४८. __ अजायविउलखंधा, लता वातेण कंपते ।
जले वाऽबंधणा णावा, उवमा एसऽसंगहे ॥ ३२४९. दिटुंतो गुब्विणीएँ, कप्पट्ठगबोधिएहिरे कायव्वो ।
गब्भत्थे रक्खंती, सामत्थं खुड्डए अगडे ॥ ३२५०. सगोत्तरायमादीसु, गब्भत्थो वि धणं सुतो ।
रक्खते मायरं चेव, किमुतो जाय वड्डितो ॥ ३२५१. वणिय मएँ रायसिट्टे, गन्भिणि धणमत्थि तो पसूताए ।
सव्वं सुतस्स दाहं, 'धूयाए भत्त वीवाहं ॥ ३२५२. लोउत्तरिए अज्जा, खुड्डगबोहिहरणी पसरणीयं ।
चोरोतरणं कूवे, सामत्थण वारणा लेलैं ॥ ३२५३. अतिरेगट्ठर उवट्ठा, सट्ठीपरियाय सत्तरी जम्म ।
जरपागं माणुस्सं, पडणं एक्कस्स संबंधो ॥ ३२५४. तं चेव पुव्वभणितं, सुत्तनिवातो उ पंथ गामे वा० ।।
गामे एगमणेगा, बहू व एमेव पंथे वि१ ॥नि. ४२४ ॥ ३२५५. एगो एगो चेव तु , दुप्पभिति अणेग सत्त बहुगा वा ।
कालगत गाम पंथे, वा जाणग उज्झणविधीए ॥नि. ४२५ ।। ३२५६. चउरो वहति एगो, कुसादि रक्खति उवस्सयं एगो ।
एगो य समुग्घातो, इति सत्तण्हं अधाकप्पो ॥ ३२५७. सत्तण्हं हे?णं, अविधी तु न कप्पती२ विहरिउं जे१३ ।
एगाणियस्स४ अविही, उ अच्छिउं गच्छिउं वावि ॥ ३२५८. णेगाण विधिं वोच्छं, नातमनाते व५ पुव्वखेत्तम्मि ।
दिसि६ थंडिल झामित बिंबमादि तीसुं पदेसेसु ॥
१. अतिया ०(अ)। २. ० ठगपोविएहि (अ)। ३. गभंते (ब)।
किमुता (ब)।
गम्भिणी (स)। ६. उ(ब), तू (अ.स)। ७. धूयाउ अभत्त वेवाहं (अ), धुतुअ भत्त वेवाहं (स)। ८. बोहिहरणं (ब)।
९. ० रेगट्ठा (अ)। १०. वी (स)। ११. उ (स), सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मवृ) । १२. कप्पए (ब)। १३. जो (अ), जे इति पादपूरणे (मवृ) । १४. एताणि ० (स)। १५. वि (स)। १६. दिस (स)।
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सप्तम उद्देशक
[ ३०९
३२५९. णाते तु पुव्वदिटुं, तं चेव य थंडिलं हवति' तत्थ ।
अण्णातवेलपत्ता, सन्नादिगतारे तु पेहेति ॥ ३२६०. अध पुण विकालपत्ताए, ता चेव उ करेंति उवओगं ।
अकरण हवंति लहुगा, वेलं पत्ताण चउगुरुगा ॥ ३२६१. आणादिणो य दोसा, कालगते संभमादिसु होज्जा ।
अच्छंतमणच्छंता', विणासगरिहं च पावेंति ॥नि. ४२६ ॥ ३२६२. तेणग्गिसंभमादिसु, तप्पडिबंधेण दाह हरणं वा ।
मइलेहि व छड्डेती, 'गरहा य" अथंडिले वावि ॥ ३२६३. एते दोस अपेहित, अह पुण पुव्वं तु पेहितं होति ।
ता ताहे च्चिय णिता एते दोसा न होता य ॥ ३२६४. अह पेहिते१२ वि पुव्वं१३, दिया व रातो व होज्ज वाघातो ।
सावय-तेण भया वा, ढक्किय५ ताधे य अच्छाते ॥ ३२६५. असती सुक्किल्लाणं, दिणकालगत निसिं विवेचंति१६ ।
परिहारितं च • पच्छाकडादि कोडी दुगेणं वा ॥ ३२६६. असती नीणेतु निसि, ठवेत्तु सागारिथंडिलं पेहे ।
थंडिलवाघातम्मि वि, जतणा एसेव कातव्वा ॥ ३२६७. महल्लपुरगामे वा, दिसा वाडग साहिओ८ ।
इहरा९ दुविभागा२० तु, कुग्गामे सुविभाविया ॥ ३२६८. दिसा अवर दक्खिणा य, अवरा य पच्छिम दक्खिणा पुव्वं ।
अवरुत्तरा य पुव्वा, उत्तरपुव्वुत्तरा चेव ॥नि. ४२७ ।। ३२६९. समाधी अभत्तपाणे, उवगरणे२१ झायमेव२२ कलहो य ।
भेदो गेलण्णं वा, चरिमा पुण कडते अण्णं ॥नि. ४२८ ।।
१. भवे त्ति (स)। २. सन्नाति गता ०(ब)।
० पत्ताई (ब)। ४. करणे (अ)। ५. ० मपेच्छता (स)। ६. ० गरहं (अ)। ७. ० मातिसु (ब) ८. मतिलेहि (ब)। ९. गरिहादि (अ)। १०. होंत (स)। ११. णितो (ब)।
१२. पेधिते (ब)। १३. पुचि (स)। १४. व (स)। १५. ढक्किता (अ, स)। १६. विगिचंति (अ)। १७. व (अ)। १८. साहीतो (अ)। १९. इतरा (ब), इयरा (स)। २०. ० भागं (अ), दुविहारा (स)। २१. उवकरण (ब, स)। २२. झाएमेव (स)।
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३१० ]
व्यवहार भाष्य
३२७०. पउरण्णपाण पढमा', बितियाए भत्तपाण न लभंति ।
ततियाएँ उवधिमादी, नत्थि चउत्थीय सज्झाओ ॥ ३२७१. 'पंचमियाय असंखड'२, छट्ठीय गणस्स भेदणं नियमा ।
सत्तमिया गेलण्णं, मरणं पुण अट्ठमी बेंति ॥ ३२७२. रत्ति दिसा थंडिल्ले, सिल' बिंबा झामिते य उस्सण्णे ।
छेत्त विभत्ती , सीमा, . सीताणे चेव ववहारो ॥नि. ४२९ ।। ३२७३. लभमाणे वा पढमाए, असतीए वाघाते वा ।।
ताहे अन्नाए वि, दिसाए पेहेज्ज जयणाए ॥दारं ।। ३२७४. सिलायलं पसत्थं तु, रुक्खवुत्थादि फासुयं ।
झामं 'थंडिलमादी व, बिंबादीण समीव वा ॥ ३२७५. उस्सण्णा १ तिन्नि २ कप्पा उ, होति खेत्तेसु केसुई१३ ।
अथंडिला४ दिसासुं वा, ते वि जाणेज्ज पण्णवं ॥ ३२७६. खेत्त विभत्ते गामे, रायभए वा अदेंत सीमाए ।
भोइयमादी पुच्छा, रायपधे सीममज्झे वा ॥ ३२७७. 'असतीए सीयाणे १५, रुंभण अन्नत्थ अपरिभोगम्मि ।
असती अणुसट्ठादी, पंतग अंताइ६ इतरे वा ॥ अदसाइ अणिच्छंते, साधारणवयण दार मोत्तूणं ।
सति । लंभमुवारुहणं, सव्वे व विगिंचणा लंभे ॥ ३२७९. सीताणस्स वि असती, 'अलंभमाणे वि'२० उवरि कायाणं ।
निसिरंता जतणाए, धम्मादि२९ पदेसनिस्साए ॥ ३२८०. एस सत्तण्ह मज्जाया, ततो वा जे परेण तु ।
हेट्ठा सत्तण्ह थोवा उ, तेसिं वोच्छामि जो२२ विधी ॥नि. ४३० ।।
१. पढमा इत्यत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्या लोपस्ततः प्रथमायां (मवृ)। २. ० याए संखड (ब)। ३. ०मिए (स)। ४. बेति (अ) ५. सिला (अ.स)।
बिंबा य (स)। ७. छेत्ता (ब)। ८. गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (मव) । ९. रुक्खवुच्छादि (अ), • वच्छादि (ब)। १०. .० मादिच्च (ब), मादि व (स)। ११. अस्सण्णा (अ)।
१२. दिण्ण (अ)। १३. केसुती (ब, स)। १४. अत्थंडिला (अ)। १५. असत्तीय तु संताणे (स) । १६. अंताय (ब)। १७. ० गमण (स)। १८. लंभमहाभवणं (ब), लंभमुधारु ० (स)। १९. विवि (ब, स)। २०. ० माणा (स)। २१. सुद्धादि (स)। २२. जा (स)।
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सप्तम उद्देशक
[ ३११
३२८१. पंचण्ह दोन्नि' हारा, भयणा आरेण पालहारेसु ।
ते चेव य कुसपडिमा, नयंति हारावहारो वा ॥नि. ४३१ ॥ ३२८२. एक्को व दो व उवधि, रत्तिं वेहास दिय असुण्णम्मि ।
एक्कस्स वि तह चेवा, छड्डण गुरुगा य आणादी ॥नि. ४३२ ।। ३२८३. गिहि-गोण-मल्ल-राउल, निवेदणा पाण कड्डणुड्डाहो ।
छक्कायाण विराधण, झामण सुक्खे य वावन्ने ॥ ३२८४. तम्हा 'उ विहि५ तं चेव', वोढुं जे जइ पच्चला ।
नयंति दो वि निद्दोच्चे, सद्दोच्चे ठावए निसिं ॥ ३२८५. अह गंतुमणा चेव, तो नयंति ततो च्चिय ।
ओलोयणमकुव्वंतो, असढो तत्थ सुज्झए ॥ ३२८६. छड्डेउं जइ जंती, नायमनाता य नाएँ परलिंगं ।
जदि कुव्वंती१ गुरुगा, आणादी भिक्खु२ दि€तो ॥ ३२८७. अचियत्तमादि वोच्छेयमादि दोसा उ होति परलिंगे ।
अण्णात ओहि काले, अकते गुरुगा य मिच्छत्तं ॥ ३२८८. एगाणिओ उ जाधे, न तरेज्ज विविंचिउं१३ तयं सो उ ।
ताधे य विमग्गेज्जा, इमेण विधिणा सहाए तु ॥ ३२८९. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय सिद्धपुत्त सण्णी य ।
सग्गामम्मि य पुव्वं५, 'सग्गामे असति"६ परगामे ॥ ३२९०. अप्पाहेति सयं वा, वि गच्छती तत्थ ठाविया अण्णं ।
असती निरच्चए वा, काउं ताहे व वच्चेज्जा ॥ ३२९१. संविग्गादी ते च्चिय, असतीए ताधे इत्थिवग्गेणं ।
सिद्धी साविग८ संजति, किढि९ मज्झिमकाय तुल्ला वा ॥
१. दो तिन्नि (ब), दोण्ह (अ)। २. हार (अ)। ३. भावण (अ)। ४. सुक्के (ब)। ५. उवधिं (स), उ विहिं (अ)। ६. ते (ब)। ७. चेवा (ब)। ८. हावए (स)।
११. कुव्वंति (अ)। १२. भिच्छु (स)। १३. विकिंचिउं (स)। १४. ० ज (स)। १५. पुब्बि (स)। १६. सग्गाम सती (अ.स)। १७. संविग्गाति (ब)। १८. सावग (ब)। १९. कढि (अ.स)।
१०. नाती (अ)।
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३१२ ]
व्यवहार भाष्य
३२९२. गण भोइए' वि मुंगित, संबरमादी मुधा अणिच्छंते ।
अणुसटुिं अदसाई, तेहि समं तो विगिंचेइ ॥ ३२९३. 'अह रुंभेज्ज'६ दारट्ठो', मुल्लं दाऊण णीणह ।
अणुसट्ठादि तहिं पि, अण्णो वा भणती १ जदि ॥ ३२९४. मुंच दाहामहं मुल्लं, उवेहं तत्थ कुव्वती ।
अदसादीणि वा देती, सती१२ साधारणं वदे ॥ ३२९५. जदि लब्भामु आणेमो३, अलद्धे तं वियाणओ ।
सो वि लोगरवाभीतो, मुंचते दारपालओ ॥ ३२९६. अण्णाए वावि परलिंगं, जतणाएँ काउं१४ वच्चती ।
उवयोगट्ठा नाऊणं, एस विधी असहायए ॥ ३२९७. एतेण सुत्त 'न गयं५, सुत्तनिवातो उ पंथ गामे६ वा ।
एगो व अणेगो वा, हवेज्ज वीसुंभिता भिक्खू ॥ ३२९८. एगाणियं तु गामे, दटुं सोउं विगिचण तधेव ।
जा दाररुंभणं तू, एसो गामे विधी वुत्तो ॥ ३२९९. एमेव य 'पंथम्मि वि२८, एगमणेगे विगिचणा विधिणा ।
एत्थं जो उ विसेसो, तमहं वोच्छं . समासेणं ॥ ३३००. एगो१९ एगं पासति, एगो णेगे अणेग एगं वा ।
णेगाऽणेगे ते पुण, संविग्गितरेव . जे दिट्ठा ॥ ३३०१. वीतिक्कंते भिन्ने, नियट्ट सोऊण पंच वि पयाइं ।
मिच्छत्त अन्नपंथेण, कड्डणा झामणा जं च ॥नि. ४३३ ॥ ३३०२. तं जीवातिक्कंतं, भिन्नं कुहितेयरं व सोऊणं ।
‘एगपयं पि'२० नियत्ते, गुरुगा उम्मग्गमादी वा ॥
१. गणि (ब)। २. भोतिए (ब)। ३. ० सट्ठी (स)। ४. अदसादी (ब, स)। ५. विगिचिंति (ब), विगिचति तु (स)।
अभिरुभिज्ज (अ)। ७. दारिट्ठो (अ.स)। ८. णीणेमो (ब), णीणेध (अ)। ९. तहियं (ब, स)। १०. पी (स)।
११. भवति (ब), भणति (स)। १२. असती (स)। १३. अण्णेमो (ब)। १४. काउ (स)। १५. निग्गयं (स)। १६. गामं (स)। १७. विधिचण (स)। १८. ० म्मी (स)। १९. एग (अ.स)। २०. ० पयम्मि (ब)।
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सप्तम उद्देशक
[ ३१३ ३३०३. आणादी पंचपदे, नियत्तणे पावए इमे वन्ने ।
मिच्छत्तादी व पदे, कमविक्खेवा व जे पंच ॥दारं ।।नि. ४३४ ॥ ३३०४. गोणादि 'जत्तियाओ व'३), पाणजाती उ तत्थ मुच्छंति ।
आगंतुगा व पाणा, जं पावंते तयं पावे ॥ ३३०५. दटुं वा सोउं वा, अव्वावण्णं विविंचए विधिणा ।
वावण्णे परलिंगे", उवधी णातो अणातो वा ॥ ३३०६. मा णं पेच्छंतु बहू , इति नाते वी करेति परलिगं ।
गहितम्मि व० उवगरणे, परलिंगं चेव तं होति११ ॥ ३३०७. सागारकडे एक्को, मणुण्ण दिण्णोग्गहो१२ भवे बितिओ ।
अमणुण्णे अप्पिणती३, न गेण्हती दिज्जमाणं पि ॥ ३३०८. इतरेसिं घेत्तूणं१४, एगंत परिट्ठवेज्ज विधिणा उ ।
अण्णाते संविग्गो, विधिम्मि कुज्जा उ घोसणयं ॥ ३३०९. 'उग्गह एव'१५ अधिकितो, इमेसु१६ सुत्ता उ उग्गहे चेव ।
साधम्मिय सागारिय, • नाणत्तमिणं दुवेण्हं पि ॥ ३३१०. वक्कइय सालठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाता७ ।
दिय रातो असियावण८, भिक्खगते भुंजण गिलाणे ॥ ३३११. उव्वरियगिहं१९ वावि, वक्कएण पउंजते ।
पउत्ते तत्थ वाघातो, विणास-गरहा२० धुवा ॥ ३३१२. एगदेसम्मि ‘वा दिन्ने २९, तन्निसा होज्ज तेणगा ।
रसालदव्वगिद्धा वा२२, सेहमादी उ जं करे ॥ ३३१३. पेहा वियार-झायादी२३, जे उ दोसा उदाहिता२४ ।
अच्छंते ते भवे तत्थ, वयए२५ भिण्णकप्पता ॥
१. X (ब)। २. ० तणे वा (अ)। ३. जत्तिया चेव (ब)। ४. x (ब)
मुच्छति (ब)। ६. पावेते (अ)। ७. लिंग (स)। ८. पेच्छंति (अ), पेच्छंत (स)। ९. करेती (स)। १०. वि ११. होति (ब)। १२. दिण्ण उग्गहो (ब)। १३. अप्पिणतो (ब)।
१४. घित्तूणं (ब)। १५. उग्गहए वि (स)। १६. इमे उ(ब)। १७. हवंति णु ० (स)। १८. अशिवापन विनाशप्राप्तिरित्यर्थः (म)। १९. ० रियघरं (स)। २०. गरिहा (अ,ब)। २१. वावण्णे (स)। २२. ता (ब)। २३. झायतो (ब)। २४. अभिहिता (मवृ)। २५. व वए (आ, वए (ब)।
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३१४ ]
१.
२.
३.
४.
भत्तपाणविणासो उ
पावती ।
३३१४. भिक्खं गतेसु वा तेसु णीणिते वावि पाले ३३१५. अधवा भरियभाणाउ, आगते जदि निच्छुभे । भुंज साग इमे ॥ जिता अट्ठि सरक्खा वि, लोगो सव्वो वि बोट्टितो । पगासिते य अन्नेसिं" हीला होति पवयणे ३३१७. सीतवाताभितावेहि, गिलाणो जं तु अमंगलं " भउक्खित्ते, ठाणमन्नो वि नो दए ॥ ३३१८. गहिउत्थाणरोगेणं, अच्छंते नीणितम्मि वा वोसरितम्मि उड्डाहो, धरणे वातविराधणा 11 ३३१९. एते दोसा जम्हा, तहियं ' होंति उ ठायमाणाणं १ २ ठाइयव्वं, वक्कयसालाऍ १३ समणेहिं ॥ ३३२० एयं सुतं अफलं, सुत्तनिवातो उ१४ असति वसधीए । बहिया वि य असिवादी, तु कारणे तो न वच्चंती " ३३२१. एतेहि कारणेहिं, ठायंताणं इमो विधी तत्थ 1 छिंदंति तत्थ कालं, उडुबद्धे १५ वासवासे वा
1
तम्हा न
३३१६.
३३२३.
३३२४.
३३२२. मासचउमासियं वा, 'न निच्छोढेव्व १६ उ अम्ह नियमेण । एवं छिन्नठिताणं, वक्कइओ आगतो होज्जा ॥ दिन्ना 'वा चुणएणं १७ अहवा लोभा सयं पि देज्जाहि१८ 1 अणुलोमज्जति ताधे, अदेति९ अणुलोमवक्कइयं ॥
विदेत ता, छिन्नमछिन्ने व नेति उडुबद्धे । ववहारो, उडुबद्धे २० कारणज्जाते ॥
३३२५.
वतिक्कती (ब)।
णीधमे (अ, ब ।
वाले (ब)।
णमिति वाक्यालंकारे (मवृ) ।
० सिवावणा (अ) ।
० भाणे (ब) ।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. अनेहिं (अ) ।
वासासुं
किं पुण कारणजातं, एते हि कारणेहिं,
भुंज्जते ० (स), भुञ्जानेसु समागतः (मवृ) ।
ठिता (स) ।
पोट्टितो (स, अ)।
वक्कई बेति णी । णं, उवधिस्सासियावणा"
11
११. अमंगल (अ, स) ।
१२. होंतो य ठायमाणेण (ब) ।
असिवोमादी उ बाहि होज्जाहि । अणुलोमऽणुसट्ठिपुव्वं २१
तु 11
१३. वक्या ० (स) ।
१४. य (ब) ।
१५. उउ० (अ) ।
१६. न वि णिच्छोढेव्वा (ब) ।
||
II
१७.
व चूणएणं (ब), विधूणएणं (स) ।
१८.
देज्जाहिं (ब)।
१९. अर्देत (अ)।
२०. वडुबद्धे (ब)।
२१. o
पुवि (बस)।
व्यवहार भाष्य
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सप्तम उद्देशक
[ ३१५
३३३०.
३३२६. सई जंपति रायाणो, सई जंपति धम्मिया ।
सइं३ जपंति देवावि, तं पि ताव सई वदे ॥ ३३२७. अणुलोमिए समाणे, तं वा अन्नं वसहि उ देज्जाहि ।
अण्णो वणुकंपाए, देज्जाही वक्कयं तस्स ॥ ३३२८. अन्न व देज्ज वसधिं, सुद्धमसुद्धं च तत्थ ठायति ।
असती फरुसाविज्जति', न नीमु दाऊण को तंसि ॥ ३३२९. रायकुले ववहारो, चाउम्मासं तु दाउ निच्छुभती ।
पच्छाकडो० य तहियं, दाऊणमणीसरो होति ॥ पच्छाकडो भणेज्जा, अच्छउ भंडं इहं निवायम्मि ।
अहयं करेमि अण्णं, तुब्भं अहवा वि तेसिं तु ॥ ३३३१. असती अण्णाते ऊ, ताधे उवेहा'२ न पच्चणीयत्तं३ ।
ठायंति तत्थ जंपति, चोदग कम्मादि तहिं दोसा ॥ ३३३२. भण्णति णिताण तहिं, बहिया दोसा तु बहुतरा होति ।
वासासु हरित • पाणा, संजमआताय कंटादी४ ॥ ३३३३. सो चेव य होइ तरो, तेसिं ठाणं तु मोत्तु जदि दिन्नं५ ।
अह पुण सव्वं दिन, १६ तो णीणहर वक्कती उ तरो१८ ॥ ३३३४. अह पुण एगपदेसे, भणेज्ज अच्छह तहिं न मायति ।
वक्कइय बेति१९ इत्थं२९, अच्छह नो२१ खित्त२२ भंडेणं ॥ ३३३५. तहियं दो वि तरा तू , अहवा गेण्हेज्जऽणागतं२३ कोई२४ ।
दुल्लभ अच्चग्घतरं२५, नातु तहिं संकमति तस्स ॥ ३३३६. जाव नागच्छते भंडं, ताव अच्छह साहुणो२६ ।
एवं वक्कइतो साधू, भणंतो होति सारिओ ॥
१-४. सगिं (अ.स)। ५. वदा (ब)। ६. वसति (अ)। ७. यक्क यं (ब)।
परु (अ)। ९. नीणिमो (अ)। १०. ० कडा (ब)। ११. जं(ब), तु (स)। १२. उवेह (स)। १३. पच्चयनिमित्तं (अ.स)। १४. कंटाती (ब)। १५. दिन्ने (ब)। १६. ता देंतो (स)।
१७. टीका की मुद्रित प्रति एवं हस्तप्रतियों में णीणह शब्द नहीं
मिलता है किन्तु टीका की व्याख्या के अनुसार तथा छंद की
दृष्टि से यह शब्द यहां होना चाहिए। १८. इतरो (अ)। १९. बेंति (ब)। २०. तत्थ (ब)। २१. तो (ब)। २२. खिण्णे (अ)। २३. ० गई (ब)। २४. कोवी (ब)। २५. ० तरे (स)। २६. साहवो (अ.स)।
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३१६ ]
व्यवहार भाष्य
३३३७. देसं दाऊण गते', गलमाणं जदि छएज्ज वक्कइओ२ ।
अण्णो वणुकंपाए, ताधे सागारिओ सो सिं ॥ ३३३८. मोत्तूण साधूणं, गहितो पुण वक्कओ पउत्थम्मि ।
हेट्ठा उवरिम्मि ठिते, मीसम्मि पडालि ववहारो ॥ ३३३९. हेट्ठाकतं वक्कइएण भंडं, तस्सोवरिं वावि वसंति साधू ।
भंडं ण मे उल्लइ मालबद्धे, नो तं छयंतम्मि भवे विवाओ ॥ ३३४०. वक्कइय छएयव्वे, ववहारकतम्मि वक्कयं बेति ।
अकतम्मि उ साधीणं, बेति तरं दाइयं वावि ॥ ३३४१. अच्छयंते व दाऊणं, सयं सेज्जातरे घरं ।
अणुसट्ठादि° ऽणिच्छंतं, ववहारेण छावए ॥ ३३४२. एसेव कमो नियमा, कइयम्मि १ वि होति१२ आणुपुवीए ।
नवरं पुण नाणत्तं, उच्चत्ता गेण्हती सो उ ॥ ३३४३. सागारिय अहिगारे, अणुवत्तंतम्मि कोइ सो होति ।
संदिट्ठो व३ पभू वा, विधवा सुत्तस्स संबंधो ॥ ३३४४. विगयधवा खलु विधवा, धवं तु भत्तारमाहु नेरुत्ता ।
धारयति५४ धीयते५ वा, दधाति वा तेण तु धवो त्ति ॥ ३३४५. विधवा वणुण्णविज्जति, किं पुण पिय-मात ६-भात-पुत्तादी ।
सो पुण पभु वऽपभू वा, अपभू पुण तत्थिमे होति ॥ ३३४६. आदेस-दास-भइए , विरिक्क जामातिए१७ ‘य दिण्णा' उ१८ ।
अस्सामि मास लहुओ, सेस पभूऽणुग्गहेणं वा९ ॥नि. ४३५ ।। ३३४७. दिय रातो निच्छुभणा, अप्पभुदोसा अदिण्णदाणं च ।
तम्हा उ अणुन्नवए, पशुं च पभुणा व संदिटुं ॥ ३३४८. गहपति गिहवतिणी२° वा, अविभत्तसुतो अदिन्नकण्णा वा ।
पभवति निसिट्ठविहवा२१, आदिढे वा सयं दाउं ॥
१. गतं (अ)। २. वक्कतितो (ब)। ३. ०कंपाहे (ब)।
मि (स)।
उवरिं व (स)। ६. छतेयब्वे (आ)। ७. वक्क इ (अ.स)। ८. ठंति (स)। ९. अच्छएते (ब), अच्छएते (आ। १०. ० सट्ठादी (ब, स)। ११. कतिम्मि (ब)।
१२. होति (ब)। १३. वि (आ)। १४. धारयिति (ब)। १५. धीवते (स)। १६. माइ (अ)। १७. जामादिए (ब)। १८. दिण्णातो (ब)। १९. नियुक्तिकृदाह (मवृ)। २०. ० वतिणि (ब)। २१. निसद्ध ० (ब), निसट्ठ ० (स)।
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सप्तम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
३३४९. उग्गहपभुम्मि दिट्ठे, कहितं पुण सो' अणुण्णवेतव्वो । वि. संभावण सुत्तसंबंधो ॥
अद्धाणादी
७.
८.
९.
३३५०. अद्धा पुव्वभणितं, सागारियमग्गणा इहं परिग्गहिते, सागारिय सेस श्रयणा 11
I
दिदि जस्स उवल्लियंती, भंडीं वहते व पडालियं वा सागारिए होति स एग एवरे, रीढागतेसुं तु जहिं वसंति 'वीसमंता वि" छायाए, चिट्ठति पुच्छिउं ते वि,
३३५१.
३३५२.
३३५३. वसंति व जहिं
तत्तिएँ तु तरे
सागारिय
३३५४.
३३५८.
३३५९.
वीसमणादि (स)।
पत्थिए किमु (अस) ।
वसति (ब) ।
वा (स) ।
टावंतिग ० (ब)।
१०.
० रिय (ब)।
११. ठवेति (अ) ।
१२. थंडिल (अ) ।
णो (ब)
उवणियती (ब), उवल्लयंती (स) 1
एवं (अ) ।
राढाग ०(ब)।
साधम्मिय,
जं
'पंथिए
रत्तिं,
कुज्जा,
सत्तम अंतिमत्तं,
वसस्स 11
1
३३५५. संथड १२ मो१३ अविलुत्त ४, पडिवक्खो वा न विज्जते १५ तस्स १६ । अणहिट्टियमन्ने १७ अव्वोगड दाइ १८ सामन्नं || ३३५६. अव्वोगडं अविगड़, संदिट्ठे वा वि जं हवेज्जाहि । अव्वोच्छिन्न परंपरमागय तस्सेव ३३५७. पुव्वाणुण्णा जा१९ पुव्वएहि राईहि इह अणुण्णाता लंदो तु होति कालो, चिट्ठति जावुग्गहो तेसिं जं पुण असंथ वा, गडं२१ व तह वोगडं व वोच्छिण्णं 1 नंदमुरियाण२२ व जधा, वोच्छिन्नो जत्थ वंसो उ 11 तत्थ उ अणुविज्जति २३ भिक्खुब्भावट्टमुग्गहो २४ नियतं । दिक्खादि भिक्खुभावो, अधवा ततियन्वयादी तु ॥
11
तहिं पढमं ठिया
किं ६
}
जहिं वसे ॥
गाऽगपरिग्गहे । ठावंतेगमसंथरे 11 उग्गहगहणेऽणुवत्तमार्णम्म ।
ठवंति ११ उग्गहे थेरा 11
11
१३. मो इति पादपूरणे (मवृ)
१४. अविसुतं (ब)।
१५. विज्जति (स)। १६. जस्स (अ) ।
१७. अणहिद्वय० (ब) ।
१८. दासू (ब)।
१९. जे (स) ।
२०. लदा (ब) ।
२१. घरं (स)।
२२. नंदिमु ० (स) ।
२३. अणण्ण० (ब)।
२४. ०वट्ट उग्गहो (ब), ० वट्ठ उग्गहं (स) ।
[ ३१७
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३१८ ]
व्यवहार भाष्य
३३६०. रण्णो कालगतम्मी, अत्थिरगुरुगा अणुण्णवेतम्मि ।
आणादिणो य दोसा, विराधण' इमेसु ठाणेसुरे ॥नि. ४३६ ॥ ३३६१. धुवमण्णे तस्स मज्झे व, तह एक्केव मुक्कसन्नाहो ।
दोण्हेगतरपदोसे, अणणुण्णवणे थिरे गुरुगा ॥नि. ४३७ ।। ३३६२. अणणुण्णविते दोसा, पच्छा वा अप्पितो अवण्णा वा ।
पत्ते पुव्वममंगल, निच्छुभण पदोस पत्थारो ॥ ३३६३. ओधादी आभोगण, निमित्तविसएण वावि नाऊणं ।
भद्दगपुव्वमणुण्णा, पंतमणाते व मज्झम्मि ॥ ३३६४. एतेणं विधिणा ऊप, सोऽणण्णवितो जया वदेज्जाहि ।
राया किं देमि त्ति य, जं दिण्णं अण्णराईहिं ॥ ३३६५. जाणतो अणुजाणति, अजाणओ भणति तेहि किं दिण्णं ।
पाउग्गं ति य भणिए, किं पाउग्गं इमं सुणसु ॥ ३३६६. आहार-उवधि-सेज्जा, ठाण-निसीदण-तुयट्ट-गमणादी ।
थीपुरिसाण य दिक्खा, दिण्णा णो पुवराईहिं ॥ भद्दो सव्वं वियरति, पंतो पुण दिक्ख वज्जमितराणि ।
अणुसट्ठादिमकाउं', णिते गुरुगा य आणादी ॥ ३३६८. चेइय सावग पव्वइउकामअतरंत बालवुड्डा य ।
चत्ता अजंगमा वि य, अभत्ति तित्थस्म परिहाणी ॥ ३३६९. अच्छंताण वि गुरुगा, अभत्ति तित्थस्स हाणि जा वुत्ता ।
भणमाण भणावेंता, अच्छंति अणिच्छ११ वच्वंति ॥ ३३७०. अह पुण हवेज्ज दोन्नी१२, रज्जाइं तस्स नरवरिंदस्स ।
तहियं अणुजाणंते, दोसु वि रज्जेसु अप्पबहुं ॥ ३३७१. एक्कहि विदिण्णरज्जे,ऽणुण्णा एगस्थ होइ अविदिण्णं३ ।
एगत्थ इत्थियातो, पुरिसज्जाता४
१. ० हणा (अ.स)। २. सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मवृ)।
दोण्णेग० (अ)
निमित्तविशेषेण (मवृ)। ५. य(ब)।
तु (अ)। ७. जाव (ब)।
८. ० सट्ठाई काउं (स)। ९. कामातरंत (ब)। १०. वेंती (स)। ११. अणिच्छे (स)। १२. दोण्णि (स)। १३. गाथा का पूर्वार्द्ध अप्रति में नहीं है। १४. पुरिसइज्जा य (ब)।
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सप्तम उद्देशक
[ ३१९
३३७२. थेरा तरुणा 'य तधा', दुग्गतया अड्डया य कुलपुत्ता ।
जाणवया नागरया, अब्भंतरण कुमारा य ॥ ३३७३. ओहीमादी णाउं, जे बहुतरया उ पव्वयंति' तहिं ।
ते बेंति समणुजाणसु, असती पुरिसेव जे बहुगा ॥ ३३७४. “एताणि वितरति तहिं, कम्मघणो पुण भणेज्ज तत्थ इमं५ ।
दिट्ठा उ अमंगल्ला, मा वा दिक्खेज्ज अच्छंताई ॥ ३३७५. मा वा दच्छामि पुणो, अभिक्खणं बेंति कुणति निव्विसए ।
पभवंतो भणति ततो, भरहाहिवती न सि तुमं ति ॥ ३३७६. केवइयं वा एतं, गोप्पदमेत्तं इमं तुहं रज्जं ।
जं पेल्लिउं व नासिय, गम्मति या मुहुत्तमेत्तेणं ॥ ३३७७. जं होऊ तं होऊ, पभवामि अहं तु अप्पणो रज्जे ।
सो भणति नीह मज्झं, रज्जातो किं बहूणा उ ॥ ३३७८. अणुसट्ठी धम्मकहा, विजनिमित्तादिएहि१२ आउट्टे ।
अठिते ३ पभुस्स करणं, जधाकतं विण्हुणा पुव्वं ॥ ३३७९. वेउब्वियलद्धी वादी, सत्थे विज्ज'५-ओरस-बली वा ।
तवलद्धिपुलागो वा, पेल्लिती तम्मितरे'६ गुरुगा ॥ ३३८०. तं घेत्तु बंधिऊणं, पुत्तं रज्जे ठवेति तु समत्थो ।
असती अणुवसमंते, निग्गंतव्वं ततो ताधे ॥ ३३८१. भत्तादिफासुएणं, अलब्भमाणे य पणगहाणीए । अद्धाणे कातव्वा, जयणा तू जा जहिं भणिया७ ॥
इति सप्तम उद्देशक
१. तम्हा (ब)
पव्वहिति (स)। ३. बेति (अ.स)।
यह गाथा ब प्रति में नहीं है। ५. गाथा का पूर्वार्द्ध ब प्रति में नहीं है।
अच्छतो (ब)।
बेति (ब) ८. गम्माति (ब)। ९. तु (अ, स)।
१०. पभवो मि (स)। ११. ० कही (स)। १२. विज्जा ० (ब, स)। १३. अट्ठिय (ब)। १४. वाउ (अ)। १५. विज्जा (स)। १६. तमेतरे (स)। १७. भणियं (ब)।
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अष्टम उद्देशक
३३८२. तध चेव उग्गहम्मी, अणुयत्तंतम्मि रायमादीणं ।
साधम्मि उग्गहम्मी', सुत्तमिणं अट्ठमे पढमं ॥ ३३८३. गाहा घरे गिहे या, एगट्ठा होति उग्गहे तिविधो ।
उडुबद्धे वासासु य, वुड्डावासे य नाणत्तं ॥ ३३८४. चाउस्सालादि गिहं, तत्थ पदेसो उ अंतों बाहिं वा ।
ओवासंतर मो पुण, अमुगाणं दोण्ह मज्झम्मि ॥ ३३८५. खेत्तस्स उ संकमणे, 'कारण अन्नत्थ'२ पट्ठविज्जतो ।
पुव्वुद्दिढे तम्मि उ, उडुवासे सुत्तनिद्देसो ॥नि. ४३८ ॥ ३३८६. दीवेउं तं कज्जं, गुरुं व अन्नं व सो उ अप्पाहे ।
ते वि य तं भूयत्थं, नाउं असढस्स वियरंति ॥नि. ४३९ ।। ३३८७. अह पुण कंदप्पादीहि, मग्गती तो तु तस्स न दलंति ।
एयं तु पिंडसुत्ते, पत्तेय" इहं तु वोच्छामि ॥नि. ४४० ॥ ३३८८. सो पुण उडुम्मि घेप्पति, संथारो वास वुड्डवासे वा ।
ठाणं फलगादी वा, उडुम्मि वासासु य दुवे वि० ॥नि. ४४१ ॥ ३३८९. उडुबद्ध दुविहगहणा, लहुगो लहुगा य दोस आणादी ।
झामित हिय वक्खेवे, संघट्टणमादि पलिमंथो ॥नि. ४४२ ।। ३३९०. 'परिसाडि अपरिसाडी१, दुविधो संथारओ समासेण ।
परिसाडी झुसिरेतर, एत्तो वोच्छं अपरिसाडिं ॥ ३३९१. 'एगंगि अणेगंगी"२, संघातिमएतरो य एगंगी ।
अझुसिरगहणे३ लहुगो, चउरो लहुगा य सेसेसु ॥ ३३९२. लहुगा य झामियम्मि य४, हरिते विय होंति अपरिसाडिम्मि !
परिसाडिम्मि य लहुगो, आणादिविराधणा चेव ॥नि. ४४३ ॥
१. . ० हम्मि (स)। २. कारणमण्णत्थ (ब)। ३. पत्थवि ०(स)। ४. सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मवृ)।
उ लपति (स)। ६. X(अ)। ७. पत्ते वि (ब,स)।
८. उदुम्मि (अ)। ९. फलगाई (स)। १०. अधुना नियुक्तिविस्तरः (म)। ११. ० साडी अप ० (, 0 साडिय परि ० (स)। १२. एगम्मि अणेगम्मी (अ)। १३. अणुझुसिर० (ब)। १४. x (अ)।
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अष्टम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
३३९३. विक्खेवो सुत्तादिसु, आगंतु तदुब्भवाण घट्टादी I पलिमंथो पुव्वत्तो, मंथिज्जति संजमो जेण तम्हा उ न घेत्तव्वो, उडुम्मि दुविधो वि एवं सुत्तं अफलं', सुत्तनिवातो उ
३३९४.
३३९५. सुत्तनिवातो तणेसु), देस गिलाणे य उत्तमट्ठे य
३३९६.
मफलं (ब) 1
तणेसू (अस) ।
देसि (स) ।
1
असिवादिकारणगता, उवधी कुत्थण अजीरगभया" वा असर, एक्क भंगसोलसगं ३३९७. कुसमादि अझुसिराई, असंधि बीयाइ 'एक्कतों मुहाई । देसी पोरपमाणा, पडिलेहा तिन्नि वेहासं " ३३९८. अंगुट्ठपोरमेत्ता १०, जिणाण थेराण होंति संडासो I भूमीय विरल्लेडं, अवणेत्तु ११ पमज्जते भूमि१२ ॥ ३३९९. गेलपण उत्तिमट्टे ३, उस्सग्गेणं तु वत्थसंथारो । असतीय अझुसिराई, खराऽसतीए 'तु झुसिरा वि१४ 11 ३४००. तद्दिवसं मलियाई, अपरिमित सई " उभय६ि उट्ठिते तू, चंकमणे १७ ३४०१. अन्नो निसिज्जति तहिं, पाणदयद्वाय" निक्कारणमगिलाणे, दोसा 'ते चेव'२० ३४०२. अत्थरणवज्जितो २२ तू, कप्पो उ होति पट्टदुगं ति२३ तिप्पभिई तु विकप्पो, 'अकारणेणं तणाभोगो२४ ॥
1
I
कुच्छण (ब)।
अजीरमभया अ प्रति में अनेक स्थलों पर ग के स्थान पर म पाठ
मिलता है।
६.
० मसंध अबीए (स) ।
७.
० माति (ब) ।
८.
० असंध (स) ।
९.
एक्कमुहाई (ब)।
१०.
• टुपव्वं मेत्ता (अ)।
११. अवाणेत्तु (ब) अवणंतु (स) ।
१२.
भूमी (स)।
एस संथारो
कारणिओ
1
चिक्खल्ल - पाण- हरिते, फलगाणि वि कारणज्जाते ॥ दारं ॥ नि. ४४४ ॥
१७.
१८.
तुयट्ट जतणाए वेज्जकज्जे वा
तत्थ हत्थो वा
य विकप्पो २१
१३. उत्तमट्ठे (अ)।
१४.
१५
१६.
वज्झसिरा (अ) ।
सय (अस) ।
उभयत्थि (स) ।
चक्कमण (ब, स) ।
निसज्जति (ब, स) ।
||
१९. पाणं दय ० (ब) ।
२०. ते चिय (ब), ते वि चेव (अ) ।
२१. पविकप्पो (स) ।
1
||
#1
||
[ ३२१
I
11
२२. अत्थुरण ० (अ) ० वज्जेउ (ब) ।
२३. छंद की दृष्टि से दूसरे चरण में 'कप्पो पुण होति उ पट्टदुगं ति'
पाठ होना चाहिए।
२४. अकारणे चेव तणभोगो (स) ।
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३२२ ]
व्यवहार भाष्य
३४०३. अधवा' अझुसिरगहणे, कप्पपकप्पो समावडिय कज्जे ।
'झुसिरे व अझुसिरे'३ वा, होति विकप्पो अकज्जम्मि ॥ ३४०४. जध कारणे' तणाई, उडुबद्धम्मि उ हवंति गहिताइ ।
तध फलगाणि वि गेण्हे, चिक्खल्लादीहि कज्जेहिं ॥ ३४०५. अझुसिरमविद्धमफुडिय', अगुरुय - अणिसट्ठ - वीणगहणेणं ।
आयासंजम गुरुगा, सेसाणं . संजमे दोसा ॥नि. ४४५ ॥ ३४०६. अझुसिरमादीएहिं, जा अणिसटुं तु पंचिगा भयणा ।
अध 'संथड पासुद्धे १०, वोच्चत्थे होति११ चउलहुगा ॥ ३४०७. अंतोवस्सय बाहिं, निवेसणा वाडसाहिए२२ गामे ।
खेत्तंतो अन्नगामा, खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं ॥ ३४०८. सुत्तं च अत्थं च दुवे वि काठ, भिक्खं अडतो तु दुवे५३ वि एसे ।
लाभे४ सहू एति दुवे वि घेत्तुं, लाभासती५ एग दुवे व हावे ॥ ३४०९. दुल्लभे सेज्जसंथारे, उडुबद्धम्मि कारणे ।
मग्गणम्मि विधी एसो, भणितो खेत्तकालतो'६ ॥ ३४१०. उडुबद्ध ७ कारणम्मि, अगेण्हणे लहुग गुरुग वासासु ।
उडुबद्धे जं । भणियं, तं चेव य सेसयं वोच्छं ॥ ३४११. वासासु अपरिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्यो ।
मणिकुट्टिमभूमीए८, तमगिण्हण९ चउगुरू आणा ॥नि. ४४६ ॥ ३४१२. पाणा सीतल कुंथू, उप्पायग दीह गोम्हि सिसुणागे२० ।
पणए२१ य उवधि कुत्थण, मल उदकवधो अजीरादी ॥नि. ४४७ ॥
१. (ब,स)। २. कज्ज (अ)।
सुसिरे वि झुसिरे (ब)।
अकप्पम्मि (स)। ५. कारणे वि (अ)
गहियाय (ब)।
अझुसिर ० (ब)। ८. अणिसि8 (अ)। ९. रुयणा (ब)। १०. संथया सुद्धो (ब)। ११. होति (ब)।
१२. ० साडिए (अ)। १३. दुए (ब)। १४. लाभि (ब)। १५. लाभासयं (ब)। १६. x (अ) १७. ०बद्धं (स)। १८. ० भूमीय वि (अ.स)। १९. तमगेण्हाणे (अ)। २०. सुणाए (ब), सुसुणाए (अ)। २१. पाणे (स)।
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अष्टम उद्देशक
[ ३२३ ३४१३. तम्हा खलु घेत्तव्यो, तत्थ इमे पंच वण्णिता भेदा' ।
गहणे य अणुण्णवणा', एगंगिय ‘अकुय पाउग्गे'३ ॥दारं ॥नि. ४४८ ।। ३४१४. गहणं च जाणएणं, सेज्जाकप्पो उ जेण समधीतो ।
उस्सग्गववातेहिं, सो गहणे कप्पिओ होति ॥दारं ॥ ३४१५. अणुण्णवणाय जतणा, गहिते जतणा य' होति कायव्वा ।
अणुण्णवणाएँ ६ लद्धे , बेंती' पडिहारियं एयं ॥ ३४१६. कालं च ठवेति तहिं, 'बेति य परिसाडि वज्जमप्पेहं ।
अणुण्णवण जयणेसा, गहिते जतणा इमा होति ॥ ३४१७. कास पुणऽप्पेयव्यो १, बेति ममं१२ जाधे तं भवे सुण्णो ।
अमुगस्स सो वि सुन्नो, ताधे घरम्मि ठवेज्जाहि'३ ॥ ३४१८. कहि एत्थ चेव ठाणे, पासे उवरिं च तस्स पुंजस्स ।
अधवा तत्थेवच्छउ, ते वि हु नीयल्लगा अम्हं१४ ॥ ३४१९. एसा गहिते१५ जतणा, एत्तो गेहतए उ वोच्छामि ।
एगो च्चिय गच्छे पुण, संघाडो गेण्हऽभिग्गहितो ॥ ३४२०. आभिग्गहियस्सऽसती, वीसुं गहणे पडिच्छिउं सव्वे ।
दाऊण तिन्नि गुरुणो, गेण्हंतऽण्णे जहा६ वुड्ढे ॥दारं ॥ ३४२१. णेगाण१७ तु णाणत्तं८, सगणेतरऽभिग्गहीण वन्नगणे ।
दिट्ठोभासण लद्धे, सण्णातुड्ढे पभू चेव९ ॥नि. ४४९ ॥ ३४२२. दिट्ठादिएसु एत्थं, एक्केक्के 'होतिमे उ छब्भेदा'२० ।
दतॄण अधाभावेण, वावि सोउं च तस्सेव ॥ ३४२३. विप्परिणामणकधणा, वोच्छिन्ने चेव विपडिसिद्धे२१ य ।
एतेसिं तु विसेसं, वोच्छामि अधाणुपुल्वीए ॥
१. भयया (अ)।
वणे (ब)। कुयपातोग्गे (ब)। समहीतो (अ) या (आर अणुण्णाए (ब)। बिति (ब)!
टावेति (ब) ९. चेव तिय (अ)। १०. जतण एसा (अ)। ११. पुण घेत्तव्यो (स)।
१२. मिम (ब)। १३. टविज्जह (स)। १४. तत्थ (स) १५. तहिं व (स). १६. तहा (मु)। १७. णेगातो (ब)। १८. णाउत (ब)। १९. चेवा (ब)। २०. होति छ भवे भेदा (अ.स)। २१. विपरिणामग सिद्धे० (स) ।
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३२४ ]
व्यवहार भाष्य
३४२४. संथारो देहतं, असहीण पशुं तु पासिउं' पढमो ।
ताधे पडिसरिऊणं, ओभासिय लद्धमाणेति ॥ ३४२५. संथारो दिट्ठो न य, तस्स पभू लहुग अकहणे गुरुणं ।
कधिते व अकधिते वा, अण्णेण वि आणितो तस्स ॥दारं ।। ३४२६. बितिओ उ अन्नदिटुं, अहभावेणं तु लद्धमाणेती० ।
पुरिमस्सेवं१ सो खलु, केई१२ साधारणं बेंति ॥दारं ।। ३४२७. ततिओ तु गुरुसगासे, विगडिज्जतं सुणेत्तु संथारं ।
अमुगत्थ मए दिट्ठो, हिंडंतो वण्णसीसंतं ॥ ३४२८. गंतूण तहिं जायति, लद्धम्मी१३ बेति'४ अम्ह एस विधी ।
अन्नदिट्ठो न कप्पति, दिट्ठो५ एसो उ अमुगेणं ॥ ३४२९. मा देज्जसि तस्सेयं ६, पडिसिद्धे तम्मि एस मज्झं तु ।
अण्णा धम्मकधाए, आउट्टेऊण तं पुवं७ ॥दारं ।। ३४३०. संथारगदाण फलादिलाभिणं बेति देहि१८ संथारं ।
अमुगं तु तिन्निवारा, पडिसेधेऊण तं१९. मझं ॥ ३४३१. एवं विपरिणामितेण, लभति लहुगा२° य होंति सगणिच्चे ।
अन्नगणिच्चे गुरुगा, मायनिमित्तं भवे गुरुगो ॥दारं ।। ३४३२. अह पुण जेणं दिट्ठो, अन्नो लद्धो तु तेण संथारो ।
छिन्नो तदुवरि भावो, ताधे जो लभति तस्सेव ॥ ३४३३. अहवा वाता
अहवा वि तिन्नि वारा उमग्गितो नविय तेण लदो उ ।
भावे छिन्नमछिन्ने, अन्नो जो लभति तस्सेव ॥ ३४३४. एवं ता दिट्ठम्मी२१ ओभासते२२ वि होति छच्चेव ।
सोउं अहभावेण व, विप्परिणामे य धम्मकधा ॥
१. एसिउं (ब)। २. पडियरि० (स)।
यह गाथा टीका की मुद्रित पुस्तक में नहीं है। किन्तु सभी हस्तप्रतियों में मिलती है । टीका में इस गाथा की व्याख्या
प्राप्त है। ४. x (ब)। ५. वा (ब)। ६. अकहिते (स)। ७. व(ब)। ८. याणितो (आ)। ९. x(अ)। १०. ०माणेति (ब)।
११. पुरिसस्सेवं (ब)। १२. केती (ब)। १३. लम्मि (स)। १४. बेंति (अ)। १५. अम्हे (अ)। १६. तत्थेयं (मु)। १७. पुब्बि (ब)। १८. देह (स)। १९. तो (अ.स)। २०. बहुगो (म)। २१. दिट्ठतो (ब), दिट्ठम्मि (अ)। २२. तु भासते (अ)।
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अष्टम उद्देशक
[ ३२५
३४३५. वोच्छिन्नम्मि व भावे, 'अन्नो वनस्स२ जस्स देज्जाहि ।
एते खलु छन्भेदा, ओभासण होति बोधव्वारे ॥ ३४३६. ओभासिते अलद्धे, अव्वोच्छिन्ने ‘य तस्स'६ भावे तु ।
सोउं अण्णोभासति, लद्धाणीतो" पुरिल्लस्स ॥ ३४३७. सेसाणि जधादिढे, अह भावादीणि जाव वोच्छिन्ने ।
दाराइं जोएज्जा, छट्ठ विसेसं तु वोच्छामि ॥ अच्छिन्ने अन्नोन्नं, सो वा अन्नं तु जदि स० देज्जाही११ ।
कप्पति जो तु पणइतो, तेण व अन्नेण व न कप्पे ॥ ३४३९. लद्धद्दारे चेवं, जोए जहसंभवं तु दाराइं ।
जत्तियमेत्त३ विसेसो, तं वोच्छामी'५ समासेणं ॥ ३४४०. ओभासितम्मि लद्धे, भणंति'६ न तरामु२७ एण्हि नेउं जे ।
अच्छउ हामो पुण८, कल्ले वा ९ घेच्छिहामो° त्ति ॥ ३४४१. नवरि य अन्नो आगत, तेण वि सो चेव पणइतो२१ तत्थ ।
दिन्नो अन्नस्स ततो२२, विष्परिणामेति तह चेव ॥ ३४४२. अहभावालोयण धम्मकधण वोच्छिन्नमन्नदाराणि२३ ।
णेयाइं२४ तह२५ चेव उ, 'जधेव ऊ'२६ छट्ठदारम्मि ॥ ३४४३. सण्णातिए२७ वि तेच्चिय२८, दारा नवरं इमं२९ तु नाणत्तं ।
आयरिएणाभिहितो, गेण्हउ३० संथारयं अज्जो ॥ ३४४४. सुद्धदसमीठिताणं, बेती घेच्छामि तद्दिणं चेव ।
नातगिहे पडिणत्तो, मए उ संथारओ भंते ! ॥
१... वि (स)। २. वा अन्नस्स (अ, ब)। ३. नायव्वा (म)। ४. ओभासणे (स)। ५. अणवो ०(ब)। ६. तवस्स (ब), व तस्स (स)। ७. लद्धाणी सो (ब) । ८. देसाणि (ब)। ९. अन्नो अन्नं (अ) १०. सा (ब)।
११. देज्जाहि (ब)। .१२. पुणतितो (ब)।
१३. जनियमितो (अ)। १४. विसेसा (ब)। १५. वोच्छाम्मि (स)।
१६. भणामि (ब)। १७. तरामो (अ, ब)। १८. पुण्णो (अ)। १९. व (स)। २०. एच्छियामो (स)। २१. पणमितो (ब)। २२. स उ(अ)। २३. ० दाराणी (अ)। २४. णेवाणि (ब), णेयाणी (स) । २५. तहा (अ)। २६. तधेव उ(स)। २७. सण्णातए (स)। २८. एच्चिय (स)। २९. यमं (ब), गेण्हइ (ब)। ३०. x(ब)।
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३२६ ]
व्यवहार भाष्य
३४४५. 'विपरिणामे तहच्चिय", अन्नो गंतूण तत्थ नायगिहं ।
आसन्नतरो गिण्हति, मित्तो अन्नो विमं वोत्तुं ॥ ३४४६. अन्ने वि तस्स नियगारे, देहिह अन्नं य ४ तस्स ममदाउं ।
दुल्लभलाभमणाउं, ठियम्मि दाणं हवति सुद्धं ॥ ३४४७. सण्णाइगिहे" अन्नो, न गेण्हते तेण असमणुण्णातो ।
सति विभवे असतीएं, सो वि हुन वि तेण निव्विसति ॥दारं ।। ३४४८. सेसाणि य दाराणी', तह वि य बुद्धीय भासणीयाई ।
उद्धद्दारे वि तधा, नवरं उद्धम्मि नाणत्तं ।। ३४४९. आणेऊण "न तिण्णे१९, वासस्स य आगमं तु नाऊणं ।
मा उल्लेज्ज हु छण्णे, ठवेति'१ मा वण्ण मग्गेज्जा ॥ ३४५०. पुच्छाए नाणत्तं, केणुद्धकतं तु पुच्छियमसिद्धे ।
अन्नासढमाणीतं, पि पुरिल्ले केइ१२ साधारं३ ॥ ३४५१. छन्ने१४ उद्धोवकतो, संथारो जइ वि सो अधाभावो५ ।
___ तत्थ वि सामायारी, पुच्छिज्जति इतरधा६ लहुगो ॥ ३४५२. सेसाइं तह चेव य, विप्परिणामादियाइ दाराइं ।
बुद्धीय विभासेज्जा, एत्तो वुच्छं पभुद्दारं ॥दारं ॥ ३४५३. 'पभुदारे वी१७ एवं, नवरं पुण तत्थ होति अहभावे ।
एगेण पुत्त जाइय, बितिएण८ पिता तु तस्सेव ॥ ३४५४. जो पभुतरओ तेसिं, अधवा दोहिं पि जस्स दिन्नं ९ तु ।
अपभुम्मि२० लहू आणा, एगतरपदोसतो जं च ॥ ३४५५. अहवा दोन्नि वि पहुणो, ताधे साधारणं तु दोण्हं पि ।
विप्परिणामादीणि२१ तु, सेसाणि२२ तधेव भावेज्जा२३ ॥दारं ।।
१. विप्परिणामेण तह चिय (स)।
नियागा (अ)। देहिहि (अ)। व(अ)। पुन्नाय० (ब), सण्णात० (स)। असतीय व (स),सत्तीय (ब)।
सेसाणि य दाराणं (ब)। ८. उद्धदारे (स)। ९. आणेतूण (अ)। १०. नितिण्णो (अ)। ११. ठवेउ (अ)। १२. केति (अ)।
१३. साहारं (अ)। १४. छिन्नो (अ)। १५. अहाभावो (ब)। १६. इयरहा (अ)। १७. पभुद्दारे वि (ब)। १८. बितिया उ(अ)। १९. वि दिन्नं (अ)। २०. गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। २१. दीण (स)। २२. सेसाणं (अ), सेसाणि वि (ब)। २३. भासेज्जा (ब)।
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अष्टम उद्देशक
[ ३२७
३४५६. एस विधी तू' भणितो, जहियं संघाडएहि मग्गंति ।
संघाडेहऽलभंता, ताहे वंदेण मग्गति ॥ ३४५७. वंदेणं तह चेव य, गहणुण्णवणाइ२ तो विधी एसो ।
नवरं पुण नाणत्तं, अप्पिणणे होति' नातव्वं ॥ ३४५८. सव्वे वि दिट्ठरूवे, करेहि पुण्णम्मि अम्ह एगतरो ।
अण्णो वा वाघातो, अप्पेहिति जं भणसि तस्स ॥ ३४५९. एवं ता सग्गामे', असती आणेज्ज अण्णगामातो ।
सुत्तत्थे काऊणं, मग्गति भिक्खं तु अडमाणो ॥ ३४६०. अद्दिढे सामिम्मि उ, वसिउं आणेति बितियदिवसम्मि ।
खेत्तम्मी उ असंते, आणयणं खेत्तबहिया उ ॥ ३४६१. सव्वेहि आगतेहिं, दाउं गुरुणो उ सेस' जहवुड्डू ।
संथारे घेत्तूणं, ओवासे होतऽणुण्णवणा ॥ ३४६२. जो पुव१ अणुण्णवितो, पेसिज्जतेण होति ओगासे ।
हेट्ठिल्ले सुत्तम्मि, तस्सावसरो१२ इहं पत्तो'३ ॥ ३४६३. नाऊण१४ सुद्धभावं, थेरा वितरंति५ तं तु ओगासं ।
सेसाण वि जो जस्स उ, पाउग्गो तस्स तं देति ॥ ३४६४. खेल निवात पवाते, काल गिलाणे य सेह पडियरए१६ ।
समविसमे पडिपुच्छा, आसंखडिए अणुण्णवणा ॥ ३४६५. एवमणुण्णवणाए, एतं.७ दारं१८ इहं परिसमत्तं ।
एगंगियादि१९ दारा, एत्तो उड़े पवक्खामि ॥दारं ।। ३४६६. असंघतिमेवर फलगं, घेत्तव् तस्स असति संघाइं२१ ।
दोमादि तस्स असती२२, गेण्हेज्ज२३ अधाकडा कंबी२४ ॥
१. २. ३. ४.
तु (अ, स)। ० णुण्णवइ (अ)। उ(अ)। अप्पण्णे (ब)। वेति (स)। अप्पिहिति (ब), अप्पेहति (स)। सब्मामे (स)।
६. ७.
१३. ब प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है। १४. नातूण (ब)। १५. x (ब)। १६. सिद्धपडि० (अ)। १७. एत (अ)। १८. x (ब)। १९. एगिदियादि (ब)। २०. असंघातिमे (अ, स)। २१. संघायं (अ), संघाय (स)। २२. सती (अ)। २३. ० ज्जा (अ,स)। २४. कंबे (ब)।
९. खेत वि बहिया (ब)। १०. सेसं (ब)। ११. पुचि (ब, स)। १२. ०सरं (स)।
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३२८ ]
१.
२.
3.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
३४६७.
३४६८.
कायव्वा
कुयबंधणम्मिरे लहुगा, विराधणा होति संजमाताए । सिढिलिज्जतम्मि जधा, विराधणा होति पाणाणं ३४६९. पवडेज्ज' व दुब्बद्धे, विराधणा तत्थ होति जम्हा एते दोसा, तम्हा उ कुयं न ३४७० तद्दिवसं पडिलेहा, ईसी उक्खेउ' हेट्ठ रयहरणेणं भंड, अंके भूमी ३४७१. एवं तु दोन्नि वारा, पडिलेहा तस्स होत सव्वे बंधे मोतुं पडिलेहा होति पक्खस्स ३४७२. उग्गममादी सुद्धो, गहणादी जो व वण्णितो एस एसो खलु पाउग्गो, हेट्ठिमसुत्ते व जो भणितो कज्जम्मि समत्तम्मी १ अप्पेयव्वो अणप्पिणे १२ लहुगा । आणादीया दोसा, बितियं उट्ठाण हित दड्ढो ३ ३४७४. वुड्ढावासे चेवं, गहणादि पदा उ होंति नायव्वा 1 नाणत्त खेत्-काले, अप्पडिहारी१४ य सो नियमा ॥ नि. ४५० ॥ ३४७५. काले जा पंचाहं, परेण वा खेत्त जाव बत्तीसा
11
॥
।
अप्पडिहारी १५ असती, मंगलमादी तु पुव्वुत्ता ॥नि. ४५१ ॥ ३४७६. वुड्डो खलु समधिकितो १६, अजंगमो सो य जंगमविसेसो
1
य I
अविरहितो वा वुत्तो, सहायरहिते इमा जतणा || ३४७७. दंड विदंडे" लट्ठी, विलट्ठि चम्मो य चम्मकोसे चम्मस्स य जे छेदा १९, थेरा वि य जे जराजुण्णा ॥ ३४७८. आयवताणनिमित्तं, छत्तं दंडस्स कारणं कीस ठवेती पुच्छा, सदिग्ध थूरो व२०
३४७३.
दोमादि संतराणि उ, करेति मा तत्थ तू णमंतेहिं' 1 'संथरए अण्णोणे '२, पाणादिविराधणा हुज्जा ॥ दारं ॥
समतेहिं (ब) ।
संथरिसेणणोणे (अस) ।
कुव बंध ० (अ) ।
विसहणा (ब)। पवडेइज्ज (स) ।
X (अ)।
ईसि (स) ।
उक्खेत्तु (स, अ) ।
भूमी (ब)।
० माती (ब)।
o
आयाए |
बंधेज्जा ॥
उवरिं च
वा काउं
॥
१५. अपडी० (स)।
१६. ०धिगतो (ब)।
१७. अयंगमो (स) । १८. विडंडे (स) ।
१९. भेदा (स)।
२०. उ (अ) ।
I
11
I
||
दुग्गट्ठा
११.
。 fin (31), ofi (1) |
१२. अप्पिणो (ब), अणप्पिणा (स) ।
१३. दद्धे (अ), दिट्ठे (ब) ।
१४. अपडी० (स)।
।
व्यवहार भाष्य
11
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अष्टम उद्देशक
[ ३२९
३४७९. भंडं पडिग्गहं खलु , उच्चारादी' य मत्तगा तिन्नि ।
अहवा भंडगगहणे, णेगविधं भंडगं जोग्गं ॥ ३४८०. चेलग्गहणे कप्पा, तस-थावर जीवदेहनिष्फण्णा ।
दोरेतरा व चिलिमिणि, चम्मं तलिगा व कत्तिव्वारे ॥ ३४८१. 'अंगुट्ठ अवर पण्हि", नह कोसग छेदणं तु जे वज्झाई ।
तें छिन्नसंधणट्ठा, दुखंड संधाणहेउं वा ॥ ३४८२. जदि उ ठवेति असुण्णे११, न य बेती'२ देज्जहेत्थ ओधाणं ।
लहुगो सुण्णे१३ लहुगा, हितम्मि जं जत्थ पावति तु ॥ ३४८३. एयं सुत्तं अफलं, जं भणितं कप्पति त्ति४ थेरस्स ।
भण्णति सुत्तनिवातो, अतीमहल्लस्स५ थेरस्स ॥ ३४८४. गच्छाणुकंपणिज्जो, जेहि१६ ठवेऊण कारणेहिं तु' ।
हिंडति जुण्णमहल्लो, तं सुण८ वोच्छं समासेणं ॥ . ३४८५. सो पुण गच्छेण सम, गंतूण अजंगमो न चाएति ।
गच्छाणुकंपणिज्जो, • हिंडतिथेरो पयत्तेणं ॥ ३४८६. अतक्किय उवधिणा९ ऊ२९, भणिता थेरा अलोभणिज्जम्मि ।
संकमणे पट्ठवणं२१, पुरतो समगं च जतणाए ॥ ३४८७. संघाडग एगेण व२२, समगं गेण्हंति सभय ते उवधिं ।
कितिकम्मदवं पढमा, करेंति तेसिं असति एगो ॥ ३४८८. जइ गच्छेज्जाहि गणो, पुरतो पंथे य सो फिडिज्जाहि२३ ।
तत्थ२४ उ ठवेज्ज एगं, रिक्कं पडिपंथगप्पाहे२५ ॥ ३४८९. सारिक्खकड्डणीए२६, अधवा वातेण होज्ज पुट्ठो उ ।
एवं फिडितो होज्जा, अधवा वी परिरएणं२७ तू ॥
فر
نی
१. ० राती (अ)। २. वि (स)। ३. ०व्व (आ)।
अधर (अ)।
फाणू (स) काणु (अ)। ६. वज्जा (ब), वद्धा (अ)। ७. बंधणट्ठा (ब)। ८. सुखंड० (ब)। ९. य(ब)। १०. ठविति (ब)। ११. अणुसुण्णे (ब)। १२. बेंती (ब)। १३. सुण्ण (ब)।
१४. x (अ)। १५. अतिम० (स)। १६. तहि (ब) जेण (मु)। १७. कारणेणं (मु)। १८. पुण (ब)। १९. उवधिणो (ब)। २०. उ(ब)। २१. पच्छवणं (अ), पत्थवणं (स)। २२. वा (अ)। २३. फलेज्जाहि (स)। २४. जत्थ (अ.स)। २५. पडिपंथि० (स)। २६. सारक्ख ०(स) २७. परिणएणं (अ)।
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३३०
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व्यवहार भाष्य
३४९०. कालगते व सहाए', फिडितो अधवावि संभमो होज्जा ।
पढमबितिओदएण व, गामपविट्ठो व जोरे हुज्जा ॥ ३४९१. एतेहि कारणेहिं, फिडितो जो अट्ठमं तु काऊणं ।
अणहिंडतो मग्गति, इतरे वि य तं विमग्गंति ॥ ३४९२. अध पुण न संथरेज्जा, तो गहितेणेव हिंडती भिक्खं ।
जइ न तरेज्जाहि ततो, ठवेज्ज ताधे असुन्नम्मि ॥ ३४९३. अध पुण ठवेजिमेहि, तु सुन्नऽग्गिकम्मि' कुच्छिएसुं वा ।
नाणुण्णवेज्ज दीह, बहुभुंज पडिच्छते पत्तं ॥ ३४९४. तिसु लहुग दोसु लहुगो, खद्धाइयणे य चउलहू होति ।
चउगुरुग संखडीए, अप्पत्तपडिच्छमाणस्स ॥ ३४९५. असतीयऽमणुण्णाणं, सव्वोवधिणा व भद्दएसुं वा ।
देसकसिणेव घेत्तुं , हिंडति सति लंभ आलोए ॥ असतीऍ अविरहितम्मि, णंतिक्कादीण११ अंतियं ठवए१२ ।
देज्जह ओधाणं ति य, जाव उ भिक्खं परिभमामि ॥ ३४९७. ठवेति गणयंतो वा, समक्खं तेसि बंधिउं ।
आगतो रक्खिता ३ 'भो त्ति'१४, तेण तुब्भेच्चिया इमे ॥ ३४९८. दट्टण वन्नधा गठि५, केण मुक्को त्ति पुच्छती ।
रहितं किं घरं आसी, कोऽपसे व इधागतो ॥ ३४९९. नत्थि वत्थु सुगंभीरं, तं मे दावेह मा चिरा ।
न दिट्ठो वा कधं एंतो, तेण तो उभयो इधं ॥ ३५००. धम्मो 'कधेज्ज तेसिं१६, धम्मट्ठा एव दिण्णमण्णेहिं ।
तुब्भारिसेहि१७ एयं, तुब्भेसु य पच्चओ अम्हं ॥
१. सुहाए (ब)। २. x (अ)। ३. गिहितेण व(अ)।
गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे (म)।
सुन्नेग्गि० (अ) ६.. कुंथितेसु (अ, ब)।
दीहि (अ)। ८. भत्तं (ब)। ९. खद्धाणियाण (ब)।
१०. लंभे (अ)। ११. नैत्यिकादीनाम् (मवृ)। १२. ठविए (अ) १३. रविखणया (ब)। १४. होत्ति (अ), मित्ति (ब)। १५. गंठी (स)। १६. कहेज्ज एसि (अ, ब)। १७. तुब्भारसेहि (अ)।
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अष्टम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
३५०१.
1
||
थेरो त्ति काउं कुरु मा अवण्ण, संती सहाया बहवे ममन्ने I जे उग्गमेहिंति ममे य मोसं खेत्तादि नाउं इति बेंतऽदेते - 11 ३५०३. उवधीपडिबंधेणं, सो एवं अच्छती तहिं थेरो 1 आयरियपायमूला, संघाडेगो व अहपत्तो 11 अदेंत साधें भोइयादीणं 1
३५०२.
जा
राया अधव जा दिन्नं
३५०४. ते विय मग्गति ततो, एवं तु उत्तरुत्तर ११, अध पुण अक्खु चिट्ठे १२, तुब्भेच्चयं इमं ति य,
ताधे दोच्चोग्गहं अणुण्णव १३ । जेणं भे रक्खियं तुमए१४
१९
३५०६. घेत्तूवहिं सुन्नघरम्मि १५ भुंजे, खिन्नो व तत्थेव उ छन्नदेसे १६ 1 छन्नाऽसती भुंजति'" कच्चगे तू, सव्वो" वि तुब्भाण करेत्तु ९ कप्पं ३५०७. मज्झे दवं पिबंतो, भुत्ते वा तेहि चेव दावेति वामोय २० एमेव य कच्चए डहरे इतरे
नेच्छे
३५०८. अप्पडिबज्झतगमो, एमेव अवुड्ढस्स वि.
I
वि ११ वेस पयत्तेणं T नवरं गहितेण अडणं तु ॥ ३५०९. संथारएसु पगतेसु, अंतरा २२ छत्त-दंड-कत्तिल्ले २३ जंगमथेरे जतणा, अणुकंप रहे ३५१०. दोच्चं २४ व अणुण्णवणा, भणिया इमिगा वि नियउग्गहम्मि पढमं, बितियं तु
पुव्वं भणिता चेवं
तं
३५०५.
तो ठवितं णो एत्थं, 'तं दिज्जउ " सावया इमं अम्हं जदि दें तो रमणिज्जं, अदेंत ताधे इमं भणती
३५११. परिसाडिमपरिसाडी २५,
पडिहारियसागारिय
जे (ब)।
ठविता (स)।
पहे (स), X (ब)।
दिज्जउ तं (ब)।
इयं (ब, मु) ।
थेरा (ब) ।
६.
७.
कुर (ब)।
८.
वेदयंते (अस) ।
९.
भत्तियाईणं (ब)।
१०.
X (ब)।
११. उत्तरोत्तर (ब), उत्तर उत्तर (स) ।
१२. दिट्ठे (अ, ब, ट्ठितो (स)
१३. अणणुवायण (ब) ।
परोग्गहे
समक्खाता
दोच्चऽणुण्णवणा ।
सुत्तं ॥
इमं तु
बहिं
१४.
१५. पुण्ण० (ब)।
१६. ० देसा (ब)।
इणमो ( ब, स ) ।
१७. भुंजती (ब)।
१८. संतो (स) ।
१९. करेतु (स) ।
२०. ०त्तण (स) ।
२१.
11
1
||
२२. अंतरी (ब)।
२३. कंतिल्ले (स) ।
२४. देच्चं (ब)।
२५. परिसाडी ० ( ब ) ।
२६. सम्प्रति नियुक्तिविस्तर : (मवृ) ।
11
गवेषयन्ति गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् (भवृ) ।
नाणत्तं 1
नेति २६ ॥ नि. ४५२ ॥
[ ३३१
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________________
३३२ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
३५१२. परिसाडी पडिसेधो, पुणरुद्धारो य वणितो पुव्वं । अपरिसाडिग्गहणं, वासासु य वण्णियं नियमा li ३५१३. पुण्णम्मि अंतर मासे, वासावासे विमं भवति सुतं । 'तत्थेवण्ण गविस्से", असती तं चेयऽणुण्णव
॥
३५१४.
अहवा अवस्सघेत्तव्वयम्मि दव्वम्मि किं भवे पढमं 1 नयणं समगुण्णा वा, विवच्चतो वा जधुत्ताओं ॥ ३५१५. एमेत्र अपुण्णम्मि वि, वसधीवाघाय गंतव्ववासयाऽसति संथारो
अन्नसंकमणे I सुनो ॥ ३५१६. नीहरिडं संथारं, पासवणुच्चार भूमिभिक्खादी गच्छेऽधवा वि झायं, करेतिमा तत्थ आरुवणा "
।
३५१७. एतेसुं चउसुं पी, राया दुट्ठग्गहणे, ३५१८. उग्गहसमणुण्णासुं'४, अणुवत् भवे, ३५१९. सेज्जासंथारदुगं १५,
तणेसु लहुगो य१२ लहुगफलगेसु ३ । चउगुरुगा होत नातज्वा 11 सेज्जासंथारएसु य तधेव । पंते अणुलोमवइ सुत्तं ॥ sugraऊण ठायमाणस्स |
लहुगो लहुगो लहुगा, आजादी निच्छुभण पंतो ॥ नि. ४५३ ।। ३५२०. एवमदिण्ण वियारे १६, दिण्णवियारे वि सभ - पवादीसु१७ । तण-फलगाणुण्णाता, कप्पडियादीण जत्थ भवे ॥ ताण वि तु न कप्पंती, इतरियं पि न कप्पति, जम्हा १८ तु अजाइतोग्गहणं ॥
अणणुण्णवितम्मि लहुगमासो उ
1
३५२१.
३५२२. जावंतिय दोसा वा ९, एते दोसे पावति, ३५२३. किन्तु अदिन्नवियारे, रक्खज्जते तहियं,
पुव्विं (ब) ।
वण्णिउं (स)।
अंतो (अ) ।
हवति (अ)।
तत्थेव वा गवेसे (ब)।
चेवणु० (स) ।
कं (अस) ।
जहुओ (ब)।
गंतव्वं वासया ० (अ)।
० खाती (ब)।
अदत्तनिच्छुभण दिवस- रातो वा 1 दिन्नवियारे वि ठायंते ॥ कोट्ठारादीसु२० जत्थ तणफलगा I अणगुण्णाए न ठायंति
११. गच्छे ऽहवं (अ) ।
१२. उ (स) ।
१३. ० गपक्खेसु (स) ।
१४. ०णासू (स) ।
१५. ० संथारएस (स) ।
१६. विदारे (ब) ।
१७. य वादीसु (स) ।
१८. तम्हा (अ) ।
१९. या (स) । २०. कोट्ठारीसु (ब)।
व्यवहार भाष्य
||
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________________
[३३३
अष्टम उद्देशक ३५२४. दोसाण रक्खणट्ठा, चोदेति निरत्थयं ततो सुतं ।
__ भण्णति कारणियं खलु , इमे यरे ते कारणा होंति ॥नि. ४५४ ॥ ३५२५. अद्धाणे अट्ठाहिय, ओमऽसिवे गामऽण्गामवियाले' ।
तेणा सावयमसगा, सीतं वासं दुरहियासं ॥नि. ४५५ ।। ३५२६. एतेहि कारणेहिं, पुवं' पेहित्तु दिवऽणुण्णाते ।
ताधे अयंति दिढे, इमा तु जतणा तहिं होती ॥ ३५२७. पेहेत्तुच्चारभूमादी", ठायंति- वोत्तु परिजणं ।
अच्छामो जाव सो एती, जाईहामो तमागतं ॥ ३५२८. वयं वण्णं च नाऊणं, वयंति' वगुवादिणो ।
सभंडावेतरे० सेज्जं, अप्पंदंति१ निरंतरं ॥ ३५२९. अब्भासत्थं गंतूण, पुच्छए दूरए त्तिमा जतणा ।
तद्दिसमेंत२ पडिच्छण, पत्तेय कधेति सब्भावं ॥ ३५३०. बिले व वसिउं नागा, पातो'३ गच्छामु सज्जणा ।
निरत्थाणं बहिं दाँसा, जाते मा होज्ज तुज्झ४ वी ॥ ३५३१. जदि देति सुंदरं तू , अध उ वदिज्जाहि 'नीह मज्झ१५ गिहा ।
अन्नत्थ६ वसधि७ मग्गह, तहियं अणुसट्ठिमादीणि८ ॥ ३५३२. अणुलोमणं सजाती, सजातिमेवेति ९ तह वि उ२° अठते२१ ।
अभियोगनिमित्तं वा, बंधण गोसे य ववहारो ॥ ३५३३. मा णे छिवस् भाणाई, मा भिंदिस्ससि णोऽजत !२२ ।
दुहतो मा य वालेंति२३, थेरा वारेंति संजए ॥ ३५३४. अहवा बेंति अम्हे ते, सहामो२४ एस ते बली ।
न सहेज्जावराधं ते, तेण होज्ज न ते खमं ॥
१.
यमे (ब)।
is
x
3 w
३. गामणुगामियवि ० (ब)।
तेणे (स)। पुव्वि (अ)।
जइंति (अ), अइंति (स)। ७. भोमादी (स)। ८. ठायंती (ब, स)। ९. वयंते (स)। १०. से भंडा० (ब)। ११. अफुरंति (अ), अष्फुदंती (ब), अफडंती (स)। १२. समित्त (आ)।
१३. पादो (ब)। १४. तुब्भ (स)। १५. मज्झ णीति (ब)। १६. अण्णुत्थ (ब)। १७. वसहि (स)। १८, ० मातीणि (ब)। १९. सुजाइ० (ब)। २०. x (ब)। २१. अस्थते (अ)। २२. ० जतं (अ)। २३. छालेंति (स)। २४. सहामु (आ)।
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३३४ ]
व्यवहार भाष्य
३५३५. सो य रुट्ठो व उतॄत्ता, खंभं कुहूं व कंपते ।
पुव्वं व णातिमित्तेहिं, तं गमेंति पहूण वा ॥दारं ।। ३५३६. गहितऽन्नरक्खणट्ठा, वइसुत्तमिणं समासतो भणियं ।
उवधी सुत्ता उ इमे, साधम्मिय तेण रक्खट्ठा ॥ ३५३७. दुविधो य अधालहुसो, जधण्णतो मज्झिमो य उवधी तु ।
अन्नतरग्गहणेणं, घेप्पति तिविधो तु उवधी तु ॥ ३५३८. अंतो परिठावंते', 'बहिया य वियारमादीसु'६ लहुगो ।
अन्नतरं उवगरणं, दिटुं संका ण घेच्छंति ॥नि. ४५६ ।। ३५३९. किं होज्ज परिठ्ठवितं, पम्हुटुं' वावि तो न गेण्हंती ।
किं एयस्सऽन्नस्स व, संकिज्जति गेण्हमाणो वि ॥नि. ४५७ ॥ ३५४०. थिग्गल धुत्तापोत्ते,० बालगचीरादिएहि अधिगरणं११ ।
बहुदोसतमा कप्पा, परिहाणी जा विणा तं च ॥नि. ४५८ ।। ३५४१. एते अण्णे य बहू , जम्हा दोसा तहिं१२ पसज्जती१३ ।।
आसन्ने अंतो वा, तम्हा उवहिं न वोसिरए१४ ॥नि. ४५९ ॥ ३५४२. निस्संकितं तु नाउं, विच्चुयमेयं५ ति ताधे घेत्तव्वं ।
संकादिदोसविजढा, नाउं वप्पेंति६ जस्स वयं७ ॥ ३५४३. समणुण्णेतराणं वा, संजती संजताण वा८ ।
इतरे उ अणुवदेसो, गहितं पुण .घेप्पए तेहिं ॥ ३५४४. बितियपदे न गेण्हेज्ज, विविंचिय दुगुंछिते असंविग्गे ।
तुच्छमपयोयणं वा, अगेण्हता होतऽपच्छित्ती ॥ ३५४५. अंतो विसगलजुण्णं, विविचितं तं च दट्ट नो गिण्हे ।
असुइट्ठाणे१९ वि० चुतं, बहुधा वालादि छिन्नं वा ॥ ३५४६. हीणाहियप्पमाणं, सिव्वणि 'चित्तल विरंग'२१ भंगी वा ।
एतेहि असंविग्गोवहि ति दटुं विवज्जती ॥
१. स (आ)। २. गिहितं न रक्ख० () गिहितेन ० (स)। ३. कधियं (अ), कहियं (स)।
उवहि (स)। परिट्ठवंते (स)।
तहिया व विहार० (स)। ७. गच्छंति (अ), सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मवृ) । ८. पम्हटुं (ब)। ९. एयस्स व अन्नस्स (स)। १०. धूतापोत्ते (स)।
११. अहिग ०(ब)। १२. तेहिं (अ)। १३. सज्जती (ब)। १४. वोसिरे (अ, ब, स)। १५. विज्जुय० (अ)। १६. वप्पति (अ), वप्पिति (स)। १७. तयं (अ)। १८. गाथा के पूर्वार्द्ध में अनुष्टुप् छंद है। १९. असुयट्ठाणे (अ)। २०. व (अ)। २१. चित्तलि विभंग (स)।
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अष्टम उद्देशक
[ ३३५
३५४७. एमेव य बितियपदे, अंतो मुवरि ठवेज्जउ इमेहिं ।
तुच्छो अतिजुण्णो वा, सुण्णे वावी विविंचेज्जा ॥ ३५४८. एमेव य बहिया वी, वियारभूमीय होज्ज पडियं तु ।
तस्स वि एसेव गमो, होति य नेओ निरवसेसो ॥ ३५४९. गामो खलु पुव्वुत्तो, दूइज्जते तु 'दोनि उ विहाणा' ।
अन्नतरग्गहणेणं, दुविधो तिविधो व उवधी तु ॥ ३५५०. पंथे उवस्सए वा, पासवणुच्चारमाइयंते० वा ।
पम्हुसती११ एतेहिं, तम्हा मोत्तूणिमे ठाणा१२ ॥नि. ४६० ॥ ३५५१. पंथे वीसमणनिवेसणादि सो मासों होति लहुगो उ ।।
आगंतारट्ठाणे१३, लहुगा आणादिणो दोसा४ ॥नि. ४६१॥ ३५५२. मिच्छत्तअन्नपंथे, धूली उक्खणण उवधिणों५ विणासो ।.
ते चेव य सविसेसा, संकादि विविंचमाणे वी दारं ॥नि. ४६२ ॥ ३५५३. पंथे न ठाइयव्वं, बहवे दोसा तहिं पसज्जंति ।
अब्भुट्ठिता ति१६ गुरुगा, जं वा आवज्जती जत्तो ॥ ३५५४. जाणंति अप्पणो सारं, एते समणवादिणो ।
सारमेतेसि" लोगो यं, अप्पणो 'न वियाणती८ ॥दारं ।। ३५५५. अण्णपधेण वयंते, काया सो चेव वा भवे पंथो ।
अचियत्तऽसंखडादी, भाणादिविराधणा९ चेव ॥दारं ।। ३५५६. सरक्खधूलिचेयण्णे२०, पत्थिवाणं विणासणा ।
अचित्तरेणुमइलम्मि, . दोसा धोव्वणऽधोव्वणे२१ ॥ ३५५७. वेगाविद्धा२२ तुरंगादी, सहसा दुक्खनिग्गहा ।
परम्मुहं मुहं किच्चा, पंथा ठाणं२३ पणोल्लए२४ ॥
१. 'मुयरिं (ब), उवरि (स)। २. ठवेज्ज (अ), 8वे० (स)। ३. वावि (अ)।
विचिंतेज्जा (ब)। ५. भूमि (ब)। ६. x (ब)। ७. अ और स प्रति में यह गाथा नहीं है। ८. पुब्विज्जते (ब), दूसिज्जते ()। ९. वण्णिउ (अ, ब)। १०. ० माईयंते (ब)। ११. ० सति (अ) ०सते (स) । १२. सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मवृ) ।
१३. आगंतरसट्ठाणे (ब)। १४. चेव (अ.स)। १५. ०धिणो वा (ब)। १६. त्ति (अ) १७. सारमित्तेसि (ब)। १८. य न याणई (ब,स)। १९. भाणेतिराहणा (ब)। २०. ० धूलीचे० (स) २१. ०धोवणा (ब)। २२. वेगाइद्धा (अ.स)। २३. वणं (ब)। २४. गाथायामेकवचनं प्राकृतत्वात् (मवृ)।
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३३६ ]
व्यवहार भाष्य
३५५८. पम्हट्ठमवि अन्नत्थ, जइच्छा' कोवि पेच्छती ।
पंथे उवरि पम्हुटुं, खिप्पं गेण्हंति अद्धगा ॥ ३५५९. एवं ठितोवविढे, सविसेसतरा भवंति उ निवण्णे ।
दोसा निद्दपमादं, गते य उवधिं हरंतऽण्णे ॥ ३५६०. उच्चारं पासवणं, अणुपंथे चेव आयरंतस्स ।
लहुगो य होति मासो, चाउम्मासो सवित्थारो ॥ ३५६१. छड्डावणमन्नपहो, दवासती११ दुब्भिगंध कलुसप्पे ।
तेणो त्ति व संकेज्जा, आदियणे चेव उड्डाहो ॥ ३५६२. अच्चातव दूरपहे, असहू भारेण खेदियप्पा वा !
छन्ने वा मोत्तु पहं, गामसमीवे य छन्ने वा१२ ॥ ३५६३. पंथे ठितो'३ न पेच्छति, परिहरिया पुव्ववण्णिया दोसा ।
बितियपदे असतीए, जयणाए चिट्ठणादीणि ॥ ३५६४. संकटु हरितछाया, असती१४ गहितोवही ठितो उड्ढे५ ।
उठेति'६ व अप्पत्ते, 'सहसा पत्ते१७ ततो प४ि८ ॥ ३५६५. भुंजणपियणुच्चारे, जतणं तत्थ कुव्वती ।
उदाहड़ा य९ जे दोसा, पुव्वं तेसु जतो भवे ॥ ३५६६. गंतव्व पलोएउं२०, अकरणे 'लहुगो य दोस आणादी'२१ ।
पम्हट्ठो वोसट्टे, लहुगो२२ आणादिणो चेव ॥नि. ४६३ ।। ३५६७. पम्हढे गंतव्वं३, अगमणे लहुगो य दोस आणादी ।
निक्कारणम्मि तिनी२४, उ पोरिसीकारणे सुद्धो ॥
१. जतिस्थाइ (अ)। २. कोति (ब)। ३. तुवरि (अ.स)। ४. खेप्पं (अ)।
अट्ठमा (ब)।
ठिययं पिटे (ब)। ७. एय (ब)। ८. हवंतण्णे (ब)। ९. ० पहे (ब)। १०. छड्डाणमन्न० (ब)। ११. दव्वा० (ब)। १२. वी (ब,स)।
१३. विट्ठो (ब)। १४. सती व (स)। १५. अच्छे (ब)। १६. उद्वेत (अ)। १७. x (अ)। १८. पिट्टे (अ)। १९. उ(अ)। २०. पलोएज्ज (स)। २१. दोस लहुग आणादी (ब), लहुगो तु दोस० (स)। २२. चउरो (ब)। २३. गंतव्य (स)। २४. तिण्णि (स)।
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अष्टम उद्देशक
१.
२.
३
४.
५.
६.
७.
८.
९.
||
वा
1
तस्स 11
चरमाए' वि नियत्तति', जदि वासो अत्थि अंतरा वसिमे / तिणि वि जामे वसिउं नियत्तति निरच्चए चरिमे ' ३५६९. दूरं सो विय तुच्छो, सावय तेणा नदी व वासं इच्चादिकारणेहिं, करेंति उस्सग्ग मो ३५७०. एवं ता पम्हुट्ठो, जेसि तेसिं' विधी भवे एसो । पुण अन्ने पेच्छे, तेसिं तु इमो विधी होति 11 ३५७१. दट्टुवगहणे लहुगो दुविधो उवही 3 नामणा । दुविधा णायमणाया, संविग्ग तधा
असंविग्गा H
३५६८.
३५७२. मोत्तूण असंविग्गे, संविग्गाणं तु दोवरगा संविग्गे, छब्भंगा
३५७३.
३५७४.
३५७५.
३५७६.
३५७७.
३५७८. ण्हाणादोसरणे वा,
चरिमाए (ब)।
नियत्तंति (ब)।
व्व (स) ।
व (ब) ।
चरमे (अ) ।
तेस (अ) ।
पेच्छति (ब), पुच्छे (स)।
च
सयमेव अन्नपेसे, अप्पाहे वावि एव परगामे वि य एवं, 'संजतिवग्गे वि हाणादऽणाय १३ घोसण, सोउं गमणं पट्टे वोसले, अप्पबहु कामं पम्हुट्ठ ण्हे, चत्तं पुण भावतो इति बेंते १६ समणुण्णे, इच्छाकज्जेसु पक्खिगापक्खिगा चेव, भवंति इतरे संविग्गपक्खिगे १७ णेति, इतरेसिं इतरे वि होज्ज गहणं, किह पुण होज्जा संका
व (अ) ।
मगे ० (ब), दड अगेण्हणे (स) ।
संविग्गमसंविग्गा, इति
अधव
आसंकाए इमेहिं तु
संका
नयणजतणाए 1 मण्णा
1!
छब्भंगा १२
पेसणप्पाहे
असंथेरं तम्मि १४
समावत्तितो
सग्गामे I
"
इमम्हेहिं १५
न गेण्हत १८
अणज्जमाणम्मि
कारणेहिं ति
१०. गोवग्गा ( ब ) ।
११.
गताणेगा
गण्हते पडितं
I
सेसेसु ॥
दुहा ।
11
१७.
१८. गिण्हई (ब)।
1
||
० पक्खगे (ब)।
|
स प्रति में गाथा का उत्तरार्ध नहीं है।
||
1
11
१२. x (ब) ।
१३. पहाणादी णाय (अ) ।
१४. ३५७४ एवं ३५७५ ये दोनों गाथाएं व प्रति में नहीं हैं।
१५. इमम्हेति (स) ।
१६. बेंती (ब)।
[ ३३७
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________________
३३८ ]
व्यवहार भाष्य
३५७९. संविग्गपुराणोवहि', अधवा विधि सिव्वणारे समावत्ती ।
होज्ज व असीवितो च्चिय, इति आसंकाएँ गहणं तु ॥ ३५८०. ते पुण परदेसगते, नाउं भुंजंति अहव उज्झंति ।
अन्ने तु परिट्ठवणा', कारणभोगो व गीतेसुं ॥ ३५८१. बितियपदे न गेण्हेज्ज, संविग्गाणं पिमेहि कज्जेहिं ।
आसंकाएँ न नज्जति, संविग्गाणं व इतरेसि ॥ ३५८२. असिवगहितो व सोउं, ते वा उभयं व होज्ज जदि गहियं ।
ओमेण अन्नदेस, व गंतुकामा न गेण्हेज्जा ॥ ३५८३. अध पुण गहितं पुव्वं, न य दिट्ठो जस्स विच्चुयं तं तु ।
पधावितअण्णदेसं, इमेण विधिणा विगिचेज्जा ॥ ३५८४. दुविहा जातमजाता, जाता अभियोग तह असुद्धा य१ ।
अभियोगादी१२ छेत्तुं , इतरं पुण अक्खुतं१३ चेव ॥ ३५८५. पहनिग्गयादियाणं४. विजाणणट्ठाय तत्थ चोदेति ।।
सुद्धासुद्धनिमित्तं, कीरतु५ चिधं इमं तु तहिं१६ ॥ ३५८६. एगा दो तिन्नि वली, वत्थे कीरंति७ पाय-चीराणि ।
छुब्भंतु८ चोदगेणं, इति उदिते बेति९ आयरिओ ॥ ३५८७. सुद्धमसुद्धं एवं, होति असुद्धं च सुद्ध वातवसा . ।
तेण ति२० दुगेग गंथी२१, वत्थे पादम्मि रेहा ऊ । ३५८८. अद्धाणनिग्गतादी२२, उवएसाणयण पेसणं वावि ।
अविकोवित अप्पणगं, दड्ढे भिन्ने विवित्ते य ॥नि. ४६४ ॥ ३५८९. अद्धाणनिग्गतादी, नाउ परित्तोवधी विवित्ते वा ।
संपंडुगभंडधारि, पेसंती ते विजाणते२३ ॥
१. • पुराणो वा (ब), ० वहिं (स) । २. सिज्जणा (ब), सीवणा (ग) । ३. समावित्ती (अ)।
___ असिवीओ (ब), असिव्विओ (अ)। ५. परिट्ठावण (अ)। ६. पि एहिं (ब)।
विज्जुयं (अ), विब्बुयं (ब)। ८. पवहातितण्ण ० (ब)। ९. इमिणा (अ, ब)। १०. जाय (ब)। ११. या (स)। १२. अभिउग्गादी (ब)।
१३. अक्ख य ()। १४. विहिनि० (अ.स), विहनि० (ब)। १५. कीरइ (अ)। १६. तइहिं (अ)। १७. कीरति (ब)। १८. छुब्भंति (स)। १९. बिति (ब)। २०. x (ब)। २१. गंठी (स)। २२. ० याती (ब)। २३. विणाणते (ब)।
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अष्टम उद्देशक
१.
२.
3.
1
३५९० गड्डा' - गिरि- 'तरुमादीणि २, काउ चिंधाणि तत्थ पेसंति अवियावडा सयं वा, आणतऽन्नं व मग्गति // ३५९१. नीतम्मि वि उवगरणे, उवहतमेतं न इच्छती कोई । अविकोवित अप्पणगं, अणिच्छमाणो विविचंति ॥ झामित-हित- वूढ - पडियमादीसु । तमेव गेहं असढभावो ॥ साहम्मियतेण्ण रक्खणा' चेव ।
अणुवत्तं उ इम, अतिरेगपडिग्गहे" सुत्तं ।
३५९४. साधम्मिय उद्देसो, निद्देसो " होति इत्थि - पुरिसाणं । गणिवायग उद्देसो, अमुगगणी वायए इतरो 11 ३५९५. ऊणातिरित्तधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाता 1
आणादिणो १२ य दोसा, संघट्टणमादि पलिमंथो १३ ॥ नि. ४६५ ॥ ३५९६. दो पायाणुण्णाया, अतिरेगं ततियपत्त माणातो
1
I
धारंत पाणघट्टण ४, भारे पडिलेह पलिमंथो १५ ॥ नि. ४६६ ॥ ३५९७. चोदेती१६ अतिरेगे, जदि दोसा तो १७ धरेतु ओमं तु एक्कं ८ बहूण कप्पति, हिंडंतु य चक्कवालेण१९ ३५९८. पंचण्हमेगपाय, दसणं एक्कमक्क पारेउ । संघट्टणादि एवं न होंति दुविधं च सिं० ओमं ॥ ३५९९. आहारे उवगरणे, दुविधं २१ ओमं च होति २२ तेसिं तु भ कतं, वेहारियलक्खणं चेव
।
||
३५९२. असतीय अप्पणो' विय, सुज्झति कयप्पयत्ते,
३५९३. उवधी दूरद्धाणे,
गेड्डा (ब)।
० मादी वि (बस)|
अवियावट्ठा (अ)।
उ (स) ।
इच्छते (अस) ।
कोति (ब)।
० वितेण (अ) ।
O
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
११. x (अ) ।
अप्पणा (ब) ।
रक्खणो (अ) ० खणे (ब) ।
० गहं (स)।
च
१२. आणातिणो (अ) ।
१३. सम्प्रति निर्युक्तिविस्तरः (मवृ) ।
१४. पाणकड्डूण (ब) ।
१..
X (37) I १६. चोदेति (ब) ।
१७. x (अ)।
१८. एगं (ब)। १९.
२०. सि (ब)।
२१. दुविध (अ)। २२. होंति (ब)।
० वातेणं (स) ।
11
[ ३३९
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३४०
]
व्यवहार भाष्य
३६००. वेहारुगाण' मन्ने, जध सिं जल्लेण मइलियं अंगं ।
मइला' य चोलपट्टा, एगं पादं च सव्वेसि ॥ ३६०१. जेसिं एसुवदेसो, तित्थयराणं तु' कोविया आणा ।
चउरो य अणुग्घाता, णेगे दोसा इमे होती ॥ ३६०२. अद्धाणे गेलण्णे, अप्प पर चता य भिन्नमायरिए ।
आदेस-बाल-वुड्डा', सेहा खममा य परिचत्ता ॥नि. ४६७ ।। ३६०३. दिंते तेसि अप्पा, जढो उ अद्धाण ते जढा जं च ।
कुज्जा कुलालगहणं, वया जढा पाणगहणम्मी ॥ ३६०४. जदि होंति दोस एवं, 'तम्हा एक्केक्क धारए'१० एक्कं ।
'सुत्ते य एगभणियं११, मत्तग उवदेसणा वेण्हि १२ ॥ ३६०५. दिन्नज्जरक्खितेहिं, दसपुरनगरम्मि उच्छुघरनामे ।
वासावासठितेहिं, गुणनिप्फत्ति बहुं नाउं ॥ ३६०६. दूरे चिक्खल्लो वुट्ठिकाय सज्झायझाणपलिमंथो ।
तो तेहि एस दिन्नो, एव भणंतस्स चउगुरुगा ॥ ३६०७. पाणदयखमणकरणे, संघाडासति विकप्पपरिहारी ।
खमणासहु१३ एगागी, गेण्हेति तु मत्तए भत्तं ॥ ३६०८. थेराणं सविदिण्णो, ओहोवधि मत्तगो जिणवरेहिं ।
आयरियादीणट्ठा, तस्सुवभोगो न इधरा उ । ३६०९. गुणनिष्फत्ती बहुगी, दगमासे'४ होहिति त्ति वितरंति ।
लोभे पसज्जमाणे, वारेंति ततो पुणो मत्तं ॥ ३६१०. एवं५ सिद्धग्गहणं आयरियादीण कारणे भोगो ।
पाणदयद्ववभोगो, बितिओ पुण रक्खियज्जाओ ॥ ३६११. जत्तियमित्ता वारा, दिणेण१६ आणेति१७ तत्तिया लहुगा ।
अट्ठहि दिणेहि सपदं, निक्कारण मत्तपरिभोगो ॥
१. वेहारियाण (मु)। २. मल्ले (अ)। ३. जल्लोण (ब)। ४. मलिणा (स)। ५. व (अ)।
कोविय (ब)। ७. वया (अ)। ८. वुड्डी (स)। ९. अद्धाणे (अ, ब)।
१०. एक्केको धार (ब)। ११. सुत्तेगभणियं (अ)। १२. वेण्ही (स)। १३. खमगासहु (ब)। १४. दसमासे (अ)। १५. एग (अ)। १६. दिणे ति (अ)। १७. x(अ)।
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अष्टम उद्देशक
१.
२.
३.
४..
५.
६.
३६१२.
८.
९.
३६१३. लोए होति दुगुंछा, वियारे पडिग्गण' उड्डा । आयरियादी चत्ता, वारत्तथलीय दिट्ठतो ॥
३६१४.
अप्पछंदे य
11
हिते
1
तम्हा उ धरेतव्वो, मत्तो य पडिग्गहो य दोण्णेते । गणणाय पमाणेण य, एवं दोसा न होंतेते 11 जइ दोण्ह चेव गहणं, अतिरेगपडिग्गहो न संभवति 1 अह देति तत्थ एगं, हाणी उड्डाहमादीया' ॥ ३६१६. अतिरेगदुविधकारण, अभिणवगहणे पुराणगणे य 1 अभिणवगह दुविहे', वावारिय ३६१७. भिन्ने व झामिए वा, पडिणीए तेण साणमादि सेहोवसंपयासु य, अभिणवगहणं तु पायस्स ३६१८. देसे सव्ववहिम्मी", अभिग्गही तत्थ होंति सच्छंदा तेसऽसति निजोएज्जा, जे जोग्गा दुविधउवधिमि ॥ ३६१९. दुविधा छिन्नमछिन्ना, भणति १२ लहुगो य 'पडिसुणंते य१३ । गुरुवयण दूरें तत्थ उ, गहिते गहणे य जं वुत्तं १४ ॥ नि. ४६९ ।। ३६२०. गेण्हह वीसं पाए, तिन्नि पगारा उ तत्थ अतिरेगो तत्थेव भणति एगो मज्झ वि गेहेज्ज १५ जध अज्जो ॥ ३६२१. आयरिऍ भणाहि तुमं, लज्जालुस्स य भगति आयरिए । नाऊण व सदभावं नेच्छंतिधरा १६ भवे लहुगो ॥ जइ पुण आयरिएहिं, सयमेव पडिस्सुतं भवति तस्स I लक्खणमलक्खणजुतं, अतिरेगं जं
1
३६२३. बितिओ पंथे भणती १५ चेव पेसवंती,
तु तं तस्स 11 विष्णवेंति गुरुं । मेरा 11
तं
इमा
३६१५.
३६२२.
उम्मत्तअ (ब)।
पडिग्गहणे (ब)।
पारत० (ब)।
इह (ब)।
उड्डाहगादीया (ब)। ठविए (अ)।
७. ववहारिय (ब)।
जे बेंति न घेत्तव्वो, 'उ मत्तओ" जे य तं न धारेंति I चउगुरुगा तेसि भवे, आणादिविराधणा चेव ॥नि. ४६८ ।
गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
X (अ) ।
आसन्नागंतु दूरगयाणं
१३. o
सुर्णेते यं (ब)।
१४. निर्युक्तेः व्यापारयति (मवृ) ।
१५. गिण्हइ (ब)।
१०.
० वहम्मिय (स) ।
११. तस्सऽसति (ब) तेसि सति (स)
१२.
भणते (स)
१६.
१७.
० तिहरा (अ) । भणती (ब)।
1
11
[ ३४१
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३४२ ]
१.
२.
३.
४.
३६२४. गेण्हामो अतिरेगं, तत्थ पुण विजाणगा गुरू अम्हं देहिंति तगं वणं, साधारणमेव ठावेंति' ३६२५. ततिओ लक्खणजुत्तं, अहियं वीसाऍ ते सयं गेहे । एते तिन्नि विगप्पा', होतऽतिरेगस्स नातव्वा ३६२६. सच्छंद पडिण्णवणा, गहिते गहणे य जारिसं भणियं 1 अल थिर धुव धारणिय, सो वा अन्नो 'य णं धरए " ३६२७. ओमंथपाणमादी, गहणे तु विधि हिं परंजंति । गहिए य पगासमुहे, करेंति पडिलेह दो काले
३६२८. आणीतेसु तु गुरुणा, दोसुं' हंति उग्गहे खलु,
३६३०.
३६३२.
३६३३.
११
गहितेसु तो १० जधावुङ्कं । ओमादी मत्त सेसेवं ॥ ३६२९. एमेव अछिन्नेसु वि, गहिते गहणे " य मोत्तु अतिरेगं । एतो पुराणगहणं, वोच्छामि इमेहि तु पदेहिं आगमगम कालगते, दुल्लभ तहि कारणेहि दुविधा एगमणेगा, अणेगनिद्दट्ठ ३६३१. भायणदेसा एंतो, पाए १२ घेत्तूण एति १३ दाऊणsad गच्छति, भायणदेसं तहिं घेच्छं १४ कालगयम्मि सहाए, भग्गे वण्णस्स होति अतिरेगं । पत्ते लंबऽतिरेगे १५, दुल्लभपाए. विमे पंच || नंदि-पडिग्गह१६ - विपांडेग्गहे य१ ७ तह कमढगं विमत्तो" य 1 पासवणमत्तओ वि य, तक्कज्ज १९ परूवणा चेव
दाहंति 1
||
३६३४.
ठाविति (ब) ।
विकप्पा (अ) ।
अलं (अ) ।
० णिय (अ)
व णं वरए (अ)।
ओमत्थ ० (स) ।
करेति (ब)।
एगो निद्दिस एगं, एगो गो
५.
६.
७.
८.
दोसं (अ) ।
९.
गहितेय (ब)।
१०. तो मओ (ब), तो गया (अ)
णेगो २० अणेग एगं वा
गे ते पुण, गणि वसभे भिक्खु खुड्डे
११. गहणं (अ)।
१२. पादो (ब)।
१३. एते (ब, स) ।
१४. घेत्थं (ब) ।
१५.
१६. ० गहे (ब)।
० तिरेग (ब)।
१७. इय (अ), वि (स) ।
१८. चिय मत्तो (अ) 1
१९. तव्वज्ज (अ) ।
२०.
अणेगा (ब)।
।
||
11
||
एहिं । निद्दिट्ठा ॥ नि. ४७० ॥
11
व्यवहार भाष्य
1
य ||
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अष्टम उद्देशक
[ ३४३
३६३५. एमेव इत्थिवग्गे, पंचगमा अधव निद्दिसति मीसे ।
दाउं' वच्चति पेसे, वावी णिते पुण विसेसा ॥ ३६३६. सच्छंदमणिद्दिष्टे, पावण निद्दिट्ठमंतरा देति ।
चउलहु आदेसो वा, लहुगा य इमेसि अद्दाणे ॥ ३६३७. अद्धाण बालवुड्डे, गेलन्ने जुंगिते सरीरेण ।
पायच्छि-नास-कर-कन, संजतीणं पि एमेव ॥नि. ४७१ ॥ ३६३८. अद्धाण ओम असिवे, उद्दूढाण' विन देति जं पावे
बालस्सऽज्झोवाते, थेरस्सऽसतीय जं कुज्जा ॥ ३६३९. अतरंतस्स अदेते, तप्पडियरगस्स वावि जा हाणी ।
जुंगित पुवनिसिद्धो, 'जाति विदेसेतरो पच्छा ९ ॥ ३६४०. जातीय मुंगितो पुण, जत्थ न नज्जति तहिं तु सो अच्छे ।
अमुगनिमित्तं विगलो, इतरो जहि नज्जति१० तहिं तु ॥ ३६४१. जे हिंडंता काए, वधिति जे११ वि य करेंति उड्डाहं ।
किन्नु हु१२ गिहि सामन्ने, वियंगिता लोगसंका३ उ ॥ ३६४२. पायच्छि-नास-कर-कण्ण, जुंगिते जातिजुंगिते१४ चेव ।
वोच्चत्थे चउलहुगा, सरिसे पुव्वं तु समणीणं ॥ ३६४३. अह एते तु न हुज्जा, ताधे निद्दिट्ठ पादमूलं तु ।
गंतूण इच्छकारं५, काउं तो तं निवेदेति'६ ॥ ३६४४. अद्दिढे पुण तहियं, पेसे८ अधवा वि तस्स अप्पाहे ।
अध१९ उ न नज्जति° ताहे, ओसरणेसुं तिसु२१ वि मग्गे ॥ ३६४५. एगे वि२२ महंतम्मि उ, उग्घोसेऊण नाउ नेति तहिं ।
अह नत्थि पवत्ती से, ताधे इच्छाविवेगो वा ॥
१. वाउं(ब)। २. पेसे व (ब)। ३. ०द्दिट्ठा (ब)। ४. x(ब)। ५. अद्धाणे (अ)।
० कन्ना (अ)। ७. उव्वूढाण (अ)। ८. व(अ)।
जाव विदेसंतरं पिच्छा (ब)। १०. निज्जति (अ)। ११. जं(ब)। १२. णु (ब)।
१३. लोवसंका (अ)। १४. x (अ)। १५. मिच्छाकार (ब)। १६. निवेज्जति (ब)। १७. अद्दिट्ठ (ब)। १८. पेसि (मु)। १९. अट्ठ (अ)। २०. भज्जति (ब)। २१. ति (अ)। २२. उ (ब)। २३. इच्छामि वेगो (ब)।
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३४४ ]
व्यवहार भाष्य
३६४६. एगे उ पुव्वभणिते, कारण निक्कारणे दुविधभेदो ।
___ आहिंडग ओधाणे, दुविधा ते होंति एक्केक्का नि. ४७२ ।। ३६४७. असिवादी कारणिया, निक्कारणिया य चक्कथूभादी ।
उवदेस - अणुवएसे, दुविधा आहिंडगा होति ॥ ३६४८. ओहावंता दुविधा, लिंग विहारे य होंति नातव्वा ।
एगागी छप्पेते, विहार तहिं दोसु समणुण्णा ॥ ३६४९. निक्कारणिएऽणुवदेसिएँ य आपुच्छिऊण वच्चंते ।
अणुसासंति उ ताधे, वसभा' उ तहिं इमेहिं तु ॥ ३६५०. एसेव चेइयाणं, भत्तिगतो जो तवम्मि उज्जमती ।
इति 'अणुसिढे अठिते", असंभोगायारभंडं तु ॥ ३६५१. खग्गूडेणोवहतं', अमणुण्णे सागयस्स वा जं तु ।
असंभोगिय उवकरण, इहरा गच्छे तगं नत्थि ॥ ३६५२. तिट्ठाणे संवेगे, सावेक्खों निवत्त तद्दिवसपुच्छा ।
मासो वुच्छ विवेचण, तं चेवऽणुसट्ठिमादीणि ॥ ३६५३. अज्जेव पाडिपुच्छं, को दाहिति संकियस्स मे उभए ।
दंसणे कं उववूहे, किं थिरकरे२ कस्स वच्छल्लं ॥ ३६५४. सारेहिति सीदंत३, चरणे सोहिं च काहिती को मे ।
एव नियत्तऽणुलोमं, काउं१४ उवहिं च तं१५ देंती१६ ॥दारं ।। ३६५५. दुविधोधाविय वसभा, सारेंति भयाणि व से साहिंती । अट्ठारसठाणाई,
हयरस्सिगयंकुसनिभाई ॥ ३६५६. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय-सिद्धपुत्तमणुसिढे१८ ।
आगमणं आणयणं, तं वा घेत्तुं न इच्छंति ॥नि. ४७३ ॥ ३६५७. संविग्गाण सगासे, वुत्थो तहिं अणुसासिय नियत्तो ।
लगो नोवहम्मती, इतरे लहगा उवहतो य ॥
१. ० णितो (अ, स)। २. .णिओ (अ)। ३. ० एओवदे ० (ब), ० एणोवदे ० (अ)। ४. य(स)।
वसहा (ब)।
चेतियाण (अ)। ७. अणुसट्ठिए ट्ठिए (ब)। ८. डेण उवहयं (स)। ९. ०ण्णा (ब)। १०. गाथायां सप्तमी प्राकृतत्वात् (म)।
११. नियत्तो (स)। १२. थिरिकरे (स) । १३. सीतंत (ब), सदंत (स)। १४. नाउ (अ,ब)। १५. से (स)। १६. x (स)। १७. वा (ब)। १८. ० मणुसट्टे (स) । १९. न चेव हम्मति (स)।
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अष्टम उद्देशक
[ ३४५
३६५८. संविग्गादणुसिट्ठो, तद्दिवसनियत्तों जइ' वि न मिलेज्जा ।
न य सज्जति वइयादिसु, चिरेण वि हु तो न उवहम्मे ॥ ३६५९. एगाणियस्स सुवणे, मासो उवहम्मते य सो उवधी ।
तेण ‘परं चउलहुगा', आवज्जति जं च तं सव्वं ॥ ३६६०. संविग्गेहणुसिट्ठो, भणेज्ज जइ हं इहेव अच्छामि ।
भण्णति ते आपुच्छसु, अणिच्छ तेसि निवेदेति ॥ ३६६१. सो पुण पडिच्छओ वा, सीसे वा तस्स निग्गतो जत्तो५ ।
सीसं समणुण्णातं, गेहंतितरम्मि भयणा उ ॥ ३६६२. उद्दिट्ठमणुद्दिढे, उद्दि? समाणयम्मि पेसति ।
वायंति वणुण्णायं, कडं पडिच्छंति उ पडिच्छं ॥ ३६६३. एवं ताव विहारे, लिंगोधावी वि होति एमेव ।
सो पुण संकिमसंकी, संकिविहारे य एगगमो ॥ ३६६४. संविग्गमसंविग्गे, संकमसंकाएँ परिणविवेगो ।
पडिलेहण निक्खिवणं, अप्पणों अट्ठाय अन्नेसि ॥ ३६६५. घेत्तूणऽगारलिंगं, वती व अवती व जो उ ओधावी० ।
तस्स कडिपट्टदाणं, वत्थु वासज्ज जं जोग्गं ॥ ३६६६. जइ जीविहिंति जइ वा वि,तं धणं धरति जइ व वोच्छंति१ ।
लिंगं मोच्छिति संका, पविट्ठ वुच्छेव उवहम्मे ॥ ३६६७. समुदाण चरिगाण व, भीतो गिहिपंत तक्कारणं वा ।
णी उवधि२ सो तेणो, पविट्ठ वुत्थे वि१३ न विहम्मे ॥ ३६६८. नीसंको वणुसिट्ठो४, नीहुवहिमयं५ अहं खु ओहामी ।
संविग्गाण'६ य गहणं, इतरेहि विजाणगा गेण्हे ॥
१. ते (स)। २. सुवण्णे (ब)। ३. य परं च दुविधा (स)। ४. संविग्नैरनुशिष्टो (मव), ० णुसट्ठो (अ)।
जुत्तो (स)।
उद्दिट्ट (अ)। ७. कडे (अ)। ८. ०धाती (अ, ब)।
९. होति (अ)। १०. ओधाती (अ, ब)। ११. वोच्छिति (अ)। १२. नीउवधी (ब)। १३. व (आ)। १४. वणुसट्ठो ()। १५. नेहुव ० (स) ० वहिमहं (स) । १६. ० ग्गाणि (स)।
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३४६ ]
१.
२.
३.
४.
३६६९. नीसंकितो वि गंतूण', दोहि वि वग्गेहि चोदितो एती / तक्खण णिंत न हम्मे तहिं परिणतस्स उवहम्मे || अत्तट्ठ परट्ठा वा, पडिलेहिय रक्खितो वि उन हम्मे । एवं तस्स 'उ नवरिं", पवेस वइयादि भयणा 11 ३६७१. अध पुण तेणुवजीवति, सारूविय - सिद्धपुत्तलिंगीणं । 'केइ भणंतुवहम्मति", चरणाभावा तु तन्न भवे 11 ३६७२. सो पुण पच्चुट्ठित्तो, जदि तं से उवहतं तु उवगरणं I असतीय व तो अन्नं, उग्गोवेति त्ति गीतत्थो ॥ 'संजतभावित खेत्ते ११, तस्सऽसतीए १२ उ१३ चक्खुवेंहितं । तस्सऽसतिवेंटलहते, उप्पाएंतो उ सो एती ॥
३६७०.
३६७३.
11
जाणंति एसणं वा, सावगदिट्ठी उ पुव्वझुसिता वा I विंटल भाविय हि १४, किं धम्मो न होति गेहेज्जा ३६७५. एवं उप्पाएउं, इतरं च विगिंचिऊण तो एती । असती य जधा १५ लाभं विविंचमाणे इमा जतणा || ३६७६. उवहतउग्गहलंभे, उग्गहण १६ विगिंच मत्तए भत्तं I अप्पत्ते १७ तत्थ दवं, उग्गहभत्तं गिहिदवेणं ॥ ३६७७. अपहुव्वंते" काले, दुल्लभदवऽभाविते य१९ खेत्तम । मत्तगदवेण धोव्वति, मत्तभे वि एमेव ॥ ३६७८. चोदेति २० सुद्धसुद्धे, संफासेणं तु तं भण्णति संफासेणं, जेसुवहम्मे न ३६७९. लेवाडहत्थछिक्के २१, सहस अणाभोगतो व प्रक्खित्ते अविसुद्धग्गहणम्मि व२२, असुज्झ २३ सुज्झेज्ज 'वा इतरं'
तु उवहम्मे I
सिं सोधी ॥
१२४
३६७४.
घितूण (ब) ।
चोतितो (ब)।
० णय वुच्छ (अ) ।
एव्वं (स) ।
न उवरिं (ब)।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. x (अ) ।
११.
० भाविते खेत्ते (अ) । १२. तओ सईते (ब) ।
वइयासु (ब)।
० जीवी उ (स) ।
के त्ति भतुवहंति (ब) ।
पुव्वुट्ठितो (ब) पुच्चुट्ठतो (स) ।
·
१३.
१४.
१५. जह (ब) ।
१६. उग्गह (ब) ।
१७. अप्पजत्ते (अ)
१८. अपहुच्चते (अ) ।
व (ब)।
तेहि (स) ।
१९. वा (ब) व (स) । २०. चोतिइ (अ) ।
० छिक्को (अ) ।
२१.
२२. वि (ब)।
२३. सुज्झ (अ) ।
२४. इयरं वा (ब)।
1
||
व्यवहार भाष्य
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अष्टम उद्देशक
[३४७
३६८०. लवखणमतिप्पसत्तं, अतिरेगे वि खलु कप्पती उवधी ।
इति आहारेमाणं, अतिप्पमाणे बहू दोसा ॥ ३६८१. अधवावि पडिग्गहगे', भत्तं गेहंति तस्स किं माणं ।
जं जं उवग्गहे वा, चरणस्स तगं त भणती ॥ ३६८२. निययाहारस्स सया, बत्तीसइमो उ जो भवे भागो ।
तं कुक्कुडिप्पमाणं, नातव्वं बुद्धिमंतेहिं ॥ ३६८३. कुच्छियकुडी तुरे कुक्कुडि, सरीरगं अंडगं 'मुहं तीए' ।
जायति देहस्स जतो, पुव्वं वयणं ततो संसं ॥ ३६८४. थलकुक्कुडिप्पमाणं', जं वाणायासिते मुहे खिवति ।
अयमन्नो तु विगप्पो, कुक्कुडिअंडोवमे कवले ॥ ३६८५. अट्ठ त्ति भाणिऊणं', छम्मासा हावते तु बत्तीसा ।
नामं चोदगवयणं, पासाए होति दिलुतो ॥नि. ४७४ ।। ३६८६. छम्मासखवणंतम्मि, सित्थादण्हातु लंबणं ।
तत्तो लंबणवड्डीए', जावेक्कतीस संथरे ॥ ३६८७. एक्कमेक्कं तु हावेत्ता, दिणं पुबेक्कमेव उ ।
दिणे दिणे उ सित्थादी, जावेक्कतीस संथरे ॥ ३६८८. पगामं होति बत्तीसा, निकामं 'जं तु निच्चसो२० ।
दुप्पविजहया १ तेसु१२, गेही भवति३ वज्जिया ॥ ३६८९. अप्पावड्दुभागोम, देसणं नाममेत्तगं१४ नाम१५ ।
पतिदिणमेक्कत्तीसं, आहारेह'६ त्ति जं भणह ।। ३६९०. भण्णति अप्पाहारादओ समत्थस्सऽभिग्गहविसेसा ।
चंदायणादओ विव, सुत्तनिवातो पगामम्मि८ ॥ ३६९१. अप्पाहारग्गहणं, जेण य आवस्सयाण परिहाणी ।
न वि जायति तम्मत्तं, आहारेयव्वयं नियमा ॥
४.
तण
१. गहणे (अ)। २. य(ब)। ३. सुमुहीतीए (ब)।
तेणं (स)। ५. थेर कु०(ब)।
च णाया ० (स)। ७. भासिऊण (स)। ८. सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (म)। ९. ० णसड्डीए (ब)।
१०. जंतमिच्चसो (ब)। ११. दुष्पविजढया तु (स)। १२. ते उ(ब)। १३. हवंति (ब)। १४. ० मत्तगं (अ)। १५. नामा (अ)। १६. पाहारेमि त्ति (अ.स)। १७. वि य (स) १८. पगासम्मि (अ)
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________________
३४८ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
३६९२. दिट्ठतोऽमच्चेणं, पासादेणं
तु
रायसंदिट्ठे' ।
य
संकिलेसेति ॥
दव्वे खेत्ते काले, भावेण ३६९३. अलोणाऽसक्कयं सुक्खं नो
11
I
।
पगामं व दव्वतो 1 तं खेत्ताणुचियं उन्हे काले उस्सूरभोयणं ॥ ३६९४. भावे न देति विस्सामं, निडुरेहिं च खिसति I जियं भति" च नो देति, नट्ठा अकयदंडा अकरणे पासायस्स उ, जह सोऽमच्चो तु दंडितो रणा एमेव य आयरिए, उवणयणं होति कातव्व ३६९६. कज्जम्मि' वि नो विगतिं ददाति अंतं न तं च पज्जत्तं खेत्ते खलु खेत्तादी, कुवसहिउब्भामगे ' चेव ॥ ३६९७. ततियाऍ देति काले, ओमे वुस्सग्ग वादिओ निच्चं संगहउग्गहे विय, न कुणति भावे पयंडो य ३६९८. लोए लोउत्तरे चेव १२, दो वि एते असाहगा विवरीयवत्तिणो सिद्धी, अन्ने दो वि य साहगा ३६९९. सिद्धीपासायवडेंसगस्स १३ करणं चउव्विधं होति दव्वे खेत्ते काले, 'भावे य१४ न संकिलेसेति ३७०० एवं तु निम्मवेंती १५ ते वी अचिरेण सिद्धिपासादं । तेसि पि इमो उ विधी, आहास्यव्वए होति ॥ अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए I वायवियारणट्ठा, छब्भागं ऊणयं कुज्जा H ३७०२. एसो आहारविधी, जध भणितो
||
"
धम्माऽवस्सगजोगा ६, जेण न
३६९५.
३७०१.
० संदिट्ठ (ब)।
अलोणय सक्कतं (स) ।
खेत्ताणुवयं (अ) ।
निरिहि (ब)।
भयं (अ, ब) ।
० यडंडणा (स)।
व णेयव्वं (ब) ।
कज्जेण (स) ।
• उब्भामिणे (ब)।
९.
१०. ददेति (ब) ।
सव्वभावदसीहिं । हायंति तं कुज्जा 11
इति अष्टम उद्देश
११. काउ (ब)।
१२. चेत्ता (ब) ।
१३. सिद्धि ० (स) ।
१४. भावेण (ब, स) ।
१५. निम्मावेंती (ब)।
१६. धम्मावासगजोग्गा (स) ।
1
||
I
11
I
व्यवहार भाष्य
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________________
१.
२.
३.
४.
नवम उद्देशक
३७०३. आहारो खलु पगतो, घेत्तव्वो सो कहिं न वा कथितं 1 सागारियपिंडस्सा, इति नवमे
सुत्तसंबंधो ॥
३७०४.
३७०५.
३७०७.
३७०६. तत्थादिमाइ चउरो, आदेसे
३७०८.
३७१०.
आयासकरो आएसितो? उ आवेसणं व सो नायगो सुही वा, पभू व परतित्थिओ
ण (अ) ।
आएहितो (स) ।
आएसणं (बस) ।
भतए (स) ।
मग्गणं (ब)।
आगब्भो (अ, ब ।
आएस- दास भइए, अट्ठहि सागारियदोसेहि य,
आविसति I
वावि
||
सुतेहि मग्गणा" जत्थ पसंगदोसेहि आगज्झो
1
ऊ
अंतो बहिं वावि निवेसुणस्स, आदेसएणं व ठिते सगारे ११ भत्तं न एयस्सर विसेसजुत्तं, तम्मी १३ दलंते खलु सुत्तबंधो ॥ सागारियस्स १४ दोसा, 'दोसुं दोसुं १५ पसंगतो दोसा । भद्दगपंतादीया, 'होंति इ मुणेयव्वा १६ ॥ ३७०९. तेण उवाएणं १७, गिण्हंती पंतो दुदिट्ठधम्मा, विणास गरहा सुत्तम्मि कप्पति त्ति य, वुत्ते किं एगतरदोस २३ कालिय सुनवा
अत्थतो निसेधेह २२ इमेहिं तु
३७११. जं जह सुत्ते भणियं, तधेव तं जइ वियालणा नत्थ | किं
कलियाणुओगो,
दिट्ठो
दिट्ठिष्पहाणेहिं२४ ॥
महि
दोच्चेव' पाडिहारी, अपाडिहारी भवे दोणि
५.
६.
आवेसे (ब) ।
७.
८.
गाथा के दूसरे चरण में अनुष्टुप् छंद है।
९.
० चेव (अ)।
१०. आसेवएणं (ब)।
११. सगासे (ब), सागारे (अ) ।
१२. एजस्स (ब)।
दिय 'निसि वा '२१
१३. तम्मि (बस) ।
१४. आगारि० (ब) ।
1
॥ नि. ४७५ ।।
भद्दउग्गमेगतरं ।
८
॥
।
॥ नि. ४७६ ॥
२०. गरिहा (अ)।
२१. निसि व (अ) । २२. निसेहेह (ब) । २३. ० देसे (ब) । २४. दिट्ठप्पहाणहं (ब) ।
1
१५. चउसुं चउसुं (स) ।
१६. दोसुं पि कमेण नेयव्वा (अस) ।
१७. कारणेणं (ब)।
१८. ० उत्तमे ० (स) ।
१९. पंता (अस) ।
"
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________________
३५० ]
व्यवहार भाष्य
३७१२. अद्दिट्ठम्स उ गहणं, अधवा सागारियं तु वज्जेत्ता ।
अन्नो पेच्छउ मा वा, पेच्छंते' वावि वच्चंता ॥ ३७१३. दास-भयगाण दिज्जति, उक्खित्तं जत्थ भत्तयं नियत ।
तम्मि वि सो चेव गमो, अंतो बाहिं व देंतम्मि ॥ ३७१४. निययानिययविसेसो', 'आदेसो होति'६ दास-भयगाणं ।
अच्चियमणच्चिए' वा, विसेसकरणं. ‘पयत्तो य ॥ ३७१५. नीसट्ठ अपडिहारी, समणुण्णातो त्ति मा अतिपसंगा० ।
एगपदे परपिंडं, गेहे परसुत्तसंबंधो ॥ ३७१६. पुरपच्छसंथुतो १ वावि, नायओ उभयसंथुतो वावि ।
एगवगडा२ घरं१३ तू १४, पया उ चुल्ली५ समक्खाता ॥ ३७१७. एगपए अभिणिपए६, अट्ठहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ ।
सागारियदोसेहिं, पसंगदोसेहि१७ य अगेझं१८ ॥ आइल्ला चउरो सुत्ता, चउस्सालादवेक्खतो९ ।
पिहघरेसु चत्तारि, सुत्ता एक्कनिवेसणे२० ॥ ३७१९. सागारियस्स दोसा, चउसु सुत्तेसु२१ पसंगदोसा य ।
भद्दगपंतादीया, चउसु पि कमेण णातव्वा२२ ॥ ३७२०. दारुग२३-लोणे गोरस-सूवोदग२४. अंबिले य सागफले२५ ।
उवजीवति सागरियं२६, एगपए वावि अभिणिपए२७ ॥ ३७२१. भीताइ२८ करभयस्सा२९, अंतो बाहिं व होज्ज एगपया ।
अभिणिपए न वि कप्पति, पक्खेवगमादिणो दोसा ॥
३७१८.
१. पेच्छतो (ब)। २. वज्जता (ब)। ३. दिज्जते (ब)। ४. नियम (अ)।
अनिययनियय ० (अ, ब)। ६. अप्पेसा होति (ब)। ७. ०च्चियं (ब)। ८. विश्लेषकरणं (मवृ)। ९. पवत्तो या () १०. इयप० (अ)। ११. परपच्छसंजुत्ते (अ)। १२. ० वडवा (अ) १३. घडं (स)। १४. तु (ब)। १५. चुण्णी (अ)।
१६. अभणिए (अ)। १७. x (ब)। १८. अगझं(ब)। १९. चाउस्सालातिवे० (अ, स)। २०. ० सणा (स)। २१. x (ब)। २२. नेयव्वा (ब)। २३. दोसग (ब)। २४, सूतोदग (अ), सुतोदग (स)। २५. • फला (ब), षष्टयर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् (मव) । २६. जं सारियं (अ), जं सारि (स)। २७. अभिणपए (आ)। २८. भीयाति (ब)।
गाथायां षष्ठी पंचम्यर्थे संबंधविवक्षायां वा षष्ठी (म)।
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नवम उद्देशक
1
11
I
जं देसी तं देमो, एते 'घेत्तुं न ” इच्छते अम्हं । अधवा वि अकुल त्ति य, गेहंति अदिट्ठमादीय* ॥ ३७२३. बितियपदऽ दिट्ठगहणं, असती तव्वज्जितेण दिस दिट्ठे वि पत्थियाणं, गहणं अंतो व बाहिं वा ३७२४. साधारणमेगपय' त्ति, किच्चं तहियं निवारियं गहणं इदमवि सामण्णं वि य, साधारणसालसु य जोगो ३७२५. तेल्लिय-गोलिय ' - लोणिय - दोसिय सुत्तिय य बोधिकप्पासो । गंधिय सोडियसाला, जा अन्ना एवमादी उ 11 ३७२६. ववहारे उद्देसम्मि, नवमए परिपंडिताणं,
||
जत्तिया ११ भवे साला 1 साधारण वज्जि गहणं १२
तासि
॥
३७२२.
५.
६.
अविभत्तमछिन्नसंथडेगट्ठ १३ पणियगिहं चेव एगट्ठ
साहारणा उ१४ साला, दव्वे मीसम्म आवणे भंडे साहरणऽवक्कजुत्ते, छिन्नं वोच्छं अछिन्नं वा ३७२९. पीलेंति१५ एक्कतो वा, विक्केंति१६ व एक्कतो करिय तेल्लं अधवा वि वक्कएणं, साधारणवक्कयं जाणे
३७२७.
३७२८.
१. घेतूण (स) ।
२.
३.
४.
३७३०. पीलितविरेडितम्मी १७, पुव्वगमेणं १८ तु एगत्थ विक्यम्मी अमेलियादिट्ठ ३७३१. जो उ२२ लाभगभागेण २३, पउत्तो सो उ साहारणो २५ होति,
तत्थ
गाथायां एकवचनं प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
गहणं (स)।
अट्ठ० (अ) ।
०स्सा (ब)।
पच्छियाणं (अ)।
७.
य (अ)।
८.
० ण एग ० (स)।
९.
सोत्तिय (ब) ।
१०. पोत्तिय बोहिक० (अ) ।
११. जेत्तिया (ब)।
१२. अह णं (ब)। १३.
साहारण
सामन्नं, साल त्ति आवणं ति य,
० संघडे ० (अ)।
- १९
हणमादि ९ अन्नत्थ २१
१८. ० गतेणं (अ) ।
१९. गहणं दिट्ठे (अ) ।
२०. ममेलिया० (ब) ।
२१. सण्णत्थ (स)
२२. जत्थ (अ)।
० भावेण (अ) ।
1
२३.
२४. होंति (ब)।
२५. ० रणा (स) ।
11
होति २४ आवणो
1
घेत्तुं न कप्पति ॥ दारं ॥
1
॥ नि. ४७७ ॥
।
१४.
वी (स) ।
१५. पीलंति (अ) ।
१६. विक्किते (स), विक्किते (ब) ।
१७. वियरडितम्मि (अ), ० तम्मि (स) ।
॥
1
॥ दारं ॥
[ ३५१
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३५२ ]
व्यवहार भाष्य
३७३२. छेदे ‘वा लाभे वा', सागारिय जत्थ होति आभागी ।
तं तु साधारणं जाणे, सेसमसाधारणं होति ॥ ३७३३. सच्चित्तअच्चित्तमीसेण, ‘कयएण पउंजए'२ साला ।
तद्दव्वमन्नदव्वेण, होति साहारणं तं तु ॥ ३७३४. तद्दव्वमन्नदव्वेण, वावि छिन्ने वि गहणमद्दिष्टे ।
मा खलु पसंगदोसा, संछोभ भति व मुंचेज्जा ॥ ३७३५. 'जं पि य न एति५ गहणं, फलकप्पासो सुरादि वा लोणं।
फासुम्मि उ सामन्नं, न कप्पते जं तहिं पडितं ॥ ३७३६. अंडज-'बोंडज-वालज", वागज तह कीडजाण वत्थाणं१० ।
नाणादिसागताणं, साधारणवज्जिते गहणं ॥ ३७३७. सागारियम्मि पगते, ‘साधारणए य११ समणुवत्तंते१२ ।
ओसहिफलसुत्ताणं, वंजणनाणत्तओ जोगो ॥ ३७३८. गोरस-गुल-तेल्ल-घतादि, ओसहीओ व होति१३ जा अण्णा ।
सूयस्स कट्ठलेण तु, ता४ संथडऽसंथडा५ होति ॥नि. ४७८ ॥ ३७३९. धुव'६ आवाह विवाहे, जण्णे सड्डे ८ य करडुयछणे य ।
विविहाओ ओसहीतो, उवणीया भत्त सूयस्स ॥ ३७४०. जो जं 'दड्व विदड्ढे १९ जो वा तहि भत्तसेसमुव्वारे२० ।
लभति जदि सूवकारो, अविरिक्कं तं पि हुन लभइ२१ ॥ ३७४१. अविरिक्को खलु पिंडो, सो चेव विरेइतो२२ अपिंडो उ ।
भद्दगपंतादीया, धुवा उ दोसा 'विरक्के वी२३ ॥
१. व लाभए वा (ब), गाथा के तृतीय चरण में अनुष्टुप् छंद
का प्रयोग है। २. यजा पउज्जए (अ.स)। ३. दिट्ठो (ब)।
रुइं (ब)। दिढे ज पि य नेइ (ब)। लेणं (ब)।
फासु पि (स)। ८. पोंडज वालग (स)।
कीडजा (अ)। १०. वच्छाण (स)। ११. ० रण पए (ब)।
१२. समणुवत्थंते (ब)। १३. हवंति (स)। १४. x (ब)। १५. संथडमसं० (ब)। १६. धुय (ब)। १७. सण्णे (ब)। १८. सद्धे (ब)। १९. दट्ठ विदगु (ब)। २०. ० मुद्दारे (ब), ० मुच्चारे (स)। २१. लब्भा (स)। २२. विरेतितो (ब)। २३. विरेके वि (ब)।
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नवम उद्देशक
[३५३
३७४२. जा ऊ' संथडियाओ सागारियसंतिया न खलु कप्पे ।
जा उ असंथडियाओ, सूवस्सरे य ताउ कप्पंति ॥ ३७४३. वल्ली वा रुक्खो वा, सागारियसंतिओ भएज्ज परं ।
तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ॥नि. ४७९ ।। ३७४४. फणसं च चिंच तल-नालिएरिमादी हवंति फलरुक्खा ।
लोमसिय-तउसि-मुद्दिय, तंबोलादी" य वल्लीओ ॥ ३७४५. परोग्गहं तु सालेणं, अक्कमेज' महीरुहो ।
छिंदामि त्ति य तेणुत्ते, ववहारो तहिं भवे ॥ ३७४६. सागारियस्स तहियं, केवतिओ० उग्गहो मणेतव्यो ।
ववहार १ तिहा छिन्नो, पासायऽगडे बिती तिरियं२ ॥ ३७४७. उड्डूं अधे य तिरियं, परिमाणं तु वत्थुणं ।
खायमूसियमीसं१३ वा, तं वत्थूणं१४ तिधोदितं५ ॥ ३७४८. अट्ठसतं चक्कीणं, चोवट्ठी१६ चेव वासुदेवाणं ।
बत्तीसं मंडलिए, सोलसहत्था उ पागतिए ॥ ३७४९. भवणुज्जाणादीणं, एसुस्सेहो उ वत्थुविज्जाए ।
भणितो सिप्पिनिधिम्मि८ उ, चक्कीमादीण१९ सव्वेसि ॥ ३७५०. एवं छिन्ने तु ववहारे, परो भणति सारिय२० ।
कप्पेमि ‘हं तें'२१ सालादी२२, ततो णं आह सारिओ ॥ ३७५१. मा मे कप्पेहि सालादि, दाहिति२३ फलनिक्कयं ।
तत्थ छिन्ने 'अछिन्ने वा'२४, सुत्तसाफल्लमाहितं२५ ॥
१. तु(ब)। २. सूतस्स (स)। ३. तातो (ब)। ४. . सन्नितो (ब)।
पणलुक्खा (ब)।
तउसिय (अ)। ७. ० लाती (ब)। ८. शाखया गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (मवृ)। ९. मक्क ०(स)। १०. कयवत्ति (ब)। ११. ० हारो वि (अ, ब)। १२. तिरिए (स)। १३. खायमुसिय ० (ब)।
१४. वच्छु (ब)। १५. ३७४७ से ३७८५ तक की गाथाएं अप्रति में नहीं हैं । १६. चोवढेि (ब), चोयटुं (स)। १७. ०णातीए (ब)। १८. सिप्प० (ब)। १९. ० मातीण (ब)। २०. सागारियं (मवृ)। २१. भंते (ब), हं ती (स)। २२. सालाइं (स)। २३. दाहते (स)। २४. x (ब)। २५. सुत्तं सफलमाहियं (ब)।
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३५४ ]
व्यवहार भाष्य
३७५२. साधूणं वा न कप्पंति, सुत्तमाहु निरत्थयं ।
गेलण्णऽद्धाणओमेसु, गहणं तेसि देसियं ॥ ३७५३. अविरिक्कसारिपिंडो, विरिक्का ‘वि सारि दिट्ठ" न वि कप्पे ।
अद्दिट्ठसारिएणं, कप्पंति तहिं व घेत्तुं जे ॥ ३७५४. एवं अत्तट्ठाए, सयं परूढाण" वावि' भणियमिणं ।
इणमन्नो आरंभो, समणट्ठा वाविए तम्मि ॥ ३७५५. . 'वल्लिं वा रुक्खं वा, कोई रोवेज्ज संजयट्ठाए ।
तेसि परिभोगकाले', समणाण तहिं कहं भणियं ॥ ३७५६. तस्स कडनिट्ठियादी, चउरो भंगे विभावइत्ताण ।
विसमेसु जाण विसमं, नियमा तु समो समग्गहणे ॥ ३७५७. कामं सो समणट्ठा, वुत्तो तह १ वि य न होति सो कम्मं ।
जं कम्मलक्खणं खलु, 'इह इं१२ वृत्तं३ न पस्सामि ॥ ३७५८. सच्चित्तभावविकलीकयम्मि दव्वम्मि मग्गणा'४ होति ।
कम्मगहणा उ दवे, सचेयणे फासुभोईणं ॥ ३७५९. संजयहेउं छिन्नं, अत्तट्ठोवक्खडं तु५ तं कप्पे ।
अत्तट्ठा छिन्नं पि हु, समणट्ठा निट्ठियमकप्पं ॥ ३७६०. बीयाणि च वावेज्जा'६, अगडं व खणेज्ज संजयट्ठाए ।
तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ॥ ३७६१. दुच्छडणियं च उदयं, जई८ हेउं निद्रुितं च अत्तट्ठा ।
तं कप्पति अत्तट्ठा, कयं तु जइ निट्ठितमकप्पं ॥ ३७६२. समणाण संजतीण व, दाहामी९ जो किणेज्ज अट्ठाए ।
गावी-महिसीमादी, समणाण तहिं कहं भणियं ॥
१. वि सारिणा दिट्ठा (ब)। २. ताधि (स)। ३. जे इति पादपूरणे (मवृ)। ४. परूढणे (ब)। ५. वि (स)।
वल्ली वा रुक्खो (स)। ७. कोयं (स)। ८. परभोग० (ब)। ९. ० वतित्ताण (ब), विभागइ ० (स)। १०. ० गहणा (ब)। ११. होति (स)।
१२. इ: पादपूरणे (मवृ)। १३. वुत्तं इहं तं (स)। १४. मग्गहणा (ब)। १५. णु (ब)। १६. ठावेज्ज (ब)। १७. दुच्छडा० (स)। १८. जति (ब) प्रायः सर्वत्र । १९. दाहामि (स)। २०. से (ब)। २१. ० माती (ब)।
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नवम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
6.
९.
३७६३. संजयहेउं दूढा, 'ण कप्पते कप्पते” य सयमट्ठा 1 पामिच्चिय- कीया वा, जदि वि य समणट्ठया* धेणू ॥ ३७६४. चेइयदव्वं विभज्ज', करेज्ज कोती नरो सयट्ठाए 1 समणं वा सोवहियं, विक्केज्जा संजयट्ठाए ॥ ३७६५. एयारिसम्मि दव्वे, समणाणं किन्नु कप्पते घेत्तुं । चेइयदव्वेण कयं मुल्लेण व जं सुविहिताणं ॥
३७६६. तेण पडिच्छा लोए, वि गरहिता उत्तरे किमंग पुण I चेइय' जइ पडिणीए, जो गेण्हति सो वि हु तधेव ३७६७. हरियाहडिया सा खलु ससत्तितो उग्गमेधरा गुरुगा एवं तु कया भत्ती, न वि हाणी जा विणा तेण जातित्थगण 'कता, वंदणया ११ वरिसणादि पाहुडिया । भत्तीहि सुरवरेहिं समणाण तधि कहं भणियं जइ समणाण न कप्पति, एवं १२ एगाणिया १३ जिणवरिंदा 1 गणहरमादी समा, अकप्पिए नेव चिट्ठति ॥
३७६८.
३७६९.
३७७०.
३७७२.
तओ न कप्पते (ब)।
पामेच्चिय (ब), ०च्चिति (स) ।
क्किया (स) ।
० णट्ठिय (ब) ।
विभया (स) ।
गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ) ।
मोल्लेण (ब) ।
तम्हा कप्पति ठाउं ४, जह सिद्धयणम्मि होति अविरुद्धं 1 जम्हा उ न साहम्मी, सत्था अम्हं ततो कप्पे 11 ३७७१. साहम्मियाण अट्ठो १५, चउव्विधो लिंगतो जह कुडुंबी । मंगलसासय भत्तीय, जं कतं तत्थ आदेसो
||
जइ वि य नाधाकम्मं, भत्तिकयं तध वि वज्जियंतेहिं । भत्ती खलु होति कया, जिणाण लोगे वि दिट्टं तु ३७७३. बंधित्ता ओ वयणं अट्ठपुडसुद्धपोत्तीए१६ । पत्थिवमुवासते१७ खलु, वित्तिनिमित्तं भया चेव
चेइयं (ब)।
भत्तीय (स) ।
"
१०. जे (ब) ।
११. कयवंदण (ब) ।
१२. एयं (ब)।
१३. ण वि य (स) ।
१४. ठाइउं (स)।
१५.
अद्धा (ब)।
१६.
० पोत्तो य (स) ।
१७. ० मुवासिते (स) ।
11
1
11
||
II
॥
[ ३५५
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________________
३५६ ]
व्यवहार भाष्य
३७७४. दुब्भिगंधपरिस्सावी, तणुपस्सेय' हाणिया ।
दुहा वायु वधोरे चेव, तेण ठंति न चेइए ॥ ३७७५. तिण्णि · वा कड्ढते जाव, थुतीओ तिसिलोइया ।
ताव तत्थ अणुण्णातं, कारणेण परेण वि ॥ ३७७६. सागारियअग्गहणे, अन्नाउंछं फुडं समक्खातं ।
सो होतिऽभिग्गहो खलु, 'पडिमा य अभिग्गहो'६ चेव ॥ ३७७७. अन्नाउंछविसुद्धं घेत्तव्वं तस्स किं परीमाणं ।
कालम्मि य भिक्खासु य, इति पडिमा सुत्तसंबंधो ॥ ३७७८. अधसुत्त सुत्तदेसा, कप्पो उ विहीय मग्गनाणादी ।
तच्चं तु भवे तत्थं, सम्मं जं अपरितंतेणं ॥ ३७७९. फासियजोगतिएणं, पालियमविराधि 'सोहिते. चेव५ ।
तीरितमंतं पाविय, किट्टिय गुरुकधण जिणमाणा० ॥ ३७८०. 'पडिमा उ११ पुव्वभणिता, पडिवज्जति को तिसंघयणमादी ।
नवरं पुण नाणत्तं, कालच्छेदे य भिक्खासु ॥ ३७८१. एगूणपण्णे१२ चउसट्ठिगासीती३ सयं च बोधव्वं ।
सव्वासि पडिमाणं, कालो एसो४ त्ति तो५ होति ॥ ३७८२. 'पढमा सत्तिगासत्त९६ पढमे तत्थ सत्तए' ।
एक्केक्कं गेण्हती भिक्खं, बितिए दोण्णि दोण्णि" उ ॥ ३७८३. एवमेक्केक्कियं भिक्खं, छुब्भेज्जेक्केक्क'८ सत्तगे१९ ।
गिण्हती अंतिमे२० जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे ॥ ३७८४. अहवेक्केक्कियं२१ दत्ती, जा२२ सत्तेक्केक्कसत्तए ।
आदेसो अत्थि एसो वि, सीहविक्कमसन्निभो ॥
१२. ० पन्नं (ब)। १३. ० सट्ठगा ० (स)। १४. एसे (ब)।
तणु रप्पेव (स)। वा अधो (म)।
टुंति (स)। ४. थुइओ (ब)।
तिसलोतिता (ब)। पडिमादिभिग्गहो (ब) परामाणं (ब)। सिक्खासु (ब)।
सोभिए मेव(स)। १०. जिनस्य तीर्थकृत: द्वितीया षष्ठ्यथें प्राकृतत्वात् (मव)। ११. पडिमातो (ब)।
१६. पढमाए सत्तग सत्त (स) पढमा सत्तमा सत्त (ब)। १७. दोण्णिक (ब)। १८. वुभेज्जेक्केद्ध (ब)। १९. सत्तते (स)। २०. अंतिमा (ब)। २१. अधवा एक्के० (स)। २२. जाव (ब)।
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नवम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
होंति ।
छण्णउयं भिक्खसतं, अट्ठासीता य दो सया पंचुत्तरा य चउरो, अद्धच्छट्ठा सया चेव 11 ३७८६. उद्दिट्ठवग्गदिवसा', य े मूलदिणसंजुयारे दुहा छिन्ना 1 मूले संगुणिया', माण दत्तीण मासु ॥ ३७८७. पदगयसु वेयसुत्तरसमाहयं दलियमादिणा गच्छगुणं पड़िमाणं, भिक्खामाणं ३७८८. गच्छुत्तरसंवग्गे, उत्तरहीणम्मि पक्खिवे अंतिमधणमादिजुयं, गच्छद्धगुणं तु ३७८९. पडिमाहिगारपगते, हवंति मोयपडिमा इमा ता पुण गणम्मि वुत्ता, इमा उ बाहिं ३७९०. सव्वाओ पडिमाओ, साधुं मोयंति
पावकम्मे हिं
1
एतेण मोयपडिमा अधिगारो इह तु मोएणं ॥ ३७९१. एगदुमो होति वणं, एगाजातीय जे जहिं रुक्खा 1 विवरीयं तु विदुग्गं, एसेव" य पव्वए वि गमो 11 ३७९२. निसज्जं ' चोलपट्ट, कप्पं घेत्तूण मत्तगं चेव 1 एगंते पडिवज्जति, काऊण दिसाण वालोयं ॥ ३७९३. 'पाउणति तं ९ पवाए", तत्थ निरोहेण जिज्जते" दोसा हार्दिपरित्ताणं व कुणति १३ अच्चुण्ह वाते१४ वा ३७९४. साभावियं च १५ मोयं, जाणति जं वावि होति विवरीयं पाण - बीयससणिद्धं, सरक्खाधिराय १६ न पिएज्जा ॥ ३७९५. किमिकुट्ठे सिया पाणा, ते य उहाभिताविया १७ मोएण सद्धि एज्जण्डु, छाहिए"
।
||
,
1
निसिरेते
तु
३७८५.
उक्कट्ठत्रग्ग० (ब)।
x (स) ।
मूलगुण० (अ)।
मूलेण य (ब)।
सयं गुणियं (स) ।
० जातीया (ब) ।
एमेव (ब) ।
निसज्जं च (स) ।
० णती उ (स)।
सहियं 1 मुणेयव्वं ॥
आदि I
सव्वधणं 11
१०. पव्वाए (ब) । ११. जीयते (मवृ) ।
१२. सिण्हाति (ब) ।
१३. कुणंति (ब) ।
१४. ० याते (ब) ।
दोणि ।
पुरादीणं ॥
1
१५. वा (अ)।
१६. ० स रक्खाधियं तु (अ, स) ।
१७.
० भिधाविया (स) /
१८. छायए (ब), छाविए (स) ।
11
[ ३५७
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________________
३५८ ]
१.
२.
३.
४.
३७९६. बीयं तु पोग्गला सुक्का, ससणिद्धा तु चिक्कणा' 1 पडंति सिथिले देहे, महाभिताविया ॥ ३७९७. पमेहकणियाओ यरे, सरक्खं पाहु सूरयो I सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कज्जं न साधए आइल्लेसु
||
दिसु तु
होति वा न वा
1
1
३७९८. बहुगी होति मत्ताओ, कमेण हायमाणी तु अंतिमे ३७९९. पडिणीयऽणुकंपा वा, मोयं वद्धंति गुज्झगा १९ केई ११ जं वा, विवरीयं उज्झए १२ सव्वं ३८०० दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होति सा चउविगप्पा दव्वे तु १३ होति मोयं ४, खेत्ते गामाइयाण बहिं ॥ नि. ४८० ॥ ३८०१. काले दिया व रातो, भावे साभावियं व इतरं वा सिद्धाए १५ पडिमाए, कम्मविमुको हति सिद्धो ३८०२. देवो महिड्ढिओ वावि, रोगातोऽहव १६ जायती कणगवण्णो उ, आगते य इमो विही ३८०३. उण्होदगे य थोवे, तिभागमद्धे तिभागथोवे य 1 महुरभिन्ना महुरग१७, एक्केक्कं सत्तदिवसाई ॥ नि. ४८३ ॥ ३८०४. ओदणं उसिणोदेणं, दिणे जूसमंडेण १९ वा अन्ने,
मुच्चती
३८०५. मधुरोल्लेण थोवेण
चेव,
तिभागद्ध ३८०६. मधुरेणं य१३ दधिगादीण
सत्तने, भावेत्ता, 'ताहे
चक्किणा (अ, ब ) ।
पम्मेह० (ब)।
उ (अ) ।
आहु (स)।
वासए (अ) ।
५.
६.
७.
८.
हीय० (मु) । ९. वट्टति (बस) ।
मत्ता तू (ब, स) ।
आयल्लेसु (ब) ।
१०. गुज्झगी (स) ।
११. केती (अ) ।
१२. उज्झिते (स) । १३. ति (अ)।
'सत्त उ१८ दिणे जावेति मीसे२० तइय२१
तिभागो
भावेत्ता २४
२५
१४. मोघं (स) ।
१५. सिद्धीए (ब)।
१६.
१७. ० रगा (स) ।
थोवमीसियं २२
उल्लणादिणा
० तो भव (स) ।
11
२३. x (स)।
२४. भाविता (ब) ।
२५. तहेव (ब)।
11
।
भुंजिउं सत्त उ 11
1
सत्त सत्तए 11
1
॥नि ४८१ ॥
।
॥ नि. ४८२ ।।
सत्तए ।
॥
१८. सुत्तसु (अ)।
१९. जूस मं० (स) ।
२०. मीसेण (ब)।
२१. तत्तिय (ब)।
२२. थोवमिस्सिवं (अ) ० थोवमिस्सियं (स) ।
व्यवहार भाष्य
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नवम उद्देशक
[ ३५९
३८०७. एवमेसा तु खुड्डीया, पडिमा होति समाणिया ।
भोच्चारुभंते' चोद्देणं, अभोच्चा सोलसेण तु ॥ ३८०८. एमेव महल्ली वी, अट्ठारसमेण नवरि निट्ठाती ।
परिहारों अट्ठदिवसा, न हु रोगि बलिस्स वा एसा ॥नि. ४८४ ।। ३८०९. पडिवत्ती पुण तासिं, चरिमनिदाघे व पढमसरए वा ।
संघयणधितीजुत्तो, फासयती दो वि एयाओ ॥ ३८१०. स साहियपतिण्णो' उ, नीरोगो दुहतो बली ।
मितं गेहति सुद्धन्छ', सुत्तस्सेस समुप्पदा ॥ ३८११. हत्थेण व मत्तेण व, भिक्खा होति समुज्जता ।
दत्तिओ जत्तिए° वारे, खिवंति १ होंति तत्तिया ॥ ३८१२. अव्वोच्छिन्ननिवाताओ, दत्ती होति 'उ वेतरा'१२ ।
एगाणेगासु चत्तारि, विभागा भिक्खदत्तिसु ॥ ३८१३. एगा भिक्खा एगा३, दत्ति एग भिक्खऽणेग१४ दत्ती उ ।
__णेगातो वि य एमा, णेगाओ चेव णेगाओ ॥ ३८१४. एमेव एगऽणेगे, दायगभिक्खासु होइ चउभंगी५ । ___ एगो एगं दत्ती, एगो णेगाउ ‘णेग एगा उ१६ ॥
णेगा य७ अणेगाओ, पाणीसु पडिग्गहधरेसु८ ॥ ३८१५. एगो एगं एक्कसि, एगो एक्कं बहुसो ऊ९ वारे ।
एगो णेगा एक्कसि, एगो णेगा य° बहुसो य ॥ ३८१६. णेगा एगं एक्कसि, णेगा एगं च णेगसो वारे ।
णेगा णेगा एक्कसि, णेगा णेगा य बहुवारे ॥
१. आरुहते इत्यत्र सप्तमी तृतीयार्थे (मवृ)। २. चउदसेणं (ब) चोदेणं (स)। ३. सिद्रुति (ब)। ४. म (अ,ब)। ५. सरते (अ.स)।
० धिति ० (ब)। ७. साधियपइण्णा (ब), साहित्तुप ० (स) । ८. गेण्हती (स)। ९. सुटुंछ (अ)। १०. जत्तिगा (ब)।
११. खिवती (स) १२. दवेतरा (अ)। १३. एग (स)। १४. भिक्खा य णेग (स)। १५. गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् (म)। १६. णेगेमा एग व (ब), णेग एवं च (स)। १७. उ(अ)1 १८. यह छह चरणों का छंद है। १९. उ(ब), तु सो (स)। २०. तु (स)।
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३६० ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
1
||
३८१७. पाणिपडिग्गाहियस्स वि, एसेव कमो भवे निरवसेसो 1 गणवासे निरवेक्खो, सो पुण सपडिग्गहो' भइतो || ३८१८. दोन्हेगतरे पाए गेण्हति उ अभिग्गही तिहोवहडं । दुविधं एगविधं वा, अभिहडसुत्तस्स संबंधो 11 ३८१९. सुद्धे संसट्टे या, फलितोवहडेय तिविधमेक्केक्के तिनेग दुगं तिन्नि उ' तिगसंजोगो भवे एक्को 11 ३८२०. सुद्धं तु अलेवकडं, अहवण सुद्धोदणो भवे सुद्धं । संस आयत्तं, 'लेवाडमलेवडं चेव '६ फलितं पहेणगादी, वंजणभक्खेहि वा विरइयं तु । भोत्तुमणस्सोवहियं", पंचम पिंडेसणा एसा 11 ३८२२. सुद्धग्गहणेणं पुण, होति चउत्थी वि एसणागहिता । संस उ विभासा, फलियं नियमा तु लेवकडं ॥ पगया अभिग्गहा खलु, सुद्धयरा ते य जोगवड्डी । इति उवहडसुत्तातो, तिविहं दुविहं च पग्गहियं 11 पग्गहितं साहरियं पक्खिप्पंतं च आसए तह य 1 तिविधं तं दुविधं पुण, पग्गहियं चेव साहरियं 11 ३८२५. बहुसुतमाइणं 'न उ ११, बाहियऽण्णेहि जुगप्पहाणेहिं । आदेसो सो भवे अथवा नयंतरविगप्पो ३८२६. साहीरमाणगहियं दिज्जंतं जं च होति पाउग्गं | पक्खेव दुगंछा, आदेसो कुडमुहादी १२ ॥ ३८२७. ओग्गहियम्मि १३ विसेसो, पंचमपिंडेसणाउ छट्ठीए । तंपि यहु अलेवकडं, नियमा पुव्वुद्धडं चेव
||
०
३८२१.
३८२३.
सपरि ० (स)।
पाते (अ) ।
फलताव ० (स) ।
दुगा (अ.स) ।
य (ब)।
• मलेवडेणं वा (ब, स) ।
मणुससो० (अ) +
३८२४.
८.
९.
१०. तु (स) ।
११. तू न ( अ, स) ।
१२.
१३. उग्ग ० (स) ।
o
वुड्डीय (स) ।
वग्ग० (अ)।
०
11
मुहातीसु (ब), कुड्डुगमु० (स) ।
व्यवहार भाष्य
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नवम उद्देशक
[ ३६१
३८२८. भुंजमाणस्स उक्खित्तं, पडिसिद्धं च तेण तु ।
जहण्णोवहडं तं तू, हत्थस्स परियत्तणे ॥ ३८२९. अह साहीरमाणं तु, वट्टेउं जो उ दावए ।
दलेज्जऽचलितो तत्तो, छट्ठा एसा वि एसणा ॥ ३८३०. भुत्तसेसं तु जं भूयो, छुभंती' पिठरे दए । संवद्धतीव अन्नस्स, आसगम्मि पगासए ॥
इति नवम उद्देशक
१. पडिसुद्धं (ब)। २. व(अ)। ३. अत्थस्स (अ,ब)। ४. गाथायां सप्तमी पंचम्यर्थे (मवृ)।
६. ७. ८.
० रमणं (ब)। अवलितो (अ, ब)। छुब्भय (ब), छुभती (स)। संवढ़ेतीव (स)।
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________________
दशम उद्देशक
३८३१. पगता अभिग्गहा खलु, एस उ दसमस्स होति संबंधो ।
संखा य समणुवत्तइ, आहारे वावि अधिगारो ॥ ३८३२. जवमज्झ' वइरमज्झा, वोसट्ठ चियत्त 'तिविह तीहिं तु ।
दुविधे वि सहति सम्म, अण्णाउंछे य निक्खेवो ॥दारं ॥नि. ४८५ ।। ३८३३. उवमा जवेण चंदेण, वावि जवमज्झ चंदपडिमाए ।
एमेव य. बितियाए, वरं वज्जं ति एगटुं ॥ ३८३४. पण्णरसे व उ काउं, भागे ससिणं तु सुक्कपक्खस्स ।
जा वड्डयते दत्ती, हावति ता चेव कालेण ॥ ३८३५. भत्तट्ठितो व खमओ, इयरदिणे तासि होति पट्ठवओ ।
चरिमे असद्धवं पुण, ‘होति अभत्तट्ठमुज्जवणं ॥ ३८३६. संघयणे परियाए, सुत्ते अत्थे य जो भवे बलिओ ।
सो पडिमं पडिवज्जति, जवमझं वइरमझं च ॥ ३८३७. निच्चं दिया व रातो', पडिमाकालो य जत्तिओ भणितो ।
दव्वम्मि य भावम्मि य, वोसटुं तत्थिमं दव्वे ॥ ३८३८. असिणाण भूमिसयणा १, अविभूसा कुलवधू पउत्थधवा ।
रक्खति पतिस्स सेज्जं, अणिकामा दव्ववोसट्ठो ॥ ३८३९. वातिय-'पित्तिय-सिभियरोगातंकेहि१२ तत्थ पुट्ठो वि ।
न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ दारं ॥ ३८४०. जुद्धपराजिय३ अट्टण, फलही४ मल्ले निरुत्त परिकम्मे ।
गृहण मच्छियमल्ले, ततियदिणे दव्वतो चत्तो५ ॥दारं ॥
१. जूव० (क)।
वोसट्टि (क)।
तीहं माती (ब), तिह माती (क)। ४. टीकाकार ने इस गाथा के लिए भाष्यकारों व्याख्यानयति का
उल्लेख किया है पर यह नियुक्ति की होनी चाहिए। ५. ० पडिमाणं (क)। ६. पव्ववओ (आ. ७. असुट्ठवं (स)।
८. होयऽ भत्तट्ठ० (अ)। . ९. ० याउ (ब)। १०. रातो य (ब), य रातो य (स)। ११. भूमिसि ० (स)। १२. ० पेतिय संभिय ० (स)। १३. ० पराजितं (अ)। १४. फलहिय (आ। १५. गहणं (स), चित्तं (स)।
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________________
दशम उद्देशक
१.
२.
॥ दारं ॥
३८४१. बंधेज्ज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज्ज अधव मारेज्ज I वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो ३८४२. दिव्वादि तिन्नि चउहा, बारस एवं तु होंतुवस्सग्मा वसग्गहणं', आयासंचेतणग्गहणं
३८४३.
।
11
हास पदोस वीमंस, पुढो विमाया' य दिव्विया चउरो "हास - पदोस- वीमंसा, कुसीला नरगता चउहा 11 ३८४४. भयतो पदोस आहारहेतु तहऽवच्चलेणरक्खट्ठा । तिरिया होंति चउद्धा, एते तिविधा वि उवसग्गा ११ ३८४५. घट्टण पवडण थंभण, लेसण चउधा उ आयसंचेया सन्निवयंती, वोसट्ठदारे न ३८४६. मण-वयणकायजोगेहिं तिहिं उ१३ दिव्वमादिए १४ सम्म अधियासेती१६, तत्थं सुहाय सासू ससुरुक्कोसा, देवर- भतारमादि दासादी य जहण्णा, जह सुण्हा सहइ ७ सासु-ससुरोवमा खलु, दिव्वा दियरोवमा य माणुस्सा दासत्थाणी तिरिया, तह सम्मं सोऽधियासेति ३८४९. दुधावेते समासेणं, सव्वे विसयाणुलोमिया १८ चेव, ३८५०. वंदण - सक्कारादी १९, अणुलोमा
Ta
तेच्चिय खमती सव्वे, एत्थं रुक्खेण
३८४७.
३८४८.
कोइ (अ), कोई (स) ।
मारेति (स) ।
दिव्वाति (ब, क) दिव्वावि (स) ।
३.
४. होतुव ० ( ब, क ) ।
५.
६.
७.
वोसट्टगहणेण उ (स) ।
० चेतणं गहणं (ब अ) ।
वीमंसा (अ) ।
वेमाए (अ), वेमतो (स) ।
हासप्पदोसवीमंस (स) ।
८.
९.
१०. चउहं (ब) ।
।
॥नि. ४८६ ॥
१९.
२०.
1
इ १२ तू ॥ दारं ॥
तिन्नि १५
I
दिट्ठतो ॥नि ४८७ ॥
मज्झिमगा 1
उवसग्गा ॥
1
सामण्णकंटगा ।
पडिलोमिया ॥
बंध-वहण पडिलोमा 1
11
११. उवस्सग्गा (अ) ।
१२. इध (ब)।
१३.
तू (स) ।
१४.
दिट्ठमा ० (ब)। १५. विन्नि (ब, क) । १६. ० यासेंती (अ, ब) । १७. सहिय (ब)।
१८. विसमाणु० (ब) ।
० राती (क) ।
इस गाथा का उत्तरार्ध ब प्रति में नहीं है।
दिट्ठतो ॥दारं ॥
[ ३६३
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३६४ ]
व्यवहार भाष्य
३८५१ वासीचंदणकप्पो, जह रुक्खो इय' सुहदुक्खसमो उ ।
रागद्दोसविमुक्को, सहती अणुलोमपडिलोमे ॥दारं ॥ ३८५२. अण्णाउंछं दुविहं, दव्वे भावे य होति नातव्वं ।
दबुंछंण्णेगविधं, 'लोगरिसीणं मुणेयव्वं ३ ॥नि. ४८८ ॥ ३८५३. उक्खल-खलए दव्वी, दंडे संडासए य पोत्तीया ।
आमे पक्के य तधा, दव्वोंछं५ होति निक्खेवो ॥दारं ॥ ३८५४. पडिमापडिवण्ण एस, 'भगवं अज्ज' किर एत्तिया दत्ती ।
आदियति त्ति न नज्जति, अण्णाउंछं तवो भणितो ॥ ३८५५. दव्वादभिग्गहो' खलु , दव्वे सुद्धंछ मे त्ति या · दती ।
- एलुगमेत्तं खेते, गेण्हतिर ततियाएँ कालम्मि ॥ ३८५६. अण्णाउंछं एगोवणीय निज्जूहिऊण समणादी ।
अगुव्विणिं 'अबालं ती१२, एलुगविक्खंभणे दोसा ॥दारं ॥नि. ४८९ ॥ ३८५७. अण्णाउंछं च सुद्धं, पंच३ काऊण अग्गहं ।
दिणे दिणे अभिगेण्हे१४, तासिमन्नतरी५ य तु ॥दारं ।। ३८५८. एगस्स भुंजमाणस्स, उवणीयं तु गेण्हती ।
न१६ गेण्हे१७ दुगमादीणं, अचियत्तं तु मा भवे१९ ॥ ३८५९. अडते भिक्खकालम्मि, घासत्थी२० वसभादओ ।
वज्जेति होज्ज मा तेसि, आउरत्तेण अप्पियं ॥ ३८६०. दुपय-चउप्पय-पक्खी, किमणातिथि-समण-साणमादीया२१ ।
निज्जूहिऊण२२ सव्वे, अडती भिक्खं तु सो ताधे ॥
१. ईय (स)। २. इस गाथा का पूर्वार्द्ध ब प्रति में नहीं है। ३. लोगरिसाण गुणे० (अ), ० रिसीणं सुणे० (क)।
पोत्तीय (अ)। दव्बुंछे (अ)।
भयवमज्ज (ब)। ७. दत्ता (क)।
तो (स)। ९. दव्वा य भिग्गहो (अ) । १०. सो (स)। ११. गेण्हंति (स)।
१२. अपायंति (स)। १३. x()। १४. अतिगिण्हे (ब)। १५. ० मन्नवरी (आ)। १६. णो (अ)। १७. x (ब)। १८. ० मातीणं (ब)। १९. हवे (अ)। २०. घासच्छी (स)। २१. ० मादी तु (स)। २२. ०हियव्व (अ)।
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
"
३८६१. पुव्वं व' चरति तेसिं), नियट्टचारेसु वा अडति पच्छा जत्थ भवे दोणि काला, चरती तत्थ अतिच्छिते ३८६२. अणारद्धे उ अण्णेसु, मज्झे चरति संजओ । हंत' तयाणं तु, वज्जयंतो अपतियं ॥ दारं ॥ ३८६३. नवमासगुव्विणीं खलु, गच्छे वज्जति" इतरो सव्वा उ खीराहारं गच्छो, वज्जेतितरो तु सव्वं पि ३८६४. गच्छगयनिग्गते वा, लहुगा गुरुगा य एलुगा आणादिणो य दोसा दुविधा य विराधणा इणमो ३८६५. संकग्गहणे इच्छा, दुन्निविट्ठा अवाउडा I
परतो
हिक्खणणविरेगे, तेणे अविदिन पाहुड ॥ दारं ॥ नि. ४९१ ॥ ३८६६. बंध-वहे १० उद्दवणे, व खिंसणा आसियावणा चेव उव्वेवग कुरुंडिए", दी अविदिन्न वज्जणया
।
॥ दारं ॥ नि. ४९२ ॥
.
गहणादी पच्छित्ते आदेसा, संकियनिस्संकिए च तेण्णु १२ चउत्थे • संकिय, गुरुगा निस्संकिए मूलं ३८६८. गेण्हण कड्डण ववहार, पच्छकडुड्डाह तह य निव्विसए किण्णु १३ हु इमस्स १४ इच्छा, 'अब्भिंतर अतिगते जीए १५ ३८६९. दुन्निविट्ठा व होज्जाही, अवाउडा वऽगारी १६ उ 1 लज्जिया सा वि होज्जाही, संका वा से समुब्भवे ॥ किं मन्नें घेत्तुकामो, एस ममं जेण तत्तिए ७ दूरं । अन्नो वा संकेज्जा, गुरुगा मूलं तु निस्संके 11
३८६७.
०
३८७०.
वा (अ)।
तीसि (ब)।
नियट्टि० (ब) ।
अतित्थिते (स) ।
गेहेत (क) ।
गुव्विणी (स) ।
वज्जेति (स) ।
७.
८. तेण (ब)।
९.
पाहुडे (स) । गाथा के दूसरे चरण में अनुष्टुप् छंद है ।
1
I
॥ दारं ॥
।
॥ नि. ४९० ॥
I
॥ दारं ॥
।
॥ दारं ॥
[ ३६५
१०.
वहे व (स. क) ।
११. कुभंडिए (अ, ब), कुरुंडितो नाम उपचारक इत्युच्यते (मवृ) ।
१२. तिण्णि (अ, ब), तिण्णे (क) ।
१३. काणु (अ)।
१४. x (ब) ।
१५. ० रमाइगतो जीवो (स) ।
१६. वा अगारी (अ), वा अगारिओ (स) ।
१७. तित्तिए (ब)।
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________________
३६६ ]
व्यवहार भाष्य
३८७१. आउत्थपरा' वावी, उभयसमुत्था व होज्ज दोसा उ ।
उक्खणनि हणविरेगरे, तत्थ व किंची करेज्जाही ॥दारं ।। ३८७२. दिटुं एतेण इमं, साहेज्जा मा तु एस अन्नेसिं ।
तेणो ति व एगो ऊ, संका गहणादि कुज्जाही ॥ ३८७३. तित्थगरगिहत्थेहि, दोहि वि अतिभूमिपविसणमदिण्णं ।
‘कीसे दूरमतिगतो'३, य संखडं बंध - वहमादी ॥दारं ॥ ३८७४. खिसेज्ज व जह एते, अलभंत वराग अंतो पविसंती ।।
गलए घेत्तूण वणम्मि, निच्छुभेज्जाहि बाहिरओ ॥दारं ।। ३८७५. ताओ य अगारीओ, वीरल्लेणं व तासिता सउणी ।
उब्वेगं गच्छेज्जा, कुरुंडिओ नाम उवचरओ ॥दारं ।। ३८७६. अधवा भणेज्ज एते, गिहिवासम्मि वि अदिट्ठकल्लाणा ।
दीणा अदिण्णदाणा, दोसे ते णाउ नो पविसे ॥ ३८७७. उंबरविक्खंभे विज्जति, दोसा अतिगयम्मि सविसेसा ।
तध वि अफलं न सुत्तं, सुत्तनिवातो इमो जम्हा ॥ ३८७८. उज्जाण घडा सत्थे, सेणा संवट्ट वय पवादी वा ।
बहिनिग्गमणे जण्णे, भुंजति य जहिं पहियवग्गो१२ ॥ ३८७९. पासट्ठितों एलुगमेत्तमेव पासति 'न वेतरे'दोसा ।
निक्खमण-पवेसणे चिय, अचियत्तादी जढा एवं ॥ ३८८०. असतीय पमुह कोट्ठग, सालाए मंडवे रसवतीए'५ ।
पासट्ठितो अगंभीरे'६, एलुगविक्खंभमेत्तम्मि७ ॥ ३८८१. बहुआगमितो पडिमं, पडिवज्जति आगमो इमो वि खलु ।
सव्वं व पवयणं पवयणी य ववहारविसयत्थं ॥
१. आमुत्थ० (ब)।
उक्खणणनि० (क)। ३. कीस दूरमविगतो (स) ।
अलभंति (क)। ५. नलए (ब)। ६. तातो (ब)। ७. ०ल्लेण तु (स)। ८. उच्चेगं (क)। ९. कुभंडिओ (अ, ब)।
१०. उम्मरविक्खंभम्मि (ब), विक्खंतम्मि (स)। ११. या (ब, क)। १२. पडियवग्गो (अ)। १३. णिवेयरे (स)। १४. जहा (ब, क)। १५. ० वतीयं (क), वतीण (ब)। १६. गाथा के तृतीय चरण में अनुष्टुप् छंद है। १७. ० मेत्तं पि (ब,अ)।
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दशम उद्देशक
. [ ३६७ ३८८२. खलियस्स व पडिमाए, ववहारो को त्ति सो इमं सुतं ।
ववहारविहिण्णू वा, पडिवज्जति सुत्तसंबंधो ॥ ३८८३. सो पुण पंचविगप्पो, आगम-सुत-आण-धारणा-जीते ।
संतम्मि ववहरते, उप्परिवाडी भवे गुरुगा ॥ ३८८४. आगमववहारी आगमेण ववहरति सो. न अन्नेणं ।
न हि सूरस्स . पगासं, दीवपगासो विसेसेति ॥ ३८८५. सुत्तमणागयविसयं, खेतं कालं च पप्प ववहारो ।
होहिंतिन आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु३ ॥ ३८८६. दव्वे भावे आणा, भावाणा खलु सुयं जिणवराणं ।
सम्मं ववहरमाणो, उ तीय आराहओ होति ॥ ३८८७. आराहणा उ तिविधा, उक्कोसा मज्झिमा जहण्णा उ ।
एग दुग तिग जहन्न, दु तिगट्ठभवा उ उक्कोसा. ॥ ३८८८. जेण य ववहरति मुणी, जंपि य ववहरति सो वि ववहारो ।
ववहारो तहिं ठप्पो, ववहरियव्वं तु वोच्छामि ॥नि. ४९३ ।। ३८८९. आभवंते य पच्छित्ते, ववहरियव्वं समासतो दुविहं ।
दोसु वि पणगं पणगं, आभवणाएं" अधीगारो ॥दारं ॥नि. ४९४ ।। ३८९०. खेत्ते सुत - सुह-दुक्खे, मग्गे विणए य पंचहा होइ ।
सच्चित्ते अच्चित्ते, . खेत्ते काले य भावे य ॥दारं ॥नि. ४९५ ॥ ३८९१. वासासु निम्गताणं, अट्ठसु मासेसु मग्गणा खेत्ते ।
आयरियकहण साहण, नयणे गुरुगा य सच्चित्ते ॥नि. ४९६ ।। ३८९२. उडुबद्धे विहरंता, वासाजोग्गं तु पेहए खेत्तं ।
वत्थव्वा य गता वा, उव्वेक्खित्ता नियत्ता वा ॥ ३८९३. आलोएंतो सोउं, साहंते गंतु अप्पणो गुरुणो ।
कहणम्मि होति१ मासो, गताण तेसिं न तं खेतं ॥
१. ० सेतु (स)। २. होहंति (ब)। ३. य (अ)। ४. ०हतो (अ)।
सम्प्रति नियुक्तिविस्तरः (मवृ)। ६. गाथा के प्रथम चरण में अनुष्टुप् छंद है।
७. आरुवणाए (ब)। ८. ०कवण (अ) लिपिदोष से ह के स्थान पर व हो गया है। ९. उवेवक्खित्ता (अ)। १०. णेतु (स)। ११. होति (क)।
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३६८ ]
१.
