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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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करने वाले का तो कहना ही क्या?
अकृत्य सेवन करते समय जो यह चिन्तन करे कि मैं प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि कर लूंगा, वह भी भाव-व्यवहर्त्तव्य है।
• विशेष कारण उपस्थित होने पर या नहीं होने पर यतना से या अयतना से अकृत्य सेवन करके जो सद्भाव रूप से गुरु के समीप अपनी आलोचना कर लेता है, वह भाव व्यवहर्त्तव्य है।
• जो प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्न, पापभीरु एवं सूत्रार्थविद् होते हैं, वे सब भाव-व्यवहर्त्तव्य हैं।
भाष्यकार के अनुसार अगीतार्थ के साथ व्यवहार नहीं करना चाहिए। वे यथार्थ निर्णय करने पर उसे स्वीकार नहीं करते अतः वे अव्यवहर्त्तव्य होते हैं। गीतार्थ व्यवहर्त्तव्य होता है क्योंकि वह किसी भी परिस्थिति को सही रूप में स्वीकार करता है। इस प्रसंग में भाष्यकार ने दो गीतार्थों में सचित्तादि वस्तु को लेकर उत्पन्न विवाद एवं उनके विधायक दृष्टिकोण की चर्चा की है।
___ व्यवहार के द्वारा दोषविशुद्धि हेतु व्यवहारी जो प्रायश्चित्त देता है, वह भी व्यवहर्तव्य है। उसके आलोचना, प्रतिक्रमण आदि दस भेद हैं। जो इन प्रायश्चित्तों का वहन करते हैं अथवा जिन पर इन प्रायश्चित्तों का प्रयोग किया जाता है, वे भी व्यवहर्तव्य
हैं।
प्रायश्चित्त
दोषविशुद्धि के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है। जिसके द्वारा चित्त की विशोधि होती है, वह प्रायश्चित्त है। दोषों की लघुता एवं गुरुता के आधार पर प्रायश्चित्त के दस भेद किए गए हैं-१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८ मूल, ६. अनवस्थाप्य, १०. पारांचित।
तत्त्वार्थ सूत्र में प्रायश्चित्त के नौ भेदों का वर्णन मिलता है। वहां मूल, अनवस्थाप्य और पारांचित्त-इन तीन प्रायश्चित्तों के स्थान पर परिहार एवं उपस्थापना- इन दो प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर साहित्य में नौ प्रायश्चित्तों का ही उल्लेख है। आचार्य अकलंक कहते हैं कि जीव के परिणाम असंख्येय हैं तथा अपराध भी उतने ही हैं लेकिन प्रायश्चित्त के भेद उतने नहीं हैं। ये भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से समुच्चय रूप में कहे गए हैं। प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन व्यवहार की पीठिका में मिलता है।
आचार-विशद्धि की तरतमता के आधार पर निर्ग्रन्थ के पांच प्रकार हैं-१. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ, ५. स्नातक।
निर्ग्रन्थों को दिए जाने वाले प्रायश्चित्तों का क्रम इस प्रकार है• पुलाक निर्ग्रन्थ को व्युत्सर्ग तक प्रथम छह प्रायश्चित्त दिए जाते हैं।
• बकुश एवं प्रतिसेवना कशील में जो स्थविरकल्पी होते हैं, उनके लिए दस तथा जिनकल्पिक के लिए आठ प्रायश्चित्तों का विधान है।१४
१. व्यभा-२१॥ २. व्यभा.२२। ३. व्यभा.२३ । ४. व्यभा-२६॥ ५. व्यभा. २७, २८ टी. प. १३, १४ । ६. जीभा.५। ७. व्यभा. ४१७६, ४१८०, ठाणं १०/७३ ८ त.६/२२। ६. मूला. ३६२। १०. तत्त्वार्थ वार्तिक ६/२२ पृ. ६२२ । ११. व्यभा-५३-१३५। १२. व्यभा.४१८४। १३. व्यभा.४१८६। १४. व्यभा.४१८५।
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