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व्यवहार भाष्य
प्रायश्चित्तों के ज्ञाता.' आलोचना के दस दोषों के ज्ञाता, व्रत षटक, कायषट्क आदि के ज्ञाता तथा जाति सम्पन्न, कुल सम्पन्न आदि १० गुणों से युक्त, षट्स्थान पतित स्थानों को साक्षात् रूप से जानने वाले तथा राग-द्वेष रहित मुनि/आचार्य आगम व्यवहारी होते हैं। आगम व्यवहारी जिनेन्द्र की आज्ञा से व्यवहार का प्रयोग करते हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश के समक्ष दीपक का प्रकाश नगण्य है वैसे ही आगम व्यवहारी आगम व्यवहार का ही प्रयोग करते हैं, श्रुत आदि व्यवहार का नहीं।
आगम व्यवहारी अतिशय ज्ञानी होते हैं अतः वे प्रायश्चित्ताकांक्षी व्यक्ति के संक्लिष्ट, विशुद्ध एवं अवस्थित परिणामों को साक्षात् जान लेते हैं। इसलिए वे उतना ही प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से आलोचक की विशुद्धि हो सके।
आगम व्यवहारी छह हैं-केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी एवं नौ पूर्वी। केवलज्ञानी, मनः-पर्यवज्ञानी एवं अवधिज्ञानी आगमतः प्रत्यक्ष व्यवहारी हैं। चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी एवं गंधहस्ती आचार्य आगमतः परोक्ष व्यवहार का प्रयोग करते हैं।
यहां एक प्रश्न उपस्थित होता है कि चतुर्दशपूर्वी आदि श्रुत से व्यवहार करते हैं तो फिर उन्हें आगम व्यवहारी क्यों कहा गया? रूपक के माध्यम से इसका समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं-चतुर्दशपूर्वी आदि प्रत्यक्ष आगम के सदृश हैं इसलिए इन्हें आगम व्यवहार के अन्तर्गत गिना है। जैसे चन्द्र के समान मुख वाली कन्या को चन्द्रमुखी कहा जाता है वैसे ही आगम सदृश होने के कारण पूर्वो के ज्ञाता भी आगम व्यवहार के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। इसका दूसरा हेतु यह है कि पूर्वो का ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों का विशिष्ट अवबोधक होता है, अतिशायी ज्ञान होने के कारण इसे आगम व्यवहार के अन्तर्गत लिया गया है। दूसरा हेतु यह है-जैसे केवली सब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से पदार्थों को जानते हैं वैसे श्रुतज्ञानी भी इनको श्रुत के बल से जान लेते हैं अतः चतुर्दशपूर्वी आदि को आगम व्यवहारी के अन्तर्गत रखा है।"
जिस प्रकार प्रत्यक्ष आगमज्ञानी प्रतिसेवक की राग-द्वेष विषयक हानि-वृद्धि के आधार पर कम या ज्यादा प्रायश्चित्त देते हैं। उपवास जितने प्रायश्चित्त की प्रतिसेवना करने पर पांच दिन का प्रायश्चित्त दे सकते हैं तथा पांच दिन जितनी प्रतिसेवना करने वाले को उपवास का प्रायश्चित्त दे सकते हैं। वैसे ही चतुर्दशपूर्वी आदि भी आलोचक की राग-द्वेष की वृद्धि एवं हानि के आधार पर प्रायश्चित्त प्रदान करते हैं।१३
प्रत्यक्ष ज्ञानी न्यून या अधिक प्रायश्चित्त क्यों देते हैं? इसके स्पष्टीकरण में भाष्यकार ने रत्नवणिक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। जैसे- निपुण रत्नवणिक् आकार में बड़ा होने पर भी काचमणि का काकिणी जितना ही मूल्य देता है तथा वज्र आदि छोटे रत्न का भी एक लाख मुद्रा मूल्य दे देता है।
एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि प्रत्यक्ष आगमज्ञानी तो प्रतिसेवक के भावों को साक्षात् जानते हैं लेकिन चतुर्दशपूर्वी आदि परोक्ष आगम व्यवहारी दूसरों के भावों को कैसे जानकर व्यवहार करते हैं? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने नालीधमक का उदाहरण प्रस्तुत किया है। जैसे नालिका से पानी गिरने पर समय की अवगति होती है। नालिका द्वारा समय जानकर धमक
१. व्यभा.४१८० ठाणं १०/७३ । २. व्यभा. ५२३; ठाणं १०/७०। ३. व्यभा. ५२१, ५२२; ठाणं १०/७१ । ४. व्यभा.४०७०-४१६११ ५. व्यभा. ४१६२। ६. व्यभा.३९८४ : आगमववहारी आगमेण ववहरति सो न अन्नेणं।
न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति॥ ७. जीचू. पृ. ४ आगमववहारी अइसइणो संकिलिस्समाणं विसुज्झमाणं अवट्ठियपरिणामं वा पच्चक्खमुवलभन्ति, तावइयं च से दिन्ति जावइएण विसुज्झइ। ८ व्यभा.३१८ जीचू. पृ. २। ६ व्यभा. ४०३७। १०. व्यभा. ४०३५ टी. प. ३१। ११. भटी.प. ३८४: श्रुतं शेषमाचारप्रकल्पादिनवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति। १२. व्यभा.४०३६। १३. व्यभा. ४०४०, ४०४१। १४. व्यभा.४०४३-४५।
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