२.
३.
४.
३८९४.
वा
सामत्थण निज्जविते, पदभेदे चैव पंथ पणुवीसादी गुरुगा, गणिणो ऽगहण ३८९५. एसा अविधी भणिता, तम्हा एवं न तत्थ गंतव्वं विधीए तु', पडिलेहेऊण तं ३८९६. खेत्तपडिलेहणविधी, पढमुद्देसम्मि वणिता सच्चेव इहुद्दे, खेत्तविहाणम्मि तु खेत्तं होति तेरसगुणमुक्को दोह मज्झम्मि
३८९७. चतुग्गुणोववेयं'
३८९८. महती विहारभूमी, वियारभूमी य सुलभवित्तीय
३८९९.
पणवी० (अ)
० गाहेण (स) ।
३९०२. एतेहि कारणेहिं, अणागयं निगम २० पवेसणम्मि य, ३९०३. केई२२ पुव्वं पच्छा, व समसीमं तू पत्ताण, मग्गणा
एगा (ब)।
गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् (मवृ) ।
तू (अ) ।
६.
खेतं तु (स) । सो (स) ।
७.
८.
० गणोव० (क) ।
९
होंति (स) ।
१०. वियार ० (क) ।
११. पाणि ० (क, ब) । १२. गोलस (ब) ।
पत्ते
ते
३९००. खेत्तपडिलेहणविधी, खेत्तगुणा चेव वण्णा पेहेयत्वं खेत्तं वासाजोग्गं तु जं १५ कालं ३९०१. खेत्ताण अणुण्णवणा जेट्ठामूलस्स सुद्धपाडिव । अधिगरणमाणो मो मणसंतावो १६ महा १७ होति १८
१५.
१६.
य 1
जस्स ||
गंतव्वं 1
खेत्तं ६
1
सुलभा वसधी य जहिं, जहण्णगं वासखेत्तं तु नि. ४९८ ॥ चिक्खल्ल पाण थंडिल, वसधी गोरस २ जणाउले वेज्जे १३ ओसधनिययाधिपती १४, पासंडा भिक्ख-सज्झाए ॥ नि. ४९९ ।।
1
चेव होतऽणुण्णवणा १९ पेसंताणं २१ • विधि वोच्छं निग्गता पुव्वमतिगता खेत्तं तत्थिमा हौति २३
कप्पे |
नाणत्तं 11
जहन्नगं । मज्झिमं
कं (स)।
मणे (ब, क) ।
१७.
महं (अ)
१८. हिंति (अ) ।
||
१९. होइ अणु० (अस) ।
२०. निग्गमण (अ, ब) ।
२१. पेहिताण (बस) । २२. केती (ब, क) । २३. होत्थि (क) ।
॥ नि. ४९७ ॥
।
१३. विज्जा (ब, क) ।
१४. ० नवया० (अ) ० निवताधि ० (स)।
11
व्यवहार भाष्य
||
।
॥ नि. ५०० ॥
।
॥ नि. ५०१ ॥
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
T
1
दप्पेण ॥
1
पुव्वं विणिग्गतो पुव्वमतिगतो पुव्वनिग्गतो पच्छा पच्छा निग्गत पुव्वं, तु अतिगतो' दो वि पच्छा वा #1 पढमगभंगे' इणमो, तु मग्गणा पुव्वऽणुण्णवे जदि तु तो तेसि होति खेत्तं, अह पुण अच्छंति खेत्तमतिया मोत्ति, वीसत्था जदि अच्छहे पच्छा तण्णव, तेसिं खेत्तं वियाहितं 11 गेलण्णवाउलाणं तु, खेत्तमन्नस्स नो भवे I निसिद्धो खमओ चेव, तेण तस्स न लब्भते पुव्वविणिग्गता पच्छा, पविट्ठा पच्छ निरंगता ' पुव्वं कयरेसि खेत्तं तत्थ इमा मग्गणा होति ३९०९. गेलन्नादिकज्जेहि, पच्छा इंताण" होति खेत्तं तु । 'निक्कारणं ठिता' ऊ, १२ पच्छा इंता ३ 'न उभंति
"
।
||
11
३९०४.
३९०५.
३९०६.
३९०७.
३९०८.
३९१०.
३९११.
३९१२.
३९१३.
३९१४.
पच्छा विणिग्गतो वि हु, दूरासन्ना समा व अद्धा । सिग्घगती तु सभावी, पुव्वं पत्तो१५ लभति खेत्तं अह पुण असुद्धभावो, गतिभेदं काउ वच्चती पुरतो । मा एते गच्छंती १६, पुरतो त न लभंती 11 समयं पि पत्थियाणं, सभावसिग्घगतिणो भवे १७ खेत्तं । एमेव य आसने, दूरद्धाणीण जो ८ ॥ अहवा समयं ९ पत्ता, समयं चेवं अणुण्णवित दोहिं । साधारणं तु तेसिं, दोह वि वग्गाण तं होति अधवा समयं दोन्नि २१ वि, सीमं पत्ता तु तत्थ जे पुव्विं । अणुजाणा सिं न जे उ दप्पेण
अच्छंति 11
अभिगओ (ब, क) ।
पढमभंगे (ब) ।
पुव्वव्वणु० (ब), पुव्वणण्णवे (क) ।
ता (स) ।
खेत अति० (अ, क, स) ।
५.
६.
७.
८.
९.
१०. गेलण्णादीहिं कज्जेहि (क, ब) । ११. पच्छाविताण (अ) ।
० आउलाणं (मवृ) ।
० व णिग्गओ (ब)।
गाथा के पूर्वार्द्ध में अनुष्टुप् छंद है।
होही (अ)।
१२.
० रणट्टिता (स) ।
१३. तिता (अ, स), एंता (ब)।
१४. तु न (स) ।
१५.
पत्तो न (ब) ।
१६. गच्छती (अ)।
१७. भवो (अ) भवे वि (ब) ।
१८. एसति (ब) ।
१९. समप्पयं (ब) ।
२०.
२१. दोहि (अ) ।
अणुण्णवणिए (ब, क) ।
॥
11
[ ३६९
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३७० ]
व्यवहार भाष्य
३९१५. उज्जाणगामदारे', वसधिं पत्ताण मग्गणा एवं ।
समयमणुण्णे साधारणं तु नः लभंति जे पच्छा ॥ ३९१६. ते पुण दोण्णी वग्गा, गणि-आयरियाण होज्ज दोण्हं तु ।
गणिणं व होज्ज दोहं', आयरियाणं व दोण्हं तु ॥ ३९१७. अच्छंति संथरे सव्वे, गणी णीति असंथरे ।
जत्थ तुल्ला भवे दो वी, तत्थिमा होति मग्गणा । ३९१८. निप्फण्ण' तरुण सेहे, जंगित° पादच्छि-नास-कर-कन्ना ।
एमेव संजतीणं, नवरं वुड्डीसु नाणत्तं ॥ ३९१९. समणाण संजतीण य, समणी अच्छंति १ नेति समगा उ ।
संजोगे१२ विय बहुसो, अप्पाबहुयं असंथरणे ॥ ३९२०. एमेव भत्तसंतुट्ठा, तस्सालंभम्मि. अप्पभू णिति ।
जुंगितमादीएसु३ य, वयंति खेत्तीण जं तेसिं४ ॥ ३९२१. पत्ताण अणुण्णवणा, सारूविय-सिद्धपुत्त-सण्णी५ य ।
भोइय मयहर'६ ‘ण्हाविय, निवेयण दुगाउयाइं च१७ । ३९२२. सग्गाम सण्णि असती१८, पडिवसभे पल्लिए व गंतुणं ।
अम्हं रुइयं खेत्तं, नायं खु करेह अन्नेसि ॥ ३९२३. जतणाए समणाणं, अणुण्णवेत्ता वसंति खेत्तबहिं ।
वासावासट्ठाणं, आसाढे१९ . सुद्धदसमीए ॥ ३९२४. सारूवियादि जतणा२९, अन्नेसिं वावि साहए बाहिं ।
बाहि२१ वावि ठिया संता२२, पायोग्गं तत्थ गेण्हंति२३ ॥
१. उजाणे ०(ब, क)। २. व(क)।
गणणं (ब, स)। ४. य (ब, क, मु)। ५. X(क)।
गणि (स)।
णीति (अ)। ८. निष्फल्ल (अ)। ९. x (क)। १०. जुगिय (ब)। ११. अच्छंती (ब)। १२. संजोगेवि 3(अ)।
१३. ० मातीसु (क, ब)। १४. जेंसि (स), गाथा के प्रथम चरण में अनुष्टुप छंद है । १५. सण्णा (ब)1 १६. महंतर (स)। १७. पहावितेण चेय दुगा० (अ)। १८. करेहि (स)। १९. x (क)। २०. x (क)। २१. बधि (अ)। २२. गाथा के तृतीय चरण में अनुष्टुप् छंद है। २३. गेण्हति (अ, ब), गेण्हते (स) ।
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दशम उद्देशक
[ ३७१
३९२५. दोण्ह जतो एगस्सा, निफज्जति' तत्तियं बहिठिता तु ।
दुगुणपमाणवासुवहिरे, संथरि पल्लि च वज्जेती ॥ ३९२६. उच्चारमत्तगादी', छारादी चेव वासपाउग्गं५ ।
संथार-फलगसेज्जा, तत्थ ठिता चेवऽणुण्णवणा ॥ ३९२७. पुन्नो य तेसि तहि मासकप्पे, अन्नं च दूरे खलु वासजोग्गं ।
ठायंति तो अंतरपल्लियाए, जं 'एसकाले य न भुंजिहिती" ॥ ३९२८. संविग्गबहुलकाले, एसा मेरा पुरा तु० आसी य ।
इयरबहुले उ संपति, पविसंति अणागतं११ चेव ॥ ३९२९. पेहिते१२ न हु१३ अन्नेहिं, पविसंताऽऽयतट्ठिया ।
इतरे१४ कालमासज्ज, पेल्लेज्ज परिवढिता५ ॥ ३९३०. रुण्णं तगराहारं, वएहि१६ कुसुमंसुए२७ मुयंतेहिं ।
उज्जाणपडिसवत्तीहि, वत्थूलाहिं ८ ठएंतीहिं१९ ॥ ३९३१. एवं पासत्थमादी तु, कालेण परिवडिढ्या ।
पेल्लेज्जा माइठाणेहिं२९, सोच्चादी ते इमे२१ पुणो ॥ ३९३२. सोच्चाऽउट्टी अणापुच्छा, मायापुच्छाऽजतट्ठिए ।
अजयट्ठिय२२ भंडते२३, ततिए समणुण्णया दोण्हं२४ ॥नि. ५०२ ।। ३९३३. गुरुणो सुंदरक्खेत्तं, साहंतं सोच्च पाहणो ।
नएज्ज२५ अप्पणो गच्छं२६, एस आउट्टिया ठितो२७ ॥दारं ॥ ३९३४. पेहितमपेहितं वा, ठायति अन्नो अपुच्छिउं२८ खेत्तं ।
गोवालवच्छवाले२९, पुच्छति अन्नो वि दुप्पुच्छी३० ॥दारं ।।
निप्पज्जति (स)। दुगुणप्प० (अ, स), वास बहिं (ब)।
वा (ब)। ४. मत्तिगाती (ब, क)। ५. ० पातोग्ग (क)। ६. ०णवए (स)। ७. व(स)। ८. x(ब, क)। ९. ० कालेण वि सुज्झिहिंति (क), ० काले ण व भुं० (स)। १०. य (ब, क)। ११. णागयं (ब)। १२. पेहिते (ब)। १३. तु (स)। १४. इतरे तु ()। १५. ० वट्टिया (क)।
१६. वएह (स), वृत्तीभिः (मवृ)। १७. ०सय (स)। १८. वत्थु ० (अ) १९. ठयंतेहिं (ब), स्थाप्यमानैः गाथायां स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् (मवृ) । २०. मायठा ० (अ, स)। २१. यमे (ब, क)। २२. ० ट्ठियं (स)। २३. गाथायां सप्तमी षष्ठ्यर्थे बहुवचने एकवचनं प्राकृतत्वात् (मवृ २४. गाथा के चौथे चरण में दोण्हं पाठ छंद की दृष्टि से अतिरिक्त है २५. तं एज्ज (क)। २६. गच्छे (स)। २७. ठिमो (क)। २८. ०च्छिय (ब)। २९. ० वाला (अ, क)। ३०. दुप्पच्छी (क)।
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३७२ ]
व्यवहार भाट
३९३५. अविधिट्ठिता तु 'दोवी, ते ततिओ पुच्छिउ विहीय ठितो ।
सारूवियमादि काउ, बेंतऽण्णेहिं न पेहियं ॥ ३९३६. तं तु वीसरियं तेसिं, पउत्था वावि ते भवे ।
'खेत्तिओ य तहिं पत्तो, तत्थिमा होति मग्गणा ॥ ३९३७. आउट्टितो ठितो जो उ, तस्स नाम पि नेच्छिमो ।
अणापुच्छिय दुप्पुच्छी, भंडते खेत्तकारणा ॥ ३९३८. अहवा" दो वि भंडते, जयणाए ठितेण ते ।
खेत्तिओ दो वि जेत्तूण, भत्तं देति न उग्गहं ॥ ३९३९. ततियाण सयं सोच्चा, सडादीए१ व पुच्छिउं१२ ।
होति साधारणं खेत्तं, दिटुंतो१३ खमएण तू ॥ ३९४०. सुद्धं गवेसमाणो, पायसखमगो१४ जधा भवे सुद्धो ।
तह पुच्छिउ ठायंता, सुद्धा उ भवे असढभावा ॥ ३९४१. अतिसंथरणे१५ तेसिं, उवसंपन्ना उ१६ खेततो इतरे ।
अविधिट्ठिया उ दो वी, अहव७ इमा मग्गणा अन्ना ॥ ३९४२. पेहेऊणं खेतं१८, केई१९ ण्हाणादि गंतु ओसरणं ।
पुच्छंताण कधेती२९, अमुगत्थ वयं तु गच्छामो ॥ ३९४३. घोसणय सोच्च सण्णिस्स२१, पेच्छणा पुव्वमतिगते पच्छा ।
पुव्वट्ठिते२२ परिणते, पच्छ२३ भणंते ण२४ से इच्छा ॥नि. ५०३ ।। ३९४४. बाहुल्ला संजताणं तु, उवग्गो यावि पाउसे ।
'ठिया मो अमुगे खेत्ते, घोसणऽण्णोण्णसाहणं ॥
१. दोवेते (ब, क)। २. विहीउ (ब)।
सारूविमादि (ब)। ४. पेहिया (क), यह गाथा स प्रति में नहीं है। ।
खेत्ततो या (क)। ६.०ट्टिया (स)। ७. अहवा वि (स)। ८. x (ब, स)। ९. खत्तिओ (अ) १०. देंति (ब, क)। ११. सद्दातीते (क, ब)। १२. पुच्छियं (स)।
१३. दिटुंगो (अ)। १४. ० खमतो (ब)। १५. सति संथ० (अ.स)। १६. य (ब, क)। १७. अहवा (अ)। १८. खेते (ब)। १९. केति (स)। २०. कहेति (ब)। २१. सण्णिस्सा (ब)। २२. पुव्वगते (स)। २३. पुच्छा (स)। २४. णं (ब)।
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दशम उद्देशक
[ ३७३
३९४५. विभज्जंती' च ते पत्ता, हाणादीसु समागमो ।
पहुप्पंतेरे य नो कालाऽऽसन्ना घोसणयं ततो ॥ ३९४६. दाणादिसड्ढकलियं, सोऊणं तत्थ कोइ गच्छेज्जा ।
रमणिज्जं खेतं ति य, धम्मकधालद्धिसंपन्नो ॥ ३९४७. संथवकहाहि आउट्टिऊण अत्तीकरेति ते सड्ढे ।
ते वि य तेसु परिणया, इतरे वि तहिं अणुप्पत्ता ॥ ३९४८. नीह त्ति तेहि भणिते, सड्डे पुच्छंति ते वि य भणंति ।
अच्छह भंते दोण्ह वि, न तेसि इच्छाएँ सच्चित्तं ॥ ३९४९. असंथरणेऽणिताण, कुल-गण-संघे य होति ववहारो ।
केवतियं पुण खेतं, होति पमाणेण बोधव्वं ॥ ३९५०. एत्थ सकोसमकोसं, मूलनिबद्धं च गामऽणुमुयंतेण° ।
सच्चित्ते अच्चित्ते, मीसे य विदिण्णकालाम्म ॥ ३९५१. अस्थिर हु वसहग्गामा, कुदेस-नगरोवमा सुहविहारो ।
बहुगच्छुवग्गहकरा, . सीमच्छेदेण वसियव्वं ॥ ३९५२. जहियं व तिन्नि गच्छा, पण्णरसुभया'२ 'जणा परिवसंति५३ ।
एयं वसभक्खेत्तं, तविवरीयं भवे इतरं ॥ ३९५३. तुब्भंतो मम बाहिं, तुज्झ४ सचित्तं ममेतरं वावि ।
आगंतुगवत्थव्वा, थी-पुरिसकुलेसु व विरेगो५ ॥ ३९५४. एवं सीमच्छेदं१६, करेंति साधारणम्मि खेत्तम्मि ।
पुव्वट्टितेसु जे पुण, पच्छा एज्जाहि अन्ने ७ उ ॥ ३९५५. खेत्ते१८ उवसंपन्ना, ते सव्वे नियमसो उ नातव्वा ।
आभव्व तत्थ तेसिं,१९ सच्चित्तादीण किं न भवे२० ॥
विभिज्जते (आ), विलिज्जते (स)। २. पहुच्चंते (ब)।
काले भण्णा (अ)। केति (स)। ०कधाइं (स)।
तेणं (ब)। ७. अव्वह (अ)।
दोण्हि (अ, क), दोण्णि (स)। ९. ० अणिताण (ब), असंथरे णिं० (अ)। १०. गाममणुमुयं० (क), अणुमुयंतेणं (ब, अ)।
११. हस्थि (स)। १२. ० सुहतो (ब)। १३. ,जेण पविसंति (ब, क)। १४. तुहं (अ), तुब्ध (स)। १५. विवेगो (अ)। १६. सीमाछेदं (आ। १७. अत्ते (क)। १८. खेत (क)। १९. तेंसि तु (ब, स) तेसु (क)। २०. गाथा के तीसरे चरण में अनुष्टुप छंद है।
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३७४ ]
व्यवहार भाष्य
३९५६. नाल' पुर-पच्छसंथुय, मित्ता य वयंसया य सच्चित्ते ।
आहारमत्तगतिगंरे, संथारग वसधिमच्चित्ते ॥ ३९५७. उग्गहम्मि परे एयं, लभते उ अखेत्तिओरे ।
वत्थमादी' वि दिन्नं तु,' कारणम्मि वि सो लभे ॥ ३९५८. दुविहा सुतोवसंपय, अभिधारेंते" तहा पढ़ते य ।
एक्केक्का वि य दुविधा, अणंतर परंपरा चेव ॥नि. ५०४ ॥ ३९५९. एत्थं सुयं अहीहामि', सुतवं सो वि अन्नहिं ।
वच्चंतो सोऽभिधारतो, सो वि अन्नत्थमेव व० ॥ ३९६०. दोण्हं अणंतरा१ होति, तिगमादी परंपरा१२ ।
सट्ठाणं पुणरेंतस्स, केवलं तु निवेयणा ॥ ३९६१. अच्छिन्नुवसंपयाएँ, गमणं सट्ठाण जत्थ वा छिन्नं ।
मग्गणकहणपरंपर, छम्मीसं३ चेव वल्लिदुर्ग१४ ॥नि. ५०५ ॥ ३९६२. अभिधारेत५ पढ़ते वा, छिन्नाए ठाति अंतए ।
मंडलीए उ१६ सट्ठाणं, लभते१७ णो उ मज्झिमे ॥ ३९६३. जो उ मज्झिल्लए जाति, नियमा सो उ अंतिम८ ।
पावते निन्नभूमी१९ तु, पाणियं व पलोट्टियं ॥ ३९६४. माता पिता२० य भाया२९, भगिणी पुत्तो तधेव धूता य ।
एसा२२ अणंतरा खलु, निम्मीसा होति वल्ली उ ॥ ३९६५. सेसाण उ वल्लीणं, परलाभो होति दोन्नि चउरो व ।
एवं२३ परंपराए, 'विभास ततो वि२४ य जा परतो ॥
*
नार (स)। २. ०मत्तिग०(क)। ३. अखित्तओ (अ), अखेत्तओ (स) ।
वत्थगादी (ब, क)। व (अ)। लसे (ब, क)। असिधारेंते (क)। अहीहम्मि (अ, क)।
अस्थण्णहिं (ब), अण्णेतमेव (स)। १०. वा (क)। ११. अण्णयरा (अ, ब, क,स)। १२. ० परी (क)। १३. छम्मासं (क)।
१४. वण्णि० (अ), अ प्रति में प्राय: सर्वत्र लिपिदोष से ल के
स्थान पर ण लिखा हुआ है। १५. अभिकरिते (क)। १६. x(अ)। १७. वयते (क, ब)। १८. अंतियं (स)। १९. तिन्नि ० (अ)। २०. पिय (ब)। २१. x (ब)। २२. एस (ब, क)। २३. एव (स)। २४. विभासिया तो (ब), विभासतो वि (स)।
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दशम उद्देशक
[ ३७५
३९६६. माउम्माय पिया भाया, भगिणी एव पिउणो वि चत्तारि' ।
पुत्तो धूया य तधा, भाउगमादी चउण्हं पि ॥ ३९६७. अढे व पज्जयाई , चउवीसं भाउ-भगिणिसहियाइं ।
‘एवं एच्चिय माउलसुतादओ परतरा वल्ली ॥ ३९६८. दुविधो अभिधारतो', दिट्ठमदिट्ठो य होति नायव्वो ।
अभिधारेज्जतगसंतएहिऽदिट्ठो य अन्नेहि ॥ ३९६९. सच्चित्ते अंतरा लद्धे, जो उ गच्छति अन्नहिं ।
जो तं पेसे सयं वावि, नेति' तत्थ अदोसवं ॥ ३९७०. जो उ लढुं० वए अन्नं, सगणं पेसवेति११ वा ।
दिट्ठा व संतऽदिट्ठा'२ वा, मायी ३ ते होंति दोण्णि वी ॥ ३९७१. ण्हाणादिएसु तं दिस्सा, पुच्छा सिटे हरेति'४ से ।
गुरुगा५ चेव सच्चित्ते, अच्चित्ते तिविधं पुण६ ॥ ३९७१/१. दुविहो अभिधारतो, दिट्ठमदिट्ठो य७ होति नातव्यो ।
अभिधारेज्जंतगसंतएहिऽदिट्ठो य अन्नेहिं१९ ॥ ३९७१/२.दिट्ठो मायि अमाई, एवमदिट्ठो वि२० होति दुविहो उ ।
, अमायी तु अप्पिणिती२९, माई उ न अप्पिणे२२ जो उ ॥ ३९७२. एवं ता जीवंते२३, अभिधारेंतो२४ उ एइ जो साधू ।
कालगते एतम्मि उ, इणमन्नो होति ववहारो ॥नि. ५०६ ॥
१. हस्तप्रतियों में 'चत्तारि' पाठ नहीं मिलता कित् टीका की व्याख्या
के अनुसार तथा छंद की दृष्टि से चत्तारि पाठ होना चाहिए । २. पुत्ता य (ब)। ३. वीसं खु (स)।
एवं इय चिय (अ, क) एव इयच्चिय (स)। ५. परंपरा (ब, स)। ६. धारतो (ब, क), ० धारेंति (स)। ७. गाथा का उत्तरार्ध ब और क प्रति में नहीं है । ८. गच्छहि (स)।
ण्णेइ (अ)। १०. लद्धं (ब)। ११. पेसएति (अ)। १२. ० अदिट्ठा (ब, स, क)। १३. माती (क)। १४. हरिसे (अ), हरति (स)।
१५. गुरुगो (अ)। १६. ३९७१ तथा ३९७१/१ ये दोनों गाथाएं ब और क प्रति में नहीं
हैं। देखें टिप्पण ३९७१/१ गाथा। १७. व (अ)। १८. ० संतिएहिं (आ) १९. टीकाकार के अनुसार ३९७१/१, २ ये दोनों गाथाए
अन्यकर्तृक हैं। 'अत्रैवान्यकर्तृकविधिशेषसूचकं गाथाद्वयम्।' दुविहो. ....(३९७१/१) गाथा का पुनरावर्तन हुआ है।
देखें गा. ३९६८। २०. ति (स)। २१. अप्पिणेती (अ), अप्पिणाती (स)। २२. अप्पिणो (स)। २३. जीवंता (अ), जीयंता (स)। २४. अतिधा० (ब, क)।
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३७६ ]
१.
२.
३.
४.
अप्पत्ते कालगते, सुद्धमसुद्धे पुव्विं पच्छा निग्गत, संतमसंते ३९७४. लद्धे 'उवरता थेरा, तस्स मते वि लभते सीसो, जइ ३९७५. एवं नाणे तह दंसणे य सुत्तत्थ - तदुभए वत्तण संधण' गहणे, णव णव भेदा य एक्केक्के ॥ ३९७६. पासत्थमगीतत्था, उवसंपज्जति जे उ चरणट्ठा सुत्तोवसंपयाए, जो लाभो सो उ तेसिं तु 11
सुह- दुक्खी । दलयंति 11
३९७३.
३९७९.
खलु ।
11
1
I
३९७७. गीतत्था ससहाया, असमत्ता जंतु लभति सुत्तत्थ अतक्कंते', समत्तकपी उ ३९७८. अभिधारिज्जंतऽपत्ते ११, एस वुत्तो मो पढ़तेसु १२ विधिं वोच्छं, सो उ१३ पाढो इमो भवे धम्मका सुत्ते या, कालिय तह दिट्ठिवाय अत्थे य उवसंपयसंजोगे १४, दुगमादि हुत्तरं बलिया आवलिय १५ मंडलिकमो, पुव्वुत्तो छिन्नऽछिन्नभेदेणं १६ एसा सुतोवसंपय, तो सुहदुक्खयं वोच्छं ३९८१. अभिधा उवसंपण्णो १७ दुविधो सुह-दुक्खितो मुणेयव्वो तस्स 3 किं अभवती", सच्चित्ताऽच्चित्तलाभस्स ॥नि. ५०८ ॥ सहायगो तस्स १९ उ नत्थि कोई, सुत्तं च तक्केइ न सो परत्तो गाणिए दोसगणं विदित्ता, सो गच्छमब्भेति समत्तकप्पं ३९८३. खेत्ते सुहदुक्खी तू, अभिधारेंताइँ दोणि वी लभत पुर-पुच्छसंथुयाई, हेट्ठिल्लाणं च जो लाभो ॥ नि. ५०९ ।।
॥दारं ॥
।
I
३९८०.
३९८२.
दितअदिते (अ) ।
निग्गए (अस) ।
जति (अ) ।
वत्तणा (क) ।
संधणा (स) ।
५.
६.
७.
८.
९.
० कप्पा (क)।
१०. न दलंति (अ), दलंती (स) ।
११.
० ज्जंत अप्पत्ते (क, स) ।
x (क) ।
० त्था जं (ब क) ।
अतक्कित (अ) ।
अदितदिते' य 1 सुते बलिया ॥ नि. ५०७ ॥ सिस्साण सो भवे 1 से अस्थि देति वा || - चेव ।
१२. पढ़ते उ ( ब, क ) ।
१३. य (अ)।
१४. अप्पत्तयसंजोगो (क) ।
तत्थ (क) ।
० मज्झेति ( अ, क ) ।
||
व्यवहार भाष्य
।
11
१५.
० लिया (अ) । १६. छिन्नाछि० (ब) ।
१७. उववण्णो (अ), छंद की दृष्टि से 'अभिधारुवसंपण्णो'
पाठ होना चाहिए।
१८. आवितिति (क), आभव इति (अ) ।
१९.
२०.
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दशम उद्देशक
[३७७
३९८४ परखेत्तम्मि वि लभती, सो दो वी तेण गहण' खेत्तस्स ।
जस्स वि उवसंपन्नो, सो वि से न गिण्हते ताई ॥ ३९८५. परखेत्ते वसमाणे 'वतिक्कमंतो व न ‘लभतेऽसण्णी” ।
छंदेण' पुव्वसण्णी, गाहित सम्मादि सो लभते ॥ ३९८६. सुह-दुक्खितेण जदि उ, परखेत्तुवसामितो तहिं कोई ।
बेति' अभिनिक्खमामी', सो तू खेत्तिस्स आभवति ॥ ३९८७. अध पुण गाहित१ दंसण, ताधे सो होति उवसमंतस्स२ ।
कम्हा जम्हा सावय३, तिण्णी१४ वरिसाणि पुव्वदिसा ॥ ३९८८. एतेण कारणेणं, सम्मद्दिष्टुिं तु न लभते खेत्ती५ ।
एसो उवसंपन्नो, अभिधारेंतो इमो होति ॥ ३९८९. मग्गणकहणपरंपर, अभिधारेतेण मंडलीऽछिन्ना'६ ।
एवं खलु-सुह-दुक्खे, सच्चित्तादी तु मग्गणया ॥ ३९९०. जइ से अस्थि सहाया,जदि वावि करेंति तस्स तं किच्चं ८ ।
तो लभते ९ इहरा • पुण, तेसि मणुण्णाण साधारं ॥ ३९९१. अपुण्णा कप्पिया जे तू, अन्नोन्नमभिधारए ।
अन्नोन्नस्स य लाभो उ२९, तेसिं साधारणो भवे ॥ ३९९२. जाव एक्केक्कगो पुन्नो, ताव तं सारवेंति२१ तु ।
कुलादिथेरगाणं२२ वा, देंति जो वावि२३ सम्मतो ॥ ३९९३. सुह-दुक्खे उवसंपद, एसा खलु वण्णिया समासेणं ।
अह एत्तो उवसंपय, मग्गोग्गह वज्जिते वुच्छं ॥दारं ।।
१. गहणी (ब)। २. स समाणो (अ, क), ० माणी (स) । ३. अतिक्कमंतो (स, ब)।
लभति असण्णी (स, ब)। छेदेण (क) ।
गाहितस्स (ब)। ७. लभति (स)। ८. चेति (ब)। ९. मामि (स)। १०. खेत्तस्स (अ)। ११. गाहितो (मु, ब)। १२. समितस्स (अ, क)।
१३. सावति (ब, क) १४. तिण्णि (मु, क)। १५. खित्ती (अ)। १६. मंडला ० (स)। १७. जति स (क)। १८. किंच (क)। १९. लभे (ब)। २०. x (ब)। २१. सारवेति (आ), सारमंति (स)। २२. ० दिथविरगाणं (ब, क), कुलाभिथे ० (स)। २३. वासि (स)।
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३७८ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७
८.
९.
३९९४. मग्गोवसंपयाए,
गीतस्थेणं
परिग्गहीतस्स
1
अग्गीतस्स वि लाभो, का पुण उवसंपया मग्गे ॥नि. ५१० ॥ ३९९५. जह कोई मग्गण्णू, अन्नं देतं तु वच्चती
साधू ।
उवसंपज्जति उ तगं, तत्थऽण्णो गंतुकामो उ ॥ नि. ५११ ॥ ३९९६. अव्वत्तो अविहाडो, अदिट्ठदेसी अभासिओ वावि 1 एगमगे उवसंपयाय, चउभंग जा पंथो ॥ नि. ५१२ ॥ गतागत गतनियत्ते, फिडिय गविट्ठे तधेव अगविट्ठे । उब्भामग सन्नायग, 'नियट्टदिट्ठे अभासी य" ॥ उवण अन्नपंथे वा गतं अगविसंत न अगविट्ठोत्ति परिणते, गवेसमाणा खलु ४९९९. अम्मा- पितिसंबद्धा, मित्ता य वयंसगा य दिट्ठा भट्ठा" य तहा, मग्गुवसंपन्नओ लभति ॥ दारं ॥ ४०००. विणओवसंपयाए, पुच्छण साहण अपुच्छ गहणे य नायमनाए दोन्नि वि, नमंति पक्किल्लसाली व ४००१. कारणमकारणे वा अदिट्ठदेसं गया विहरमाणा पुच्छा विहारखेत्ते, अपुच्छ लहुगो य जं वावि ४००२. सच्चित्तम्मि उ लद्धे, अण्णोण्णस्स अनिवेदणे लहुगो । ववहारेण व हाउं पुणरवि दाउं११ नवरि १२ मासो ॥
तस्स I
1
॥नि. ५१३ ।।
"
नाए व अनाए वा, होति परिच्छाविधी जहा हेट्ठा १३ । अपरिच्छणम्मि गुरुगा, जो उ१४ परिच्छाय अविसुद्धो ॥ ४००४. केई१५ भांति ओमो, 'नियमा निवेयइ १६ इच्छ इतरस्स 1 तं तु न जुज्जति जम्हा, पक्किल्लगसालिदिट्ठतो १७ ॥
३९९७.
४९९८.
४००३.
परिग्गिही ० (अ) ।
अगीत० (क) ।
कोती (ब, क) ।
० ण्णं (अ) ।
० अदिट्ठ भासी या (ब, क) ।
वण्ण ० (अ)।
भाषित (मवृ) ।
विणएवसं० (अ)। • रणं (स)।
लभंति 1 लभंती 11
१०.
पुव्वं (क) ।
११. दाणं (स)।
१२. नवर (अ, क, स) ।
१३.
दिट्ठा (क) ।
१४. य (क), इ (अ) ।
१५.
केइ उ (स, ब, क ।
१६.
नियमेण निवेइ (अ) १७. पक्कल्लग ० (अ),
।
व्यवहार भाष्य
नियमा निवेइए (स) 1 पिक्क० (क) ।
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दशम उद्देशक
[३७९
४००५. वंदणालोयणा चेव', तहेव य निवेयणा ।
सेहेण उवउत्तम्मि२, इतरो पच्छ कुव्वती ॥दारं ।। ४००६. सुत-सुह-दुक्खे खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाए य ।।
बावीसपुव्वसंथुय, वयंसदिट्टे य भट्टे य ॥नि. ५१४ ।। ४००७. खेत्ते मित्तादीया, सुतोवसंपन्नतो उ छल्लभते ।
अम्मापिउसंबद्धो, सुह-दुक्खी एतरो दिट्ठो ॥ ४००८. इच्चेयं पंचविधं, जिणाण आणाएँ कुणति सट्ठाणे ।
पावति धुवमाराहं, तविवरीए विवच्चासं ॥नि. ५१५ ॥ ४००९. इच्चेसो पंचविहो, ववहारो आभवंतिओ नाम ।
पच्छित्ते ववहारं, सुण वच्छ ! समासतो वुच्छं ॥नि. ५१६ ।। ४०१०. सो पुण चउव्विहो दव्व-खेत्त-काले य' होति भावे य ।
सच्चित्ते अच्चित्ते, दुविधो पुण होति दव्वम्मि ॥नि. ५१७ ।। ४०११. पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति तसेसु होति सच्चित्ते ।
अचित्ते पिंड उवधी", दस पन्नरसेव सोलसगं१ ॥ ४०१२. संघट्टण 'परितावण-उद्दवणा'१२ वज्जणा३ य सट्ठाणं ।
दाणं तु चउत्थादी, तत्तियमित्ता व कल्लाणे ॥दारं ॥ ४०१३. अधवा ४ अट्ठारसगं, पुरिसे इत्थीसु वज्जिया वीसा ।
दसगं च५ नपुंसेसुं, आरोवण वणिया तत्थ ॥दारं ॥नि. ५१८ ।। ४०१४. जयवणऽद्धाणरोधऍ६, मग्गादीए य७ होति खेत्तम्मि ।
। दुब्भिक्खे य सुभिक्खे, दिया व रातो व कालम्मि८ ॥नि. ५१९ ।।
१. २.
५.
एय (अ.स)। पउत्तम्मि (क), य उत्तम्मि (स)। कुव्वतो (स)। ० दिट्ठ (ब)। नट्टे (क), सव्वे (अ, सपा)। ० भइ (अ), ४००७ से ४००९ तक की तीनों गाथाएं क और स प्रति में नहीं हैं। या (अ, ब)। x (ब)। तस्सेसु (ब)।
१०. उवधी य (क)। ११. सोलग (स)। १२. ० ताव दवणा (अ)। १३. वज्जणे (अ)। १४. अहवा वि(ब, क)। १५. व(अ)। १६. ० अद्धाण रोवए (अ)। १७. वि (अ)। १८. ४०१४, ४०१५ ये दोनों गाथाएं क, ब और स प्रति में नहीं है।
७. ८. ९.
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३८० ]
व्यवहार भाष्य
४०१५. वसिमे वि अविहिकरणं, संथरमाणम्मि खेत्तपच्छित्तं ।
अद्धाणे उ अजयणं, पवण्णे चेव . दप्पेणं ॥ ४०१६. कालम्मि उ संथरणे, पडिसेवति' अजयणा व ओमंसिर ।
दिय-निसिमेराऽकरणं, ऊणधियं वावि कालेण ॥दारं ॥ ४०१७. जोगतिए करणतिए, दप्प-पमायपुरिसे य भावम्मि
एतेसिं तु विभागं, वुच्छामि अहासमासेणं ॥ ४०१८. जोगतिए करणतिए, सुभासुभे तिविधकालभेएणं ।
सत्तावीसं भंगा, दुगुणा वा बहुतरा वावि ॥ ४०१९. वावे मिहमंबवणं, मणसाकरणं तु होतऽवुत्ते वि ।
अणुजाणसु 'जा वुप्पउ, मण कारावण अवारेंते ॥ ४०२०. मागहा इंगितेणं तु, पेहिएण य कोसला ।
अद्धुत्तेण१ उ पंचाला, नाणुत्तं दक्खिणावहा । ४०२१. एवं तु अणुत्ते वी, मणसा कारावणं तु बोधव्वं ।
मणसाऽणुण्णा साधू, चूयवणं वुत्त वुप्पति वा ॥ ४०२२. एवं वइ१२ कायम्मी, तिविधं करणं विभासबुद्धीए ।
हत्थादि ‘सण्ण छोडिय९३ इय काये कारणमणुण्णा ॥ ४०२३. एवं नवभेदेणं, पाणइवायादिगे५ उ अइयारे ।
निरवेक्खाण मणेण वि, पच्छित्तितरेसि उभएणं ॥ ४०२४. वायाम-वग्गणादी, धावण-डेवण य होति दप्पेणं ।
- पंचविधपमायम्मी'६, जं जहि आवज्जती तं तु८ ॥दारं ।। ४०२५. गुरुमादीया पुरिसा, तुल्लवराहे वि तेसि नाणत्तं ।
परिणामगादिया वा, इड्ढिमनिक्खंत असहू वा९ ॥
१. सेवित (स)। २. ओमम्मि (ब, क)।
तूण ०(क)। दव्वप० (क)। भावं ति (क)।
अह समा० (अ, स), अहाणुपुवीए (मु) । ७. होइ अवुत्ते (अ), होउ वुत्ते (स)। ८. ० जाणेसु (ब)। ९. जाए वुष्पउ (अ, क) जा वुण्णउ (ब) । १०. मगधा (अ.स)।
११. अत्तट्टेण (ब)। १२. वय (मु, ब)। १३. सा पच्छोडिय (अ)। १४. कायेन गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे (मव)। १५. ० वायादिते (ब, क)। १६. ० यम्मि (आ)। १७. यावज्जति (क)। १८. तू (स)। १९. यह गाथा क प्रति में नहीं है।
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दशम उद्देशक
[ ३८१
४०२६. पुमं बाला थिरा चेव, कयजोग्गा 'य' सेतरा'२ ।
अधवा दुविहा पुरिसा, होति दारुण-भद्दगा ॥दारं ॥ ४०२७. पायच्छित्ताऽऽभवंते य, ववहारो सो समासतो भणितो ।
जेणं तु ववहरिज्जति, इयाणि तं तू प्रवक्खामि ॥नि. ५२० ।। ४०२८. पंचविहो ववहारो, दुग्गतिभयचूरगेहि पण्णत्तो ।
आगम-सुत-आणा धारणा य जीते ‘य पंचमए" ॥नि. ५२१ ।। ४०२९. आगमतो ववहारो, सुणह जहा धीरपुरिसपण्णत्तो ।
पच्चक्खो य परोक्खो, सो वि य दुविहो मुणेयव्वो ॥नि. ५२२ ॥ पच्चक्खो वि य दुविहो, इंदियजो चेव नो व इंदियजो ।
इंदियपच्चक्खो वि य, पंचसु विसएसु नेयव्वो ॥नि. ५२३ ॥ ४०३१. नोइंदियपच्चक्खो, ववहारो सो समासतो तिविहो ।
ओहि-मणपज्जवे या, केवलनाणे य पच्चक्खे ॥नि. ५२४ ॥ ४०३२. ओधीगुण-पच्चइए, जे वट्टते. सुयंगवी धीरा ।
ओहिविसयनाणत्थे,. जाणसु ववहारसोधिकरे ॥ ४०३३. उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुयंगवी धीरा ।
मणपज्जवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे१० ॥ ४०३४. आदिगरा१ धम्माणं, चरित्तवर-नाण१२ -दंसण-समग्गा ।
सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा३ ॥ ४०३५. पच्चक्खागमसरिसो, होति परोक्खो वि आगमो जस्स ।
चंदमुही विव सो वि हु, आगमववहारवं होति'४ ॥ ४०३६. नातं आगमियं५ ति य, एगटुं जस्स सो परायत्तो ।
सो पारोक्खो वुच्चति, तस्स पदेसा इमे होंति'६ ॥ ४०३७. पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति ।
चोद्दस-दसपुव्वधरा, नवपुब्वियगंधहत्थी य७ ॥नि. ५२५ ।।
२. ३. ४.
या (अ)। सभावतो (स)। गाथा का प्रथम चरण अनुष्टप छंद में है
मूरगेहि (अ, ब, स, क)। पंचमा य ()। मुणह (मु, अ), गुणह (स)। वीर ० (अ) x(क)। वटुंती (क)।
१०. जीभा ८९ । ११. ० गरा णं (क, स)। १२. चारित्तवर-(ब), चरणत्तवर ० (स)। १३. जी भा. १०८। १४. जीभा ११०। १५. आगमणं (आ), आगमयं (ब, स)। १६. जीभा १११। १७. जीभा ११२।
७. ८. ९.
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३८२ ]
व्यवहार भाष्य
४०३८. किह आगमववहारी, जम्हा जीवादयो ‘पयत्था उ ।
उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं नयविगप्पेहि२ ॥ ४०३९. जह केवली वि जाणतिरे, दव्वं खेत्तं च काल-भावं च ।
तह चउलक्खणमेत', 'सुयनाणी वी विजाणाति ॥नि. ५२६ ॥ ४०४०. पणगं मासविवड्डी, मासिगहाणी' य पणगहाणी य ।
एगाहे पंचाहं, पंचाहे चेव एगाहं ॥ ४०४१. रागद्दोसविवड्डि, हाणि वा णाउ१ देंति पच्चक्खी ।
चोद्दसपुवादी वि हु, तह नाउं देंति हीणऽहियं'२ ॥ ४०४२. चोदगपुच्छा पच्चक्खनाणिणो थोव३ कह बहु४ देंति ।
दिटुंतो वाणियए, जिणचोद्दसपुब्बिए धमए'५ ॥ जं जह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओ निउणो ।
थोवंत महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि८ 'बहं त५९ ॥ ४०४४. 'अधवा कायमणिस्स उ'२०, सुमहल्लस्स वि उ कागिणीमोल्लं२१ ।
वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती२२ सयसहस्सं ॥ इय मास्राण बहूण वि, रागद्दोसऽप्पयाय थोवं तु ।
रागद्दोसोवचया, पणगे 'वि जिणा'२३ बहुं देंति२४ ॥ ४०४६. पच्चक्खी पच्चक्खं, पासति पडिसेवगस्स सो भावं ।
किह जाणति पारोक्खी२५, नातमिणं तत्न धमएणं२६ ॥ ४०४७. नालीधमएण जिणा, उवसंहारं२७ करेंति पारोक्खे ।
जह सो कालं जाणति, सुतेण सोहिं तहा सोउं ॥
नवपयत्था (क)। २. जीभा ११३ । ३. याणति (ब)। ४. ० मेव (स)। ५. नाणीमेव जाणाति (अ, स, क), जीभा ११४ । ६. ० विवड्डि (स)। ७. मासग ०(ब)। ८. एकाहं नाम अभक्तार्थ: (म) । ९. जीभा ११५ । १०. हाणी (स)। ११. णेउ (अ, क)। १२. जीभा ११६ । १३. थोव य (क), थेवे वि (जीभा)। १४. पभुं (स)।
१५. गाथा का उत्तरार्ध जीभा (११७) में इस प्रकार है
भण्णति सुणसू एत्थं, दिद्रुतं वाणिएण इमं ।। १६. थेवं (क)। १७. कस्सति (स)। १८. 3(अ)। १९. बहू (स), जीभा ११८ । २०. अहवा वि कायमणिणो (जीभा ११९)। २१. कागणी ० (स, ब, क)। २२. होति (क)। २३. विउ तो (स)। २४. जीभा १२० । २५. परोक्खी (क)। २६. जीभा १२१। २७. उवसंधार (अ, स, जीभा १२२)।
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
जेसिं जीवाजीवा, उवलद्धा सव्वभावपरिणामा । सव्वाहि नयविधीहिं, केण कतं आगमेण कयं ४०४९. तं पुण केण कतं तू सुतनाणं जेण जीवमादीया नज्जंति सव्वभावा, केवलनाणीण तं तु कतं ४०५०. आगमतो ववहारं, पर सोच्चा संकियम्मि उ चरिते आलोइयम्म आराहणा अणालोइए भयणा आगमववहारी छव्विहो वि आलोयणं निसामेत्ता । देति ततो पच्छित्तं, पडिवज्जति सारितो जइ य ४०५२. 'आलोइयपडिकंतस्स, होति आराधणा" तु
नियमेण ।
अणालोयम्मि भयणा, किह पुण भयणा भवति तस्स कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ । अप्पत्ते' पत्ते वा, आराधण तह वि भयणेवं ४०५४. अवराहं वियाणंति, तस्स खोधि च जद्दपि । तधेवालोयणा" बुत्ता, आलोएंते बहू गुणा H ४०५५. दव्वेहि पज्जवेहिं ११, कम- खेत्ते काल- भावपरिसुद्धं । आलोय सुत्ता, ववहारं पतंजति 'सहसा अण्णाणेण १२ व भीतेण व पेल्लितेण व परेण १३ वसणेण पमादेण व मूढेण व रागदोसेहिं ॥नि. ५२९ ॥ ४०५७. पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पादम्मि जं पुणो पासे न य तरति नियत्तेउ, पायं सहसा - करणमेयं १४
॥नि. ५२८ ।।
I
४०५८. अन्नतरपमादेणं१५
I
गोवउत्तस्स एतदण्णा १७ ॥ दारं ||
इरियादि
४०४८.
४०५१.
तु.
४०५३.
४०५६.
सव्वाय (स)।
गाथा का उत्तरार्ध (जीभा १२३) में इस प्रकार है—
त 'पुव्वधरा सोहिं, कुव्वंति सुओवदेसेणं ।
जीभा. १२४ ।
य (स) ।
वावि (स)।
भूतत्थे,
. जीभा १२५, १२६ ।
आलोतिय पडिक्कंते होती आलोयणा (जीभा १२७) ।
असंपउत्तस्स अवट्टतो १६
अप्पत्तं (क) ।
इस गाथा के स्थान पर जीभा (१२८. १२९) में निम्न दो गाथाएं मिलती हैं-
11
१५.
१६.
१७.
1
11
।
॥नि. ५२७
II
11
||
।
आलोयणापरिणतो, अंतरकालं करे अभिमुहो वा । अहवा वी आयरिओ, एमेव य होति संपत्तो ॥ आराहओ तु तह वी, जं सम्मालोयणापरिणतो तु । णाराहेति अपरिणयो, एवं भयणा भवति एसा ॥ १०. तहाऽवाऽऽलोयणा (जीभा १३०)
११. ० वेहि य (ब, जीभा १३१) ।
11
१२. अहवा सहसण्णाणा (जीभा १३४) ।
१३. परेहिं (स, जीभा ।
१४.
जीभा १३५ ।
x (क) ।
अवट्टमो (क) ।
एयमण्णायं (ब), जीभा १३६ ।
[ ३८३
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३८४ ]
व्यवहार भाष्य
४०५९. भीतो पलायमाणो, अभियोगभएण वावि जं कुज्जा ।
'पडितो व अपडितो" वा, पेलिज्जउरे पेल्लिओ पाणे ॥ ४०६०. जूतादि होति वसणं, पंचविधो खलु भवे पमादो उ ।
मिच्छत्तभावणाओ, मोहो तह रागदोसा य ॥ ४०६१. एतेसिं ठाणाणं, · अन्नतरे कारणे समुप्पन्ने ।
तो आगमवीमंसं, करेंति अत्ता तदुभएणं' ॥नि. ५३० ॥ ४०६२. जदि आगमो य आलोयणा य दोण्णि वि समं तु निवयंतो ।
एसा खलु वीमंसा, जो वऽसह जेण वा सुज्झे ॥ ४०६३. नाणमादीणि अत्ताणि', जेण अत्तो० उ सो भवे ।
रागद्दोसपहीणो वा, जे व इट्ठा विसोधिए ॥ ४०६४. सुतं अत्थे उभयं, आलोयण आगमो व इति उभयं ।
जं१ तदुभयं ति वुत्तं, 'तत्थ इमा१२ होति परिभासा ॥ ४०६५. पडिसेवणातियारे, जदि नाउट्टति३ जहक्कम सव्वे ।
'न हु देंती५४ पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स५ ॥ ४०६५/१. पडिसेवणातियारे, जदि आउट्टति जहक्कम सव्वे ।
देंति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स१६ ॥ ४०६६. कधेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो 'वि गृहति१७ ।
न तस्स देति पच्छित्तं, बेंति८ अन्नत्थ सोधय९ ॥ ४०६७. न संभरति जो दोसे, सब्भावा न य० मायया२१ ।
पच्चक्खी साहते ते उ, माइणो उ न साधए२२ ॥ ४०६८. जदि आगमो य आलोयणा य 'दो वि विसमं निवडियाई२३ ।
न हु देंती२४ पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स ॥
१. पडितो वा पडितो (क), पडिते अपडिते (अ, ब)। २. पेल्लिज्जा (जीभा १३७)।
० भावणा तू (जीभा १३८)। ऊ (जीभा)।
जीभा १३९। ६. निवयंति (जीभा, स)। ७. असहू (जीभा १४०), वा सहू (स) । ८. वी (स)।
अन्नाणि (जीभा)। १०. अत्थे (जीभा १४१)। ११. जे (क)। १२. तत्थेसा (जीभा १४२) । १३. आउट्टति (स)।
१४. देंति ततो (अ, स)। १५. जीभा १४३ । १६. यह गाथा व्यवहारभाष्य की मुद्रित टीका एवं हस्तप्रतियों में नहीं मिलती किन्तु टीका में इसकी संक्षेप व्याख्या है । जीतकल्पभाष्य १४४ में गाथाओं के क्रम में यह गाथा मिलती है। यह गाथा यहां प्रासंगिक है फिर भी प्रतियों में न मिलने के कारण इस गाथा को मूलगाथा के क्रमांक में नहीं जोड़ा है। १७. निगृहति (क)। १८. भणंति (ब)। १९. सोहत (अ), सोहय (ब), सोधए (स), जीभा. १४५ । २०. उ(स)। २१. मायतो (अ, ब, स)। २२. साहई (जीभा १४६), सोहए (अ)। २३. दोहि वि समं न निवइताइं (जी भा)। २४. देंति उ (जीभा १४७), होति (अ)।
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दशम उद्देशक
जदि आगमो' य आलोयणा य दोन्नि वि समं निवडियाइं । देंति ततो पच्छित्तं, आगमववहारिणो तस्स " ४०७०. 'अट्ठारसेहिं ठाणेहिं'३, जो होति अपरिणिद्वितो । लमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७१. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति अलमत्थो तारिसो होति,
ववहरित्तए '
11
ववहारं ४०७२. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं जो होत नलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ४०७३. अट्ठारसेहिं ठाणेहिं, जो होति अलमत्थो तारिसो होति ववहारं
४०६९.
४०७४.
वयछक्ककायछक्कं, अकप्प-गिहिभायणे य गोयरनिसेज्जण्हाणे, भूसा
४०७८. बत्तीसाए
ठाणेसु, जो नमत्थो तारसो होति,
४०७९. बत्तीसाए ठाणेसु जो
अलमत्थो
तारिसो
होति,
आगमतो (ब)।
जीभा १४८ ।
अट्ठारस ठाणेहिं (अ), गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे (मवृ) ।
ववहरण (अ)।
जीभा १५० ।
सुपरिट्ठितो (जीभा ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
जीभा १५१ ।
८.
अट्ठारसहि (जीभा, अ)।
९.
जीभा १५२ ।
१०. गुणेहिं (अ) ।
११. जीभा १५३ । ४०७२, ४०७३. ये दोनों गाथाएं ब और क प्रति
में नहीं हैं।
1
॥
४०७५. परिनिट्ठित परिण्णाय१३ पतिट्ठिओ जो ठितो उ तेसु१४ भवे अविदु सोहिं न याणति४५, अठितो ६ पुण अन्नहा कुज्जा ४०७६. 'बत्तीसाए ठाणेसु १७, जो होति अपरिनिट्ठितो८ । नलमथो तारिसो होति, ववहारं ४०७७. बत्तीसाए
ववहरित्तए ॥
ठाणेसु, जो होत अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं होति
ववहारं
होति ववहारं
परिणिद्वितो
वहरित
अतिट्ठित ।
ववहरित ॥
।
॥
सुपतिट्ठितो ।
॥
ववहरित्तए "
पलियंको 1
अट्ठारसट्ठाणे १२ ॥
परिनिट्ठितो । ववहरित्तए १
11
अपतिट्ठितो २० । ववहरित्तए २१
TE
सुति । ववहरित्तए २२
१९. जीभा. १५७ ।
२०. अपलिट्ठितो (स) ।
२१.
२२.
१२.
० रसठाणए (स) अट्ठार ठाणेते (जीभा १५४) । १३. परिण्णा (अ), ० ण्णाया (स, जीभा १५५) । तेसि (क), तेसू (स) ।
१४.
१५.
याणेइ (अ) ।
१६.
अट्ठितो (स) ।
१७. बत्तीसाए तु ठाणेहिं (जीभा १५६) सर्वत्र |
१८.
परि ० ( जी भा) ।
11
यह गाथा ब प्रति में नहीं हैं, जीभा १५८ ।
जीभा १५९ ।
[ ३८५
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व्यवहार भाष्य
४०८०. अट्ठविहा गणिसंपय', एक्केक्क चउविधा 'उ बोधव्वा'२ ।
एसा खलु बत्तीसा, ते पुण ठाणा इमे होंति ॥ ४०८१. आयार-सुत-सरीरे, वयणे वायण मती पओगमती ।
एतेसु संपया खलु, अट्ठमिमा संगहपरिण्णा ॥दारं ।। ४०८२. एसा अट्ठविधा खलु, एक्केक्कीए' चउब्विधो भेदो ।
इणमो उ समासेणं, वुच्छामि अधाणुपुवीए" ॥ ४०८३. आयारसंपयाए, संजमधुवजोगजुत्तया पढमा ।
बितिय' असंपग्गहिता, अणिययवित्ती भवे तइया ॥ ४०८४. तत्तो य० वुड्डसीले, आयारे संपया चउब्भेया१ ।
'चरणं तु"२ संजमो तू३, तहियं निच्चं तु उवउत्तो ॥ ४०८५. आयरिओ उ"बहुस्सुत५, तवस्सि६ जच्चादिगेहि व मदेहिं ।
जो होति अणुस्सित्तो, 'ऽसंपग्गहितो भवे७ सो उ१८ ॥दारं ।। ४०८६. अणिययचारि अणिययवित्ती'९'अगिहितो वि होति अणिकेतो२० ।
निहुयसभाव२१ अचंचल, नातव्यो वुड्डसील त्ति ॥दारं ॥ ४०८७. बहुसुत२२ परिचियसुत्ते२३, विचित्तसुत्ते य होति बोधव्वे ।
घोसविसुद्धिकरे वा, चउहा सुयसंपदा होति ॥ ४०८८. बहुसुतजुगप्पहाणे२५, अभितर-बाहिरं 'सुतं बहुहा'२६ ।
होति च सद्दग्गहणा, चारित्तं पी सुबहुयं पि२७ ॥ ४०८९. सगनामं व परिचितं, 'उक्कमकमतो बहूहि विगमेहिं'२८ ।
ससमय-परसमएहिं, उस्सग्गऽववायतो चित्तं ॥दारं ।।
१. गणसं० (ब, क)। २. मुणेयव्वा (अ)। ३. x (ब)। ४. जीभा. १६०।
जीभा. १६१। __एक्केक्काए (जी भा), कीतो (ब)।
जीभा १६२।
बितिया य (ब)। ९. जीभा १६३ । १०. x (क)। ११. चउद्देसा (अ, क, स) १२. चरणमिह (जीभा १६४) । १३. तु (अ.स)। १४. य (जीभा १६५)। १५. बहुसुतो (ब)।
१६. ०स्सि (ब)। १७. ठवे (स)। १८. सो तु असंपग्गहीउ त्ति (जी भा)। १९. अणितिय० (क)। २०. अगिहो य होति जो अणिसो (जीभा १६६)। २९. ० सहाय (ब)। २२. ० सुत्त (अ)। २३. परिजित० (जीभा)। २४. या (स, जीभा १६७) । २५. बहुसुत्तजुगप० (ब)। २६. च बहु जाणे (जीभा १६८)। २७. तु (स, जीभा)। २८. उक्कमकमसंघ णेयव्यो (ब), आराहाति ताव बहूहि विगमेहिं
(सपा), उक्कमकमयो बहूहि व कमेहिं (जीभा १६९)।
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दशम उद्देशक
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४०९०. घोसा उदत्तमादी, तेहि विसुद्धं तु घोसपरिसुद्धं ।
एसा सुतोवसंपय, सरीरसंपयमतोरे वोच्छं ॥ ४०९१. आरोह परीणाहोरे, तह य अणोत्तप्पया सरीरम्मि ।
पडिपुण्णइंदिएहि य, थिरसंघयणो य बोधव्वो ॥ ४०९२. आरोहो दिग्घत्तं, विक्खंभो 'वि जइ तत्तिओ चेव ।
आरोह परीणाहे', 'य संपया एस नातव्वा ॥दारं ।। ४०९३. तवु लज्जाए धातू, अलज्जणीओ अहीणसव्वंगो ।
होति अणोत्तप्पे१ सो, 'अविगलइंदी तु पडिपुण्णे१२ ॥ ४०९४. पढमगसंघयणथिरो, बलियसरीरो य होति नातव्वो३ ।
एसा सरीरसंपय, एत्तो वयणम्मि वोच्छामि ॥दारं ।। ४०९५. आदेज्जमधुरवयणो, अणिस्सियवयण'४ तधा असंदिद्धो ।
आदेज्जगज्झवक्को, अत्थवगाढं भवे मधुरं ॥ ४०९६. अहवा अफरुसवयणो५, खीरासवमादिलद्धिजुत्तो वा ।
निस्सियकोधादीहिं, अहवा वी रागदोसेहिं१६ ॥ ४०९७. अव्वत्तं अफुडत्थं, अत्थबहुत्ता व होति संदिद्धं ।
विवरीयमसंदिद्धं८, वयणेसा संपया चउहा१९ ॥ ४०९८. वायणभेदा चउरो, 'विजिओद्देसण समुद्दिसणया तु'२० ।
परिनिव्वविया२१ वाए, निज्जवणा चेव अत्थस्स२२ ॥ ४०९९. तेणेव गुणेणं तू, वाएयव्वा परिक्खिउं सीसा ।
'उद्दिसति वियाणेउं'२३, जं जस्स तु 'जोग्ग तं'२४ तस्स ॥
१. तेहिं (जीभा १७०)।
० संपय अतो (स), सरीरउवसंपयं (अ)। परिण्णाहो (अ)। अणात्त० (अ)। सरीरस्स (जीभा)। गाथा का उत्तरार्ध जीभा (१७१) में इस प्रकार है
परिपुण्णिदियमाऽऽइय संघतण थिरे य बोद्धव्यो। ७. होति तित्तिओ (जीभा १७२) । ८. माहो (स)। ९. उपसंपया (अ.स)। १०. उप (अ.स)। ११. अण्णोत० (अ), अणोतव्वे (क, स)। १२. ० इंदियपडिप्पुण्णा (ब), अविकलइंदी तु
परिपुण्णो (जीभा १७३)।
१३. जीभा (१७४) में इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
पढमादी संघयणो, बलियसरीरो थिरो मुणेयव्वो। १४. अणिसिववयणे (जीभा १७५) । १५. अपरुस० (ब)। १६. गाथायां तृतीया करणविवक्षातो (मव), तु, जीभा १७६, १७७ । १७. अफुडत्तं (जीभा १७८)। १८. ० मसंदि8 (अ)। १९. जीभा १७८। २०. विजि उद्दिसणा समुद्दिसणओ य (ब), विजिउद्देसेण ।
समुद्दिसणया उ(क)। २१. ट्ठिविया (ब, स)। २२. जीभा. १७९ । २३. उद्दिसई विजिणेउं (स, जीभा १८०)। २४. जोग्गय ()
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३८८
]
व्यवहार भाष्य
४१००. अपरीणामगमादी', 'वियाणितु अभायणे'२ न वाएति ।
जह आममट्टियघडे, अंबेव न छुब्भती खीरं ॥ ४१०१. जदि छुब्भती विणस्सति, नस्सति वा एवमपरिणामादी ।
'नोद्दिस्से छेदसुतं', समुद्दिसे वावि तं चेव ॥दारं ॥ ४१०२. परिणिव्वविया वाए, जत्तियमेत्तं तु तरति उग्गहिउँ ।
जाहगदिट्ठतेणं, ‘परिचिते ताव तमुद्दिसति ॥दारं ।। ४१०३. निज्जवगो अत्थस्सा, जो 'उ वियाणाति ११ अत्थ सुत्तस्स ।
अत्थेण व निव्वहती, अत्थं पि कहेति जं भणितं ॥ ४१०४. मइसंपय चउभेदा, उग्गह ईहा अवाय 'धरणा य१२ ।
उग्गहमति छब्भेदा, तत्थ 'इमा होति णातव्वा १३ ॥ ४१०५. खिप्पं बहु बहुविधं व, धुवऽणिस्सिय४ तह य होतऽसंदिद्धं ।
ओगेण्हति एवीहा, अवायमवि५ धारणा चेव ॥ ४१०६. 'सीसेण कुतित्थीण व१६, उच्चारितमेत्तमेव ओगिण्हे ।
तं खिप्पं बहुगं पुण, पंच व छस्सत्तगंथसया ॥दारं ।। ४१०७. बहुविह णेगपयारं, जह लिहतिऽवधारए गणेति वि य ।
अक्खाणगं कहेती, सद्दसमूहं व णेगविहं ॥ ४१०८. न वि विस्सरति धुवं तू'९ अणिस्सितं जन्न पोत्थए लिहियं ।
'अणभासियं च२° गेण्हति, निस्संकित होतऽसंदिद्धं ॥दारं ॥
१. मगादी (ब), अप्परिणा ० (अ.स)। २. ० णितुमभा ० (जीभ)। ३. छुब्भए (जीभा १८१) ।
५. नोद्देसे छेदसुत्तं (ब)। ६. दिसं(ब)। ७. यावि (जीभा १८२) ।
तुम्घेत्तुं (जीभा)। ९. परिणते ताव समुद्दि ० (अ) परिचिते तावऽण्णमुद्दिसति (ब),
परिजिए ताहऽ ण्णु उद्दिसति (जीभा १८३) । १०. ० वतो (ब)।
११. उवजाणेति (जीभा १८४)। १२. धारणया (जीभा १८५) । १३. इमे होंति छब्भेया (जीभा)। १४. धुव अणि० (अ)। १५. अवायमिति (जीभा १८६)। १६. परवाइण सिस्सेण व (जीभा १८७)। १७. ० पहारए (अ, स, जीभा १८८)। १८. अवेती (स) १९. तं (जीभा)।२०. 'अणुभासिय व (स, जीभा १८९) ।
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दशम उद्देशक
[ ३८९
४१०९. उग्गहियस्स उ ईहा, ईहित' पच्छा अणंतरमवाओ ।
अवगते पच्छ धारण, तीय विसेसो इमो नवरं२ ॥ ४११०. बहु बहुविधं पुराणं, दुद्धरऽणिस्सिय तहेवऽसंदिद्धं ।
पोराण पुरा वायित, दुद्धरनयभंगगुविलत्ता ॥ ४१११. एत्तो उ पओगमती, चउब्विहा होति . आणुपुव्वीए ।
आय पुरिसं व खेत्तं, 'वत्थु विय पउंजए वायं ॥ ४११२. जाणति पओगभिसजो, 'जेण आतुरस्स छिज्जती वाही ।
इय वादो य° कहा वा, नियसत्ति १ नाउ कायव्वा दारं ।। ४११३. पुरिसं उवासगादी, 'अहवा वी जाणिगा इयं परिसं१२ ।
पुव्वं तु३ गमेऊणं, ताहे वादो पओत्तव्यो ४ ॥दारं ॥ ४११४. खेत्तं मालवमादी, 'अहवा वी साधुभावितं जं तु१५ ।
नाऊण तहा विधिणा, वादो य६ तहिं पओत्तव्यो७ ॥ ४११५. 'वत्थु परवादी ऊ'१८, बहुआगमितो न वावि'९ णाऊणं ।
राया व२° रायऽमञ्चो२१, दारुणभद्दस्सभावो ति२२ ॥ ४११६. बहजणजोग्गं खेत्तं, पेहे तह फलग-पीढमाइण्णो२३ ।
वासासु एय२४ दोन्नि वि, काले य समाणए कालं ॥ ४११७. पूए 'अहागुरुं पी, चउहा'२५ एसा उ संगहपरिण्णा ।
एतेसिं तु विभागं, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए२६ ॥
ईहिते (अ, क)।
जीभा. १९०। ३. पोराणं (अ, क, जीभा)। ४. दुद्धर णितयं (जीभा)। ५. .संदि8 (क)। ६. व जितं (जीभा १९१)। ७. वत्थु वि(ब)। ८. जीभा १९२।
वाही जेणाउरस्स छिज्जइ उ(क, जीभा १९३), जेण
आतुरस्स छिज्जई (स)। १०. व (जीभा)। ११. ० सत्ती (जीभा)। १२. जाणियमजाणियं इयं० (अ)। १३. x (अ)। १४. जीभा १९४ ।
१५. साधूहिं वावि जंतु अभिक्खं (अ)। १६. हु (जीभा)। १७. जीभा १९५। १८. वत्थु पुण परवाई (जीभा)। १९. वाय (क)। २०. वि (ब)। २१, रायमत्तो (अ, जीभा)। २२. जीभा १९६। २३. जीभा (१९८) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है --
बहुजणजोग्गं पेहे, खेत्तं तह पीढपलगमोगिण्हे। २४. एते (क, )। २५. ० गुरुं पि य चउत्थ (जीभा)। २६. जीभा (१९९) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है -
एत्तो एक्केक्कीय य, इमा विभा मुणेयव्वा ।
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३९० ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
४११८. वासे बहुजणजोग्गं, वित्थिण्णं' जं तु गच्छपायोग्गं । बाल-दुब्बल-गिलाण - आदेसमादीणं ३
अहवावि
1
1
I
४११९. खेत्तऽसति 'असंगहिया, ताधे वच्वंति " ते उ अन्नत्थ न उ मइलेंति निसेज्जा पीढगफलगाण गहणम्मि 11 ४१२०. ' वितरे न तु वासासुं, अन्ने काले उ गम्मतेऽण्णत्थ पाणा सीतल- कुंथादिया 'य तो " गहण वासासुं ॥ ४१२१. जं जम्मि होति काले, कायव्वं तं समाणए तम्मि सज्झायपेहउवधी, उप्पायण भिक्खमादी य१० ॥ दारं ॥ अधागुरू जेण पव्वावितो उ जस्स व अधीत १२ पासम्मि अधागुरू खलु हवंति रातीणियतरा १३ उ सिं अब्भुट्ठाणं, दंडग्गह १४ तह य होति आहारे १५ उवधीवहणं विस्सामणं च संपूयणा एसा | दारं ॥
I
अधवा
11
I
11
एसा खलु बत्तीसा, एयं जाणाति जो 'ठितो वेत्थ १६ ववहारे अलमत्थो १७, अधवा वि भवे इमेहिं तु छत्तीसाए १८ ठाणेहिं १९, लमत्थो तारिसो होति,
जो
होति अपरिणिट्ठितो ।
वहरित्तए २०
11
सुपरिणिट्ठितो २१
४१२२.
४१२३.
४१२४.
४१२५.
४१२६.
४१२७.
विच्छिन्नं (ब)।
पडिलेह (जी भा) ।
छत्तीसाए ठाणेहिं, जो अलमत्थो तारिसो होति,
छत्तीसाए ठाणेहिं, जो नलमत्थो तारिसो होति,
जीभा २०० ।
खेत असइ (जी भा) खेत्तंऽसति (ब) ।
अगहित्ता ताधे गच्छंति (जीभा) ।
जीभा (२०१) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
पीढफलगरगहणे, ण उमइलंती निसिज्जादी ।
वासासु विसेसेणं, अण्णं कालं तु गमय अण्णत्थं (जीभा २०२) ।
ततो (क) ।
७.
८.
९.
x (क) 1
१०. तु (अ), (जीभा २०३) ।
११. अहागुरु (क) ।
ववहारं
होति
ववहारं
होति
ववहारं
11
२१. परिणि० (जीभा २०९ ) ।
२२. जीभा २०८ ।
1
I
ववहरित ॥
अपतिट्ठितो । ववहरित्तए २२
11
१२. अहाति (ब, स), अधीति (स) ।
१३. ०णियवरा (क), रायणिय ० (स)
रातिणियतरया (जीभा २०४) ।
१४.
डंड० (जी भा) ।
१५.
आयारे (क, ब, जीभा २०५) । १६. पतिट्ठितो एत्थं (जीभा २०६) ।
१७. अलगत्थो (क) ।
१८.
• साए तु (जीभा) अग्रेपि । १९. गुणेहिं (अ) ।
२०. जीभा २०७ ।
व्यवहार भाष्य
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________________
दशम उद्देशक
[ ३९१
४१२८. छत्तीसाए ठाणेहिं, जो होति सुपतिट्ठितो ।
अलमत्थो तारिसो होति, ववहारं ववहरित्तए' ॥ ४१२९. जा भणिया २ बत्तीसा, तीए छोढूण विणयपडिवत्ति ।
चउभेदं तो होही', छत्तीसाए य ठाणाणं ६ ॥ ४१३०. बत्तीसं वण्णिय च्चिय" वोच्छं चउभेदविणयपडिवत्ति ।
आयरियंतेवासि', जह विणयित्ता भवे णिरिणो ॥ ४१३१. आयारे ‘सुत विणए'१०, विक्खिवणे चेव होति बोधव्वे ।
दोसस्स य निग्घाते, विणए चउहेस पडिवत्ती११ ॥ ४१३२. आयारे विणओ खलु, चउव्विधो होति आणुपुव्वीए ।
संजमसामायारी, तवे य गणविहरणा'२ चेव'३ ॥ ४१३३. एगल्लविहारे१४ या, सामायारी उ१५ एस चउभेया ६ ।
एयासि तु विभागं, वुच्छामि अधाणुपुव्वीए ॥ ४१३४. संजममायरति सयं, परं व गाहेति१७ संजमं८ नियमा ।
सीदंत थिरीकरणं, उज्जयचरणं१९ च उववूहे२० ॥ ४१३५. सो सत्तरसो पुढवादियाण२१ घट्ट 'परिताव उद्दवणं'२२ ।
परिहरियव्वं नियमा२३, संजमगो२४ एस बोधव्वो ॥दारं ।। ४१३६. पक्खियपोसहिएसुं२५, कारयति२६ तवं सयं 'करोती य'२७ ।
भिक्खायरियाय तधा, निमुंजति२८ परं सयं वावि ॥ ४१३७. सव्वम्मि बारसविहे, निउंजति परं सयं च उज्जुत्तो२९ ।
गणसामायारीए, गणं विसीयंत चोदेति ॥दारं ॥
जीभा. २१०। २. होती (जीभा)। ३. तम्मी (अ, क, जीभा), तम्मि (स) । ४. ० वत्ती (जीभा)। ५. होहि (ब), होती (जीभा २११)।
ठाणेहिं (क)। ७. ब्बिय (अ)। ८. ० वासी (जीभा २१२) । ९. यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है। १० सुतब्दि ० (स), सुत्त वि० (ब)। ११. जीभा २१३। १२. ० हणे (स)। १३. यह गाथा अ प्रति में नहीं है, जीभा २१४ । १४. एगल्लं वि० (क)। १५. य (जीभा)।
१६. चउहा तु (जीभा २१५)। १७. गाहिति (क)। १८. संजय (ब)। १९. उज्जुत० (जीभा २१६)। २०. ० वूढे (स)। २१. पुहवादि० (ब)। २२. ० तावणोद्द० (जीभा २१५ । २३. नियम (अ)। २४. ० मतो (ब, स)। २५. पक्खे य पोसहेसु (जीभा २१८), पक्खिए पो० (अ)। २६. करेति (क), कारेति (स, जीभा)। २७. करेति वि य (स, क, जीभा)। २८. ० जई (क)। २९. उज्जमति (जीभा २१९)। ३०. चोइति (क)।
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३९२ ]
व्यवहार भाष्य
४१३८. पडिलेहण पप्फोडण', बाल-गिलाणादि 'वेयवच्चे य'२ ।
सीदंतं गाहेती, सयं च उज्जुत्त एतेसुं ॥दारं ॥ ४१३९. एगल्लविहारादी, पडिमा पडिवज्जती 'सयऽण्णं वा ।
पडिवज्जावे एवं, अप्पाण परं च विणएति ॥दारं ॥ ४१४०. सुत्तं अत्थं च तहा, “हित-निस्सेसं तधा पवाएति'५ ।
एसो चउव्विधो खलु, सुतविणयो होति नातव्वो ॥ ४१४१. सुत्तं ‘गाहेति उज्जुत्तो', अत्थं च सुणावए पयत्तेणं ।
जं जस्स होति जोग्गं, परिणामगमादिणं तु हिय ॥दारं ।। ४१४२. निस्सेसमपरिसेसं', जाव समत्तं तु ताव वाएति ।
एसो सुतविणओ खलु, वोच्छं विक्खेवणाविणयं० ॥ ४१४३. अद्दिटुं दिटुं खलु, दिटुं साहम्मियत्तविणएणं११ ।
'चुतधम्म ठावें धम्मे२, तस्सेव हितट्ठमब्भुट्टे१३ ॥ ४१४४. विण्णाणाभावम्मी'४, खिव पेरण विक्खिवित्तु परसमया ।
ससमयंतेणऽभिछुभे, अदिट्ठधम्मं तु 'दिटुं' वा ६ ॥ ४१४५. धम्मसभावो सम्मइंसणयं१७ जेण पुव्वि न तु लद्धं ।
सो होतऽदिट्ठपुल्यो, 'तं गाहिति पुवदिट्ठम्मि १८ ॥ ४१४६. जह भायरं व पियरं, मिच्छादिढेि पि गाहि१९ सम्मत्तं ।
दिट्ठप्पुव्वो सावग२९, साधम्मि करेति, पव्वावे ॥ ४१४७. चुयधम्म-भट्ठधम्मो२१, चरित्तधम्माउ दंसणातो वा ।
तं ठावेति तहिं चिय, पुणो वि धम्मे. जहुद्दिढे ॥
१. पक्खोडण (स, जीभा)। २. वेच्चेसु (जीभा), वेज्जव० (अ, स) । ३. जुत्तो तु (जीभा २२०)। ४. सतं वऽण्णं (जीभा २२१), ० ण्णं च (स) ।
हितकर निस्सेयसं च वाएइ (जीभा २२३) । ६. गाहिति जुत्तो (ब, जीभा), गाथा के प्रथम चरण में अनुष्टुप् छद है। ७. ० माहियं (स), ० मादितं (ब, जीभा २२४) । ८. सगपरि० (स)।
जावं (क)। १०. जीभा २२५ । ११. साधम्मियत्ति वि. ०(अ)।
१२. चुयधम्म मे ठावए (अ), ० धम्म धम्म ठावए (स)। १३. जीभा २२६ । १४. ० भावम्मि (अ)। . १५. ससमएणमभि ० (ब)। १६. दिटुंता (क, ब), जीभा २२७ । १७. धम्मो दंसणयं (अ), सम्मदंसण ज (जीभा २२८) । १८. तं गाहिति अपुव्वदिट्ठमिव (स), तं गाहे
पुवदिट्ठमिव (जीभा २२९) । १९. गाहे (क)। २०. सावगो (अ)। २१. नट्ठधम्मो (जीभा २३०)।
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[३९३
दशम उद्देशक ४१४८. तस्स ती तस्सेव उ, चरित्तधम्मस्स 'वुड्डिहेतुं तु" ।
वारेयऽणेसणादी, न य गेहरे सयं हितट्ठाए ॥ ४१४९. जं इह- परलोगे या, हितं सुहं तं खमं मुणेयव्वं ।
निस्सेयस मोक्खाय' उ, अणुगामऽणुगच्छते जं तु ॥ ४१५०. दोसा कसायमादी, बंधो अधवावि अट्ठपगडीओ ।
निययं व णिच्छितं वा, घात विणासो य एगट्ठा ॥ ४१५१. कुद्धस्स कोधविणयण, दुट्ठस्स य दोसविणयणं जं त् ।
कंखिय कंखाछेदो', आयप्पणिधाणचउहेसो ॥दारं ॥ ४१५२. 'सीतघरं पिव"१ दाहं१२, वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं ।
कुद्धस्स३ तथा कोहं, पविणेती 'उवसमेति ती१४ ॥ ४१५३. दुट्ठो कसायविसएहि, ‘माण - मायासभाव दट्ठो वा'१५ ।
तस्स पविणेति दोसं, नासयते धंसते व त्ति ॥दारं ।। ४१५४. कंखा उ भत्तपाणे, परसमए अहव संखडीमादी६ ।
तस्स पविणेति कंख, संखडि अन्नावदेसेणं८ ॥दारं ।। ४१५५. जो एतेसु न वट्टति, कोधे दोसे तधेव कंखाए१९ ।
सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपणिधाणजुत्तो२० वा ॥ ४१५६. छत्तीसेताणि ठाणाणि, भणिताणऽणुपुव्वसो२१ ।
जो कुसलो य एतेहिं, ववहारी सो समक्खातो ॥
१. वड्ढिए तं (अ, ब)। २. गिण्हे (जीभा २३१)। ३. सुयं (क)। ४. छंद की दृष्टि से खेमं के स्थान पर खमं पाठ मिलता है।
मोक्खो (जीभा २३२)। इस गाथा के बाद जीभा (२३३) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है-विक्खेवणविणएसो, जहक्कम वण्णितो समासेणं।
एतो तु पवक्खामी, विणयं दोसाण णिग्घाते ।। ७. जीभा २३४। ८. रुट्ठस्स (जीभा)। ९. ०विणयं (अ, क)। १०. कंखछेदे (अ), कंखुच्छेए (जीभा २३५)। ११. ० घरम्मि व (क, जीभा)।
१२. डाहं (जीभा २३६)। १३. रुट्ठस्स (जीभा)। १४. ० मेती ती (अ)। १५. माणपयभावदुट्ठो व्व (जीमा २३७) । १६. कंख एमाई (जीभा २३८)। १७. दोसं (ब)। १८. अन्न व देसणं (जीभा) इस गाथा के बाद जीभा (२३९)
में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है - चरगाइमाइएसु तु, अहिंसमक्खो अस्थि जा कंखा।
तं हेउकारणेहिं विणयउ जह होइ णिक्कंखो। १९. कंखए (ब)। २०. ० णपरिणाय ० (जीभा २४०)। २१. ० ताणि अणु (जीभा २४१)।
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३९४ ]
१.
२.
३.
४.
४१५७.
४१५८.
४१५९.
४१६०.
४१६१.
४१६२.
४१६३.
४१६४.
४१६५.
४१६६.
अहि अट्ठारसहिं', दसहि य ठाणेहि जे अपारोक्खा । आलोयणदोसेहि, 'छहिं अपारोक्खविण्णाणा३ ॥ नि. ५३१ ॥
आलोयणागुणेहि', 'छहिं य"५ ठाणेहि जे अपारोक्खा । 'पंचहि य६ नियंठेहिं, पंचहि य चरितमंतेहिं ॥ नि. ५३२ ॥
० सहि य (अ, जीभा २४२) ।
X (31) 1
तहियं पारोक्ख० ( अ, ब) छहि य अपारो० (जी भा) ।
० णदोसेहिं (अ) ।
अट्ठायार' व मादी, वयछक्कादी हवंति अट्ठरसा 1
||
11
||
दसविधपायच्छित्ते, 'आलोयण दोसदसहि वा ११ छहि काहि वतेहि व, गुणेहि आलोयणाय दसहिं च / छट्ठाणावडितेहिं, छहि १२ चेव तु जे अपारोक्खा १३ संखादीया ठाणा, छहि ठाणेहि पडियाण ठाणाणं जे संजया सरागा, 'सेसा एक्कम्मि ठाणम्मि १४ यागमववहारी, रागदोसाणीहूया । आणाय जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरंति१५ 11 ' एवं भणिते भणती १६, ते वोच्छिन्ना ' व संपयं १७ इहई १८ तेसु य वोच्छिन्नेसुं१९, नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स देता २१ वि न दीसंती, न विय करेंता 'तु संपयं २२ केई २३ तित्थं च२४ नाण - दंसण, निज्जवगा चेव वोच्छिन्ना
पण्णत्ता
।
॥ नि. ५३४ ॥
चोद्दसपुव्वधराणं, वोच्छेदो केवलीण सिंची २५ आदेसो, पायच्छित्तं पि जं जत्तिएण सुज्झति, पावं तस्स तथ जिणचोद्दसपुव्वधरा, तव्विवरीता
५.
छहियं (ब)।
६.
पंचविह (अ) ।
७.
जीभा २४३ ।
८.
० यारा (ब)।
९.
X (ब) ।
१०. यऽट्ठरसं (जी भा) ।
११. ०
१२.
x ( ब, क ) ।
१३. ण पारोक्खा (क), तु. जीभा २४५, २५२ ।
·
यणमादिए चेव (जीभा २४४) ।
च्छे
वोच्छिन्नं
10
१७.
१८. इहाई (अ) इहयं (क)
१९. ० सुय (ब, क) । २०. जीभा २५५ ।
I
1
देंति पच्छित्तं जहिच्छाए २६ ॥
१४. एगे ट्ठाणे विगयरागा (जीभा २५३) । १५. जीभा २५४ ।
१६. इय भणिए चोएति (जीभा) ।
हु संपयं (जीभा), उवसंपयं ( अ, क ) ।
1
॥नि. ५३३ ॥
॥ दारं ॥
२४. उ (क) ।
२५. केसिंचि य (जीभा २५६) ।
२६. जीभा २५७ ।
व्यवहार भाष्य
२१. दता (अ) ।
२२. उवसंपयं (अ), य संपय (क) ।
२३.
केती ( अ, ब ) ।
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________________
दशम उद्देशक
करणिज्जं
1
11
करेंतगाण य अभावे
तित्थं
सम्मत्तनाणेहिं १४
४१६७. पारगमपारगं वा, जाणते' जस्स जं च दे तहारे पच्चक्खी, घुणक्खरसमो उ पारोक्खी " ४१६८. जा य ऊणाहिए दाणे, वुत्ता मग्गविराधणा न 'सुज्झति वि" देंतो उ, असुद्धो के च सोधए ॥ अत्थं पडुच्च सुत्तं, अणागतं तं तु किंचि आमुसति । अत्थो वि कोइ सुत्तं, अणागयं चेव आमुसति ॥ देता वि न दीसंती, मास - चउम्मासिया उ सोधी उ 1 'कुणमाणे य विसोधि १० न पासिमो 'संपई केई ११ ४१७१. सोहीए य अभावे देताण वट्टति संपति१२ काले १३, ४१७२. एवं तु चोइयम्मी, आयरिओ भणति न हु तुमे नायं पच्छित्तं कहियं तू, किं१५ धरती किं ४१७३. सव्वं पिय पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स तत्तो च्चिय" निज्जूढं, पकष्पकप्पो" य सपदपरूवण अणुसज्जणा य२० दस चोद्दसऽट्ठ अत्थं न दीसइ धणिएण विणा तित्थं च निज्जवए पण्णवगस्स उ सपदं, पच्छित्तं चोदगस्स तमणि तं संपयं पि विज्जति २३ जधा तथा मे निसामेहि २४ पासायस्स 'उ निम्मं २५, लिहाविहं २६ 'चित्तकारगेहि जहा २७ लीलविहूणं २८ नवर, आगारो चेव२९
व
वोच्छिन्नं १६
दुप्पसभे
1
होति सो
४१६९.
४१७०.
४१७४.
४१७५.
४१७६.
जाणिते (ब) ।
करणीयं (ब, क) ।
तहा य (ब, क)।
ऊ (क) ।
जीभा २५८ ।
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
य (अ, स) ।
९.
आमसति (स, जीभा २६४) ।
१०. कुणमाणा वि य सोहिं (जीभा २६०) ।
११. जो व सिं देज्जा (जीभा, ब, क ) ।
१२. संपद (स) ।
तूणा० ( अ, ब, क ) ।
सुज्झे तीइ (जीभा २५९) ।
१३. काल (अ, क) ।
१४. जीभा २६१ ।
१५. X (ब, क) ।
१६. जीभा. २६३ ।
१७. वि य (अ, क ) ।
१८. कप्पपकप्पो (ब, जी भा) ।
१९. जीभा २६५ ।
1
||
1
I
11
ततियवत्थुम्मि । ववहारो १९
॥
||
।
॥ दारं ॥नि. ५३५ ॥
।
11
11
२०. x (ब, क) ।
२१. दुप्पसहे (जीभा २६७) ।
२२. अत्थि (स, जीभा ) ।
२३. दिज्जति (अ) ।
२४. जीभा २६८ ।
२५. य नेम्मं (अस) ।
२६. न हावियं (अ, ब) णहावितु (स) ।
२७. चित्ताकरएण विणा ( अ, ब, स) ।
२८. लीणवि० (स) ।
२९. जीभा (२७१) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है --
पासादस्सयणे मणहारितं तेहि चित्तकारेहिं ।
[ ३९५
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३९६ ]
व्यवहार भाष्य
४१७७. भुंजति चक्की भोए, पासाए' सिप्पिरयणनिम्मविते ।
___ किंच' न कारेति तधा, पासाए पागयजणो वि ॥ ४१७८. जह रूवादिविसेसा, परिहीणा होति पागयजणस्स ।
ण य ते ण होंति गेहा, “एमेव इमं पि पासामो"५ ॥ ४१७९. एमेव य पारोक्खी , तयाणुरूवं तु सो विर्ष ववहरति ।
किं पुण ववहरियव्वं, पायच्छित्तं इमं दसहा ॥दारं ।।नि. ५३६ ॥ ४१८०. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे" ।
तव-छेद-मूल अणवठ्ठया य पारंचिए चेव ॥नि. ५३७ ॥ ४१८१. दस ता अणुसज्जंती, जा चोद्दसपुवि पढमसंघयणं ।
तेण परेणऽट्ठविधं, जा तित्थं ताव बोधव्वं ॥ ४१८२. दोसु तु वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविहं देंतया करता य ।
न वि केई१० दीसंती, 'वदमाणे भारिया चउरो'११ ॥ ४१८३. दोसु वि वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविधं देंतया करेंता य ।
पच्चक्खं दीसंते१२, जधा तधा मे निसामेहि ॥ ४१८४. 'पंचव नियंठा खलु१३, पुलाग-बक्सा कुसीलनिग्गंथा ।
तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्त जधक्कम वान्छ । ४१८५. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे ‘तहा विउस्सग्गे १४ ।
तत्तो ‘तवे य१५ छेदे, पच्छित्त पुलाग छप्पेते'६ ॥ ४१८६. बकुसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि ।
थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होति.७ ॥
m
पासाइ (अ)। २. किंचि (ब)।
कारिति (ब, क)। गाथा का उत्तरार्ध जीभा (२६९) में इस प्रकार हैतं दटुं रायीणं, अण्णेसिच्छा समुप्पण्णा ।।
भुंजति य तेसु ते भोगे (जीभा २७२) । ६. व्व (स, जीभा २७३)।
वियोस० (जीभा २७४)। ८. इस गाथा का उत्तरार्ध जीभा (२७६) में इस प्रकार है
तेणाऽऽरेण ऽट्ठविहं तित्थंतिम जाव दुष्पसहो । ९. ०ण्णेसू (जीभा)।
१०. कोती (क, स)। ११. एव भणंतस्स चतुगुरुगा (जीभा २७९) । १२. दीसंती (जीभा २८०)। १३. पंचणियंठा भणिया (जीभा २८१) । १४. तहेव उस्सग्गे (स)। १५. य तवे (जीभा २८२) । १६. ब प्रति तथा मुद्रित टीका में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
एते छ पच्छित्ता, पुलाग नियंठस्स बोधव्वा । स प्रति में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
छप्पेते पच्छित्ता, पुलागनियंठस्स बोधव्वा । -- १७. जीभा २८३ ।
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दशम उद्देशक
१.
२.
||
आलोयणा' विवेगो य', 'नियंठस्स दुवे भवे'३ 1 विवेगो य सिणातस्स, मे पडिवत्तिओ 11 ४१८८. पंचेव संजता खलु, नातसुतेणं कधिय जिणवरेणं । 'तेसिं पायच्छित्तं, अहक्कमं कित्तइस्सामि ७ ४१८९. सामाइसंजताणं', पच्छित्ता' छेदमूलरहितऽ । थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं छव्विधं होति ॥ ४१९०. छेदोवट्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे थेराण जिणाणं पुण, 'मूलंतं अट्ठहा ४१९१. परिहारविसुद्धीए, मूलंता अट्ठ होंति थेराण जिणाणं पुण, 'छव्विध छेदादिवज्जं ४१९२. आलोयणा विवेगे य, तइयं तु 'न विज्जती १३ 'सुहुमे य१४ संपराए अधक्खाए तधेव य ४१९३. बउसपडिसेवगा खलु, इत्तरि १५ छेदा य संजता दोन्नि । जा तित्थऽणुसज्जती, १६. अस्थि हु तेणं तु पच्छितं ॥ ४१९४. जदि अत्थि न दीसंती १७, केइ 'करेंतत्थ धणियदितो" । संतमसंते विहिणा, मोयंता दो वि च्वं ॥ ४१९५. संतविभवो तु जाधे १९, मग्गति ताहे य देति तं सव्वं 1 जो पुण असंतविभवो, तत्थ विसेसो इमो होति ॥ ४१९६. निरवेक्खो तिण्णि चयति, अप्पाण २१' धणागमं च २२ धारणगं । सावेक्खो पुण रक्खति, अप्पाण धणं च धारणगं२३ 11
1
11
४१८७.
० यण (ब) ।
यं (क) वा (जीभा)।
x (क) 1
एमेवा (अ)।
३.
४.
4.
६.
७.
८.
९.
१०. वी (अ) ।
११. x (ब, क), जीभा २८७ ।
१२. छव्विहमेतं चिय तवंतं (जीभा २८८) ।
१३. विवज्जइ (अ, क) ।
पडिवत्तीओ (ब, जीभा २८४) ।
कहिता (जी भा) ।
सामाइयसंजयादी, पच्छित्तं तेसि वुच्छामि (जीभा २८५) ।
सामाइयसंजताण (जीभा २८६) ।
पायच्छित्ता (ब, क) ।
वि" 1
11
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
होति ११
१४. सुहुमम्मि (जीभा २८९) । १५. इत्तिरि (ब)
पच्छित्ता वा १२
१६. तित्थं अणुस० (जीभा २९०) ।
१७. दीसती (क) ।
१८.
1
11
[ ३९७
करेंता उ भण्णती सुणसु (जीभा २९१) इस गाथा के बाद जीभा (२९२) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैजह धणियो सावेक्खो, णिरवेक्खो चेव होइ दुविहो तु । धारणग संतविभवो, असंतविभवो य सो दुविहो ||
ताधि (स), जाधेव (जीभा २९३) ।
चयती (जीभा) ।
अप्पाणं (स), अत्ताण (जीभा)।
धणं च तह य (जीभा २९४) ।
धारणिगं (अ, स) ।
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३९८ ]
व्यवहार भाष्य
४१९७. जो तु असंते विभवे, ‘पाए घेत्तूण पडति पाडेणं" ।
सो अप्पाण धणं पि य, धारणगंरे चेव नासेति ॥ ४१९८. जो पुण सहती कालं, सो अत्थं लभति रक्खती तं च ।
न किलिस्सति य सयं पी, एव उवाओ उ सव्वत्थ ॥ ४१९९. जो उ धारेज्ज वद्धतं', असंतविभवो सयं ।
कुणमाणो य कम्मं तु, निवेसे करिसावणं ॥ ४२००. अणमप्पेण कालेण, सो तगं तु विमोयए ।
दिट्ठतेसो भणितो, अत्थोवणओ इमो तस्स ॥ ४२०१. संतविभवेहि तुल्ला, धितिसंघयणेहि जे उ संपन्ना ।
ते आवन्ना सव्वं, वहति निरणुग्गहं धीरा० ॥ ४२०२. संघयण-धितीहीणा, असंतविभवेहि होति तुल्ला तु ।
निरवेक्खो १ जदि तेसिं, देति ततो ते विणस्संति ॥ ४२०३. ते तेण परिच्चत्ता, लिंगविवेगं तु काउ वच्चंति ।
तित्थुच्छेदो'२ अप्पा, ‘एगाणिय तेण चत्तो य१३ ॥ ४२०४. सावेक्खो पवयणम्मि२४, अणवत्थपसंगवारणाकुसलो५ ।
चारित्तरक्खणटुं६, अव्वोच्छित्तीय ‘तु विसुज्झो१७ ॥ ४२०५. कल्लाणगंमावन्ने, अतरंत जहक्कमेण काउं जो ।
दस कारेंति चउत्थे, तब्बिगुणायंबिलतवे व १८ ॥ ४२०६. एक्कासणपुरिमड्डा, निविगती चेव 'बिगुणबिगुणा य१९ ।
पत्तेयाऽसहु दाउं, कारेंति२० व सन्निगासं२२ तु२२ ॥
*
१. दब्भ घेत्तूण पडइ पाडेण (जीभा २९५) २. धारिणगं (अ), धारणं (ब) ३. लभते (ब), लभती (स)। ४. किस्सती (ब)।
जीभा २९६ ।
धरेज्ज अवर्ल्ड (जीभा), धारिज्ज वट्टतं (अ.स)। ७. उ(ब)।
निविसे (स, जीभा २९७), निव्वेसे (ब)। जीभा २९८, गाथा के पूर्वार्द्ध में अनुष्टुप् तथा उत्तरार्ध में
आर्या छंद है। १०. जीभा २९९ । ११. ते ण सुझंति (जीभा ३००)। १२. तित्थच्छेदो (अ)।
१३. एवं अप्पा वि य चत्ता इणमो उ (जीभा ३०१) ।
इस गाथा के बाद जीभा (३०२) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैते उद्वेत्तु पलाणा, पच्छा एक्काणियो तयो होति ।
ताहे किं तु करेतू, एवं अप्पा परिच्चत्तो ।। १४. ०णम्मी (ब, जीभा ३०३)। १५. ० गधारणा ० (क) 0 गकारणा० (स)। १६. ० णत्थं (ब)। १७. उ अविसुज्झे (ब, क) । १८. वा (स), जीभा ३०४ । १९. गुणाओ (जीभा)। २०. करेंति (अ), कारिति (ब, क)। २१. सन्निकालं (स)। २२. ति (जीभा ३०५)।
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दशम उद्देशक
[ ३९९
४२०७. चउ-तिग-दुगकल्लाणं', एगं कल्लाणगं च कारेती२ ।
जं जो उ तरति तं तस्स, देंत असहुस्स भासेंती' ॥ ४२०८. एवं सदयं दिज्जति, जेणं सो संजमे थिरो होति ।
न य सव्वहा न दिज्जति, अणवत्थपसंगदोसाओ ॥ ४२०९. दिट्ठतो तेणएण, पसंगदोसेण जध वहं पत्तो ।
पावंति अणंताई, मरणाइ अवारियपसंगा ॥ ४२१०. निब्भच्छणाति बितियाय, वारितो' जीवियाण आभागी ।
नेव य थणछेदादी, पत्ता जणणी य अवराहं११ ॥ ४२११. इय अणिवारितदोसा२, संसारे दुक्खसागरमुवेंती ।
विणियत्तपसंगा खलु३, करेंति संसारवोच्छेदं१४ ॥ ४२१२. एवं धरती५ सोही, देंत करेंता वि एव दीसंति ।
जं पि य दंसणनाणेहि, जाति'६ तित्थं ति तं सुणसु ॥दारं ।। ४२१३. एवं तु भणंतेणं, सेणियमादी वि थाविया ८ समणा ।
समणस्स ‘य जुत्तस्स य९, नत्थी नरएसु उववाओ ॥ ४२१४. जंपि य हु एक्कवीसं, वाससहस्साणि होहिती२० तित्थं ।
ते२१ मिच्छासिद्धी वी२२, सव्वगतीसुं व२३ होज्जाहि२४ ॥ ४२१५. पायच्छिते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति२५ ।
चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया ॥
१. कल्लाणा (जीभा)। २. कारेंता (क), करेंति (अ), कारेंति (स, जीभा)। ३. त (ब)
देति (जीभा, क)। ५. झोसेंति (जीभा ३०६), सासेंति (स)।
जीभा ३०७। ७. जीभा (३०८) में यह गाथा इस प्रकार है
तिलहारगदिट्ठतो, पसंगदोसेण जह वहं पत्तो।
जणणी य थणच्छेयं, पत्ता अणिवारयंती तु ।। ८. निसच्छणाति (अ), णिब्भत्थणाइ (स, जीभा ३०९)। ९. वारिउं (ब, क)। १०. ० यादि (जीभा)। ११. अवसहणं (क)। १२. अणिकारिय०(ब, क)। १३. पुण (स)।
१४. जीभा ३१० । १५. धरता (ब, क)। १६. भाति (जीभा ३११)। १७. ते (जीभा)। १८. वाविया (स)। १९. य जुत्तस्सा (स), उ सुत्तम्मी (जीभा ३१२) । २०. होइती (जीभा), होसिती (स)। २१. तं(ब, स)। २२. वा (जीभा), विय (स)। २३. ति (क),तु (स), पि(जीभा ३१३) । २४. इस गाथा के बाद जीभा (३१४) में निम्न गाथा अतिरिक्त
मिलती है-- अण्णं च इमो दोसो, पच्छित्ताभावतो तु पावइ हु।
जह न वि चिट्ठति चरणं, तत्थ इमं गाहमाहेसु ।। २५. चिट्ठती (ब, जीभा ३१५)।
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४००
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व्यवहार भाष्य
४२१६. अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति ।
निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया ॥ ४२१७. न विणा तित्थं नियंठेहिं, नियंठा व अतित्थगा ।
छक्कायसंजमो जाव, तावऽणुसज्जणा दोण्हं'३ ॥ ४२१८. सव्वण्णूहि परूविय, छक्काय-महव्वया य समितीओ ।
सच्चेव य पण्णवणा, 'संपयकाले वि५ साधूणं ॥ ४२१९. तं णो वच्चति तित्थं, दंसण-नाणेहि एव सिद्धं तु ।
निज्जवगा वोच्छिन्ना, जं पि य भणियं तु तं न तधाः ॥ ४२२०. सुण जध निज्जवगऽत्थी', दीसंति जहा य निज्जविज्जताः ।
इह दुविधा निज्जवगा, अत्ताण परे य बोधव्वा० ॥नि. ५३८ ॥ ४२२१. पादोवगमे १ इंगिणि, दुविधा खलु होंति आयनिज्जवगा ।
निज्जवणा य१२ परेण व, भत्तपरिण्णाय बोधव्वा३ ॥नि. ५३९ ॥ ४२२२. पादोवगमे इंगिणि, दोन्नि वि चिटुंतु ताव४ मरणाइं ।
भत्तपरिण्णाय विधिं, वुच्छामि अहाणुपुवीए'५ ॥ ४२२३. पव्वज्जादी काउं, नेयव्वं 'ताव जाव"६ऽवोच्छित्ती ।
पंच तुलेऊणऽप्पा. भत्तपरिणं परिणतो उ१८ ॥ ४२२४. सपरक्कमे य 'अपरक्कमे य१९ वाघाय आणुपुव्वीए२० ।
सुत्तत्थजाणएणं, समाहिमरणं . तु कायव्वं ॥ ४२२५. भिक्ख-वियारसमत्थो, जो अन्नगणं च गंतु वाएति२१ ।
एस सपरक्कमो खलु, तब्दिवरीतो भवे इतरो ॥
१. तित्थे (जीभा ३१६)। २. नियंतेहिं (अ, ब)। ३. ताव दुण्हाऽणु सज्जणा (जीभा ३१७)।
सच्चिय (अ, क)। संपयकालम्मि (जीभा ३२८)। जीभा. ३१९ ।
० गत्थीहि (ब), ० गच्छी (अ)। ८. दीसंत (ब)। ९. निज्जवज्जंता (ब)। १०. जीभा ३२०। ११. पाउव० (अ)।
१२. उ(क)। १३. जीभा ३२१ । १४. भाव (ब)। १५. जीभा ३२२ । १६. जाव ताव (क, स)। १७. तुलेतूण य सो (जीभा)। १८. य (जीभा ३२३), निभा ३८१२ १९. x (ब, क) २०. आणुव्वतीए (क), ० पुव्वी य (जीभा ३२४) । २१. चाएति (जीभा ३२५) ।
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दशम उद्देशक
[ ४०१
४२२६. एक्केक्कं तं दुविधं, निव्वाघातं तधेव वाघातं ।
वाघातो वि य दुविहो, 'कालऽतियारो य इतरो वा'२ ॥ ४२२७. तं पुण अणुगंतव्वं, 'दारेहि इमेहि'३ आणुपुव्वीए ।
गणनिसरणादिएहिं, तेसि विभागं तु वुच्छामि ॥नि. ५४० ।। ४२२८. गणनिसरणे परगणे, सितिर्फ संलेहो अगीतऽसंविगे ।
एगाभोगण अने, अणपुच्छ-परिच्छ आलोए ॥नि. ५४१ ।। ४२२९. ठाण-वसधीपसत्थे, निज्जवगा दव्वदावणं चरिमे ।
हाणऽपरितंत निज्जर , संथारुव्वत्तणादीणि ॥नि. ५४२॥ ४२३०. सारेऊण य कवयं, निव्वाघातेण चिंधकरणं व ।
अंतोबहिवाघातो, भत्तपरिण्णाय कायव्यो ॥दारं ॥नि. ५४३ ।। ४२३१. गणनिसरणम्मि 'उ विधी ११, जो कप्पे वण्णितो उ सत्तविहो१२ ।
सो चेव निरवसेसो, भत्तपरिण्णाय दसमम्मि'३ ॥ ४२३२. किं कारणऽवक्कमणं१४. थेराण इहं१५ तवो किलंताणं ।
अब्भुज्जयम्मि'६ • मरणे, कालुणिया झाणवाघातो१७ ॥ ४२३३. सगणे आणाहाणी, अप्पत्तिय होति एवमादीयं८ ।
परगणे गुरुकुलवासो, अप्पत्तियवज्जितो होति ॥ ४२३४. उवगरणगणनिमित्तं, तु१९ वुग्गहं दिस्स वावि गणभेदं ।
बालादी थेराण२० व, उचियाकरणम्मि वाघातो२१ ॥ ४२३५. सिणेहो पेलवी होति, निग्गते उभयस्स वि२२ ।
आहच्च वावि वाघाते, णो सेहादि विउब्भमो२३ ॥
कालइयरो ब्व इतरो या (ब, क), कालाइधरो व्व इयरो ब्व (जीभा ३२६), इस गाथा के बाद जीभा (३२७) में एक गाथा अतिरिक्त मिलती हैसपरक्कम तु तहियं, णिव्वाघायं तहेव वाघातं । वोच्छामि समासेणं, ठप्पं अपरक्कम दुविहं ।।
इमेहि दारेहि (अ)। ४. जीभा ३२८ ।
०रणा (अ)
सति (आ, गणसिति (क)। ७. सलेहा (जीभा ३२९)। ८. ० दायणं (ब), ० दायणा (जीभा ३३०)। ९. . णादिणो (क, स)। १०. वाघाए जयणा या (जीभा ३३१)। ११. तू विधी (अ), उवही (निभा ३८१९) ।
१२. समासेणं (अ)। १३. इहई पि (जीभा ३३२), जीभा (३३३) में इस गाथा के बाद
निम्न अतिरिक्त गाथा मिलती हैणिसिरित्तु गणं वीरो, गंतूण य परगणं तु सो ताहे।
कुणति दढव्ववसाओ, भत्तपरिणं परिणयो य ।। १४. ० चक्कमणं (अ, क), ० चंकमण (निभा) । १५. तह (निभा ३८२०)। १६. अप्पज्झयम्मि (निभा)। १७. जीभा ३३४ । १८. ० मादीहिं (जीभा ३३५)।
२०. मेराण (ब, स, क)। २१. जीभा ३३६ । २२. 3(अ,ब)। २३. निभा ३८२१, जीभा ३३७ ।
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४०२ ]
१.
२.
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७.
11
४२३६. दव्वसिती भावसिती अणुयोगधराण जेसिमुवलद्धा । न हु उड्डूगमणकज्जे, हेल्लपदं पसंसंति ॥ ४२३७. संजमठाणाणं ३ कंडगाण लेसाठितीविसेसाणं 1 उवरिल्लपरक्कमण, भावसिती केवलं जाव' ॥ दारं ॥ ४२३८. उक्कोसा य जहन्ना, दुविहा संलेहणा समासेण । 'छम्मासा उ जहन्ना, उक्कोसा बारससमा उ ४२३९. 'चिट्ठतु जहण्ण मज्झा" उक्कोसं 'तत्थ ताव" वोच्छामि जं संलिहिऊण मुणी, साहेंती" अत्तणो" अत्थं १२ विचित्ताई, विगतीनिज्जूहिताणि ३ ४२४०. चत्तारि एगंतरमायामे, णार्ति विगिट्ठे विगिट्ठे संवच्छराणि चउरो, होति विचितं काऊण सव्वगुणितं, पारेती ४२४२. पुणरवि चउरणे" तू विचित्त काऊण पारेति सो महप्पा, णिद्धं पणियं च वज्जेती २० ४२४३. अण्णां दोन्नि
चठत्वमादीयं १७
1
उगमविसुद्ध १८ ॥
विगतिवज्जं तु
समाओ, चउत्थ काऊण पारि आयामं कंजीएणं तु तु ततो अण्णेक्कसमं 'इमं कुणति २९ तत्थेक्कं छम्मासं, चउत्थ छटुं व२२ काउ आयंबिलेण नियमा, बितिए छम्मासिय
४२४१.
४२४४ तत्थेक्कं
४२४५.
जेसि उव ० (स)।
निभा ३८२२, तु जीभा ३३८, ३४० ।
० ठाणेणं (ब)।
० परिक्कमणं (निभा ३८२३), ० पयक्क० (म) ।
जीभा ३३९ ।
अट्ठम दसम दुवालस, अन्नेक्कहायणं
तू,
८.
९.
ताव तत्थ (क) ।
१०. साहिई (ब), साहंती (जीभा) ।
११. अप्पणो (ब, स, जीभा ३४२ ) ।
१२. अट्ठ (स) ।
१३. ० याइं (ब, ख) ।
१४. णीति ० (अ)।
छम्मास जहण्णा ऊ (स) ।
जीभा (३४१) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
संलेहणा उ तिविहा, जहण्ण मज्झा तहेव उक्कोसा ।
छम्मासा वरिसं वा, बारसवरिसा जहाकमसा ॥
चिट्ठउ ताव जहण्णा ( अ, स) ।
,
'काऊणायंबिलेण कोडीसहियं
चत्तारि
य१५
पारेति २४
काऊण२५
०
० ग्गे (अ) ।
मतिसुद्ध (ब)।
जीभा ३४५ ।
दुहा काउं (जीभा ३४६ ) ।
11
२२. तु (ब) ।
२३. आयामेणं (जीभा ३४७) ।
I
11
1
11
पारेति ।
विगिट्ठ ॥
I
I
11
तु
१५. गाथा का उत्तरार्ध जीभा (३४३) में इस प्रकार हैदोसु चउत्थाऽऽयामं, अविगिट्ठ विगिट्ट कोडेक्कं ॥
१६. होंति (ब), तवं (जीभा ३४४) ।
१७.
० मातीयं (ब)।
१८.
१९.
२०.
२१.
1
॥
व्यवहार भाष्य
"
२४. काउं पारे तमेव आयामं (जीभा ३४८) ।
२५. इस गाथा के बाद जीभा (३४९) में निम्न गाथा अधिक मिलती 表
आयाम चउत्थादी, काऊण अपारिए पुणो अण्णं ।
कुणाss यामादी, तं भण्णति कोडिसहितं तु ॥
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
i.
आयंबिल उसिणोदेण', 'पा हावेंत आणुपुव्वीए । जह 'दीवे तेल्लवत्ति ३, खओ सम तह सरीरायुं ॥ ४२४७. पच्छिल्लहायणे ४ तू, चउरो धारेंतु तेल्लगंडू 'निसिरे खेल्लमल्लम्मि ५, किं कारण गल्लधरणं तु
।
धारेति
हविज्जाहि "
४२४६.
तेण हु खुभेज्ज ४२४८. लुक्खत्ता मुहजंतं, मा मा हु नमोक्कारस्सा, अपच्चलो सो ४२४९. उक्कोसिगा उ एसा, संलेहा मज्झिमा संवच्छर छम्मासा, मेव ४२५०. एत्तो एगतरेणं, संलेहणं तु कुज्जा भत्तपरिण्णं, इंगिणि ४२५१. अग्गीतसगासम्मी, भत्तपरिण्णं
तु जो करेज्जाही
चउगुरुगा तस्स भवे, किं कारण जेणिमे दोसा ११ अगीयत्थो १२, चउरंगं ४२५२. 'नासेति नट्ठम्मिय चउरंगे, न हु सुलभं किं पुण तं चउरंगं, जं नवं दुल्लभं माणुस्सं धम्मसुती, सद्धा तव १५
४२५४. किह नासेति अगीतो६, पढमबितियएहि अद्दितो सो उ ओभासे कालियाएँ", तो९९ निद्धम्मो त्ति छड्डेज्जा ॥ ४२५५. अंतो वा बाहिं वा, दिवा २१ य रातो य सो विवित्तो अट्ट दुहट्टवसट्टो, पडिगमणादीणि
४२५३.
उसुणो ० (स) ।
परिहावेंतो (ब, क) ।
दीव- तेल्लवत्ती (जीभा ३५०), इस गाथा के बाद जीभा (३५१) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है
बारसमम्मि य वरिसे, जे मासा उवरिमा उ चत्तारि ।
पारणए तेसि तू एक्कंतरतं इमं धारे ॥ पडिलेहणहा ० (स) ।
निसिरेज्जा खेल्लमल्ले (क) 1
जीभा (३५२) में यह गाथा इस प्रकार है
तेल्लस्स उ गंडूस, णीस जाव खेलसंवुत्तो ।
तो णिसिरे खेलमत्ते, किं कारण ! गल्लधरणं तु ॥
हु होज्जाहि (जीभा ३५३) ।
जीभा ३५४ ।
जहन्ना य
य मासपक्खेहिं
खवेत्तु अप्पाणं
0
पाओवगमणं १० वा
९.
होति
पुणो
संजमे
||
खवेंतु (अ) ।
पातोव० (ब), जीभा ३५५ १
१०.
११.
जीभा ३५६ ।
१२.
नासेती अगीतो (स) ।
१३. निभा ३८२६, जीभा ३५७ ।
१४. होही (ब, क) होती (स) ।
१५. तह (जीभा ३५८) ।
१६. अगीयत्थो (अ, स) । १७. ० बितियाहि (क) ।
१८. कालिमाए (जीभा ३५९ ) ।
१९. ति (अ), ते (ब, स) ।
|
सव्वलोगसारंग
चउरंगं १३
11
होति १४ ? I विरिय
11
1
11
1
॥ दारं ॥
t
11
1
11
उ 1
जहि ॥
1
२०.
या (स) ।
२१. दिया (जीभा ३६०), दिय (अ) ।
[ ४०३
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४०४ ]
व्यवहार भाष्य
४२५६. 'मरिऊण अट्टझाणो", ‘गच्छे तिरिएसु वणयरेसुं वा'२ ।
संभरिऊण य रुट्ठो, पडिणीयत्तं करेज्जाहि ॥ ४२५७. अधवावि सव्वरीए, मोयं दिज्जाहि जायमाणस्स ।
सो दंडियादि' होज्जा, रुट्ठो साहे निवादीणं ॥ ४२५८. कुज्जा कुलादिपत्थारं, सो वा रुट्ठो तु गच्छे६ मिच्छत्तं ।
तप्पच्चयं च दीहं, भमेज्ज संसारकंतारं ॥ ४२५९. 'सो उ विविंचिय दिट्ठो", संविग्गेहिं तु अन्नसाधूहिं ।
आसासियमणुसिट्ठो° मरण जढ पुणो वि पडिवन्नं ॥ ४२६०. एते अन्ने य तहिं, "बहवे दोसा य पच्चवाया य११ ।
एतेहि कारणेहिं, अगीते१२ न कप्पति१३ परिण्णा ॥ ४२६१. पंच व छस्सत्तसते, अधवा एत्तो वि सातिरेगतरे१४ ।
गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो५ ॥ ४२६२. एक्कं ६ व दो व तिन्नि व, उक्कोसं बारसेव वासाणि१७ ।
गीतत्थपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो१८ ॥ ४२६३. गीतत्थदुल्लभं खलु ‘कालं तु पडुच्च१९ मग्गणा एसा ।
ते खलु गवेसाणा, खेत्ते काले य परिमाणं२० ॥ ४२६४. तम्हा२१ . गीतत्थेणं, पवयणगहियत्थसव्वसारेणं ।
निज्जवगेण२२ समाधी, कायव्वा उत्तिमट्ठम्मि२३. ॥दारं ॥ ४२६५. 'असंविग्गसमीवे वि'२४, पडिवज्जतस्स होति ‘गुरुगा उ२५ ।
किं कारणं तु जहियं२६, जम्हा दोसा ‘हवंति इमे'२७ ॥
मरितूण वट्टझाणो (ब)। २. गच्छेज्ज व तिरिय वण (जीभा ३६१)। ३. वेर (जीभा)।
यह गाथा स प्रति में अनुपलब्ध है। ५. डंडि० (जीभा ३६२)। ६. गच्छम्मि (अ)। ७. तप्पट्ठयं (ब)। ८. व (ब), तु (जीभा ३६३) । ९. सो दिट्ठो य विगिंचितो (जीभा)। १०. ० मणुसट्टो (अ, ब, जीभा ३६४) । ११. बहू तहियं दोसा सपच्चवाया य (जीभा ३६५) । १२. अगीयत्थे (अ, निभा ३८२९) । १३. कप्पती (अ.स)। १४. जीभा (३६६) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
तम्हा पंच व छस्सत्तवावि जोयणसते समहिए वा ।
१५. निभा. ३८३० । १६. एम (अ.स)। १७. बरिसाति (निभा ३८३१), वासाइं (अ), वासाति (स)। १८. जीभा ३६७। १९. पडुच्च कालं तु (ब, स, जीभा ३६८)। २०. निभा. ३८३२। २१. तेण य (जीभा ३६९)। २२. ० वतेण (निभा ३८३३) । २३. उत्तम० (अ, क)। २४. एवमसंविग्गे वी (जीभा ३७०) । २५. चउगुरुगा (जीभा)। २६. तहिय (ब)। २७. भवत् मे (ब)।
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दशम उद्देशक
१.
४२६६. नासेति
असंविग्गो,
चउरंग सव्वलोयसारंग नट्टम्मि हरे चउरंगे, न हु सुलभं होति चउरंगं* ४२६७. आहाकम्मिय पाणग', पुप्फा सेया य बहुजणे णातं सेज्जा-संथारो वि य, उवधी वि य होति अविसुद्धो ॥ ४२६८. एते अन्ने य तहि बहवे दोसा य पच्चवाया य I 'एतेण कारणेणं असंविग्गे न कप्पति परिणा
11
४२६९. 'पंच व १० छस्सत्तसया, अहवा एत्तो वि सातिरेगतरे" I संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो१२
एसा 1
11
॥ दारं ||
४२७०. एक्कं व दो व तिष्णि व उक्कोसं बारसेव वासाणि१३ संविग्गपादमूलं, परिमग्गेज्जा अपरितंतो१४ ४२७१. संविग्गदुल्लभं खलु, कालं तु पडुच्च मग्गणा ते खलु गवेसमाणा, खेत्ते काले य परिमाणं १५ ४२७२. तम्हा १६ संविग्गेणं, पवयणगहितत्थसव्वसारेणं । निज्जवगेण समाही, कायव्वा उत्तमम्मि १७ ४२७३. एक्कम्मि उ निज्जवगे १८, विराहणा होति कज्जहाणी य सो सेहा वि य चत्ता पावयणं चेव उड्डाहो९ ॥ ४२७४. तस्सट्ठगतोभासण, सेहादि अदाण सो परिच्चत्तो 1 दातुं व अदाउं वा भवंति सेहा वि२१ निद्धम्मा ४२७५. कयति २२ अदिज्जमाणे, मारेति बल ति पवयणं चतं सेहा य जे पडिंगया, 'जणे अवण्णं पगासेति २६
1
11
सयललोय० (ब)।
य (जीभा ३७१) ।
निभा ३८३४ ।
आहारम्मि य (अ), आहागम्मिय (क) ।
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
जीभा ३७३ ।
१०. पंचेव (मु, ब) ।
११. गाथा का पूर्वार्द्ध जीभा (३७४) में इस प्रकार है
तम्हा पंच व छ स्सत्त, वावि जोयणसते समहिए वा ।
पाण (अ)।
सीया (अ, स, जीभा ३७२), सिंगा (निभा ३८३५) ।
सुवि० (स) ।
एतेहि य अण्णेहिं य (निभा ३८३६) ।
१२. निभा ३८३७ ।
१३. वासाई (स, जीभा ३७५), वरिसाई (निभा ३८३८) ।
१४.
यह गाथा स प्रति में नहीं है।
1
||
ن
२४.
२५.
२६.
11
1
१५. जीभा. ३७६, निभा ३८३९ ।
१६. तेण य (जीभा ३७७) । १७. उत्तिम ० (क, निभा ३८४०) । १८. निव्ववए (क) निज्जविए (अ)।
१९. जीभा ३७८,
।
॥ दारं ॥
२०.
ता (ब)।
२१. वि (जीभा ३७९, निभा ३८४२) ति (अ) । २२. रुयति (स) ।
२३.
मारेति (जीभा ३८०) ।
निभा (३८४१) में इसके स्थान पर निम्न गाथा मिलती है
एते उ कज्जहाणी, सो वा सेहा य पवयणं चत्तं ।
तच्चण्णिए णिमित्ते चत्तो चत्तो य उड्डाहो ।
चत्ता (क) ।
जं (बस) ।
जेण य अण्णं पदाण त्ति (स),
जणो अवण्णं पदाणे वि (निभा ३८४३) ।
[ ४०५
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४०६ ]
व्यवहार भाष्य
४२७६. 'परतो सयं व णच्चा', 'पारगमिच्छंतिऽपारगे गुरुगा'२ ।
असती खेमसुभिक्खे, निव्वाघातेण पडिवत्ती ॥ ४२७७. सयं चेव चिरं वासो, वासावासे तवस्सिणं ।
तेण तस्स विसेसेण, वासासु पडिवज्जणा ॥ ४२७८. कंचणपुर गुरुसण्णा, देवयरुवणा य पुच्छ कधणा य ।
पारणगखीररुधिर, आमंतण संघनासणया ॥ ४२७९. असिवादीहि वहंता, तं उवगरण च संजता चत्ता ।
उवधिं विणा य छड्डण, चत्तो सो पवयणं चेव ॥दारं ।। ४२८०. एगो संथारगतो, 'बितिओ संलेह ततिय पडिसेधो१० ।
अपहुव्वंतऽसमाही१, तस्स व२ तेसिं च असतीए ३ ॥ ४२८१. भवेज्ज जदि वाघातो, बितियं१४ तत्थ ठावते५ ।
'चिलिमिणि अंतरे'१६ चेव, बहिं वंदावए जणं१८ ॥दारं ॥ ४२८२. अणपुच्छाए गच्छस्स१९, 'पडिच्छती व जती'२० गुरू गुरुगा ।
चत्तारि वि२१ विण्णेया२२, गच्छमणिच्छंत जं पावे ॥ ४२८३. पाणगादीणि२३ जोग्गाणि, जाणि२४ तस्स समाहिते ।
अलंभे तस्स जा हाणी२५, परिक्केसो२६ य जायणे२७ ॥ ४२८४. असंथरं अजोग्गा वा, जोगवाही व ते२८ भवे ।
एसणाए२९ परिक्केसो, जा य तस्स विराधणा ॥दारं ॥
१. अहवावि सो व्व परतो (जीभा ३८३) । २. ० मिच्छत्त णिरगमिच्छंत (निभा ३८४४)। ३. ० स्सिण तेण (निभा ३८४५)। ४. जीभा ३८४ ।
इह सण्णा (निभा)। ६. दिव्वय ० (ब), दिवे य गुरुणा य (निभा ३८४६).रुयणा (अ, स)। ७. x (अ)।
जीभा ३८२ । जीभा ३८६, निभा (३८४७) में यह गाथा इस प्रकार हैअसिवादिकारणेहिं, वहमाणा संजता परिच्चत्ता ।
उवधिविणासो जे छत्ताण चत्तो सो पवयणं चेवा ।। १०. संलेहगते य ततियपडिसेहो (निभा)। ११. अण्णा अपुच्छ असमाही (निभा ३८४८)। १२. वा (निभा, ब)। १३. असमाही (जीभा ३८७), असती वा (स) । १४. बीय (क, ब)।
१५. पावए (ब)। १६. ०मिणी अंतरा (स) मिलिं अंतरे (जीभा ३८८)। १७. काउं (जीभा ३८८)। १८. निभा ३८४९ । १९. गणस्सा (जीभा ३८९)। २०. पडिच्छतं जति (ब, क)। २१. x (अ, स), तु (जीभा)। २२. वण्णेया (ब)। २३. पावमा० (अ, ब)। २४. जाति (निभा ३८५०)। २५. ठाणा (निभा)। २६. परिक्किसो (ब)। २७. जीभा ३९०1 २८. जइ (जीभा) २९. ०णादि (जीभा ३९१, निभा ३८५१)।
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दशम उद्देशक
[ ४०७
४२८५. अपरिच्छणम्मि गुरुगा', दोण्ह वि अण्णोण्णगं जधाकमसो ।
होति विराधण दुविधा, एक्को एक्को व जं पावे ॥ ४२८६. तम्हा 'परिच्छणं तू, दव्वे भावे य होति दोण्हं पि ।
संलेह पुच्छ दायण', दिट्ठतोऽमच्च कोंकणए ॥ ४२८७. 'कलमोदण-पयकढियादि, दब्वे आणेह मे त्ति इति उदिते ।
भावे कसाइज्जति', तेसि सगासे न पडिवज्जे० ॥ ४२८८. अह पुण विरूवरूवे, आणीत १ दुगुंछिते भणंतऽण्णं ।
'आणेमो ति१२ ववसिते, पडिवज्जति तेसि 'तो पासे'१३ ॥ ४२८९. कलमोदणो य पयसा, अन्नं च सभावअणुमतं तस्स४ ।
उवणीतं जो ‘कुच्छति, तं तु अलुद्धं पडिच्छंति'१५ ॥ ४२९०. अज्जो संलेहो ते, किं कतो न कतो त्ति एवमुदियम्मि१६ ।
भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो१७ ॥ ४२९१. न हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि८ ते किसं ।
कीस ते अंगुली भग्गा?, भावं संलिहमाउर !१९ ॥ ४२९२. रण्णा कोंकणगाऽमच्चा, दो वि निव्विसया कता ।
दोड्डिए२० कंजियं छोढुं, कोंकणो तक्खणा गतो ॥
१. गुरुगो (ब)। २. एक्को व (अ, ब)।
जीभा ३९२। परिच्छणा खलु (जीभा)। दाण (स)। जीभा (३९३) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैतहियं तु जो परिच्छति, दव्वपरिच्छाएँ ते इणमो । निभा (३८५२) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ इस प्रकार मिलती हैखीरोदणे य दवे, तच्च दुगुच्छण्णय तहिं वितरे।
परिच्छिया सुसंलेहदागमणेऽमच्च कोंकणते ।। ७. आणेसु (स)। ८. तो (जीभा)।
ज्जंती (स)। १०. इस गाथा के स्थान पर जीभा (३९४, ३९५) में निम्न
दो गाथाएं मिलती हैंमादणपयकढियादी, दव्वे आणेह मे त्ति तो उदिते । जदि उवहसंति ते तू, अहो इमो विगयगेहि त्ति ।। किह मोच्छिइ त्ति भत्तं, तेसेवं दव्वयो परिच्छा उ।
भावे कसाइज्जती, तेसि सगासे ण पडिवज्जे ॥ ११. आणाति (क)।
१२. आणेमोहित (ब)। १३. तो एसो (ब), सो पासे (जीभा ३९६), इस गाथा के बाद
जीभा (३९७) में निम्न अतिरिक्त गाथा मिलती हैएवं भासी ते तू, परिच्छए दव्व भावओ विहिणा।
ते वि य तं तु परिच्छे, दुविहपरिच्छाए इणमो तु ॥ १४. जस्स (अ, स, निभा ३८५४) १५. कुंछइ दव्यपरिच्छाए सो सुद्धो (जीभा ३९८) । १६. एव उदि ० (स)। १७. जीभा (३९९, ४००) में इसके स्थान पर निम्न दो गाथाएं
मिलती हैभावे पुण पुच्छिज्जइ, कि संलेहो कतो त्ति ण कयोत्ति । इति उदिते सो ताहे, हतूणं अंगुलिं दाए । पेच्छह ता मे एयं, किं कतो ण कतो त्ति एव उदितम्मि ।
भणति गुरू तो ण तओ, एवं चिय ते ण संलीढ ।। १८. पासाति (ब)
संलेहमाउरो (ब) ० मातुरं (स, निभा ३८५५), जीभा ४०१ । इस गाथा के बाद जीभा (४०२) में निम्न गाथा अधिक मिलती हैंभावो च्चिय एत्थं तू, संलिहियव्वो सदा पयत्तेणं ।
तेणाऽऽयट्ट साहे, दिलृतोऽमच्च कोंकणए । २०. दोद्धिए (निभा ३८५६, जीभा. ४०३)।
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४०८ ]
व्यवहार भाष्य
४२९३. भंडी' बइल्लए' काए , अमच्चो जा भरेति तु ।
ताव पुन्नं तु पंचाहं, नलिए निधणं गतो ॥ ४२९४. इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु ।
'न चेयं'६ ते पसंसामी, किसं साधुसरीरगं" ॥दारं ।। ४२९५. आयरियपादमूलं, गंतूणं सति परक्कमे ताधे ।
सव्वेण अत्तसोधी, 'कायव्वा एस उवदेसो ॥ ४२९६. जह सुकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कधेति अप्पणो' वाहि११ ।
वेज्जस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते१२ ॥ ४२९७. जाणतेण वि एवं, पायच्छित्तविहिमप्पणो'३ निउणं ।
तह वि य पागडतरयं, आलोएयव्ययं होति१४ ॥ ४२९८ छत्तीसगुणसमन्त्रागतेण, तेण वि अवस्स कायव्वा ।
__ परपक्खिगा५ विसोधी, सुटु वि ववहारकुसलेणं१६ ॥ ४२९९. जह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणति ।
तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ१७ ॥ ४३००. 'उप्पन्ना उप्पन्ना'१८, मायामणुमग्गतो९ निहंतव्वा ।
आलोयण-निंदण-'गरहणादि न पुणो य२० बितियं ति२१ ॥ ४३०१. आयारविणयगुणकप्पदीवणा अत्तसोहि२२ उजुभावो ।
अज्जव-मद्दव-लाघव-तुट्ठी-पल्हायजणणं२३ च२४ ॥
१. भंडी उ(), भंडाउ (ब)। २. बहिल्लए (क, ब)।
णोलिए (अ), लेणिए (ब)। जीभा ४०४, निभा (३८५७) में यह गाथा इस प्रकार हैभंडितो बहिले काए, अमच्चो जा भरेति त् । ताव पुण्णं तु पंचाहे, ते पुण्णे निहणं गतो ।। कुण (जीभा ४०६) । णो वयं (निभा ३८५८)। इस गाथा के बाद जीभा (४०७) में निम्न याथा अतिरिक्त मिलती हैएवं परिच्छिऊणं, जदि सुद्धो ताहे तं पडिच्छंति । ताहे य अत्तसोहिं, करेति विहिणा इमेणं तु ।।
संते (निभा ३८५९)। ९. परसक्खीयं तु कायव्वा (जीभा ४०८) । १०. अत्तणो (बक)।
११. वाही (जीभा ४०९)। १२. निभा ३८६०, ओनि ७९५ । १३. ० विहमप्पणा (जीभा ४१०)। १४. निभा ३८६१ । १५. परसक्खिया (ब, निभा ३८६२) । १६. ओनि ७९४, गाथा का उत्तरार्ध जीभा (४११) में इस प्रकार है
आलोयण णिदण गरहणा य ण पुणो य बितियं ति ।। १७. निभा ३८६३, ओनि ८०१ । १८. उप्पण्णाणुप्पण्णा (निभा ३८६४) । १९. माया अणु ० (स, निभा)। २०. गरहणा ते न पुणो वि (निभा)। २१. तु (स)। २२. आतसोही (निभा ३८६५)। २३. पण्हाय ० (अ)। २४. जीभा. ४१३ ।
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दशम उद्देशक
[ ४०९
४३०२. पव्वज्जादी आलोयणा उ तिण्हं चउक्कग विसोधी ।
जह अप्पणो तह परे, कातव्वा उत्तमट्ठम्मिरे ॥ ४३०३. नाणनिमित्तं आसेवियं तु, वितहं परूवियं वावि ।
चेतणमचेतणं वा, ‘दव्वं सेसेसु इमगं तु५ ॥ ४३०४. नाणनिमित्तं अद्धाणमेति ओमे यह अच्छति तदट्ठा ।
नाणं व 'आगमेस्सं, ति कुणति परिकम्मणं देहे ॥ ४३०५. पडिसेवति विगतीओ, 'मेझं दव्वं व एसती पिबती ।
. 'वायंतस्स व१ किरिया, कता तु पणगादिहाणीए१२ ॥ ४३०६. एमेव दंसणम्मि वि, सद्दहणा णवरि तत्थ णाणत्तं ।
एसण इत्थी'३ दोसे, वतं ति चरणे सिया सेवा'४ ॥ ४३०७. अधवा तिगसालंबेण दव्वमादी चउक्कमाहच्च ।
आसेवितं निरालंबओ व आलोयए तं तु५ ॥ ४३०८. पडिसेवणाऽतियारे, जह वीसरिया कहिंचि१६ होज्जाहि१७ ।
तेसु८ कह वट्टितवं, सल्लुद्धरणम्मि९ समणेणं२० ॥ ४३०९. जे मे जाणंति जिणा, अवराधा ‘जेसु जेसु'२१ ठाणेसु ।
ते हं आलोएउं, उवट्ठितो सव्वभावेणं२२ ॥ ४३१०. एवं आलोएंतो२२, विसुद्धभावपरिणामसंजुत्तो ।
आराहओ तह वि सो, गारवपलिकुंचणा रहितो२४ ॥ दारं ॥ ४३११. ठाणं पुण केरिसगं, होति पसत्थं तु तस्स२५ जं जोग्गं ।
भण्णति जत्थ न होज्जा, झाणस्स उ तस्स वाघातो२६ ॥
१. चतुक्किय (जीभा ४१४) । २. x (निभा)।
उत्तिमट्ठ ति (स, निभा ३८६६)। जोभा (४१६) में इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
णाणे वितहपरूवण, जं वा आसेवितं तदवाए। ५. दव्वे खेतादिसु इमं तु (जीभा), निभा ३८६७ । ६. वि (स, नीभा ३८६८), व (जीभा ४१७)। ७. आगमेस्सइ (जीभा)। ८. ०कम्मणा (निभा)। ९. मझे दब्वे (निभा ३८६९), मेहादव्ये (जीभा ४१८) । १०. एसता (अ)। ११. एतस्स वि (निभा)। १२. पणइमादि ० (अ)। १३. इड्डी (निभा ३८७०)।
१४. जीभा ४१९ । १५. निभा ३८७१, जीभा ४२० । १६. कह वि (स, निभा ३८७२) । १७. हुज्जा णु (ब)। १८. तेसि (अ)। १९. ० रणं पि (अ)। २०. जीभा ४२१ । २१. तेसु तेसु (अ)। २२. जीभा ४२२, निभा ३८७३ । २३. आलोएति (निभा ३८७४) । २४. जीभा ४२३ । २५. जस्स (ब)। २६. जीभा ४२४ ।
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४१० ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
४३१२.
४३१३.
४३१४.
1
चार कोट्टग कलाल', 'करकय पुप्फ-फल दगसमीवम्मि ६ 'आरामे अहवियडे, नागघरे पुव्वभणिए य पढमबितिसु कप्पे, उद्देसेसुं' उवस्सया 'जे तु९ विहिसुत्ते य निसिद्धा, तव्विवरीते गवेसेज्जा १० ४३१५. उज्जाणरुक्खमूले", सुण्णघरऽणिसट्ठ१२ हरियमग्गे य एवंविधे न ठायति १३, होज्ज समाधीय वाघातो १४ ॥ दारं ॥
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६
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४३१६. इंदियपडिसंचारो, मणसंखोभकरणं जहि नत्थि १५ चाउस्सालादि १६ दुवे, अणुण्णवेऊण ठायंति१७ ४३१७. पाणगजोग्गाहारे, ठवेंति" से तत्थ जत्थ न उवेंति 'अप्परिणया व १९ सो वा अप्पच्चयगेहिरक्खट्ठा २० भुत्तभोगी पुरा जो तु२९, गीतत्थो वि य संतेमाहार धम्मेसु २२, सो वि खिप्पं तु ४३१९. पडिलोमाणुलोमा २३ वा, विसया जत्थ ठावेत्ता तत्थ २४ से निच्चं, कहणा जाणगस्स ४३२०. पासत्थोसन्नकुसीलठाणपरिवज्जिया तु पियधम्मऽवज्जभीरू, गुणसंपन्ना
भावितो 1 खब्भते ॥
'उव्वत्त दार २७ संथार २८, कहग वादी य अग्गदारम्मि भत्ते पाण२९ वियारे, कधग दिसा जे समत्था य३०
४३१८.
४३२१.
1
गंधव्व-नट्ट जड्डडुऽस्स', चक्क - जंतऽग्गिकम्मपुरुसे य णंतिक्क-रयग-देवड', डोंबे पाडहिंग* रायपधे
० णट्टाउज्जस्स (निभा ३८७५) ।
देवता (निभा) ।
डोंबिल (जीभा ४२५) ।
पोडरिग (निभा) ।
कल्लाल (जीभा ४२६ अ, स) ।
करकए पुष्फ दग समीवे य (जीभा), निभा (३८७६) में इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
वारग कोद्दव कल्लाल, करय पुष्फ-फल दगसमीवम्मि ।
आराम अहे वि० (स, जीभा ।
७.
८.
९.
१०. गवेसे या (स), भवे सिज्जा (निभा ३८७७) ।
११. उज्जाणे तरुमूले (जीभा ४२८) ।
० णिसद्द (निभा३८७९) ।
० सेसू (जीभा ४२७) ।
ते ऊ (स) ।
१२.
१३. ठायते (ब) ।
१४. निभा में ४३१४ एवं ४३१५ वीं गाथा में क्रमव्यत्यय है ।
॥
निज्जवगा
अपरितंता २६
||
२८. संथर (अ)।
२९. पाणे (स) ।
३०. जीभा ४३५ ।
1
॥
1
11
1
दूरतो ।
वि२५ ॥ दारं ॥
1
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१५. नत्थि (निभा ३८७८) ।
१६.
० सालाइ (जीभा ४२९, निभा, स) । १७. उ ठंति (क, स) ।
1
11
१८. x (अ)।
१९. अपरिणता वा (निभा ३८८०) । ० गिद्धि० (निभा), जीभा ४३० । २१. वि (अ, ब)।
२०.
२२.
२३.
२४. जत्थ (ब, क) ।
२५. ते (निभा ३८८२) ।
२६. जीभा ४३३, निभा ३८८३ ।
२७. उव्वत्तणाइ (निभा ३८८४) ।
संते सांहार ० ( स, जीभा ४३१, निभा ३८८१) ।
• लोम अणुलोमा (जीभा ४३२) ।
व्यवहार भाष्य
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दशम उद्देशक
.[४११
४३२२. जो जारिसिओ कालो, भरहेरवएसु' होति वासेसु ।
ते तारिस वा ततिया, अडयालीसं तु निज्जवगारे ॥ ४३२३. एवं खलु उक्कोसा, परिहायंता हवंति तिण्णेव ।
'दो गीयत्था ततिए", असुनकरणं जानेणं ॥ दारं ॥ ४३२४. तस्स य चरिमाहारो, इट्ठो दायव्व तण्हछेदट्ठा ।
सव्वस्स चरिमकाले, अतीवतण्हा समुप्पज्जे ॥ ४३२५. नवविगतिसत्तओदण, 'अट्ठारसवंजणुच्चपाणं च ।
अणुपुव्विविहारीणं, समाहिकामाण उवहरिउं० ॥ ४३२६. कालसभावाणुमतो, ‘पुव्वं झुसितो सुतो व दिट्ठो वा ११ ।
झोसिज्जति ‘सो वि तहा१२, जयणाय चउब्विहाहारो ॥ ४३२७. तण्हाछेदम्मि कते, न तस्स तहियं पवत्तते१३ भावो ।
चरमं च एस भुंजति, सद्धाजणणं दुपक्खे वि१४ ॥ ४३२८. किं च तन्नोवभुत्तं मे, परिणामासुई सुइं ।
दिट्ठसारो सुहं झाति, चोदणे सेव सीदते ५ ॥ ४३२९. 'तिविधं तु वोसिरेहिति१६ ताहे१७ उक्कोसगाइ दव्वाइं ।
मग्गित्ता जयणाए, चरिमाहारं१९ पदंसेंति ॥ ४३३०. पासित्तु२० ताणि कोई२१, तीरप्पत्तस्स किं ममेतेहिं ।
संवेगपरायणो होति२२ ॥
जीभा (४४३) में इस गाथा के बाद एक गाथा अधिक
मिलती है
भरहेरवते य (निभा ३८८५)। जीभा ४३४ ।
एते (अ, ब)। __परिहायंती (जीभा), परिभावंता (ब)।
दोच्चेव (जीभा)। दो गीय किं निमित्तं ? (जीभा ४३७)। निभा. ३८८६ ।
समुज्जलइ (जीभा ४३८)। ९. वंजणा य पाणं च (स), गाथा का पूर्वार्द्ध निभा (३८८७) में इस
प्रकार है- णव सत्तए दसमवित्थरे य बितियं च पाणगं दव्वं । १०. उवहरइ (जीभा ४३९) उवहणिउ (निभा)। ११. पुव्वज्झुसिओ सुओवइट्ठो वा (जीभा ४४०)। १२. सो सेहा (निभा ३८८८), सो से जहा (अ)। १३. पयत्तते (स)। १४. निभा ३८८९, जीभा (४४१) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
अहव कहिंचुप्पज्जति, तह वि णियत्तेइ एवं तु, सीदतो (स), सीययो (जीभा ४४२) निभा (३८९०) में यह गाथा इस प्रकार हैकिं पत्तो णो भुत्तं मे, परिणामासुयं मुयं । दिट्ठसारो सयं जाओ, चोदेण से सोसता ॥
चरिम च एस धुंजति, सद्धाजणणं च होति उभए वि ।
संजयगिहियाण वा, तो देंति इमीय तु विही य ।। १६. तिविधं वोसिरिओ सो (निभा ३८९१) ० वोसिरेहिं (अ)। १७. सो ता (जीभा ४४४), सो ताहे (अ), तु सो ताहे (क) । १८. मग्गंता (स, निभा ३८९१), लग्गंता (ब, क)। १९. चरमा० (ब)। २०. पासित्ता (स, क)। २१. काती (क)। २२. जीभा ४४५, निभा ३८९२ ।
इस गाथा के बाद जीभा (४४६) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैदेस भोच्चा कोई,धिद्धीकार इमेण किं मे ति। वेरग्गमणुष्पत्तो, संवेगपरायणो होति ॥ निभा (३८९३) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध कुछ पाठांतर के साथ इस प्रकार है-देस भोच्चा कोई, धिक्कार करेइ इमेहि कज्जेहिं। मुद्रित पुस्तक तथा हस्तप्रतियों में यह गाथा अनुपलब्ध है। टीकाकार ने भी इसका कोई उल्लेख नहीं किया है। किंतु यह गाथा यहां प्रासंगिक लगती है।
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४१२ ]
व्यवहार भाष्य
४३३१. सव्वं भोच्चा कोई, मणुण्णरसपरिणतो' भवेज्जाही ।
तं२ चेवऽणुबंधंतो, देसं सव्वं च गेहीए ॥ दारं ।। ४३३२. विगतीकयाणुबंधे, आहारणुबंधणाइ वुच्छेदो ।
परिहायमाणदब्वे, गुणवुड्ढि समाधिअणुकंपा ॥ ४३३३. 'दवियपरिणामतो वा', हाउति दिणे दिणे व जा तिन्नि ।
बिंति न लब्भति दुलभे, 'सुलभम्मि य होतिमा जतणा ॥ ४३३४. आहारे ताव छिंदाही, गेधिं तो पं० चइस्ससि१ ।
जं ‘वा भुत्तं न १२ पुव्वं ते, तीरं पत्तो तमिच्छसि१३ ॥दारं ॥ ४३३५. वहृति अपरितंता, दिया व४ रातो व सव्वपडिकम्मं५ ।
पडियरगा गुणरयणा१६ कम्मरयं निज्जरेमाणा ॥ ४३३६. जो जत्थ होति कुसलो, सो तु न हावेति तं सति बलम्मि ।
उज्जुत्ता सनियोगे, तस्स वि दीवेंति तं सद्धं१७ ॥दारं ॥ ४३३७. देहवियोगो खिप्पं, व होज्ज अहवा वि कालहरणेणं८ ।
दोण्हं पि निज्जरा वद्धमाण९ गच्छो उ एतट्ठा२० ॥ ४३३८. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो ।
अन्नतरगम्मि२१ जोगे, सज्झायम्मी२२ विसेसेण ॥ ४३३९. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो ।
अनतरगम्मि जोगे, काउस्सग्गे . विसेसेण२३ ॥ ४३४०. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो ।
अनतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण२४ ॥ ४३४१. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो ।
अनतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि२५ ॥दारं ।।
१. ० विपरिणतो (निभा)। २. ते (निभा)। ३. गेही या (स), रोहीया (जीभा ४४७), रोचीया (निभा ३८९५) । ४. गुणवड्डि (स)। ५.. जीभा ४४८, निभा ३८९६ ।
० परिणाम ता (जीभा ४४९) । ७. हाविति (स), हावेति (जीभा)। ८. लभंति (जी भा)। ९. वि (जीभा) व (निभा ३८९७)। १०. तू (अ), उ (ब, क)। ११. च इच्छसि (अ), स्सति (स) । १२. वा सत्तं न (स), भुत्तं न हु (जीभा ४५०) । १३. न मुच्छसि (निभा ३८९८)।
१४. वि(क)। १५. ० परि ० (जीभा, निभा)। १६. गुणचरगा (निभा ३८९९), गुणयरगा (अ.स), मुणिवरगा
(जीमा ४५१)। १७. सङ्घ (निभा, ३९००, जीभा ४५२)। १८. कालकरणेणं (जीभा ४५३) । १९. वट्टमाण (ब, क)। २०. एगट्ठा (क, निभा ३९०१) । २१. ० यरम्मि वि (जीभा ४५४) अग्रेऽपि । २२. ० यम्मि (अ, ब, निभा ३९०२)। २३. जीभा ४५५, निभा ३९०३ । २४. जीभा ४५६, निभा ३९०४ । २५. उत्तम ० (ब, अ), जीभा ४५७,निभा ३९०५ ।
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दशम उद्देशक
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संथारो उत्तिमट्ठे, भूमिसिलाफलगमादिं नातव्वे 1 संथारपण नादी, दुगचीरा तू बहू वावि' 11 तह विय संथरमाणे, कुसमादी जिंतुर अझुसिरतणाइं । तेसऽसति असंथरणे, 'झुसिरतणाई ततो पच्छा" || ४३४४. कोयवं पावारग नवय, 'तूलि आलिंगिणी ६ य भूमीए । एमेव अणहियासे, संधारगमादि पल्लंके 11
४३४२.
४३४३.
४३४५. पडिलेहण संथारं, पाणगउव्वत्तणादि
निग्गमणं
1
॥
H
सयमेव करेति सहू, 'असहुस्स करेंति अन्ने उ ४३४६. कायोवचितो बलवं, निक्खमणपवेसणं च से कुति । तह विय अविसहमाणं संथारगतं तु संचारे १० ४३४७. संथारो 'मउओ तस्स ११, समाधिहेउं तु होति कातव्वो तह वि य अविसहमाणे, समाहिहेउं उदाहरणं १२ ॥ दारं ॥ ४३४८. धीरपुरिसपण्णत्ते, सप्पुरिसनिसेविते
''
धण्णा सिलातलगता १३, निरावयक्खा जदि ताव सावयाकुल, गिरि-कंदर साधेति १५ उत्तिमट्ठ, धितिधणियसहायगा ४३५०. किं पुण अणगारसहायगेण अण्णोणसंगहबलेणं । 'परलोइए न सक्का १७, साहेउं उत्तमो१८ अट्ठो ॥ ४३५१. जिणवयणमप्पमेयं मधुरं १९ सक्का हु साहुमज्झे २२,
कण्णाहुति २० सुणेंताणं २१. संसारमहोदधि
तरिउं
४३४९.
जीभा ४५८, निभा (३९०६) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ इस प्रकार है
भूमि सिलाए फलए, तणाए संथार उत्तिमट्ठम्मि ।
दोमादि संधरंति, बितियपद अणधियासे य ।।
असंथर ० (जीभा, स) ।
तिनि (जी भा)।
व्वं होज्ज सुसिरा वि तो पच्छा (जीभा, ४५९) ।.
कोवव (अ) 1
तूलीयालि ० (क) ।
जीभा (४६०) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
तह वि असंथर कोतव, पावारग णवय तूलि भूमीए ।
निभा ३८०७ में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है- तण
कंबल पावारे, कोयवतूली य भूमिसंधारे । उस्सग्गाणेतरे करते (निभा ३९०८) जीभा ४६१, ।
० माणे (जीभा ), ० माणो (ब) ।
परमरम्मे 1 निवज्जंति १४ ॥
दु धीरा १६
१३.
१४. निभा ३९११ ।
१५. साहेंति (अ) ।
१६. जीभा ४६५, निभा ३९१२ ।
0
11
1
१०.
संधारे (जीभा ४६२), निभा ३९१० ।
११.
तस्स मडतो (जीभा ४६३), मउतो तस्स (ब) ।
१२. निभा (३९०९) में कुछ अंतर के साथ निम्न गाथा मिलती है
उव्वत्तणणीहरणं, मओ उ अधियासणाए कायव्वो ।
संधार5 समाहीए, समाहिहेउं उदाहरणं ॥
• तलतले (जीभा ४६४), ० वलगते (अ) ।
11
० लोइयं न सक्कइ (निभा ३९१३) । अप्पणो (जीभा ४६६) ।
१७.
१८.
१९. निउणं (जीभा)
२०.
हूति (निभा ३९१४) । २१. सुर्णेतेणं (निभा, जीभा ४६७) ।
२२.
० मज्झ (स)।
[ ४१३
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४१४ ]
व्यवहार भाष्य
४३५२. सव्वे सव्वद्धाऐ, सव्वण्णू सव्वकम्मभूमीसु ।
सव्वगुरु सव्वमहिता, सव्वे मेरुम्मि अभिसित्ता ॥ ४३५३. सव्वाहि विरे लद्धीहिं, सव्वे वि परीसहे पराइत्ता ।
सब्वे वि य तित्थगरा, ‘पादोवगया तु सिद्धिगया'३ ॥ ४३५४. अवसेसा अणगारा, तीत-पडुप्पण्णऽणागता सव्वे ।
केई पादोवगया, पच्चक्खाणिगिणिं' केई५ ॥ ४३५५. सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा ।
सव्वे य देसविरता, पच्चक्खाणेण तु मरंति ॥ ४३५६. सव्वसुहप्पभवाओ, जीवियसाराउ 'सव्वजणगाओ ।
- आहाराओ रतणं, न 'विज्जति हु" उत्तमं लोए ॥ ४३५७. विग्गहगते य सिद्धे, 'य मोत्तु° लोगम्मि जत्तिया जीवा ।
___ सब्वे सव्वावत्थं, आहारे होंति उवउत्ता १ ॥ ४३५८. तं तारिसर्ग१२ रयणं, सारं जं सव्वलोगरयणाणं ।
सव्वं परिच्चइत्ता, पादोवगता पविहरंति'३ ॥ ४३५९. एवं पादोवगम, निप्पडिकम्मं जिणेहि पण्णत्तं ।
जं सोऊणं खमओ, ववसायपरक्कमं५ कुणति ॥दारं ।। ४३६०. कोई१६ परीसहेहिं, वाउलिओ वेयणद्दिओ७ वावि ।
ओभासेज्ज कयाई, पढमं बितियं च आसज्ज ॥ ४३६१. गीतत्थमगीतत्थं, सारेउ मतिविबोहणं१८ काउं ।
तो पडिबोहिय९ छटे, पढमे पगयं सिया बितियं२० ॥ ४३६२. हंदी२१ परीसहचम, जोहेतव्वा मणेण काएणं ।
तो मरणदेसकाले, कवयब्भूतो२२ उ आहारो ॥
१. जीभा ४६८, निभा ३९१५ ।
व (निभा ३९१६)। पायोवगमेण सिद्धि ० (जीभा ४६९)। ०णिगिणी (जीभा ४७०), ०णिंगणिं (स)। कोइ (अ), केति (स), निभा ३९१७ । जीभा ४७१, निभा ३९१८।।
० जणितातो (निभा ३९१९), ० जणयाओ (जीभा, ४७२)। ८. विज्जा इह (स), विज्जए (जीभा)।
अण्णं (जीभा)।
मोत्तुं (निभा ३९२०), पमोत्तुं (स)। ११. आयत्ता (जीभा), आउत्ता (अ, क), आयव्वा (स), जीभा (४७३)
में गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार हैसेलेसिसिद्ध विग्गह, केवलिओघायए य मोत्तूणं ।
१२. सारिसगं (निभा ३९२१) । १३. परिहरंति (आ), जीभा ४७४ । १४. परिण्णी (जीभा ४७५)। १५. ० परिक्कम (जीभा, क), निभा ३९२२ । १६. केई (निभा), कोपि (जीभा)। १७. वेतणुडुतो (निभा ३९२३) वेयणट्टिओ (ब, जीभा ४७६) । १८. मतिविसोहणं (निभा ३९२४), तह विबो ० (जीभा ४७७) । १९. ० बोहय (ब, जीभा)। २०. बितिते (स)। २१. हंदि दु(जीभा ४७८)। २२. कवयतुल्लो (निभा ३९२५), कवयभूतो (अ)।
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दशम उद्देशक
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४३६३. संगामदुगं महसिलरधमुसल' चेव ‘परूवणा तस्स२ ।
असुरसुरिंदावरणं, चेडग एगो गह सरस्स३ ॥ ४३६४. महसिल कंटे तहियं, वट्टते कूणिओ उ रधिएणं ।
रुक्खग्गविलग्गेणं', 'पट्टे पहतो उ'६ कणगेणं ॥ ४३६५. उप्फिडितुं सो कणगो', कवयावरणम्मि तो ततो पडितो ।
तो तस्स कूणिएणं', 'छिन्नं सीसं २ खुरप्पेणं ॥ ४३६६. दिटुंतस्सोवणओ, कवयत्थाणी इधं तहाहारो ।
सत्तू परीसहा खलु, आराहण रज्जथाणीया० ॥ ४३६७. जह वाऽऽउंटिय१ पादे, पायं काऊण हत्थिणो पुरिसो ।
आरुभति तह परिण्णी२, आहारेणं तु झाणवरं१३ ॥ ४३६८. उवगरणेहि विहूणो, जध वा पुरिसो न साधए कज्जं ।
एवाहारपरिण्णी, दिटुंता तत्थिमे होति ४ ॥ ४३६९. लावए१५ पवए जोधे, संगामे पंथिगे'६ ‘ति य१७ ।
आउरे सिक्खए वेव, 'दिटुंतो कवए ति या १८ ॥ ४३७०. दत्तेणं९ नावाए, आउह-पहुवाहणोसहेहि२० च ।
उवगरणेहिं च विणा, जहसंखमसाधगा सव्वे ॥ ४३७१. एवाहारेण विणा, समाधिकामो न साहएँ . समाधिं ।
तम्हा समाधिहेऊ२१, दातव्वो२२ तस्स आहारो२३ ॥
१. ० मुसिल (स)। २. परूवणया (स)। ३. निभा (३९२६) एवं जीभा (४७९) में गाथा का पूर्वार्द्ध इस
प्रकार हैसंगामदुगपरूवण, चेडग एगसर उग्गहो चेव ।
णाय संगामदुग, महसिल रहमुसलवण्णणा तेसि ।। ४. कोणिओ (क)। ५. . वलग्गेण (जीभा)। ६. पहतो पट्ठम्मि (जीभा ४८०)। ७. करणे (अ)।
कोणिएणं (जीभा ४८१)। ९. सीसं छित्रं (ब)। १०. जीभा. ४८२ । ११. वा उंडिय (अ)। १२. परिणण (स)। १३. जीभा.४८३ । १४. जीभा. ४८४,४३६४ से लेकर ४३६८ तक की पांच गाथाओं
के स्थान पर निभा (३९२८,३९२९) में निम्न दो गाथाएं मिलती
संगामे साहसितो, कणतेणं तत्थ आहतो संतो। सतुं पुचविलग्गं, आहणइ उ मंडलग्गेणं ।। रुक्खविलग्गो रुधितो, पहणइ कणएण कूणियं सीसे ।
अणहो य कूणिओ से, हरति सिरमंडलग्गेणं ।। १५. लवए (जीभा), लोवए (निभा ३९२७) । १६. पत्थिए (जीभा ४८५)। १७. वि य (क)। १८. दिट्ठतसमाहिकामेतो (जीभा)। १९. दावेणं (स)। २०. तहोवाह (जीभा ४८६) । २१. ० हेउं (जीभा ४८७)। २२. काय व्वो (ब, क)। २३. इस गाथा के बाद जीभा (४८८) में एक अधिक गाथा
मिलती हैधितिसंधयण विजुत्तो, असमत्थो परीसहेहियासेउं । फिट्टति चंदगविज्झा, तेणं विणा कवयभूएण ।।
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४३७२. सरीरमुज्झियं जेण को संगो तस्स भोयणे ' समाधिसंधणाहेउ', दिज्जए सो उ अंतिए' || ४३७३. सुद्धं एसित्तु ठावेति हाणी' वा दिणे दिणे ।
पुव्वुत्ताए उ जयणाए, तं तु गोवेंति अन्नहिं ॥ दारं ॥ ४३७४. निव्वाघाएणेवं, कालगयविगिंचणा 'उ विधिपुव्वं" । कातव्व चिंधकरणं, अचिधकरणे भवे गुरुगा ॥ ४३७५. 'सरीर उवगरणम्मि य”, अचिंधकरणम्मि 'सो उ रातिणिओ १० मग्गणगवेसणाए", गामाणं घातणं कुणति ४३७६. न पगासेज्ज लहुतं परीसहुदएण २ होज्ज वाघातो उप्पण्णे वाघाते, जो गीतत्थाण 'उ उवाओ १३
I
॥ दारं ॥
ठविज्जते १४ अन्नो
४३७७ को गीताण उवाओ, 'संलेहगतो उच्छहते जो अन्नो५ इतरो उ गिलाणपडिकम्मं १६ ४३७८. वसभो वा ठाविज्जति, अण्णस्सऽसतीय तम्मि संथारे कालगतो 'ति य१७ काउं, संझाकालम्मि णीर्णेति
वा,
४३८०. सपरक्कमे २२ जो उ गमो नवरं पुण नाणतं
समाधिसंबरणा (निभा ३९३०) । सि.(जीभा ४८९) ।
अंततो (निभा), अन्नए, (अ), अंतए (स) ।
ठावेंता (क), ठावेंती (अ) ।
हाणी उ (निभा ३९३१) हाणिओ (क, स, जीभा ४९० ) ।
गोविति (अ, क) ।
विही० जीभा ४९१)।
निभा (३९३२) में यह गाथा इस प्रकार है
आयरितो कुंडिपदं, जे मूलं सिद्धिवासवसहीए । चिधकरण कायव्वं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा ||
सारीर उवकरणम्मि (क, अ) सरीरे उव० (निभा ३९३३), उवकरण सरीरम्मि य (जीभा) ।
मंडिओ तहियं (जीभा ४९२) ।
१०.
११.
० सणया (अ) ।
१२. परिसह उद ० (ब) ।
१३. उवाधातो ( निभा ३९३४), उववातो (क, स), जीभा ४९३ ।
1
४३७९. एवं 'तू णायम्मी १९, दंडिगमादीहि होति 'जयणा उ२१ सय गमणपेसणं खिसण चउरो अणुग्घाता ॥ दारं ॥ नियमा अपरक्कमम्मि सो चेव खीणे जंधाबले गच्छे२३
1
11
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१९. तु णायम्मि (क, स) ।
२०. डंडिय० (स, जीभा ४९६) ।
२१. जयणेसा (जी भा)
।
11
२२. सपरिक्क ० (अ) ।
I
11
1
जीभा ४९४)।
asण्णो (जीभा), जा वण्णो (स) ।
० परिक ० (स, जीभा ) ।
विय(क) ।
णीणिति (अ), जीभा ४९५ ।
11
व्यवहार भाष्य
का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
दुविधा णायमणाया दुविधा णाया य दंडमादीहि ।
जयणा वा (क), निभा (३९३५) में गाथा
२३. तु ० जीभा ४९७, ४९८, ४३८०-८१ इन दोनों गाथाओं के स्थान पर निभा (३९३६) में निम्न गाथा मिलती हैसपरक्कमे जो उ गमो, णियमा अपरक्कमम्मि सो चेव ।
पुव्वी रोगायंकेहि, नवरि अभिभूतो बालमरणं परिणतो य ॥
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दशम उद्देशक
। ४१७
४३८१. एमेव आणुपुची, रोगायंकेहि नवरि अभिभूतो' ।
बालमरणं पि 'सिया हु'३ मरिज्ज व इमेहि हेतूहिं ॥नि. ५४४ ॥ ४३८२. वालच्छ-भल्ल' 'विस विसूइकएँ आयकर्ष सन्निकोसलए ।
ऊसासगद्ध रज्जू, ओमऽसिवऽभिघायसंबद्धो ॥नि. ५४५ ।। ४३८३. वालेण गोणसादी', खदितो हुज्जाहि९ सडिउमारद्धो ।
कण्णोठ्ठणासिगादी, विभंगिया० अच्छभल्लेणं११ ॥ ४३८४. 'विसेण लद्धो होज्जा५२, विसूइगा वा सें'४ उट्ठिता होज्जा ।
आयंको वा कोई१५ खयमादी उट्ठिओ होज्जा ॥दारं ।। ४३८५. तिण्णि तु वारा किरिया, तस्स ‘कय हवेज्ज नो य६ उवसंतो१७ ।
जध वोमे कोसलेण, सण्णीणं१८ पंच उ सयाइं ॥दारं ।। ४३८६. साहूणं१९ रुद्धाइं, अहयं भत्तं तु२० तुज्झ२१ दाहामो ।
लाभंतरं च नाउं, लुद्धेणं धण्णविक्कीयं२२ ॥ ४३८७. तो णाउ वित्तिछेद, ऊसासनिरोधमादिणि कयाइ ।
'अणधीयासे तेहि २३, 'वेदण साधूहि ओमम्मि'२४ ॥ ४३८८. अभिघातो वा विज्जू, गिरिभित्ती कोणगादि वा हुज्जा ।
संबद्धहत्थपादादओ५, व वातेण२६ होज्जाहि ॥ ४३८९. एतेहि कारणेहिं, पंडितमरणं तु काउ असमत्थो ।
ऊसासगद्धप४२७, रज्जुग्गहणं व कुज्जाही२८. नि. ५४६ ।।
वाधाति (जीभा ४९९)। २. अतिभूतो (क)। ३, य सिया (स, जीभा)। ४. उ(अ, जीभा)। ५. मिल्ल (स)।
विसमय विसूगियाऽऽयंक (जीभा ५००)। ७. ० अहिधाय संबंधो (ब)। ८. साइण (ब, जीभा ५०१)।
हुज्जा (अ)। १०. विरंगिया (अ), विभंगया (ब)। ११. वच्छ ० (ब, स) । १२. लद्धो व विसेणं तू (जीभा ५०२) । १३. व विसूतिमा (अ, क) । १४. को (स)। १५. कोती (क), कोयिं (स) । १६. तो उ(अ,ब)। १७. कया ण वि उवसमो जातो (जीभा ५०३)।
१८. सण्णिणं (अ,क)। १९. सीण (जीभा ५०४)। २०. x (अ.ब)। २१. तुम्भ (जीभा)। २२. विक्कियं (क)। २३. ० यासितेहिं (अ, क)। २४. चेडणं तु साहूहि ओमम्मि (अ), खुहवेदण ओमे साहूहि
(जीभा ५०५)। इस गाथा के बाद जीभा (५०६) में निम्न गाथा और मिलती हैएवं ता कोसलए, अण्णम्मि वि ओमो होज्ज एमेव ।
सहसा छिण्णद्धाणे, असिवग्गहिया व कुज्जाहिं ।। २५. ० पादादाइ तो (अ)। २६. वादेण (जीभा ५०७)। २७. ० पच्चं (क)। २८. तु. जीभा ५०८,५०९ ।
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४१८ ]
व्यवहार भाष्य
४३९०. अणुपुव्वविहारीणं', उस्सग्गनिवाइयाण जा सोधी ।
विहरंतए न सोधी, भणिता आहारलोवेणरे ॥दारं ॥ ४३९१. पव्वज्जादी काउं, नेतव्वं जाव होतऽवोच्छित्ती ।
पंच तुलेऊण ‘य तो'३, इंगिणिमरणं 'परिणतो यः ॥नि. ५४७ ।। ४३९२. आयप्परपडिकम्म', भत्तपरिण्णाय . दो अणुण्णाता ।।
परिवज्जिया य इंगिणि, चउविधाहारविरती य ॥नि. ५४८ ।। ४३९३. ठाण-निसीय -तुयट्टण, इत्तरियाई जधासमाधीए ।
सयमेव य सो कुणती, उवसग्गपरीसहऽहियासे ॥नि. ५४९ ।। ४३९४. संघयणधितीजुत्तो, नवदसपुव्वा सुतेण अंगा'० वा ।
इंगिणि पादोवगम, नीहारी वा अनीहारी११ ॥नि. ५५० ।। ४३९५. पादोवगमं भणियं, समविसमे पादवो जहा२ पडितो ।
नवरं परप्पओगा, कंपेज्ज जधा चलतरुव'३ ॥नि. ५५१ ।। ४३९६. तसपाणबीयरहिते, विच्छिन्नवियारथंडिलविसद्धे ।
'निद्दोसा निद्दोसे, उवेंति'१४ अब्भुज्जयं मरणं१५ ॥ ४३९७. पुवभवियवरेणं, देवो साहरति कोवि'६ पाताले ।
मा सो चरमसरीरो. न वेदणं किंचि पाविहिति ॥ ४३९८. उप्पन्ने उवसग्गे, दिवे७ माणुस्सए तिरिक्खे८ य ।
सवे पराइणित्ता ९, पाओवगता पविहरंति२० ॥ ४३९९. जह नाम असी कोसे२१, अण्णो 'कोसे असी वि खलु अण्णे २२ ।
इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति२३ ॥
१. ०विहारेणं (जीभा)।
० लोवा या (जीभा ५१०) लोवे य, (बस), जीभा (५११) में इस गाथा के बाद एक अतिरिक्त गाथा मिलती हैएसा पच्चक्खाणे, आय परे भणिय निज्जवाण विही ।
इंगिणि पायोवगमे, वोच्छामी आयणिज्जवणं ।। ३. ततो (ब), य सो (स, जीभा ५१२, निभा ३९४०)। ४. ववसिओ उ (जीभा)।
० परिक्कम्म (जीभा ५१३)। ६. निभा ३९३७।
णिसीयण (निभा ३९३८)। ८. मित्तिरि० (निभा), इत्तिरि० (अ) । ९. ० यासी (अ, जीभा ५१४) । १०. संगा (निभा ३९३९)। ११. जीभा (५१५) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
इंगिणिमरणं नियमा, पडिवज्जति एरिसो साहू ।
१२. जह (अ, ब) य जह (निभा)। १३. ० तरुस्स (निभा ३५४२) । १४. णिद्देसा णिद्देसे भवंति (निभा ३९४३) । १५. जीभा ५२१ । १६. कोति (जीभा ५२२, निभा ३९४४,३९५६)। १७. सव्वे (अ)। १८. तिरिच्छे (ब)। १९. पराइणित्तू (क), पराजणित्ता (निभा ३९४५)। २०. परिह० (स, निभा),जीभा ५२३ । २१. कोसी (अ, ब, निभा)। २२. असी वि कोसी वि दो वि खलु अण्णे (निभा ३९४६)। २३. मन्नेति (ब), मन्नेई (अ), जीभा ५४० ।
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दशम उद्देशक
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४४००. पुव्वावरदाहिणउत्तरेहि, वातेहि आवयंतेहिं ।
जह न वि कंपति मेरू, तध ते झाणाउ न चलंति२ ॥ ४४०१. पढमम्मि य संघयणे, वस॒ता सेलकुड्डसामाणा ।
तेसि पि य वुच्छेदो, चोद्दसपुवीण वोच्छेदे३ ॥ ४४०२. 'दिव्वमणुया उ दुग तिग, अस्से पक्खेवगं सिया कुज्जा ।
वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोइ पालेज्जा ॥ ४४०३. अणुलोमा पडिलोमा, दुगं तु उभयसहिता तिगं होति ।
अधवा चित्तमचित्तं, दुगं तिगं मीसगसमग्गं ॥ ४४०४. पुढवि-दग-अगणि-मारुय-वणस्सति तसेसु कोवि साहरति ।
वोसठ्ठचत्तदेहो, अधाउयं कोवि . पालेज्जा ॥ एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराधणा धुवा तस्स ।
अंतकिरियं० व साधू, करेज्ज . देवोववत्तिं वा१ ॥ ४४०६. मज्जणगंधं पुष्फोवयारपरिचारणं१२ सिया'३ कुज्जा ।
वोसट्ठचत्तदेहो, अधाउयं को वि पालेज्जा१४ ॥ ४४०७. पुव्वभवियपेम्मेणं१५, देवो देवकुरु-उत्तरकुरासु ।
कोई१६ तु साहरेज्जा, सव्वसुहा जत्थ अणुभावा७ ॥ ४४०८. पुव्वभवियपेम्मेणं, देवो साहरति नागभवणम्मि ।
जहियं इट्ठा कंता, सव्वसुहा होति अणुभावा८ ॥ ४४०९. बत्तीसलक्खणधरो, पाओवगतो य पागडसरीरो ।
परिसव्वेसिणि१९ कण्णा, राइविदिण्णा२० त गेण्हेज्जा ॥
१. x(अ)। २. निभा ३९४७। ३. निभा.३९४८ ।
देव णर दुग तिगऽस्से केइ (जीभा ५२४) । ५. निभा ३९४९ । ६. ०लोम (ब, जीभा ५२५)।
निभा (३९५०) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैंअहवा सचित्तमचित्तं दुगं तिग मीसगसमे य ।
को उ (निभा ३९५१)। ९. जीभा ५२६ । १०. ०किरिया (निभा)। ११. निभा. ३९५२, ३९६३, जीभा. ५४१,५५३ ।
१२. ०वकार-(अ)। १३. सया (निभा ३९५३)। १४. व्यभा ४४१० । १५. ० पेमेणं (ब)। १६. कोयि (निभा ३९५४)। १७. जीभा ५४४। १८. जीभा ५४५, निभा ३९५५ निभा३९५६)में इस गाथा
के बाद निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैपुव्वभवियवेरेणं, देवो साहरति कोति पायाले।
मासो चरिमसरीरो, न वेदगं किंचि पाविहिति ॥ १९. ० सद्देसिणि (निभा ३९५७) । २०. रायवि ० (जीभा ५४६)।
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४२०
]
व्यवहार भाष्य
४४
४४१०. मज्जणगंधं पुष्फोवयारपरियारणं 'सिया कुज्जा ।
वोसट्ठचत्तदेहो, अहाउयं कोवि पालेज्जा ॥ ४४११. नवंगसुत्तप्पडिबोहयाए, अट्ठारसरतिविसेसकुसलाए ।
बावत्तरिकलापंडियाए, चोसट्ठिमहिलागुणेहिं च ॥ ४४१२. दो सोय नेत्तमादी', नवंगसोया हवंति ‘एते तु ।
देसी भासऽट्ठारस, रतीविसेसा उ इगवीसं० ॥ कोसल्लमेक्कवीसइविध११ तु एमादिएहि तु गुणेहिं ।
जुत्ताएँ रूव-जोव्वण २-विलासलावण्णकलियाए१३ ॥ ४४१४. चउकण्णंसि४ रहस्से, रागेणं रायदिण्णपसराए ।
तिमि-मगरेहि व उदधी, न खोभितो जो५ मणो मुणिणो ६ ॥ ४४१५. जाधे पराजिता सा, न समत्था सीलखंडणं काउं ।
नेऊण१७ सेलसिहरं, तो ‘से सिल मुंचए उवरि८ ॥ ४४१६. एगंतनिज्जरा से, दुविधा आराहणा धुवा तस्स ।
अंतकिरियं९ व साधू, करेज्ज देवोववत्ति२० वा२२ ॥ ४४१७. मुणिसुव्वयंतवासी२२, 'खंदगदाहे य कुंभकारकडे २३ ।
देवी पुरंदरजसा, दंडगि२४ पालक्क मरुगे२५ य ॥ ४४१८. पंचसता जंतेणं, 'रुद्रुण पुरोहिएण मलिताई'२६ ।
रागद्दोसतुलग्गं, समकरणं चिंतयंतेहिं२७ ॥
सया कुज्जा (निभा ३९५८), च कुज्जाहि (जीभा) इस गाथा का उत्तरार्ध जीभा (५४७) में इस प्रकार है
सा पवररायकण्णा, इमेहि जुत्ता गुणगणेहिं । ३. नवअंग ०(ब)।
गाथा के प्रथम चरण में इंद्रवज्रा छंद है। चोयट्टि ० (अ, स)। जीभा (५४८) में यह गाथा इस प्रकार हैणवयंग सोयबोहिय, अट्ठारसरतिविसेसकुसला तु ।
चोयट्ठी महिलागुणा, णिउणा य बिसत्तरिकलाहिं ।। ७. मादिग (जीभा ५४९)। ८. ० सुत्ता (ब)। ९. एतेसु (ब)। १०. उगुवीस (ब, जीभा), उक्कवीसं (अ), निभा (३९६०) में यह
गाथा इस प्रकार मिलती हैसोआती णवसोत्ता, अट्ठारसे होंति देसभासाओ।
इगतीसरइविसेसा, कोसल्लं एक्कवीसतिहा।। ११. कोसल्लगे व वीसइ० (जीभा ५५०)। १२. जुव्वणि (अ)।
१३. ० लायण्ण ० (जीभा)। १४. ० णम्मि (ब)। १५. जा (निभा ३९६१)। १६. जीभा ५५१ । १७. णाऊण (स)। १८. सिलमुवरि मुयति तस्स (जीभा ५५२), निभा ३९६२ । १९. ० किरिया (जीभा)। २०. देवोववायं (निभा)। २१. जीभा ५५३,५४१, निभा ३९५२, ३९६३ । २२. ० सुव्वयंते० (ब, क, जीभा)। २३. खंदगमणगारकुंभकारकडं (जी भा ५२८), खंदगपमुहा य
कुंभ ० (उनि ११३) २४. दंडय ( क), दंडति (स, निमा)। २५. मरुतो (ब, क), मरुते (निभा ३९६४)। २६. ० मलिया उ (जीभा ५२९), ० मिलियाई (ब), ० मिलियाति
(निभा ३९६५), बधिता तु पुरोहिएण रुटेण (उनि ११४) । २७. ० यंतेणं (स)।
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________________
दशम उद्देशक
[ ४२१
४४१९. ___ 'जंतेण करकतेण व, सत्थेण व सावएहि विविधेहिं ।
देहे विद्धंसंतेरे, न य ते झाणाउ फिटृति ॥ ४४२०. पडिणीययाएँ कोई, अग्गि ‘से सव्वतो पदेज्जाहिः ।
पादोवगते संते, जह- चाणक्कस्स ‘व करीसे ॥ ४४२१. पडिणीययाएँ केई, चम्मं से खीलएहि विहुणित्ता५ ।
महुघतमक्खियदेहं१२, पिवीलियाणं तु देज्जाहि ॥ ४४२२. जह सो चिलायपुत्तो, वोसट्ठ-निस?'३ 'चत्तदेहो उ'१४ ।
सोणियगंधेण पिवीलियाहि जह 'चालणिव्व कतो'१५ ॥ ४४२३. जध सो कालायसवेसिओ६, वि मोग्गल्लसेलसिहरम्मि१७ ।
खइतो विउव्विऊणं, देवेण सियालरूवेणं१८ ॥ ४४२४. जह सो वंसिपदेसी१९, वोसट्ठ-निसट्ठ२० 'चत्तदेहो उ'२१ ।
वंसीपत्तेहि२२ विणिग्गतेहि आगासमुक्खित्तो२३ ॥ ४४२५. जधऽवंतीसुकुमालो, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहो ऊ ।
धीरो सपेल्लियाए , सिवाय२४ खइओ तिरत्तेणं२५ ॥ ४४२६. जध ते गोट्ठट्ठाणे, वोसट्ठ-निसट्ठ-चत्तदेहागा ।
'उदगेण वुज्झमाणा२६, 'वियरम्मि उ'२७ संकरे लग्गा ॥ ४४२७. बावीसमाणुपुव्वी२८, तिरिक्ख२९ मणुया व भंसणत्थाए ।
विसयाणुकंपरक्खण, करेज्ज देवा व मणुया वा ॥
१. जंतेहि करकएहि व सत्थेहि (जीभा ५३०)। २. विद्धंसते (ब)।
निभा (३९६६) में यह गाथा कुछ अंतर के साथ मिलती हैजंतेण कतेण व सत्येण व सावतेकेहि विविधेहिं ।
देहे विद्धंसते, ण य ते ठाणाहि उ चलंति ।। ५. ० णीयाए (अ), पडिणीयता य (निभा ३९६७)। ६. सि पदेज्ज असुभपरिणामो (जीभा ५३१) । ७. . गमण (निभा)। ८. जइ (निभा)। ९. वा करिसे (अ)। १०. खेलतेहि (निभा ३९६८)। ११. विणिहिता (निभा), विहणित्ता (जीभा ५३२), विहिणित्ता (स)। १२. महुधित ० (स)। १३. x (ब) १४.० देहाओ (जीभा ५३३)। १५. वालंकिओ धीरो (ब, स), चालंकिओ धीरो
(क. अ. निभा ३९६९)।
१६. कालायवेसितो (ब)। १७. जीभा (५३४) में इसका पूर्वार्द्ध इस प्रकार है
मोगल्लसेलसिहरे, जह सो कालासवेसिओ भगवं । १८. निभा ३९७०। १९. ० पदेसे (निभा ३९७१)। २०. णिसिट्ठ () २१. ० देहाओ (जीभा ५३५), ० देहो ऊ (क)। २२. वंसीपातेहिं (जीभा)। २३. ० मुज्झित्तो (जीभा) । २४. सिवाते (निभा ३९७२)। २५. जीभा ५३६ । २६. ० गेणु वुब्भ० (जीभा ५३७), ० गेण वुब्भ (ब, क)। २७. वियरम्मी (जीभा) वयकरम्मि (अ, निभा ३९७३),
विकरम्मि (स)। २८. ० स आणु० (जीभा ५३९), • माणुपुचि (निभा ३९७४) । २९. तेरिक्ख (ब, क)। ३०. संसण० (ब) भेंसणया (निभा)।
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________________
४२२ ]
१.
