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________________ विषयानुक्रम [ १२७ १६८२-८५. आचार्य आदि ही नहीं किन्तु संयमाराधना संसार-मुक्ति का साधन। १६८६. संघ को शीतगृह की उपमा क्यों? १६८७. संघ शब्द की व्युत्पत्ति। १६८८-६१. असंघ की व्याख्या और परिणाम। १६६२. संघ में रहकर कहीं भी प्रतिबद्ध न होने का निर्देश। १६६३. व्यवहारछेदक के दो प्रकार। १६६४-१७०२. आचार्य के आठ अव्यवहारी एवं व्यवहारी शिष्यों का स्वरूप। १७०३,१७०४. दुर्व्यवहारी का फल। १७०५-१७०७. आठ व्यवहारी शिष्यों के नाम और उनके व्यवहार का सुफल। १७०८,१७०६. युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटी ग्रहण करने वाला व्यवहारी। १७१०-१२. व्यवहारकरण योग्य कौन? १७१३. अव्यवहारी का स्वरूप। १७१४. राग-द्वेष रहित व्यवहार का निर्देश । १७१५-१७. स्वच्छंदबुद्धि का निर्णय अश्रेयस्कर और उसका प्रायश्चित्त। गौरव रहित होकर व्यवहार करने का निर्देश । १७१६-२५. आठ प्रकार के गौरव और उनका परिणाम। १७२६,१७२७, व्यवहार और अव्यवहार की इयत्ता और परिणति। १७२८ गणी का स्वरूप। १७२६. कालविभाग से दो या तीन साधु के विहार का कल्प-अकल्प। १७३०. बृहद्गगच्छ से सूत्रार्थ में हानि। १७३१. पंचक और सप्तक से युक्त गच्छ तथा जघन्य और मध्यम गच्छ का परिमाण। १७३२. ऋतुबद्धकाल में पंचक और वर्षाकाल में सप्तक से हीन को प्रायश्चित्त। १७३३. उपर्युक्त गच्छ परिमाण का सूत्रार्थ से विरोध । १७३४-४७. दो मुनियों के विहरण के कारणों का निर्देश एवं उनकी व्याख्या। १७४८,१७४६. वर्षावास में वसति को शून्य न करने का निर्देश। १७५०-६२. वसति को शून्य करने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त। १७६३-६५. वर्षावास में दो मनियों का साथ कैसे? १७६६,१७६७. वर्षावास के योग्य जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र। १७६८ वर्षावासयोग्य उत्कृष्ट क्षेत्र के तेरह गुण। १७६६. अयोग्य क्षेत्र में वर्षावास बिताने से प्रायश्चित्त। १७७०,१७७१. कीचड़युक्त प्रदेश के दोष। १७७२. प्राणियों की उत्पत्ति वाले प्रदेश के दोष। १७७३. संकड़ी वसति में रहने के दोष। १७७४-७८ दूध न मिलने वाले प्रदेश में रहने के दोष। १७७६. जनाकुल वसति में रहने के दोष। १७८०. वैद्य और औषध की अप्राप्ति वाले स्थान के दोष। १७८१. निचय और अधिपति रहित स्थान के दोष। १७८२. अन्यतीर्थिक बहुल क्षेत्रावास से होने वाले दोष। १७८३,१७८४. सुलभभिक्षा वाले क्षेत्र में स्वाध्याय, तप आदि की सुगमता। १७८५. संग्रह, उपग्रह आदि पंचक का विवरण। १७८६,१७८७. उत्कृष्ट गुण वाले वर्षावासयोग्य क्षेत्र में तीन मुनियों के रहने से होने वाले संभावित दोष। बालक को वसतिपाल करने के दोष। १७८६. आचार्य के रहने से वसति के दोषों का वर्जन। १७६०-६२. दो-तीन मुनियों के रहने से समीपस्थ घरों से गोचरी का विधान। १७६३-६७. एक ही क्षेत्र में आचार्य और उपाध्याय की परस्पर निश्रा। १७६८-१८००. एकाकी और असमाप्तकल्प कैसे? १८०१. स्थविरकृत मर्यादा। १८०२. सूत्रार्थ के लिए गच्छान्तर में संक्रान्त होने पर क्षेत्र किसका? १८०३. तीन और सात पृच्छा से होने वाले क्षेत्र का आभवन। १८०४,१८०५. अक्षेत्र में उपाश्रय की मार्गणा कैसे? १८०६. उपाश्रय के तीन भेद। १८०७,१८०८. उपाश्रय-निर्धारण की विधि। १८०६. प्रव्रज्या विषयक उपाश्रय की पृच्छा। १८१०-१७. प्रव्रज्या के इच्छुक व्यक्ति को विपरिणत करने के नौ कारणों का निर्देश। १७८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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