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व्यवहार भाष्य
जितने प्रायश्चित्त से व्यक्ति की शुद्धि होती है, उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं। अंतिम तीन व्यवहारी श्रुत का ही अनुवर्तन करते हैं।
व्यवहर्त्तव्य
पांच व्यवहारों द्वारा कर्ता (व्यवहारी) जो निष्पादित करना चाहता है, वह व्यवहर्त्तव्य है। व्यवहर्त्तव्य कार्य के योग से पुरुष भी व्यवहर्त्तव्य कहलाते हैं। अर्थात् जिसके प्रति व्यवहार द्वारा प्रायश्चित्त का प्रयोग किया जाता है, वह व्यवहर्त्तव्य है। वह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है।
द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य के अन्तर्गत चोर, पारदारिक, हिंसक आदि का ग्रहण किया जा सकता है। इसी प्रकार जात सूतक और मृतक सूतक तथा शूद्र आदि के घरों पर भोजन करने से ब्राह्मणों द्वारा जो बहिष्कृत कर दिए जाते हैं अर्थात् जिनसे बोल-चाल बंद कर दी जाती हो, वे ब्रह्महत्या या माता-पिता की हत्या करने वाले के समान पापी माने जाते हैं। वे यदि अपने दोष को स्वीकार नहीं करते अथवा स्वीकार करते हुए सम्यग् आलोचना नहीं करते अथवा बहाना बनाकर बात को अन्य रूप से प्रस्तुत करते हैं, वे भी द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य कहलाते हैं। जैसे-किसी ब्राह्मण ने अपनी पुत्रवधू या चंडालिन के साथ अकृत्य कर लिया फिर प्रायश्चित्त के समय चतुर्वेदी ब्राह्मण के पास उपस्थित होकर कहता है कि मैंने स्वप्न में पुत्रवधू या चंडालिन के साथ अगम्य व्यवहार कर लिया है। यह लौकिक द्रव्य-व्यवहर्तव्य है। सुरा आदि का सेवन कर प्रायश्चित्त करते समय वह कहता है-मैंने स्वप्न में सुरापान किया था। यह भी लौकिक व्यवहर्त्तव्य है। इन दोनों उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्रायश्चित्त करने वाले के मन में विशुद्धि नहीं है, माया है। यह द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य है।
मानसिक अवस्थाओं के आधार पर लोकोत्तर द्रव्य एवं भाव व्यवहर्त्तव्य को विभिन्न रूपों में व्याख्यायित किया गया है। लोकोत्तर द्रव्य व्यवहर्त्तव्य वह है, जो परप्रत्यय से अपनी विशोधि करता है। वह सोचता है मुझे दोष-सेवन करते हुए आचार्य, उपाध्याय अथवा किसी मुनि ने देख लिया है, इसलिए मुझे आलोचना करनी चाहिए। यह सोचकर वह बड़े दोष का सेवन कर लघु दोष की आलोचना करता है तथा स्वकृत दोष को परकृत दोष बताता है। इसके अतिरिक्त अकारण अतिचारों का प्रतिसेवी, अनुताप रहित अथवा अपने दोषों को देशतः-सर्वतः छिपाने वाला भी द्रव्य-व्यवहर्त्तव्य है।
भाष्यकार ने कुम्हार एवं साधु की घटना का उल्लेख करते हुए उनकी क्षमायाचना को अव्यवहर्त्तव्य बताया है क्योंकि वहां प्रमाद से विरति नहीं, किन्तु गलती की पुनरुक्ति है।
लोकोत्तर भाव व्यवहर्त्तव्य वह होता है, जो गीतार्थ हो या अगीतार्थ, अपनी प्रतिसेवना को सद्भाव से कहता है और प्रायश्चित्त कर लेता है। वह अवक्र, अकुटिल, निरहंकारी, अलोभी, कारण-प्रतिसेवी, प्रियधर्मा, बहुश्रुत, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरु
और सूत्रार्थविद् होता है। कुछ आचार्यों का इसमें मतान्तर भी है। उनके अनुसार जो वक्र, मायावी आदि होते हैं, वे यदि सद्भावपूर्वक आलोचना करते हैं तो वे लोकोत्तर भाव-व्यवहर्त्तव्य माने गए हैं। जानबूझकर प्रतिसेवना करने वाले को लोकोत्तरिक भाव-व्यवहर्त्तव्य क्यों स्वीकृत किया इसके उत्तर में टीकाकार कहते हैं कि प्रायश्चित्त का इच्छुक होने के कारण वह मुनि जिनाज्ञा के अभिभुख है, उसमें जिनाज्ञा के प्रति प्रद्वेष नहीं है, वह अंतःकरण की विशुद्धि एवं यतनापूर्वक प्रतिसेवना में प्रवृत्त होता है, अतः वह भाव-व्यवहर्त्तव्य है।
ग्रंथकार ने भंगों के आधार पर भी भाव-व्यवहर्त्तव्य की व्याख्या प्रस्तुत की हैकदाचित कारण उपस्थित होने पर जो अयतना से दोष सेवन करता है, वह भी भावव्यवहर्त्तव्य है फिर यतना से दोषसेवन
१. व्यभा.३२६ । २. जीचू.पृ.४। ३. व्यभा.२ टी. प. ४ : तेन च पंचविधेन व्यवहारेण करणभूतेन व्यवहरन् कर्ता यन्निष्पादयति कार्यं तद् व्यवहर्त्तव्यमित्युच्यते व्यवहर्त्तव्यकार्ययोगात् पुरुषा
अपि व्यवहर्तव्याः। ४. व्यभा.१७, १८टी. प. १०॥ ५. व्यभा. १६टी. प. ११ ६. व्यभा.२४॥ ७. व्यभा. २५। ८. व्यभा.१६, २०।।
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