२.
३.
४.
५.
जह सा बत्तीसघडा, वोसट्ट - निसट्ट - चत्तदेहा उ I धीरा घाएण उ दीविएण डिलयम्मि
ओलइया
॥
तं ।
सेवियमुदारं ॥ दारं ॥
॥
11
1
F
एवं पादोवगमं निप्पडिकम्मं तु तित्थगर - गणहरेहि य, साहूहि य एसाऽऽगमववहारो जधोवएस जधक्कमं कधितो । एतो सुतववहारं, सुण वच्छ ! जधाणुपुव्वीए ४४३१. निज्जूढं चोपुविण जं भद्दबाहुणा सुतं । पंचविधो ववहारो, दुवालसंगस्स णवणीत ४४३२. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं न याति कप्पे ववहारम्मि य, 'सो न११ पमाणं सुतधराणं ॥ ४४३३. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च निउणं वियाणाति कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं १२ 11 कप्पस्स य निज्जुत्ति, ववहारस्सेव परमनिउणस्स । जो अत्थतो न जाणति, 'ववहारी सो१३ णऽणुण्णातो ॥ कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमनिउणस्स जो अत्थतो १४ विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो १५ ४४३६. तं चेवऽणुमज्जंते१६, ववहारविधि पउंजति हुतं एसो सुतववहारी, पण्णत्तो • ४४३७. एसो सुतववहारो, जहोवएसं जहक्कमं आणाए ववहारं सुण वच्छ ! जहक्कमं समणस्स उत्तिमट्ठे ९, सल्लुद्धरणकरणे दूरस्था भवे, छत्तीसगुणा उ
1
11
जत्थ
४४२८.
४४२९.
४४३०.
४४३४.
४४३५.
४४३८.
• देहागा (जीभा, ५३८) ।
दियतंमि (स), दिलयम्मि (अ) ।
निभा (३९७४) में इसका उत्तरार्ध इस प्रकार है
धीरागतेण उ दीवितेण दिगलम्मि ओलइया ।
पातोव० (अ) पाउव० (क) । जिणेहि पण्णत्तं (जीभा ५५७),
• तु णीणयं सुत्ते (निभा ३९७५) ।
अहाणु० (ब), ० पुव्वाणं (क) जीभा ५५९
७.
६, जहोव ० (अ) ।
८.
९.
निव्वूढं (स) ।
जीभा ५६० ।
धीरपुरिसेहिं
कहितो १
वोच्छं १८
७
१२. जीभा ५६२ ।
१३. सो ववहारी (जीभा ५६३) ।
१४. अस्थितो (क) ।
१५. जीभा ५६४ ।
||
अभिहस्स । आयरिया २०
१६.
१७. कहिउं (अ)।
१८. जीभा ५६५ ।
१९. उत्तमट्ठे (ब, क) । २०. जीभा ५६६ /
।
॥ नि. ५५२ ॥
1
१०. याणाति (जीभा ५६१), वियाणाति (स) ।
११. ण सो (जीभा), सो उ (स) ।
० णुसज्जतो (क), ० मज्जंता (अ) ।
व्यवहार भाष्य
॥ नि. ५५३ ॥
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[ ४२३
दशम उद्देशक ४४३९. अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे कारणं तु उप्पण्णं ।
अट्ठारसमन्नतरे, वसणगते इच्छिमो आणं' नि. ५५४ ॥ ४४४०. अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं ।
आगंतु न चाएती, सो सोहिकरो वि देसातोरे ॥ ४४४१. अध पट्ठवेतिरे सीसं, देसंतरगमणनट्ठचट्ठागो ।
इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि ॥ ४४४२. सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं ।
एयस्स दाणि पुरतो, 'करेति सोहिं" जहावत्तं ॥ ४४४३. अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा ।
रुक्खे य बीजकाए, सुत्ते वाऽमोहणाधारि ॥ ४४४४. दट्ठ महंत महीरुह, गणिओ° रुक्खे विलग्गउं डेव ।
अपरिणय बेति ‘तहिं न, वट्टति रुक्खे तु आरोढुं१२ ॥ ४४४५. किं वा मारेतव्वो, अहयं तो बेह'३ डेव रुक्खातो ।
अतिपरिणामो भणती, . इय होऊ४ अम्ह वेसिच्छा५ ॥ ४४४६. बेति गुरू 'अह तं तू"६ अपरिच्छियत्थे१७ पभाससे“ एवं ।
किं व मए तं१९ भणितो, आरुभ रुक्खे तु सच्चित्ते? ॥ ४४४७. तव-नियम-नाणरुक्खं, आरुभिउं भवमहण्णवावण्णं२० ।
संसारगडुकूलं२१, डेवेहि ती मए भणितो'२२ ॥
१. जीभा. ५६७।
देसा उ (ब), जीभा (५६८) में ४४४० एवं ४४४१ गाथाओं के स्थान पर निम्न गाथा मिलती हैअपरक्कमो तवस्सी, गंतु न चतेइ सोहिकरमूलं ।
सीसं पेसेति तहि, जहिच्छ सोहिं तुमसमीवे ।। ३. पत्थवेइ (अ, ब)। ४. य परक्क ० (अ, ब, स)।
करे विसोहि (स)। जीभा (५६९) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है
णातु तहिं जो जोग्गो, इमेण विहिणा परिच्छित्ता । ७. धारी (स), जीभा ५७० । ८. महल्ल (जीभा)। ९. महिरुहे (अ)।
१०. भणितो (जीभा)। ११. वि (ब)। १२. तयो णो वट्टति रुक्खे आरोढुं (जीभा ५७१) । १३. बेव (अ)। १४. होतू (अ)। १५. जीभा ५७२ । १६. अहय तू (क)। १७. अपरिगयत्थे (ब)। १८. अ भाससे (अ, जीभा ५७३)। १९. तो (अ, क) य (स)। २०. ० वावत्तं (जीभा) ० महण्णवे वत्तं (ब, क)। २१. संसारागडमूलं (जीभा), संसारगत्त ० (ब)। २२. डेवेहि मए तुम भणितो (जीभा ५७४) ।
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४२४ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
४४४८.
४४४९.
किं पुण पंचेंदीणं, तं भवियव्वेत्थ कारणेणं तु । आरु भण* ववसियं तू वारेति
॥
11
एवाऽऽह बीयाइं भणिते पडिसेध" अपरिणामो तु । अतिपरिणामो पोट्टल', बंधूणं आगतो तत्थ " ४४५१. ते वि भणिया गुरूणं, मऍ भणियाऽऽणेह अंबिलीबीए" न विरोधसमत्थाई, सच्चित्ताई व भणिताई १२
४४५०.
४४५२.
४४५५.
11
वा,
11
||
" तत्थ वि३ परिणामो तू१४, भणती" आणेमि " केरिसाइं तू । कित्तियमित्ताइं १७ विरोहमविरोहजोग्गाई ॥ ४४५३. सो वि गुरूहिं भणितो, न ताव कज्जं पुणो भणीहामि हसितो व मए 'ता वि१९, 'वीमंसत्थं व भणितो सि ४४५४. पदमक्खरमुद्देसं, संधी-सुत्तत्थ-तदुभयं चेव२१ । अक्खरवंजणसुद्धं, 'जह भणितं २२ सो २३ परिकहेति २४ एवं २५ परिच्छिऊणं, जोरगं णाऊण पेसवे तं वच्चाहि तस्सगास २६, सोहिं सोऊणमागच्छ २७ || अध सो गतो उ तहियं, तस्स सगासम्म सो करे सोधि दुग-तिग- चऊविसुद्ध २८, तिविधे काले विगडभावो २९ ॥ ४४५७. दुविहं तु दप्प - कप्पे, दव्वे खेत्ते काले,
तु 1
४४५६.
वि (क) ।
जीभा. ५७५ ।
भवेय ० (अ)।
जो पुण परिणामो खलु, आरुह भणितो तु' सो वि चिंतेती । पावमेते, जीवाणं थावराणं
च्छंति
पि
आरभण (ब, क) ।
sai ( जीभा ५७६), गुरु ववत्थंभे (अ), गुरुधुवत्थंभे (ब) ।
एवाणेह य (क, ब)।
० सेधे (ब)।
७.
८.
तू ( अ, स) ।
९.
पुट्टिल (ब, क) ।
१०. तहियं (स), जी भा. ५७७ ।
११. अबिलिबीयाई (अ, स) ।
१२. गाथा का पूर्वार्द्ध जीभा (५७८) में इस प्रकार है
पच्चाह गुरू ते तू, जहोदियाणेह अंबिलीबीए ।
१३. वि ( स ) ।
१४.
परिणामगो ह तत्थ वि (जीभा ५७९) । हु १५. भणइ (ब, क) ।
तिविहं नाणादिणं तु भावे य चउव्विधं
१६.
आणेमु (क)।
१७. कत्तिय० (ब) ।
१८. हणी ० (अ)।
१९. वा वि(ज)
२०.
२५.
२६.
अट्ठाए
एयं ३०
11
एव (अ) ।
तस्सेगासं (ब, क) ।
● आगच्छ ( जीभा ५८२) ।
1
२७.
२८. चउव्विहसुद्धं (अ, ब)
२९. जीभा ५८३ |
३०. जीभा ५८४ ।
२१.
पुट्ठो (जीभा ।
२२. जहा भणित (स) ।
२३. मे (ब)।
२४. कहेति सव्वं जहा भणितं (जीभा ५८१) ।
1
इस गाथा का उत्तरार्ध ब और क प्रति में नहीं है, जीभा ५८० ।
I
11
व्यवहार भाष्य
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४
५.
६.
७.
८.
९.
तिविधं अतीतकाले, पच्चुप्पण्णे ' व सेवितं जं तु । सेविस्सं वा एस्से, पागडभावो विगडभावो 11 किं पुण आलोएती, अतियारं सो इमो य अतियारो । वयछक्कादीओ खलु, नातव्वो आणुव्व ॥ वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंक- निसेज्जा य, सिणाणं सोभवज्जणं 11 तं पुण होज्जाऽऽसेविय, 'दप्पेणं अहव होज्ज कप्पेणं । दप्पेण दसविधं तू, इणमो वोच्छं समासे ॥
दप्प अकप्प निरालंब, चियत्ते अप्पसत्थ अपरिच्छ अकडजोगी, अणाणुतावी' य ४४६३. एयं दप्पेण भवे, इणमन्नं कप्पियं चडवी सतीविहाणं, तमहं वोच्छं समासेणं ॥
व्वं ।
४४५८.
४४५९.
४४६०.
४४६१.
४४६२.
४४६४. दंसण-नाण-चरित्ते,
४४६५. संघस्सायरियस्स य
उदयग्गि-चोर - सावय,
४४६८.
तिविहं (जीभा ५८५) ।
विसेसियं (अ) |
० छक्का ते (ब) ।
जीभा ५८६ ।
जीभा ५८७ ।
जीभा ५८८ ।
तव-पवयण-समिति-गुत्तिहेडं
वा 1
साहम्मियवच्छल्लेण वावि कुलतो गणस्सेव 11
असहुस्स गिलाण - बालवुडस्स । भय-कंतारावती वसणें ११
11
नाण-चरण- सालंबो ।
११३
४४६६. एयऽन्नतरागाढे, सदस पडिसेविउ १२ काई, होति 'समत्थो पसत्थेसु” ॥ ४४६७. ठावेउ१४ दप्पकप्पे, हेट्ठा दप्पस्स दसपदे ठा I कप्पाधो चउवीसति, 'तेसिमहऽट्ठारसपदा उ१५ 11
पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा १६ । पढमे छक्के अब्भिंतर १७ तु पढमं भवे ठाणं१८
वासत्थे (अ) ।
० ताविय (स) ०णुयावी (ब) । णीसंको (जीभा ५८९) ।
•
वीसत्थे I
णिस्संको
11
१०. कुलयो (जीभा ६०१), कुणतो (अ, क) ।
११. जीभा ६०२ ।
१२. परिसे० (क, अ)।
१३. पसत्थो पस० (जीभा ६१५) ।
१४. ठावेत्तु (जीभा ६१७) ।
१५. ० पयाइं (क) ।
१६. जंतु (स) सर्वत्र ।
१७. अब्भं ० (स) सर्वत्र ।
१८. जीभा ६१८ ।
[ ४२५
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४२६ ]
व्यवहार भाष्य
४४६९ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा' ।
पढमे छक्के अन्भिंतरं तु बीयं भवे ठाणं ॥ ४४७०. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा ।
पढमे छक्के अभितरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ४४७१. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
बितिए छक्के अभितरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ ४४७२. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
बितिए छक्के अभितरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ४४७३. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
ततिए छक्केरे अभितरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ ४४७४. पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
ततिए छक्के अभितरं तु सेसेसु वि पदेसु ॥ ४४७५. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
पढमे छक्के अभितरं तु पढमं भवे ठाण६ ॥ ४४७६. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
पढमे छक्के अभितरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ४४७७. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
बितिए छक्के अभितरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ ४४७८. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
बितिए छक्के अभितरं तु सेसेसु वि पएसु ॥ ४४७९. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
ततिए छक्के अभितरं तु पढमं भवे ठाणं ॥ ४४८०. बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा ।
ततिए छक्के अभितरं तु सेसेसु वि पएसु ॥
१. जंतु (मु) सर्वत्र। २. छठे (अ)। ३. वि (अ, क)।
६. जीभा ६२७। ७. ४४७७ से ४४८० तक की चारों गाथाएं हस्तप्रतियों में नहीं
मिलती हैं। केवल टीका की मुद्रित प्रति में प्राप्त है । विषयवस्तु के क्रम में ये यहां संगत प्रतीत होती है।
इसके बाद हस्तप्रतियों में 'एया चेव परिवाडी एत्थुग्गहो उ भाणियव्वाओ' का उल्लेख मिलता है।
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दशम उद्देशक
[४२७
४४८१. पढमं कज्जं नामं, निक्कारणदप्पतो' 'पढमं पदं २ ।
___ पढमे छक्के पढम, पाणइवाओ मुणेयव्वोः ॥ ४४८२. “एवं तु मुसावाओ, अदिन'-मेहुण-परिग्गहे चेव ।
बिति छक्के पुढवादी, 'तति छक्के होयऽकप्पादी" ॥ ४४८३. निक्कारणदप्पेणं, अट्ठारसचारियाइ एताई ।
एवमकप्पादीसु वि, एक्केक्के होति अट्ठरस० ॥ ४४८४. बितियं कज्जं कारण१, पढमपदं तत्थ दंसणनिमित्तं ।
'पढमं छक्क'१२ वयाई, तत्थ वि पढमं तु पाणवहो ॥ ४४८५. दंसणमणुमुयंतेण३, पुवकमेणं तु चारणीयाइं१४ ।
अट्ठारसठाणाई, एवं नाणादि एक्केक्के ॥ ४४८६. चउवीसऽट्ठारसगा, एवं एते हवंति कप्पम्मि ।
दस होति अकप्पम्मी१६, सव्वसमासेण मुण१७ संखं८ ॥ ४४८७. सोऊण तस्स पडिसेवणं तु आलोयणं९ कमविधिं व२० ।
आगमपुरिसज्जातं२१, . परियागबलं च खेत्तं च२२ ॥ ४४८८. आराहेउं सव्वं, सो गंतूणं पुणो गुरुसगासं ।
तेसि निवेदेति तधा, जधाणुपुब्बिं गतं सव्वं२३ ॥ ४४८९. सो ववहारविहिण्णू, अणुमज्जित्ता सुतोवदेसेणं ।
सीसस्स देति२४ आणं, तस्स इमं देहि पच्छित्तं ॥नि. ५५५ ॥
१. रणेद (अ)।
पढमापदं (अ, ब)। जीभा (६२९) में यह गाथा कुछ अंतर से इस प्रकार मिलती हैपढमं ठाणं दप्पो, दप्पो च्चिय तस्स वी भवे पढम । पढमं छक्कवयाई, पाणऽतिवाओ तहिं पढमं ॥ बितियस्स (स)। अदत्त (जीभा ६३०)।
बितिय (अ)। ७. ततिय छक्के अकप्पादी (ब, स)। ८. गाथा का पूर्वार्द्ध जीभा (६३१) में इस प्रकार है
एवं दप्पफ्यम्मी, दप्पेणं चारिया उ अट्टरस । ९. एवं कप्पा.(अ)। १०. होंतिमट्ठ० (जीभा), होंति अट्ठारस (ब, स)। ११. कप्पो (जीभा ६३२)। १२. पढम छक्के (ब)। १३. दंसण अणुम्मुयंतो (स, जीभा ६३३)।
१४. चारिणी० (अ, ब)। १५. ० अट्ठार० (जीभा ६३४) । १६. ० प्पम्मि (अ, ब, स)। १७. पुण (ब)। १८. संखा (ब, क), इस गाथा के बाद जीभा (६३५) में निम्न अतिरिक्त
गाथा मिलती हैदणाऽऽसीयसतं, गाहाणं कप्पे होंति चत्तारि ।
बत्तीसाऽऽयातेते, छस्सय होती तु बारस य ।। १९. ० यणा (ब)। २०. तु (मु)। २१. ०ज्जाइं (स)। २२. जीभा. ६३६ । २३. सव्वा (अ), इस गाथा के स्थान पर जीभा (६३७) में निम्न गाथा
मिलती हैअह सो गतो सदेसं, संतस्साऽऽलोइयल्लयं सव्वं ।
आयरियाण कहेती, परियागबलं च खेत्तं च ॥ २४. देह (जीभा ६३८)।
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४२८ ]
१.
२.
३.
४.
५.
६.
४४९०.
पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं नक्खत्ते भे पीला, 'चउमासतवं कुणसु सुक्के ॥ ४४९२. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता | नक्खत्ते भे पीला, छम्मासतवं कुणसु सुक्के ॥ ४४९३. " एवं ता" उग्घाए, अणुघाते ताणि चेव कि हम्म । मासे चउमास-छमासियाणि छेदं अतो छं॥ ४४९४. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं नक्खत्ते भे पीला, कण्हे मासं तवं
कुज्जा पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता I नक्खत्ते भे पीला, 'चउमासतवं कुणसु किन्हे ॥ ४४९६. पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता 1 नक्खत्ते भे पीला, छम्मासतवं कुणसु किण्हे 11 ४४९७. छिंदंतु व तं भाणं, गच्छंतु 'य तस्स १० साधुणो मूलं । 'अव्वावडा व ११ गच्छे, अब्बितिया वा पविहरंतु १२ ॥ ४४९८. छब्भागंगुलपणगे, दसराय १३ तिभाग अद्धपण्णरसे । छब्भागूणं तु पणुवीसे १४ ॥ अंगुल चउरो तहेव छच्चेव । जहक्कमेणं तु ॥
नायव्व १५
४४९१.
४४९५.
पढमस्स य कज्जस्सा, दसविहमालोयणं निसामेत्ता 1 नक्खत्ते 'भे पीला", सुक्के 'मासं तवं
कुणसु 11
निसामेत्ता ।
४४९९.
वीसाय तिभागूणं, मास - चउमास छक्के, एते छेदविगप्पा,
पीला भे (जीभा ) सर्वत्र ।
पण तवं कुह (जीभा ६३९) ४४९० से ४४९६ तक की गाथाओं के क्रम में जीभा में चार गाथाएं अतिरिक्त मिलती हैं। देखें - जीभा ६४० से ६४३ तक ।
चाम्मासं कुह सुक्के (जीभा ६४५), सुक्के मासं तवं कुणसु
(स) ।
कुणह (जीभा ६४७, क, स) 1
ताव ता (स)।
जीभा (६४४) में यह गाथा इस प्रकार मिलती है
एवं ता उग्घाए, अणुघाए एत चेव गाहाओ ।
वरं तू अभिलावो, किण्हे पणगादि वत्तव्वो ॥
निसामेत्ता 1
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
परिहरंतु (ब, क, जीभा ।
१३. ० राते (अ), दसगए (ब)।
१४.
१५.
चाम्मासं कुह (जीभा ६४६) ।
कुह (जीभा ६४८) ।
छिंदित्तु (ब, क) ।
तवस्स (क, जीभा ६४९) ।
अव्वावारा (जीभा)
II
० वीसाए (ब), पण० (अ) ० वीसा (क) ।
नायव्वा (ब) ।
व्यवहार भाष्य
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[ ४२९
दशम उद्देशक ४५००. बितियस्स य कज्जस्सा, तहियं चउवीसति' निसामेत्ता' ।
नवकारेणाउत्ता', भवंतु एवं भणेज्जासी । ४५०१. एवं गंतूण तहिं, जधोवदेसेण देति पच्छित्तं ।
'आणाय एस भणितो, ववहारो'५ धीरपुरिसेहिं नि. ५५६ ॥ ४५०२. एसाऽऽणाववहारो, जहोवएसं जहक्कम भणितो ।
धारणववहारं पुण, सुण वच्छ ! जहक्कम वोच्छं ॥ ४५०३. उद्धारणा विधारण, संधारण संपधारणा'० चेव ।
'नाऊण धीरपुरिसा, धारणववहार तं११ बेंति१२ ॥नि. ५५७ ।। ४५०४. पाबल्लेण उवेच्च ३ व, उद्धियपयधारणा उ उद्धारा५ ।
विविहेहि पगारेहिं, 'धारेयऽत्थं विधारो उ१६ ॥ ४५०५. सं एगीभावम्मी१७, ‘धी धरणे१८ ताणि एक्कभावेणं १९ ।
धारेयऽत्थपयाणि२० तु, तम्हा संधारणा२१ होति ॥ ४५०६. 'जम्हा संपहारेउं, ववहारं पउंजती२२ ।
__ तम्हा कारणा२३ तेण, नातव्या संपधारणा'२४ ॥ ४५०७. धारणववहारेसो, पउंजियव्यो उ केरिसे पुरिसे? ।
भण्णति गुणसंपन्ने, जारिसए तं 'सुणेह त्ति'२५ ॥ ४५०८. पवयणजसंसि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि ।
सुस्सुयबहुस्सुयम्मि२६ य, वि वक्कपरियागसुद्धम्मि२७ ॥नि. ५५८॥
१. ० वीसगं (अ, स, जीभा)। २. वियाणित्ता (जीमा ६५२) । ३. नमोक्कारे आउत्ता (अ, ब, स) । ४. देहि (जीभा ६५३)।
आणाए ववहारो भणिएसो (जीभा)। ६. कधितो (स)। ७. ० हारो (अ, क)। ८. जीभा.६५४ । ९. विहारण (जीभा)। १०. संपहारणा (जीभा, ब), सप्पधा० (क), संपसारणा (अ)। ११. ते (स)। १२. गाथा का उत्तरार्ध जीभा (६५५) में इस प्रकार है
धारणववहारस्स उ, णामा एगट्ठिता एते ।। १३. उवेक्क (ब)।
१४. उट्ठियपय० (ब, स)। १५. उद्धारो (जीभा ६५६)। १६. धारेयव्वं विधारो उ (ब)। १७. ० भावम्मि (अ, ब)। १८. १५ धरणे (आ), धू धरणे (ब, स)। १९. एवभा० (जीभा ६५७)। २०. धारे तत्थ पदाणि (अ)। २१. साहारणा (स)। २२. गाथा का पूर्वार्द्ध अप्रति में नहीं है। २३. कारणे (ब, जीभा ६५८)। २४. .०व्वं संपधारणया (अ.स)। २५. सुणेहि ति (अ, क, स), जीभा. ६५९ । २६. सुसुत्तब ० (स)। २७. ० वुड्डिम्मि (अ, ब, क), ० बुद्धिम्मि (जीभा ६६०)।
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४३० ]
व्यवहार भाष्य
४५०९. एतेसु धीरपुरिसा, पुरिसज्जातेसु किंचि खलितेसु ।
रहिते 'वि धारइत्ता', जहारिहं देंति पच्छित्तं ॥नि. ५५९ ।। ४५१०. रहिते नाम असंते, आइल्लम्मि२ ववहारतियगम्मि ।
ताहे “वि धारइत्ता', वीमसेऊण जं भणियं ॥ ४५११. पुरिसस्स उ अइयारं', विधारइत्ताण जस्स जं अरिहं ।
तं 'देंति उ पच्छित्तं, केणं देंती उ तं सुणह ॥ ४५१२. जो धारितो सुतत्थो, अणुयोगविधीय धीरपुरिसेहिं ।
आलीणपलीणेहि, जतणाजुत्तेहि दंतेहिं १ ॥नि. ५६० ॥ ४५१३. अल्लीणा'२ णाणादिसु, पइ पइ लीणा उ होंति पल्लीणा३ ।
कोधादी वा पलयं, जेसि गता ते पलीणा उ ॥ ४५१४. 'जतणाजुओ पयत्तव"४, दंतो जो उवरतो तु पावेहिं ।
अहवा 'दंतो इंदियदमेण१५ नोइंदिएणं च६ ॥ ४५१५. अहवा 'जेणऽण्णइया, दिट्ठा' १७ सोधी परस्स कीरंति८ ।
तारिसयं९ चेव पुणो, उप्पन्नं कारणं तस्स२० ॥ ४५१६. सो तम्मि चेव दवे, खेते काले य कारणे२१ पुरिसे ।
तारिसयं अकरेंतो, न हु सो आराहओ होति२२ ॥ ४५१७. सो तम्मि२३. चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे ।
तारिसयं चिय भूतो, 'कुव्वं आराहगो२४ होति२५ ॥
विहार ० (जीभा ६६१), वि धरेइत्ता (अ, ब)। २. आतिल्ल० (जीभा ६६२) । ३. वि धरेइत्ता (अ, ब)। ४. वीमसे० (ब)। ५. अवराहं (जीभा)।
भणितं (जीभा)। ७. देति उ(स), देति (जीभा), दितु व (क)। ८. जेणं (ब)। ९. सुणहा (आ), सुणसु (जीभा ६६३)। १०. अल्लीणप ० (अ)। ११. जीभा ६६४। १२. अल्लीण (अ)। १३. पलीणा (अ, स,जीभा ६६५)। १४. ० जुत्तो पयत्तवं (स, जीभा ६६६)।
१६. इस गाथा के बाद जीभा (६६७) में निम्न गाथा अतिरिक्त
मिलती हैएरिसया जे पुरिसा, अत्थधरा ते भवंति जोग्गा उ।
धारणववहारण्णू, ववहरिउं धारणाकुसला ।। १७. जेणं ईयादिट्ठा (जीभा ६६८)। १८. कारंति (ब), कीरंतो (स)। १९. तारिसं तं (स)। २०. तस्सा (अ, ब, क)। २१. कारणा (ब)। २२. जीभा. ६६९। २३. तं पि (मु)। २४. कुव्वंतो राहओ (जीभा ६७०), २५. इस गाथा के बाद जीभा (६७१) में निम्न गाथा अतिरिक्त
मिलती हैअहवा वि इमे अण्णे, धारणववहारजोग्गयमुर्वेति । धारणववहारेणं, जे ववहारं ववहरति ।।
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
वा,
४५१८. वेयावच्चकरो दुम्मेहत्ता न तरति
सीसो
वा देसहिंडगो वावि !
४५१९. तस्स उ उद्धरिऊणं,
अवधारेउ' बहु जो तु ॥ अत्थपयाइं तु देंति आयरिया 1 जेहिं करेति " कज्जं, आधारेंतो तु सो देसो ॥ ४५२०. धारणववहारो 'सो, अधक्कमं६ वण्णितो समासेणं । जीतेणं ववहारं, सुण वच्छ ! जधक्कमं वुच्छं ॥ ४५२१. वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो अणुवत्तिओ" महाणं । एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होति ववहारो ४५२२. वत्तो णामं एक्कसि, अणुवत्तो जो पुणो बितियवारे १० ततियव्वारे पवत्तो परिग्गहीओ
1
महाणेणं १२
11
पुरिसजुगे ।
४५२३. चोदेती १३ वोच्छिन्ने, सिद्धिपहे ततियगम्मि वोच्छिन्ने तिविहे संजमम्मि जीतेण ववहारो ॥नि. ५६२ ।।
४५२४. संघयणं ‘संठाणं च ववहारे 'चउक्कं
४५२६.
४५२५. आहायरिओ १६ एवं ववहारचउक्क 'जे उ१७ वोच्छिन्नं । चउदस पुव्वधरम्मी", घोसंती तेऽणुग्घा १९ ॥ जे भावा जहियं पुण, चोद्दसपुव्विम्मि २० जंबुना वोच्छिन्ना ते इणमो, सुणसु समासेण सीसंते ४५२७. मणपरमोहिपुलाए, आहारग-खवग १ - उवसमे
कप्पे 1 संजम तिय केवलिसिज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना ||
आहारेउ ( अ, क), आराहेउं (स) ।
बहू (जीभा ६७२) ।
जस्स (जीभा ६७३) ।
पढमगं १४ जो य पुव्ववओगो । पि १५, चोद्दसपुव्वम्मि वोच्छिन्नं ॥
जेहि उ (ब) ।
करेहि (जी भा) करेंति (स), कीरइ (अ)।
खलु जह० (जीभा ६७४) ।
अणुयत्तिओ (अ), ० यट्टिओ (स), आसेवितो (जीभा ६७५) ।
महाजणेण (अ) ।
७.
८.
९.
य (अ, ब) ।
१०.
० वारं (ब, क)।
११. ततियवारं (क) ।
१२. जीभा ६७६, गा. ४५२३ से ४५३२ तक की १० गाथाएं जीभा
में अनुपलब्ध हैं। इनके स्थान पर जीभा (६७७) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती है
॥नि. ५६१ ॥
१५. १६. आहारिऊ (अ) । १७. जो य (क) ।
१८.
० धरम्मिं (ब, स)। १९. तेऽणुग्धाया ( ब, क ) ।
२०.
o • पुव्वम्मि (अ)।
२१.
० खवग सेढि (ब)।
बहुसो बहुस्सुएहि, जो वत्तो ण य णिवारितो होति ।
वत्तऽ णुपवत्तमाणं, जीएण कतं हवति एयं ॥ १३. चोदेति (ब) ।
१४. संठाणगं पढमं (ब, क) ।
० क्कम्मि य (ब)।
I
11
[ ४३१
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४३२ ]
व्यवहार भाष्य
४५२८. संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो' ।
एते तिन्नि वि अत्था, चोद्दसपुस्विम्मि वोच्छिन्ना ॥ ४५२९. केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा ।
चोद्दस-दस-नवपुवी, आगमववहारिणो धीरा'२ ॥नि. ५६३ ॥ ४५३०. सुत्तेण ववहरंते, कप्पव्यवहार धारिणा धीरा ।
अत्थधरववहरते, आणाए धारणाए य ॥नि. ५६४ ।। ४५३१. ववहारचउक्कस्सा, चोद्दसपुब्विम्मि छेदो जं भणियं ।
तं ते मिच्छारे जम्हा, सुत्तं अत्यो य धरए उ ॥नि. ५६५ ।। ४५३२. तित्थोगाली एत्थं, वत्तव्वा होति आणुपुल्वीए ।
'जो जस्स" उ अंगस्सा वुच्छेदो जहि विणिद्दिट्ठो ॥ ४५३३. जो 'आगमे य सुत्ते" य सुन्नतो आणधारणाए य ।
सो ववहारं जीएण, कुणति वुत्ताणुवत्तेण ॥नि. ५६६ ॥ ४५३४. अमुगो अमुगत्थ कतो, जह' अमुयस्स अमुएण ववहारो ।
अमुगस्स वि य तह कतो, अमुगो अमुगेण ववहारो० ॥ ४५३५. तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधि पउंजति जहुत्तं ।
जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं ॥ ४५३६. धीरपुरिसपण्णत्तो, पंचमगो आगमो विदुपसत्थो ।
पियधम्मऽवज्जभीरू, पुरिसज्जायाऽणुभिणो य२ ॥ ४५३७. सो जह कालादीणं, अप्पडिकंतस्स निविगइयं तु ।
मुहणंत फिडिय पाणग, ऽसंवरणे१३ एवमादीसु ॥ ४५३८. एगिदिऽणंत ४ वज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ गाढे य ।
निविगितयमादीयं, 'जा आयामं तु उद्दवणे १५ ॥ ४५३९. विगलिंदऽणंत घट्टण, ‘तावऽणगाढे य गाढ उद्दवणे१६ ।
पुरिमड्डादिकमेणं, नातव्वं जाव खमणं तु ॥
१.
om
० ओग (स)। धारिते कप्पववहारं (ब)। मिच्छ (क, ब)।
जे तस्स (क)। अनस्सा (ब)। गाथायां सप्तमी प्राकृतत्वात् तृतीयाथे (मवृ)। कुणती (जीभा ६७८)। जहा (स)।
१०. जीभा (६७९) और ब प्रति में यह गाथा इस प्रकार मिलती है
असुतो असुयत्थकतो, जह असुयस्स असुएण ववहारो।।
असुअत्थ विय तह कओ, असुतो असुएण ववहारो ॥ ११. ० णुकज्जतो (जीभा ६८०)। १२. जीभा. ६८१ । १३. असंवरे (जीभा ६८२), असंवरणे (अ) । १४. एगिदियाणंत (क)।। १५. जा आयमन्तमुद्दवणे (जीभा ६८३)। १६. परियावण गाढ गाढ उद्दवणे (जीभा ६८४)।
,
८.
९.
-
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दशम उद्देशक
[ ४३३
४५४०. पंचिंदि घट्ट-तावणऽणगाढ गाढे तधेव उद्दवणे ।
एक्कासण-आयाम', खमणं तह पंचकल्लाणं ॥ ४५४१. एमादीओ एसो, नातव्वो होति जीतववहारो ।
आयरियपरंपरएण, आगतो जाव जस्स भवे ॥ ४५४२. बहुसो बहुस्सुतेहिं, जो वत्तो न य निवारितो होति ।
वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीतेण कयं भवति एयं ॥ ४५४३. जं जीतं सावज्जं, न तेण जीतेण होति ववहारो ।
जं जीतमसावज्जं, तेण उ, जीतेण ववहारो ॥नि. ५६७ ॥ ४५४४. छार हडि' हड्डमाला, पोट्टेण य रंगणं तु सावज्जं ।
दसविहपायच्छित्तं, होति असावज्जजीतं तु ॥ ४५४५. 'उस्सण्णबहू दोसे", निद्धधस पवयणे य निरवेक्खो ।
एयारिसम्मि पुरिसे, दिज्जति सावज्जजीयं पि ॥ ४५४६. संविग्गे पियधम्मे, य अप्पमत्ते अवज्जभीरुम्मि ।
कम्हिइ पमायखलिए, देयमसावज्जजीतं तु ॥ ४५४७. जं जीतमसोहिकरं, न तेण जीएण होति ववहारो ।
जं जीतं सोहिकरं, तेण उ जीएण ववहारो० ॥ ४५४८. जं जीतमसोहिकर, पासत्थ-पमत्त-संजयाचिण्णं ।
जइ वि महाणाइण्णं, न तेण जीतेण ववह्मरो१ ॥ ४५४९. जं जीतं सोहिकर, संवेगपरायणेण१२ दंतेणं ।
एगेण३ वि आइण्णं, तेण उ जीएण ववहारो ॥ ४५५०. एवं जहोवदिट्ठस्स, धीरविदुदेसितप्पसत्थस्स ।
नीसंदो४ ववहारस्स, 'को वि५. कहितो समासेणं ॥ ४५५१. को वित्थरेण वोत्तूण, समत्थो निरवसेसिते.६ अत्थे ।
ववहारो जस्स 'मुहे, हवेज्ज जिब्भासतसहस्सं१७ ॥
मायाम (जीभा ६८५)। जीभा (६८६) में गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार हैअणवज्जविसोहिकरो, संविग्गऽणगारचिण्णो त्ति ।। जीभा. ६८७, इस गाथा के बाद जीभा (६८८) में निम्न गाथा अतिरिक्त मिलती हैकेरिससावज्ज तू, केरिसयं वा पवे असावज? | केरिसयस्स व दिज्जति, सावजवावि? इयर वा? || खार (जीभा), छारे (ब)। हड (ब, क), छडि (जीभा)। रिंगणिं (मु), रिंगणं (जीभा, ६८९) । ओसण्णे बहु ० (ब, जीभा ६९०), उस्सण्णे बहु ० (ब) ।
८. धसे य (ब)। ९. कम्ही (जीभा ६९१)। १०. जीभा६९२। ११.. जीभा ६९३ । १२. संविग्गप ० (स, जीभा ६९४) । १३. एतेण (स)। १४. णिस्संदो (जीभा)। १५. कोति (ब), एस (जीभा ६९५) । १६. ० सेसए (ब, जीभा)। १७. ठिता जीहाण मुहे सत ० (जीभा ६९६)।
४.
७.
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४३४ ]
व्यवहार भाष्य
४५५२. किं पुण गुणोवदेसो, ववहारस्स तु विदुप्पसत्थस्स ।
___ एसो भे परिकहितो', दुवालसंगस्स णवणीतं ॥ ४५५३. ववहारकोविदप्पा, तदढे य नो पमायए जोगे ।
मा 'हु य२ तहुज्जमतो, कुणमाणं एस संबंधो ॥ ४५५४. वुत्ता व पुरिसज्जाता, अत्थतो न वि गंथतो' ।
तेसिं परूवणट्ठाए, तदिदं सुत्तमागतं ॥ ४५५५. पुरिसज्जाया चउरो, विभासितव्वा उ आणुपुव्वीए ।
अट्ठकरे' माणकरे, उभयकरे नोभयकरे य ॥ ४५५६. पढमत्ततिया एत्थं, तू सफला निष्फला दुवे इतरे ।
दिटुंतो सगतेणा, सेवंता अण्णरायाणं ॥ ४५५७. उज्जेणी सगरायाऽऽणीया गव्वा 'न सुट्ट सेवंति ।
वित्तिअदाणं चोज्जं, निव्विसया अण्णनिवसेवा ॥ ४५५८. धावति पुरतो तह मग्गतो य सेवति य आसणं नीयं ।
भूमीए° वि निसीयति, इंगियकारी य१ पढमो उ ॥ ४५५९. चिक्खल्ले अन्नया पुरतो, गतो से१२ एगो नवरि सेवंतो'३ ।
तुटेण तस्स रण्णा, वित्ती उ सुपुक्खला दिन्ना ॥ ४५६०. बितिओ न करेतऽटुं१४, माणं च करेति जातिकुलमाणी५ ।
न निवेसति'६ भूमीए", न य धावति तस्स पुरतो उ ॥ ४५६१. सेवति ठितो विदिण्णे, वि आसणे 'पेसितो कुणति अटुं१८ ।
इति उभयकरो ततिओ, जुज्झति य रणे समाभट्ठो ९ ॥ ४५६२. उभयनिसेध२० चउत्थे, बितिय-चउत्थेहि तत्थ 'न तु'२१ लद्धा ।
वित्ती इतरेहि लद्धा, 'दिटुंतस्स उवणओ'२२ उ ॥
१. ० कहियं (जीभा ६९७)। २. य हु (स) पहु (अ)। ३. गवितो (ब, क)। ४. ०णत्थं (अ)।
अत्थ०(ब, क)।
पढमततिया (अ)। ७. तु (स)। ८. रायं णीय (ब, स)। ९. सुदुट्ट (ब)। १०. भूगीयं (स)। ११. उ(अ)।
१२. भे (स)। १३. सिव्वंतो (अ, क, स)। १४. करेतिटुं (अ, ब)। १५. जाउ कु ० (ब, क)। १६. निवेसविंति (ब)। १७. भूमीय (स)। १८. पेसितो वि कुणतेहूँ (अ, स)। १९. समारुट्ठो (क)। २०. ० निसेहो व (ब)। २१ तु न (अ, स)। २२. दिटुंतस्सुव ० (अ)।
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दशम उद्देशक
[४३५
४५६३. एमेवायरियस्स वि, कोई अटुं करेति न य माणं ।
अट्ठो उ वुच्चमाणो', वेयावच्चं दसविधं तु ॥ ४५६४. अधवा अब्भुट्ठाणं, आसण किति मत्तए य संथारे ।
उववाया य बहुविधा, इच्चादि हवंति अट्ठा उ ॥ ४५६५. बितिओ माणकरो तू, को पुण माणो हवेज्ज तस्स इमो ।
अब्भुट्ठाणऽब्भत्थण, होति पसंसा य एमादी ॥ ततिओभय नोभयतो, 'चउत्थओ तत्थ दोन्नि निष्फलगाई ।
सुत्तत्थोभयनिज्जरलाभो दोण्हं भवे तत्थ ॥ ४५६७. एमेव होंति भंगा, चत्तारि गणट्ठकारिणो जतिणो ।
रण्णो सारूविय देवचिंतगा तत्थ आहरणं ॥ ४५६८. पुट्ठापुट्ठो पढमो, उ साहती न उ करेति माणं तु ।
बितिओ माणं० करेति, पुट्ठो वि न साहती किंचि ॥ ४५६९. ततिओ पुट्ठो साहति, नोऽपुट्ठ चउत्थमेव १ 'सेवति तु१२ ।
'दो सफला५३ दो अफला, एवं१४ गच्छे वि नातव्वा ॥ ४५७०. आहारोवहि५-सयणाइएहि गच्छस्सुवग्गरं कुणती ।
बितिओ माणं उभयं, च ततियओ नोभय-चउत्थो ॥ ४५७१. सो पुण गणस्स अट्ठो, संगहकर'६ तत्थ संगहो दुविधो ।
दव्वे भावे तियगा, उ दोन्नि आहारनाणादी८ ॥ ४५७२. आहारोवहिसेज्जादिएहि दवम्मि संगहं कुणति ।
सीस-पडिच्छे१९ वाए, भावे न तरंति२० जाधि गुरू२१ ॥
१. या (ब)। २. उच्च० (ब, क)। ३. वब्भुट्टणं (अ)।
उवाया व (अ)। चउत्थतो वि (अ)।
निप्पुलगा (अ)। ७. ० रणा (स)। ८. साहति (ब)। ९. x(ब)। १०. माण (स)। ११. चउत्थेणेव (ब, स)।
१२. साहति तो (क)। १३. सेसे फला (ब)। १४. एव्वं (क)। १५. आहार उवहि (अ)। १६. संगहो (ब, क)। १७. नियमा (ब)। १८. ० पाणादी (ब)। १९. परिच्छे (ब)। २०. वरंति (क)। २१. गुरुसु (), गुरुसू उ (ब)।
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४३६ ]
व्यवहार भाष्य
४५७३. एवं गणसोभम्मि' वि, चउरो पुरिसा हवंति नातव्वा ।
सोभावेति गणं खलु, इमेहि ते कारणेहिं तु ॥ ४५७४. गणसोभी खलु वादी, उद्देसे सो उ पढमए भणितो ।
धम्मकहि निमित्ती वा, विज्जातिसएण वा जुत्तो ॥ ४५७५. एवं गणसोधिकरे, चउरो पुरिसा' हवंति विण्णेया ।
किह पुण गणस्स सोधि, करेज्ज सो कारणेमेहिं ॥ ४५७६. एगं दव्वेगघरे, णेगा आलोयणाय संका तु ।
ओयस्सि" सम्मतो संथुतो य तं दुष्पवेपं च ॥ ४५७७. हेट्ठाणंतरसुत्ते, गणसोधी एस सुत्तसंबंधो ।
सोहि त्ति व धम्मो ति व, एगटुं सो दुहा होति ॥ रूवं होति सलिंगं, धम्मो नाणादियं तिगं होति ।
रूवेण य धम्मेण य, जढमजढे भंगचत्तारि ॥ ४५७९. रूवजढमण्णलिंगे, धम्मजढे खलु तधा सलिंगम्मि ।
उभयजढो गिहिलिंगे, दुहओ११ सहितो सलिंगेणं१२ ॥ ४५८०. तस्स पंडियमाणस्स३, बुद्धिलस्स दुरप्पणो ।
मुद्धं पाएण अक्कम्म, वादी वायुरिवागतो ॥ ४५८१. गणसंठिति१४ धम्मे या'५, चउरो भंगा हवंति नातव्वा ।
गणसंठिति अस्सिस्से, महकप्पसुतं न दातव्वं ॥ ४५८२. सातिसयं इतरं वा, अन्नगणिच्चे'६ ण देयमज्झयणं ।
इति१७ 'गणसंठितीए उ१८ करेंति सच्छंदतो केई१९ ॥ ४५८३. पत्ते देंतो पढमो, बितिओ भंगो न२० कस्सइ२१ वि देंतो ।
जो पुण अपत्तदायी, ततिओ भंगो उ तं पप्प ॥
१. ० सोभिम्मि (अ)। २. सेसो ()! ३. पढमातो (ब)।
० सोधीकरे (आ), • सोहीकारो (ब) । ५. पुरिसो (ब)। ६. तू (अ, स)।
ओयासि (अ), उज्जासि (ब)। ८. संवुतो (क)। ९. होतिहि (क)। १०. ०लिंगेण (क)। ११. दुहितो (स)।
१२. ४५७८-४५७९ ये दोनों गाथाएं ब प्रति में नहीं है। १३. ० माणिस्स (स)। १४. ० संथिति (स) ० संठित्ति (क)। १५. य (स), गाथा के प्रथम चरण में अनष्टप छंद है। १६. ० गणव्वे (आ, ० गणेच्चे (ब)। १७, इय (अ, क)। १८. ० संठीतातो (ब)। १९. के त्ति (ब, क)। २०. उ(स)। २१. कस्सति (ब), कस्सइं (अ)।
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दशम उद्देशक
[४३७
४५८४. सयमेव दिसाबंधं, काऊण पडिच्छगस्स जो देति ।
उभयमवलंबमाणं, कामं तु तगं पि पुज्जामो' ॥ ४५८५. धम्मो य न जहियव्वो', गणसंठितिमेत्थर णो पसंसामो ।
जस्स पिओ सो धम्मो, सो न जहति तस्सिमो जोगो ॥ ४५८६. वेयावच्चेण मुणी, उवचिट्ठति संगहेण पियधम्मो ।
उवचिट्ठति दढधम्मो, सव्वेसि निरतियारो य ॥ ४५८७. दसविधवेयावच्चे, अन्नयरे खिप्पमुज्जमं कुणति ।
अच्चंतमणिव्वाही, धिति-विरियकिसे पढमभंगो ॥ ४५८८. दुक्खेण 'उ गाहिज्जति', बितिओ गहितं तु नेति जा तीरं ।
उभयत्तो कल्लाणो, ततिओ चरिमो य पडिकुट्ठो ॥ ४५८९. अदढप्पियधम्माण', तं वि य धम्मो करेंति आयरिए ।
तेसि विहाणम्मि इम, कमेण सुत्तं समुदियं तु ॥ ४५९०. पव्वावणुवट्ठावण १. उभओ तह नोभयं'२-चउत्थो उ ।
अत्तट्ठ-परट्ठा वा, •पव्वावण केवलं.३ पढमे ॥ ४५९१. एमेव य बितिओ वी१४, केवलमेत्तं उवट्ठवे५ सो उ ।
ततिओ पुण उभयं पी, अत्तट्ठ-परट्ठ वा कुणति१६ ॥ ४५९२. जो पुण नोभयकारी, सो कम्हा भवति आयरीओ१७ उ ।
भण्णति धम्मायरिओ, सो पुण गिहिओ व समणो वा ॥ ४५९३. धम्मायरि पव्वावण, तह य उवट्ठावणा८ गुरू ततिओ ।
कोइ तिहिं संपन्नो९, दोहि वि२० एक्केक्कएणं वा ॥
२.
जह
यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में मिलती है । टीकाकार ने भी इसी गाथा की व्याख्या की है। किन्तु टीका की मुद्रित प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा मिलती हैउभयमवलबमाणं, काम तु तगं पि पुज्जामो। सातिसयं देविदोपपातिकादि इतरद्धा ।। जहेय० (अ)।
तिमिच्छतो (अ)। सव्वेहि (अ, क)। • कसे (स)। पढमधम्मो (ब)। ओगाहि० (आ)। अदढ अपिय ० (अ), अदढापिय ० (स)। करिति (क)।
१०. समुदेयं (स)। ११. पव्वावण वुट्ठा० (अ)। १२. नोभए (स)। १३. केवला (क), केवली (स)। १४. ती (अ) १५. उवट्ठते (ब, क)। १६. कुणउ (ब, क)। १७. छंद की दृष्टि से इकार दीर्घ मिलता है। १८. उट्ठावणा (ब)। १९. संपत्तो (क), संपउत्तो (स)। २०. वी (स)।
३. ४.
६.
८. ९.
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४३८
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व्यवहार भाष्य
४५९४. एगो उद्दिसति' सुतं, एगो वाएति तेण उद्दिटुं ।
उद्दिसती 'वाएति य, धम्मायरिओ चउत्थो यः ॥ ४५९५. पडुच्चायरियं होति, अंतेवासी उ मेलणा ।
अंतमन्भासमासन्न, समीवं चेव आहितं ॥ ४५९६. जह चेव उ आयरिया, अंतेवासी वि होंति एमेव ।
अंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो होति ॥ ४५९७. थेराणमंतिए वासो, सो या थेरो इमो तिहा ।
'भूमि ति१० य ठाणं ति य, एगट्ठा होंति कालो य ॥ ४५९८. तिविधम्मि१ व थेरम्मी, परूवणा जा२ जधिं सए ठाणे ।
अणुकंपसुते१३ पूया, परियाए । वंदणादीणि ॥ ४५९९. आहारोवहि-सेज्जा य, संथारे खेत्तसंकमे ।
कितिछंदाणुवत्तीहिं, अणुवत्तंति१४ थेरगं ॥दारं ॥ ४६००. उट्ठाणासण-दाणादी,
जोग्गाहारपसंसणं । नीयसेज्जाय५ निद्देसवत्तितो पूजए सुत्तं ॥ ४६०१. उट्ठाणं वंदणं चेव, गहणं दंडगस्स य६ ।
परियायथेरगस्सा, करेंति१७ अगुरोरवि ॥ ४६०२. तुल्ला 'उ भूमिसंखा१८, ठिता च ठावेंति ते इमे होति ।
‘पडिवक्खतो व सुतं'९, परियाए दीह-हस्से य२० ॥दारं ।। ४६०३. सेहस्स ‘ति भूमीओ'२१, दुविधा परिणामगा दुवे जड्डा ।
पत्त जहंते संभुज्जणा२२ य भूमित्तिग२३ विवेगो ॥नि. ५६८ ॥
१. २. ३. ४.
उद्देसइ (क)। वायणियं (क)। उ(स)। अंतिगमन्भास० (क,स)। माहियं (ब, क)। संते. (स)। होई (अ)। थेराण अंतिए (क, स)।
१३. अणुकंपए (क)। १४. अणुवत्तिति (ब)। १५. ० सेज्जाहि (स)। १६. उ(क)। १७. कारिति (क)। १८. भूमी संखा (क)। १९. x (ब)। २०. या (अ)। २१. वि भूमीओ (अ)। २२. संभुंजणा (अ, स)। २३. भूमिब्विय (ब), भूमित्तय (स) ।
८.
१०. भूमिए त्ति (ब, क)। ११. ०म्मि (स)। १२. जो (अ)।
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
९.
१०.
समासेणं । नायव्वो ॥
आणाए
४६०४. सेहस्स तिन्निभूमी, जहण्ण तह मज्झिमा य उक्कोसा । राइंदिव सत्त चउमासिया छम्मासिया चेव 11 ४६०५. पुव्वोवटुपुराणे, करणजयट्ठा जहण्णिया भूमी । उक्कोसा दुम्मेहं', पडुच्च अस्सहाणं च || ४६०६. एमेव य मज्झमिया, अणहिज्जेते असद्दहंते य / भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठाय मज्झमिया ३ ४६०७. आणा दिट्ठतेण य, दुविधो परिणामगो 'आणा परिणामो खलु तत्थ इमो होति तमेव सच्च नीसंकं, जं जिहिं पवेइयं I एस अक्खातो, जिणेहिं परिणामगो || ४६०९. परोक्खं उगं अत्थं, पच्चक्खेण उ साहयं 1 जिहिं अक्खातो, एस दिट्ठतपरिणामगो ॥ ४६१०. तस्सिदियाणि पुव्वं, सीसंते जइ उ तो से नाणावरणं, सीसइ' ताधे ४६११. इंदियावरणे ९ चेव, 'नाणावरणे तो नाणावरणं चेव, आहितं तु दु सोइंदियआवरणे १२, 'नाणावरणं च १ ३ होति एवं दुयभेदेणं१४ णेयव्वं १५ जाव 'फासो त्ति १६ ४६१३. बहिरस्स उ विण्णाणं, आवरियं१७ न पुण सोतमावरियं । अपडुप्पो बालो, अतिवुड्डो तध असण्णी
तस्सेव
॥
वा 11
४६१४. विण्णाणावरियं तेसिं, 'कम्हा जम्हा १८ उ ते सुणेंता वि I न वि जाणते किमयं ९, सद्दो संखस्स पडहस्स २०
||
४६०८
४६१२.
दुम्मेहिं (क) ।
असद्द ० (ब)।
मज्झिमिया (स) ।
० णामतो (अस) ।
आयाप ० (ब, क) ।
पक्खातो (स) ।
पक्खातो (स) ।
संसेइ (ब, क) ।
० वरणं (ब, क) ।
० वरणा इयं (क) ।
ताणि सद्दहति दसविहं तु
इय १०
पंचधा
1
||
I
11
1
[ ४३९
११. (ब, क) ।
१२. सोइंदियावरणं चेव (ब, क) ।
१३. विण्णाणावरण (अ, ब) ।
१४. दुपयभे० (ब) ।
१५. णायव्वं (मवृ) ।
१६. फास ती (अ) । १७. ० वरिउ (स) । १८. जम्हा तम्हा (स) ।
१९.
किमियं (स) ।
२०.
गाथा के प्रथम चरण में मात्रा अधिक होने से छंदभंग है।
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४४०
]
व्यवहार भाष्य
४६१५. किं ते जीवअजीवा, जीवं ति य एव तेण उदियम्म ।
भण्णति' एव विजाणसु, जीवा चउरिंदिया बेंति । ४६१६. एवं चक्खिदिय-घाण, जिब्भ-फासिंदिउवघातेहिं ।
एक्केक्कगहाणीए', जाव उ एगिदिया नेया ॥ ४६१७. सण्णिस्सिदियघाते वि, तन्नाणं नावरिज्जति ।
विण्णाणं नऽस्य॑ ऽसण्णीणं, विज्जमाणे वि इंदिए ॥ ४६१८. जो ‘जाणति य जच्चंधो, वण्णे' रूवे विकप्पसो ।
नेत्ते वावरिते तस्स, विण्णाणं तं तु चिट्ठति ॥ ४६१९. पासंता वि न जाणंति, विसेसं वण्णमादिणं ।
बाला असण्णिणो चेव, विण्णाणावरियम्मि उ ॥ ४६२० इंदियउवघातेणं, कमसो ‘एगिदि एव संवुत्तो० ।
अणुवहते उवकरणे११, विसुज्झती२ ओसधादीहिं ॥ ४६२१ अवचिज्जते१३ य उवचिज्जते य जह इंदिएहि सो पुरिसो ।
एस उवमा पसत्था, संसारीणिंदियविभागे ॥ ४६२२. परिणामो४ जं भणियं, जिणेहि अह कारणं न जाणाति ।
दिटुंतपरिणामेण, परिवाडी उक्कमकमाणं१५ ॥ ४६२३. चरितेण कप्पितेण व, दिटुंतेण६ व तधा तयं अत्थं ।
उवणेति जधा णु परो, पत्तियति ‘अजोग्गरूवं पि१८ ॥ ४६२४. दिटुंतो परिणामे, कधिज्जते उक्कमेण१९ व कयाइ ।
जह तू एगिंदीणं, वणस्सती कत्थई पुव्वं ॥ ४६२५. पत्तंति पुफंति फलं ददंती२०, कालं वियाणंति तधिंदियत्थे ।
जाती य वुड्डी य जरा य जेसिं, कहं न जीवा हि भवंति ते उ२२ ।।
भणइ (क)।
एक्केक्कं य हाणीए (अ)। ३. वी (स)। ४. न वरिज्जति (क), न विरज्जति (स)।
न तत्थ (क, मु), तत्थ (स)। ६. जांणय सव्वंधो (अ)।
वण्ण (अ)। ८. णिते (क)। ९. वण्णवातिण (क) । १०. एगिदिया व ० (ब), दि उवसंजुत्तो (स)। ११. धुवकरणे (अ, ब), मुवकरणे (क)।
१२. ज्झवि ()। १३. x (क)। १४. परिणामओ (आ, परिणाम य (ब)। १५. उक्कमकयाणं (अ), उक्कमक्कमणं (ब)। १६. ० तेणं (स)। १७. ण (स)। १८. ० रूवम्मि (मु, ब, क)। १९. उवक्कमणे (अ, ब)। २०. व देंति (ब)। २१. वुड्डा (ब)। २२. वि (स)।
9
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दशम उद्देशक
४६२६. जाधे ते सद्दहिता, ताधि कहिज्जति' पुढविकाईयारे ।
जध उ पवाल-लोणा, उवलगिरीणं च परिवुड्डी ॥ ४६२७. कललंडरसादीया, जह जीवा तधेव आउजीवा वि ।
जोतिंगण जरिए .वा, जहुण्ह तह तेउजीवा वि ॥ ४६२८. जाहे 'सद्दहति तेउ', वाऊ जीवा सि ताहें सीसंति ।
सत्थपरिणाए वि य, उक्कमकरणं तु एयट्ठा ॥ ४६२९. एस परिणामगो ऊ, भणितो अधुणा उ जड्ड वोच्छामि ।
सो दुविधो नायव्वो, भासाएँ सरीरजड्डो उ१० ॥ ४६३०. जलमूग-एलमूगो१ मम्मणमूगो य भासजड्डो य ।
दुविधो सरीरजड्डो, तुल्लो करणे अणिउणो य ॥ ४६३१. पढमस्स नत्थि सद्दो, जलमज्ञ व भासओ२ ।
बीयओ३ एलगो चेव, अव्वत्तं ४ बुब्बुयायइ ॥दारं ।। ४६३२. मम्मणो पुण भासंतो, खलए अंतरंतरा ।
चिरेण णीति से कन्या, अविसुद्धा व भासते५ ॥दारं ।। ४६३३. 'दुविधेहि जड्डदोसेहि१६, विसुद्धं जो उ उज्झती ।
काया चत्ता भवे तेणं, मासा चत्तारि ‘गुरुगा य५५ ।दारं ।। ४६३४. कधिते१८ सद्दहिते चेव, ओयवेति'९ पडिग्गहे । .
मंडलीए उवटुंतु२०, इमे दोसा य अंतरा ॥ ४६३५. पायस्स वा विराधण, अतिधी दट्ठण उड्डवमणं२१ वा ।
सेहस्स वा२२ दगंछा, सब्वे दद्दिट्ठधम्मो२३ त्ति ॥दारं ॥
१. कहेजति ()। २. विवाईता (अ)। ३. परिवड्डी ()।
कवलंड ० (अ)। ५. x(क)।
खज्जुए (क)। ७. सद्देहिया तू (अ), सद्दहते तेउ (स) । ८. से (क)। ९. ०णामो (ब)। १०. य (स)। ११. ० मूयय (अ)। १२. भासिओ (क, ब)।
१३. बीओ (स)। १४. अच्चंतं (अ, ब)। १५. भासओ (ब)। १६. दुविहेहिं जडुदोसे (ब)। १७. गुरुका तं (अ), गुरुकया (ब,क), गाथा के दूसरे और
तीसरे चरण में अनुष्टुप् छंद है। १८. कहिए (क)। १९. उवविति (ब)। २०. उवइट्ठतु (अ)। २१. उड्नुगमणं (ब, स)। २२. वी (स)। २३. दुदिट्ठ ० (ब, क):
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४४२ ]
१.
२.
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४.
4.
६.
७.
८.
||
४६३६. जलमूग-एलमूग, सरीरजड्डो य जो यो । जं वुत्तं तु विवेगो, भूमितियं ते न दिक्खेज्जा ॥ ४६३७. दुम्मेहमणतिसेसी, न जाणती जो य करणतो जड्डो । ते दोन्निवि तेण उ' सो, दिक्खेति सिया उ अतिसेसी || ४६३८. अहव न भासाजड्डो, जहाति ति परंपरागतं छउमो t इतरं पि सहिंडग, असतीए वा विगिवेज्जा ४६३९. मासतुसानातेणं, दुम्मेहं तं पिकेइ इच्छंति । तं न भवति पलिमंथो, न यावि चरणं विणा णाणं ॥ ४६४०. नातिथुल्लं न उज्झंति मेहावी जो य बोब्बडो । मूग - एलमूगं, परिद्वावेज्ज दोन्नि वि " ४६४१. मोत्तूण करणजड्डुं परियट्टंति 'जाव सेस" छम्मासा एक्केक्कं छम्मासा, जस्स यदद्धुं विविचणया
T
४६४२. तिण्हं आयरियाणं, जो णं गाहेति सीस तस्सेव 1 जदि एत्तिएणं गाहितो न परिट्ठावए हे ॥
जोउ ।
I
कुज्जा 11
४६४३. देति अजंगमथेराण, वावि य जह' 'दट्टु णं १० भणती मज्झं कज्जं दिज्जति तस्सेव सो ताधे || ४६४४. जो पुण करणे जड्डो, उक्कोसं तस्स होति छम्मासा कुल- गण - संघनिवेदण, एयं तु 'विहिं तुहिं १२ ४६४५. पव्वज्जापरियाओ, वुत्तो सेहो ठविज्जए जम्मण परियागस्स उ, विजाणणट्ठा इमं ऊणऽट्ठए चरितं न चिट्ठए चालणीय उदगं बालस्स य जे दोसा, भणिता काय - वइ-मणोजोगो, हवंति तस्स संबंधि१५ अणाभोगे,
ओमे
४६४६.
४६४७.
भूमितयं (अ) भूमित्तय (ब) ।
य (स) 1
तु (अ) ।
विविचेज्जा (ब)।
उब्धंति (अ, ब)
० मूयगं (ब)।
सेस जाव (स) ।
व (ब) ।
॥
जह वा (अ, ब)।
९. १०. दडूणं (क, स)।
११. करणा (ब)।
१२. तहिं विहिं (ब) ।
१३. दोसा (अ) ।
जत्थ 1
सुतं ॥
वा 1
आरोवणा 'जा य१३ ॥ नि. ५६९ ॥ अणवट्टिया १४ जम्हा
I
सहसाऽववादेणं १६ ॥नि. ५७० ॥
१४. अणवत्थिया (ब) अणवत्तिया (अस) । १५. संबंध (ब)।
१६. व भावेणं (अ, स), व भासणं (ब)।
व्यवहार भाष्य
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दशम उद्देशक
[४४३
४६४८. भुंजिस्से स मया सद्धिं, नीओ' नेच्छति संपयं ।
सो । नेहेण संबंधो, कहं चिट्ठज्ज तं विणारे ॥ ४६४९. अणुवट्ठवितो एसो, संभुंजति मा बुवेज्ज' अपरिणतो ।
ताहें उवट्ठाविज्जति, तो ‘णं संभुंज ताहे" || ४६५०. 'अधव अणाभोगेणं", सहसक्कारेण व होज्ज संभुत्तो ।
ओमम्मि व मा हु ततो१, विप्परिणामं तु गच्छेज्जा ॥ ४६५१. अदिक्खायंति वोमे२ म, इमे पच्छन्नभोजिणो ।
परोऽहमिति भावेज्जा, तेणावि सह भुंजते ॥ ४६५२. लेहट्ठमवरिसे उवट्ठामो पसंगतो ।
उद्दिसे१३ सेससुत्तं पि, सुत्तस्सेस उवक्कमो१४ ॥ ४६५३. अहियऽट्ठमवरिसस्स वि, आयारे वि पढितेण तु पकप्पं५ ।
देंति अवंजणजातस्स, वंजणाणं परूवणा६ ॥ ४६५४. जधा चरित्त धारेउं, ऊणट्ठो७ तु अपच्चलो ।
तहाविऽपक्कबुद्धी" उ, अववायस्स नो सहू ॥ ४६५५. चउवासे सूतगडं, कप्पव्ववहार पंचवासस्स ।
विगट्ठठाण समवाओ९, दसवरिस वियाहपण्णत्ती० ॥ ४६५६. चउवासो२१ गाढमती, न कुसमएहिं तु हीरते सो उ ।
पंचवरिसो उ जोग्गो, अववायस्स ति तो देति ॥ ४६५७. पंचण्हुवरि विगट्ठो, सुतथेरा जेण तेण उ विगट्ठो ।
ठाणं महिड्ढियं ति य, तेण दसवासपरियाए ॥
भीओ (ब) २. क प्रति में गाथा का पूर्वार्द्ध नहीं है। ३. अणुसंटवियं (ब)।
वा (ब)। ५. हुवेज्ज (अ)। ६. संभुजणं (अ)। ७. ण संभुंजंति णतो (स)। ८. अहवा अणाभोएण (ब)। ९. संहुत्ते (अ), संसुत्तो (स)। १०. वि(अ)। ११. तवो (स)।
१२. ओमे (स)। १३. उद्देसो (ब)। १४. चउक्कओ (अ)। १५. विकप्पं (स)। १६. ० वणया (स) । १७. तूणट्ठो (अ)। १८. ० वुड्ढी (ब)। १९. समाओ (ब)। २०. ० विवाह० (क)। २१. चउमासो (स)।
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४४४ ]
व्यवहार भाष्य
४६५८. एक्कारसवासस्सा', खुड्डि-महल्ली-विमाणपविभत्ती ।
कप्पति य अंगुवंगे, वीयाहे३ चेव चूलीओ ॥ ४६५९. अंगाणमंगचूली, महकप्पसुतस्स वग्गचूलीओ ।
वीयाहचूलिया' पुण, पण्णत्तीए मुणेयव्वा ॥ ४६६०. बारसवासे अरुणोववाय वरुणो यर्य गरुलवेलधरो' ।
वेसमणुववाएँ य तधा, एते. कपंति उद्दिसिउं ॥ ४६६१. तेसिं सरिनामा खलु, परियटुंती- य एंति देवा उ ।
अंजलिमउलियहत्था, उज्जोवेंता दसदिसा उ ॥ ४६६२. नामा वरुणा वासं, 'अरुणा गरुला'१० सुवण्णगं११ देति ।
आगंतूण य बेंती, संदिसह उ किं करेमो त्ति ॥ ४६६३. तेरसवासे कप्पति२, उट्ठाणसुते तधा समुट्ठाणे ।
देविंदपरियावणिय३, नागाण तधेव४ परियाणी'५ ॥ ४६६४. परियट्टिज्जति जहियं, उट्ठाणसुतं१६ तु तत्थ उद्वेति१७ ।
कुल-गाम-देसमादी, समुट्ठाणसुते निविस्संति१९ ॥ ४६६५. देविंदा नागा२० विय, परियाणीएसु एंति२१ ते दो वी ।
चोद्दसवासुद्दिसती२२, महासुमिणभावणज्झयणं२३ ॥ ४६६६. एत्थं२४ तिसइ२५ सुमिणा२६, बायाला चेव होंति महसुमिणा ।
बावत्तरिसव्वसुमिणा२८, वण्णिज्जते फलं तेसिं ॥
एक्कादस ० (ब)। २. खुद्दी (अ, क), खुड्डी (स) ।। ३. विहाहे (ब), विवाहे (स)।
अंगाणं अंग ० (अ.स)। वीवाह ० (ब, स)।
व(अ)। ७. गुरुलो ० (स), ० वेगधरो (ब, स)। ८. . यमुते (स)। ९. नागा (ब, स)। १०. अरुणो गरुला (ब)। ११. सरण्णगं (ब), सरण्णतं (क), य रतगं (स)। १२. कप्पंति (अ, ब)। १३. ० परियाणिय (अ), ० परियाणवि (ब) । १४. तदेव (ब, क)।
१५. परियाणा (क)। १६. सुट्ठाण ० (स)। १७. उटुंति (ब, क)। १८. ० मादीसु (ब)। १९. निविसंति (ब, क)। २०. नामगा (ब)। २१. यंति (स)। २२. ० वासुद्देसी (अ)। २३. महसु ० (स)। २४. एच्छं (अ)। २५. तीस (स)। २६. सुविणा (अ, क)। २७. बायालं (स)। २८. बायत्तरि ० (ब)।
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दशम उद्देशक
[४४५
४६६७. पाण्गरसे चारणभावणं ती उद्दिसतेरे तु अज्झयणं ।
चार'.लद्धी तहियं, उप्पज्जती तु अधीतम्मि ॥ ४६६८. तेयनिसग्गा सोलस, आसीविसभावणं च सत्तरसे ।
दिट्ठीविसमट्ठारस', उगुणवीस दिट्ठिवालो तु ॥ ४६६९. 'तेयस्स निसरणं" खलु, आसिविसत्तं तहेव दिट्ठिविसं ।
लद्धीओं समुपज्जे, समधीतेसुं तु एतेसुं ॥ ४६७०. दिट्ठीवाए पुण होति, सव्वभावाण रूवणं नियमा ।
सव्वसुत्ताणुवादी०, वीसतिवासे उ बोधव्यो । ४६७१. चउद्दससहस्साइं११, पइण्णगाणं तु वद्धमाणस्स ।
सेसाण जत्तिया खलु, सीसा पत्तेयबुद्धा उ ॥ ४६७२. पत्तस्स पत्तकाले, एतेणं१२ जो उ उद्दिसे तस्स३ ।
निज्जरलाभो विपुलो, किध पुण तं मे निसामेह ॥ ४६७३. कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो ।
अन्नयरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी५ विसेसेण ॥ ४६७४. आयारमादियाणं१६, अंगाणं जाव दिट्ठिवाओ तु ।
एस विही विण्णेओ, सव्वेसिं आणुपुव्वीए ॥ ४६७५. दसविहवेयावच्चं, इमं समासेण होति विण्णेयं ।
आयरियउवज्झाए, थेरे य तवस्सि सेहे य ॥ ४६७६. अतरंत७ कुलगणे या, संघे 'साधम्मिवेयवच्चे य१८ ।
एतेसि तु दसण्हं, कातव्वं तेरसपदेहिं ॥ ४६७७. भत्ते पाणे सयणासणे य पडिलेहण पायमच्छिमद्धाणे ।
राया तेणं दंडग्गहे य गेलण्णमत्ते य ॥
my is
१. ति (स)। २. उद्दिसिए (क)।
उवरूपणं (ब, क)।
० विसाभा ० (स)। ५. दिट्ठीदसमट्ठा ० (स)।
ओगुणवीसे (ब)।
य (अ)। ८. तेयस्सि निसिरणं (स)। ९. आसीविसग्गं (स)।
१०. सुयाणु० (क, स)। ११. चउद्दस उ सह० (अ, ब), चोद्दसओ स ० (स)। १२. एयाणि (क, स)। १३. ततो (स)। १४. सुविपुलो (स)। १५. ०यम्मि (अ, स)। १६. आयरिमा० (अ, क), मादीयाणं (स)। १७. अतरंतु (ब, क)। १८. ० वेज्जवच्चे वा (स), . वच्चे यं (अ, क)।
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४४६ ]
व्यवहार भाष्य
४६७८. जा जस्स होति लद्धी, तं तु न हावेति संत विरियम्मि ।
एयाणुत्तत्थाणि' तु, पायं किंचित्थरे वुच्छामि ॥ ४६७९. पादपरिकम्म पादे, ओसह-भेसज्ज देति अच्छीणं ।
अद्धाणे उवगेण्हति, राया दुढे य नित्थारे ॥ ४६८०.. सरीरोवहितेणेहि, सा रक्खति सति बलम्मि संतम्मि ।
दंडग्गहणं कुणती', गेलण्णे यावि जं जोग्गं ॥ ४६८१. उच्चारे पासवणे, खेले मत्तयतिगं तिविधमेयं ।
सव्वेसि कायव्वं, साहम्मिय तत्थिमों विसेसो ॥ ४६८२. होज्ज गिलाणो 'निण्हव, न य°तत्थ विसेस जाणति जणो तु ।
तुब्भेत्थं पव्वतितो, न 'तरती किण्णु कुणह११ तस्स ॥ ४६८३. ताहे मा उड्डाहो, होउ ती तस्स फासुएणं ति१२ ।
'पडुयारेण करोती५३, चोदेती एत्थ अह सीसो ॥ ४६८४. तित्थगरवेयवच्चं, किं भणियमेत्थ तु किं न कायव्वं ।
किं वा न होति निज्जर, तहियं अह बेति आयरिओ४ ॥ ४६८५. आयरियग्गहणेणं, तित्थयरो तत्थ होति५ गहितो तु ।
किं व न होयायरिओ, आयारं उवदिसंतो'६ उ१७ ॥ ४६८६. 'निदरिसण जध मेत्थ१८ खंदएण पुट्ठो उ गोतमो भयवं ।
केण तु तुब्भं सिटुं९, धम्मायरिएण, पच्चाह२० ॥ ४६८७. तम्हा सिद्धं२१ एयं, आयरिगहणेण गहिय तित्थगरो ।
आयरियादी दस वी, तेरस गुण होंति कायव्वा ॥
१. ०त्थाण (स)। २. किंचि तु (अ)।
बच्छीणं (ब)।
राय (स)। ५. दंडगहं च (स)।
कुणइ (ब) ७. खेल (ब, स)। ८. साहम्मी (अ, क, स)। ९. एतस्थि (स)। १०. निण्हतो उ ण य (स)। ११. तरति किं कुणहा (स)।
१२. तु (स, अ) १३. पडोयारेण करेती (स)। १४. यह गाथा क प्रति तथा मुद्रित टीका में भाष्य गाथा के क्रम में
नहीं है। किंतु टीकाकार ने इसकी संक्षिप्त व्याख्या की है। १५. होंति (ब) १६. उवसंतो (अ) १७. यह गाथा क प्रति में नहीं है। १८. ०सणत्थं जह एत्थ (क)। १९. सिटुं य (ब), सिट्ठीति (अ)। २०. पव्वाह (अ)। २१. सिटुं (ब, स)।
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दशम उद्देशक
१.
२.
३.
४.
५.
४६८८. तीसुत्तरसयमेगं, ठाणाणं वणितं तु सुत्तम । वेयावच्चसुविहितं, नेम्मं निव्वाणमग्गस्स
॥
४६८९. ववहारे दसमए उ, दसविह साहुस्स जुत्तजोगस्स । एगंतनिज्जरा से, न हु नवरि कयम्मि सज्झाए
,
I
४६९०. एसोऽणुगमो भणितो ', अहुणा नयो' सो य होति दुविधो उ । नाणनओ चरणणओ, तेसि समासं तु वुच्छामि ॥ ४६९१. नायम्मि गिहियव्वे, अगिण्हितव्वम्मि चेव अत्थम्मि 1 जइयव्वमेव इति जो, उवदेसो सो नयो नामं ॥ नि. ५७१ ॥ ४६९२. सव्वेपि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामेत्ता तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणट्ठितो साधू ॥नि. ५७२ ॥ मोत्तूण वित्थरं सव्वं 1 पुव्वायरिएहि कयं, सीसाण हितोवदेसत्थं ॥ भवसयसहस्समहणं, एयं णाहिंति जे उ काहिंति कम्मरयविप्पमुक्का, मोक्खमविग्घेण
४६९३. कप्पव्ववहाराणं, भासं
।
गच्छंति 11
इति व्यवहार भाष्य
४६९४.
ठाणेणं (स) । णेव्वा ० (स) ।
० विहम्मि (ब)।
० जोगिंगस्सा ( ब, क, स) ।
भिहितो (अ, क, स) ।
न हु (स) ।
य (ब)।
करणणतो (बस) ।
६.
७.
८.
९.
सोउं (स) ।
१०. पावंति (ब) ।
11
[ ४४७
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________________
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परिशिष्ट
१. व्यवहारभाष्य-गाथानुक्रम २. नियुक्ति-गाथानुक्रम ३. सूत्र से संबंधित भाष्य-गाथाओं का क्रम ४. टीका एवं भाष्य की गाथाओं का समीकरण ५. एकार्थक ६. निरुक्त ७. देशीशब्द ८ कथाएं ६ परिभाषाएं १०. उपमा ११. निक्षिप्त शब्द १२. सूक्त-सुभाषित १३. अन्य ग्रंथों से तुलना १४. आयुर्वेद और आरोग्य १५. कायोत्सर्ग एवं ध्यान के विकीर्ण तथ्य १६. दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य १७. विशिष्ट विद्याएं १८ टीका मे उद्धृत गाथाएं १६. विशेषनामानुक्रम २०. वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम २१. टीका में संकेतित नियुक्तिस्थल २२. टीका में उद्धृत चूर्णि के संकेत २३. वर्गीकृत विषयानुक्रम
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अयातो रक्खती
अउणासीतठवणाण अंगाणमंगचूली अंगु अवर पहि अंगु पोरमेत्ता
अंजलि पणामS करणं मुझ
अंडज बोंडज वालज
अंतो उवस्सए छड्डणा अंतोनिवेसणस्सा
अंतो परिठावंते
अंत पुण
तो बहिं च भिन्नं
अंतो बहिं च वीसुं अंतो बहिं वावि निवेसणस्स
अंतो मुहुत्तका अंतोवस्सयबाहिं
अंतो वा बाहिं वा अंतो विसगलजुण्णं अंध अकस्म अतकरण विवि अकत परिकम्ममसहं अकयकरणा तु. गीता
अकरण निसीहियादी
अकरणे पासायस्स अकिरिय जीए पिट्टण अक्कंदट्ठाणठितो
अक्कंदठाण ससुरे अक्खयदेहनियत्तं
अक्खे अक्खेव
स्व पुणकीरति
अ
व्यवहारभाष्य-गाथानुक्रम
१६१२
३६६
४६५६
३४८१
३३६८
२३४१
३१३८
३७३६
६०६
२७४७
३५३८
३१३५
३१३७
२६६३
३७०७
२२५७
३४०७
२७४६, ४२५५
३५४५
२६५६
१६०, ६०५
७७४
१६८, ६११
३१८६
३६६५
६६५
२४६६
२४६३
८२६
१८३६
२३६८
अगडसुताण न कप्पति
अगडता वाधिका अगडे पलाय मग्गण
अगडे भाउय तिल तंदुले
अगणादि संभमेसु य
अगलंत न वक्खारो
अगलंतमत्तसेवी
अगरिए दितो
अगिला उ गिहिम्मी
अगिलाय तवोकम्मं
अगीतसमणा संजति
अग्गघातो हणे मूलं
अग्गिहिभूतो कीरति अग्गीतसगासम्मी अग्गीतेणं सद्धि
अचरिता तित्थस्स
अचवलथिरस्स भावो
अचियत्तमादि वोच्छेय
अचियत्ता निक्खता
अच्चाउलाण निचोउलाण
अचाव दूर
अच्चाबांध अघायंते
अच्चाबाहो बाधं
अच्चित्तं च हरिहं
अचित्ता एसणिज्जा य
अहतावि
अच्छउ ता उट्ठवणा
अच्छउ महाणुभागो
अच्छंताण वि गुरुगा
अच्छंति संथरे सव्वे
अच्छति अवलोएति य
अच्छयंते व दाऊणं
अच्छिन्नुप
परिशिष्ट - १
२७४५
२७२६
१०६६
२३५६
२७१७
२७६५
२८०२
४४६
२५०६
१७७७
२२२१
४६६
१२१०
४२५१
२७
३०५१, ४२१६
१४८६
३२८७
२८४८
३२२२
३५६२
१४५५
१४५६
१३२७
१८३
२५७५
२०३३
१२१८
३३६६
३६१७
८२४
३३४१
३६६१
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२]
परिशिष्ट-१
१५७८ ३८६२ १२७० १५८२ ४०८६
७४३ ५५६ १५१४
४०५ ३३६२ ३४१५ ४३६०
७१४ १६६६ ३५३२
४४०३
अच्छिन्ने अन्नोन्नं अजतणाय व कुव्वंती अजरायु तिण्णि पोरिसि अजायविउलखंधा अज्जसमुद्दा दुब्बल अजाणं गेलण्णे अजेण भव्वेण वियाणएण अजेव पाडिपुच्छं अज्जो संलेहो ते अज्झयणाणं तितयं अझुसिरमविद्धमफुडिय अझुसिरमादीएहिं अट्टे चउव्विधे खलु अटुं वा हेउं वा अट्ठट्ठ उ अवणेत्ता अट्ठ त्ति भाणिऊणं अट्ठम दसम दुवालस अट्ठमी पक्खिए मोत्तुं अट्ठविहा गणिसंपय अट्ठसतं चक्कीणं अट्ठस्स कारणेणं अट्टहा नाणमायारो अट्टहि अट्ठारसहिं अट्ठाण सद्द हत्थे अट्ठायार व मादी अट्ठारसेहिं ठाणेहिं अट्ठाविते व पुव्वं तु अट्ठावीसं जहण्णेण अट्ठिगमादी वसभा अढे व पज्जयाई अडते भिक्खकालम्मि अणणुण्णमणुण्णाते अणणुण्णाते लहुगा अणधिगतपुण्णपावं अणपुच्छाए गच्छस्स अणमप्पेण कालेणं अणवट्ठप्पो पारंची अणवट्ठो पारंचिय
३४३८ ३०६७ ३१३६ ३२४८ २६८६ २४४४
७१२ ३६५३ ४२६०
११६ ३४०५ ३४०६ २०६७ ११६६
४८६ ३६८५ ४२४५ ३०६२ ४०८० ३७४८ १२०५ ३०१७ ४१५७ १६१०
४१५६ ४०७०-४०७३
२००६ २२७३ १२४६ ३६६७ ३८५६ २८६ २६२ २०४१ ४२८२ ४२०० १०७३ १२०६ ।
अणवस्स वि डहरग तरुण अणार? उ अण्णेसु अणालदंसणित्थीसु अणाहोऽधावणसच्छंद अणिययचारि अणिययवित्ती अणुकंपा जणगरिहा अणुकंपिता च चत्ता अणुकरणं सिव्वण-लेवणादि अणुघातियमासाणं अणणुण्णविते दोसा अणुण्णवणाय जतणा अणुपुव्वविहारीणं अणुमाणेउं रायं अणुमाणेउं संघ अणुलोमणं सजाती अणुलोमा पडिलोमा अणुलोमिए समाणे अणुवट्ठवितो एसो अणुवसंते च सव्वेसिं अणुवसमंते निग्गम अणुवहितं जं तस्स उ अणुवाति त्ती णज्जति अणुस? उज्जमंती अणुसद्धिं उच्चरती अणुसट्ठी धम्मकहा अणुसट्ठीय सुभद्दा अणुसास कहण ठवितं अणुसासण भेसणया अणुसासियम्मि अठिते अणूवदेसम्मि वियारभूमी अणेग बहुनिग्गमणे अण्णं गविसह खेत्तं अण्णकाले वि आयाता अण्णट्ठमप्पणा वा अण्णत्थ तत्थ विपरिणते अण्णपडिच्छण लहुगा अण्णपधेण वयंते अण्णवसहीय असती
३३२७ ४६४८ १८४२
८६७ १५१६
८६६ २८३८ ११७६ ३३७८
५६१ ११८२ ११६५ ११५८ १८१७ २५३६ २१०५ २१६१ २६३० २०६२
२६५ ३५५५ ३१३०
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________________
परिशिष्ट-१
[३
२५०८ २१८४ ४१६६ ३४०२ ७१५
२६०५
७१ ८५६
३९५१
अण्णस्सा देति गणं अण्णाउंछं एगोवणीय अण्णाउंछं च सुद्धं अण्णाउंछं दुविहं अण्णाए वावि परलिंग अण्णागते कहंतो अण्णाते परियाए अण्णा दोन्नि समाओ अण्णे गामे वासं अण्णेहि कारणेहि व अण्णेहि पगारेहिं अण्णो इमो पगारो अण्णो जस्स न जायति अण्णो देहाओऽहं अण्णोण्णनिस्सिताणं अण्णोण्णेसु गणेसुं अण्णो वा थिरहत्थो अण्णो वि अस्थि जोगो अण्णो वि य आएसो अतक्किय उवधिणा ऊ अतरंत कुलगणे या अतरंत बालवुड्डा अतरंतस्स अडेते अतिक्कमे वतिक्कमे अतिगमणे चउगुरुगा अतिबहुयं पच्छित्तं अतियारुवओगे वा अतियारे खलु नियमेण अतिरेगट्ठ उवट्ठा अतिरेग दुविधकारण अतिवेढिज्जति भंते ! अतिसंघट्टे हत्थादि अतिसंथरणे तेसिं अतिसयमरिठ्ठतो वा अतिसयरहिता थेरा अतिसेसित दव्वट्ठा अतोसविते पाहुडे अत्तट्ठ परट्ठा वा
२८४४ ३८५६ ३८५७ ३८५२ ३२६६ २२२४ १८७५ ४२४३ २७२५ २५१४ २३७५ २१४७ २२७०
७८२ २२०७ १२३४ २०३६ २५२० २६६४ ३४८६ ४६७६ १७७४ ३६३६
४३२ १०५८ ६५८ १०७ ६१४ ३२५३ ३६१६ ६५६ ६४७ ३६४१ १९६१ २८५६ २५१६ २१२४ ३६७०
अत्तट्ठा उवणीया अत्तीकरेजा खलु जो विदिण्णे अत्थं पडुच्च सुत्तं अस्थरणवज्जितो तू अत्थवतिणा निवतिणा अत्थि त्ति होति लहुगो अत्थि पुण काइ चेट्ठा अत्थि य से सावसेसं अस्थि हु वसहग्गामा अत्थी पच्चत्थीणं अत्थुप्पत्ती असरिस अत्थेण गंथतो वा अत्थेण जस्स कजं अत्थेण मे पकप्पो अत्थेण व आगाढं अत्थो उ महिद्धीओ अत्थो वि अस्थि एवं अदढप्पियधम्माणं अदसाइ अणिच्छंते अदिक्खायंति वोमे मं अदिट्ठ आभट्ठासुं अद्दिढें दिटुं खलु अद्दिट्ठस्स उ गहणं अद्दिढे पुण तहियं अद्दिढे सामिम्मि उ अद्धमसणस्स सव्वं अद्धाण ओम असिवे अद्धाण कक्खडाऽसति अद्धाण दुक्खसेजा अद्धाणनिग्गतादी अद्धाणनिग्गयादी अद्धाण पुव्वभणितं अद्धाणम्मि जोगीणं अडाणवायणाए अद्धाणादिसु एवं अद्धाणादिसु नट्ठा अद्धाणादिसुवेहं अद्धाणे अट्ठाहिय
३२२ २८६७ ११७३ २३१५ २३६५ २६४० २०६६ ४५८६ ३२७८ ४६५१ १२७१ ४१४३ ३७१२ ३६४४ ३४६० ३७०१ ३६३८ २६१८
२६४४ २८३३, ३५८८ २८१६,३५८६
३३५० २१४०
E१ १३८१ २२४४ २६२५ ३५२५
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________________
परिशिष्ट-१
२०२२ ३८७६ ३३१५ २६१७.
४५८ २४०८ १८१० ३२०७ ५८७/२ ३६८१ १२७२ ४२५७ २३७७ १५६८ ३६१४
६१५ १६१८ ३७७८
४४५६
अद्धाणे गेलण्णे अद्धाणे बालवुड्ढे अद्धाणेऽसंथरणे अद्धा य जाणियव्वा अध न कतो तो पच्छा अध निक्खिवती गीते अध पट्ठवेति सीसं अध पुण अक्खुय चिट्ठे अध पुण अच्छिण्णसुते अध पुण गहितं पुव्वं अध पुण गाहित दंसण अध पुण ठवेजिमेहिं अध पुण तेणुवजीवति अध पुण न संथरेजा अध पुण विकालपत्ताए अध पुव्वठिते पच्छा अधव अणाभोगेणं अधव जइ वीसु वीसुं अधव पडिवत्तिकुसला अधवा अक्खित्तगणाइएसु अधवा अझसिरगहणे अधवा अट्ठारसगं अधवा अण्णऽण्णकुला अधवा अफरुसवयणो अधवा अब्भुट्टाणं अधवा आहारुवधी अधवा इमे अणरिहा अधवा उच्चारगतो अधवा एगतरम्मि उ अधवा एगस्स विधी अधवा एसणासुद्धं अधवा कायमणिस्स उ अधवा गहणे निसिरण अधवाऽणुसटुवालंभु अधवा तप्पडिबंधा अधवा तस्स सीसं तु अधवा तिगसालंबेण अधवा न होज्ज एते
३६०२ ३६३७ २६२२ २५०४ १८७८ १८५६ ४४४१ ३५०५ २२४२ ३५८३ ३६८७ ३४६३ ३६७१ ३४६२ ३२६० १८५६ ४६५० १८२० २०२७ १६३३ ३४०३ ४०१३ १८७७ ४०६६ ४५६४ २२६८ १४५६ १२४१ १८६१ ६७८ १६१ ४०४४ १४८६
५६७ २४१६ २६७२ ४३०७ २४६२
अधवा बितियादेसो अधवा भणेज एते अधवा भरियभाणा उ अधवा भुत्तुवरितं अधवा महानिहिम्मी अधवा राया दुविधो अधवा वि अण्णदेसं अधवा वि अद्धरत्ते अधवा वि कोल्लुयस्सा अधवा वि पडिग्गहगे अधवा वि पुव्वसंधुत अधवा वि सव्वरीए अधवा वि सिद्धपुत्तिं अधवा सइ दो वावी अधवा समयं दोन्नि वि अधवा हेट्ठाणंतर अध सव्वेसिं तेसिं अध सुत्त सुत्तदेसा अध सो गतो उ तहियं अधागुरु जेण पव्वावितो अधिकरणम्मि कतम्मि अधिकरण-विगतिजोगे अधिकरणस्सुप्पत्ती अधुणा तु लाभचिंता अधुणुव्वासिय सकवाड अन्नं उद्दिसिऊणं अन्नं च छाउमत्थो अन्नं च दिसज्झयणं अन्नं व देज्ज वसधिं अन्नतर उवज्झायादिणा अन्नतरं तु अकिच्चं अन्नतरतिगिच्छाए अन्नतरपमादेणं अन्नत्य दिक्खिया थेरी अन्नाउंछविसुद्धं अन्नागय सगच्छम्मी अन्ना वि हु पडिसेवा अन्नेण पडिच्छावे
४१२२ ११६६
२४६ २६८१ २५१० १६६८ २६६१०
५८ ३१८४ ३३२८ १६६२
६१६ १३१० ४०५८ २८१८
३७७७
३०५८ २२५ ३००
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट- 9
अन्ने वि अत्थि भणिता अन्ने वि तस्स नियगा अन्नो निसिजति तहिं
अपरक्कमो तवस्सी अपरक्कम मि जातो
अपरक्कमो य सीसं
अपरिग्गहगणियाए
अपरिच्छणम्मि गुरुगा अपरिणतो सो जम्हा
अपरिण्णाकालादि
अपरीणामगमादी अपरीमाणे पिहब्भावे अपरीयाए वि गणो अपलिउंचिय पलिउंचियम्मि
अपवदितं तु निरुद्धे
अपव्यवित सच्छंदा पहुचंका
अपुण्णप्पो व दुवे तओ वा जे अण्णा कप्पिया तू अप्पच्चय निब्भयया अप्प डबज्झतगमो
अप्पडिले हियदोसा
अप्पत्ते अकहित्ता
अप्पत्ते कालगते
अप्पत्ते तु सुते अप्पवितियप्पततिया अप्पमलो होति सुची अप्परिहारी गच्छति
अप्पसत्थेण भावेण अप्पसुतोति व काउं
अप्पमूल
अप्पावड्ढ दुभागो
अप्पाहारग्गहणं
अप्पात सयं वा
अप्पेव जिणसिद्धे अप्फालिया जह रणे
अफरुस-अणवल-अचवल अबभचारी एसो
२६७४
३४४६
३४०१
४४४०
४४३६
४४४३
११७५
४२८५
७३६
११
४१००
१६८४
१५६५
५८२
१५६१
१८६६
३६७७
१८२२
३६६१
२३६३
३५०८
६४०
२०३८
३६७३
२०३६
१७६६
५०६
७०२
३०५४
१००८
२३८
३६८६
३६६१
३२६०
२७७७
७५२
१४८२
७१०
अबहुस्सुते अगत्ये
अबहुस्सुते ऽगीतत्थे
अबहुस्सु न देती
अब हुस्सुते व ओमे
बहुत अगीत अबहुस्सुतोपको अब्भत्थितो व रण्णा
अब्भासकरणधम्मुब्भुयाण
अब्भासत्थं गतूण अब्भासवत्ति छंदाणुवत्तिया अब्भिंतरमललित्तो
अब्भुजतमचएंतो
अब्भुजतमेगतरं अब्ज ठाणं
अब्भुजय विहारं
अब्भुजय निच्छिओsप्प
अब्भुजय पडिवजे
अब्भुजयपरिकम्म अभुट्ठाणं अंजलि
अट्ठा गुरुमादी
अट्ठाणे आण
अब्भुट्ठियस्स पासम्मि अब्भुद वसणे वा
अब्भुवगतं च रण्णा
अब्भुवगतस्स सम्म अब्भुवगते तु गुरुणा
अब्भुवगयाए लोओ अभिघातो वा विजू
अभिणीवारी निग्गते
अभिधाणहेतुकुस अभिधारिज्जंतऽ पत्ते
अभिधारे उववण्णो
अभिधारेंत पढ़ते वा
अभिधारेंतो वच्चति
अभिनिव्वगडादी अभिभवमाणो समणं
अभिवड्डिकरणं पुण अभिसत्तो सट्टा
[ ५
१४१६
१४१८
२१८८
१६४४
२४६०
१६४५
१२२८
१४८४
३५२६
७८
३२३२
२२६१
१४५७, १५५३, २०१४, २६३६
१६२४
२३११
१६४६
३००३
२६२४
६७
१४८३
१४८१
६७७
१४३७
१५०५
२१५६
२०८५
२६४६
४३८८
२६१३
१२१६
३६७८
३६८१
३६६२
२२४८
२८१३
११६३
२०१
१६४१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
अभिसेज अभिनिसीहिय अमणुण्णधन्नरासी अमितं अदेसकाले अमिलाय मल्लदामा अमुगं कीरउ आमं ति अमुगनिस्साऽगीतो अमुगो अमुगत्थ कतो अम्मा-पितिसंबंधो अम्मा-पितिसंबद्धा अम्मापितीहि जणियस्स अम्हं अणिच्छमाणो अम्हं एत्थ पिसाओ अरिहं व अनिम्माउं अरिहाऽणरिहपरिच्छं अरिहो वऽणरिहो होति अलं मज्झ गणेणं ति अलसं भणंति बाहिं अलोणाऽसक्कयं सुक्खं अल्लीणा णाणादिसु अवंकि अकुडिले यावि अवचिज्जते य उवचिज्जते अवणेतु जल्लपडलं अवधीरितो व गणिणा अवराहअतिक्कमणे अवराहं वियाणंति अवराहविहारपगासणाय अवराहो गुरु तासिं अवरो परस्स निस्सं अवलक्खणा अणरिहा अवसेसा अणगारा अवसो व रायदंडो अविकिट्ठ किलम्मतं अविणढे संभोगे अविधिट्टिता तु दो वी अविधूयगादि वासो अविभवअविरेगेणं अवि य विणा सुत्तेणं अवि य हु विसोधितो ते
२००५
६७६ अवि य हु सुत्ते भणियं ३०७ अविरिक्कसारिपिंडो
७५ अविरिक्को खलु पिंडो १२७८ अवि सिं धरति सिणेहो
६७ अविसिट्ठा आवत्ती २०७२ अविसेसियं च कप्पे ४५३४ अविहाडा हं अव्वो २४४६ अविहिंस बंभचारी ३६६६ अव्वत्तं अफुडत्थं
६४६ अव्वत्ते ससहाये २४७६ अव्वत्तो अविहाडो १०६५ अव्विवरीतो नाम १३२८ अव्वोगडं अविगडं १४३१ अव्वोच्छिन्ननिवाताओ २०१० असंघतिमेव फलगं
असंतऽण्णे पवायंते २७६ असंथरं अजोग्गा वा ३६६३ असंथरण णितऽणिते ४५१३ असंथरणेऽणिताण
असंविग्गसभीवे वि ४६२१ असज्झाइ' असंते २७६६ असज्झाइयपाहुणए १०८७ असज्झायं च दुविधं
असढस्स जेण जोगाण ४०५४ असती अच्चियलिंगे २१६८ असती अण्णाते ऊ २८४७ असतीए अण्णलिंग २०६३ असती एगाणीओ १६४७ असतीए वायगस्स ४३५४ असतीए विण्णवेंति
असतीए सीयाणे २६४ असती कडजोगी पुण २६०८ असती तविधसीसे ३६३५ असती निच्चसहाए २६३३ असती नीणेतु निसि २४६० असती पडिलोमं तू २३३४ असती मोयमहीए ५६३ | असतीय अप्पणो वि य
३२८ ३७५३ ३७४१ १२८० ५४३ १५४ २८६२
१६० ४०६७ २२४६ ३६६६ २२८१ ३३५६ ३८१२ ३४६६ ३०६७ ४२८४ २२४३ ३६४६ ४२६५
२०
६७०
६८
६४५ ३१०१ २६८४ २०२६ ३३३१ २३६३ २७२४ १६१७ ११६५
३२७७ २३३५, २३६६
१८५८ २७३८ ३२६६ २६२६ २७६८ ३५६२
Page #602
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
३४३२ ३१६८ १२६७
६०४ ४२८८ ३३७० ३२६४ २२२६ ३४४२ २०८८ १६३७
२०६ ३२६३ ४६३८ १२७४ २०६८ ३५१४ २२५१
असतीय अविरहितम्मि असतीय पमुह कोग असतीयऽमणुण्णाणं असतीय लिंगकरणं असती व अन्नसीसं असती सुक्किल्लाणं असमाधीमरणेणं असमाहियमरणं ते असमाहीठाणा खलु असरिसपक्खिगठविते असहंते पच्चत्तरणम्मी असहुस्सुव्वत्तणादीणि असिणाण भूमिसयणा असिलोगस्स वा वाया असिवगहितो व सोउं असिवादिएसु फिडिया असिवादिकारणगता असिवादिकारणगतो असिवादिकारणेणं असिवादिकारणेहिं असिवादी कारणिया असिवादीहि वहंता असिवे ओमोयरिए असिवोमाघतणेसुं असिहो ससिहगिहत्थो असुभोदयनिष्फण्णा असुहपरिणामजुत्तेण अस्सामिबुद्धियाए अह अत्थइत्ता होज्जाहि अह एते तु न हुना अहगं च सावराधी अह गंतुमणा चेव अह चिट्ठति तत्थेगो अहछंदस्स परूवण अह नत्थि को वि वच्चंतो अह पुण असुद्धभावो अह पुण एगपदेसे अह पुण कंदप्पादीहि
३४६६ ३८८० ३४६५
६७० २०१२ ३२६५ २४३२ २००८
४०१ १३३४
७२६ २७६७ ३८३८ २७५० ३५८२ २३०६ ३३६६ २६३६
१७३८ ८६४, १७६४
३६४७ ४२७६ १०२५ ३१४८ १८६२ २७६६
३४० २६६७ ३०६२ ३६४३
२३१ ३२८५ १७५८
८६३ ३००६ ३६११ ३३३४ ३३८७
अह पुण जेणं दिट्ठो अह पुण निव्वाघातं अह पुण भुंजेज्जाही अह पुण रूसेज्जाही अह पुण विरूवरूवे अह पुण हवेज दोन्नी अह पेहिते वि पुव्वं अह बेती वायंतो अह भावालोयणं धम्म अहमवि एहामो ता अहयं अतीमहल्लो अहरत्त सत्तवीसं अह रुंभेज दारट्ठो अहव न भासाजड्डो अहव पुरसंथुतेतर अहवा अत्तीभूतो अहवा अवस्सघेत्तव्वयम्मि अहवा आयरिओ वी. अहवा आहारादी अहवा एगहिगारो अहवा कज्जाकज्जे अहवा गणस्स अपत्तियं अहवा गाहग सीसो अहवा जत पडिसेवि अहवा जात समत्तो अहवा जेणऽण्णइया अहवा जो आगाढं अहवा दीवगमेतं अहवा तदुभयहेउं अहवा दिटुंतऽवरो अहवा दोण्णि व तिण्णि व अहवा दोण्ह वि होज्जा अहवा दोन्नि वि पहुणो अहवा दो वि भंडते अहवा न लभति उवरिं अहवा पढमे सुद्धे अहवा पणगादीयं अहवा बेंति अगीता
१६३५ २३, १७३
१३३५ १७११
५७६ १७४४ ४५१५ १६४८ १६३६ २०७५ ३१०६ १८२१ २०६६ ३४५५ ३६३८ १४७० ३२०६
६१७
१२६३
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
अहवा बेंति अम्हे ते अहवा भत्ते पाणे अहवा भयसोगजुतो अहवा वणिमरुएण य अहवा वि अण्ण कोई अहवा वि तिन्नि वारा अहवा वि तीसतिगुणे अहवा वि धम्मसद्धा अहवा वि सरिसपक्खस्स अहवा समयं पत्ता अहवा सावेक्खितरे अहवुप्पण्णे सच्चित्तादी अहवेकेक्कियं दत्ती अह साहीरमाणं तु अह से रोगो होज्जा अहिगरणे उप्पन्ने अहिञ्जमाणे उ सचित्तं अहियं पुच्छति ओगिण्हते अहियऽट्ठमवरिसस्स वि अहियासियाय अंतो
३५३४ २७८५ ११४१
४५६ २८४६ ३४३३
२०३ २४७५ २६५४
३६१३ १६१, ६०६
२१५२ ३७८४ ३८२६ २३४५ २६८२ २१५० १४२५ ४६५३ ३१५७
आगम गम कालगते
३६३० आगमणं सकारं
२८३६ आगमणे सक्कारं
८११ आगमतो ववहारं
४०५० आगमतो ववहारो
४०२६ आगमववहारी आगमेण
३८८४ आगमववहारी छव्विहो वि
४०५१ आगमसुतववहारी
३१८ आगमसुताउ सुत्तेण आगम्म एवं बहुमाणितो हु
१४०४ आगाढं पसहायं तु
२७७१ आगाढजोगवाहीए
३०५७ आगाढमुसावादी
१७२७ आगाढम्मि उ जोगे
२१४१ आगाढो वि जहन्नो
२१२१ आगारेहि सरेहि य
३२३ आगासकुच्छिपूरो
२३०१ आणा दिटुंतेण य
४६०७ आणादिणो य दोसा १३०४, २७४८, २७८८, ३२६१ आणादी पंचपदे
३३०३ आणीतेसु तु गुरुणा
३६२८ आणेऊण न तिण्णो
३४४६ आततरमादियाणं
४६७ आतपरोभयदोसेहि
२११२ आतसमुत्थमसज्झाइयं
३२२३ आतुरत्तेण कायाणं
२४२६ आदाणाऽवसाणेसु
१३५१ आदिगरा धम्माणं
४०३४ आदिग्गहणा उब्भामिगा
२५४६ आदिग्गहणा दसकालिओ
३०३७ आदिच्चदिसालोयण
२५५६ आदिट्ट सड्ढकहणं
११३८ आदिमसुत्ते दोण्णि वि
१७२६ आदियणे कंदप्पे
१६७६ आदिसुतस्स विरोधो
२४१६ आदेज्जमधुरवयणो
४०६५ आदेस-दास-भइए
३३४६ आदेसमविस्सामण
६३५
आ
आइण्णमणाइण्णं आइन्नं दिणमुक्के आइल्ला चउरो सुत्ता आउट्टितो ठितो जो उ आउट्टियावराह आउट्टो त्ति व लोगे आउत्थ परा वावी आउयवाघातं वा आएस-दास-भइए आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता आकिण्णो सो गच्छो आगंतुं अन्नगणे आगंतुगो वि एवं आगंतु तदुत्थेण व आगंतु भद्दगम्मी आगतमणागताणं
३१२३ ३७१८ ३६३७ ३२३३ २५४५ ३८७१
६१६ ३७०५
२०६७ १६२५ १८६० २३५७ २२३२ २१०१ ।
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
आदेसागमपढमा आधाकम्मनिमंतण आधाकम्मुद्देसिय आभवंताधिगारे उ आभवंते य पच्छित्ते आभिगहितस्स असती आभिग्गहियस्सऽसती आभीरी पण्णवेत्ताण आमं ति वोत्तु गीतत्था आमंतेऊण गणं आयंबिल उसिणोदेण आयंबिलं न कुव्वति आयंबिल खमगाऽसति आयंबिलस्सऽलंभे आयतर-परतरे या आयपराभिसित्तेणं आयप्परपडिकम्म आयरिए अभिसेगे आयरिए आलोयण आयरिए कह सोधी आयरिए कालगते आयरिए जतमाणे आयरिए भणाहि तुम आयरिओ उ बहुस्सुत आयरिओ केरिसओ आयरिय अणादेसा आयरिय अपेसते आयरिय उवज्झाए आयरिय उवज्झाओ आयरिय उवज्झायम्मि आयरिय उवज्झाया आयरियकुडुंबी वा आयरिय गणिणि वसभे आयरियग्गहणेणं आयरियत्ते पगते आयरियपादमूलं आयरियपिवासाए आयरियमादियाणं
२८८२ आयरियवसभसंघाडए
आयरियाणं सीसो १५२० आयरियादी तिविशे २१६५ आयरियादेसऽवधारितेण ३८८६ आयवताणनिमित्तं २५२६ आयसक्खियमेवेहं ३४२० आयसमुत्थं लाभ २८२१ आयारकुसल एसो २००६ आयारकुसल संजम
८०३ आयारपकप्पे ऊ ४२४६
आयारमादियाणं २१२६ आयारव आधारव २३८५ आयारविणयगुणकप्प २१३७ आयारसंपयाए
४८० आयारसुतसरीरे २४११ आयारस्स उ उवरिं ४३६२ आयारे वट्टतो ७२० आयारे विणओ खलु ६६५ आयारे सुत विणए ५८६ आयासकरो आएसितो १५८१
आरब्भसुत्ता सरमाणगा तू १६५४ आराधितो नरवती ३६२१ आराहणा उ तिविधा ४०८५
आराहेउं सव्वं
आरिय-देसारियलिंग १७१५
आरियसंकमणे परिहरेंति २०६५ आरेणागमरहिया
आरोवण उद्दिट्ठा २६५२ आरोवण निष्फण्णं
१८६० आरोवणमक्खेवं १५६२, १७३५, १६३२ आरोवणा जहन्ना
२६१३ आरोवणा परून
७२६ आरोह परीणाहो ४६८५ आरोहो दिग्घत्तं १९६० आलवणादी उ पया ४२६५ आलावण पडिपुच्छण १५८५ आलिहण सिंच तावण १६३२ | आलीढ-पच्चलीढे
८१५
१५७६ १६६,६१२
१७१४ ३४७८ २७५६ २२३८ १४८८ १४८० १५२८ ४६७४
५२० ४३०१ ४०८३ ४०८१ १५३३ १६७४ ४१३२ ४१३१ ३७०४ २२५२ २६४१ ३८८७ ४४८८ ८६६ ८६८ २३६६ ३६२ १४२ २६५८
३५६
२६५१ ४०६१, ४०६३
४०६२
५६८
२१७
५५८
५५० २६४८ २१८
Page #605
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०]
आलीवेज व वसधिं आलोइय-पडिकंतस्स आलोइयम्मि गुरुणा आलोइयम्मि निउणे आलोइयम्मि से
आलोइयम्मि सेहेण
आलोएंतो सोउं
आलोम्मि चिलिमिणी
आलोगो तिन्निवारे
आलोयंतो एत्तो
आलोयणं गवेसण
आलोयण तह चेव य
आलोयण त्ति का पुण आलोयण त्तिय पुण आलोयण पडिकमणे
आलोयणागुणेहिं आलोयणापरिणतो
आलोयणाय दोसा आलोयणारिहालोयओ
आलोयणारिहो खलु आलोयणा विवेगे य आलोयणा विवेगो य
आलोयणाविहाणं आलोयणा सपक्खे
आलोय दावणं वा
आलोयमणालोयण
आवकही इत्तरि आवण्णमणावणे
आवण्णो इंदिएहि
आवरिया विरणमु
आवलिय मंडलिकमो
आवलिया मंडलिया
आवस्सगं अकाउं
आवस्सगं अणियतं
आवरसगं तु काउं आवरसंग-पडिलेहण
आवस्सग-सज्झाए
आवरसग-सुत्थे
२६८७
४०५२
१६००
१२४४
८५८/३
२१८१
३८६३
३२१६
२५७७
५२१
१२११
३०२
५४
५८५
५३, ४१८०, ४१८५
४१५८
२३३
२३७६
५१८
५१६
४१६२
४१८७
५२४
२३६१
२५८३
६६६
२६३
२७१५
४६६
६२७
३६८०
१८२४
६८६
८८४
६८२
२६६
८८३
२०१७
आवस्सय काऊणं
आवस्सयाइ काउं आवस्सिया-पमजण
आसंकमवहितम्मि य
आज खेत्त काले
आसण्णखेत्त भावित
आसण्णट्ठितेसु उज्जएसु
आसण्णेसुं गेण्हति
आसन्नतरा जे तत्थ
आसन्नमणावाए
आसन्नातो लहुगो
आसस्स पट्टिदाणं
आसासो वीसासो
आसि तदा समगुण्णा
आसीता दिवससया
आसुक्कावरते
आच कारणम्मि य
आहरति भत्तपाणं आहाकम्मिय पाणग
आहार एवं
आहार -उवधि- सेजा
आहारवत्थादिसु लद्धिजुत्तं आहारा उवजोगो
आहारादीपट्टा
आहारादुप्पायण आहारे उवगरणे
आहारे जतणा वृत्ता
आहारे ताव छिंदाही
आहारो खलु पगतो
आहारोवधिसेज्जा
आहारोंवहि-झाओ आहारोवहि-सयणाइएहि आहारोवहिसेज्जादिएहि
आहारोवहि-सेज्जा य
इंगालदाह खोडी
परिशिष्ट- 9
३१६२
६२६
२५४
५६
२२६८
१६८८
१६५५
१७६१
२२२०
३०१३
८२७
१८६६
१६८१
२६०६
३६६
१८६६
२१
१२१३
४२६७
४५२५
६७२, १००६, ११०४,
१५७३, ३३६६
१३६६
२६४५
६६६
२६३७
३५६६
२२७६
४३३४
३७०३
१६७३
७०५
४५७०
४५७२
४५६६
१४४५
Page #606
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[११
6
इस्सरसरिसो उ गुरू इह-परलोगासंसविमुक्कं इहरह वि ताव नोदग इहलोए फलमेयं इहलोए य अकित्ती इहलोगम्मि य कित्ती इहलोगियाण परलोगियाण
८४५ ३२३७ १७०३ 9909 २४३१
tor
ईसिं ओणा उद्घट्ठिया ईसिं अवणय अंतो
२३७३ २०५२
उ
५८६ ३८७७ २७६८
७८१ ११३७
४८८
इंगितागारदक्खेहिं इंदक्कील मणोग्गाह इंदियअव्वागडिया इंदियउवघातेणं इंदिय-कसायनिग्गह इंदियपडिसंचारो इंदियमाउत्ताणं इंदियरागदोसा इंदियाणि कसाए य इंदियावरणे चेव इच्चेयं पंचविधं इच्चेसो पंचविहो इच्छित-पडिच्छितेणं इतरे भणंति बीयं इतरे वि होज्ज गहणं इतरेसिं घेत्तूणं इति असहण उत्तुयया इति आउर पडिसेवंत इति एस असम्माणो इति कारणेसु गहिते इति खलु आणा बलिया इति दव्व खेत्त-काले इति पत्तेया सुत्ता इति संजमम्मि एसा इति सुद्ध सुत्तमंडलि इति होउ त्ति य भणिउं इत्तरियसामाइय छेद इत्थीओ बलवं जत्थ इत्थी नपुंसगा वि य इत्थी पण्हाति जहिं इय अणिवारितदोसा इय चंदणरयणनिभा इय पंचकपरिहीणे इय पवयणभत्तिगतो इय पुव्वगताधीते इय मासाण बहूण वि इय होउ अब्भुवगते इरियावहिया हत्यंतरे
२००३ १८०५
१०२ ४६२० १४६० ४३१६ ३१६५
१०१ ४२६४ ४६११ ४००६ ४००६ २२०८ १८८७ ३५७७ ३३०८ ३०१० १०४४ ११२४
६०५ २०७४ १२६५ १७६३ २४५२ १४२६ १६०३
४६८ ६३६, ६३७
६३७ २८१४ ४२११ १४४६
६६४ १६४८ २७०३ ४०४५ १६०६ ३१६०
उउबद्धपीढफलगं उंबरविक्खंभे विज्जति उक्कड्ढंतं जधा तोयं उक्कत्तितोवत्तियाई उक्कोसबहुविधीयं उक्कोसा उ पयाओ उक्कोसा य जहन्ना उक्कोसारुवणाणं उक्कोसिगा उ एसा उक्खल खलए दव्वी उक्खेवेणं दो तिन्नि उग्गममादी सुद्धो उग्गह एव अधिकितो उग्गह पभुम्मि दिढे उग्गहम्मि परे एवं उग्गहसमणुण्णासुं उग्गहियस्स उ ईहा उग्घातमणुग्घातं उग्घातमणुग्घाते उग्घातियमासाणं उच्चफलो अह खुड्डो उच्चारं पासवणं उच्चारभिक्खे अदुवा विहारे उच्चारमत्तगादी
४२३८
३८१ ४२४६ ३८५३ १४६३ ३४७२ ३३०६ ३३४६ ३६५७ ३५१८ ४१०६ ६०१ ३४६ ४८६ १४२३ ३५६० २८६० ३६२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१२]
परिशिष्ट-१
२०४३ २६५२ ४६८१ १७५४ ३६१५ ३८७८ ४३१५ ४०३३ ४५५७ ४६०१ ४६०० २६५१
उच्चारादि अथंडिल उच्चारियाए नंदीए उच्चारे पासवणे उच्छेव बिलढगणे उज्जाण गाम दारे उज्जाण घडा सत्थे उज्जाणरुक्खमूले उज्जुमती विउलमती उजेणी सगराया उठाणं वंदणं चेव उठाणासणदाणादी उद्वेत निवेसंते उट्टेज निसीएजा उडुबद्ध दुविह गहणा उडुबद्धसमत्ताणं उडुबद्धे अविरहितं उडुबद्धे कारणम्मि उडुबद्धे विहरंता उडुभयमाणसुहेहिं उडुमासे तीसदिणा उडुवासे लहु लहुगा उड्ढं अधे य तिरियं उण्होदगे य थोवे उत्तदिणसेसकाले उत्तरगुणातियारा उत्तरतो हिमवंतो उत्ता वितिण्णगमणा उदउल्लादि परिच्छा उदगभएण पलायति उद्दिट्ठमणुद्दिष्टे उद्दिट्ठवग्गदिवसा उद्देसम्मि चउत्थे उद्देस-समुद्देसे उद्धारणा विधारण उद्धावणा पधावण उद्धितदंडो साहू उद्धियदंडगिहत्थो उप्पण्णकारणे पुण
६३८६ १७६५ १७४६ ३४१० ३८६२ २३८०
२०७ १७३२ ३७४७ ३८०३
३१४ ४६४ ११२६
उप्पण्णणाणा जह णो अडती उप्पण्णे उप्पण्णे उप्पण्णे गेलण्णे उप्पत्ती रोगाणं उप्पन्नगारवे एवं उप्पन्ना उप्पन्ना उप्पन्ने उवसग्गे उप्पा उवसम उत्तरण उप्पियण भीत संदिसण उप्फिडितुं सो कणगो उब्भामिय पुव्वुत्ता उब्भावणा पवयणे उभओ किसो किसदढो उभओ जोणीसुद्धो उभतो गेलण्णे वा उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं उभयधरम्मि उ सीसे उभयनिगे वतिणीय व उभयनिसेध चउत्थे उभयबलं परियागं उभयम्मि वि आगाढे उभयस्स अलंभम्मि वि उम्मग्गदेसणाए उम्मत्तो व पलवते उम्माओ खलु दुविधो उम्मायं च लभेजा उल्ले लहग गिलाणादिगा उवगरणनिमित्तं तू उवगरण बालवुड्डा उवगरणेहि विहूणो उवहितम्मि संगामे उवणट्ठ अन्नपंथेण उवदेसं काहामि य उवदेसो उ अगीते उवदेसो न सि अस्थि उनकी दूरहाणे उवधी पडिबंधेणं उवमा जवेण चंदेण
२५७१ २१४८ २४२८
४३६ २००४ ४३०० ४३६८ २५६२ १६६६ ४३६५ १८८६
८०६ ७८७ ६२७ ७०६ १२१४ २३३६ ३०६० ४५६२ १०३७ २१३१
२७३५ १६६१,१७१७
१६१८ ११४७ ३२३६ १७६२ ४२३४ १६४३ ४३६८ २४०३ ३६६८ २५१८
२०४२ ८२२
३६६२ ३७८६ २३०४
११४ ४५०३ ६६२ ३४२ ३४३ २६१५
२६६५ ३५६३ ३५०३ ३८३३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[१३
२३३६ १०५
४२५
उवयारहीणमफलं उवयोगवतो सहसा उवरिं तु पंचभइए उवरिमगुणकारेहिं उववातो निद्देसो उवसंपजण अरिहे उवसंपज्जते जत्थ उवसंपज्जमाणेण उवसंपाविय पव्वाविता उवसग्गे सोढव्वे उवसामिता जतंतेण उवसामिते परेण व उवहतउग्गहलंभे उवहि सुत भत्तपाणे उवहिस्स य छब्भेदा उव्वण्णो सो धणियं उव्वत्तणा य पाणग उव्वत्त दार संथार उव्वरगस्स उ असती उव्वरिया गिहं वावि उस्सग्गस्सऽववादो उस्सण्ण तिनि कप्पा उस्सण्ण बहू दोसे उस्सव कदाइ गहणे उस्सुत्तं ववहरतो उस्सुत्तमणुवदिटुं उस्सुत्तमायरंतो
५३२ २०८१ १६१६ २१५६ २०७७ १६१३ १४३६ २६५६
६१० ३६७६ २३५२ २३५४ २८६३
७५५ ४३२१ १०६७ ३३११ १५४२ ३२७५ ४५४५
८४१ १६६३ ८६१
एक्कं व दो व तिन्नि व एक्कत्तीसं च दिणा एक्कमेक्कं तु हावेत्ता एक्कम्मि उ निजवगे एक्कम्मि दोसु तीसु व एक्कहि विदिण्णरज्जे एक्कादियातु दिवसा एक्कारसंगसुत्तत्थ एक्कारसवासस्सा एक्कासण-पुरिमड्ढा एक्कक्क एगजाती एक्कक्कं तं दुविधं एकेक पि य तिविहं एकेक्के आणादी एक्केक्को तिन्नि वारे एक्केणेको छिज्जति एक्को व दो व उवधिं एक्को व दो व निग्गत एक्कोसहेण छिजंति एगंगि अणेगंगी एगंतनिञ्जरा से एगंतरनिविगती एगं दव्वेगधरे एगं व दो व दिवसे एगग्गया य झाणे एगग्गो उवगिण्हति एगट्ठिया अभिहिया एगतरलिंगविजढे एगत्तं उउबद्धे एगत्तं दोसाणं एगत्त-बहुत्ताणं एगत्तियसुत्तेसुं एगत्थ वसितो संतो एगदिणे एक्कक्के एग-दुगपिंडिता वि हु एग दुगे तिसिलोगा एगदुमो होति वणं एगदेसम्मि वा दिन्ने
४२६२, ४२७०
२०८ ३६८७ ४२७३ २४७४ ३३७१
३७६ १४७८ ४६५८ ४२०६ १३८५ ४२२६
६८३ २१२८ ३२०६
४४० ३२८२ २६६६
४४१
३३६१ ४४०५, ४४१६
२५२ ४५७६ १६२०
६५५ २६५६
.
