________________
१२६ ]
व्यवहार भाष्य
१५३६
पहले चतुर्दशपूर्वी आदि आचार्य आज
युगानुरूप आचार्य। १५४०,१५४१. त्रिवर्ष पर्यायवाला केवल उपाध्याय पद, पांच
वर्ष पर्याय वाला उपाध्याय तथा आचार्य पद
एवं अष्ट वर्ष पर्याय वाला सभी पद के योग्य। १५४२. अपवाद सूत्र। १५४३-४८ तत्काल प्रव्रजित को आचार्य पद क्यों? कैसे? १५४६५३. राजपुत्र, अमात्यपुत्र आदि की दीक्षा, उत्प्रव्रजन,
पुनः दीक्षा तथा पद-प्रतिष्ठापन। १५५४-६०. तत्काल प्रव्रजित राजपुत्र आदि को आचार्य
बनाने के लाभ। १५६१-६६. पूर्व पर्याय को त्याग पुनः दीक्षित होने वाले
राजकुमार आदि को आचार्य पद देने के लाभ। १५६७. श्रुत समृद्ध पर गुणविहीन को आचार्य पद देने
का निषेध। १५६८१५६६. श्रुतविहीन पर लक्षणयुक्त को आचार्य पद देने
की विधि। १५७-७५. स्वगण में गीतार्थ के अभाव में अध्ययन
किसके पात? आचार्य और उपाध्याय-दो का गण में होना
अनिवार्य। १५७७.
नवक, डहरक, तरुण आदि के प्रव्रज्या पर्याय
की अवस्था का निर्देश। १५७८,१५७६. अभिनव आचार्य और उपाध्याय के संग्रह का
निर्देश। १५८०-८७. नए आचार्य का अभिषेक किए बिना पूर्व
आचार्य के कालगत होने की सूचना देने से
हानियां। १५८८ गण में आचार्य और उपाध्याय के भय से
आचार-पालन में सतर्कता। १५८६.
प्रवर्तिनी की निश्रा में साध्वियों के
आचार-पालन में तत्परता। १५८६/१. स्त्री की परवशता और उसका संरक्षण। १५६०,१५६१. स्त्री परवश क्यों? १५६२,१५६३. मुनि की गणस्थिति के लिए आचार्य, उपाध्याय
अनिवार्य। साध्वी की गणस्थिति के लिए 'आचार्य-उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी की अनिवार्यता-उत्सर्ग और अपवाद ।
१५६४,१५८५. गण से अपक्रमण कर मैथुनसेवी मुनि को तीन
वर्ष तक कोई भी पद देने का निषेध। १५६६-६६. सापेक्ष एवं निरपेक्ष मैथुनसेवी का विस्तृत
वर्णन। १६००-१०. मोहोदय की चिकित्सा-विधि। १६११-१४. आचार्य आदि पदों के लिए यावज्जीवन अनर्ह
व्यक्तियों का दृष्टान्तों से विमर्श।। १६१५-२३. वेदोदय के उपशान्त न होने पर परदेशगमन
तथा अन्यान्य उपाय। १६२४-२७. पुनः लौटने पर गुरु के समक्ष आलोचना एवं
प्रायश्चित्त। १६२८
प्रतिसेवी मुनि को तीन वर्ष तक वंदना न करने
का विधान। १६२८-३३. तीन वर्ष में यदि वेदोदय उपशान्त न हो तो
यावज्जीवन पद के लिए अनह। १६३४. महाव्रत के अतिचारों का प्रतिपादन। आचार्य
की स्थापना का विवेक। १६३५, १६३६.अभीक्ष्ण मायावी, मैथुनप्रतिसेवी, अवधानकारी
मुनि बहुश्रुत होने पर भी आचार्यादि पद के
लिए यावज्जीवन अनर्ह । १६३७-३६. एकत्व बहुत्व का विमर्श । १६४०. अशुचि कौन? मायावी। १६४१,१६४२. अशुचि के दो भेद। १६४३-४७. मायावी आदि मुनि सूरि पद के लिए अनर्ह । १६४८ मायावी का अनाचरण। १६४६. मायावी कौन? १६५०-५४. संघ में सचित्त आदि के लिए विवाद होने पर
उसके समाधान की विधि। . १६५५-५६. संघ की घोषणा पर मुनि को अवश्य जाने का
निर्देश और न जाने पर प्रायश्चित्त। १६६०,१६६१. सचित्त के निमित्त विवाद का समाधान। १६६२-६६. प्रतिपक्ष के बलवान होने पर व्यवहारछेत्ता का
कर्तव्य। १६६७,१६६८ संघ-मर्यादा की महानता एवं विभिन्नता। १६६-७४. पर्षद् का विवाद निपटाने की प्रक्रिया। १६७५,१६७६. तीर्थंकर की आज्ञा ही प्रमाण। १६७७-८१. संघ की विशेषता और उसकी सपरीक्षित
कारिता।
१५७६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org