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________________ १२४ ] व्यवहार भाष्य १२५०, १२५१.मुनि-वेश में अवधावन के कारणों की मीमांसा। १२५२,१२५३. अवधावित मुनि की शोधि के प्रकार। १२५४. द्रव्यशोधि का वर्णन। १२५५,१२५६. प्रायश्चित्त के नानात्व का कारण। १२५७. क्षेत्रविषयक शोधि। १२५८. काल से होने वाली विशोधि। १२५६-६४. द्रव्य, क्षेत्र आदि के संयोग की विशुद्धि एवं विभिन्न प्रायश्चित्त। १२६५-७६. भावविशोधि की प्रक्रिया। १२७७. सूक्ष्म परिनिर्वापण के दो भेद। १२७८. रोहिणेय का दृष्टान्त लौकिक निर्गपण। १२७६-८२. लोकोत्तर निर्वापण। १२८३,१२८४. प्रतिसेवी और अप्रतिसेवी कैसे? १२८५,१२८६. महातडाग का दृष्टान्त तथा उसका निगमन। १२८७-६१. गच्छ-निर्गत मुनि पुनः गण में आने का प्रतिषेध करता है तो उससे उपधिग्रहण की प्रक्रिया। १२६२-६७. प्रतिसेवना का विवाद और उसका निष्कर्ष । १२६८ व्यक्तलिंग विषयक मुनि के प्रायश्चित्त का निरूपण। १२६६,१३००. एक पाक्षिक मुनि के प्रकार। १३०१. सापेक्ष एवं निरपेक्ष राजा का दृष्टान्त। १३०२-१३०५. इत्वर आचार्य, उपाध्याय की स्थापना विषयक ऊहापोह। १३०६. श्रुत से अनेकपाक्षिक इत्वर आचार्य की स्थापना के दोष। १३०७-१३०६. श्रुत से अनेकपाक्षिक यावत्कथिक आचार्य की स्थापना के दोष। १३१०. स्थापित करने योग्य आचार्य के चार विकल्प। १३११-२१. इत्वर तथा यावत्कथिक आचार्य की स्थापना के अपवाद एवं विविध निर्देश। १३२२-२४. प्रथम विकल्प में स्थापित आचार्य सम्बन्धी निर्देश। १३२५. लब्धि रहित को न आचार्य पद और न उपाध्याय पद आदि। आचार्य के लक्षणों से सहित मुनियों को दिशा-दान-आचार्य पद पर स्थापन। १३२७. आचार्य पद पर स्थापित गीतार्थ मुनियों को उपकरण-दान। १३२८. अनिर्मापित मुनि को गणधर पद देने पर स्थविरों की प्रार्थना। १३२६. उसे संघाटक देने का निर्देश। १३३०-३३. स्थापित आचार्य का गण को विपरिणमित करने का प्रयास और ग्वालों का दृष्टान्त। १३३४-३६. गण द्वारा असम्मत मुनि को आचार्य बनाने पर प्रायश्चित्त। १३३७. परिहारी तथा अपरिहारी के पारस्परिक संभोज का वर्जन। १३३८-४२. परिहार तप का काल और परिहरण विधि। १३४३-४६. परिहार कल्पस्थित मुनि का अशन पान लेने व देने का कल्प तथा अकल्प। १३४७. संसृष्ट हाथ आदि को चाटने पर प्रायश्चित्त। १३४८ आचार्य आदि के आदेश पर संसृष्ट हाथ आदि चाटने का विधान। १३४६. सूपकार का दृष्टान्त। १३५०. बचे हुए भोजन से परिवेषक को देने का परिमाण। १३५१. सूत्र की संबंध सूचक गाथा। १३५२-५६. पारिहारिक की सामाचारी आदि। १३५७-६२. गण धारण कौन करे? सपरिच्छद या अपरिच्छद? १३६२-६४. इच्छा शब्द के निक्षेप। १३६५-६८. गण-शब्द के निक्षेप। १३६६-७. गण-धारण का उद्देश्य-निर्जरा। गणधर को महातडाग की उपमा। गुणयुक्त को गणधर बनाने का निर्देश । १३७३. गणधर प्रतिबोधक आदि पांच उपमाओं से उपमित। १३७४. प्रतिबोधक उपमा का स्पष्टीकरण। १३७५. देशक उपमा की व्याख्या। १३७६,१३७७. सपलिच्छन्न एवं अपलिच्छन्न के विविध उदाहरण एवं कथाएं। १३७८ बुद्धिहीन राजकुमार की कथा। १३७६. भावतः अपलिच्छन्न की व्याख्या। १३८०. लघुस्रोत का दृष्टान्त। १३८१. अगीतार्थ से गण का विनाश । १३८२. जंबूक एवं सिंह की कथा। १३७२. १३२६.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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