८६०
६०६ १९८५ ४५२/१ १६३७ १६३८ २७३६
४६४६ ३५६५
ऊणट्ठए चरित्तं ऊणातिरित्तधरणे ऊसववज्ज कदाई ऊसववज न गेण्हति
८३७ ८४२
२७४३
१७६६ ३०१६ ३७६१ ३३१२
एंताण य जंताण य
२७३२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१४ ]
एगपए अभिणिप एगमगा दिवसे एगम्मि णेगदाणे एगम्मि वी असंते एगल्लविहारादी
एगल्लविहारे या एगस्स उ परीवारो
एगस्स खमणभाणस्स
एगस्स दोह वा संकितम्मि
एगस्स भुंजमाणस्स
एगस्स सलिंगादी
एगागिस्स उ दोसा
एगागिस्स न लब्भा गाणिओ उ जा
गाणियं तु गा
गाणियं तु मत्तुं
गाणिस्स दोसा
गाणिया अपुरिसा एगा दो तिन्निवली
गाधिगारिगाण वि
एगा भिक्खा गा गावराहदंडे गाह ति पंचाह
एगाहिगमट्ठाणे
गंदित वजे
गुत्तरिया घडछक्कएण तीसवा
गूणपणे चउसट्टिगा गूणवीसति विभासितस्स
एगे अपरिणए वा
एगे उपव्वणि
एगे गिलाण पाहुड एगेण तोसिततरो
एगे वि महंतम्मि उ
एगो उद्दिसति सुतं एगो एवं एक्कसि गोगं पासति
३७१७
२४५
३५३
२७०६
४१३६
४१३३
२१८२
१०२७
३१६३
३८५८
१०१४
१८०१
२७८
३२८८
३२६८
२५८
२८०३
३६५६
१५६१
३५८६
१३७
३८१३
४४६
१२८८
२७२१
४५३८
५०५, ५११
७६०
३७८१
६०३/१
२५७
३६४६
२६२
३१०८
३६४५
४५६४
३८१५
३३००
एगो एगो चेव तु
एगो चिट्ठति पा
एगो निद्दिस एगं
गोय तस्स भाया
एगो रक्खति वसि
एगो संथारगतो
एहिं पुण जीवाणं
गुणसंजय उ
गुणसंपत्तो
तगुणोववेया
एतद्दोसविमुक्कं एतद्दोसविमुक्क एतविहि विप्पमुक्को
एतस्स पभावेणं
एतस्स भागहरणं
एतस्सेदुगादी ताणि य अन्नाणि य
ताणि वितरति हिं
एतारिसं विउसज्ज
एति व पडिच्छते वा
एते अंकज्रकारी
एते अण्णे य तहिं एते अण्णेय बहू
एते अन्ने य जम्हा उ
एते अहं च तुब्भं
एते उ ककारी
एते उ सपक्खम्मी
गुणा भवंती
एते चैव य गुरुगा
एते चैव य ठाणे
एते चैव य दोसा
एतेण अणरिहिं
एतेण उवाए
एते विधिणा ऊ
एतेण कारणं
एतेण जितो म अहं
एतेण सुत्त न गतं
एते दो आदेसा
परिशिष्ट-9
३२५५
१४०७
३६३४
१०८२
१७६५
४२८०
१८६४
५४१
१३७२
१४७६
२६४
१७२८
३०६६
२६११
२०२
१३२२
११३०
३३७४
२६१
२७४४
१७०२
२४८०, ४२६०, ४२६८
३५४१
२४२२
१६०६
१७०६
३०२७
१५५६
१६६०
१००६
२६६०
१४४७
३७०६
३३६४
२७१६, ३६८८
१०६०
८१०, ३२६७
२०६१
Page #610
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[१५
एते दोस अपेहित
३२६३ । एमेव अछिन्नेसु वि एते दोसविमुक्का
१४५४ एमेव अणत्तस्स वि एते दोसा जम्हा
३३१६ एमेव अणायरिया एते पावति दोसा
२४३०
एमेव अधाछंदे एते पुण अतिसेसे
२६८५ एमेव अपुण्णम्मि वि एते य उदाहरणा
१३८७ एमेव अप्पबितिओ एते सव्वे दोसा
१००१ एमेव आणुपुव्वी एतेसामण्णतरे
३२२०, ३२२८ एमेव इथिवग्गे एतेसिं अण्णतरं
१२७ एमेव उवज्झाए एतेसिं असतीए
११६७,२४३८ एमेव एगणेगे एतेसिं कतरेणं
२३६० एमेव गणायरिए एतेसिं ठाणाणं
४०६१
एमेव गणावच्छे एतेसिं तु पदाणं
१२७६ एमेव जंबुगो वी एतेसिं रिद्धीओ
१२५४ एमेव ततियसुत्ते एतेसुं चउसु पी
३५१७
एमेव दंसणम्मि वि एतेसुं ठाणेसुं
१६४४, १६३१ एमेव दंसणे वी एतेसुं सव्वेसुं
१४६२ एमेव देसियम्मि वि एतेसु तिठाणेसु
१३४ एमेव निच्छिऊणं एतेसु धीरपुरिसा
४५०६ एमेव बहूणं पी एतेसु य सव्वेसु वि
२३४२ एमेव बितियसुत्ते एतेसुप्पण्णेसुं
७६४
एमेव भत्तसंतुट्ठा एतेसु वट्टमाणे
६५७ एमेव मंडलीय वि एतेहि कमति वाही
२७६२ एमेव महल्ली वी एतेहि कारणेहिं १७४७, ३३२१, ३४६१, ३५२६, एमेव मीसगम्मि वि
३६०२, ४३८६ एमेव य अनिदाणं एत्तो उ पओगमती
४१११ एमेव य अवराहे एत्तो एगतरेणं
४२५० एमेव य असहायस्स एत्तो तिविधकुसीलं
६७७ एमेव य आयरिए एत्तो निकायणा मासियाण
५१७ एमेव य कालगते एत्तो समारुभेज्जा
५७४ एमेव य गणवच्छे एत्थं तिसइ सुमिणा
४६६६ एमेव य तुल्लम्मि वि एत्थं सुयं अहीहामि
३६५६ एमेव य देहबलं एत्थ पडिसेवणाओ
३४७,५२८ एमेव य पंथम्मि वि एत्थ सकोसमकोसं
३६५० एमेव य पडिसिद्धे एमादि उत्तरोत्तर
9ςςς एमेव य पारोक्खी एमादिदोसरहिते
३१६६ एमेव य पासवणे एमादीओ एसो
४५४१ एमेव य बहिया वी एमादी सीदंते
१६५१ एमेव य बितिओ वी
Un milliliitilisini
३६२६ ११६८ ३२४५ १६७८ ३५१५ २२०४ ४३८१ ३६३५ २८२७
३८१४ ८०७, १६११ १८५०, २२११
१३८६ १०३२ ४३०६
२६० १८६६
१८७४ १८५४, २२१५ १०४८, १६१६, २३३७
३६२० १८३० ३८०८ १८२६
३०३ २१६६ २८२८
२६७८ १७६१/१
१७६
७८३ ३२६६
६७७ ४१७६ ३१५८ ३५४८ ४५६१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
१६ ]
एमेव य बितियपदे
एमेव य मज्झमिया
एमेव य लिंगेणं
एमेव यवासा एमेव य संविग्गे
एमेव य संसत्ते
एमेव य समणीणं एमेव य समतीते
एमेव य सव्वं पहु
एमेव य साधू एमेव वणे सीही
एमेव विणीयाणं
एमेव संजती वा एमेव सेस वी एमेव स एमेव सेव एमेव होति ठवणा एमेव होति भंगा एमेवायरियस वि एमेवासणपेज्जाई
एयं पादोवगमं एतं फलं
गुणसंपत्त
गुणसंपत्त
एयऽन्नतरागाढे
यागमववहारी
एयारिसम्म दव्वे
एयारिसाय असती
एवइयाणं भत्तं
एवं
एवं अजसमुद्दा
एवं अत्तट्ठाए
एवं अद्दण्णाई
एवं असुभगिला
एवं आयरियादी
एवं आलोएंतो एवं आवासा सेजमादि
एवं इमो वि साधू
३५४७
४६०६
६६३
१६८३
७०४
६७२
३२२७
२३०३
७६६
२३२६
७७२
२६१४
३०४०
१०४
१८५, २१६१
११३
१३६३
४५६७
२५६४, ४५६३
२४०७
४३५६
३३२०, ३४८३
१७४१
१७२६
४४६६
४१६२
३७६५
३०८१
१३४६
२७४२
२६६०
३७५४
२४५५
६२१
१५३६
४३१०
३१६७
१२०२
एवं उत्तरियम्मि वि
एवं उप्पाएउं
एवं उभयतरस्सा
एवं उवट्ठियस्सा
एवं एता गति
एवं कारुण्णं
एवं कालगते ठविते
एवं खलु आव
एवं खलु उक्सा एवं खलु गमिताणं
एवं खलु ठेवणा
एवं खलु संवि
एवं गंतू हिं
एवं गणसोधिकरे
एवं गणसम्म वि
एवं चक्खिंदियघाण
एवं चरणतलागं
एवं चैव यत्तं
एवं छिन्ने तु ववहारे
एवं जधा निसीहे
एवं जसि
एवं
परिच्छा
एवं ठिताण पालो
एवं ठितो वि
एवं ठितो ठवेती
एवं ता उग्घा
एवं ता उडुबद्धे
एवं ता उद्देस
एवं ता जीवंते
एवं ता दिट्टम्मी
एवं तापट्ट
एवं ताव पट्टे
एवं ताव बहू
एवं ताव विहारे
एवं ताव समत्ते
एवं ता
एवं ता सावेक्खे
एवं तु अणुवी
परिशिष्ट- 9
१००२
३६७५
४८२
८४३
३८५, ३६०, ३६५
२४५६
१६१५
१०३०
४३२३
४००
४२८
१८७३
४५०१
४५७५
४५७३
४६१६
१२८६
१६६१
३७५०
२३५५
४५५०
१४४१
१७८६
३५५६
१६४५
४४६३
२२३६
३०४१
३६७२
३४३४
३५७०
२३३२
१६६२
३६६३
१८३३
३४५६
२२१६
४०२१
Page #612
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[१७
एवं तु अहिजेते एवं तु चोइयम्मी एवं तु णारयम्मी एवं तु ताहि सिट्टे एवं तु दोन्नि वारा एवं तु निम्मवेंती एवं तु पासत्यादिएसु एवं तु भणंतेणं एवं तुमं पि चोदग एवं तु मुसावाओ एवं तु विदेसत्थे एवं तु समासेणं एवं तु होति चउरो एवं तू परिहारी एवं दप्पपणासित एवं दप्पेण भवे एवं दब्भादीसुं एवं दोण्णि वि अम्हे एवं धरती सोही एवं न ऊ दुरुस्से एवं नवभेदेणं एवं नाणे तह दंसणे एवं पट्टगसरिसं एवं परिक्खितम्मी एवं परिच्छिऊणं एवं पादोवगमं एवं पासस्थमादी एवं पि अठायंते एवं पि कीरमाणे एवं पि दुल्लभाए एवं पि भवे दोसा एवं पि विमग्गंतो एवं पुव्वगमेणं एवं बारसमासा एवं बारसवरिसे एवं भणिते भणती एवं भणितो संतो एवं मग्गति सिस्सं
२१५७ | एवं वइ कायम्मी ४१७२ एवं विपरिणामितेण ४३७६ एवं सदयं दिज्जति ३०७४
एवं सारणवतितो ३४७१ एवं सिद्धग्गहणं ३७०० एवं सिद्धे अत्थे २६०३ एवं सिरिघरिए वी ४२१३
एवं सीमच्छेदं ३३६ एवं सुत्तविरोहो ४४८२
एवं सुद्धे निग्गम २६१२ एवं सुभपरिणाम
४३० एवं सो पासत्थो ३२०४ एवं होति विरोधो
६२६ एव तुलेऊणप्पं २३२७ एव न करेंति सीसा •४४६३ एवमणुण्णवपाए २४४१ एवमदिण्णवियारे १३३३ एवमेक्केक्कियं भिक्खं ४२१२ एवमेगेण दिवसेण १६६७
एवमेसा तु खुड्डीया ४०२३ एवाऽऽणह बीयाई ३६७५ एवाणाए परिभवो २६४३ एवाहारेण विणा १४४३ एविध वी दट्ठव्वं ४४५५ एस अगीते जयणा ४४२६ एस जतणा बहुस्सुते ३६३१ एस तवं पडिवज्जति १६०२ एस परिणामगो ऊ
५७१ एस विधी तू भणितो २७३३ एस सत्तण्ह मज्जाया २७२८ एसा अट्ठविधा खलु
९६८ एसा अविधी भणिता २८७५ एसा खलु बत्तीसा ४६३ एसाऽऽगमववहारो ३२११ एसा गहिते जतणा ४१६३ एसा गीते मेरा १२८१ एसा जयणा उ तहिं १४५८ | एसाऽऽणाववहारो
४०२२ ३४३१ ४२०८ ८५८/२ ३६१० २०७० १६१४ ३६५४ १७३३ १६१६
८३२ ८४६ ६२२ २६४१ २६६८ ३४६५ ३५२० ३७८३ २७४० ३८०७ ४४५० २५६१ ४३७१ ३१७५
२८१ २७६३
५४६ ४६२६ ३४५६ ३२८० ४०८२ ३८६५ ४१२४ ४४३० ३४१६ १४६५ २७६६ ४५०२
।
Page #613
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________________
१८
परिशिष्ट-१
एसादेसो पढमो एसा बूढे मेरा एसेव कमो नियमा एसेव गमो नियमा
ओहाविय भग्गवते ओहासण पडिसिद्धा ओहीमादी णाउं ओहेणेगदिवसिया
२०३१ १२३० ३३७३ २३६
एसेव चेइयाणं एसेव य दिलुतो एसो आहारविधी एसो उ असज्झाओ एसो उ होति ओघे एसोऽणुगमो भणितो एसो पढमो भंगो एसो सुतववहारो
२०६० १३४३
३३४२ ६२२, ६२३, ११२३, २४४२,
२८३२, २६२२
३६५० १७७, ४४३, ८३०
३७०२ ३१५३
८३६ ४६६० १६२१ ४४३७
ओगाली फलगं पुण ओग्गहियम्मि विसेसो ओघो पुण बारसहा ओदणं उसिणोदेणं ओधाणं वावि वेहासं ओधादी आभोगण ओधीगुण पच्चइए ओभामितो न कुव्वति ओभासितम्मि लद्धे ओभासिते अलद्धे ओभासियपडिसिद्धं ओमंथ पाणमादी ओमाणं नो काहिति ओमादी तवसा वा ओमेऽसिवमतरते ओलोयणं गवेसण ओवाइयं समिद्धं ओसण्णाण बहूण वि ओसध वेज्जे देमो ओसन्न-खुतायारो ओसन्नचरणकरणे ओह अभिग्गह दाणग्गहणे ओहावंता दुविधा
२२८७ ३८२७ २३५१ ३८०४ २६८५ ३३६३ ४०३२ १२०८ ३४४० ३४३६ २६२८ ३६२७ २८७३ २२६० १६११ १०७४
६२१ २२१८ ११०३ १५२२ १६७१ २३५० ३६४८ ।
कइएण सभावेण य कइतवधम्मकधाए कइतविया उ पविट्ठा कइवेण सभावेण व कंकडुओ विव मासो कंखा उ भत्तपाणे कंचणपुर गुरुसण्णा कंटकपायग्गहणे कंटकमादिपविटे कंटकमादी दव्वे कंदप्पा परलिंगे कंदप्या लिंगदुगं कक्खंतं गुज्झादी कजम्मि वि नो विगति कञ्जम्मि समत्तम्मी कज्जाकज जताऽजत कजेण वावि गहियं कजे भत्तपरिण्णा कडजोगिणा उ गहियं कडणंतरितो वाए कडुहंड पोट्टलीए कणगा हणंति कालं कण्णम्मि एस सीहो कण्हगोमी जधा चित्ता कतकरणा इतरे वा कतमकतं न विजाणति कतसज्झाया एते कत्थ गतो अणपुच्छा कत्थ त्ति निग्गतो सो कधणाऽऽउट्टण आगमण कधिते सद्दहिते चेव कधेतो गोयमो अत्यं
२४८६ २३८३ .२८६१ २४६६ १६६६ ४१५४ ४२७८ ८२५ ६६२ २११
८६२ ८६२/१ २३६१ ३६६६
३४७३ १७१, ६१४
२८६२ २६६ १०८ ३०६३ २४५४ ३१६६ १०८८ २७६३
१५६ १४१० २१०६ १६२८ १४१५ १२२५ ४६३४ २६४८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[१६
कधेहि सव्वं जो वुत्तो कप्पट्ठग संथारे कप्पट्टितो अहं ते कप्पति उ कारणेहिं कप्पति गणिणो वासो कप्पति जदि निस्साए कप्पति य विदिण्णम्मी कप्पपकप्पी तु सुते कप्पम्मि अकप्पम्मि कप्पम्मि कप्पिया खलु कप्पम्मि दोन्नि पगता कप्पम्मि वि पच्छित्तं कप्पव्ववहाराणं कप्पसमत्ते विहरति कप्पस्स य नितिं कम्ममसंखेज्जभवं कम्महतो पव्वइतो कम्माण निजरट्ठा कयकरणा इतरे या कयकरणिज्जा थेरा कयकुरुकुय आसत्थो कर-चरण-नयण-दसणाइ करणं एत्थ उ इणमो करणिज्जेसु उ जोगेसु कलमोदणपयकढियादि कलमोदणो य पयसा कललंडरसादीया कलासु सव्वासु सवित्थरासु कल्लाणगमावन्ने कसिणा आरुवणाए कसिणाऽकसिणा एता कसिणारुवणा पढमे कस्स पुण उग्गहो त्ती कह दिज्जति तस्स गणो कहमरिहो वि अणरिहो कहि एत्थ चेव ठाणे कहिए य अकहिए वा काउं देसदरिसणं
४०६६ १७६० ५४८ ६४४ २७०८ ३०४५ १३४८ ३२० १७४ १५३ २६६२
१५१ ४६६३
१६५७ ४४३४, ४४३५ ४३३८-४३४१,४६७३
२४७० १४०१
६०४ १७४० २६०६ २६८२ ५२६
काउंन उत्तुणई काउं निसीहियं अट्ठ काउस्सग्गं काउं काउस्सग्गमकाउँ काउस्सग्गे वक्खेवया कामं अप्पच्छंदो कामं आसवदारेसु कामं तु रसच्चागो कामं पम्हटुं ण्हे कामं भरितो तेसिं कामं ममेदकजं कामं विसमा वत्थू कामं सो समणट्ठा कायचेटुं निलंभित्ता काय-वइ-मणोजोगो कायव्वमपरितंतो कायोवचितो बलवं कारणतो वसमाणो कारण भिक्खस्स गते कारणमकारणं वा कारणमकारणे वा कारणमेगमडंबे कारणसंविग्गाणं कारणिगा मेलीणा कारणियं खलु सुत्तं कारणिय दोन्नि थेरो कारणे असिवादिम्मि कालं कुव्वेज सयं कालं च ठवेति तहिं कालगतं मोत्तूणं कालगते व सहाए कालगतो से सहाओ कालगयम्मि सहाए कालचउक्कं उक्कोसएण कालम्मि उ संथरणे कालसभावाणुमतं कालसभावाणुमता कालसभावाणुमतो
२३६० ११८६ ६८७ ६८५ २६५०
७६० ११०८ १७७६ ३५७५ ३२३१ ३३४ ३२६ ३७५७
१२२ ४६४७ १४३८ ४३४६ २७७६
२६०५ १७०, ६१३
४००१ २६३५
८४८ १३३७ ३०४७ १३५३ २११० ४०५३ ३४१६ ३०४४ ३४६० १०५५ ३६३२ ३२०१ ४०१६ २६७६
४२८७
४२८६ ४६२७
८६६ । कालं कलेज
४२०५ ४२६ ४३१ ३४४ २२१७ १५५४ १९६८ ३४१८ २४६६ १४७२ ।
८०
४३२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२० ]
कालस्स निद्धयाए कालादिउवचारेणं
काले जा पंचाह
काण व उवसंतो
काले तिपोरिसऽट्ट व
का दिया व रातो
कवि
बहुमा
कालो संझा य तधा कास पुणऽप्यव्वो
काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं
किं अम्ह लक्खणेहिं
किं उग्गहो त्ति भणिए
किं कारणं न कप्पति किं कारणं न दिजति
किं कारणं परोक्खं
किं कारणऽवक्कमणं किं घेत्तव्वं रणे जोग्गं
किंचनवत्तं किं च भयं गोरव्वं किंचि तधा तह दीसति
किं तं ति खीरमादी
किं ते जीवअजीवा
किं नियमेति निजर
किं पुण अणगारसहायगेण
किं
पुण आलो ती
किं पुणकारणा
किं पुण गुणव किं पुण तं चउरंगं
किं
पुण पंचिदीणं
किं मन्ने घेत्तुकाम किं वा अकप्पिएणं किं वा तस्स न दिज्जति
किं वा मारेतव्वो
किं होज्ज परिवितं
कितिकम्मं कुणमाणो कितिकम्मं च पडिच्छति
कितिकम्मे आपुच्छण कित्तेहित्तिं
१४६
३०१८
३४७५
३०००
३१३४
३८०१
६३
३१७१
३४१७
१८३
१५६३
२२१६
२३६६
१४१
२६२३
४२३२
२४०५
४३२८
१५५८
१२४८
२४७८
४६१५
१३६६
४३५०
४४५६
३३२५
४५५२
४२५३
४४४६
३८७०
८६६
१२०६
४४४५
३५३६
३१६६
५५३
३१६५
१७०५
किध पुण एवं सोधी
किध पुण साधेयव्वा
far year बहू
किध भिक्खू जयमाणो
किन्नु अदिन्नवियारे
किमिकुट्टे सिया पाणा किह आगमववहारी
किह तस्स दाउ किज्जति
किह तेण न होति कतं
किह नासेति अगीतो
किह पुण जाहि पुणो
किह पुण जम
किह पुण तस्स निरुद्धो
किह सुपरिच्छियकारी कम्मस्य करणे
कीस गणो मे गुरुण
. कुंचिय जोहे मालागारे
क्
कुछ कुजा कुलादिपत्थरं ड्डे चिलिमणी
मट्ठा कुद्धस्स कोधविणण
कुपहादी निग्गमणं
बंधणम्मि लगा
कुल-गण-संघप्पत्तं कुलदी आगम
कुलपुत्मासादी
समादि असिराई
कुसलविभागसरिओ कूयति अदिज्रमाणे
केई पुव्वं पच्छा
ईव्वसिद्धा
केई भांति ओमो
पुण कारणं
केरिसओ ववहारी
वयं वा तं
केवतिकालं उग्गह
केवल-मण- पज्जवनाणिणो
परिशिष्ट- 9
१५३८
१८०७
२७१०
२२२
३५२३
३७६५
४०३८
१३४४
२६७३
४२५४
८५८/१
१६५०
१५४८
१६७६
२३५३
२०६३
३२४
३६८३
४२५८
२२२६
११११
४१५१
२५५६
३४६८
१६४०
१६५६
१२६२
३३६७
३३१
४२७५
३६०३
२६७
४००४
३४६
१७०८
३३७६
-२२५५
४०३, ४५२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[२१
२२८४
केवलमेव अगुत्तो केवलिमादी चोद्दस केसिंचि होतऽमोहा कोई परीसहेहिं कोउगभूतीकम्मे को गीताण उवाओ कोटुंब तामलित्तग कोट्टिमघरे वसंतो कोडिग्गसो हिरणं कोडिसयं सत्तऽहियं को णु उ हवेज अन्नो को भंते ! परियाओ कोयव पावारग नवय कोरंटगं जधा भावितट्ठमं को वित्थरेण वोत्तूण को वी तत्थ भणेजा कोसकोट्ठारदाराणि कोसलए किं कारण कोसलए जे दोसा कोसलवजा ते च्चिय कोसल्लमेक्कवीसइविहं कोही व निरुवगारी
खुड्डिय थेरी भिक्खुणि २६६५ खुड्डे थेरे भिक्खू ३१२० खेत्तं गतो उ अडवि ४३६० खेत्तं मालवमादी ८७६
खेत्ततो दुवि मग्गेजा ४३७७ खेत्तनिमित्तं सुहदुक्खतो २८६५ खेत्तपडिलेहणविधी
खेत्तमतिगया मो त्ति ६५० खेत्तविभत्ते गामे ५३४/१ खेत्तऽसति असंगहिया १६५४ खेत्तस्स उ संकमणे
खेत्ताणं च अलंभे ४३४४ खेत्ताण अणुण्णवणा
६७५ खेत्तिओ जइ इच्छेज्जा ४५५१
खेत्ते उवसंपन्ना ३१५१ खेत्तेण अद्धगाउय २४१४ खेत्तेण अद्धजोयण २६५८ खेत्ते निवपधनगरे २६६० खेत्ते मित्तादीया २६६६ खेत्ते समाणदेसी ४४१३ खेत्ते सुत-सुहदुक्खे १४२६ खेत्ते सुहदुक्खी तू
खेमं सिवं सुभिक्खं
खेयण्णो य अभीरू २६८० खेलंतेण तु अइया ५२२
खेल निवात पवाते ८६३ खोडादिभंगऽणुग्गह २००२ ३६५१ ५८१
गइविब्भमादिएहिं १४२८ गंतव्व-गणावच्छे २८१२ गंतव्व पलोएउं ३८८२ गंतुं खामेयव्वो
३३८ गंतूण अन्नदेसं ३८७४
गंतूणं जदि बेती २१७५ गंतूणं सो तत्थ य ४१०५ गंतूण तहिं जायति २६१५ | गंतूण तेहि कधितं
७४१,७४६ ७३६, ७४४
८७१ ४११४
६६७
१७६७ ३८६६, ३६००
३६०६ ३२७६ ४११६ ३३८५ २२६३ ३६०१ १८५७ ३६५५ २२६६ २२६५ १२५७ ४००७
६८८ ३८६० ३६८३ १५६६ ३१७७ २३२३ ३४६४ २१२
खंतादिगुणोवेओ खंते दंते अमायी खंधे दुवार संजति खग्गूडे अणुसासंतं खग्गूडेणोवहतं खरंटणभीतो रुट्ठो खरमउएहिऽणुवत्तति खलखिलमदिट्ठविसयं खलियस्स व पडिमाए खल्लाडगम्मि खडुगा खिंसेज्ज व जह एते खित्तादी आउरे भीते खिप्पं बहु बहुविहं व खुड्डग विगिट्ठगामे
३०६८
६५० ३५६६ ३००१ १६२१ १८७०
७०६ ३४२८ १२६२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२२ ]
गंतूण पुच्छिऊणं गंतूण सो वि तहियं गंधव्वदिसाविज्जुक्क
गंधव्व नगरनियमा
गंधव्व नट्ट जड्डुऽस्स
गंभीरा मद्दविता गंभीरो मद्दवितो गच्छगय निग्गते वा
गच्छम्मि केइ पुरिसा गच्छाणुकंपणजो गच्छुत्तरसंवग्गे
गच्छो गणी य सीदति गड्डा-गिरि तरुमादीणि
गणधर गणधरगमणं
गणधर पाउग्गाऽसति
गणधारिसाहा
गणनिसरणा परगणे गणनिसिरणम्मि उ विधी
गण भोइए वि जुंगित गणसंठिती धम्मे य गणसोभी खलु वादी गणस्स गणिणो चेव
हरगुणेहि जुत्तो
गावच्छे पु
गणि आयरिया उ सहू
गणि आयरियाणं तो
गणिणी कालगाए गणिणो अत्थि निब्भेयं गणिसद्दमादि महितो गणी अगणी व गीतो
गणेण गणिणा चेव गतमागतम्मि लोए गतागत गतनियत्ते
गमणागमण-वियारे
गमणुस्सुतेण चित्तेण
गवेसऊ मा व कतव्वया य
गवेसिए पुव्वदिसा गह चरिय विजमंता
१०५६
३००५
३११७
३११८
४३१२
२३८७
६३०, २६७६
३८६४
८३५, १२५२
३४८४
३६४, ३७८८
१६५३
३५६०
३०११
१३०२
१४०२
४२२८
४२३१
३२६२
४५८१
४५७४
२६६२
७७५
२६२७
७३०
१८३४
३०५६
२६६०
३२३५
१४५३
२६६३
२५८६
३६६७
११०
२६६३
२२४६
२२४७
२३२१
गहणं च जाणणं गणनिमित्तसगं गणपडिसेध भुंजण
गहपति गिवतिणी वा
गहिउत्थाणरोगेण
गहितऽन्न रक्खणट्ठा
गहितम्मी कालम्मी
गहितागहिते भंगा
गामे उवस्सए वा
गारव
गामो खलु पुत्तो
गारवरहितेण तहिं
गावीओ रक्खंतो
गावी पीता वासी
गाहग आयरिओ ऊ
गाहा घरे गिहे या
गितस्स उ कालं
गिम्हाणं आवणो
गिम्हाण चरिममासो
गिम्हादिकाल पाणग
गंम्हे मक्खि गिलाणस्सोसधादी तु
गिहत्थपरतित्थीहिं
गिहि-गोण - मल्ल राउल गिभूितेत्ति यत्ते
गिमित्णुड्डाही गिहिलिंगं पडिवजति
गिहिसंघातं जहितुं
गिहिसंजय अधिगरणे
गिहि सामन्ने य तहा
गीतत्थउज्जयां
गीतत्थदुल्लभं खलु
गीतत्थमगीतत्थं
गीतत्थमगीतत्थे
गीतत्था कयकरणा
गीतत्थागत गुरुगा
गीतत्थाणं असती
गीतत्थाणं हिं
परिशिष्ट - १
३४१४
३१८०
२५८८
३३४८
३३१८
३५३६
३१८७
१०५७
२७२७
११६२
३५४६
१७१८
१३६०
४४८
१७१०
३३८३
३१८२
१३३८
२३०२
२६३८
१०३६
२५३६
२००१
१०१७, ३२८३
१२३५
८६८/२
१८६३
१६८७
२५०
५३६
१३६७
४२६३
४३६१
१४६६
२३७८
२२२२
११७०
१०११
Page #618
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[२३
३६७७
गीतत्था ससहाया गीतत्थो उ विहारो गीतत्थो जातकप्पो गीतत्थो य वयत्थो य गीतपुराणोवढे गीतमगीता बहवो गीतमगीतो गीतो गीतसहाया उ गता गीताऽगीता मिस्सा गीताऽगीता वुड्डा गीतो य ऽणाइयंतो गीतो विकोविदो खलु गुंठाहि एवमादीहि गुज्झंगम्मि उ वियर्ड गुणनिष्फत्ती बहुगी गुणभूइढे दव्वम्मि गुणवं तु जतो वणिया गुत्तीसु य समितीसु य गुरवो जं पभासंति गुरुअणुकंपाए पुण गुरु आपुच्छ पलायण गुरुकरणे पडियारी गुरुगं च अट्ठमं खलु गुरुगो गुरुयतरागो गुरुगो य होति मासो गुरुणो जावजीवं गुरुणो य लाभकंखी गुरुणो सुंदरखेत्तं गुरुमादीया पुरिसा गुरुवसभगीतऽगीते गुरुसमक्खं गमितो गुरुहिंडणम्मि गुरुगा गेण्हण कड्डण ववहार गेण्हति पडिलेहेङ गेण्हति लहुओ लहुया मेण्हह वीसं पाए गेण्हामो अतिरेगं गेलण्णउत्तिमढे
६०
२४८१
२६७ २१३४ २४४८ १७६३ २०१८ ३६०७
६८६ १०१६ ३६०६ २३२८ १३३२ २०६४ १२१५ १६६४ २७१६ २८१७ १०१८ ३३०४
१७५२ १८७६, १८८५
१७५१
८८८ २०३४ २६६८ ३७३८ १३३१ २७८६ ३२१५
गेलण्णकारणेणं ६६७ गेलण्णतुल्ल गुरुगा १७४३ गेलण्णमणागाढे २००७ गेलण्णमधिकतं वा २६७६ गेलण्णमरणसल्ला १३२३ गेलण्णम्मेि अधिकते
५३८ गेलण्णवाउलाणं २७३१ गेलण्णवासमहिया १९६७ गेलण्णसुण्णकरणे ३२४३ गेलण्णादिकजेहि
३० गेलण्णे असिवे वा ४६१
गेलण्णे एगस्स उ १७०१ गेलण्णे चउभंगो ११५१ गेलण्णेण व पुट्ठो ३६०६ गेलण्णे न काहिती २६३४ गेलण्णे वोच्चत्थं २५४४ गोउम्मुगमादीया
'गोण निवे साणेसु य τε गोणादि जत्तियाओ व २६७२ गोणादीय पविढे १६१६ गोणीणं संगिल्लं
६४६ गोणे साणे छगले १०६६, ११२१ गोभत्तालंदो विव १०६५, १११७ गोयरअचित्तभोयण १०६७, १११६ गोरव-भय-ममकारा
२०३० गोरस-गुल-तेल्ल-घतादि
७६ गोवालगदिद्रुतं ३६३३ गोसे केरिसियं ति य ४०२५ गोसे य पट्टते १६५२ २६६१ २५७२ घट्टण पवडण थंभण ३८६८ घयकुडगो उ जिणस्सा १४६१
घरसउणि सीह पव्वइय ८४०
घाण-रस-फासतो वा ३६२० घुट्ठम्मि संघकने ३६२४ घेत्तूणऽगारलिंग ३३६६ | घेत्तूवहिं सुन्नघरम्मि भुंजे
३८४५ ४३८ 990 ३०३१ १६५५ ३६६५
___
Page #619
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४ ]
परिशिष्ट-१
४०४
२४०४
घेप्पंति च सद्देणं घेप्पंतु ओसधाई घोरम्मि तवे दिन्ने घोसणय सोच सण्णिस्स घोसा उदत्तमादी
१०७६ ३६४३ ४०६०
२७११ ४४१४ ५६५ ५६२ १३३ ८३८ ४२०७ २२६० ४६७१
चइयाण य सामत्थं चउकण्णंसि रहस्से चउगुरुगं मासो या चउगुरु चउलहु सुद्धो चउछट्टऽट्ठमकरणे चउ-छम्मासे वरिसे चउ-तिग-दुग-कल्लाणं चउत्थछट्ठादि तवो कतो उ चउद्दससहस्साई चउधा वा पडिरूवो चउभंगो अजणाउल चउभत्तेहिं तिहिं उ चउभागतिभागद्धे चउभागऽवसेसाए चउरो य पंचदिवसा चउरो य होंति भंगा चउरो वहंति एगो चउलहुगाणं पणगं चउवासऽद्वारसगा चउवासे गाढमती चउवासे सूतगडं चउसंझासु न कीरति चंकमणादुट्ठाणे चंदगवेज्झसरिसगं चंदिमसूरुवरागे चतुग्गुणोववेयं तु चत्ताए वीस पणतीस चत्तारि विचित्ताई चत्तारि सत्तगा तिण्णि चम्मरुधिरं च मंसं चरगादि पण्णवेउं
चरणं तु भिक्खुभावो चरणकरणस्स सारो चरमाए जा दिज्जति चरमाए वि नियत्तति चरितेण कप्पितेण व चरिया पुच्छण पेसण चाउद्दसीगहो होति चाउम्मासुक्कोसे चाउस्सालादि गिहं चारग कोट्टग कलाल चारियसुत्ते भिक्खू चारे वेरज्जे या चिक्खल्ल-पाणथंडिल चिक्खल्ले अन्नया पुरतो चिट्ठति परियाओ से चिट्ठतु जहण्ण मज्झा चित्तमचित्तं एक्केक्कगस्स चित्तमचित्तपरित्तं चित्तलए सविकारा चिरपव्वइयसमाणं चिलिमिलि छेदे ठायति चुक्को जदि सरवेधी चुयधम्म-भट्ठधम्मो चेइयघरं णिइत्ता चेइयथुतीण भणणे चेइयदव्वं विभज्ज चेइय साधू वसधी चेइय सावग पव्वइउ चेतणमचेतणं वा चेयणमचित्तदब्वे चेलग्गहणे कप्पा चोएइ किं उत्तरगुणा चोएति कहं तुब्भे चोएति भाणिऊणं चोदग अप्पभु असती चोएती परकरणं चोदगगुरुगो दंडो चोदग छक्कायाणं
२७८१ २४८४, २४८५
२८५६ ३५६८ ४६२३ १२४३ २६६६
१३२ ३३८४ ४३१३ २१७७
८६८ १७६८, ३८६६
४५५६ २४४६ ४२३६
६८१ २४२५ ३०६४ २३८६ ३०६५ २३२५ ४१४७ ३०१२ ३००८ ३७६४ १८११ ३३६८ १११३
१७७६
ভS २२७२ ३१५६ २०६२ ११०६ ३२५६
५०० ४४८६ ४६५६ ४६५५ ३१२४
२५३ २५४६ ३१२१ ३८६७
४१२ ४२४० २२७४ ३१३२ ११३६
३१६
३४८०
५१
६६८
१४३० १३६४ २४०१ २८४६ ४६७
Page #620
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[२५
चोदग पुच्छा पच्चक्ख चोदग पुरिसा दुविधा चोदग बहुउप्पत्ती चोदग मा गद्दभ त्ति चोदति से परिवारं चोदयंते परं थेरा चोदिज्जतो जो पुण चोदेइ अगीयत्थे चोदेति तिवासादी चोदेति न पिंडेति य चोदेति राग-दोसे चोदेति वत्थपादा चोदेति समुद्दिसिउं चोदेति सुद्धऽसुद्धे चोदेती अतिरेगे चोदेती कप्पम्मी चोदेती कुलपुत्ते चोदेती जदि एवं चोदेती वोच्छिन्ने चोद्दसपुव्वधराणं चोयग किं वा कारण चोयति से परिवारं चोरिस्सामि त्ति मतिं
४०४२ ४५३ ६२६ ३२७ १५७४
८८ २६७७
६६६ १५४३ १३६३
४६४ १८४८ ३१४१ ३६७८ ३५६७ २१७२ १२५५ ३२३० ४५२३ ४१६५ ६२३ ६७३ ६१३
छत्तीसेताणि ठाणाणि छन्ने उद्धोवकतो छब्भागंगुलपणगे छम्भासखवणंतम्मि छम्मासतवो छेदादियाण छम्मासा छम्मासा छम्मासादि वहंते छम्मासे आयरिओ छम्मासे पडियरिठं छहि काएहि वतेहि व छहि दिवसेहि गतेहिं छाघातो अणुलोमे छार हडि हड्डमाला छिंदंतु व तं भाणं छिण्णम्मि उ परियाए छिण्णाछिण्णविसेसो छिण्णाणि वावि हरिताणि छिन्नमडंबं च तगं छेदणदाहनिमित्तं छेदसुतविज्जमंता छेदादी आवण्णा छेदे वा लाभे वा छेदोवट्ठावणिए छोभग दिण्णो दाउं
४१५६ ३४५१ ४४६८ ३६५६
४७८ २०२६
६०२ २०२१ ११०० ४१६०
४६२ २४६४ ४५४४ ४४६७ १८७१ १८३१ २८८६ २५१७ २४४७
६४६ ४७३
३७३२ ४१६० १२४६
६३३
१३५
छंदाणुवत्ति तुब्भं छक्काय चउसु लहुगा छक्कायाण विराधण छच्चसता चोयाला छट्ट अपच्छिमसुत्ते छटुं च चउत्थं वा छट्ठट्ठमादिएहिं छड्डावणमन्नपहो छड्डेउं जइ जंती छड्डेऊण गतम्मी छण्णउयं भिक्खसतं छत्तीसगुणसमन्नागतेण छत्तीसाए ठाणेहिं
१०६२
जइ अस्थि वायणं दितो ४०७ जइ इच्छसि नाऊणं
१८६ जइ उस्सग्गे न कुणति १०७०, ११२२ जइ एस समाचारी १६२, ६०७ जइ गच्छेजाहि गणो
३५६१ जइ जीविहिंति जइ वा ३२८६ जइ ताउ एगमेगं १६१३ जइ दोण्ह चेव गहणं ३७८५ जइ नत्थि असज्झायं
४२६८ जइ नीयाण गिलाणो ४१२५-४१२८ | जइ पुण आयरिएहिं
३०६१ ४२६/१
१३१ १३५४ ३४८८ ३६६६ २६२६ ३६१५ ३१५४ २५०६ ३६२२
Page #621
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६]
परिशिष्ट-१
१७५ २४१७
३१२
२८१० १०४७/१,१०५०
२५१२ ३३७७ २१५८ १८६७ ५०३/१
५०६
जइ पुण किं वावण्णो जइ भंडण पडिणीए जइ मि भवे आरोवण जइया णेणं चत्तं जइ वा दुरूवहीणे जइ वि तवं आवण्णो जइ वि य नाधाकम्म जइ वि य निग्गयभावो जइ वि य पुरिसादेसो जइ वि य लोहसमाणो जइ वि सि तेहुववेओ जइ वि हु दुविधा सिक्खा जइ समणाण न कप्पति जइ से अस्थि सहाया जइ सेव पढमजामे जं इह परलोगे या जं काहिंति अकजं जं खलु पुलागदव्वं जंघाबले च खीणे जं जत्तिएण सुज्झति जं जम्मि होति काले जं जस्स अच्चितं तस्स जं जस्स च पच्छित्तं जं जह मोल्लं रयणं जं जह सुत्ते भणियं जं जाणह आयरियं जं जीतं सावजं जं जीतं सोहिकरं जं जीतमसोहिकरं जं जीयमसोहिकरं जंतेण करकतेण व जं देसी तं देमो जं पि न चिण्णं तं तेण जं पि य न एति गहणं जं पि य हु एक्कवीसं जं पुण असंथडं वा जंबुग कूवे चंदे जं मायति तं छुब्मति
२०६० २५६ ४१६ १६७२
३८० २६१६ ३७७२ २६६५ २३१२ २६७१ ७६१ ७७६ ३७६६ ३६६० २८०६ ४१४६ १६५६ ३०८८ २२६२ ४१६६ ४१२१ ८६५
१२ ४०४३ ३७११ १८४३ ४५४३ ४५४६ ४५४७ ४५४८ ४४१६ ३७२२ १०४५ ३७३५ ४२१४ ३३५८ १३८२ ५४२
जं वा दोसमयाणतो जं वुत्तमसणपाणं जं संगहम्मि कीरति जं सासु तिधा तिययं जं से अणुपरिहारी जं सो उवसामेती जं होऊ तं होऊ जं होति नालबद्धं जक्खऽतिवातियसेसा जध मन्ने एगमासियं जधमन्ने दसमं सेविऊण जच्चिय सुत्तविभासा जड्डादी तेरिच्छे जतणाए समणाणं जतणाजुओ पयत्तव जतणा तत्थुडुबद्धे जतमाण परिहवंते जति मि भवे आरुवणा जतिहि गुणे आरोवण जत्तियमित्ता वारा जत्तियमेणं जो जत्तियमेत्ते दिवसे जत्तो व भणाति गुरू जत्थ उ दुरूवहीणा जत्थ उ परिवारेणं जत्थ गणी न वि णज्जति जत्थ पविट्ठो जदि तेसु जत्थ पुण देति सुद्धं जत्थ य दुरूवहीणं जत्थ वि य ते वयंती जदि अत्थि न दीसंती जदि आगमो य आलोयणा जदि इच्छसि सासेरी जदि उ ठवेति असुण्णे जदि उत्तरं अपेहिय जदि एरिसाणि पावंति जदि एवं निग्गमणे जदि छुब्भती विणस्सति
५३५ १०८६ ३६२३ ४५१४ १८५३ २७२ ४२० ४२२ ३६११
३७० २१३२
६२ ४२४ १७२१
६७४ १६४६ ३७२
३७८
६३८
४१६४ ४०६२, ४०६८, ४०६६
१११२ ३४८२
३१८५
१०२० २५३१ ४१०१
Page #622
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[२७
८७४
जदि जीविहिति भनाइ जदि ढकिंतोच्छेवा जदि तह वी न उवसमे जदि ताव सावयाकुल जदि तु उवस्सयपुरतो जदि देति सुंदरं तू जदि दोसा भवंतेते जदि निक्खिप्पति दिवसे जदि निक्खिविऊण गणं जदि पुण निव्वाघातं जदि पुण नेच्छेज्ज तवं जदि पुण समत्तकप्पो जदि पुण होज्ज गिलाणो जदि फुसति तहिं तुंडं जदि बेंती लब्भते वि जदि भासति गणमज्झे जदि लब्भामो आणेमो जदि वा न निव्वहेज्जा जदि वायगो समत्ते जदि वेरत्ति न सुज्झे जदि संघाडो तिण्ह वि जदि से सत्थं नटुं जदि होंति दोस एवं जध उवगरणं सुज्झति जध कन्ना एयातो जध कारणे तणाई जध कारणे निगमणं जध चेव उत्तमढे जध चेव दीहपढे जध चेव य पडिलोमा जध ते गोट्ठाणे जध पंचकपरिहीणं जध भणित चउत्थे पंचमम्मि जध मन्ने एगमासियं जध मन्ने बहुसो मासियाणि जध रक्खह मज्झ सुता जध रण्णो सूयस्सा जध वा महातलागं
१२५१ जध सो कालायसवेसिओ
४४२३ १७५५ जधा चरित्त धारेउं
४६५४ १६१७ जधा य कम्मिणो कम्म
२७६१ ४३४६ जधाऽवचिज्जते मोहो
२७६० ३१५० जधा विजानरिंदस्स
३०२० ३५३१ जधियं पुण छम्मासा
८७५ २४२३ जधि लहुगो तधि लहुगा २१३३, २१३८ जधुत्तं गुरुनिद्देसं
६० २२२८ जम्हा आयरियादी
६६३ ३१५६ जम्हा एते दोसा १०२३, १३२१, २५३८, २६८६, १२००
३०३२ १८०० जम्हा तु होति सोधी
१८२६ ११६० जम्हा संपहारेउं
४५०५ ३१४३ जयवणऽद्धाणरोधए
४०१४ १६६६ जलमूग-एलमूगो
४६३०, ४६३६ २६८८ जवमज्झ-वइरमज्झा
३८३२ ३२६५ जसं समुवजीवंति
२७५१ ११७१ जस्स तु सरीरजवणा
१७७८ २२३७ जस्स महिलाय जायति
१८८२ ३२०५ जह आरोग्गे पगतं
७०१ १७६० जह आलित्ते गेहे
१३७४ २३२४ जह उहितेण वि तुमे
१५०४ ३६०४ जह उ बइल्लो बलवं
८८५ २६७८ जह कारणे असुद्धं
२१४६ १६०५ जह केवली वि जाणति
४०३६ ३४०४ जह कोई मग्गण्णू
३६६५ १६७६ जह कोई वणिगो तू
१६०१ २२६६ जह गंडगमुग्घुढे
३१७४ २४२६ जह गयकुलसंभूतो
१६४७ १२६६ जह चेव उ आयरिया
४५६६ ४४२६ जह चेव य बितियपदे
२३८१ ६६३ जह जह वावारयते
१४१२ २३०७ जहण्णेण तिण्णि दिवसा
२११८ ५०३ जह ते रायकुमारा
१५६७ ३४८, ५१० जह नाम असी कोसे
४३६६ १९०४ जह पुण ते चेव तिला
८४७ २४५३ जह बालो जंपंतो
४२६६ १२८५ | जह भायरं व पियरं
४१४६
Page #623
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८]
परिशिष्ट-१
४२६६
जह मन्ने बहुसो मासियाणि जह मासओ उ लद्धो जह राया तोसलिओ जह राया व कुमार जह रूवादिविसेसा जहऽवंतीसुकुमालो जह वाऽऽउंटिय पादे जह सरणमुवगयाणं जह सा बत्तीसघडा जह सालिं लुणावेतो जह सीहो तह साधू जह सुकुसलो वि वेजो जह सो चिलायपुत्तो जह सो वंसिपदेसी जह होति पत्थणिज्जा जहा य अंबुनाधम्मि जहा य चक्किणो चक्कं जहियं व तिनि गच्छा जा आससिउं भुजति जा ऊ संथडियाओ जा एगदेसे अदढा उ भंडी जाओ पव्वइताओ जा जत्थ गता सा ऊ जा जस्स होति लद्धी जा जीय होति पत्ता जा जेण वयेण जधा जा ठवणा उद्दिट्ठा जाणंता माहप्पं जाणंति अप्पणो सारं जाणंति एसणं वा जाणंति व णं वसभा जाणतेण वि एवं जाणंतेहि व दप्पा जाणतो अणुजाणति जाणति पओगभिसजो जातं पिय रक्खंती जाता पितिवसा नारी जा तित्थगराण कता
३४८ जा तिन्नि अठायते ४८१ जाती कुले गणे या २५६० जातीय मुंगितो पुण १६३६ जा तुब्भे पेहेहा ४१७८
जातो य अजातो वा ४४२५ जा दुब्बला होज चिरं व झाओ ४३६७ जाधे तिन्नि विभिन्ना
५७० जाधे ते सद्दहिता ४४२८ जाधे पराजिता सा २६५३ जाधे सद्दहति तेउ ७७६ जा भंडी दुब्बला उ
जा भणिया बत्तीसा ४४२२ जा य ऊणाहिए दाणे ४४२४ जा याणुण्णवणा पुव्वं १८५१ जायामो अणाहो त्ति २७६२ जारिसगआयरक्खा ३०२१
जारिसगं जं वत्थु ३६५२ जारिससिचएहि ठिया २५८० जाव एक्केक्कगो पुन्नो
३७४२ जावंतिय दोसा वा १८०,६१८ जावज्जीवं तु-गणं
३०४८ जाव नागच्छते भंडं ३०६५ जाव होमादिकज्जेसु ४६७८ जा सा तु अभिनिसीधिय २८५४ जाहे य पहरमेत्तं २६४७ जाहे सुमरति ताहे
३६१ जा होति परिभवंतीह ६६७, १२१७ जिणकप्पिते न कप्पति
३५५४ जिणकप्पितो गीयत्थो ३६७४ जिण चोद्दसजातीए
६७८ जिण निल्लेवण कुडए ४२६७ जिणपण्णत्ते भावे २८६३ जिणवयणमप्पमेयं ३३६५
जिणवयणसव्वसारं ४११२ जितसत्तुनरवतिस्स उ १५६० जिता अट्टि सरक्खा वि १५८६/१ जीवाजीवं बंधं
३७६८ । जीहाए विलिहंतो
१६१५
८८० ३६४० २२४० १७४२ ३०९८ ३२२६ ४६२६ ४४१५ ४६२८ २६८६ ४१२६ ४१६८ २०७८ १५८३ १२२२ २६३३ २३७६ ३६६२ ३५२२ २३२२ ३३३६ ३०२६
६८० १५०३ २०५८ २८१५ २४४५ ६६८
४३७ ५०४, ५१२
५१६ ४३५१
८७२ १०८१ ३३१६ १५०० ५६६
Page #624
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[२६
३१८८ ४०१७, ४०१८
२२६६ २१३०
७५६
१३६२
५५७ ३७४० ८०१ ३२६ ६६१
जुगछिड्डे नालिगादिसु जुद्धपराजिय अट्टण जुवरायम्मि उ ठविते जूतादि होति वसणं जे उ अहाकपेणं जे ऊ सहायगत्तं जे गेण्हिठं धारइउं च जोग्गा जे जत्थ अधिगया खलु जेट्टगभाउगमहिला जेट्टज पडिच्छाही जेट्ठज्जेण अकजं जेण तु पदेण गुणिता जेण य ववहरति मुणी जेण वि पडिच्छिओ सो जेणाहारो उ गणी जेणेव कारणेणं जे त्ति व से त्ति व के त्ति व जे पुण अधभावेणं जे बेंति न घेत्तव्वो जे भावा जहियं पुण जे भिक्खु बहुसो मासियाणि जे मे जाणंति जिणा जे यावि वत्थपातादी जेसिं एसुवदेसो जेसिं जीवाजीवा जे सुत्ते अतिसेसा जे हिंडता काए जो अणुमतो बहूणं जो अवितहववहारी जो आगमे य सुत्ते जो उ असंते विभवे जो उ उवेहं कुज्जा जो उ धारेज वद्धतं जो उ मज्झिल्लए जाति जो उ लद्धं वए अन्नं जो उ लाभगभागेणं जो एगदेसे अदढो उ पोतो जो एतेसु न वट्टति
२८०६ जो गच्छंतम्मि विही ३८४० जोगतिए करणतिए १८६३ जो गाउयं समत्थो ४०६० जोगे गेलण्णम्मि य १४७६
जोच्चिय भंसिजंते २६१२ जो जं इच्छति अत्थं २२६७ जो जं काउ समत्थो २७०२ जो जं दड्ड विदड्ढे ११४४ जो जति मासे काहिति ८२३
जो जत्तिएण रोगो १२४०
जो जत्तिएण सुज्झति ४२१ जो जत्थ उ करणिज्जो ३८८८ जो जत्थ होति कुसलो १६३४ जो जया पत्थिवो होति २५६७ जो जह व तह व लद्धं २५८५ जो जाए लद्धीए
१८७ जो जाणति य जच्चंधो २५१३ जो जारिसिओ कालो ३६१२ जो जेण अभिप्पाएण ४५२६ जो णेण कतो धम्मो
३४५ जो तत्थऽमूढलक्खा ४३०६ जो तुम्हं पडितप्पति २१६३ जो धारितो सुतत्थो ३६०१ जो पभुतरओ तेसिं ४०४८ जो पुण अतिसयनाणी २७०६
जो पुण करणे जड्डो ३६४१ जो पुण गिहत्थमुंडो २०१३
जो पुण चोइज्जते
जो पुण नोभयकारी ४५३३ जो पुण परिणामो खलु
४१६७ जो पुण सहती कालं १०७५, १२१२ जो पुव्वअणुण्णवितो
जो पेल्लितो परेणं ३६६३ जो वि ओसहमादीणं ३६७० जो वि य अलद्धिजुत्तो
३७३१ जो सुतमहिज्जति बहुं १८१,६१६ जो सो उ पुव्वभणितो
४१५५ | जो सो चउत्थभंगो
४३३६ १४३, १४८/१
१०८५ १४११ ४६१८ ४३२२ २८५३ ११६६ १५५२
८४४ ४५१२ ३४५४ .७११ ४६४४ १८६८
२६६ ४५६२ ४४४८ ४१६८ ३४६२ १११५ २४१५
२६४० ४४३२, ४४३३
१४१७ १४२१
१५२
४१६६
Page #625
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३०
जो सो विद्धभाव जो हं सइरकहासुं जो होज्ज उ असमत्थो
झरय कालिय झाणेऽपसत्थ एवं
ठवणरुवणाण तिण्हं
ठवणादिवसे माणा
टवणामेत्तं आरोवण
ठवणारोवण दिवसे
ठवणारोवणमासे
ठवणारोवण वि जुया ठवणारोवणसहिता ठवणा वीसिग पक्खिग
ठवणा संचय रासी
ठवणा होति जहन्ना
ठवेति गणयंतो वा ठाणं निसीहिय त्ति य
ठाणं पुणकेरिसगं ठाण निसीय यट्टण ठाण वसधी सत्थे ठाणाऽसति बिंदू वि ठावे दप्पकप्पे
ठिय निसिय तुट्टे बा
डहरग्गाममयम्मी
णाण-चरण संघातं ाणी तीव
झ
ठ
ड
ण
णाणे णोणाणे या णातमणाते आलोयणा
ते तु व्वदिट्ठ णाते व जस्स भावो णिती विसो काउतली कमेसु णितियादीए अधच्छंद
१२८४
२७५३
३१६१
२२६४
१४६४
३६७
३७१
३५५
३६६
४२३
३८६/१
३७४
३५६
३५१
३५८
३४६७
६३०
४३११
२१५, ४३६३
४२२६
३१६६
४४६७
१६७७
३१४६
१६८६
६८३/४
६८३/२
२६०७
३२५६
१८७६
२७६०
१६५६
पीणिति अकारगम्मी
यस विभत्तं
सुं चोरिया
गोणा वि यदिट्ठी
सजविणा गा एवं एक्कसि
गाण त णाणत्तं तु
हाणऽणुयाण अद्धाण हाणादणा घोसण
ण्हाणादिएसु तं दिस्सा
हाणादिएसु मिलिया
हाणादिसु इहरा वा
हाणादीणि कताई हाणादोसरणे वा
तं एगं न वि देती
तं कज्जतो अक
तं कुणऽणुहं मे तं घेत्तु बंधिऊणं
तं च कुलरस पाणं
तं चेवऽणुम
तं चैव पुव्वभणितं
तं चैव पुव्वभणियं
तं जत्तिएहि दिट्ठ
तं जीवातिक्कंतं
तं णो वच्चति तित्थं
तं तारिसगं रयणं
तं तु अहिवंताणं
तं तु वीसरियं तेसिं
तं दिज्जउ पच्छित्तं
तं न खमं ख पमादो
तं पिय अफरुस मउयं
तं
तं
दिव्वसंगह
पुण अणुगंतव्वं
पुण अणुच्चस
तं पुण ओविभागे
पुण तंतू
त
परिशिष्ट- १
२५८४
२४७७
४४७
३८१६
३४२१
४५०
६८३/३
१८०४
३५७४
३६७१
२८२३
२१५४
१२८२
३५७८
१४६२
२८६०
२३८४
३३८०
२४५८
४४३६, ४५३५
२०६६, ३२५४
५०१
२६६७
३३०२
४२१६
४३५८
२६३०
३६३६
६६०
२२६
७३
१३६८
४२२७
७२
२३५
४०४६
Page #626
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट- 9
तं
पुण
पुण संविग्गमणो
पुण होजाSS सेविय
तं पूयत्ताण सुहासणत्थं
तं वावि गुरुणो मोत्तुं
तं सेविऊणऽ किच्चं तं सोउ मणसंतावो
तं
विरहे भासति
तं
तगराए नगरी
पिच्छ दुक्खं तयम्मिवि अवराधं तन्हाइयस्स पाणं
तण्हाछेदम्मि कते
तण्हुहादि अभावित
तति पतिट्ठियादी
ततिओ तु गुरुसगासे ओट्टो साह ततिओभय नोभयतो
ततिओ रक्खति कोसं
ततिओ लक्खणतं ततियम्मि उ उद्दे ततिया देति काले
ततियाण सयं सोच्चा
ततो णं आह सा देवी
ततो णं अन्नतो वावि
तत्तो य पडिनियत्ते
तत्तोय वुढी
तत्तो वि पलाविज्जति
तत्थ अणाढितो तत्थ उ अणुविज्जति
तत्थ उपसत्थगहणं तत्थ गतो व य संतो
तत्थ गिलाण गो तत्थऽण्णत्थ व वासं तत्थ तिमिच्छाय विही
तत्थ न कप्पति वासो
तत्थभवेन तु सुत् तत्थ वि काउस्सगं तत्थवि परिणामो तू
७४
२८७१
४४६१
१२२१
२६४७
६१८
२८८८
१६६४
२१६८
१०४६
२७३७
४३२७
२५३२
२४१
३४२७
४५६६
४५६६
१६४०
३६२५
३२४१
३६६७
३६३६
२६४६
२८८६
१२७७
४०८४
२७२२
११८१
३३५६
६६
७५६
२६०
२६८६
१६०६
६२४, ६५३
४३३
२१२२
४४५२
तत्थ वि मायामोसो
तत्थ वि य अच्छमाणे
तत्थवि तत्थादिमाइ चउरो
तत्थेक्कं छम्मासं
अन्नसाधुं
तद्दव्यमन्नदव्वेण
तद्दव्वस्स दुगुछण
तद्दिवसं पडिहा
तद्दिवसं मलियाई
तध चेव उग्गहम्मी
तध नाणादीणट्ठा
तप्पडिवक्खे खेत्ते
तप्पत्तीयं तेसिं
तब्भाववजोगेणं
तमेव सच्चं नीसंकं
तम्मागते बताई
तम्मिगणे अभिसित्ते
तम्मि वि अदेंत ताधे
तम्हा अपरायत्ते
तम्हा इच्छावेती
तम्हा उप्प
तम्हा उ धरेतव्वो
तम्हा उ न घेत्तव्वो
तम्हा उ विहितं चैव
म्हाउ संघस
हा उपक्
तम्हा कप्पट्ठितं से
तम्हा कप्पति ठाउं
तम्हा खलु घेत्तव्वो तम्हा गीतत्थें
तम्हा न पगासेज्जा
तम्हा परिच्छणं
तू
तम्हा परिच्छितो
तम्हा पालेति गुरु
तम्हा वज्रंणं
तम्हा संविग्गेणं
तम्हा सपक्खकरणे
तम्हा सिद्धं एवं
३१ ]
२८०
२१२५
२०६५
३७०६
४२४४
३७३४
११३६
३४७०
३४००
३३८२
२७२०
३१३
१६४३
२६६४
४६०८
१२४२
१६१४
३३२४
१२०४
३०५२
५५६
३६१४
३३६४
३२८४
१६५७
२४३५
१०५६
३७७०
३४१३
४२६४
१५८७
४२८६
२४८३
१७८६
२३४३
४२७२
२४००
४६८७
Page #627
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३२
परिशिष्ट-१
२२४ २५०५ ३३३५ ३०२२ १५४५ १३६२ ३८७५ ३५२१ ३१७३ ३२१३ ३२१७
२०० २१२० १५२६ ३१७६ ४६८३
५०२
४८४
२२३
तरुणा सिद्धपुत्तादि
३०७६ तरुणिं पुराण भोइय
३०८३ तरुणी निप्फन्त्रपरिवारा ७२५, ७३२, ७३८,७४२, ७४७ तरुणे निष्फन्त्रपरिवारे ७२१, ७२८,७३५, ७४०,७४५ तरुणे निष्फन्ने या
७२३ तरुणे बहुपरिवारे
७२२ तरुणे वसधोपाले
१७८७ तरुणेसु सयं वाए
३०८६ तवतिग छेदतिगं वा
४७६ तवऽतीतमसद्दहिए तव-नियम-नाणरुक्खं
४४४७ तव-नियम-विणयगुणनिहि
६५८ तव-नियमसंजमाणं
१६२५, १६२७ तवबलितो सो जम्हा तवसोसितो व खमगो
२५२६ तवसोसिय अप्पायण
२५१५ तवसोसियस्स मज्झो
१३४५ तवसोसियस्स वातो
१०५१ तवु लज्जाए धातू
४०६३ तवेण सत्तेण सुत्तेण
| 999 तव्वरिसे कासिंची
८०२ तस-पाण-बीयरहिते
४३६६ तस्स उ उद्धरिऊणं
४५१६ तस्स कड निट्ठियादी
३७५६ तस्सट्ठ गतोभासण
४२७४ तस्स त्ती तस्सेव उ
४१४८ तस्स पंडियमाणस्स
४५८० तस्स य चरिमाहारो
४३२४ तस्स य भूततिगिच्छा
११४६ तस्स वि जं अवसेसं तस्स वि दटूण तयं
२४६१ तस्सऽसति सिद्धपुत्ते
६६६ तस्सिंदियाणि पुव्वं
५६१० तह चेव अब्भुवगता
२८७० तह चेव हत्थिसाला
३०७१ तह वि अठंते ठवितं
११८४ तह वि न लभे असुद्धं
२०२४ तह वि य अठायमाणे
१०६१
वह वि य संथरमाणे तह समण-सुविहियाणं तहियं गिलाणगस्सा तहियं दो वि तरा तू तहेहट्ठगुणोवेता ताई पीतिकराई ताई बहूहिं पडिलेहयंतो ताओ य अगारीओ ताणि वि तु न कप्पंती ताधे उवउत्तेहिं ताधे तु पण्णविनति ताधे पुणो वि अण्णत्थ ताधे हराहि भागं ता लाभो उद्दिसणायरियस्स तालुग्घाडिणि-ओसावणादि ताहे कालग्गाही ताहे मा उड्डाहो तिक्खम्मि उदगवेगे तिक्खुत्तो मासलहू तिक्खेसु तिखकज्जं तिट्टाणे संवेगे तिण्णि तिगेगंतरिते तिण्णि तु वारा किरिया तिण्णि दिणे पाहुण्णं तिण्णि य निसीहियाओ तिण्णि वा कड्ढते जाव तिण्णी जस्स य पुण्णा तिण्हं आयरियाणं तिण्हं समाण पुरतो तिण्ह समत्तो कप्पो तिण्हुण्हभावियस्सा तित्थगरगिहत्थेहि तित्थगरत्थाणं खलु तित्थगरपवयणे निजश तित्थगरवेयवच्चं . तित्थगरा रायाणो तित्थगरे ति समत्तं तित्थयरे भगवंते
२६०१
६६६ ३६५२ २१३५ ४३८५ २६१६ ३१७८ ३७७५ १५६२ ४६४२ १६२६ १०१२ २५३३ ३८७३ १८२८ २५६८ ४६८४
३३५
२६२६ १६७५, १६७६
२०४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ३३
४५३२ ३२१
४४ १३७०
८०८ १५४० ४४५८ ४३२६ ४५६८ २२८२
६१६
तित्थोगाली एत्थं तिन्नि उ वारा जह दंडियस्स तिन्नि य गुरुकामा से तिमि-मगरेहि न खुब्भति तिरियमुब्भाम नियोग तिवरिसएगट्ठाणं तिविधं अतीतकाले तिविधं तु वोसिरेहिति तिविधम्मि व थेरम्मी तिविधा जतणाहारे तिविधे तेगिच्छम्मी तिविधो संगेल्लम्मी तिविहं च होति बहुगं तिविहे तेगिच्छम्मी तिविहे य उवस्सग्गे तिविहो य पकप्पधरो तिसु तिन्नि तारगाओ तिसु लहुग दोसु लहुगो तीरगते ववहारे तीरित अकते उ गते तीसं ठवणा ठाणा तीसा तेत्तीसा वि य तीसा य पण्णवीसा तीसुत्तर पणवीसा तीसुत्तर सयमेगं तुब्भं अहेसि दारं तुब्भंतो मम बाहिं तुमए चेव कतमिणं तुल्ला उ भूमिसंखा तुल्ले वि इंदियत्थे तुल्लेसु जो सलद्धी तुवट्ट नयणे दहणे तेणं कुडुंबितेणं तेणग्गिसंभमादिसु तेणट्ठ मेहुणे वा तेण न बहुस्सुतो वी तेण पडिच्छालोए तेण परं सरितादी
१००० ३५० १७८ ११५४ १५२३ ३१६८ ३४६४ २५५१ २१२३ ३६३
तेण परिच्छा कीरति तेण य सुतं जहेसो तेण वि धारेतव्वं तेणादेस गिलाणे तेणा सावय वाला तेणेव गुणेणं तू तेणेव सेवितेणं तेणेहि वावि हिज्जति ते तस्स सोधितस्स य तेत्तीसं ठवणपदा ते तेण परिच्चत्ता ते नाऊण पदुट्टे ते पुण एगमणेगा ते पुण दोण्णी वग्गा ते पुण परदेसगते तेयनिसग्गा सोलस तेयस्स निसरणं खलु तेरससत अट्ठट्ठा तेरसवासे कप्पति तेलोक्कदेवमहिता तेल्लिय-गोलिय लोणिय तेवरिस तीसियाए तेवरिसा होति नवा तेवरिसो होति नवो ते वि भणिया गुरूणं ते वि य मग्गंति ततो तेसिं अब्भुट्ठाणं तेसिं कारणियाणं तेसिं गीतत्थाणं तेसिं चिय दोण्हं पी तेसिं जयणा इणमो तेसिं तु दामगाई तेसिं पायच्छित्तं तेसिं पि य असतीए तेसिं सरिनामा खलु तेहि निवेदिए गुरुणो तो अन्नं उप्पायंते तो उछितो गणिवरो
१४३३ १६५८ २३४४ ६३३ ६८३ ४०६६ १०४७ २६६७ १०६३
३८६ ४२०३ १२३१
२७४ ३६१६ ३५८० ४६६८ ४६६६
४०८ ४६६३ १०८३ ३७२५ ३२४२ २३१३ १५७७ ४४५१ ३५०४ ४१२३ १३५८ २२०० १३५७ १७४५ १३६१
८३६ ६७४/१ ४६६१ १६२७ १२६१ १५०२
३६८
१०६८, ११२०
४१७ ४६८८ १६६५ ३६५३
५६४ ४६०२ १०२८
२६१ १७६१ १८८३ ३२६२ २६३१ १७०४ ३७६६ ५०७
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________________
३४ ]
तो कणं कंदता तो छिंदिउं पवत्तो 'जाव अज्जरक्खित
तो ठवितं णो एत्थं तो गाउ वित्तिछेदं
तो तेसि होति खेत्तं
तो देति तस्स राया
तो भगति कलहमित्ता
तो भत्ती वणिओ तो विण्णवेंति धीरा
थंडिल्लसमायारिं थलकुक्कुडप्पमाणं घोडा
थलि घोडादिनिरुद्धा थथुतिधम्मक्ख था कुप्पति खमगो
थिग्गल धुत्तापोत्ते
थिरकरणा पुण थे थिर-परिधियपुव्वतो थिरपरिवाडी हिं थिरमउयस्स उ असती
थिरवक्खित्ते सागारि
थीविग्गह- किलिबं वा थुतिमंगलं च काउं श्रुतिमंगल-कितिकम् थूह सड्डि समणी
भविव्वण भिक्खू
थेरतरुणे भंगा
थेर-पवत्ती गीता
थेरमतीवमहल्लं
रस्स तस्स किं तू थेरा उ अतिमहल्ला रा स विदिणो थेराणमंतिए वासो थेरा तरुणा य तधा थेरा सामायारिं
थ
२४५७
१६५३
२३६५, २३६७
३५०१
४३८७
१८१६
३१०७
२०२८
२५६३
७८६
२७१
३६८४
३०७०
३०७२
३०३४
२५३०
३५४०
६६१
१५४७
१७२५
२२८५
२५२५
१२७५
६८८
६८४
११६१
२३३१
२३७१
६५२
२५६
२३४६
१४६१
३६०८
४५६७
३३७२
३०६३
थेरे अणरिहे सीसे
थेरे अपलिच्छन्ने
थेरेण अण्णा
थेरे निस्साणेणं
थेरो अरिहो आलोयणाय
थेत्ति काउं कुरु मा अवण्णं
थे पुण असहायो
थोवं पि धरेमाणो
थोवं भिन्नमासादिगाउ
थोवावसेसपोरिसि थोवावसेसिया
दंडनिक्खेवे दंडतिगं तु पुरति
दंड विदंडेली
दंडभम्म लो
दंडित सो उ नियत्ते
दंडिय कालगयम्मी दंडेण उ अणुसट्टा दंतच्छिन्नमलित्तं
दंते दिविचिण
दंसण-नाण-चरित् दंसण-नाणे चरणे दंसणनाणे सुत्तत्थ दंसणमणुमुतेण
मुद्देसि चे
वसोवा
द महंत महीरुह
गहुगो विसजण जोगे
द नडिं कोई
दट्ठूण वन्नधा गठि दत्तेणं नावाए
दहुरमादिसु कल्लाणगं
दधि-- गुल-तेल्लकरा
दप्प अकम्प निरालंब
परिशिष्ट - १
१४६०
१३५६
२०४७
२२६६
२३४८
३५०२
२३७२
११६१
८५१
३१०५
३१७६
१२५, २३१८
३३३
३४७७
५६२
१२६६
३१२७
१६००
८६५
३१४६
८५३, ८५४, १४१३, ४४६४
ξζξ
२८६
४४८५
१६२
२८२२, ३३०५
२८८७
४४४४
३५७१
२१२६
११४६
३४६८
४३७०
१०
२४७६
४४६२
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________________
परिशिष्ट-१
[ ३५
दप्पेण पमादेण व
२०५३ दारुग-लोणे गोरस दमगे वइया खीर घडि
१३८८ दास-भयगाण दिज्जति दविणस्स जीवियस्स व
६२५ दाहिंति गुरुदंडं तो दविय परिणामतो वा
४३३३ दिंते तेसिं अप्पा दव्वदुए दुपएणं
६८५ दिक्खेउं पि न कप्पति दव्वप्पमाणं तु विदित्तु पुव्वं
१३५० दिज्जति सुहं च वीसुं दव्वप्पमाणगणणा
२५०० दिलृ एतेण इमं दव्वम्मि लोइया खलु
१३
दिटुं कारणगमणं दव्वविसं खलु दुविधं
३०२८ दिटुंतसरिस काउं दव्वसिती भावसिती
४२३६ दिटुंतस्सोवणओ दव्वस्स य खेत्तस्स य
१२५६
दिटुंतो गुब्विणीए दव्वादभिग्गहो खलु
३८५५ दिटुंतो जध राया दव्वादि चतुरभिग्गह
३०५
दिटुंतो तेणएणं दव्वादि पसत्थवया
२०४५ दिद्रुतो परिणामे दव्वादी जं जत्थ उ
१४४० दिद्रुतोऽमच्चेणं दव्यावदिमादीसुं
८३ दिटुं लोए आलोगभंगि दव्वे खेत्ते काले १४६, १२५३, ३०८७, ३८०० | दिट्ठा खलु पडिसेवा दव्वेण य भावेण य
दिट्ठादिएसु एत्थं दव्ये तं चिय दव्वं
३११२
दिट्ठिवाए पुण होति दव्वे भविओ निव्वत्तिओ
१६७ दिट्ठीय होति गुरुगा दव्वे भाव पलिच्छद
१४०८ दिट्ठो मायि अमाई दव्वे भावे असुई
१६४१, १६४२ दिट्ठो व समोसरणे दव्वे भावे आणा
३८८६ दिणे दिणे जस्स उवल्लियंती दब्वे भावे भत्ती
२६७० दिण्णमदिण्णो दंडो दव्वे भावे संगह
१५०६ दिन्नज्जरक्खितेहिं दव्वे य भाव भेदग
१६४ दिन्ना वा चुणएणं दव्वेहि पज्जवेहिं
४०५५ दिय-रातो निच्छुभणा दस चेव य पणयाला
५३३ दिव-रातो उवसंपय दस ता अणुसजंती
४१८१ दिवसस्स पच्छिमाए दसदिवसे चउगुरुगा
२०५६ दिवसा पंचहि भइता दसविधवेयावच्चे १६६५, २६०६, ४५८७, ४६७५ दिवसेण पोरिसीय व दसहि गुणेउं रूवं
दिवसे-दिवसे वेउट्टिया दसुदेसे पच्चंते
१००५
दिवसेहि जइहि मासो दस्सुत्तरसतियाए
४१६ दिव्वमणुया उ दुग तिग दहिकुड अमच्च आणत्ति
१६६४ दिव्वादि तिन्नि चउहा दाण दवावण कारावणेसु
१५१६ दिसा अवर दक्खिणा य दाणादि सड्ढकलियं
३६४६ दिसिदाह छिन्नमूलो दाणादी संसग्गी
२६०० दीणा जुंगित चउरो
३७२० ३७१३ २७५२ ३६०३ १४५१ १३४२ ३८७२
६४८ २४१३ ४३६६ ३२४६ १३०१ ४२०६ ४६२४ ३६६२ ८२८ २२७ ३४२२ ४६७० २३७४ ३६७१/२ १४४४ ३३५१
३४१ ३६०५ ३३२३ ३३४७
२४६
३०३६ ३७३, ३७७
११३५ २०५४
३७५ ४४०२ ३८४२ ३२६८ ३११६ १४४८
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________________
३६ ]
परिशिष्ट-१
४४५७
२८
३५८४
५६८ - ३६५८ ३६७१/१
८५२
दीवेउं तं कज्जं दीवेह गुरूण इमं दीसंतो वि हु नीया दीसति धम्मस्स फलं दुक्खं हितेसु वसधी दुक्खत्ते अणुकंपा दुक्खेण उ गाहिज्जति दुक्खेण लभति बोधिं दुगुंछिता वा अदुगुंछिता वा दुच्छडणियं च उदयं दुट्ठो कसायविसएहि दुण्णि वि दाऊण दुवे दुण्हेगतरे खमणे दुधावते समासेणं दुन्निविट्ठा व होज्जाही दुपय-चउप्पय पक्खी दुब्भासिय हसितादी दुब्भिगंध परिस्सावी दुम्मेहमणतिसेसी दुल्लभदव्वं पडुच्च दुल्लभदव्वे देसे दुल्लभभिक्खे जतिउं दुल्लभलाभा समणा दुल्लभे सेजसंथारे दुविधं पि य वितिगिट्ठ दुविधं वा पडिमेतर दुविधतिगिच्छं काऊण दुविधा छिन्नमछिन्ना दुविधाऽवहार सोधी दुविधाऽसतीय तेसिं दुविधेण संगहेणं दुविधेहि जड्डदोसेहिं दुविधो अभिधारतो दुविधो खलु ओसण्णे दुविधोधाविय वसभा दुविधो य अधालहुसो दुविधो य होति कालो दुविधो साविक्खितरो
३३८६ दुविहं तु दप्प-कप्पे
६७६ दुविहम्मि वि ववहारे २४६५ दुविहा जातमजाता १२५६ दुविहा पट्ठवणा खलु १७५३ दुविहा सुतोवसंपय १५११ दुविहो अभिधारतो ४५८८ दुविहो खलु पासत्थो १६६० दुविहो य एगपक्खी ६४२
दुसमुक्कट्ठ निक्खिव ३७६१ दुहओ भिन्नपलंबे ४१५३ दुहओ वि पलिच्छन्ने २२६४
दूती अदाए ता २६६ दूयस्सोमाइज्जति ३८४६ दूरं सो विय तुच्छो ३८६६ दूरगतेण तु सरिए ३८६० दूरस्थम्मि वि कीरति
२४२ दूरत्थो वा पुच्छति ३७७४ दूरे चिक्खल्लो वुट्टि ४६३७ दूरे ता पडिमाओ १३५५ देंता वि न दीसंती ११३४ देति अजंगमथेराण २७३४ देति सयं दावेति य २४५१ देविंदचक्कवट्टी ३४०६ देविंदा नागा वि य २६५५
देवो महिड्डिओ वावि २९०७
देसं दाऊण गते १३०६ देसं वावि वहेज्जा ३६१६
देसेण अवक्कंता
देसे देसे ठवणा ६७४, १५७५ देसे सव्वुवहिम्मी
१६४२ देसो सुत्तमधीतं ४६३३
देहवियोगो खिप्पं ३६६८ दोच्चं व अणुण्णवणा
८८२ दोण्णि व असंजतीया ३६५५
दोण्णि वि जदि गीतत्था ३५३७
दोण्हं अणंतरा होति ३१६३ दोण्हं चउकण्णरहं १५६६ | दोण्हं तु संजताणं
१२६६ २०१६
१८४ १४७१ २४३६ २४४० ३५६६ २११५ १५८८ २३४० ३६०६
८१३ ४१६४, ४१७०
४६४३ १५१८ २५६६ ४६६५ ३८०२ ३३३७ ७६४ ८६१ १६६८ ३६१८ १५६६ ४३३७ ३५१० २६२४ २६१० ३६६० १८५२ १८३२
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________________
परिशिष्ट-१
[३७
दोण्हं पि अणुमतेणं दोण्हं विहरंताणं दोण्ह जतो एगस्सा दोण्ह वि बाहिरभावो दोण्ह वि विणिग्गतेसं दोण्हेगतरे पाए दो थेर खुड्ड थेरे दो पायाणुण्णाया दो पुत्त पिता-पुत्ता दो भाउगा विरिक्का दो भिक्खू ऽगीतत्था दोमादि ठिता साधारणम्मि दोमादि संतराणि उ दोमादी गीतत्थे दो रासी ठावेज्जा दो संघाडा भिक्खं दोसविभवाणुरूवो दोसा उ ततियभंगे दोसा कसायमादी दोसाण रक्खणट्ठा दो साहम्मिय छब्बारसेव दोसु अगीतत्थेसुं दोसु तु वोच्छिन्नेसुं दोसु वि वोच्छिन्नेसुं दो सोय नेत्तमादी दोहिं तु हिते भागे दोहि तिहि वा दिणेहिं दोहि वि अपलिच्छन्ने दोहि वि गिलायमाणे दोहि वि गुरुगा एते दोहि हरिऊण भागं
१२४५ धम्मकहि महिड्ढीए १०१३ धम्मकही-वादीहिं ३६२५ धम्ममिच्छामि सोउं जे १३०६ धम्मसभावो सम्मइंसणयं २२३५ धम्मायरि पव्वावण ३८१८
धम्मिओ देउलं तस्स २०४८ धम्मो कहेज तेसिं ३५६६ धम्मो य न जहियव्वो २०४६ धरमाणच्चिय सूरे १४०६ धारणववहारेसो २१६४ धारिय-गुणिय-समीहिय १८०२ धावति पुरतो तह मग्गतो ३४६७ धित्तेसिं गामनगराणं १६६६ धीरपुरिसपण्णत्ते
धीरपुरिसपण्णत्तो २२७५ धीरा कालच्छेदं १७२, ६१५ धुव आवाह विवाहे
१६८२ धुवकम्मियं च नाउं ४१५० धुवणे वि होंति दोसा ३५२४ धुवमण्णे तस्स मज्झे
धोतम्मि य निप्पलगे २१६५ धोतावि न निद्दोसा ४१८२ ४१८३ ४४१२ नउतीए पक्ख तीसा २०५
नंदि-पडिग्गह-विपडिग्गहे ३०१ नंदीभासणचुण्णे १३७६ नंदे भोइय खण्णा
१०३८ न करेंताऽऽवासं वा ५८६, ५६१, ५६३ न करेति भुजिऊणं ५३१
न किलम्मति दीघेण वि नक्खत्ते चंदे या
नग्धंति नाडगाई २८५२ नच्चणहीणा व नडा २०५६ नणु भणिय रसच्चाओ २३२० नणु सो चेव विसेसो २८३६ न तरंती तेण विणा ३६७६ | न तरति सो संधेलं
१७३६ २४६१ १८४० ४१४५ ४५६३ २८८३ ३५०० ४५८५
६८१ ४५०७, ४५२०
१४६६ ४५५८
६३५ ४३४८ ४५३६ २२८० ३७३६ २५४१ १७७१ ३३६१ ३२२४ २८००
६७६
४१५ ३६३३ ३०३८ ७१६ ६५५ २१२७ ७८५ १६८ ३००६ २५६५ 999 १११४ २६६२ १३०७
धम्मं जई काउ समुट्ठियासि धम्मकधा इड्डिमतो धम्मकह निमित्तादी धम्मकहनिमित्तेहि य धम्मकहा सुत्ते या
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--------------------------------------------------------------------------
________________
३८]
परिशिष्ट-१
२३० १०८४ ३१७२ १६८० २०६० ३४६३ १६५२ ४००३
१६८८, १६८६
२८३० १६३३ १७८३
१५५ ४३०४ ४३०३ ४०६३ ३०५०
नत्थि इहं पडियरगा नत्थि वत्थु सुगंभीरं नत्थी संकियसंघाड नत्थेयं मे जमिच्छसि नदिसोय सरिसओ वा न पगासेज लहुत्तं न य छड्डिता न भुत्ता न य जाणति वेणइयं न य बंधहेतुविगलत्तणेण नयभंगाउलयाए न य भुंजतेगट्ठा न लूओ अध साली उ नवंगसुत्तप्पडिबोहयाए नवकालवेलसेसे नवघरकवोतपविसण नवडहरगतरुणगस्स नवणीयतुल्लहियया नवतरुणो मेहुण्णं नवमं तु अमच्चीए नवमस्स ततिरवत्थू नवमासगुव्विणीं खलु नवयसता य सहस्सं नवरि य अन्ने आगत नववज्जियावदेहो नवविगतिसत्तओदण न वि उत्तराणि पासति न विणा तित्थं नियंठेहि न वि देमि त्ति य भणिते न वि य समत्थो वन्नो न विरुज्झंति उस्सग्गे न वि विस्सरति धुवं तू न विसुज्झामो अम्हे न संति साधू तहियं विवित्ता न संभरति जो दोसे नस्सए उवणेतो सो न हु कप्पति दूती वा न हु गारवेण सक्का न हु ते दव्वसंलेहं
३०४ ३४६६ २७६ २७७ २८६८ ४३७६ १६१२ १३६६ ११०६ १४६७ २७६१ २६५४ ४४११ ३२०८ २५८१ १५८० २६६८ १५६४ १६०६
५४० ३८६३
४०६ ३४४१
२५१ ४३२५ २५६६ ४२१७ १२८६ ६६६ १२३ ४१०८ १२३६ १८१४ ४०६७ २६५६ २८५८ १७२३ ४२६१ ।
न हु सुज्झती ससल्लो न हु होति सोइयव्यो नाऊण कालवेलं नाऊण परिभवेणं नाऊण य निग्गमणं नाऊण सुद्धभावं नाएण छिन्न ववहार नाए व अनाए वा नाणं नाणी णेयं नाण-चरण-संघातं नाणचरणस्स पव्वज्ज नाण-चरणे निउत्ता नाण-तवाण विवड्ढी नाणत्तं दिस्सए अत्थे नाणनिमित्तं अद्धाण नाणनिमित्तं आसेवियं नाणमादीणि अत्ताणि नाणम्मि असंतम्मी नाणस्स दंसणस्स य नाणायार विराहितो नाणी न विणा नाणं नाणे नाणायारं नातं आगमियं ति य नातिथुल्लं न उज्झंति नाम ठवणा दविए
३०५३
३२३८
४० ८७८
नाम ठवणा भिक्खू नामम्मि सरिसनामो नामादिगणो चउहा नामा वरुणा वासं नामेण य गोत्तेण व नामेण वि गोत्तेण य नायम्मि गिण्हियव्वे नायविधिगमण लहुगा नाल पुर पच्छ संथुय नालबद्धा उ लब्भंते नालबद्धे अनाले वा नालबद्धे उ लब्भंते
४०३६
४६४० १६६, २१०, २१३, ६६५
६८०, ९८६
१८८ ६८७ १३६५ ४६६२ १०४३
७५१ ४६६१ २४५० ३६५६ २१६० २१७६ २१६४
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________________
परिशिष्ट-१
[ ३६
४०४७
४४४ १७२४, ४२५२
४२६६ ११६२ २८५७
७५४ ४४५३
२४
नालीधमएण जिणा नालीय परूवणया नासेति अगीयत्थो नासेति असंविग्गो नाहं विदेस आहरणमादि नाहिंति ममं ते तू निउणमतिनिजामगो निक्कारणदप्पेणं निक्कारणपडिसेवी निक्कारणम्मि गुरुगा निक्कारणिएऽणुवदेसिए निक्कारणे असुद्धो उ निक्कारणे न कप्पंति निक्खित्तगणाणं वा निक्खित्तनियत्ताणं निक्खित्तम्मि उ लिंगे निक्खिवणे तत्थ गुरुगा निक्खिव न निक्खिवामी निग्गंतूण न तीरति निग्गंथाण विगिटे निग्गंथीणं पाहुड निग्गंथीणऽहिगारे निग्गमणं तु अधिकितं निग्गमणमवक्कमणं निग्गमणे चउभंगो निग्गमणे परिसुद्धे निग्गमऽसुद्धमुवाएण निग्गयवटुंता विय निग्गिज्झ पमज्जाही निच्चं दिया व रातो निच्छयतो पुण अप्पे निज्जवगो अस्थस्सा निज्जूढं चोद्दसपुब्बिएण निजूढो मि नरीसर निज्जूहगतं दटुं नितहादि पलोयण निहित महल्ल भिक्खे नितियादि उवहि भत्ते
३६४६ २६११ २१४२ २२२५ २२५० १२६८ ३०७७
७६५ २२४१ २६७३ ३००७
नित्थिण्णो तुज्झ घरे निदारेसण जध मेत्थ निद्दोसं सारवंतं च निद्ध-महुरं च भत्तं निद्धमहुरं निवातं निद्धाहारो वि अहं निद्भूमगं च डमरं निप्पडिकम्मो वि अहं निप्पत्तकंटइल्ले निष्फण्णतरुण सेहे निब्भच्छणाय बितियाय निब्भयओरस्सबली निम्माऊणं एग नियमा विज्जागहणं नियमा होति असुण्णा निययं च तहावस्सं निययानिययविसेसो निययाहारस्स सया निरवेक्खे कालगते निरवेक्खो तिण्णि चयति निरुवस्सग्गनिमित्तं निवमरणमूलदेवो निववेटुिं च कुणतो निवेदणियं च वसभे निव्वाघाएणेवं निव्वितिए पुरिमड्ढे निव्विति ओम तव वेए निसज्जं चोलपट्टे निसीध नवमा पुव्वा निसेज्जऽसति पडिहारिय निस्संकितं तु नाउं निस्संकियं व काउं निस्संकिय निक्कंखिय निस्सग्गुस्सग्गकारी य निस्सेसमपरिसेसं नीतम्मि य उवगरणे नीता वि फासुभोजी नीयल्लएहि उवसग्गो
११८३ ४६८६ ३०२३ १०६८ १६६० २५५३ १५६५ २६६१
३०८ ३६१८ ४२१० १४३५ २०१५ २४२४ १७४८ २०८३ ३७१४ ३६८२ १८६५
४१६६ ५४७, ७६८
४५२ १०५३ २८४२
४३७४ १६३, ६२०
१६०१ ३७६२ ४३५ ३१५ ३५४२ २८६१
२८३४
७६८ ६०७ २२३० २७५ २८२ ४७२ २५२८ ३८३७ २६३७ ४१०३ ४४३१ १२२४ ६६८ ६६७ २१०८ १६७०
२७५७ ४१४२ ३५६१ १५५१ २१११
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४०]
परिशिष्ट-१
नीयल्लगाण तस्स व नीयल्लगाण व भया नीलीराग खसटुम नीसंकितो वि गंतूण नीसंको वणुसिट्ठो नीसट्ठ अपडिहारी नीसिरण कुच्छणागार नीह त्ति तेहि भणिते नीहरिउं संथारं नेगाण विधिं वोच्छं नेच्छंति देवरा मं नेवइया पुण धन्नं नोइंदिइंदियाणि य नोइंदियपच्चक्खो नोकारो खलु देसं
११८५ १८०६ १३८३ ३६६६ ३६६८ ३७१५ १७७० ३६४८ ३५१६ ३२५८ २४७२ १७८१ १५४१ ४०३१ १३६०
१४०
८६० २०७६ ४५४० ३१३३ २७०५ ४१८४ ४१८८ २४७३
७३३ १४६४ ३५५० ३५६३ ३५५३ ३५५१ ३११५ ३११४ १६६८ २६६८ ३५७६
२३४ ४१३६ ३१२८ २६६१ ३८३१ १३११ ३८२३ ३६८८
२१६ ३८२४
पउरण्णपाणगमणं पउरण्ण-पाणगामे पउरण्णपाणपढमा पउरण्णपाणियाई पंचण्हं परिवुड्ढी पंचण्ह दोन्नि हारा पंचण्हुवरि विगट्ठो पंचण्हेगं पायं पंचम निक्खित्तगणो पंचमहव्वयधारी पंचमियाय असंखड पंच य महव्वयाई पंच व छस्सत्तसते पंच व छस्सत्तसया पंचवि आयरियादी पंचविधं उवसंपय पंचविधमसज्झायस्स पंचविधे कामगुणे पंचविहो ववहारो पंचसता चुलसीता पंचसता जंतेणं
पंचादी आरोवण पंचासवप्पवत्तो पंचाहग्गहणं पुण पंचिंदि धट्ट तावण पंचिंदियाण दव्वे पंचेते अतिसेसा पंचेव नियंठा खलु पंचव संजता खलु पंतवण बंधरोहं पंतावणमीसाणं पंथम्मि य कालगता पंथे उवस्सए वा पंथे ठितो न पेच्छति पंथे न ठाइयव्वं पंथे वीसमण निवेसणादि पंसू अच्चित्तरजो पंसू य मंसरुधिरे पक्कल्लोव्व भया वा पक्खस्स अट्ठमी खलु पक्खिगापक्खिगा चेव पक्खिय चउ संवच्छर पक्खियपोसहिएसुं पगत बहुपक्खिए वा पगतसमत्ते काले पगता अभिग्गहा खलु पगतीए मिउसहावं पगया अभिग्गहा खलु पगामं होति बत्तीसा पग्गह लोइय इयरे पग्गहितं साहरियं पग्गहियमलेवकडं पच्चंत सावयादी पञ्चंते खुब्भंते पच्चक्खागमसरिसो पच्चक्खी पच्चक्खं पञ्चक्खो वि य दुविहो पच्चागता य सोउं पच्छन्न राय तेणे
१९८६
१०६ ३२७० १६४६
३६० ३२८१ ४६५७ ३५६८ १६३१
८७० ३२७१ १६२६ ४२६१ ४२६६ २६१६ १६६२ ३१५५
६२८ ४०२८ ४०६
८०४
२०६१
६४८ ४०३५ ४०४६ ४०३० ११७७ .१८६४
४४१८
Page #636
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ४१
२२०३
१९५० ४३१६ २२६१ २४६३ ३८०६
६६
२३६४ २४२० ૨૪૬૭ २८०५ ८६८/३
६००
पच्छा इतरे एगं पच्छाकडो भणेजा पच्छाविणिग्गतो वि हु पच्छा वि होति विकला पच्छासंथुतइत्थी पच्छित्तं इत्तरिओ पच्छित्तं खलु पगतं पच्छित्तऽणुपुच्चीए पच्छित्तस्स उ अरिहा पच्छित्ते आदेसा पच्छिल्लहायणे तू पज्जोयमवंतिवति पट्टग घेत्तूण गतो पट्टवितम्मि सिलोगे पट्टवित वंदिते वा पट्टविता ठविता य पट्ठविता य वहंते पडिकारा य बहुविधा पडिकुटेल्लगदिवसे पडिणीय अकिंचकरा पडिणीयऽणुकंपा वा पडिणीय-मंदधम्मो पडिणीयम्मि उ भयणा पडिणीययाए केई पडिणीययाए कोई पडिपुच्छिऊण वेजे पडिबोहग देसिय सिरिघरे पडिभग्गेसु मतेसु व पडिमा उ पुव्वभणिता पडिमापडिवण्ण एस पडिमाहिगारपगते पडिमुप्पत्ती वणिए पडियरति गिलाणं वा पडियरते व गिलाणं पडिलेहण पप्फोडण पडिलेहण मुहपोत्तिय पडिलेहण संथारं पडिलेहणऽसज्झाए
पडिलेह दिय तुयट्टण ३३३० पडिलोमाणुलोमा वा ३६१० पडिवण्णे उत्तमढे १४५२ पडिवत्तीकुसलेहिं १२७३ पडिवत्ती पुण तासिं ११६८ पडिरूवग्गहणेणं १०७१
पडिरूवो खल विणओ ५७७ पडिसिद्धमणुण्णातं ४७६ पडिसिद्धा सन्निही जेहिं ३८६७ पडिसेधे पडिसेधो ४२४७ पडिसेधो पुव्वुत्तो
७.४ पडिसेधो मासकप्पे २६४२ पडिसेवओ य पडिसेवणा ३२१८ पडिसेवओ सेवंतो ३१६२ पडिसेवणं विणा खलु ५६६ पडिसेवणा उ कम्मोदएण
पडिसेवणातिचारा २६४३ पडिसेवणातियारे
३०६ पडिसेवणा तु भावो १५६० पडिसेवणा य संचय ३७६६ पडिसेवणा य संजोयणा १७१३ पडिसेवति विगतीओ २८३
पडिसेवि अपडिसेवी ४४२१ पडिसेविएँ दप्पेणं ४४२० पडिसेवितं तु नाउं २३६२ पडिसेवितम्मि सोधिं १३७३ पडिसेविते उवेक्खति १७६८ पडिसेवियम्मि दिज्जति ३७८० पडिसेविय रायाणो ३८५४ पडिसेहं तमजोरगं .३७८६ पडिसेहियगमणम्मी २५६१ पडिहाररूवी भण रायरूविं २२८६ पडिहारियगहणेणं २२१० पडुच्चायरियं होति ४१३८ पढमं कजं नामं
८६४ पढमगभंगे इणमो
४३४५ पढमगसंघयणथिरो २७०, ६५३; ६५४ । पढमचरमाण एसो
३८ १३६ २२६
४३०८ ४०६५, ४०६५/१
३६ ५७२
३६ ४३०५ १२६४
२२६ २६२५
२२ ६६५
५२ ६३४ २५८७ १२८७ १२२०
६६१ ४५६५ ४४८१ ३६०५ ४०६४ २११६
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________________
४२ ]
परिशिष्ट-१
WWW
पढमचरिमेसऽणुण्णा
२११३
पण्णवगस्स उ सपदं पढम-ततिएमु पूया
५८३ पण्णविता य विरूवा पढमत्ततिया एत्थं
४५५६ पण्णाए पण्णट्ठी पढमदिणनियत्तंते
१२५८
पण्णे य थंते किमिणे य पढमदिणमविष्फाले
२४८ पतिलीलं करेमाणी पढ़मदिणम्मि न पुच्छे
२६८ पत्तं ति पुप्फ ति फलं ददंती पढमबितिएसु कप्पे
४३१४ पत्तस्स पत्तकाले पढमबितिएहि न तरति
१०५२ पत्ताण अणुण्णवणा पढमबितिओदएणं
२८६४ पत्ताण-वेल पविसण पढम-बितियादलाभे
७६३
पत्ताण समुद्देसो पढमम्मि य संघयणे
४४०१ पत्ता पोरिसिमादी पढमम्मि सव्वचेट्ठा
३१०६ पत्तिय पडिवक्खो वा पढमस्स नत्थि सद्दो
४६३१ पत्ते देंतो पढमो पढमस्स य कज्जस्सा ४४६५-४४७४, ४४६०-४४६२, पत्तेयं पत्तेयं
४४६४-४४६६ पत्तेयं भूयत्थं पढमस्स होति मूलं
१६५,६०६ पत्तेयबुद्धनिण्हव पढमा उवस्सयम्मी
७८० पत्थगा जे पुरा आसी पढमा ठवणा एक्को
३६७-३६६ पत्थर छुहए रत्ती पढमा ठवणा पंच य
३६२-३६४ पत्थरमणसंकप्पे पढमा ठवणा पक्खो
३८७-३८६ पदगयसु वेयसुत्तर पढमा ठवणा वीसा
३८२-३८४ पदमक्खरमुद्देसं पढमाऽसति बितियम्मि वि
१६७४ पभुदारे वी एवं पढमा सत्तिगासत्त
३७८२ पमेहकणियाओ य पढमो त्ति इंद-इंदो
१५६ पम्हट्ठमवि अन्नत्थ पढमोऽनिक्खित्तगणो
१६३०
पम्हुढे गंतव्वं पणगं पणगं मासे
१३३६ पम्हुतु पडिसारण पणगं मासविवड्ढी
४०४० पयत्तेणोसधं से पणगादिसंगहो होति
२७३ परं ति परिणते भावे पणगादी जा गुरुगा
२०२५ परखेत्तम्मि वि लभती पणगादी जा मासो
१२६० परखेत्ते वसमाणे पणगेणऽहिओ मासो
५२५ परचक्केण रट्ठम्मि पणगो व सत्तगो वा
१७३१ परतो सयं व णच्चा पणतीसं ठवणपदा
३६१
परपच्चएण सोही पणपण्णिगादि किड्डिसु
१६२२ परबलपहारचइया पणिधाणजोगजुत्तो
परबलपेल्लिउ नासति पण्णत्तीकुसलो खलु
१५०१ परमन्न भुंज सुणगा पण्णरसे चारणभावणं ती
४६६७ परलिंग निण्हवे वा पण्णरसे व उकाउं
३८३४ | परलिंगेण परम्मि उ
४१७५ ११५० ४१३
८५० २६४५ ४६२५ ४६७२ ३६२१ २४६२ ३०३५ २८५४ १२३८
४५८३ ४३६,५१३ २६२८ ६६४ १४६ ८१६ ८१७ ३७८७ ४४५४ ३४५३ ३७६६
३५५८
३५६७
३१६ २०२३ २०७६ ३६८४ ३६५५ २८१६ ४२७६
१६ १०४२ १६३६ १९३८ १८६५ १६००
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________________
परिशिष्ट - १
परवादी उवसग्गे
परवादीण अगम्मो
परवादीहि न खुब्भति
परिकम्मं कुणमाणे परिकम्मणाय खवगो परिकम्मितो वि बुच्चति
परिकम्मेहि य अत्था परिग्गहे निजुजंता परिचियसुओ उ मग्गसिर
परिजितकालामंतण
परिणो उदरि परिणामाणवत्थाणं
परिणामियबुद्धी
परिणामो जं भणियं परिणाय गिलाणस्स य
परिणिट्ठित परिण्णाय
परिणिव्वविया वा
परिताव अंतराया
परिभाइयसंस
परिभूयमति एतस्स परिमित असती अण्णो
परिमितभत्तगदाणे
परियट्टिजति जहियं
परिवार इड्डि-धम्मक हि
परिवारहेउमन्नट्टयाय परिसाडि अपरिसाडी
परिसाडिमपरिसाडी
परिसाडी पडिसेधो
परिसा ववहारी या
परिहरति असण-पाणं
परिहरति उग्गमादी परिहार ऽणुपरिहारी परिहारविसुद्धीए परिहारिओ उ गच्छे
परिहारि कारणम्मि
परिहारियाण उं विणा
परिहारियाधिकारे परिहारो खलु पगतो
१४३६
२६७७
१३७१
१३०५
७६५
७६२
१८२७
२४१८
500
७६६
२०६६
२७५६
१६७८
४६२२
७४८
४०७५
४१०२
२५३५
१३४७
७१३
१३४६
२५०३
४६६४
१७१६
३०५५
३३६०
३५११
३५१२
१६७०
१५२१
६००
५६६
४१६१
६६४
१०५४
६२४
१०३६
६६०
परिहारो वा भणितो
परोक्खं उगं अत्यं
परोग्गहं तु सालेणं पलिउंचण चउभंगो
पवडेज्ज व दुब्बद्धे
पवत्तिणि अभिसेगपत्त
पवयणकजे खमगो
पवयणजसंसि पुरिसे
पवित्तिणिममत्तेणं
पव्वज्र अप्पपंचम
पव्वज्जादी आलोयणा
पव्वज्जादी काउं
पव्वज्जापरियाओ
पव्वज्जाय कुलस्स य पव्वज्जा सिक्खावय
पव्वावइत्ताण बहू य सिस्सा
पव्वावणा सपक्खे
पव्वावणुवट्ठावण पव्वावितोऽगीतेहि
पव्वावियस्स नियमा
पव्वावे ं तहियं
पहगामऽचित्त चित्तं
पहनिग्गयादियाणं पाउणति तं पवाए
पाओवगमे इंगिणि
पागडियं माहप्पं
पाणगजोग्गाहारे
पाणगादीणि जोग्गाणि
पाणदयखमणकरणे
पाणवह-मुसावादे
पाणसुणगा व भुंजति पाणा थंडिल वसधी
पाणी कुं पाणिपडिग्गहियस्स वि
पाणिवह-मुसावाए
पादपरिकम्म पादे
पादोवगमं भणियं
पादोवगमे इंगिणी
[ ४३
१३३६
४६०६
३७४५
५८०
३४६६
७२४
१७२२
४५०८
२८४५
१५४६
४३०२
४२२३, ४३६१
४६४५
१३०३
७७४/१, ७७४/२
१३८६
२६३४
४५६०
२०६४
२६५३
२१५३
२२१२
३५८५
३७६३
४२२२
२५६८
४३१७
४२८३
३६०७
११६
२५५
१७६६
३४१२
३८१७
४५ ४६७६ ४३६५
४२२१
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________________
४४ ]
परिशिष्ट-१
१६२८ ४३२० २७८६ ४१७६ ४३३०
३२०२ ३१६४ ३२०० ४५०४ ३२१० १९८६
३४ ४०२७ ४२१५ ११६७ ३६४२
१२१ ४६३५
५७३
४१६६ १७१२, १७३०
२८६४ २१०४ १६२२
७६६ ४०३६
१७३६ २५३७
४७० १०४०
१४ १५, ३१
पादोसिएण सव्वे पादोसितो अभिहितो पादोसियड्डरत्ते पाबल्लेण उवेच्च व पाभातियम्मि काले पायं न रीयति जणो पायच्छित्तनिरुत्तं पायच्छित्ताऽऽभवंते य पायच्छित्ते असंतम्मि पायच्छित्ते दिन्ने पायच्छि-नास-कर-कण्ण पायसमा ऊसासा पायस्स वा विराधण पारंचि सतमसीतं पारगमपारगं वा पारायणे समत्ते पारावयादियाई पारिच्छनिमित्तं वा पारिच्छहाणि असती पारेहि तं पि भंते पारोक्खं ववहारं पावं छिंदति जम्हा पावयणी खलु जम्हा पावस्स उवचियस्स वि पावासि जाइया ऊ पास उवरिव्व गहितं पासंड भावितेसुं पासंडे व सहाए पासंता वि न जाणंति पासंतो वि य काये पासहितो एलुगमेत्तमेव पासत्थ अधाछंदा पासत्थगिहत्थादी पासत्थमगीतत्था पासत्यादि कुसीले पासत्यादिविरहितो पासस्थिममत्तेणं पासत्थे आरोवण
२६
पासत्थे ओसण्णे पासत्थोसन्न-कुसील पासवण अन्न असती पासायस्स उ निम्मं पासित्तु ताणि कोई पासो त्ति बंधणं ति य पाहुड विजातिसया पाहुणगा गंतुमणा पिंडस्स जा विसोधी पिच्चा मरिउं पि सुहं पियधम्मा दढधम्मा पियधम्मे दढधम्मे पियधम्मो जाव सुयं पिय-पुत्त खुड्ड थेरे पियरो व तावसादी पीलित विरेडितम्मी पीलेंति एक्कतो वा पुंडरियमादियं खलु पुक्खरिणी आयारे पुक्खरिणीओ पुविं पुच्छाए नगणतं पुच्छाहि तीहि दिवसं पुट्ठा अनिव्वहंती पुट्ठापुट्ठो पढमो पुट्ठा व अपुट्ठा वा पुट्ठो वासु मरिस्सति पुढवि-दग-अगणि-मारुय पुणरवि चउरण्णे तू पुणरवि चोएति ततो पुणरवि जे अवसेसा पुणरवि भण्णति जोगो पुणरवि य संजतित्ता पुणरवि साहति गणिणो पुणो वि कध मिच्छंते पुण्णम्मि अंत मासे पुण्णे व अपुण्णे वा पुत्तादीणं किरियं पुत्रो य तेसिं तहिँ मासकप्पे
३५
२६३२
८४६ ३२१२ १३५६ १७८२ ११६६ ४६१६ १११६
३८७६ ८३४, ९८६
१५८४ ३६७६ २८६८ १६२३ २६७२
२०४६ १५५० ३७३० ३७२६ ११३३ १५२५ १५२७
• ३४५० १८०३, २२२७
२३१६ ४५६८ ११८७
१४२४ १४८८/१, ४०११, ४४०४
४२४२ १४५ ४६१ २५२१ १८८४ २३१७ १९४१ ३५१३ २१०३ ११०२ ३६२७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ४५
३०३०
पुष्फावकिण्ण मंडलिया पुमं बाला थिरा चेव पुरपच्छसंथुतेहिं पुरपच्छसंथुतो वा पुरिसं उवासगादी पुरिसज्जाया चउरो पुरिसस्स उ अइयारं परिसस्स निसग्गविसं पुरिसे उ नालबद्धे पुव्वं अपासिऊणं पुव्वं आयतिबंध पुव्वं गुरूणि पडिसेविऊण पुव्वं च मंगलट्ठा पुव्वं ठावेति गणे पुव्वं तु अगहितेहिं पुव्वं तु किढी असतीय पुव्वं पच्छुद्दिढं
३०८५
१८०६ पूव्वावरबंधेणं ४०२६ पुब्बिं अदत्तदाणा .७८६ पुट्विं कोडीबद्धा ३७१६ पुव्विं चउदसपुब्बी ४११३ पुव्विं छम्मासेहिं ४५५५ पुव्विं सत्थपरिण्णा ४५११ पुव्बुद्दिढं तस्सा
पुबुद्दिट्टो य विधी १२६६ पुव्वोवठ्ठपुराणे ४०५७ पूए अहागुरुं पि १८६८ पूएऊण विसजण
५७८ पूयं जहाणुरूवं २५०७ पूर्वति य रक्खंति य १९६३ पूयणमहागुरूणं २४०२ पूयत्थं णाम गणो
पूया उ दटुं जगबंधवाणं १३१४, १३१५, १३१७, पेज्जादि पायरासा १३१६, १३२० पेढियाओ य सव्वाओ
११५ पेसवेति उ अन्नत्थ
७६ पेसी अइयादीया ३८६१
पेसेति उवज्झायं १५२४, ३०४६ पेसेति गंतुं व सयं व पुच्छे
१२३७ पेसेति गिलाणस्स व ३६०८ पेहाभिक्ख कितीओ ३६०४
पेहाभिक्खग्गहणे ६२५ पेहा-वियार-झायादी ७६३ पेहितमपेहितं वा ३०२४ पेहिते न हु अन्नेहिं
૨૨૭૬ पेहेऊणं खेत्तं ४४०७, ४४०८ पेहेत्तुच्चारभूमादी ११४२, ४३६७ पोग्गलअसुभसमुदओ
२२८८ पोसगसंवर-नड-लंख २४६७ ३३५७ ५७५ फणसं च चिंच तल नालि ५७६ फलमिव पकं पडए २४६८ फलितं पहेणगादी ४४०० | फालहियस्स वि एवं
१४६८ २५८८ १५३५ १५३० १५३७
१५३१ १३१३, १३१६, १३१८
११०५ ४६०५ ४११७ १६०८ १४८५ २५६६ १५१२ १४०० १८१३ २६४२ २६६३ २१७० ३२४७ १२१६ १३३० २१७१ २१८३ १०४६
३३१३ २७८७,३६३४
३६२६ ३६४२ ३५२७ ११४० १४४६
पुव्वं पट्ठवणा खलु पुव्वं बुद्धीए पासित्ता पुव्वं व चरति तेसिं पुव्वं वण्णेऊणं पुव्वं वतेसु ठविते पुव्वं विणिग्गता पच्छा पुव्वं विणिग्गतो पुव्व... पुव्वंसि अप्पमत्तो पुव्वं सो सरिऊणं पुव्वण्हे यावरण्हे य पुव्वभणिता तु जतणा पुव्वभवियपेम्मेणं पुव्वभवियवेरेणं पुवम्मि अप्पिणंती पुव्वाउत्तारुहिते पुव्वाणुण्णा जा पुव्वएहि पुव्वाणुपुवि दुविधा पुव्वाणुपुब्बि पढमो पुव्वारुहिते य समीहिते पुव्वावर दाहिण उत्तरेहि
३७४४ १६६७ ३८२१ २३२६
Page #641
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________________
४६ ]
परिशिष्ट-१
फासिय जोगतिएणं फासुय आहारो से फासुयपडोयारेण फासेऊण अगमं फिडितम्मि अद्धरत्ते
३७७६ २०३७ १६२४
३२०३
१०६२ १५६४ ८२० ८१६ ४११० ३०३३ २६२३ ४१०७ ४०८८ ४०६७ १६५१ ३८२५ १४४२ ३०६६ ४५४२
४७१ ४०२
बउसपडिसेवगा खलु बंध-वहे उद्दवणे बंधाणुलोमयाए बंधित्ता कासवओ बंधेज व रुंभेज व बंधे य घाते य पमारणेसु बकुसपडिसेवगाणं बत्तीसं वण्णिय च्चिय बत्तीसलक्खणधरो बत्तीसाए ठाणेसु बलवंतो सव्वं वा बलवाहणकोसा या बलवाहणत्थहीणो बलि धम्मकधा किड्डा बहि अंत विवच्चासो बहिगमणे चउगुरुगा बहिगाम घरे सपणी बहिय अणापुच्छाए बहिया य अणापुच्छा बहिया य पित्तमुच्छा बहिया व अणापुच्छा बहिरस्स उ विण्णाणं बहुआगमितो पडिम बहुएसु एगदाणे वहुएहि जलकुडेहिं बहुएहि वि मासेहिं बहुगी होति मत्ताओ बहुजणजोग्गं खेत्तं बहुपच्चवाय अज्जा बहुपडिसेवी सो विय बहुपरिवारमहिड्ढी
४१६३ ३८६६
७१६ ३७७३ ३८४१ १५६६ ४१८६ ४१३०
४४०६ ४०७६-४०७६
१६६५ २४०६ २४१०
१७८९ २५२२, २५२४
२५४२ १६६२ २४८२ २१४६ २५७६ २१५१ ४६१३
३८८१ ३२५, ३५४
५०८ ३३६
बहुपाउग्गउवस्सय बहुपुत्तओ नरवती बहु-पुत्तत्थी आगम बहुपुत्ति पुरिस मेहे बहु बहुविधं पुराणं बहुमाणविणय आउत्तयाय बहुया तत्थऽतरता बहुविधणेगपयारं बहुसुतजुगप्पहाणे बहुसुत-परिचियसुत्ते बहुसुत बहुपरिवारो बहुसुतमाइण्णं न उ बहुसुत्ते गीतत्थे बहुसो उच्छोलेंती बहुसो बहुस्सुतेहि बायाला अट्ठेव य बारस अट्ठग छक्कग बारस दस नव चेव य बारसवासा भरधाधिवस्स बारसवासे अरुणोववाय बारसवासे गहिते बारसविधे तवे तू बारसविहम्मि वि तवे बालगपुच्छादीहिं बालादीणं तेसिं बालाऽसहुमतरतं बालासहुवुड्ढेसुं बावीसमाणुपुव्वी बाहिं अपमजंते बाहिं वक्खारठिते बाहुल्ला संजताणं तु बिंति य मिच्छादिट्ठी बिंदू य छीयऽपरिणय बितिए नस्थि वियडणा बितिए निव्विस एगो बितिएहि तु सारवितं बितिओ उ अन्नदिटुं बितिओ न करेतऽ8
४६० २७०१ ४६६० २२६३ १६२६ २६४/१ २४६६ १५१७ २७०७ १५१५ ४४२७ २५२३ २८०४ ३६४४ १०१६ ३१८१
३७६८
४११६ ३२४६
३५२ १७२०
१०३१ २६६६ ३४२६ ४५६०
Page #642
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ४७
६७३
बितिओ पंथे भणती बितिओ माणकरो तू बितिओ सयमुद्धरति बितियं कजं कारण बितियं तिव्वऽणुरागा बितियं पुण खलियादिसु बितियं संचइयं खलु बितियपदं आयरिए बितियपदे तेगिच्छं बितियपदेऽदिट्ठगहण बितियपदे न गेण्हेज बितियपदे वितिगिटे बितियपदे सा थेरी बितियपयं असतीए बितियपयं आयरिए बितियपयं तु गिलाणो बितियमुवएस अवंकादियाण बितियम्मि बंभचेरे बितियविगिढे सागारियाए बितियागाढे सागारियादि बितियस्स य कजस्सा बियभंगे पडिसेहो बिले व वसिउं नागा बीयं तु पोग्गला सुक्का बीयाणि च वावेज्जा बुद्धीबलपरिहीणो बेंति ततो णं सड्ढा बेंतितरे अहं तू बेति गुरू अह तं तू बेति य लज्जाए अहं बोधियतेणेहि हिते बोहेति अपडिबुद्धे
३६२३ भग्गघरे कुड्डेसु य ४५६५
भग्गसिव्वित संसित्ता ६६३ भणति वसभाभिसेए ४४८४ भणिया न विसजेती २६७० भण्णति अप्पाहारा ११८ भण्णति अविगीतस्स हु ४७७ भण्णति जदि ते एवं ३०३६ भण्णति जेण जिणेहिं २८११ भण्णति णिंताण तहिं
३७२३ भण्णति तेहि कयाई ३५४४, ३५८१ भण्णति पवत्तिणी वा
२६६६ भण्णति पुबुत्ताओ १५६३
भण्णति ममयं तु तहिं २५५८ भतिया कुडुबिएणं
भत्तद्वितो व खमओ ६०३ भत्तट्ठिय आवासग ३२
भत्तादिफासुएणं १५३२ भत्ते पाणे धोव्वण ३०४२
भत्ते पाणे सयणासणे ३२२१, ३२३६ भद्दो सव्वं वियरति ४४७५-४४८०, ४५०० भमो वा पित्तमुच्छा वा
१३६७ भयतो पदोस आहारहेतु ३५३० भयतो सोमिलबडुओ ३७६६ भया आमोसगादीणं ३७६० भरुयच्छे नहवाहण १३७८ भवणुजाणादीणं २६८८ भवविगिढे वि एमेव १८८१
भवसंहणणं चेव ४४४६ भवसयसहस्सलद्धं १६२६ भवेज जदि वाघातो १२०३ भागे भागे मासं १३७५ भायणदेसा एंतो
भारेण वेयणाए
भावगणेणऽहिगारो ३४७६ भावपलिच्छायस्स उ २६२७ भावितमभाविताणं ४२६३ भावे अपसत्थ-पसत्थगं ६५२ | भावेति पिंडवातित्तणेण
३०६ २४०६ २८७४ २८२६ ३६६० १३६५ ३१४२ ३०४३ ३३३२ १५४४ २८२४ २१७३ ३१५२ ११४५ ३८३५ २६१४ ३३८१
२६७५ १११, ४६७७
३३६७ २२७१ ३८४४ . १०७६ २७७२ १४१४ ३७४६ २६७१ २७६६ १६७३ ४२८१ २२७८ ३६३१ २५७४ १३६८ १४७७
७६७ ६८३/१ ६०२
भंडं पडिग्गहं खलु भंडणदोसा होती भंडी बइल्लए काए भंभीय मासुरुक्खे
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४८ ]
परिशिष्ट-१
भावे न देति विस्सामं भावे पसत्थमपसत्थिया भावे पसत्थमियरं भासओ सावगो वावि भिंदंतो यावि खुधं भिक्खं गतेसु वा तेसु भिक्खणसीलो भिक्खू भिक्ख-वियार विहारे भिक्ख-वियारसमत्थो भिक्खा ओसरणम्मि व भिक्खादिनिग्गएK भिक्खुणि खड्डी थेरी भिक्खुस्स मासियं खलु भिक्खुस्सेगस्स गतं भिक्खू इच्छा गणधारए भिक्खू कुमार विरए भिक्खू खुड्डग थेरे भिक्खू खुड्ड़े थेरे भिक्खूभावो सारण भिक्खू मयणच्छेवग भिन्ने व झामिए वा भीताइ करभयस्सा भीतो पलायमाणो भीतो बिभीसियाए भुंजण पियणुच्चारे भुंजति चक्की भोए भुंजमाणस्स उक्खित्तं भुंजह भुत्ता अम्हे भुंजिस्से समया सद्धिं भुत्तभोगी पुरा जो तु भुत्तसेसं तु जं भूयो भूतीकम्मे लहुओ भूमीकम्मादीसु उ भोइकुल सेवि भाउग
३६६४ मंडलगतम्मि सूरे १३६४ मंडुगगतिसरिसो खलु
६८२ मंतो हवेज कोई २६५७ मंदग्गी भुंजते खद्धं
१६५ मग्गं सद्दव रीयति ३३१४ मग्गण कहण परंपर १८६ मग्गे सेहविहारे
मग्गोवसंपयाए ४२२५ मज्जण-गंधं पुष्फोवयार २८४१ मज्जण-गंध परियारणादी
२३६ मज्झत्थोऽकंदप्पी ७३१, ७३७ मज्झे दवं पिबंतो
२१६३ मणपरमोधिजिणाणं २१६६ मणपरमोहिपुलाए १३६१ मणपरिणामो वीई १३७७ मण-वयण-कायजोगेहिं ७२७ मणसा उवेति विसए ७३४ मणसा वि अणुग्धाया २०६६ मणसो एगग्गत्तं २३८२ मतिभेदा पुब्बोग्गह ३६१७
मतिभेद्रेण जमाली ३७२१ मत्तंगादी तरुवर ४०५६ मधुरा खमगातावण ३१८३ मधुरेण य सत्तन्ने ३५६५ मधुरोल्लेण थोवेण ४१७७ मम्मणो पुण भासंतो ३८२८ मरहठ्ठलाडपुच्छा २६१८ मरिउं ससल्लमरणं ४६४८ मरिऊण अट्टझाणो ४३१८ मरुगसमाणो उ गुरू ३८३० मलिया य पीढमद्दा ८८१
महकाएऽहोरत्तं १७५६ महज्झयण भत्त खीरे २३५८ महती वियारभूमी
महती विहारभूमी
महसिल कंटे तहियं ४१०४ महल्लपुरगामे वा २५६५ । महल्लयाए गच्छस्स
२६२० २६२१ २४४३ २७७३ १००४ ३६८६ १००३
३६६४ ४४०६, ४४१०
१२६५
६५१ ३५०७
५१४ ४५२७ २७५८ ३८४६ १०२६ ८०६ १२४ २७१३ २७१४ १५३४ २३३० ३८०६ ३८०५ ४६३२ १७०० १०२२ ४२५६
४५७ २४६५ ३१३६ ११३२ १७६७ ३८६८ ४३६४ ३२६७ २६०६
मइसंपय चउभेदा मंगलभत्ती अहिता
Page #644
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ४
५८८ १६४, ८१८
६२१ १०६६ १०४१ ३५५२
१०१५ २७१२, २७७०, २६६४
२६७५
६५
२०६२
२२०
महव्वयाइं झाएज्जा महाजणो इमो अम्हं महिड्डिए उट्ठनिवेसणा महिया तू गब्भमासे महिया य भिन्नवासे महिलाए समं छोढुं महुरा दंडाऽऽणत्ती मा आवस्सयहाणी माउम्माय पिया भाया माऊय एक्कियाए मा कित्ते कंकडुकं मागहा इंगितेणं तु मा छिज्जउ कुलतंतू मा णं पेच्छंतु बहू माणणिज्जो उ सव्वस्स माणसिओ पुण विणओ माणिता वा गुरूणं माणुस्सगं चउद्धा मा णे छिवसु भाणाई मा देजसि तस्सेयं माता पिता य भाया माता भगिणी धूता मा देह ठाणमेतस्स मा मे कप्पेहि सालादि मायी कुणति अकजं मारितममारितेहि य मा वद एवं एक्कसि मा वद सुत्त निरत्थं मा वा दच्छामि पुणो मासगुरू चउलहुया मास-चउमास छक्के मास-चउमासिएहिं मास-चउमासियं वा । मासतुसानातेणं मासस्स गोण्णणाम मासादि असंचइए मासादी आवण्णे मासादी पट्ठविते
१२०
मासो दोन्नि उ सुद्धो २६६४ मासो लहुओ गुरुगो १०६४
मासो लहुगो गुरुगो ३१११ मिउबंधेहि तहा णं ३११० मिगसामाणो साधू २४६७ मिच्छत्त अन्नपंथे ११२६ मिच्छत्त बडुग चारण २५७८ मिच्छत्त सोहि सागारियाइ ३६६६ मिच्छत्तादी दोसा २६५० मिणु गोणसंगुलेहि १६६५ मितगमणं चे?णतो ४०२० मीसाओ ओदइयं २४७१ मीसाण एग गीतो ३३०६ मीसो उभयगणावच्छेए २७५५ मिहोकहा झड्डरविड्ढरेहिं
७७ मुंच दाहामहं मुल्लं १५८६ मुंडं व धरेमाणे ३१४४ मुच्छातिरित्तपंचम ३५३३ मुणिसुव्वयंतवासी ३४२६ मुह-नयण-दंत-पायादि ३६६४ मुहरागमादिएहि य ३०८२ मूइंगविच्छुगादिसु २६८४ मूलं खलु दव्वपलिच्छदस्स ३७५१ मूलगुण उत्तरगुणा १६४६ मूलगुण उत्तरगुणे ७७३
मूलगुणदतिय-सगडे ३३७ मूलगुण पढमकाया १०२४ मूलगुणेसु चउत्थे ३३७५ मूलऽतिचारे चेतं १२६४ मूलव्वयातियारा ४४६६
मूलादिवेदगो खलु ४४५ मूलायरिए वज्जित्तु ३३२२ मूलायरि राइणिओ ४६३६ मूलुत्तरपडिसेवण १३४१ मेच्छभयघोसणनिवे ४७५ मेढीभूते बाहिं ४७४ मेहुणवजं आरेण ५६७ | मोएउं असमत्था
२२०५ २२५४ १५८६ ३२६४ १५७२
२४३ ४४१७ २६८३ २४८६ १७७२ १४१६
४६५ ४१, ६२८, ६११, १००७
४६६ २४० २३६२
४६२
४६३
२०६
१४६६ १३२४
२२१ ३१०३ २५८२ २३६८ २५६३
Page #645
--------------------------------------------------------------------------
________________
५० ]
परिशिष्ट-१
मोणेण जं च गहियं मोत्तूण असंविग्गे मोत्तूण इत्थ चरिमं मोत्तूणं साधूणं मोत्तूण करणज९ मोत्तूण भिक्खवेलं मोहुम्मायकराई मोहेण पित्ततो वा मोहेण पुव्वभणितं मोहेण व रोगेण व
१९४५ २०७३ ३१४० ३१०४
६६६ १२६३ २७२३
६३२ २६०२ २०५० १६६ ३६३०
३७६ ११४८ ४५७८ ४५७६ २५८१ १६६६
रज्जयमादिअछिन्नं रण्णा कोंकणगाऽमच्चा रण्णा जुवरण्णा वा रण्णा पदंसितो एस रण्णा वि दुवक्खरओ रण्णो आधाकम्मे रण्णो कालगतम्मी रण्णो धूयातो खलु रणो निवेदितम्मि रत्ति दिसा थंडिल्ले रत्तीदिणाण मज्झेसु रत्तुक्कडया इत्थी रहिते नाम असंते राइणिया गीतत्था राइणिया थेरोऽसति रागद्दोसविवडिं रागद्दोसाणुगता रागम्मि रायखुड्डो रागा दोसा मोहा रागेण व दोसेण व रागेण वा भएण व रायं इत्थिं तह अस्समादि रायकुले ववहारो रायणिए गीतत्थे रायणिय परिच्छन्ने रायणियवायएणं
६०१ रायणियस्स उ एगं १८०८, ३५७२ रायणियस्स उ गणो
२८३१ रायपहे न गणिज्जति ३३३८
राया इव तित्थगरो ४६४१ राया इव तित्थयरा
७०८ रायाणं तद्दिवसं २४६८
रायादुट्ठादीसु य ११५३ राया पुरोहितो वा २०२० रायाऽमच्च पुरोहिय २०१६ राया रायाणो वा
रिक्खादी मासाणं
रुण्णं तगराहारं २१६ रुवणाए जइ मासा ४२६२ रूवंगिं दट्टणं ६२६
रूवं होति सलिंगं २५५५ रूवजढमण्णलिंगे २६०१
रेगो नत्थि दिवसतो १३६
रोमंथयते कजं ३३६० १८८८ ११०१ लंखिया वा जधा खिप्पं ३२७२ लक्खणजुत्ता पडिमा ३०२५ लक्खणजुत्तो जइ वि हु ३१४५ लक्खणमतिप्पसत्तं ४५१० लग्गादी च तुरंते १३२५ लज्जणिज्जो उ होहामि १८४४ लद्धद्दारे चेवं ४०४१
लद्धं अविप्परिणते १११०
लद्धे उवरता थेरा १०८० लभमाणे वा पढमाए
३२३४ लहुगा य झामियम्मि य १६६३, १६६४ लहुगा य दोसु दोसु य
१०७८ लहुगा य सपक्खम्मी
६५६ लहुगा लहुगो सुद्धो ३३२६ लहु-गुरु लहुगा गुरुगा २१६६ लहुगो लहुगा गुरुगा २१८६ लहुयल्हादी जणणं १२३६ | लहुसो लहुसतरागो
२७६४ २६३५ १५६८ ३६८० २०३५ २७४६ ३४३६ २०६८ ३६७४ ३२७३
३३६२ ८२६, १२६८
३०१५
५६० १०३५ २८४३
३१७ १०६६,१११८
Page #646
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[५१
४३६६
लाभमदेण व मत्तो लाभालाभऽद्धाणे लावए पवए जोधे लिंगकरणं निसेजा लिंगम्मि उ चउभंगो लिंगेण उ साहम्मी लुक्खत्ता मुहर्जतं लेवाडहत्थ छिक्के लेस्सट्टाणेसु एक्कक्के लेहट्ठट्ठमवरिसे लोइयधम्मनिमित्तं लोइय-लोउत्तरिओ लोउत्तरिए अज्जा लोए चोरादीया लोए लोउत्तरे चेव लोए होति दुगुंछा लोगम्मि सतमवज्झं लोगे य उत्तरम्मी लोगे वि पच्चओ खलु लोगे वेदे समए लोगोवयारविणओ
११२५ वटुंति अपरितंता २५६६ वड्ढति हायति उभयं
वड्ढी धन्नसुभरियं ६७१ वणकिरियाए जा होति १६०४ वणदव-सत्तसमागम ६६१
वणिमरुगनिही य पुणो ४२४८ वणिय मए रायसिटे ३६७६ वत्तणा संधणा चेव २७६५ वत्तणुवत्तपवत्तो ४६५२ वत्तो णामं एक्कसि १४०५ वत्थव्व णेति न उजे १०७७ वत्थव्व भद्दगम्मी ३२५२ वत्थव्वा वारंवारएण
१७ वत्थाणाऽऽभरणाणि य २७५४,३६६८ वत्थाहारादीभि य
३६१३ वत्थु परवादी ऊ १६३६ वध-बंध-छेद-मारण. १८६२ वभिचारम्मि परिणते ३०६४ वमण-विरेयणमादी १४६६ वय अतिचारे पगते
वयं वण्णं च नाऊणं वयछक्क-कायछक्कं
वयणे तु अभिग्गहियस्स २१३६ वयपरिणता य गीता १९५८
वरनेवत्थं एगे
वल्लिं वा रुक्खं वा २४२१ वल्ली वा रुक्खो वा १८१२ ववणं ति रोवणं ति य ३८५०
ववसायी कायव्वे ४००५ ववहारकोविदप्पा २३६४ ववहारचउक्कस्सा ३४५७ ववहारनयस्साया ३३४० ववहारम्मि चउक्कं ३३१०
ववहारी खलु कत्ता २७८२ ववहारे उद्देसम्मि ३०६१
ववहारेण य अहयं ३०८४ ववहारे दसमए उ १५८ | ववहारो आलोयण
४३३५ ११०७ २६१०
७०० १३८०
४५४ ३२५१
२८५ ४५२१ ४५२२ २२३१ २२३३
६७१ १२०१ १४२७ ४११५ २५५७ २७७४
५४४ १६३४
३५२८ ४०४, ४४६०
१५०६ ३२४४ १२०७ ३७५५ ३७४३
१५७
वइया अजोगि जोगी वइयादीए दोसे वंजणेण य नाणत्तं वंतं निसेवितं होति वंदण पुच्छा कहणं वंदण सक्कारादी वंदणालोयणा चेव वंदत वा उढे वा वंदेणं तह चेव य वक्कइय छएयव्वे वक्कइय सालठाणे वक्खारे कारणम्मि वच्चंति तावि एंती वज्जकुड्डसमं चित्तं वटुंतस्स अकप्पे
२३८८ ४५५३ ४५३१
Wur
' २
३७२६ ११८६ ४६८६ १०६४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५२ ]
ववहारो ववहारी वसंति व जहिं रत्ति
वसधि निवेसण साही
वसीय संकुड वसधी समण्णाऽसति
वस जो य तहा
वसभे य उवज्झाए वसभो वा ठाविज्जति वसहीए निग्गमणं
वसहीय असज्झाए वसिमे वि अविहिकरणं वहमाण अवहमाणो वा अंतो गणि व गणो
वाउलणे सा भणिता मज्झिम
वाघाते ततिओ सिं
वाणियओ गुलं तत्थ
वातादीया दोसा वातिय-पित्तिय-सिंभिय वाते अभंग - सिणेह
वा पित्ते गणालो
वादी दंडियमादी
वादे जेण समाधी
वायंतगनिप्फायग
वायंतस्स उ पणगं
वायणभेदा चउरो वायपरायणकुवितो वायादी सट्टा
वाया पुग्गल लहुया वायामवग्गणादिसु वायाम वग्गणादी वारंवारेण से देति
वारग जग्गणदोसा
वारिजंती विगया
वालच्छ भल्ल विसविसूइ...
वाले गोणसादी
वाण वावि डक्कस्स वाण विप्रद्धे वाले य साणमादी
१
३३५३
२२८६
१७७३
१६६३
७५०
२८२५
४३७८
८०५
६७५
४०१५
७०७
२७०४
१७३७
१५७६
३१६४
२८८४
२६०८
३८३६
११५२
२५७३
२५४७
७५७
२०११
१७८४
४०६८
१२२६
६३
७५८
२०५४
४०२४
२१८५
१६८७
२६५७
४३८२
४३८३
२७७५
१०२१
२५६२
वावारियगिलाणादि वावे महमंबवणं
वासं खंधर नदी
वासं च निवडति जई
वासगगतं तु पोसति वासत्ताणावरिता
वा सण चिरं पी
वासा दोह लगा
वासासु अपरिसाडी
वासासुं अमण्णा
वासासु निता
वासासु पाभाति
वासासु सत्ताणं
वासासू बहुपाणा
वासी चंदणकप्पो
वासे निच्चिक्खिल्लं
वासे बहुजणजोगं वाहत्याणी साहू वाहिविरुद्धं भुंजति विसग्गो जाणणट्ठा
विंटलाणि पउंजंति
विकथा चउव्विधा वृत्ता विक्खेवता
विगतीकएण जोगं
विगतकयाबंधे
विधवा खलु विधवा विगलिंदऽणंत घट्टण विगहा विसोत्तियादीहिं विग्गहगतेय सिद्धे विजाए मंतेण व
विजा कया चारिय लाघवेण
विजाणं परिवाडी विजादभिजोगो पुण
विजादी सरभेदण
विजा निमित्त उत्तर
विजा मंते चु
विणओ उत्तरिओ त्ति य
विणओवसंपयाए
विणिउत्तभंडभंडण
परिशिष्ट-१
२५६०
४०१६
१६८१
३१८६
७७१
३११३
२७००
१७४६
३४११
१८१८
३८६१
३१६७
१८३५
१३४०
३८५१
२५१६
४११६
६६४
६६
५४६
३०६६
२६५५
३३६३
२१४३, २१४४
४३३२
३३४४
४५३८
३०८०
४३५७
११५५
२२५८
२६६७
११५७
११६४
७६२
११५६
२५५४
४०००
३३०
Page #648
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
विणाणाभावम्मी विण्णाणावरियं सिं
वितरे न तु वास वितिगिट्ठे खलु पगतं वितिगिट्ठा समणाणं
विद्दवितं णं ति य
विद्धंसामो अम्हे
विधवा वणुण्णविजति विपरिणामे तहच्चिय
विपुलाए अपरिभोगे
विप्परिणतम्मि भावे
विप्परिणयम्मि भावे विष्परिणामणकधणा
• विभंगीव जिणा खलु विभजंती च ते पत्ता विभागओ अप्पसत्थे वियणऽभिधारण वाते
विवजितो उट्ठविवज्जएहिं विसमा आरुवणाओ विसयोदएण अधिगरणतो
विसस्स विसमेवेह
विज्झतेण भावेण
विसेण लो हो जा विहरण वायण खमणे
वतिक्कं भिन्ने
वीयार तेण आरक्खि
वीस वीसं भंडी
वीसजिय नासिहिती
वीसऽट्ठारस लहु-गुरु वीसमंता वि छाया वीसमण असति काले
वीसरसरं रुवं
वीसाए अद्धमासं
वीसा तू वीसा
वीसामण उवगरणे
वीसालसयं पणयालीसा
वसुंणेच्छा वसुं पि वसंताणं
४१४४
४६१४
४१२०
३०१४
२६७६
११३१
१२३३
३३४५
३४४५
२५२७
२१००
२१६२
३४२३
४४२
३६४५
२३७
२०४४
२७६४
४२७
ξος
११५६
२७६७
४३८४
१६२०
३३०१
६३६
४५५
२८५१
४८५
३३५२
११२
३२१४
३५७
४११
२२६७
५३४
३३२
२७३०
वीसुंभिताय सव्वासि
वीसु वसंते दप्पा
gure दंडियादी
वुड्स्स उ जो वासो
ढावा
वुड्ढावासे चेवं
वुड्ढावासे जता
वुड्ढा हुद
उत्तम
मधवा
समधिकितो
व पुरिसज्जाता
वेव्विलद्धीवादी यहनिक्खेवे वेगविद्धा तुरंगादी वेज सपक्खाण सती
जस्स ओहस्स
वेजा तहिं नत्थितहोसहाई
वेणइए मिच्छत्तं
वेयावच्चकराणं
वेयावच्चकरो वा
यावज्रमणे
यावच्चेण
वेवच्चे तिविधे
वेरजे चरतस्स
वेलं तथा वेसकरणं पमाणं
हारुगाण मन् वोच्छिन्न घरस्सऽ सती
वोच्छिन्नमिव भावे वोच्छिन्ने उ उवरते
सई जंपंति रायाणो
सइ दोण्णि तिन्नि वावी
सइरी भवंति अणवेक्खणाय संगीभावम्मी
संकंतो य वहंतो
स
[ ५३
२३०८
२६६६
३१२५
२२५६
२३००
३४७४
२२७७
२५३४
३४७६
११७२
२३०५
४५५४
३३७६
१२६
३५५७
२४३७
१७८०
१८१६
४८
७६७
४५१७
६६२
४५८६
५६०
८६६/४
२५५२
१२८३
३६००
१०६०
३४३५
२२५३
३३२६
२६०२
२७३६
४५०५
२११६
Page #649
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४ ]
परिशिष्ट-१
३८६५ ३५६४
४१३४ ३७५६
५०
३७६३
४६
२४२७ २२०२ २१८० ३१०
३११
संकग्गहणे इच्छा संकट्ट हरितछाया संकप्पादी तितयं संकप्पो संरंभो संकिए सहसक्कारे संकिट्ठा वसधीए संखऽहिगारा तुल्ला संखादीया कोडी संखादीया ठाणा संगहमादीणट्ठाय संगहुवग्गह निज्जर संगामदुगं महसिल संगामे निवपडिम संगारदिण्ण उ एस संगारदिन्ना व उति तत्थ संगारमेधुणादी य संघट्टण परितावण संघयणं जध सगडं संघयणं संठाणं संघयणधितीजुत्तो संघयणधितीहीणा संघयणे परियाए संघयणे वाउलणा संघस्साऽऽयरियस्स य संघाडग एगेण व संघाडगसंजोगे संघाडगा उ जाव उ संघो गुणसंघातो संघो न लभति कज्जं संघो महाणुभागो संजइइत्त भणंती संजतभावितखेत्ते संजतसंजति वग्गे संजतिमादी गहणे संजमघाउप्पाते संजमजीवितभेदे संजमठाणाणं कंडगाण संजम-तव-नियमेसुं
६६ २७२६ २१६० २५७० ४१६१ ३२४० १७८५ ४३६३
८१२ २८०८
६४३ ३०६६ ४०१२
४५१ ४५२४, ४५२८
४३६४ ४२०२
३८३६ १७३४, २३०६
४४६५ ३४८७
२६२० ५५१, ५५२
१६७७ १२२७ १६६७ १८५० ३६७३ ३०७५ १५५६ ३१०२ ११६४ ४२३७ ६५६
संजममायरति सयं संजयहेउं छिन्नं संजयहेउं दूढा संजोगदिट्ठपाढी संजोगा उ च सद्देण संज्झंतियंतवासिणो संझागतं रविगतं संझागतम्मि कलहो संतगुणुक्कित्तणया संतम्मि उ केवइओ संतम्मि वि बलविरिए संतविभवेहि तुल्ला संतविभवो तु जाधे संतासंतसतीए संति हि आयरियबितिज्जगाणि संथड मो अविलुत्तं संथरमाणाण विधी संथरे दो वि न णिति संथव कहाहि आउट्टिऊण संथारएसु पगतेसु संथारंगदाण फलादि संथारो उत्तिमढे . संथारो दिट्ठो न य संथारो देहतं संथारो मउओ तस्स संदंतमसंदंतं संदंतस्स वि किंचण संदंते वक्खारो संदेहियमारोग्गं संबंधिणि गीतत्था संबंधो दरिसिज्जति संबोहणट्ठयाए संभमनदिरुद्धस्स वि संभममहंतसत्थे संभरण उवट्ठावण संभुंजण संभोगे संभुंजण संभोगेण संभोइउं पडिक्कमाविया
२६८१ १४०६
२४४ ४२०१ ४१६५ २५११ १४३२ ३३५५
७६६ २२३६ ३६४७ ३५०६ ३४३० ४३४२ ३४२५ ३४२४ ४३४७ २७८३ २८०१ २७८४
१८२ २३८६ २३६७ २८३७ २७१६ २२४५ २०३२ १५०८ १५१३ २८७८
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ५५
१०७२ १४७५ १५७१ १२२६ ४०८६ ३२५० ३६२२ १२६१ ११२८ ३७३३ ३७५८ ४००२ १३६६ २१४
२६
संभोइग त्ति भणिते
२३४६
सगणे गिलायमाणं संभोइयाण दोण्हं
२१६२ सगणे थेरा ण संति संभोगऽभिसंबंधेण
२८६६ सगणे व परगणे वा संभोगम्मि पवत्ते
२६२६ सगणो य पदुवो सो संभोगो पुव्वुत्तो
२८७६
सगनामं व परिचितं संवच्छरं च झरए
२२६२ सगोत्तरायमादीसु संवच्छरं तु पढमे
१४४
सग्गाम सण्णि असती संवच्छराणि चउरो
४२४१ सचिवे पण्णरसादी संवच्छरेणावि न तेसि आसी
१४७
सच्चं भण गोदावरि ! संविग्गजणो जड्डो
८५८ सच्चित्त-अच्चित्तमीसेण संविग्गदुल्लभं खलु
४२७१ सच्चित्तभावविकलीकयम्मि संविग्गपुराणोवहि
३५७६ सच्चित्तम्मि उ लद्धे संविग्गबहुलकाले
३६२८ सच्चित्तादिसमूहो संविग्गमणुण्णजुतो
७०३ सच्चित्तादी दव्वे संविग्गमसंविग्गा
३०६० सच्चित्तादुप्पन्ने संविग्गमसंविग्गे १५७०, ३२८६, ३६५६,.३६६४ सच्चित्ते अंतरा लद्धे संविग्गमुद्दिसते
१८७२ सच्चित्ते अच्चित्तं संविग्गाण विधी एसो
२१७४ सच्छंद गेण्हमाणिं संविग्गाण सगासे
३६५७ सच्छंदपडिण्णवणा संविग्गाणुवसंता
२८६६ सच्छंदमणिद्दिढे संविग्गादणुसिट्ठो
३६५८
सच्छंदमतिविगप्पिय संविग्गादी ते च्चिय
३२६१ सच्छंदो सो गच्छा संविग्गा भीयपुरिसा
३०७६ सजणवयं च पुरवरं संविग्गेगंतरिया
१९६१ सज्झाओ खलु पगतो संविग्गे गीयत्थे
६६६ सज्झायं काऊणं संविग्गे पियधम्मे
४५४६ सज्झायभूमि वोलते संविग्गेहणुसिट्ठो
३६६० सज्झायमचिंतेंता संविग्गो मद्दवितो
६६० सज्झायमुक्कजोगा संवेगसमावन्नो
१२६० सज्झायस्स अकरणे सकुडुबो निक्खंतो
११८० सट्ठाण-परट्ठाणे सकुलिव्वय पव्वज्जा
१३००
सट्ठाणाणुग केई सक्कमहादीएसु व
२१३६ सड्ढकुलेसु य तेसिं सक्कमहादीया पुण
८७३
सड्ढो व पुराणो वा सक्कारिया य आया
२८४० सणसत्तरमादीणं सगणं परगणं वावि
२६८३ सण्णाइगिहे अन्नो सगणम्मि नत्थि पुच्छा
५३७ सण्णाउ आगताणं सगणिच्चपरगणिच्चेण
२६६५ सण्णातिए वि तेच्चिय सगणे आणाहाणी
४२३३ । सण्णिस्सिंदियघाते
३६६६
१५० २८६६ ३६२६ ३६३६ ८६२ ८१४
६३१
३१००
६३१ २११७ ३१७० ३०७३ १२६ ६८४ ५८७ २६८७ २६७४
६५१ ३४४७ २६२१ ३४४३ ४६१७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
सण्णी व सावगो वा सत्त उ मासा उग्घातियाण सत्तचउक्का उग्घातियाण सत्तण्हं हेडेणं सत्तमए ववहारे सत्तरत्तं तवो होति सत्तलवा जदि आउं सत्तविधमोदणो खल सत्तारस पण्णारस सत्थऽग्गिं थंभेउं सत्थपरिण्णा छक्काय सत्येणं सालंब सदेससिस्सिणि सज्झंतिया सदेससिस्सिणीए सद्दा सुता बहुविहा सन्नागतो त्ति सिढे सन्निसेजागतं दिस्स सन्निहिताण वडारो सपडिग्गहे परपडिग्गहे सपदपरूवण अणुसज्जणा सपया अंतो मूलं सपरक्कमे जो उ गमो सपरक्कमे य अपरक्कमे सबरपुलिंदादिभयं समगं तु अणेगेसुं समगं भिक्खग्गहणं समगीतागीता वा समतीतम्मि तु कब्जे समणस्स उत्तिमढे समणाणं पडिरूवी समणाण संजतीण य समणाण संजतीण व समणुण्णदुगनिमित्तं समणुण्णमणुण्णाणं समणुण्णेतराणं वा समणुण्णेसु विदेसं समणुण्णेसु वि वासो समणो तु वणे व भगंदले
११६० समपत्तकारणेणं
४६८ समयं पि पत्थियाणं ४८७, ४६५ समयपत्ताण साधारणं
३२५७ समाधी अभत्तपाणे २८६५ समा सीस पडिच्छण्णे १४२० समुदाणं चरिगाण व २४३३ सम्मं आहितभावो २५०१ सम्मत्तम्मि सुते तम्मि
४६६ सयं चेव चिरं वासो १०८६ सयकरणमकरणे वा १५२६ सयमेव अन्नपेसे २१०२ सयमेव उ धम्मकधा १६०३ सयमेव दिसाबंधं १६०७ सयरीए पणपण्णा
१०३ सरक्खधूलिचेयण्णे २५४८ सरभेद वण्णभेदं २००० सरमाणे उभए वी ३१६१ सरमाणे पंच दिणा १३५२ सरमाणो जो उ गमो ४१७४ सरिसेसु असरिसेसु व १६२३ सरीर-उवगरणम्मि य ४३८० सरीरमुझियं जेण ४२२४ सरीरोवहितेणेहि ३००४ सलक्खणमिदं सुत्तं २०५१ सलिंगेण सलिंगे
सल्लुद्धरणविसोही २२१३ सविकारातो दर्दू
७१७ सव्वं करिस्सामु ससत्तिजुत्तं ४४३८
सव्वं पिय पच्छित्तं १२२३ सव्वं भोच्चा कोई ३६१६ सव्वजगुजोतकरं ३७६२ सव्वट्ठसिद्धिनामे
२४७ सव्वण्णूहि परूविय २८७६ सव्वत्थ वि सट्ठाणं ३५४३ सव्वत्थऽविसमत्तेण २६०४ सव्वत्थ वि समासणे १९८० सव्वम्मि बारसविहे ३२२५ | सव्वसुहप्पभवाओ
२२१४ ३६१२ २२०६ ३२६६ ३०७८ ३६६७ १४८७ २१०६ ४२७७
६३६ ३५७३
२४६४ १४७४, ४५८३
४१४ ३५५६ ११७८ २११४ २०५७
७६१ १०३३ ४३७५ ४३७२ ४६८० ३०१६ १६०५ २७७६ १९०७ २१०७ ४१७३ ४३३१
१०२६
३०४८
२४३४ ४२१८
५६४ १५४६
५६६
४१३७ ४३५६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[५७
२६४६ ४३५५ ३७६० ४३५३ १८३८ १७६२ १०३४ ३४५८
सव्वस्स पुच्छणिज्जा सव्वाओ अज्जाओ सव्वाओ पडिमाओ सव्वाहि वि लद्धीहिं सव्वे उद्दिसियव्वा सव्वे वप्पाहारा सव्वे वा गीयत्था सव्वे वि दिट्ठरूवे सव्वे वि य पच्छित्ता सव्वे वि होति सुद्धा सव्वे सव्वद्धाए सव्वेसिं अविसिट्ठा सव्वेसिं ठवणाणं सव्वेसि पि नयाणं सव्वेसु खलियादिसु सव्वे सुतत्था य बहुस्सुता य सव्वेहि आगतेहिं ससणिद्धबीयघट्टे ससणिद्धमादि अहियं स साहियपतिण्णो उ सस्सगिहादीण डहे सहजं सिंगियमादी सहसक्कार अतिक्कम सहसा अण्णाणेण व सहायगो तस्स उ नत्थि कोई सहिते वा अंतो बहि सा एय गुणोवेता साकुलगा कुलथेरे सागविहाणा य तधा सागारकडे एक्को सागारमसागारे सागारिए गिहा निग्गते सागारि-तेणा-हिम-वासदोसा सागारियअग्गहणे सागारियअचियत्ते सागारिय अहिगारे सागारियपिंडे को दोसो सागारियम्मि पगते
सागारिय-साधम्मिय सागारियस्स तहियं सागारियस्स दोसा सागारियादि पलियंक साडगबद्धा गोणी सा तत्थ निम्मवे एक्क सातिसयं इतरं वा सा दाउं आढत्ता साधम्मि पडिच्छन्ने साधम्मिय उद्देसो साधम्मिय वइधम्मिय साधारणं तु पढमे साधारणं व काउं साधारणहिताणं साधारणमेगपयत्ति साधारणो अभिहितो साधूणं अणुभासति साधूणं वा न कप्पंति साधू तु लिंग पवयण साधू विसीयमाणे सा पुण अइक्कम वइक्कमे सा पुण जहन्न उक्कोस साभावियं च मोयं साभाविय तिणि दिणा सामाइयसंजताणं सामत्थण निजविते सामायारिपरूवण सामायारी वितहं सामायारी सीदंत सारिक्खकड्ढणीए सारिक्खतेण जंपसि सारीरं पि य दुविधं सा रूविणि त्ति काउं सारूवियादि जतणा सारूवी जजीवं सारेऊण य कवयं सारेयव्वो नियमा सारेहिति सीदंतं
३३५४
३७४६ ३७०८, ३७१६
८६७ २१८६ ३०५६ ४५८२ २३१६ २१७६ ३५६४ २३५६ १३१२
१८४७ १८२३, १८३७, १८५५
३७२४ १८४६, १८६१
१५१० ३७५२
E६२ १५५५
४७ ४३५२ १६६, ६०८ ४१०, ४१८
४६६२
११७ *१८३६ ३४६१ ५२६ ५२७ ३८१० १०६३ ३०२६
१०६ ४०५६ ३९८२ १६६६ २३१४ १८४६ २५०२ ३३०७ २६६६ २८८० १६७२ ३७७६ १०६१ ३३४३ ८६८/१ ३७३७ ।
४२
६०३ ३७६४ ३११६ ४१८६ ३८६४
८८७
७० ३४८६ ११६३ ३१३१ ११७६ ३६२४ १८६७ ४२३०
२८८ ३६५४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५८]
परिशिष्ट-१
सालंबो विगति जो उ सावेक्खे निरवेक्खे सावेक्खो उ उदिण्णो सावेक्खो उ गिलाणो सावेक्खो त्ति च काउं सावेक्खो पवयणम्मि सावेक्खो पुण पुव्वं सावेक्खो पुण राया सावेक्खो सीसगणं सासु-ससुरोवमा खलु सासू-ससुरुक्कोसा साहत्थ मुंडियं गच्छवासिणी साहम्मिएहि कहितेहि साहम्मियत्तणं वा साहम्मियाण अट्ठो साहस्सी मल्ला खलु साहारण-सामन्नं साहारणा उ साला साहिल्ल वयण वायण साहीण भोगचाई साहीणम्मि वि थेरे साहीरमाणगहियं साहुसगासे वसिउं साहूणं अजाण य साहूणं रुद्धाई सिग्घुज्जुगती आसो सिणेहो पेलवी होति सिद्धी पासायवडेंसगस्स सिद्धी वि कावि एवं सिरकोट्टण-कलुणाणि य सिलायलं पसत्थं तु सिव्वण तुण्णण सज्झाय सीउण्हसहा भिक्खू सीतघरं पिव दाहं सीतवाताभितावेहि सीताणस्स वि असती सीताणे जं दड्ढे सीस-पडिछे पाहुड
२१४५ २६६६ १५६७
७४६ १६७, ६१०
४२०४ १६१० २६१७ १६३५ ३८४८ ३८४७ २८२६
६६० २१७८ ३७७१ १५३६ ३७२७ ३७२८ १५०७ १२६७ २३१० ३८२६ १९६६ १५५७ ४३८६
२३२ ४२३५ ३६६६ २८५० २४५७ ३२७४ २०५५ २५४० ४१५२ ३३१७ ३२७६ ३१४७ २६३
सीस-पडिच्छे होउं सीसा य परिच्चत्ता सीसेण कुतित्थीण व सीसे कुलव्विए व सीसेणाभिहिते एवं सीसे य पहुव्वंतं सीसो पडिच्छओ वा सीसो सीसो सीसो सीहाणगस्स गुरुणो सीहो तिविट्ठ निहतो सीहो रक्खति तिणिसे सुचिरं पि सारिया गच्छिहिती सुण जध निजवगत्थी सुण्णं मोत्तुं वसहिं सुण्णघरदेउलुज्जाण सुण्णाइ गेहाइ उति तेणा सुण्णाए वसधीए सुण्णे सगारि दटुं सुतजम्म महुरपाडण सुततो अणेगपक्खिं सुतनाणम्मि अभत्ती सुतवं अतिसयजुत्तो सुतवं तम्मि परिवारवं सुत-सुह-दुक्खे खेत्ते सुत्तं अत्थं च तहा सुत्तं अत्थे उभयं सुत्तं गाहेति उज्जुत्तो सुत्तं च अत्थं च दुवे वि काउं सुत्तं धम्मकहनिमित्तमादि सुत्तत्थ अणुववेतो सुत्तत्थं अकहित्ता सुत्तत्थं जदि गिण्हति सुत्तत्थझरियसारा सुत्तत्थतदुभएहिं सुत्तत्थतदुभयविऊ सुत्तत्थपाडिपुच्छं सुत्तत्थपोरिसीणं सुत्तत्थहेउकारण
१४६७ २६०७ ४१०६ १६८६ २४१२
१३२६ १६८२-१६८५
१४६८ ५८७/१ २६३८ २७७८ २६६२ ४२२० १७५० २३७०
६४१ ८६७/५ १७५६ ११२७ १३०८ ३२२६ २६३६ २५४३ ४००६ ४१४० ४०६४ ४१४१ ३४०८ २८३५ १३७६ २०४० २१८७
७८८ ६५४, २२६५
६५६ ७१८ १३० १४६५
Page #654
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१
[ ५६
२४३६
सुत्तत्थाणं गुणणं सुत्तत्थे परिहाणी सुत्तत्थेसु थिरत्तं सुत्तनिवातो तणेसु सुत्तनिवातो थेरे सुत्तमणागयविसयं सुत्तमिणं कारणियं सुत्तम्मि अणुण्णातं सुत्तम्मि कड्डियम्मी सुत्तम्मि कप्पति त्ति य सुत्तम्मि य चउलहुगा सुत्तस्स मंडलीए सुत्तागम बारसमा सुत्तावासगमादी सुत्ते अणित लहुगा सुत्ते अत्थे उभए सुत्ते अत्थे जीते सुत्ते जहुत्तरं खलु सुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ सुत्तेण ववहरते सुत्तेणेव उ सुत्तं सुत्तेणेवुद्धारो सुद्धं एसित्तु ठावेंति सुद्धं गवेसमाणो सुद्धं तु अलेवकडं सुद्धं पडिच्छिऊणं सुद्धग्गहणेणं पुण सुद्धतवो अज्जाणं सुद्धदसमी ठिताणं सुद्धऽपडिच्छण लहुगा सुद्धमसुद्धं एवं सुद्धस्स य पारिच्छा सुद्धालंभि अगीते सुद्धे संसट्टे या सनिउणनिजामगविरहियस्स सुन्नघरे पच्छन्ने सुबहूहिं वि मासेहि सुह-दुक्खितेण जदि उ
२६०० सुह-दुक्खितो समत्ते
२२३४ २५५० सुह-दुक्खिया गविट्ठा
२०६६ ६५७ सुह-दुक्खे उवसंपद
३६६३ ३३६५ सुहसीलऽणुकंपातहिते
२१६६ २७४१ सुहसीलताय पेसेति
२१६७ ३८८५ सुहुमा य कारणा खलु
१२७६ ६२० सूयगडंगे एवं
२८६६ सूयग तहाणुसूयग ६३८, ६४०, ६४२, ६४४, ६४६ २३६६ सूयपारायणं पढमं
१७०६ ३७१० सूयिग तहाणुसूयिग ६३६,६४१, ६४३, ६४५, ६४७ २३३८ सूरे वीरे सत्तिय
१४३४ २६४४ सूरो जहण्ण बारस
३१२२ २२५६ सेज़ सोहे उवधि
१६७५ २६३१ सेज्जातर सेजादिसु
३२१६ २३३३ सेज्जा न संती अहवेसणिज्जा
१८१५ २६३६ सेज्जायर कुल निस्सित सेजायर पिंडे या
१३८ १८२५ सेज्जासंथारदुगं
३५१६ १४०३ सेजासणातिरिते
२६८० ४५३० सेजुवधि-भत्तसुद्धे
१६७१ २७८० सेट्ठिस्स तस्स धूता
१६०२ १७६६ सेट्ठिस्स दोन्नि महिला
११४३ ४३७३ सेणावती मतो ऊ
२४५६ ३६४० सेणाहिवई भोइय
३१२६ ३८२० सेतवपू मे कागो
E४ २६५ सेलिय काणिट्टघरे
२२८३ ३८२२ सेवउ मा व वयाणं
६१२ ५४५ सेवगपुरिसे ओमे
११७४ ३४४४ सेवति ठितो विदिण्णे
४५६१ २८७ सेसं सकोसजोयण
२२२३ ३५८७ सेसम्मि चरित्तस्सा
८३१ १४२२ सेसाई तह चेव य
३४५२ १७६, ६१७ सेसा उ जधासत्ती
३१६० ३८१६ सेसाण उ वल्लीणं
३६६५ ७५३ सेसाणि जधादिद्वे
३४३७ ३०८६ सेसाणि य दाराणी
३४४८ ४५६, ४६० सेसा तू भण्णंती
२२०१ ३६८६ | सेहतरगे वि पुव्वं
२१६७
Page #655
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०]
परिशिष्ट-२
३८८३ ३६७२ ३६६१ १२५० १०१० १६३० २४८८ ३५३५ ४४८६ ४४४१ ४४५२ २२०६
२५
४१३५ ४१७१
he
सेहस्स तिन्नि- भूमी सेहस्स तिभूमीओ सेहादी कज्जेसु व सेहि त्ति नियं ठाणं सेहो त्ति मं भाससि निच्चमेव सो अभिमुहेति लुद्धो सो आगतो उ संतो सोइंदियआवरणे सोउं पडिच्छिऊणं सोउं परबलमायं सोउ गिहिलिंगकरणं सो उ विविंचिय दिट्टो सोऊण अट्ठजातं सोऊण काइ धम्म सोऊण गतं खिंसति सोऊण तस्स पडिसेवणं सोऊण पाडिहेरं सोऊण य उवसंतो सो कालगते तम्मि उ सो गामो उद्वितो होज्जा सो चेव य होइ तरो सोचाऽऽउट्टी अणापुच्छा सोचागत त्ति लहुगा सो जध कालादीणं सो तत्थ गतोऽधिज्जति सो तम्मि चेव दवे सोतव्वे उ विही इणमो सोतिंदियाइयाणं सो तु गणी अगणी वा सो तु पसंगऽणवत्था सोधीकरणा दिट्ठा सो निम्माविय ठवितो सो पुण उडुम्मि घेप्पति सो पुण उवसंपन्जे सो पुण गच्छेण समं सो पुण गणस्स अट्ठो सो पुण चउब्विहो दव्व सो पुण जई वहमाणो
४६०४ सो पुण पंचविगप्पो ४६०३ सो पुण पचुट्टित्तो १३८४ पुण पडिच्छओ वा २८७७
सो पुण लिंगेण समं १२४७ सो पुण होती दुविधो १७१६ सोभणसिक्खसुसिक्खा १६५६ सो भावतो पडिबद्धो ४६११ सो य रुट्ठो व उद्वेत्ता २६०४ सो ववहारविहिण्णू २६१६ सो वि अपरक्कमगती १२३२ सो वि गुरूहि भणितो ४२५६ सो वि य जदि न वि इतरे ११८८ सो वि हु ववहरियव्वो २८२० सो सत्तरसो पुढवादियाण २५६७ सोहीए य अभावे ४४५७ २५६४ २६०३ हंदी परीसहचमू १४७३ हटेणं न गविट्ठा ३००२ हत्थसयमणाहम्मी ३३३३ हत्थेण व मजेण व ३६३२ हत्थे पादे कण्णे १७५७ हरति त्ती संकाए ४५३७
हरिताले हिंगुलुए २०७१
हरितोलित्ता कता सेज्जा ४५१६, ४५१७ हरियाहडिया सा खलु
२६४६ हा दुट्ठ कतं हा दुटु १४६३ हास पदोस वीमंसा २३४७ हिंडतो उव्वातो २१५५ हित-मित-अफरुसभासी
६७६ हित्थो व ण हित्थो मे १३२६ हीणाधियविवरीए ३३८८ हीणाहियप्पमाणं
२८४ हेट्ठाकतं वक्कइएण भंडं ३४८५ हेट्ठाणंतरसुत्ते ४५७१ हेट्ठा दोण्ह विहारो ४०१० - होज गिलाणो निण्हव ४८३ | होति समे समगहणं
४३६२ २०६७ ३१२६ ३८११ १४५० २६३२
१२८ २८८५ ३७६७
५१५ ३८४३ २५७६
१०० २६८ ३५४६ ३३३६ ४५७७ १७६४ ४६८२ ४२६
Page #656
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
गाथा
पृष्ठांक
पृष्ठांक
गायांक
४६४
४७१
M mor
३३८ ३४३ २४६ ३३३ ३४० ३७६ १४३ १४६
o
३८१ ४५५ ४६७ ५१८ २३४ २४१
६८
२६८
२३४ १७७ २६३ ११६
No cm
१५७
१४३
२०० २३३ ५०५
४२३ १६६ ३७६ १७४
नियुक्ति-गाथानुक्रम गायांक गाथा
अद्धाणनिग्गतादी
अद्धाण बालवुड्डे ४५६ अद्धाणादिसुवेहं ३६५ अद्धाणे अट्ठाहिय
अद्धाणे गेलण्णे १३४ अधवा अट्ठारसगं ३६७ अधवा इमे अणरिहा
अधवा गहणे निसिरण ४०२
अधिकरण विगतिजोगे अन्नतरं तु अकिच्चं अपरक्कमो मि जातो
अप्पत्ते अकहित्ता ४४५ अप्पत्ते कालगते ४७४ अप्पबितियप्पततिया ५३१ अप्परिहारी गच्छति ३२८ अप्पामूलगुणेसुं १८४ अफरुस-अणवल अचवल २६३ अबहुस्सुते य ओमे
अब्भासवत्ति छंदाणुवत्तिया ११२ अब्भुट्ठाणे आसण १६८ अभिधारे उववण्णो ३३१ अभिसेज्न अभिनितीहिय
६४ अवंकि अकुडिले यावि ४८६ अव्वत्तो अविहाडो ४८८ असज्झाइय पाहुणए ३४३ असती पडिलोमं तू १३१ असतीय लिंगकरणं ३८५ असमाहीठाणा खलु ३८०
असिहो ससिहगिहत्थो ४०३ अहगं च सावराधी
अंतो परिठावंते अंतो वा बाहिं वा अकतकरणा वि दुविहा अकिरिय जीए पिट्टण अकंदठाण ससुरे अक्खेत्त जस्सुवठ्ठति अगलंत न वक्खारो अग्गिहिभूतो कीरति अच्चाबाध अचायंते अच्छिन्नुवसंपयाए अझुसिरमविद्धमफुडिय अट्ठ त्ति भाणिऊणं अट्ठहि अट्ठारसहिं अणधिगतपुण्णपावं अणवठ्ठो पारंची अणाधोऽधावण सच्छंद अणुघातियमासाणं अणुसट्ठीय सुभद्दा अणुसासकहण ठवितं अण्णत्थ तत्थ विपरिणते अण्णपडिच्छण लहुगा अण्णाउंछं एगोवणीय अण्णाउंछं दुविहं अण्णोण्णनिस्सिताणं अतिबहुयं पच्छित्तं अत्थो उ महिद्धीओ अद्धाण कक्खडाऽसति अद्धाणनिग्गयादी
३७४ ३२२ ३४७ ३६४ १६६ १०६ १५४
३२७ ५०७ २८३ १३५
१४५ १६०
७
२३६ २६७
३६
१६
१४५ ३७६
२३८ ५०८
११७
२००
६७
१३२
२६
३७८
६४
३६४ ३६४ २११
६५ २५० २४८ २६५
५१२ १२८ ३८२ १६२
८२ ३०१ ४६
२२
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________________
६२ ]
परिशिष्ट-२
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
गाथा
पृष्ठांक
. गाथांक
३२०
४४०
अह पुण कंदप्पादीहि अहवा सावेक्खितरे
१५
५७ ५, ३६६ ३६४ ५१
आलोयण त्ति य पुणो आलोयण पडिकमणे आलोयणागुणेहिं आलोयणारिहालोयओ आलोयणारिहो खलु आलोयणाविधाणं आलोयणा सपक्खे आवलिया मंडलिया आवस्सग-पडिलेहण आवस्सग सज्झाए आसासो वीसासो आसुक्कारोवरते आहारादीणट्ठा आहारे जतणा वुत्ता
११८ १६,५३७
५३२ १०१ १०२ १०७ ३५६ २६०
५६ १५०
५१
gute
س
س
८७
س
سه
२६८
१६३ १८३
३०८
६६
२०३ ३१
२१७
१७१ ३४६
२४२
cim
४८
आएस-दास-भइए
३४६ ४७५ आकंपयित्ता अणुमाणयित्ता
१०६ आकिण्णो सो गच्छो
३३० आगमगमकालगते
४७० आगमतो ववहारं
५२७ आगमतो ववहारो
५२२ आगमसुतववहारी
३१ आगाढो वि जहन्नो
३३५ आगारेहि सरेहि य
७३ आणादिणो य दोसा १२८, २५६, २११, ३६६,
२६३, ३०६ ४०१, ४२६ आणादी पंचपदे
३१३ ४३४ आततर-परतरे या
४७ आततरमादियाणं आदिसुतस्स विरोधो
२२६ ३६१ आदेस-दास-भइए
३१६
४३५ आधाकम्मुद्देसिय
१४८ २५२ आभवंते य पच्छित्ते
४६४ आयप्परपडिकम्म
४१८ आयरिए कह सोधी आयरिए कालगते
१५४ २६२ आयारकुसल एसो
१४५
२४० आयारकुसल संजम
१४५ २३७ आयारपकप्पे ऊ
२५७ आयारवं आधारवं
१०३ आरियसंकमणे परिहरेंति
१५४ आरोवणनिष्फण्णं
२६ आरोवणा परूवण
२५१ ३८८ आलावण पडिपुच्छण आलोइयम्मि गुरुणा
१५६ २६४ आलोएंतो एत्तो
५१
१०४
इंदियकसायनिग्गह इच्चेयं पंचविधं इच्चेसो पंचविहो इति दव्व-खेत्त-काले इति संजमम्मि एसा इय पंचकपरिहीणे
१४६ ३७६ ३७६ १२४ २३३
५१५ ५१६ २०७
३६६
१५६
३६७
५४८ ११६
३७
७८ ४४२
२८२
उक्कोसारुवणाणं उग्घातमणुग्धाते उडुबद्ध दुविह गहणा उडुबद्धसमत्ताणं उण्होदगे य थोवे उद्धारणा विधारण उप्पण्णे उप्पण्णे उप्पण्णे गेलण्णे उप्पियण भीतसंदिसण उस्सुत्तं ववहरतो उस्सुत्तमायरंतो
३४ ३२० १७४ ३५८ ४२६ २०५
१४६
४८३ ५५७
३३८ ३६३
२३० १६२
३२३
११०
१६४
२७०
१४७
Page #658
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
२२२
४२६
ऊणट्ठए चरित्तं ऊणातिरित्तधरणे
४४३ ३३६
५६६ ४६५
१४१ ३७५
३५४ ५५६ २३० ५०६ ४१०
२७५
एमेव य साधूणं एवं गंतूण तहिं एवं जुत्तपरिच्छा एवं ता जीवंते एवं तु विदेसत्थे एवं तू परिहारी एवं पि भवे दोसा एवं भणिते भणती एव तुलेऊणपं एस तवं पडिवजति एस सत्तण्ह मज्जाया
६२ २५८
१२३ ३६४
२०३
३६४
५३३ ४१३
३११
२७७
१०६
४६
३१०
४३०
२५
११६
५८
ओलोयणं गवेसण ओह अभिग्गह दाणग्गहणे ओहेणेगदिवसिया .
२२४
२०१ ३५५ ५२
१३०
३३४
२८५
१५३
एक्कक्कं पि य तिविहं
६७ १६७ एक्कक्के आणादी
३३६ एक्को व दो व उवधिं
४३२ एगतरलिंगविजढे
१५५ एगुत्तरिया घडछक्कएण
६७ एगे अपरिणए वा
५७ एगे उ पुव्वभणिते
३४४ ४७२ एगो एगो चेव तु
३०८ ४२५ एतद्दोसविमुक्कं
२५ एतस्सेग दुगादी
२१२ एते अण्णे य बहू
४५६ एते उ सपक्खम्मी
४१६ एते गुणा भवंती
१५२ २६० एते दोसविमुक्का
१४२ २३२ एते य उदाहरणा
१३६ २२४ एतेसामण्णतरे
३०५, ३०६ ४२०, ४२१ एतेसिं ठाणाणं
३८४ ५३० एतेसु तिठाणेसुं एतेसु धीरपुरिसा
४३० ५५६ एतेहि कारणेहिं १६६, ३६८, ४१७ २७६, ५००,
५४६ एत्तो तिविधकुसीलं एमादी सीदंते
१८८ ३१४ एमेव आणुपुब्बी
४१७
५४४ एमेव बहूणं पी
२११ ३४४ एमेव बितियसुत्ते
१०४ १८० एमेव मंडलीय वि
१७७
२६५ एमेव महल्ली वी
३५६
४८४ एमेव य पारोक्खी
३६६ ५३६ एमेव य वासासुं
१६१
Vom ५.००
७१
१८८
३१५
१३
१७ ३८७
७५
कंदप्पा परलिंगे कडजोगिणा तु गहियं कतकरणा इतरे वा कप्पपकप्पी तु सुते कप्पसमत्ते विहरति करणिज्जेसु उ जोगेसु काउस्सग्गे वखेवया कामं विसमा वत्थू काय-वइ-मणोजोगो कारणमेगमडंबे काले जा पंचाहं काले दिया व रातो किं नियमेति निजर किं होज परिदृवितं केई पुव्वं पच्छा केरिसओ ववहारी केवतिकालं उग्गह केवल-मणपज्जवनाणिणो
२५१
३२ ४४३ २७७
५७० ४१२
८६
१४८
१२८
४५१ ४८१
३५८ १३५ ३३४
३६८
२२० ४५७ ५०१ २७३
३४६ ८४, ५६३
१६५
२१५ ३६, ४३२
३२२
Page #659
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४ ]
परिशिष्ट-२
गाथा
पृष्ठांक
गाथांक
गाथा
पृष्ठांक
गाथांव
को भंते ! परियाओ
५२
१०८
३६८
१२२ १७१, ३६८
६७ २८६
४६७
२०३ २८०, ४६६
१६५ ४१६ २८७
५१
१०५
२७५
खंते दंते अमायी य खुड्डग विगिट्ठ गामे खेत्तनिमित्तं सुहदुक्खतो खेत्तस्स उ संकमणे खेत्ताणं च अलंभे खेत्ते सुत-सुह-दुक्खे खेत्ते सुह-दुक्खी तू
चतुग्गुणोववेयं तु चरिया पुच्छण-पेसण चिक्खल्ल पाण थंडिल चित्तमचित्तं एक्केक्कगस्स चित्तलए सविकारा चेइय साधू वसही चेयणमचित्तदव्वे चोदग ! अप्पभु असती चोदग पुरिसा दुविधा चोदग बहुउप्पत्ती चोदग मा गद्दभ त्ति चोदेती वोच्छिन्ने
oc MM ० ० MAcco
१७४ ३२० २१६ ३६७ ३७६
१७५ ३१
६८
२२५
३४८ ४६५ ५०६
१३७ ४४
६०
६२
१२२
७४
d
४३१
५६२
१२६
६४ ३३६
४६३
१०५
१३
२६
१८३ ३५८
छक्काय चउसु लहुगा छक्कायाण विराधण छाघातो अणुलोमे
१८८
१०८ २३४
४६०
३६८
गंतव्व गणावच्छो गंतव्व पलोएउं गंतूण पुच्छिऊणं गंभीरा मद्दविता गच्छगयनिग्गते वा गच्छम्मि केइ पुरिसा गणनिसरणे परगणे गमणागमण-वियारे गीतत्थउज्जुयाणं गीतत्थो तु विहारो गुत्तीसु य समितीसु य गुरुहिंडणम्मि गुरुगा गोणे साणे छगले गोभत्तालंदो विव गोरस-गुल-तेल्ल-घतादि
२२७ ३६५ १२३ ४०१
१० १३५ ६६
१४०
२०६ ५४१
२३ २१८ १७२
१८ ३७७ २७८ १५२ ४७८
४८५
२४४ १७०
८७ ३५२
जइ विऽसि तेहुववेओ जंघाबले च खीणे जं जीतं सावजं जणवयऽद्धाणरोधए जवमज्झ-वइरमज्झा जह केवली वि जाणति जह कोई मग्गण्णू जहण्णेण तिण्णि दिवसा जत्थ पविट्ठो जदि तेसु जदि जीविहिति भजाई जम्हा उ होति सोधी जम्हा एते दोसा
३८२
| ৩৩ २१६ ३४७ ४३३ ५६७ ३७६
५१६ ३६२
५२६ ३७८ ५११ २०३ ३३४ १८७ ३१२ १२३ २०५
999 २६४ १०१, २४१, १७७, ३७३,
४१७
४३
८६
घतकुडगो उ जिणस्सा घरसउणि सीह पव्वइय घोसणय सोच्च सण्णिस्स
७५
१३८ ५०३
३७२
२८६
जिणकप्पितो गीतत्थो जिणचोद्दसजातीए जिणनिल्लेवणकुडए जीवाजीवा बंधं
occmत m mmm
१७३
२५६
चइयाण य सामत्थं चउधा वा पडिरूवो
३६२ २०
१४७
२४६
Page #660
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
[६५
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
गाथा
पृष्ठांक
गाथांक'
३०४
६५
१८३ ३६७ १८६
४६३ ३११
१६१ ३२६ १८७
१.
२६३
जुक्रायम्मि उ ठविते जेण य ववहरति मुणी जेण विपडिच्छिओ सो जे ति व से त्ति व केत्ति व जे बेंति न घेत्तव्यो जे भिक्खु बहुसो मासियाणि जे सुत्ते अतिसेसा जो अवितहववहारी जो आगमे य सुत्ते जो धारितो सुतत्थो जो सो चउत्थभंगो
१६४ १०८ १७७ २४४ ३१
३४१
४६८ | ওও
तस्सऽसति सिद्धपुत्ते । तह वि न लभे असुद्ध तह वि य अठायमाणे तित्थगरत्थाणं खलु तित्थगरपवयणे निजरा तिन्नि उ वारा जह दंडियस्स तिरियमुब्भाम णियोग तिविधे तेगिच्छम्मी तिविधो य पकप्पधरो तेणादेस गिलाणे तेवरिसा होति नवा तो तेसिं होति खेत्तं
३४
२५६
३६१
१५
१७ १४८
३७६
७२ १४२
३७ २५४ १२६ ३५३ २८६
४३२ ४३० १३६
५६६ ५६० २२८
२२० १७६
३४
७६
६२
ठवणा-संचय रासी ठाणं निसीहिय त्ति य ठाण निसीय तुयट्टण ठाण-वसधी पसत्थे
१२४ ५४६ ५४२
३३४ १५१
८
थिग्गल धुत्तापोत्ते थिरपरिचियपुव्वसुतो थेरा सामायारिं थेरे अणरिहे सीसे
४५८ २५८ ४१८
४०
१
२८८
-१४३
।
णातमणाते आलोयणा गाण तु णाणत्तं
२७४ ३२३
४०६ ४४६
0
.
१३६ २७३ २०४ १६७ २३७
२२७ ४०६ ३३७ ३२६ ३६६
५५२
४२२ ३०८
४२४
२४६.
४०१
५४०
६५
५१
तं चेवऽणुमजते . तं चेव पुव्वभणितं तं तु अहिज्जंताणं तं पुण अणुगंतव्वं तं पुण ओह विभागे तगराए नगरीए तण्हुण्हादि अभावित तत्थादिमाइ चउरो तद्दव्वस्स दुगुंछण तम्हा खलु घेत्तव्यो तवऽतीतमसद्दहिए तव-नियम-संजमाणं तवेण सत्तेण सुत्तेण
३० १४, ३५८
'१६
दंसण-नाण-चरित्ते दटुं साहण लहुओ दगु विसज्जण जोगे दप्पेण पमादेण व दव्वप्पमाणगणणा दव्वम्मि लोइया खलु दव्वादि चतुरभिग्गह दव्वे खेत्ते काले दव्वे भविओ निव्वत्तिओ दव्वे भाव पलिच्छद दव्वे भावे असुई दव्वे भावे संगह दव्वे य भाव भेयग दव्वेहि पज्जवेहि दाण-दवावण-कारावणेसु दिव रातो उवसंपय
१३८
२२ । १६४ २४० ३४६ ११२ ३२३
४६ १८५
३०, ४८०
४४ २२६ २६६ २४७
१६०
१४७
२७१ ३७२ ४७६ १६४ ४४८
६५ ३१० १३६
४१
१६ ३८३ १४८.
५२८ २५१
७६
५५
Page #661
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६]
परिशिष्ट-२
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
३६३
१३४
४४८
३०६ १४२ ३२०
२१६ ५७१ ३६४
२३३ ११८
१६६
१३३ २३३
W MA
४८६ ४२७ २३१ ४३६ २१४ ३६५ ४६६ १४६ १२० ५०४ १४६ २१० ५३४
१२५ १३७ १५६ ३४५
३४१ ८६ ५६
२१३ २६
दिव्वादि तिन्नि चउहा दिसा अवर दक्खिणा य दीणा जुंगित चउरो दीवेउं तं कजं दुल्लभदव्यं पडुच्च दुल्लभलाभा समणा दुविधा छिन्नमछिन्ना दुविधो खलु ओसण्णे दुविहा पट्ठवणा खलु दुविहा सुतोवसंपय दुविहो खलु पासत्थो दुविहो य एगपक्खी देंता वि न दीसंती देवो महिड्डिओ वावि दो पायाणुण्णाया दोसा उ ततियभंगे दोण्हं तु संजताणं दोण्हं विहरंताणं दोसाण रक्खणट्ठा दो साहम्मिय छब्बारसेव दोहि वि अपलिछन्ने दोहि वि गिलायमाणे
नामादि गणो चउहा नायम्मि गिण्हियब्वे नायविधिगमण लहुगा नाहं विदेस आहरणमादि निक्कारणम्मि गुरुगा निग्गमणं तु अधिकितं निग्गमणमवक्कमणं निग्गमणे चउभंगो निग्गमणे परिसुद्धे निग्गयवटुंता वि य निग्गिज्झ पमज्जाही निहित महल्ल भिक्खे नितियादि उवहि भत्ते निरवेक्खे कालगते निव्विति ओम तव वेय निसीध नवमा पुव्वा निस्संकियं व काउं नोइंदियपच्चक्खो
६२
३७४ ८३
२४०
२०२
३७१ ३३२ ३१८
१८६
४८२
१८३
१२८ ३६४ ३५८ ३३६ १६० १७७
३०६
१५६
४२
४६६ ३२१ २६६ १७५ ४५४ १६३
२६५
८६ ४०७ ५२४
२७३
१००
३८१
३३३
६७ १३५ १०३
२२२
१७६
३११ १६४ ३८१
१३
४३१ २६६ ५२१
२८ ३६० ४६० ४६१
१४६
धारिय-गुणिय समीहिय धुवमण्णे तस्स मज्झे
२४४ ४३७
२५६ ३३५
३१८
३३५ २२
पंचण्ह दोन्नि हारा पंचविधं उपसंपय पंचविहो ववहारो पंचादी आरोवण पंचेते अतिसेसा पंथे उवस्सए वा पंथे वीसमण निवेसणादि पक्खिय चउ संवच्छर पच्चक्खो वि य दुविहो पच्छन्नराय तेणे पट्ठविता ठविता या पडिकुटेल्लगदिवसे पडिभग्गेसु मतेसु व पडिलेहण ऽसज्झाए पडिलेह दिय तुयट्टण पडिसेधे पडिसेधो
५२३
३८१ १८३
नत्थी संकियसंघाड नवडहरगतरुणगस्स नाणायार विराहितों नाम ठवणा दविए
२६१
२७ १५४
३०७ १६, २०, ६७,६८,
६६
३०५ १२१
५६ ३०
४२३ ___४३, ४६,
४७, १६४, १६८, १७०
७६६
१७४ . ६४ १८८ २७४
२८५ १३० ३१३ ४०८
नाम ठवणा भिक्खू
१८
Page #662
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
[६७
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
गाथा
पृष्ठांक
गाथांक
१३
३०७
१८३ ११३
ocm cocc
पुव्वं आयतिबंधं पुव्वभवियवेरेणं पुव्वाणुपुब्बि दुविधा पुव्वाणुपुवि पढमो पेहाभिक्खग्गहणे
१६५ ११५
२७
154
१५ ११३
११६ १८१
१२
२०६
फासेऊण अगम्म
१२६
१६ २७० ४२, ५०
७६ ३१ १६४
२ १७७
३६ ४०४ ८७, ६६ १४३
७० ३२५
३६५ २३६ २४१ १८६ २०५
४६२ ३७० ३७४ ३१७
२६२ १४१
७८
बंध-वहे उद्दवणे बहि अंत विवच्चासो बहिगमणे चउगुरुगा वहिगाम घरे सण्णी बहिया य अणापुच्छा बहुएहि जलकुडेहिं बहुपडिसेवी सो वि य बहुपुत्ति पुरिस मेहे बारस अट्ठग छक्कग बालासहु वुड्ढेसुं बोहेति अपडिबुद्धे
Owny v
३३१ १४८
पडिसेवओ य पडिसेवणा पडिसेवओ सेवंतो पडिसेवणं विणा खलु पडिसेवणा तु भावो पडिसेवणाय संचय पडिसेवणा य संजोया पडिसेहियगमणम्मी पढमस्स होति मूलं पत्ता पोरिसिमादी पत्तेयं-पत्तेयं पत्थर छुहए रत्ती पम्हुतु पडिसारण पयतेणोसधं से परपच्चएण सोही परिकम्मेहि य अत्था परिजितकालामंतण परिसाडिमपरिसाडी परिहरति असण-पाणं परिहारिओ उ गच्छे परिहारियकारणम्मि पलिउंचण चउभंगो पवयणजसंसि पुरिसे पव्वज्जादी काउं पाणा सीतल कुंधू पादोवगमं भणियं पादोवगमे इंगिणी पायच्छित्तनिरुत्तं पायच्छिताऽऽभवंते य पारंचि सतमसीतं पारिच्छहाणि असती पारोक्खं ववहारं पावं छिंदति जम्हा पासत्थ-अहाछंदो पियधम्मा दढधम्मा पुक्खरिणी आयारे पूच्छाहि तीहि दिवसं
४५२
MY W NOV
१
१०४
२५३ १३३ १८२ ११७ ५५८ ५४७
१४८
२५० २२१
५७
१३५
४२६ ४१८ ३२२
४४७
३०
४१८
२५३
६६ ३८६ २१६
४००
५३६
१३५
४
६७
१६६
३८१
५२०
भग्गघरे कुड्डेसु य भत्ते पाणे धोव्वण भावगणेणऽहिगारो 'भावे पसत्यमियरं भिदंतो यावि खुधं भिक्खणसीलो भिक्खू भिक्खुस्स मासियं खलु भिक्खू इच्छा गणधारए भिक्खू कुमार विरए
४२
४०
१८५ ३८१
११४ ३०६ ५२५
११ १४५
१६ १८ २०६ १३४ १३५
३४२ २१५ २२३
३
१४६ १७४
२५५ २८६
मग्गे सेहविहारे मग्गोवसंपयाए
६६ ३७८
१७४ ५१०
Page #663
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८]
परिशिष्ट-२
गाथा
पृष्ठांक
गाथांक
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
२६२
१६२ १६३ २७६
३६८
४३१
३५३
मणपरमोधिजिणाणं
१०० मण-वयण-कायजोगेहिं
३६३ ४६७ मधुरा दंडाऽऽणत्ती
१११ पहज्झयण भत्त खीरे
११२ महती वियारभूमि
१७१ महती विहारभूमि
४६८ महिड्डिए उट्ठनिवेसणा
१०८
१८६ मा कित्ते कंकडुकं
१६४ २७२ मिच्छत्तअन्नपंथे
३३५ ४६२ मिच्छत्त बडुग चारण
१०१ मिच्छत्तसोधि सागारियादि २५६, २६१ ३६३, ३६७,
२७६ ४१४ मिच्छत्तादी दोसा
२८० ४१५ मूलादिवेदगो खलु मूलुत्तरपडिसेवा
४८ मोहेण व रोगेण व
४७६
४३२
५६५
१७६
२४४ २४२
४५
४१७ १६०
वखारे कारणम्मि । वटुंतस्स अकप्पे वणिमरुगनिही य पुणो वत्तणा संधणा चेव वत्तणुवत्तपवत्तो वल्ली वा रुक्खो वा ववहारचउक्कस्सा ववहारम्मि चउक्कं ववहारी खलु कत्ता वाते पित्ते गणालोए वादी दंडियमादी वालच्छ भल्ल विस विसूइकए वासं खंधार नदी वासाण दोण्ह लहुगा वासासु अपरिसाडी वासासुं अमणुण्णा वासासु निग्गताणं वासासु समत्ताणं विजाए मंतेण व विणओवसंपयाए विभागओ अपसत्थे वीतिकंते भिन्ने वीयार-तेण आरक्खि वीसुं दिण्णे पुच्छा वुड्डावासातीते वुड्डावासे चेवं वुड्डावासे.जतणा वेयावच्चे तिविधे
१७० ३२२
३७८ ३७५ ५४५ ३२० २७७ ४४६ २८८ ४६६ २६७ १६६ ५१३
रण्णो कालगतम्मी रण्णो निवेदितम्मि रत्ति दिसा थंडिल्ले रागा दोसा मोहा रागेण वा भएण व रायणियवायएणं रायणिया थेरोऽसति
३१८ १०६ ३१० ३०६ १०७ १२२ १७८
४३६ १६० ४२६ ४२२ १८६ २०२ २६६
१७६ ३६७ १७७ ११४ ३७८
२२
३१२
१२७ ७६
३२ २१६ ३२८ २१७
३५१ ४५०
३५०
लहुगा य झामियम्मि लहुगा य दोसु दोसु य लाभमदेण व मत्तो लोइय-लोउत्तरिओ लोए चोरादीया लोगे य उत्तरम्मी लोगे वेदे समए
३२० १२५ १११ १०७
४४३ २०८ १६१ १८५
१११
स
१८३
३०३
३६५
०
१४६
२४५
संकग्गहणे इच्छा संकिए सहसक्कारे संगहुवग्गहनिज्जर संघयणधितीजुत्तो
.४६१
२१ २८१ ५५०
१७३ ४१८
Page #664
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-२
[६६
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
गाथा
पृष्ठांक
गायांक
६८ ३५१
१६६ ४७७
१४७
२४८
१६८, २२०
२३० २६२ २६२ २२७ १४७ ३४४ १८६
२४७ २२६
१४४
३७६ ३६० २३६ ५३८ ५१४
६५
४०० ३७६ १४६ ३२१ ६०
२४३
२२८
४४४ १५८ ३५६ ३८४
२४६
संघयणे वाउलणा संजोगदिट्ठपाढी संदंतमसंदंतं संदंते वक्खारो संबंधिणि गीतत्था संभुंजण संभोगे संविग्गमसंविग्गे संविग्गेगंतरिया संविग्गे गीयत्थे सच्चित्तादिसमूहो सज्झायभूमि वोलते सज्झायस्स अकरणे सत्थपरिण्णा छक्काय सपडिग्गहे परपडिग्गहे सपदपरूवण अणुसज्जणा समणस्स उत्तिमढे समणुण्णेसु वि वासो समाधी अभत्तपाणे सरमाणो जो उ गमो सरिसेसु असरिसेसु व सव्वेसि पि नयाणं सहसा अण्णाणेण व सागारिए गिहा निग्गते साधम्मि पडिच्छन्ने साधारणो अभिहितो साधू विसीयमाणे सामायारी वितहं सारूवी जजीवं सारेऊण य कवयं
१३५ २०२
१२ १४६ १३२ ३६५ ४२२ १६० ३०६
२७५,३५२ ।। साहम्मिएहि कहितेहि
३६२ साहारणा उ साला ३६६ साहिल्लवयण-वायण ४०० सीसा य परिच्चत्ता ३५७ सीसेणाभिहिते एवं २४६ सीसो सीसो सीसो ४७३ सुण जध निजवगऽत्थी ३१६ सुत-सुड-दुक्खे खेते १६० सुत्तत्थहेतुकारण २१७ सुत्तनिवातो तणेसु ३३३ सुत्तमिणं कारणियं
२४ सुत्तम्मि कड्डियम्मी २५६ सुत्तावासगमादी २१३ सुत्ते अत्थे जीते ५३५ सुत्ते जहुत्तरं खलु ५५३ सुत्तेण ववहरते ३१६ सुद्धऽपडिच्छण लहुगा ४२८
सुद्धस्स य पारिच्छा १३६
सुहसीलऽणुकंपातहिते १७८ सूयपारायणं पढमं ५७२ सेज्जासंथारदुर्ग ५२६ सेवगपुरिसे ओमे ४०५ सेहस्स तिभूमीओ ३४१ सोच्चाऽऽउट्टी अणापुच्छा
सोतव्वे उ विही इणमो २५६ सो पुण उडुम्मि घेप्पति १५१ सो पुण चउव्विहो दव्व ३०२ सो पुण लिंगेण समं ५४३ | सो ववहारविहिण्णू
२६१ ५६४
६३
१७६ ४३२
२८ १४० २०७ १६६
७४
१०२. ४४८ ३८३
२२६ ३४० २७४ ४५३ १६७
२७२
५६८
२०८ १५०
३००
११६ ४३६ ३७१ २५१ ३२० ३७६ १२३ ४२७
५०२ ३८६ ४४१ ५१७ २०४
Page #665
--------------------------------------------------------------------------
________________
सू. संख्या
प्रथम उद्देशक
9
२-१०
११-१२
१३,१४
१५-१८
१६
२०-२२
२३
२४, २५
२६-३०
३१
३२
३३
इस परिशिष्ट में सूत्र - संख्या के साथ उससे संबंधित भाष्य गाथा के क्रमांक प्रस्तुत हैं । व्यवहारभाष्य की 'पीठिका' भूमिका रूप है, उसमें सूत्रों की व्याख्या नहीं है। सूत्रों की व्याख्या १८४वीं गाथा से शुरू होती है ।
द्वितीय उद्देशक
१-४
५
६
om
€
१०
११
. १२
१३
भा. गाथा
१८४
३२४
३४५
५१७
५३५
६२४
६६०
७६८
του
८३३
८६ १
६०६
६१४
६७७
१०३६
१०५१
90199
१०७२
१०७६
११२३
११४०
११४७
११५३
सूत्र
से संबंधित भाष्य - गाथाओं का क्रम
सू. संख्या
१४
१५
१६
१७
१८, १६
२०, २१
२२, २३
२४
२५
२६
२७
२८
२६
३०
तृतीय उद्देशक
9
२
३-८
६
१०
११
१२
१३
१४-१७
१८
भा. गाथा
११६३
११६६
११६८
११७२
१२०५
१२०६
१२१०
१२३७
१२४६
१२.६८
१३३४
१३४३
१३५१
१३५२
१३५७
१४७१
१४७७
१५४२
१५६१
१५७६
१५६८
१५६४
१६११
१६१५
सू. संख्या
१६-२२
२३-२६
चतुर्थ उद्देशक
१-८
६,१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१६
२०-२३
२४
२५
२६-३२
पंचम उद्देशक
9-98
१५, १६
१७
१८
भा. गाया
१६१६
१६३४
१७२८
१७६३
१८६०
१६८३
१६६०
२०१८
२०३१
२०५३
२०५७
२०६३
२०७४
२०७६
२१७७
२१८६
२१६०
२३०४
२३१२
२३३२
२३३७
सू. संख्या
१६
२०
२१
षष्ठ उद्देशक
9
२
३
४
با
६
७
Τ
६
१०
११
परिशिष्ट-३
सप्तम उद्देशक
१-२
३
४
५
६,७
८, ६
१०,११
भा. गाथा
२३४८
२३७६
२३६४
२४४७
२५१६
२७०५
२७०८
२७२५
२७४५
२७७६
२८०३
२८०७
२८१३
२८३२
२८३४ २८६७
२८७८
२६२१
२६२६
२६५१
२६५३
Page #666
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-३
[७१
सू. संख्या
भा.गाथा
सू. संख्या
भा.गाथा
सू. संख्या
भा.गाथा
सू. संख्या १४
४२,४३
१२ १३
४४
भा.गाथा ३८१० ३८१८ ३८२३ ३८२४
१५
१४, १५
७-१२ १३-१५ १६
३४७६ ३५०६ ३५१८ ३५३६ ३५६३ ३६८०
२६७६ ३००७ ३०१४ ३०४५ ३१०० ३२२२ ३२४० ३२५३ ३३०६ ३३४३ ३३५४
१७, १८
४५८५ ४५८६ ४५६४ ४५६५ ४५६७ ४६०२ ४६४५
१६
१७,१८ १६ २० २१,२२ २३,२४ २५-२६
दशम उद्देशक
२०, २१ २२ २३, २४
नवम उद्देशक
१-५
४६५२
३८३१ ३८८१
२५
३०
२७,२८
६-१६ १७-३० ३१-३४
३७०३ ३७१५ ३७२४ ३७३७ ३७७६ ३७७८
४६५५ ४६५८ ४६६० ४६६३ ४६६६ ४६६७ ४६६८ ४६७५
४५६७
३१ ४५७१ | ३२ ४५७३ ४५७५ ३४ ४५७७ ३५-३६ ४५८१ । ४०,४१
अष्टम उद्देशक
१२
३३८२ । ३३८८
३६-३८ ३६.४१
२-४
२७८६ । १३
Page #667
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
टीका एवं भाष्य की गाथाओं का समीकरण
इस परिशिष्ट में संपादित भाष्य गाथा के क्रमांक तथा प्रकाशित टीका की भाष्य गाथा के क्रमांक की सूची प्रस्तुत की जा रही है। प्रकाशित टीका के अनेक भाग हैं। संपादक ने उन भागों को न उद्देशक के अनुसार बांटा है और न ही भागों की संख्या को संलग्न रखा है। टीका में सभी गाथाओं के उद्देशकगत अलग-अलग क्रमांक हैं। इससे पाठक को किसी भी गाथा की टीका खोजने में दुविधा होती है। हमने पूरे ग्रन्थ की गाथा-संख्या संलग्न रूप से रखी है। यहां हम टीका के भाग, उनकी पृष्ठ संख्या तथा प्रत्येक भाग की गाथा-संख्या की तालिका के साथ संपादित गाथा-संख्या-तालिका भी प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक को इस परिशिष्ट के माध्यम से किसी भी गाथा की टीका खोजने में सुविधा रहेगी। ____ मुद्रित टीका में अनेक गाथाओं के आगे क्रमांक नहीं हैं किन्तु आगे संख्या ठीक चल रही है। वहाँ हमने (-) इस चिह्न का प्रयोग किया है। जहां प्रकाशन की त्रुटि से संख्या दो बार या आगे-पीछे छप गई है, उसका भी हमने पाद टिप्पण में उल्लेख कर दिया है। जो गाथाएं हमने मूल में स्वीकृत की हैं और यदि वे मुद्रित टीका में नहीं हैं तो उनको हमने 'x' चिह्न से दर्शाया है। जहाँ कहीं टीका में गाथा भाष्य-गाथा के क्रमांक में न छपकर त्रुटि से व्याख्या के मध्य में छप गई है अथवा उद्धृत गाथा है, इन सबका भी पाद-टिप्पण में उल्लेख कर दिया गया है।
टीकागत गाथाएं
१८४
२८८ २८६-४१६
२३५
टीकापत्र
६२ ६६
५१ ५२-१३८
८७ ७३ १०४
३८२
विभाजन पीठिका (प्रथम विभाग) दूसरा भाग तीसरा भाग (१) तीसरा भाग (२) चौथा भाग (१) चौथा भाग (२) चौथा भाग (३) पांचवां भाग छठा भाग सातवां भाग आठवां भाग नवां भाग दसवां भाग
३७२
संपादित गाथा
१८३ १८४-४६६ ४७०-६२३ ६२४-६७६ ६७७-१३५६ १३५७-१७२७ १७२८-२३०३ २३०४-२४४६ २४४७-२८३३ २८३४-३३८१ ३३८२-३७०२ ३७०३-३८३० ३८३१-४६६४
५७५ १४३ ३८७ ५४८ ३१६
१२८
७२४+१४३
११४
१. प्रकाशित संख्या ४१८ तक है उसके बाद ११ गाथाएँ और हैं। २. इस भाग में २३५ के आगे क्रमांक छपे हुए नहीं हैं। पहले भी अनेक गाथाओं के आगे क्रमांक नहीं हैं। ३. दसवें भाग में पत्र ६३ तक ७२४ गाथाएं हैं तथा उसके बाद फिर १ से १४३ तक गाथाएं और हैं।
Page #668
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट- ४
प्र. गाथा
9
२
५
६
७
८
€
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१६
२०
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
सं. गाया
२८
२६
प्र. गाथा
३६
३७
३८
३६
५
४०
६ ४१
७
४२
४३
४४
9
२
AWW
३
८
६
१०
99
१२
१३
१४
२०
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
२८
२६
३०
३०
३१
३१
३२
३२
३३
३३
३४
३४
३५
३५
१. १२७ के स्थान पर ११७ छपा है।
४५
४६
४७
४८
४६
१५
५०
१६
५१
१७
५२
१८
५३
१६ ५४
५५
५६
५७
५८
५६
६०
६१
६२
६३
1
६६
६७
६६
७०
सं. गाया
३६
३७
३८
३६
४०
४१
४२
४३
४४
४५
४६
४७
४८
४६
५०
५१
૨
५३
५४
노노
५६
५७
५८
५६
६०
६१
६२
६३
६४
६५
६६
६७
६८
६६
७०
प्र. गाथा
७१
७२
७३
७४
1925 12540453
७५
७६
७७
७८
७६
το
८ १
८२
८३
८४
८५
८६
८७
८८
८६.
६०
६१
६२
६३
६४
६५
६६
ξε
६ ६
१००
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
१०६
सं. गावा
1929 1930 122
७१
७२
७३
७४
७५
७६
७७
७८
७६
το
59
८२
८३
८४
८५
८६
८७
τζ
τξ
६०
€9
६२
६३
६४
६५
६६
६७
Επ
६६
१००
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
प्र. गाथा
१०७
१०८
१०६
१११
११२
११३
११४
११५
११६
११७
११८
११६
१२०
१२१
१२२
१२३
१२४
१२५
१२६
११७१
१२८
१२६
१३०
१३१
१३२
१३३
१३४
१३५
१३६
१३८
१३६
१४०
१४१
[ ७३
सं. गाथा
१०६
१०७
१०८
१०६
११०
999
११२
११३
११४
११५
११६
११७
११८
११६
१२०
१२१
१२२
१२३
१२४
१२५.
१२६
१२७
१२८
१२६
१३०
१३१
१३२
१३३
१३४
१३५
१३६
१३७
१३८
१३६
१४०
Page #669
--------------------------------------------------------------------------
________________
[७४
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
.प्र.गाथा
सं.गाथा
१४२
१४१
१७७.
१७६
६०
२४३
*
१४२
२५ २६
१७८
२४४ २४५
१७६
२७
१४३ १४५
१४३ १४४ १४५
१८०
२८
२४६
१७७ १७८ १७६ १८० १८१ १८२ १८३
१८१ १८२
२६
१४६
१८३
१८४
१४७ १४८ १४६ १५० १५१ १५२ १५३ १५४
१४७ १४८ १४६ १५० १५१ १५२
२०८ २०६ २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१६ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५ २२६ २२७ २२८
२४७ २४८ २४६ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५
प्रथम उद्देशक
१८४ । १८५
१५५
२५६
१५६ १५७
७५
१५८
१५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५६ १६०
n n Gram
१५६
१८७ १८८ १८६ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६६
२५७ २५८ २५६ २६० २६१ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८
१६१
२२६
१६३ १६४ १६५
११ १२
२३० २३१
१४ १५
१६७
१६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६६ १७० १७१
२३२ २३३ २३४
२६६
२००
२३५
१६६ १७०
१८
२०१ २०२ २०३ २०४
२७० २७१ २७२ २७३ २७४
१७२ १७३ १७४
२० २१
२३६ २३७ २३८ २३६ २४० २४१ २४२
१७२
२२
२७५
१७३ १७४ १७५
२०५ २०६
५८
२७६ २७७
१७६
२४
२०७
★ मुद्रण के प्रमाद से यह गाथा मूल भाष्य के क्रमांक में न होकर व्याख्या के मध्य में प्रकाशित है।
Page #670
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट- ४
प्र. गाथा
६५
६६
६७
Ες
EE
१००
.१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
१०६
१०७
१०८
१०६
११०
999
999
११२
११३
११४
११५
११६
११८
११६
१२०
१२१
१२२
१२३
१२४
१२५
१२६
१२७
१२८
१२६
सं. गावा
२७८
२७६
२८०
२८१
२८२
२८३
२८४
२८५
२८६
२८७
२८८
२८६
२६०
२६१
२६२
२६३
२६४
२६४/१
२६५
२६६
२६७
२६८
२६६
३००
३०१
३०२
३०३
३०४
३०५
३०६
३०७
३०८
३०६
३१०
३११
३१२
प्र. गाथा
१३०
१३१
१३२
१३३
१३४
१३५
१३६
१३७
१३८
१३६
१४०
१४१
१४२
१४३
१४४
१४५
१४६
१४७
१४८
१४६
१५०
१५१
१५२
१५३
१५४
१५५
१५६
१५७
१५८
१५६
१६०
१६१
१६२
१६३
१६४
१६५
सं. गाया
३१३
३१४
३१५
३१६
३१७
३१८
३१६
३२०
३२१
३२२
३२३
३२४
३२५
३२६
३२७
३२८
३२६
३३०
३३१
३३२
३३३
३३४
३३५
३३६
३३७
३३८
३३६
३४०
३४१
३४२
३४३
३४४
३४५
३४६
३४७
३४८
प्र. गाथा
१६६
१६७
१६८
१६६
१७०
१७१
१७२
१७३
१७४
१७५
१७६
१७७
१७८
१७६
१८०
१८१
१८२
१८३
१८४
१८५
१८६
१८७
१८८
१८६
१६०
१६१
१६२
१६३
१६४
१६५
१६६
१६७
१६८
१६६
२००
२०१
सं. गाथा
३४६
३५०
३५१
३५२
३५३
३५४
३५५
३५६
३५७
३५८
३५६
३६०
३६१
३६२
३६३
३६४
३६५
३६६
३६७
३६८
३६६
३७०
३७१
३७२
३७३
३७४
३७५
३७६
३७७
३७८
३७६
३८०
३८१
३८२
३८३
३८४
प्र. गाथा
२०२
२०३
२०४
२०५
२०६
२०७
२०८
२०६
२१०
२११
२१२
२१३
२१४
२१५
२१६
२१७
२१८
२१६
२२०
२२१
२२२
२२३
२२४
२२५
२२६
२२७
२२८
२२६
२३०
२३१
२३२
२३३
२३४
२३५
२३६
२३७
[ ७५
सं. गाथा
३८५
३८६
३८६/१
३८७
३८८
३८६
३६०
३६१
૩૬૨
३६३
३६४
३६५
३६६
३६७
३६८
३६६
४००
४०१
४०२
४०३
४०४
४०५
४०६
४०७
४०८
४०६
४१०
४११
४१२
४१३
४१४
४१५
४१६
४१७
४१८
४१६
Page #671
--------------------------------------------------------------------------
________________
[७६.
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
२३८ २३६
४२० ४२१
२७३ २७४
४५४ ४५५
३०८ ३०६
४८६ ४६० ४६१
२४०
४२२
२७५
४५६
३१०
له
४२३
३४२ ३४३ ३४४ ३४५ ३४६ ३४७
२७६
४५७
४६२
له
५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२६ ५३०
४२४
२७७
WW. ococc
४६३ ४६४
له
३११ ३१२ ३१३ ३१४ ३१५ ३१६
له
४६५ ४६६
२८०
४५८ ४५६ ४६० ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५
२८१
३४६ ३५०
४६७
४६८
३५१
४६६
३५२
२४६
४३०
३१७ ३१८ ३१६
४६६
३४६
له
४६७
५०१ ५०२ ५०३
३२० ३२१ ३२२
३५० ३५१
५३४ ५३४/१
५३५ ५३६ ५३७ ५३८ ५३६
س
४६८
५०४
४६६ ४७० ४७१
३२३ ३२४ ३२५
५०५ ५०६
४३६
५४०
४७२
५०७
५४१
३५३ ३५४ ३५५ ३५६ ३५७
त
४२५ २७८ ४२६ २७६
४२७ २४६
४२८ २४७
४२६ २८२ २४८ ४२६/१ २८३
२८४ २५० २५१ २५२ २५३
४३४ | २८८ २५४
४३५ २८६ २५५
२६० २५६
२६१ २५७
२६२ २५८
२६३
२६४ २६०
४४१ २६५ २६१
४४२
२६६ २६२
४४३ २६७
४४४ २६८ २६४
४४५
૨૬૬ २६५
३०० २६६
४४७ २६७
४४८ ३०२
३०३ २६६
३०४
३०५ २७१
४५२ ३०६ २७२
४५३ । ३०७ १. मुद्रित टीका में ३४६-३५३ तक की संख्या पुनरुक्त हुई है।
५४२
cxc oc www
३२७
५०८ ५०६ ५१०
५४३
२५६
३५८
५४४
५११
३५६
५४५
५१२
३६०
५४६
५१३
५४७
४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ४७७ ४७८ ४७६ ४८० ४८१ ४८२ ४८३ ४८४
२६३
३२६ ३३० ३३१ ३३२ ३३३ ३३४ ३३५
३६१ ३६२
५४८
३६३
५१४ ५१५ ५१६ ५१७
३६४
३०१
३६५
३६६
२६८
४४६
४५०
५४६ ५५० ५५१ ५५२ ५५३ ५५४ ५५५ ५५६ ५५७
४८५
३३७ ३३८ ३३६
α
३६७ ३६८ ३६६ ३७०
२७०
४५१
४८६
α
५२१ ५२२
४५७
३४०
α
४८८
३४१
५२३
३७१
Page #672
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
[७७
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.माथा
६६
६६
४०४ ४०५
५६० ५६१
४०६
५६२
७१
३७२ ३७३ ३७४ ३७४ ३७५ ३७६
५५८ ५५६ ५६० ५६१ ५६२ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६
६६३ ६६४ ६६५ ६६६ ૬૬૭
१०० १०१ १०२ १०३
५६३ ५६४
६५
६६८
१०४
ر
३७७
४०७ ४०८ ४०६ ४१० ४११ ४१२ ४१३
५६६
३७८
५६७
MW
Up o
३७६
७२५ ७२६ ७२७ ७२८ ७२६ ७३० ७३१ ७३२ ७३३ ७३४ ७३५ ७३६ ७३७ ७३८ ७३६ ७४०
६६६ ७०० ७०१ ७०२ ७०३ ७०४
५६८
३८०
५६७
५६६
४१४
mr mr VVV
mr
उगा' १०५ १०६ १०७ १०८ १०६ ११० १११ ११२ ११३
५६८ ५६६ ५७० ५७१ ५७२
४१५
७०५
६०० ६०१ ६०२ ६०३
६०४ ६०५-६०८
४१६ ४१७ ४१८
mm
३८५
३८६
५७३
३८७
६०६
११४
७४१
५७४ ५७५
३८८
३८६ ३६० ३६१ ३६३ ३६४
५७७ ५७८ ५७६ ५८०
६१० ६११ ६१२ ६१३ ६१४
| - | | - | * * | - | | - | |
७०७ ७०८ ७०६ ७१० ७११ ७१२ ७१३ ७१४ ७१५ ७१६ ७१७ ७१८ ७१६ ७२० ७२१ ७२२
६१५
३६५
५८१
११५ ११६ ११७ ११८ ११६ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८
७४२ ७४३ ७४४ ७४५ ७४६ ७४७ ७४८ ७४६ ७५० ७५१ ७५२ ७५३ ७५४
६१७
५८२ ५८३
६३
३६७ ३६८. ३६६ ४०० ४०१
५८४ ५८५ ५८६ ५८७
६२०-६२२
६२३ ६२४-६६०२
४०२
५८८
६६१
७२३
७५५
४०३
५८६
६६२
७२४
१२६
१. मुद्रित टीका में ३७४ की संख्या पुनरुक्त हुई है। २. मुद्रित टीका में ६२४ से ६६० तक की गाथाओं के क्रमांक नहीं दिए हैं। बीच में ६२६ की गाथा मुद्रित टीका में नहीं है। ३. मुद्रित टीका में ६१ की संख्या दो बार छपी है। ४. उद्धृत गाथा।
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________________
[७८
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.माथा
१३०
२३०
७५७ ७५८
२३१
५६
१३१ १३२ १३३
७५६
सं.गाथा ८५६ ८५७ ८५८ ८५६
८६० ८६१-६७६२
६१
२३३ २३४
KcWWoon
१३४
६२
द्वितीय उद्देशक
१३६ १३७ १३८ १३६ १४०
७६० ७६१ ७६२ ७६३ ७६४ ७६५ ७६६
७६७ ७६८-८३५
८३६ ८३७
१०३२ १०३३ १०३४ १०३५ १०३६ १०३७ १०३८ १०३६ १०४० १०४१ १०४२ १०४३ १०४४ १०४५ १०४६ १०४७
६७७ E७८ ६७६ ६८०
२१०
२११
२१२
9 W००
AAAA
२१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २१६
१०४८
१००० १००१ १००२ १००३ १००४ १००५ १००६ १००७ १००८ १००६ १०१० १०११ १०१२ १०१३ १०१४ १०१५ १०१६ १०१७ १०१८ १०१६ १०२० १०२१ १०२२ १०२३ १०२४ १०२५ १०२६ १०२७ १०२८ १०२६ १०३० १०३१
#mx | 30 ॐ ॐ mn Gmar & | 0 0
६८५ ६८६.
३८
KSSSRococococco 'or ormal
گه له كه
vvv
२२०
६६०
४८
६६१
२२१ २२२
६६२ ६६३
१०४६ १०५० १०५१ १०५२ १०५३ १०५४ १०५५ १०५६ १०५७ १०५८ १०५६ १०६० १०६१ १०६२ १०६३
२२४
६६४
२२५
२२६ २२७
६६५ ६६६ ६६७ ६६८ ६६६
२२८ २२६
८५५
१. मुद्रित टीका में ७६७ से ८३५ तक की गाथाओं के क्रमांक नहीं दिए हैं। बीच में ७७४/१ तथा ७७४/२ ये दो गाथाएं टीका में उद्धृत गाथा हैं! २. मुद्रित टीका में ८६१ से ६७६ तक की गाथाओं के आगे क्रमांक नहीं हैं। बीच में ६१६, ६६७, ६६८ एवं ६६६ ये चार गाथाएं टीका में नहीं हैं। ३. मुद्रित टीका में १२ का क्रमांक पुनः दिया हुआ है। ४. मुद्रित टीका में ३६ से ४४ तक के क्रमांक नहीं हैं।
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________________
परिशिष्ट-४
[७६
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
६०
१२६ १२७ १२८ १२६ १३०
MMGmWW
१६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६६ १७० १७१ १७२
१९८ १६६ २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०५
१३१
१३२
१३३
१३४
२०७
१३५ १३६
२०८
१३७
१७३
१०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७
१७४ १७५ १७६ १७७
२०६ २१० २११ २१२
१७६
१०६४ १०६५ १०६६ १०६७ १०६८ १०६६ १०७० १०७१ १०७२ १०७३ १०७४ १०७५ १०७६ १०७७ १०७८ १०७६ १०८० १०८१ १०८२ १०८३ १०८४ १०८५ १०८६ १०८७ १०८८ १०८६ १०६० १०६१ १०६२ १०६३ १०६४ १०६५ १०६६ १०६७ १०६८ १०६६
११०० ११०१ ११०२ ११०३ ११०४ ११०५ ११०६ ११०७ ११०८ ११०६ १११० ११११ १११२ १११३ १११४ १११५ १११६ १११७ १११८ १११६ ११२० ११२१ ११२२ ११२३ ११२४ ११२५ ११२६ ११२७ ११२८ ११२६ ११३० ११३१ ११३२ ११३३ ११३४ ११३५
११३६ ११३७ ११३८ ११३६ ११४० ११४१ ११४२ ११४३ ११४४ ११४५ ११४६ ११४७ ११४८ ११४६ ११५० .११५१
११५२ ११५३ ११५४ - ११५५ ११५६ ११५७ ११५८ ११५६ ११६० ११६१ ११६२ ११६३ ११६४ ११६५ ११६६ ११६७ ११६८ ११६६ ११७० ११७१
१३८ १३६ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४६ १५० १५१ १५२ १५३ १५४
१०८
१८०
११७२ ११७३ ११७४ ११७५ ११७६ ११७७ ११७८ ११७६ ११८० ११८१ ११८२ ११८३ ११८४ ११८५ ११८६ ११८७ ११८८ ११८६ ११६० ११६१ ११६२ ११६३ ११६४ ११६५ ११६६ ११६७ ११६८ ११६६ १२०० १२०१ १२०२ १२०३ १२०४ १२०५ १२०६ १२०७
२१४ २१५ २१६ २१७ २१८
१०६ ११० १११
१८१ १८२ १८३
२१६
११२
१८४
११३ ११४ ११५
१८५ १८६ १८७ १८८ १८६ १६०
२२० २२१ २२२ २२३ २२४ २२५
११६
११७ ११८ ११६. १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५
१५६ १५७
१६२ १६३
१५८
२२७ २२८ २२६ २३० २३१ २३२
१६४
१५६ १६० १६१
१६७
२३३
Page #675
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ८०
प्र. गाथा
२३४
२३५
२३६
२३७
२३८
२३६
२४०
२४१
२४२
२४३
२४४
२४५
२४६
२४७
२४८
२४६
२५०
२५१
२५२
२५३
२५४
२५५
२५६
२५७
२५६
।।
२६२
२६३
सं. गाथा
१२०८
१२०६
१२१०
१२११
१२१२
१२१३
१२१४
१२१५
१२१६
१२१७
२७६
२७७
२७८
२७६
२८०
१२२०
२८१
१२२१
२८२
१२२२
२८३
१२२३
२९४
१२२४
२८५
१२२५ २८६
१२२६
२८७
१२२७
२८८
૧૨૩૬
२८६
१२२६
२६०
१२३०
२६१
२६२
२६३
२६४
१२१८
१२१६
१२३१
१२३२
१२३३
१२३४
१२३५
१२३६
प्र. गाथा
२६६
२७१
२७२
२७३
२७४
२७५
२६५.
२६६
२६७
२६८
२६६
३००
३०१
सं. गाथा
१२४३
१२४४
१२४५
१२४६
१२४७
१२४८
१२४६
१२५०
१२५१
१२५२
१२५३
१२५४
१२५५
१२५६
१२५७
१२५८
१२५६
१२६०
१२६१
१२६२
१२६३
१२६४
१२६५
१२६६
१२६७
१२६८
१२६६
१२७०
१२७१
१२७२
१२३७
१२३८
१२७३
२६५
१२३६
१२७४
२६६
१२४०
१२७५
२६७
१२४१
३०२
१२७६
२६८
१२४२
३०३
१२७७
१. मुद्रित टीका में ३३६, ३४० की जगह ३२७ एवं २३८ का क्रमांक हैं।
प्र. गाया
३०४
३०५
३०६
३०७
३०८
३०६
३१०
399
३१२
३१३
३१४
३१५
३१६
३१७
३१८
३१६
३२०
३२१
३२२
३२३
३२४
३२५
३२६
३२७
३२८
३२६
३३०
३३१
३३२
३३३
३३४
३३५
३३७
३३८
सं. गावा
१२७८
१२७६
१२८०
१२८१
१२८२
१२८३
१२८४.
