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________________ विषयानुक्रम [१२५ १३५३,१३८४. अगीतार्थ की चेष्टाओं की नीलवर्णी सियार से तुलना एवं उपनय। १३८५,१३८६. जंबूक की बुद्धिमत्ता एवं सिंह की पराजय। १३.७. द्रव्य एवं भाव से अप्रशस्त उदाहरण। १३८८,१३८६. द्रमक/भिखारी का दृष्टान्त एवं उसका निगमन। १३९०,१३६१. ग्वाले का दृष्टान्त एवं निगमन। १३६२. द्रव्यतः पलिच्छन्नत्व के दोष। १३६३-१८ लब्धिमान होने पर भी गण-धारण में क्षम नहीं, क्यों? १३६६. गणधारी के गुण। १४००. पूजा के निमित्त गण-धारण का निषेध । १४०१. कर्मनिर्जरण के लिए गण-धारण। १४०२-१४०५. पूजा के निमित्त गण-धारण की अनुज्ञा। १४०६,१४०७. गण-धारण करने वाले को कितने शिष्य देय? १४००-१२. परिच्छद के भेद-प्रभेद तथा उदाहरण। १४१३. द्रव्य-भाव परिच्छद की चतुर्भगी। १४१४,१४१५. भरुकच्छ में वज्रभूति आचार्य की कथा। १४१६. द्रव्य परिच्छद का मूल है-औरस बल और आकृति। १४१७२०. अबहुश्रुत और गीतार्थ की चतुर्भगी तथा प्रायश्चित्त कथन। १४२१-२६. गणधारण के योग्य की परीक्षा-विधि। १४३०-३३. शिष्य का प्रश्न और गुरु द्वारा परीक्षा-विधि का समर्थन। १४३४-४१. राजकुमार के दृष्टान्त से गणधारण की योग्यता का कथन। १४४२. गणधारण के लिए अयोग्य। १४४३. अयोग्य को आचार्य पद देने से हानि।। १४४४-४६. सामाचारी में शिथिलता के प्रसंग में अंगारदाहक का दृष्टान्त। गणधारण के लिए अनर्ह कौन-कौन? १४६५-६७. देशान्तर से आगत प्रव्रजित मुनियों की चर्या। १४६८ पुरुषयुग के विकल्प। १४६६,१४७० सात पुरुष युग। १४७१-७४. स्थविरों को पूछे बिना गण-धारण का प्रायश्चित्त। १४७५,१४७६. स्वगण में स्थविर न हो तो दूसरे गण के स्थविरों के पास उपसंपदा लेने का निर्देश। १४७७-७६. गणधारक उपाध्याय आदि का श्रुत परिमाण तथा अन्यान्य लब्धियां। १४८०. आचारकुशल, प्रवचनकुशल आदि का निर्देश तथा आचारकुशल के भेद। १४८१-८७. आचारकुशल की व्याख्या। १४८८-६४. संयमकुशल की व्याख्या। १४६५-६८. प्रवचनकुशल की व्याख्या। १४६६-१५०५. प्रज्ञप्तिकुशल की व्याख्या। १५०६-१४. संग्रहकुशल की व्याख्या। १५१५-१६. उपग्रहकुशल का विवरण। १५२०,१५२१. अक्षताचार की व्याख्या। १५२२. क्षताचार, सबलाचार आदि पदों की व्याख्या। १५२३. आचारप्रकल्पधर कौन? चार विकल्प। १५२४-२६. आचार्यपद-योग्य के विषय में शिष्य का प्रश्न तथा पुष्करिणी आदि अनेक दृष्टान्तों से आचार्य का समाधान। १५२७. पुष्करिणी का दृष्टान्त। १५२८ आचारप्रकल्प का पूर्व रूप और वर्तमान रूप। १५२६. प्राचीनकाल में चोर विविध विद्याओं से सम्पन्न, आज उनका अभाव। १५३०. प्राचीनकाल में गीतार्थ चतुर्दशपूर्वी, आज प्रकल्पधारी। १५३१. प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा से उपस्थापना, आज दसवैकालिक के चौथे अध्ययन षड्जीवनिकाय से उपस्थापना। १५३२. पहले और वर्तमान में पिंडकल्पी की मर्यादा में अन्तर। १५३३. पहले आचारांग से पूर्व उत्तराध्ययन का अध्ययन, अब दशवैकालिक का अध्ययन। १५३४. पहले कल्पवृक्ष का अस्तित्व अब अन्यान्य वृक्षों की मान्यता। १५३५. प्राचीन और अर्वाचीन गोवर्ग की संख्या में अन्तर। १५३६. प्राचीन एवं अर्वाचीन मल्लों के स्वरूप में अन्तर। १५३७,१५३८. प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रायश्चित्त के स्वरूप में अन्तर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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