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आशीर्वचन
जैन आगम ज्ञान के अक्षय कोष हैं। आगम साहित्य का प्रत्येक ग्रन्थ अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। ढाई हजार वर्षों के इस लम्बे अन्तराल में आगम ग्रन्थों पर काफी काम हुआ है। आगमों में निहित ज्ञानराशि को विस्तार देने के लिए इन पर व्याख्या ग्रन्थ लिखे गए। कुछ व्याख्याएं संक्षिप्त हैं, कुछ विस्तृत हैं। भाष्यकार आचार्यों ने अपने कार्य को बहुत विस्तार देने का प्रयास किया। निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प आदि छोटे-छोटे आगमों पर बृहद् भाष्य लिखकर उन्होंने जैन शासन की अनेक मूल्यवान् परम्पराओं को सुरक्षित रख लिया। उक्त तीनों आगम छेदसूत्रों में आते हैं। छेदसूत्रों पर विदेशी विद्वानों ने भी अच्छा काम किया है।
हमने अपने धर्मसंघ में आगम-सम्पादन का कार्य शुरू किया, उसी समय हमारा संकल्प था कि हमें मूल आगमों के साथ व्याख्या ग्रंथों पर भी काम करना है। बत्तीसी के रूप में विश्रुत आगम-सम्पादन का हमारा काम चल ही रहा है। आचार्य महाप्रज्ञ उसमें प्रारम्भ से ही संलग्न हैं। उनके निर्देशन में अनेक साधु-साध्वियां काम कर रही हैं। व्याख्या-साहित्य के सम्पादन में सबसे पहले व्यवहार सूत्र के भाष्य का काम हाथ में लिया गया।
'व्यवहार भाष्य' आकार में निशीथ और बृहत्कल्प से थोड़ा छोटा हो सकता है, पर इसका संपादन बहुत ही जटिल प्रतीत हो रहा था। इसका एक कारण था भाष्य और नियुक्ति का सम्मिश्रण। कोई भी काम कितना ही जटिल क्यों न हो, संकल्प और पुरुषार्थ का प्रबल योग हो तो उसे सहजता से सम्पादित किया जा सकता है। हमने इस कार्य में 'समणी कुसुमप्रज्ञा' को नियोजित किया। कोई भी अकेला व्यक्ति इतना बड़ा काम नहीं कर सकता। उसे भी मार्गदर्शन और सहयोग की अपेक्षा थी। संघीय जीवन में यह सुविधा सरलता से मिल सकती है। उपयुक्त मार्गदर्शल और अपेक्षित सहयोगियों के अभाव में काम लम्बा हो जाता है। अनेक व्यक्तियों की निष्ठा और लगन से व्यवहार भाष्य के संपादन का कार्य संपन्न हुआ। इस कार्य में जितना श्रम और समय लगा, उसका अनुभव कार्य करने वालों को ही नहीं, देखने वालों को भी हुआ।
प्रसन्नता की बात यह है कि यह काम हमारे धर्मसंघ की समणी कुसुमप्रज्ञा ने किया है। महिलाओं द्वारा किए गए ऐसे गुरुतर कार्य को उपलब्धि माना जा सकता है। शताब्दियों में यह प्रथम अवसर होगा, जब साध्वियां और समणियां इस रूप में आगम कार्य में अपना योगदान कर रही हैं। मैं इस कार्य को श्रुत की उपासना और संघ की सेवा के रूप में स्वीकार करता हूं। भाष्य-सम्पादन के साथ-साथ नियुक्ति का पृथक्करण, इसके परिशिष्ट और भूमिका अपने आपमें एक शोध कार्य है। विद्वद् जगत् में इस कार्य का पूरा मूल्यांकन और उपयोग होगा, ऐसा विश्वास है।
गणाधिपति तुलसी
३१ मई १६६६ जैन विश्व भारती, लाडनूं भिक्षु विहार
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