१२८५
१२८६
१२८७
१२८८
१२८६
१२६०
१२६१
१२६२
१२६३
१२६४
१२६५
१२६६
१२६७
१२६८
१२६६
१३००
१३०१.
१३०२
१३०३
१३०४
१३०५
१३०६
१३०७
१३०८
१३०६
१३१०
१३११
१३१२
प्र. गाथा
३२७१
३२८
३४१
३४२
३४३
३४४
३४५
३४६
३४७
३४८
३४६
३५०
३५१
३५२
३५३
३५४
· ३५५.
३५६
३५७
३५८
३५६
३६०
३६१
३६२
३६३
३६५
३६६
३६७
३६८
३६६
३७०
३७१
१७३
परिशिष्ट-४
सं. गाया
१३१३
१३१४
१३१५
१३१६
१३१७
१३१८
१३१६
१३२०
१३२१
१३२२
१३२३
१३२४
१३२५
१३२६
१३२७
१३२८
१३२६
१३३०
१३३१
१३३२
१३३३
१३३४
१३३५
१३३६
१३३७
१३३८
१३३६
१३४०
१३४१.
१३४२
१३४३
१३४४
१३४५
१३४६
१३४७
Page #676
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
[८१
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
६७ ६८
३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७६
६६
१३८१ १३८२ १३८३ १३८४ १३८५
१३४८ १३४६ १३५० १३५१ १३५२ १३५३ १३५४ १३५५ १३५६
१००
16Mmmm
१०१ १०२
१३८६
३८०
३८१
६६
तृतीय उद्देशक
३६
४०
20239 mn G Mr & u d 0
१४१७ १४१५ १४१६ १४२० १४२१ १४२२ १४२३ १४२४ १४२५ १४२६ १४२७ १४२८ १४२६ १४३० १४३१ १४३२ १४३३ १४३४ १४३५ १४३६ १४३७ १४३८ १४३६ १४४० १४४१ १४४२ १४४३ १४४४ १४४५ १४४६ १४४७ १४४८ १४४६ १४५० १४५१ १४५२
१३५७ १३५८ १३५६ १३६० १३६१ १३६२ १३६३ १३६४ १३६५ १३६६ १३६७ १३६८ १३६६ १३७० १३७१ १३७२ १३७३ १३७४ १३७५ १३७६ १३७७ १३७८ १३७६ १३८०
४४
१३८७ १३८८ १३८६ १३६० १३६१ १३६२ १३६३ १३६४ १३६५ १३६६ १३६७ १३६८ १३६६ १४०० १४०१ १४०२ १४०३ १४०४ १४०५ १४०६ १४०७ १४०८ १४०६ १४१० १४११ १४१२ १४१३ १४१४ १४१५ १४१६
१०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०६ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८ ११६ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५
४५
१४५३ १४५४ १४५५ १४५६ १४५७ १४५८ १४५६ १४६० १४६१ १४६२ १४६३ १४६४ १४६५ १४६६ १४६७ १४६८ १४६६ १४७० १४७१ १४७२ १४७३ १४७४ १४७५ १४७६ १४७७ १४७८ १४७६ १४८० १४८१ १४८२ १४८३ १४८४ १४८५ १४८६ १४८७ १४८८
४६
**
१२७ १२८ १२६ १३०
५७
१३१
१३२
Page #677
--------------------------------------------------------------------------
________________
[८२
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
१६७ १६८ १६६ १७०
२३६ २४० २४१ २४२
१३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३६ १४० १४१ १४२
२४३
२०३ २०४ २०५ २०६ २०७ २०८ २०६ २१० २११
१५२४ १५२५ १५२६ १५२७ १५२८ १५२६ १५३० १५३१ १५३२ १५३३ १५३४ १५३५ १५३६ १५३७
१७२ १७३ १७४ १७५ १७६ १७७ १७८ १७६ १८० १८१
२४४ २४५ २४६ २४७ २४८ २४६ २५०
२१२
२१३
१५६५ १५६६ १५६७ १५६८ १५६६ १६०० १६०१ १६०२ १६०३ १६०४ १६०५ १६०६ १६०७ १६०५ १६०६ १६१० १६११ १६१२ १६१३
१४३
२१४
१४४
२५१
२१५ २१६
१५३८
२१७ २१८
१८२
२५२ २५३ २५४ २५५ २५६
१८३
२१६
१४६
१८४
१४८८/१
१४८६ १४६० १४६१ १४६२ १४६३ १४६४ १४६५ १४६६ १४६७ १४६८ १४६६ १५०० १५०१ १५०२ १५०३ १५०४ १५०५ १५०६ १५०७ १५०८ १५०६ १५१० १५११ १५१२ १५१३ १५१४ १५१५ १५१६ १५१७ १५१८ १५१६ १५२० १५२१ १५२२ १५२३
२२०
१५६० १५६१ १५६२ १५६३ १५६४ १५६५ १५६६ १५६७ १५६८ १५६६ १५७० १५७१ १५७२ १५७३ १५७४ १५७५ १५७६ १५७७ १५७८ १५७६ १५८० १५८१ १५८२ १५८३ १५८४ १५८५ १५८६ १५८७ १५८८
१५८६ १५८६/१
१५६० १५६१ १५६२ १५६३ १५६४
१५०
२२१
२५७ २५८
२२२
१८५ १८६ १८७ १८८
२२३
२५६ २६०
२२४
१५४
२२५ २२६
१५५
१६०
२६२
१५६
१६१
१५३६ १५४० १५४१ १५४२ १५४३ १५४४ १५४५ १५४६ १५४७ १५४८ १५४६ १५५० १५५१ १५५२ १५५३ १५५४ १५५५ १५५६ १५५७ १५५८ १५५६
२६३ २६४
१५७ १५८ १५६
२२७ २२८ २२६ २३०
१६३
२६५ २६६
१६१४ १६१५ १६१६ १६१७ १६१८ १६१६ १६२० १६२१ १६२२ १६२३ १६२४ १६२५ १६२६ १६२७ १६२८ १६२६
२६७
२६८
१६५ १६६ १६७ १६८ १६६
२३२ २३३
२३४
२६६ २७० २७१ २७२
१६४
२३५ २३६
२७३ २७४
१६६
२०२
२३८
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परिशिष्ट-४
प्र. गाथा
२७६
२७७
२७८
२७६
२८०
२८१
२८२
२८३
२८४
२८५
२८६
२८७
२८८
२८६
२६०
२६१
२६२
२६३
२६४
२६५
२६६
२६७
२६८
२६६
३००
३०१
३०२
३०३
३०४
३०५
३०६
३०७
३०८
३०६
३१०
सं. गाया
१६३०
१६३१
१६३२
१६३३
१६३४
१६३५
१६३६
१६३७
१६३८
१६३६
१६४०
१६४१
१६४२
१६४३
१६४४ ३२५
१६४५
३२६
१६४६
१६४७
१६४८
१६४६
१६५०
१६५१
१६५२
१६५३
१६५४
१६५५
१६५६
१६५७
१६५८
१६५६
१६६०
१६६१
१६६२
१६६३
१६६४
१६६५
प्र. गाथा
३११
३१२
३१३
३१४
३१५
३१६
३१७
३१८
३१६
३२०
३२१
३२२
३२३
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३३०
३३१
३३२
३३३
३३४
३३५
३३६
३३७
३३८
३३६
३४०
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सं. गाया
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१६६१
प्र. गाथा
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३५०
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३६०
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३६२
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३६६
३७०
३७१
३७२
१६६२
१६६३
१६६४
१६६५
9
१६६६ २
१६६७
१६६८
१६६६
१७००
१७०१
चतुर्थ उद्देशक
३
४
५
६
७
सं. गाया
१७०२
१७०३
१७०४
१७०५
१७०६
१७०७
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१७३०
१७३१
१७३२
१७३३
१७३४
प्र. गाथा
८
६
१०
११
१२
१३
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१५
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१६
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२१
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२८
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३१
३३
३४
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३७
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४१
४२
نس
४३
[ ८३
सं. गाया
१७३५
१७३६
१७३७
१७३८
१७३६
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१७४२
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१७६५
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१७६७
१७६८
१७६६
१७७०
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[८४
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
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४४
१५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७
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१८०७ १८०८ १८०६ १८१० १८११ १८१२ १८१३ १८१४ १८१५ १८१६ १८१७ १८१८ १८१६ १८२० १६२१ १८२२ १८२३ १८२४ १८२५ १८२६ १८२७ १८२८ १८२६ १८३० १८३१ १८३२ १८३३ १८३४ १८३५ १८३६ १८३७ १८३८ १८३६ १८४० १८४१ १८४२
११६ ११७ ११८ ११६ १२० १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२६ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३६ १४० १४१ १४२ १४३ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४६ १५० १५१
१८४३ १९४४ १९४५ १८४६ १८४७ १८४८ १८४६ १८५० १५५१ १८५२ १८५३ १८५४ १९५५ १८५६ १८५७ १८५८ १८५६ १८६० १८६१ १८६२ १८६३ १८६४ १८६५ १८६६ १८६७ १८६८ १८६६ १८७० १८७१ १८७२ १८७३ १६७४ १८७५ १६७६ १८७७ १८७८
१६७ १६८ १६६ १७०
१८७६ १८८० १८८१ १८८२ १८८३ १८८४ १८८५ १८८६ १८८७ १८८८ १८८६ १८६० १८६१ १८६२ १८६३ १८६४ १८६५ १८६६ १८६७ १८६८ १८६६ १६०० १६०१ १६०२ १६०३ १६०४ १६०५ १९०६ १९०७ १६०८ १९०६ १६१० १६११ १६१२ १९१३ १६१४
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१०० १०१ १०२ १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १०८ १०६ ११० १११
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१८५
११३ ११४ ११५
१८६
१६७
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परिशिष्ट-४
[८५
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
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२३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३६ २३७ २३८
२७० २७१
२७२
१६८७ १६८८ १६८६ १९६० १९६१ १६६२ १६६३ १६६४ १६६५ १९६६ १६६७ १९६८ १९६६ २००० २००१ २००२ २००३ २००४ २००५ २००६ २००७ २००८ २००६ २०१० २०११
३०६ ३०७ ३०६ ३०६ ३१० ३११
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२७५
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२४१ २४२ ।
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[ ८६
प्र. गाथा
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प्र. गाथा
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उगा.
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२१५८/१
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प्र. गाया
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'E E
४७०
४७१
४७२
४७३
परिशिष्ट- ४
सं. गावा
२१६६
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२१६६
२२००
२२०१
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परिशिष्ट-४
[८७
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाया
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४७४ ४७५ ४७६ ४७७. ४७८
५१० ५११ ५१२ ५१३ ५१४ ५१५ ५१६
i_ur 9 vw
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४८० ४८१
५१७
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r
५४६ ५४७ ५४८ ५४६ ५५० ५५१ ५५२ ५५३ ५५४ ५५५ ५५६ ५५७ ५५८ ५५६ ५६० ५६१ ५६२
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३
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५२१ ५२२ ५२३
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५२४
त
२२०२ २२०३ २२०४ २२०५ २२०६ २२०७ २२०८ २२०६ २२१० २२११ २२१२ २२१३ २२१४ २२१५ २२१६ २२१७ २२१८ २२१६ २२२० २२२१ २२२२ २२२३ २२२४ २२२५ २२२६ २२२७ २२२८ २२२६ २२३० २२३१ २२३२ २२३३ २२३४
४८६ ४६०
२२७४ २२७५ २२७६ २२७७ २२७८ २२७६ २२८० २२८१ २२८२ २२८३ २२८४ २२८५ २२८६ २२८७ २२८८ २२८६ २२६० २२६१ २२६२ २२६३ २२६४ २२६५ २२६६ २२६७ २२६८ २२६६ २३०० २३०१ २३०२ २३०३
४६१
५६३
२२३८ २२३६ २२४० २२४१ २२४२ २२४३ २२४४ २२४५ २२४६ २२४७ २२४८ २२४६ २२५० २२५१ २२५२ २२५३ २२५४ २२५५ २२५६ २२५७ २२५८ २२५६ २२६० २२६१ २२६२ २२६३ २२६४ २२६५ २२६६ २२६७ २२६८ २२६६ २२७० २२७१ २२७२ २२७३
२३०७ २३०८ २३०६ २३१० २३११ २३१२ २३१३ २३१४ २३१५ २३१६ २३१७ २३१८ २३१६ २३२० २३२१ २३२२ २३२३ २३२४ २३२५ २३२६ २३२७ २३२८ २३२६ २३३० २३३१ २३३२ २३३३ २३३४ २३३५ २३३६ २३३७ २३३८ २३३६ २३४० २३४१ २३४२
४६२
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ه
५२५ ५२६ ५२७ ५२८ ५२६ ५३० ५३१ ५३२ ५३३ ५३४
ه
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२५
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५६६ ५६७ ५६८ ५६६ ५७० ५७१
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५७३ ५७४
५०१ ५०२ ५०३ ५०४
५३८ ५३६
५७५
५०५
५४० ५४१ ५४२
पंचम उद्देशक
५०६
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२२३५
५४३
५०८
५४४
२२३६ २२३७
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५४५
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[८८
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
3
७७
११२ ११३ ११४
११५
| arm » rur 9y
११६
११७
११८
30000 3000 अ अ अ अ अ अ
२३४३ २३४४ २३४५ २३४६ २३४७ २३४५ २३४६ २३५० २३५१ २३५२ २३५३ २३५४ २३५५ २३५६ २३५७
११६ १२० १२१
9 VVVVVVVVOMMT
१२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७
Kc WW
२३५८
२४१५ २४१६ २४१७ २४१८ २४१६ २४२० २४२१ २४२२ २४२३ २४२४ २४२५ २४२६ २४२७ २४२८ २४२६ २४३० २४३१ २४३२ २४३३ २४३४ २४३५ २४३६ २४३७ २४३८ २४३६ २४४० २४४१ २४४२ २४४३ २४४४ २४४५ २४४६
१२८
१८
२३७६ २३८० २३८१ २३८२ २३८३ २३८४ २३८५ २३८६ २३८७ २३८८ २३८६ २३६० २३६१ २३६२ २३६३ २३६४ २३६५ २३६६ २३६७ २३६८ २३६६ २४०० २४०१ २४०२ २४०३ २४०४ २४०५ २४०६ २४०७ २४०८ २४०६ २४१० २४११ २४१२ २४१३ २४१४ ।
२३५६ २३६० २३६१ २३६२ २३६३ २३६४ २३६५ २३६६ २३६७ २३६८ २३६६ २३७० २३७१ २३७२ २३७३ २३७४ २३७५ २३७६ २३७७ २३७८
Ec
२४४८ २४४६ २४५० २४५१ २४५२ २४५३ २४५४ २४५५ २४५६ २४५७ २४५८ २४५६ २४६० २४६१ २४६२ २४६३ २४६४ २४६५ २४६६ २४६७ २४६८ २४६६ २४७० २४७१ २४७२ २४७३ २४७४ २४७५ २४७६ २४७७ २४७८ २४७६ २४८० २४८१ २४८२ २४८३
६६ १०० १०१
१२६ १३० १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ १३७ १३८ १३६ १४० १४१ १४२
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१०४
१०५ १०६ १०७
१४३
१०८
१०६
षष्ठ उद्देशक
११०
१११
१
२४४७
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________________
परिशिष्ट-४
[८६
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
الله
७४
११० १११
السد
११२
و
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२५६२ २५६३ २५६४ २५६५ २५६६ २५६७ २५६८
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HAGARAAT
१२१
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२४८४ २४८५ २४८६ २४५७ २४८८ २४८६ २४६० २४६१ २४६२ २४६३ २४६४ २४६५ २४६६ २४६७ २४६८ २४६६ २५०० २५०१ २५०२ २५०३ २५०४ २५०५ २५०६ २५०७ २५०८ २५०६ २५१० २५११ २५१२ २५१३ २५१४ २५१५ २५१६ २५१७ २५१८ २५१६
२५२० २५२१ २५२२ २५२३ २५२४ २५२५ २५२६ २५२७ २५२८ २५२६ २५३० २५३१ २५३२ २५३३ २५३४ २५३५ २५३६ २५३७ २५३८ २५३६ २५४० २५४१ २५४२ २५४३ २५४४ २५४५ २५४६ २५४७ २५४८ २५४६ २५५० २५५१ २५५२ २५५३ २५५४ २५५५
१२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १२८ १२६
२५५६ २५५७ २५५८ २५५६ २५६० २५६१ २५६२ २५६३ २५६४ २५६५ २५६६ २५६७ २५६८ २५६६ २५७० २५७१ २५७२ २५७३ २५७४ २५७५ २५७६ २५७७ २५७८ २५७६ २५८० २५८१ २५८२ २५८३ २५८४ २५८५ २५८६ २५८७ २५८८ २५८६ २५६० २५६१
१४६ १४७ १४८ १४६ १५० १५१ १५२ १५३ १५४ १५५ १५६ १५७ १५८ १५६ १६० १६१ १६२ १६३ १६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६६ १७० १७१ १७२ १७३ १७४
२६०० २६०१ २६०२ २६०३ २६०४ २६०५ २६०६ २६०७ २६०८ २६०६ २६१० २६११ २६१२ २६१३ २६१४ २६१५ २६१६ २६१७ २६१८ २६१६ २६२० २६२१ २६२२ २६२३ २६२४ २६२५ २६२६ २६२७
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७३
१०६
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२६५३
२४३
२६५४ २४४
२६५५
२६५६
२६५७
२६५८
२६५६
२६६०
२६६१
२६६२
२६६३
२४५
२४६
२४७
२४८
२४६
२५०
२५१
२५२
२५३
सं. गाया
२६६४
२६६५
२६६६
२६६७
२६६८
२६६६
२६७०
२६७१
२६७२
२६७३
२६७४
२६७५
२६७६
२६७७
२६७८
२६७६
२६८०
२६८१
२६८२
२६८३
२६८४
२६८५
२६८६
२६८७
२६८८
२६८६
२६६०
२६६१
२६६२
२६६३
२६६४
२६६५
२६६६
२६६७
२६६८
२६६६
प्र. गाथा
२५४
२५५
२५६
२५७
२५८
२५६
२६०
२६१
२६२
२६३
२६४
२६५
२६६
२६७
२६८
२६६
२७०
२७१
२७३
२७४
२७५.
२७६
२७७
२७८
२७६
२८१
२८२
२८३
२८४
२८५
२८६
२८७
२८८
२८६
सं. गाया
२७००
२७०१
२७०२
२७०३
२७०४
२७०५
२७०६
२७०७
२७०८
२७०६
२७१०
२७११
२७१२
२७१३
२७१४
२७१५
२७१६
२७१७
२७१८
२७१६
२७२०
२७२१
२७२२
२७२३
२७२४
२७२५
२७२६
२७२७
२७२८
२७२६
२७३०
२७३१
२७३२
२७३३
२७३४
२७३५
प्र. गाथा
२६०
२६१
२६२
२६३
२६४
२६५
२६६
२६७
२६८
२६६
३००
३०१
३०२
३०३
३०४
३०५
३०६
३०७
३०८
३०६
३१०
३११
३१२
३१३
३१४
३१५
३१६
३१७
३१८
३१६
३२०
३२१
३२२
३२३
३२४
३२५
परिशिष्ट-४
सं. गाया
२७३६
२७३७
२७३८
२७३६
२७४०
२७४१
२७४२
२७४३
२७४४
२७४५
२७४६
२७४७
२७४८
२७४६
२७५०
२७५१
२७५२
२७५३
२७५४
२७५५
२७५६
२७५७
२७५८
२७५६
२७६०
२७६१
२७६२
२७६३
२७६४
२७६५
२७६६
२७६७
२७६८
२७६६
२७७०
२७७१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
[६१
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.ग.वा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
२८४१
३२६ ३२७
३२८
३६२ ३६३ ३६४ ३६५ ३६६
३२६
३३०
१२
३३१
४६
३६७ ३६८
३३२
३३३
३६६
१५
२८०८ २८०६ २८१० २८११ २८१२ २८१३ २८१४ २८१५ २८१६ २८१७ २८१८ २८१६ २८२० २८२१ २८२२ २८२३
mmm my my my my my my my
३७०
२८७७ २८७८ २८७६ २५८० २८८१ २८८२ २८८३ २८८४ २८८५ २८८६ २८८७ २८८८ २८८६ २८६० २८६१ २८६२
५२
३३४ ३३५
१७
२८४२ २८४३ २८४४ २८४५ २८४६ २८४७ २८४८ २८४६ २८५० २८५१ २८५२ २८५३ २८५४ २८५५ २८५६ २८५७ २८५८
३३६
५४
३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६
३३७
३४०
MWW००n
५८
३४१
३७७
३४२ ३४३
३७८
२८२४
६०
२८६३
२७७२ २७७३ २७७४ २७७५ २७७६ २७७७ २७७८ २७७६ २७८० २७८१ २७८२ २७८३ २७८४ २७८५ २७८६ २७८७ २७८८ २७८६ २७६० २७६१ २७६२ २७६३ २७६४ २७६५ २७६६ २७६७ २७६८ २७६६ २८०० २८०१ २८०२ २८०३ २८०४ २८०५ २८०६ २८०७
३७६
३४४
२८५६
३४५ ३४६
३४७ ३४८ ३४६
३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ ३८५ ३८६ ३८७
२८२५ २८२६ २८२७ २८२८ २८२६ २८३० २८३१ २८३२ ८३३
३५०
३५१ ३५२ ३५३ ३५४ ३५५
२८६४ २८६५ २८६६ २८६७ २८६८ २८६६ २६०० २६०१ २६०२ २६०३ २६०४ २६०५ २६०६ २६०७ २६०८ २६०६ २६१० २६११ २६१२
२८६० २८६१ २८६२ २८६३ २८६४ २८६५ २८६६ २८६७ २८६८ २८६६ २८७० २८७१ २८७२ २८७३ २८७४ २८७५ २८७६
सप्तम उद्देशक
.
२८३४ २८३५
३५६
२८३६
२८३७
३५८ ३५६ ३६० ३६१
Gmccc
२८३८ २८३६ २८४०
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________________
[ ६२
प्र. गाया
το
८ १
V
८२
८३ ८४
८५
८६
८७
८८
τξ
६०
६१
६२
६३
६४
€
६६
६७
Ετ
६६
१००
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
१०६
१०७
१०८
१०६
११०
999
११२
११३
११५
सं. गाया
२६१३
२६१४
२६१५
२६१६
२६१७
१२०
२६१८
१२१
२६१६
१२२
२६२०
१२३
२६२१
१२४
२६२२
१२५
२६२३
१२६
२६२४
१२७
२६२५
१२८
२६२६
१२६
२६२७
१३०
२६२८
१३१
२६२६
१३२
२६३०
१३३
२६३१
१३४
२६३२
१३५
२६३३
१३६
२६३४
१३७
२६३५
१३८
२६३६
१३६
२६३७ १४०
२६३८
१४१
२६३६
१४२
२६४०
१४३
२६४१
१४४
२६४२
१४५
२६४३
१४६
२६४४
२६४५
२६४६
२६४७
२६४८
प्र. गाथा
११६
११७
११८
११६
१४७
१४८
१४६
१५०
१५१
सं. गाया
२६४६
२६५०
२६५१
२६५२
२६५३
२६५४
२६५५
२६५६
२६५७
२६५८
२६५६
२६६०
२६६१
२६६२
२६६३
२६६४
२६६५
२६६६
२६६७
२६६८
२६६६
२६७०
२६७१
२६७२
२६७३
२६७४
२६७५
२६७६
२६७७
२६७८
२६७६
२६८०
२६८१
२६८२
२६८३
२६८४
प्र. गाया
१५२
१५३
१५४
१५५
१५६
१५७९
१५८
१५६
१६०
१६१
१६२
१६४
१६५
१६६
१६७
१६८
१६६
१७०
१७१
१७२
१७३
१७४
१७५
१७६
१७७
१७८
१७६
950
१८१
१८२
१८३
१८४
१८५
१८६
१८७
सं. गाया
२६८५
२६८६
२६८७
२६८८
२६८६
२६६०
२६६१
२६६२
२६६३.
२६६४
२६६५
२६६६
२६६७
२६६८
२६६६
३०००
3009
३००२
३००३
३००४
३००५
३००६
३००७
३००८
३००६
३०१०
३०११
३०१२
३०१३
३०१४
३०१५
३०१६
३०१७
३०१८
३०१६
३०२०
प्र. गाथा
१८८
१८६
१६०
१६१
१६२
१६३
१६४
१६५
१६६
१६७
१६८
१६६
२००
२०१
२०२
२०३
२०४
२०५
२०६
२०७
२०८
२०६
२१०
२११
२१२
२१३
२१४
२१५
२१६
२१७
२१८
२१६
२२०
२२१
२२२
२२३
परिशिष्ट- ४
सं. गाया
३०२१
३०२२
३०२३
३०२४
३०२५
३०२६
३०२७
३०२८
३०२६
३०३०
३०३१
३०३२
३०३३
३०३४
३०३५
३०३६
३०३७
३०३८
३०३६
३०४०
३०४१
३०४२
३०४३
३०४४
३०४५
३०४६
३०४७
३०४८
३०४६
३०५०
३०५१
३०५२
३०५३
३०५४
३०५५
३०५६
Page #688
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
[६३
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
.सं.गाथा
२५६
२६८
३३६
२६६१
३०२
२३३
२६६
२७२
३०८
३४३
२२४ ३०५७
३०६२ २६४ २२५ ३०५८ २६०
३०६३ २६५ २२६ ३०५६ २६१
३०६४ २६६ २२७ ३०६० २६२
३०६५ २६७ २२८
३०६१ २६३
३०६६ २२६ ३०६२ २६४
३०६७ २६६ २३० ३०६३ २६४
३०६८ ३०० २३१
३०६४ २६६
३०६६ ३०१ २३२ ३०६५
३१०० ३०६६ २६८
३१०१ ३०३ २३४ ३०६७
३१०२ ३०४ २३५
३०६८ २७०
३१०३ ३०५ २३६ ३०६६ २७१
३१०४ ३०६ २३७ ३०७०
३१०५ ३०७ ३०७१ २७३
३१०६ २३६ ३०७२ २७४
३१०७ ३०६ २४० ३०७३ २७५
३१०८ ३१० २४१ ३०७४ २७६
३१०६ ३११ २४२ ३०७५ २७७
३११० ३१२ २४३
२७८
३१११ ३१३ २४४ ३०७७ २७६
३११२ ३१४ २४५
३०७५ २८० ३११३ ३१५ ३०७६ २८१
३११४
३१६ २४७ ३०८०
३११५ ३१७ २४६
३०८१ २८३ ३११६ ३१८ २४६
३०८२ २८४ ३११७ ३१६ २५० ३०८३ २८५ ३११८
३२० ३०६४ २८६
३११६ ३२१ २५२ ३०८५
३१२० ३२२ २५३ ३०८६
३१२१ ३२३ २५४ ३०८७ २८६
३१२२ ३२४ २५५ ३०८८
३१२३ ३२५ २५६
३०८६ २६१
३१२४ ३२६ २५७ ३०६० | २६२
३१२५ ३२७ ३०६१ | २६३
३१२६ । ३२८ १. मुद्रित टीका में २६४ एवं २६६ का क्रमांक पुनरुक्त हुआ है।
३१२७ ३२६ ३१२८ ३३० ३१२६ ३३१ ३१३० ३३२ ३१३१ ३३३ ३१३२ ३३४ ३१३३ ३३५ ३१३४ ३१३५ ३३७ ३१३६ ३१३७ ३३६ ३१३८ ३४० ३१३६ ३४१ ३१४० ३४२ ३१४१ ३१४२ ३१४३
३४५ ३१४४ ३४६ ३१४५ ३१४६ ३४८ ३१४७ ३१४८ ३१४६ ३१५० ३१५१ ३१५२ ३१५३ ३५५ ३१५४ ३१५५ ३५७ ३१५६ ३५८ ३१५७ ३५६ ३१५८ ३६० ३१५६ ३६१ ३१६०
३६२ ३१६१ । ३६३
३१६२ ३१६३ ३१६४ ३१६५ ३१६६ ३१६७ ३१६८ ३१६६ ३१७० ३१७१ ३१७२ ३१७३ ३१७४ ३१७५ ३१७६ ३१७७ ३१७८ ३१७६ ३१८० ३१८१ ३१८२ ३१८३ ३१८४ ३१८५ ३१८६ ३१८७ ३१८८ ३१८६ ३१६० ३१६१ ३१६२ ३१६३ ३१६४ ३१६५ ३१६६
३४७
३०७६
३५०
२४६
३५१
२८२
سه له س
२५१
२८७ २८८
२६०
२५८
Page #689
--------------------------------------------------------------------------
________________
[६४
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
४०० ४०१
४३६ ४३७
४०२
३६५ ३६६ ३६७ ३६८
४०३
४७२ ४७३ ४७४ ४७५ ४७६ ৪৬৩ ४७८
४३६ ४४० ४४१ ४४२
४०४
३६६
३७०
४०५ ४०६ ४०७
३७१
४४३
४७६
४०८
४८०
३७२ ३७३ ३७४
४४४ ४४५
४८१
४०६ ४१०
४४६
४८२
३७५
४११
४८३ ४८४
३७६
३७७
४१२ ४१३ ४१४
४४७ ४४८ ४४६ ४५० ४५१ ४५२ ४५३
४८५ ४८६
३७८
४१५
४८७
४८८
४१६ ४१७
३१६७ ३१६८ ३१६६ ३२०० ३२०१ ३२०२ ३२०३ ३२०४ ३२०५ ३२०६ ३२०७ ३२०८ ३२०६ ३२१० ३२११ ३२१२ ३२१३ ३२१४ ३२१५ ३२१६ ३२१७ ३२१८ ३२१६ ३२२० ३२२१ ३२२२ ३२२३ ३२२४ ३२२५ ३२२६ ३२२७ ३२२८ ३२२६ ३२३० ३२३१ ३२३२
३२३३ ३२३४ ३२३५ ३२३६ ३२३७ ३२३८ ३२३६ ३२४० ३२४१ ३२४२ ३२४३ ३२४४ ३२४५ ३२४६ ३२४७ ३२४८ ३२४६ ३२५० ३२५१ ३२५२ ३२५३ ३२५४ ३२५५ ३२५६ ३२५७ ३२५८ ३२५६ ३२६० ३२६१ ३२६२ ३२६३ ३२६४ ३२६५ ३२६६ ३२६७ ३२६८
३७६ ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ ३८५ ३८६ ३८७
३२६६ ३२७० ३२७१ ३२७२ ३२७३ ३२७४ ३२७५ ३२७६ ३२७७ ३२७८ ३२७६ ३२८० ३२८१ ३२८२ ३२८३ ३२८४ ३२८५ ३२८६ ३२८७ ३२८८ ३२८६ ३२६० ३२६१ ३२६२ ३२६३ ३२६४ ३२६५ ३२६६ ३२६७ ३२६८ ३२६६ ३३०० ३३०१ ३३०२ ३३०३ ३३०४
४८६ ४६०
३३०५ ३३०६ ३३०७ ३३०८ ३३०६ ३३१० ३३११ ३३१२ ३३१३ ३३१४ ३३१५ ३३१६ ३३१७ ३३१८ ३३१६ ३३२० ३३२१ ३३२२ ३३२३ ३३२४ ३३२५ ३३२६ ३३२७ ३३२८ ३३२६ ३३३० ३३३१ ३३३२ ३३३३ ३३३४ ३३३५ ३३३६ ३३३७ ३३३८ ३३३६ ३३४०
४१८
४५४. ४५५
४१६
४६१ ४६२
४२०
४५६ ४५७
४२१
४५८ ४५६
४६३ ४६४ ४६५ ४६६ ४६७
३८८
४२२ ४२३ ४२४ ४२५ ४२६ ४२७ ४२८
३८६ ३६० ३६१ ३६२
४९८
४६० ४६१ ४६२ ४६३ ४६४ ४६५
४६६
५००
३६३ ३६४
४२६ ४३०
५०१ ५०२
४६६
My my my my my my
३६५
५०३
३६६
५०४
४३१ ४३२ ४३३ ४३४ ४३५
४६७ ४६८ ४६६ ४७०
३६७
५०५ ५०६
३६८
३६६
४७१
५०७
Page #690
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
[६५
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
५०८
५४३
२६
६३
५०६
३१
६५
३३७६ ३३७७ ३३७८ ३३७६ ३३८० ३३८१
♡
५४४ ५४५ ५४६ ५४७ ५४८ अष्टम उद्देशक
५११ ५१२ ५१३ ५१४ ५१५
MY
३४१० ३४११ ३४१२ ३४१३ ३४१४ ३४१५ ३४१६ ३४१७ ३४१८ ३४१६ ३४२० ३४२१ ३४२२ ३४२३ ३४२४
.
५१६
५१७
५१८
५१६ ५२०
७४ ७५
د
• AGM &
د
५२१ ५२२ ५२३ ५२४
০৩
३४२५
७८
५२५
३३४१ ३३४२ ३३४३ ३३४४ ३३४५ ३३४६ ३३४७ ३३४८ ३३४६ ३३५० ३३५१ ३३५२ ३३५३ ३३५४ ३३५५ ३३५६ ३३५७ ३३५८ ३३५६ ३३६० ३३६१ ३३६२ ३३६३ ३३६४ ३३६५ ३३६६ ३३६७ ३३६८ ३३६६ ३३७० ३३७१ ३३७२ ३३७३ ३३७४ ३३७५
د
५२६ ५२७ ५२८ ५२६
३४४५ ३४४६ ३४४७ ३४४८ ३४४६ ३४५० ३४५१ ३४५२ ३४५३ ३४५४ ३४५५ ३४५६ ३४५७ ३४५८ ३४५६ ३४६० ३४६१ ३४६२ ३४६३ ३४६४ ३४६५ ३४६६ ३४६७ ३४६८ ३४६६ ३४७० ३४७१ ३४७२ ३४७३ ३४७४ ३४७५ ३४७६ ३४७७ ३४७८ ३४७६
३३८२ ३३८३ ३३८४ ३३८५ ३३८६ ,३३८७ ३३८८ ३३८६ ३३६० ३३६१ ३३६२ ३३६३ ३३६४ ३३६५ ३३६६ ३३६७ ३३६८ ३३६६ ३४०० ३४०१ ३४०२ ३४०३ ३४०४ ३४०५ ३४०६ ३४०७ ३४०८ ३४०६
१५ १६
५३१
१७
३४२६ ३४२७ ३४२८ ३४२६ ३४३० ३४३१ ३४३२ ३४३३ ३४३४ ३४३५ ३४३६ ३४३७ ३४३८ ३४३६ ३४४० ३४४१ ३४४२ ३४४३
५३२
Moc WW00/
116mcc W00/
५३३
१६
५३५ ५३६
الله الله الله
५३७
M0
الله له سه
२४
५३६
ه
२६
५४१ ५४२
३४४४
६
२८
१. मुद्रित टीका में ६६ की संख्या दो बार छपी है।
Page #691
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६६
प्र. गाया
६७
Ετ
६६
900
१०१
१०२
१०३
१०४
१०५
१०६
१०७
१०८
१०६
११०
999
११२
११३
११४
११५
११६
११७
११८
११६
१२०
१२१
१२२
१२३
१२४
१२५
१२६
१२७
१२८
१२६
१३०
१३१
१३२
सं. गाया
३४८०
३४८१
३४८२
३४८३
३४८४
३४८५
३४८६
३४८७
३४८८
३४८६
३४६०
३४६१
३४६२
३४६३
३४६४
३४६५
३४६६
३४६७
३४६८
३४६६
३५००
३५०१
३५०२
३५०३
३५०४
३५०५
३५०६
३५०७
३५०८
३५०६
३५१०
३५११
३५१२
३५१३
३५१४
३५१५
प्र. गाथा
१३३
१३४
१३५
१३६
१३७
१३६
१४०
१४१
१४२
१४३
१४४
१४५
१४६
१४७
१४८
१४६
१५०
१५१
१५२
१५३
१५४
१५५
१५६
१५७
१५८
१५६
१६०
१६१
१६२
१६३
१६४
१६५
१६६
१६७
१६८
सं. गाया
३५१६
३५१७
३५१८
३५१६
३५२०
३५२१
३५२२
३५२३
३५२४
३५२५
३५२६
३५२७
३५२८
३५२६
३५३०
३५३१
३५३२
३५३३
३५३४
३५३५
३५३६
३५३७
३५३८
३५३६
३५४०
३५४१
३५४२
३५४३
३५४४
३५४५
३५४६
३५४७
३५४८
३५४६
३५५०
३५५१
प्र. गाथा
१६६
१७०
१७१
१७२
१७३
१७४
१७५
१७६
१७७
१७८
१७६
१८०
१८ १
१८२
१८३
१८४
१८५
१८६
१८७.
१८८
१८६
१६०
१६१
१६२
१६३
१६४
१६५
१६७
१६८
१६६
२००
२०१
२०२
२०३
२०४
सं. गाया
३५५२
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३६६० ३६६१ ३६६२ ३६६३ ३६६४ ३६६५ ३६६६ ३६६७ ३६६८ ३६६६ ३६७० ३६७१ ३६७२ ३६७३ ३६७४ ३६७५ ३६७६ ३६७७ ३६७८ ३६७६ ३६८० ३६८१ ३६८२ ३६८३ ३६८४ ३६८५ ३६८६ ३६८७ ३६८८ ३६८६ ३६६० ३६६१ ३६६२ ३६६३ ३६६४ ३६६५
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४२६७ ४२६८ ४२६६ ४३०० ४३०१ ४३०२ ४३०३ ४३०४ ४३०५ ४३०६ ४३०७ ४३०८ ४३०६ ४३१० ४३११ ४३१२ ४३१३ ४३१४ ४३१५ ४३१६ ४३१७ ४३१८ ४३१६ ४३२० ४३२१ ४३२२ ४३२३ ४३२४ ४३२५ ४३२६ ४३२७ ४३२८ ४३२६ ४३३० ४३३१
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१. मुद्रित टीका में ४३६ के स्थान पर ४२६ का अंक है।
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५४६
५५०
५५१
५५२
५५३
५५४
५५५
५५६
५५७
५५८
노노트
५६०
५६१
५६२
५६३
५६४
५६५
• ५६६
५६७
५६८
५६६
५७०
५७१
५७२
५७३
५७४
५७५
सं. गाथा
४३६८
४३६६
४३७०
४३७१
४३७२
४३७३
४३७४
४३७५
४३७६
४३७७
४३७८
४३७६
४३८०
४३८१
४३८२
४३८३
४३८४
४३८५
४३८६
४३८७
४३८८
४३८६
४३६०
४३६१
४३६२
४३६३
४३६४
४३६५
४३६६
४३६७
४३६८
४३६६
४४००
6088
४४०२
४४०३
प्र. गाया
५७६
५७७
५७८
५७६
५८०
५८१
५८२
५८३
५८४
५८५
५८६
५८७
५८८
५८६
५६०
५६१
५६२
५६३
५६४
LE
५६६
५६७
५६८
५६६
६००
६०१
६०२
६०३
६०४
६०५
६०६
६०७
६०८
६०६
६१०
६११
सं. गाया
प्र. गाथा
६१२
६१३
६१४
६१५
६१६
६१७
६१८
४४११
६१६
४४१२
६२०
४४१३
६२१
४४१४
६२२
४४१५ ६२३
६२४
६२५
६२६
६२७
६२८
६२६
६३०
६३१
६३२
६३३
६३४
४४०४
४४०५
४४०६
४४०७
४४०८
४४०६
0688
3688
07688
४४१८
४४१६
४४२०
४४२१
४४२२
४४२३
४४२४
४४२५
४४२६
४४२७
४४२८
४४२६
६३५
६३६
६३७
४४३६
४४३७
४४३८
४४३६
४४३०
४४३१
४४३२
४४३३
६४१
४४३४
६४२
४४३५ ६४३
६४४
६४५
६३८
६३६.
६४०
६४६
६४७
परिशिष्ट-४
सं. गाया
0888
४४४१
४४४२
४४४३
8888
४४४५
४४४६
01888
४४४८
४४४६
४४५०
४४५१
४४५२
४४५३
४४५४
४४५५
४४५६
४४५७
४४५८
४४५६
४४६०
४४६१
४४६२
४४६३
४४६४
४४६५
४४६६
४४६७
४४६८
४४६६
४४७०
60788
४४७२
४४७३
४४७४
४४७५
Page #698
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-४
[१०३
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
६४८
६८३
७१८ ७१६
६४६
६८४
७२०
६५० ६५१
७२१
४५४६ ४५४७ ४५४८ ४५४६ ४५५० ४५५१ ४५५२
६८६ ६८७ ६८८
६५२ ६५३ ६५४
७२२ ७२३ ७२४
४५८० ४५८१ ४५८२ ४५८३ ४५८४ ४५८५ ४५८६ ४५८७ ४५८८ ४५८६
६८६
६६०
६५६ ६५७ ६५८
६६१ ६६२
४५५३ ४५५४ ४५५५ ४५५६
24HMMMMS
४५६०
६५६
६६० ६६१ ६६२
TAGmcccm.
६६३
६६४
६६५
४४७६ ४४७७ ४४७८ ४४७६ ४४८० ४४८१ ४४८२ ४४८३ ४४८४ ४४८५ ४४८६ ४४५७ ४४८८ ४४८६ ४४६० ४४६१ ४४६२ ४४६३ ४४६४ ४४६५ ४४६६ ४४६७ ४४६८ ४४६६ ४५०० ४५०१ ४५०२ ४५०३ ४५०४ ४५०५ ४५०६ ४५०७ ४५०८ ४५०६ ४५१०
४५११ ४५१२ ४५१३ ४५१४ ४५१५ ४५१६ ४५१७ ४५१८ ४५१६ ४५२० ४५२१ ४५२२ ४५२३ ४५२४ ४५२५ ४५२६ ४५२७ ४५२८ ४५२६ ४५३० ४५३१ ४५३२ ४५३३ ४५३४ ४५३५ ४५३६ ४५३७ ४५३८ ४५३६ ४५४० ४५४१ ४५४२ ४५४३ ४५४४ ४५४५
१२
६६३ ६६४ ६६५ ६६६ ६६७ ६६८ ६६६ ७०० ७०१ ७०२ ७०३ ७०४ ७०५ ७०६ ৩০৩ ७०८ ७०६ ७१० ७११ ७१२
६६६ ६६७ ६६८ ६६६ ६७०
१४ १५ १६
KK or
or
४५६१ ४५६२ ४५६३ ४५६४ ४५६५ ४५६६ ४५६७ ४५६८ ४५६६ ४६०० ४६०१ ४६०२ ४६०३ ४६०४ ४६०५ ४६०६ ४६०७ ४६०८ ४६०६ ४६१० ४६११ ४६१२ ४६१३ ४६१४
६७१
१७
४५५६ ४५६० ४५६१ ४५६२ ४५६३ ४५६४ ४५६५ ४५६६ ४५६७ ४५६८ ४५६६ ४५७० ४५७१ ४५७२ ४५७३ ४५७४ ४५७५ ४५७६ ४५७७ ४५७८ ४५७६
६७२ ६७३
५२
१८
६७४
५४
६७५
६७६
५६
७१३
७१४
६७७ ६७८ ६७६ ६८० ६८१ ६८२
७१५ ७१६
७१७
★ यहाँ से मुद्रित पुस्तक में पुनः १ से संख्या प्रारम्भ हो रही है।
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________________
[१०४
परिशिष्ट-४
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
प्र.गाथा
सं.गाथा
६३
१२६
० ०1 AGM
१०६
१२७ १२८ १२६ १३० १३१ उ.गा. १३२ १३३
४६१५
८४ ४६१६. ४६१७ ४६१८ ४६१६ ४६२० ४६२१ ४६२२ ४६२३ ४६२४ ४६२५ ४६२६ ४६२७ ४६२८ ४६२६ ४६३० ६६ ४६३१ १०० ४६३२ १०१. ४६३३ १०२ ४६३४
१०३ ४६३५ । १०४
१३४
४६३६ १०५
१०६ ४६३८ १०७ ४६३६
१०८ ४६४० ४६४१
११० ४६४२ १११ ४६४३
११२ ४६४४ ११३ ४६४५ ११४
११५ ४६४७ ११६ ४६४८ ११७ ४६४६ ११८ ४६५० ४६५१ १२० ४६५२ १२१
१२२ ४६५४ १२३ ४६५५ ४६५६ । १२५
४६५७ ४६५८ ४६५६ ४६६० ४६६१ ४६६२ ४६६३ ४६६४ ४६६५ ४६६६ ४६६७ ४६६८ ४६६६ ४६७० ४६७१ ४६७२ ४६७३ ४६७४ ४६७५ ४६७६ ४६७७
४६७८ ४६७६ ४६८० ४६८१ ४६८२ ४६८३ ४६८४ ४६८५ ४६८६ ४६८७ ४६८८
१३५ १३६ १३७
६६६
४६६० ४६६१
१३८
११६
१३६ १४० १४१ १४२
४६६२ ४६६३ ४६६४
४६५३
१२४
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________________
परिशिष्ट-५
एकार्थक जिन शब्दों का एक ही अभिधेय हो , वे एकार्थक कहलाते हैं। इनके लिए 'अभिवचन' २ 'निरुक्ति' और 'निर्वचन' शब्दों का उल्लेख भी मिलता है। किसी भी विषय की व्याख्या में एकार्थक शब्दों के प्रयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है।' बृहत्कल्पभाष्य में एकार्थकों की प्रयोजनीयता इस प्रकार बतलाई गई है
बंधाणुलोमया खलु, सुत्तम्मि य लाघवं असम्मोहो।
सत्थगुणदीवणा वि य, एगट्ठगुणा हवंतेए।। छंद की व्यवस्थापना, सूत्र का लाघव, असम्मोह तथा शास्त्रीय गुणों का दीपन-ये एकार्थक के गुण हैं। इसके अतिरिक्त एकार्थवाची शब्दों के प्रयोग से विद्यार्थी का भाषा एवं कोशविषयक ज्ञान सुदृढ़ होता है। विभिन्न भाषाभाषी शिष्यों के अनुग्रह के लिए भी ग्रंथकार एकार्थकों का प्रयोग करते हैं, जिससे प्रत्येक देश का विद्यार्थी उस शब्द का अर्थ ग्रहण कर सके। किसी भी बात का प्रकर्ष एवं महत्त्व स्थापित करने के लिए भी एकार्थक शब्दों का प्रयोग होता था। भाव-प्रकर्ष हेतु प्रसंगवश एकार्थकों का प्रयोग पुनरुक्तिदोष नहीं माना जाता था।
अंतिग–समीप। अंतिगमज्झासमासन्नं समीवं चेव आहितं । अचिवत्त-अप्रिय । अचियत्तं ति वा अपियत्तं ति वा एगहुँ । अणुसटि-स्तुति । अणुसहि थुतित्ति एगट्ठा । आचारप्रकल्प-निशीथ । आचारप्रकल्पो नाम निशीथापरपर्यायम् । आभोगण-आसेवन। आभोगणं ति वा मग्गणं ति वा झोसणं ति वा एगहूँ। आरोह–विशालता। आरोहो दीर्घत्वं परिणाहो विष्कंभो विशालता (एकार्थम्)। इच्छा-इच्छा। इच्छाछन्दः इत्येकार्थः। उउमास-ऋतुमास । उउमासो कम्ममासो सावणमासो। उक्कसण-उत्कर्ष। उक्कसण माणणं ति य एगटुं ठावणा चेव । उद्दिष्ट-ईप्सित। उद्दिष्टा ईप्सिता इत्यनर्थान्तरम् । उद्धारणा–धारणाव्यवहार । उद्धारणा विधारण संधारण संपधारणा। उपश्रा-द्वेष । उपश्रा द्वेष इत्यनान्तरम्। उववात-आज्ञा । उववातो निद्देसो आणा विणओ य होति एगट्ठा ।
(गा. ४५६५ टी. प.१००) (गा. १२३८ टी.प.५६)
(गा.५६३) (गा. ४६५२ टी. प.१०७)
(गा. १०६० टी. प.२४) (गा. ४०६२ टी.प.३८) (गा. ८६० टी. प.११२) (गा. १६८ टी.प.७)
(गा. १६६२) (गा. ३६१ टी.प.६४)
(गा. ४५०३) (गा. १५ टी.प.१०)
(गा. २०८१)
१. स्थाटी प ४७२। २ भ. २०/२५ ३. आवहाटी पृ. २४२॥ ४. अनुद्वामटी प. ६ : निक्खेवेगट्ठ-निरुत्त विही पवत्ती व केण वा कस्स । तद्दार-भेय-लक्खण, तदरिहपरिसा य सुत्तत्था।। ५. बृभा १७३। ६. जंबूटी प ३३ : नानादेशविनेयानुग्रहार्थं एकार्थिकाः । ७. . भटी प १४ : समानार्था : प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रंथकृतोक्ता ।
• भटी प ११६ : एकार्थशब्दोच्चारणं च क्रियमाणं न दुष्टम् । ८. धारणायाश्चत्वार्यकार्थिकानि गा. ४५०३ टी प ८८ ।
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________________
१०६]
परिशिष्ट-५
कज-कार्य। कजं ति वा कारणं ति वा एगहूँ।
(गा. २७०६ टी. प.४७) कम्म-कर्म । कम्मं ति वा खुहं ति वा कलुसं ति वा वजं ति वा वेरं ति वा पंको त्ति वा मलो त्ति वा एगट्ठिया।
(गा. १६४ टी.प.६) कल्प-आचार। कल्पो व्यवहार आचार इत्यनर्थान्तरम् ।
(गा. १५२ टी.प.५१) काल-समय। कालो त्ति व समयो त्ति व अद्धाकप्पो त्ति एगहुँ ।
(गा. २०५७) ख-आकाश। खं व्योम आकाशमिति (एकार्थम्)।
(गा. १५५ टी.प.५२) खोडभंग-राजकुल में देय द्रव्य। खोडभंगो त्ति वा उक्कोडभंगो त्ति वा अक्खोडभंगो त्ति वा एगहूँ। (गा. २१२ टी.प.१०) गाहा–गृह । गाहा इति घरमिति गिहमिति वा एते त्रयोऽप्येकार्थाः।
(गा. ३३८३ टी.प.१) घात–विनाश । घात विणासो य एगट्ठा।
(गा. ४१५०) चार-गति। चारश्चरणं गमनमित्येकार्थः।
(गा. ८६८ टी.प.११४) जस-यश । जसो त्ति वा संजमो त्ति वा वण्णो त्ति वा एगळं।
(गा. २७५० टी.प.५५) जितकरण–विनीत । जितकरण विणीय एगट्ठा।
(गा. १४४०) जीत--जीत व्यवहार । बहुजणमाइण्णं पुण जीतं उचियं ति एगहूँ ।
(गा. ६) जोग–योग। जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सत्ती सामत्थं चिय, जोगस्स हवंति पज्जाया।।
(गा. ५६ टी.प.२२) ज्ञान-ज्ञान। ज्ञानमागममित्येकार्थम् ।
(गा. ४०३६ टी.प.३१) झोस--समीकरण। झोसं ति वा समकरणं ति वा एगहूँ ।
(गा. ३६६ टी. प.६७) ठाण-ठाणं निसीहिय त्ति य एगहूँ।
(गा. ६३०) धेरभूमि-स्थविरभूमि। थेरभूमि त्ति वा थेरठाणं ति वा थेरकालो त्ति वा एगहूँ ।
(गा. ४५६७ टी. प. १००) धम्म-स्वभाव । धम्म सभावो त्ति एगढ़।
(गा. ५५७) धर्म-धर्म। धम्म सभावो सम्मइंसणयं।
(गा. ४१४५ टी.प. ४४) धर्मः स्वभावः सम्यग्दर्शनमित्येकार्थम् । ध्रुव-ध्रुव । ध्रुवं नियतं नैत्यिकमिति त्रयोऽप्येकार्थाः ।
(गा. २०५२ टी.प.६८) नात-ज्ञात । नातं आगमियं ति य एगढ् ।
(गा. ४०३६) निकाच निमंत्रण। निकाचो निकाचनं च्छंदनं निमंत्रणमित्येकार्थाः ।
(गा. २३५१ टी.प. १२) निग्गमण-निर्गमन । निग्गमणमवक्कमणं निस्सरण पलायणं च एगटुं।
(गा. ६०७) नियय-निश्चित । नियतं व निच्छियं च एगट्ठा ।
(गा. ४१५०) निर्द्धर्म-आलसी, स्वच्छंद । निर्द्धर्म इति वा अलस इति वा अनुबद्धवैर इति वा स्वच्छंदमतिरिति वा (एकार्थम)।
(गा. २४६ टी.प.२२) निस्सा-आलंबन। निस्सोवसंपय त्ति य एगहूँ।
(गा. १८६०) पज्जाहार–परिधि । पज्जाहारो त्ति वा परिरओ त्ति वा एगहुँ ।
(गा. २११ टी. प.१०) पम्हुटु–विस्मरण। पम्हुटुं ति वा परिठवियं ति वा एगढें ।
(गा. ३५३६ टी.प.२६) परिहार-एक प्रकार का तप। परिहार तवो त्ति एगहूँ।
(गा. २४४६) • स्थान। परिहार एव स्थान द्वयोरप्येकार्थत्वात् ।
(गा. १८५ टी-प.२) पलिउंचण-माया। पलिउंचणं ति य माय त्ति य नियडि त्ति य एगट्ठा।
(गा. ३६ टी.प.४७) पास-बंधन । पासो त्ति बंधणं ति य एगढ़।
__ (गा. ८५५) पियति-जानता है। पियति त्ति वा मिणति त्ति व दो वि अविरुद्धा।
(गा. २७०३) प्रतिगमन-व्रतभंग। प्रतिगमनं प्रतिभञ्जनं व्रतमोक्षम् (एकार्थम्)।
(गा. ४२५५ टी.प.५८) भविय-भविष्य में होने वाला। भविय त्ति भव्यो भावीत्यनर्थान्तरम् ।
(गा.१८७ टी.प.४)
Page #702
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________________
परिशिष्ट-५
[१०७
भिक्षु-साधु । भिक्षुः यतिः तपस्वी भवान्तो इति एकार्थिकानि । मेटि-आधार। मेढिरिति वा आधार इति वा चक्षुरिति वा एकार्थः । मेरा-मर्यादा। मेरा मर्यादा सामाचारी (इति एकार्थम्)। राशि-राशिगणित। राशिर्गच्छ इत्यनर्थान्तरम् । लंचा—रिश्वत । लंचा उत्कोच इत्यनर्थान्तरम्। लोट्टण-अवधावन, लुटना। लोट्टण-लुठण-पलोट्टण-ओहाणं चेव एगहुँ । वइर-वज्र। वइरं वज्जं ति एगहूँ। वर श्रेष्ठ। वरं प्रधानमित्यनर्थान्तरम।। ववण-वपन। ववणं ति रोवणं ति य पकिरण परिसाडणा य एगहूँ । ववहार–प्रायश्चित्त । ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा । वाघात–व्याघात। वाघात विणासो य एगट्ठा। विष्फालण-पूछना। विष्फालण त्ति पुच्छणत्ति वा एगटुं । व्युत्सर्ग-कायोत्सर्ग। व्युत्सर्ग कायोत्सर्ग इत्यनान्तरम् । शंकित-शंकित। शंकितमिति वा भिन्नमिति वा कलुषितमिति वा एकार्थम् । सहति—सहन करना। सहति खमइ तितिक्खेइ अहियासेइ त्ति चत्वार्यप्येकार्थिकानि । साला-दुकान | साल त्ति आवण त्ति य पणियगिहं ब्रेव एगटुं। साहारण-साधारण, सामान्य । साहारण सामणं अविभत्तमच्छिन्न-संथडेगर्ल्ड । सुत्त--भाव व्यवहार । सुत्ते अत्थे जीते, कप्पे मग्गे तधेव नाए य।
__ तत्तो य इच्छियव्वे, आयरियव्वे य ववहारो।। सोहि-शोधि । सोहि त्ति व धम्मो त्ति व एगहूँ। स्थविर–वृद्ध | स्थविरवृद्धशब्दयोरेकार्थत्वात्। हार-हरण करना। हारो त्ति य हरणं ति य एगटुं हीरते व त्ति ।
(गा. १६४ टी. प.६) (गा. २५८२ टी.प.२५) (गा. ६२४ टी.प.५२) (गा. ३६५ टी.प.६५) (गा. १३ टी.प.८)
(गा. ६०७) (गा. ३८३३ टी.प.२)
(गा. ४२५२)
(गा. ४) (गा. १०६४)
(गा. ४१५०) (गा. २४८ टी-प.२१) (गा. ११० टी. प.३६) (गा. ४०५० टी.प.३३) (गा. १० टी.प.४)
(गा. ३७२७) (गा. ३७२७)
(गा. ७)
(भा. ४५७७) (गा. ३४७६ टी.प.१८)
(गा. ४)
Page #703
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________________
परिशिष्ट-६
निरुक्त
अंतेवासी-अंते य वसति जम्हा, अंतेवासी ततो होति ।
(गा. ४५६६) अकुचन कुचतीत्यकुचः।
(गा. ८ टी.प.१६) अत्याबाध-अतिशयेन आबाधा यस्य सोऽत्याबाधः।
(गा. १४५६ टी. प.२२) अनन्यवृत्ति-न विद्यते अन्या भिक्षामात्रात् व्यतिरिक्ता वृत्तिर्येषां ते अनन्यवृत्तयः ।
(गा. १८६ टी.प.४) अनिमिष-न विद्यते निमिषो येषां ते अनिमिषाः।
(गा. १२७८ टी.प.६८) अनुग्रह अनुगृह्यते इति अनुग्रहः ।
(गा. २१२ टी.प.१०) अनुतापी-अनु – पश्चात् हा दुष्टुकृतं हा दुष्ठुकारितमित्यादिरूपेण तपति सन्तापमनुभवतीत्येवंशीलोऽनुतापी।
(गा. ८४८ टी.प.११०) अन्यतरक–एकस्मिन् काले आत्मपरयोरन्यमन्यतरं तारयन्तीति अन्यतरकाः ।
(गा. ४७६ टी.प.३) अपरिग्गहा—न विद्यते परिग्रहः कस्यापि यस्याः सा अपरिग्रहा।
(गा. ११७५ टी.प.४६) अपलापी-अपलपति गूहतीत्येवंशीलोऽपलापी।
(गा. ५१६ टी.प.१८) अपव्रीडक-लज्जां मोचयतीत्यपव्रीडकः।।
(गा. ५२० टी. प.१६) अपायदर्शी-इहलोकापायान् परलोकापायांश्च दर्शयतीत्येवंशीलोऽपायदर्शी।
(गा. ५२० टी.प.१८) अभिधार-अभिधारयत्यभिधारः ।
(गा. ३६८१ टी.प.२४) अभिनिप्रजा-अभि प्रत्येकं नियता विविक्ता प्रजा चुल्ली अभिनिप्रजा।
(गा. ३७१५ टी.प.४) अभिनिर्वगडा-अभि प्रत्येक नियता वगडा परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिव्वगडा।
(गा. २७२६ टी.प.५०) अभिनिषया-अभिरात्रिमभिव्याप्य स्वाध्यायनिमित्तमागता निषीदन्त्यस्यामित्यभिनिषद्या।
(गा. ६२४ टी. प.५२) अभ्यासवर्ती-गरोरभ्यासे समीपे वर्तते इत्येवंशीलोऽभ्यासवर्ती ।
(गा. ७८ टी, प.३१) अर्थजात-- अत्येण जस्स कजं, संजातं एस अट्ठजातो तु।।
(गा. ११७३) . अर्थेन अर्थितया जातं कार्यं यस्य सोऽर्थजातः। अर्थः प्रयोजनं जातोऽस्येत्यर्थजातः । (गा. ११७३ टी.प.४६) अवयभीरु-अवा- पापं तस्माद भीरु अवधभीरुः।
(गा. ३१७६ टी.प.६०) अवसत्र-सामाचार्यासेवने अवसीदति स्मेत्यवसन्नः ।
(गा. ८३४ टी.प.१०७) आचरित-आचर्यते स्म बृहत्पुरुषैरित्याचरितम् ।
(गा. ७ टी. प.६) आत्मछंद-आत्मनैव छंदोऽभिप्रायो विद्यते येषां ते आत्मछंदसः ।
(गा.३६१८ टी.प.४४) आत्मतर-आत्मानं केवलं तारयन्तीत्यात्मतराः।
(गा. ४७६ टी.प.३) आदेश—आदिशतीत्यादेशः, आदिशितो वा आदेशः, आदेश्यते सत्कारपुरस्कारमाकार्यत इत्यादेशः। (गा. ३७०४ टी.प.१) आधार-आ सामस्त्येन धारणमाधारः।
(गा. ५२० टी.प.१८) आधारवान् -- आ सामस्त्येन आलोचितापराधानां धारणमाधारः सोऽस्यास्तीत्याधारवान् । • सर्वमवधारयति स आधारवान् ।
(गा. ५२० टी.प.१८) आप्त- नाणमादीणि अत्ताणि, जेण अत्तो उ सो भवे । • ज्ञानादिभिराप्यते स्म आप्तः ।
(गा. ४०६३ टी.प.३५) आभिग्रहिक-अभिगलातीत्याभिग्रहिकः।
(गा. ३८१८ टी. प.१६) आरोपणा-आरोप्यते इति आरोपणा।
(गा. ३६ टी.प.१५)
Page #704
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________________
परिशिष्ट-६
[१०६
आर्त्त-आ सर्वतः परिभ्रमेण रुतानि गतानि यत्र यो वा स आर्त्तः ।
(गा. २०६७ टी.प.६४) आलीण-ज्ञानादिषु आ समन्ताद् लीना आलीनाः।
(गा. ४५१४ टी.प.६०) आवेश-- आविशतीत्यावेशः। .आवेशनं नाम यस्मिन् स्थाने प्रविष्टेन सागारिकस्यायासो स आदेश आवेशो वा ।
(गा. ३७०४ टी.प.१) आश्वास—आश्वासयतीति आश्वासः।
(गा. १६८१ टी.प.६७) आस्फालिता-आ समन्तात् स्फार प्रापिता आस्फालिता।
(गा. ७५२ टी.प.८३) इप्सितव्य-मुमुक्षुभिरिप्स्यते प्राप्तुमिष्यते इप्सितव्यः ।
(गा. ७ टी.प.६) उत्त्रप्य-उत्प्राबल्येन त्रप्यते लज्यते येन तद् उत्तप्यं ।
(गा. ४०६३ टी.प.३८) उत्पत्ति-उत्पद्यते यस्मादिति उत्पत्तिः।।
(गा. ३२२ टी.प.४४) उत्सूत्र-सूत्रादूर्ध्वं उत्तीर्णं परिभ्रष्टम् उत्सूत्रम् ।
(गा. ८६० टी.प.११२) उद्दिष्टा-ज्ञातुमिष्टा सा उद्दिष्टेत्यभिधीयते ।
. (गा. ३६१ टी.प.६४) उद्धार-पाबल्लेण उवेच्च व उद्धियपदधारणा उ उद्धारा ।
(गा. ४५०४) उद्धावन-उठ्याबल्येन धावनमुद्धावनम् ।
(गा. ६६२ टी.प.१३४) उद्मम-उत्याबल्येन भ्रमन्त्युद्धमाः।
(गा. ८०८ टी.प.६६) उद्धृतदंड-उद्धृत उत्पाटितो गृहीतो दंडो येन स उद्धृतदंडः।
(गा. ३४३ टी.प.५३) उपधान-उपदधाति पुष्टिं नयत्यनेनेत्युपधानम्। .
(गा. ६३ टी. प.२५) उपस्थापना-उप-सामीप्येन सर्वदावस्थानलक्षणेन तिष्ठन्त्यस्यामिति उपस्थापना।
(गा. २२७३ टी. प.६६) उभयतर—आत्मानं परं चाचार्यादिकं तारयन्तीत्युभयतराः ।
(गा. ४७६ टी.प.३) एकलाभी-य एकं प्रधानशिष्यमात्मना लभते-गृह्णाति शेषास्त्वाचार्यस्य समर्पयति स एकलाभेन चरतीति एकलाभिकः । '. एकमेव लभन्ते इत्येवंशीला एकलाभिनः।
(१४६१ टी. प. २३) कर्मक्षयकरणी-कर्मक्षयं क्रियतेऽनयेति कर्मक्षयकरणी।
(गा. २२५ टी.प.१५)) कर्मजननी-कर्म जन्यते अनया कर्मजननी।
(गा. २२५ टी.प.१५) कलहमित्र-कलहानन्तरं यानि जातानि मित्राणि तानि कलहमित्राणि ।
(गा. २०२८ टी.प.५६) कल्प-कल्पंते समर्था भवंति संयमाध्वनि प्रवर्त्तमाना अनेनेति कल्पः ।
(गा. ७ टी. प.६) कालातिचार—कालमतिचरति अतिक्रामतीति कालातिचारः ।
(गा. ४२२६ टी.प.५४) किंकर-किं करोमीति किङ्करः ।
(गा. १४८१ टी.प.२६) कुक्कुटी— कुच्छियकुडी तु कुक्कुडि।
(गा. ३६८३ टी.प.५७) कुशील-कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः।।
(गा. ८३४ टी. प.१०७) गणशोभी-गणं शोभयतीत्येवंशीलो गणशोभी।
(गा. ४५७४ टी.प.६७) गणी-गणोऽस्यास्तीति गणी।
(गा. १४५३ टी. प.२२) गृहस्थ-गृहे गृहलिङ्गे तिष्ठतीति गृहस्थः ।
(गा. १८६१ टी.प.२६) गौ-गच्छतीति गौः।
(गा. १८६ टी.प.४) गौल्मिक-गुल्मेन समुदायेन संचरन्तीति गौल्मिकाः ।
(गा. ६८३ टी.प.६७) ग्राम—ग्रसति बुद्धयादीन गुणान् यदि वा गम्यः शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः । (गा. ६१५ टी. प.१२७) ग्राहक-ग्राह्यतीति ग्राहकः । गृह्णातीति ग्राहकः ।
(गा. १७११ टी.प.७१) छंदोऽनुवर्ती-छंदो – गुरूणामभिप्रायस्तमनुवर्तते-आराधयतीत्येवंशीलः छंदोऽनुवर्ती ।
(गा. ७८ टी.प.३१) ज्ञान-ज्ञायते वस्तु परिच्छिद्यते अनेनेति ज्ञानम् ।
(गा. ३ टी.प. ४) तमस्विनी-तमोऽन्धकारमस्या अस्तीति तमस्विनी ।
(गा. २३७६ टी.प.१७) दुःखनिग्रह-दुःखेन निगृह्यन्ते निवार्यन्ते इति दुःखनिग्रहाः।
(गा. ३५५७ टी.प.३२)
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११०]
परिशिष्ट-६
(गा. ३३४४ टी.प.८६) (गा. १४७६ टी.प.२८) (गा. १६५५ टी.प. ६३) (गा. ६१५ टी. प. १२७) (गा. १४४६ टी. प. २१)
(गा. ६७३ टी.प.६५)
(गा. ५२० टी.प.१८) (गा. १२७८ टी. प.६८) (गा. १७८१ टी.प.११) (गा. ६५१ टी.प.१३२) (गा. ६३१ टी.प.५४)
(गा.७ टी.प. ६) (गा. ४७६ टी.प.३) (गा ८०० टी.प.६७)
धव-धारयति धीयते वा दधाति वा तेण तु धवो त्ति।
• धारयति तां स्त्रियं धीयते वा तेन पुंसा वा स्त्री दधाति सर्वात्मना
पुष्णाति वा तेन कारणेन धवः ।। धीर-धिया औत्पत्तिक्यादिरूपतया चतुर्विधया बुद्ध्या राजन्ते इति धीराः । धूलीजंघ-धूल्या धूसरे जंघे यस्य स धूलीजंघः । नगर- न विद्यते करो यस्मिन् तद् नकरं। नट-नटाः ये नाटकानि नर्तयन्ति । निर्दोष-निर्गता दोषा यस्मात् तत् निर्दोषम् । निर्याप निश्चितं यापयति प्रायश्चित्तविधिष याप्यमालोचकं करोति
निर्वाहयतीति यावदिति निर्यापः। नीरज-निर्मलं शरीरं येषां ते नीरजाः। नैचयिक-निचयेन संचयेनार्थाद् धान्यानां ये व्यवहरंति ते नैचयिकाः । नैयतिक-नियतिर्व्यवस्था तत्र नियुक्तास्तथा वा चरन्तीति नैयतिकाः। नैषेधिकी-निषेधेन-स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी। न्याय-नितरामीयते गम्यते मोक्षोऽनेनेति न्यायः। परतरक -ये तपः कर्तुमसमर्थाः वैयावृत्त्यं चाचार्यादीनां कुर्वन्ति ते परं तारयन्तीति परतरकाः । परिचितश्रुत—परिचितमत्यन्तमभ्यस्तीकृतं श्रुतं येन स परिचितश्रुतः । पलिमंथ-पलिमंथो मंथिज्जति संजमो जेण।
• सूत्रमर्थश्च मथ्यते तेन परिमंथः पलिमंथः । पार्श्वस्थ-ज्ञामादीनां पार्वे तटे विहरतीत्येवंशीलो पार्श्वस्थः ।
• दंसणनाणचरित्ते, सत्तो अच्छति तहिं न उज्जमति, एतेण उ पासत्यो। पाशस्थ-पाशास्तेषु तिष्ठतीति पाशस्थः। पोषक–पोषका ये स्त्रीकुक्कुटमयूरान् पोषयन्ति । पौराण-पुराणायामवस्थायां भवः पौराणः। पौषध-पोषं दधाति इति पौषधम् । प्रकिरण-प्रदातुं कीर्यते विक्षिप्यते इति प्रकिरणम् । प्रकुर्वी-प्रकुर्वतीत्येवंशीलः प्रकुर्वी। प्रग्रह-प्रकर्षेण प्रधानतया वा गृह्यते उपादीयते इति प्रग्रहः । प्रजा-प्रकर्षेण जायते पाकनिष्पत्तिरस्यामिति प्रजा। प्रतिकुंचना-प्रतिकुंच्यते अन्यथा प्रतिसेवितमन्यथा कथ्यते यया सा प्रतिकुंचना।। प्रतिसेवक-प्रतिषिद्धं सेवते इति प्रतिसेवकः । प्रभावना-प्रभाव्यते विशेषतः प्रकाश्यते इति प्रभावना । प्रलंब–प्रकर्षेण वृद्धिं याति वृक्षोऽस्मादिति प्रलम्बम् । प्रलीन-पइ पइ लीणा उ होति पल्लीणा।
• कोधादी वा पलयं, जेसि गता ते पलीणा उ।
• प्रकर्षेण लीना लयं विनाशं गताः क्रोधादयो येषामिति प्रलीनाः । प्रवर्ती-यथोचितं प्रशस्तयोगेषु साधून प्रवर्तयन्तीत्येवंशीलाः प्रवर्तिनः । प्रवर्तक-प्रवर्तयतीत्येवंशीलः प्रवर्त्ता प्रवर्तकः । प्रवासी-प्रवसतीत्येवंशीलः प्रवासी।
(गा. ३३६३ टी.प. ४) (गा. ८५३ टी.प.१११)
(गा. ५५४) (गा. ६३४ टी.प.१०७) (गा. १४४६ टी.प. २१) (गा. १२८० टी.प.६६) (गा. १२६ टी.प.४५)
(गा. ४ टी.प.५) (गा. ५२० टी. प. १८) (गा. २१६ टी.प.१२) (गा. ३७१६ टी.प.४) (गा. १४६ टी.प.५०) (गा. ३७ टी.प.१६) (गा. ६४ टी.प.२७) (गा. १८४ टी.प.२)
(गा. ४५१४ टी. प. ६०) (गा. ६५८ टी.प.१३४)
(गा. २१७ टी.प.१३) (गा. ३२१२ टी.प.६६)
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परिशिष्ट-६
[१११
प्रायश्चित्त-पावं छिंदति जम्हा, पायच्छित्तं तु भण्णते तेण । • पाएण वा वि चित्तं, विसोहए तेण पच्छित्तं ।
(गा. ३५) प्रास्वस्थ-प्रकर्षणासमन्ताद ज्ञानादिषु निरुद्यमतयास्वस्थः प्रास्वस्थः ।
(गा. ८५४ टी. प.१११) बागम-बहुरागमोऽर्थपरिज्ञानं यस्य स बह्वागमः ।
(गा. १६३६ टी. प.६०) बुद्धिल-बुद्धिं लात्युपजीवति इति बुद्धिलः ।
(गा. ४५८० टी.प.६८) भवान्त-भवं खवंतो भवंतो उ।
• भवं नारकादिभवं क्षपयन् भवान्तः । • भवमंतयति भवस्यान्तं करोतीति भवान्तः ।
(गा. १६५ टी. प.६) भागहार-भागं हरतीति भागहारः।
(गा. २०४ टी.प.८) भिक्षु-भिदंतो यावि खुधं भिक्खू ।
(गा. १६५) .क्षुद् अष्टप्रकारं कर्म तं ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपोभिर्भिनत्तीति भिक्षुः।
(गा. १८४ टी.प.२) महापान-पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत् पानं च महापानम् ।
(गा. २७०३ टी.प.४६) मान-मीयते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति मानम् ।
(गा. ४०२ टी. प.७६) मार्ग-मुजंति शुद्धिर्भवत्यनेनातिचारकल्मषप्रक्षालनादिति मार्गः।
(गा. ७ टी.प.६) मेध्य—मेध्यानि द्रव्याणि नाम यैर्मेधा उपक्रियते ।
(गा. १० टी.प.६५) मोकप्रतिमा- साधु मोयंति पावकम्मेहिं एएण मोयपडिमा। • मोचयति पापकर्मेभ्यः साधुमिति मोकः ।
(गा. ३७६० टी. प.१५) • मोकः कायिकी तदप्युत्सर्गप्रधाना प्रतिमा मोकप्रतिमा ।
(गा. ३७८६ टी.प.१५) मोहनीय-मोहनीयं स नाम येनात्मा मुह्यति ।
(गा. ११४७ टी. प.४१) यति-- जयमाणगो जती होति। •संयमयोगेषु यतमानः प्रयलवान् यतिः ।
(गा. १६५ टी. प.६) रक्षक - रक्षा अस्यास्तीति रक्षकः। • रक्षायां नियुक्तो राक्षिकः ।
(गा. १०६५ टी.प.३१) रचितकमोजी-रचितकं नाम कांस्यपात्रादिषु वा यदशनादिदेयबुद्ध्या वैविक्त्येन स्थापितं यद् भुंक्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी।
(गा. ८८६ टी. प.११६) रूपाडी-रूपेणातिशायिना युक्तमंगं शरीरं यस्याः सा रूपानी।
(गा. ११४८ टी.प.४१) वागतिक वाचा अंतपरिच्छेदी वागन्तः तेन निर्वृतो वागन्तिकः ।
(गा. २२११ टी.प.८६) विधवा-- विगयधवा खलु विधवा। .न विद्यते धवो भर्ता यस्याः सा विधवा ।
(गा. ३३४४ टी.प.८६) विधार—विविहेहि पगारेहि, धारेयऽत्यं विधारो उ।
(गा. ४५०४) विनीतकरण विशेषतः संयमयोगेषु नीतानि करणानि मनोवाकायलक्षणानि येन स विनीतकरणः । (गा. १५४७ टी.प.४०), विप्रवास-विशेषेण प्रवासोऽन्यत्र गमनं विप्रवासः ।
(गा. २६१ टी. प.२५) विशेषण-विशेष्यते परस्परं पर्यायजातं भिन्नतया व्यवस्थाप्यते अनेनेति विशेषणम् ।
(गा. ४६ टी.प.१६) विश्वास-विश्वासयतीति विश्वासः।
(गा. १६८१ टी.प.६७) विहार-विविहपगारेहि रयं, हरती जम्हा विहारो उ। • विविधं ह्रियते रजः कर्मानेनेति विहारः ।
(गा. ६६५ टी.प.७) वैनयिक विनयमर्हन्तीति वैनयिकाः ।
(गा. १५४४ टी.प.३६) व्यवहार --विधिना उप्यते ह्रियते च येन स व्यवहारः ।
(गा. ५ टी.प.५) . विविहं वा विहिणा वा ववणं हरणं च ववहारो।
(गा. २)
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११२]
परिशिष्ट-६
व्यवहारवान्।
• व्यवह्रियतेऽपराधजातं प्रायश्चित्तं प्रदानतो येन स व्यवहारः ।
(गा. ५२० टी.प.१८) .जेण य ववहरइ मुणी, जं पि य ववहरइ सो वि ववहारो।
(गा. ३९५८) व्यवहारवान यः सम्यगागमादिव्यवहारं जानाति, ज्ञात्वा च सम्यक् प्रायश्चित्तदानतो व्यवहरति स व्यवहारवान् ।
(गा. ५२० टी.प.१८) व्यवहारी-व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी।
(गा. १ टी.प.३) शमन-शम्यंते उपशमं नीयंते रोगा यैस्तानि शमनानि ।
(गा. ४३६ टी.प.८६) श्रमण-श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः ।
(गा. १४७६ टी.प.२७) श्वपच-श्वपचाश्चण्डाला ये शुनः पचन्ति।
(गा. १४४८ टी.प.२१) संघ--णाण-चरण-संघातं, संघायंतो हवति संघो । .संघातयतीति संघः।
(गा. १६५७ टी.प.६७) संधारणा–सं एगीभावम्मी, धी धरणे ताणि एक्कभावेणं । धारेयऽत्थपयाणि तु, तम्हा संधारणा होति ।
(गा. ४५०५) संप्रघारणा-जम्हा संपहारेउं, ववहारं पउंजती। तम्हा कारणा तेण, नातव्या संपधारणा।।
(गा. ४५०६) संस्तार—संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः।
(गा. १७५६ टी.प.७) सत्कारहार्य-सत्कारेण ह्रियते आक्षिप्यते इति सत्कारहार्यः ।
(गा. १३६६ टी.प.११) सर्वाशी-सर्वमश्नातीत्येवंशीलः सर्वाशी।
(गा. ८४३ टी.प.१०६) सारूपिक-समानं रूपं सरूपं तेन चरतीति सारूपिकः।
(गा. १८६१ टी.प.२६) सासु-असवः प्राणाः सह असवा यस्य येन वा तत् सासुः।
(गा. २८१० टी.प.६६) सुपेशल-सुष्टु अतिशयेन पेशलं मनोज्ञं श्रोतमनसां प्रीतिकारि सुपेशलं ।
(गा. ७३ टी.प.३०) सुविहित-शोभनं विहितमनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः।
(गा. २२४ टी.प.१५) सुशिक्षा-सोभणसिक्खा सुसिक्खा।
(गा. १६३०) स्थविर-थिरकरणा पुण थेरो । मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविरः ।
(गा. ६६१ टी. प. १३४) स्थान-तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृता अस्मिन्निति स्थानम् ।
(गा. ६३१ टी.प.५४) स्वयंग्राह-स्वयमात्मना गृह्णातीति स्वयंग्राहः ।
(गा. १६२ टी.प.५) हितभाषी-हितं परिणामसुंदरं तद्भासते इत्येवंशीलो हितभाषी।
(गा. ६८ टी. प.२६) हृदयग्राह-हृदयं गृह्णाति हृदये सम्यग निवेशिते इत्येवंशीलः हृदयग्राहः ।
(गो. ७३ टी.प.३०)
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परिशिष्ट-७
देशीशब्द
जिन शब्दों का कोई प्रकृति प्रत्यय नहीं होता, जो व्युत्पत्तिजन्य नहीं होते तथा जो किसी परम्परा या प्रान्तीय भाषा से आए हों, वे देशी शब्द हैं।
वैयाकरण त्रिविक्रम का कहना है कि आर्ष और देश्य शब्द विभिन्न भाषाओं के रूढ़ प्रयोग हैं, अतः इनके लिए व्याकरण की आवश्यकता नहीं है।' अनुयोगद्वार में वर्णित नैपातिक शब्दों को देशी शब्दों के अन्तर्गत माना जा सकता है। २ आगम एवं उनके व्याख्या ग्रन्थों में १८ प्रकार की देशी भाषाओं का उल्लेख मिलता है। ३ वे १८ भाषाएं कौन-सी थीं, आगमों में इनका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।
भिन्न-भिन्न प्रान्त के व्यक्ति दीक्षित होने के कारण आचार्य शिष्यों का कोश-ज्ञान एवं शब्द-ज्ञान समृद्ध करने के लिए विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का प्रयोग करते थे। भाष्य साहित्य में अनेक प्रान्तीय देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है।
व्यवहार भाष्य में देशी शब्दों का प्रचुर प्रयोग मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने अनेक शब्दों के लिए 'देशीवचनमेतद्', 'देशीत्वात', 'देशीपदे' आदि का प्रयोग किया है, लेकिन इनके अतिरिक्त भी अनेक देशी शब्दों और देशी धातुओं का प्रयोग इस ग्रन्थ में हुआ है। अनेक स्थलों में तो टीकाकार ने देशीपद का स्पष्ट निर्देश किया है जैसे
• फुराविति त्ति देशीपदमेतद् अपहारयति । •विष्फालेइ देशीवचनमेतत् प्रच्छतीत्यर्थः ।
आदेश प्राप्त धातुओं को कुछ विद्वान् देशी मानते हैं तथा कुछ तद्भव के रूप में स्वीकृत करते हैं किन्तु ये देशी होनी चाहिए। इसका एक हेतु है कि मलयगिरि ने आवश्यक नियुक्ति की टीका में स्पष्ट निर्देश किया है-'साहइ त्ति देशीवचनतः कथयति ।४ साह धातु कथ धातु के आदेश रूप में प्राप्त है। अतः हमने भी आदेश प्राप्त धातुओं को इस परिशिष्ट में समाविष्ट किया है।
इल्ल एवं इर प्रत्यय वाले शब्द देशी नाममाला में देशी रूप में संगृहीत हैं तथा मलयगिरि ने भी पढमेल्लुग को देशी माना है। इसी आधार पर अंतिल्ल, भंगिल्ल आदि शब्दों का इस परिशिष्ट में समाहार किया गया है। ६
संख्यावाची शब्द जैसे—पणपण्ण, पण्णास, बयालीस आदि को भी देशी माना है। अनुकरणवाची शब्दों के बारे में विद्वानों में मतभेद है पर हमने इनको देशी रूप में स्वीकृत किया है। जैन विश्वभारती, लाडनूं से प्रकाशित 'देशीशब्दकोष' में हमने दस हजार से अधिक देशीशब्दों का चयन किया है। प्रस्तुत परिशिष्ट में देशी धातुओं के प्रारंभ में हमने बिन्दु का चिह्न दिया है।
१. प्राश ७ : देश्यमार्ष च रूढत्वात्, स्वतन्त्रत्वाच भूयसा।
लक्ष्म नापेक्षते तस्य, सम्प्रदायो हि बोधकः ।। २. अनुद्वा २७० ३. राजटी पृ. ३४१, ज्ञा. १1१1८८। ४ आवमटी १, पृ. १६० ५. प्राकृत व्याकरण ४/२ ६. आवमटी प ११६ : प्रथमैल्लुका देशीवचनमेतत् ।
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११४ ]
परिशिष्ट-७
अइयण-भक्षण।
(गा. १०१६) अइया-आर्यिका।
(गा. ३२४७) अंगोहलि-अपूर्ण स्नान। (गा. ४२०५ टी.प.५२) अंडक-मुख।
केन कारणेनाण्डकमुखमुच्यते तत आह---यतो यस्मात् चित्रकर्मणि गर्भे उत्पाते वा पूर्वं देहस्य वदनं मुखं निष्पद्यते पश्चात् शेषं ततः प्रथमभावितया मुखमण्डकमित्युच्यते।
(गा. ३६८३ टी. प. ५७) अंतिल्ल-अंतिम ।
(गा. १३८२ टी.प.७) अंबिली-इमली।
(गा. ४४५१) अक्खोडभंग-राजकुल में दातव्य द्रव्य, बेगार तथा सैनिक आदि की भोजन-व्यवस्था। (गा. २१२ टी.प.१०) अगड-कुआ।
(गा. ३७६०) अचियत्त-अप्रीतिकर।
(गा. २६२) • अच्छ-प्रतीक्षा करना।
(गा. ८२४) अच्छण-अवलोकन, मतिश्रवण, दूर या नजदीक से निवर्तित होना।
(गा. ८१६) अच्छिक्क-अस्पृष्ट ।
(गा. १०६३) अजिड्डीय—दिया, प्रस्तुत किया। (गा. ४५२ टी.प.६४) अडयाल—अड़तालीस।
(गा. २०३३) अद्वित-चढ़ाया, आरोपित किया। (गा. ४५२ टी.प.६४) | अणवदग्ग-अनंत।
अणवदग्गं कालतोऽपरिमाणं (गा. १६८६ टी.प.६८) अणिद्दोच–भयसहित, अस्वस्थ, सदोष । अणिदोच्चमित्यनिर्भयमस्वस्थम् ।
(गा. ३१२६ टी.प.५१) अणंतक-वस्त्र।
(गा. २८५० टी.प.४) अणोरपार--अनंत, अपार ।
(गा. १०२२) अतरंत-असमर्थ।
(गा. १७७४) अतित्थित-अतिक्रान्त। (गा. ३८६१ टी.प.६) अत्यारिय-कर्मकर, वेतन लेकर खेत में धान आदि काटने वाला नौकर। ये मूल्यप्रदानेन शालिलवनाय कर्मकराः क्षेत्रे क्षिप्यन्ते ते अस्तारिकाः। (गा. २६५३ टी.प.३८) अद्दण-भयभीत, आकुल ।
(गा. २४५३) अद्दण्ण-असत्य।
(गा. २४५५) अद्दाय-वह विद्या, जिससे दर्पण में प्रतिबिम्बित रोगी के बिम्ब को पोंछने से रोगी नीरोग हो जाता है।
(गा. २४३६ टी.प.२६)
अद्धा-काल।
(गा. २५०४) अपरितंत-अपरिश्रान्त।
(गा. १४२७) अप्पायण निर्वाह ।
(गा. १३४८) अप्पाहण-संदेश देना।
(गा. ७६२) अभिनिबगडा—वह परिक्षेप, जिसमें प्रवेश और निष्क्रमण का एक द्वार हो, पर भीतर अनेक घर हों।
(गा. २७२६ टी.प.५०) अमाघतण-अमारि।
(गा. ३१४८) अमेरतो-अमर्यादाशील । (गा. १८६ टी.प.३) अम्मा-मां।
(गा. १६८१) • अम्मा–निकट पहुंचना, पीछा करना। (गा. १०२१) अलंद-नट।
(गा. ८८७) अल्लीण-आया।
(गा. ३२३ टी.प.४६) अविरल्ल-अविस्तारित, एकत्रित । (गा. १७७३) अविहाड-१. अप्रकट,
(गा. २६६२) २. अप्रगल्भ।
(गा. ३६६६) अवोगिल्ल-अवाचाल। अवोगिल्लमवाचालं।
(गा. २६५६) अबंग-अक्षत।
(गा. २८१२) अब्बो—संबोधन सूचक अव्यय। (गा. २८६२) अबोगड-१.अविकृत । अव्वोगडं अविगडं। (गा.३३५६)
२. अविभक्त। अव्याकृतं नाम दायिनां सामान्यं न पुनस्तैर्विभक्तं ।
(गा. ३३५५ टी.प.६१) असंथर-अतृप्त।
(गा. १७६५) असंथरंत-समर्थ न होता हुआ।
(गा. २५१५) आउट्ट-प्रणत।
(गा. २५४५) आउट्टि-असंयम।
(गा. ६१) आउट्टेऊण-अपने अनुकूल बनाकर । (गा. ३४२६) आगलण-वैकल्य, विकलता।
(गा. ६६२) आडंबर-पाणजातीय लोगों का यक्ष-विशेष ।
(गा. ३१४६ टी. प.५५) आदंचण-शुद्धि का प्रयत्न विशेष । (गा. ५०७) आदेस-अतिथि, पाहुना।
___ आदेशाः नाम प्राघूर्णकाः। (गा. १०१५ टी.प.११) आलिंगिणी-रूई का बड़ा बिछौना । (गा. ४३४४ टी.प.७१) आवाह-वर पक्ष की ओर से दिया जाने वाला भोज ।
आवाहो दारकपक्षिणाम्। (गा. ३७३६ टी.प.८)
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परिशिष्ट-७
[११५
आहिरिक-उत्त्रास, भय । आहिरिक्कमिति उत्त्रासं।
(गा. ७८२) उंड----गहरा।
(गा. १३८६) उंडि-मुद्रा।
(गा. २६४२ टी.प.३६) उडिव-मुद्रावाला।
(गा. २६४२ टी.प.३६) उक्कोडभंग-राजकुल में देय द्रव्य। (गा. २१२ टी.प.१०) उक्खहुमह बार-बार । देशीपदमेतत् पुनः पुनः शब्दार्थः।।
(गा. ३२४ टी.प.४७) उचिट्ठय-पुलिंद आदि नीच जाति। (गा. ६३ टी.प.२५) उच्चूर-नानाविध, बहुत अधिक। (गा. १३४६) उच्छेव-दीवार के छेद को ढकना।
उच्छेवो नाम यत्र पतितमारब्धं। तत्रान्यस्येष्टकादेः संस्थापनम् ।
(गा. १७५४ टी. प.६) उज्जला-छोटी संघाटी।
(गा. ३०६८) उहण-अंगीकार।
(गा. १४२८) उहाह-निंदा, तिरस्कार ।
(गा. १०१८) उण्णादसिया--ऊन की गूंथी हुई फली। (गा. ८६४) • उत्तुण-गर्व करना।
(गा. २३६०) उत्तुयय-उत्तेजित।
(गा. ३०१०) उत्तूइय--गर्वित। उत्तूइओ त्ति देशीपदमेतद् गर्वे वर्तते ।
(गा. १२८१ टी.प.६६) उत्थाण-अतिसार रोग।
(गा. ३३१८) उद्धाण-उतसित, उजड़ा हुआ। (गा. २०६१) उप्पियण-बार बार श्वास लेना।
उप्पियणं मुहुः श्वसनम्। (गा. १६६६ टी.प.५०) उप्पे-तेल आदि की मालिश करके। उप्पेउं देशीपदमेतद् अभ्यङ्ग्य ।
(गा. २५०७ टी.प.१०) उल्ल-आर्द्र।
(गा. ६४७) उल्लट्ट-खाली किया हुआ, प्रतिसेवित। - (गा. ६१५) उल्लण--एक प्रकार का जूष।
(गा. ३८०५) उल्लूडित विध्वस्त।
(गा. २३२६ टी.प.७) उबक्क–धौत, दूध में भिगोकर निकाला हुआ।
(गा. ८४७ टी.प.११०) उब्वण्ण-उत्कंठित।
(गा. २८६३) उब्बर-अवशेष।
(गा. २१३४)
उबरग-कोठरी।
(गा. १०६६) उब्वरित-बचा हुआ।
(गा. २५०) उब्वाय-परिश्रान्त, खिन्न ।
(गा. २८५४) उस्सण्ण–प्रायः।
(गा. ४४७) ऊसढ-उत्कृष्ट, श्रेष्ठ।
(गा. २७७३) एक्कयाण-अकेला।
(गा. १३८६ टी.प.८) एकसरयं—एक बार।
(गा. ४७६) एक्कसि–एक बार।
(गा. ४५२२) एगाणियत्त-एकाकी।
(गा. ८१५) ओगाल/ओगाली-फलक। (गा. २२८६ टी.प.१०२) ओयविय-जीतना।
(गा. २७००) ओलइय–लटका दिया।
(गा. ४४२८) • ओलग्ग-सेवा करना। (गा. ४८१ टी.प.३) ओल्लण-एक प्रकार का जूष। (गा. ३८०४ टी.प. १६) ओवारिय-भीतरी अपवरक, धान्य भरने का कोठा।
(गा. २८८४) ओह-ध्यान से देखते हुए प्रतीक्षा करना। ओघा इति तन्मुखनिरीक्षमाणा ।
(गा. ६४३ टी. प.५७) कंकडुअ-कोरडू धान, वह धान जो पकाए जाने पर भी नहीं पकता।
(गा. १६६५) कंडच्छारिय/कंडत्यारिय
१. गांव, २. ग्रामप्रमुख, ३. देश, ४. देशप्रमुख, ५. लुटेरा, हत्यारा, ६. लुटेरों का सहायक।
कंडच्छारिउ नाम ग्रामो ग्रामाधिपतिर्देशो देशाधिपतिर्वा लूषका वा सहायाः।
(गा. २६.७ टी.प.२६) कक्करण-दोषोद्भावन, आरोपयुक्त प्रलाप। (गा. ६५८) कच्चग-पात्र विशेष।
(गा. ३५०६) कट्ट-जंग।
(गा. २३२४ टी.प.६) कडग-बांस की चटाई से बना घर । कडग त्ति वंशदलनिर्मापितकटात्मकं गृहं ।
(गा. २२८३ टी.प.१०१) कडिल्ल-गहन।
(गा. १००६) कडहंड-भोजन में प्रयुक्त सामग्री विशेष। (गा. २४५४) कनक-रेखा रहित बिजली। सरेखा उल्का, रेखारहितः कनकः।
(गा. ३१६५ टी.प.६३) कप्पटु-१. बालक।
(गा. ५५६) २. धनी व्यक्ति का पुत्र।
(गा. ११३४)
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११६ ]
कप्पट्टी — १. कुलवधू । २. बालिका ।
कब्बड— धूल भरा खेत । कमट कछुआ । कमढग —— पात्र विशेष ।
कयगमाया, कपट । करकरायण बड़बड़ाना ।
करडुय— मृतकभोज ।
करडुकं मृतकभक्तम् ।
कल्ल - आने वाला कल ।
काउ कावड़ ।
काण - चुराई हुई वस्तु या चोर । काणि लोहमयी ईंट ।
किंटी वृद्धा ।
(गा. १६०१ टी. प. ५२ ) (गा. १७८६ )
(गा. २७०८ टी. प. ४७) (गा. ६६२ टी. प. ६२ )
(गा. ३६३३)
(गा. १२७८ टी. प. ६८)
(गा. १४४१ टी. प. १६)
(गा. ३७३६) (गा. ३४४० )
(गा. १३६५ )
(गा. १४५२ )
(गा. २२८३)
(गा. ३०८५)
किड्ढी --- समझा-बुझाकर संभोग के लिए एकान्त में ले जाई
जाने वाली स्त्री ।
किड्ढ ति कृष्यते संभोगो यः प्रतिरिक्ते स्थाने नीयते । (गा. १६२१ टी. प. ५७)
किढग वृद्ध ।
(गा. ३०६६)
किढि –वृद्धा ।
(गा. ३०८४ )
किणिय- १. जो वादित्रों को चर्म आदि से मढ़ने का काम करते हैं।
२. जो नगर में घुमाते हुए ले जाने वाले वध्य पुरुषों के आगे वादित्र बजाते हैं।
किणिका ये वादित्राणि परिणह्यन्ति । वध्यानां च नगरमध्ये नीयमानानां पुरतो वादयन्ति ।
(गा. १४४८ टी. प. २१) (गा. ४५३ टी. प. ६५) (गा. २५ टी. प. १३) १५८६ टी. प. ४६ )
कित/कियत-चुंगी लेने वाला । किपाडिया — कान का ऊपरी भाग । कुंटलविंटल - मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग । (गा. कुक्कुडि—शरीर । कुच्छि कुडीय कुक्कुडि ।
कुक्कुस
(गा. ३६८३ टी. प. ५७) (गा. ८८८ टी. प. ११६) भूसा । कुच्छणा — दो अंगुलियों के बीच सड़ान । (गा. १७७०) कुडुक - १. निष्ठुर, २. देश विशेष । (गा. २०१० टी. प. ५२ ) कुडुक्क—१. निष्ठुर । (गा. २०१० टी. प. ५२ ) (गा. ८६८ टी. प. १२२) (गा. १० टी. प. १५)
२. देश विशेष । ३. लतागृह ।
-
कुणिम—शव | कुरुंडिय—गुप्तचर ।
कुरुंडितो नाम उवचरओ ।
(गा. १६६५)
(गा. ३८७५ टी. प. ८)
कुरुकुय— पाद- प्रक्षालन ।
(गा. २६०६) कुरुण— राजकीय अथवा अन्य खेत, जिसमें बीज बो दिए गए. हों । (गा. १००० )
(गा. १६३६)
कोटल—– जादू-टोना | कोक्कास—इस नाम का एक व्यक्ति, जिसने यंत्रमय कापोत बनाकर उनसे चावल आदि धान चुगवाए। कोक्कासो यंत्रमयान् शालिमुत्पादितवान् । कोच्चित-शैक्ष, नया शिष्य ।
कोच्चितो नाम शैक्षकः । कोहंब— गौड़ देश में बना वस्त्र विशेष. कोट्टंबानि गौडदेशोद्भवानि ।
कोट्टग —— पाठशाला । कोय रूई से भरा कपड़ा, रजाई । कोलियसाला— तंतुवायशाला । कोल्लुग-सियार ।
कोल्हु—सियार ।
खड्डुग --- ठोला, टकोरा मारना । खण्णा संपूर्ण रूप से लूषित । सर्वात्मना लूषिताः । खत्त सेंध ।
खद्ध - १. प्रचुर । २. शीघ्र ।
खग्गूड. १. स्वच्छंद, अनुशासनहीन ।
(गा. १४६१ ) २. स्वभाव से वक्र, कुटिल । (गा. १४२२ ) खडपूयग घास का पूला । (गा. ५१७ टी. प. १७) खडिय—लिप्त । (गा. ११५१ ) खडुक्क—मुंड सिर पर अंगुली का आघात, ठुनकाना, ठोला (गा. २५ टी. प. १३) (गा. ३३७ ) खण्णा इति देशीपदमेतत् (गा. ७१६ टी. प. ७७) (गा. ४५० टी. प. ६४)
मारना ।
खमग— साधु । खर—घास - विशेष | खरंटण-- तिरस्कार करना । खरंटिय—१. लिप्त, युक्त ।
२. तिरस्कृत । खरमुहि— दासी ।
परिशिष्ट-७
कापोतान्
कृत्वा
(गा. २३६३ टी. प. २०)
(गा. २५२६)
(गा. २८६५)
(गा. ४३१३)
(गा. ४३४४ ) ३७२३ टी. प. ५)
(गा. ५८७ / १ )
(गा. ५८६ )
(गा.
(गा. १६२२ ) (गा. १०१६ )
(गा. ७७० टी. प. ८८) (गा. ८ टी. प. ५)
(गा. १४४४ ) (गा. १३४३ टी. प. ८२ ) (गा. ५८१ टी. प. ४१ ) (गा. २५४२ )
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परिशिष्ट-७
[११७
खरियमुह-दास। (गा. २५४५) | गाहावती-गृहपति।
(गा. ८७१) खरियमुही–दासी (गा. २५४५) गिला-उत्साह।
(गा. २००२) खलखिल-निर्जीव। (गा. २८१२ टी.प.६६) गुंठ-मायावी।
(गा. १७०१) खलय-खलिहान। (गा. ३८५३ टी.प.५) गुंठा-माया।
(गा. १७०१) खाय-खाई।
(गा. ३७४७) गुलगुलाइय-हाथी का चिंघाड़ना। (गा. ४५२ टी. प. ६४) • खिस-अवहेलना करना। (गा. २५६१) गोखलक-गवाक्ष।
(गा. ६६७ टी.प.६३) खिटिका जादू-टोना की सामग्री। (गा. ३०६६)
गोण-बैल।
(गा. १०१८) • खुंद प्राप्त करना। (गा. २७६५) गोणिय-गायों का व्यापारी।
(गा. ३७२५) खुट्ट–छोटा बालक।
(गा.७२० टी. प.७८) गोणी-गाय।
(गा. ५८० टी.प.३६) खुहुग-बालक। (गा. ७२७) गोम्हि/गोम्ही-कनखजूरा।
(गा. ३४१२) खुड्डय-छोटा। (गा. ३२४६) गोलिय-तंतुवाय।
(गा. ३७२५) खुडलय-छोटा। (गा. ११४४) गोस-प्रातःकाल।
(गा. १४८३) खुहिया–बालिका। (गा. ७४१) गोहटाण-प्रदेश-विशेष।
(गा. ४४२६) खुड्डी-बालिका।
(गा. ७२४) घंघसाला-कार्पटिक भिक्षुओं का निवास स्थान (गा. ३१६३) खुद्दग-छोटा। (गा. २०४८) घडा-गोष्ठी।
(गा. २०५१) • खुप्प-डूबना।
(गा. ३१३८) घडा-गांव प्रधान और अनुप्रधान द्वारा गांव के बाहर दिया खुब्बय-पलाश के पत्तों का बना दोना।
जाने वाला भोज।
(गा. ३८७८) (गा. १३५१ टी. प.८४) घोट्ट-बूंट।
(गा. १०३८ टी. प.१८) खुलखेत्त-वह क्षेत्र, जहां कम भिक्षा मिलती हो या केवल घोड-नीच जाति के लोग, डंगर आदि। (गा. ३०७२) रूखा आहार ही मिलता हो। (गा. ३०४ टी.प.३६) घोलंत-परिभ्रमण करता हुआ।
(गा. ११८१) खुलखेत्तं नाम मंदभिक्षम् ।
चक्किय-समर्थ।
(गा. ३३८७ टी.प.२) खुह-कर्म। (गा. १६४ टी. प. ६) • चड़-चढ़ना।
(गा. १३८८ टी. प. ६) खेड-मिट्टी के प्राकार वाला छोटा गाँव। (गा. २७०८) चडुग-पात्र विशेष
(गा. ३५०६ टी. प. २२) खेडिय-चलाना। (गा. ६४ टी.प.२६) चत्ता-चालीस।
(गा. ४१०) खेल्लण-खेल। (गा. २३२३ टी.प.६) चत्तालीस-चालीस।
(गा. ४१७) खोटन-झटकना।
(गा. ३६२७) चप्पुट्टिका-जादू-टोना। (गा. ३०६६ टी. प. ४१) खोडभंग-राजकुल में दातव्य द्रव्य। (गा. २१२ टी. प.१०) चमढणा-तिरस्कार करना, कठोर शब्दों में भर्त्सना करना। खोडिज्जंत-अवांछनीय मानना। (गा. १७०२ टी. प. ७०)
(गा. २७३) खोडि-काठ का गट्ठर। (गा. १४४४) चमढिय–विनष्ट।
(गा. १०४५) खोर—प्याला, कटोरा। (गा. ५८३) चिंच-इमली का वृक्ष ।
(गा. ३७४४) खोरक/खोरिय-कटोरा। (गा. ५८३ टी. प. ४१) चिंचणिका-इमली।
(गा. ३७४४) गंडग-गांव के आदेश की उदघोषणा करने वाला।
चिक्कण-चिकना।
(गा. ३७६६) (गा. ३१७४) चिक्खल्ल-कीचड़।
(गा. ६८३) गड-खाई। (गा. ६५) चिलिमिलि–पर्दा।
(गा. १८६६) गल्ल-गला। (गा. ६३ टी.प. २५) चुक्क-१. स्खलित।
(गा. २५२) गार-कंकड।
(गा. १७७०) २. चूकना।
(गा. २३२५) गावी--गाय। (गा. ३७६२) चुणय-पुत्र।
(गा. ३३२३) गाहा-घर।
(गा. ३३८२) | चुल्लक भोजन । (गा. ४२५२ टी.प.५७)
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११८]
परिशिष्ट-७
चुल्ली-छोटा चूल्हा। (गा. ३७१५) जिमित्ता-खाकर।
(गा. ८७१ टी.प.११५) चेड-१. लघु, छोटा।
(गा. ४६४) | मुंगिय-जाति, कर्म या शरीर से हीन। (गा. १४४८) २. बालक।
(गा. ११८१ टी.प.४७) •जोअ-निरूपण करना। चेल्लग-चेला, शिष्य।
(गा. २५ टी.प.१३) जोएइ त्ति देशीवचनमेतद् निरूपयति । चोद्द-छाल। (गा. ३८०७)
(गा. ७४ टी.प.३०) चोयट्ठी-चौसठ। (गा. ३७४८) जोइक्ख–दीप।
(गा. ३१८६) चोयाल-चवालीस। (मा. ४०७) झंपिय-अनुपशान्त।
(गा. २६६३) चोल-कपड़ा।
(गा. २६७६) झड्ढरविड्डर-जादू-टोना। चोलपट्टक-जैन मुनि का कटि वस्त्र । (गा. १५७२) झडरविड्डरं नाम तेषु गृहस्थप्रयोजनेषु कुंटलविंटलादिषु छंटित-ऊखल में कुटे हुए। (गा. ३८५३ टी.प.५) वा प्रवर्तनम् ।
(गा. १५८६ टी. प.४६) छब्बक-बांस की बनी हुई टोकरी । (गा. ३८१० टी.प.१८) झरण-स्मरण, सीखे हुए ज्ञान का परावर्तन। (गा. ७९८) छाइल्लय-दीप।
झाम-जला हुआ।।
(गा. ३२७४) जोइक्खं तह छाइल्लयं च दीवं मुणेजाहि।
झामण-9. अग्नि
(गा. ६३३) (गा. ३१८६ टी.प.६२) २. दावाग्नि।
(गा. १३७७) छाय-भूखा, बुभुक्षित।
(गा. २८५४) झामित-जलाया हुआ। (गा. ३१४६ टी.प.५५) छाहिय-छाया। (गा. ३७६५) झोस–छोड़ना।
(गा. ७६७ टी.प.८७) छिपक-छपाई करने वाला, रंगरेज। (गा. २११ टी.प.१०) झोसण-आसेवन, मार्गण, गवेषणा। (गा. १०६०) छिक्क-स्पृष्ट । (गा. २७६७) टक्कर-ठोला।
(गा. ३३७ टी. प. ५२) छिप-रंगरेज।
(गा. ४३१२ टी.प.६६) टोल्ल-मुंड सिर पर अंगुली का आघात, ठुनकाना, ठोला छुट्ट-मुक्त।
(गा. १६१६ टी.प.५७) मारना।
(गा. २५ टी.प.१३) •छुह-डालना, रखना। (गा. ८१६ टी.प.१२०) ठकुर-ठाकुर।
(गा. ३३७ टी. प.५२) .छुहय–फेंकना, इकट्ठा करना। (गा. ८१५ टी.प.१०१) डगल/डगलग-पाषाण आदि के टुकड़े। छेवग–मारि, दुर्भिक्ष।
(गा. २४२ टी.प.१६) छेवग त्ति मारिः। (गा. २३८२ टी.प.१८) डमर-देश-विप्लव।
(गा. १३७८) छोटि-काटने का साधन। (गा. ४०२२ टी.प.३०) डहर-छोटा।
(गा. १५७८) छोटित–छोड़ना।
(गा. ३४६८ टी.प.२१) डहरक-सोलह साल तक का बच्चा। (गा. १५७७) छोडिय-काटने का साधन ।
(गा. ४०२२) डहरिका-१८ वर्ष तक की कन्या। (गा. २३१२ टी. प. ५) छोति-लघु। (गा. ३६३३ टी.प.४७) डाल-वृक्ष की शाखा।
(गा. ६३टी. प. २४) छोभग-मिथ्या दोषारोपण, अभ्याख्यान । (गा. १२३७) डिंगर-छोटी जाति।
(गा. ३०६४) जड-हाथी। (गा. ८१६) डियल-शाखा।
(गा. ४४२८) असमर्थ, मोटा, आलसी। (गा. ४६३१) डेव-लांघना।
(गा. ६५ टी. प.३५) जप्पसरीर-बहुत रोगों से आक्रान्त शरीर ।
डेवणय--लंघन।
(गा. १३५०) जप्पसरीरो हु होति बहुरोगी। (गा. २६०) डोंब-नट, चांडाल विशेष जो गायन करते हैं। जमगसमग–एक साथ। (गा. ३२१ टी.प.४४)
(गा. ४३१२ टी. प. ६६) जमलतो-साथ में। (गा. ७६६ टी.प.६६) ढंक-कौआ।
(गा. ७७४ टी. प. ८६) जल्ल-शरीर का मैल।
ढक्किय-ढका हुआ।
(गा. ३२६४) जल्लेन शरीरोत्थेन मलेन मलिनं ।
ढड्ढर-तेज आवाज।
(गा. २७०) (गा. ३६०० टी. प.४१) | णंतग-वस्त्र ।
(गा. २८५०)
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परिशिष्ट-७
गतिक वस्त्र छापने वाला, छींपा। तिग— फटा-पुराना कपड़ा । णिज्जूह— गवाक्ष ।
णिदोच्च— भयरहित, स्वस्थ । णीहुज-रहित ।
णूमणता - माया । णूमणयेति देशीपदमेतत् स्थगनम् ।
•
(गा. ४३१२ ) (गा. ३२७७ टी. प. ७७ ) (गा. ६६७)
(गा. ३१२५ टी. प. ५१ ) (गा. १६७० )
ह -- वाक्यालंकार में प्रयुक्त अव्यय (गा. २१६१ टी. प. ८६) तच्चण्णिय - बौद्ध भिक्षु ।
(गा. २७१३)
तर — समर्थ होना ।
(गा. २४७७ )
तलवर - नगररक्षक, कोतवाल ।
(गा. २६०२ )
(गा. ३४८० )
तलिगा -उपानत्, जूता । तिंतिण-तिनतिनाहट करने वाला । (गा. ८६१ टी. प. ११३) तिंतिणि-- बड़बड़ाने वाला । तितिणि नाम यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे करकरायणम् । (गा. १४४१ टी. प. १६) तोणी- शरीर । (गा. ४३३४) (गा. २४५४)
थिग्गल - पाबंद | दर किंचित् । दायणा— दिखाना । दावणदिखाना । दिक्करुय छोटी !
थक्क -- प्रस्ताव |
थल — खुले मुख का खाली स्थान । कवलप्रक्षेपणाय मुखे विडम्बिते यदाकाशं भवति तत् स्थलं भण्यते ।
(गा. ३६८४ टी. प. ५७) थलि - वैसा स्थान, जहां अनेक प्रकार के भिक्षुक भोजन लेने आते हों।
दिय-दिवस । दीणार — दीनार, सिक्का । दुक्खर - दास । दुवग्ग दोनों ।
दूमण— सफेदी करना, पुताई । दे-- अपशब्दसूचक अव्यय ।
(गा. ५८४ टी. प. ४१ )
(गा. ३०६४)
(गा. ३५४०)
(गा. २३५) (गा. ११५१ ) (गा. २५८३)
(गा. ३२१ टी. प. ४४ )
(गा. ३३४७) (गा. २६४२ टी. प. ३५)
(गा. ११७२ ) (गा. ३१६६ )
(गा. १७५४ )
(गा. २४५८)
देअट्ठी - एक प्रकार का बिस्तर । (गा. ४३४४ टी. प. ७१ ) देवडंगर - १. एक प्रकार का छोटा मंदिर ।
२. वह सार्वजनिक स्थान, जहां देवताओं की स्थापना की जाती है। (गा. ३०७० टी. प. ४१ ) देवs - चर्मकार |
(गा. ४३१२ )
देसी — अंगूठा ! देशीत्यङ्गुष्ठोऽभिधीयते ।
दोडिय— —तुम्बा । दोण्णक- पलाश के पत्तों का दोना ।
दोर— धागा !
दोसीण - पर्युषित, बासी अन्न ।
धणिय — अधिक, अतिशय ।
धाडंत निष्कासित करना ।
पलाशादिपत्रमये दोण्णके । (गा. १३५१ टी. प. ८५)
(गा. ३४८० )
(गा. २६४२ )
(गा. ३००८)
(गा. १७५२)
(गा. ६६३)
(गा. २१५८)
धाडण - भागना ।
घाडिय - निःसृत ।
नक्खवीणिय – १. नख से वीणा बजाने वाला ।
(गा. ३३६७ टी. प. ४) (गा. ४२६२ टी. प. ६३)
२. नखों को परस्पर घर्षण करना । (गा. ६५६ ) नवय— जीर्ण वस्त्र, बिना पिंजी हुई रुई का आस्तरण विशेष । (गा. ४३४४ टी. प. ७१ )
(गा. ३७४४ )
(गा. २५१६)
(गा. २३६२ ) (गा. ३५१६)
नालिकेर नारियल ।
निच्चिक्खिल्ल कर्दम रहित । निच्छक धृष्ट, निर्लज्ज 1. निच्छुभण — निष्कासन ।
निद्धंघस - १. अकृत्य का सेवन करने वाला ।
नियंसण— पहनने का वस्त्र । निलुक्क — प्रच्छन्न, छिपा हुआ । निट्ठित -- तिरस्कार । निहोडण - १. तिरस्कार । २. निवारण ।
देशीवचनमेतद् अकृत्यं प्रतिसेवमानः । २. निर्दय । • निप्फड — निकलना, निष्क्रमण करना ।
नो अंश ।
(99€
(गा. २४ टी . प . १२)
(गा. ४५४५)
(गा. १०४६ टी. प. २०) (गा. ११७ टी. प. ४४ )
नोकारो खलु दे पडिसेहति ।
नो शब्दो देशवचनत्वात् देशं प्रतिसेधयति ।
(गा. १३८६) (गा. १३८४ टी. प. ८)
(गा. १३८४ ) (गा. १६६० )
(गा. १३६० टी. प. २ )
(गा. ३३३८ टी. प. ८८ )
पउत्थ— गृह !
पंजर — १. आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर और गणावच्छेदक - इन पांचों का समुदाय,
२. आचार्य आदि की परस्पर सारणा ।
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१२०]
परिशिष्ट-७
३. प्रायश्चित्त आदि के द्वारा अकुशल प्रवृत्ति से निवृत्त | परिहरणा–परिभोग । करना। (गा. २७३ टी. प.२८)
परिहरणा नाम परिभोगः। (गा. २३५४ टी.प.१२) पंतवण–प्रहार।
(गा. २४६४) परीसह–नापित।
(गा. १४४६) • पंताव-घूमना।
(गा. २४६६)
पलाणित्ता-घोड़े पर पलाण रखकर। पंतावण-पीटना।
(गा. ६३२ टी-प.१३०) पंतावणं नाम पिट्टनम् । (गा. ७३३ टी.प.९०)
पल्लिय-पल्ली, बस्ती।
(गा. २७३४) पचुरस-प्रत्यासन्न।
(गा. २३७१) पब्बोणि-सम्मुख ।
(गा. २७३७) पचुल्ल-प्रत्युत्।
(गा. ३३७ टी.प.५२)
पहेणग-सन्यासी को दिया जाने वाला भोजन ।(गा. ३८२१) पच्छणग-शल्यक्रिया का शस्त्र। (गा. २३२४ टी.प.६)
पाण-चांडाल जाति।
(गा. १४४८) पटिका-पात्र विशेष ।
(गा. ३८२८)
पाणंधि-आने-जाने का मार्ग। पडालिया-सार्थों का विश्रामस्थल ।
पाणंधीति देशीपदमेतद् वर्तिनीवाचकम् । पडालिका नाम यत्र मध्याह्ने सार्थिकास्तिष्ठति।।
(गा. १००० टी.प. ) (गा. ३३५१ टी.प.९०)
पाहुड-कलह । पडाली-कच्ची छत।
(गा. ३३३८)
प्राभृतं नाम कलहः। (गा २६८० टी.प.२८) पडिच्छअ-अवान्तर गण का अधिपति । (गा. २७४४)
पिल्लक कुत्ते का बच्चा। (गा. १०१५ टी.प.१२) पड्डिया-नवप्रसूता महिषी।
(गा. १३६१)
पीढमद्द–मुख पर मीठा बोलने वाला। पढमालि /पढमालिय-नाश्ता। (गा. २२६८/११२)
पीठमर्दा नाम मुखप्रियजल्पाः । (गा. २४६५ टी-प.८) पणग-१. काई।
(गा. ३४१२)
• पुंसय/पुंस्स-पोंछना। (गा. २५२६ टी.प.१४) २. पांच।
(गा. २५२२) पुत्तलिका–पुतली।
(गा. २५४६) पणताल-पैंतालीस।
(गा. ४१५)
पुरुस-कुम्भकार। पणतालीस-पैंतालीस।
(गा. ५३४)
पुरुषः कुम्भकारः। (गा. ४३१२ टी.प.६६) पणतीस-पैंतीस।
(गा. ४१४) • पुलोअ—देखना।
(गा. २३२५) पणपण्ण-पचपन।
(गा. ४१४) पेयाल-परिमाण।
(गा. १४६६) पणयाल-पैंतालीस।
(गा. ४१२)
पेयालित प्रश्न का उत्तर देना। (गा. १३८३ टी.प.७) • पणाम-अर्पित करना।
पेल्लणा–प्रेरणा। (गा. २५५३)
(गा. ६४८) पण्ण-१. पचास।
पेल्लित-प्रेरित। (गा. ४१३)
(गा. १११५) २. दुर्गन्धित ।
(गा. ८५०)
पेल्लिय—क्षिप्त, पातित। (गा. १०४५ टी.प.२०) पण्णट्ठी--पैंसठ।
पेसी-नौकरानी। (गा. ४१३)
(गा. ३२४७) पण्णास-पचास।
(गा. ४१४) पोट-बूंट।
(गा. १०३५ टी.प.१८) पतिरिक-एकान्त।
(गा. १७३६) पोट्ट-१. पुत्र।
(गा. ३३७ टी.प.५२) पद्दिया-अभिनव प्रसूता महिषी।
(गा. १३६१) २. उदर।
(गा. ४५४४) पत्रग-दुर्गन्धित।
पोट्टल-पोटली। (गा. ८४५)
(गा. ४४५०) पम्हटु-विस्मृत।
पोलि–पोटली, गठरी। (गा. ३१६)
(गा. २४५४) पम्हटू-१. परिष्ठापित, प्रक्षिप्त ।
पोतिका-वस्त्र।
(गा. ४५३७ टी.प.६२) पम्हुटुं ति परिठवियं ति एगटुं । (गा. ३५३६)
पोत्त-वस्त्र।
(गा. ३११३) पया-चूल्हा।
पोत्ती-वस्त्र।
(गा. ३७७३) पया उ चुल्ली समक्खाता। (गा. ३७१६)
पोत्तीय-वस्त्र।
(गा. ३८५३) पोयाल-सांड, वृषभ।
(गा. १०४५)
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परिशिष्ट-७
[१२१
पोर-पर्व।
(गा. ३३६७) फडगपति-गण के अवान्तर विभाग का नायक।
(गा. २३४) फलय/फलह-शाक आदि उगाने की बाड़ी।
(गा. २३२६ टी. प.७) फलिय-नाना प्रकार के व्यंजन और भक्ष्य पदार्थों द्वारा बनाया हुआ खाद्य विशेष।। फलियं पहेणगाई वंजणभक्खेहिं वा विरइयं त।
(गा. ३८२१ टी.प.१६) फालहिय-शाक आदि उगाने की बाड़ी। (गा. २३२६) • फुराव—अपहरण करवाना। फुराविति त्ति देशीपदमेतदपहारयति ।
(गा. १५५० टी.प.४१) फेडण-विपरिणत, उजाड़ देना।
(गा. २०६२) फेडण त्ति तत्र या वसतिः प्रागासीत् सा केनचिदपनीता स्यात्।
(गा. २०६१ टी प.७०) फेडिय—त्याजित, छोड़ा हुआ। (गा. २४३१) फेल्हसण-फिसलन।
(गा. १७७० टी. प.६) बइल्ल–बैल।
(गा. ८८५) बत्तीस-बत्तीस।
(गा. ४४२८) बब्बूल-बबूल।
(गा. ३६३० टी. प.१६) बलामोडि-बलपूर्वक, आग्रहपूर्वक । __ (गा. ७६५) बायाल-बयालीस।
(गा. ४७१) बालपज्जेय-साधु का उपकरण विशेष ।
(गा. २०३५ टी.प.५७) बावण्ण-बावन।
(गा. ५३३) बुक्क–विस्मृत।
(गा. २५२) बुब्बुय-वर्षा, बुदबुदाना।
(गा. ३१११) बुभुलइय-बहुभोजी।
(गा. ८५०) बोंडज-कपास से उत्पन्न वस्त्र ।
(गा. ३७३६) बोंदि-शरीर।
(गा. १११२) बोडियसाला-मठ।
(गा. ३७२३ टी.प.५) बोब्बड-मूक, भाषाजड़।
(गा. ४६४०) बोहिग-अनार्य, म्लेच्छ।
(गा. ११७४) भंगिल्ल–भंगवर्ती।
(गा. १३६०) भंडी-गाड़ी।
(गा. ४५५) भंभी-रसायण शास्त्र।
(गा. ६५२) भिणभिणायमाण-मक्खी की भिनभिनाहट। (गा. ११५१)
भुक्ख-बुभुक्षा।
(गा. २५३४) भुल्ल-भूलना।
(गा. २३२५ टी.प.७) भूणग–बालक। भूणके देशीपदमेतद् बालके।
(गा. १२६५ टी.प.६६) मइल-मलिन।
(गा. ३२६२) मंगुल–अशुभ।
(गा. १०१६) मक्कोड-मकोड़ा।
(गा. ७१८ टी. प.७७) मक्कोडय-मकोड़ा।
(गा. ७१६ टी.प.७७) मग्गय-पीछे।
(गा. २६५३) मग्गिल्ल-पूर्ववर्ती, पहले का।
(गा. २२४६) मडप्फर-गमनोत्साह।
(गा. १८१७) मडभ-कुब्ज।
(गा. १४५०) मत्तग—प्रस्रवण पात्र।
(गा. ३६०८) महक मित्र।
(गा. ६३२) मल्लक-पात्र।
(गा. १०८ टी.प.३८) महल्ल-बड़ा।
(गा. २५६) माणं-वाक्यालंकार में प्रयुक्त अव्यय ।
माणमिति वाक्यालंकारे। (गा. १६५८ टी.प.४८) माल--ऊपर का कमरा ।
(गा. १५२०) मुक-पर्याप्त, उचित, योग्य।
(गा. २६१७) मुणमुणंती-१. अस्पष्ट बोलती हुई, २. अव्यक्त अक्षर ।
(गा. २३१६) मूइंग-१. मकोड़ा, चींटी।
(गा. १७७२)
मूड-धान्य मापने का एक साधन । (गा. १६१० टी.प.३५) मूतिंग-मकोड़ा। मूइंग इति देशीपदं मत्कोटवाचकम् ।
(गा. ७१६ टी.प.७७) मेरा-मर्यादा।
(गा. ५८५) मोय-प्रस्रवण।
(गा. २७८६) मोयपडिमा प्रतिमा विशेष ।
(गा. ३७८६) मोरंगचलिया पशओं का आभषण विशेष। (गा. १३६१) .मोरङ-क्षाररस वाला वृक्ष विशेष। (गा. ३०८टी.प.४०) रंडा—एक प्रकार की गाली। (गा. २६२७ टी.प.१८) रद्द-खिसककर गिरा हुआ। (गा. ३७३२ टी.प.६) रसिगा-पीव।
(गा. २७८३ टी.प.६१) रिगिणिका-वल्ली विशेष, कण्टकारिका।
(गा. ३२१ टी.प.४४)
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१२२]
परिशिष्ट-७
रीढा-अवज्ञा, अनादर।
(गा. ३३५१) रेग-१. निरर्थक।
(गा. १४२५) २. एकान्त अवसर ।
(गा. २५८१) रोक्किर-दांत पीसना।
(गा. १३८६ टी.प.८) लंख-बांत पर चढ़कर नाच दिखानेवाला। लंखा ये वंशादेरुपरि नृत्तं दर्शयन्ति ।
. (गा. १४४६ टी.प.१७) लंखग-१. नाचने वाला, नर्तक। . (गा. ७८३) २. गायक।
(गा. ४३१२ टी.प.६६) लंखिय-नट जाति।
(गा, २७६४) लंद-काल।
(गा. ३३५७) लंबण-कवल।
(गा. ३६८५ टी.प.५७) लाइय-गृहीत, स्वीकृत। (गा. ७६६ टी.प.६६) •लाढ-जीवन-यापन करना।
(गा. २६६२) लिंडिक मेंगनी (बकरी आदि की)। (गा. ५०७ टी.प.१३) लुग्ग-शुष्क।
(गा. २३२६) लेस-स्त्री की योनि।
(गा. २८१२) लोह-लेष्टु, पत्थर।
(गा. ३१२६) लोमसिया-ककड़ी।
(गा. ३७४४) ल्हसन-फिसलना।
(गा. १७७२ टी-प्र.६) वक्कल-चक्राकार, वर्तुल ।
(गा. ६५) वक्खास्-छोटा कपस ।
(गा. २७८२) वगडा-परिक्षेपवगडा नाम परिक्षेपः।
(गा. ३७०३ टी.प.१) वच्चक-एक प्रकार का घास।
(गा ३३६६) वचिक्क-धब्बा।
(गा. ३२१८) वज्जियाव-इक्षु। वजियावो नाम देशीवचनत्वादिक्षुः।
(गा. २५१ टी.प.२२) वजियावग—इक्षु।
वज्जियावगो उच्छु इति। (गा. २५१ टी. प. २२) बट्ट-विद्यार्थी।
(गा. ४३१३) वट्टावअ-सेवा करनेवाला।
(गा. २५६) वडार-विभाग।
(गा. ३१६१) वहकुमारी-बड़ी लड़की। (गा. ६३ टी.प. २५) वरंडक बरामदा।
(गा. १८५ टी.प.३) वरुड-१. एक प्रकार का शिल्पी। (गा. २११ टी.प.१०)
२. हीन जातिवाला। (गा. ३२६२ टी.प.९०)
वाडु-भाग जाना। देशीवचनमेतद् नशनं करोति नश्यतीत्यर्थः।
(गा. ८२१) वाणमंतर-व्यंतर देव।
(गा. ६५३) वाणमंतरी-व्यंतरी।
(गा. ११४५) वारिक–नापित। नापिता नखशोधका वारिका इत्यर्थः।
(गा. ३६२२) विजल कीचड़युक्त स्थान ।
(गा. २२३) विटलक-जादू-टोना। (गा. ३६७१ टी. प.५५) विट्टालित–उच्छिष्ट, भ्रष्ट।
(गा. ३३१६) विडर-गृहस्थ के लिए जादू-टोना में प्रवृत्त होना।
(गा. १५८६) .विद्दाह-नष्ट होना।
(गा. २३६६) • विष्फाल-प्रश्न करना, पूछना। विष्फालेइ देशीवचनमेतत प्रच्छतीत्यर्थः।
(गा. २४८ टी. प. २१) विष्फालण–पूछना।
(गा. २४८ टी.प.२१) विमत्तग-प्रस्रवण पात्र।
(गा. ३६३३) बियरय-लघु स्रोत वाला जलाशय, जो सोलह हाथ विस्तृत होता है। नदी या महागर्त में इसका संकुचन तीन हाथ विस्तृत होता है।
वियरओ नाम लघुस्रोतो रूपो जलाशयः स च षोडशहस्तविस्तारो नद्यां महागर्तायां वा तस्याकुंचः त्रिहस्तविस्तारः।
(गा. १३८० टी.प.६) विरल्ल-विस्तृत, बिखेरा हुआ। (गा. १७७३) विवाह-वधू पक्ष की ओर से दिया जानेवाला भोज ।
(गा. ३७३६) विसुयाविय-शुष्क किया हुआ, विशुद्ध किया हुआ ।
(गा. २६२१) विस्सामण वैवावृत्त्य, पैर दबाना। (गा. ४१२३) वीसाल-बीस।
(गा. ५३३) वीवाह-वधूपक्ष की ओर से दिया जाने वाला भोज ।
(गा. ३७३६) वेउट्टिय बार-बार।
(गा. २०८४) वेंट-बीच का खाली स्थान । (गा. १३८० टी.प.६) वेंटक–बिस्तर।
(गा. २५२७ टी.प.१४) वेंटल-जादू-टोना।
(गा. ३०६३) वेंटिय–गठरी।
(गा. १२६) वेंटिहत-परिचित।
(गा. ३६७३)
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परिशिष्ट-७
[१२३
वेल्लूक-एक प्रकार का कीट। (गा. ३१६८) । साही-गली।
(गा. ३१५०) वोगड-विभक्त।
(गा. ३३५८) सिग्ग-परिश्रम । सिग्ग त्ति देशीपदमेतत परिश्रम इत्यर्थः। वोट्टित-उच्छिष्ट, अपवित्र। (गा. ३३१६)
(गा. १७७० टी.प.६) वोद्द-मूर्ख। (गा. २४७०) सिंभियश्लैष्मिक।
(गा. ३८३६ टी. प.३) • वोल-गमन करना। (गा. १२७७ टी.प.६८) सिव्वणि-सूई।
(गा. ३५४६) संकटु-मार्ग।
__(गा. ३५६४) सीभर/सीभरग-बोलते हुए थूक उछालने वाला। संकर-पथ, रास्ता।
(गा. ४४२८) सीभरो नाम यः उल्लपन् परं लालया सिंचति । संखड-कलह। (गा. ५०१५ टी.प.११)
(गा. १४८२ टी.प.२६) संखडि-१. सरस भोजन। (गा. २३१) सीयाण-श्मशान।
(गा. ३१४६) २. मिठाई, जीमनवार । (गा. १६५०) सेटिणी-सेठाणी।
(गा. १६०१ टी.प.५१) संखडी-जीमनवार। (गा. ११२) सेट्ठी-श्रेष्ठी।
तुष्टनरपतिप्रदत्तश्रीदेवसंखेडिपाल–पशुपालक। (गा. १००० टी.प.८) ताध्यासितसौवर्णपट्टविभू- षितोत्तमांगो नगरचिंताकारी संगार-संकेत। (गा. ६४३) नागरिकजनः श्रेष्ठी।
(गा. २१६ टी.प. १२) संगिल्ल-साथ में, समूह।
(गा. ६३२) सेहि-गत, गया हुआ।
(सू. ७/३) संगेल्ल-गायों का समूह ।
सोंड-सूंड।
(गा. १३८३) संगिल्लो नाम गोसमुदायः। (गा. १००० टी.प.७) हक्कार-गर्जना।
(गा. १३८६) • संचिक्ख-घात करना।
(गा. ३२१०) हडि-कारावास।
(गा. ४५४४) संडास-संडासी। (गा. ३३६८)
(गा. ४५४४) संथड-राज्य। संथडं नाम राज्यम् । (३३५५) हत्यिहत्य-दुस्तर।
(गा. ६६५) संघरमाण-तृप्त न होता हुआ।
(गा. १७६५)
हरियण्णी-वैसा प्रदेश, जहां प्रायः दुर्भिक्ष होता हो और वहां संपसार-मंत्रणा करना।
(गा.१३८६ टी.प.८) |
के लोग हरित, शाक आदि खाकर जीते हों। (गा. २०६१) संबर-कचरा उठाने वाला। संबराः कचवरोत्सारकाः।
हाडहरु तत्काल।
(गा. ३२६२ टी.प.९०) । हाडहडं देशीपदमेतत तत्कालमित्यर्थः। संभलि-दूती। (गा. २३७६)
(गा. २७६ टी. प. ३०) समंति-भगिनी।
(गा. १६०७)
हाडहडा आरोपणा, प्रायश्चित्त का एक प्रकार । (गा. ५६६) सज्झंतिया-भगिनी।
(गा. १६०३) हिंडिक-नगररक्षक।
(गा. ६८३ टी.प.६७) सज्झिलग-१. भाई।
(गा. ११४२)
हित्य-हिंसित, मारा हआ। हत्थोत्ति देशीपदमेतद हिंसितः। २. पड़ोसी। (गा. १६८ टी.प.३६)
(गा. १०० टी.प. ३६) सब्मिलग-साथी।
(गा. १३२४)
हिरडिक-चांडालों का यक्ष, जिसके मन्दिर (मूर्ति) के नीचे समुइ-स्वभाव।
(गा. २६३७)
मनुष्य की हड्डियां रखी जाती हैं। (गा. ३१४६ टी.प. ५५) सयज्झिय-सखा।
(गा. ४४५ टी.प. ६२) हेटा-नीचे।
(गा. ७५६) सातिजिय-अनुमोदित।
(गा. १२८३) हेदिल्ल—नीचे वाला।
गा. ५३२) सामत्थण-पर्यालोचन।
(गा. ३८६४)
हिंभूत-गुण-दोष के ज्ञान से विकल और निर्दम्भ । साला--शाखा।
(गा. ३७५१)
हेहंभूतो नाम गुणदोष-परिज्ञान-विकलोऽशठभावः । सासेरी-यंत्रमयी नर्तकी।
(गा. १७५ टी.प.५६) सासेरीति देशीवचनमेतद् यंत्रमयी नर्तकी।
| होदा-दे ही दिया, कर ही दिया। (गा. १११२ टी.प. ३४)
'होढ़ा' इति देशीपदमेतद् दत्तमेव कतमेवेत्यर्थः। साहण-कथन। (गा. ३८६१) ।
(गा. ६७७)
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परिशिष्ट-८
कथाएँ १. माया से शुद्धि नहीं
एक गांव में एक ब्राह्मण रहता था। वह कामुक था। एक बार उसने अपनी सुन्दर पुत्र-वधू या चंडालिन में आसक्त हो उसके साथ संभोग कर लिया। उसके मन में प्रायश्चित्त का भाव जागा | वह प्रायश्चित्त के निमित्त एक चतुर्वेद के ज्ञाता ब्राह्मण के पास गया और यथार्थ को छुपाते हुए बोला –विप्रवर ! आज स्वप्न में मैं अपनी पुत्रवधू या चंडालिन के साथ कुकृत्य कर बैठा। आप मुझे प्रायश्चित्त दें। यह मायापूर्वक किया जाने वाला प्रायश्चित्त है। (गा. १८ टी. प. १०) २. कुम्हार का मिच्छा मि दुक्कडं
एक आचार्य अपनी शिष्य मंडली के साथ जनपद विहार करते हुए एक गांव में आए। वे वहां एक कुंभकारशाला में ठहरे। आचार्य ने अपने शिष्यों से कहा-'यह कुंभकारशाला है। मिट्टी के अनेक प्रकार के भांड यहां रखे हुए हैं। सबको सतर्क रहना है। इधर-उधर आते-जाते भांड फूट न जाएं, पूरा ध्यान रखना है।' एक शिष्य प्रमादी था, कुतूहली था। वह ककर से एक भांड फोड़ता और तत्काल 'मिच्छा मि दुक्कड' का उच्चारण करता। वह बार-बार ऐसा करने दो-चार दिन बीते। कुंभकार ने शिष्य को समझाया। वह नहीं समझा, तब कुंभकार ने एक दिन उस शिष्य का कान खींचकर उसके सिर पर 'ठोला' मारा और बोला 'मिच्छा मि दुक्कडं'। दो-चार बार ऐसा करने पर शिष्य बोला-'अरे मुझ निरपराध को क्यों पीट रहे हो ?' कुंभकार बोला-'तुमने मेरे भांड क्यों फोड़े ?' शिष्य ने कहा-'भांड फोड़कर मैंने 'मिच्छा मि दुक्कड' कहकर प्रायश्चित्त कर लिया था।' कुंभकार ने कहा—'मैंने भी 'ठोला' मारकर यह प्रायश्चित्त कर लिया है।' अतः इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। यह कुंभकार और शिष्य का प्रायश्चित्तस्वरूप किया हुआ अव्यावहारिक मिच्छा मि दुक्कडं है।
(गा. २५ टी. प.१३) ३. ऋजुता का परिणाम
दो गोतार्थ मुनि साथ-साथ विहरण कर रहे थे। एक बार सचित्त वस्तु के विषय में दोनों में चिन्तन चला। एक ने कहा—मुझे ऐसा प्रतीत होता है। दूसरे ने कहा-नहीं, मुझे ऐसा प्रतीत होता है। दोनों किसी भी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। निकट में कोई तीसरा गीतार्थ मुनि नहीं था जिसके पास जाकर समाधान पाया जा सकता हो। तब एक गीतार्थ मुनि ने दसरे से कहा-'आर्य ! तम ही मेरे लिए प्रमाण हो। तम ही निर्णय दो। इस प्रकार निर्णायकरूप में नियुक्त होने पर उसने सोचा -मैं तीर्थंकर का प्रतिनिधि तथा संघ का आचार्य हूं। मैं संघ की मर्यादा का अतिक्रमण कैसे करूँ ? उसने कहा—आर्य! तुमने जो कहा, वही सही है। मैंने जो सोचा था, वह सही नहीं है। यह है ऋजुता का परिणाम ।
(गा. २६, ३० टी. प.१३, १४) ४. स्वाध्याय में काल और अकाल का विवेक
___एक मुनि कालिक श्रुत का स्वाध्याय कर रहा था। रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। उसे इसका भान नहीं रहा। वह स्वाध्याय करता ही गया। एक सम्यकदृष्टि देवता ने यह जाना। उसने सोचा-यह मुनि अकाल में स्वाध्याय कर रहा है। कोई नीच जाति का देवता इसको ठग न ले, इसलिए उसने छाछ बेचने का स्वांग रचा। 'छाछ लो, छाछ लो।' यह कहता हुआ वह उस मार्ग से निकला। वह बार-बार उस मुनि के उपाश्रय के पास आता-जाता रहा ।. मुनि ने मन ही मन-यह छाछ बेचनेवाला मेरे स्वाध्याय में बाधा डाल रहा है—यह सोचकर उससे कहा-अरे ! अज्ञानी ! क्या यह छाछ बेचने का समय है ? समय की ओर ध्यान दो। तब उसने कह्म-मुनिवर्य ! क्या यह कालिक श्रुत का स्वाध्याय-काल है?
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परिशिष्ट-८
[१२५
मुनि ने यह बात सुनी और सोचा---यह कालिक-श्रुत का स्वाध्याय-काल नहीं है। आधी रात बीत चुकी है। मुनि ने प्रायश्चित्त स्वरूप 'मिच्छा मि दुक्कडं' का उच्चारण किया। देवता बोला—फिर ऐसा मत करना, अन्यथा तुम तुच्छ देवता से ठगे जाओगे। अच्छा है. स्वाध्याय-काल में ही स्वाध्याय करो न कि अस्वाध्याय-काल में। (गा. ६३ टी.प.२४) ५. एक खंभे का प्रासाद
राजगृह नगर। महाराजा श्रेणिक। महारानी ने एक बार कहा---'राजन् ! मेरे लिए एक खंभे वाला प्रासाद बनवाएं। राजा ने बढ़इयों को काष्ठ लाने का आदेश दिया। वे अभयकुमार के साथ काष्ठ के लिए वन में गए। वहां उन्होंने एक विशाल वक्ष देखा। वह वक्ष सभी लक्षणों से यक्त और सीधा था। उन्होंने वक्ष की धूप-दीप से पूजा कर, प्रार्थना के स्वरों में कहा—जो इस वृक्ष का अधिष्ठाता देव है, वह हमें दर्शन दे, अन्यथा हम इस वृक्ष को काट देंगे। तब अधिष्ठाता व्यन्तर देव अभयकुमार महामात्य के सामने प्रकट हुआ और बोला—'मैं महाराज श्रेणिक के लिए एक खंभे वाला प्रासाद निर्मित कर दूंगा। वह सभी ऋतुओं में सुखकारी और सभी प्रकार के साधनों से युक्त होगा। तुम लोग मेरे इस आवास-स्थान-वृक्ष को मत काटो। यह वृक्ष मेरे आवास के ऊपर चूलिका के समान है।' बढ़इयों ने वृक्ष नहीं काटा। उस व्यन्तर देव ने एक खंभे वाले प्रासाद का निर्माण कर दिया।
(गा. ६३ टी.प. २४, २५) ६. चोर की खोज
राजगृह नगर में एक चंडालिनी रहती थी। वह गर्भवती हुई। उसे आम खाने का दोहद उत्पन्न हुआ। वह आम की ऋतू नहीं थी। उसने अपने पति से कहा- मुझे आम लाकर दो। पति बोला- यह समय आम का नहीं है। पली ने हठ किया तब वह चंडाल महाराज श्रेणिक के बगीचे के पास गया और 'अवनामिनी' विद्या का प्रयोग कर आम की शाखाओं को झुकाया, पांच-दस आम तोड़े और फिर उन्नामिनी विद्या का प्रयोग कर उन शाखाओं को पूर्ववत् ऊपर कर डाला । मातंगी का दोहद पूरा हुआ।
- प्रातःकाल राजा ने देखा कि आम्रवृक्ष से आम तोड़े हुए हैं। वहां वृक्ष के आस-पास किसी मनुष्य के पदचिह्न नहीं दीखे। राजा ने सोचा-कौन कैसे यहां आया? जिस व्यक्ति में ऐसी शक्ति है, वह कभी-न-कभी मेरे अन्तःपुर को भी क्निष्ट कर सकता है। राजा ने अभय को बुलाकर कहा- यदि सात दिनों की अवधि में चोर को पकड़कर मेरे सामने उपस्थित नहीं कर पाओगे तो तम्हें मौत की सजा दी जाएगी।
अभय चोर की खोज में निकला। एक स्थान पर एक नट अपने करतब दिखाने के लिए तत्पर हो रहा था। वहां लोगों की भीड एकत्रित थी। अभय वहां पहंचा और लोगों से बोला---'भाइयो ! जब तक यह नट सज-धज कर आता है तब तक मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं, आप उसे सुनें ।
एक नगर में एक सेठ रहता था। वह अत्यंत दरिद्र था। उसकी एक रूपवती विवाह योग्य कन्या थी। वह कन्या अच्छे वर की प्राप्ति के लिए कामदेव की अर्चा-पूजा करती थी। एक दिन वह पूजा के निमित्त फूलों की प्राप्ति के लिए बगीचे में गई और चोरी-चोरी फूल चुनने लगी। बागवान ने उसे देख लिया। वह कन्या के साथ दुर्व्यवहार करने लगा। कन्या बोली—मैं कुंआरी हूं। मेरे साथ ऐसा मत करो। तुम्हारे घर पर भी बहिनें, बेटियां होंगी।' वह बागवान् बोला-एक शर्त पर मैं तझे छोड़ सकता है। वह शर्त यह है कि जब तेरा विवाह हो, उसी दिन पति के पास जा आएगी। लड़की ने यह शर्त स्वीकार कर ली। बागवान् ने उसे तत्काल मुक्त कर दिया। कालान्तर में लड़की का विवाह हो गया।
सुहागरात । विवाह की पहली रात्रि। वह पति के कक्ष में गई और हाथ जोड़कर विवाह से पूर्व स्वीकृत शर्त की जानकारी दी। पति ने उसे शर्त पूरी करने की आज्ञा दे दी। वह अपने घर से बागवान् से मिलने निकली। रास्ते में चोरों ने उसे घेर लिया। उसने अपनी बात कही। चोरों ने भी उसे छोड़ दिया। वह आगे चली। एक राक्षस मिला। वह छह महीनों से भूखा था। वह छह महीनों में एक ही बार खाता था। उसने उस नवोढ़ा को पकड़ लिया। नवोढ़ा ने अपनी पूरी
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परिशिष्ट
बात बताई। राक्षस ने उसे छोड़ दिया। वह वहां से चलकर बागवान के पास आई। बागवान ने उसे आश्चर्य से देखा और पूछा-अरे यहां क्यों आई हो ? उसने कहा-अपनी शर्त को पूरा करने के लिए मैं आई हूं। बागवान् बोला—क्या पति ने तुझे यहां आने की आज्ञा दे दी ? कैसे दी ? उसने अपनी सारी रामकथा सुनाई। बागवान् ने सोचा-'ओह ! यह सत्य-प्रतिज्ञ है। इतने सारे व्यक्तियों ने इसे छोड़ दिया तो मैं फिर इसे कैसे दृषित करूं।' यह विचार कर उसने उसे छोड़ दिया।
वहां से लौटकर वह राक्षस और चोरों के बीच से आई। पर सभी ने उसे मुक्त कर दिया। वह अपने पति के पास सुरक्षित आ पहुंची।'
अभय ने उन श्रोताओं से पूछा-आपने पूरी कहानी सुन ली। अब आप बताएं की कहानी के पात्रों में किस पात्र ने दुष्कर कार्य किया ? यह सुनकर उस एकत्रित भीड़ में उपस्थित ईर्ष्यालु व्यक्तियों ने कहा—उस लड़की के पति ने दुष्कर कार्य किया। भूखे व्यक्तियों ने राक्षस को, कामुक मनुष्यों ने बागवान् को और चांडाल ने चोर को दुष्कर कार्य करने वाला बताया।
अभय ने उस चांडाल को चोर समझकर पकड़ लिया और उसे राजा के समक्ष उपस्थित किया। चोर ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और यह भी बता दिया कि उसने चोरी कैसे की। राजा ने कहा-'मातंग ! यदि तू मुझे ये दोनों विद्याएं सिखा देगा तो तुझे जीवनदान मिलेगा अन्यथा मृत्यु का वरण करना होगा।' मातंग ने विद्या देना स्वीकार कर लिया।
राजा सिंहासन पर बैठा। मातंग नीचे जमीन पर बैठ गया। विद्या का ग्रहण न होने पर राजा ने इसका कारण पूछा। मातंग बोला--राजन् ! अविनय से विद्या गृहीत नहीं होती। तुम ऊपर बैठे हो और मैं विद्या-दाता नीचे, यह अविनय है। तब राजा तत्काल सिंहासन को छोड़कर नीचे बैठा और मातंग को ऊंचे आसन पर बिठाया। विद्याएं सिद्ध हो गईं।
(गा. ६३ टी.प.२४, २५) ७. भक्ति और बहुमान
एक गिरि-कंदरा में शिव की मूर्ति थी। एक ब्राह्मण और एक भील-दोनों उसकी पूजा-अर्चा करते थे। ब्राह्मण प्रतिदिन स्नान आदि कर, पवित्र होकर अर्चना करता था। अर्चना के पश्चात् वह शिव के सम्मुख बैठकर शिवजी का स्तुति-पाठ कर चला जाता। उसमें शिव के प्रति विनय था, बहुमान नहीं। बह भील शिव के प्रति बहुमान रखता था। वह प्रतिदिन मुंह में पानी भर लाता और उससे शिव को स्नान करा, प्रणाम कर वहीं बैठ जाता। शिव प्रतिदिन उसके साथ बातचीत करते। एक बार ब्राह्मण ने दोनों का आलाप-संलाप सुन लिया। उसने शिव की पूजा कर उपालंभ भरे शब्दों में कहा- तुम भी व्यन्तर शिव हो, जो ऐसे गंदे व्यक्ति के साथ आलाप-संलाप करते हो। तब शिव ने ब्राह्मण से कहा-'भील में मेरे प्रति बहुमान-आंतरिक प्रीति है, वह तुम्हारे में नहीं है।'
एक बार शिव ने अपनी आंखें निकाल लीं। ब्राह्मण अर्चा करने गया। वह शिव के आंखें न देखकर रोने लगा और उदास होकर वहीं बैठ गया। इतने में ही भील आ पहुंचा। शिव की आंखें न देखकर उसने तीर से अपनी दोनों आंखें निकाल कर शिव के लगा दी। ब्राह्मण ने यह देखा। उसे शिव की बात पर पूरा विश्वास हो गया कि भील में बहुमान का अतिरेक है।
(गा. ६३ टी. प.२५)
८. ज्ञानान्तराय
एक बहश्रृत आचार्य थे। वे अपने शिष्यों को वाचना देते-देते परिश्रान्त हो गए। वे स्वाध्याय-काल को अस्वाध्याय-काल कहने लगे। इस प्रक्रिया से उनके ज्ञानान्तराय कर्म का बंध हुआ। वे मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वे एक अहीर के कुल में उत्पन्न हुए। उनका यौवन अवस्था में विवाह हुआ। वे भोग भोगने लगे। उनके एक कन्या उत्पन्न हुई। वह अत्यन्त रूपवती थी। एक बार वे दोनों पिता-पुत्री अपने पशु धन को लेकर अन्यत्र जा रहे थे। वे शकट में सवार थे। गांव के अन्यान्य लोग भी अपने-अपने शकट में थे। पुत्री अपने शकट के अगले सिरे पर बैठी
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परिशिष्ट-८
थी और वह शकट अन्यान्य सभी शकटों से आगे था। अन्य शकटों में बैठे तरुण अहीर युवकों ने सोचा, शकट को आगे लेकर लड़की को देखें। वे अपने-अपने शकटों को विषम मार्ग से आगे ले जाने लगे । विषम मार्ग के कारण उनके शकट टूट गए। तब उन युवकों ने उस लड़की का नाम 'अशकट' रख दिया। वे उसके पिता को 'अशकट पिता' कहने लगे । अहीर पिता ने यह सुना। उसका मन वैराग्य से अनुरंजित हो गया। वह अपनी पुत्री का एक अहीर तरुण से विवाह कर स्वयं प्रव्रजित हो गया। वह आगम का अध्ययन करने लगा। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन 'चाउरंगिजं' तक पढ़ा। जब उसने चौथा अध्ययन 'असंखयं' प्रारंभ किया तब पूर्वबद्ध ज्ञानान्तराय कर्म का विपाकोदय हुआ । अब उसे पाठ याद नहीं हो पा रहा था। अनेक दिन बीते । स्थिति में कोई अन्तर नहीं आया। उसने आचार्य से पूछा । आचार्य बोले- 'तुम
- की तपस्या करो और निरंतर आचाम्ल करते रहो ।' यह तप करने लगा। बारह वर्षों के इस क्रम में वह मात्र बारह श्लोक ही सीख पाया। उसका ज्ञानान्तराय कर्म जब क्षीण हुआ तब वह बहुश्रुत हो गया। (गा. ६३ टी. प. २५, २६) ६. विद्यादाता का नाम मत छुपाओ
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एक गांव में एक नापित रहता था । वह अनेक विद्याओं का ज्ञाता था । विद्या के प्रभाव से उसका 'क्षुरप्रभांड' अधर आकाश में स्थिर हो जाता था। एक परिव्राजक उस विद्या को हस्तगत करना चाहता था। वह नापित की सेवा में रहा और विविध प्रकार से उसे प्रसन्न कर वह विद्या प्राप्त की। अब वह अपने विद्याबल से अपने त्रिदंड को आकाश में स्थिर रखने लगा। इस आश्चर्य से बड़े-बड़े लोग उस परिव्राजक की पूजा करने लगे। एक बार राजा ने पूछा-भगवन् ! क्या यह आपका विद्यातिशय है या तप का अतिशय है ? उसने कहा—यह विद्या का अतिशय है। राजा ने पुनः पूछा- आपने यह विद्या किससे प्राप्त की ? परिव्राजक बोला- मैं हिमालय में साधना के लिए रहा। वहां मैंने एक फलाहारी तपस्वी ऋषि की सेवा की और उनसे यह विद्या प्राप्त की । परिव्राजक के इतना कहते ही आकाशस्थित वह त्रिदंड भूमि पर आ गिरा । (गा. ६३ टी. प. २६)
१०. सुलसा की धार्मिक दृढ़ता
राजगृह नगरी में सुलसा श्राविका रहती थी। वह सम्यक्त्व में सुदृढ़ थी। एक बार अंबड़ राजगृह की ओर जा रहा था । अनेक भव्यजन को सम्यक्त्व में सुदृढ़ करने की दृष्टि से भगवान् ने अंबड से कहा – तुम राजगृह जा रहे हो । सुलसा धर्म-जागरणा के विषय में पूछना। अंबड़ ने सोचा - पुण्यवती है सुलसा, जिसको भगवान भी पूछते हैं। अंबड राजगृह आया । सुलसा की परीक्षा के लिए वह उसके घर भिक्षा के लिए गया । भिक्षा नहीं मिली। अंबड ने अनेक रूप बनाए। फिर भी सुलसा ने उसको आदर-सम्मान नहीं दिया। वह उसके ऐश्वर्य या चमत्कारों से संमूढ नहीं बनी। (गा. ६४ टी. प. २७)
११. श्रेणिक की सम्यक्त्व - दृढ़ता
राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करता था। एक बार इन्द्र ने अपने देव-परिषद् में श्रेणिक के सम्यक्त्व - धार्मिक दृढ़ता की प्रशंसा की। एक देवता ने इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं किया। वह श्रेणिक की परीक्षा करने के लिए मुनि का वेश बना, एक तालाब पर मछलियां पकड़ने बैठा । श्रेणिक उस ओर से निकला, उसने भिक्षु को मछलियां पकड़ते देखकर कहा— अरे! ऐसा मत करो।
दूसरी बार वही देव एक गर्भवती साध्वी का रूप बनाकर मार्ग में बैठ गया । श्रेणिक ने देखा और साध्वी को अपने अन्तःपुर के एक कमरे में ले गया और वहां प्रसूतिकर्म संपन्न कराया। यह सारी वार्ता अत्यन्त गुप्त रखी । राजा स्वयं उस कार्य में संलग्न रहा। उसकी प्रवचन के प्रति श्रद्धा में न्यूनता नहीं आई। तब देव ने साध्वी का रूप छोड़कर अपने मूल रूप में राजा के समक्ष आकर कहा- राजन् ! सफल है तुम्हारा जन्म और जीवन जिन-प्रवचन पर तुम्हारी यह दृढ़ भक्ति सराहनीय है। (गा. ६४ टी. प. २७ )
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परिशिष्ट-र
१२. अन्तर्शल्य और अश्व
एक राजा था। उसके पास सर्वलक्षणयुक्त एक अश्व था। वह दौड़ने और कूदने में समर्थ था। उस अश्व के कारण राजा अजेय था। राजा अपने सामंत-राजाओं पर अनुशासन करता था। एक बार सामंत राजाओं ने अपनी-अपनी सभा में सभासदों से कहा—क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो उस अश्व को चुराकर ले आए ? सभी ने कहा-वह अश्व एक पिंजरे में रहता है। प्रतिपल उसकी निगरानी के लिए पुरुष तैनात रहता है। हवा भी उस तक नहीं पहुंच पाती। इतने में ही एक सभासद् ने कहा--'यदि आप कहें तो मैं उस अश्व को मार सकता हूं, परन्तु उसका अपहरण नहीं कर सकता। राजा बोला-वह अश्व हमारा भी न हो और उसका भी न रहे। जाओ, तम उसका वध कर दो। वह व्यक्ति वहां गया। एक गुप्त स्थान में छुप गया। एक चिकने ईषिका के अग्रभाग में कांटे की अणी को पिरोकर बच्चों के छोटे धनुष्य पर बाण चढ़ा, अश्व की ओर फेंका। अश्व के शरीर पर बाण लगा और बाण नीचे गिर पड़ा। वह सूक्ष्म कंटक (शल्य) अश्व के शरीर में प्रविष्ट हो गया। उरा अव्यक्त शल्य के प्रभाव से अश्व सूखने लगा। उपचार किए गए। खाने-पीने की भी व्यवस्था में सुधार किया, पर अश्व दिन-प्रतिदिन कमजोर होता गया। अश्व-वैद्य को बुलाया गया। उसने अश्व की बाह्य स्थिति का निरीक्षण कर सोचा, इसे कोई रोग नहीं है। अवश्य ही इसके शरीर के भीतर कोई अव्यक्त शल्य है। तत्काल उसने कर्मकरों से कहकर उस अश्व के पूरे शरीर पर गीली मिट्टी का लेप करवाया। वैद्य वहीं खड़ा रहा। अश्व के शरीर के जिस भाग में वह मिट्टी का लेप पहले सूखा, वैद्य ने उस अवयव को चीर कर उस सूक्ष्म शल्य को निकाल दिया। अश्व स्वस्थ हो गया।
(गा. ३२१ टी. प. ४४) १३. रोग को छुपाओ मत
एक तापस का नाम था कुंचिक। एक दिन वह 'फलों के लिए जंगल में गया। रास्ते में एक नदी थी। उसने चलते-चलते नदी के तट पर एक मृत मत्स्य को देखा। वह जन-शून्य स्थान था। उसने उस मत्स्य को पकाया और खा लिया। मत्स्य का मांस पचा नहीं। वह अजीर्ण रोग से आक्रान्त हो गया। वह वैद्य के पास गया। वैद्य ने पूछा-तुमने क्या खाया था, जिससे अजीर्ण हुआ है। तापस ने कहा-फलों के अतिरिक्त मैंने कुछ भी नहीं खाया। वैद्य बोला-कंद, फल आदि खाने से तुम्हारा शरीर कृश हो गया है, इसलिए तुम घृतपान करो। उसने खूब घी पिया। वह और अधिक बीमार हो गया। उसने पुनः वैद्य को पूछा। वैद्य ने कहा-सही-सही बताओ, तुमने उस दिन क्या खाया था ? तब तापस बोला—मैंने एक मत्स्य खाया था। तब वैद्य ने उसे संशोधन, वमन, विरेचन आदि चिकित्सा-विधियों से स्वस्थ कर दिया।
(गा. ३२३ टी. प. ४५) १४. छुपाने से हानि
दो राजाओं के मध्य युद्ध चल रहा था। एक राजा का योद्धा अत्यन्त शूरवीर होने के कारण राजा को प्रिय था। उसके अनेक तीर लगे और उसका शरीर अनेक शल्यों से भर गया। वैद्य उन शल्यों को निकालने लगा। उस समय उस योद्धा को अत्यंत पीड़ा का संवेदन हुआ। उसने एक अंग में शल्य रहने पर भी वैद्य को नहीं बताया। उन शल्यों के कारण वह दुर्बल होता गया। फिर वैद्य के पूछने पर उसने मूल बात बताई। वैद्य ने उस अंग से भी शल्य निकाल दिया। वह बलवान हो गया।
(गा. ३२३ टी. प. ४६) १५. दो मालाकार
एक गांव में दो मालाकार रहते थे। कौमुदी-महोत्सव को निकट जानकर दोनों ने उद्यान से पुष्पों का संचय किया। एक मालाकार ने सारे फूलों को सजाकर बाजार में रखा। दूसरा फूलों को यों ही टोकरी में रखकर बाजार में बैठ गया। जिसने फूल सजाकर खुले रूप में रखे थे, उसे प्रचुर लाभ हुआ। सारे फूल बिक गये। दूसरे मालाकार के सारे फूल यों ही
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परिशिष्ट
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पड़े रहे। कोई ग्राहक नहीं आया। वह हानि में रहा।
(गा. ३२३ टी. प. ४६) १६. पांच वणिक् और पंद्रह गधे
एक निगम में पांच वणिक भागीदारी में व्यापार करते थे। उन पांचों का समान विभाग था। उनके पास पन्द्रह गधे हो गए। वे सभी गधे भिन्न-भिन्न भार-वहन करने में समर्थ थे। उनके भारवहन की क्षमता के आधार पर उनके मूल्य में भी अन्तर आ गया। पांचों व्यापारी उनका समविभाग नहीं कर पा रहे थे। वे आपस में झगड़ने लगे। कलह बढ़ता गया। समाधान नहीं हो सका। वे एक बुद्धिमान व्यक्ति के पास समाधान पाने गए। उसने गधों का मूल्य पूछा। उन व्यापारियों ने पन्द्रह गधों का सही-सही मूल्य बताया। उस बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा—अब मैं इस कलह का निपटारा कर दूंगा। कलह मत करो। पांचों व्यापारी आश्वस्त हुए। उसने साठ रुपयों के मूल्य वाला एक गधा एक व्यापारी को दिया, दूसरे को तीस-तीस रुपयों के मूल्य वाले दो गधे दिए, तीसरे को बीस-बीस रुपयों के मूल्य वाले तीन गधे दिए, चौथे व्यापारी को पन्द्रह-पन्द्रह रुपयों के मूल्य वाले चार गधे दिए और पांचवें व्यापारी को बारह-बारह रुपयों के मूल्य वाले पांच गधे दे दिए। सभी व्यापारियों को समान लाभ हो गया। वे संतुष्ट होकर चले गए।
(गा. ३२६, ३३० टी. प. ४६) १७. समय पर दंड का औचित्य
एक राजा था। उसने अपने प्रत्यंत-सीमावर्ती राजा का अवरोध करने के लिए सीमा के तीन नगरों में तीन रक्षकों को नियुक्त किया। उसने कहा--जाओ, नगरों की सुरक्षा करो। तीनों अपने-अपने नगरों में जा स्थित हो गए। प्रत्यंत नृप ने उन पर आक्रमण किया। उन रक्षकों की रशद पूरी हो गई। तब उन्होंने अपने राज्य के कोठागार से तीस-तीस कुंभ धान्य लिया। फिर आक्रमणकारी प्रत्यंत नृप को जीत कर वे तीनों अपने स्वामी के पास आए और विस्तार से पूरा वृत्तान्त सुनाया। जीत का वृत्तान्त सुनकर राजा परम प्रसन्न हुआ। रक्षकों ने आगे कहा- 'राजन् ! आपके कार्य को संपादित करने के लिए हमने कोठागार में से तीस-तीस कुंभ धान्य के निकाले थे।' राजा ने सुना, सोचा कि यदि मैं इन्हें इस कार्य के लिए अभी दंडित नहीं करूंगा तो मेरे अन्यान्य प्रयोजन पर भी वे ऐसा ही करेंगे और व्यर्थ ही मेरा कोठागार खाली होता जाएगा तथा दूसरों को भी ऐसा करने में भय नहीं रहेगा। यह सोचकर राजा ने कहा- तुमने मेरा कार्य सफलतापूर्वक संपादित किया है। तीनों को मैं साधुवाद देता हूँ। किन्तु तुम मेरे यहां आजीविका कर रहे हो, उसके लिए तुम्हें मासिक वृत्ति भी मिल रही है, तो फिर तुमने कोठागार से धान्य क्यों लिया ? यह तुम्हारा प्रमाद है। तुम पर यह दंड है कि सारा धान्य पुनः कोठागार में पहुंचाओ। तीनों रक्षक अवाक रह गए। राजा ने कहा-तुम्हारी सफलता पर मैं प्रसन्न हूं, कोठागार से जो तुमने तीस-तीस कुंभ धान्य निकाला था उसके लिए स्वअर्जित दस-दस कुंभ धान्य उन कोठागारों में पहुंचाओ। यह प्रमाद का दंड है। शेष बीस-बीस कुंभ का मैं तुम्हारे पर अनुग्रह करता हूं। उसके ऋण से मुक्त करता हूँ। (गा. ३३३, ३३४ टी. प. ५१) १८. गंजे पनवाड़ी की बुद्धिमत्ता
एक पनवाड़ी पान की दुकान पर बैठता था। वह गंजा था। एक बार एक सैनिक का पुत्र पान लेने आया और बोला—अरे ! गंजे पनवाड़ी ! एक पान दे। दुकानदार को गुस्सा आ गया। उसने पान नहीं दिया, तब सैनिक-पुत्र ने कुपित होकर गंजे के सिर पर 'टकोरा' मारा। दुकानदार ने सोचा-यदि मैं इसके साथ झगडूंगा तो यह मुझ पर शत्रुता का भाव रखकर मुझे मार डालेगा। इसलिए किसी दूसरे उपाय से ही मुझे प्रतिशोध लेना चाहिए। यह सोचकर पनवाड़ी दुकान से नीचे उतरा और उस सैनिक-पुत्र से हाथ मिलाया, वस्त्र-युगल भेंट स्वरूप दिए, पैरों में गिरा और प्रचुर पान देकर नमस्कार किया। सैनिक-पुत्र ने उससे पूछा-'अरे ! यह क्या ? मैंने सिर पर 'टकोरा' मारा, तुम कुपित नहीं हुए, प्रत्युत मेरी पूजा कर रहे हो ? मेरे चरणों में गिर रहे हो ?' पनवाड़ी बोला—'हमारे क्षेत्र में सभी गंजे व्यक्तियों का यही आचार-व्यवहार है।' यह सुनकर सैनिक पुत्र ने सोचा--अच्छा, मुझे जीविका का उपाय प्राप्त हो गया। अब मैं ऐसे व्यक्ति के सिर पर 'टकोरा' मारूंगा कि वह मुझे धनवान बना दे, मुझे इस दरिद्रता की स्थिति से उबार दे।'
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परिशिष्ट-८
एक दिन उस सैनिक-पुत्र ने एक गंजे ठाकुर के सिर पर 'टकोरा' मारा। ठाकुर कुपित हो गया। उसने तत्काल उस सैनिक-पुत्र को पकड़कर मार डाला।
(गा. ३३७, ३३८ टी. प. ५२) १६. दोषों का एक साथ प्रकाशन
एक नगर में एक रथकार रहता था। उसकी भार्या प्रमादी थी। वह बार-बार भूलें करती। पति को यह ज्ञात नहीं था। एक बार वह घर को खुला छोड़कर अपने सखी के घर चली गई। घर को खुला देखकर कुत्ता भीतर घुस गया। इतने में ही रथकार घर आ पहुंचा। उसने कुत्ते को घर में घूमते देखा। इतने में ही उसकी पत्नी भी सखी के घर से आ गई। रथकार उसे पीटने लगा। पत्नी ने सोचा-आज मेरी भूल पर यह मुझे पीट रहा है। और भी अनेक भूलें मुझसे हुई हैं। उन्हें ज्ञात कर यह मुझे बार-बार पीटेगा। अच्छा है, आज ही मैं इसे अपनी सारी भूलें बता दूं। वह कहने लगी-बछड़े ने गाय को चूंध लिया, बी गंवा दी, कांस्य का बर्तन हाथ से नीचे गिरा और टूट गया, तुम्हारा वस्त्र भी गुम हो गया आदि आदि सारी भूलें उसने बता दी। रथकार ने उसे एक ही बार में पीटकर आगे से प्रमाद न करने की हिदायत दी।
(गा. ४४८, ४४६ टी. प. ६२) २०. सारे दंडों का एक में समाहार
एक चोर था। उसने अनेक चोरियां कीं। किसी का भाजन चुराया, किसी के वस्त्र, किसी का सोना, किसी की चांदी। एक बार उसने राजमहल में सेंध लगाई और वहां से रन चुराए। आरक्षकों ने उसे पकड़ लिया और राजा के समक्ष उपस्थित किया। वह बात जनता तक पहुंची। उस समय अनेक व्यक्ति राजा के पास आए और शिकायत करने लगे कि चोर ने हमारी अमुक-अमुक वस्तु चुराई है। तब राजा ने यह सोचकर कि इस चोर ने रत्न जैसी बहुमूल्य वस्तु चुराई है। इस एक चोरी में अन्यान्य सारी चोरियां समा जाती हैं। यह गुरुतर चोरी है। राजा ने उसे मृत्युदंड दिया। अन्यान्य चोरियों के सारे दंड इसी एक दंड में समाहित हो गए।
(गा. ४५० टी. प.६४)
२१. चोर राजा बन गया
नगर का राजा मर गया। वह अपुत्र था। राज्यचिंतकों ने राजा के निर्वाचन के लिए एक अश्व और हाथी को अधिवासित कर नगर में छोड़ा। उसी दिन नगर के आरक्षकों ने मूलदेव नामक चोर को पकड़कर राज्य-चिंतकों के समक्ष उपस्थित किया। उन्होंने उसके वध का आदेश दिया। वध से पूर्व चोर को नगर में घुमाया जा रहा था। अधिवासित अश्व ने मूलदेव को देखा। उसके पास आकर वह हिनहिनाने लगा और अपनी पीठ प्रस्तुत की। हाथी भी पास आकर चिंघाड़ने लगा और गंधोदक से उसका अभिषेक किया और उसे अपनी पीठ पर बिठा लिया। वह राजा बन गया। वह चोरी के अपराधों से मुक्त हो गया।
(गा. ४५२ टी.प.६४) २२. वणिक् और ब्राह्मण
एक वणिक् ने भूमि का उत्खनन किया। उसे निधि प्राप्त हुई। अन्य व्यक्ति ने उसे देख लिया। उसने राजा को इसकी सूचना दी। राजा ने वणिक् को दंडित कर, निधि को अपने पास मंगा लिया।
एक दूसरे ब्राह्मण ने भी भूमि का उत्खनन करते समय निधि देखी। उसने तत्काल राजा से निधि-प्राप्ति की सूचना दी। पूरा वृत्तान्त जानकर राजा ने ब्राह्मण का सत्कार-सम्मान किया और दक्षिणा के रूप में सारी नि जो कर्तव्य के प्रति जागरूक रहता है, वह पूजित होता है।
(गा. ४५४ टी.प.६५) २३. वणिक् की बुद्धिमत्ता
एक वणिक् अपने बीस शकटों को एक ही प्रकार की वस्तुओं से भरकर व्यापारार्थ अन्य नगर में जा रहा था। बीच
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परिशिष्ट
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में चुंगीघर आ गया। चुंगी लेने वाले ने उस वणिक् से चुंगी चुकाने के लिए कहा। वणिक् ने पूछा--कितना देना होगा ? शुल्कग्राही बोला—माल का बीसवां भाग। वणिक् ने सोचा-शकटों से माल को उतारना, तोलना और पुनः शकटों में भरने का झंझट होगा। अतः वह एक शकट चुंगी में देकर आगे चल पड़ा। वह पूरे भांड का बीसवां हिस्सा था क्योंकि उसके पास बीस शकट थे।
(गा. ४५४, ४५५ टी. प. ६५) २४. वणिक् की मूर्खता
___ एक मूर्ख वणिक् था। वह बीस शकटों को एक ही प्रकार की वस्तुओं से भरकर व्यापारार्थ चला। रास्ते में चुंगीघर वाले ने कहा-चुंगी के रूप में तुम्हें माल का बीसवां भाग देना पड़ेगा। एक शकट देकर चले जाओ। न सभी शकटों का माल उतारना-चढ़ाना पड़ेगा और न कोई झंझट होगा। उस मूर्ख वणिक ने कहा-नहीं, प्रत्येक शकट में से बीसवां हिस्सा ले लो। चुंगिक ने सारे शकट खाली करवाये। एक-एक शकट से बीसवां हिस्सा लिया। अब उस मूर्ख वणिक् को शकटों को पुनः माल से भरने का झंझट उठाना पड़ा। वह अपने कृत्य पर पछताने लगा। (गा. ४५४, ४५५ टी. प. ६५) २५. दोहरा लाभ
___ एक सेवक था। वह राजा के पास रहता था। राजा उसे आजीविका के लिए कुछ भी नहीं देता था। एक बार सेवक ने राजा को संतुष्ट किया। राजा प्रसन्न होकर उस दिन से उस सेवक को प्रतिदिन एक स्वर्ण माषक देने लगा। उसे वस्त्र-युगल भी दिया। इस प्रकार सेवक को दो लाभ हुए-स्वर्णं माषक की प्राप्ति तथा वस्त्र-युगल । (गा. ४८१ टी. प.३) २६. दंतमय प्रासाद का निर्माण
दंतपुर नगर में दंतवक्त्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था सत्यवती। एक बार उसे दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं संपूर्ण दंतमय प्रासाद में क्रीडा करूं। उसने अपना दोहद राजा को बताया। राजा ने अमात्य को दंतमय प्रासाद बनाने की आज्ञा दी और उसे शीघ्र ही संपन्न करने के लिए कहा। अमात्य ने नगर में घोषणा कराई—जो कोई दूसरों से दांत खरीदेगा अथवा अपने घर में एकत्रित दांत नहीं देगा, उसे शूली की सजा भुगतनी होगी।
उस नगर में धनमित्र नाम का सार्थवाह रहता था। उसके दो पत्नियां थीं। एक का नाम था-धनश्री और दूसरी का नाम था—पद्मश्री। एक बार दोनों में कलह उत्पन्न हुआ, पद्मश्री ने धनश्री से कहा—तू क्या घमंड करती है। क्या तूने महारानी सत्यवती की भांति अपने लिए दन्तमय प्रासाद बनवा लिया है ? यह बात धनश्री को चुभ गई। उसने हठ पकड़ लिया कि यदि मेरे लिए दंतमय प्रासाद नहीं होता है तो मेरा जीवन व्यर्थ है। अब उसने अपने पति धनमित्र से आलाप-संलाप करना बंद कर दिया। धनमित्र ने अपने मित्र दृढ़मित्र से सारी बात कही। दृढ़मित्र बोला- मैं शीघ्र ही उसकी इच्छा पूरी कर दूंगा। तब दृढ़मित्र वनचरों से मिलने वन में गया। साथ में कुछ उपहार भी लिये। वनचरों ने पूछा-आपके लिए हम क्या लाएं ? क्या भेंट करें ? दृढ़मित्र बोला—मुझे दांत ला दो। वनचरों ने दांतों को अनेक घास के पूलों में छिपाकर उनसे एक शकट भर दिया। दृढ़मित्र तथा वनचर उस शकट को लेकर चले। नगर द्वार में प्रवेश करते ही एक बैल ने शकट से घास का पूला खींच लिया। उसमें छुपाए दांत नीचे आ गिरे। 'यह चोर है'—ऐसा सोचकर राजपुरुषों ने वनचर को पकड़ लिया और पूछा-ये दांत किसके अधिकार में हैं ? वनचर ने कुछ भी नहीं बताया। वह मौन रहा। इतने में ही दृढ़मित्र वहां आकर बोला---ये दांत मेरे अधिकार में हैं। यह मेरा कर्मकर है। राजपुरुषों ने वनचर को छोड़ दिया और दृढ़मित्र को पकड़कर राजा के पास ले गए। राजा ने पूछा- 'ये दांत किसके हैं? दृढ़मित्र बोला-मेरे। इतने में ही, मेरे मित्र दृढ़मित्र को राजपुरुषों ने पकड़ लिया है यह सुनकर, धनमित्र वहां आ पहुंचा। उसने राजा से कहा-ये दांत मेरे अधिकार में है। आप मुझे दंड दें, मेरे शरीर का निग्रह करें। दृढ़मित्र बोला—मैं इस व्यक्ति को नहीं जानता। ये दांत मेरे हैं, मेरा निग्रह करें। इसे मुक्त कर दें। इस प्रकार वे दोनों अपने आपको दोषी
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परिशिष्ट
ठहराने लगे। तब राजा ने कहा-तुम दोनों निरपराधी हो। मुझे यथार्थ बात बताओ। उन्होंने दांतों की पूरी बात बताई। राजा बहुत संतुष्ट हुआ और दोनों को मुक्त कर दिया।
(गा. ५१७ टी.प. १७) २७. छोटी त्रुटि की उपेक्षा
एक खेत में किसान सारणि से पानी दे रहा था। सारणि के बीच लकड़ी का एक छोटा टुकड़ा फंस गया। किसान ने उसकी परवाह नहीं की। इसी प्रकार अनेक लकड़ियां फंस गईं। उनको न निकालने के कारण प्रभूत कीचड़ हो गया। पानी का आगे बहना बंद हो गया और खेत पानी के अभाव में सूख गया।
(गा. ५५५ टी. प.३२) २८. मीठे वचन
एक व्याध मांस लेकर यह सोचकर चला कि सारा मांस स्वामी को नहीं देना है। वह स्वामी के पास पहुंचा। स्वामी ने उसका आदर-सत्कार किया, अच्छे शब्दों से उसे संबोधित किया। व्याध ने प्रसन्न होकर सारा मांस दे दिया।
(गा. ५८० टी. प. ४०) २६. डांट-फटकार
___ एक व्याध मांस लेकर, यह सोचकर चला कि मुझे सारा मांस स्वामी को देना है। वह उस मांस को छुपाकर ले गया। स्वामी के पास गया। स्वामी ने उसे डांटा-फटकारा। उसने रुष्ट होकर सारा मांस स्वामी को नहीं दिया।
(गा. ५८०, ५८१ टी. प. ४०) ३०. पशु भी प्रेम के भूखे ___ एक गाय जंगल में चरकर घर आई। आते ही गृहस्वामी ने उसे पुचकारा और घर में प्रवेश करते समय उसका नामोल्लेखपूर्वक मधुर वाणी में आह्वान किया। प्रसन्नतापूर्वक उसकी पीठ पर हाथ फेरा, धूप जलाकर आलिंगन किया, उसे एक खूटे से बांधकर आगे भूसा आदि खाद्य रख दिया। गाय ने सारे दूध का क्षरण कर दिया। स्वामी को पूरा दूध मिल गया।
(गा. ५८०, ५८१ टी. प. ४०) ३१. दूध को छुपा लिया
गाय जंगल में चरकर घर आई। स्वामी ने उसको कोई आदर-सम्मान नहीं दिया। उसको (देर से आने के कारण) बांस की लकड़ी से पीटा। गाय ने सारे दूध का क्षरण नहीं किया। दूध को छुपा दिया।
(गा. ५८०, ५८१ टी. प. ४०) ३२. भिक्षुणी का हृदय-परिवर्तन
एक भिक्षुणी अपने पूर्व परिचित किसी गृहस्थ के घर गई। उसने एकान्त में पड़े भाजन-विशेष को देखा और उसे लेकर अपने स्थान पर चली गई। फिर उसका भाव बदला और उसने सोचा, मैं भाजन गृहस्वामी को लौटा दूं। वह भाजन लेकर चली। गृहस्वामी ने उसका आदर-सम्मान किया। भिक्षुणी ने प्रसन्न होकर वह भाजन लौटा दिया।
_ (गा. ५८१ टी. प. ४०, ४१) ३३. कटु व्यवहार का प्रभाव
एक भिक्षुणी अपने पूर्व परिचित किसी गृहस्थ के घर गई और एकान्त में पड़े भाजन को लेकर अपने स्थान पर लौट आई। वह भाजन को लौटाना चाहती थी। गृहस्वामी के घर गई। स्वामी ने उसका आदर-सत्कार नहीं किया, उसे
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परिशिष्ट-८
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डांट-फटकारा । भिक्षुणी ने भाजन नहीं लौटाया ।
३४. राजा और नापित
एक राजा था। वह खल्वाट था। उसके दाढ़ी-मूंछ भी नहीं थी । उसके पास एक नाई था। राजा के बाल नहीं हैं, यह सोचकर वह कभी हजामत के लिए उपक्रम नहीं करता। राजा ने उसे निकाल दिया ।
(गा. ५८१ टी. प. ४०, ४१ )
एक दूसरा नाई सात दिनों में एक बार आता और राजा के हजामत करने का नाटक करता। राजा उससे संतुष्ट था । (गा. ५८६ टी. प. ४२ )
३५. योनिप्राभृत की वाचना
एक आचार्य 'योनिप्राभृत' की वाचना दे रहे थे। एक उत्प्रवजित साधु ने छुपकर उनकी वाचना सुन ली । आचार्य अपने शिष्यों को बता रहे थे कि अमुक-अमुक द्रव्यों के संयोजन से भैंसे उत्पन्न किए जा सकते हैं। यह सुनकर वह उठप्रव्रजित मुनि अपने स्थान पर गया और आचार्य द्वारा निर्दिष्ट द्रव्यों का संयोजन कर अनेक भैंसे बनाए। उसने उन भैंसों को एक गृहस्थ के द्वारा बिकवा दिया। आचार्य को यह बात जैसे-तैसे ज्ञात हो गई । वे उससे मिले। उसने सारा सत्य उगल दिया । आचार्य ने तब उसको कहा - यदि अमुक-अमुक द्रव्यों का विषम मात्रा में संयोजन किया जाए तो प्रचुर स्वर्ण और रत्न उत्पन्न हो सकते हैं। उसने वैसा ही किया। उन द्रव्यों का संयोजन होते ही एक दृष्टिविष सर्प पैदा हुआ और उसने तत्काल उस व्यक्ति को डस लिया । वह व्यक्ति मर गया । (गा. ६४६ टी. प. ५८ )
३६. कांटे से मरण
एक व्याध खुले पैर वन में गया। उसके पैर कांटों से बिंध गए। उसने न स्वयं उन कांटों को निकाला और न अपनी भार्या से उन्हें निकलवाया। एक बार वह वैसे ही वन में गया। हाथी ने उसे देखा और वह उसके पीछे दौड़ा। भयभीत होकर व्याध दौड़ने लगा । परन्तु जो कांटे पैरों में पहले चुभे हुए थे, वे दौड़ने के कारण और अधिक गहरे मांस तक पहुंच गए। वह अत्यंत पीड़ित होकर छिन्नमूल वृक्ष की भांति जमीन पर गिर पड़ा, बेहोश हो गया। पीछे से हाथी आया और उसे रौंदकर मार डाला । (गा. ६६२, ६६३ टी. प. ६२, ६३ )
३७. शल्योद्धरण से बचाव
एक व्याध, जूते पहने बिना ही, वन में गया। वहाँ उसके पैरों में अनेक कांटे चुभे । वह उनको निकालने लगा । अनेक कांटे निकल गए पर कुछेक कांटों को वह निकाल नहीं सका। वह घर गया। अपनी पत्नी से सारे कांटे निकलवाकर पूरे पैर पर अंगुष्ठ आदि से मर्दन करवाया। फिर जहां-जहां कांटे चुभे थे वहां-वहां दंतमल अथवा कानों कि मिट्टी से उन छेदों को भर दिया। वह स्वस्थ हो गया। एक बार वह पुनः वन प्रदेश में गया। एक जंगली हाथी ने उसे देखा । वह व्याध हाथी के भय से भागा और सुरक्षित घर आ गया । (गा. ६६२, ६६३ टी. प. ६३)
३८. अंतःपुर का प्रमादी रक्षक
एक राजा ने कन्याओं के अंतःपुर की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को रखा। वे राजकन्याएं गवाक्ष से इधर-उधर देखती थीं। वह रक्षक उनका वर्णन नहीं करता था। धीरे-धीरे वे कन्याएं अग्रद्वार से बाहर जाने-आने लगीं। तब भी वह उनको निषेध नहीं करता था । इस प्रकार वर्जित न करने के कारण कुछेक कन्याएं किसी धूर्त के साथ भाग गईं। यह बात किसी ने राजा के कानों तक पहुंचाई। राजा ने उस रक्षक का सर्वस्व हरण कर उसे मार डाला और अंतःपुर के लिए दूसरा रक्षक नियुक्त कर दिया । (गा. ६६७, ६६८ टी. प. ६३, ६४ )
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परिशिष्ट
३६. जागरूक संरक्षक ___अंतःपुर के एक दूसरे संरक्षक ने एक बार देखा कि एक राजकुमारी गवाक्ष में बैठी देख रही है। उसने उसको अपने पास बुलाकर विनयपूर्वक शिक्षा देते हुए गवाक्ष में न बैठने के लिए कहा। शेष कन्याओं को भी निषेध कर दिया। सब में भय व्याप्त हो गया। उस दिन के पश्चात् किसी भी कन्या ने गवाक्ष में आने का साहस नहीं किया। धूर्तों के द्वारा कन्याओं के अपहरण का भय नहीं रहा। राजा ने यह कहकर अंतःपुर पालक का सम्मान किया कि उसने अन्तःपुर का सम्यक् संरक्षण किया है।
(गा. ६६७, ६६८ टी. प. ६४) ४०. नंदवंश का समग्र उच्छेद
चाणक्य ने नंद राजा को राज्यच्युत कर चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक किया और नंद के सामन्तों को तिरस्कृत कर पदच्युत कर दिया। वे सभी सामंत अपनी आजीविका में बाधा उपस्थित जानकर चंद्रगुप्त के आरक्षकों से सांठ-गांठ कर नगर में सेंध आदि लगाकर चोरी करने लगे। चाणक्य को नगर में होनेवाली चोरी की वारदातें ज्ञात हुईं। उसने दूसरे आरक्षकों की नियुक्ति कर दी। वे सामंत इनसे भी सांठ-गांठ कर पूर्ववत् चोरी करने लगे। चाणक्य ने सोचा, ऐसा कौन आरक्षक मिलेगा जो इन चोरों के साथ न मिलकर सभी चोरों को पकड़वा सके। अब चाणक्य प्रतिदिन परिव्राजक का वेश बनाकर नगर के बाहर घूमने लगा। एक दिन उसने देखा, तंतुवायशाला में नलदाम नामक तंतुवाय बैठा है। उस समय उसका पुत्र खेल रहा था। एक मकोड़े ने उसे काट खाया। वह रोता हुआ अपने पिता के पास आकर बोला- पिताजी ! मकोड़े ने मुझे काट खाया। नलदाम बोला—मुझे वह स्थान बता, जहाँ मकोड़े ने काटा है ? बालक ने वह स्थान बताया। नलदाम मकोड़े के बिल के पास गया और जो मकोड़े बिल से बाहर निकले हुए थे, उन सबको उसने मार डाला। फिर उसने बिल को खोदा
और उसमें जो मकोड़े तथा उनके अंडे थे, उन पर घास डालकर जला डाला। चाणक्य ने यह सब देखकर पूछा-तुमने बिल को खोदकर अंदर आग क्यों लगाई ? नलदाम बोला-'अंडों से मकोड़े पैदा होकर कभी और भी काट सकते हैं।' चाणक्य ने सोचा, यदि इसे कोतवाल के रूप में नियुक्त किया जाए तो यह मकोड़ों के समूल नाश की भांति चोरों का समूल नाश कर पाएगा। चाणक्य ने उसे कोतवाल के रूप में नियुक्त कर दिया। नंद के पक्ष वाले चोरों को यह ज्ञात हुआ। वे नलदाम के पास आए और बोले-हम तुम्हें चोरी के धन का बहुत बड़ा भाग देंगे। तुम हमारी रक्षा करना। नलदाम ने
-ठीक है। अब तम सभी चोरों को विश्वास दिलाकर मेरे पास ले आओ। एक दिन सभी चोर नलदाम के पास एकत्रित हुए। नलदाम ने उनका सत्कार-सम्मान किया और दूसरे दिन सभी चोरों के लिए विशाल भोज की तैयारी की। सभी चोर अपने-अपने पुत्रों को साथ ले वहां पहुंचे। नलदाम ने तब अवसर देखकर सभी चोरों तथा उनके पुत्रों का शिरच्छेद करवा डाला।
(गा. ७१६ टी. प. ७७) ४१. सहस्रयोधी योद्धा की परीक्षा
अवंती जनपद में महाराज प्रद्योत राज्य करते थे। उनके मंत्री का नाम था-खंडकर्ण। एक बार एक योद्धा राजा के समक्ष आकर बोला-राजन् ! मैं सहस्रयोधी हूँ, हजारों योद्धाओं को युद्ध में जीत सकता हूँ। आप मुझे अपनी सेवा में रखें। राजा ने स्वीकृति दे दी। वह बोला – राजन् ! आप जो हजार योद्धाओं को मासिक देते हैं, उतनी राशि मुझे देनी होगी। तब मंत्री खंडकर्ण ने सोचा, मुझे इसकी शक्ति की परीक्षा करनी चाहिए। यदि यह वास्तव में ही सहस्रयोधी होगा तो इसे सहस्रयोधी की सारी सुविधाएं देनी चाहिए।
- एक दिन मंत्री ने उसे एक बकरा और मद्य का घड़ा देकर कहा-आज कृष्णा चतुर्दशी है। आज रात को महाकाल नामक श्मशान में जाकर इसे खाना है। वह सहस्रयोधी महाकाल श्मशान में गया, बकरे को मारा और उसके मांस को पकाकर खाने लगा और मदिरा पीने लगा। उस समय ताल-पिशाच वहां आया और मांस के लिए अपना हाथ फैलाकर
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परिशिष्ट
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बोला- मुझे भी दो। तब वह सहस्रयोधी भयभीत न होता हुआ पिशाच को भी देने लगा और स्वयं भी खाने लगा। राजा ने वृत्तांत को जानने के लिए गांव के बाहर रहने वाले पुरुषों तथा प्रतिचारकों को भेजा। उन्होंने श्मशान में जो देखा, वह यथावत् राजा को और मंत्री को बता दिया। मंत्री ने सोचा, यह वास्तव में ही सहस्रयोधी है। उसे राज्य में रख लिया।
एक दूसरा योद्धा भी अपने आपको सहस्रयोधी बताता हुआ राजा के पास आया और स्वयं को वृत्ति देने की प्रार्थना की। राजा ने उसी प्रकार उसकी परीक्षा की। वह श्मशान में गया। ज्योंहि तालपिशाच उसके सामने आया वह भयभीत होकर वहां से भाग गया। लोगों ने राजा को और मंत्री को सारी बात कही। राजा ने उसे सहस्रयोधी मानने से इंकार कर दिया।
(गा. ७८४ टी. प. ६३)
४२. आंखों का प्रत्यारोपण
एक तपस्वी मुनि एकल विहार-प्रतिमा की साधना कर रहा था। वह प्रतिमा में स्थित होकर सूत्र और अर्थ का परावर्तन करता था। एक दूसरा मुनि अल्पश्रुत था। उसने आचार्य से कहा, मैं भी एकल विहार-प्रतिमा की साधना करना चाहता हूँ। आचार्य बोले, तुम अभी श्रुत से अपर्याप्त हो, अतः इस प्रतिमा की साधना करने के योग्य नहीं हो। आचार्य ने बार-बार उसे समझाया और निषेध किया। वह शिष्य निषेध को न मानकर, उस क्षपक के पास ही प्रतिमा में रि ने सोचा, यह आज्ञा के विपरीत चल रहा है। देवता ने आधी रात के समय भी उसे प्रभात का आभास करा दिया। प्रतिमा को संपन्न कर उस तपस्वी मुनि से बोला—प्रभात हो गया है। प्रतिमा को संपन्न करो। तब देवता ने उसके एक चपेटा मारा। उसकी दोनों आंखें बाहर आ गिरी। तब उस तपस्वी अनगार ने अनुकंपा के वशीभूत होकर सघन कायोत्सर्ग किया। देवता आया। पूछा-तपस्वी ! बोलो, मैं तुम्हारे लिए क्या करूं? तपस्वी ने कहा—'तुमने इस मुनि को क्यों कष्ट दिया? अब इसकी आंखें पूर्ववत् करो।' देवता बोला, इसकी आंखें अब आत्म-प्रदेशों से शून्य हो गई हैं। तपस्वी बोला, कुछ भी करो। देवता ने तब तत्काल मारे गए एडक की आंखें, जो आत्म-प्रदेशों से युक्त थीं, लाकर उस मुनि के लगा दी।
(गा. ७६५, ७६६ टी. प. ६६) ४३. अपना-अपना काम
एक राजा ने दूसरे राजा के नगर पर आक्रमण कर दिया। उस समय राजा नगर के भीतर अंतःपुर में था। पटरानी ने राजा से कहा-मैं युद्ध लडूंगी। राजा ने वर्जना की। रानी नहीं मानी। वह राजा का वेश पहन सेना के साथ युद्ध करने निकली और शत्रुसेना से लड़ने लगी। वह सैनिक वेश में थी, इसलिए उसे पहचान पाना कठिन था, परंतु शत्रु राजा ने जान लिया कि यह महिला है। चांडालों को भेजकर उसे पकड़वा दिया। उसकी दुर्दशा कर उसे मार डाला।
(गा. ८१२ टी. प. १०१) ४४. देवता और साधु
एक मुनि प्रतिमा में स्थित था। उसे प्रतिबोध देने के लिए एक सम्यक्दृष्टि देवता ने स्त्री का रूप बनाया। वह अपने साथ अनेक छोटे-छोटे बच्चों को लेकर वहां मुनि के पास बैठ गयी। कुछ समय बाद बच्चे रोने लगे। उन्होंने मां से कहा- 'मां हमें भोजन दो, भूख लगी है।' मां ने कहा-'अभी भोजन बनाकर देती हूं, रोओ मत ।' उसने दो पत्थरों को रख, उनके बीच आग जलाई और उन पत्थरों पर पानी से भरा पिठर रखा। तीसरे पत्थर के बिना संतुलन नहीं रहा और वह पानी का पिठर लुढ़क गया। अग्नि उस पानी से बुझ गई। उसने तीन बार अग्नि जलाई और तीनों बार वह बुझ गई। तब प्रतिमा-स्थित मुनि बोला-क्या तुम इस विधि से अपने इन बच्चों को भोजन बनाकर खिला सकोगी? तब देवरूप उस स्त्री ने कहा-स्वयं को देखो। तुमने इतने अल्पश्रुत का अध्ययन कर यह प्रतिमा क्यों स्वीकार की है ? क्या तुम इसमें सफल हो सकोगे ? जाओ, अपने गच्छ में शीघ्र चले जाओ। अन्यथा तुम किसी प्रान्त देवता से छले जाओगे।
(गा. ८२० टी. प. १०३)
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परिशिष्ट
४५. पिता की संपत्ति के हकदार
एक किसान था। उसके तीन पुत्र थे। तीनों कृषिकर्म करते थे। एक पुत्र कृषिकर्म यथावत् करता था। दूसरा पुत्र वन में जाता और एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमता रहता और तीसरा पुत्र देवमंदिरों में जाता रहता था। कालांतर में उनके पिता की मृत्यु हो गई। अब तीनों ने पिता की संपत्ति को बराबर बांटकर ले ली। इस प्रकार एक पुत्र द्वारा अर्जित संपत्ति तीनों ने बराबर बांट ली।
(गा. ८२६, ८३० टी. प. १०५) ४६. कौन कितना अपराधी ?
