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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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शंख बजाकर दूसरो को भी समय की सूचना देता रहता है। वैसे ही परोक्षागम व्यवहारी भी दूसरों की शोधि और आलोचना को सुनकर आलोचक के यथावस्थित भावों को जान लेते हैं। वे आलोचक को पश्चात्ताप की उत्कटता-अनुत्कटता के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं। ___ जैसे परोक्ष आगम व्यवहारी श्रुतबल से जीव, अजीव आदि की पर्यायों को सब नयों से जानते हैं वैसे ही दूसरों के भावों को भी श्रुतबल से जानकर उसकी शोधि के लिए प्रायश्चित्त देते हैं।
आगम व्यवहारी दूसरों के द्वारा आलोचना करने पर तथा उसे सुनकर ही व्यवहार या प्रायश्चित्त का प्रयोग करते हैं। यदि शोधिकर्ता मुनि कषाय के वशीभूत होकर प्रतिसेवना के अतिचारों की सम्यक् रूप से आलोचना नहीं करता, जानबूझकर दोषों को छिपाता है तो आगमव्यवहारी उसे अन्यत्र आलोचना करने की बात कहते हैं। आलोचक यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव से विशुद्ध रूप से आलोचना करता है तो आगम व्यवहारी उसके प्रति व्यवहार का प्रयोग करते हैं, अन्यथा नहीं।
यदि आलोचक प्रतिसेवना के अतिचारों की यथाक्रम आलोचना नहीं करता तो भी आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। यदि कोई व्यक्ति सहजता से अपने अपराध को भूल गया है, उसमें माया नहीं है तो आगम व्यवहारी उसे अपराध की स्मृति दिला देते हैं। स्मृति दिलाने पर यदि वह उस अपराध को सम्यक् रूप से स्वीकृत कर लेता है तो प्रायश्चित्त देते हैं अन्यथा अन्यत्र शोधि करने की बात कहते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि आगम एवं आलोचना में विषमता या भेद देखते हैं तो आगम व्यवहारी उसे प्रायश्चित्त नहीं देते। श्रुतव्यवहारी
श्रुतव्यवहारी श्रुत का अनुवर्तन करते हैं। दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार आदि छेदसूत्रों के ज्ञाता तथा कल्प और व्यवहार की नियुक्ति को जानने वाले श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं।
परोक्षज्ञानी आलोचक से तीन बार उसकी प्रतिसेवना सुनते हैं, जिससे वे उसकी माया या ऋजुता को जान सकें। प्रथम बार में नींद का अभिनय करते हुए सुनते हैं, दूसरी बार आलोचना करने पर कहते हैं-मैंने अनुपयुक्त होकर सुना। अतः तुम्हारी आलोचना को धारण नहीं किया, पुनः आलोचना करो। यदि तीनों बार में आलोचक सदृश आलोचना करता है तो श्रुतव्यवहारी जान लेते हैं कि यह ऋजुता से आलोचना कर रहा है और यदि तीनों बार आलोचना करने पर भिन्नता रहती है तो वे उसकी माया या कुटिलता को जान लेते हैं। अतः वे माया और ऋजुता के अनुसार श्रुत के आधार पर व्यवहार करते हैं। ___लौकिक न्याय करते समय भी न्यायकर्ता अपराधी से तीन बार वस्तुस्थिति का ज्ञान करते थे। यदि अपराधी विसदृश बोलता है तो उसे राजकुल में मृषा बोलने एवं माया करने का अधिक दंड मिलता था।
परोक्षज्ञानी प्रतिसेवी का इंगित, आकार अर्थात् शरीरगत भाव-विशेष देखता है। जो विशुद्ध रूप से आलोचना करता है उसके शरीर के सारे आकार-प्रकार वैराग्य भाव के द्योतक होते हैं। स्वर से भी परोक्षज्ञानी प्रतिसेवक की भावशुद्धि को जान लेते हैं। विशुद्ध भाव से आलोचना करने वाले का स्वर अक्षुब्ध, अव्याकुल एवं स्पष्ट होता है। परोक्षज्ञानी वाणी से भी प्रतिसेवक की परीक्षा करते हैं। विशुद्ध भाव से आलोचना करने वाले की वाणी पूर्वापर विसंवादी नहीं होती। आलोचक का आकार, स्वर और वाणी-तीनों संतुलित होते हैं तो परोक्ष ज्ञानी जान जाता है कि यह माया से नहीं अपितु विशुद्ध भाव से आलोचना कर रहा है। जिस प्रकार चिकित्सक रोग के अनुसार औषध देता है, अधिक या कम नहीं, वैसे ही आगम व्यवहारी एवं श्रुतव्यवहारी भी
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१. व्यभा.४०४६, व्यभा.५१३-१६। २. व्यभा. ४०४८ जीभा १२३। ३. व्यभा. ४०५५, ४. व्यभा. ४०६५ भआ ६२०।
व्यभा. ४०६६-६६। ६. जीचू-पृ. ४: जे पुण सुयववहारी ते सुयमणुयत्तमाणा। ७. व्यभा. ३२०, ४४३२-३५। ८ व्यभा. ३२०, ३२१ टी. प. ४३ । ६ व्यभा. ३२२ टी. प. ४४। १०. व्यभा. ३२३।
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