एक राजा था। उसके नगर को घेरने के लिए दूसरा राजा, अपनी सैन्य शक्ति के साथ आ रहा था। यह बात सुनकर नगर-स्वामी ने अपने सुभटों को युद्ध करने भेजा। उन सुभटों में से एक सुभट शत्रुसेना के विस्तार को देखते ही भागकर अपने स्थान पर आ गया। दूसरे सुभट ने लंबे समय तक युद्ध किया। उसका शरीर घायल हो गया। फिर वह भी भागकर आ गया। तीसरा सुभट युद्ध में लड़ा, घायल नहीं हुआ, फिर भी दौड़कर आ गया। तीनों सुभटों में पहला सुभट घोर अपराधी है, दूसरा और तीसरा सुभट उससे कम अपराधी है।
(गा. ८२६, ८३० टी. प. १०५) ४७. नारी के परवश
एक राजा था। उसकी रानी और पुरोहित की पत्नी—दोनों सगी बहनें थीं। एक बार राजपली ने कहा-राजा मेरे वश में है। पुरोहित की पत्नी बोली-पुरोहित मेरे वश में है। दोनों ने परीक्षा करने का निश्चय किया। एक बार पुरोहित पत्नी ने राजपली, जो बहिन थी, को भोजन के लिए निमंत्रित किया। रात में पुरोहित-पत्नी ने पुरोहित से कहा- मैंने एक प्रण किया था कि यदि अमुक कार्य संपन्न हो जाएगा तो मैं अपनी भगिनी के साथ तुम्हारे सिर पर थाली रखकर भोजन करूंगी। मेरा वह प्रण पूरा हो गया। अब मैं तुम्हारा अनुग्रह चाहती हूं। पुरोहित बोला-जैसी तुम्हारी इच्छा। मेरा अनुग्रह है। राजपत्नी ने राजा से कहा-आज रात को मैं तुम्हारी पीठ पर सवार होकर पुरोहित के घर जाना चाहती हूं। राजा बोला—मेरे पर अनुग्रह होगा। वह रात में राजा की पीठ पर पलाण रखकर उस पर सवार हुई। वह पुरोहित के घर पहुंचकर, यह मेरा वाहन है, यह सोचकर उसे एक खंभे से बांध दिया। फिर दोनों बहिनों ने पुरोहित के सिर पर थाली रखकर भोजन किया। खंभे से बंधा हुआ राजा अश्व की भांति हिनहिनाने लगा। भोजन कर चुकने पर रानी पुनः राजा की पीठ पर सवार होकर चली गई। राजा ने यह सोचा कि पुरोहित के द्वारा मैं अपमानित और तिरस्कृत हुआ हूं, उसने उसको मुंडित करा दिया। अमात्य को इस वृत्तांत का पता चला। उसने राजा और पुरोहित दोनों को बुरा-भला कहा। .
(गा. ६३२ टी. प. १३०) ४८. अपायों का वर्जन : सुरक्षा का कवच
एक गो-रक्षक नगर की गायों को चराने के लिए ले जाता था। वह जानकार था। खेतों का बचाव करता हुआ वह गायों को ले जाता और लाता था। वह उनको ऐसे स्थान पर चराता जहां चोरों का भय न हो। एक बार दो अन्य व्यक्ति आए और बोले-हम गायों की रक्षा करेंगे। तब नागरिकों ने सोचा, इतनी गायों की रक्षा एक व्यक्ति कर नहीं सकता। इसलिए गायों को बांटकर तीन रक्षकों को दे दी जाए। उन्होंने उन दोनों व्यक्तियों को गो-रक्षक के रूप में रख लिया। उन दोनों में से एक रक्षक पहले गोरक्षक की निश्रा में गायों को ले जाने-लाने लगा। मैं अजान हूं—यह सोचकर वह उसी के मार्ग से आने-जाने लगा। दूसरे गो-रक्षक ने सोचा-मैं दूसरे व्यक्ति की निश्रा में अपनी गाएं क्यों चराऊ जबकि मैं स्वयं स्वतंत्र रूप से चराने में समर्थ हूं। किंतु वह मूर्ख रास्तों से अजान था। वह गोचारी के स्थानों को भी नहीं जानता था। खेतों से संकीर्ण प्रदेशों तथा नगर के प्रवेश और निर्गमन योग्य मार्गों से वह सर्वथा अनभिज्ञ था। वह उन्हीं मार्गों से गायों
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परिशिष्ट
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को ले जाता और ले आता। रास्ते में धान बाए हए अनेक खेत आते थे। मार्ग से आती-जाती गाएं उन बोए हए धान के पौधों को खा लेतीं। गोरक्षक उनका निवारण करता, फिर भी वे इधर-उधर मुंह मारकर खा लेतीं। उस स्थिति में खेतों के स्वामी गायों का निग्रह कर, खेतों में हुई हानि के लिए हर्जाना मांगते। राज्य के अधीनस्थ खेतों की भी हानि होती। राज्य-रक्षक हर्जाना मांगते। वह अज्ञानी गोरक्षक गायों को चराने के लिए जंगल में जाता। वहां भील आदि लोग गायों को मार डालते। वह गायों को पानी पिलाने के लिए नदी आदि पर ले जाता। वहां नदी में विद्यमान जलचर प्राणी गायों को घसीटकर ले जाते। वह सघन जंगल में गाएं ले जाता। वहां हिंस्र पशु गायों को भयभीत करते, मार डालते । वह गायों को निकुंजों में ले जाता। वहां चोर गायों का अपहरण कर ले जाते। इस प्रकार वह अज्ञानी गोरक्षक गायों का विनाश कर देता। जो जानकार था वह स्वयं विपदाओं के सारे स्थानों का वर्जन करता और जो उसकी निश्रा में कार्यरत था उसे भी आपदाओं के स्थानों का वर्जन कराता।
(गा. १००० टी. प. ७, ८) ४६. सांप ने डस लिया
एक व्यक्ति ने नगर में जाने के लिए घर से प्रस्थान किया। दूसरे लोगों ने उसे मनाही करते हुए कहा —तुम इस मार्ग से मत जाओ, रास्ते में सांप है। वह दौड़कर डस लेता है। उसने कहा-मैं भाग जाऊंगा। सर्प मुझे नहीं पकड़ पाएगा। वह उसी मार्ग से चला। सर्प ने उसे देखा और पीछे दौड़ा। वह मनुष्य भी तीव्रता से भागा। भागते-भागते उसके पैर में कांटा चुभा और वह वहीं रुक गया। दौड़ता हुआ सर्प आया, उसे डसा। डसते ही वह मर गया।
(गा.१०२१ टी. प. १३)
५०. हरिण की बुद्धिमत्ता
ग्रीष्म ऋतु । प्यास से आकुल-व्याकुल एक मृग पानी की टोह करने लगा। एक सरोवर के पास उसने देखा कि एक व्याध धनुष-बाण लिये बैठा है। मृग ने सोचा, यदि मैं पानी नहीं पीऊँगा तो शीघ्र ही मर जाऊंगा। पानी पीने के बाद सुखपूर्वक तो मरूंगा और संभव है पानी पीने के बाद शारीरिक शक्ति के संवर्धन से मैं पलायन भी कर जाऊं। यह सोचकर वह मृग दूसरी ओर गया और शीघ्रता से पानी पीने लगा। जब तक कि व्याध उस स्थान तक पहुंचे तब तक मृग लंबी छलांगें भरता हुआ भाग गया।
(गा. १०३८-१०४० टी. प. १८) ५१. योद्धाओं का प्रतिशोध
एक राजा था। वह शत्रु-सेना से अभिभूत हो गया। उसने योद्धाओं को लड़ने के लिए आदेश दिया। वे योद्धा युद्ध करते-करते शत्रु-सैनिकों के प्रहारों से प्रताड़ित होकर पलायन कर गए। वे पलायन कर अपने राजा के पास आए। राजा ने वचन-प्रहारों से उनकी ताड़ना करते हुए कहा—तुम सब मेरे यहां आजीविका कमा रहे हो, फिर प्रहारों से भयभीत होकर क्यों लौट आए ? तब उन योद्धाओं ने सोचा-हम शत्रु-सैनिकों का पराभव करने में समर्थ नहीं हैं। युद्ध करते हुए आयुधों के प्रहारों से भयभीत होकर संग्राम से हम यहां आ गए। यहां भी वचन-बाणों के प्रहार तथा बंधन, मृत्यु आदि का सामना करना पड़ रहा है। हमने अपने आपको युद्ध में क्यों नहीं समाप्त कर दिया ? यह सोचकर खिन्न होते हुए उन्होंने राजा को बांधकर शत्रु-राजा को सौंप दिया, क्योंकि उनके मन में प्रतिशोध जाग गया था। (गा. १०४२, १०४३ टी. प. १६) ५२. प्रोत्साहन का चमत्कार
एक राजा शत्रुसेना से अभिभूत हो गया। उसने अपने योद्धाओं को पुनः युद्ध में भेजा। वे योद्धा शत्रुसेना के प्रहारों से छिन्न-भिन्न होकर अपने राजा के पास आ गये। तब राजा ने उन्हें नामग्राहपूर्वक संबोधित किया। उनके गोत्र, अन्वय तथा पूर्व कार्यों की स्मृति कर उनकी प्रशंसा की। वे योद्धा उस प्रशंसा-सत्कार से प्रहारों से लगे अपने घावों को भूल गए और फिर स्वस्थ होकर प्रबल शत्रसेना पर विजय प्राप्त कर ली।
(गा. १०४२, १०४३ टी.प. १६)
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५३. युक्ति से लाभ
खेतों में शाली बोई गई । खेत के स्वामी ने चारों ओर बाड़ लगा दी, आने-जाने के लिए एक द्वार रखा, एक बार एक सांड उस द्वार से खेत में घुस गया। इतने में ही खेत का स्वामी वहां आ पहुंचा। वृषभ को खेत में देखकर उसने द्वार बंद कर दिया और फिर लकड़ी, बाण आदि से वृषभ को परितप्त करने लगा, प्रहारों से घबराकर वृषभ खेत में इधर-उधर दौड़ने लगा, उसके इस प्रकार दौड़ने से जो शालि के अंकुर रौंदे नहीं गए थे, वे भी सारे रौंद डाले गए और इस प्रकार सारा खेत ही नष्ट हो गया । (गा. १०४५ टी. प. २०)
परिशिष्ट-८
५४. सूझबूझ
एक-दूसरे व्यक्ति के भी शालि का खेत था। वृषभ खेत में घुस गया। स्वामी ने देख लिया। वह खेत की बाड़ के द्वार पर बैठकर शब्द करने लगा। वह वृषभ शब्द से भयभीत होकर द्वार की ओर भागा। तब मालिक ने पत्थर फेंककर प्रहार किया। वृषभ उस द्वार से बाहर निकल गया। उसका खेत वृषभ के पैरों से रौंदा नहीं गया।
(गा. १०४५ टी. प. २०)
५५. विक्षिप्तता का कारण
जितशत्रु राजा ने स्थविरों के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। प्रव्रज्या के अनंतर वह ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा में निपुण हो गया। कालांतर में वह विदेशी नगर पोतनपुर में पहुंचा। वहां पर तीर्थिकों के साथ वाद किया। उनको पराजित कर देने पर जिन - शासन की प्रतिष्ठा हुई। मुनि उसी नगरी में निर्वाण को प्राप्त हो गए।
जितशत्रु राजा का एक छोटा भाई था । वह भी अपना राज्य त्यागकर बड़े भाई की प्रव्रज्या के कुछ वर्षों बाद, प्रव्रजित हो गया। जब उसने सुना कि ज्येष्ठ भ्राता मुनि पोतनपुर में निर्वाण को प्राप्त हो गए हैं, वह विक्षिप्त हो गया । (गा. १०८१, १०८२ टी. प. २८)
५६. अति हर्ष : पागलपन का कारण
गोदावरी नदी-तट पर प्रतिष्ठान नाम का नगर था। वहां शातवाहन नाम का राजा राज्य करता था । उसके मंत्री का नाम था खरडक। एक बार राजा ने अपने दंडनायक को बुलाया और कहा— जाओ, मथुरा नगरी को हस्तगत कर शीघ्र लौट आओ। वह शीघ्रता के कारण और कुछ जानकारी किए बिना ही अपने सैनिकों के साथ चल पड़ा। रास्ते में उसने सोचा, मथुरा नाम के दो नगर हैं। एक है दक्षिण मथुरा और दूसरा है उत्तर मथुरा। किस नगर को हस्तगत करना है ? उस राजा की आज्ञा बहुत कठोर होती थी। उससे पुनः पूछना संभव नहीं था । तब उस दंडनायक ने अपनी सेना को दो भागों में बांट दिया। सैनिकों की एक टुकड़ी दक्षिण मथुरा की ओर गई और दूसरी टुकड़ी उत्तर मथुरा की ओर। दोनों नगरों पर सैनिकों का अधिकार हो गया । तब सैनिकों ने दंडनायक के पास शुभ समाचार प्रेषित किया। दंडनायक स्वयं राजा के पास आकर बोला – देव ! हमने दोनों नगरों पर अधिकार कर लिया है। इतने में ही अंतःपुर से एक दूती ने आकर राजा को वर्धापित करते हुए कहा — राजन् ! पट्टदेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया है। एक अन्य सदस्य ने आकर कहा— देव ! अमुक प्रदेश में विपुल निधियां प्राप्त हुई हैं। इस प्रकार एक के बाद एक शुभ संवादों से राजा का हृदय हर्षातिरेक से आप्लावित हो गया। वह परवश हो गया। उस अति हर्ष को धारण करने में असमर्थ राजा अपनी शय्या को पीटने लगा, खंभों को आहत करने लगा, भींत को तोड़ने लगा तथा अनेक असमंजसपूर्ण प्रलाप करने लगा । तब अमात्य खडक राजा को प्रतिबोधित करने के लिए स्वयं खंभों को, भींत को फोड़ने लगा। राजा ने पूछा- ये सारी चीजें किसने नष्ट की है ? अमात्य बोला – आपने । राजा ने कहा - तुम मेरे समक्ष झूठ बोल रहे हो। ऐसा कहकर कुपित होकर राजा ने अमात्य को पैरों से ताडित किया । अमात्य मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। इतने में ही उसके द्वारा पूर्व निर्दिष्ट पुरुष
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परिशिष्ट-८
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दौड़े-दौड़े वहां आए और अमात्य को उठाकर ले गए। और उसे अज्ञात स्थान पर रख दिया।
एक बार विशेष प्रसंग पर राजा ने अपने व्यक्तियों से पूछा-अमात्य कहां है ? पुरुषों ने कहा -देव ! आपने उसे अविनीत मानकर मरवा डाला है। यह सुनते ही राजा शोक-विह्वल होकर विलाए करने लगा कि अरे ! मैंने अकार्य कर डाला। लोगों ने कुछ नहीं बताया। जब राजा स्वस्थ हुआ तब उन लोगों ने कहा-देव ! हम खोज करते हैं कि जिन चांडालों को आपने अमात्य को मार डालने का आदेश दिया था, कहीं उन्होंने उसे छिपाकर तो नहीं रखा है ? उन लोगों ने कुछ दिन गवेषणा का बहाना करते हुए, एक दिन अमात्य को राजा के समक्ष उपस्थित कर दिया। अमात्य को देखकर राजा संतुष्ट हुआ। अमात्य ने तब सारा वृत्तांत सुनाया। प्रसन्न होकर राजा ने उसे विपुल धन दिया।
(गा. ११२५-११३१ टी. प. ३६) ५७. व्यंतरी का प्रतिशोध
एक श्रेष्ठी था। उसके दो पलियां थीं। एक प्रिय थी, दूसरी अप्रिय । वह दूसरी पत्नी अकाम-मरण से मरकर व्यंतरी बनी। श्रेष्ठी भी स्थविरों के पास धर्म-श्रवण कर प्रव्रजित हो गया। वह व्यंतरी पूर्वभव के वैर के कारण मुनि के छिद्र देखने लगी। एक बार मुनि प्रमत्त थे। व्यंतरी ने उन्हें ठग लिया।
(गा. ११४३ टी. प. ३६) ५८. कामभोगों में आसक्ति
__एक गांव में दो भाई साथ-साथ रहते थे। बड़े भाई की पत्नी छोटे भाई में अनुरक्त थी। वह उससे भोग की प्रार्थना करती। छोटा भाई उससे भोग भोगना नहीं चाहता था। उसने कहा—यदि बड़ा भाई जान लेगा तो जीवित नहीं छोड़ेगा।
तक मेरा पति जीवित रहेगा तब तक यह मेरा देवर मेरा नहीं होगा। अब वह प्रतिदिन पति के छिद्र देखने लगी, अवसर की प्रतीक्षा करने लगी। एक दिन उसने भोजन में विष मिलाकर पति को मार डाला। अब वह अपने देवर से बोली-जिसका भय था वह मर गया। अब तुम मेरी मनोकामना पूरी करो। छोटे भाई ने सोचा निश्चित ही इसी ने मेरे बड़े भाई को मारा है। धिक्कार है ऐसे कामभोगों को ! वह विरक्त होकर प्रव्रजित हो गया। वह दुःख से संतप्त होकर बाल-मरण कर व्यंतरी बनी। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग कर जान लिया कि उसका देवर श्रामण्य में स्थित है। उसने सोचा, इसने मुझे नहीं चाहा था। वह पूर्वभव के वैर का स्मरण करती हुई उस मुनि के पास आई और उसे प्रमत्त देखकर ठग लिया।
(गा. ११४४ टी. प. ४०) ५६. व्यंतरी ने ठगा
एक कौटुंबिक था। वह बलिष्ठ और सुंदर था। एक कर्मकरी उसके प्रति आसक्त हो गई और उसने भोग की प्रार्थना की। कौटुंबिक ने उसे स्वीकार नहीं किया। वह अत्यंत दुःखी होकर, मरकर व्यंतरी बनी। वह कौटुंबिक प्रव्रजित हो गया । एक बार वह श्रामण्य में प्रमत्त हुआ। व्यंतरी ने पूर्वभव के वैर के कारण उसे ठग लिया। (गा. ११४५ टी. प. ४०) ६०. स्त्रियों की विमुक्ति
मथुरा नगरी में एक स्तूप महोत्सव था। उसकी पूजा के निमित्त श्राविकाएं श्रमणियों के साथ बाहर गईं। साथ में राजपुत्र भी साधु के वेश में निकट में ही आतापना के लिए बैठा था। इतने में ही लोगों के अपहर्ता चोर श्राविकाओं और श्रमणियों का अपहरण कर उन्हें ले जाने लगे। वे राजपुत्र की ओर शीघ्रता से आगे बढ़ रहे थे। स्त्रियों ने साधु (राजपुत्र) को देखकर आक्रंदन किया। राजपुत्र ने चोरों के साथ युद्ध कर उन स्त्रियों को छुड़ा दिया। (गा. ११६१ टी. प. ४३) ६१. अपरिग्रही गणिका
एक गणिका थी। उसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं था। वह अपरिग्रही गणिका के नाम से प्रसिद्ध थी। एक बार
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उसने एक राज-सेवक से बातचीत की और उसे वह अपने घर ले आई। वह एक विशेष प्रयोजन से उस राज-सेवक के प्रति अत्यधिक अनुरक्त हुई और उसको प्रसन्न रखने का प्रयत्न करने लगी। राजपुरुष ने गणिका के सौंदर्य की बात राजा से कही। एक बार राजा अपने सैन्यदल के साथ कहीं जा रहा था। उसने गणिका को अत्यंत रूपवती जानकर अपने कटक के साथ ले लिया। इधर वह राज-सेवक अपनी प्रिया गणिका के वियोग से पीड़ित और अत्यधिक दुःखी होकर स्थविरों के पास प्रव्रजित हो गया।
कालांतर में वह गणिका राजा के साथ लौट आई। उसने उस राज-सेवक को नहीं देखा। वह उसकी खोज करने लगी। तब उसने सुना कि वह राज-सेवक स्थविरों के पास दीक्षित हो गया है। वह उन स्थविरों का अता-पता जानकर वहां पहुंच गई। स्थविरों से वह बोली-जो राज-सेवक आपके पास दीक्षित हुआ है, उसने मेरे धन का प्रचुर उपभोग किया है। यदि आप मुझे वह धन दे देते हैं, दिलवा देते हैं, तो मैं इसे आपके पास छोड़ सकती हूं, अन्यथा इसे मैं जबरन अपने साथ ले जाऊंगी।
ऐसी स्थिति में स्थविरों को, तथा उस मुनि को जो करना है, वह इस प्रकार है-- . स्थविर मुनि गुटिका के प्रयोग से उस व्यक्ति का वर्ण बदल दे या स्वरों में परिवर्तन कर दे जिससे कि वह
पहचाना न जा सके। अथवा उसे अन्यत्र कहीं भेज दे । अथवा ऐसी औषधियों का प्रयोग करें जिससे कि उस व्यक्ति को अत्यधिक विरेचन हो और वह ग्लान की भांति परिलक्षित हो। वह कष्ट से जीवन-यापन करता है यह सोचकर, गणिका उसे छोड़ देगी। अथवा वह मुनि स्वयं मृतक की भांति उच्छ्वास-निःश्वास को रोककर, सूक्ष्म श्वास लेते हुए रहे। उसे मृत जानकर गणिका छोड़ देगी। अथवा वह मुनि यदि ध्यान-साधना में प्रवीण हो, तो ध्यानावस्था में बैठकर शरीर और श्वास को निश्चल कर
दें। वह इस प्रकार अडोल रहे, जिससे देखने वाले को मृत-सा प्रतीत हो। • अथवा गणिका के मित्रों, स्वजनों को सारी बात बताए और गणिका पर प्रभाव डालने का प्रयल करे। भाष्यकार ने अन्यान्य प्रयत्न भी उल्लिखित किए हैं।
(गा. ११७५-११७६ टी. प. ४६, ४७) ६२. दासत्व से मुक्ति
मथुरा नगरी में एक वणिक् अपने छोटे पुत्र को अपने मित्र के घर सौंपकर प्रव्रजित हो गया। वह मित्र कालगत हो गया। उस समय दुर्भिक्ष हुआ और मित्र के सभी पुत्र उस बालक की अवज्ञा करने लगे। वह बालक इधर-उधर घूमने लगा। इस प्रकार आवारा घूमते हुए वह एक सेठ के घर दास के रूप में रह गया। विहरण करते-करते उसके मुनि-पिता उसी नगर में आए। उन्होंने अपने पुत्र के विषय में सब कुछ जान लिया। भाष्यकार ने उस पुत्र को दासत्व से मुक्त कराने के अनेक उपाय निर्दिष्ट किए हैं।
(गा. ११८०-११६० टी. प. ४७, ४६) ६३. मिथ्या आरोप
एक तरुणी अनेक स्वजनों के साथ प्रव्रजित हुई। एक बार उसने आचार्य से कामभोग की याचना की। आचार्य ने उसे स्वीकार नहीं किया। तरुणी साध्वी अपने मन में आचार्य के प्रति प्रद्वेषभाव रखने लगी। उसने अपने प्रव्रजित स्वजनों से कहा-आचार्य मुझे बार-बार कष्ट देते हैं। उन स्वजनों के मन में भी आचार्य के प्रति प्रद्वेष जाग गया। वें बोले-ये आचार्य पारांचित प्रायश्चित्त के योग्य हैं। इनको गृहस्थ वेश दे देना चाहिए। आचार्य को यह ज्ञात हुआ। उन्होंने दूसरे गण के गीतार्थ मुनियों को अपना सारा वृत्तांत बताया। उन स्थविरों ने यह जान लिया कि आचार्य पर मिथ्या आरोप आया है। वे उन प्रति गों की भावना को जान गए। समागत आचार्य को क्षेत्र के बाहर रखकर, स्वयं उनकी सार-संभाल
हा।
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के लिए वहीं उनके पास ठहर गए। उन्होंने सोचा, प्रद्विष्ट मुनियों का अभ्याख्यान सफल न हो, इसलिए प्रच्छन्नरूप से समागत आचार्य को उपस्थापना देकर अपने ही गण में रख लिया।
(गा. १२३०, १२३१ टी. प. ५७) ६४. आचार्य को प्रायश्चित्त
एक आचार्य का शिष्य परिवार बहुत बृहद् था। एक बार आचार्य ने प्रतिसेवना की, दोष का आचरण किया। उनको गृहस्थ वेष करने का प्रायश्चित्त आया। वे अन्य गण में प्रायश्चित्त के लिए गए। उस गण के आचार्य ने उन्हें गृहीभूत मानकर उनका पराभव किया। तब उस प्रायश्चित्तार्ह आचार्य के शिष्यों ने अन्य गण के आचार्य से कहा-आप हमारे गुरु को गृहीभूत न करें। यदि हमारे गुरु की इस प्रकार भर्त्सना की जाएगी तो हम सब गण छोड़कर अन्यत्र चले जाएंगे। तब उस गण के आचार्य ने सोचा, इन शिष्यों के मन में प्रव्रज्या के प्रति अविश्वास न हो, यह सोचकर आचार्य को गृहीभूत का प्रायश्चित्त न देकर अन्य प्रकार से उनकी उपस्थापना की।
(गा. १२३२, १२३३ टी. प. ५७) ६५. दो गण : दो आचार्य
दो गण थे। दोनों गणों के साधु अगीतार्थ थे। एक बार दोनों गणों के गुरुओं को उपस्थापनार्ह प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ। उनमें एक को अगृहीभूत उपस्थापनाह प्रायश्चित्त तथा दूसरे को गृहीभूत उपस्थापनार्ह प्रायश्चित्त आया। तब दोनों गणों के मुनियों ने यह विमर्श किया कि एक गुरु दूसरे गण में चले जाएं और दूसरे गुरु उसी गण में रह जाएं। दोनों गणों के अगीतार्थ मुनि अपने-अपने आचार्य को प्रायश्चित्त वहन करते देख, परस्पर कहते-तुम हमारे गुरु को क्या प्रायश्चित्त दोगे ? उनको गृहीभूत करोगे या अगृहीभूत ? तब एक गण वाले स्थविरों ने कहा-जिनको गृहीभूत उपस्थापना प्राप्त है उसको गृहीभूत करेंगे। तब दूसरे गण के स्थविर बोले-तब हम भी तुम्हारे आचार्य को गृहीभूत करेंगे। तब परस्पर विवाद हुआ और यह निर्णय हुआ कि दोनों को अगृहीभूत ही रखना है। तब दोनों आचार्य बोले-हमारा दोष अगृहीभूत रहने से शुद्ध नहीं होगा। इसलिए हमको गृहीभूत ही करना होगा। यद्यपि यह बात एक गण को मान्य नहीं थी, फिर दोनों गणों के सामंजस्य के लिए दोनों आचार्यों को अगृहीभूत उपस्थापना ही दी गई। (गा. १२३४-१२३६ टी. प. ५८) ६६. झूठे आरोप का अनावरण
दो मुनि थे। बड़े मुनि को बड़े होने का गर्व था। वह छोटे मुनि को आचार-विचार में अस्खलित होने पर भी कषायोदय के कारण तर्जना देता रहता था। वह कहता-अरे दुष्ट शिष्य ! यह स्खलना क्यों करता है ? उसको उच्चारण के लिए भी टोकता रहता था। दूसरे साधुओं ने बड़े साधु को ऐसा न करने के लिए प्रेरित किया। परंतु वह कषाय के वशीभूत होकर हाथ भी उठा लेता था। तब उस छोटे मुनि ने सोचा, यह बड़े होने के गर्व से गर्वित होकर मुझे लोगों के समक्ष ताड़ना-तर्जना देता है। अब मैं ऐसा कोई कार्य करूं कि यह मेरे से छोटा हो जाए।
एक बार दोनों भिक्षा के लिए गए। भूख-प्यास से पीड़ित होकर उन्होंने सोचा-अब हम देवकल या वृक्षों के झुरमुट में बैठकर कलेवा कर पानी पीयेंगे। दोनों उस ओर चले। इतने में ही छोटे मुनि ने देखा कि एक परिव्राजिका उसी देवकुल की ओर आ रही है। उस अवसर का लाभ उठाने के लिए उसने बड़े मुनि से कहा—आर्य ! अब आप प्रथमालिका करें और पानी पीएं। मैं संज्ञा से निवृत्त होकर आता हूं। यह कहकर वह शीघ्रता से उपाश्रय में आया और बड़े मुनि पर मैथुन का झूठा आरोप लगाया। रत्नाधिक मुनि से पूछा गया। उन्होंने कहा मेरे पर झूठा आरोप लगाया जा रहा है। आचार्य ने उसके आरोप को सुना। उन्होंने नाना प्रकार से उस घटना की अन्वेषणा की। अंत में आचार्य ने दोनों मुनियों से कहा—आज तुम दोनों इस बस्ती को छोड़कर अन्यत्र चले जाओ। हम इस घटना का निर्णय करने के लिए कायोत्सर्ग कर देवता को पूछेगे कि सत्यवादी कौन है और अलीकवादी कौन है ?
दोनों मुनि अन्यत्र बस्ती में चले गए फिर रात्रि वेला में आचार्य तथा एक वृषभ मुनि कापालिक का वेष कर, वहां गए जहां दोनों मुनि रह रहे थे। दोनों मुनि सो गए। आचार्य तथा वृषभ मुनि भी झूठी नींद में सो गए। दोनों मुनि परस्पर
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बात करने लगे। रत्नाधिक मुनि बोले-अरे ! तुमने मुझ पर झूठा आरोप क्यों लगाया ? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था ? वह छोटा मुनि बोला- आप प्रतिदिन मुझे डांटते रहते थे। मैं सम्यक् क्रिया करता, फिर भी आप कहते-हे दुष्ट शिष्य ! यह क्या करते हो ? मैंने भी फिर क्षुब्ध होकर आप पर झूठा आरोप लगाया। कपट वेश में आए हुए आचार्य ने यह जान लिया कि आरोप झूठा है या सच।
(गा. १२३६-१२४७ टी. प. ५६ से ११)
६७. परस्परता का लाभ
दो ग्वाले सगे भाई थे। दोनों गाएं चराते थे। कालांतर में दोनों में कलह हो गया और वे दोनों अलग-अलग अपने-अपने वेतन पर गाएं चराने लगे। एक बार उनमें से एक भाई व्याधिग्रस्त हो गया। उसने गायों का संरक्षण नहीं किया। वे गायें इधर-उधर भाग गईं। एक बार दूसरा भाई भी बीमार पड़ा और गायों का संरक्षण नहीं हो सका। उसकी गाएं भी तितर-बितर हो गईं। दोनों को बड़ी हानि हुई। दोनों ने सोचा कि एकाकी रहना उचित नहीं है। यह सोचकर दोनों ने परस्पर प्रीति उत्पन्न की और साथ रहने लगे। जब एक भाई किसी प्रयोजन वश गायों को नहीं संभाल पाता तो दूसरा भाई उसकी गायों का संरक्षण करता। इस प्रकार उन्हें लाभ होता गया। (गा. १३३१, १३३२, टी.प.७८, ७६) ६८. शक्तिहीन राजकुमार
एक राजकुमार था। न उसमें बुद्धि-बल था और न सैन्यबल । वह प्रत्यन्त देश में रहकर देश-विप्लव करता था। तब दायाद (पैतृक सम्पत्ति में भागीदार) राजा ने उसे बुद्धि और सैन्यबल से रहित समझकर उसका निग्रह करने के लिए अल्पसंख्यक सैनिकों को भेजा और उसे पकड़कर मौत के घाट उतार दिया।
(गा. १३७८ टी. प.६) ६६. देखादेखी की हानि
एक बार अटवी में दावानल सुलगा। वह चारों ओर से सब कुछ भस्मसात् करता हुआ आगे बढ़ रहा था। तब मृग आदि वन्य-पशु ने दावानल से भयाक्रान्त होकर, पलायन कर, लघु जलाशय से परिवेष्टित सूखे स्थान (वेंट) में प्रविष्ट हो गए। दावानल दहन करता हुआ वहां आ पहुंचा। वहां एक सिंह भी आया हुआ था। भयभीत मृगों ने सोचा कि दावानल वेंट में भी प्रवेश कर जाएगा। तब वे सिंह के पैरों में गिरकर प्रार्थना करने लगे-आप हमारे राजा हैं, मृगराज हैं। आप हमें यहां से उबारें। सिंह बोला--तुम सब मेरी पूंछ को दृढ़ता से पकड़ लो। सभी ने सिंह की पूंछ पकड़ ली। सिंह ने छलांग भरी और सोलह हाथ विस्तीर्ण उस गढ़े के बाहर आ गया। सभी सुरक्षित हो गए। _ कुछ समय पश्चात् उसी वन में पुनः दावानल सुलगा। मृग आदि उसी प्रकार वेंट में प्रविष्ट हुए। वहां एक सियार भी आया जो पूर्व दावानल में सिंह के द्वारा बचाया गया था। उसे सिंह की युक्ति याद आई। उसने सोचा, मैं भी तो सिंह ही हूं। मैं मृग आदि सभी पशुओं को इस दावानल से बचा लूं। उसने मृग आदि पशुओं से कहा—तुम सब मेरी पूंछ को मजबूती से पकड़ लो। सबने सियार की पूंछ पकड़ ली। सियार कूदा। वह उन सभी पशुओं के साथ उस गढ़े में गिरा। सभी मर गये।
(गा. १३८० टी. प.६)
७०. चन्द्रमा का उद्धार
जेठ का महीना। भयंकर गर्मी। प्यास से व्याकुल कुछ सियार आधी रात के समय एक कुएं पर आए। कुएं की मेढ पर बैठकर वे कुएं के भीतर देखने लगे। उन्होंने ज्योत्सना के प्रकाश में कुएं के पानी में चन्द्रबिम्ब को देखा। उन्होंने सोचा, बेचारा चन्द्रमा कुएं में गिर गया है। वहां एक सिंह आया। तब सियारों ने सिंह से प्रार्थना की--तुम मृगाधिपति हो और वह ग्रहाधिपति चन्द्रमा है। यह कुएं में गिर गया है। इसी के पुण्य प्रताप से हमारी रातें दिन के समान हो जाती हैं और हम सब सुखपूर्वक इधर-उधर विहरण कर सकते हैं। इसलिए तुमको चाहिए कि तुम ग्रहाधिपति को कुएं से निकालो। सिंह बोला--तुम सब पंक्तिबद्ध होकर एक-दूसरे की पूंछ पकड़ कर मेरी पूंछ पकड़ लो और कुएं में उतरो। अंतिम सियार चन्द्रमा
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को पकड़ लेगा। तब मैं उछलकर सभी का निस्तरण कर दूंगा। तब सभी सियार पंक्तिबद्ध होकर सिंह की पूंछ पकड़कर कुएं के बीच उतरे। सिंह ने उछलकर सभी सियारों को कुएं से बाहर निकाल दिया। सभी सियारों ने ऊपर देखा। गगन में चन्द्रमा को देखकर वे प्रसन्न हुए। कुएं में देखा तो पानी के विलोडन के कारण चन्द्रबिम्ब न दिखने पर उन्होंने सोचा कि 'हमने चन्द्रमा का उद्धार कर दिया है।
___कुछ समय पश्चात् ऐसी ही घटना दुबारा घटी। उन सियारों में से एक सियार वहां कूप पर था। उसने सोचा, मैं भी सिंह की भांति चांद का उद्धार करूं। उसने अन्य सियारों से कहा--सभी मेरी पूंछ को पंक्तिबद्ध होकर पकड़ लें और कुएं में उतर जाएं। सभी सियार पूंछ पकड़कर कुएं में उतर गए। सियार ने सबके निस्तरण के लिए छलांग लगाई। वह असमर्थ था। सभी कुएं में गिरकर मर गये ।
(गा. १३८२ टी. प.७) ७१. नीलवर्णी सियार
___एक सियार रात में एक घर में घुसा। घरवालों ने उसे देख लिया। वे उसे बाहर निकालने लगे। उसे देख कुत्ते भौंकने लगे। वह भयभीत होकर इधर-उधर भागते हुए एक नीले रंग के कुंड में गिर पड़ा। ज्यों-त्यों उससे वह बाहर निकला। नीले रंग के कारण वह नीलवर्ण वाला हो गया था। उसको देखकर हाथी, शरभ, तरक्ष तथा अन्य सियार आदि पशुओं ने पूछा-तुम इस वर्ण वाले कौन हो ? उसने कहा—सभी वन्य पशुओं ने मुझे 'खसद्रुम' नाम से मृगराज बना दिया है। इसलिए मैं यहां आकर देखता हूं कि मुझे कौन प्रणाम नहीं करता है ? उन पशुओं ने सोचा, इसका वर्ण अपूर्व है, निश्चित ही यह देवता द्वारा अनुगृहीत है। वे बोले-देव ! हम सब आपके किंकर हैं। आप आज्ञा दें। हम आपके लिए क्या करें ? खसद्रुम बोला-मुझे हाथी की सवारी उपलब्ध कराओ।' उन्होंने आज्ञा का पालन किया। अब वह खसद्रुम हाथी पर चढ़कर घूमने लगा। एक बार उसे एक सियार मिला। वह आकाश की ओर मुंह कर 'हूं हूं' करने लगा। खसद्रुम भी अपने सियार स्वभाव के कारण उसी प्रकार आकाश की ओर मुंह करके 'हूं हूं' की आवाज करने लगा। तब हाथी, जिस पर वह चढ़ा हुआ था, ने जान लिया कि यह भी सियार ही है, उसने सूंड से उस खसद्रुम को धरती पर पटक कर मार डाला।
(गा. १३८३ टी.प.७) ७२. शशक ने सिंह को मार डाला
एक सिंह था। वह हरिणजाति में आसक्त था। वह प्रतिदिन हरिणों को मारकर खा लेता था। एक बार हरिणों ने सिंह से प्रार्थना की-वनराज ! आप केवल हरिणजाति पर आश्रित हैं। आप प्रसाद करें। सभी मृगजातीय अर्थात् अरण्य पशुओं को प्रतिदिन एक-एक के क्रम से खाइए। सिंह ने सोचा, इनका कहना युक्तियुक्त है। तब सिंह ने सभी मृगजातीय पशुओं को एकत्रित कर कहा -तुम सब यह निर्णय करो कि अपने-अपने कुल के औचित्य से, अपने-अपने क्रम के अनुसार प्रतिदिन एक पशु मेरे स्थान पर आ जाए। मुझे कहीं जाना न पड़े। उन पशुओं ने सिंह की शर्त स्वीकार कर ली। अब वन्य पशु बारी-बारी से सिंह के पास जाने लगे। एक बार शशक जाति की बारी आई। सभी शशक एकत्रित हुए, आपस में मंत्रणा की। पूछा गया-आज सिंह के पास कौन जाएगा ? एक वृद्ध शशक बोला-मैं जाऊंगा। सभी वन्य पशुओं के लिए शांति कर दूंगा। वह बूढ़ा शशक वहां से चला। मार्ग में एक कुआँ था। वह मरुप्रदेश के कुओं की भांति बहुत गहरा था। वह शशक वहां बैठ गया और संध्या के समय सिंह के पास पहुंचा। सिंह बोला-अरे ! तुम सायं यहां आए हो? इतना विलंब क्यों ? शशक बोला-प्रभो ! मैं प्रातः ही यहां पहुंच जाता, परन्तु मार्ग में एक सिंह ने मेरा मार्ग रोककर पूछा-कहां जा रहे हो ? मैंने कहा-मृगराज के पास जा रहा हूं। तब वह बोला--मृगराज तो मैं हूं। दूसरा कौन होता है मृगराज ? तब मैंने कहा-यदि मैं अपने मृगराज के पास नहीं जाऊंगा तो वह कुपित होकर शशक जाति का ही उच्छेद कर देगा। इसलिए मैं उसके पास जाता हूँ और सारी बात बताता हूँ। दोनों में जो बलवान् होगा, हम उसकी आज्ञा मानेंगे। तब उस मृगराज ने मुझे कहा--जाओ। अपने मृगराज को कहो कि यदि उसमें शक्ति है तो मेरे सामने आए। तब मृगराज बोला-तुम उस सिंह को मुझे दिखाओ। तब शशक सिंह को साथ ले उस कूप की ओर चला। दूर स्थित होकर शशक
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परिशिष्ट-र
बोला —मृगराज ! वह सिंह इस कुएं में रहता है। यदि तुमको विश्वास न हो तो कुएं की मेंढ पर तुम गर्जन करो, वह भी गर्जन करेगा। सिंह ने गर्जना की। गर्जना की प्रतिध्वनि सुनाई दी। सिंह वहां क्षण भर रुका। पुनः गर्जना नहीं सुनाई दी, तब सिंह ने सोचा-यह सिंह मेरे भय से संत्रस्त हो गया है। न यह गर्जना करता है और न सामने आता है। तो अच्छा है कुएं में उतरकर उसे मार डालूं। वह कुएं में उतरा। सिंह को वहां न देखकर सोचा—वह बेचारा मेरे भय से छुप गया है। तब सिंह ने गर्जना की, जोर से दहाड़ा। कोई प्रत्युत्तर नहीं आया, तब सोचा-वह मेरे साथ लड़ना नहीं चाहता। यह सोचकर सिंह अपनी भरपूर शक्ति से छलांग मार कर कुएं से बाहर आने के प्रयास में कुएं में गिरकर मर गया।
एक सियार घूमता हुआ उसी कुएं पर आया, उसने पानी में झांका। सियार का प्रतिबिम्ब देखकर उसने 'हुंकार' किया। प्रतिध्वनि हुई। उसको सुनकर सियार ने सोचा—मेरे सामने हुंकार करता है! वह तत्काल कुएं में कूद पड़ा। पुनः बाहर छलांग भरने में असमर्थ होने के कारण वह वहीं मर गया।
(गा. १३८५, १३८६ टी.प. ८) ७३. मन के लड्डू ।
एक भिखारी था। एक बार वह गोकुल में गया। वहां ग्वालिन ने उसे दूध पिलाया। कुछ समय पश्चात् उसे वहां दूध से भरा घड़ा मिला। वह उसे लेकर घर गया, अपने पलंग के सिरहाने के पास उसे रखकर बैठ गया। अब वह सोचने लगा-इस दूध का दही जमाऊंगा। उसे बेचकर मुर्गियां खरीदूंगा। वे अंडे देंगी। उन्हें बेचूंगा। मूल धन को ब्याज में दूंगा। जब मेरे पास पर्याप्त धन हो जाएगा तब समानकुल या अन्यकुल की कुलीनकन्या के साथ विवाह करूंगा। वह अपने कुल के मद से मेरे सिरहाने से शय्या पर चढ़ेगी। तब 'तू मेरे सिरहाने से शय्या पर चढ़ती है'-यह कहता हुआ मैं उस पर एड़ी से प्रहार करूंगा। उसने पैर का प्रहार किया। वह प्रहार घड़े पर लगा और वह दूध का घड़ा फूट गया। उसका सपना बिखर गया।
(गा. १३८८ टी.प.६) ७४. अनर्थ चिंतन
एक ग्वाला गायों को चराता था। एक बार उसने सोचा, गायों को चराने के बदले जो धनराशि मिलेगी, मैं उससे नई ब्याई हुई गाय खरीदूंगा। धीरे-धीरे उसका परिवार बढ़ेगा। मेरे पास बड़ा गोवर्ग हो जाएगा। उस गोवर्ग में अनेक बछड़े होंगे। मैं उनके लिए मयरांगचलिका–आभरण विशेष बनवाऊंगा। यह सोचकर उसने अपने पास के धन से अनेक आभूषण बना डाले। सारा धन खर्च हो गया। अब उसके पास कछ नहीं रहा। यह असत कल्पना से घटित अनर्थ है।
(गा १३६०, १३६१ टी.प.१०) ७५. सक्रियता, निष्क्रियता
दो भाई थे। दोनों अलग-अलग हो गए। एक भाई कृषिकर्म करने लगा। वह स्वयं कृषि में तत्पर रहता और अन्यान्य कर्मकरों से भी काम लेता। वह कर्मकरों को उनके श्रम के अनुसार उचित धन देता, भोजन देता। इस प्रकार उसकी कृषि बढ़ी और सभी उसको साधुवाद देने लगे।
दूसरा भाई आलसी था। वह कृषि कार्य में नहीं जुटता था। जो कर्मकर काम करते, वह उनके कार्य का लेखा-जोखा भी नहीं लेता था। न वह उन कर्मकरों के मध्य रहकर काम करता और न उनसे काम करवाता। कर्मकरों को वह समय पर न धनराशि देता, न समय पर भोजन देता। सारे कर्मकर उससे रुष्ट होकर उसकी नौकरी छोड़ चले गए। उसकी कृषि चौपट हो गई और लोग उसकी निन्दा करने लगे।
__(गा. १४०६ टी.प.१४) ७६. वज्रभूति आचार्य
भरुकच्छ नगर में नभवाहन राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम था पद्मावती। उसी नगर में वज्रभूति आचार्य रहते थे। वे महान कवि थे। उनके कोई शिष्य नहीं था। वे साधारण रूपवाले तथा अत्यंत कृशकाय थे। उनका काव्यगान
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परिशिष्ट
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अन्तःपुर में गूंजने लगा। रानी पद्मावती उस काव्यगान से अत्यंत प्रभावित हुई। काव्य ने उसके हृदय को छू लिया। उसने सोचा, जिसका यह काव्य है, मैं उसे कैसे देख सकती हूं ? उसने राजा से प्रार्थना की और वह दासियों से परिवृत होकर, मूल्यवान उपहार लेकर वज्रभूति आचार्य के उपाश्रय की ओर गई। वज्रभूति उस समय दरवाजे पर बैठे थे। रानी को देखकर आचार्य स्वयं का आसन लेकर बाहर आए। रानी ने पूछा-आचार्य वज्रभूति कहां हैं ? बाहर जाते हुए आचार्य ने कहा-वे बाहर गए हैं। दासी ने रानी से कहा -यही आचार्य वज्रभूति हैं। आचार्य को देखकर रानी को विरक्ति हो गई। उसने सोचा-ओह ! 'कसेरू' (एक नदी) तेरा नाम प्रसिद्ध है, परंतु तूं दर्शनीय नहीं है। [कसेरु नदी 'अति प्रसिद्ध है। परंतु उसका पानी पीने योग्य नहीं है।] रानी ने उपहार वहां रखे और कहा-ये उपहार आचार्य को दे देना। इतना कहकर रानी चली गई।
(गा. १४१४, १४१५ टी.प. १४, १५) ७७. लोभ का परिणाम
___एक अंगारदाहक (कोयला बनानेवाला) था। वह अंगारों के योग्य लकड़ियां लाने के लिए नदीकूल पर गया। उस नदी के तट पर एक गट्ठर पानी के प्रवाह में बहता हुआ आया। उसने उसे निकाला। वह गोशीर्ष चंदन का गट्ठर था। वह उसे लेकर वहां बैठ गया। इतने में ही एक वणिक वहां आया। उसने गट्ठर को देखा और जान लिया कि यह चन्दन है। सामान्य लक्कड़ नहीं है। उस वणिक् ने उस अंगारदाहक से कहा-अरे तुम इस काष्ठ का क्या करोगे ? उसने कहा-मैं इसे जलाकर कोयला बनाऊंगा। वणिक् ने सोचा-यदि मैं अभी इससे इस गट्ठर को मांगूंगा तो यह बहुत मूल्य बतायेगा। अच्छा है जब यह इसको जलाने लगेगा तब मैं इसे कम मूल्य में खरीद लूंगा। यह सोचकर वणिक् घर चला गया। और जब वह लौटकर आया तब तक अंगारदाहक ने उस गट्ठर को जला डाला था। वणिक ने आकर पूछा-अरे ! वह गट्ठर कहां है ? उसने कहा—मैंने उसे जला डाला। वणिक् ने उसे बुरा-भला कहा। उसने भी वणिक् की मूर्खता पर खेद प्रकट किया। ___ अंगारदाहक और वणिक् दोनों ऐश्वर्य से चूक गये।
(गा. १४४४-१४४६ टी. प.२०) ७८. पांचों एक साथ प्रव्रजित
एक राजा था। वह अमात्य, पुरोहित, सेनापति और श्रेष्ठी के साथ राज्य का पालन कर रहा था। उन पांचों के एक-एक पुत्र था। राजा का पुत्र राजा बनेगा, अमात्य का पुत्र अमात्य, पुरोहित का पुत्र पुरोहित, सेनापति का पुत्र सेनापति
और सेठ का पत्र सेठ बनेगा, ऐसी सम्भावना की जाती थी। ये पांचों साथ-साथ रहते और क्रीड़ा करते। एक बार राजपुत्र विरक्त हुआ और उसने अपने चारों मित्रों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। सभी स्वाध्याय में रत हुए और पांचों ग्रहण
और आसेवन-शिक्षा में निपुण होकर बहुश्रुत बन गए। वे पांचों ऊंचे कुलों के थे। गण के आचार्य ने उनकी ओर ध्यान दिया और राजपुत्र को आचार्यपद, अमात्यपुत्र को उपाध्याय पद, पुरोहितपुत्र को स्थविर पद तथा श्रेष्ठिपुत्र को गणावच्छेदक पद पर नियुक्त कर दिया। राजा, अमात्य आदि के कोई दूसरे पुत्र नहीं थे। अतः वे आचार्य के पास आकर बोले-हम सभी अपने-अपने पुत्रों को घर ले जाना चाहते हैं, फिर हम सब इनके साथ प्रव्रजित हो जायेंगे। आचार्य ने अनुज्ञा दे
को तब आचार्य ने शिक्षा देते हए कहा-तम सब अपने सम्यक्त्व को दढ रखना और निरंतर अप्रमत्त रहना।
__राजकुमार आदि घर में चले गए। वहां भी वे प्रासुक आहार करते, प्रतिदिन सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करते, लोच करवाते और ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। ___पांचों के माता-पिता ने सोचा कि ये यदि पुनः प्रव्रजित हो जाएंगे तो हमारी कुल-परंपरा का व्यवच्छेद हो जाएगा। उन्होंने पुत्रों को पुत्रोत्पत्ति की प्रेरणा दी। अब वे लक्षणपाठकों को पूछते कि किस महिला के ऋतुकाल में गर्भ रह सकता है। तब लक्षणपाठकों ने बताया कि इस प्रकार की लक्षणयुक्त महिला के ऋतुकाल में निश्चित ही गर्भ रह सकता है। तब
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ऋतुकाल के औचित्य के अनुसार वे अपनी-अपनी महिलाओं के पास एक बार गए और संभोग से बीज-वपन किया। कालावधि के परिपाक होने पर पांचों महिलाओं ने एक-एक पत्र का प्रसव किया। जब वे बालक युवा हए तब अपने-अपने स्थान पर उनकी नियुक्ति कर वे पांचों व्यक्ति प्रव्रजित होने के लिए उद्यत हुए। आचार्य ने उन्हें उचित प्रायश्चित्त देकर प्रव्रजित कर दिया।
(गा. १५४६-१५५२ पत्र ४०, ४१) ७६. व्यस्तता : अपाय-वर्जन का उपाय
एक सेठ था। उसका पुत्र धनार्जन करने परदेश गया। उसकी पत्नी घर पर ही रही। वह निरंतर प्रसाधन में रत रहती। अच्छा भोजन करना, तंबोल चबाना, विलेपन आदि करना इनमें ही प्रवृत्त रहती थी। घर का काम-काज नहीं करती, निठल्ली बैठी रहती। वह उन्मत्त हो गई। उसने अपनी दासी से कहा—किसी पुरुष को ले आओ। दासी ने सेठ से कहा। सेठ ने सोचा, यह कुमार्ग पर न जाए इसलिए उपाय करना चाहिए। सेठ घर गया। उसने सेठानी से कहा- तुम मेरे से कलह कर पीहर चली जाओ। फिर बहू स्वयं घर का काम करेगी, अन्यथा यह कुमार्ग में चली जाएगी। दूसरे दिन सेठ घर आया । सेठानी से भोजन की थाली परोसने के लिए कहा। सेठानी ने भोजन नहीं परोसा । सेठ ने बहुत कलह किया और सेठानी को घर से निकाल दिया। पुत्रवधू कलह का शब्द सुनकर दौड़ी-दौड़ी वहां आई। सेठ ने कहा-वधूरानी ! अब तू ही घर की मालकिन है, सेठानी कौन होती है ? अब आज से तुझे ही सारे घर का कामकाज करना है। पुत्रवधू वैसा ही करने लगी। घर-व्यापार में व्यापत होने के कारण वह भोजन भी समय पर नहीं कर पाती थी। मंडन और प्रसाधन की तो बात ही क्या? दासी ने आकर वधूरानी से कहा- आपने पुरुष लाने के लिए कहा था। वह आया हुआ है। आप कब मिलेंगी? उसने कहा-मरने की भी फुरसत नहीं है तब फिर पुरुष के संगम के लिए कहां अवकाश है? (गा. १६०१ टी.प.५२) ८०. प्रमादी अजापालक
कछेक तीर्थयात्री गंगा की यात्रा पर जा रहे थे। एक अजापालक ने पूछा-कहां जा रहे हैं ? उन्होंने कहा-हम गंगा-यात्रा पर निकले हुए हैं। उसने कहा-मैं भी यात्रा पर चलूंगा। वह बकरियां वहीं छोड़कर उन यात्रियों के साथ चल पड़ा। उन बकरियों को स्वतंत्र रूप से चरते देखकर कुछेक बकरियों को हिंस्र पशुओं ने मार डाला, कुछेक को चोर उठा ले गए और कुछ इधर-उधर चली गईं। वह अजापालक गंगा में स्नान कर लौटा और बकरियों के स्वामियों के पास जाकर बोला—मैं आ गया हूं। आपकी बकरियों को मैं चराता रहा हूं। पुनः वही काम करने का इच्छुक हूं। बकरियों के स्वामियों ने उसको बांधकर कहा -लाओ, हमारी बकरियों का मूल्य । सारी बकरियां नष्ट हो गईं। उसको मूल्य चुकाना पड़ा। उसको अजारक्षक के रूप में पुनः रखने के लिए उन्होंने इन्कार कर दिया।
(गा. १६१२, १६१३ टी. प.५५) ८१. बुद्धिमान् अजापालक
एक अजापालक था। उसने कार्पटिक आदि व्यक्तियों को तीर्थयात्रा में जाते देखा। उसने पूछा -आप सब कहां जा रहे हैं ? हम गंगा की यात्रा करने निकले हैं। उस अजापालक का मन भी गंगायात्रा के लिए उत्सुक हुआ। उसने सारी अजाओं को उन-उन मालिकों को सौंप दिया अथवा अपने स्थान पर दूसरे अजापालक की व्यवस्था कर गंगा-यात्रा पर निकला। वह गंगा-नान कर लौटा और अजास्वामियों ने पुनः उसे अजारक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया।
(गा. १६१२, १६१३ टी. प.५५) ५२. प्रमादी भंडारी
एक सेठ ने अपने भंडार की रक्षा के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया। एक बार उसने तीर्थयात्रियों को देखकर पूछा-आप सब कहां जा रहे हैं ? उन्होंने कहा-हम गंगा की यात्रा पर जा रहे हैं। वह भंडारी भी सेठ को बिना पूछे ही उनके साथ गंगा-यात्रा पर प्रस्थित हो गया। लोगों ने श्रीघर (भंडारगृह) को सूना देखकर लूट लिया। वह भंडारी
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गंगा स्नान कर घर लौटा और सेठ के पास गया। सेठ ने उसे बांधकर श्रीघर में जो हानि हुई थी, उसका मूल्य उससे वसूला और उसे भंडारी के काम से मुक्त कर दिया । (गा. १६१४ टी. प. ५५)
८३. श्रीघर का रक्षक
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एक सेठ ने श्रीघर की रक्षा के लिए एक व्यक्ति की नियुक्ति की। एक बार उसने गंगायात्रा पर निकले एक सार्थवाह को देखा। वह भी गंगा - यात्रा करना चाहता था । उसने श्रीघर के स्वामी को पूछा अथवा अपने स्थान पर एक विश्वस्त व्यक्ति की व्यवस्था कर वह गंगा-यात्रा पर निकल पड़ा। गंगा स्नान कर वह लौटा। सेठ को कुछ भी हानि नहीं हुई । सेठ ने उसे पुनः भंडारी के रूप में रख लिया । (गा. १६१४ टी. प. ५५)
८४. संघ - समवाय और आचार्य
एक आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ एक नगर में रह रहे थे। संघ के मुनियों में सचित्त आदि के प्रसंग में विवाद उत्पन्न हो गया। वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। एक बार उसी नगर में एक बहुश्रुत आचार्य अपने बृहद् शिष्य परिवार के साथ वहां आए। तब नगर वास्तव्य मुनियों ने प्रार्थना की कि आप बहुश्रुत हैं। आप हमारे विवाद का समाधान दें। तब आचार्य ने न्याय विधि से श्रुतोपदेश के आधार पर उनका विवाद समाप्त कर दिया। कुल, गण और संघ ने उसे प्रमाण माना। लोगों ने सोचा, ये आचार्य श्रुत- पारगामी हैं । ये श्रुत से विलग कुछ नहीं कहते, इसलिए इनका कथन प्रमाण है । विवाद की समाप्ति पर लोग आचार्य की आहार आदि के दान से सेवा करने लगे। आचार्य उनके द्वारा दीयमान आहार आदि ग्रहण करने लगे ।
कालान्तर में जब कभी विवाद का प्रसंग आता तब आचार्य एक पक्ष की ओर झुककर विवाद निपटाते । तब जो व्यक्ति उन्हें आहारादि नहीं देते, वे आचार्य के प्रत्यनीक माने जाते। वे आचार्य पर पक्षपात का आरोप लगाते । तब उन लोगों ने सोचा, ऐसा कौन दूसरा गीतार्थ गुरु हो जो पक्षपात से शून्य हो और न्याय से विवाद शान्त करे। इसके लिए उन्होंने संघ समवाय की ओर से घोषणा करवायी कि ऐसे गीतार्थ मुनि की यहां प्रयोजनीयता है। यह घोषणा सुनकर एक अतिथि आचार्य जो सूत्र और अर्थ — दोनों में निपुण थे, वहां आये ।
जैन परम्परा में यह स्थिर तथ्य है कि संघसमवाय का प्रयोजन उपस्थित होने पर धूलिधूसरित पैरों वाला भी जैन मुनि सभी कार्य को गौण कर संघ कार्य के लिए उपस्थित हो जाए। यदि वह प्रमाद करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। उसे कुलसमवाय, गणसमवाय और संघसमवाय के कार्य को प्रधानता देनी होती है। वह अतिथि आचार्य वहां आकर स्थिति का पूरा अध्ययन करे और सूत्र में निर्दिष्ट विधि से कलह का निवारण करे ।
आंगतुक अथिति आचार्य ने विवाद का उचित निपटारा कर दिया ।
(गा. १६५०-६० टी. प. ६२-६४ )
८५. जूते पहने पैर ने मारा है
एक व्यक्ति जूते पहनकर जा रहा था। उसने दूसरे व्यक्ति को पैर से आहत किया । आहत व्यक्ति ने राजदरबार में जाकर शिकायत की। राजपुरुषों ने उसे बुलाया और पूछा- क्या तुमने इस पर प्रहार किया है ? उसने कहा मैंने इस पर प्रहार नहीं किया। मेरे जूते पहने हुए पैर ने प्रहार किया था । (गा. १६६८ टी. प. ६६ )
८६. लाट देशवासी की माया
लाट देश का एक व्यापारी गाड़ी लेकर एक गांव में प्रवेश कर रहा था। बीच में ही महाराष्ट्र का एक व्यापारी मिल गया। उसने लाट देशवासी से पूछा - लाटवासी कैसे मायावी होते हैं ? उसने कहा - बाद में बता दूंगा। दोनों मार्ग में चल रहे थे। जब ठंड कम हुई तब महाराष्ट्रवासी ने अपनी कंबल गाड़ी पर रख दी। लाटवासी ने उस कंबल की फलियां गिन लीं। नगर आ जाने पर महाराष्ट्रिक ने गाड़ी से अपना कंबल लेना चाहा। लाटवासी ने कहा – अरे ! तुम मेरा कंबल क्यों
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ले रहे हो ? कंबल के कारण दोनों में विवाद छिड़ गया। महाराष्ट्रिक ने राजकुल में शिकायत की। लाटवासी को राजकुल में बुलाया। उसने कहा—यदि कंबल महाराष्ट्रिक का है तो उसे पूछा जाए कि इस कंबल की फलियां कितनी हैं ? महाराष्ट्रिक कंबल की फलियां नहीं बता सका। लाटवासी ने संख्या बता दी। महाराष्ट्रिक पराजित हो गया। राजकुल से बाहर आकर लाटवासी ने महाराष्ट्रिक को बुलाकर उसका कंबल सौंप दिया। उसने कहा—मित्र ! तुमने पहले पूछा था कि लाटदेश के मायावी कैसे होते हैं ? अब तुम समझ गये कि वे कैसे होते हैं। __ (गा. १७००, १७०१ टी. प. ६६, ७०) ५७. मूलदेव की अनुशासना
एक राजा था। वह स्वयं के पश्चात् राज्य का क्या होगा, इस चिंता से निरपेक्ष था। उसके राज्य में मूलदेव नाम का चोर था। एक बार आरक्षकों ने उसे चोरी के अपराध में पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने चोर समझकर उसके वध की आज्ञा दे दी। राजा तत्काल अपने निवास स्थान पर आया और सहसा मृत्यु को प्राप्त हो गया। पीछे उसने
न नहीं बनाया था। इसलिए 'राजा मर गया', इस रहस्य को छुपाया गया। इसे केवल दो ही व्यक्ति जानते थे—वैद्य और अमात्य । राजा निःसन्तान था। अतः राजा की खोज में एक अश्व की पूजा कर उसको नगर के तिराहे, चौराहे तथा अन्य चौकों में घुमाया गया। राज्य कर्मचारी इसी चिन्ता में थे कि राजा के लक्षण वाला पुरुष हमे कैसे मिले। वध-स्थान की ओर ले जाया जाता हुआ मूलदेव उसी रास्त्रे से गुजर रहा था। अश्व ने मूलदेव के पास जाकर अपनी पीठ नीची की। उसे लेकर राज्यकर्मचारी वहां आये, जहां मृत राजा का शव एक पर्दे के पीछे रखा हुआ था। उस पर्दे के पीछे वैद्य और अमात्य बैठे हुए थे। उन दोनों ने मृत राजा के हाथ को ऊपर उठाकर हिलाया और बोले-राजा बोल नहीं सकते अतः अपना हाथ हिलाकर यह अनुमति दे रहे हैं कि मूलदेव का राजा के रूप में अभिषेक किया जाए। मूलदेव राजा बन गया।
कुछ सामंत इस घटना को असाधारण मानकर राजा का पराभव करने लगे। वे राजा के योग्य विनय-व्यवहार नहीं करते, तब मूलदेव ने सोचा कि ये मुझे मूर्ख मानकर मेरा पराभव कर रहे हैं। आज तो ये केवल मूर्ख मान रहे है, भविष्य में स्वयं मेरे पर आरोप लगाकर राज्यच्युत भी कर सकते हैं। मुझे इन पर अनुशासन करना चाहिए।
। दूसरे दिन राजा मूलदेव अपने सिर पर तिनकों के तीक्ष्ण अग्रभानों को रखकर सभा-मंडप में आ बैठा। वे सामन्त आए और राजा की मूर्खता की परस्पर कानाफूसी करने लगे। उन्होंने कहा-देखो, यह अभी भी चोरी की आदत नहीं छोड़ रहा है, अन्यथा मुकुट में तृण शूक लगाने वाले ऐसे व्यक्ति का ऐसे सभा-मंडप में क्या काम ! निश्चित ही यह तृणघरों में चोरी करने गया है और वहां तिनके सिर पर लगे हैं। यह बात मूलदेव ने सुन ली। वह अत्यन्त रुष्ट होकर बोला है कोई मेरी चिन्ता करनेवाला, जो इन सामन्तों को दण्डित करे। इतना कहते ही उसके पुण्य-प्रभाव से राज्य देवता से अधिष्ठित, चित्रगत प्रतिहार, जिनके हाथ में तीखी तलवारें थीं, प्रकट हुए और कुछेक सामन्तों के सिर काट डाले। शेष सामन्तों ने राजा के समक्ष आकर प्रणत होकर आज्ञानुसार चलने का वादा किया। (गा. १८६५, १८६६ टी.प.३२)
८८. संरक्षक अच्छा हो
एक वणिक् था। उसके घर में मृत्यु-दायक रोग का प्रसार हुआ। सारे सदस्य उसकी चपेट में आ गए। केवल एक लड़की बची। वह सेठ निर्धन था। वह अपनी पुत्री का विवाह करने में समर्थ नहीं था। वह यात्रा पर प्रस्थित हुआ। उसने सोचा, कन्या स्वभावतः अपना संरक्षण करने में समर्थ है। किंतु इतने बड़े घर में एकाकी कन्या को देखकर लोग इसके शील-आचरण पर अंगुली उठायेंगे। यह सोचकर वणिक् अपने मित्र वणिक् के यहां कन्या को छोड़कर देशान्तर चला गया। उस मित्र वणिक् के घर में भी 'मारि' का प्रकोप हुआ और उसका सारा कुटुम्ब मृत्यु का कवल बन गया। वह वणिक् भी मर गया। उसकी एक कन्या मात्र बची। वह उस वणिक् की पुत्री की सखी थी। वह स्वयं का तथा उस वणिक्-कन्या का संरक्षण करने में समर्थ थी। फिर भी वह अपनी विश्वस्तता के लिए सखी को लेकर राजा के पास गई, चरणों में प्रणाम कर बोली-देव ! आप अपनी कन्याओं की रक्षा, पालन-पोषण करते हैं। उसी प्रकार मेरी और मेरी सखी की भी आपको रक्षा करनी है। हम भी आपकी ही कन्याएं हैं। राजा ने संतुष्ट होकर कहा-ठीक है, ऐसा ही होगा। दोनों कन्याओं को
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अपने अंतःपुर में भेज दिया और अंतःपुर की संरक्षिका महत्तरिका को बुलाकर कहा-जैसे तुम मेरी कन्याओं की रक्षा करती हो उसी प्रकार इन दोनों कन्याओं की भी मृत्युपर्यन्त रक्षा करना। उस महत्तरिका ने विनयावनत होकर कहा—देव ! इनका अत्यधिक ध्यान रखूगी। इतना कहकर वह दोनों कन्याओं को लेकर अंतःपुर में चली गई।
मूलवणिक् पुत्री ने महत्तरिका से कहा—जैसे तुम राजकन्याओं की रक्षा करती हो, वैसे ही मेरी भी रक्षा करना। जैसे मेरी रक्षा करो, वैसे ही मेरी सखी की भी रक्षा करना। महत्तरिका उनका उचित संरक्षण करने लगी। कुछ काल व्यतीत हुआ और वह संरक्षिका महत्तरिका कालगत हो गईं। उसकी मृत्यु के पश्चात् वे कन्याएं दुःशील हो गईं। उनको दुःशील देखकर श्रेष्ठीपुत्री ने राजा से कहा-आप अन्य महत्तरिका को नियुक्त करें। राजा ने दूसरी महत्तरिका की नियुक्ति कर दी। उसने कन्याओं को दुःशील देखकर उपालंभ दिया, उनकी भर्त्सना की।
कुछ समय पश्चात् वणिक् देशाटन कर लौट आया। उसने राजा के पास जाकर प्रार्थना की-देव ! मैं अपनी पुत्री को घर ले जाना चाहता हूं। वणिक की प्रार्थना को स्वीकार कर राजा ने दोनों कन्याओं को ससम्मान घर भेज दिया और कुलीन घरों में उनका विवाह कर दिया। दहेज में विपुल सामग्री दी। (गा. १६०१-१६०८ टी. प. ३३,३४) ८६. चावल के पांच दाने
राजगृह नगर में धन नामक श्रेष्ठी रहता था। उसके चार पुत्रवधुएं थीं। एक दिन उसने सोचा, मेरी कौन-सी पुत्रवधू घर की वृद्धि करेगी। उसने उनकी परीक्षा करने अपने स्वजन वर्ग को निमंत्रित किया। भोज के अनन्तर सेठ ने चारों पुत्रवधू को बुला भेजा और प्रत्येक को पांच-पांच शालिकण देकर कहा, इनको सुरक्षित रखना। जब मैं मांगू तब लौटा देना। पहली पुत्रवधू ने सोचा, इस बूढ़े सेठ को अपने स्वजन वर्ग के समक्ष हमें चावल के पांच-पांच दाने देते लज्जा नहीं आई। यह कुछ नहीं जानता। जब मांगेगा तब चावल के दूसरे पांच दाने ला दूंगी। यह सोचकर उसने पांचों शालिकण फेंक दिये। दूसरी पत्रवधु ने उन्हें खा लिया। तीसरी ने उन शालिकणों को आभूषणों की पेटी में सुरक्षित रख दिया। चौथी ने अपने भाई के खेत में उन शालिकणों का वपन कराया और एक वर्ष में उनकी वृद्धि हो गई।
एक वर्ष बीता। सेठ ने पुनः स्वजनों को भोज के लिए निमंत्रित किया। भोजन कर चुकने पर पुत्रवधुओं को बुलाकर कहा-मेरे पांचों शालिकण मुझे वापस दो। पहली पुत्रवधू ने दूसरे स्थान से पांच शालिकण मंगाकर दे दिए। सेठ ने सबको सुनाते हुए कहा—ये वे ही शालिकण हैं या दूसरे ? उसने कहा-मैंने तो उन्हें उसी समय फेंक दिये थे। ये दूसरे हैं। दूसरी पुत्रवधू से पूछा। उसने कहा—मैंने उनको खा लिया था। तीसरी पुत्रवधू ने शालिकणों को कहा—यह वही शालिकण हैं। मैंने इन्हें आभूषण की पेटिका में सुरक्षित रख छोड़ा था। चौथी पुत्रवधू बोली-सेठ जी, आप शकटों को भेजें। मैं शालिकण मंगवा देती हैं। सेठ ने आश्चर्यचकित होकर इसका कारण पूछा। उसने सारा वृत्तान्त बता दिया। उनके दीर्घपरिमाण की बात कही। सेठ ने तब कहा-इस पुत्रवधू ने पांच शालिकणों का इतना विस्तार कर डाला। यह मेरे घर की मालकिन बनने योग्य है। तीसरी पुत्रवधू को भंडार का काम सौंपा। दूसरी पुत्रवधू जिसने चावल खा डाले थे, उसे रसोई घर का भार सौंपा और चौथी को घर की सफाई का भार दिया। (गा. १६१० टी.प. ३४, ३५) ६०. शक्तिशाली का परीक्षण
एक राजा था। उसके अनेक पुत्र थे। राजा ने सोचा, इनमें से जो शक्तिशाली होगा, उसको राज्य दूंगा। उसने कुमारों की परीक्षा प्रारंभ की। अपने कर्मकरों से कहा-एक स्थान पर दही से भरे घड़ों को रखो। उन्होंने घड़े रखकर राजा को निवेदन कर दिया। अमात्य को बुलाकर कहा- तुम दही के घड़ों के पास बैठ जाओ। फिर राजा ने कुमारों को बुलाकर कहा-जाओ, एक-एक दही से भरा घड़ा ले आओ। कुमार गए। इधर-उधर देखा। घड़ों को वहन कर ले जाने वाला कोई न दीखा, तब वे स्वयं एक-एक घड़ा उठाकर चले। एक कुमार घड़ों के पास गया। सभी ओर देखा, पर घड़ा उठाने वाला एक भी नजर नहीं आया, तब उसने अमात्य से कहा- दही के घड़े को उठाओ। अमात्य उठाना नहीं चाहता था।। कुमार ने म्यान से तलवार निकालते हुए कहा—यदि घड़े को उठाने की इच्छा नहीं है तो मैं अभी तुम्हारा सिरच्छेद कर देता
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हूं। अमात्य डरा और दही का घड़ा उठाकर चला। कुमार उसको लेकर राजा के पास गया। राजा ने सोचा, यह कुमार शक्तिशाली है। उसका राज्याभिषेक कर दिया।
(गा. १६६४ टी. प. ४६) ६१. पुत्र का राज्याभिषेक
एक राजा था। उसका नाम था दंडिक। उसका राज्य चला गया। तब वह अपने पुत्र के साथ एक अन्य राजा के आश्रय में रहने लगा। वह राजा उस पुत्र के प्रति अतीव आकृष्ट हो गया। उसने उसका राज्याभिषेक करना चाहा। क्या उसका पिता उसे अनुमति नहीं देगा ? अवश्य ही वह पिता अपने पुत्र के राजा बनने पर बहुत प्रसन्न होगा।
(गा. २०४६ टी.प.६०) ६२. प्रमाद से हानि
एक अजापालक था। वह अजाओं की रक्षा करता था। उसने वट्टग-गोली आदि खेलने के प्रमाद से सारी अजाओं का नाश कर डाला। उसे भान हुआ। वह दूसरी बार बोला-अब मैं ऐसा प्रमाद नहीं करूंगा। अब उसे यावजीवन वह कार्य नहीं मिल सकेगा।
एक अजारक्षक शूल,ज्वर आदि से ग्रस्त हो गया। अजाएं सारी नष्ट हो गईं। परंतु दुवारा उसे अजारक्षक का भार मिल सकता है। प्रमादी को नहीं।
(गा. २३२३ टी. प. ६) ६३. वैद्य का प्रमाद
___ एक वैद्य था। वह राजा के यहां नियुक्त था। वह द्यूत और विषय-प्रमाद में अनुरक्त था। उसने वैद्य-विद्या का नाश कर डाला। जो वैद्यक शास्त्र तथा कोश आदि प्रच्छन्न थे, गुप्त रखे हुए थे, वे कीड़ों द्वारा काट डाले गए। एक बार राजा को वैद्य की आवश्यकता हुई। उसने वैद्य को बुलाया। वह क्रिया करने में समर्थ नहीं था। राजा ने पूछा-ऐसा क्यों ? उसने कहा-राजन् ! मेरे सारे वैद्यक शास्त्र चोरों ने चुरा लिये। मेरे पास ‘पाडिपुच्छग' -सहायक भी नहीं है। इसलिए मेरे सारे वैद्यक ग्रन्थ नष्ट हो गए। मेरा ऐसा कोई प्रमाद नहीं है कि जिससे वैद्यक शास्त्रों का नाश हो। तब राजा ने राजपुरुषों को भेजा और कहा—यदि इसके शास्त्र नष्ट हो गए हों तो तुम शास्त्रकोश को देखो। वे गए, शास्त्रकोश को लाकर राजा को समर्पित कर दिया। राजा ने देखा कि उसमें सारी पुस्तकें कीड़ों द्वारा काटी हुई हैं। राजा ने तब जान लिया कि वैद्य के द्यत आदि के प्रमाद से सारे वैद्यक ग्रन्थ नष्ट हए हैं। राजा ने उसे निकाल दिया। वह वैद्य अन्यत्र गया और वैद्यक शास्त्रों का पुनः उज्जीवन कर राजा के समीप आया और पुनः नियुक्ति की याचना की। राजा ने मनाही कर दी।
(गा. २३२४ टी. प. ६) ६४. अभ्यास के बिना विद्या को जंग
एक योद्धा अपने गुरु के पास धनुर्वेद सीख रहा था। उसका अभ्यास इतना गहरा हो गया था कि लक्ष्य को देखे बिना ही शब्द के आधार पर उसको बाण से बींध डालता था। राजा ने उसे प्रचूर वेतन पर रख विषय-प्रमाद में फंस गया। इससे उसकी धनुर्वेद विद्या और अभ्यास का अन्त आ गया, सभी नष्ट हो गए। युद्ध का प्रसंग उपस्थित हुआ। रण में वह योद्धा न कुछ बींध सका और न शत्रु सेना को पराजित कर सका। राजा ने पूछा- ऐसा क्यों हुआ ? उसने कहा—मेरा कोई प्रमाद नहीं है। तब राजा ने कहा-यदि प्रमाद न करने पर भी यह शब्दभेदी विद्या से चूक गया है तो इसके तरकश में तीरों को देखो कि वे सारे तीर मूलरूप में हैं अथवा जंग से नष्ट हो गए हैं ? यह भी देखो कि इसका धनुष्य टूटा हुआ है या अखंड है। राजपुरुषों ने देखा। उसके सारे तीर जंगयुक्त थे, धनुष्य भी टूट गया था। राजा ने जान लिया कि यह सारा प्रमाद के कारण हुआ है। उसकी वृत्ति का छेद कर डाला। वह अन्यत्र गया और पुनः धनुर्विद्या का अभ्यास कर लौटा। किंतु राजा ने उसे नियुक्ति नहीं दी।
(गा. २३२५ टी.प. ७)
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६५. प्रमादी माली
___ एक बाड़ी थी, उसमें अनेक प्रकार के फलदायी वृक्ष और शाक-सब्जी आदि उगाई जाती थी। एक माली को वहां रखा। वह विषय प्रमाद और द्यूतप्रमाद में फंस गया। वह वृक्षों की सार-संभाल नहीं करता, न उन्हें पानी पिलाता। उस बाड़ी को लोगों ने तथा गाय आदि पशुओं ने नष्ट कर डाला। वह सूख गयी। उससे कोई फल-साग-सब्जी आदि प्राप्त नहीं होते। बाड़ी के स्वामी ने पूछा-बाड़ी का नाश कैसे हुआ ? उस माली ने कहा-मैं तो इसकी पूरी पालना करता था। मेरा कोई प्रमाद नहीं है। स्वामी ने गवेषणा की और यह ज्ञात किया कि बाड़ी भग्न हो गई है, गाय आदि पशुओं के कारण तथा पानी न सींचने के कारण सूख गई है। बाड़ी के स्वामी ने उस माली को नौकरी से हटा दिया। उसने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि वह भविष्य में कभी प्रमाद नहीं करेगा। परंतु स्वामी ने उसे काम पर रखने से इनकार कर दिया।
(गा. २३२६ टी. प. ७) ६६. स्तूप के लिए विवाद
मथुरा नगरी में एक तपस्वी था। वह आतापना लेता था। उसकी इस कठोर चर्या को देखकर एक देवता उसका सम्मान करते हुए वन्दना कर बोला-भगवन् ! मुझे जो करना है उसके लिए आप आज्ञा दें। तपस्वी ने कहा-क्या मेरा कार्य असंयती से होगा? यह सुनकर देवता के मन में तपस्वी के प्रति अप्रीति हो गई। फिर भी उसने कहा-मुझसे आपका कार्य सम्पन्न होगा। तब देवता ने एक सर्वरत्नमय स्तूप का निर्माण किया। वहां भगवे वस्त्रधारी भिक्षु आये और बोले-यह स्तूप हमारा है। इस स्तूप के कारण संघ का उनके साथ छह माह तक विवाद चला। संघ ने पूछा-इस संघर्ष के लिए कौन समर्थ है ? एक व्यक्ति बोला-अमुक तपस्वी इसके लिए समर्थ है। तब संघ ने तपस्वी को बुलाकर कहा- तपस्विन्! आप आराधना कर देवता का आह्वान करें। तपस्वी ने आराधना की। देवता उपस्थित होकर बोला-आदेश दें, मैं आपके लिए क्या करूं ? तपस्वी बोला-वैसा कार्य करो जिससे संघ की विजय हो। तब देवता ने क्षपक की भर्त्सना करते हुए कहा-'आज मेरे जैसे असंयती से कार्य कराने का प्रयोजन उपस्थित हो गया है। अब एक उपाय बताता हूँ। आप राजा के पास जाकर कहें यदि यह स्तूप इन भिक्षुओं का है तो कल इस स्तूप पर लाल पताका फहराएगी और यदि यह स्तूप हमारा होगा तो सफेद पताका दिखेगी।' वे राजा के पास गए। सारी बात कही। राजा ने यह उक्ति स्वीकार कर ली। राजा ने दोनों पक्षों को बात बता दी और स्तूप की रक्षा के लिए अपने विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया। देवता ने रात ही रात स्तूप पर सफेद पताका फहरा दी। प्रभात में सभी ने स्तुप पर सफेद पताका लहराते देखी। संघ जीत गया।
(गा. २३३०, २३३१ टी. प. ८) ६७. कूप की पेयता, अपेयता
एक गांव की एक दिशा में मीठे पानी के अनेक कूप थे। उनमें से कई कूप आगंतुक दोषों तथा विस्वाद के कारण अपेय बन गए थे। कुछ कूप उस जमीन से उत्थित खार-लवण आदि विषम पानी के स्रोतों के कारण नष्ट हो गए। कुछ कुओं के पानी पीने से कोढ़ आदि रोग तथा शरीर में दोष उत्पन्न हो जाता था। कुछेक कुओं का पानी मृत्यु का कारण बनता था। कुछ कूपों का पानी स्नान और आचमन में काम आता था और कुछेक का नहीं। लोगों को इन कुओं के दोष ज्ञात थे, इसलिए पानी लाने वालों को पूछते—यह पानी कहां से लाए हो ? यदि निर्दोष होता तो वे लोग उसे पीने के काम में लेते और सदोष होता तो उसका वर्जन करते थे। यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर सदोष पानी लाता तो वे उसकी भर्त्सना करते, उसे ताड़ना देते। यदि व्यक्ति अजान में लाता तो उसे सावधान करते हुए कहते-फिर कभी सदोष पानी मत लाना।
(गा. २३५७ टी.प. १३)
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६८. पृच्छा का प्रवर्तन सकारण
भोजकुल के सेवक दो भाई थे। राजा ने उन्हें ससम्मान अपने यहां रख लिया। राजकुल में उनका सर्वत्र आना-जाना था। कहीं रोक-टोक नहीं थी। छोटे भाई ने अन्तःपुर में अनाचार का सेवन कर डाला। राजा ने उसका प्रवेश निषिद्ध कर दिया। अब बड़ा भाई भी राजा की आज्ञा के बिना प्रवेश नहीं कर पाता था। प्रतिहार के कहने पर राजा पूछता-आज कौन आया है छोटा भाई या बड़ा भाई ? प्रतिहार कहता—बड़ा भाई आया है, तब राजा उसके प्रवेश की आज्ञा देता। यह पूछताछ पहले नहीं होती थी, परंतु छोटे भाई के दुराचार के पश्चात् यह पृच्छा होने लगी। (गा. २३५८ टी. प. १४) ६६. पृच्छा क्यों ?
(क) एक नगर था। वहां सभी दुकानों पर अच्छे तिल और अच्छी किस्म के चावल मिलते थे। कालान्तर में एक वणिक के मन में कपट उत्पन्न हुआ। उसने खराब तिल बेचने के लिए रखे। इसी प्रकार दूसरे वणिक ने खराब किस्म के चावल दुकान पर बेचने हेतु रखे। अब लोग पूछने लगे- तुम्हारी दुकान पर तिल कैसे हैं ? चावल कैसे हैं ? पहले कभी ऐसी पूछताछ नहीं होती थी।
(ख) एक नगर की एक दिशा में अनेक मंदिर थे। वहां अनेक शैव भिक्षु रहते थे। वे सुशील थे। लोग उन सबकी पूजा करते थे। कालान्तर में कुछेक मंदिरों के भिक्षु दुःशील हो गए। अब निमंत्रण देने की वेला में लोग पूछने लगे, कौन कैसा है ? पहले यह पृच्छा नहीं थी।
(ग) एक गांव में गाएं बहुत थीं। एक बार वहां पशुओं की बीमारी फैली और वहां के पशु उसकी चपेट में आ गए। अब कोई व्यक्ति गाएं लाता तो लोग पूछते-ये गाएं किस गांव से लाए हो ? ये किस गोवर्ग की हैं ? पहले ऐसी पृच्छा नहीं होती थी। .
__(गा. २३५८ टी. प. १४) १००. कपटी उपासक
भिक्षुओं का एक उपासक विषमिश्रित भोजन भिक्षुओं को देता था। वह कभी-कभी मदकारक कोद्रव का भोजन भी दान में देता था। इस विषम भोजन के कारण समूचे भिक्षुगण में मारि का प्रकोप हुआ। इस कारण से सारा संघ छिन्न-भिन्न हो गया। लोगों ने विषयुक्त भोजन देने वाले भिक्षु उपासक को जान लिया। एक बार वह भिक्षु उपासक लोगों के बीच वाद में पराजित हो गया। वह कपटपूर्वक आचार्य के पास जाकर बोला-आप मुझे अर्हत् धर्म का उपदेश दें। आचार्य ने उपदेश दिया। वह कपटपूर्वक बोला—आज से मैंने आपके पास अर्हत् धर्म स्वीकार कर लिया है। मैंने भिक्षुओं के निमित्त एक बड़ा जीमनवार किया है। वहां बड़ी मात्रा में परमान्न पकाया गया है। उसको असंयत व्यक्ति न ले जाएं, न खाएं, इसलिए आप मुझ पर अनुग्रह कर मुनियों को गोचरी के लिए भेजें। साधुओं ने सोचा, यह सच कह रहा है। हमें वहां भिक्षा के लिए जाना चाहिए। उस कपट उपासक ने भोजन में विष मिला दिया और साधओं को पर्याप्त भोजन दिया। उस भोजन से कुछेक साधु मर गए और कुछेक बेहोश हो गए।
__ (गा. २३८२ टी.प. १८) १०१. युद्ध और वैद्य
__ दो राजाओं में युद्ध छिड़ गया। एक राजा के पास कुछ वैद्य उपस्थित हुए और साथ में रहने की प्रार्थना की। राजा ने कहा—युद्ध के प्रसंग में वैद्यों का कोई काम नहीं है। तुम युद्ध विद्या में कुशल नहीं हो। तुम्हारा युद्ध-स्थल में क्या प्रयोजन है ? वे वैद्य बोले-राजन् ! यद्यपि हम युद्ध विद्या में निपुण नहीं हैं फिर भी युद्ध में घायल हुए सैनिकों के लिए हमारी वैद्यक्रिया अत्यन्त उपयोगी है। इसलिए हम साथ में जाना चाहते हैं। आप अनेक प्रकार की औषधियां, अनेक प्रकार के व्रणपट्ट तथा विविध तैल साथ में ले लें। यह कहने पर राजा ने कहा-आप अनागत अमंगल की भावना न करें। आप अपने घर चले जाएं।
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दूसरे राजा के पास भी वैद्य गए। राजा ने उन्हें पूछा-संग्राम के लिए क्या-क्या उपयोगी द्रव्य आवश्यक होंगे? यह पूछने पर वैद्यों ने कहा-'व्रणसंरोहण तैल, अत्यन्त पुराना घी तथा औषधियां मंगाएं। उनमें तैल और घी को पचाया जा सकेगा। व्रणसंरोहण चूर्ण तथा व्रणलेप वाली औषधियां साथ में लें ।' राजा ने अपने सेवकों से सारी सामग्री एकत्रित करने के लिए कहा।
दोनों राजाओं में युद्ध छिड़ा। जिस राजा के साथ वैद्य थे। उन वैद्यों ने मुद्गर आदि से आहत भटों को औषधियों से स्वस्थ कर दिया तथा जो भट घायल हुए थे, उनके व्रणों को सीकर औषधियों का लेप कर दिया। इस प्रकार व्रणित और प्रहारित सभी योद्धा दूसरे दिन के युद्ध के लिए तैयार हो गए। वैद्यों ने दूसरे और तीसरे दिन भी उपचार किया। वह राजा वैद्यों के परामर्श से अपने भटों को स्वस्थ करता हुआ युद्ध जीत गया।
___ दूसरे राजा के योद्धा मारे गए और जो घायल और आहत हुए थे, वे भी युद्ध के लिए अयोग्य ही रहे। वह राजा पराजित हो गया।
(गा. २४०३-२४०६ टी. प. २१, २२)
१०२. सूपकार और बकरी
राजा के सूपकार ने राजा के लिए मांस पकाने के लिए रखा। इतने में ही एक बिल्ली आई और मांस के खण्ड को उठाकर ले गई। सूपकार भयभीत हो गया। वह मांस की खोज करने लगा, इतने में ही अचानक एक बकरी वहां आ गई। उसके गले में एक पोटली बंधी हुई थी। उसमें भोजन के काम में आने वाले उपस्कार थे। सूपकार ने उस बकरी को मार डाला, यह सोचकर कि यह स्वतः आई हुई बकरी है। उसे मारने में कोई अपराध नहीं होगा। राजा का उपालंभ भी नहीं आएगा और मेरा भी काम बन जाएगा।
(गा. २४५३, २४५४ टी प२) १०३. अकाल में संज्ञाभूमि जाने से हानि
इन्द्रपुर नगर में इन्द्रदत्त राजा था। उसके पुत्र ने पुतली के अक्षिचन्द्रक का वेध कर यश प्राप्त किया। राजा की प्रसिद्धि हुई। ऐसे व्यक्तियों का आगमन आचार्यों के पास होता रहता है। यदि वे अकाल में संज्ञाभूमि में जाते हैं और उस समय यदि राजा आदि महान् व्यक्ति दर्शनार्थ आते हैं तो उन्हें दर्शन किए बिना ही लौटना पड़ता है। यदि अकाल में संज्ञाभूमि में न जाएं तो आने वाले विशिष्ट व्यक्ति धर्मकथा सुनकर, विरक्त हो सकते हैं, प्रव्रज्या ग्रहण कर सकते हैं। उनकी प्रव्रज्या से प्रवचन की प्रभावना होती है। कुछेक श्रावक भी बन सकते हैं, कुछ धर्मरुचि भी हो सकते हैं और इन सबसे संघस्थ साधुओं पर महान् उपकार होता है। अकाल में संज्ञाभूमि में जाने पर इन गुणों की हानि होती है। (गा. २५४६ टी.प.१६) १०४. बलवान् कौन ? लोकोत्तर विनय या लौकिक विनय ?
एक राजा और दंडिक धर्म श्रवण के लिए आचार्य के पास गए। आचार्य ने प्रवचन प्रारंभ किया। प्रवचन के मध्य राजा अनेक बार मूत्र-विसर्जन के लिए उठा। आचार्य प्रच्छन्न रूप से मूत्र-विसर्जन करते और साधु उसे ले जाते। राजा के मन में प्रश्न हुआ-मैं प्रणीत आहार करता हूं, फिर भी मुझे मूत्र-विसर्जन के लिए बार-बार उठना पड़ता है और आचार्य रूखा आहार करते हैं फिर भी मूत्र-विसर्जन के लिए नहीं उठते। ऐसा प्रतीत होता है कि पास में जो मुनि बैठा है, वह वस्त्र में छिपाकर मात्रक आचार्य को देता है। आचार्य उसमें मत्र-विसर्जित करते हैं। किंत यह पूछना अविनय होता है, इसलिए उपाय से पूछना चाहिए। वह आचार्य के पास गया और बोला -भगवन् ! लौकिक विनय बलवान होता है या लोकोत्तर विनय ? आचार्य बोले-तुम इसकी परीक्षा करो। मैं मानता हूं कि लोकोत्तर विनय बलवान होता है।
राजा ने परीक्षा प्रारंभ की। आचार्य ने कहा--जिस शिष्य पर तुम्हारा विश्वास हो और आकृति से जिसे तुम मानते हो कि यह विनयभ्रंशी नहीं है, उसे तुम यह जानने के लिए भेजो कि गंगा किस ओर बहती है, इसकी जानकारी कर हमें बताओ। राजा ने विश्वस्त और आकृतिमान मुनि से कहा—जाओ, यह ज्ञात कर आओ कि गंगा किस ओर बहती है। वह गया नहीं।
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वहीं बैठे-बैठे उसने राजा से कहा---गंगा पूर्व की ओर बहती है। यह तो दूसरे लोग भी जानते हैं।
तब आचाय ने राजा से कहा—मेरे शिष्यों में से जिसे तुम विषम चरित्रवाला मानते हो, विनयभ्रंशी मानते हो, उसे भेजो। राजा ने आचार्य के कथनानुसार अविनीत दीखने वाले श्रमण से कहा—जाओ, यह ज्ञात कर बताओ की गंगा किस दिशा में बहती है ? निर्देशानुसार वह श्रमण आचार्य की आज्ञा ले वहां गया और लौटकर आ गया। पहले उसने ईर्यापथिकी कायोत्सर्ग किया, गुरु के समक्ष आलोचना की। गुरु ने पूछा-अभी आलोचना कैसे ? वह बोला-भगवन्! आपकी आज्ञा से मैं गंगा तट पर गया और वहां सूर्य की ओर देखा, क्योंकि सूर्य के आधार पर दिशा का निर्धारण किया जाता है | मैंने देखा कि गंगा के प्रवाह में बहने वाले तृण आदि पूर्व दिशा की ओर बहे जा रहे हैं। इसमें कभी दिग्मोह भी हो सकता है। दिग्मोह न हो, इसलिए मैंने दो-चार व्यक्तियों को पूछा। उन्होंने भी वही उत्तर दिया कि गंगा पूर्वाभिमुख बह रही है। राजा ने अपने विश्वास के लिए प्रच्छन्न रूप से विश्वस्त व्यक्तियों को मुनि के पीछे भेजा था। उन्होंने भी वही कहा जो मुनि ने कहा था।
राजा ने आचार्य से कहा-भगवन् ! जो हमारी आज्ञा को भंग करता है, उसका हम निग्रह करते हैं। उसे मारते हैं, पीटते हैं, हाथ-पैर-कान आदि का छेदन करते हैं, मृत्युदंड देते हैं, सारा धन लूट लेते हैं, फिर भी कुछेक व्यक्ति आज्ञा का भंग कर देते हैं। लोकोत्तर क्षेत्र में आज्ञा भंग करने वालों को ऐसे दंड का भय नहीं रहता, फिर भी वे ऐसा क्यों ?
आचार्य बोले-लोकोत्तर क्षेत्र में भवदंड का भय रहता है। जो भगवान् की, गणधर आदि की आज्ञा का उल्लंघन करता है उसे जन्मान्तर में अनेक प्रकार के दंड भोगने पड़ते हैं। वह भय उन्हें आज्ञा-भंग से बचाता है। इस प्रकार लोकोत्तर विनय बलवान होता है।
(गा. २५५२-२५५७ टी. प. २०, २१)
१०५. दो प्रतिमाएं
एक रल वणिक सामुद्रिक यात्रा पर जा रहा था। प्रवास के मध्य एक दिन उपद्रव उपस्थित हुआ। वणिक भ हो गया। उसने तब देवता की मनौती की कि यदि यह उपसर्ग शान्त हो जाएगा और मैं सकुशल पार पहुंच जाऊंगा तो एक रत्नमय और एक मणिमय—दो प्रतिमाएं कराऊंगा। मनौती से देवता प्रसन्न हुआ और उसके प्रभाव से उपसर्ग शान्त हो गया। वह निर्विघ्न रूप से समुद्र के पार पहुंच गया। पार पहुंचने के पश्चात् वणिक् का मन लोभ से भर गया और उसने केवल एक प्रतिमा बनवाई। तब देवता ने स्वयं दूसरी प्रतिमा बनवाई। फिर वणिक् दोनों प्रतिमाओं की भक्ति से पूजा करने लगा। उन दोनों प्रतिमाओं का यह प्रभाव था कि जब उनके पास दीपक रखा जाता, तब दीपक के कारण वे दृश्य होती थीं। जब दीपक नहीं होता तब प्रकाश में भी मणि और रत्न का प्रकाश ही दीख पाता था, प्रतिमाएं नहीं। प्रतिमाओं का यह चमत्कार सुनकर राजा तोसलिक ने उन दोनों को अपने श्रीगृहक भांडागार में रखवा दिया। तब मंगलबुद्धि से तथा परम भक्ति और यल से उनकी पूजा होने लगी। जिस दिन से राजा के भांडागार में वे प्रतिमाएं स्थापित की गईं, उसी दिन से राजा का कोष बढ़ता गया।
(गा. २५६०-२५६४ टी. प. २१, २२)
१०६. सहयोग से लाभ
___ एक कौटुम्बिक था। वह किसानों को ब्याज पर अनाज देता था। उस ब्याज के द्वारा प्राप्त धान्य से कौटुम्बिक के सारे अन्न-भंडार भर गए। एक बार आग लगी और कौटुम्बिक के एक अन्न-भंडार का सारा धान जलकर राख हो गया। आग लगने की बात समूचे गांव में फैल गई। कुछेक किसान आग बुझाने के लिए आए और कुछेक किसानों ने सोचा—हम आग बुझाने क्यों जाएं ? यह कौटुम्बिक क्या हमें धान्य मुफ्त में देता है जो आज हम आग बुझाने जाएं ?
दूसरे कृषकों ने सोचा-इस कौटुम्बिक के प्रभाव से हम जी रहे हैं, यह सोचकर वे सब मिलजुल कर वहां आए और आग को बुझाने में सहयोग करने लगे। कौटुम्बिक उन सब पर प्रसन्न होकर अब उनको ऋण में धान्य बिना ब्याज के देने लगा। जिन्होंने आग बुझाने में मदद नहीं की, उनको कौटुम्बिक ने कहा- 'अब मेरे पास ऋण रूप देने के लिए धान्य नहीं
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है। सब जलकर भस्म हो गया है।' उस दिन से वे कृषक दुःख से जीवन बिताने लगे। (गा. २६१०-२६१३ टी. प. ३०) १०७. पशुसिंह : नरसिंह
भगवान् वर्द्धमान के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के जन्म में एक सिंह का वध कर डाला। सिंह को अधृति हुई। उसने सोचा, यह मेरा पराभव है, क्योंकि मैं एक छोटे व्यक्ति से मारा गया हूं। गौतम का जीव त्रिपृष्ठ का सारथी था। उसने कहा----अधृति मत करो। तुम पशुसिंह हो। तुमको नरसिंह ने मारा है, फिर पराभव कैसे ? सिंह मर गया। वह संसार में नाना योनियों में परिभ्रमण करता हुआ चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर के समय में राजगृह नगर के कपिल ब्राह्मण के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। एक बार भगवान् महावीर राजगृह नगर में समवसृत हुए। वह बटुक भी समवसरण में आया। भगवान् को देखकर वह 'धम-धम' करने लगा। तब भगवान् ने उसको उपशांत करने के लिए गौतम स्वामी को भेजा। गौतम स्वामी गए और उसको उपदेश देते हुए बोले-ये महान आत्मा तीर्थंकर हैं। जो इनके प्रतिकूल होता है, वह दुर्गति में जाता है। यह सुनकर वह शांत हो गया। गौतम स्वामी ने कालान्तर में उसे प्रव्रजित किया।
(गा. २६३८ टी. प. ३५) १०८. राजाज्ञा का मूल्य कब ?
एक राजा था। तीन व्यक्तियों ने उसकी आराधना की। राजा ने संतुष्ट होकर अमुक नगर के आयुक्त को आदेश देते हुए लिखा-प्रत्येक को एक-एक सुंदर मकान और एक-एक लाख दीनार दे दें। राजा का यह संदेश सुनकर तीनों प्रसन्न हुए। एक व्यक्ति इस संदेश को एक पट्ट पर लिखाकर ले गया। दूसरा केवल मुद्रांकित पट्ट लेकर गया। तीसरे ने पट्ट पर आज्ञा लिखाई और उस पर राजमुद्रा का अंकन कराया। पहला व्यक्ति जो केवल पट्ट पर आज्ञा लिखाकर ले गया था तथा दूसरा व्यक्ति जो केवल राजमुद्रांकित पट्ट ले गया था, दोनों आयुक्त के पास गए। एक ने आज्ञा लिखे पट्ट और दूसरे ने राज-मुद्रांकित पट्ट दिखाया। आयुक्त ने पहले व्यक्ति से कहा-आज्ञा लिखित है, पर राजमुद्रा नहीं है तो फिर मैं तुम्हें कैसे दूं? दूसरे से कहा-राजमुद्रांकित पट्ट तो है पर मैं नहीं जानता कि राजा की आज्ञा क्या है ? दोनों निष्फल हुए। तीसरे का पट्ट आज्ञांकित और मुद्रांकित भी था। वह सफल हुआ। उसे सुन्दर घर और एक लाख दीनार मिल गए।
(गा. २६४१, २६४२ टी. प. ३६)
१०६. पट्टरानी पृथिवी की उक्ति
महाराजा शातवाहन की अग्रमहिषी का नाम था—पृथिवी। एक बार राजा को कार्यवश अन्यत्र जाना पड़ा। पट्टरानी पृथिवी तब अन्तःपुर की अन्य रानियों से परिवृत होकर, महाराजा शातवाहन का वेश पहनकर आस्थानिका मंडप में जा बैठी। वह महाराज की तरह प्रवृत्ति करने लगी। राजा अचानक उसी स्थान पर आ गया। महारानी ने राजा को आते हुए देख लिया, परंतु वह अपने आसन से नहीं उठी। उसके बैठे रहने पर अन्यान्य रानियां भी बैठी ही रहीं, उठीं नहीं। राजा रुष्ट होकर बोला—पृथिवी ! तुम महारानी हो, इसलिए नहीं उठी परन्तु तुमने दूसरी रानियों को भी बैठे रहने के लिए कहा, यह उचित नहीं है। राजा के इस प्रकार कहने पर पृथिवी महारानी बोली-'महाराज! आपकी आस्थानिका में बैठे हुए दास-दासी भी नाथ होते हैं। वे स्वामी को देखकर भी नहीं उठते। यह आपके आस्थानिका का ही प्रभाव है। आप भी जब यहां बैठते हैं तब गुरु को छोड़कर किसी व्यक्ति के आने पर नहीं उठते । मैं भी इस समय आपकी आस्थानिका में राजा बनकर बैठी थी। इसलिए सपरिवार नहीं उठी। यदि मैं राजा नहीं बनती तो अवश्य उठती।' पटरानी की बात सुनकर राजा संतुष्ट हो गया।
(गा. २६४५-२६५७ टी. प.३६, ३७)
११०. दृष्टि-विक्षेप से हानि
(क) एक किसान था। उसने शालि के दो खेत काटने के लिए दैनिक वेतन पर कर्मकरों को रखा। वे सब खेत में
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शालि काटने लगे। इतने में ही एक सुन्दर सफेद हाथी उधर दृष्टिगत हुआ। किसान ने सभी कर्मकरों को हाथी दिखाया। वे सभी शालि काटना छोड़कर हाथी के आगे-पीछे भागे। खेत तक उसके साथ आए और बहुत समय तक देखते रहे। फिर हाथी का वर्णन करने लगे। धान काटना बन्द हो गया। समय व्यतीत हो गया। किसान को हानि उठानी पड़ी।
१११. (ख) एक दूसरा किसान था। उसकी दासी शालि काटने खेत में गई। दासी ने सुन्दर सफेद हाथी देखा। उसने सोचा यदि मैं कर्मकरों को हाथी की बात कहूंगी तो वे सब कटाई छोड़कर बातों में लग जायेंगे। किसान को हानि होगी। लोग इसके वर्णन में लग जायेंगे। जब पूरे खेत की कटाई हो गई, तब दासी ने अपने स्वामी किसान तथा कर्मकरों से हाथी की बात कही। उन्होंने कहा- पहले क्यों नहीं बताया ? दासी बोली-कटाई में बाधा उपस्थित होती, इसलिए नहीं बताया। इस बात पर किसान प्रसन्न हुआ और दासी को दासत्व से मुक्त कर दिया। (गा. २६५३, २६५४ टी. प. ३८)
११२. प्रमाद का फल
एक गांव था। गांववासियों ने राजकूल के लिए एक शकट बनवाया। जब कभी राजा की ओर से आदेश आता कि घृत-घट आदि लाने हैं अथवा अन्यत्र ले जाने हैं, तो वे ग्रामीण लोग उसी शकट में लाते-ले जाते थे। इस शकट का कोई स्वामी नहीं है, यह सोचकर वे उसी शकट से अपना प्रयोजन भी सिद्ध कर लेते थे। अस्वामित्व की बुद्धि से वे शकट का संरक्षण नहीं करते थे। कालान्तर में वह शकट टूट गया। अस्त-व्यस्त हो गया। कुछ दिनों बाद राजा ने ग्रामीणों को आज्ञापित किया कि इतना धान्य शकट से राजभवन में पहुंचा दो। ग्रामीणों ने आज्ञा सुनी, परंतु शकट के अभाव में वे धान्य नहीं पहुंचा सके। राजा ने उसे अपनी आज्ञा का भंग जानकर उन ग्रामीणों को दंडित किया। अब अपने प्रयोजन के लिए भी वे शकट का उपयोग नहीं कर पा रहे थे। वे दुःखी हो गए।
(गा. २६६६, २६६७ टी. प. ४०)
११३. आचार्य द्वय : आर्यसमुद्र और मंगु
जैन परंपरा में आर्यसमुद्र तथा आचार्य मंगु प्रभावक आचार्य हुए हैं। आर्यसमुद्र दुर्बल थे। उन्होंने अतिरिक्तता का उपभोग नहीं किया। वे योगसंधान करने के लिए भी अशक्त हो गए। उनके शिष्य उनके लिए प्रतिदिन विश्रामणारूप तीन कृतिकर्म करते थे। दो सूत्रार्थपौरुषी के समय और तीसरा चरम पौरुषी के समय। आर्यसमुद्र के लिए श्रावक उनके योग्य आहार आदि देते थे। शिष्य उस आचार्य प्रायोग्य आहार को अलग पात्र में लाते थे।
__आचार्य मंग के लिए न कृतिकर्म होता था और न उनके प्रायोग्य आहार अलग पात्र में लाया जाता था। यद्यपि श्रद्धालओं से उत्कष्ट भक्तपान प्राप्त होता था. फिर भी शिष्य उसे एक ही पात्र में ले लेते थे। आचार्य मंग अलग पात्र में लाया हुआ आहार ग्रहण नहीं करते थे।
वे दोनों आचार्य एकदा साथ-साथ विहार करते हुए सोपारक नगर में आए। वहां दो श्रावक थे। एक शाकटिक और दूसरा वैकटिक-सुरा संधानकारी। उन दोनों ने देखा कि आचार्य आर्यसमुद्र के लिए प्रणीत भोजन भिन्न पात्र में लाया जा रहा है और आचार्य मंगु के लिए सामान्य पात्र में लाया जा रहा है। यह देखकर उन्हें विस्मय हुआ। वे आचार्य मंगु के पास आए और बोले-भंते ! आर्यसमुद्र की भांति आपके लिए विशिष्ट आहार अलग पात्र में क्यों नहीं आता ? आचार्य बोले
अहो शाकटिक ! देखो. जब तम्हारा शकट दर्बल हो जाता है तब तम उसे रस्सी आदि से बांधकर ठीक कर देते हो। तब उस शकट में तुम माल आदि ले जा सकते हो। यदि तुम शकट का उचितरूप में परिकर्म नहीं करते हो तो वह शकट टूट जाता है, नष्ट हो जाता है। और जो शकट वहन करने के लिए योग्य है, उसका तुम परिकर्म नहीं करते।
फिर वैकटिक से कहा—वैकटिक ! सुरा रखने की तुम्हारी कुंडिका यदि दुर्बल है, क्षीण हो गई है तो तुम उसे बांस की खपचियों से बांधकर उसमें सुरा रखते हो। जो कुंडी यथावत् है उसके लिए कुछ भी बंधन नहीं देते। वह तुम्हारी काम की होती है।
आर्यसमुद्र वृद्ध हैं, दुर्बल हैं, इसलिए उनके शरीर-धारण के लिए योग्य आहार अत्यंत अपेक्षित है। इसलिए वैसा आहार
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पृथक् लाया जाता है। मैं दृढ़ शकट या कुंडी के समान हूं। शरीर का अप्रतिकर्म करता हुआ भी मैं योगसंधान करने में समर्थ हूं। इसलिए मुझे विशेष आहार की आवश्यकता नहीं होती।
(गा. २६८५-२६६२ टी. प. ४३, ४४) ११४. उस समय की परिवाजिकाएं
एक गांव में पति-पली आराम से रह रहे थे। एक बार पत्नी के मन में यह संदेह हुआ कि मैं अपने पति के लिए अप्रीतिकर हो गई हूं। पति मुझे नहीं चाहता। यह सोचकर वह आर्यिका के पास प्रव्रजित हो गई । उसके शरीर का लावण्य अद्भुत था। वह भिक्षा के लिए घूमती । एक बार पूर्व पति ने उसे देख लिया। वह उसमें लुब्ध हो गया। वह साध्वी अकेली नहीं थी। उसके साथ अन्य साध्वियां भी रहती थीं, इसलिए पति को एकान्त में अपनी पत्नी-साध्वी से बातचीत करने का अवसर नहीं मिलता था। तब उसने एक परिव्राजिका से परिचय किया। उसकी दान, सन्मान आदि से आराधना की। परिव्राजिका ने पूछा- बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा काम कर सकती हूं ? उसने कहा-अमुक साध्वी को तुम इस प्रकार प्रभावित करो कि वह पुनः गृहस्थी में आ जाए।
एक दिन वह परिव्राजिका उस साध्वी के पास आकर बोली–मैं भी दीक्षित होना चाहती हूँ। आप मुझे प्रव्रजित करें। वह प्रव्रजित हो गई। एक दिन पाक्षिक के उपलक्ष में सभी आर्यिकाएं चैत्यवंदन के लिए गईं। उस शैक्ष साध्वी ने कहा—आर्य! मैंने स्वजनों से गुप्त रूप से दीक्षा ली है। वे यदि मुझे देखेंगे तो मुझे घर ले जाएंगे। इसलिए आप सब जाएं। मैं उपाश्रय की रक्षा में यहीं रहूंगी। तब एक साध्वी को वहीं छोड़कर सभी आर्यिकाएं चैत्यवंदन के लिए चली गईं। सबके जाने के पश्चात् उस परिव्राजिका साध्वी ने उस तरुण साध्वी से कहा-पहले तुम्हारा पति तुमसे वितृष्ण हो गया था। अब उसके मन में तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह उभरा है और वह तुम्हें पाने के लिए उत्कंठित है। ऐसा कहकर वह उसे प्रव्रज्या से च्युत कर देती है।
(गा. २८४८, २८६२, २८६३ टी. प. ३,५,६) ११५. जम्बूवृक्षवासी और वटवृक्षवासी
एक नगर में दो गृहस्थों के घर दो भिन्न-भिन्न वृक्ष थे। एक के घर में वटवृक्ष और दूसके के घर में जम्बूवृक्ष था। एकदा एक आचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ वहां आए और वटवृक्षवासी गृहस्थ को शय्यातर का लाभ दिया। दोनों गृहस्थों ने अपना-अपना दूसरा मकान बनाया। उन दोनों मकानों में कापौत रहने लगे। दोनों ने उसे अमंगल माना। उन्होंने नैमित्तिक से पूछा कि इस अमंगल का निवारण कैसे हो सकता है ? नैमित्तिक ने कहा—वटवृक्षवासी जम्बूवृक्षवासी के घर में रहने लग जाए और जम्बूवृक्षवासी वटवृक्षवासी के घर में रहने लग जाए तो दोनों के अमंगल का निवारण हो जाएगा। फिर कुछ दिन वहां रहकर अपने-अपने मूल घर में चले जाएं। उन दोनों ने वैसे ही किया। अब वे सुखपूर्वक रहने लगे।
(गा. २८८०, २८८१ टी. प. ६) ११६. कोशलदेश के आचार्य
कोशलदेश के एक आचार्य अपने सद् अनुष्ठान से एक श्राविका को उपशांत कर अपने देश लौट गये। श्राविका एक अन्य गच्छ के आचार्य के पास निष्क्रमण करने के लिए उपस्थित हुई और बोली—आप मुझे प्रव्रजित करें, किन्तु मेरे तो वे ही कोशलदेशवासी आचार्य होंगे। आचार्य ने उसे दीक्षित कर दिया। वह कोशलदेश के आचार्य के पास जाना चाहती थी। आचार्य ने उसका निषेध किया। वह आज्ञा का उल्लंघन कर कोशलदेशवासी आचार्य के पास चली गई। उस कोशलक ने उसे स्वीकार कर लिया। वह नष्ट हो गई।
(गा. २६५६, २६५७ टी. प. २४)
११७. राजाज्ञा की अवमानना
एक राजा था। उस राज्य में म्लेच्छ सैनिकों का भय था। वे राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे, इस भय से राजा ने अपने
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१५८]
परिशिष्ट-८
जनपद में यह घोषणा कराई कि म्लेच्छ सैनिक आकर जनपद के को लूटना चाहते हैं इसलिए जनता सारी दुर्ग में आ जाए। जिन लोगों ने राजाज्ञा का पालन किया, वे म्लेच्छों के भय से मुक्त हो गए। जिन्होंने राजाज्ञा को नहीं माना, जनपद में ही रहे, म्लेच्छों ने उन्हें लूटा, मारा और जो बच गए थे उनको राजा ने राजाज्ञा न मानने के अपराध में दंडित किया।
(गा. ३१०३ टी. प. ४६)
११८. राजा का पारितोषिक
एक राजा था। उसके पांच मुख्य सेवक थे। एक बार उन पांचों ने राजा को दुर्ग से बचाया था। पांचों में से एक ने परम साहस का परिचय देकर राजा को संतुष्ट किया था। राजा पांचों के साहस से प्रसन्न होकर इस एक सेवक के अतिरिक्त चारों सेवकों से कहा-मैं तुम पर प्रसन्न हूं। इस नगर की गलियों में, दुकानों में तथा अन्यान्य मार्गों में जहां कहीं से भी तुमको जो आहार, वस्त्र आदि लेने हों, वे लो, उनका मूल्य राज्य से चुकाया जाएगा। वे चारों सेवक बहुत प्रसन्न हुए। और अब अपनी आवश्यकतानुसार वस्त्र, भोजन, सामग्री आदि प्राप्त करने लगे। राजा उन-उन व्यापारियों की वस्तुओं का मूल्य चुका देता। एक अति साहसी सेवक पर परम प्रसन्न होकर राजा ने कहा-तुम कहीं से भी आहार-वस्त्र आदि ले सकते हो। केवल वीथि या दुकानों से ही नहीं, घरों से भी वस्तुएं ले सकते हो। मूल्य राजकोष से चूका दिया जाएगा। वह सेवक अतिरिक्त पारितोषिक पा प्रसन्न हुआ।
(गा. ३१०६-३१०८ पत्र ४७)
११६. राजा का विवेक
एक वणिक् था। उसकी पत्नी गर्भवती थी। वह वणिक् अचानक मर गया। किसी ने जाकर राजा से कहा-देव ! पतिविहीन उस गर्भवती स्त्री के पास धन है। राजा ने कहा-उसका धन उसी के पास रहने दो। यदि उसके लड़का होगा तो वह धन उसका हो जाएगा और यदि कन्या होगी तो उसके भरण-पोषण योग्य तथा विवाह योग्य धन उसके काम आ जाएगा।
(गा. ३२५१ टी. प. ७१)
१२०. क्षुल्लक की युक्ति और साहस
एक गांव था। वहां मालव देश के शबरजातीय सैनिकों ने पड़ाव डाला। वहां मनुष्यों का अपहरण करने वाले कुछ चोरों ने एक आर्यिका का और एक क्षुल्लक मुनि का अपहरण कर लिया। वे दूसरे चोर को उन्हें सौंप, स्वयं अन्य के अपहरण के लिए निकल पड़े। वह चोर प्यास से आकुल-व्याकुल हो गया। वह पानी की खोज करने निकला। एक कुएं में पानी निकालने उतरा। क्षुल्लक ने सोचा-हम इतने सारे मुनि हैं और यह चोर अकेला है। क्या हम इसको नहीं जीत सकते ? यह सोचकर उसने आर्यिकाओं से कहा कि हम इस चोर पर पाषाण बरसाएं और उसे पत्थरों से ढक दें। आर्यिकाओं ने क्षल्लक का समर्थन नहीं किया। तब क्षुल्लक ने सोचा, चोर हम सबको मार न डाले इसलिए उसने एक बड़ा पत्थर चोर पर लुढ़काया। यह देखकर सभी आर्यिकाओं ने एक साथ पाषाण लुढ़काए। पाषाणों से आक्रान्त होकर वह चोर मरण को प्राप्त हो गया। क्षुल्लक ने सभी आर्यिकाओं को सुरक्षित कर डाला।
(गा. ३२५२ टी. प. ७२)
१२१. लोभी अमात्य
एक राजा ने अमात्य को आज्ञा दी कि वह एक प्रासाद का शीघ्र ही निर्माण कराए। उसने प्रासाद बनाने के लिए कर्मकरों को नियुक्त किया। वह अमात्य अत्यंत लोभी था। वह कर्मकरों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संक्लेश देता था। द्रव्य से—वह उन्हें असंस्कारित और लवणरहित सूखे चनों का थोड़ा-सा भोजन देता था। क्षेत्र से—वह उनसे अग्नि से संबंधित कार्य करवाता, पर अनुचित भक्त-पान देता था। काल से-भोजन भी वह सायंकाल देता। भाव से---उन कर्मकरों को विश्राम
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परिशिष्ट-८
[१५६
करने नहीं देता। उन्हें कठोर वचनों से ताड़ना देता और कर्मकरों को पूरा वेतन भी नहीं देता था। इन सब दुःखों से पीड़ित होकर सभी कर्मकर काम छोड़कर भाग गए। प्रासाद अर्धनिर्मित ही रह गया। राजा ने सारा वृत्तान्त जाना और अमात्य को दंडित किया। उसे अमात्यपद से हटाकर उसका सर्वस्व अपहृत कर लिया।
(गा. ३६६२-६४ टी. प. ५६)
१२२. अट्टण मल्ल
उज्जयिनी नगरी में अट्टण नामक मल्ल रहता था। वह मल्ल विद्या में अत्यंत निपुण था । वह सदा विजयी होता था। समय बीता। वह वृद्ध हो गया। एक बार वह सोपारक नगर में मल्ल युद्ध करने गया और वहां पराजित हो गया। उसने प्रतिशोध की भावना से फलही नामक व्यक्ति को मल्लविद्या में निपुण किया। वह सोपारक नगरी में गया और मात्सिक मल्ल के साथ मल्लयद्ध लड़ा। उस दिन जय-पराजय का निर्णय नहीं हो सका। दोनों मल्ल अपने-अपने स्थान पर गए। फलही मल्ल के परिचारकों ने पूछा-कहां-कहां चोट आई है। हम परिकर्म कर उसे ठीक कर देंगे। फलही मल्ल ने सब कुछ बता दिया। परिचारकों ने उचित विधि से शरीर का परिकर्म कर उसे स्वस्थ कर दिया। मात्सिक मल्ल गर्व से उन्मत्त हो उठा। परिचारकों के पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया। उसने शरीर की पीड़ा को छुपा लिया। शरीर का परिकर्म नहीं हुआ। तीसरे दिन मल्लयुद्ध में वह पराजित हो गया।
(गा. ३८४० टी. प. ३) १२३. संस्कारदात्री मां ही है
___ एक बालक अधूरा नहाकर बाहर खेलने चला गया। वह खेलते-खेलते एक तिलों के ढेर पर पहुंचा और उस ढेर में घुस गया। लोगों ने उसे बालक समझ कर नहीं रोका। शरीर गीला था, इसलिए उस पर तिल लग गए। वह तिलों सहित घर आया। मां ने तिल देखे। उसके शरीर से सारे तिल झाड़ दिए और उन्हें एक पात्र में संग्रहीत कर लिया। मां के मन में तिलों का लोभ जागा और उसने पुनः बालक को अधूरा स्नान करा कर भेजा। वह पुनः तिलों के ढेर पर गया और गीले शरीर से उस ढेर में प्रवेश कर तिलों सहित घर आ गया। मां ने उसे नहीं डांटा, न मनाही की। वह धीरे-धीरे तिल चुराने वाला बड़ा चोर बन गया। एक बार चोरी करते हुए उसे राजपुरुषों ने पकड़ लिया। राजा ने उसके वध की आज्ञा दे दी। वह मारा गया। राजा ने सोचा, यह बालक मां के दोष से चोर हुआ है। राजपुरुषों ने माता को दंडित करने के लिए उसके स्तन काट डाले। मां को दंड मिल गया। एक बार एक दूसरा बालक भी अपूर्ण स्नान कर तिलों के ढेर में जा छिपा। उसके गीले शरीर पर तिल चिपक गए। वह घर गया। मां ने उसे.डांटते हुए कहा, पुनः ऐसा मत करना। उसने तिल शरीर से झाड़ कर मल स्वामी को दे दिए। उस बालक में चोरी की आदत नहीं पडी। वह सखपर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगा। मां को भी स्तनछेद जैसी पीड़ा सहन नहीं करनी पड़ी।
(गा. ४२०८ टी. प. ५२)
१२४. दूध रक्त बन गया
- कलिंग जनपद में कांचनपुर नाम का नगर था। वहां अनेक बहुश्रुत आचार्य रहते थे। उनका शिष्य परिवार बृहद् था । एक बार वे अपने शिष्यों को सूत्र और अर्थ की वाचना देकर संज्ञाभूमि में गए। अन्तराल में उन्होंने एक विशाल वृक्ष के नीचे एक स्त्री को रोते हुए देखा। दूसरे, तीसरे दिन भी यही देखा । आचार्य को आशंका हुई। उन्होंने उस स्त्री से पूछा-तुम क्यों रो रही हो ? उसने कहा- मैं इस नगर की अधिष्ठात्री देवी हूं। यह नगर शीघ्र ही जल-प्रवाह से आप्लावित होकर नष्ट हो जाएगा। यहां अनेक मुनि स्वाध्यायशील हैं। उनके विनाश को सोचकर मैं रो रही हूं। आचार्य ने पूछा-इस बात का प्रमाण क्या है ? उसने कहा-अमुक तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त बन जाएगा। जहां जाने से वह पुनः स्वाभाविक रूप में आएगा वहां सुभिक्ष होगा और वहां सुखपूर्वक रहा जा सकेगा।
दूसरे दिन तपस्वी मुनि के पारणक में लाया हुआ दूध रक्त में बदल गया। तब संघ के प्रमुख व्यक्ति एकत्रित हुए, पर्यालोचन किया और समूचे संघ के साधुओं ने अनशन कर झला ।
(गा. ४२७८ टी. प. ६१)
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१६०]
परिशिष्ट
१२५. संलेखना की या नहीं ?
एक बार एक शिष्य आचार्य के पास भक्त प्रत्याख्यान अनशन की आज्ञा लेने उपस्थित हुआ। आचार्य ने पूछा-अनशन से पूर्व तुमने संलेखना की या नहीं ? शिष्य ने सोचा-आचार्य मेरे शरीर को देख रहे हैं जो केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है फिर भी ये मुझे संलेखना की बात पूछ रहे हैं। यह सोचकर क्रोध के आवेश में उसने अपनी अंगुली तोड़कर दिखाते हुए कहा-क्या तुम्हें कहीं रक्त और मांस दिखता है ? सोचो, मैंने संलेखना की है या नहीं ? शिष्य को सुनकर आचार्य बोले-मैंने द्रव्य संलेखना के विषय में नहीं पूछा था। यह तो तुम्हारे शरीर को देखकर प्रत्यक्षतः जान लिया है। मैंने भाव-संलेखना के विषय में जानना चाहा था और यह स्पष्ट दीखता है कि तुमने भाव-संलेखना—कषायों का उपशमन नहीं किया है। जाओ, भाव संलेखना का अभ्यास करो और फिर अनशन की बात सोचना। (गा. ४२६०, ४२६१ टी. प. ६३) १२६. आज्ञाभंग : मृत्यु का वरण
एक राजा ने अमात्य और कोंकण देशवासी नागरिक इन दोनों को अपराधी मानकर यह आज्ञा दी कि यदि दोनों पांच दिन के भीतर देश को छोड़कर नहीं जाएंगे तो उनका वध कर दिया जाएगा। दोनों ने आदेश सुना। कोंकण देशवासी नागरिक के पास तुम्बे और कांजी के पानी से भरे बर्तन थे। वह तत्काल तुम्बे और कांजी जल को छोड़कर उस देश से निकल गया। मंत्री घर पर आया। गाड़ी, बैल आदि की व्यवस्था कर घर को समेटने लगा। उस व्यवस्था में उसके पांच दिन निकल गए। छठे दिन राजा ने उसे शूली पर चढ़ा दिया । अमात्य मृत्यु को प्राप्त हो गया। (गा. ४२६२, ४२६३ टी. प. ६३) १२७. आचार्य स्कंदक का प्रतिशोध
___ कुम्भकार नगर में दंडकी नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम था पुरंदरयशा। पुरोहित का नाम था पालक। एक बार मुनि सुव्रत स्वामी के अंतेवासी शिष्य मुनि स्कंदक ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहां आए। राजा ने द्वेषवश उनके पांच सौ शिष्यों को कोल्हू में पील कर मार डाला। जब अंत में छोटे मुनि को पीलने लगे, तब आचार्य स्कंदक अत्यंत कुपित हो गए। उन्हें भी कोल्हू में पील डाला। वे मरकर अग्निकुमार देव के रूप में उत्पन्न हुए और अपने पूर्वभव का स्मरण कर दंडकी राजा के समस्त देश को भस्म कर डाला। आचार्य को छोड़ शेष सारे शिष्य समाधि-मरण से मरकर उच्च गति में गए।
(गा ४४१७ टी. प. ७६)
१२८. राजसेवा का अवसर किसको ? ___आचार्य कालक शकों को यहां लाए, उज्जयिनी नगरी में शक राजा हो गया। शकों ने सोचा, राजा हमारी जाति का ही है। यह सोचकर वे गर्व से उन्मत्त हो राजा की उचित सेवा नहीं करते। तब राजा ने उन्हें अपने पास से हटा दिया। अब वे शक चोरी करने लगे, नगरवासियों ने राजा से शिकायत की। राजा ने उन सबको देश-निष्कासन का दंड दिया। वे उस देश से निकल गए। देशान्तर में जाकर वे एक राजा की उपासना करने लगे।
उनमें से एक व्यक्ति राजा के गमन-आगमन पर स्वयं आगे चलता, पार्श्ववर्ती होकर कभी दौड़ता। जब राजा खड़ा होता या बैठता तब वह भी सामने खड़ा रहता। राजा बैठने के लिए कहता तो वह नीचे भूमि पर बैठ जाता। कभी राजा के सामने भूमि पर बैठ जाता। राजा के इंगित को जानकर राजा की आज्ञा के बिना भी वह राजा के प्रयोजन को साध लेता। एक बार राजा पानी और कीचड़ के मध्य से गया। शेष सारे लोग सूखे तथा बिना कीचड़ वाले रास्ते से चले, किंतु वह सेवक घोड़े के आगे पानी और कर्दम के बीच ही चला। राजा उस पर तुष्ट हुआ और उसे बहुत धन देकर संतुष्ट किया।
दूसरे व्यक्ति के मन में यह गर्व था कि वह भी शक है, राजवंशीय है। इस गर्व से उन्मत्त होकर वह राजा का कार्य नहीं करता। जाति और कल के अभिमान से वह स्वयं का बहुत सम्मान करता, भूमि पर नीचे नहीं बैठता था और न राजा
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परिशिष्ट
[१६१
के आगे-आगे चलता था। तीसरा व्यक्ति पहले व्यक्ति की भांति राजा की उपासना करता, पर वह राजा के अश्व के आगे नहीं चलता, किंतु उसके
। जब घोड़ा खड़ा रह जाता तब वह राजा की सेवा करता। वह सदा आसन पर ही बैठता, भूमि पर नहीं। राजा के भेजने पर वह प्रयोजन सिद्ध करता, न भेजने पर वह ऐसे ही बैठे रहता। रण में राजपुत्र की हैसियत से युद्ध करता।
चौथे व्यक्ति में न अर्थ का आकर्षण था और न मान-सम्मान था। इन चार में से दूसरे और चौथे व्यक्ति को राज-सेवा का अवसर नहीं दिया गया।
(गा. ४५५७-५६ टी. प. ६४, ६५)
१२६. यथाकृत भोजन
एक गांव में अनेक साधुओं का आगमन हुआ। एक मुनि एक घर से रोटियां लाया। दूसरे मुनि ने भी वहीं से रोटी ग्रहण की। इसी प्रकार तीसरे, चौथे और पांचवें मुनि ने भी वहीं से आहार लिया। सभी आचार्य के पास आए। गोचरी दिखाई। गुरु ने देखा सभी के पात्रों में समान रोटियां हैं। उन्होंने सोचा, यह भिक्षा उद्गम आदि दोषों से युक्त तो नहीं है ? एक मुनि को उस घर में निरीक्षण करने भेजा। वह मुनि वहां गया और गृहस्वामी से पूछा-क्या आज आपके घर में कोई उत्सव विशेष है या कोई मेहमान आए हैं जो आपने इतना आरंभ-समारंभ किया है ? आपने मुनियों के लिए यह भोजन सामग्री बनाई है अथवा क्रीत की है ? मैं इस भिक्षा-वेला में किसी अतिथि को नहीं देख रहा हूं। मुनि ओजस्वी था। गृहस्वामी उससे प्रभावित हुआ और उसने कहा—यह भोजन यथाकृत है, औद्देशिक नहीं। मुनि को विश्वास हो गया। आचार्य के पास आकर उसने वस्तुस्थिति निवेदित कर दी। आचार्य ने उस घर को सब के लिए खोल दिया। (गा. ४५७६ टी. प. ६७)
१३०. समता का उत्कृष्ट उदाहरण
चिलाती पुत्र व्युत्सृष्ट-त्यक्तदेह होकर कायोत्सर्ग में थे। उसके शरीर पर लगे रक्त के गंध से पिपीलिका आदि जन्तु शरीर पर चढ़े और उसको चालनी बना डाला । परन्तु वह क्षण भर के लिए भी विचलित नहीं हुआ। १३१. साधना की परम कसौटी
___ कालादवैश्य मौद्गलशैल शिखर पर साधना रत था। एक प्रत्यनीक देव शृगाल का विकराल रूप बनाकर उसको खाने लगा। उसने उस उपद्रव को समभाव से सहा । १३२. बांसों का झुरमुट
एक मुनि प्रायोपगमन अनशन में स्थित था। उसे अनशन में देखकर कुछ प्रत्यनीक व्यक्तियों ने उसे उठाकर बांस के झुरमुट पर बिठा लिया। बांस फूटने लगे। उन बढ़ते हुए बांसों ने मुनि को बींध डाला और ऊपर उछाल दिया। पर मुनि ने उस वेदना को समभाव से सहा।
१३३. पिता-पुत्र और शृगाली अवंतीसुकुमाल अपने बाल पुत्र के साथ साधना में थे। शृगाली ने उन्हें तीन रात तक खाया।
(गा. ४४२५ टी. प. ८०) १३४. अनशन में उत्कट वेदना
___ कुछ मुनि पादपोपगमन अनशन में स्थित थे। वे प्रदेश विशेष में नदी के किनारे एक स्थान पर अपने शरीर का त्याग कर साधना में संलग्न हो गए। पानी बरसा। उफनती नदी के पानी में बहते हुए वे नदी के एक संकरे स्रोत में फंस गए।
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१६२ ]
वेदना को समभाव से सहकर दिवंगत हो गए ।
१३५. म्लेच्छ की मनोकामना
बत्तीस मित्र एक साथ पादपोपगमन अनशन कर स्थित हो गए। उस द्वीप में म्लेच्छ रहते थे । एक तृप्त म्लेच्छ ने देखा और सोचा, ये कल मेरे भोजन के लिए काम आयेंगे। यह सोचकर उसने उनको एक वृक्ष पर लटका दिया। वे उस वेदना को समभावपूर्वक सहन कर दिवंगत हो गए । (गा, ४४२८ टी. प. ८० )
व्यवहार भाष्य की कुछ कथाएं अन्य ग्रन्थों में भी मिलती हैं। यहां हम तुलनात्मक चार्ट प्रस्तुत कर रहे हैं ।
संख्या
४.
५-६.
७.
८.
६.
१०.
99.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१६.
२०.
२१.
२२.
२३, २४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२६.
व्यभा
६३ टी. प. २४
६३ टी. प. २४-२५
६३ टी. प. २५
६३ टी. प. २५, २६
६३ टी. प. २६
६४ टी. प. २७
६४ टी. प. २७
३२१ टी. प. ४४
३२३ टी. प. ४५
३२३ टी. प. ४६
३२६, ३३० टी. प. ४६
३२३ टी. प. ४६
३३३, ३३४ टी. प. ५१
५१७ टी. प. १७
५५५ टी. प. ३२
५८० टी. प. ४०
५८१ टी. प. ४०
१. दशवैकालिक नियुक्ति की संख्या संपादित एवं अप्रकाशित नियुक्ति की है।
३३७, ३३८ टी. प. ५२
४४८, ४४६ टी. प. ६२
४५० टी. प. ६४
४५२ टी. प. ६४
४५४ टी. प. ६५
४५४, ४५५ टी. प. ६५
४८१ टी. प. ३
परिशिष्ट-८
अन्य ग्रंथ
निभा. १२ चू. पृ. ८
निभा. १३ चू. पू. ६, १० दशनि' ४६ अचू. पृ. २३ । निभा. १४ चू. पृ. १०, ११ दशनि १५८ अचू. पृ. ५२ निभा. १५ चू. पू. ११ दशनि १५६ अचू. पृ. ५२ । निभा. १६ चू. पृ. १२, दशनि १५६ अचू. पृ. ५३ । निभा. ३२ चू. पृ. २०, दशनि १५७ अचू. पृ. ५० निभा. ३२ चू. पृ. २०, दशनि १५७ अचू. पृ. ५०५१ ।
निभा. ६३६६ चू. पू. निभा. ६३६६ चू. पू. निभा. ६३९६ चू. पू.
३०६ ।
निभा. ६४०५, ६४०६ चू. पृ. ३१० । निभा. ६३६६ चू. पृ. ३०६ ।
निमा. ६४०८ ६४०६ चू. पू. ३११। निभा. ६४१२, ६४१३ चू. पृ. निभा. ६५१३, ६५१४ चू. पू. निभा. ६५१५ चू. पू. ३४२ । निभा. ६५१७ चू. पू. ३४३ । निभा. ६५२२ चू. पृ. ३४५ । निभा. ६५२१ चू. पू. निभा. ६५४१ चू. पू. निभा. ६५७५. चू. पू. ३६१, ३६२ । निभा. ६६०१ चू. पृ. ३७४ । निभा. ६६२४ चू. पू. ३५० ।
३४४ । ३५० ।
निभा. ६६२५ चू. पृ. ३८० ।
३०४ । ३०६ ।
(गा. ४४२६ टी. प. ८०)
३१२ । ३४२ ।
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परिशिष्ट-1
३०, ३१.
३२, ३३.
३४.
५६.
७६.
११७.
१२४.
१२५. १२६.
५८०, ५८१ टी. प. ४०
५८१ टी. प. ४०, ४१ ५८६ टी. प. ४२ ११२५-११३१ टी. प. ३६ १६०१ टी. प. ५२
३१०३ टी. प. ४६
४२७८ टी. प. ६१
४२६०, ४२६१ टी. प. ६३ ४२६२, ४२६३ टी. प. ६३
निभा. ६६२५ चू. पू. ३८१ ।
निभा. ६६२५ चू. पू. ३८१ ।
निभा. ६६२८ चू. पृ. ३८२ । बृभा. ६२४३-४६ । निभा. ५७५ चू. पू. २२ । निभा. ६०७६ चू. पृ. २२६ । निमा. ३८४६ ।
निभा. ३८५८ ।
निभा. ३६५६ चू. पृ. २६६ ।
[ १६३
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परिशिष्ट-६
परिभाषाएं अंजलिप्रग्रह-अंजलिप्रग्रहो गुरुमुखे दृष्टिर्बुद्ध्युपयुक्तता।
(गा. २६५५ टी. प. ३८) अकुत्कुच-अकुत्कुचो हस्तपादमुखादिविरूपचेष्टारहितः ।
(गा. १४८२ टी. प. २६) अणिकेत-अणिययचारि अणिययवित्ती अगिहितो वि होति अणिकेतो।
(गा. ४०८६) अदम्भग-अदम्भको वञ्चनानुगतवचनविरहितः ।
(गा. १४८२ टी. प. २६) अध्यवसायी-या कर्तव्ये व्यवसायाधिकारिणी नालस्येनोपहता तिष्ठति साध्यवसायिनी।
(गा. २३८७ टी. प. १८) अनवक-यः प्रव्रज्यापर्यायेण त्रिवर्षोत्तीर्णः सोऽनवक उच्यते।
(गा. १५७८ टी. प. ४७) अनाभोग-अनाभोगो नाम एकान्तविस्मरणम् ।
(गा. ३६७६ टी. प. ५६) अनिश्रित-अनिश्रितं नाम यन्न पुस्तके लिखितमपेक्षते अभाषितं वा परैयाजेन उदीरितं वा यदवगृह्णाति तदनिश्रितम्।
(गा. ४१०८ टी. प. ४०) अनुकम्पा-अनुकम्पनं दुःखार्तस्यानुकम्पाकरणं बालवृद्धासहान् यथादेशकालमनुकम्पते । (गा. १५०७ टी. प. ३३) अनुज्ञा-सूत्रार्थयोरन्यप्रदानं, प्रदानं प्रत्यनुमननम् ।
(गा. ११४ टी. प. ४०) अनुशासन-सामाचारीतः प्रतिभज्यमानान् कथंचिद् रुष्टान् वा यदनुशास्ति तद्नुशासनम् । • यदि वा यो यथोक्तकार्येऽपि सन् कथंचिन्न कुरुते तत्कस्यचिच्छिक्षणमेतत्तदकृत्यमिति खग्गूडान्वानुशास्ति एतदनुशासनम् ।
(गा. १५०७ टी. प. ३३) अनुशिष्टि-उपदेशप्रदानमनुशिष्टिः स्तुतिकरणं वा अनुशिष्टिः ।
(गा. ५६० टी. प. ३४) अबहुश्रुत-अबहुश्रुतो नाम येनाचारप्रकल्पो निशीथाध्ययननामकः सूत्रतो अर्थतश्च नाधीतः । (गा. १६४७ टी. प. ६२) अभिनिचरिका-अभिनिचरिका आभिमुख्येन नियता चरिका सूत्रोपदेशेन बहिजिकादिषु दुर्बलानामाप्यायननिमित्तं पूर्वाह्ने काले समुत्कृष्टं समुदानं लब्धं गमनं अभिनिचरिका ।
(गा. २०७५ टी. प. ६६) अभिनिर्वगडा-अभि प्रत्येक नियतो वगडा परिक्षेपो यस्यां सा अभिनिव्वगडा।
(गा. २७२६ टी. प. ५०) अभिन्नाचार-अभिन्नेन केनचिदप्यतिचारविशेषेण अखण्डित आचारो ज्ञानाचारादिको यस्यासावभिन्नाचारः।
(गा. १४७८ टी. प. २८) अभिवर्धित (मास)-अभिवडिए य तत्तो इति ततश्चतुर्थादादित्यान् मासादनंतरपंचमो मासोऽभिवर्द्धितः ।
(गा. १६८ टी. प. ७) अभ्यन्तरकरण-अभ्यन्तरकरणं नाम द्वयोः साध्वोर्गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे कुलादिकार्यनिमित्तं परस्परमुल्लपतोस्तृतीयस्योपशुश्रूषोः बहिःकरणं । अथवा यदिष्टः सन्नभ्यन्तरे गत्वा तद् गच्छादिप्रयोजनं ब्रूते एतदभ्यन्तरकरणम् | . (गा. १५०७ टी. प. ३३) अभ्यासकरण-अभ्यासकरणमिति य अभ्यासादभ्युपेतास्तेषामात्मसमीपवतित्वकरणमभ्यासकरणम्। (गा.१४८१ टी. प. २६) अमात्य-सजणवयं च पुरवरं, चिंतंतो अच्छई नरवतिं च । ववहारनीतिकुसलो, अमच्चो एयारिसो अधवा ॥
(गा. ६३१) अल्पागम-अल्पागमो यो बाह्यो बाह्यशास्त्रविरहितः।
(गा. २४६० टी. प. ७) अवम-अवमो नाम आरात्रिवर्षारतो यस्य प्रव्रज्यापर्यायेण त्रीणि वर्षाणि नाद्यापि परिपूर्णानि भवन्ति।
(गा. १६४७ टी. प. ६२) अवयानी—अनुस्त्रोतोगामिनी अवयानी।
(गा. ११० टी प.३६)
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परिशिष्ट-६
[१६५
अवसत्र-आवस्सगं अणियतं, करेति हीणातिरित्त विवरीयं । गुरुवयणे य नियोगो, वलाति इणमो उ ओसन्नो ॥
(गा. ८८४) • उउबद्धपीढफलगं, ओसन्नं संजयं वियाणाहि । ठवियग-रइयगभोई, एमेया पडिवत्तिओ॥
(गा. ८८६) अव्यक्त-अव्यक्तो नाम श्रुतेन वयसा चाप्राप्तोऽपरिकर्मितः ।
(गा. ८१० टी. प. १००) असंक्लिष्टाचार-असंक्लिष्ट इह परलोकाशंसारूपसंक्लेशविप्रमूक्त आचारो यस्य सोऽसंक्लिष्टाचारः। (गा. १४७८ टी. प. २८) असंप्रग्रहित-आयरिओ उ बहुस्सुत, तवस्सि-जच्चादिगेहि व मदेहिं । जो होति अणुस्सित्तोऽसंपग्गहितो भवे सो उ॥
(गा. ४०८५) आचारकुशल-अफरुस-अणवल-अचवलमकुक्कयमदंभगोमसीभरगा। · सहित-समाहित-उवहित-गु णनिधि आयारकु सलो ॥उ
(गा. १४८२) • आचारकुशलो नाम यो गुर्वादीनामागच्छतामभ्युत्थानं करोति ।
(गा. १४८१ टी. प. २६) आचार्य-सुत्तत्थतदुभएहिं, उवउत्ता नाण-दंसण-चरित्ते। गणतत्तिविष्पमुक्का, एरिसया होति आयरिया ॥
(गा. ६५४) आच्छेद्य-आच्छेद्यं यद् भृतकादिलभ्यमाच्छिद्य दीयते उद्भिन्नं यत्कुतपादिमुखं स्थगितमप्युद्भिद्य ददाति। (गा. १५२१ टी. प. ३५) आजीवन-आजीवनं यदाहारशय्यादिकं जात्याद्याजीवनेनोत्पादितम् ।।
(गा. १५२१ टी: प. ३५) आज्ञापरिणामक आज्ञापरिणामको नाम यद् आज्ञाप्यते नत्कारणं न पृच्छति किमर्थमेतदिति किन्त्वाज्ञयैव कर्तव्यतया श्रद्दधाति ।
(गा. ४४४३ टी. प. ८२) आत्मचिन्तक-य आत्मानमेव केवलं चिन्तयन् मन्यते इति आत्मचिंतकः योऽपि गणेऽपि गच्छेऽपि वसन् तिष्ठन् न वहति न करोति तप्तिमन्येषां साधूनां सोऽप्यात्मचिन्तकः ।
(गा. १४५७ टी. प. २२) आदेश-आदिशितो वा आदेशः आदेश्यते सत्कारपुरस्कारमाकार्यत इत्यादेशः ।
(गा. ३७०४ टी. प. १) आधाकर्मिक-आधाकर्मिकं यन्मूलत एव साधूनां कृते कृतम्।
(गा. १५२१ टी. प. ३५) आरम्भ-आरंभो उद्दवओ • अपद्रावयतो जीवितात्परं व्यपरोपयतो व्यापारः आरंभ: ।
(गा. ४६ टी. प. १८) आराधक-आलोयमापरिणतो, सम्मं संपट्टितो गुरुसगासं । जदि अंतरा उ कालं, करेति आराहओ सो उ॥
(गा. २३३) आरोपणा-चाउम्मासुक्कोसे, मासियमज्झे य पंच उ जहन्ने । उवहिस्स अपेहाए, एसा खलु होइ आरुवणा॥
(गा. १३२) .आरोप्यते इति आरोपणा प्रायश्चित्तानामुपयुपर्यारोपणम्॥
(गा. ३६ टी. प. १५) आर्त-अहवा अत्तीभूतो, सच्चित्तादीहि होति दव्वेहिं । भावे कोहादीहिं, अभिभूतो होति अट्टो उ ॥
(गा. २०६८) आलीट-दक्षिणमुरुमग्रतो मुखं कृत्वा वाममुरुं पश्चादमुखमपसारयति अंतरा च द्वयोरपि पादयोः पंचपादाः ततो वामहस्तेन धनुर्गृहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यंचामाकर्षति तद् आलीढस्थानम् ।
(गा. २१८ टी. प. १३) आलोचना-आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य कार्यस्य पूर्व वा कार्यसमाप्तेरूज़ वा यदि वा पूर्वमपि पश्चादपि च गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणं सा चालोचना ।
(गा. ५४ टी. प. २१) आवलिका-या सा श्रुतोपसम्पत् परम्पराप्ता आवलिका ज्ञातव्या।
(गा. ३६८० टी. प. २३) आवेश—आविशतीत्यावेशः।। • आवेशनं नाम यस्मिन् स्थाने प्रविष्टेन सागारिकस्यायासो स आदेश आवेशो वा।
(गा. ३७०४ टी. प. १) उच्छेव-उच्छेवो नाम यत्र पतितुमारब्धं तत्रान्यस्येष्टकादेः संस्थापनम् ।
(गा. १७५४ टी. प. ६)
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१६६ ]
उत्पादक — उत्पादका नाम ये भूमिं भित्त्वा समुत्तिष्ठति । उद्देश - उद्देशो वाचनासूत्रप्रदानम् ।
उद्धारणा—उत्प्राबल्येन उपेत्य वा उद्धृतानामर्थपदानां धारणा उद्धारणा उद्यानी— नद्याः प्रतिस्रोतगामिनी सा उद्यानी । उपग्रह—दाण-दवावण-कारावणेसु करणे य कतमणुण्णाए । उवहितमणुवहितविधी, जाणाहि उवग्गहं एयं ॥
उपबृंहण—ज्ञानाचारादिषु पञ्चस्वाचारादिषु यथायोगमुद्यच्छतामुपबृंहणम् । उपाध्याय—— सुत्तत्थतदुभयविऊ, उज्जुत्ता नाण-दंसण-चरित्ते ।
निप्फादगसिस्साणं, एरिसया होतुवज्झाया ॥
उल्का — उक्क सरेहा पगासजुत्ता वा ।
ऊर्जा ऊर्जाबलं प्रभूततरभाषणेऽपि प्रवर्धमानस्वबलः आन्तरं उत्साहविशेषः ।
कल्प-कल्पते समर्था भवंति संयमाध्वनि प्रवर्त्तमाना अनेनेति कल्पः ।
किंकर — आजन्मावधिः कर्मकरः किंकरः ।
किणिक किणिका ये वादित्राणि परिताड्यन्ति । वध्यानां नगरमध्ये च नीयमानानां पुरतो वादयन्ति ।
कीर्ति — कीर्तिश्च अवदाता सकलधरामंडलव्यापिनी ।
कुशल-य: कुशदर्भ दात्रेण तथा लुनाति न क्वचिदपि दात्रेण विच्छिद्यते स कुशलः । कुशील -- कोउगभूतीकम्मे, पसिणाऽपसिणे निमित्तमाजीवी ।
एकलाभी — एकलाभी नाम यः प्रधानः शिष्यः तमेकं यो न ददाति । अवशेषांस्तु सर्वानपि प्रव्राजितान् गुरूणां प्रयच्छति अथवा येषामेक एव लाभो यथा यदि भक्तं लभन्ते ततो वस्त्रादीनि न, अथ वस्त्रादीनि लभन्ते तर्हि न भक्तमपि, एकमेव लभन्ते इत्येवंशीला एकलाभिनः । कनक-रेहारहितो भवे कणगो ।
(गा. १४६२ टी. प. २३)
कक्क - कुरुया य लक्खण, उवजीवति मंत-विजादी ॥ • जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुते चेव ।
सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो से ।।
कपिहसित—कपिहसितं नाम नभसि विकृतिरूपस्य वानरसदृशमुखस्य अट्टहासः ।
कर्बट — क्षुल्लकप्राकारवेष्टितं कर्बटम् ।
कल्क—कल्को नाम प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपात्नमथवात्मनः शरीरस्य देशतः सर्वतो वा लोध्रादिभिरुद्वर्तनम् ।
•
कृतयोगी नाम यः पूर्वमुभयधरः सूत्रार्थधरः आसीद् नेदानीम् । कृतयोगी सूत्रतोऽतर्थश्च छेदग्रंथधरः स्थविरः ।
कौतुक सोहग्गादिनिमित्तं परेसि ण्हवणादि कोउगं भणियं ।
परिशिष्ट- ६
(गा. ३४१२ टी. प. ७) (गा. ११४ टी. प. ४० ) (गा. ४५०६ टी. प. ८६ ) (गा. ११० टी. प. ३६ )
(गा. १५१६)
(गा. १५०७ टी. प. ३३ )
(गा. ६५६ ) (गा. ३११६)
(गा. ७५८ टी. प. ८४ )
कृतकरणा-या साध्या बहुशो वैयावृत्त्यानि कृतानि सा कृतकरणां कुशला । कृतयोग — कृतयोगो नाम कर्कशतपोभिरनेकधा भावितात्मा । कृतयोगी — सूत्रोपदेशेन मोक्षाविराधीकृतो न्यस्तो योगो मनोवाक्काय व्यापारात्मकः स कृतयोगः स येषामस्ति ते कृतयोगिनः ।
(गा. ८७६, ८८०) (गा. २३८७ टी. प. १८) (गा. ५३८ टी. प. २७)
(गा. १४७६ टी. प. २८) (गा. २३३५ टी. प. ६) (गा. २३६६ टी. प. १६) (गा. ८७६ टी. प. ११७ )
(गा. ३१६६) (गा. ३१७० टी. प. ५६ ) (गा. ६१५ टी. प. १२७)
(गा. ८७६ टी. प. ११७ )
(गा. ७ टी. प. ६) (गा. ३७०५ टी. प. २)
(गा. १४४८ टी. प. २१) (गा. १७८४ टी. प. १२) (गा. १४७७ टी. प. २७)
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परिशिष्ट-६
[१६७
क्षान्त—क्षान्तो नाम क्षमायुक्तः। स कस्मिंश्चित् प्रयोजने गुर्वादिभिः खरपरुषमपि भणितः सम्यक् प्रतिपद्यते ।
(गा. ५२२ टी. प. १६) क्षेम-क्षेमं नाम सुलक्षणं यद्वशात्सर्वत्र राज्ये नीरोगता।
(गा. १५६६ टी. प. ४४) खेड-पांशुप्राकारनिवद्धं खेटम् ।
(गा. ६१५ टी. प. १२७) गंधर्वनगर-गंधर्वनगरं नाम यच्चक्रवर्त्यादिनगरस्योत्पातं सूचनाय सन्ध्यासमये तस्य नगरस्योपरि द्वितीयं नगरं प्राकाराट्टालिकादिसंस्थितं दृश्यते ।
(गा. ३११७ टी. प. ४६) गणधर-ज्ञानादीनामविराधनां कुर्वन् यो गच्छं परिवर्धयति स गणधरः ।
(गा. १३७५ टी. प. ५) गर्हा-जुगुप्सेत् गर्हेद् गुरुसाक्षिकम् ।
(गा. ६१५ टी. प. १२६) गीतार्थ-उद्धावणा पधावण, खेत्तोवधिमग्गणासु अविसादी। सुत्तत्थतदुभयविऊ, गीयत्था एरिसा होति ॥
(गा. ६६२) • वस्त्रपात्रपिंडशय्यैषणाध्ययनादि छेदसूत्राणि च सूत्रतोऽर्थतः तदुभयतो वा येन सम्यगधीतानि स गीतार्थः ।
(गा. १०८ टी. प. ३८) गुणनिधि—गुणनिधिः संयमानुगता ये गुणास्तेषां निधिरिव तैः परिपूर्ण इति भावः गुणनिधिः । (गा. १४६० टी. प. ३०) गुणित-गुणितं च बहुशः परावर्तितं तथा सम्यग् ईहितं पूर्वापरसम्बन्धेन पूर्वापराव्याहतत्वेन । (गा. १४६६ टी. प. ३१) चक्षुर्मेल-चक्षुर्मेलो नाम यदेकं चक्षुरुन्मीलयति अपरं निमीलयति।
(गा. ४६४ टी. प. ७) चरणकुसील-नाणे नाणायारं, जो तु विराधेति कालमादीयं । दसणे दंसणायारं, चरणकुसीलो इमो होति ॥
(गा. ८७८) चरित्रविनय-पणिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं। एस उ चरित्तविणओ।
(गा.,६५) चियाय-चियाय त्ति दानरुचिर्यचौचित्यमाश्रितेभ्योऽन्येभ्यश्च ददाति ।
(गा. १४३४ टी. प. १६) चोदना-स्खलितस्य पुनः शिक्षणं चोदना।
(गा. २०६६ टी. प. ६६) जातकल्प-गीतत्थो जातकप्पो। - जातकल्पो नाम यो गीतार्थः सूत्रार्थतदुभयकुशलो।
(गा. १७४३ टी. प. ४) जितकरण—जितकरणो नाम करणदक्ष उच्यते।
(गा. १४४० टी. प. १६) जीतकल्प-जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराए अविरुद्धं । जोगा य बहुविकप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ॥
(गा. १२) • जीतं नाम प्रभूतानेकगीतार्थकृतमर्यादा ।
(गा. ७ टी. प. ६) • वत्तणुवत्तपवत्तो, बहुसो अणुवत्तिओ महाणेणं । । एसो उ जीयकप्पो, पंचमओ होति ववहारो॥
(गा. ४५२१) डमर-डमरं प्रभूतस्वदेशोत्थविप्लवाः।
(गा. १५६५ टी. प. ४४) डहरिका-जन्मपर्यायेण यावदष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा तावद् भवति डहरिका ।
(गा. २३१२ टी. प. ५) डोंब-डोम्बा येषां गहाणि सन्ति गीतं च गायन्ति।
(गा. १४४८ टी. प. २१) तरुण-जन्मपर्यायेण षोडशवर्षाण्यारभ्य यावच्चत्वारिंशद् वर्षाणि तावत्तरुणः ।
(गा. १५७७ टी. प. ४७) तितिण-तितिणो नाम यः स्वल्पेऽपि केनचित् साधूनापराद्धेऽनवरतं पुनः पुनस्तं रुषन्नास्ते । (गा. ८६१ टी. प. ११३) तिर्यग्गामिनी-या पुनर्नदी तिर्यग् छिनत्ति सा तिर्यग्गामिनी।
(गा. ११० टी. प. ३६) तीक्ष्ण तीक्ष्णं नाम यद् गुरुकमतिपाति च।
(गा. ६६६ टी. प. ७२) तीव्रसंविग्न-चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तहेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणं, तं जाणस तिव्वसंविग्गं ॥
(गा. २४८५)
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१६८]
परिशिष्ट-६
तेजस्विता-तेजस्विता प्रतिवादिक्षोभापादिकी शरीरस्य स्फूर्तिमती दीप्यमानता।
(गा. ७५८ टी. प. ८४) त्यक्तदेह-बंधेज व रुंभेज्ज व, कोई व हणेज अधव मारेञ्ज । वारेति न सो भगवं, चियत्तदेहो अपडिबद्धो॥
(गा. ३८४१) दत्ती-अव्वोच्छिन्ननिवाया उ दत्ती होई।
(गा. ३८१२) • दत्तयः पुनस्तामेव भिक्षां यावतो वारानवच्छिद्य क्षिपन्ति तावत्यो भवंति।
(गा. ३८११ टी. प. १८) • अत्यवच्छिन्ननिपातात् तु दत्तिर्भवति।
(गा. ३८१२ टी. प. १८) दर्प-कज्जाकज जताजत, अविजाणंतो अगीतो जं सेवे। सो होई तस्स दप्पो।
(गा. १७१) • व्यायामवल्गनादिषु व्यापृततया यो निःकारणेऽनादर उपस्थापनायाः स दर्प उच्यते। (गा. २०५४ टी. प. ६२) • दो निष्कारणमकल्पस्य प्रतिसेवनम्।
(गा. ४०१७ टी. प. २६) दान्त-दंतो जो उवरतो तु पावेहिं ।। • अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च।
(गा. ४५१४) दिग्दाह-पूर्वादिकायां छिन्नमूलो दाहः प्रज्वलनं दिग्दाहः । अन्यतमस्यां दिशि महानगरप्रदीप्तमिवोपरिरप्रकाशोऽधस्तादन्धकार इति दिग्दाहः ।
(गा. ३११६ टी. प. ४८) दीप्तचित्त-दीप्तचित्तो नामयस्य चित्तं दीप्यते अग्निरिवेन्धनैः ।
(गा. ११२४ टी. प. ३६) दुर्द्धर-दुर्द्धरं नाम नयभंगैर्वा गपिलत्वान्महता कप्टेन धार्यम् ।
(गा. ४११०) देवचिन्तक–देवचिन्तका नाम ये शुभाशुभं राज्ञः कथयन्ति ।
(गा. ४५६७ टी. प. ६६) देशक-यो ग्रामादीनां पंथानमृजुकं क्षेमेण प्रापयति स देशक इष्यते ।
(गा. १३७५ टी. प. ५) देशकालसंस्मरण –देशकालसंस्मरणं नाम अस्मिन् देशे अस्मिन् काले च कर्त्तव्यमिदं ग्लानादीनामिति विज्ञाय यद्देशे काले स्मारयत्याचार्याणां ग्लानादीनाम्।
(गा. १५०७ टी. प. ३३) द्रव्यव्युत्सृष्ट-असिणाण भूमिसयणा, अविभूसा कुलवधू पउत्थधवा । रक्खति पतिस्स सेज़, अणिकामा दव्ववोसट्ठो॥
(गा. ३८३८) धनवान-कोडिग्गसो हिरण्णं, मणि-मुत्त-सिलप्पवाल-रयणाई। अजय-पिउ-पज्जामय, एरिसया होंति धणमंता ॥
(गा. ६५०) घव-धारयति तां स्त्रियं धीयते वा तेन पसां वा स्त्री दधाति । सर्वात्मना पुष्णाति वा तेन कारणेन निरुक्तिवशात् धव इत्युच्यते॥
(गा. ३३४४ टी. प. ८६) धारणाबल-धारणाबलं प्रतिवादिनः शब्दतदर्थावधारणं बलम् ।
(गा. ७५८ टी. प. ८४) धारणाव्यवहार-धारणाव्यवहारो नाम गीतार्थेन संविग्नेनाचार्येण द्रव्य क्षेत्र-काल-भावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्चावलोक्य यस्मिन्नपराधे यत् प्रायश्चित्तमदायि तत् सर्वमन्यो दृष्ट्वा तेष्वेव द्रव्यादिषु तादृश एवापराधे तदेव प्रायश्चित्तं ददाति, एष धारणाव्यवहारः।
(गा. ६ टी. प.७) • उद्धारणा विधारण, संधारण संपधारणा चेव । नाऊण धीर पुरिसा, धारणववहार तं बेति ॥ .धारणयाच्छेदधुतार्थावधारणलक्षणया यः सम्यक् ज्ञात्वा व्यवहारः प्रयुज्यते तं धारणाव्यवहारं धीरपुरुषाः ब्रुवते ।
(गा. ४५०३ टी. प. ८८) धारित-धारितं सम्यग् धारणाविषयीकृतं न विनष्टम् ।
(गा. १४६६ टी. प. ३१) धीर-धिया औत्पत्तिक्यादिरूपया चतुर्विधया बुद्धया राजन्ते इति धीराः।
(गा. १४७६ टी. प. २८) नंदीपतद्ग्रह-नंदीपतद्ग्रहोऽतिशयेन महान् पतद्ग्रहस्तेनाध्वनि अवमौदर्ये परचक्रावरोधे च प्रयोजनं तथा च कश्चिद् ब्रूयाद् दिने दिने युष्माकमहमेकं पात्रं भरिष्यामि। ततस्तत नंदीपात्रं भार्यते एतेन कारणेन गच्छोपग्रहनिमित्तं धार्यते । (गा. ३६३३ टी. प. ४७)
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परिशिष्ट-६
[१६६
नय-नायम्मि गिव्हियव्वे, अगिण्हित पम्मि चेव अथम्मि । ' जइयव्वमेव इति जो, उवदेसो सो नयो नामं ॥
(गा. ४६६१) नायक-नायका ज्ञानादीनां प्रापकास्तदुपदेशनात् ।
(गा. १४७६ टी. प. २८) निंदा-निंदाद्यात्मसाक्षिकम् ।
(गा. ६१५ टी. प. १२६) निघूमक (राज्य)-निधूमकं नाम अपलक्षणं यत्प्रभावतो राज्यमनुशासति रन्धनीयमेव न भवति।।
(गा. १५६५ टी. प. ४४) निर्यापित-सम्यग् गुरुपादान्तिके निर्णीतार्थीकृतं निर्यापितम् ।
(गा. १४६८ टी. प. ३२) निर्यामक कथञ्चनापि प्रवहणं वाहयति यथा क्षिप्रमविघ्नेन समुद्रस्य पारमुपगच्छति एष एव च तत्त्वतो निर्याभक उच्यते।
(गा. १३७५ टी. प. ५) 'निर्वृहना-नि!हना नाम वैयावृत्त्यस्याकरणं यदि वा वसतौ दोषाभावे यत्स्थानं न ददातिएषा नियूहना वैयावृत्त्याकरणादिना यत्तस्याऽपाकरणं सा नि!हनेति भावः ।
(गा. १०५२ टी. प. २२) निरिम-निर्हारिमं नाम यद् ग्रामादीनामन्तः प्रतिपद्यते ।
(गा. ४३६४ टी. प. ७६) निश्रा-आहारादी दाहिइ, मझं तु एस निस्सा उ।
(गा. १६) निष्ठित-निष्ठितं नाम येन कारणेनोपसंपन्नस्तत्सूत्रार्थलक्षणं कारणं निष्ठितं समाप्तम् ।
(गा. २१०८ टी. प. ७३) नैचयिक-सणसत्तरमादीणं, धन्नाणं कुंभकोडिकोडीओ। जेसिं तु भोयणट्ठा, एरिसया होंति नेवतिया ॥ .
(गा. ६५१) • निचयेन संचयेनार्थाद् धान्यानां ये व्यवहरन्ति ते नैचयिकाः।
(गा. ६५१ टी. प. ११) पत्तन–पत्तनं शकटैर्गम्यं, घोटकैनौभिरेव च । नौभिरेव यद् गम्यं, पट्टनं तप्रचक्षते ।।
(गा. ६१५ टी. प. १२७) परिकर्मणा-परिकर्मणा नाम यदुपधिमुचितप्रमाणकरणतः संयतप्रायोग्यं करोति ।
(गा. २३५० टी. प. १२) परिकुंचणा–परिकुंचनं परिकुंचना गुरुदोषस्य मायया लघुदोषस्य कथनम् ।
(गा. ३६ टी. प. १५) परिचितश्रुत-परिचितमत्यन्तमभ्यस्तीकृतं श्रुतं येन स परिचितश्रुतः।
(गा. ८०० टी. प.६७) • परिचितं पूर्वस्मिन् पर्याये श्रुतं यस्य स परिचितपूर्वश्रुतः यदि वा प्रत्यागतस्यापि स्वाभिधानमिव परिचितं पूर्वपठितं यस्य स ।
(गा. १५४७ टी. प. ४०) परिजीर्ण–परिजुण्णो उ दरिद्दो, दव्वे धण-रयणसारपरिहीणो। भावे नाणादीहिं, परिजुण्णो एस लोगो उ॥
(गा. २०६९) पर्व-पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स य पक्खियं मुणेयव्वं । अण्णं पि होइ पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥
(गा. २६६८) मासद्धमासियाणं, पव्वं पुण होइ मज्झं तु ।
(गा. २६६७) पश्चात्संस्तुत-पश्चात्संस्तुतो भार्यापक्षगतः ।
(गा. ३७१६ टी. प. ४) पांशव-पांशवो नाम धूमाकारमापांडुरमचित्तरजं।
(गा. ३११५ टी. प. ४८) पाण-पाणा नाम ये ग्रामस्य नगरस्य च बहिराकाशे वसन्ति तेषां गृहाणामभावात् ।
(गा. १४४८ टी. प. २१) पाद-पायसमा ऊसासा, कालपमाणेण होंति नायव्वा ।
(गा. १२१) पारंचित-यस्मिन् प्रतिसेविते लिंग-क्षेत्र-काल-तपसां पारमंचति तत् पारांचितम् ।।
(गा. ५३ टी. प. २०, २१) पारायण-पारायणं नाम सूत्रार्थतदुभयानां पारगमनम् ।
(गा. १७३० टी. प. १) पारिणामिकीबुद्धि-यया पुनः पुद्गलानां विचित्रं परिणाम जानाति सा पारिणामिकी।
(गा. २३८६ टी. प. १६) पारिहारिक-पारिहारिका नाम आपन्नपरिहारतपसोऽभिधीयन्ते ।
(गा. ६२४ टी. प. ५२) पार्श्वस्थ-दंसण-नाण-चरित्ते, तवे य अत्ताहितो पवयणे य।
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१७०]
परिशिष्ट-६
तेसिं पासविहारी, पासत्थं तं वियाणाहि ॥
(गा. ८५३) दंसण-नाण-चरित्ते, सत्थो अच्छति तहिं न उज्जमति । एतेण उ पासत्थो।
(गा. ८५४) ज्ञानदर्शनचारित्रे यथोक्तरूपे यः स्वस्थोऽवतिष्ठते न पुनस्तत्र ज्ञानादौ यथा उद्यच्छति उद्यमं करोति । एतेन कारणेनैष पार्श्वस्थ उच्यते।
(गा. ८५४ टी. प. १११) सेज्जायर कुलनिस्सित, ठवणकुलपलोयणा अभिहडे य । पुब्बिं पच्छासंथुत, णितियग्गपिंडभोइ य पासत्थो॥
(गा. ८५६) पूजन-पूजनं नाम यथाक्रमं गुर्वादीनामाहारादिसम्पादनविनयकरणम् ।
(१५०७ टी. प. ३३)
पूतिनिर्वलनमास-पूतिनिर्वलनमासपूतिर्दुरभिगन्धिस्तस्य निर्वलनं स्फेटनं तत्प्रधानो मासः पूतिनिर्वलनमासः।।
(गा. १३४१ टी. प. ८१) पूर्वसंस्तुत—पूर्वसंस्तुतो नाम मातृपितृपक्षवर्ती।
(गा. ३७१६ टी. प. ४) पौराणदुर्द्धर-दुर्द्धरं नयभङ्गाकुलतया प्राकृतजनैर्धारयितुमशक्यं धरतेऽर्थान् प्रवचनमिति पौराणदुर्द्धरः ।
(गा. १४६६ टी. प. ३१) प्रज्ञप्ति-प्रज्ञप्ति म स्वसमयपरसमयप्ररूपणा ।
(गा. १४७७ टी. प.२७) प्रज्ञप्तिकुशल-जीवाजीवा बंधं, मोक्खं गतिरागतिं सुहं दुक्खं ।
पण्णत्तीकुसलविदू, परवादिकुदंसणे महणो । पण्णत्ती कुसलो खलु, जह खुड्गणी मुरुंडरायस्स। पुट्ठो कह न वि देवा, गयं पि कालं न याणंति ।
(गा. १५००-१५०१) प्रतिक्रमण-प्रतिक्रमणं दोषात प्रतिनिवर्तनमपुनःकरणतया मिथ्यादुष्कृतप्रदानम्
(गा. ५३ टी. प. २०) प्रतिचरक-प्रतिचरका नाम अपराधापन्नस्थप्रायश्चित्ते दत्ते तपः कुर्वतो ग्लानायमानस्य वैयावृत्त्यकरास्ते प्रति
(गा. ३०४ टी. प. ३६) प्रतिचोदना–पुनः पुनः स्खलितस्य निष्ठुरं शिक्षापणं प्रतिचोदना ।
(गा. २०८६ टी. प. ६६) प्रतिज्ञापना–प्रतिज्ञापना नाम विधिना पात्रादीनां मार्गणा।।
(गा. ३६२६ टी प. ४६) प्रतिबोधक-प्रतिबोधको नाम गृहचिन्तक उच्यते यो गृहं चिन्तयन् यो यत्र योग्यस्तं तत्र व्यापारयति तत्र व्याप्रियमाणं च प्रमादतः स्खलन्तं निवारयति स गृहचिन्तक उच्यते ।
(गा. १३७५ टी.प. ५) प्रतिसेवक-प्रतिसेवको नाम यो भिक्षुः निष्कारणे कारणाभावेऽपि पञ्चकादीनि प्रायश्चित्तस्थानानि प्रतिसेवते ।
(गा. १६४७ टी. प. ६२) प्रतिसेवना-प्रतिषिद्धस्य सेवना प्रतिसेवना, अकल्प्यसमाचरणमिति भावः।
(गा. ३६ टी.प. १५) प्रतीच्छक-प्रतीच्छकः परगणवर्ती सूत्रार्थदुभयग्राहकः ।
(गा. १६८२ टी. प. ६७) पाडिच्छे त्ति येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसम्पदं गृह्यते ते प्रतीच्छकाः। (गा. ६५७ टी. प. १३४) प्रत्यनीक-आत्मनः परेषां च प्रतिकलः प्रत्यनीकः।
(गा. १७१३ टी. प. ७१) प्रत्यालीढ-यत्पुनर्वाममुरुमग्रतो मुखमाधाय दक्षिणमुरुं पश्चामुखमपसारयति अंतरा वात्रापि द्वयोरपि पादयोःपंचपादास्ततः पूर्वप्रकारेण युध्यते तत् प्रत्यालीढम् ।
(गा. २१८ टी. प. १३) प्रमार्जनासंयम-य उपकरणभारमाददानो निक्षिपन्वा प्रतिलेख्य प्रमाय॑ च गृह्णाति निक्षिपति वा एतेन प्रेक्षासंयमः प्रमार्जनासंयमः।
(गा. १४६० टी. प. ३०) प्रयत-प्रयतो नाम कृताञ्जलिप्रग्रहो दृष्ट्वा सूरिमुखारविंदमवेक्षमाणो बुद्धयुपयुक्तः ।
(गा. २६५० टी. प. ३७) प्रलीन-कोधादी वा पलयं. जेसि गता ते पलीणा उ ।
(गा. ४५१३)
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परिशिष्ट
[१७१
प्रवर्तक-तव-नियम-विणयगुणनिहि.पत्तगा नाण-दंसण.चरित्ते। संगहवग्गहकुसला, पवत्ति एतारिसा होति ॥
(गा. ६५८) • संजम-तव-नियमसं, जो जोग्गो तत्थ तं पवत्तेति। असहू य नियत्तेती, गणतत्तिल्ला पवत्तीओ ॥
(गा. ६५९) प्रश्नाप्रश्न-प्रश्नाप्रश्नं नाम यत् स्वप्नविद्यादिभिः शिष्टस्यान्येभ्यः कथनम् ।
(गा. ९७६ टी. प. ११७) प्राभूत-परिमाणपरिच्छिन्ना प्राभृतशब्दवाच्याः।
(गा. ४३५ टी. प. ८८) प्राभृतं नाम यदिष्टः श्रुतस्कंधः ।
(गा. २११७ टी. प. ७४) फलित-फलितं नाम यद् व्यजनैर्भक्ष्यैर्वा नानाप्रकारैर्विरचितम् ।
(गा. ३८२१ टी. प. १६) बकुशत्व-बकुशत्वं शरीरोपकरणविभूषाकरणम् ।
(गा. १५८६ टी. प. ४६) बहुमान–बहुमानो नाम आंतरो भावप्रतिबंधः ।
(गा. ६३ टी. प. २५) .बहुमानमान्तरप्रीतिविशेषः।
(गा. ३०३३ टी. प. ३६) बहुसूत्र-बहुकालोचितं सूत्रं आचारादिकं यस्य स बहुसूत्रो गीतार्थो विदितसूत्रार्थः ।
(गा. १४४२ टी. प. १६) बह्वागम-बहुरागमोऽर्थरूपो यस्य स बह्वागमः जघन्येनाचारप्रकल्पधरो निशीथाध्ययनसूत्रार्थधरः ।
(गा. १४७६ टी. प. २८) बुबुद-यत्र वर्षे निपतति पानीयमध्ये बुद्बुदास्तोयशलाका रूपा उत्तिष्ठन्ति ततो वर्षमप्युपचारात् बुबुदमित्युच्यते ।
(गा. ३१११ टी. प. ४८) भावगण-गीतत्थउजुयाणं, गीतपुरोगामिणं चऽगीताणं । एसो खलु भावगणो, नाणादितिगं च जत्थत्थि ॥
(गा. १३६७) भावसंविग्न-भावसंविग्ना ये संसारादुत्त्रस्तमानसतया सदैव पूर्वरात्रादिष्वेतचिंतयति किं मे कडं, किं च ममस्थि सेसं, किं सक्कणिजं न समायरामि इत्यादि।
(गा. १ टी. प. ६) भिक्षा-हस्तेन वा मात्रेण वा या समुद्यता उत्पादिता सा भिक्षेत्युच्यते ।
(गा. ३८११ टी प १८) भिक्षावृत्ति-अच्चित्ता एसणिज्जा य, मिता काले परिक्खिता। जहालद्धा विसुद्धा य, एसा वित्ती य भिक्खुणो ॥
(गा. १६३) भिक्षु-अविहिंस बंभचारी, पोसहिय अमज्जमंसियाऽचोरा । सति लंभ परिच्चाई, होति तदक्खा न सेसा उ ।
(गा. १९०) भिक्षुभाव-भिक्षभावो नाम स्मारणा वारणा प्रतिचोदना ।
(गा. २०८६ टी. प. ६६) भूतिकर्म-जरियादिभूतिदाणं, भूतीकम्मं विणिद्दिष्टुं । • भूतिकर्म नाम यज्ज्वरितादीनामभिमंत्रितेन क्षारेण रक्षाकरणम्।
(गा. ८७६ टी. प. ११७) भूमिकर्म-भूमिकर्म नाम विषमाणि भूमिस्थानानि भुंक्त्वा संमार्जन्या संमार्जनम्, आमर्जनं मृदुगोमयादिना लिम्पनम् ।
(गा. १७५४ टी. प. ६) मृतक-भृतकः कियत्कालं मूल्येन धृतः ।
(गा. ३७०५ टी. प. २) मंडल-द्वावपि पादौ समौ दक्षिणवामतोऽपसार्य ऊरू प्रसारयति यथा मध्ये मंडलं भवति अंतरा चत्वारः पादास्तद् मंडलम् ।
(गा. २१८ टी. प. १३) मंत्र-साधनरहितो मंत्रः।
(गा. २३२१) मंदसंविग्न-चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तहेव सज्झाओ। एत्थ परितम्ममाणं, तं जाणसु मदसंविग्गं॥
(गा. २४८४) मडभ-मडभाः कुब्जाः कुष्टव्याध्युपहताः।।
(गा. १४५० टी. प. २१) मडम्ब-अर्धतृतीयगव्यूतान्तामान्तररहितं मडंबम् ।
(गा. ६१५ टी. प. १२७)
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१७२ ]
मध्यस्थ—मध्ये रागद्वेषयोरपान्तराले तिष्ठतीति मध्यस्थाः । मन्मन—– मम्मणो पुण भासतो, खलए अंतरंतरा ।
चिरेण णीति से वाया, अविसुद्धा व भासते ॥ महत्तरक— गंभीरो मद्दवितो, कुसलो जो जातिविणयसंपन्नो ।
जुवरण्णा सहितो, पेच्छइ कज्जाइ महतरओ ||
(गा. ६३० )
महागोप-यो गोपो गाः स्वापदेषु विषमेषु वा प्रदेशेष्वटव्यां वा पतंतीर्वारयित्वा च क्षेमेण स्वस्थानमानयति स महागोप उच्यते ।
(गा. १३७५ टी. प. ५) (गा. २६३० टी. प. ३३) (गा. २६३० टी. प. ३३) (गा. २७०३ टी. प. ४६ ) (गा. १५६५ टी. प. ४४ )
(गा. २०३ )
(गा. ८७६ टी. प. ११७ ) (गा. ७५८ टी. प. ८४ )
महानिर्जर — महानिर्जरस्तदावरणीयस्य कर्मणः क्षयकरणात् । महापर्यवसान—महापर्यवसानः पुनरन्यनवकर्मबंधाभावात् ।
महापान — पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं च महापानम् । मारि — मारिर्यद्वशान्मारिदोषोपहतं प्रचुरं दुर्भिक्षमुपयाति ।
मुहूर्त - अहवा वि तीसतिगुणे, सेसे तेणेव भागहारेणं ।
भइयम्मि जं तु लब्भति, ते उ मुहुत्ता मुणेयव्वा ।।
मूलकर्म — मूलकर्म नाम पुरुषद्वेषिण्याः सत्या अपुरुषद्वेषिणीकरणमपुरुषद्वेषिण्याः सत्याः पुरुषद्वेषिणीकरण ।
मेघा - अपूर्वापूर्वऊहणोहात्मको ज्ञानविशेषः ।
यथाछंद — उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पण्णवेमाणो ।
t
एसी उ अधाछंदो ।
उस्सुत्तमणुवदिट्ठ, सच्छंदविगप्पियं अणणुवादी । परतत्तिपवित्ते तिंतिणे य इणमो अहाछंदो ||
सच्छंदमतिविगप्पिय, किंची सुह - सायविगतिपडिबद्धो । तिहि गारवेहि मज्जति, तं जाणाहि य अधाछंदं ॥
यक्षालिप्त———यक्षालिप्तं नाम एकस्यां दिशि अन्तरान्तरा यद्दृश्यते । युवराज — आवस्सयाइ काउं, जो पुव्वाइं तु निरवसेसाई ।
(गा. ८६०-६२) (गा. ३११७ टी. प. ४६ )
(गा. ६२६ )
(गा. ३११६ टी. प. ४६ )
केषाञ्चिदाचार्याणां मतेन भवन्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदा दिक्षु दिवसेष्वमोघामोघा शुभाशुभसूचननिमित्तादि तथोत्पादा आदित्यकरणविकारजनिता आदित्यस्योदयसमयेऽस्तमयसमये वाताम्राः कृष्णश्यामा वा यूपक इति । (गा. ३१२० टी. प. ४६ ) रचितक ( भिक्षादोष ) -- रचितं नाम संयतनिमित्तं कांस्यपात्रादौ मध्ये भक्तं निवेश्य पार्श्वेषु व्यजनानि बहुविधानि स्थाप्यन्ते ।
(गा. १५२१ टी. प. ३५)
(गा. १३ टी. प. ८)
(गा. ४६३२ टी. प. १०५)
अत्थाणीमज्झगतो, पेच्छति कज्जाई जुवराया ॥
यूपक—यूपको नाम शुक्ले शुक्लपक्षे त्रीणि दिनानि यावद् द्वितीयस्यां तृतीयस्यां चतुर्थ्यां चेत्यर्थः सन्ध्याच्छेदः ।
रचितक भोजी-रचितकं नाम कांस्यपात्रादिषु पटादिषु वा यदशनादिदेयबुद्ध्या वैविक्त्येन स्थापितं तद् भुंक्ते इत्येवंशीलो रचितकभोजी ।
राजकुमार — पच्चंते खुमंते, दुद्दते सव्वतो दमेमाणो ।
संगमनीतिकुसलो, कुमार एतारिसी होति ॥
राजा - पंचविधे कामगुणे, साहीणे भुंजते निरुव्विग्गे । वावारविप्पमुक्को, राया एतारिसो होति ॥
परिशिष्ट- ६
(गा. ८८६ टीप ११६)
(गा. ६४८ )
(गा. ६२८)
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परिशिष्ट-६
[१७३
रूपयक्ष-भंभीय मासुरुक्खे, माढरकोडिण्णदंडनीतीसु । अधऽलंचऽपक्खगाही, एरिसया रूवजक्खा तु॥
(गा. ६५२) लक-लढा ये वंशादेरुपरि नृत्तं दर्शयन्ति ।
(गा. १४४६ टी. प २१) लवसत्तम-सत्तलवा जदि आउं, पहुप्पमाणं ततो तु सिज्झंतो ।
तत्तियमेत्तं न भूतं, ततो ते लवसत्तमा जाता ॥ सव्वट्ठसिद्धिनामे,उक्कोसट्ठिई य विजयमादीसु । एगावसेसगब्मा, भवंति लवसत्तमा देवा ॥
(गा. २४३३, २४३४) लोकोत्तरप्रग्रह-आयरिय-उवज्झाए, पवत्ति-थेरे तहेव गणवच्छे । एसो लोगुत्तरिओ, पंचविहो पग्गहो होति ॥
(गा. २१७) वक्षस्कार-वक्खारो नाम एकस्यां वलभ्यामभिनिर्वगडो विष्वग् अपवरकः ।
(गा. २७८२ टी. प. ६१) वचनसंग्रहकुशल-वचने वचनविषये अभिग्रहिकस्य गृहीताभिग्रहप्रतिपत्तमौनव्रतस्येत्यर्थः। केनापि प्रश्ने कृते सति तस्योत्तरं यद्भणत्येष वचनसंग्रहकुशलः।।
(गा. १५०६ टी. प. ३४) वन-एकद्रुम एकजातीया ये वृक्षास्ते यत्र विद्यन्ते तद् भवति वनम् ।
(गा. ३७६१ टी. प. १५) • एकजातीयद्रुमसंघातो वनम् ।
(गा. ३७८६ टी. प. १५) वनीपक (भिक्षादोष)-वनीपकीभूय पिण्ड उत्पाद्यते स पिण्डोऽपि वनीपकः।
(गा. १५२१ टी. प. ३५) वर्त्तना—पूर्वगृहीतस्य सूत्रार्थस्य तदुभयस्य वा पुनः पुनरभ्यसनं वर्तना।
(गा. २८५ टी. प. ३२) • पूर्वगृहीतस्य पुनरुज्ज्वालनं वर्तना ।
(गा. ३६७५ टी. प. २३) वस्तु-वस्तूनि नाम अर्थाधिकारविशेषाः।
(गा. ४३५ टी. प. १८) वाचिकविनय-हित-मित-अफरुसभासी. अणवीइभासि स वाइओ विणओ।
(गा. ६८) वारणा-अनाचारस्य प्रतिषेधनं वारणा।
(गा. २०६६ टी. प. ६६) विचारभूमि-विचारभूमिः पुरीषोत्सर्गभूमिः ।
(गा. १७६७ टी. प. ८) विदुर्ग-• विदुर्गे वा नानाजातीयद्रुमसंघाते ।
(गा. ३७८६ टी. प. १५) • नानाजातीयद्रुमरूपं विदुर्गम् ।
(गा. ३७६१ टी. प. १५) विधारणा–विविधैः प्रकारैः विशिष्टं चार्थमुद्धृतमर्थपदं यया धारणया स्मृत्या धारयति सा विधारा विधारणा।
(गा. ४५०६, टी. प. ८६) विपतगृह---विपतद्ग्रहः नंदीपतद्ग्रहात् किंचिदूनः स एतदर्थं धार्यते कदाचित् पतद्ग्रहो भिद्येत ।
(गा. ३६३३ टी. प. ४७) विमात्रक–विमात्रको मात्रकाद् मनाक् समधिक ऊनतरो वा ।
(गा. ३६३३ टी. प. ४७) वियार-विचारो नाम उच्चारादिपरिष्ठापनम् ।
(गा. ११० टी. प. ३६) विस्रोतसिका-विस्रोतसिका संयमस्थानप्लावनम् ।
(गा. २६५० टी. प. ३७) विहारविकटना-संतम्मि वि बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं । एस विहारवियडणा।
(गा. २४४) वीर-वीर ऊरसबलवान् तेनाक्लेशेन परबलं जयति ।
(गा. १४१४ टी. प. १८) वृद्ध-वृद्धाः श्रुतेन पर्यायेण वयसा च महान्तः ।
(गा. २३७८ टी. प. १७) वृद्धशील-निहुयसभाव अचंचल, नातव्यो वुड्ढसील ति॥
(गा. ४०८६) वैध-अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहिं। वेज्जा देति समाधि, जहिं कता आगमा होति ।
(गा. ६४६)
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१७४ ]
परिशिष्ट
वैशाख–स्थानमालीढस्य प्रतिपथि विपरीतत्वात् प्रत्याली, प्रत्युन्नः पाणी अभ्यंतराभिमुखे कृत्वा समश्रेण्या करोति अग्रिमतले च बहिर्मुखे ततो युध्यते तद् वैशाखं स्थानम् ।
(गा. २१८ टी. प. १३) व्यवहार-अस्थी पनत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स। एएण उ ववहारो।
(गा.५) व्यवहारी–पियधम्मा दढधम्मा, संविग्गा चेव वञ्जभीरू य। सुत्तत्थतदुभयविऊ, अणिस्सिय ववहारकारी य॥ .
(गा. १४) व्याक्षिप्त-व्याक्षिप्तः कर्मणि कर्त्तव्ये व्याकुलः।
(गा. २५२५ टी. प. १३) व्युत्सृष्टदेह-वातिय-पित्तिय-सिंभिय, रोगातंकेहिं तत्थ पुट्ठो वि । न कुणति परिकम्मं सो, किंचि वि वोसट्ठदेहो उ॥ ..
(गा. ३८३६ टी. प. ३) शर-शरो नाम निर्भयः। स च कतश्चिदपि न भयमपगच्छति।
(गा. १४३४ टी. प. १८) श्रुतनिघर्ष-श्रुतं निघर्षयन्तीति श्रुतनिघर्षाः। किमुक्तं भवति ? यथा सुवर्णकारस्तापनिघर्षच्छेदैः सुवर्णं परीक्षते किं सुन्दरमथवामङ्गलमिति एवं स्वसमयपरसमयान् परीक्षयन्ते ते श्रुतनिघर्षाः ।
(गा. १४७६ टी. प. २८) श्रुतबहुश्रुत-यस्य बह्वपि श्रुतं न विस्मृतिपथमुपयाति स श्रुतबहुश्रुतः।
(गा. ४५०८ टी. प. ८६) संघ-संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं ।
रागद्दोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं ॥ • परिणामियबुद्धीए, उववेतो होति समणसंघो उ। __ कजे निच्छियकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो। .
(गा. १६७७,१६७८) • आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि । अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं। .
(गा. १६८१) संदंश-संडासए इति अंगुष्ठप्रदेशिनीभ्यां यद् गृह्यते शाल्यादिकं तावन्मात्रं प्रतिगृहं गृह्णन्ति ।
(गा. ३८५३ टी. प. ५) संघना–विस्मृत्यापान्तराले त्रुटितस्य पुनः संधानकरणं संधना।
(गा. ३६७५ टी. प. २३) पूर्वगृहीतविस्मृतस्य पुनः संस्थापनं संधना।
(गा. २८५ टी. प. ३२) संधारणा-समशब्दं एकाकीभावे धृतानुधारणा तान्यर्थपदानि आत्मना सह एकभावेन यस्माद्धारयति तस्माद् धारणा संधारणा।
(गा. ४५०६ टी. प. ८६) संपाण्डुगभाण्डधारी-संपाण्डुगभाण्डधारिणो नाम यावन्मात्रमुपकरणमुपयुज्यते तावन्मात्रं धरन्ति शेषं परिष्ठापयन्ति ।
(गा. ३५८६ टी. प. ३८) संप्रधारणा–यस्मात् सन्धार्य सम्यक् प्रकर्षणांवधार्य व्यवहारः प्रयुक्त तस्मात्कारणात्तेन शिष्येण सम्प्रधारणा भवति ज्ञातव्या।
(गा. ४५०६ टी. प. ८६) संबाध-संबाधो यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशः।।
(गा. ६१५ टी. प. १२७) संभोजन-संभोजनं नाम यत्सांभोगिकैः सह भोजनसंभोगो भक्ते वहति ।
(गा. १५०७ टी. प. ३३) संयमकुशल-पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे जो भवे कुसलो।
(गा. १४८८) • अधवा गहणे-निसिरण, एसण सेजा-निसेज-उवधी य। आहारे वि य सतिमं, पसत्थजोगे य जुंजणया ॥
(गा. १४८६) • इंदिय-कसायनिग्गह, पिहितासवजोगझाणमल्लीणो। संजमकुसलगुणनिधि, तिविधकरणभावसुविसुद्धो॥
• (गा. १४६०) • भवत्यप्रशस्तानां मनोवाक्काययोगानामपवर्जन प्रशस्तानां मनोवाक्काययोगानामभियोजनं संयमकशलः।
(गा. १४६० टी. प. ३०)
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परिशिष्ट-६
[१७५
• ग्रहणे आदाने निसिरणे एषणायां गवेषणादिभेदभिन्नायां शय्यानिषद्योपध्याहारविषयानां च निषद्यायां सम्यगुपयुक्तः संयमकुशलः।
(गा. १४६० टी. प. ३०) संयम सप्तदशविधं यो जानात्याचरति च स संयमकुशलः।
(गा. १४७७ टी. प. २७) संयोगदृष्टपाठी—अनेकान् संयोगान् व्यापार्यमाणान् यो दृष्टवान् यश्च तत् पाठं पठितवान् स संयोगदृष्टपाठी।..
(गा. २४२४ टी. प. २४) संयोजना-संयोजनं संयोजना शय्यातरराजपिंडादिभेदभिन्नाऽपराधजनितप्रायश्चित्तानां संकलनाकरणम्। (गा. ३६ टी. प. १५) संरम्भ-संकप्पो संरंभो .प्राणातिपातं करोमीति यः संकल्पोऽध्यवसायः स संरंभः ।
(गा. ४६ टी. प. १८) संवत-संवा नाम यत्र विषमादौ भयेन लोकः संवतीभूतस्तिष्ठति।
(गा. ३८७८ टी. प. ६) संसक्त-सामायारी वितह. कणमाणो जं च पावए जत्थ संसत्तो च अलंदो।
(गा. ८८७) • यः पार्श्वस्थादिषु मिलितः पार्श्वस्थसदृशो भवति,संविनेषु मिलितः संविग्रसदृशः स संसक्तः। • अलिंदे गोभक्तं कुक्कुसओदनभिस्सटाअवश्रावणमित्यादि पूर्वमेकत्वमिलितं भवतीति संसक्त उच्यते ।
(गा. ८८८ टी. प. ११६) • पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो । इत्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो ॥
(गा. ८६०) संसारप्रवर्धक जो जह व तह लद्धं, भुजति आहार-उवधिमादीयं । समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवड्ढगो भणितो ।।
(गा. १०८५) संस्तारक-संस्तारकोऽर्धतृतीयहस्तदीर्घहस्तचत्वार्यगुलानि विस्तीर्णः।
(गा. ३३८७ टी. प. २) सचित्तरज-सचित्तरजो नाम व्यवहारसचित्ता वातोद्धता श्लक्ष्णधूलिस्तच्च सचित्तरजो वर्णेनाताम्रम् ।
(गा. ३१११ टी. प. ४८) सत्त्व-प्राणव्यपरोपण समर्थविद्याप्रयोगेप्यचलितस्तन्मानोपमर्दहेतुरवष्टम्भः ।
(गा. ७५८ टी. प. ८४) समपाद-द्वावपि पादौ समौ निरंतरं यत् स्थापयति जानुनी उरू चातिसरले करोति तत् समपादम्।
(गा. २१८ टी. प. १३) समारंभ-परितावकरो भवे समारंभो। .यस्तु परस्य परितापकरो व्यापार स समारंभः।।
(गा ४६ टी. प. १८) समाहित-सम्मं आहितभावो समाहितो।
(गा. १४८७) समाहितः उपशमी ज्ञानादीनां हितः स्थित उत्पत्तिके ज्ञानाद्यधिकं निर्मलतरं आत्मनो वाञ्छन् सदैव गुरुषु बहुमानपर इति भावः ।
(गा. १४८२ टी. प. २६) समुद्देश—समुद्देशो व्याख्या अर्थप्रदानम् ।
(गा. ११४ टी. प. ११५) सहित–सहितो नाम यो यस्य ज्ञानादेरुचितः कालस्तेनोपेतः ।
(गा. १४८२ टी. प. २६) सात्त्विक-सात्त्विको नाम यो महत्यप्युदये गर्व नोपयाति ।
(गा. १४३४ टी. प. १८) सारूपिक-सारूपिको शिरो मंडो रजोहरणरहितो अलाबपात्रेण भिक्षामटति सभार्योऽभार्यो वा। (गा. 3६७१ टी. प.५५) सारूपिकसिद्धपुत्र-सारूपिकसिद्धपुत्रो नाम मुण्डितशिखो रजोहरणरहितोऽलाबुपात्रेण भिक्षामटन् सभार्यो वा ।
(गा. ३६५६ टी. प. ५२) सिति–सितिर्नाम ऊर्ध्वमधो वा गच्छतः सुखोत्तरोवतारहेतुः काष्ठादिमयः पन्थाः।
(गा. ४२३७ टी. प. ५५) सिद्धपुत्र-सिद्धपुत्र नाम सकेशो भिक्षामटति वा न वा वराटकैः विटलकं करोति यष्टिं धारयति ।
(गा. ३६७१ टी. प. ५५) सीभर-सीभरो नाम य उल्लफ्न् परं लालया सिञ्चति ।
(गा. १४८२ टी. प. २६)
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१७६]
परिशिष्ट-६
(गा. ४१५५)
(गा. ३०१६ टी. प. ३३)
(गा. ३०१६ टी.प.३३) (गा. ३०१६ टी. प. ३३)
(गा. ३७७५)
सुप्रणिहित—जो एतेसुं न वट्टति, कोधे दोसे तधेव कंखाए।
सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपणिधाणजुत्तो वा। स्तव-अष्टश्लोकादिकाः स्तवाः।
.चतुःश्लोकादिकः स्तवः। स्तुति-एकश्लोका द्विश्लोका त्रिश्लोका वा स्तुतिर्भवति ।
• अन्येषामाचार्याणां मतेन एकश्लोकादिसप्तश्लोकपर्यन्ताः स्तुतिः ।
• थुतिओ तिसिलोइया। स्थविर-संविग्गो मद्दवितो, पियधम्मो नाण-दंसण चरित्ते।
जे अटे परिहायति, ते सारेंतो हवति थेरो॥
• स्थविरा नाम अतिमहान्तो वयसातिगरिष्ठा। स्थापित स्थापितं यत्संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम् । स्थिर-स्थिरो नाम धृतिसंहननाभ्यां बलवान।
•स्थिरो नाम उद्योगं कुर्वन्नपि न परिताम्यति ।
• स्थिरो नाम यस्तत्रावस्थायी ध्रुवकर्मिकः । स्पर्शित-स्पर्शितो योगत्रिकेण सेविता पालिता। हरियाडिया-स्तेनैर्तृतस्य स्तेनहरणं हृताहृतिका स्तेनानीतप्रतीच्छा हृताहतिका भण्यते ।
(गा. ६६०) (गा. १४६२ टी.प. २३) (गा. १५२१ टी. पं. ३५)
(गा. ५३८ टी. प. २७) (गा. १४३४ टी. प. १६) (गा. २५२५ टी. प. १३) (गा. ३७७६ टी. प. १३) (गा. ३७६७ टी. पं. ११)
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परिशिष्ट-१०
उपमा
७३
• कुंभादि तियस्स जह सिद्धी। २ • गञ्जति वसभोव्व परिसाए।
७१३ • नेहमिव उग्गिरंतो।
• वसभे जोधे य तहा, निजामगविरहिते जहा पोते। ७५० • कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं। २२३ • अप्फालिया जह रणे, जोधा भंजंति परबलाणीयं । ७५२ • आसो विव पत्थितो गुरुसगासं।
२३१ • सुनिउणनिजामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो । ७५३ • सिग्घुजुगती आसो, अणुयत्तति सारहिं न अत्ताणं । २३२ निउणमतिनिजामगो पोतो जह इच्छितं वए भूमि। ७५४ • नववज्जियावदेहो।
२५१ • वासगगतं तु पोसति, चंचूपूरेहि सउणिया छावं। • पलिउंचियम्मि अस्सुवमा।
३२१
वारेति तमुटुंतं, जाव समत्थं न जातं तु।। ७७१ . जो जत्तिएण रोगो, पसमति तं देति भेसजं वेजो। . एमेव वणे सीही सा रक्खति छावपोयगं गहणे। एवागमसुतनाणी, सुज्झति जेणं तयं देति ।। ३२६
खीरमिउपिसियचब्विय जा खायइ अट्ठियाई पि॥ ७७२ • घतकुडगो उ जिणस्सा, चोद्दसपुब्बिस्स नालिया होति।।
पडिवक्खेण उवमिमो, सउणिग सीहादिछावहिं। ७७४
४३८ जह सीहो तह साधू, गिरि-नदि सीहो तवोधणो साधु । • संघयणं जध सगडं, धिति उ धोज्जेहि होति उवणीया।
वेयावच्चऽकिलंतो, अभिन्नरोमो य आवासे ।। ७७६ बिय तिय चरिमे भंगे, तं दिज्जति जं तरति वोढुं ।। ४५१ लंखग-मल्ले-उवमा, आसकिसोरे व्व जोग्गविते। ७८३ . भिण्णे खंधग्गिम्मि य. मासचउम्मासिए चेडे। ४६४ | . सउणी जह पंजरंतरनिरुद्धा। • बहुएहि जलकुडेहिं, बहूणि वत्वाणि काणि वि विसुज्झे। • सव्वासिरोगि उवमा, सरदे य पडे अविधुयम्मि। ८४६ अप्पमलाणि बहूणि वि, काणिइ सुझंति एगेणं ।। ५०८ • जध वणहत्थी उ बंधणं चतितो।
८५८१ • हरिसमिव वेदयंतो,तधा तधा वडते उवरिं। ५१६ • संविग्गजणो जड्डो,जह सुहिओ सारणाए चइओ उ। , • कुविय-पियबंधवस्स व।
८५८ • अवसो व रायदंडो।
• जध उ बइल्लो बलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव। • जह सरणमुवगयाणं, जीवियववरोवणं नरो कुणति।
गुरुवयणं अकरेंतो, वलाति कुणती च उस्सोढुं ।। ८८५ एवं सारणियाणं, आयरिओऽसारओ गच्छे।। ५७० • गोभत्तालंदो विव बहुववनडोव्व एलगो चेव। ८८८ जा एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए सा उ करेति कज्ज । • अग्गी व इंधणेहिं।
११२४ जा दुब्बला संठविता वि संती, न तं तु सीलेंति
• जले व नावा कुविंदेण।
१२८४ विसण्णदारूं।।
६१८
• इच्छातिगस्स अट्ठा, महातलागेण ओवम्मं । १३६१ जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेति कजं ।
• धारेति गणं जदि पहु महातलागेण सामाणो। १३६६ जो दुब्बलो संठवितो वि संतो, न तं तु सीलेंति
• तिमि-मगरेहि न खुब्मति, जहंबुणाधो वियंभमाणेहिं। विसण्णदारूं।।
६१६
• सोच्चिय महातलागो, पफुल्लपउमं च जं अन्नं ।। १३७० • जोधा व जधा तधा समणजोधा ।
६२६
• होती य सदाभिगमो, सत्ताण सरोव्व पउमड्डो। १३७१ • आवरिता वि रणमुहे, जधा छलिजंति अप्पमत्ता वि । ६२७
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१७८]
परिशिष्ट-१०
पडिबोहगदेसिय सिरिघरे य निजागगे य बोधव्वे । तत्तो य महागोवो एमेता पडिवत्तिओ।। १३७३
जह आलित्ते गेहे, कोइ पसुत्तं नरं तु बोधेजा। जरमरणादिपलिते, संसारघरम्मि तध उ जिए।। १३७४ जध जध वावारयते, जधा य वावारिता न हीयंति । तध तध गणपरिवुड्डी, निजरवुड्डी वि एमेव ।। १४१२ सउणिच्छावो व पोसिउं दुक्खं ।
१४२३ • सुवण्णगस्सेव ताव निहसादी।
१४३३ इय चंदणरयणनिभा पमायतिखेण परसुणा भेत्तुं। दुविधपडिसेवि सिहिणा, तिरयणखोडी तुमे दड्डा।।
१४४६ काणगमहिसो व निण्णम्मि ।
१४५२ • एगपुरिसे कहं निंदू, कागबंझा कधं भवे। १४५५ • नयभंगाउलयाए, दुद्धर इव सद्दो होति ओवम्मे । १४६७
जध उद्वितेण वि तुमे, न वि णातो एत्तिओ इमो कालो। इय गीत वादियविमोहिया उ देवा न जाणंति। १५०४ • मज्जाररडियपरूवणया ।
१५२४ रण्णो.व्व अणभिसित्ते, रज्जे खोभो तधा गच्छे। १५८१ • लता व कंपमाणा उ।
१५८४ उम्मत्तो व पलवते।
१६१८ • सो सीतघरोवमो संघो।
१६८६ • कंकडुओ विव मासो, सिद्धिं न उवेति जस्स ववहारो।
१६६६ • कुणिमनहो व न सुज्झति, दुच्छेजो जस्स ववहारो।
१६६६ . फलमिव पक्कं पडए, पक्कस्सऽहवा न गच्छते पागं।
जह गयकुलसंभूतो, गिरिकंदर-विसमकडगदुग्गेसु ।
परिवहति अपरितंतो, निययसरीरुग्गते दंते।। १६४७ • कोमुदीजोगजुत्तं वा, तारापरिवुडं ससिं। २०००
सेविजंतं विहंगेहिं, सरं वा कमलोज्जलं। २००१ • तुल्लदेसी व फरुसो, मधुरोव्व असंगहो। २०१० • साडगबद्धा गोणी, जध तं घेत्तु पलाति दुस्सीलो। २१८६ पव्वयहिययं पि संपकप्पंति।
२४६५ तरुविव वातेणं भजते सज्जं ।
२४६८ • सिरिघरसरिसो उ आयरिओ।
२५६० • रयणब्भूतो तधायरिओ।
२५६५ आलोगो तिन्निवारे, गोणीण जधा तधेव गच्छे वि।
२५७७ • वयणघरवासिणी वि हु, न मुंडिया ते कहं जीहा।
२५८५ • नच्चणहीणा व नडा, नायगहीणा व रूविणी वावि।
चक्कं च तुंबहीणं, न भवति एवं गणो गणिणा।। २५६५ सावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहि परबलं खविया। अजिते सयंपि जुज्झति उवमा एसेव गच्छे वि।।
२६१७ लक्खणजुत्ता पडिमा, पासादीया समत्तऽलंकारा। पल्हायति जध वयणं, तह निञ्जर मो वियाणाहि। २६३५
वंसकडिल्लच्छिण्णो वि वेलुओ पावए न महिं। २६६५ • जह राया चक्कवट्टी वा।
२७०० . मा जुण्णरहोव्व सीदेजा।
२७३७ • मणपरिणामो वीई, सुभासुभे कंटएण दिटुंतो। खिप्पकरणं जध लंखियव्वं तहियं इमं होति।। २७५८ परिणामाणवत्थाणं, सति मोहे उ देहिणं ।
तस्सेव उ अभावेणं, जायते एगभावया।। २७५६ • जधाऽवचिज्जते मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो।
तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवड्ढते।। २७६० • जधा य कम्मिणो कम्म, मोहणिज्जं उदिज्जति।
तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवडती।। २७६१ . जहा य अंबूनाधम्मि, अणबद्धपरंपरा।
वीई उप्पञ्जई एवं, परिणामो सुभासुभो।। २७६२
.
१६६७
• उम्मुगणायं ति होल जा दोण्णि।
१७३८ • सागरसरिसं नवमं, अतिसयनयभंगगुविलत्ता। १७३८ • जह होति पत्थणिज्जा, कप्पट्ठी नीलकेसि सव्वस्स। १८५१ जध वडवाए उअण्णआसेणं।
१८८१ • अवत्तराईदिए हुवमा।
१६०८ • जह राया व कुमार, रज्जे ठावेउमिच्छते जंतु। १६३६
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परिशिष्ट-१०
१७६]
कण्हगोमी जधा चित्ता, कंटयं वा विचित्तयं ।
J. जह आममट्टियघडे, अंबेव न छुब्मती खीरं। ४१०० तधेव परिणामस्स, विचित्ता कालकंटया।। २७६३ . सीतघरं पिव दाहं, वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं| लंखिया वा जधा खिप्पं, उप्पतित्ता समोवए।
४१५२ परिणामो तहा दविधो. खिप्पं एति अवेति य।। २७६४
घुणक्खरसमो उ पारोक्खी।
४१६७ उक्कड्ढंतं जधा तोयं, सीतलेण झविज्जती।
• जह दीवे तेल्लवत्ति, खओ समं तह सरीरायुं।. ४२४६ गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेण तहोदओ।। २७६८
• जह सुकुसलो वि वेज्जो, अन्नस्स कधेति अप्पणो वाहिं । • सीहो रक्खति तिणिसे, तिणिसेहि वि रक्खितो तधा सीहो ।
वेजस्स य सो सोउं, तो पडिकम्मं समारभते।। ४२६६ एवण्णमण्णसहिता, बितियं अद्धाणमादीसु।। २७७८
• जह वाऽऽउंटिय पादे, पायं काऊण हत्थिणो पुरिसो। • मंडुगतिसरिसो खलु।
૨૬૨૧ आरुभति तह परिण्णी, आहारेणं तु झाणवरं।। ४३६७ • नवणीयतुल्लहियया साहू।
२६६८
दत्तेणं नावाए, आउह पहुवाहणोसहेहिं च । जहा य चक्किणो चक्कं, पत्थिवेहिं पि पूज्जति।
उवगरणेहिं च विणा, जहसंखमसाधगा सव्वे ।। ४३७० न यावि कित्तणं तस्स, जत्थ तत्थ व जुज्जती।। ३०२१
• कंपेज जधा चलतरुव्व ।
४३६५ • वजकुड्डसमं चित्तं।
३०८४
• जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे । • जध गंडगमुग्घुट्टे, बहुहिं असुतम्मि गंडए दंडो। . ३१७४ इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति।। ४३६६ • आउट्टियावराहं, सन्निहिया न खमए जहा पडिमा। • जध न विकंपति मेरू, तध ते झाणाउ न चलंति । ४४००
३२३३ • वटुंता सेलकुड्डसामाणा।
४४०१ • अजायविउलखंधा, लता वातेण कंपते।
. तिमि-मगरेहि व उदधी, न खोभितो जो मणो मुणिणो। जले वाऽबंधणा णावा, उवमा एसऽसंगहे।। ३२४८
४४१४ .बिले व वसिउं नागा।
३५३० .जह चालणिव्व कतो।।
४४२२ • सीहविक्कमसन्निभो।
३७८४ वादी वायुरिवागतो।
४५८० • उवमा जवेण चंदेण।
३८३३
अवचिजते य उवचिज्जते य जह इंदिएहिं सो पुरिसो। सास-ससुरुक्कोसा, देवरभत्तारमादि मज्झिमगा।
एस उवमा पसत्था, संसारीणिंदियविभागे।। ४६२१ दासादी य जहण्णा, जह सुण्हा सहइ उवसग्गा।। ३८४७ कललंडरसादीया, जह जीवा तधेव आउजीवा वि। . सासु-ससुरोवमा खलु, दिव्वा दियरोवमा य माणुस्सा।
४६२७ दासत्थाणी तिरिया, तह सम्मं सोऽधियासेति ।। ३८४८
• जोतिंगण जरिए वा, जहुण्ह तह तेउजीवा वि। ४६२७ • वासीचंदणकप्पो जह रुक्खो।
३८५१
• ऊणट्ठए चरित्तं, न चिट्ठए चालणीए उदगं वा। ४६४६ .वीरल्लेणं व तासिता सउणी।
३८७५ • चंदमही विव सो वि ह आगमववहारवं होति। ४०३५
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परिशिष्ट-११
निक्षिप्त शब्द 'निक्षेप' व्याख्या की एक विशिष्ट पद्धति है। भाषाविज्ञान के क्षेत्र में जैनाचार्यों की यह एक विशिष्ट देन है। प्राकृत में एक ही शब्द के अनेक संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। निक्षेप पद्धति द्वारा उस शब्द के सभी संभावित अर्थों का ज्ञान कराकर उस शब्द के प्रसंगोपात्त अर्थ का ज्ञान कराया जाता है। निक्षेप भाषाविज्ञान के अन्तर्गत अर्थविकास-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है।
प्रस्तुत ग्रंथ में भाष्यकार ने 'परिहार', 'साधर्मिक', 'स्थान' आदि शब्दों की निक्षेप के आधार पर विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की है।
२०६७
परिहार पलिच्छद
अट्ट अभिग्गह इच्छा आणा उंछ
२१० १४०८
२६७० १८८, १६४
६८६, ३८५५
१३६२ ३८८६ ३८५२
भत्ति
भिक्षु
१६६
उवग्गह
गण
मास ववहार ववहारी विहार साधम्मिय
१३६५ ६२६
१३
छलणा
६६५
६८०
६८६
दुग परिजुण्ण
२०६६
स्थान
२१३
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परिशिष्ट-१२
सूक्त-सुभाषित
पुव्वं बुद्धीए पासित्ता, ततो वक्कमुदाहरे । पहले सोचो, फिर बोलो।
(गा. ७६) अचक्खुओ व्व नेतारं, बुद्धिं अन्नेसए गिरा। वाणी बुद्धि का अनुसरण वैसे ही करती है, जैसे जनता अंधे नेता का अनुगमन करती है।
(गा. ७६) अमुगं कीरउ आमं ति, भणति अणुलोमवयणसहितो उ। वयणपसादादीहि य, अभिणंदति तं वई गुरुगो।।
गुरु के आदेश को सुनकर जो शिष्य 'तहत्' कहकर उसको स्वीकार करता है, प्रसन्नवदन से उसका अभिनन्दन करता है, वही विनीत होता है।
(गा. ८७) न ऊ सच्छंदया सेया। स्वच्छन्दवृत्ति श्रेयस्कर नहीं होती।
(गा. ८६) जधुत्तं गुरुनिद्देसं, जो वि आदिसती मुणी । तस्सा वि विहिणा जुत्ता, गुरुवक्काणुलोमता । गुरु के आदेश के प्रति विधियुक्त विनय करना, विनीत शिष्य का कर्तव्य है।
(गा. ६०) न वि णज्जति वाघातो, कं वेलं होज जीवस्स । मृत्यु कब आ जाए, कोई नहीं जानता।
(गा. २२८) आयरियपादमूले, गंतूण समुद्धरे सल्लं । गुरु की शरण में जाकर शल्य को निकाल फेंको।
(गा २२६) न हु सुज्झती ससल्लो। सशल्य व्यक्ति की शोधि नहीं होती।
(गा. २३०) उद्धरियसव्वसल्लो, सुज्झति जीवो धुतकिलेसो । शल्यरहित व्यक्ति क्लेशशून्य होकर शुद्ध हो जाता है।
(गा. २३०) न वि अत्थि न वि होही, सज्झायसमं तवोकम् । स्वाध्याय के समान न दूसरा तपःकर्म है और न होगा।
(गा. २६४।१) अग्गघातो हणे मूलं, मूलघातो य अग्गयं ।
अग्र पर आघात मूल का विनाश कर देता है। मूल पर आघात अग्र का विनाश कर देता है। (गा. ४६६)
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१८२]
परिशिष्ट-१२
जो जं काउ समत्थो, सो तेण विसज्झते असढभावो।
जो जिस कार्य को करने में समर्थ है, वह पवित्रभाव से उसको करता हुआ शुद्ध हो जाता है।
(गा. ५५७)
गृहितबलो न सुज्झति। जो शक्ति का गोपन करता है, उसकी शोधि नहीं होती।
(गा. ५५७) दंडसुलभम्मि लोए, मा अमतिं कुणसु दंडितो मि त्ति । 'इस कार्य से दंड ही तो मिलेगा', ऐसा सोचकर पाप मत करो।
(गा. ५६२) जीहाए विलिहतो, न भद्दओ जत्थ सारणा नथि । दंडेण वि ता.तो, स भद्दओ सारणा जत्थ ।।
जहां सारणा नहीं है, वहां मीठे वचनों से क्या ? जहां सारणा है, वहां दंड-प्रहार भी श्रेयस्कर है। (गा. ५६६) अजेण भव्वेण वियाणएण, धम्मप्पतिण्णेण अलीयभीरुणा । सीलंकुलाचारसमन्नितेण, तेणं समं वाद समायरेज्जा।।
जहां वाद करने का प्रसंग हो वहां इनके साथ वाद करो-आर्य, भव्य, वादविज्ञ, धर्मप्रतिज्ञ, अलीकभीरू, शीलवान् और कुलीन।
(गा. ७१२) अत्थवतिणा निवतिणा, पखवता बलवया पयंडेण। गुरुणा नीएण तवस्सिणा य सह वज्जए वादं।।
इनके साथ वाद मत करो–अर्थपति, नृपति, पक्षपाती, बलवान्, प्रचण्ड, गुरु, नीच तथा तपस्वी।। (गा. ७१५) दुक्करं खु वेरग्गं। वैराग्य दुष्कर है।
(गा. ७६१) होति दुक्खं खु वेरग्गं। वैराग्य की प्राप्ति कष्टसाध्य है।
(गा. ७६२) सम्मत्तं मइलेत्ता, ते दुग्गतिवडगा होति।। जो सम्यक्त्व को मलिन करता है, वह दुर्गति को बढ़ाता है।
(गा. ८७२) धित्तेसिं गामनगराणं, जेसिं इत्थी पणायिगा। उस नगर और गांव को धिक्कार है, जहां स्त्री नायक होती है।
(गा. ६३५) ते यावि धिक्कया पुरिसा, जे इत्थीणं वसंगता। वे पुरुष भी धिक्कार के पात्र हैं, जो स्त्रियों के वशवर्ती हैं।
(गा. ६३५) इत्थीओ बलवं जत्थ, गामेसु नगरेसु वा। सो गाम नगरं वापि, खिप्पमेव विणस्सति।।
जिस गांव और नगर में स्त्रियों का प्रभुत्व होता है, वह गांव और नगर शीघ्र नष्ट हो जाता है। . (गा. ६३६) मरिउं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि । सुचिरं भमंति जीवा, अणोरपारम्मि ओतिण्णा।।' जो जीव सशल्य मरते हैं, वे इस अनन्त संसार में अनन्तकाल तक जन्म-मरण करते हैं।
(गा. १०२२)
उतना
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परिशिष्ट-१२
[१८३
तुल्ले वि इंदियत्थे, सज्जति एगो विरज्जती बितिओ। अज्झत्थं खु पमाणं, न इंदियत्था जिणा बेति।।
इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति समान होने पर भी एक व्यक्ति उनसे विरक्त होता है और दूसरा आसक्त। अतः इन्द्रियों के विषय प्रधान नहीं हैं, प्रधान है अध्यात्म।
(गा. १०२८) मणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तए तेसु । इति वि हु अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं ।।
पुरुष मन से ही विषयों के प्रति आकृष्ट होता है और मन से ही उनसे विरत होता है। मन ही बंध और मोक्ष का प्रमाण है, विषय नहीं।
(गा. १०२६) न हु होति सोइयव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । वह शोचनीय नहीं है, जो दृढ़ चारित्र का पालन कर कालगत होता है।
(गा. १०८४) सो होति सोइयव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे। ___ शोचनीय वह है, जो संयम में दुर्बल है।
(गा. १०८४) रागद्दोसाणुगता जीवा, कम्मस्त बंधगा होति । राग-द्वेष से अनुगत जीव कर्म का बंधन करता है।
(गा. १११०) जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवति अणिच्छियव्वाई। __ जो दृप्तचित्त होता है, वह अनर्गल प्रलाप करता है।
(गा. ११२३) विसस्स विसमेवेह, ओसधं अग्गिमग्गिणो। मंतस्स पडिमंतो उ, दुजणस्स विवजणा।।
विष का प्रतिकार विष, अग्नि का प्रतिकार अग्नि और मंत्र का प्रतिकार प्रतिमंत्र है। वैसे ही दुर्जन का प्रतिकार है उसकी वर्जना करना।
(गा. ११५६) दीसति धम्मस्स फलं,पच्चक्खं तत्थ उज्जमं कुणिमो। इड्डीसु पतणुवीसुं, व सज्जते होति णाणत्तं ।।
राजा आदि की ऋद्धि देखकर व्यक्ति सोचते हैं--यह धर्म का प्रत्यक्ष फल है। हमें भी इस ओर उद्यम करना चाहिए। तब वे व्यक्ति अल्पतर ऋद्धियों में भी आसक्त हो जाते हैं।
(गा. १२५६) वेसकरणं पमाणं, न होति न य मज्जणं णऽलंकारो। सत्यान्वेषण में न वेश प्रमाण होता है, न मज्जन और न अलंकार।
(गा. १२८३) साहीणभोगचाई, अवि महती निजरा उ एयस्स। जो अपने स्वाधीन भोगों को त्यागता है, उसके महान् निर्जरा होती है।
(गा १२६७) सुहुमो वि कम्मबंधो, न होति तु नियत्तभावस्स । जो निवृत्ति में रहता है, उसके तनिक भी कर्मबंध नहीं होता।
(गा. १२६७) सज्झाय-संजम-तवे, धणियं अप्पा नियोतव्यो।। आत्मा को निरन्तर स्वाध्याय, संयम और तप में लगाना चाहिए।
(गा. १३४०)
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१८४ ]
न गणो धरेयव्वो ।
आहारोवहिपूयाकारण कम्माण निजरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो । ।
गण में रहने का लक्ष्य आहार, उपधि और पूजा प्राप्त करना नहीं है। गण में रहने का लक्ष्य है कर्मों की निर्जरा ।
(गा. १४००, १४०१ )
आकितिमतो हि नियमा, सेसा वि हवंति लद्धीओ ।
आकृतिमान् व्यक्ति को अन्यान्य लब्धियां भी सहज प्राप्त हो जाती हैं।
छिद्दाणि निरिक्खंतो, मायी तेणेव असुईओ ।
जो छिद्रान्वेषी होता है, वह मायावी है। मायावी अशुचि होता है।
असच होति माई तु ।
मायावी असत्यप्रिय होता है।
मी कुणति अक ।
मायावी व्यक्ति अकार्य करता है।
चरणकरणं जहंतो, सच्चव्यवहारयं पि जहे ।
जो संयम को छोड़ता है, वह सत्य को भी छोड़ देता है।
जइया गेणं चत्तं, अप्पणतो नाण- दंसण चरित्तं । ताधे तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु । ।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र से रहित व्यक्ति दूसरों की अनुकम्पा कैसे कर सकेगा ? यस्य ह्यात्मनो दुर्गतौ प्रपततो नानुकम्पा तस्य कथं परेष्वनुकम्पा भवेद् ?
जो स्वयं पर अनुकम्पा नहीं कर सकता, वह दूसरों पर अनुकम्पा कैसे करेगा ? संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं । रागद्दोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं । ।
परिशिष्ट- १२
सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ।
जिनकी कथनी और करनी समान होती है, वे ही संसार से मुक्त होते हैं ।
(गा. १४१६)
(गा. १६४० )
(गा १६४६ )
(गा. १६४६ )
(गा. १६७१)
संघात संघ है। वह प्राणी को कर्मसंघात से मुक्त करता है। राग-द्वेष से रहित संघ सभी जीवों के प्रति सम होता (गा. १६७७)
(गा. १६७२ )
है ।
आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि । अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं । ।
संघ आश्वास है, विश्वास है, शीतगृह के समान है, माता-पिता की तरह संरक्षक है, सभी के लिए शरण है, उससे डरो
मत ।
(गा. १६८१ )
(गा. १६७२ टी. प. ६५)
सीसो पडिच्छओवा, आयरिओ वा न सोग्गती नेति ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति । ।
शिष्य या आचार्य किसी को सुगति प्राप्त नहीं करा सकते। सुगति प्राप्त होती है अपनी ही कथनी और करनी की समानता
से ।
(गा. १६८२ )
(गा. १६८४ )
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रिशिष्ट - १२
सीसे कुलव्विए गणव्विय संघव्विए य समदरिसी ।
ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो ।।
वह संघ शीतगृहतुल्य है— जो कुल, गण, संघ से संबंधित सभी शिष्यों तथा पूर्वसंस्तुत, पश्चात्संस्तुत और अन्य शिष्यों के प्रति समदर्शी होता है ।
(गा. १६८६ )
[ १८५
नाण-चरणसंघातं रागद्दोसेहि जो विसंघाते ।
सो भमिही संसारे, चउरंगतं अणवदग्गं । ।
जो रागद्वेष के वशीभूत होकर ज्ञान और चारित्र के संघात का विघटन करता है, वह चतुर्गत्यात्मक संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण करता है ।
(गा. १६८६ )
दुक्खेण लभति बोधि, बुद्धो वि य न लभते चरित्तं तु । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए
य।।
जो व्यक्ति उन्मार्ग की प्ररूपणा करता है, वह तीर्थंकरों की आशातना करता है। उसके लिए बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है । उसे बोधि की प्राप्ति हो जाने पर भी चारित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती।
(गा. १६६० )
इहलोए य अकित्ती, परलोए दुग्गती धुवा तेसिं । अणाणाए जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरति । ।
जो वीतराग की आज्ञा के विपरीत व्यवहार करते हैं, उनकी इहलोक में अकीर्ति और परलोक में दुर्गति होती है ।
(गा. १७०३)
इहलोगम्मिय कित्ती, परलोगे सोग्गती धुवा तेसिं । आणाए जिणिदाणं, जे ववहारं ववहरंति । ।
जो जिनेश्वरदेव की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करते हैं, उनकी इहलोक में कीर्ति और परलोक में सुगति होती है। (गा. १७०७)
न हु गारवेण सक्का, ववहरिउं संघमज्झयारम्मि ।
नासेति अगीतत्थो, अप्पाणं चेव कज्जं तु । ।
संघ में रहता हुआ अगीतार्थ मुनि अहं से अपना व्यवहार नहीं चला सकता। वह अपने ही कार्य का नाश कर डालता है। (गा. १७२३ )
नासेति अगीयत्थो, चउरंगं सव्वलोए सारंगं । नट्ठम्मि उ चउरंगे, न तु सुलभं होति चउरंगं । ।
अगीतार्थ मुनि सर्वलोक में सारभूत चतुरंग (मानुषत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम ) का नाश कर देता है। चतुरंग का नाश होने पर उसकी पुनः प्राप्ति सुलभ नहीं होती । (गा. १७२४)
आगाढमुसावादी, बितिय तईए य लोवितवते तु । माई य पावजीवी, असुईलित्ते कणगदंडे । ।
जो मुनि कुल, संघ तथा गण के कार्य में झूठ बोलता है, वह दूसरे-तीसरे—दोनों महाव्रतों को नष्ट कर देता है। वह मायावी और पापजीवी मुनि अशुचि से लिप्त स्वर्णदंड की भांति अस्पृश्य होता है।
(गा १७२७)
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१८६ ]
दोहं चउकण्णरहं भवेज छक्कण्ण मो न संभवति ।
चार कानों (दो व्यक्तियों) तक रहस्य रहस्य रहता है। छह कानों (तीन व्यक्तियों) तक पहुंचने पर रहस्य रहस्य नहीं रहता।
(गा. १८५२ )
पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होति पमाणं पवयणम्मि । जिन प्रवचन में पुरुषोत्तर धर्म ही प्रमाण है।
दुक्खं खु सामण्णं ।
श्रामण्य का पालन दुष्कर है।
इति खलु आणा बलिया. आणासारो य गच्छवासो उ । मोत्तुं आणापाणुं, सा कज्जा सव्वहिं जोगे । ।
भगवद् आज्ञा ही बलवान् है। आज्ञा का पालन करना चाहिए।
सुहसीलो दुट्ठसीलो ति ।
जो सुखशील होता है, वह अधम होता है ।
तणुगं पि नेच्छ दुक्खं, सुहमाकंखए सदा । सुहसीलतए वावी, सायागारवनिस्सितो ।।
सुखशील व्यक्ति तनिक भी कष्ट नहीं सह सकता। वह सदा सुखाकांक्षी बना रहता है।
अतिरेगउवधिअधिकरणमेव सज्झाय-झाण पतिमंथो ।
अतिरिक्त उपधि का संग्रह कलह का कारण और स्वाध्याय-ध्यान का अवरोधक होता है।
न संचये सुहं अस्थि, इहलोए परत्थ य ।
आज्ञा का सार है गच्छ में रहना। आनापान को छोड़कर संघ में रहते हुए सब योगों से
(गा. २०७४)
संचय -- परिग्रह से न इहलोक में सुख है और न परलोक में।
वंतं निसेवितं होति, गेण्हंता संचयं पुणो ।
जो प्रव्रजित होकर संचय करते हैं, वे वान्त या त्यक्त का पुनरासेवन करते हैं।
मिच्छत्तं न जधावादी, तधाकारी भवंति उ ।
मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की कथनी-करनी समान नहीं होती ।
दुल्लभलाभा समणा ।
श्रमणों का सान्निध्य दुर्लभ है।
परिशिष्ट- १२
(गा १८८६)
(गा. २०३३)
(गा. २१६७)
(गा. २१६८ )
(गा. २१७६)
(गा. २४१५ )
(गा. २४२१ )
(गा. २४२१ )
चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ।। चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणं तं जाणसु तिव्वसंविग्गं । ।
चरण-करण - महाव्रतों के पालन का सार है संयम और स्वाध्याय करना । जो इसमें परितप्त होता है, उसका वैराग्य मंद है। जो संयम और स्वाध्याय में प्रयत्नशील रहता है, उसका वैराग्य तीव्र होता है।
(गा. २४८४, २४८५).
(गा. २४५१ )
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परिशिष्ट - १२
आणाबलाभियोगा निग्गंथाणं न कप्पए काउं । निर्ग्रन्थ बलाभियोग न करे।
सहसहा भिक्खू ।
भिक्षु वह है, जो अनुकूल और प्रतिकूल को सहन करता है।
महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि । सेवा से महान् निर्जरा होती है।
पूतिय क्खति य, सीसा सव्वे गणि सदा पयता |
इध परलोए य गुणा, हवंति तप्पूयणे जम्हा । ।
शिष्य गुरु की सदा पूजा करने में प्रयत्नशील रहते हैं। पूजा का परिणाम है— इहलोक और परलोक में गुणों की वृद्धि ।
(गा. २५६६ )
जो सो मणप्पसादो, जायति सो निजरं कुणति ।"
संयम की साधना में जितना मनःप्रसाद होता है, उतनी ही कर्मों की निर्जरा होती है।
वेयावच्चं करेमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवति ।
जो सेवा करता है, वह महानिर्जरा ( बद्धकर्मों का निर्जरण) और महापर्यवसान (नए कर्मों का अबंध) करता है ।
(गा. २५६६ टी. प. २२)
जसं समुवजीवंति, जे नरा वित्तमत्तणो ।
यश की प्राप्ति शील से होती है।
[ १८७
(गा. २५२१ टी. प. १२)
तणाण लहुतरो होहं, इति वज्जेति पावगं । यदि मैं पापाचरण करूंगा तो
(गा. २५४० )
गुरु अणुकंपाए पुण, गच्छो अणुकंपितो महाभागो । गच्छाणुकंपयाए अव्वोच्छित्ती कया तित्थे । ।
गुरु की अनुकम्पा से गच्छ की अनुकम्पा होती है और गच्छ की अनुकम्पा से तीर्थ की अव्युच्छित्ति - निरन्तरता बनी रहती है। (गा. २६७२ )
संतगुणुक्कित्तणया, अवण्णवादीण चेव पडिघातो ।
अवि होज संसईणं, पुच्छाभिगमे दुविध लंभो ।।
सद्गुणों के कीर्तन से अनेक लाभ होते हैं—महान् निर्जरा, अवर्णवाद का प्रतिघात, शंकाशील व्यक्तियों द्वारा शंका-निवारण, शंका-निवृत्त होने पर प्रव्रज्या - ग्रहण इत्यादि ।
(गा. २६८१ )
तृण 'से भी लघुतर हो जाऊंगा, इसलिए मुझे पापाचरण नहीं करना चाहिए।
(गा. २६३२ )
(गा. २६३६)
लोए लोउत्तरे चैव गुरवो मज्झ सम्मता ।
मा हु मज्झावराहेण, होज्ज तेसिं लहुत्तया । ।
इस लोक और लोकोत्तर में मेरे लिए गुरु ही सम्मत हैं। मेरी भूल से उनकी लघुता न हो, यही मेरे लिए श्रेयस्कर है।
(गा. २७५४)
(गा. २७५१ )
(गा. २७५५)
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१८८]
परिशिष्ट-१२
आयसक्खियमेवेह, पावगं जो वि वज्जते ।
आत्मसाक्षी से पाप का वर्जन करो।
(गा. २७५६)
अप्पेव दुट्ठसंकप्पं, रक्खा सा खलु धम्मतो।। आत्मा के दुष्ट संकल्प का धर्माचरण से निवारण करना चाहिए।
(गा. २७५६) निस्सग्गुस्सग्गकारी य, सव्वतो छिन्नबंधणो। एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्खति।।
जो स्वभावतः उत्सर्गकारी और सर्वथा ममत्वरहित है, वह चाहे अकेला हो या भीड़ में, वह अपनी आत्मा का संरक्षण कर लेता है।
(गा. २७५७) परिणामाणवत्थाणं, सति मोहे उ देहिणं । तस्सेव उ अभावेण, जायते एगभावया।। मोह की विद्यमानता में परिणामों की अस्थिरता होती है। मोह के अभाव में परिणामों की एकरूपता होती है।
(गा. २७५६) जधावचिजते मोहो, सुद्धलेसस्स झाइणो। तहेव परिणामो वि, विसुद्धो परिवड्ढते।। शुद्ध लेश्या वाले ध्यानी का मोह जैसे-जैसे तनु होता जाता है, वैसे-वैसे उसके परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाती है।
(गा. २७६०) जधा य कम्मिणो कम्म, मोहणिज्जं उदिजति । तधेव संकिलिट्ठो से, परिणामो विवड्ढती।। जब मोह कर्म प्रबल होता है, तब आत्मा के संक्लिष्ट परिणामों की वृद्धि होती है।
(गा. २७६१) जधा य अंबुनाधम्मि, अणुबद्धपरंपरा । वीई उप्पज्जई एवं, परिणामो सुभासुभो।।
जैसे समुद्र में स्वभावतः लहरें उत्पन्न होती हैं, वैसे ही जीव में शुभ-अशुभ परिणाम उत्पन्न होते रहते हैं। (गा. २७६२) विसुज्झंतेण भावेण, मोहो समवचिज्जति । भावों की विशद्धि से मोह कर्म का अपचय होता है।
(गा. २७६७) मोहस्सावचए वावि, भावसुद्धी वियाहिया।। मोह कर्म का अपचय होने पर भावों की विशुद्धि होती है।
(गा. २७६७) उक्कड्ढंतं जधा तोयं, सीतलेण झविज्जती। गदो वा अगदेणं तु, वेरग्गेण तहोदओ।।
उबलते हुए पानी में शीतल जल के छीटे देने से वह शान्त हो जाता है, रोग औषधि से शांत हो जाता है, वैसे ही मोह का उदय वैराग्य से उपशान्त हो जाता है।
(गा. २७६८) नाणचरणतो सिद्धी ज्ञान और चारित्र से सिद्धि होती है।
(गा. २८३०)
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परिशिष्ट-१२
[१५६
अवराहो गुरु तासिं,.... जं निठुरमुत्तरं बेंति । उनका अपराध गुरु होता है, जो गलती बताने पर निष्ठुर उत्तर देते हैं
(गा. २८४७) सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो। चारित्र शुद्ध व्यक्ति में ठहरता है। माया से चारित्र खंडित हो जाता है।
(गा. २६०२) कलुसप्पा करे पावं। पाप वह करता है, जिसका मन कलुषित होता है।
(गा. २६८६) नवणीयतुल्लहियया साहू। साधुओं का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है।
(गा. २६६८) पुरिसस्स निसंग्गविसं इत्थी एवं पुमं पि इत्थीए । पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष सहज विष है।
(गा. ३०३०) घाण-रस-फासतो वा, दव्वविसं वा सइंऽतिवाएति । सव्वविसयाणुसारी, भावविसं दुज्जयं असई।।
द्रव्य विष प्राणी को एक बार ही मारता है। भाव विष प्राणी को अनेक बार मारता है। द्रव्य विष घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय या स्पर्शेन्द्रिय से गृहीत होता है। भाव विषं समस्त इन्द्रियग्राही है।
(गा. ३०३१) जदि नत्थि नाण चरणं, दिक्खा हु निरस्थिगा तासिं । यदि ज्ञान और चारित्र नहीं है तो वह दीक्षा निरर्थक है।
(गा. ३०४८) सव्वजगुजोतकरं नाणं। ज्ञान सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाला है।
(गा. ३०४६) नाणेण नज्जते चरणं। ज्ञान से चारित्र जाना जाता है।
(गा. ३०४६) नाणम्मि असंतम्मी, किह नाहिति विसोहिं । ज्ञान के अभाव में विशोधि नहीं जानी जा सकती।
(गा. ३०४६) नाणम्मि असंतम्मि, चरित्तं पि न विजते। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया।।
जहां ज्ञान नहीं, वहां चारित्र नहीं। जहां चारित्र नहीं, वहां सदचरित्र वाला तीर्थ नहीं होता। (गा. ३०५०) णाणादिसारहीणस्स, तस्स छलणा तु संसारे । जो ज्ञान-दर्शन आदि के सार से शून्य है, उसका सारा व्यवहार छलना है।
(गा ३१०५) न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति। दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश को विशेषित नहीं करता।
(गा. ३८८४) जो एतेसु न वट्टति, कोधे दोसे तधेव कंखाए। सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपणिधाणजुत्तो वा।।
जो क्रोध, द्वेष तथा कांक्षा में प्रवर्तित नहीं होता, वह इन्द्रियजयी और आत्मप्रणिधानवान होता है। (गा. ४१५५)
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१६०]
परिशिष्ट-१२
पायच्छित्ते असंतम्मि, चरित्तं पि न वट्टति । प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं होता।
(गा. ४२१५) अचरित्ताय तित्थस्स, निव्वाणम्मि न गच्छति। चारित्र के अभाव में निर्वाण नहीं मिलता।
(गा. ४२१६) निव्वाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा निरत्थया। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक है।
(गा. ४२१६) इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरु। न चेयं ते पसंसामी, किसं साधसरीरगं।।
आचार्य ने कहा-वत्स ! तुम अपनी इन्द्रियों को जीतो, कषायों को तनु करो और तीन प्रकार के गौरव से मुक्त बनो। शरीर को कृश करने मात्र से कुछ नहीं होगा।
(गा. ४२६४) जह बालो जंपंतो, कज्जमकजं च उज्जुयं भणति । तं तह आलोएज्जा, माया-मदविप्पमुक्को उ।।
बालक ऋजता से अपना कार्य-अकार्य बता देता है। बालक की भांति माया और अहं से शन्य होकर दोषों की आलोचना करना ी श्रेयस्कर है।
(गा. ४२६६) भुत्तभोगी पुरा जो तु, गीतत्थो वि य भावितो। संतेमाहारधम्मेसु, सो वि खिप्पं तु खुब्भते।। भुत्तभोगी, चाहे फिर वह गीतार्थ और भावितात्मा ही क्यों न हो, आहार आदि भुक्त विषयों को देखकर क्षुब्य हो जाता है।
(गा. ४३१८) वेरग्गमणुप्पत्तो, संवेगपरायणो होति । जो विरक्त होता है, वह संवेगपरायण होता है।
(गा. ४३३०) कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, सज्झायम्मी विसेसेण।।
जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कर्मों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो स्वाध्याय करता है, वह विशेष निर्जरा करता है।
(गा. ४३३८) कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे. काउस्सग्गे विसेसेण।।
जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कर्मों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो कायोत्सर्ग करता है, वह विशेष निर्जरा करता है।
(गा. ४३३६) कम्ममसंखेज्जभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, वेयावच्चे विसेसेण।।
जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कमों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो सेवा करता है, वह विशेष निर्जरा करता है।
(गा. ४३४०)
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परिशिष्ट-१२
[१६१
कम्मसंखेजभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि ।।
जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कर्मों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो संथारा करता है, वह विशेष निर्जरा करता है।
(गा. ४३४१) जिणवयणमप्पमेयं मधुरं। वीतराग की वाणी अपरिमित और मधुर होती है।
(गा. ४३५१) आहाराओ रतणं, न विज्जति हु उत्तमं लोए । लोक में आहार से उत्तम कोई रत्न नहीं है।
(गा. ४३५६) सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होंति उवउत्ता। सभी प्राणी सभी अवस्थाओं में आहार लेते हैं।
(गा. ४३५७) न यावि चरणं विणा नाणं । ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता।
(गा. ४६३६) ऊणट्ठए चरित्तं, न चिट्ठए चालणीय उदगं वा। लघु वय वाले व्यक्ति में चारित्र नहीं ठहरता, जैसे चालनी में पानी।
(गा. ४६४६)
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परिशिष्ट-१३
अन्य ग्रंथों से तुलना
३६६ अउणासीतं ठवणाण
निभा-६४५८ ३३६८ अंगुट्ठपोरमेत्ता
निभा. १२२७ ३१३८ अंडगमुज्झितकप्पे
निभा. ६१०६,
आवभा. २१६ ३१३५ अंतो पुण सट्ठीणं आवनि. १३५२, १३५३,
निभा. तु. ६१०२, ६१०३ ३१३७ अंतो बहिं च भिन्नं आवनि. १३५४,
निभा.६१०५ २२५७ अंतो मुत्तकालं
पंकभा. १०३६ ३४०७ अंतोवस्सयबाहिं
निभा. १२३५ ४२५५ अंतो वा बाहिं वा
जीभा. ३६० ६०५ अकतकरणा वि दुविधा निभा. ६६५० ६११ अकयकरणा उ गीता
निभा.६६५८ ३१८६ अकरण निसीहियादी निभा. तु. ६१३६
ओनि. तु. ६५३ १०६६ अगडे पलाय मग्गण
बृभा.६२१७ २३५६ अगडे भाउय तिल तंदुले निभा.२१५० ४४६ अगारिए दिटुंतो
निभा. ६५११ ४६६ अग्गघातो हणे मूलं
निभा. ६५३१ ४२५१ अग्गीतसगासम्मी
जीभा. ३५६ ४२१६ अचरित्ताय तित्थस्स
जीभा.३१६,
निभा. ६६७६ पंकभा तु. २३१३ ३२२२ अच्चाउलाण निच्चोउलाण निभा. ६१६५ १६३ अच्चित्ता एसणिज्जा य
निभा.६२७६ १२१८ अच्छउ महाणुभागो
बृभा. ५०४५,
जीभा. २५६४ ३१३६ अजरायु तिण्णि पोरिसि निभा. ६१०७,
आवभा. २२० ३६५३ अजेव पाडिपुच्छं
निभा, ४५८३
४२६० अज्जो संलेहो ते ३४०५ अझुसिरमविद्धमफुडिय ३४०६ अझुसिरमादीएहिं ११६६ अटुं वा हेउं वा ४८६ अट्ठट्ठ उ अवणेत्ता ४२४५ अट्ठम दसम दुवालस ४०८० अट्ठविहा गणिसंपय ४१५७ अट्ठहिं अट्ठारसहिं ४१५६ अट्ठायार व मादी ४०७०-७३ अट्ठारसेहिं ठाणेहिं २२७३ अट्ठावीसं जहण्णेण २८६ अणणुण्णमणुण्णाते २६२ अणण्णुणाते लहुगा ४२८२ अणपुच्छाय गच्छस्स ४२०० अणमप्पेण कालेण ४०१६ अणिययचारि अणिययवित्ती ५५६ अणुकंपिता च चत्ता ४०५ अणुघातियमासाणं १६६६ अणुमाणेउं संघ ४४०३ अणुलोमा पडिलोमा
जीभा. ३९६,४००
निभा. १२३३ निभा. १२३४
बृभा. ६२८२ निभा. ६५४८ जीभा. ३४८ जीभा.१६० जीभा. २४२
जीभा. २४४ जीभा. १५०-५३ पंकभा तु. १०६३
निभा. ६३६४ निभा. ६३६७
जीभा.३८६ जीभा. २६८ जीभा. १६६ निभा. ६६०२ निभा. ६४६६ पंकभा.२३३३ निभा. ३६५०,
जीभा. ५२५
बृभा. ६२६१ निभा तु. ६६०६
बृभा. ६२६३ बृभा. तु. ६२७८
जीभा. ५१० बृभा. ६२७२ निभा. ६३६६ आवनि. १३४८, निभा. तु. ६०६८
जीभा. ३४६
११७६ अणुसद्धिं उच्चरती ५६१ अणुसट्ठीय सुभद्दा ११८२ अणुसास कहण ठवितं ११६५ अणुसासण भेसणया . ४३६० अणुपुग्विविहारीणं ११५८ अणुसासितम्मि अठिते २६५ अण्णपडिच्छण लहुगा ३१३० अण्णवसहीय असती ।
४२४३ अण्णा दोन्नि समाओ
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परिशिष्ट-१३
[१६३
२२७० अण्णो जस्स न जायति ३६३६ अतरंतस्स अदेंते ४३२ अतिक्कमे वतिक्कमे ३६१६ अतिरेग दुविधकारण ३६७० अत्तट्ट परट्ठा वा ४१६६ अत्थं पडुच्च सुत्तं ३४०२ अत्थरणवज्जितो तू ३६५१ अस्थि हु वसहग्गामा ३२२ अत्थुप्पत्ती असरिस ११७३ अत्थेण जस्स कज्ज ४१४३ अद्दिटुं दिटुं खलु ३७०१ अद्धमसणस्स सव्वं ३६३८ अद्धाण ओम असिवे ३६०२ अद्धाणे गेलण्णे ३६३७ अद्धाणे बालवुड्ढे ३४०३ अधवा अझुसिरगहणे ५७६ अधवाऽजत पडिसेवि त्ति ४२५७ अधवा वि सव्वरीए ४४५६ अध सो गतो उ तहियं ४१२२ अधागुरू जेणं पव्वावितो २४. अधिकरण विगतिजोगे ११६६ अधिकरणम्मि कतम्मि ३१८४ अन्नं व दिसज्झयणं
पंकभा.१०५६ निभा. ४५६६ निभा. ६४६७
निभा. ४५४६ निभा. तु. ४६००
जीभा. २६४ निभा. तु. १२३०
बृभा. ४८५१ निभा. ६३६७ बृभा. ६२८६ जीभा. २२६ पंकभा.७४१ निभा. ४५६८ निभा. ४५३३ निभा. ४५६७ निभा. १२३१ निभा. ६६२३ जीभा. ३६२ जीभा. ५८३ जीभा. २०४ निभा. ६३२७
बृभा. ६२७६ निभा. तु. ६१३७, आवनि. १३८१
जीभा. १३६ निभा.६३०७ निभा. ६३७४ जीभा. ५६८ जीभा. ५६७ जीभा. ५७० बृभा.६२८६ जीभा. ३६२ जीभा. १८१ निभा. ४६०८ निभा. ६५६४ निभा. ६३१६
बृभा. ७०३ बृभा. ५०५४, जीभा. २५७५
३२३२ अभिंतरमललित्तो
आवनि.१४१०,
निभा. ६१७३ २२६१ अब्भुज्जतमचएंतो
पंकभा.१०४५ ६७ अब्भुट्ठाणं अंजलि
दशनि.२६८ ४३८८ अभिघातो वा विज्जू
जीभा.५०७ १२१६ अभिधाणहेतुकसलो
बृभा. ५०४६,
जीभा. २५६५ ११६३ अभिभवमाणो समणं बृभा. तु. ६२७७ ३०७ अमणुण्णधन्नरासी
निभा. ६३८१ ४५३४ अमुगो अमुगस्थ कतो
जीभा. ६७६ १०६५ अम्हं एत्थ पिसाओ
बृभा. ६२१३ २७६ अलसं भणंति बाहिं
निभा. ६३५६ ४५१३ अल्लीणा णाणादिसु
जीभा.६६५ १०८७ अवधीरितो व गणिणा
बृभा. ६२०५ ४०५४ अवराहं वियाणंति
जीभा.१३० ४३५४ अवसेसा अणगारा निभा. ३६१७, जीभा. ४७० अवसो व रायदंडो
निभा.६६०१ २६४ अविगिट्ठ किलम्मतं
निभा. ६३६८ ५६३ अवि य हु विसोधितो ते
निभा.६६०८ ३२८ अवि य हु सुत्ते भणियं निभा. ६४०३ ५४३ अविसिट्ठा आवत्ती
निभा.६५८६ १६० अविहिंस बंभचारी
निभा. ६२७६ ४०६७ अव्वत्तं अफुडत्थं
जीभा. १७८ ४२८४ असंथरं अजोग्गा वा
निभा. ३८५१,
जीभा.३६१ ४२६५ असंविग्गसमीवे वि
जीभा. ३७० ३१०१ असज्झायं च दुविधं
आवनि.१३२२,
निभा.६०७४ ४०१ असमाही ठाणा खलु
निभा.६४६३ ३३६६ असिवादिकारणगता
निभा. १२२५ ३६४७ असिवादी कारणिया
निभा. ४५७७ ४२७६ असिवादीहि वहंता निभा तु. ३८४७,
जीभा. ३८६ ३१४८ असिवोमाघतणेसुं निभा.६११४, आवनि.१३५६ २३१ अहगं च सावराधी
निभा. ६३१० ३१६८ अह पुण निव्वाघातं
आवनि.१३७२,
ओनि ६४२, निभा. तु. ६१२८ ४२८८ अह पुण विरूवरूवे
जीभा.३६६ २०६ अहरत्त सत्तवीसं
निभा. ६२८४
४०५८ अन्नतरपमादेणं २२५ अन्ना वि हु पडिसेवा ३०० अन्नेण पडिच्छावे ४४४० अपरक्कमो तवस्सी ४४३६ अपरक्कमो मि जातो ४४४३ अपरक्कमो य सीसं ११७५ अपरिग्गहगणियाए ४२८५ अपरिच्छणम्मि गुरुगा ४१०० अपरीणामगमादी ३६७७ अपहुच्चंते काले ५०६ अप्पमलो होति सुची २३८ अप्पा मूलगुणेसुं १४१६ अबहुस्सुते अगीतत्ये १२२८ अब्भत्थितो व रण्णा
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________________
१६४]
परिशिष्ट-१३
४०६६ अहवा अफरुसवयणो १६१ अहवा एसणासुद्धं ४०४४ अहवा कायमणिस्स उ ४५१५ अहवा जेणऽण्णइया ५६७ अहवाऽणुसट्ठवालंभु ४३०७ अहवा तिगसालंबेण
३२०६ अहवा बढमे सुद्धे ११४१ अहवा भयसोगजुतो ४५८ अहवा महानिहिम्मी ४५६ अहवा वणिमरुएण य ६०६ अहवा साविक्खितरे ३१५७ अहियासिया य अंतो
आ
३२३३ आउट्टियावराह
२३५७ आगंतु तदुत्थेण व ४०२६ आगमतो ववहारो ३६३० आगमगमकालगते ४०५१ आगमववहारी छव्विहो ३१८ आगमसुतववहारी १७२७ आगाढमुसावादी ३२३ आगारेहि सरेहि य २३०१ आगासकुच्छिपूरो ४६७ आततरमादियाणं ३२२३ आतसमुत्थमसज्झाइयं
जीभा.तु. १७६, १७७ ५८६ आयरिए कह सोधी
निभा.६६२८ निभा. ६२७७ ३६२१ आयरिए भणाहि तुम
निभा. ४५५२ जीभा. ११६ ५६८ आयरिओ केरिसओ
निभा. ६६१३ जीभा. ६६८ ४०८५ आयरिओ बहुस्सुतो
जीभा.१६५ निभा. ६६१२ १७१५ आयरियअणादेसा
पंकभा. २३७७ निभा. ३८७१, २१७ आयरिय उवज्झाए
निभा. तु.६२६६ जीभा. ४२० २१६, आवनि.तु. १३६७ ४२६५ आयरियपादमूलं निभा. ३८५६, जीभा. ४०८
बृभा. ६२५७ १६६ आयरियादी तिविधो जीभा.तु. २२०५ निभा-६५२६ १७१४ आयरियादेसऽवधारितेण पंकभा.२३७६ निभा. ६५२२ ४३०१ आयारविणयगुणकप्प
निभा.३८६५, निभा.६६५१
मूला. ३१७, जीभा.४१३, पंकभा.१३१० आवनि.१३६३, ४०८३ आयारसंपयाए
जीभा.१६३ ओनि.६३३, निभा. ६११६
४०८१ आयारसुत-सरीरे
जीभा.१६१ १६७४ आयारे वट्टतो
पंकभा. २३४० ४१३२ आयारे विणओ खलु
जीभा.२१४ ४१३१ आयारे सुत विणए
जीभा.२१३ आवनि. १४११, ४४८८ आराहेउं सव्वं
जीभा.तु. ६३७ निभा.६१७४ ३६२ आरोवण उद्दिट्ठा
निभा. ६४३८ निभा. २१५१ ३५६ आरोवणा जहन्ना
निभा.६४३५ जीभा. ६ ४०६१ आतेह परीणाहो.
जीभा.तु. १७१ निभा. ४५६० ४०६२ 'आरोहो दिग्घत्तं
जीभा. १७२ जीभा. तु.१२५, १२६ ५५० आलावण पडिपुच्छण निभा. ६५६६, १८८७, निभा. ६३६३
२८८१, बृभा. ५५६८, जीभा. २४४० पंकभा. तु. २३६१ २१८ आलीढ-पच्चलीढे
६३०० निभा. ६३६५
३२१६ आलोगम्मि चिलिमिणी आवनि. १४०१, पंकभा.११०१
निभा. ६१६२ निभा. ६५५६
३०२ आलोयण तह चेव य निभा. ६३७६ आवनि.१४०३, ५८५ आलोयण त्ति य पूणो
निभा.६६२७ निभा.६१६६ ४१८० आलोयण पडिकमणे
जीभा. २७४ जीभा. १०८, १११ ४१५८ आलोयणागुणेहिं
जीभा.२४३ बृभा.६२५५ २३३ . आलोयणापरिणतो
निभा. ६३१२ जीभा१७५. ५१८ आलोयणारिहालोयओ निभा. ६५७६ निभा. १२४६ ४१६२ आलोयणा विवेगे य
जीभा. २८६ जीभा. ३५० ४१६७ आलोयणा विवेगो य
जीभा.२८४ निभा. ६५४० ५२४ आलोयणाविहाणं
निभा.६५७८ निभा. ३६३७, ४०५२ आलोय-पडिक्कतस्स
जीभा.तु. १२७ जीभा. ५१३ | ४६६ आवण्णो इंदिएहिं
निभा. तु. ६५५८ निभा.६०२० आवस्सगं अणियतं
- निभा. ४३४७
४०३४ आदिगरा धम्माणं ११३८ आदिट्ट सड्ढकहणं ४०६५ आदेजमधुरवयणो ३४२० आभिग्गहियस्सऽसती ४२४६ आयंबिलउसिणोदेण ४८० आयतर-परतरे या ४३६२ आयप्परपडिकम्म
७२०
आयरिए अभिसेगे
८८४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट - १३
२६६
८८३
३१६२
आवस्सग पडिलेहण
आवस्सग-सज्झाए आवस्सय काऊणं
४३१६ ३१६५
२५४ आवस्सिया पमजण २२६८ आसज्ज खेत्तकाले १६८१
आसासो वीसासो १२१३ आहरति भत्तपाणं ४२६७ आहाकम्मिय पाणग ११०४ आहार- उबहि- सेजा २२७६
आहारे जतणा वृत्ता
४३३४
आहारे ताव छिंदाहि निभा. ३८६८, जीभा ४५०
इंदियपडिसंचारो
इंदियमा उत्ताणं
४२६४ इंदियाणि कसाए य ४००६ इचेसो पंचविहो ११२४ इति एस असम्माणी इय अणिवारितदोसा
४२११
१६४८
इय पवयणभत्तिगतो
इ
उउबद्धपीढफलगं
८८६ ११३७ उक्कोसबहुविहीयं
उक्कोसा उ पयाओ ४८८ ४२३८ उक्कोसा य जहन्ना ४२४६ उक्कोसिगा उ एसा ३४७२ उग्गममादी सुद्धो
निभा. ६३४३ निभा. तु. ४३४६
आवनि. १३६८.
ओनि. ६३८, निभा. ६१२४
निभा. ६३३२
पंकमा १०६५
पंकभा. २३४६
वृभा. ५०३८, जीमा २५५८ निभा. ३८३५, जीभा ३७२
४०४५
इय मासाण बहूण वि ३१६० इरियावहिया हत्यंतरे
बृभा. ६२२२
पंकभा. १०७५
निभा. ३८७८, जीभा ४२६ आवनि. १३८८, ओनि. ६५६,
निभा. ६१४६ निभा. ३८५८, जीभा ४०६
जीमा. ३१०
दश्रुनि. ३०, पंकभा. १६१६
जीभा. १२० आवनि. १३८३,
५८४
ओनि. ६५४, निमा ६१४१ इस्सरसरिसो उ गुरू निभा. ६६२६ ३२३७ इहलोए फलमेयं निभा. ६१७८, आवनि. १४१५ १७०३ इहलोए य अकिती १७०७ इहलोगम्मि य कित्ती
पंकभा. २३६६ पंकमा २३७०
पंकभा. तु. २४६३
वृमा. ६२४२
निभा. ४३४८
वृभा. तु. ६२५४ निमा ६५४६
जीभा. तु ३४१
जीभा. ३५४ निभा. तु १२७५
४१०६ उग्गहियस्स उ ईहा
६०१
उग्वातमणुग्धातं
२४६
उपघातमणुग्धाते
४८६
उग्धातियमासाणं
४३१५
उज्जाणरुक्खमूले उज्जुमती विउलमती
४०३३
५५४
उद्वेज निसीएजा
२०७
३८०३
३१४
४६४
११२६ उत्तरतो हिमतो
उडुमा तीस दणा
उन्होदगे य थोवे
३४३
३४२
४३६
१६६२ उहिङमणुद्द्डेि
४५०३
उत्तदिणसेसकाले
उत्तरगुणातिवारा
उद्धारणा विधारण
४२३४ ४३६८
४२५
३६७६ २३५२
उद्धियदंडगिहत्थो उद्धिदंडो साहू उप्पत्ती रोगाणं
उप्पन्ना उप्पन्ना
उप्पन्ने उवसग्गे
उप्फिडितुं सो कणगो
१६६१. उम्मग्गदेसणाए १७१७. उम्मग्गदेसणाए
११४७ उम्माओ खलु दुविहो ३२३६ उम्मायं च लभेज्जा
४३००
४३६८ ४३६५
१२१४ उभयं पि दाऊण सपाडिपुच्छं
उवगरणगणनिमित्तं उवगरणेहि विहूणो
उबरिं तु पंचभइए
उवहतउग्गहलंभे
उवहि सुत भत्तपाणे
४३२१
उव्वत्तदार संथार
१०६७ उच्चरगस्स उ असती ४५४५ उस्सण्ण बहू दोसे
जीभा. १६० निभा. ६६४५
निमा. ६४२१
निमा ६५४४
निभा. ३८७६, जीभा. ४२८ जीभा. ८६, ११०
निभा. ६६००, २८८५, जीभा २४५४ निभा. ६२८५ निभा. ४८३
निभा. ६३८८
निभा ६५२६
निभा. १५७१,
बृभा. ६२४७
निभा ४५६३ जीभा. ६५५
निमा. ६४१७
| १६५
निभा. ६४१६
निमा ६५०४ निभा. ३८६४
निमा ३६४५, जीमा ५२३
जीभा. ४८१
.
बृभा. ५०३६, जीमा २५५५
पंकमा २३५६
पंकभा. २३७६ बृभा. ६२६३ आवनि. १४१४, निभा. ६१७७ जीमा. ३३६
जीभा. ४८४
निभा. ६४६०
निभा. ४६०७
निभा २०७१,
पंकमा १४८६, २५११
निमा. ३८८४, जीभा ४३५
बृभा. ६२१५ जीभा. ६६०
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________________
१६६]
परिशिष्ट-१३
८६१
उस्सुत्तमणुवदिटुं
निभा. ३४६२
-
-
४२७० एकं व दो व तिन्नि व
जीभा.३७५,
पंकभा. १७४५, निभा.३८३८ ४२६२ एकं व दो व तिन्नि व निभा.३८३१,
जीभा.३६७, पंकभा.१७४३ २०८ एक्कत्तीसं च दिणा
निभा.६२८६ ४२७३ एक्कम्मि उ निजवगे
निभा. तु. ३८४१,
जीभा ३७८ ४२०६ एक्कासण पुरिमड्ढा
जीभा.३०५ ४२२६ एक्केकं तं दुविधं
जीभा.३२६ ३२०६ एकेक तिन्नि वारे
निभा.६१५७ ४४० एक्केणेक्को छिज्जति
निभा.६५०५ ४४१ एक्कोसहेण छिजंति
निभा.६५०६ ३३६१ एगंगि अणेगंगी
निभा.तु. १२२० ४४०५ एगंतनिजरा से निभा. ३६५२, जीभा. ५४१ ४४१६ एगंतनिजरा से निभा. ३६६३, जीभा. ५५३ २५२ एगंतरनिविगती
निभा. ६३३० २४५ एगमणेगा दिवसेसु
निभा.६३२३ ३५३ एगम्मि णेगदाणे
निभा.६४२६ ४१३६ एगल्लविहारादी
जीभा.२२१ ४१३३ एगल्लविहारे या
जीभा.२१५ ३१६३ एगस्स दोण्ह वा संकितम्मि आवनि.१३८६,
ओनि. ६५७, निभा.६१४४ २७८ एगागिस्स न लब्मा
निभा.६३५५ २५८ एगाणियं तु मोत्तुं
निभा. ६३३६ ३६५६ एगाणियस्स सुवणे
निभा.४५६० ४४६ एगावराहदंडे
निभा. ६५१३ ४५३८ एगिदिऽणंत वजे
जीभा.६८३ ५०५ एगुत्तरिया घडछक्कएण
निभा.६५६३ ५११ एगुत्तरिया घडछक्कएण
निभा.६५६६ ६०३/१ एगणवीसति विभासितस्स निभा.६६४८ २५७ एगे अपरिणए वा
निभा.तु. ६३३५,
पंकभा. १२०२ ३६४६ एगे उ पुव्वभणिते
निभा. ४५७६ ३१०८ एगेण तोसिततरो
निभा. ६०८१,
आवनि-१३२६ २६२ एगो गिलाण पाहुड
६३३६
३६३४ एगो निद्दिस एगं
निभा. ४५६४ १०८२ एगो य तस्स भाया
बृभा.६१६६ ४२८० एगो संथारगतो निभा.३८४८, जीभा.३१७ ३४७ एत्थ पडिसेवणाओ
निभा.६४२२ ५२८ एत्थ पडिसेवणाओ
निभा.६५८१ २६४ एतद्दोसविमुक्कं
निभा.६३४१ २६१ एतारिसं विउसज्ज
निभा.६३३८ १७०२ एते अकजकारी
पंकभा.२३६५ ४२६० एते अन्ने य तहिं निभा.३८२६, जीभा. ३६५ ४२६८ एते अन्ने य तहिं निभा.३८३६, जीभा.३७३ १७०६ एते उ कनकारी
पंकभा.२३६६ १०६० एतेण जितो मि अहं
बृभा.६२०८ ३२२० एतेसामण्णतरे आवनि.१४०२, निभा. ६१६३ ३२२८ एतेसामण्णतरे आवनि.१४०७, निभा. ६१७० ११६७ एतेसिं असतीए
बृभा. ६३०६ ४०६१ एतेसि ठाणाणं
जीभा. १३६ ४५०६ एतेसु धीरपुरिसा
जीभा.६६१ ४३८६ एतेहि कारणेहिं जीभा. तु ५०८, ५०६ ४१११ एत्तो उ पओगमती
जीभा. १६२ ४२५० एत्तो एगतरेणं
जीभा.३५५ ५१७ एत्तो निकायणा मासियाण निभा.६५७५ ५७४ एतो समारुभेजा
निभा.६६१८ ४५४१ एमादीओ एसो
जीभा. ६८६ ३६२६ एमेव अछिन्नेसु वि
निभा. ४५५६ ११६८ एमेव अणत्तस्स वि
बृभा.तु. ६३०७ ४३८१ एमेव आणुपुव्वी
जीभा. ४६६ ३६३५ एमेव इत्थिवग्गे
निभा.तु. ४५६५ ३६५० एमेव चेइयाणं
निभा.४५८० ४३०६ एमेव सणम्मि वि निभा.३८७०, जीभा.४१६ २६० एमेव दंसणे वी
निभा.६३६५ ३०३ एमेव य अवराहे
निभा. ६३७७ २१६६ एमेव य असहायस्स पंकभा.तु. १११० ४१७६ एमेव य पारोक्खी
जीभा. २७३ ३१५८ एमेव य. पासवणे
आवनि.१३६४,
ओनि. ६३४, निभा. ६१२० ३२२७ एमेव य समणीणं आवनि.१४०६, निभा ६१६६ ४३५६ एयं पादोवगमं निभा. ३६२२, जीभा. ४७५ ४४६६ एयऽन्नतरागाढे
जीभा. ६१५ ४१६२ एयागमववहारी
जीभा. २५४
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________________
परिशिष्ट-१३
[१७
३१५३ एसो उ असज्झाओ
आवनि.१३६१, निभा. ६११७
जीभा.५६५
४४३७ एसो सुतववहारो
__
ओ
४०३२ २२६० १२११ ११०३ १६७१ ३६४८ २३६
ओधीगुणपच्चइए ओमादी तवसा वा ओलोयणं गवेसण ओसध वेळे देमो ओसन्नचरणकरणे ओहावंता दुविधा ओहेणेगदिवसिया
जीभा.११०
पंकभा.तु.१०८६ बृभा.५०३६, जीभा. २५५४
बृभा. ६२२१ पंकभा.२३३७ निभा.४५७८ निभा. ६३१५
११३० एयाणि य अन्नाणि य
बृभा. ६२४८ ४३१० एवं आलोयंतो जीभा.४२३, निभा. ३८७४ ३१६७ एवं आवासा सेजमादी आवनि.१३७२,
ओनि. ६४२, निभा.६१२८ ३६० एवं एता गमिता
निभा. ६४५२ ३८५ एवं एता गमिया
निभा. ६४४६ ३६५ एवं एता गमिया
निभा. ६४५७ ४३२३ एवं खलु उक्कोसा निभा.३८८६, जीभा.४३७ ४०० एवं खलु गमिताणं
निभा.६४६२ ४२८ एवं खलु ठवणातो
निभा.६४६३ ४५०१ एवं गंतूण तहिं
जीभा. ६५३ ५५५० एवं जहोवदिट्ठस्स
जीभा.६६५ ४४६३ एवं ता उग्घाए
जीभा.६४४ ३६६३ एवं ताव विहारे
निभा. ४५८६ ४१७२ एवं तु चोइयम्मी
जीभा.२६३ ४२१३ एवं तु भणंतेणं
जीभा.३१२ ३३६ एवं तुम पि चोदग
निभा.६४१४ ४४८२ एवं तु मुसावाओ
जीभा.६३० ४३० एवं तु समासेणं
निभा. ६४६५ ४३७६ एवं तू णायम्मी निभा. तु ३६३५, जीभा. ४६६ ४२१२ एवं धरती सोही
जीभा. ३११ ४४५५ एवं परिच्छिऊणं
जीभा.५८२ ४४२६ एवं पादोवगमं जीभा. ५५७, निभा.३६७५ ४६३ एवं बारसमासा
निभा. ६५५२ ४१६३ एवं भणिते भणती
जीभा.२५५ ४२०८ एवं सदयं दिज्जति
जीभा.३०७ ३६१० एवं सिद्धग्गहणं
निभा. ४५४० ४४५० एवाऽऽणह बीयाई
जीभा.५७७ ४३७१ एवाहारेण विणा
जीभा. ४५७ २६१ एस अगीते जतणा
निभा.तु. ६३५८ ५४६ एस तवं पडिवजति
निभा.६५६५, २८८०,
__ बृभा. ५५६७, जीभा. २४३७ ४०८२ एसा अट्ठविहा खलु
जीभा. १६२ ४१२४ एसा खलु बत्तीसा
जीभा.२०६ ४४३० एसाऽऽणाववहारो
जीभा.५५६ ४५०२ एसाऽऽगमववहारो
जीभा.६५४ ६२२, ६२३ एसेव गमो नियमा निभा. ६६६४, ६६६५ ११२३ एसेव गमो नियमा
बृभा. ६२४१ ४४३ एसेव य दिद्रुतो
निभा.६५०८
१६६६ कंकडुओ विव मासो
पंकभा.२३६० ४१५४ कंखा उ भत्तपाणे
जीभा.२३८ ४२७८ कंचणपुर गुरुसण्णा जीभा.३८२, निभा.३८४६ २११ कंटगमादी दव्वे
निभा.६२६३ ६१४ कजाऽकज जताऽजत
निभा.६६५४ २६६ कज्जे भत्तपरिणा
निभा.६३७३ ३१६६ कणगा हणंति कालं
आवनि.१३८६,
ओभा. ३१०, निभा.६१४७ १०८८ कण्णम्मि एस सीहो
बृभा. ६२०६ १५६ कतकरणा इतरे वा
जीभा. तु. २२०० १२२५ कधणाऽऽउट्टण आगमण बृभा. ५०५२,
जीभा. तु. २५७१ ५४८ कप्पट्टितो अहं ते
निभा.६५६४,
२८७६, जीभा.२४३७ ३२० कप्पपकप्पी तु सुते
निभा.६३६५ ४४३४ कप्पस्स य निजुत्तिं
जीभा-५६३ ४४३५ कप्पस्स य निजृत्तिं
जीभा.५६४ ४३३८-४१ कम्ममसंखेज्जभवं निभा. ३६०२-०५,
जीभा. ४५४-५७ ६०४ कयकरणा इतरे या
निभा.६६४६ ४२८७ कलमोदणपयकढियादि जीभा.तु. ३६४, ३६५ ४२८६ कलमोदणो य पयसा जीभा.३६८, निभा.३८५४ ४२०५ कल्लाणगमावन्ने
जीभा. ३०४ ४२६ कसिणा आरुवणाए
निभा.६४६४ ४३१ कसिणाऽकसिणा एया
निभा.६४६६
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________________
१६८]
परिशिष्ट-१३
३४४ कसिणारुवणा पढमे
निभा. ६४१८ ४०६६ कहेहि सव्वं जो वुत्तो
जीभा. १४५ ११८६ काउं निसीहियं अट्ठ
बृभा. ६२६६ ११०८ कामं आसवदारेसु
बृभा. ६२२६ ३२३१ कामं भरितो तेसिं
आवनि.१४०६,
निभा. तु. ६१७२ ३३४ कामं ममेदकज्जं
निभा. ६४०६ ३२६ कामं विसमा वत्थू
निभा. ६४०४ ४३४६ कायोवचितो बलवं निभा.३६१०, जीभा. ४६२ १७० कारणमकारणं वा
जीभा. २२०८ कारणमकारणं वा
निभा. ६६५३ ४०५३ कालं कुव्वेज सयं जीभा. तु. १२८, १२६ ३६३२ कालगयम्मि सहाए
निभा. ४५६२ ३२०१ कालचउक्कं उक्कोसेण
आवनि.१३६४,
निभा. ६१५२ ४३२६ कालसभावाणुमतो जीभा. ४४०, निभा. ३८८८ ३१३४ काले तिपोरिसट्ठ व
आवनि.१३५१,
निभा. ६१०१ ६३ काले विणए बहुमाणे निभा. ८, दशनि.१५८,
जीभा.१००० मूला.५/२६६ ३१७१ कालो संझा य तधा
आवनि.१३७६,
ओनि. ६४६, निभा. ६१३२ ४२३२ किं कारणऽवक्कमणं जीभा.३३४, निभा. ३८२० ४३२८ किं च तन्नोवभुत्तं मे निभा.तु. ३८६०,
जीभा. ४४२ ४३५० किं पुण अणगारसहायगेण निभा. ३६१३,
जीभा. ४६६ ४४५६ किं पुण आलोएती
जीभा. १८६ ४५५२ किं पुण गुणोवदेसो
जीभा. ६६७ ४२५३ किं पुण तं चउरंगं
जीभा. ३५८ ४४४६ किं पुण पंचिंदीणं
जीभा. ५७६ ४४४५ किं वा मारेतव्वो
जीभा. ५७२ ३१६६ कितिकम्मं कुणमाणो आवनि.१३७२,
ओनि.६४२, निभा तु. ६१२८ ५५३ कितिकम्मं च पडिच्छति निभा. ६५६६,
२८८४, जीभा.तु. २४४३ | ३१६५ कितिकम्मे आपुच्छण आवनि.१३७१,
____ ओनि. ६४१, निभा. ६१२७ १७०५ कित्तेहि पूसमित्तं
पंकभा.२३६८
४०३८ किह आगमववहारी
जीभा.११३ ४२५४ किह नासेति अगीतो
जीभा.३५६ २२२ किह भिक्खू जयमाणो निभा.६३०४ १६७६ किह सुपरिच्छियकारी पंकभा.तु. २३४५ २३५३ कीकम्मस्स य करणे पंकभा.तु. १४६०,
२५१२, निभा. २०७२ ३२४ कुंचिय जोहे मालागारे
निभा.६३६६ ४२५८ कुज्जा कुलादिपत्थारं
जीभा.३६३ ११११ कुणमाणी विय चेट्टा
बृभा.६२२६ ४१५१ कुद्धस्स कोधविणयण
जीभा.२३५ ३३६७ कुसमादि अझुसिराई
निभा. १२२६ ३३१ कुसलविभागसरिसओ
निभा.६४०६ ४२७५ कूयति अदिज्जमाणे जीभा.३८०, निभा.३८४३, २६७ केई पुव्वनिसिद्धा
निभा. ६३४४ ३४६ केण पुण कारणेणं
निभा.६४२५ ४०३ केवल-मणपज्जवनाणिणो निभा.६४६७ ३१२० केसिंचि होतऽमोहा
आवनि.१३३६,
निभा.६०६० ४३६० कोई परीससेहिं निभा.३६२३, जीभा.४७६ ६७६ कोउगभूतीकम्मे
निभा.तु. ४३४५ ४३७७ को गीताण उवाओ
जीभा.४६४ २२८० कोट्टिमघरे वसंतो
पंकभा.तु. १०७७ ५३६ को भंते ! परियाओ
निभा.६५८४ ४३४४ कोयव पावारग नवय जीभा.४६०, निभा. ३६०७ ४५५१ को वित्थरेण वोत्तूण
जीभा.६६६ ४४१३ कोसल्लमेक्कवीसइविधं
जीभा.५५०
३६५१ खग्गूडेणोवहतं ५८१ खरंटणभीतो रुट्ठो ३३८ खल्लाडगम्मि खडुगा ४१०५ खिप्पं बहु बहुविहं व ६७१ खेत्तं गतो उ अडवि ४११४ खेत्तं मालवमादी ४११६ खेत्तऽसति असंगहिया २२६३ खेत्ताणं च अलंभे २२६६ खेत्तेण अद्धगाउय ३४६४ खेल निवात पवाते २१२ खोडादिभंगऽणुग्गह
निभा. ४५८१ निभा.६६२५ निभा.६४१३
जीभा.१८६ निभा.३४६६ जीभा.१६५
जीभा. २०१ पंकभा. १०४७ पंकभा. १०५८ निभा.१२७३ निभा.६२६५
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परिशिष्ट-१३
[१६६
३६६५ घेत्तूणऽगारलिंगं ४०४ घेप्पंति च सद्देणं ४०६० घोसा उदत्तमादी
निभा.४५६५ निभा.६४६८ जीभा. १७०
च
३११७ गंधव्वदिसाविज्जक्क निभा.६०८८, आवनि.१३३४ ४३१२ गंधव्व नट्ट जड्डऽस्स निभा. ३८७५, जीभा. ४२५ ३६४ गच्छुत्तरसंवग्गे
निभा ६४४० ४२२१ गणनिसरणे परगणे निभा.३८१४, जीभा.३२६ ४२३१ गणनिसिरणम्मि उ विधी जीभा.३३२,
निभा.३८१६ ३२३५ गणिसद्दमादिमहितो निभा.६१७६, आवनि.१४१३, ३१८० गहणनिमित्तुस्सग्गं
आवनि.१३७६,
ओनि.६५०, निभा.तु. ६१३५ ११६२ गामेणाऽरण्णेण व
बृभा.६२७६ ४४८ गावी पीता वासी य
निभा.६५१४ १६५७ गिहिसंघातं जहितुं
पंकभा.२३५२ २५० गिहि-संजय-अधिगरणे
निभा.६३२८ ४२६३ गीतत्थदुल्लभं खलु जीभा.३६८, निभा.३८३२ ४३६१ गीतत्थमगीतत्थं निभा.३६२४, जीभा. ४७७ ११७० गीतत्थाणं असती
बृभा.६२८३ ५३८ गीतमगीतो गीतो
निभा.६५८५ ४६१ गीतो विकोविदो खलु
निभा.६५२५ १७०१ गुंठाहि एवमादीहि
पंकभा.२३६४ ११५१ गुज्झंगम्मि उ वियर्ड
बृभा.६२६७ ३६०६ गुणनिप्फत्ती बहुगी
निभा. ४५३८ ११२१, गुरुगं च अट्ठमं खलु
बृभा.६२३६ १०६६ १११७, गुरुगो गुरुयतरागो
बृभा.६२३५ १०६५ १११६, गुरुगो य होति मासो
बृभा.६२३७ १०६७, ३६२० गेण्हह वीसं पाए
निभा.तु. ४५५० ३६२४ गेण्हामो अतिरेगं
निभा.४५५५ २६७ गेलण्ण तुल्ल गुरुगा
निभा.६३७१ १२१५ गेलण्णेण व पुट्ठो
बृभा. ५०४१,
जीभा.तु. २५६० ३२१५ गोसे य पट्टते
निभा.तु. ६१६०
४४१४ चउकण्णंसि रहस्से निभा.३६६१, जीभा.५५१ ५६२ चउगुरु चउलहु सुद्धो
निभा. ६६३६ ५६५ चउगुरुगं मासो या
निभा.६६४० ४२०७ चउ-तिग-दुग कल्लाणं
जीभा.३०६ २२७२ चउभाग-तिभागद्धे
पंकभा. १०६२ ३१५६ चउभागऽवसेसाए
आवनि.१३६२,
ओनि.६३२, निभा.तु. ६११८ ११०६ चउरो य होंति भंगा
बृभा.६२२४ ५०० चउलहुगाणं पणगं निभा.तु. ६५५८ ४४८६ चउवीसऽट्ठारसगा
जीभा.६३४ २५३ चंकमणादुट्ठाणे
निभा.६३३१ ३१२१ चंदिमसूरुवरागे निभा.६०६१, आवनि.१३३७ ४१२ चत्ताए वीस पणतीस
निभा. ६४७६ ४२४० चत्तारि विचित्ताई
निभा. ३८२४,
जीभा.तु. ३४३ ४३१३ चारग कोट्टग कलाल निभा.तु. ३८७६,
जीभा.तु. ४२६ ८६८ चारे वेरज्जे या
निभा.३४६८ ४२३६ चिट्ठतु जहण्ण मज्झा
जीभा.३४२ ४१४७ चुयधम्म भट्टधम्मो
जीभा.२३० १११३ चेतणमचेतणं वा
बृभा.६२३१ ३१६ चेयणमचित्तदव्वे
निभा.६३६० ४१६५ चोद्दसपुव्वधराणं
जीभा.२५६ ४०४२ चोदग पुच्छा पच्चक्ख
जीभा-तु.११७ ४५३ चोदग पुरिसा दुविहा
निभा.६५१८ २१७२ चोदेती कप्पम्मी
पंकभा.तु.११११ ४६४ चोदेति रागदोसे
निभा.६५५३ ३२७ चोयग मा गद्दभ त्ति
निभा.६४००
बृभा.६२१० निभा.६४७१ बृभा.६२४०
४३८ घयकुडगो उ जिणस्सा १६५५ घुट्टम्मि संघकजे
१०६२ छक्कायाण विराधण ४०७ छच्चसता चोयाला १०७०, छटुं च चउत्थं वा ११२२
निभा.६५०३ पंकभा.२३२१ ।
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२००]
परिशिष्ट-१३
१६२ छट्ठट्ठमादिएहिं
जीभा.तु. २२०४ ६०७ छट्ठट्ठमादिएहिं
निभा.६६५२ ४२६८ छत्तीसगुणसमण्णागतेण जीभा. तु. ४११,
निभा.३८६२, ओनि. ७६४ ४१२५-२८ छत्तीसाए ठाणेहिं जीभा.२०७-२१० ४१५६ छत्तीसेताणि ठाणाणि
जीभा.२४१४७८ छम्मास तवो छेदादियाण निभा.तु.६५३६ ६०२ छम्मासादि वहंते
निभा.६६४६ ११०० छम्मासे पडियरिउं
बृभा.६२१८ ४१६० छहि काएहि वतेहि जीभा.तु.२४५, २५२ ४६२ छहि दिवसेहि गतेहिं
निभा-६५४६ ४५४४ छार हडि हड्डमाला
जीभा.६८६ ४४६७ छिंदतु व तं भाणं
जीभा.६४६ ४१६० छेदोवट्ठावणिए
जीभा.२८७
१११२ जइ इच्छसि सासेरी
बृभा.६२३० ३६६६ जइ जीविहिति जइ वा
निभा.४५६६ ३६१५ जइ दोण्ह चेव गहणं
निभा. ४५४५ २५६ जइ भंडणपडिणीए
निभा.तु. ६३३४ ४१६ जइ मि भवे आरोवण
निभा.तु. ६४८४ १६७२ जइया णेणं चत्तं
पंकभा. २३३८ ४१४६ जं इह परलोगे या
जीभा.२३२ १६५६ जं काहिंति अकजं
पंकभा.२३२२ २२६२ जंघाबले च खीणे
पंकभा.१०४६ ४१६६ जं जत्तिएण सुज्झति
जीभा-२५७ ४१२१ जं जम्मि होति काले
जीभा.२०३ ४०४३ जं जह मोल्लं रयणं
जीभा.११८ ४५४३ जं जीतं सावजू
जीभा.६८७ ४५४६ जं जीतं सोहिकरं
जीभा.६६४ ४५४७ जं जीतमसोहिकरं
जीभा. ६६२ ४५४८ जंजीयमसोहिकरं
जीभा. ६६३ ४४१६ जंतेण करकतेण व निभा.३६६६, जीभा. ५३० ४२१४ जंपि य हु एक्कवीसं
जीभा.३१३ ५४२ जं मायति तं छुब्भति
निभा.६५८८ ३१२ जं संगहम्मि कीरति
निभा. ६३८६ १०८६ जड्डादी तेरिच्छे
बृभा.६२०४ ४२४ जत्थ उ दुरूवहीणा
निभा.६४८६ ४५१४ जतणाजुओ पयत्तव
जीभा.६६६
२७२ जतमाण परिहवंते
निभा.६३४६ ४२० जति मि भवे आरुवणा निभा.६४८५ ४२२ जतिहि गुणा आरोवण
निभा.६४८७ ३६११ जत्तियमित्ता वारा
निभा.४५४१ ४१६४ जदि अत्थि न दीसंती
जीभा.२६१ ४०६२ जदि आगमो य आलोयणा जीभा. १४० ४०६८ जदि आगमो य आलोयणा जीभा. १४७ ४०६६ जदि आगमो य आलोयणा जीभा. १४८ ३१५५ जदि उत्तरं अपेहिय
आवनि.१३८१,
निभा.तु. ६१३७ ४१०१ जदि छुब्भती विणस्सति
जीभा.१८२ ४३४६ जदि ताव सावयाकुल
निभा.३६१२,
जीभा.४६५ ३१५६ जदि पुण निव्वाघातं
आवनि.१३६५,
ओनि.६३५, निभा.६१२१ ११६० जदि पुण होज्ज गिलाणो
बृभा. ६२७४ ३१४३ जदि फुसति तहिं तुंडं
आवभा. २२१,
निभा.६१०८ ११७१ जदि वा न निव्वहेज्जा
बृभा.६२८४ ३६०४ जदि होंति दोस एवं
निभा.तु.४५३५ २४०४ जध कारणे तणाई
निभा.तु.१२३२ २२६६ जूध चेव उत्तमढे
पंकभा. १०६६ ४४२६ जध ते गोट्ठट्ठाणे निभा.३६७३, जीभा. ५३७ ५०६ जध मन्ने दसमं सेविऊण निभा. ६५६७ ५१० जध मन्ने बहुसो मासियाणि निभा.६५६८ ४४२५ जधऽवंतीसुकुमालो जीभा. ५३६, निभा. ३६७२ ४४२३ जध सो कालायसवेसिओ
निभा.३६७०,
जीभा.५३४ ४५०६ जम्हा संपहारेउं
जीभा.६५८ ४०३६ जह केवली वि जाणति
जीभा.११४ १६४७ जह गयकुलसंभूतो दश्रुनि.२६, पंकभा १६१४ ४३६८ जह नाम असी कोसी निभा. ३६४६, जीभा.५४० ४२६६ जह बालो जंपतो ओनि.८०१, निभा.३८६३ ४१४६ जह भायरं व पियरं
जीभा. २२६ ५०३ जह मन्ने एगमासियं
निभा.६५६१ ३४८ जह मन्ने बहुसो मासियाणि निभा.६४२३ ४१७८ जह रूवादिविसेसा
जीभा.२७२ ४३६७ जह वाऽऽउंटिय पादे
जीभा. ४८३ ५७० जह सरणमुवगयाणं
निभा.६६१५
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परिशिष्ट-१३
[२०१
४४२८ जह सा बत्तीसघडा जीभा. ५३८, निभा ३६७४ | १२१२ जो उ उवेहं कुआ
निभा. ३०८४, ४२६६ जह सुकुसलो वि वेज्जो
ओनि. ७६५,
बृभा.१६८३, ५०३७, जीभा.२५५६ जीभा.४०६, निभा.३८६० ४१६६ जो उधारेज वद्धतं
जीभा.२६७ ४४२२ जह सो चिलायपुत्तो निभा.३६६६, ४१५५ जो एतेसु न वट्टति
जीभा.२४० जीभा.५३३ ३१८८ जो गच्छंतम्मि विही ओनि. ६५२, निभा.६१३८ ४४२४ जह सो वंसिपदेसी
निभा. ३६७१, ५५७ जो जं काउ समत्थो
निभा.६३०३ जीभा. ५३५
३२६ जो जत्तिएण रोगो
निभा.६४०२ ३६१ जा ठवणा उद्दिट्ठा
निभा. ६४३७ ४३३६ जो जत्थ होइ कुसलो निभा.३६००, १२१७ जाणंता माहप्पं जीभा. २५६३, बृभा.५०४४
जीभा. ४५२ ३६७४ जाणंति एसणं वा निभा.४६०४ १०८५ जो जह व तह व लद्धं
बृभा ६२०३ ४२६७ जाणतेण वि एवं निभा ३८६१, जीभा. ४१० ४३२२ जो जारिसिओ कालो
निभा. ३८८५, ४११२ जाणति पओगभिसजो जीभा.१६३
जीभा.४३४ ३६४० जातीय मुंगितो पुण निभा. ४५७० ११६६ जो णेण कतो धम्मो
बृभा.६३०८ ४४१५ जाधे पराजिता सा निभा. ३६६२, जीभा.५५२ ४१६७ जो तु असंते विभवे
जीभा.२६५ ४१२६ जा भणिया बत्तीसा जीभा.२११ ४५१२ जो धारितो सुतत्थो
जीभा.६६४ ४१६८ जा य ऊणाहिए दाणे जीभा.२५६ २६६ जो पुण चोइज्जंते
निभा. ६३४६ १२२२ जारिसग आयरक्खा जीभा. तु.२५६८, ४४४८ जो पुण परिणामो खलु
जीभा.५७५ बृभा. ५०४६ ४१६५ जो पुण सहती कालं
जीभा. २६६ ४६६।१ जा संजमता जीवेसु निभा.६५३२ १११५ जो पेल्लितो परेणं
बृभा. ६२३३ ४३७ जिण-चोद्दस-जातीए निभा. ६५०२ ४४३२ जो सुतमहिज्जति बहुं
जीभा.५६१ ५०४ जिणनिल्लेवण कुडए निभा. ६५६२ ४४३३ जो सुतमहिज्जति बहु
जीभा.५६२ ५१२ जिणनिल्लेवण कुडए
निभा.६५७० १४१७ जो सो उ पुव्वभणितो जीभा.तु. २४६८ ४३५१ जिणवयणमप्पमेयं निभा.३६१४, जीभा.४६७ ३१६१ जो होज्ज उ असमत्थो आवनि. १३६७, १०८१ जितसत्तुनरवतिस्स उ बृभा.तु. ६१६८
ओनि. ६३७, निभा. ६१२३ ५१६ जिणपण्णत्ते भावे
निभा.६५७४ ५६६ जीहाए विलिहतो
निभा. ६६१४ ४०६० जूयादि होति वसणं
जीभा.१३८ २२६४ झरए य कालियसुते पंकभा.१०६० २२६७ जे गेण्हिउं धारइउं च जोग्गा । पंकभा.१०६४ ११४४ जेट्ठगभाउगमहिला
बृभा.तु. ६२६१ ४२१ जेण तु पदेण गुणिता
निभा.६४८६ ३५५ ठवणामेत्तं आरोवणत्ति
निभा.६४३१ १६७ जे त्ति व से त्ति व के त्ति व निभा.६२७३
४२३ ठवणारोवणमासे
निभा.६४८८ ३४५ जे भिक्खू बहुसो मासियाणि निभा.६४२०
३५६ ठवणा वीसिग पक्खिग
निभा.६४३२ ४३०६ जे मे जाणंति जिणा
निभा. ३८७३, ठवणा-संचय-रासी
निभा. ६४२७ जीभा.४२२ ३५८ ठवणा होति जहन्ना
निभा.६४३४ ३६०१ जेसिं एसुवदेसो निभा.४५४२, ४५३२
४३११ ठाणं पुण केरिसगं
जीभा. ४२४ ४०४५ जेसिं जीवाजीवा
जीभा.तु. १२३ ४३६३ ठाण निसीय तुयट्टण
निभा. ३६३८, ३६४१ जे हिंडंता काए निभा.४५७१
जीभा. ५१४ ४५३३ जो आगमे य सुत्ते
जीभा.६७८
२१५ ठाण निसीय तुयट्टण निभा.६२६८
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२०२ ]
परिशिष्ट-१३
४२२६ ठाण वसधीपसत्थे निभा.३८१५. जीभा.३३० ३१६६ ठाणाऽसति बिंदूसु वि
आवनि. १३६२,
निभा.६१५०, ओनि. ६६१ ४४६७ ठावेर दप्पकप्पे
जीभा. ६१७
३१४६ डहरग्गाममयम्मी
आवभा. २२३, निभा. ६११५
४४७ ३४२१ ४५०
णीसज्ज वियडणाए गाण तु णाणत्तं णेगासु चोरियासुं
निभा. ६५१२ निभा. १२५० निभा. ६५१५
४५३५ तं चेवऽणुमजंतो
जीभा. ६५० ५०१ तं चेव पुव्वभणियं
निभा. ६५५६ ४३५८ तं तारिसगं रयणं निभा.३६२१, जीभा.४७४ २२६ तं न खमं खुपमादो
निभा. ६३०६ ४२१६ तं नो वच्चति तित्थं
जीभा. ३१६ ४२२७ तं पुण अणुगंतव्वं
जीभा.३२८ २३५ तं पुण ओह विभागे
निभा. ६३१४ ४०४६ तं पुण केण कतं तू
जीभा.१२४ ४४६१ तं पुण होज्जाऽऽसेविय
जीभा. ५८८ १२२१ तं पूयइत्ताणं सुहासणत्थं बृभा. ५०४८,
जीभा.२५६७ १६६४ तगराए नगरीए
पंकभा.तु. २३५८ २१६८ तणुगं पि नेच्छए दुक्खं पंकभा. ११०८ ४३२७ तण्हाछेदम्मि कते
निभा. ३८८६,
जीभा.तु. ४४१ २४१ ततिए पतिट्ठियादी
निभा. ६३१६ ३४२७ ततिओ तु गुरुसगासे
निभा. १२५४ ३६२५ ततिओ लक्खणजुत्तं
निभा. ४५५१ ४०८४ तत्तो य वुड्डसीले
जीभा. १६४ ११८१ तत्थ अणाढिज्जतो
बृभा. तु. ६२६२ २६० तत्थ गिलाणो एगो
निभा. ६३३७ ४३३ तत्थ भवे न उ सुत्ते
निभा.६४६८ ४४५२ तत्थ वि परिणामो तू
जीभा.५७६ २८० तत्थ वि मायामोसो
निभा. ६३५७
४२४४ तत्थेक्कं छम्मासं
जीभा. ३४७ ११३६ तद्दव्वस्स दुगुंछण
बृभा. तु. ६२५२ ३१३ तप्पडिवक्खे खेते
निभा. ६३८७ १२०४ तम्हा अपरायत्ते
बृभा. ६३१० ५५६ तम्हा उ कप्पद्वितं
निभा. तु. ६६०४ ३४१३ तम्हा खलु घेत्तव्यो
निभा. १२४६ ४२६४ तम्हा गीयत्थेणं निभा. ३८३३, जीभा. ३६६ १६५७ तम्हा तु संघसद्दे
पंकभा.तु.२३२३ ४२८६ तम्हा परिच्छणं तू
जीभा. ३६३,
निभा. तु. ३८५२ ४२७२ तम्हा संविग्गेणं जीभा. ३७७, निभा. ३८४० ७४० तरुणे निष्फन्त्रपरिवारे
निभा. ६०२१ ४७६ तवतिग छेदतिगं वा
निभा.६५३८ ५०२ तवऽतीतमसद्दहिए
निभा. ६५६० ४४४७ तवनियमनाणरुक्खं
जीभा. ५७४ ४८४ तवबलितो सो जम्हा
निभा. ६५४२ ४०६३ तवु लज्जाए धातू
जीभा. १७३ ७७७ तवेण सत्तेण सुत्तेण
बृभा. १३२८ ४३६६ तसपाणबीयरहिते
निभा. ३६४३,
जीभा. ५२१ ४५१६ तस्स उ उद्धरिऊणं
जीभा.६७३ ४२७४. तस्सट्ठगतोभासण निभा. ३८४२, जीभा.३७६ ४१४८ तस्स त्ती तस्सेव उ
जीभा. २३१ ४३२४ तस्स य चरिमाहारो
जीभा. ४३८ ११४६ तस्स य भूततिगिच्छा
बृभा. ६२६२ १०६१ तह वि य अठायमाणे
बृभा. ६२०६ ४३४३ तह विय संथरमाणे
जीभा.तु. ४५६ २२४ तह समण-सुविहियाणं
निभा. ६३०६ ३२१७ ताधे पुणो वि अण्णत्थ निभा.तु. ६१६० २२३ तिक्खम्मि उदगवेगे
निभा. ६३०५ ३६५२ तिहाणे संवेगे
निभा. ४५८२ ४३८५ तिण्णि तु वारा किरिया
जीभा. ५०३ ३१७८ तिण्णि य निसीहियाओ आवनि. १३७८,
ओनि. ६४६, निभा. ६१३४ .३३५ तित्थगरा रायाणो
निभा. ६४१० १६७५ तित्थगरे भगवंते
पंकभा. २३४१ १६७६ तित्थगरे भगवंते
पंकभा. २३४२ ३२१ तिनि उ वारा जह दंडियस्स निभा. तु. ६३६६ ४४५५ तिविधं अतीतकाले
जोभा. ५८५
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परिशिष्ट-१३
[२०३
४१७
तीसना
-
६१६ तिविधे तेगिच्छम्मी
निभा. ६६६१ ३५० तिविहं च होति बहुगं
निभा. ६४२६ ४३२६ तिविहं तु वोसिरेहिइ निभा. ३८६१, ३३३ दंदतिगं तु पुरतिगे
निभा. ६४०५ जीभा. ४४४ ५६२ दंडसुलभम्मि लोए
निभा. ६६०७ ११५४ तिविहे य उवस्सग्गे बृभा. ६२६६ ३१२७ दंडिय कालगयम्मी
आवनि. १३४६, १५२३ तिविधो य पकप्पधरो पंकभा-तु-२३००,
निभा. तु. ६०६६ निभा.६६७६ ८६५ . दंतच्छिन्नमलित्तं
निभा. ३४६४ ३६३ तीसं ठवणा ठाणा निभा. ६४३६ ३१४६ दंते दिट्ठ विगिचण
आवनि. १३५७, ११२०, तीसा य पण्णवीसा बृभा. ६२३८
निभा. ६१११ १०६८
८५३ दंसण-नाण-चरित्ते
निभा. ४३४१ ३१६८ तिसु तिन्नि तारगाओ आवनि. १३६१,
८५४ सण-नाण-चरित्ते
निभा. ४३४२ ओभा. ३१२, निभा. ६१४६ ४४६४ दंसण-नाण-चरिते
जीभा. ६०१ तीसुत्तर पणवीसा निभा. ६४८१ २८६ दंसण-नाणे सुत्तत्थ
निभा. ६३६२ ५६४ तुमए चेव कतमिणं
निभा. ६६०६ ४४५५ दंसणमणुमुयंतेण
जीभा. ६३३ २६१ तुल्लेसु जो सलद्धी
निभा. ६३६६ । १६२ दगमुद्देसियं चेव
निभा. ६२७८ ५०७ तेण परं सरितादी
निभा. ६५६५ ४४४४ दट्ठ महंत महीरुह
जीभा. ५७१ ४०६६ तेणेव गुणेणं तू
जीभा. १५० ११४६ दट्टण नडिं कोई
बृभा. ६२६५ ४२०३ ते तेण परिच्चत्ता जीभा.तु. ३०१ ४३७० दत्तेणं नावाए
जीभा. ४८६ ३८६ तेत्तीसं ठवणपया
निभा.६४४८ ४४६२ दप्प अकप्प निरालंब
जीभा. ५८६ २७४ ते पुण एगमणेगा
निभा. ६३५१ ४३३३ दवियपरिणामतो वा निभा.३८६७, जीभा. ४४६ ४०८ तेरससय अठ्ठट्ठा
निभा. ६४७२ २५०० दव्वप्पमाणगणणा निभा. ३६६, बृभा. १६११ १०६३ तेलोक्कदेवमहिता बृभा. ६२०० ४२३६ दव्वसिती भावसिती
निभा.३८२२, ४४५१ ते वि भणिया गुरूणं जीभा. ५७८
जीभा. तु. ३३८, ३४० ४१२३ तेसिं अब्भुट्ठाणं
जीभा. २०५ ३०५ दव्वादि चतुरभिग्गह
निभा. ६३७६ ४३८७ तो गाउ वित्तिछेदं
जीभा. ५०५ ५६५ दव्वेण य भावेण य
निभा.६६१० ३१०७ तो देति तस्स राया आवनि. तु. १३२८,
३११२ दब्बे तं चिय दव्वं
निभा. ६०८३ निभा. तु. ६०८० १६७ दव्वे भविओ निव्वत्तिओ निभा. ६२८३ १६४ दब्वे य भाव भेयग
निभा. ६२८० ४०५५ दव्वेहि पज्जवेहिं
जीभा. १३१ २७१ थंडिल्लसमायारिं निभा. ६३४८ ५३३ दस चेव य पणताला
निभा. ६५८२ १७२५ थिरपरिवाडीएहिं
पंकभा. २३६० ४१८१ दस ता अणुसजंती जीभा.तु. २७६ निभा.६६८० ११६१ थूभमह सडिढ समणी बृभा. ६२७५ ४१६ दस्सुत्तरसतियाए
निभा. ६४९० ३६०८ थेराणं सविदिण्णो निभा. ४५३६ ३६०३ दिंते तेसिं अप्पा
निभा. ४५३४ २२६६ थेरे निस्साणेणं पंकभा. १०६२ ४३६६ दिटुंतस्सोवणओ
जीभा. ४८२ ११६१ थोवं पि धरेमाणो बृभा. ६३०१ ४२०६ दिद्रुतो तेणएणं
जीभा.तु. ३०८ ३१०५ थोवावसेसपोरिसि आवनि. १३२६, ३४१ दिण्णमदिण्णो दंडो
निभा. ६४१५ निभा. ६०७८ २४६ दिव रातो उवसंपय
निभा. ६३२५ ११३५ दिवसेण पोरिसीय व
बृभा. ६२५१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ ]
४४०९ दिव्वमणुया उदुग तिग
३२६८ दिसा अवर दक्खिणा य ३११६ दिसिदाह छिन्नमूलो
१६६० दुक्खेण लभति बोधि ४१५३ दुट्ठो कसायविसएहि २२६४ दुण्णि वि दाऊण दुवे दुखणे
२६६
२४२
दुभासि हसितादी
११३४ दुल्लभदव्वे देसे ३६१६ दुविधा छिन्नमछिन्ना ३६५५ दुविधोधाविय वसभा ३१६३ दुविधो य होति कालो
८५२
४४५७ दुविहं तु दप्पकप्पे ५६८ दुविहा पट्ठवणा खलु दुख पा ३६०६ दूरे चिक्खल्लो वुट्ठि ४१७० देंता वि न दीसंती १६६८ देसे देसे ठवणा ३६१८ देसे सव्ववहिम्मी ४३१७ देहवियोगो खिप्पं ३०१ दो तिहिं वा दिहिं ३६५ दो रासी ठावेजा २२७५ दो संघाडा भिक्ख
६१५
दोसविभवाणुरूव ४१५० दोसा कसायमादी ४१८२ दो उ वोच्छिन्ने ४१८३ दो वि वोच्छिन्ने दो सोय नेत्तमादी
४४१२
५८६
५६१
५६३
गुरुग
दोहिवि गुरुगा दोहिवि गुरुगा
ध
४१४५ धम्मसभावो सम्मद्दंसणयं
४५०७
धारणववहारेसो धारणववहारो सो
४५२०
निभा. ३६४६,
जीभा. ५२४
बृभा. ५५०५ आवनि. १३३५, निभा. ६०८६ पंकभा. २३५५ जीभा. २३७
पंकभा तु. १०४६
निभा. ६३७०
निभा. ६३२०
बृभा. ६२५३
निभा. ४५४६
निभा. तु. ४५८५ आवनि. १३६६,
ओनि.६३६, निभा ६१२५
जीभा. ५८४
निभा. ६६४२
निभा. ४३४०
निभा तु. ४५३६
जीभा. २६० पंकभा- २३३२ निभा. ४५४८
निभा. ३६०१, जीभा ४५३ निभा. ६३७५
निभा. ६४४१, ६४४७
पंकभा.तु. १०६६
निभा. ६६५६
जीभा. २३४
जीभा. २७६
जीभा. २८० निभा. ३६६०, जीभा - ५४६ निभा. ६६३१ निभा. ६६३४ निभा. ६६३७
जीभा. २२८ जीभा. ६५६ जीभा. ६७४
४३४८ धीरपुरिसपण्णत्ते ४५३६ धीरपुरिसपण्णत्तो धीरा कालच्छेद धोतम्मि य निप्पलगे
२२८०
३२२४
४१५
३६३३
१११४
३०४
२७६
२७७
४३७६
११०६
४४११
३२०८
५४०
४०६
४२१७ ४१०८
४०६७
१७२३
४२६१
न
१०८४
१६५२
१६८८
उती पक्खतीसा नंदि-पडिग्गह विपडिग्गहे
नणु सो चेव विसेसो
नथ इहं पडियरगा
२५१
नववज्जियावदेहो
४३२५ नवविगतिसत्तओदण
वस
नवयसता य सहस्सं
न ह गारवेण सक्का हु
न हु ते दव्यसंलेहं न हु होति सोइयव्वो
नाएण छिण्ण ववहार
नाण चरणसंघातं
१६८६
नाण चरणसंघातं ४३०४ नाणांनेमित्तं अद्धाणमेति
४३०३ नाणनिमित्तं आसेवियं
नाणमादीणि अत्ताणि
४०६३ ४०
नाणी न विणा नाणं
४०३६ नातं आगमियं ति य
निभा. ३६११, जीभा . ४६४ जीभा. ६८१
पंकभा. १०७१
आवनि १४०४, निभा. ६१६७
नत्थी संकिय संघाड
नत्थे यं में जमिच्छसि
निभा. ६३५४
न पगासेज लहुत्तं निभा. ३६३४, जीभा. ४६३
नय बंधहेतुविगलत्तणेण नवंगसुत्तप्पपडिबोहयाए
बृभा. ६२२७ जीभा. ५४८ निभा. ६१५६
नवकालवेलसेसे
निभा. ६५८७
निभा. ६४७३
निभा. ६३२६
जीभा. ४३६,
न विणा तित्थं नियंठेहिं न विविस्सरति धुवं तू
न संभरति जो दोसे
परिशिष्ट - १३
निभा. ६४७६ निभा. ४५६३
बृभा. ६२३२ निभा. ६३७८ निभा. ६३५३
निभा. तु. ३८८७
जीभा. ३१७
जीभा. १८६
जीभा. १४६
पंकभा. २३८८
निभा. ३८५५, जीभा ४०१
बृभा. ६२०२ पंकभा. तु. २३१६ पंकभा. २३५३
पंकभा. २३५४ जीभा. ४१७,
निभा. ३८६८
निभा. ३८६७,
जीभा . तु. ४१६ जीभा. १४१
निभा. ७५
जीभा. १११
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--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट-१३
[ २०५
१६६ नाम ठवणा दविए निभा.६२८२ ३६६६ नीसंकितो वि गंतूण
निभा. ४५६६ २१० नाम ठवणा दविए निभा.६२६२ ३६६८ नीसंको वणुसिट्ठो
निभा. ४५६८ २१३ नाम ठवणा दविए निभा.६२६६ ४०३१ नोइंदियपच्चक्खो
जीभा. २३ १८८ नाम ठवणा भिक्खू दशनि.३०६, निभा.६२७४ १३६० नोकारो खलु देसं
पंकभा.तु.८०७ ४०४७ नालीधमएण जिणा
जीभा. १२२ ४४४ नालीय परूवणया
निभा.६५०६ १७२४ नासेति अगीयत्थो
पंकभा. २३८६ ४२५२ नासेति अगीयत्थो निभा.३८२६, जीभा.३५७ | ३६० पंचण्हं परिवुड्डी
निभा. ६४३६ ४२६६ नासेति असंविग्गो निभा.३८३४, जीभा. ३७१ ४२६१ पंच व छस्सत्त सते
निभा-३८३०, ११६२ नाहं विदेस आहरणमादि बृभा. ६३०२
जीभा.तु. ३६६, पंकभा. १७४४ ४४५३ निकारणदप्पेणं ।
जीभा. ६३१ ४२६६ पंच व छस्सत्त सया जीभा. ३७४, निभा.३८३७ ३६४६ निक्कारणिएऽणुवदेसिय निभा.४५७६ १६६२ पंचविधं उवसंपय
पंकभा.२३५७ २७५ निग्गमणे परिसुद्धे निभा. ६३५२ ३१५५ पंचविधमसज्झायस्स
निभा.तु. ६११८ २८२ निग्गमसुद्धमुवाएण निभा.६३५६
आवनि तु. १३६२, ओनि.तु. ६३२ ४७२ निग्गयवस॒ता वि य निभा.६५३६ ४०२८ पंचविहो ववहारो
जीभा.८ ४१०३ निज्जवगो अत्थस्सा
•जीभा. १८४ ४०६ पंचसता चुलसीता
निभा.६४७० ४४३५ निजूढं चोद्दसपुविएण जीभा-५६० ४४१८ पंचसता जंतेणं
जीभा.५२६, १२२४ निज्जूढो मि नरीसर बृभा. ५०५१,
निभा.३६६५, उनि.११४ जीभा. २५७० ८६० पंचासवप्पवत्तो
निभा. ४३५१ ६६८ निजूहगतं दट्ठ निभा. तु. ४८५२ ४५४० पंचिंदि घट्ट तावण
जीभा.६८५ ६६७ नितहादिपलोयण
निभा.तु. ४८५१ ३१३३ पंचिंदियाण दव्वे निभा.६१००, आवनि.१३५० ११५३ नित्थिण्णो तुज्झ घरे बृभा.तु. ६२६४ ४१८४ पंचेव नियंठा खलु
जीभा.२८१ ३०२३ निद्दोसं सारवंतं च आवनि.८८५, ४१५८ पंचेव संजता खलु
तु. जीभा. २८५ बृभा.२८२, निभा. ३६२० ३११५ पंसू अच्चित्तरजो निभा.६०८६, आवनि १३३२ १०६८ निद्ध-महुरं च भत्तं
बृभा. ६२१६ ३११४ पंसू य मंसरुधिरे निभा.६०५५, आवनि.१३३१ १६६० निद्ध-महुरं निवातं पंकभा.२३२५ १६६८ पक्कलोव्व भया वा
पंकभा. २३६१ ३०८ निप्पत्तकंटइल्ले निभा.६३८२, भआ.५५५ २३४ पक्खिय चउसंवच्छर
निभा.६३१३ ४२१० निभच्छणाय बितियाय जीभा.३०६ ४१३६ पक्खिय पोसहिएसुं
जीभा.२१८ ४१६६ निरवेक्खो तिण्णि चयति जीभा.२६४
३१२८ पगतबहुपक्खिए वा
निभा. ६०६७, ५४७ निरुवस्सग्गनिमित्तं निभा. ६५६३, २८७८
आवनि.१३४७ ४५२ निवमरणमूलदेवो निभा.६५१७ ४०३५ पच्चक्खागमसरिसो
जीभा.११२ ४३७४ निव्वाघाएणेवं निभा. ३६३२, जीभा.४६१ ४०४६ पच्चक्खी पच्चक्खं
जीभा.१२१ ६२० निव्वितिए पुरिमड्ढे निभा.तु. ६६६२ ४०३० पच्चक्खो वि य दुविहो
जीभा. १० निसीध नवमा पुव्वा निभा. ६५०० ११६८ पच्छित्तं इत्तरिओ
बृभा.६२८१ ३१५ निसेजऽसति पडिहारिय निभा. ६३८६ ५७७ पच्छित्तऽणुपुचीए
निभा.६६२१ ६४ निस्संकिय निक्कंखिय दशनि. १५७, निभा. २३, ४२४७ पच्छिल्लहायणे तू
जीभा.तु. ३५२ मूला ५/२०१, जीभा. १०३७, उत्त. २८।३१ ३२१८ पट्ठवितम्मि सिलोगे
निभा. तु. ६१६१, ४१४२ निस्सेसमपरिसेसं जीभा.२२५
आवनि तु. १४०० ११५५ नीयल्लगाण तस्स व
बृभा.६२६५
नमा ५५
४३५
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________________
२०६]
परिशिष्ट-१३
३१६२ पट्टवित वंदिते वा
निभा.६१४३,
आवनि. १३८५, ओनि.६५६ ५६६ पट्टविता ठविता या
निभा.६६४३ ६०० पट्ठविता य वहते
निभा.६६४४ ३०६ पडिकुटेल्लगदिवसे
निभा.६३८३ १७१३ पडिणीय-मंदधम्मो
पंकभा.२३७५ २८३ पडिणीयम्मि उ भयणा निभा. ६३६० ४४२१ पडिणीययाए केई जीभा. ५३२, निभा. ३६६८ ४४२० पडिणीययाए कोई निभा.३६६७, जीभा. ५३१ २२८६ पडियरति गिलाणं वा
पंकभा.१०८५ ६६ पडिरूवो खलु विणओ
दशनि-२६७ ४१३८ पडिलेहण पप्फोडण
जीभा. २२० ८६४ पडिलेहण मुहपोत्तिय
निभा. ३४६३ ४३४५ पडिलेहण संथारं जीभा.४६१, निभा. ३६०५ २७० पडिलेहण सज्झाए
निभा. ६३४७ ४३१६ पडिलोमाणुलोमा वा
निभा. ३८८२,
जीभा. ४३२ ३७ पडिसेवओ य पडिसेवणा
निभा. ७३ ४०६५ पडिसेवणाइयारे
जीभा. १४३ २२६ पडिसेवणा उ कम्मोदएण निभा. ६३०८ ४३०८ पडिसेवणाऽतिचारा जीभा. ४२१, निभा. ३८७२ ४०६५/१ पडिसेवणाऽतिचारे जीभा. १४४, भआ.तु. ६२१ ३६ पडिसेवणा तु भावो
निभा.७४ ५७२ पडिसेवणा य संचय
निभा.६६१६ ४३०५ पडिसेवति विगतीओ
जीभा. ४१८,
निभा.३८६६ १२२० पडिहारख्वी भण रायरूविं बृभा. ५०४७,
जीभा.२५६६ ४४८१ पढमं कज्जं नाम
जीभा. ६२६ ४०६४ पढमगसंघयण थिरो
जीभा. १७४ २४८ पढमदिणमविप्फाले
निभा. ६३२६ २६८ पढमदिणम्मि न पुच्छे
निभा.६३७२ ४३१४ पढमबितिएसु कप्पे निभा.३८७७, जीभा.४२७ ४४०१ पढमम्मि य संघयणे
निभा.३६४८ ४४६८ पढमस्स य कज्जस्सा
जीभा.६१८ ४४६५-६६ पढमस्स य कज्जस्सा जीभा.६४६, ६४८ ४४६०-६२ पढमस्स य कज्जस्सा
जीभा.६३६,६४५,६४७ ६०६ पढमस्स होति मूलं
निभा.६६५६
७८० पढम्म उवस्सयम्मी
बृभा.१३३५ ३६७-६६ पढमा ठवणा एक्को निभा. ६४५६-६१ ३६२-६४ पढमा ठवणा पंच य निभा.६४५४-६४५६ ३८७-८६ पढमा ठवणा पक्खो
निभा-६४४६-५१ ३८२-८४ पढमा ठवणा वीसा
निभा-६४४३-४५ ४०४० पणगं मासविवड्डी
जीभा.११५ २७३ पणगादिसंगहो होति
निभा.६३५० ५२५ पणगेणऽहिओ मासो निभा. तु. ६५७७ ३६१ पणतीसं ठवणपदा
निभा ६४५३ पणिधाणजोगजुत्तो निभा. ३५, दशनि.१५६,
मूला. ५।२६७ ४१७५ पण्णवगस्स उ सपदं
जीभा. २६८ ११५० पण्णविया य विरूवा
बृभा. ६२६६ ४१३ पण्णाए पण्णट्ठी
निभा. ६४७७ ४३६, ५१३ पत्तेयं पत्तेयं निभा. ६५०१, ६५७१ ४४५४ पदमक्खरमुद्देसं
जीभा. ५८१ ३१६ पम्हढे पडिसारण
निभा. ६३६४ ४२७६ परतो सयं व णच्चा
निभा.३८४४,
जीभा.तु. ३८३ १६७८ परिणामियबुद्धीए
पंकभा. २३४४ ४१०२ परिणिव्वविया वाए :
जीभा.१८३ ४०७५ परिनिहित परिण्णाय
जीभा. १५५ १७१६ परिवार-इड्डि-धम्मकहि
पंकभा.२३८० ३३६० परिसाडि अपरिसाडी
निभा.१२१८ १६७० परिसा ववहारी या
पंकभा.२३३४ ५६६ परिहारऽणुपरिहारी
निभा.६६११ ४१६१ परिहारविसुद्धीए
जीभा.२८८ ५८० पलिउंचण चउभंगो
निभा.६६२४ ७२४ पवत्तिणि अभिसेगपत्त निभा.तु. ६०२२ १७२२ पवयणकज्जे खमगो पंकभा.तु.२३८५-२३८७ ४५०८ पवयणजसंसि पुरिसे
जीभा.६६० ४३०२ पव्वजादी आलोयणा जीभा.४१४, निभा ३८६६ ४२२३ पव्वज्जादी काउं निभा.३८१२, जीभा.३२३ ४३६१ पव्वजादी काउं निभा.३६४०, जीभा. ५१२ ७७४/१ पव्वज्जा सिक्खावय
निभा.३८१३,
बृभा.११३२, १४४६ ४३१७ पाणग जोग्गाहारे निभा-३८९०,जीभा. ४३० ४२८३ पाणगादीणि जोग्गाणि
जीभा.३६०, निभा. ३९५०
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________________
परिशिष्ट-१३
[२०७
३६०७ पाणदय खमणकरणे
निभा.४५३७ । ५७८ पुव्वं गुरुणि पडिसेविऊण निभा-६६२२ ११६ पाणवध-मुसावादे
मूला.तु. ६६१ १३१४ पुव्वं पच्छुद्दिढ बृभा. ५४१०, निभा. ५५०७, २५५ पाणसुणगा व भुंजति निभा. तु. ६३३३
पंकभा.२५६६ ३४१२ पाणा सीतल कुंथू
निभा. १२४५ १३१५ पुव्वं पच्छुद्दिढं बृभा. ५४११, निभा.५५०८, ४३६५ पादोवगमं भणियं निभा ३६४२
पंकभा.२५६७ ४२२१ पादोवगमे इंगिणि
जीभा.३२१ १३१७ पुव्वं पच्छुद्दिढ़ बृभा. ५४१३, निभा.५५१०, ४२२२ पादोवगमे इंगिणि जीभा.३२२
पंकभा.२५६६ ३१६४ पादोसितो अभिहितो
निभा.६१४५,
१३१६ पुव्वं पच्छुद्दिढं बृभा. ५४१५, निभा. ५५१२, आवनि. १३८७, ओनि.६५८
पंकभा.२६०१ ३२०० पादोसियऽहरत्ते
निभा.६१५१, १३२० पुव्वं पच्छुद्दिष्टुं बृभा. ५४१६, निभा. ५५१३, आवनि. १३६३, ओनि.६६२
पंकभा.२६०२ ४५०४ पाबल्लेण उवेच्च व जीभा. ६५६ ७६ पुव्वं बुद्धीए पासित्ता
दशनि-२६८ ३२१० पाभातियम्मि काले निभा.६१५५, आवनि.१३६८ ४४०७ पुव्वभवियपेम्मेणं निभा ३६५४, जीभा. ५४४ ४२१५ पायच्छित्ते असंतम्मि
पंकभा.२३१२, ४४०८ पुव्वभवियपेम्मेणं निभा ३६५५, जीभा.५४५
जीभा.३१५, निभा.६६७८ ११४२ पुव्वभवियवेरेणं बृभा.तु. ६२५८, निभा ३६५६ ११६७ पायच्छित्ते दिन्ने बृभा.६२८० ४३६७ पुव्वभवियवेरेणं
निभा.३६४४ ३६४२ पायच्छिनास-कर-कण्ण निभा. ४५७२
जीभा. ५२२ ५७३ पारंचि सतमसीतं निभा.६६१७ २२८८ पुवम्मि अप्पिणंती
पंकभा. १०६४ ४१६७ पारगमपारगं वा जीभा.२५८ ५७५ पुव्वाणुपुब्बि दुविहा
निभा.६६१६ १७१२ पारायणे समत्ते पंकभा. २३७२ ५७६ पुव्वाणुपुब्बि पढमो
निभा.६६२० ४०३७ पारोक्खं ववहारं जीभा.११२ ४४०० पुवावरदाहिण-उत्तरेहि
निभा.३६४७ ३५ पावं छिंदति जम्हा
१३१३ पुबुद्दिढ़ तस्सा बृभा. ५४०६, निभा. ५५०६, ११६६ पासंडे व सहाए बृभा.६३०५
पंकभा.तु. २५६५ १११६ पासंतो वि य काये
बृभा.६२३४ १३१६ पुबुद्दिढ़ तस्सा बृभा.५४१२, निभा. ५५०६, ८८६ पासत्थ-अहाछंदे निभा.४३५०
पंकभा.२५६८ ५३४ - पासत्थ-अहाछंदो
निभा.४३५० १३१८ पुबुद्दिलं तस्सा बृभा. ५४१४, निभा.५५११, ४३२० पासत्थोसन्न-कुसील जीभा.४३३, निभा.३८८३
पंकभा. तु. २६०० ४१७६ पासायस्स उ निम्म
जीभा.तु. ५७१ ११०५ पुव्वुद्दिवो य विही
बृभा.६२२३ ४३३० पासित्तु ताणि कोई जीभा.४४५, निभा.३८६२ ४११७ पूए अहागुरुं पि
जीभा.१६६ ८५५ पासो त्ति बंधणं ति य निभा.४३४३ २१७० पेसवेति उ अन्नत्थ
पंकभा.१११३ ४७० पिंडस्स जा विसोधी
निभा.६५३४ १२१६ पेसेति उवज्झायं बृभा.५०४३, जीभा.तु. २५६१ ११८७ पुट्ठा व अपुट्ठा वा बृभा.६२६७ ११४० पोग्गलअसुभसमुदओ
बृभा.६२५६ ४४०४ पुढवि-दग-अगणि-मारुय निभा. ३६५१,
जीभा.५२६ ४२४२ पुणरवि चउरण्णे तु
जीभा.३४५ १६६७ फलमिव पक्कं पडए पंकभा.तु. २३६१ ११०२ पुत्तादीणं किरियं । बृभा.६२२० ३२०३ फिडितम्मि अद्धरत्ते
निभा. ६१५३, ४११३ पुरिसं उवासगादी जीभा.१६४
आवनि. १३६५ ४५११ पुरिसस्स उ अइयारं
जीभा.६६३ ४०५७ पुव्वं अपासिऊणं
जीभा.१३५
जीभा.५
Page #803
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________________
२०८]
परिशिष्ट-१३
४१६३ बउसपडिसेवगा खलु जीभा.२६० ११४५ भतिया कुडुबिएणं
बृभा. ६२६० ४१८६ बकुसपडिसेवगाणं जीभा. २८३ १११ भत्ते पाणे सयणासणे
मूला. ६६२ ४१३० बत्तीसं वण्णिय च्चिय जीभा. २१२ २२७१ भमो वा पित्तमुच्छा वा
पंकभा. १०६० ४४०६ बत्तीसलक्खणधरो निभा.३६५७, जीभा. ५४६ १०७६ भयतो सोमिलबडुओ
बृभा. ६१६६ ४०७६-७६ बत्तीसाए ठाणेसु जीभा. १५६-१५६ १६७३ भवसतसहस्सलद्धं
पंकभा. २३३६ १७८८ बलि धम्मकधा किड्डा निभा. १३२६, ३६३१ भायणदेसा एंतो
निभा. ४५६१ बृभा. ५५४ १६५ भिंदंतो यावि खुधं
दशनि. ३१८, ३२५ बहुएसु एगदाणे निभा. ६४०१
निभा.तु. ६२८१ ३५४ बहुएसु एगदाणे निभा. ६४३० १८६ भिक्खणसीलो भिक्खू
निभा. ६२७५ ५०८ बहुएहि जलकुडेहिं निभा. ६५६६ ४२२५ भिक्ख-वियार समत्थो
जीभा.३२५ ३३६ बहुएहि वि मासेहिं निभा. ६४११ २३६ भिक्खादिनिग्गएK
निभा. ६३१७ ४११६ बहुजणजोग्गं खेत्तं जीभा. १६८ ३६१७ भिन्ने व झामिए वा
निभा. ४५४७ ३५२ बहुपडिसेवी सो विय निभा. ६४२८ ४०५६ भीतो पलायमाणो
जीभा.१३७ १७२० बहुपरिवार महिड्डी पंकभा.तु. २३८२-२३८४ ४१७७ भुंजति चक्की भोए
जीभा. २६६ ४११० बहुबहुविधं पुराणं जीभा. १६१ ४३१८ भुत्तभोगी पुरा जो तु
जीभा. ४३१, ४१०७ बहुविहऽणेगपयारं जीभा. १८८
निभा. ३८८१ ४०५८ बहुसुतजुगप्पहाणे
जीभा. १६८ | २३५८ भोइकुल सेवि भाउग निभा. २१५२ ४०८७ बहुसुतपरिचियसुत्ते
जीभा.१६७ १६५१ बहुसुतबहुपरिवारो पंकभा.तु. २३१६ ४७१ बायाला अट्ठेव य निभा. तु. ६५३५ ४१०४ मइसंपय चउभेया
जीभा. १८५ ४०२ बारस अट्ठग छक्कग
निभा. ६४६६ ४४१० मज्जणगंधं पुष्फोवयार निभा. ३६५३ ३६५८, ४६० बारस दस नव चेव य निभा. ६५४७ ४४०६
जीभा. ५४७ २२६३ बारसवासे गहिते
पंकभा.१०६६ ४४२७ बावीसमाणुपुव्वी जीभा.५३६, निभा. ३६७४ ५१४ मणपरमोधिजिणाणं
निभा. ६५७२ ३१८१ बिंदू य छीयपरिणय निभा. ६१३६, १७०० मरहठ्ठलाडपुच्छा
पंकभा. २३६३ आवनि. १३८०, ओनि.तु. ६५१ ४२५६ मरिऊण अट्टझाणो
जीभा. ३६१ ४४८४ बितियं कजं कारण
जीभा. ६३२ ४५७ मरुगसमाणो उ गुरू निभा. ६५१६, ६५२३ ४४७५ बितियस्स य कजस्सा जीभा-६२७ ४७५ मासादि असंचइए
निभा. ६५३७ ४५०० बितियस्स य कज्जस्सा जीभा.६५२ ३१३६ महाकाएऽहोरत्तं
निभा. तु. ६१०४, ३२२१ बितियागाढे सागारियादि निभा. ६१६४
आवभा. २१८ ३२३६ बितियागाढे सागारियादि निभा. ६१७६
११३२ महज्झयण भत्त खीरे
बृभा.६२५० ४४४६ बेति गुरू अह तं तू जीभा. ५७३ ४३६४ महसिल कंटे तहियं
जीभा.४५० १०६४ महिड्डिए उट्ठ निवेसणा भ
बृभा. ६२१२
३१११ महिया तु गब्भमासे निभा.६०८२, आवभा.२१६ ४२६३ भंडी बइल्लए काए जीभा. ४०४, ३११० महिया य भिन्नवासे
निभा. ६०७६, निभा. तु. ३८५७
आवनि. १३२७ ३०६ भग्गघरे कुड्डेसु य निभा. ६३८० ११२६ महरा दंडाऽणत्ती
बृभा. ६२४४ ३१५२ भण्णति मययं तु तहिं निभा.तु. ६११६, १६६५ मा कित्ते कंकडुकं
पंकभा. २३५६ आवनि. १३६० | ३१४४ माणुस्सगं चउद्धा निभा. ६१०६, आवनि.१३५५
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________________
परिशिष्ट-१३
[२०६
३३७ मा वद एवं एक्कसि निभा. ६४१२ । ११४८ रूवगिं दट्टणं
बृभा.तु. ६२६४ ४४५ मास-चउमासिएहिं निभा. ६५१० १६६६ रोमंथयते कज्जे
पंकभा.२३६२ ५६७ मासादी पट्टविते
निभा.६६४१ ५८८ मासो दोन्नि उ सुद्धो
निभा.६६३० ६२१ मासो लहुगो गुरुगो
निभा.६६६३ ५६० लहुगा लहुगो सुद्धो
निभा.६६३३ १०६६ मिउबंधेहि तधा णं बृभा.६२१४ ३१७ लहुयल्हादीजणणं
निभा-६३६१ १०१५ मिच्छत्त बडुग चारण निभा.तु. १३१६ १११८, लहुसो लहुसतरागो
बृभा. ६२३६ २२० मीसाओ ओदइयं
निभा.६३०२
१०६६ २४३ मुच्छातिरित्त पंचम निभा.६३२१ ११२५ लाभमदेण व मत्तो
बृभा.६२४३ ४४१७ मुणिसुव्वयंतवासी उनि.११३, जीभा. ५२८ ४३६६ लावए पवए जोधे निभा. ३६२७, जीभा. ४८५ निभा.३६६४ ४२४८ लुक्खत्ता मुहर्जतं
जीभा.३५३ ४६५ मूलगुणउत्तरगुणा निभा.६५३० ३६७६ लेवाडहत्थ छिक्के
निभा.४६०६ ४६६ मूलगुणदतिय सगडे
निभा.६५३३ २४० मूलगुण पढमकाया
निभा.६३१८ ४६२ मूलऽतिचारे चेयं
निभा, ६५२७
४३३५ वटुंति अपरितंता जीभा.४५१ निभा. ३८६६ ४६३ मूलव्वयातियारा
निभा.६५२८ ११०७ वड्डति हायति उभयं
बृभा.६२२५ २०६ मूलादिवेदगो खलु
निभा. ६२६१ २८५ वत्तणा संधणा चेव
निभा.६३६१ २२१ मूलुत्तरपडिसेवा
निभा. ६३०३ ४५२१ वत्तणुवत्तपवत्तो
जीभा.६७५ ३१०३ मेच्छभयघोसणनिवे निभा. तु. ६०७६, ४५२२ वत्तो णामं एक्कसि
जीभा.६७६ आवनि. तु. १३२४ १२०१ वत्थाणाऽऽभरणाणि य
बृभा. ६३०६ ११५३ मोहेण पित्ततो वा बृभा. ६२६८ ४११५ वत्थु परवादी ऊ
जीभा.१६६ ५४४ वमण-विरेयणमादी
निभा.६५६० ४४६० वयछक्कं कायछक्कं
जीभा.५५७ २१६ रज्जयमादि अछिन्नं निभा.६३०१ ४०७४ वयछक्कं कायछक्कं
जीभा.१५४ ४२६२ रण्णा कोंकणगाऽमच्चा निभा.३८५६, १२०७ वरनेवत्थं एगे
जीभा. २४६० जीभा.४०३ ११८६ ववहारेण य अहयं
बृभा. तु. ६२६६ ११०१ रणो निवेदितम्मि बृभा.६२१६ २२८६ वसधि निवेसण साही
पंकभा.१०७८ ३१४५ रत्तुक्कडया इत्थी निभा.६११०, आवनि.१३५६ ४३७५ वसभो वा ठाविजति
जीभा. ४६५ ४५१० रहिते नाम असते जीभा.६६२ ३१६४ वाघाते ततिओ सिं
निभा.६१२६, ३२३४ रागा दोसा मोहा निभा.६१७५,
आवनि.१३७०, ओनि. ६४० आवनि.तु. १४१२ २५७३ वाते पित्ते गणालोए
पंकभा.१६८१ ४०४१ रागद्दोसविवढिं जीभा. ११६ १२२६ वादपरायणकुवितो
बृभा. ५०४२, १११० रागद्दोसाणुगया बृभा.६२२८
जीभा.२५७२ १०८० रागम्मि रायखुड्डो बृभा. ६१६७ ४०६८ वायणभेदा चउरो
जीभा.१७६ १६६३ रागेण व दोसेण व पंकभा. २३२७ ४३८२ वालच्छभल्ल-विस
जीभा.५०० १६६४ रागेण व दोसेण व पंकभा. २३२८ ४३५३ वालेण गोणसादी
जीभा. ५०१ १०७८ रागेण वा भएण व बृभा.६१६५ ३११३ वासत्ताणावरिता
आवनि.१३३०, ३१०४ राया इव तित्थगरो निभा.६०७७,
निभा. ६०८४ आवनि.१३२५ ३४११ वासासु अपरिसाडी
निभा.१२४४
१५
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________________
२१०]
परिशिष्ट-१३
३१६७ वासासु पाभातिए
निभा.६१४८,
आवनि.१३६० ४११८ वासे बहुजणजोग्गं
जीभा.२०० ५४६ विउसग्गजाणणट्ठा
निभा. ६५६२ ४३३२ विगती कयाणुबंधे निभा.३८६६, जीभा. ४४८, ४५३६ विगलिंदऽणंत घट्टण
जीभा.६८४ ४३५७ विग्गहगते य सिद्धे
निभा. ३६२०,
जीभा.४७३ ११५५ विजाए मंतेण व
बृभा.६२७० २२५८ विजाकया चारिय लाघवेण पंकभा. १०३८ ११६४ विज्जादी सरभेदण
बृभा. ६३०४ ११५७ विज्जादऽभिजोगो पुण
बृभा.६२७१ ४१४४ विण्णाणाभावम्मी
जीभा-२२७ ३३० विणिउत्तभंडभंडण
निभा.६४०५ ४१२० वितरे न तु वासासुं
जीभा.तु. २०२ ११३१ विद्दवितं केणं ति य
बृभा. ६२४६ ३४२३ विप्परिणामणकधणा निभा.तु. १२५१ ४४२ विभंगीव जिणा खलु निभा.तु. ६५०७ ४५५ वी वीसं भंडी
निभा.६५२१ ४८५ वीसऽद्वारस लघु-गुरु
निभा.६५४३ ४२७ विसमा आरुवणाओ
निभा.६४६२ ३२१४ वीसरसरं रुवंते
निभा-६१५६ ११५६ विसस्स विसमेवेह
बृभा.६२७३ ३५७ वीसाए अद्धमासं
निभा.६४३३ ४११ वीसाए तू वीसा
निभा.६४७५ २२६७ वीसामण उवगरणे पंकभा.तु. १०५६ ५३४ वीसालसयं पणतालीसा निभा. ६५८३ ३३२ वीसुं दिण्णे पुच्छा
निभा.६४०७ ४३८४ विसेण लद्धो होज्जा
जीभा.५०२ ३१२५ वुग्गहदंडियमादी
आवनि.१३४४,
निभा.६०६४ २२५६ वुडस्स उ जो वासो
पंकभा. १०३५ २३०० वुड्डावासातीते
पंकभा. १०६७ ११७२ वुत्तं हि उत्तमढे
बृभा.६२८५ २२७७ वुड्डावासे जतणा
पंकभा.१०७० ४५१८ वेयावच्चकरो वा
जीभा.६७२ ५६० वेयावच्चे तिविधे
निभा.६६०५ ३६०० वेहारुगाण मन्ने
निभा.४५३१
स ४५०५ सं एगीभावम्मी
जीभा.६५७ ४१६१ संखादीया ठाणा
जीभा.२५३ ४३६३ संगामदुगं महसिल निभा. ३६२६, जीभा. ४७E ४५१ संघयणं जध सगडं
निभा. ६५१६ ४३६४ संघयणधितीजुत्तो निभा. ३६३६, जीभा. ५१५ ४२०२ संघयणधितीहीणा
जीभा. ३०० ४४६५ संघस्साऽऽयरियस्स य
जीभा. ६०२ ५५१ संघाडगा उ जाव उ निभा. ६५६७, २८८२,
जीभा.तु. २४४१ बृभा.५५६६ संघाडगा उ जाव उ निभा. ६५६८, २८८३,
जीभा. २४४२ १६७७ संघो गुणसंघातो
पंकभा.२३४३ १२२७ संघो न लभति कजं बृभा ५०५३, जीभा.२५७३ १६६७ संघो महाणुभागो
पंकभा.२३३१ ३१०२ संजमघाउप्पाते निभा. ६०७५, आवनि.१३२३ ४२३७ संजमठाणाणं कंडगाण
निभा.३८२३,
जीभा.३३६ ४१३४ संजममायरति सयं
जीभा.२१६ ३१० संझागतं रविगतं
निभा. ६३८४ ३११ • संझागयम्मि कलहो
निभा.६३८५ २४४ संतम्मि वि बलविरिए
निभा.६३२२ ४२०१ संतविभवेहि तुल्ला
जीभा.२६६ ४१६५ संतविभवो उ जाधे
जीभा.२६३ ४३४२ संथारो उत्तिमद्धे
निभा. तु.३६०६,
जीभा. ४५८ ३४२४ संथारो देहंतं
निभा.तु. १२५३ ४३४७ संथारो मउओ तस्स निभा.तु. ३६०६,
जीभा-४६३ २२६२ संवच्छरं च झरए
पंकभा. १०५८ ४२४१ संवच्छराणि चउरो
जीभा.३४४ ४२७१ संबिग्गदुल्लभं खलु जीभा.३७६, निभा.३५३६ ४५४६ संविग्गे पियधम्मे
जीभा. ६६१ ३६५६ संविग्गमसंविग्गे
निभा.४५८७ ३६६४ संविग्गमसंविग्गे
निभा. ४५६४ ३६५७ संविग्गाण सगासे
निभा.४५८८ ३६५८ संविग्गादणुसिट्ठो
निभा.४५८६ ३६६० संविग्गेहणुसिट्ठो
निभा.४५६१
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________________
परिशिष्ट-१३
[२११
११८० सकुडुबो निक्खंतो बृभा.तु. ६२६२ ५६६ सव्वत्थ वि समासणे
निभा.६६३८ ५३७ सगणम्मि नत्थि पुच्छा निभा.तु. ६५८६ ४१३७ सव्वम्मि बारसविहे
जीभा.२१६ ४२३३ सगणे आणाहाणी
जीभा.३३५ ४३५६ सव्वसुहप्पभवाओ निभा.३६१६, जीभा. ४७२ ४०८६ सगनामं व परिचितं
जीभा.तु. १६६ ४३५५ सव्वाओ अजाओ निभा. ३६१८, जीभा. ४७१ ११२८ सच्चं भण गोदावरि ! बृभा. ६२४६ ४१८ सव्वासिं ठवणाणं
निभा. ६४८३ २१४ सच्चित्तादी दव्वे
निभा. ६२६७ ४३५३ सव्वाहि वि लद्धीहिं निभा.३६१६, जीभा. ४६६ ३६३६ सच्छंदमणिहिट्टे निभा. तु. ४५३६ ३४५८ सव्वे वि दिट्ठरूवे
निभा. १२७० ३१७० सज्झायमचिंतेंता आवनि. १३७३, निभा.६१२६ ४३४ सव्वे वि य पच्छित्ता
निभा.६४६६ ५८७ सट्ठाणाणुग केई
निभा.६६२६ ४३५२ सव्वे सव्वद्धाए जीभा.४६८, निभा.३६१५ ११६० सण्णी व सावगो वा बृभा. ६३०० ६०८ सव्वेसिं अविसिट्ठा
निभा.६६५५ १०८६ सत्थऽग्गिं थंभेउं बृभा.६२०७ ४१० सव्वेसिं ठवणाणं
निभा. ६४७४ ४६८ सत्त उ मासा उग्धातियाण निभा. ६५५७ १०६३ सस्सगिहादीणि डहे
बृभा.६२११ ४८७ सत्त-चउक्का उग्घातियाण निभा. ६५४५ ५२७ ससणिद्धमादि अहियं
निभा-६५८० ४६५ सत्त-चउक्का उग्घातियाण निभा. ६५५४ ५२६ ससणिद्धबीयघट्टे
निभा.६५७६ १४२० सत्तरत्तं तवो होति बृभा.७०५, निभा.५५८६, ४०५६ सहसा अण्णाणेण व
जीभा.१३४ पंकभा.२११७ ८६७ सागारियादि पलियंक
निभा.३४६५ ४६६ सत्तारस पण्णारस
निभा. ६५५५ २३५६ साधम्मिय वइधम्मिय निभा.तु. २१५३ ३१६१ सन्निहिताण वडारो ओनि. ६५५, १३१२ साधारणं तु पढमे
बृभा.५४०७, निभा.६१४२, आवनि.१३.४
निभा.५३०३, पंकभा.२५६४ ४१७४ सपदपरूवण अणुसज्जणा जीभा.२६७ ६०३ सा पुण जहन्न उक्कोस
निभा. ६६४७ ४३८० सपरक्कमे जो उ गमो
निभा-३६३६,
३११६ साभाविय तिण्णि दिणा निभा. ६०५७, जीभा. ४६७, ४६८
आवनि.१३३३ ४२२४ सपरक्कमे य अपरक्कमे जीभा.३२४ ४१८६ सामाइयसंजताणं
जीभा. २८६ ४४३८ समणस्स उत्तिमढे जीभा.५६६ ८८७ सामायारी वितहं
निभा. ४३४६ १२२३ समणाणं पडिरूवी बृभा. ५०५० ११६३ सारिक्खतेण जंपसि
बृभा.६३०३ ३२२५ समणो तु वणे व भगंदले निभा.६१६८, ३१३१ सारीरं पि य दुविधं
निभा-६०६६, आवनि.१४०५
आवनि.१३४६ ३२६६ समाधी अभत्तपाणे
बृभा. ५५०६ ४२३० सारेऊण य कवयं जीभा.३३१, निभा. ३८१६ ३६६७ समुदाणं चरिगाण व निभा. ४५६७ ३६५४ सारेहिति सीदंतं
निभा.४५८४ ४२७७ सयं चेव चिरं वासो जीभा.३८४,निभा ३८४५ | १६७ सावेक्खो त्ति च काउं जीभा. तु. २२१६ ४१४ सयरीए पणपण्णा निभा.६४७८ ६१० सावेक्खो त्ति च काउं
निभा.६६५७ ११७८ सरभेद-वण्णभेदं बृभा. ६२६० ४२०४ सावेक्खो पवयणम्मि
जीभा ३०३ ४३७५ सरीर-उवगरणम्मि य निभा. ३६३३, जीभा. ४६२ ४३८६ साहूणं रुद्धाई
जीभा. ५०४ ४३७२ सरीरमुज्झियं जेण निभा. ३६३०, जीभा.४८६ २३२ सिग्घुज्जुगती आसो
निभा.६३११ ४१७३ सव्वं पि य पच्छित्तं
जीभा.२६५ ४२३५ सिणेहो पेलवी होति निभा.३८२१, जीभा. ३३७ ४३३१ सव्वं भोच्चा कोई निधा.३८६५, ४१५२ सीतघरं पिव दाहं
जीभा.२३६ जीभा.४४७ ३१४७ सीताणे जं दडूढं निभा.६११२, आवभा.२२२ ४२१८ सव्वण्णूहि परूविय जीभा. ३१६ २६३ सीस-पडिच्छे पाहुड
निभा.६३४० ५६४ सव्वत्थ वि सट्ठाणं निभा.६६३६ १६८६ सीसे कुलव्विए व
पंकभा.२३५१
.
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२१२]
परिशिष्ट-१३
४१०६ सीसेण कुतित्थीण व
जीभा.तु. १८७ १६८२-८५ सीसो पडिच्छओ वा पंकभा. २३४७-५० ४२२० सुण जध निजवगऽत्थी
जीभा. ३२० ४०६४ सुत्तं अत्थे उभयं
जीभा. १४२ ४१४० सुत्तं अत्थं च तहा
जीभा. २२३ ३४०८ सुत्तं च अत्थं च दुवे वि काउं। निभा.१२३६ ४१४१ सुत्तं गाहेति उजुत्तो
जीभा. २२४ ११२७ सुतजम्म महुरपाडण
बृभा. ६२४५ ३२२६ सुतनाणम्मि अभत्ती
निभा. ६१७१,
आवनि.१४०६ ३३६५ सुत्तनिवातो तणेस
निभा. १२२४ ४००६ सुत-सुह-दुक्खे खेत्ते
बृभा. ५४२३ २२५६ . सुत्तागम बारसमा
पंकभा.तु. १०४० ४३७३ सुद्धं एसित्तु ठावेंति निभा.३६३१, जीभा.४६० २६५ सुद्धं पडिच्छिऊणं
निभा. ६३४२ ५४५ सुद्धतवो अजाणं
निभा.६५६१ २८७ सुद्धऽपडिच्छण लहुगा
निभा.६३६३ ६१७ सुद्धालंभि अगीते
निभा.६६६० ४५६-६० सुबहूहि वि मासेहिं
निभा.६५२० २१६६ सुहसीलऽणुकंपातहिते पंकभा.११०७ . २१६७ सुहसीलताय पेसेति पंकभा. तु. ११०६ १७०६ सूयपारायणं पढमं
पंकभा. २३७३ ३१२२ सूरो जहण्ण बारस निभा.६०६२, ६०६३,
आवनि.१३४२, १३४३ ८५६ सेज्जायर कुल निस्सित निभा. ४३४४ ११४३ सेट्ठिस्स दोन्नि महिला बृभा. तु. ६२५६ ३१२६ सेणाहिवई भोइय निभा. ६०६५, आवि १३४५
११७४ सेवगपुरिसे ओमे
बृभा. ६२८७ २२८३ सेलिय काणिट्टघरे
पंकभा.तु.१०७६ ३१६० सेसा उ जधासत्ती
निभा.६१२२,
आवनि. १३६६, ओनि.३३६ १७१६ सो अभिमुहेति लुद्धो
पंकभा.२३७८ ४२५६ सो उ विविंचिय दिट्ठो
जीभा.३६४ ११८८ सोऊण अट्ठजायं
बृभा. ६२६८ ४४८७ सोऊण तस्स पडिसेवणं
जीभा.६३६ ४५३७ सो जध कालादीणं
जीभा.६८२ ४५१६ सो तम्मि चेव दव्वे
जीभा.६६६ ४५१७ सो तम्मि चेव दव्वे
जीभा.६७० ३६६१ सो पुण पडिच्छओ वा
निभा. ४५६२ ४४८६ सो ववहारविहिण्णू
जीभा.६३८ ४४४२ सो वि अपरक्कमगती
जीभा.५६६ ४४५३ सो वि गुरूहि भणितो
जीभा. ५८० ४१३५ सो सत्तरसो पुढवादियाण
जीभा.२१७ ४१७१ सोहीए य अभावे
जीभा. २६१
४३६२ हंदी परीसहचमू निभा. ३६२५, जीभा. ४७८ ४२८१ हवेज जइ वाघातो निभा. ३८४६, जीभा ३८८ ५१५ हा दुडु कतं हा दुट्ठ
निभा ६५७३ ६८ हित-मित-अफरुसभासी
दशनि.२६ हीणाधियविवरीते
निभा. ६३४५ ४२६ होति समे समगहणं
निभा. ६४६१
२६८
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________________
परिशिष्ट-१४
आयुर्वेद और आरोग्य
प्रतिकूल भोजन का प्रभाव
वाहिविरुद्धं भुंजति, देहविरुद्धं च आउरो कुणति ।
यः कश्चित् पुरुषो व्याधिग्रस्तो व्याधिविरुद्धं व्याधिप्रतिकोपकारि भुंक्ते, तथा य आतुरो ग्लानो ग्लानत्वभग्नः सन् देहविनाशकारि करोत्यनशनप्रत्याख्यानादि ।
(गा. ६६ टी. प. २६) अंगमर्दन एवं विश्रामणा के लाभ
वातादी सट्ठाणं, वयंति बद्धासणस्स जे खुभिया। खेदजओ तणुथिरया, बलं च अरिसादओ नेवं ।।
वातादयो वातपित्तश्लेष्माणो ये बद्धासनस्य सतः क्षुभिताः स्वस्थानात् प्रतिचलितास्ते स्थानं व्रजंति स्वस्थानं प्रतिपद्यंते, ते न विक्रियां भजंतीति भावः, तथा वाचनाप्रदानतो मार्गगमनतो वा यः खेद उपजातः तस्य जयोऽपगमो भवति, तथा तनोः शरीरस्य स्थिरता दायँ भवति, न विशरारुभावः, अत एव च बलं शरीरं तदुपष्टंभतो वाचिकं मानसिकं च तथा एवं विश्रामणातो वातादीनां स्वस्थानगमने अर्श आदयः अर्शासि वातिकपित्तश्लेष्मजानि आदिशब्दात्तदन्यरोगा न उपजायंते, एते विश्रामणायां
(गा. ६३ टी. प. ३४) वमन-विरेचन आदि चिकित्सा किसके लिए ?
वमण-विरेयणमादी, कक्खडकिरिया जधाउरे बलिते। कीरति न दुब्बलम्मी....।।
यद्यपि द्वावपि पुरुषौ सदृशरोगाभिभूतौ तथापि तयोर्मध्ये य आतुरः शरीरेण बलवान् तस्मिन् बलिके यथा वमनविरेचनादिका कर्कशक्रिया क्रियते न तु दुर्बले, तस्मिन् यथा सहते तथा अकर्कशा क्रिया क्रियते ।
(गा. ५४४ टी. प. २६) निद्रा का अभाव : अजीर्ण रोग का कारण
जग्गणे अजिण्णादी रात्रौ जाग्रतामजीर्णादिदोषसंभवः । निद्राया अभावे च अजीर्णदोषः।
(गा. ६४७ टी. प. ५६)
गुणाः।
कंटकविद्ध की चिकित्सा के तीन प्रयोग
परिमद्दण दंतमलादि.....।
कण्टकादिवेधस्थानानामङ्गुष्ठादिना परिमर्दनं। तदनन्तरं दन्तमलादिना आदिशब्दात्कर्णमलादिपरिग्रहः पूरणं कण्टकादिवेधानाम् ।
(गा. ६६३ टी. प. ६३) लघु व्याधि से पूर्व गुरु व्याधि की चिकित्सा
वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया । काउमुबद्दवकिरियं, समेति तो तं वणं वेज्जा ।।
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२१४ ]
व्रणक्रियायां प्रारब्धायामपान्तराले या भवति व्यापदुपद्रवः काप्यापदित्याह ज्वरधनुग्रहादिका ज्वरो वा समुत्पन्नो धनुग्रहो वा वातविशेषः आदिशब्दात्तदन्येषां गुरुकव्याधिविशेषाणां जीवितान्तकारिणां परिग्रहः । तस्य व्यापल्लक्षणस्य उपद्रवस्य क्रियां कृत्वा ततः पश्चात्तं व्रणं वैद्याः शमयन्ति । (गा. ७०० टी. प. ७२)
वाकूपाटव के लिए ब्राह्मी का प्रयोग
ब्राह्मयाद्यैौषधोपयोगतो वाक्पाटवम् । वाक्पाटवकारि ब्राह्मयाद्यौषधं दीयताम् ।
शरीर की लघुता के लिए प्रयोग
शरीरजाड्यापहार्यौषधाभ्यवहारतः शरीरलघुता ।
मेधा और धारणा - बल कैसे ?
दुग्धप्रणीताहाराभ्यवहारतो मेधाविशिष्टं च धारणाबलम् ।
ऊर्जा और पाटव कैसे ?
सर्पिः सन्मिश्रभोजनभुक्तित ऊर्जा, घृतेन पाटवम् ।
नाक का अर्श होने का एक कारण
आंख का प्रत्यारोपण
देवा भणि-अच्छीणि अप्पदेसीभूयाणि, खवगो भणति कह वि करेही, ताहे सज्जो मारियस्स एलगस्स सप्पएसाणि सेहखमगस्स लाइयाणि ।
(गा. ७६५ टी. प. ६६)
ततो रुधिरगंधेन तयोः श्रमणयोर्नाशाशा॑स्युपजायन्ते ।
उन्माद रोग के तीन कारण
पित्तमूर्च्छाया पित्तोद्रेकेण उपलक्षणमेतद् वातोद्रेकवशतो वा स्याद् उन्मादः ।
पित्त की चिकित्सा - विधि
वाते अब्भंगसिणेहपज्जप्पादी तहा निवाए य । सक्करखीरादीहि य, पित्ततिगिच्छा तु कायव्वा ॥
वात से धातुक्षोभ होने पर आहार और शय्या का विवेक
निद्धमहुरं च भत्तं, करीससेज्जा य नो जधा वातो ।
यदि वातादिना धातुक्षोभोऽस्य सञ्जात इति ज्ञायते तदा भक्तमपथ्यपरिहारेण स्निग्धं मधुरं च तस्मै दातव्यम् । शय्या च करीषमयी कर्तव्या, सा हि सोष्णा भवति । उष्णे च वातश्लेष्मापहारः ।
(गा. १०६८ टी. प. ३२)
वर्षाकाल में तप का लाभ
वर्षाले त्रिग्धतया बलिको बलियान् तपः कुर्वतां बलोपष्टम्भं करोति ।
पागल कुत्ता काटने पर चिकित्सा
कोऽप्यर्केण शुना खादितः स यदि तस्यैव शुनकस्य मांसं खादति, ततः प्रगुणीभवति ।
वायुक्षोभ का कारण
परिशिष्ट - १४
अतिरिक्तकर्म अतिरेकेण वातादिक्षोभो भवति ।
(गा. ७५७ टी. प. ८४)
(गा. १०१५ टी . प . ११)
(गा. ११४८ टी.प. ४१)
(गा. ११५२ टी. प. ४२ )
(गा. १३४० टी. प. ८१ )
(गा. १३५६ टी. प. ८७)
(गा. १३६२ टी. प. १०)
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परिशिष्ट-१४
[२१५
मलमूत्र के निरोध से हानि।
पुरीषादिधारणे जीवितनाशादि । ____ मुत्तनिरोहे चखं, वच्चनिरोहे य जीवियं चयति ।
(गा. १७७२ टी.प.१०) गरिष्ठभोजन से कामोत्तेजना प्रणीतरसभोजने च दोषाः कामोद्रेकादयः शरीरोपचयादिभावात ।
(गा. १७७५ टी. प. १०) मिताहार के लाभ सव्वे वप्पाहारा, भवंति गेलण्णमादिदोसभया। ग्लान्यादिदोषभयात् सर्वेऽपि तेऽल्पाहारा भवन्ति ।
(गा. १७६२ टी. प. १३) धातुक्षोभ से मरण धातुक्खोभेण वा धुवं मरणं।
(गा. १६६१) व्रणचिकित्सा के लिए विविध साधन भणंति वणतिल्लाई, घयदव्वोसहाणि य। .
व्रणरोहकानि तैलानि व्रणतैलानि, तथातिजीर्णं घृतं द्रव्यौषधानि च यैरौषधैः संयोजितैस्तैलं घृतं वातिपच्यते । व्रणरोहकं चूर्णौ वा व्रणरोहणाय भवति तानि द्रव्यौषधानि ।
(गा. २४०५ टी. प. २२) व्रणों को सीने का निर्देश ____ भग्गसिव्वित संसित्ता वणा वेजेहिजस्स उ। ये च व्रणितास्तेषां व्रणाः सीवितास्ते औषधैः संसिक्ताः ।
(गा. २४०६ टी. प. २२) अभ्यंग, शिरोवेध आदि द्वारा चिकित्सा अब्भंगसिरावेधो, अपाणछेयावणेज्जाइं। ग्लानस्याभ्यङ्गं शिरावेधोऽपानमपानकर्मच्छेदेनापनीयानि छेदापनीयानि ।
(गा. २५०५ टी. प. १०) प्रचुर पानी पीने से अजीर्ण
खद्धादियणगिलाणे। तृष्णाभिभूतः खद्दस्य प्रचुरस्य पानीयस्यादानं ग्रहणं कुर्यात् प्रचुरं पानीयं पिबेदित्यर्थः । ततो भक्ताजीर्णतया ग्लानो भवेत् ।
(गा. २५३३ टी.प. १५) स्निग्ध और रुक्ष आहार का मूत्र पर प्रभाव स्निग्धआहारस्तथापि कायिकी व्युत्सर्गाय पुनः पुनरुत्तिष्ठामि आचार्यस्तु रुक्षाहारोऽपि कायिकी व्युत्सर्गाय नोत्तिष्ठति।
(गा. २५५३ टी. प.२०) वात एवं पित्त प्रकोप कैसे ?
भिक्षामटतो वातो वातप्रकोपो भवति तथा अत्युष्णपरितापनात् पित्तमुद्रिक्ती भवति । प्रतिकूल भोजन से रोग अकारकं चेद् द्रव्यं लभते तस्य भोजने ग्लानत्वम् ।
(गा. २५७३ टी. प. २३)
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२१६ ]
श्वासरोग तथा कटिरोग का एक कारण
भारेण वेयणाए हिंडते उच्चनीयसासो वा ।
बाहुकडिवायगहणं....... ।
भारेण वेदनायां सत्यां हिण्डमानस्य श्वासो भवति । तथा बाहोः कटेश्च वातेन ग्रहणं भवति । (गा. २५७४ टी. प. २४)
प्रचुर पानी पीने से अजीर्ण, वमन आदि
अच्हताविए उ, खद्ध दवादियाण छड्डणादीया ।
अत्युष्णेन परितापितः सन् खद्धं प्रचुरद्रवं पानीयमतितृषित आददीत्। तथा समुद्दिष्टोऽपि तथा परितापभावतः पुनः पुनः पानीयमापिबेत् । तथा चाहारः पानीयेन प्लावितः सन् न जीर्येत् । अजरणाच्च च्छर्दनं वमनं भवेत् । आदिशब्दादाहाररुचिर्नोपजायते । (गा. २५७५ टी. प. २४)
पित्त की उग्रता से भ्रमि
बहिया य पित्तमुच्छा, पडणं उण्हेण वावि वसधीए । उष्णेन परितापितस्य पित्तप्रकृतेर्बहिः पित्तमूर्च्छावशतः पतनं भवेत् ।
परिश्रम से बुद्धि की क्षीणता
परिश्रमेण बुद्धेः संव्यापादनात् ।
हाथ मुंह धोने के लाभ
मुह- नयण- दंत-पायादि, धोव्वणे को गुणोत्ति ते बुद्धी । अग्गिमतिवाणिपडुया, होति अणोत्तप्पया चेव ।। मुखदन्तादिप्रक्षालनेऽग्निपटुता जाठराग्निप्राबल्यं मतिपटुता वाक्पटुता च ।
संक्रामक रोग से सावधानियां
परिशिष्ट- १४
पासवणफासलाला पस्सेए ......
मंदा में प्रचुर भोजन से रोगोत्पत्ति
मंदग्गी भुंजते खद्धं ।
मन्दाग्निः प्रचुरं भुङ्क्ते ततो ग्लानत्वादिदोषसंभवः । कुष्ठ रोग के प्रकार
संदंतमसंदंतं, अस्संदण चित्त मंडल पसुत्ती । किमिपूयं सिगा वा, पस्संदति तत्थिमा जतणा ।।
द्विविधस्त्वग्दोषस्तद्यथा-स्पन्दमानोऽस्पंदमानश्च । तत्रास्पन्दमानोऽस्रावणश्चित्रप्रसुप्तिर्मण्डलप्रसुप्तिश्च । यस्तु स्पन्दमानः स कृमीन् प्रस्पन्दते पूतं वा रसिकां वा ।
(गा. २७८३ टी. प. ६१ )
संक्रामक रोगी को कहां रखें ?
(गा. २५७६ टी. प. २४)
संदतो वक्खारो, अंतो बाहिं च सारणा तिण्णि ।
स्पन्दमाने त्वग्दोषेऽनंतरेकस्यां वलभ्यां विष्वगपवरके तस्याभावे एकस्मिन्निवेशनेऽन्यस्यां वसतौ स्थाप्यते ।
(गा. २५६६ टी. प. २८)
(गा. २६८३ टी. प. ४३)
(गा. २७७३ टी. प. ५६ )
(गा. २७८४ टी. प. ६१ )
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परिशिष्ट-१४
[२१७
स्पन्दमानत्वग्दोषवतः प्रश्रवणर पर्शनेनापि व्याधिरन्यत्र संक्रामति । तथा गात्रस्पर्शनेन यदि वा तेन व्याधितेन ये परिभुक्ताः पीठफलकादयस्तान यद्यव्याधितः परिभुंक्ते तदा व्याधिः संक्रामति । तथा लालया सह भोजने व्याधिः संक्रामति। तस्य प्रस्वेदने यदि कोऽपि स्पृश्यते तदा तस्यापि शेषसाधूनां व्याधिः संक्रमेदिति हेतोस्तथा न केवलं दूरे संस्तारकः क्रियते । किन्तु तेन त्वग्दोषवता यत्स्पृष्टं वस्त्रादि तत्परिहरन्ति।
(गा. २७८८ टी. प. ६१, ६२) न य भुंजतेगट्ठा, लालादोसेण संकमति वाही । सेओ से वजिज्जति, जल्ल-पडलंतरकप्पो य ।।
न च एकार्थे एकस्मिन्पात्रे तेन त्वगदोषवता सह साधवो भुंजते। कुत इत्याह यतो लालादोषेण संक्रामति व्याधिः। तथा से तस्य त्वगदोषवतः स्वेदप्रस्वेदो वय॑ते। तथा जल्लः शरीरमल्लस्तथा तत्सत्कानि पात्रपटलानि तथा आन्तरकल्पश्च परिहियते व्याधिसंक्रमभयात्।
(गा. २७६१ टी.प.६२) संक्रामक व्याधियां
कुट्ठ-खय-कच्छुयऽसिवं, नयणामय-कामलादीया।
किं नाम त्वग्दोष एव उतान्यस्मिन्नपि रोगे तत आह—कुष्ठे क्षयव्याधौ कृच्छां पामायामशिवे शीतलिकायां नयनाऽमये नयन दोषे कामलादौ।
(गा. २७६२ टी.प.६२) विष : सहज और संयोगज
सहजं सिंगियमादी,संजोइमघतमहं च समभाएं। दव्वविसं णेणविहं। सहजं द्रव्यविषं शृङ्गिकादि । संयोगिमं घृतं मधु च समभागं ।
(गा. ३०२६ टी.प.३५) व्रण-चिकित्सा व्रणादौ निप्रगले धौते उपरि क्षारप्रक्षेपः पुरस्सरं त्रयो बन्धा उत्कर्षतो भवन्ति ।
(गा. ३२२४ टी. प.६८) भगंदर रोग की चिकित्सा
श्रमणो व्रणे वा भगन्दरे वा परिगलति हस्तशताबहिर्गत्वा निःप्रगलं प्रक्षाल्य चीवरे क्षारं क्षिप्त्वा उपर्यन्यत् चीवरं कृत्वा व्रणं भगन्दरं बध्नाति।
(गा. ३२२५ टी.प.६८) अजीर्ण का एक कारण प्रवाते स्वपतोऽजीर्णमुपजायते।
. (गा. ३३८५ टी.प.२) संतुलित आहार
अद्धमसणस्स सव्वंजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए। वायपविचारणट्ठा, छब्भागं ऊणयं कुज्जा ।।
अर्धमुदरस्य सव्यंजनस्य दधितक्रतीमनादिसहितस्याशनस्य योग्यं कुर्यात् । द्वौ भागौ द्रवस्य पानीयस्य यौग्यौ षष्ठं तु भागं वातप्रविचरणार्थमूनकं कुर्यात् । इयमत्र भावना उदरस्य षड्भागाः कल्पन्ते। तत्र त्रयो भागा अशनस्य सव्यञ्जनस्य द्वौ भागौ पानीयस्य षष्ठो वातप्रविचारणाय। एतच्च साधारणे प्रावृट्काले चत्वारो भागा सव्यञ्जनस्याशनस्य पञ्चमः पानीयस्य षष्ठो वातप्रविचाराय उष्णकाले द्वौ भागावनशनस्य सव्यञ्जनस्य । त्रयः पानीयस्य षष्ठो वातप्रविचारणायेति ।
(गा. ३७०१ टी.प.६०) मधुमेह रोगी का मूत्र अपेय
पमेहकणियाओ य, सरक्खं पाहु सूरयो।
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२१८]
परिशिष्ट-१४
सो उ दोसकरो वुत्तो, तं च कजं न साधए।
प्रमेधकणिकाः सरजस्कं पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् सरजस्काधिराजं प्राहुः सूरयः स च सरजस्काधिराज आपीयमानो दोषकर उक्तः।
(गा. ३७६७ टी.प.१६) मुंह में तैल रखने के लाभ
लुक्खत्ता मुहजंतं, मा हु खुभेज त्ति तेण धारेति । मा हु नमोक्कारस्सा, अपच्चलो सो हविज्जाही।।
पारणके एकान्तरितं तैलं गंडूषं चिरकालं धारयति। धारयित्वा खेलमल्लके सक्षारे निसृजति त्यजति। ततो वदनं प्रक्षालयति। किं कारणं गल्ले गंडूषधारणं क्रियते उच्यते—मा मुखयन्त्रं रुक्षत्वाद्वा तेन क्षुभ्येदेकत्र संपिण्डीभूयते तथा च सति मा स नमस्कारस्य भणनेऽप्रत्यलोऽसमर्थो भवेदिति हेतोर्गल्ले तैलधारणं करोति ।
(गा. ४२४८ टी.प.५७) वायु से स्तब्धता
संबद्धहत्थपादादओ, व वातेण होजाहि । हस्तपादादयो वातेन सम्बद्धाः भवेयुः ।
(गा. ४३८८ टी.प.७६) सर्प के विष की चिकित्सा
वंजुलरुक्खो व जह उ उरगविसं । वंजुलवृक्ष उरगविषं प्रविनयति।
(गा. ४१५२ टी. प.४५)
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परिशिष्ट-१५
कायोत्सर्ग एवं ध्यान के विकीर्ण तथ्य
आवश्यक में कायोत्सर्ग न करने पर प्रायश्चित्त
आवश्यके यद्येकं कायोत्सर्ग न करोति ततः प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकं, कायोत्सर्गद्वयाकरणे पूर्वार्द्ध, त्रयाणामपि कायोत्सर्गाणामकरणे आचाम्लं, सर्वस्यापि वावश्यकस्याकरणे अभक्तार्थमिति ।
(गा. ११ टी.प. ८) गमन आदि में कायोत्सर्ग
गमणागमण-वियारे, सुत्ते वा सुमिण-दंसणे राओ। नावा-नदिसंतारे, पायच्छित्तं विउस्सग्गो॥
प्रयोजनेषु गमनमात्रेऽपि ऐर्यापथिकीप्रतिक्रमणपुरस्सरं कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं, तदनंतरं कार्यसमाप्तौ भूयः स्वोपाश्रयप्रवेशे आगमनमात्रे कायोत्सर्गः, शेषेषु प्रयोजनेष्वपांतराले विश्रामणासंभवे गमनागमनयोरिति वियारे इति विचारो नाम उच्चारादिपरिष्ठापन, तत्रापि प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः,...सूत्रविषयेषु उद्देशसमुद्देशानुज्ञाप्रस्थापनप्रतिक्रमणश्रुतस्कंधांगपरिवर्तनादिश्च विधिसमाचरणपरिहाराय प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः... सुमिणदंसणेराउ इति उत्सर्गतो दिवा स्वप्तुमेव न कल्पते ततो रात्रिग्रहणं रात्रौ स्वप्नदर्शने प्राणातिपातादिसावद्यबहुले कदाचिदनवद्यस्वप्नदर्शने वा अनिष्टसूचके... दुःशकुनदुर्निमित्तेषु वा तप्रतिघातकरणाय कायोत्सर्गकरणं प्रायश्चित्तं, नाभिप्रमाणे उदकसंस्पर्शे लेप तत उपरि उदकसंस्पर्श तदुपरि चतुर्थो नदीसंस्तारो बाहूडुपादिभिः एतेष्वपि सर्वत्र यतनयोपयुक्तस्य प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः।
(गा. ११० टी. प. ३६) भत्त, पान, गमन आदि में २५ उच्छ्वास-निःश्वास का कायोत्सर्ग
भत्ते पाणे सयणासणे य, अरहंत-समणसेज्जासु । उच्चारे पासवणे, पणवीसं होंति ऊसासा ।।
(गा. १११) गमनं प्रतिक्रामतो गमनविषयं प्रतिक्रमणं कुर्वतः कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं स च कायोत्सर्गः पंचविंशत्युच्छ्वासप्रमाणः उच्छ्वासाश्च पादसमा इति पंचविंशतेश्चतुर्भिः भागे हृते षट्श्लोका एकपादाधिका लभ्यते ततश्चतुर्विंशतिस्तवः 'चंदेसु निम्मलयरा' इति पादपर्यंतं कायोत्सर्गे चिंतनीय इति भावः।
(गा. ११२ टी.प.३६, ४०) परिष्ठापन क्रिया में कायोत्सर्ग
यदापि हस्तशतस्याभ्यंतरे उच्चारं प्रश्रवणं तन्मात्रकं वा परिष्ठापयति तदापि विचारे इति वचनात् ऐर्यापथिकीप्रतिक्रमणपुरस्सरः पंचविंशत्युच्छ्वासप्रमाणः कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं ।
(गा. ११३ टी. प. ४०) उद्देश, समुद्देश आदि में करणीय कायोत्सर्ग
___ उद्देशो वाचनासूत्रप्रदानमित्यर्थः, समुद्देशो व्याख्याअर्थप्रदानमिति भावः, अनुज्ञासूत्रार्थयोरन्यप्रदानं, प्रदानं प्रत्यनुमननं एतेषु तथेतिशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थस्तेन श्रुतस्कंधपरिवर्तने अंगपरिवर्तने च कृते तदुत्तरकालमविधिसमाचरणपरिहाराय प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः सप्तविंशत्युच्छ्वासप्रमाणं पर्यन्तैकपादहीनः समस्तश्चतुर्विंशतिस्तवस्तत्र चिंतनीय इति भावः, अट्ठेव य इत्यादि । प्रस्थापनं स्वाध्यायस्य प्रतिक्रमणः कालस्य तयो करणे कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तमष्टावेवोछ्वासः अष्टोच्छ्वासप्रमाणः आदिशब्दात् पानकमपि परिस्थाप्य ऐर्यापथिकी प्रतिक्रमणोत्तरकालं कायोत्सर्गोऽष्टोच्छ्वासप्रमाणः करणीयः। (गा. ११४ टी. प. ४०)
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२२०]
परिशिष्ट-१५
अपशकुन होने पर कायोत्सर्ग
इह यदि बहिर्गमनं प्रयोजनानंतरप्रारंभे वा वस्त्रादेः स्खलनं भवति, आदिशब्दात् शेषापशकुनदुनिमित्तपरिग्रहः तेषु सर्वेषु स्खलितादिषु समुपजातेषु विवक्षितप्रयोजनव्याघातसूचकेषु समुद्गतेषु तत्प्रतिघातनिमित्तं पंचमंगलमष्टोच्छ्वासप्रमाणं नमस्कारसूत्रं ध्यायेत यदि वा यौ वा तौ वा स्वाध्यायभूतौ द्वौ श्लोकौ चिंतयेत् अथवा यावता कालेन द्वौ श्लोकौ चिंत्येते तत्क्षणं तावंतं कालं एकाग्रः कायोत्सर्गस्थः सन् शुभमना भूयात् ।
(गा. ११७ टी. प. ४१) दो तीन बार अपशकुन होने पर कायोत्सर्ग
द्वितीयं वारं पुनस्तथा तेनैव प्रकारेण स्खलितादिषु विवक्षितप्रयोजनव्याघातसूचकेषु समुद्भूतेषु तत्प्रतिघातनिमित्तं कायोत्सर्गउच्छ्वासाः षोडश भवंति षोडशोच्छ्वासप्रमाणः कायोत्सर्गः क्रियते इति भावः तइयम्मि उ इत्यादि तृतीयवारे तृतीयस्यां वेलायां स्खलितादिजातेषु तत्प्रतिघातनिमित्तं कायोत्सर्गे द्वात्रिंशदुच्छ्वासाः प्रतिक्षपणीयाः चतुर्थे वारे स्खलितानां प्रवृत्तौ स्वस्थानात् विवक्षितादन्यत् स्थानं न गच्छति उपलक्षणमेतत् नाप्यन्यत् प्रारभते, अवश्यंभाविविघ्नसंभवात्। (गा. ११८ टी. प. ४१) प्राणवध आदि होने पर कायोत्सर्ग
__ प्राणवधे मृषावादे अदत्तादाने मैथुने परिग्रहे च स्वप्ने कृते कारिते अनुमोदिते च केवलं मैथुने कारितेऽनुमोदिते एवं स्वयं कृते इत्थीविप्परियासे इत्यादिना प्रायश्चित्तस्य वक्ष्यमाणत्वात् कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तं, तत्र कायोत्सर्गे शतमेकमन्यूनमुच्छ्वासानां क्षपयेत् पंचविंशत्युच्छ्वासप्रमाणं चतुर्विंशस्तवं चतुरो वारान् ध्यायेत् इति भावः ।
(गा. ११६ टी. प. ४१) २५ या २७ श्लोकिक कायोत्सर्ग कब ? कैसे ?
महाव्रतानि दशवैकालिकश्रुतबद्धानि कायोत्सर्गे ध्यायेत्, तेषामपि प्रायः पंचविंशतिश्लोकप्रमाणत्वात्,यदि वा यान् वा तान् वा स्वाध्यायभूतान् पंचविंशतिश्लोकान् ध्यायेत्, स्त्रीविपर्यासे पुनःस्वप्नसंभूते प्रायश्चित्तं कायोत्सर्गः सप्तविंशतिश्लोकिकः सप्तविंशतिश्लोकवान् अष्टोत्तरशतमुच्छ्वासानां तन्निमित्ते कायोत्सर्गे क्षपयेदिति भावः।
(गा. १२० टी. प. ४१) कायोत्सर्ग का कालमान
उच्छ्वासाः कालप्रमाणेन भवन्ति ज्ञातव्याः। पादसमाः, किमुक्तं भवति यावत् कालेनैकश्लोकस्य पादश्चिंत्यते तावत्कालप्रमाणः कायोत्सर्गे उच्छ्वास इति तत्कालमुच्छ्वासानां कायोत्सर्गे ज्ञातव्यं । कायिक-वाचिक-मानसिक ध्यान का प्रतिनिधि : कायोत्सर्ग
अथ ध्यानं योगनिरोधात्मकं, तत्र कायोत्सर्गे किं ध्यानं उच्यते। ध्येयो योगनिरोध इति पूर्वमहर्षिवचनात् तच्च योगनिरोधात्मकं ध्यानं त्रिधा, तद्यथा काययोगनिरोधात्मकं, वाग्योगनिरोधात्मकं, मनोयोगनिरोधात्मकं च, तत्र कायोत्सर्गे किं ध्यानं ? उच्यते त्रिविधमपि, मुख्यतस्तु कायिकं ।
(गा. १२१ टी. प. ४२) कायोत्सर्ग में अन्य योगों का भी निरोध
कायचेटुं निलंभित्ता, मणं वायं च सव्वसो। वट्टति काइए झाणे, सुहुमुस्सासवं मुणी।।
कायचेष्टां कायव्यापार तथा मनोवाचं सर्वशः सर्वात्मना निरुध्य कायोत्सर्गः क्रियते, ततः कायोत्सर्गस्थो मुनि सूक्ष्मोच्छ्वासवान् उपलक्षणमेतत् सूक्ष्मदृष्टिसंचारादिवांश्च, न खलु कायोत्सर्गे सूक्ष्मोच्छ्वासादयो निरुध्यते ।
(गा. १२२ टी. प. ४२)
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परिशिष्ट - १५
कायोत्सर्ग में तीनों ध्यान
न विरुध्येते उत्सर्गे कायोत्सर्गे ध्याने वाचिकमानसे वाङ्मनोयोगयोरपि विषयांतरतो निरुध्यमानत्वात्... तीरितः परिपूर्णे सति सम्यग्विधिना पारितस्तस्मिन् तीरिते कायोत्सर्गे पुनस्त्रयाणां ध्यानानामन्यतरत्, अन्यतमत् स्यात् । पुनस्त्रितयमपि भंगिकश्रुतगुणनव्यतिरेकेण प्रायोऽन्यत्र व्यापारांतरे ध्यानत्रितयासंभवात् । (गा. १२३ टी. प. ४२ )
कायोत्सर्ग के लाभ
मणसो एगग्गत्तं, जणयति देहस्स हणति जडुत्तं । काउस्सग्गगुणा खलु, सुह- दुहमज्झत्थया चेव ॥
कायोत्सर्गस्य गुणाः कायोत्सर्गगुणाः खल्वमी तद्यथा कायोत्सर्गे सम्यग्विधिना विधीयमानो नाम मनसश्चित्तस्य एकाग्रत्वमेकाग्रलंबनतां जनयति, तच्चैकाग्रत्वं परमं ध्यानं-जं थिरमज्झवसाणं तं ज्झाणमिति वचनान्- देहस्य शरीरस्य जडत्वं जाड्यं हंति विनाशयति, प्रयत्नविशेषतः परमलाघवसंभवात् तथा कायोत्सर्गस्थितानां वासीचंदनकल्पत्वात् सुखदुःखमध्यस्थता सुख-दुःखे परैरुदीर्यमाणं रागद्वेषाकरणमन्यथा सम्यक्कायोत्सर्गस्यैवासंभवात् । (गा. १२४ टी. प. ४२ )
आवश्यक में कायोत्सर्ग न करने पर प्रायश्चित्त.
आवश्यके एकं कायोत्सर्गं न करोति मासलघु, द्वौ न करोति द्विमासलघु, त्रीन् कायोत्सर्गान्न करोति त्रिमासलघु, सकलमेवावश्यकं न करोति चतुर्मासलघु । (गा. १२६ टी. प. ४४ ) एकं चेन्न करोति एको (गा. १३१ टी. प. ४५ )
आवश्यके प्राभातिके वैकालिके वा यावतः कायोत्सर्गान् न करोति तति मासास्तस्य प्रायश्चित्तं लघुमासः । द्वौ न करोति द्वौ लघुमासौ त्रीन करोति त्रयो लघुमासा I
कायोत्सर्ग के घटक तत्त्व
[ २२१
करेमि काउस्सग्गं निरुवस्सग्गवत्तियाए सद्धाए मेहाए धिइए धारणाए ।
तीन कायोत्सर्ग कब ?
कायोत्सर्गमाद्यं कृत्वा वसतावागत्य च गुरुभिः सह कुर्वन्ति । अथवा द्वौ कायोत्सर्गी कृत्वा यदि वा त्रीन् कायोत्सर्गान् कृत्वा अथवा कायोत्सर्गत्रयानन्तरं यत्कृतिकर्म्मस्तत्कृत्वा ।... चरमकायोत्सर्गं वसतावागत्य गुरुसमीपे वन्दनकं कृत्वा सर्वोत्तमश्च ज्येष्ठः आलोच्य सर्वे प्रत्याख्यानं गृह्णन्ति । (गा. ६८६ टी. प. ६८)
(गा. ५४६ टी. प. २६)
कायोत्सर्ग से आहूत देवता द्वारा आंख का प्रत्यारोपण
शैक्षकानुकम्पया देवताराधनार्थं कायोत्सर्गः कृतस्तेन देवताया आकम्पनमावर्जनमभूत्ततः सद्यः मारितस्य एकस्य सप्रदेशयोरक्ष्णोस्तत्र निवृत्तिः निष्पत्तिः कृतः । (गा ७६७ टी. प. ६६ )
प्रतिमा निर्वहन के लिए कायोत्सर्ग
निरुपसर्गनिमित्तमुपसर्गाभावेन सकलमपि प्रतिमानुष्ठानं निर्वहत्वित्येतन्निमित्तं कायोत्सर्गं करोति । (गा. ७६८ टी. प. ६६ )
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२२२ ]
परिशिष्ट-१५
देवता-आह्वान के लिए कायोत्सर्ग
किमयं दैविको देवेन भूतादिना कृत उपद्रव उत धातुक्षोभज इति ज्ञातुं देवताराधनाय उत्सर्गः क्रियते। तस्मिंश्च क्रियमाणे यदाकंपितया देवतया कथितं तदनुसारेण ततः क्रिया कर्त्तव्या।
(गा. १०६८ टी. प. ३२) कायोत्सर्ग से आहूत देव द्वारा भूतचिकित्सा का निर्देश कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य तद्वचनतः का क्रिया कर्तव्येत्यत आह—भूतचिकित्सा भूतोच्चाटिनी चिकित्सा भूतचिकित्सा ।
(गा. ११४६ टी. प. ४०) वरधनु और आचार्य पुष्यभूति का निश्चल और सूक्ष्म ध्यान
वरधणुग-पुस्सभूती, कुसलो सुहुमे य झाणम्मि।
यथा पुष्यभूतिराचार्यः सूक्ष्मे ध्याने कुशलः सन् ध्यानवशाद् निश्चलो निरुच्छ्वासोऽतिष्ठत् । वरधनुना मृतकवेषकः कृतस्तथा निश्चलो निरुच्छ्वासः सूक्ष्ममुच्छ्वसत् तिष्ठति ।
(गा. ११७८ टी. प. ४७) यथार्थ निर्णय के लिए कायोत्सर्ग भूतार्थनिर्णये तवो त्ति तपस्वी कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य पृच्छति ।
(गा. १२४३ टी.प. ६०) कायोत्सर्ग द्वारा सम्यग्वादी मिथ्यावादी का निर्णय
तपस्वी क्षपको देवताराधनार्थं कायोत्सर्गं कुर्यात् । कायोत्सर्गे च देवतामाकम्प्य पृच्छति को तयोर्द्वयोर्मध्ये सम्यग्वादी को वा मिथ्यावादीति तत्र यद्देवता ब्रूते।
(गा. १२४७ टी. प. ६१) विविध स्थितियों में कायोत्सर्ग
प्रथम चरमे च कारणे समुपजाते उभयस्मिन्नप्याचार्ये प्रतीच्छके च विधिःस्मरति च्छिन्नोपसंपदिति ज्ञापनार्थं कायोत्सर्ग कृत्वा स प्रतीच्छको व्रजेत्, अथ प्रातीच्छिकस्य विस्मृतं तत आचार्येण स्मारयितव्यं यथा कुरु च्छिन्नोपसंपन्निमित्तं कायोत्सर्गमिति, अथानाभोगतो द्वयोरपि पम्हट्ठमिति एकान्तेन विस्मृतं ततो द्वयोरप्येकान्तेन विस्मृतावकृते कायोत्सर्गे सम्प्रस्थितो यदासन्ने प्रदेशे स्मरति, तदासन्नात् निवर्तेत, निवृत्य च कायोत्सर्गो विधेयः।
(गा. २११४ टी. प. ७४) अथ दूरं गत्वा स्मृतवान् ततो दूरगतेन स्मृतेन साधर्मिकं दृष्ट्वा तस्य सकाशे समीपे कायोत्सर्गः करणीयः, सन्देशश्च प्रेषणीयः, आचार्यस्य यथा तदानीं युष्मत् समीपे कायोत्सर्गकरणं विस्मृतमिदानीममुकस्य साधर्मिकस्य समीपे कृतः कायोत्सर्ग इति कायोत्सर्गं च कृत्वा यदकृते कायोत्सर्गे सचित्तादिकमुत्पन्नं तत्प्रेषयति ।
(गा. २११५ टी. प. ७४) छिन्न उपसंपदा की प्रतीति के लिए कायोत्सर्ग योगं वहन् गणान्तरमन्यत्र संक्रामन् च्छिन्ना उपसम्पदिदानीमिति प्रतिपत्त्यर्थं कायोत्सर्गं कृत्वा व्रजेत् ।
(गा. २११६ टी. प. ७४) अत्राप्यागाढयोगे पूर्णेऽपूर्णे वा आचार्येण यस्य सकाशे योगं प्रतिपन्नस्तेन सूरिणा विसर्जिता, विसर्जने कृते च्छिन्ना उपसम्पदिति ज्ञापनार्थं संस्मरन् कायोत्सर्ग कुर्यात् ।
(गा. २१२२ टी. प. ७५)
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परिशिष्ट-१५
[२२३
अस्वास्थ्य में आयंबिल एवं कायोत्सर्ग द्वारा चिकित्सा .
एकस्मिन् दिवसे कायोत्सर्गो, द्वितीये दिवसे निर्विकृतिकं, तृतीये दिवसे कायोत्सर्गश्चतुर्थे निर्विकृतिकं । एवमेकान्तरिते कायोत्सर्गनिर्विकृतिके नवदिवसान् यावत् कारयेत् तथाप्यतिष्ठति ग्लानत्वे दशमे दिवसे योगो निक्षिप्यते ।
(गा. २१३५ टी. प. ७७) कायोत्सर्ग द्वारा देवता का आह्वान कायोत्सर्गेण देवतामाकम्प्य ततः क्षपकस्य कायोत्सर्गकरणं देवताया आकम्पनम् । सा आगता ब्रूते संदिशत किं करोमि ?
(गा. २३३१ टी. प. ८) अनुयोग के प्रारम्भ में कायोत्सर्ग अनुयोगारंभनिमित्तं कायोत्सर्गम् ।
(गा. २६५१ टी. प. ३७) महापान (महाप्राण) ध्यान कितना ? किसके ?
बारसवासा भरधाधिवस्स, छच्चेव वासुदेवाणं। तिण्णि य मंडलियस्सा, छम्मासा पागयजणस्स ।।
महाप्राणध्यानमुत्कर्षतो भरताधिपस्य चक्रवर्तिनो द्वादशवर्षाणि यावद् भवति, षट् वर्षाणि यावद् वासुदेवानां बलदेवानामित्यर्थः । त्रीणि वर्षाणि माण्डलिकस्य, षण्मासान् यावत् प्राकृतजनस्य।
(गा. २७०१ टी. प. ४५) भद्रबाहु की महापानध्यान साधना
पूर्वगते अधीते बाहु स नामे भद्रबाहुरिव पूर्वगतं पश्चान्महापानध्यानबलेन मिनोति निःशेषमात्सेच्छया तावन्न निवर्तते ततश्चिरकालमपि वसति. तस्य न कोऽप्यपराधः प्रायश्चित्तदण्डो।
(गा. २७०३ टी. प. ४६) महापान ध्यान का निर्वचन पिबति अर्थपदानि यत्रस्थितस्तत्पानं, महच्च तत्पानं च महापानमिति ।
(गा. २७०३, टी. प. ४६) चारों दिशाओं में कैसे-कितना कायोत्सर्ग ?
त्रीन् वारान् भूमिं रजोहरणेन प्रमाय॑ ततश्चोत्तराभिमुखो द्वावपि पादौ स्थापयित्वा पञ्चभिरिन्द्रियैः षष्ठेन च मनसा सम्यगुपयुक्तः प्रादोषिककालग्रहणनिमित्तं उत्सर्ग कायोत्सर्गं करोति । स चैवं पादोसियकालस्स सोहणवत्तियाए ठामि काउस्सग्गं अन्नत्थऊससिएणं जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमोक्कारेणं न पारेमि ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि। एवं कायोत्सर्गं कृत्वा तत्राष्टावुच्छ्वासान् चिन्तयति पञ्च नमस्कारं मनसानुप्रेक्षते इत्यर्थः । ततो मनसैव नमस्कारेण पारयित्वा चतुर्विंशतिस्तवं द्रुमपुष्पिकां श्रामण्यपूर्विकाध्ययनं परिपूर्ण क्षुल्लिकाचारकथाध्ययनस्य त्वाद्यामेकगाथां मनसानुप्रेक्षते। एवं तावदुत्तरस्यां दिशि विधिरुक्त । इत्थं च शेषायामप्येकैकस्यां दिशि द्रष्टव्यम् । तद्यथा—क्षुल्लिकाचारकथाद्यगाथानुप्रेक्षानन्तरं ततोऽपि परावृत्त्य पश्चिमाभिमुखं एतच्चिन्तयति । तदनन्तरं ततोऽपि परावृत्त्य पश्चिमाभिमुखं एतच्चिन्तयति । चतसृष्वपि च दिक्षु प्रत्येकं चिन्तयन् द्वे द्वे दिशौ निरीक्षते द्वे द्वे दिशौ दण्डधरः ।
(३१८० टी. प. ६१)
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२२४ ]
परिशिष्ट-१५
अस्वाध्याय विशोधन के लिए कायोत्सर्ग
अदृष्टविषये च देवतायाः कायोत्सर्गं कृत्वा पठन्ति ।
(गा. ३१४८ टी.प. ५६)
चारित्र कायोत्सर्ग
सूत्रार्थस्मरणनिमित्तमाचार्यमापृच्छ्य आत्मीये स्थाने पश्चादागच्छतामवकाशपथमवरुद्धाबलं वीर्यं चागूहयन्तो यथाशक्तिः चारित्रकायोत्सर्गेण तिष्ठन्ति। स्थित्वा च सूत्रार्थान् तावदनुप्रेक्षन्ते यावदाचार्यः कायोत्सर्गेण स्थितो भवति ।
(गा. ३१५६ टी. प. ५८) सूत्रार्थस्मरण के लिए कायोत्सर्ग
गुरुणा श्राद्धादीनां पुरतो धर्मकथने प्रारब्धे शेषाः साधवो गुरुमापृच्छ्य सूत्रार्थस्मरणहेतोः स्वस्मिन् स्थाने यथाशक्तिः कायोत्सर्गेण स्थिता भवन्ति।
(गा. ३१६० टी. प. ५८) सौ हाथ गमन का ऐर्यापथिकी कायोत्सर्ग हस्तशताभ्यन्तरे गमनेऽप्यैर्यापथिक्याः प्रतिक्रमणं , तत्र कायोत्सर्गे स्मर्तव्यं ।
(गा. ३१७८ टी. प.६१) कायोत्सर्ग की फलश्रुति
जह नाम असी कोसे, अण्णो कोसे असी वि खलु अण्णे । इय मे अन्नो देहो, अन्नो जीवो त्ति मण्णंति ॥
(गा. ४३६६)
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परिशिष्ट-१६
दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्य 'पूर्व' ज्ञान के अक्षय भण्डार थे, लेकिन संहनन, धृति और स्मृति के ह्रास से धीरे-धीरे लुप्त होने लगे। इनका लोप देखकर इनकी सारभूत बातों को सुरक्षित रखने के लिए आचार्यों ने दृष्टिवाद से अनेक ग्रन्थों का निर्वृहण किया, जिनका उल्लेख हमें अनेक स्थानों पर मिलता है।
पूर्वो से सूत्र-रचना का निर्वृहण शय्यंभव ने दशवैकालिक की रचना से प्रारम्भ किया। यह वीर-निर्वाण के ५० वर्ष बाद की रचना है। इसके बाद व्यवहार, बृहत्कल्प आदि अनेक ग्रन्थ निर्मूढ हुए।
यह एक खोज और संकलन करने का विषय है कि दृष्टिवाद का उल्लेख कहां किस रूप में मिलता है। जैसे—'दशा-श्रुतस्कन्ध नियुक्ति में कहा है कि छठे और आठवें पूर्व में 'आ' उपसर्ग का युक्तिपूर्वक विवेचन है। 'अंगविज्जा' जैसा विशालकाय ग्रन्थ पूर्वो से उद्धृत है।
आचार्य महाप्रज्ञ के संकेतानुसार हमने व्यवहार भाष्य तथा उसकी वृत्ति में प्राप्त दृष्टिवाद के विकीर्ण तथ्यों का संकलन किया है। ये तथ्य विभिन्न परंपराओं के स्पष्ट निदर्शन हैं। नौ पूर्वी कौन ?
ततश्चतुर्दशपूर्विणो, दशपूर्विणो, नवपूर्विणश्च इहासतां नवपूर्विणः न परिपूर्णनवपूर्वधराः किंतु नवमस्य पूर्वस्य यत् तृतीयमाचारनामकं वस्तु तावन्मात्रधारिणोपि नवपूर्विणः ।
(गा. ४०३ टी. प. ८०) निशीथ का निर्वृहण नौवें पूर्व से
निसीध नवमा पुव्वा, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थूओ। आयारनामधेज्जा, वीसतिमे पाहुडच्छेदा ।।
प्रत्याख्यानस्याभिधायकं नवमं पूर्वं प्रत्याख्याननामकं तस्मात्, तत्रापि तृतीयादाचारनामधेयाद्वस्तुनस्तत्रापि विंशतिःतमात् प्राभृतछेदान्निशीथमध्ययनं सिद्धम् ।
(गा. ४३५ टी. प. ८८) प्रायश्चित्तदाता कौन-कौन ?
चतुर्दशपूर्वधरास्त्रयोदशपूर्वधरा यावदभिन्नदशपूर्वधरा जिनोपदिष्टैः शास्त्रैर्जिना इव चतुगविकल्पतः प्रायश्चित्तप्रदानेन प्राणिनोऽपराधमलिनान् शोधयंति ।
(गा. ४४३ टी. प. ६१) चतुर्दशपूर्वधर अन्तर्गत भावों के ज्ञाता कैसे ?
नालीय परूवणता, जह तीय गतो उ नज्जते कालो । तध पुव्वधरा भावं, जाणंति विसुज्झए जेणं ।।
नालिकया यथोदकसंगलनेन दिवसस्य रात्रेर्वा गतोऽतीतो वाऽवशिष्टो वा कालो ज्ञायते, यथा एतावद् दिवसस्य रात्रेर्वा गतमेतावत्तिष्ठति तथा पूर्वधरा अपि चतुर्दशपूर्वधरादयः आलोचयतां भावमभिप्रायं दुरूपलक्षमप्यागमबलतः सम्यग् जानंति, ज्ञाते च भावे यो येन प्रायश्चित्तेन शुध्यति, तस्मै तत् चतुर्भगिकविकल्पतो जिना इव प्रयच्छंतीति। (गा. ४४४ टी. प. ६१)
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२२६]
परिशिष्ट-१६
परिहार तप के योग्य
नवमस्स ततियवत्थू, जहन्न उक्कोस ऊणगा दसओ । सुत्तत्थऽभिग्गहा पुण, दव्वादि तवोरयणमादी ।।
जघन्यतः सूत्रमर्थश्च यावत् नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारनामकं वस्तु उत्कर्षतो यावदूनानि किञ्चिन्यूनानि दशपर्वाणि परिपूर्णदशपूर्वधरादीनां परिहारतपोदानायोगात्। तेषां हि वाचनादिपंचविधस्वाध्यायविधानमेव सर्वोत्तम कर्मनिर्जरास्थानं।
(गा. ५४० टी. प. २८) आर्यिकाओं के लिए पूर्वो का अध्ययन क्यों नहीं ? आर्यिकानां धृतिसंहननदुर्बलतया पूर्वोऽनाधिगमाच्च ।
(गा. ५४५ टी. प. २६) कालज्ञान के लिए पूर्वो का परावर्तन
कालपरिमाणावबोधनिमित्तं। तथाहि-स तथा सूत्रमाचारनामकनवमपूर्वगततृतीयवस्तूक्तप्रकारेण परावर्तयति। यथा उच्छ्वासपरिमाणं यथोक्तरूपमवधारयति। तत उच्छ्वासपरिमाणावधारणात् उच्छ्वासनिःश्वासपरिमाणावधारणं। तस्मात् स्तोकस्य स्तोकान मुहूर्तस्य मुहूर्तेरर्धपौरुष्याभ्यां पौरुष्याः पौरुषीभिर्दिनानामुपलक्षणमेतत् । रात्रीणां च दिनरात्रीणां च। वाऽहोरात्राणामेवं दिनरात्रिभ्यां मुहूर्तार्धात् पौरुषी दिनानि अहोरात्रांश्च काले कालविषये जानाति। उक्तं च
जइ वि य सनाममिव,परिचियं सूअं अणहिय-अहीणवन्नाई। कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ ।। उस्सासाओ पाणू, तओ य थोवो तओ वि य मुहुत्तो। मुहुत्तेहिं पोरिसीओ, जाणंति निसा य दिवसा य ।।
(गा. ७८१ टी. प. ६१, ६२) दृष्टिवाद की उद्देशना का कालप्रमाण
इदं गर्भाष्टमवर्षं प्रव्रजितो विंशतिवर्षपर्यायस्य च दृष्टिवाद उद्दिष्टः एकेन वर्षेण योगः समाप्तः। सर्वमीलनेन जातान्येकोनत्रिंशद्वर्षाणि, व्रतपर्यायप्रव्रज्याप्रतिपत्तेः आरभ्य स च जघन्यतो विंशतिवर्षाणि तावत्प्रमाणपर्यायस्यैव । दृष्टिवादोद्देशभावात् । उत्कर्षतो जन्मतो पर्यायो व्रतपर्यायो वा देशोनपूर्वकोटी एतच्च पूर्वकोट्यायुष्के वेदितव्यं नान्यस्य ।।
(गा. ७६० टी. प. ६४) श्रुतं जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारनामकं वस्तु यावत्तत्र कालज्ञानस्याभिधानात् उत्कर्षतो यावद्दशमं पूर्वं च शब्दस्यानुक्तार्थसंसूचनाद्देशोनमिति द्रष्टव्यम् ।
आयारवत्थुतइयं, जहन्नगं होइ नवमपुव्वस्स । तहियं कालन्नाणं, दस उक्कोसाणि भिन्नाणि ।।
गा. ७६० टी. प. ६४, ६५) विशोधि पहले और अब
आयारपकप्पे ऊ, नक्मे पुव्वम्मि आसि सोधी य । तत्तो च्चिय निजूढो, इधाणितो एण्हि किं न भवे ।। आचारप्रकल्पः पूर्वं नवमे पूर्वे आसीत् शोधिश्च ततोऽभवत्। इदानीं पुनरिहाचाराने तत एवं नवमात्पूर्वान्नियूह्यानीतः।
(गा. १५२८ टी. प. ३६)
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परिशिष्ट-१६
[२२७
गीतार्थ कौन ? पुदि चोद्दसपुव्वी, एण्हि जहण्णो पकप्पधारी उ। पूर्वं गीतार्थश्चतुर्दशपूर्वी अभवद् इदानीं स किं गीतार्थो जघन्यः प्रकल्पधारी न भवति भवत्येवेति भावः ।
(गा. १५३० टी. प. ३७) नौवें पूर्व की परावर्तना आवश्यक
नवमे पुव्वम्मि सागर ।
- नवमे वा पूर्व उपलक्षणमेतत् दशमे वा सूत्रमभिनवगृहीतं सम्यक् स्मर्तव्यमस्ति, “सागरत्ति स्वयंभूरमणसदृशमतिप्रभूतमनेकातिशयसम्पन्नं नवमं पूर्वं परावर्तनीयमस्ति।
(गा. १७३४ टी. प. २) नौवें-दसवें पूर्व का परावर्तन आवश्यक नवम-दसमा उ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा। नवमे दशमे पूर्वेऽभिनवे गृहीते यदि सततं न स्मर्यते ततो नश्येताम् ।
(गा. १७३७ टी. प. ३) नौवे पूर्व की विशालता सागरसरिसं नवम, अतिसयनयभंगगहणत्ता।
सागरसदृशं स्वयंभूरमणजलधितुल्यं नवममुपलक्षणमेतत् दशमं च पूर्वं, अतिशयनयभङ्गादनेकैरतिशयैरनेकैर्नयैरनेकैर्भङ्गश्च गुपिलत्वात् ततोऽगीतार्थानामतिशयाकर्णनं मा भूत् । नयबहुलतया भङ्गबहुलतया वा बहूनां मध्ये परावर्तनं दुष्करम् ।
(गा. १७३८ टी. प. ३) दृष्टिवाद के ८० सूत्र
तत्र सूत्रं भाषते सामायिकादि तावद् यावद् दृष्टिवादगतानि अष्टाशीति सूत्राणि। (गा. १८२४ टी. प. २०) सूत्र और अर्थ विषयक गुरु-गुरुतर कौन ?
सुत्ते जहुत्तरं खलु, बलिया जा होति दिद्विवाओ त्ति। अत्थे वि होति एवं, छेदसुतत्थं नवरि मोत्तुं ।।
(गा. १८२५ टी. प. २०) सूत्र से अर्थ बलीयान्
एमेव मीसगम्मि वि, सुत्ताओ बलवगो पगासो उ। पुव्वगतं खलु बलियं।
___ सर्वत्राधस्तात्सूत्रादर्थाद्वा पूर्वगतं बलीयस्तथा चाह—पुव्वगयमित्यादि, यदि पूर्वगतं सूत्रं खलु अधस्तनादर्थाद्भवति बलवत् किमङ्गसूत्रात्, सुतरामधस्तनात्सूत्राद् बलीय इत्यर्थः ।
(गा. १८२६ टी. प. २०) पूर्वगत बलीयान् क्यों?
परिकम्मेहि य अस्था, सुत्तेहि य जे य सूइया तेसिं । होति विभासा उवरिं, पुव्वगतं तेण बलियं तु।।
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२२८ ]
दृष्टिवादः पञ्चप्रस्थानः तद्यथा - परिकर्माणि सूत्राणि पूर्वगतमनुयोगश्चूलिकाश्च । तत्र ये परिकर्मभिः सिद्धश्रेणिकाप्रभृतिभिः सूत्रैश्चाष्टाशीतिसंख्यैरर्थाः सूचितास्तेषां सर्वेषामप्यन्येषां च उपरि पूर्वेषु विभाषा भवति, अनेकप्रकारं ते तत्र भाष्यन्ते । तेन कारणेन पूर्वगतसूत्रं बलिकम् । (गा. १८२७ टी. प. २१ )
पूर्वगत अर्थ की बलीयता
जम्हा उ होति सोधी, छेदसुतत्थेण खलितचरणस्स । तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं ॥
यस्मात् स्खलितचरणस्य स्खलितचारित्रस्य च्छेदश्रुतार्थेन शोधिर्भवति, तस्मात्पूर्वगतमर्थं मुक्त्वा शेषात्सर्वस्मादप्यर्थात्च्छेदश्रुतार्थो बलवान् । (गा. १८२६ टी. प. २१)
उत्कृष्ट स्वाध्याय - भूमि का कालमान
जहण तिणि दिवसाऽणागाढुक्कोस होति बारस तु ।
एसा दिवाए महकप्पसुतम्मि बारसगं ।।
एसा द्वादशवर्षप्रमाणा उत्कृष्टा स्वाध्यायभूमिः दृष्टिवादे सापि दुर्मेधसः प्रतिपत्तव्या, प्राज्ञस्य तु वर्षम् ।
अणागाढो जहणं तिण्णि दिवसा उक्कोसेण वरिसं । जहा दिट्ठवास्स बारस वरिसाणि दुम्मेहस्स त्ति । महाकल्पश्रुते द्वादशवर्षाण्युत्कृष्टा स्वाध्यायभूमिः । दृष्टिवाद का ग्रहण और स्मरण - काल
संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि । सोलस य दिट्ठिवाए, एसो उक्कोसतो कालो || सोलस उ दिट्टिवाए, गहणं झरणं दस दुवे य ।
ग्रहणमधिकृत्य दृष्टिवादे षोडश वर्षाणि लगन्ति । झरणमधिकृत्य पुनर्दश द्वे च द्वादशवर्षाणीत्यर्थः ।
पूर्वघर और आगमव्यवहार
पारोक्खं ववहार, आगमतो सुतधरा ववहरति । चोद्दस-दस पुव्वधरा, नवपुव्विय गंधहत्थी य ।।
परिशिष्ट - १६
व्यवहरन्ति ।
निर्जरा का तारतम्य
यावत् त्रयोदशपूर्वधरवैयावृत्त्यकराच्चतुदर्शपूर्वधरवैयावृत्यकरो महानिर्जरः ।
यवमध्य-वज्रमध्यप्रतिमा ग्रहण की योग्यता
सूत्रमर्थश्च जघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमाचारवस्तु उत्कर्षतः किञ्चिन्यूनानि दशपूर्वाणि यः सूत्रेऽर्थे च भवति बलिको बलीयान् स प्रतिमां यवमध्यां वज्रमध्यां च प्रतिपद्यते । (गा. ३८३६ टी. प. ३)
(गा. २११८ टी. प. ७४)
(गा. २२६२ टी. प. १०३)
(गा. २२६३ टी. प. १०३)
श्रुतधराश्चतुर्दशपूर्वधरा दशपूर्वधरा नवपूर्विणो वा गन्धहस्तिनो गन्धहस्तिसमानाः ते आगमतः परोक्षं व्यवहारं
(गा. ४०३७ टी. प. ३२ )
(गा. २६३१ टी. प. ३४)
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परिशिष्ट-१६
[ २२६
निशीथ, कल्प तथा व्यवहार सूत्रों का निर्वृहण
सव्वं पि य पच्छित्तं, पच्चक्खाणस्स ततियवत्थुम्मि। तत्तोच्चिय निज्जूढं, पकप्पकप्पो य ववहारो।।
सर्वमपि प्रायश्चित्तं नवमस्य प्रत्याख्यानाभिधस्य पूर्वस्य तृतीये वस्तूनि तत एव च नियूढं दृष्टं प्रकल्पो निशीथाध्ययनं, कल्पो व्यवहारश्च ।
(गा. ४१७३ टी.प. ४७) चौदहपूर्वी तक दसों प्रायश्चित्त यावच्चतुर्दशपूर्विणः तावद्दशानामपि प्रायश्चित्तानामनुषंजना ।
(गा. ४१७४ टी. प. ४७) दीक्षापर्याय के १६वें वर्ष में दृष्टिवाद की वाचना उगुणवीस दिट्ठिवाओ तु। एकोनविंशतितमे वर्षे दृष्टिवादो नाम द्वादशमङ्गमुद्दिश्यते ।
(गा. ४६६८ टी. प. ११०)
दृष्टिवाद का विषय और सर्वश्रुतानुपाती का काल
दिट्ठीवाए पुण होति, सव्वभावाण रूवणं नियमा । सव्वसुत्ताणुवादी, वीसतिवासे उ बोधव्वो।।
दृष्टिवादे पुनर्भवति सर्वभावानां रूपणं-प्ररूपणं, नियमात् विंशतिवर्षः पुनः सर्वश्रुतानुपाती भवति। सर्वमपि श्रुतं यथा भणितेन योगेन तस्य पठनीयं भवति ।
(गा. ४६७० टी. प. ११०)
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परिशिष्ट-१७
विशिष्ट विद्याएं
आदर्श (दर्पण) विद्या अदाए त्ति या आदर्शविद्या तया आतुर आदर्श प्रतिबिम्बितोऽपमाय॑ते आतुरः प्रगुणो जायते।
(गा. २४३६ टी. प. २६) आन्तःपुरिकी विद्या
आन्तःपुरे आन्तःपुरिकी विद्या भवति यया आतुरस्य नाम गृहीत्वा आत्मनो अङ्गमपमार्जयति, आतुरश्च प्रगुणो जायते सा आन्तःपुरिकी।
(गा. २४३६ टी. प. २६) ओसावणि वह विद्या, जिसके प्रयोग से सभी गहरी निद्रा में सो जाते हैं।
(गा. १५२६) उण्णामिणी यह विद्या, जिसके प्रयोग से वृक्ष की शाखाएं पुनः ऊपर हो जाती हैं।
(गा. ६३ टी. प. २४) ओणामिणी यह विद्या, जिसके प्रयोग से वृक्ष की शाखाएं नीचे हो जाती हैं।
(गा. ६३ टी. प. २४) चापेटी विद्या
यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः स्वस्थीभवति, सा चापेटी। तालवृन्त विद्या तालवृन्तविषया विद्या । यया तालवृन्तमभिमंत्र्य तेनातुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति सा तालवृन्तविद्या।
(गा. २४३६ टी. प. २७) तालुग्घाडिणि वह विद्या, जिससे ताले टूट जाते हैं।
(गा. १५२६) दर्भ विद्या
या दर्भे दर्भविषया भवति विद्या, यया दभैरपमृज्यमान आतुरः प्रगुणो भवति । (गा. २४३६ टी. प. २७)
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परिशिष्ट-१७
[२३१
दूत विद्या तया च दूतविद्यया यो दूत आगच्छति, तस्य दंशस्थानमपमाय॑ते । तेनेतरस्य दंशस्थानमुपशाम्यति ।
(गा. २४३६ टी.प.२६) व्यजन विद्या व्यजनविषया विद्या यया व्यजनमभिमंत्र्य तेनातुरोऽपमृज्यमानः स्वस्थो भवति, सा व्यजनविद्या।
(गा. २४३६ टी. प. २७)
वस्त्र विद्या या विद्या वस्त्रविषया भवति तया परिजपितेन वस्त्रेण वा प्रमृज्यमानः आतुरः प्रगुणो भवति।।
(गा. २४३६ टी. प. २६) विभिन्न विद्याओं का प्रयोग
दूअस्सोमाइज्जति, असती अद्दाग परिजवित्तापं । परिजवितं वत्थं वा, पाउज्जइ तेण वोमाए ।। एवं दब्भादीसु, ओमाएऽसंफूसंत हत्थेणं । चावेडी विजाए व, ओमाए चेडयं दितो।।
दूत्या विद्यया दूतस्यागतस्यांग प्रमाय॑ते, तस्या विद्याया असति आदर्श सङ्क्रान्तमातुरप्रतिबिम्बं परिजप्यातुरः प्रगुणीकर्तव्यः। तदभावे वस्त्रविद्यया परिजपितं वस्त्रं प्रावार्यते, तेन वा परिजपितेन वस्त्रेणातुरोऽपमार्जते एवं दर्भादिभिः परिदर्भविद्यादिभिः हस्तेनासंस्पृशन्नपमार्जयेत् । चापेट्या वा विद्यया अन्यस्य चपेटां दददन्योऽपमार्जयेत्। विद्याः प्रायः पुरुषेषु भवन्ति।
(गा. २४४०, २४४१ टी. प. २७)
विद्यासिद्धि में काल का महत्त्व
कालादिउवयारेणं, विज्जा न सिज्झए विणा देति । रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा व सा तहिं।।
कालाधुपचारेण विना विद्या न सिध्यति न केवलं न सिध्यति किन्तु कालादिवैगुण्यलक्षणे रन्ध्रे छिद्रे सति साधिकृतविद्याधिठात्र्यन्या वा क्षुद्रदेवता तत्राबसरे अवध्वंसं दधाति । एष दृष्टान्तेऽयमुपनयो व्यतिकृष्टे काले सूत्रे उद्दिश्यमानेन पठ्यमानेन वा सूत्रं निर्जरा फलदायितया न सिध्यति, न केवलं न सिध्यति, किन्तु यया देवतया सूत्रमधिष्ठितं सा कालातिक्रमेण पठनतः क्षाम्यन्ती प्रान्ता वा काचिद्देवता अकालपठनलक्षणं च्छिद्रं अवाप्यावध्वंसं दध्यात्। (गा. ३०१८ टी. प. ३४)
विद्याचक्रवर्ती का वचनमात्र विद्या
जधा विजानरिंदस्स, जं किंचिदपि भासियं । विज्जा भवति सा चेह, देसे काले य सिज्झति ।। विद्याचक्रवर्तिनो यत् किञ्चिदपि भाषितं विद्या भवति, सा चेह जगति देशे काले वा सिद्ध्यति न कालाधुपचारमन्तरेण ।
(गा. ३०२० टी. प. ३४)
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२३२]
परिशिष्ट-१७
विद्यादान का उपयुक्त काल
विजाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे य देति आयरिया। आचार्याः पर्वणि पर्वणि विद्यानां परिपाटीर्ददति। विद्याः परावर्तन्ते इति भावः।
(गा. २६६७ टी.प.४५) प्रायो विद्यासाधनोपचारभावात् बहुलादिका मासा | यत्रोपरागो ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः एतेषु च पर्वसु विद्यासाधनप्रवृत्तेर्यद्येवं तत एकरात्रग्रहणम्।
(गा. २६६८ टी.प.४५)
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परिशिष्ट-१८
टीका में उद्धृत गाथाएं
(गा. १ टी. प. २) (विभा. ६३१)
(गा. १ टी. प. २) (विभा. ६३३)
(गा.१ टी. प. २) (गा. १४ टी. प. ६) (दशचू.२ । १२)
(गा. २० टी. प. ११)
(गा. ५६ टी. प. २२)
(गा. ६१ टी. प. २४)
गुरुचित्तायत्ताई, वक्खाणंगाइ जेण सव्वाइं । जेण पुण सुप्पसन्नं, होइ तयं तं तहा कजं ॥ आगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुजा । तह वि य सिं न विकूडे, विरहम्मि य कारणं पुच्छे । गुर्वायत्ता यस्मात्, शास्त्रारंभा भवंति सर्वेऽपि । तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम् ॥ कि मे कडं किं च ममत्थि सेसं, किं सक्कणिज्जं न समायरामि रागाद्वा द्वेषाद् वा मोहाद् वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ॥ जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा। सत्ती सामत्थं चिय, जोगस्स हवंति पज्जाया। पुव्वं अपासिऊणं, छूढे पाए कुलिंगए पासे । न य तरइ नियत्तेउं, जोगं सहसाकरणमेयं ॥ बालस्त्रीमूर्खमूढानां, नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहाय तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ णेगविहा इड्ढीओ, पूयं परवादिणं च दणं । जस्स न मुज्झइ दिट्ठी, अमूढदिढिं तयं बिंति ॥ खमणे वेयावच्चे, विणय-सज्झायमादिसु संजुत्तं । जो तं पसंसए एस, होइ उववूहणाविणओ॥ एएसुं चिय खमणादिएसु सीदंतचोयणा जा उ । बहुदोसे माणुस्से, मा सीद थिरीकरणमेयं ।। साहम्मियवच्छल्लं, आहारादीसु होइ सव्वत्थ । आएस गुरुगिलाणे, तवस्सि बालादी सविसेसं ।। कामं सभावसिद्धं, तु पवयणं दिप्पते सयं चेव । तह वि य जो जेणऽहिओ, सो तेण पभावए तं तु ॥ अइसेस-इड्डि-धम्मकहि-वादि-आयरिय-खमग्र-णेमित्ती। विजा-राया गणसम्मता य तित्थं पभावेति ॥ समितीण य गुत्तीण य, एसो भेदो तु होइ णायव्यो। समिती पयाररूवा, गुत्ती पुण उभयरूवा तु॥
(गा. ६४ टी. प. २६)
(गा. ६४ टी. प. २७) (निभा. २६)
(गा.६४ टी. १. २७) (निभा. २७)
(गा. ६४ टी. प. २७) (निभा. २८)
.६४ टी. प. २७) (निभा. २६)
टी. प. २८) (निभा. ३१)
टी. प. २८) (निभा. ३३)
(गा. ६५ टी. प. २८) (निभा. ३६)
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२३४ ]
पडलाई रत्ताणं, पत्ताबंधो य चोलपट्टो य । मत्तग रयहरणं ति य, मज्झिमगो छव्विहो नेओ ।
पत्ता बंधाइया चउरो, ते चेव पुव्वनिद्दिट्ठा । मत्तो य कमढकं वा, तह ओग्गहणंतगं चेव ॥ पट्टो अद्धोरू चिय, चलणि य तह कंचुगे य ओगच्छी । वेगच्छी तेरसमा, अजाणं होइ णायव्वा ॥ अक्खा संथारो वा, दुविहो एगंगिको य इयरो वा । बिइय पय पोत्थपणगं, फलगं तह होइ उक्कोसो ॥ छक्कायादिम चउ तह य परित्तम्मि होति वणकाए । लहु गुरुमासो चउलहु, संघट्टण - परिताव - उद्दवणे ॥ संघयण विरिय आगमसुत्तविहीए य जो समुजत्तो । निग्गहजुत्तो तवस्सी, पवयणसारे गहियअत्थो । तिल-तुसतिभागमित्तो वि जस्स असुभो न विज्जए भावो । निहारि सो, सेसे णिज्जूहया एयगुणुवसंपन्नो, पावइ अणवट्ठाणमुत्तमगुणोहो । एयगुणविप्पहीणो तारिस गंभीरे भवे मूलं ॥
णत्थि ॥
उद्देसे निद्देसे, य निग्गमे खेत्त - काल - पुरिसे य । कारण-पच्चय- लक्खण, नए समोयारणाणुमए ॥ किं कइविहं कस्स कहिं, केसु कहिं केच्चिरं हवइ कालं । कइ संतरमविरहियं, भवागरिसफासणनिरुत्ती ॥ सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावग ततो य निक्खेवो । सुत्तफासियनिज्जुत्ति, नया य समगं तु वच्चंति ॥ होइ कत्थो वोत्तुं, सपदच्छेदं भवे सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो, नामादिन्नासविणिओगं ॥ सुत्तफासियनिज्जुत्तिनियोगो सेसए पयत्यादी । पायं सोच्चिय नेगमनयादि नयगोयरो होइ || संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या सूत्रस्य षड्विधा ॥ लोगे जह माता ऊ, पुत्तं परिहरति एवमादीओ | लोउत्तरपरिहारो, दुविहो परिभोग धरणे य ॥ जहि नत्थि ठवण आरोवणा य नज्जूंति सेविया मासा । सेवियमासेहि भए. अस्सीयं लद्धमागहियं ॥
परिशिष्ट - १८
(गा. १२६ टी. प. ४४ )
(गा. १२६ टी. प. ४४ )
(गा. १२६ टी. प. ४४)
(गा. १२६ टी. प. ४५ )
(गा. १३५ टी. प. ४६ )
(गा. १६४ टी. प. ५४ )
(गा. १६४ टी. प. ५४ )
(गा. १६४ टी. प. ५४ )
(गा. १८४ टी. प. १ ) ( विभा. १४८४ )
(गा. १८४ टी. प. १) (विभा. १४८५)
(गा. १८४ टी. प. १)
(गा. १८४ टी. प. १) (विभा. १००६)
(गा. १८४ टी. प. १ ) ( विभा. १०१०)
(गा. १८४ टी. प. १ )
(गा २११ टी. प. १०)
(गा. ४२६ टी. प. ८७)
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परिशिष्ट - १८
च मे सुणह ॥
दाडिम- पुप्फागारा, लोहमयी नालिगा उ कायव्वा । तीसे तलम्मि छिद्दं, छिद्दपमाणं छन्नउयमूलबालेहिं तिवस्स जाया गयकुमारीए । उज्जुकयपिंडिि कायव्वं नालियाछिद्दं ॥ अहवा दुयस्स जाया, एगयकुमारीए पुच्छबालेहिं बिहिबहि गुणेहि तेहि उ कायव्वं नालियाछिद्दं ॥ अहवा सुवण्णमासेहिं, चउहि चउरंगुला कया सूई । नालियतलम्मि तीए, कायव्वं नालियाछिद्दं ॥ युगपत्समुपेतानां, कार्याणां यदतिपाति तत्कार्ये । अतिपातिष्वपि फलं फलदेष्वपि धर्मसंयुक्तं ॥ बहुवित्थरमुस्सग्गं, बहुतरमुववायवित्थरं नाउं ।
ह ह संजमवुडी, तह जयसू निजरा जयह || जो जेण अणब्भत्थो, पोरिसिमाई तवो उतं तिगुणं । कुणइ छुहाविजयट्ठा, गिरिनइसीहेण
दिट्टंतो ॥
एक्क्कं ताव तवं, करेइ जह तेण कीरमाणेणं । हाणी न होइ जइआ, वि होज छम्मासुवस्सग्गी ॥ छिक्कस्स व खइयस्स व, मूसिगमाईहिं वा निसिचरेहिं । जह सहसा न वि जायइ, रोमंचुब्भेय चाडो वा ॥ सविसेसतरा बाहिं, तक्कर- आरक्खि सावयाईया | सुण्णघर- सुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा ॥ देवेहिं भेसिओ विय, दिया व रातो व भीमरूवेहिं । तो सत्तभावणाए, वहइ भरं निब्भओ सयलं ॥
जइ वि य सनाममिव, परिचियं सुअं अणहिय- अहीणवन्नाई । कालपरिमाणहेउं, तहा वि खलु तज्जयं कुणइ ॥ उस्सासाओ पाणू तओ य थोवो तओ वि य मुहुत्तो । मुहुत्तेहिं पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य ॥
कामं तु सरीरबलं, हायइ तव-नाणभावणजुअस्स । देहावचए विसती, जह होइ धिई तहा जयइ ॥ कसिणा परीसहचमू, जइ उट्ठिज्जाहि सोवसग्गावि । दुद्धरपहकरवेगा, भयजणणी अप्पसत्ताणं ॥ धिइधणियबद्धकच्छो, जोहेइ अणाउलो तमव्वहिओ । बलभावणाए धीरो, संपुण्णमणोरहो होइ ॥
[ २३५
(गा. ४४४ टी. प. ६१ )
(गा. ४४४ टी. प. ६१ )
(गा. ४४४ टी. प. ६१ )
(गा. ४४४ टी. प. ६१ )
(गा. ६६६ टी. प. ७२)
(७२६ टी. प. ७६)
(७७८ टी. प. ६० ) (बृभा. १३२६ )
( ७७८ टी. प. ६०) (बृभा. १३३०)
( ७८० टी. प. ६१) (बृभा. १३३७) (७८० टी. प. ६१ ) (बृभा. १३३८)
( ७८० टी. प. ६१) (बृभा. १३३६)
(७८१ टी. प. ६२) (बृभा १३४०)
(७८१, टी. प. ६२) (बृभा. १३४१)
(७८३ टी. प. ६२) (बृभा. १३५४ )
(७८३ टी. प. ६२) (बृभा. १३५५)
(७८३ टी. प. ६२) (बृभा. १३५६ )
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२३६]
परिशिष्ट-१५
(७८३ टी. प. ६२) (बृभा. १३५७)
(७६० टी. प. ६४)
(७६० टी. प. ६४) (बृभा. १३८५)
(८०३ टी. प. ६८) (बृभा १३६८)
(८०३ टी. प. ६८) (बृभा. १३६९)
(८०३ टी. प. ६८) (बृभा. १३७०)
(८०३ टी. प. ६८) (बृभा. १४१८)
(८७६ टी. प. ११७)
धिइ-बलपुरस्सराओ, हवंति सव्वा वि भावणा एता। तं तु न विजइ सज्झं, जं धिइमंतो न साहेइ ॥ पडिमापडिवण्णस्स उ, गिहिपरियातो जहण्ण उगुणतीसा। जति परियातो वीसा, दोण्ह वि उक्कोसदेसूणा ॥ आयारवत्थुतइयं, जहन्नयं होइ नवमपुव्वस्स । तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई॥ जइ किंचि पमाएणं, न सुछ भे वट्टियं मए पुट्विं । तं भे खामेमि अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ॥ आणंदअंसुपायं, कुणमाणा ते वि भूमिगयसीसा । खामिति जहरिहं खलु, जहारिहं खामिता तेणं ॥ खामिंतस्स गुणा खलु, निस्सल्लय विणय दीवणामग्गे। लाघवियं एगत्तं, अप्पडिबंधो अ जिणकप्पे ॥ पढमे वा बीए वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं । पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होज्जा ॥ सुविणगविजा कहियं, आयंई खणि घंटियादिकहियं वा। जं सीसइ अण्णेसिं, पसिणापसिणं हवइ एयं॥ पत्तनं शकटैगम्यं घौटकैनौभिरेव च। नौभिरेव यद्गम्यं, पट्टनं तप्रचक्षते ॥ सालि-जव-कोद्दव-वीहि-रालग-तिल-मुग्ग-मास चवल-चणा। तुवरि-मसूर-कुलत्था-गोहुम-निष्फाव अयसि सणा॥ सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूतो य । गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं भासेइ आयरिओ ॥ संमत्तनाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू। आयरियठाणजोग्गो, सुत्तं वाए उवज्झातो॥ विसरिसदसणजुत्ता, पवयणसाहम्मिया न दंसणतो। तित्थयरा पत्तेया, नो पवयणदंसणसाहम्मी॥ अप्पेण बहुमेसेज्जा, एयं पंडियलक्खणं । सव्वासु पडिसेवासु, एयं अट्ठावए विदू॥ जहाहियग्गी जलणं नमसे, नाणाहुतीमंतपयाभिसित्तं । एवायरियं उवचिट्ठएज्जा, अणंतनाणोवगतो वि संतो॥ दीणाभासं दीणगविं, दीणं जंपिउं पुरिसं । कं पेच्छसि नंदंतं, दीणं दीणाए दिट्ठीए ॥. दासेण मे खरो कीतो, दासो वि मे खरो वि मे।
(६१५ टी. प. १२७)
(६५१ टी. प. १३२)
(६५४ टी. प. १३३)
(६५६ टी. प. १३३)
(६६३ टी. प. ५)
(१०३८ टी. प. १८)
(१४०४ टी. प. १३) (दश.191११)
(१४४८ टी. प. २१) (१४७० टी. प. २५)
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परिशिष्ट- १८
मुत्तनिरोहे चक्खु, वच्चनिरोहे य जीवियं चयति । अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागं । एगपणगद्धमासं, सट्टी सुण मणुयगोण हत्थीणं । अणागाढो जहणेणं, तिणि दिवसा उक्कोसेण वरिसं । जह दिट्ठिवायस्स बारस वरिसाणि दुम्मेहस्सत्ति ॥ माउम्माया य पिया, भाया भगिणीए य एव पिउणो पि । भाउ भगिणीए वच्चा, धूया पुत्ताण वि तहेव ॥ जइ ते अभिधारयन्ती, पडिच्छंते अपडिच्छगस्सेव । अह नो अभिधारन्ती . सुयगुरुणो तो उ आभव्वा ॥ संगारो पुव्वकतो, पच्छा पाडिच्छओ उ सो जातो । तेणं निवेदियव्वं, उवट्टिया पुव्व सेहा से ॥
एवइएहिं दिहिं, तुझसगासं अवस्स एहामी । संगारो एव कतो, चिंधाणि य तेसि चिंधेइ ॥ काले य चिंधेहिं य, अविसंवादी हि तस्स गुरुणिहरा । कालंमि विसंवदि, पुच्छिन्नइ किंणु आओ सि ॥ संगारयदिवसेहिं, जइ गेलण्णादि दीवए तो उ । तस्सेव उ अह भावो, विपरिणतो पच्छ पुणो जातो ॥ असणं पाणगं चेव, खाइमं साइमं तहा। भिक्खू सन्निहिं कुजा, गिही पव्वइए न से ॥ वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं च बंभगुत्तीतो । नाणादितियं तवो, कोहनिग्गहा इइ चरणमेयं ॥ पिंडविसोही समिती, भावणपडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहणगुत्तीतो, अभिग्गहा चेव करणं तु ॥ आसंदी पलियंकेसु, मंचमासालएसु वा । अणायरियमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥ विषमसमैर्विषमसमाः विषमैर्विषमाः समैः समाचाराः । करचरणवदननाशाकर्णोष्ठनिरीक्षणैः पुरुषाः ॥ जम्मि कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खाहि । धन्नो सो लोहज्जो, खंतिखमाए वरलोहसरिवण्णो । जस्स जिणो पत्तातो, इच्छइ पाणीहि भुत्तुं जे ॥ इत्तिरियं पि न कप्पर, अविदिनं खलु परोग्गहादीसु । चिट्ठित्तु निसीयंतु व, तइयव्वय रक्खणट्ठाए ॥
[ २३७
(१७७२ टी. प. १०)
(१७७५ टी. प. १०)
(२०७६ टी. प. ६७)
(२११८ टी. प. ७४)
(२१५८ टी. प. ८१ )
(२१५८ टी. प. ८१)
(२१५८ टी. प. ८१) (पंकभा. २४०६)
(२१५६ टी. प. ८१)
(२१६२ टी. प. ८२) (पंकभा- २४११)
(२१६२ टी. प. ८२) (पंकभा. २४१२)
(२४१७ टी. प. २३)
(२४८४ टी. प. ७)
(२४८४ टी. प. ७)
(२४६३ टी. प. ८) (दश- ६ । ५३)
(२५५४. टी. प. २०) (२५५६ टी. प. २१)
(२६७१ टी. प. ४१ )
(३५२१ टी. प. २६)
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२३८]
परिशिष्ट-१८
(३८३३ टी. प. २)
(४६६१ टी. प. ११३)
(४६६१ टी. प. ११३) (दश.४।१०)
एकैकां वर्धयेद् भिक्षां, शुक्ले कृष्णे च हापयेत् । भुजीत नामावास्यायामेष चान्द्रायणविधिः ।। विज्ञप्तिःफलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलसंवाददर्शनात् ॥ पढमं नाणं तओ दया,एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किं वा नाही छेय-पावगं॥ गीयत्थो अ विहारो, बिइतो गीयत्थमीसितो भणितो। एत्तो तइय विहारो, नाणुन्नातो जिणवरेहिं ॥ क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतःस्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न-ज्ञानात्सुखितो भवे ॥ चेइय कुलगणसंधे आयरियाण च पवयणसुए य । सव्वेसु वि तेण कयं, तवसंजममुज्जमंतेण ॥ सुबहु पि सुयमहीयं, किं काही चरणविप्पहीणस्स | अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि॥
(४६६१ टी. प. ११३) (ओनि.१२२)
(४६६१ टी. प. ११३)
(४६६१ टी. प. ११३)
(४६६१ टी. प. ११३) (विभा. ११५२)
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परिशिष्ट-१६
विशेषनामानुक्रम
अंगचूली (ग्रंथ) अंडज (वस्त्र) अंध (देश) अच्छ (तिर्यञ्च) अजिण्ण (रोग) अजीर (रोग) अजरक्खिय (आचार्य) अजसमुद्द (आचार्य) अज्जास (मुनि) अज्जुण चोर) अट्टण (मल्ल) अह्रिसरक्ख (कापालिक) अतिसार (रोग) अय (धातु) अय (तिर्यञ्च) अयपालग (कर्मकर) अया (तिर्यञ्च) अरहन्नग (मुनि) अरिसा (रोग) अरुण (देव) अरुणोववाय (ग्रंथ) अवंति (नगरी) अवंतिवति (राजा) अवंतिसुकुमाल (मुनि) असि (अस्त्र) अस्स (तिर्यञ्च) अहि (तिर्यञ्च) आइच्च (नक्षत्र) आणंदपुर (नगर) आयार (ग्रंथ)
(गा. ४६५६) (गा. ३७३६) (गा. २६५६) (गा. ४३८२)
(गा. ६४७)
(गा. ३४१२) (गा. २३६५, ३६०५) (गा. २६८५, २६८६)
(गा. १७०५) (गा. २६५६) (गा. ३८४०) (गा. ३३१६) (गा. २५४८)
(गा. ३०८) (गा. १६११) (गा. १६११) (गा. १६१३) (गा. १७०५) (गा. ३२२२) (गा. ४६६२) (गा. ४६६०) (गा. ७८४) (गा. ७८४) (गा. ४४२५) (गा. ४३६८)
(गा ६५६) (गा. १०१४)
(गा. २०७) (गा.६टी. प. ६) (गा. १५२५, ४६७४)
आयारदसा (ग्रंथ) आयारपकप्प (ग्रंथ) आयारवत्थु (एक अध्ययन) आवस्सय (ग्रंथ) आवास (ग्रंथ) आवाह (भोज) आस (तिर्यञ्च) आसीविसत्तलद्धि (लब्धि) आसीविसभावणा (ग्रन्थ) इंदक्कीलमह (उत्सव) इंददत्त (व्यक्ति) इंदपुर (नगर) इभ (तिर्यञ्च) उंडि (मुद्रा) उंबर (वृक्ष) उक्कुडुअ (आसन) उच्छुघर (उद्यान) उच्छुवण (वन) उज्जाणमह (उत्सव) उज्जेणी (नगरी) उठाणसुय (ग्रंथ) उत्तरकुरु (अकर्मभूमि) उत्तरज्झयण (ग्रंथ) उत्तरज्झाय (ग्रंथ) उद्धसास (रोग) उप्पत्तिया (बुद्धि) एरवय (कर्मभूमि) एलग (तिर्यञ्च)
ओसावणि (विद्या) कंचणपुर (नगर)
(गा. ७६६) (गा. २२६४, १५२८)
(गा. ७६०) (गा. २५७८)
(गा. ६५५) (गा. ३७३६)
(गा. ४५२) (गा. ४६६६) (गा. ४६६८) (गा. १९०४) (गा. २६५६) (गा. २६५६)
(गा. ६४) (गा. २६४२) (गा. ३८७७) (गा. २३७३)
(गा. ३६०५) (गा. ३१३, ३६०५)
(गा. १८०४) (गा. ४५५७) (गा. ४६६३)
(गा. ४४०७) (गा. १५३३, ३०३७)
(गा. १५२६) (गा. २२७१) (गा. २४०६) (गा. ४३२२) (गा. ४६३०) (गा. १५२६) (गा. ४२७८)
.
Page #835
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________________
२४० ]
कंवलग (वस्त्र) ककय (अस्त्र) कच्छुय (रोग)
कणग (अ)
कप्प (ग्रंथ)
कप्पास (कर्मकर) कमढ ( तिर्यञ्च )
कवि (ब्राह्मण)
कोय (तिर्यञ्च)
करडुयभत्त (भोज)
करील (वृक्ष) कल्लाग (प्रायश्चित्त)
कसेरु (नदी) काग ( तिर्यञ्च ) कामल (रोग) कालायसवेसित (मुनि) किमि ( तिर्यञ्च )
कीडज (वस्त्र) कुंचिय ( तापस) कुंभकारकड (नगर) कुक्कुड (तिर्यञ्च) कुक्कडि ( तिर्यञ्च ) कुट्ठ (रोग)
कुविंद (कर्मकर) कुलाल (कर्मकर)
कोंकण (नगर)
कोइल ( तिर्यञ्च )
कोटंब (वस्त्र)
कोट्ठग (शाला )
कोडिण्ण (ग्रंथकार )
कोणिय (राजा)
कोरंटग (उद्यान) कोसल (देश) खंडकण (मंत्री) खंदग (आचार्य)
खंदय (मुनि) खंदिल (मुनि)
(गा. ११३२) (गा. ४४१६ )
(गा. २७६२ )
(गा. ४३६३)
(गा. १८४, १८५, ३२०, ४४३२
४४३५, ४६५५, ३०५७)
(गा. ३७२५)
(गा. ६६२ )
(गा. २६३८ )
(गा. २६२४ )
(गा. ३७३८) (गा. १३६५ )
(गा. १०)
(गा. १४१५ टी. प. १५)
(गा. १४५५)
(गा. २७६२ )
(गा. ४४२३ )
(गा. ३७६५)
(गा. ३७३६) (गा. ३२४ )
(गा. ४४१७ )
(गा. ६०१ )
(गा. ३६८४ )
(गा. २७६२)
(गा. १२८४ )
(गा. ३६०३)
(गा. ४२६२ )
(गा. ३००८)
(गा. २८६५)
(गा. ४३१३) (गा. ६५२ )
(गा. ४३६५ )
(गा. ६७५ टी. प. १३७ )
(गा. २६५६)
(गा. ७६४)
(गा. ४४१७) (गा. ४६८६ ) (गा. १७०५)
खय (रोग) खर ( तिर्यञ्च ) खरग (मंत्री) खीरलद्धि (लब्धि) खीरासवलद्धि (लब्धि)
खुड्डगणि (आचार्य) खुड्डिविमाणपविभत्ति (ग्रंथ)
खुरप्प (अस्त्र) गंगा (नदी)
गद्दभ ( तिर्यञ्च )
गद्धपट्ट (मरप्पभेद)
गरुल (तिर्यञ्च)
गरुलोववाय (ग्रंथ) गहभिन्न (नक्षत्र)
गाममह (उत्सव)
गाव ( तिर्यञ्च ) गावी (तिर्यञ्च )
गुणसिल (उद्यान) गो ( तिर्यञ्च )
गोट्ठामाहिल (ह्निव)
गोण (तिर्यञ्च ) गोणस ( तिर्यञ्च )
गोणी (तिर्यञ्च )
गोतम ( गणधर )
गोदावरी (नदी)
गोवाल (कर्मकर)
गोविंद (आचार्य)
गोविंददत्त (मुनि) घरसउणि ( तिर्यञ्च ) घोडग (तिर्यञ्च ) घोडगशाला (शाला) चंद्रायण ( तप) चक्किय (कर्मकर) चक्कियसाला (शाला) चरग (परिव्राजक ) चाणक्क (मंत्री)
चारणभावणा (ग्रंथ) चारणलद्धि (लब्धि)
परिशिष्ट - १६
(गा. ४३८४ )
(गा. ३२६ )
(गा. ११३०) (गा. ८६५ )
(गा. १५०२, ३०००)
(गा. १५०२ )
(गा. ४६५६ )
(गा. ४३६५ )
(गा. २५५४ )
(गा. ३२७)
(गा. ४३८६ )
(गा ४६६२)
(गा. ४६६० )
(गा. ३१० )
(गा. १८०४ )
(गा. १५२६ )
(गा. ३७६२)
(गा. ६७६)
(गा १५६ )
(गा. २७१४ )
(गा. १७५१ )
(गा. ४३८३ )
(गा. ५८०)
(गा. २६३७, ४६८६ )
(गा. ११२८ )
(गा. ३६३४ )
(गा. २७१३ )
(गा. १७०५)
(गा. ७७० )
(गा. १८२४, १८३२)
(गा. ३०७१ ) (गा. ३६६०)
(गा. ३७२५ टी. प. ५)
(गा. ३७२५ टी प. ५)
(गा. ११३६, १३६६)
(गा. ४४२० ) (गा. ४६६७ ) (गा. ४६६७)
Page #836
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________________
परिशिष्ट - १६
चिंच (वृक्ष) चिलायपुत्त (मुनि) चुल्लसुत ( ) चेडग (राजा)
छगल (तिर्यञ्च ) छगलग (तिर्यञ्च ) जंबु (वृक्ष)
जंबुग ( तिर्यञ्च )
जड्ड ( तिर्यञ्च)
जमाली (निह्नव)
जर (रोग)
जवमज्झचंदपडिमा (तपविशेष)
जाहग ( तिर्यञ्च )
जिणवरमह (उत्सव )
जितसत्तु (राजा) जोणिपाहुड (ग्रंथ)
डोंब (कर्मकर)
तिक्क (कर्मकर)
तउसि (वल्ली)
तंबोल (वल्ली) तगरा (नगरी) तणिय (बौद्धसाधु)
तडागमह (उत्सव )
तरंगवई (ग्रंथ)
तल (वृक्ष)
तामलित्तग (देशवासी)
ताल पिसाय (पिशाच) तालुग्घाडिणि (विद्या)
तिणिस (वृक्ष)
तित्थोगाली (ग्रंथ) तिमि ( तिर्यञ्च )
तिविट्ठ (वासुदेव) रंग ( तिर्यञ्च )
तेयनिसग्ग (ग्रंथ) तोसलिय (राजा) थावच्चसुत (मुनि) थावच्चापुत्त (मुनि) थूभमह ( उत्सव )
(गा ३७४४) (गा. ४४२२ )
(गा. ३०३७)
(गा. ४३६३) (गा. ७८४ )
(गा. २४५२ )
(गा २८८०)
(गा. १३८६ )
(गा. ८१६)
(गा. २७१३)
(गा. ७०० )
(गा. ३८३३)
(गा. ४१०२ )
(गा. २८३७)
(गा. १०८१ ) (गा २३६२)
(गा. ४३१२ )
(गा. ४३१२ ) (गा. ३७४४ )
(गा. ३७४४ )
(गा. ३६३०, १३६४)
(गा. २७१३)
(गा. १८०४ )
(गा. २३२०)
(गा. ३७४४ )
(गा. २८६५ )
(गा. ७८४ )
(गा. १५२६)
(गा. २७७८)
(गा. ४५३२ )
(गा. १३७० )
(गा. २६३८ )
(गा. ३५५७)
(गा. ४६६८)
(गा. २५६० )
(गा. ११६३)
(गा. २४६५, ११८३)
(गा ११६१ )
दंडइ (राजा) दंडिग (राजा) दंडिय (श्रेष्ठी)
दंतपुर (नगर) दढमित्त (व्यक्ति)
दहुर (तिर्यञ्च )
दसकालिय (ग्रंथ)
दसपुर (नगर) दसवेयालिय (ग्रंथ)
दिट्ठवाय (ग्रंथ) दिट्ठीविसभावणा (ग्रंथ) दिट्ठिविसलद्धि (लब्धि)
दिणकर (नक्षत्र)
दीपट्ट ( तिर्यञ्च )
दुप्पसह (आचार्य) देवकुरु (अकर्मभूमि) देव (कर्मकर)
देविंदrय (ग्रंथ)
देविंदपरियावण (ग्रंथ)
दोसियसाला (शाला)
धणु (अस्त्र)
धणुग (अस्त्र)
(रोग)
धम्मण्णग (मुनि) नंद (वंश)
नंद (व्यक्ति)
नंद (राजा)
नंदी (ग्रंथ) नयणामय (रोग)
नलदाम (व्यक्ति)
नहवाहण (राजा)
नागपरियाणी (ग्रंथ) नागपरियावण (ग्रंथ)
नागल (कुल)
नालिएर (वृक्ष) निसीह (ग्रंथ)
पउमाक्ती (रानी)
[ २४१
(गा. ४४१७ )
(गा. १२६५ )
(गा. २०४६)
(गा. ५१७)
(गा ५१६)
(गा. १०)
(गा. ३०३७)
(गा. ३६०५ ) (गा. १५३३)
(गा. २११८, ४६७४)
(गा. ४६६८ ) (गा. ४६६६ )
(गा. २०० )
(गा. २४२६ )
(गा. ४१७४ )
(गा. ४४०७ )
(गा. ४३१२ )
(गा. ३०१६)
(गा. ४६६३)
(गा. ३७२३)
(गा. २३२५)
(गा. २३२२) (गा. ७०० )
(गा. १७०५) (गा. ७१५)
(गा १५३५)
(गा. ३३५८)
(गा. ३१३४, ३०३८)
(गा. २७६२)
(गा. ७१६)
(गा. १४१४ )
(गा. ४६६५ ) (गा. ४६६३ )
(गा. १२ टी. प. ८)
(गा. ३७४४ ) (गा ३५१, ८५७, ४३५, २३५५, ३०३५, ३०३६) (गा. १४१४ )
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________________
२४२ ]
परिशिष्ट-१६
प)
.
पकप्प (ग्रंथ) पच्चक्खाण (ग्रंथ) पज्जोय (राजा) पण्णत्ति (ग्रंथ) पमेह (रोग) परिकम्म (ग्रंथ) परिहार (तप) पवाल (रत्न) पामा (रोग) पारसीक (देशवासी) पारावय (तिर्यञ्च) पारिणामिय (बुद्धि) पालक्क (पुरोहित) पाहुड (ग्रंथ) पिंडेसणा (एक अध्ययन) पिढर (पात्र) पित्तमुच्छा (रोग) पिवीलिया (तिर्यञ्च) पुंडरिय (एक अध्ययन) पुरंदरजसा (रानी) पुव्वगत (ग्रंथ) पुस्सभूति (आचार्य) पुहवी (रानी) पूसमित्त (मुनि) पोतणपुर (नगर) पोर (गण) फणस (वृक्ष) फलही (मल्ल) बइल्ल (तिर्यञ्च) बंभचेर (एक अध्ययन) बालज (वस्त्र) बाहु (आचार्य) बोधियसाला (शाला) भंडी (वाहन) भंभी (ग्रंथ) भगंदर (रोग) भत्तपरिण्णा (ग्रंथ) भद्दबाहु (आचार्य)
(गा. ४३१) | भम (रोग) (गा. ४३५) भरह (चक्रवर्ती) (गा. ७८४) भरह (कर्मभूमि) (गा. ४६५६) भरुयच्छ (नगर) (गा. ३७६७) भल्ल (तिर्यञ्च) - (गा. १८२७) मंगु (आचार्य) (गा. १५३७) मंडलिडक्क (तिर्यञ्च)
(गा. ६५०) मंडुग (तिर्यञ्च) (गा. २७६२ टी. प. ६२) मगधसेना (ग्रंथ) (गा. ८६८ टी. प. १२२) मगर (तिर्यञ्च)
(गा. २८६४) मच्छिय (मल्ल) (गा. २३८६) मच्छिय (तिर्यञ्च) (गा. ४४१७) मज्जार (तिर्यञ्च)
(गा. ६४६) मत्तंग (वृक्ष) (गा. १५३२, १५२६) मधुरा (नगर)
(गा. ३८३०) मरहट्ठ (देश) (गा. २२७१) मरहट्ठय (देशवासी) (गा. ४४२१) मरुग (ब्राह्मण) (गा. ११३३) मलयवती (ग्रंथ) (गा. ४४१७) मल्ल (गण) (गा. १८२७) मसग (तिर्यञ्च) (गा. ११७८) महकप्पसुय (ग्रंथ) (गा. २६४५) महकाल (श्मशान) (गा. १७०५) महपाण (ध्यान) (गा. १०८१) महल्लीविमाणपविभत्ति (ग्रंथ) (गा. १३६६) महसिलकंटक (युद्ध) (गा. ३७४४) महसुमिणभावणा (ग्रंथ) (गा. ३८४०) महामह (उत्सव)
(गा. ८८५) महिस (तिर्यञ्च) (गा. १५३२) महुरा (नगरी) (गा. ३७३६)
माढर (ग्रंथ) (गा. २७०३) मालव (देश) (गा. ३७२३ टी. प. ५) मासय (माषक)
(गा. ४४६) मासुरुक्ख (ग्रंथ) (गा. ६५२) मिग (तिर्यञ्च) (गा. ३२२२) मिगावती (साध्वी) (गा. ४२३१) मुडिंबग (मुनि) (गा. ४४३१) | मुणिसुव्वय (तीर्थंकर)
(गा. २२७१) (गा. २७०१) (गा. ४३२२) (गा. १४१४) (गा. ४३८२) (गा. २६८५) (गा. २४४७) (गा. २६२१) (गा २३२०) (गा. १३७०) (गा. ३८४०) (गा. ३१३८) (गा. ३१३८) (गा. १५३४) (गा. ११२६) (गा. १७००) (गा. २६५६)
(गा. ४५४) (गा. २३२०) (गा.-१३६६)
(गा.३१०६) (गा. २११८, ४६५६)
(गा. ७८४) (गा. २७००) (गा. ४६५८) (गा. ४३६३) (गा. ४६६५) (गा. २१२६),
(गा. ६४६) (गा. २३३०)
(गा. ६५२) (गा. १७८८) (गा. ४.१) (गा. ६५२) (गा. १०४१)
(गा. ५६१) (गा. २६५७) (गा. ४४१७)
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________________
परिशिष्ट-१६
-[२४३
मुत्तावलि (आभूषण)
(गा. २६७) मुद्दा (आभूषण)
(गा. ६१३) मुद्दिया (दल्ली)
(गा ३७४४) मुरिय (वंश)
(गा. ३३५८) मुरुंड (राजा)
(गा. १५०१) मूइंग (तिर्यञ्च)
(गा. १७७२) मूलदेव (ब्राह्मण)
(गा. ४५२) मूसग (तिर्यञ्च)
(गा. ३१३६) मोग्गल्ल (पर्वत)
(गा. ४४२३) मोयपडिमा (प्रतिमा)
(गा. ३७६०) मोरंगचूलिया (आभूषण)
(गा. १३६१) रयग (कर्मकर)
(गा. ४३१२) रविगत (नक्षत्र)
(गा. ३१०) रहमुसल (युद्ध)
(गा. ४३६३) रासभ (तिर्यञ्च)
(गा. १३८३) राहु (नक्षत्र)
(गा. ३११) राहुहत (नक्षत्र)
(गा. ३१०) लंखग (मल्ल)
(गा. ७८३) लवसत्तम (देवविशेष)
(गा. २४३३) लाड (देशवासी)
(गा. १७००) लोणियसाला (शाला)
(गा. ३७२५) लोमसिया (वल्ली)
(गा. ३७४४) लोह (मुनि)
(गा. २६७१) इरभूति (आचार्य)
(गा. १४१४) वइरमज्झचंदपडिमा (तपविशेष) (गा. ३८३३) वंसी (वृक्ष)
(गा. ४४२४) वक्यसाला (शाला)
(गा. ३३१६) वग्गचूली (ग्रंथ)
(गा. ४६५६) वग्घ (तिर्यंच)
(गा. ७७३) वत्थूल (वनस्पति)
(गा. ३६३०) वद्धमाण (तीर्थंकर)
(गा. ४६७१) वण (रोग)
(गा. ७००) वरधणुग (आचार्य)
(गा. ११७८) वरुण (देव)
(गा. ४६६२) वरुणोववाय (ग्रंथ)
(गा. ४६६०) ववहार (ग्रंथ)
(गा. ४४३४, ४४३५, ४४३२,
३३, ४६५५) वसभ (तिर्यञ्च)
(गा. ७१३)
वसुदेवहिंडी (ग्रन्थ) वागज (वस्त्र) वाणमंतरमह (उत्सव) वात (रोग) वाल (तिर्यञ्च) विच्छुग (तिर्यञ्च) विड्डेर (नक्षत्र) विण्हु (मंत्री) वियाहपण्णत्ति (ग्रंथ) विलंबि (नक्षत्र) विसूइगा (रोग) वीयाह (ग्रंथ) वीर (मुनि) वीरल्ल (तिर्यञ्च) वीवाह (भोज) वेउब्बियलद्धि (लब्धि) वेलंधरोववाय (ग्रंथ) वेसमणुववाय (ग्रंथ) सउणिया (तिर्यञ्च) संगह (नक्षत्र) संझागत (नक्षत्र) सक्कमह (उत्सव) सग (राजा) सत्थपरिण्णा (एक अध्ययन) सप्प (तिर्यञ्च) सप्पिनिहि (निधि) समुट्ठाणसुय (ग्रंथ) सव्वासि (रोगी) ससिगुत्त (मुनि) साण (तिर्यञ्च) साताहण (राजा) सामाइय (ग्रंथ) सालवाहण (राजा) सालाहण (राजा) साहस्सी (मल्ल) सिंगिय (विष) सिंधवय (वस्त्र) सिद्धायण (स्थान)
(गा २३२०) (गा ३७३६) (गा. १८०४) (गा. ४४१) (गा. ६४२) (गा. १७७२)
(गा. ३१०) (गा. ३३७८) (गा. २१२१)
(गा. ३१०) (गा. ४३६४) (गा. ४६५६) (गा. १७०५) (गा. ३८७५) (गा. ३७३६) (गा. ३३७६) (गा. ४६६०) (गा. ४६६०) (गा. ७७१) (गा ३१०)
(गा. ३१०) (गा. १७३, २१३६)
(गा. ४५५७) (गा. १५२६, १५३१)
(गा. ८१६) (गा. ३७४६) (गा. ४६६३)
(गा. ८४६) (गा. १६६७) (गा. ३६१७) (गा. ११२६) (गा. १८२४) (गा. २६४५) (गा. ११२८) (गा. १५३६) (गा. ३०२६) (गा २८६५) (गा. ३७७०)
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________________
२४४ ]
परिशिष्ट-१६
सियाल (तिर्यञ्च) सिरीसव (तिर्यञ्च) सिवकोट्ठग (मुनि) सिवा (रानी) सीह (तिर्यञ्च) सीही (तिर्यञ्च) सुगिम्हमह (उत्सव) सुणग (तिर्यञ्च) सुत्त (ग्रंथ) सुभद्दा (साध्वी) सूगर (तिर्यञ्च) सूयगड (ग्रंथ)
(गा १३७७, ४४२३)
(गा. ६४२) (गा. १७०५) (गा. ४४२५) (गा. ७७०) (गा. ७७२) (गा. २१३६) (गा. १६३८) (गा १८२७)
(गा. ५६१)
(गा. १७५१) (गा. २८६६, ४६५५)
सूर (नक्षत्र) सूल (रोग) सूवकार (कर्मकर) सोडियसाला (शाला) सोत्तियसाला (शाला) सोमिल (ब्राह्मण) हत्थि (तिर्यंच) हत्थिसाला (शाला) हिमवंत (पर्वत) हिरडिक्क (यक्ष)
(गा. ६८१) (गा. २३२३) (गा. ३७४०) (गा. ३७२५) (गा. ३७२३) (गा. १०७६)
(गा. ७७३) (गा. ३०७१) (गा. ११२६) (गा. ३१४६)
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________________
परिशिष्ट-२०
वर्गीकृत विशेषनामानुक्रम
वरधणुग (वरधनुक)
(गा. ११७८)
अवयव
आभूषण
मुत्तावलि (हार) मुद्दा (अंगूठी) मोरंगचूलिया (पशुओं का आभूषण)
(गा. २६७) (गा. ६१३) (गा. १३६१)
उत्सव
अंगुलि (अंगुलि) अंडक (मुख) अच्छि (आंख) ओट्ट (होठ) कडि (कमर) कन्न (कान) कर (हाथ) कुच्छि (कुक्षि) गलय (गला) दंत (दांत) नयण (आंख) नेत्त (नेत्र) नास (नाक) नासिगा (नाक) पाद (पैर) बाहु (बाहु) मुह (मुख)
(गा. ४२६०) (गा. ३६८३) (गा. ३६४२) (गा. ४३८३) (गा. २५७४) (गा. ३६४२) (गा. ३६४२) (गा. २३०१) (गा. ३८७४)
(गा. ८६५) (गा. २६८३) (गा. ४४१२) (गा. ३६४२) (गा. ४३८३) (गा. २६८३) (गा. २५७४) (गा. २६८३)
इंदक्कीलमह (इंद्रकीलमह) उज्जाणमह (उद्यानमह) गाममह (ग्राममह) जिणवरमह (जिनवरमह) तडागमह (तडागमह) थूभमह (स्तूपमह) महामह (महामह) वाणमंतरमह (व्यन्तरमह) सक्कमह (शक्रमह) सुगिम्हमह (सुग्रीष्ममह)
(गा. १८०५) (गा. १८०४) (गा. १८०४)
गा. २८३७) (गा. १८०४) (गा. ११६१) (गा. २१२६)
(गा. १८०४) (गा. ८७३; २१३६)
(गा. २१३६)
उद्यान
आचार्य
उच्छुघर (इक्षुगृह) कोरंटग (कोरंटक) गुणसिल (गुणशिल)
- (गा. ३६०५) (गा. ६७५ टी. प. १३७)
(गा. ६७६)
कर्मकर
अअरक्खिय (आर्यरक्षित) अज्जसमुद्द (आर्यसमुद्र) खंदर (स्कन्दक) खुड्डगणि (क्षुल्लगणि) गोविंद (गोविंद) दुणसह (दुःप्रसभ) पुस्सभूति (पुष्यभूति) बाहु (भद्रबाहु) भद्दबाहु (मद्रबाहु) मंगु (मंगु) वइरभूति (वज्रभूति)
(गा. २३६५, ३६०५)
(गा. २६८५) (गा. ४४१७) (गा. १५०२) (गा. २७१३) (गा. ४१७४) (गा. ११७८) (गा २७०३) (गा. ४४३१) (गा. २६८५) (गा. १४१४)
अयपालग (अजापालक) कुलाल (कुम्भकार) कुविंद (जुलाहा) गोवाल (ग्वाला) घडगार (कुंभकार) डोंब (चांडाल)
(गा. १६११) (गा. ३६०३) (गा. १२८४) (गा. ३६३४)
(गा. २५) (गा. ४३१२)
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________________
२४६]
परिशिष्ट-२०
गण
पोर (पौरगण) मल्ल (मल्लगण)
(गा. १३६६) (गा. १३६६)
णंतिक्क (रंगाई करनेवाला) णट्ट (नर्तक) दारपालय (द्वारपाल) देवड (शिल्पी) निजामग (नाविक) निल्लेवण (धोबी) पाडिहिग (पटहवादक) पुरुस (कुंभकार) महागोव (ग्वाला) रधिय (रथिक) रयग (धोबी) वच्छपाल (ग्वाला) सिरिघरय (भंडारी) सुत्तिय (सूत कातने वाला) सूवकार (रसोइया)
(गा. ४३१२) (गा. ४३१२) (गा. ३२६५) (गा. ४३१२) (गा. १३७३)
(गा. ५०४) (गा. ४३१२) (गा. ४३१२) (गा. १३७३) (गा. ४३६४) (गा. ४३१२) (गा. ३६३४) (गा. १३७३) (गा. ३७२५) (गा. ३७४०)
खाद्य पदार्थ
कंजिय (कांजी) खीर (खीर, दूध) गुल (गुड़) गोरस (दूध) घत (घी) घयमंड (घृतसार) तक्क (छाछ) तेल्ल (तैल) दधि (दही) दोड्डिय (तुम्बा) नवणीय (मक्खन) पय (दूध) परमन्न (खीर) महु (शहद) महुरग (खाद्य पदार्थ) रसाल (खाद्य पदार्थ) लोण (नमक) संखडि (मिठाई)
(गा. ४२४३)
(गा. ७७२) (गा. २८८४) (गा.१७६८) (गा. ४३८)
(गा. ८४७) (गा. २१३७)
(गा. ८४५) (गा. २४७६) (गा. ४२६२) (गा. २६६८) (गा. ४२८७) (गा. १६३८) (गा. ४४२१) (गा. ३८०३) (गा. ३३१२) (गा. ३७२०) (गा. २३८२)
अंगचूली (अंगचूलिका)
(गा. ४६५६) अरुणोववाय (अरुणोपपात)
(गा. ४६६०) आयार (आचारांग)
(गा. १५३३, ४६७४) आयार (निशीथ)
(गा. १५२५) आयारदशा (दशाश्रुतस्कंध)
(गा. ७६६) आयारपकप्प (निशीथ)
(गा. १५२८, २२६४) आवस्सय (आवश्यक)
(गा. २५७८) आवासय (आवश्यक)
(गा. ६५५) उट्ठाणसुय (उत्थानश्रुत)
(गा. ४६६३) उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन) (गा. १५३३, ३०३७) उत्तरज्झाय (उत्तराध्ययन)
(गा. १,५२६) कप्प (बृहत्कल्प)
(गा. १८४, १८५, ३२०,
४४३२-३५, ४६५५) कप्प (निश्ीथ)
(गा. १६५७, ३०५७) खड्डियाविमाणपविभत्ति (क्षल्लिकाविमानप्रविभक्ति)
(गा. ४६५६) गरुलोववाय (गरुडोपपात)
(गा. ४६६०) चुल्लसुत (चुल्लश्रुत)
(गा. ३०३७) जोणिपाहुड (योनिप्राभृत)
(गा २३६२) तरंगवई (तरंगवती)
(गा. २३२०) तित्थोगाली (तीर्थोगालि)
(गा. ४५३२) दसकालिय (दशकालिक)
(गा. ३०३७) दसवेयालिय (दशवैकालिक)
(गा. १५३३) दिट्ठिवाय (दृष्टिवाद)
(गा. २११८, ४६७४) देविंदथय (देवेन्द्रस्तव)
(गा. ३०१६) देविंदपरियावण (देवेन्द्रपरियापनिकी) (गा. ४६६३) नंदी (नंदी)
(गा. ३०३८, ३१३४) नागपरियाणी (नागपरियापनिकी) (गा. ४६६५) नागपरियावण (नागपरियापनिकी)
(गा ४६६३) निसीह (निशीथ) (गा ३५१ ५२८ -00 २८८
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परिशिष्ट-२०
[ २४७
३०३५, ३०३६ पकप्प (निशीथ)
(गा. ३२०, १५६८, २३१४,
२३१५, २३२७) पच्चक्खाण (नवां पूर्व)
(गा. ४३५) पण्णत्ति (भगवती)
(गा. ४६५६) परिकम्म (दृष्टिवाद का भेद)
(गा. १८२७) पाहुड (योनिप्राभृत)
(गा. ६४६, १७३६) पुवगत (दृष्टिवाद का भेद) (गा. १८२७, १८२६) भंभी (रसायनशास्त्र)
(गा. ६५२) मगधसेणा (मगधसेना)
(गा. २३२०) मलयवती (मलयवती)
(गा. २३२०) महकप्पसुय (महाकल्पश्रुत) (गा. २११८, ४६५६) महल्लीविमाणपविभत्ति (महद्विमानप्रविभक्ति) (गा. ४६५८) माढर (नीतिशास्त्र)
(गा. ६५२) मासुरुक्ख (मासुरुक्ष)
(गा. ६५२) वग्गचूली (वर्गचूलिका)
(गा. ४६५६) वरुणोववाय (वरुणोपपात)
(गा. ४६६०) ववहार (व्यवहार)
(गा. ४४३२, ४६५५) | ववहारनिञ्जत्ति (व्यवहारनियुक्ति) (गा. ४४३४) वसुदेवहिंडी (वसुदेवहिंडी) (गा. २३२० टी. प. ६) वियाहपण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति)
(गा. २१२१) विवाहचूलिया (व्याख्याचूलिका) (गा. ४६५६) वीयाह (व्याख्याप्रज्ञप्ति)
(गा. ४६५६) वेलंधरोववाय (वेलंधरोपपात)
(गा. ४६६०) वेसमणुववाय (वैश्रमणोपपात)
(गा. ४६६०) समुट्ठाणसुय (समुत्थानश्रुत)
(गा. ४६६३) सामाइय (सामायिक)
(गा. १८२४) सुत्त (दृष्टिवाद का एक भेद)
(गा. १८२७) सूयगड (सूत्रकृतांग)
(गा. २८६६, ४६५५)
अया (बकरी) अस्स (घोड़ा) अहि (सांप) आस (अश्व) इभ (हाथी) एलग (भेड़) कमढ (कच्छप) कवोय (कबूतर) काग (काक) किमि (कृमि) कुक्कुड (मुर्गा) कुक्कुडि (मुर्गी) कोइल (कोकिल) खर (गधा) गद्दभ (गधा) गरुल (गरुड) गाव (गाय) गावी (गाय) गो (गाय) गोण (बैल) गोणस (सर्प की एक जाति) गोणी (गाय) घरसउणि (कोयल) घोडग (घोड़ा) छगल (बकरा) छगलग (बकरा) जंबुग (सियार) जड्ड (हाथी) जाहग (साही) तिमि (मत्स्य विशेष) तुरंग (घोड़ा) ददुर (मेंढक) दीहपट्ठ (सांप) पारावय (कबूतर) पिवीलिया (चींटी) बइल्ल (बैल) भल्ल (भालू) मंडलिडक्क (सर्प विशेष)
(गा. १६१३)
(गा. ६५६) (गा. १०१४) (गा. ४५२)
(गा. ६४) (गा. ७६४) (गा. ६६२) (गा. २६२४)
(गा. ६४) (गा. ३७६५)
(गा. ६०१) (गा. ३६८४) (गा. ३००८) (गा. ३२६) (गा. ३२७) (गा. ४६६२) (गा. १५२६) (गा. ४४८) (गा. १५६) (गा. १७५१)
(गा. ६५) (गा ५८०) (गा. ७७०) (गा. १८२४)
(गा. ७८४) (गा. २४५२) (गा. १३८६)
(गा. ८१६) (गा. ४१०२) (गा. १३७०) (गा. ३५५७)
(गा. १०) (गा. २४२६) (गा. २८६४) (गा. ४४२१)
(गा. ८८५) (गा. ४३८२) (गा. २४४७)
चक्रवर्ती
भरह (भरत)
(गा. २७०१)
तिर्यञ्च
अच्छ.(रीछ) अय (बकरा)
(गा. ४३८२) (गा. १६११)
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२४८]
परिशिष्ट-२०
देश एवं देशवासी
अंध (आंध्र) कोसल (कौशल) तामलित्तग (ताम्रलिप्तक) पारसीक (देशवासी) मरहट्ट (महाराष्ट्र) मरहट्टय (महाराष्ट्रिक) मालव (मध्यप्रदेश) लाड (लाट)
(गा. २६५६) (गा. २६५६)
(गा. २८६५) (गा. ८६८ टी. प. १२२)
(गा. १७००) (गा. २६५६) (गा. १७८८) (गा. १७००)
धान्य
मंडुग (मेंढक) मगरं (मगर) मच्छिय (मक्खी) मज्जार (मार्जार) मसग (मच्छर) महिस (भैंस) मिग (मृग) मूइंग (चींटी) मूसग (चूहा) रासभ (गधा) वग्घ (व्याघ्र) वसभ (बैल) वाल (व्याल, सर्प) विच्छुग (बिच्छु) वीरल्ल (बाज) सउणिया (पक्षी) सउणी (पक्षी) सप्प (सर्प) साण (कुत्ता) सियाल (सियार) सिरीसव (सर्प की जाति) सीह (सिंह) सीही (सिंहनी) सुणग (कुत्ता) सूगर (सूअर) हत्थि (हाथी)
(गा. २६२१) (गा. १३७०) (गा. ३१३८) (गा. ३१३६) (गा. ३१०६)
(गा. ६४६) (गा. १०४१) (गा. १७७२) (गा. ३१३६) (गा. ३३१) (गा. ७७३) (गा. ७१३) (गा. ६४२) (गा. १७७२) (गा. ३८७५)
(गा. ७७१) (गा. ३८७५)
(गा. ८१६) (गा. १०१४) (गा. १३७७) (गा. ६४२) (गा. ७७०) (गा. ७७२) (गा. २५५) (गा. १७५१) (गा. ७७३)
अयसी (अलसी) ओदण (चावल) कलम (चावल) कुलत्थ (कुलथी) कोद्दव (कोद्रव) गोहुम (गेहूं) जव (जव) चणा (चना) चवल (चवला) तंदुल (तंदुल) तिल (तिल) तुवरि (तुवरि) निष्फाव (निष्पाव) मसूर (मसूर) मास (उड़द) मुग्ग (मूंग) रालग (रालक) वीहि (व्रीहि) सण (सन) सरिसव (सर्षप) सालि (धान्य)
(गा. ६५१ टी. प. १३२) (गा. २५०१, ४२८७)
(गा. ४२८७) (गा. ६५१ टी. प. १३२)
(गा. २५०१) (गा. २५०१)
(गा. २५०१) (गा. ६५१ टी. प. १३२) (गा. ६५१ टी प १३२)
(गा २३५६)
(गा ८४७) (गा. ६५१ टी. प. १३२) (गा. ६५१ टी. प. १३२) (गा. ६५१ टी. प. १३२)
(गा. ४६३६) (गा. ६५१ टी. प. १३२)
(गा. २५०१)
(गा. २५०१) (गा. ६५१ टी. प. १३२) (गा. ४६६, ५५५)
(गा. २५०१)
तीर्थंकर
मुणिसुव्वय (मुनिसुव्रत) वद्धमाण (महावीर)
(गा. ४४१७) (गा. ४६७१)
देव
नगरी
अरुण (अरुण) तालपिसाय (तालपिशाच) लवसत्तम (लवसत्तम) वरुण (वरुण) हिरडिक्क (चांडालों का देव)
(गा. ४६६२)
(गा. ७८४) (गा. २४३३)
(गा. ४६६२) (गा. ३१४६ टी. प. ५५)
अवंति (अवंती) इंदपुर (इंद्रपुर)
(गा. ७८४) (गा. २६५६)
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परिशिष्ट-२०
[२४६
भोज
आवाह (विवाह भोल) करडुयभत्त (मृतक भोज) वीवाह (विवाह-भोज)
(गा. ३७३६) (गा. ३७३६) (गा. ३७३६)
उज्जेणी (उज्जयिनी)
(गा. ४५५७) कंचणपुर (कंचनपुर)
(गा. ४२७८) कुंभकारकड (कुंभकारकृत)
(गा. ४४१७) कोंकण (कोंकण)
(गा. ४२६२) तगरा (तगरा)
(गा. १६६४, ३६३०) दंतपुर (दंतपुर)
(गा. ५१७) दसपुर (दसपुर)
(गा. ३६०५) पोयणपुर (पोतनपुर)
(गा. १०८१) भरुयच्छ (भरुकच्छ)
(गा. १४१४) मधुरा (मथुरा)
(गा. ११२६, २३३०)
नदी एवं पर्वत कसेरु (कसेरु)
(गा. १४१५ टी. प. १५) गंगा (गंगा)
(गा. २५५४) गोदावरी (गोदावरी)
(गा. ११२८) मेरु (सुमेरु)
(गा.'४३५२) मोग्गल्ल (मोग्गल्ल)
(गा. ४४२३) हिमवंत (हिमालय)
(गा. ११२६)
___मंत्री खंडकण्ण (खंडकर्ण) खरग (खरक) चाणक्क (चाणक्य) पालक्क (पालक) विण्हु (विष्णु)
(गा. ७८४) (गा. ११३०) (गा. ४४२०) (गा. ४४१७) (गा. ३३७८)
मल्ल
अट्टण (अट्टन) आसकिसोर (अश्वकिशोर) फलही (फलही) मच्छिय (मासिक) लंखग (लेखक) साहस्सी (साहस्री)
(गा. ३८४०)
(गा. ७८३) • (गा. ३८४०) (गा, ३८४०)
(गा. ७८३) (गा. १५३६)
परिव्राजक एवं संन्यासी अट्ठिसरक्ख (कापालिक) कुंचिय (तापस) गोट्ठामाहिल (गोष्ठामाहिल) चरग (चरक) तच्चण्णिय (बौद्ध साधु)
प्रतिमा जवमज्झचंदपडिमा (यवमध्यचंद्रप्रतिमा) वइरमज्झचंदपडिमा (वज्रमध्यचंद्रप्रतिमा) मोयपडिमा (मोकप्रतिमा)
(गा. ३३१६)
(गा. ३२४) (गा. २७१३) (गा. ११३६) (गा. २७१३)
महासती
मिगावती (मृगावती) सुभद्दा (सुभद्रा)
(गा. ५६१) (गा. ५६१)
मुद्रा
(गा. ३८३३) | (गा. ३८३३) (गा. ३७६०)
उंडिय (मुद्रा) मासय (माषक)
(गा. २६४२) (गा. ४८१)
ब्राह्मण
कविल (कपिल) मरुग (मरुक) मूलदेव (मूलदेव). सोमिल (सोमिल)
(गा. २६३८) (गा. ४५४-४५७, २५४२)
(गा. ४५२) (गा. १०७६)
अज्जास (अर्यास) अरहन्नक (अर्हन्त्रक) अवंतीसुकुमाल (अवंतीसुकुमाल) कालायसवेसित (कालास्यवैशिक)
(गा. १७०५) (गा. १७०५) (गा. ४४२५) (गा. ४४२३)
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२५०]
परिशिष्ट-२०
खंदय (स्कंदक) खंदिल (स्कन्दिल) गोविंददत्त (गोविन्ददत्त) चिलायपुत्त (चिलातपुत्र) थावच्चसुत (स्थापत्यासुत) थावच्चापुत्त (स्थापत्यापुत्र) धम्मण्णग (धर्मन्नक) पूसमित्त (पुष्यमित्र) मुडिंबग (मुडिंबक) लोह (लौह) वीर (वीर) ससिगुत्त (शशिगुप्त) सिवकोट्ठग (शिवकोष्ठक)
युद्ध महसिलकंटक (महशिलकंटक) रहमुसल (रथमुशल)
(गा. ४६८६) | पुहवी (पृथ्वी)
(गा. २६४५) (गा. १७०५) सिवा (शिवा)
(गा. ४४२५) (गा. १७०५) (गा. ४४२२)
रोग (गा. ११६३) अजिण्ण (अजीर्ण)
(गा. ६४७) (गा. २४६५) अजीर (अजीर्ण)
(गा. ३४१२) (गा. १७०५) अतिसार (हैजा)
(गा. २५४८) (गा. १७०५) अरिसा (मस्सा, अर्श)
(गा. ६३) (गा. २६५७) उद्धसास (श्वासरोग)
(गा. २२७१) (गा. २६७१) कच्छुय (खुजली)
(गा. २७६२) (गा. १७०५) कामल (पीलिया)
(गा. २७६२) (गा. १६६७) कुट्ठ (कुष्ठ)
(गा. २७६२) (गा. १७०५) खय (क्षय)
(गा. ४३८४) जर (ज्वर)
(गा. ७००) धणुग्गह (धनुष्टंकार, वातरोग विशेष) (गा. ७००) (गा. ४३६३) नयणामय (आंख का रोग)
(गा. २७६२) (गा. ४३६३) पमेह (मधुमेह)
(गा ३७६७) पामा (खुजली)
(गा. २७६२ टी. प. ६२) पित्तमुच्छा (पित्तमूर्छा)
(गा. २२७१) (गा. ७८४) भगंदर (मस्सा)
(गा. ३२२२) (गा. ४३६५) भम (चक्कर आना)
(गा. २२७१) (गा. ४३६३) वण (व्रण)
(गा. ७००) (गा. १०८१) वात (वायुरोग)
(गा. ४४१) (गा. २५६०) विसूइगा (हैजा)
(गा. ४३६४) (गा. ४४१७) सव्वासि (भस्मक रोग)
(गा. ८४६) (गा. १२६५)
लब्धि (गा. ३३५८) (गा. १४१४) आसीविसत्त (आशीविषलब्धि)
(गा. ४६६६) (गा. ७८४) खीरलद्धि (क्षीरलब्धि)
(गा. ८६५) (गा. १५०१) खीरासवलद्धि (क्षीरास्रवलब्धि) (गा. १५०२, ३०००) (गा. ४५५७) चारणलद्धि (चारणलब्धि)
(गा. ४६६७) (गा. ११२६, २६४५) दिट्ठिविसलद्धि (दृष्टिविषलब्धि)
(गा. ४६६६) (गा. ११२८) वेउव्वियलद्धि (वैक्रियलब्धि)
(गा. ३३७६)
राजा
अवंतिवति (प्रद्योत) कोणिय (कूणिक) चेडग (चेटक) जितसत्तु (जितशत्रु) तोसलिय (तोसलिक) दंडइ (दंडकी) दंडिग (दंडिक) नंद (नंद) नहवाहण (नभवाहन) पज्जोय (प्रद्योत) मुरुंड (मुरुंड) सग (शक) सातवाहण (शातवाहन) . साताहण (शातवाहन)
रानी
वंश
पउमावती (पद्मावती) पुरंदरजसा (पुरंदरयशा)
(गा. १४१४) | नंद (नंद) (गा. ४४१७) | मुरिय (मौर्य)
(गा. ७१५) (गा. ३३५८)
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परिशिष्ट-२०
[ २५१
वल्ली
परमोधिजिण (परमावधिजिन) पुव्वधर (पूर्वधर) पेढियधर (पीठिकाधर) संजोगदिट्ठपाढि (संयोगदृष्टपाठी)
(गा. ५१४) (गा. ४४३) (गा. ४०४) (गा. २४२४)
तंबोल (ताम्बूल) तउसि (ककड़ी) मुद्दिया (मुद्रिका) लोमसिया (ककड़ी) वत्थूल (बथुआ)
(गा. ३७४४) (गा. ३७४४) (गा. ३७४४) (गा. ३७४४) (गा. ३७४४)
वस्त्र
अंडज (अंडों से उत्पन्न) कंबलग (कंबल) कीडज (कीड़ों से उत्पन्न) कोटुंब (गौडदेशोद्भव) बालज (बालों से निष्पन्न) वागज (वल्कल से निष्पन्न) सिंधवय (सिंधु देश में उत्पन्न)
(गा. ३७३६) (गा. ११३२) (गा. ३७३६) (गा. २८६५) (गा. ३७३६) (गा. ३७३६) (गा. २८६५)
वासुदेव
तिविट्ठ (त्रिपृष्ठ)
(गा. २६३८)
वृक्ष उंबर (उम्बर)
(गा. ३८७७) एरंड (एरंड)
(गा. ५४२) करील (करील)
(गा. १३६५) चिंच (इमली)
(गा. ३७४४) जंबु (जंबू)
(गा. २८८०) तल (ताडवृक्ष)
(गा. ३७४४) तिणिस (तिनिश)
(गा. २७७८) नालिएर (नारियल)
(गा. ३७४४) पलंब (ताड़)
(गा. १८४) फणस (पनस)
(गा. ३७४४) मत्तंग (कल्पवृक्ष)
(गा. १५३४) वंसी (बांस का वृक्ष)
(गा. ४४२४) वड (वट)
(गा. २८८०) साधु एवं गृहस्थ के उपकरण उक्खल (ऊखल)
(गा. ३८५३) उवाणह (जूता)
(गा. ४३७०) कंबी (यष्टिविशेष)
(गा. ३४६६) कच्चग (पात्र)
(गा. ३५०६) कत्तिल्ल (कैंची)
(गा. ३५०६) कमढग (पात्रविशेष)
(गा. ३६३३) कुंभ (घट)
(गा. २) कुड (घट)
(गा. ५०६, ५०८) कोवीण (कोपीन)
(गा ११५८) घड (घट)
(गा. ६६१) चालणी (चालनी)
(गा. ४६४६) चिलिमिलि (पर्दा)
(गा. ३०६५) चोलपट्ट (चोलपट्ट)
(गा. ८६४) छत्त (छत्र)
(गा. ३५०६) थाल (पात्र)
(गा. ६३३) थालि (पात्र)
(गा. ८२०)
वाहन
नावा (नाव)
(गा. ११०) पोत (जहाज)
(गा. ७५०) भंडी (बैलगाड़ी)
(गा ४४६) रध (रथ)
(गा. ६५६) सगड (बैलगाड़ी)
(गा ४५१) विशिष्ट मुनि कप्पधर (कल्पधर)
(गा. ४०३) चोद्दसपुब्बि (चतुर्दशपूर्वी) (गा. १५३०, १५३६, २६६५) दसपुब्बि (दशपूर्वी)
(गा. ४०३, ३१८, ५१४, १५२४, २६६५) नववि (नवपूर्वी) (गा. ४०३, ३१८, ५१४, २६६५) निज्जुत्तिधर (नियुक्तिधर)
(गा. ४०४) पकप्पधर (प्रकल्पधर)
(गा. १५२३) पकप्पधारि (प्रकल्पधारी) (गा. ४०३, १५३०, २३८६)
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२५२ ]
दंड (दण्ड) दतिय (मशक)
दव्वी ( चम्मच)
दीवग (दीपक)
नंदीप डिग्गह (पात्रविशेष)
नालिया (नालिका)
पडल (भिक्षापात्र पर ढका जानेवाला वस्त्र )
पडिग्गह (पात्रविशेष)
पलियंक ( पर्यंक) पिढर (पात्र विशेष ) मत्तय (पात्रविशेष)
(गा. ३-५३) (गा. ४६६ )
(गा. ३८५३) (गा. १६३६)
(गा. ३६३३)
(गा. ४४४ )
(गा. ८६४)
(गा. ११३२ )
(गा. ८६७) (गा. ३८३०) (गा. ८६४ )
मुहणंत (मुखवस्त्र) मुहपोत्तिय (मुखपोतिका)
रयणथाल (रत्नस्थाल)
रयहरण (रजोहरण) विपडिग्गह ( पात्रविशेष)
विमत्त (पात्रविशेष)
वेंटिय (बिस्तर)
संडास (संडासी)
व्विणि (सुई) सेज्जा ( शय्या)
परिशिष्ट-२०१
(गा. ४५३७ )
(गा. ८६४ )
(गा २४५२ )
(गा. ८६४)
(गा. ३६३३)
(गा ३६३३)
(गा. १२६ )
(गा. १३५२ ) (गा. ३५४६ )
(गा. १८१५)
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परिशिष्ट-२१
टीका में संकेतित नियुक्तिस्थल (टीकाकार ने अनेक स्थानों पर विविध शब्दावलि में नियुक्तिगाथा का संकेत किया है। यहां हम उन सब संदर्भो को प्रस्तुत कर रहे हैं। इनमें ब्रेकेट वाली संख्या नियुक्तिगाथा की है।)
नियुक्तिकृत् - १८७ (३८), ३४५ (७७), १६४४ (२६७) १७६५. (२८२), ३३४६ (४३५)
निर्युक्तेः व्यापारयति - ३६१६ (४६६)
सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः - १८८ (३६), २०६७ (३३०)
नियुक्तिमाह - २०६२ (३३१)
-
नियुक्तिगाथां भाष्यकारो विवृणोति -- २६१२ (४१०)
नियुक्त्यवसरः - २८८० (४०५)
नियुक्तिविस्तरः - ६७६ (१६३), १०५४ (१८२), १३६१ (२१५), १४८० (२३७), २०१६ (३२४), २४५० (३६४), .. २७८२ (३६८), २८८० (४०५), ३२२४ (४२४), ३३६० (४३६), ३३८५ (४३८), ३३८८ (४४१), ३५११ (४५२), ३५३८ (४५६), ३५५० (४६०), ३५६५ (४६५), ३६८५ (४७४), ३८८८ (४६३),
नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः - ५३ (१६), ११७४ (१६७), १३६१ (२१५), २८६७ (४०८), २६०७ (४०६), २६१५ (४११), २६४१ (४१३)
नियुक्तिभाष्यविस्तरः --- ८६२ (१५३), ६१६ (१५७) १२३६ (२०२), १२५० (२०४) १३५२ (२१३)
भाष्यनियुक्तिविस्तरः२०३८' (३२७), २७८१ (३३५)
१
भाष्यनियुक्तिविस्तरः उल्लेख होने के कारण प्रारंभिक २०३२ से २०३७ तक की छह गाथाएं भाष्य की हैं। नियुक्ति की गाथा २०३८ से शुरू होती है।
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टीका में उद्धृत चूर्णि के संकेत
( व्याख्या साहित्य के क्रम में भाष्य के बाद चूर्णियां लिखी गईं। निशीथ की चूर्णि प्रकाशित रूप में उपलब्ध है। लेकिन व्यवहार एवं बृहत्कल्प की चूर्णि अप्रकाशित है । व्यवहारचूर्णि की हस्तलिखित प्रतियां यत्र-तत्र भंडारों में मिलती हैं। व्यवहार भाष्य के टीकाकार ने अनेक स्थलों पर चूर्णि का उल्लेख किया है। यहां हम टीका में उद्धृत चूर्णि के अंशों को यथावत् प्रस्तुत कर रहे हैं । )
चाह चूर्णिकृत्—
चित्त इति जीवस्याख्येति ।
(गा. ३५ टी. प. १५)
आह च चूर्णिकृत् -
पाणाइवायं करोमीति जो संकल्पं करेइ चिंतयतीत्यर्थः संरंभे वट्टइ परितावणं करेइ सभारंभे वट्टइति ।
(गा. ४६ टी. प. १८)
चास्यैव व्यवहारस्य चूर्ण्य दृष्ट्वा लिखितमिति ।
(गा. ११४ टी. प. ४० )
उक्तं चास्यैव व्यवहारस्य चूर्णौ
एएसु चेव अट्ठमीमादीसु चेइयाई साहुणो वा जे अण्णाए वसहीए ठिया ते न वंदंति मासलघु जइ चेइयघरे ठिया वेयालियं कालं पडिक्कंता अकए आवस्सए गोसे य कए आवस्सए चेइए न वंदंति तो मासलहु- इति ।
(गा. १२६ टी. प. ४५)
परिशिष्ट-२२
उक्तं च चूर्णौ
छम्मासाण परं जं आवज्जइ तं सव्वं छंडिजइ । (गा. १४० टी. प. ४८ )
एतच्च चूर्णिकारोपदेशात् विवृतं । तथा चाह चूर्णिकृत् उपरिल्ला हिं चउहिं, पिण्डेसणाहिं अन्नयरीए अभिग्गहो सेसासु तिसु अग्गहो इति ।
(गा. ८०४ टी. प. ६८ )
आह च चूर्णिकृत्
जइ ताव तइओ भंगो अणुण्णाओ प्रागेव पढमो भंगो अण्णात इति ।
(गा. १७७६ टी. प. ११)
ता पीढसमुद्दा मुहपियजंपगा ते पव्वज्जाओ । भावणा वयणाणि भणिञ्जा तणपडिवत्तिकुसलेणं कहण्णं मलिया मद्दिया भवन्तीति चूर्णि: 1
(गा. २४६५ टी. प. ८)
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परिशिष्ट २३
वर्गीकृत विषयानुक्रम
अंतेवासी ४५६५, ४५६६ अक्षताचार १५२०-२२ अतिक्रम ४२, ४३ अतिचार ४२,४३ अतिशय २५०५-२७०७ अनशन ४२२१-४४२६ अनाचार ४२, ४३ अभ्युत्थान २६४७६५ अवग्रह २२१६-२६२२५५, ३३४६६२, ३३८२, ३३८३,
३५२०-३० अवधावन २०१६ २०२०, ३६५२-७६ अवसन्न ८८२-८८ अशुचि १६४०-४२ अस्वाध्याय ३१००-३२३६ आगमव्यवहार ३१८, ३१६, ३२५-४४, ४०२६-८० आचारकुशल १४८०-८७ आचारप्रकल्प २३१६२१, २३३२, २३३३ आचार्य ७५,६४, ६५, १६६-८३, ५६७-७०, ५८६-६६, ६५४, ६५५, १०७४, १०७५, १२११-१३, १३११-३६, १३६८१५८७ १५६२, १५६३, १५८१-८७, १८६०-२०११, २३३४, २४१० ३२, २५१६२६२८ ४५८६-६४ आज्ञा १६७५, १६७६ आज्ञाव्यवहार ३८८६, ३८८७, ४४३७४५०१ आभवद् व्यवहार ३८८८-४००६ आरोपणा १४०-४८, ५६६-६०३ आर्यरक्षित ३६०४-१० आलोचक ५२१, ५२२ आलोचना ५४-५६ २२६३१७, ४३८-५१, ५२३, ५२४, ६६५-७६, २३४८, २३६१-७८, ४२६५-४३१०, ४३००, ४३०१
आलोचनाई ५१६, ५२० आहार ३६८०-३७०२ इंगिनीमरण ४३६१ इच्छा १३६२-६४ उञ्छ ३८५२-६४ उत्तरगुण ४७०, ४७१ उन्मत्तचित्त ११४०-५२ उपग्रहकुशल १५१५-१६ उपसंपदा १६६२-१९२६ उपसर्ग ११५३-६२, ३८४२-५१ उपाध्याय ६५६, ६५७ उपाश्रय १८०४-१८०६ ऋण ११७३-१२०२ एकलवास २७००-४७, २७६६८१ कलह २६७६-३०१३ कायोत्सर्ग ५४७ कुमार ६४८ कुशील ७६-८१ कूणिक ४३६३-६५ कृतिकर्म २३३७-४७ कृत्स्न ५७२-७ क्षिप्तचित्त १०७७११२२ गण १३६५-१३६८ गणधारी (आचार्य) १३५७-६१ गणमुक्तसाधना २०८७-८६ गणिसंपदा ४०८०-४१२४ गीतार्थ ६६२ गुप्तचर ६३०४७ गौरव १७१६, १७२०
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२५६]
व्यवहार भाष्य
ग्रंथाध्ययन का काल ४६५२-७ चेटक ४३६३-६५ छलना ६२६-२८ छेदसूत्र २३६५ जीतव्यवहार १२, ४५२१-४६ ज्ञातविधि २४४९-२५१८ त्यक्तदेह ३८४०, ३८४१ त्वग्दोष २७८२-२८०२ दत्ति ३८११-१६ दृप्तचित्त ११२३-३६ दोषारोपण १२३०-४८ धारणाव्यवहार ४५०३-२० नय ४६६०-६२ निर्जरा २६३३-३६ नैषेधिकी और अभिशय्या ६२-८६ परिहार २१०-१२ परिहारतप ५३५-५६ परिहारी ६२५, ६६०-७६ १०५४-६३ पश्चात्कृत १८६१-६६ पात्र ३५६५-३६५१ पार्श्वस्थ ८३५-५६ पुरुष ४५५५-८८ पूर्वधर ४३८-४४ प्रकल्पधर १५२३ प्रज्ञप्तिकुशल १४६६-१५०५ प्रतिकुंचना १४६ १५० प्रतिक्रमण ६०,६१ प्रतिमा ३७७८-३८८०, ३८३२-८० प्रतिमाप्रतिपन्न ७७७-८३२ प्रतिसेवना ३८-४१, २२१-२८, ४४६१-४५०२ प्रवचनकुशल १४६५-६८ प्रवर्तिनी ६५८, ६५६ प्रव्रज्या २६२६-५२, ४६३७५१ प्रायश्चित्त ३४-१५०, ४१८०-४२२० प्रायश्चित्तवाहक ४७२-७८, ६०४-११ प्रायश्चित्त व्यवहार ४००६-२७ प्रायश्चित्ताह १५९-६४, ४७६-५०२ भक्ति २६७०, २६७१
भिक्षु १८८-६५ मनःपरिणाम २७५८-६८ महत्तरक ६३० महापानध्यान २७०३ महाशिलाकंटकसंग्राम ४३६३-६५ मास १६६-२०६ मिथ्यात्व २७१३, २७१४ मृतपरिष्ठापन ३२५४-३३०८ मोहचिकित्सा १५६६-१६३४, २८०३-१२ यथाछंद ८६०-७५ रथमुशलसंग्राम ४३६३-६५ राजा ६२७, ६२८, १३०१, २४०८, २४०६ राज्य ६२४-५२, ६६३,१५६४-६७ लवसप्तमदेव २४३३, २४३४ वाचना ३०३२-६६, ३२४०-४२ वाद-विवाद ७११-१५, ७५७७५८, ४११३-१५ वास्तु ३७४७४६ विद्या २४३६-४३ विनय ६२-६७ विनयप्रतिपत्ति ४१२६-५५ विवेक १०८, १०६... विष ३०२८-३१ विहार ६६५-१०२६ वृद्धावास २२५६-२२६६ वैयावृत्त्य ५६०-६७, २२७-२४०७, २४३५-३८,
२६२६-३६ ४६७५-८६ व्यतिक्रम ४२, ४३ व्यवहर्त्तव्य १७-३३, १६६२, १६६३ व्यवहार २-१२, १०६४-६८, १६५०-७४, २११७,
२२०७-१५, ३८८१-४५५२ व्यवहारी १३-१६, ३२५-४४, ४०३, ४०४, १६६४-१७२७ व्युत्सर्ग ११०-२४ व्युत्सृष्टकाय ३८३८ ३८३६ शय्यातर ३३०६-४८ शाला ३७२४-३६ शिष्य (अयोग्य) २४६८४ शैक्षभूमि ४६०२-४४ श्रुतत्यवहार ४४३०-३६
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परिशिष्ट
[ २५७
श्रुतव्यवहारी ३२०-४४ संग्रहकुशल १५०६-१४ संघ १२१८, १६७७-६१, १७३६, १७३७ संभोज २३४६-६० संभोज-विसंभोज २८७८-२६२८ संयत ८३४-६१ संयमकुशल १४८९-६४ संलेखना ४२३८-५० संविग्न २४८४, २४८५ संसक्त ८८८-६०
संस्तारक ३३१८, ३३१६, ३३८८-३४७५ साधर्मिक ९८६-६४ सारूपिक १८६७-७६ सूत्रार्थ १८२४-३२, १८५४,१८५५, २६४०-४६ स्तव-स्तुति ३०१६ स्थविरभूमि ४५६७-४६०१ स्थान २१३-२० स्थावरकाय ४६२५-२८ स्वाध्याय १७८५, २११८-५८,३०१७-२७
Page #853
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प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
ग्रन्थ नाम
लेखक, संपा.
संस्करण
प्रकाशक
अंगुत्तरनिकाय अनुयोगद्वार (नवसुत्ताणि)
पालि प्रकाशन मण्डल, बिहार जैन विश्व भारती, लाडनूं
सन् १९८७
सं. भिक्खु जगदीश कस्सपो वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ आ. मलधारी हेमचन्द्र सूरी आ. हेमचन्द्र
अनुयोगद्वार मलधारीय टीका अभिधान चिन्तामणि
सन् १६३६ वि. सं. २०३२
श्री केशरबाई ज्ञानमन्दिर, पाटण श्री जैन साहित्य वर्धकसभा, अहमदाबाद लोगोस प्रेस, नई दिल्ली
अभिधान-राजेन्द्र कोश
आ. विजयराजेन्द्र सूरि
सन् १९८५
अमरकोश
पण्डित अमरसिंह
सन् १६६८
चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी
संपादित, अप्रकाशित
आचारांग नियुक्ति
आ. भद्रबाहु
सं. समणी कुसुमप्रज्ञा आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान डी. एन. श्रीवास्तव
१६८५
आपका बाजार, हास्पिटल रोड, आगरा-३ जैन विश्व भारती, लाडनूं
आयारो
वि. सं. २०३१
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल | आ. जिनदासगणि
आवश्यक चूर्णि भाग I, II
सन् १६२८
आवश्यक नियुक्ति
आ. भद्रबाहु
वि. सं. २०३८
श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम भैरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई आगमोदय समिति, बम्बई
आवश्यक नलयगिरि टीका
आ. मलयगिरि
सन् १६२८ सन् १९८७
जैन विश्व भारती, लाडनूं
आवश्यक सूत्र
वा. प्र. आचार्य तुलसी (नवसुत्ताणि)
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ आवश्यक हारिभद्रीया टीका | आ. हरिभद्र
वि. सं. २०३८
भैरूलाल कन्हैयालाल कोठारी, धार्मिक ट्रस्ट, बम्बई
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प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
[ २५६
ग्रन्थ नाम
लेखक, संपा.
संस्करण -
प्रकाशक
सन् १९८७
जैन विश्व भारती, लाडनूँ
उत्तराध्ययन (नवसुत्ताणि) वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं युवाचार्य महाप्रज्ञ उत्तराध्ययन नियुक्ति
आ. भद्रबाहु
सं. समणी कुसुमप्रज्ञा उत्तराध्ययन शांत्याचार्य टीका | आ. शांत्याचार्य
सम्पादित, अप्रकाशित
सन् १९१७
देवचन्द्रलालभाई जैन, पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई जैन विश्व भारती लाडनूं, राज. आगमोदय समिति, महेसाणा.
एकार्थक कोश
सं. समणी कुसुमप्रज्ञा
सन् १९८४
ओघनियुक्ति
सन् १९१६
आ. भद्रबाहु सं. शूबिंग
कल्पसूत्र
कसायपाहुड
सन् १६४४
भारतीय दिगम्बर चौरासी, मथुरा
सं. पं. फूलचन्द, पं. महेन्द्रकुमार, पं. कैलाशचन्द्र कौटिल्याचार्य सं. वाचस्पति गैरोला
कौटिलीय अर्थशास्त्र
चतुर्थ सं १९६१
चौखम्बा विद्याभवन, बनारस
गणधरवाद
आ. जिनभद्रगणि
सन् १९८२ सं. महोपाध्याय विनयसागर डॉ. अवधबिहारीलाल अवस्थी| सन् १९६८
गरुडपुराण
गोम्मटसार जीवकाण्ड
नेमिचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
सन् १६२७
जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका
आ. शांतिचन्द्र
सन् १९२०
राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयपुर श्रीमती आशा अवस्थी कैलाश प्रकाशन, लखनऊ सैन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाऊस, लखनऊ देवचन्द्र लालभाई, जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद जैन साहित्य संशोधक समिति अहमदाबाद बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, अहमदाबाद
जीतकल्प
आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण
जीतकल्पचूर्णि
सन् १९२६
आ. सिद्धसेनगणि सं. जिनविजयजी
जीतकल्पभाष्य
जिनभद्रगणि सं मुनि पुण्यविजयजी डॉ. जगदीशचन्द्र जैन
चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी
जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज जैन धर्म
पं. कैलाशचन्द्र
सन १६६६,चतुर्थ सं.. भारतीय दिगम्बर जैन संघ, मथुरा
Page #855
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२६०]
व्यवहार भाष्य
ग्रन्थ नाम
लेखक, संपा.
संस्करण
प्रकाशक
डॉ. मोहनचन्द
सन् १६८९
| ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली
जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज जैन साहित्य का इतिहास
पं. कैलाशचन्द
वीर. सं. २४८६
द्वितीय सं १९८९
पं. दलसुख मालवणिया डॉ. मोहनलाल मेहता सं. जिनेन्द्रवर्णी
श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रंथमाला, काशी पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थान, बनारस-५ भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली जैन विश्व भारती, लाडनूं, राज.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज्ञाताधर्मकथा (अंगसुत्ताणि भा.३) ज्ञाताधर्मकथा टीका
सन् १६४४
सन् १६७४
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल आ. अभयदेव सूरि
सन् १९५२
श्री सिद्धचक्रसाहित्य प्रचारक समिति, बम्बई जैन विश्व भारती, लाडनूं, राज.
ठाणं
वि. सं. २०३१
तत्त्वार्थवार्तिक
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल भट्ट अकलंक सं. महेन्द्रकुमार जैन आ. उमास्वाति
वि. स. २००६
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
तत्त्वार्थसूत्र
दसवेआलियं तह
वा. प्र. आचार्य तुलसी वि. सं. २०२३ उत्तरज्झयणाणि
सं. मुनि नथमल दशवैकालिक : अगस्त्यसिंह चूपि सं. मुनि पुण्यविजयजी । | सन् १९७३
सेठ मणिलाल रेवाशंकर जगजीवन जौहरी, बम्बई-२ श्री जैन. श्वेताम्बर तेरापंथ महासभा, कलकत्ता प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी
दशवैकालिक नियुक्ति
संपादित, अप्रकाशित
आ. भद्रबाहु सं. समणी कुसुमप्रज्ञा आ. जिनदासगणि
दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि
वि. सं. २०११
श्री मणिविजयजीगणि ग्रंथमाला, भावनगर सम्पादित, अप्रकाशित
दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति
आ. भद्रबाहु सं. समणी कुसुमप्रज्ञा
देशीशब्दकोश
सन् १९८८
सं. मुनि दुलहराज वीरसेनाचार्य
जैन विश्व भारती, लाडनूं सेठ शीतलराय लक्ष्मीचन्द्र अमरावती
धवला टीका
सन् १६४२
Page #856
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प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
[ २६१
ग्रन्थ नाम
लेखक, संपा.
संस्करण
प्रकाशक
नन्दी (नवसुत्ताणि)
सन् १९८७
जैन विश्व भारती, लाडनूं, राज.
निशीथ (नवसुत्ताणि) निशीथ चूर्णि (भाग-१-४) निशीथ भाष्य
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी जिनदासमहत्तर उपा. अमर मुनि वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल
सन् १९८७ सन् १९८२ सन् १९८२
जैन विश्व भारती, लाडनूं, राज, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा
निसीहज्झयणं
श्री जैन श्वे तेरापंथ महासभा, कलकत्ता
पंचकल्प चूर्णि पंचकल्प भाष्य पद्मपुराण, (भा. १-५)
वि. सं. २०२८ वि. सं. २०१६
कृष्ण द्वैपायन, व्यास आ. हेमचन्द्र .
अप्रकाशित आगमोद्धारक ग्रन्थमाला, पारडी भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, ब्यावर जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर
प्राकृत व्याकरण
वि. सं. २०१६
लय, ब्यावर
प्राकृत शब्दानुशासन
सन् १६५४
त्रिविक्रम देव सं. पी. एल. वैद्य
अप्रकाशित
सन् १६३६
जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर
बृहत्कल्पचूर्णि बृहत्कल्पभाष्य
सं. मुनि पुण्यविजय बृहद् हिन्दी कोश
कालिका प्रसाद भगवती (अंगसुत्ताणि भा. २) | वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं युवाचार्य महाप्रज्ञ
पंचम सं. १९८४
ज्ञानमण्डल, वाराणसी
द्वितीय सं. १६७४
जैन विश्व भारती, लाडनूं
भगवती आराधना
आ. शिवार्य
प्रथम सं. १९७८
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर आगमोदय समिति, बम्बई
भगवती टीका
सन् १६१८
मनुस्मृति
आ. अभयदेव सूरि सं. नारायणराम आचार्य वेदव्यास
सन् १६४६
काव्य-तीर्थ निर्णयसागर प्रेस, बम्बई
महाभारत
सन् १९६१
मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ | सं. शोभाचन्द्र भारिल्ल
सन् १६६५
भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ प्रकाशन समिति, ब्यावर भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली
मूलाचार
इकेर
द्वितीय सं १९६२
Page #857
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२६२]
व्यवहार भाष्य
ग्रन्थ नाम
लेखक, संपा.
संस्करण
प्रकाशक
राजप्रश्नीय टीका
आ. मलयगिरि
वि. सं. १६६४
| गूर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय, अहमदाबाद
गुजरात साहित्य एकेडमी, गांधीनगर
वसुदेवहिंडी
प्र. सं. १९८६
संघदासगणि सं. मुनि चतुरविजयजी मुनि पुण्यविजयजी
विशेषणवती विशेषावश्यकभाष्य
आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण | वीर सं. २४८६ आ. मलधारी हेमचन्द्र वीर सं. २४८६
दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद दिव्य दर्शन कार्यालय, अहमदाबाद
।
विशेषावश्यकभाष्य मलधारीयटीका
|
-
विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञटीका
आ. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण सं. दलसुख भाई मालवणिया सं. मुनि माणेक
लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद वकील त्रिकमलाल अगरचन्द
सन् १६२८
व्यवहारभाष्य (मलयगिरि टीका सहित)
व्यवहारसूत्र (नवसुत्ताणि)
। सन् १९८७
जैन विश्व भारती, लाडनूं
व्यवहार टीका
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ आ. मलयगिरि सं. मुनि माणेक सं. राधाकांत देव
सन् १६२८
वकील त्रिकमलाल अगरचन्द, अहमदाबाद चौखम्बा संस्कृत सिरीज, वाराणसी
शब्दकल्पद्रुम भाग ५
वि. सं. २०२४ (तृतीय संस्करण)
षट्खंडागम
सन् १६४२
सेठ शीतलराय लक्ष्मीचन्द्र, अमरावती
आ. पुष्पदंत, भूतबलि, सं. हीरालाल जैन पं. पन्नालाल सोनी
षट्प्राभृत
वि. सं. १९७७
श्री माणिकचन्द्र दिगंबर जैन ग्रन्थमाला समिति, बम्बई अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, देहली जैन विश्व भारती, लाडनूं, राज.
समयसार
समवाओ
सन् १९८४ -
सामाचारी शतक
आचार्य कुन्दकुन्द वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ समयसुन्दरगणि देवेन्द्र मुनि आ. भद्रबाहु सं. समणी कुसुमप्रज्ञा
वि. सं. १६६६
जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी
१६७०
साहित्य और संस्कृति सूत्रकृतांग नियुक्ति
सम्पादित, अप्रकाशित
Page #858
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प्रयुक्त ग्रन्थ सूची
ग्रन्थ नाम
सूयगडो भाग-१
स्थानांग टीका
A History of the
canonical literature of
the Jainas.
Aspects of Jaina Monasticism
Sanskrit-English Dictionary
History of Indian literature Vol. II
लेखक, संपा
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ अभयदेव सूरि
Hiralal Rasikdas Kapadia
Dr. Nathamal tatia, Muni Mehendra Kumar
V.S. Apte
Maurice Winternitz
संस्करण
सन् १९८४
सन् १६३७
1983
1957
sec. Ad. 1993
प्रकाशक
जैन विश्व भारती, लाडनूं, राज.
सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल
अहमदाबाद
Hiralal Rasikdas Kapadia
Jain Vishva Bharti
Ladnun, Today and
tommorrow
Prasad Prakashan, Pune
Motilal Banarsidas
[ २६३
Page #859
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Page #860
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