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व्यवहार भाष्य
अव्यवहारी शिष्यों के आठ दोष इस प्रकार हैं
१. कांकटुक : जैसे कोरडू धान्य अग्नि पर पकाने पर भी नहीं पकता वैसे ही कोरडूधान्य तुल्य व्यक्ति का व्यवहार दुछेद्य होता है, सिद्ध नहीं होता।
२. कुणप : जैसे शव का मांस धोने पर भी पवित्र नहीं होता वैसे ही कुणप तुल्य व्यक्ति का व्यवहार निर्मल नहीं होता।
३. पक्व : पक्व फल नीचे गिर जाता है। पक्व फल जैसे व्यक्ति का व्यवहार स्थिर नहीं रहता, गिर जाता है। जैसे चाणक्य के संन्यास लेने पर चन्द्रगुप्त की लक्ष्मी स्थिर नहीं रही, गिर गई। पक्व का दूसरा अर्थ करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि वह इस प्रकार रांभाषण करता है कि दूसरे सद्वादी भी मौन हो जाते हैं। पंचकल्पचूर्णि में पक्व का अर्थ इस प्रकार किया है-भैंस पानी पीने के लिए तालाब में उतरती है, वह सारे पानी को गुदला देती है। उसी प्रकार पक्व भी व्यवहार को जटिल बना देता है।
४. उत्तर : छलपूर्वक, उत्तर देने वाला। वह प्रतिसेवी के साथ दुर्व्यवहार करता है और गीतार्थ मुनि द्वारा उपालम्भ देने पर उन्हें छलपूर्वक उत्तर देता है। जैसे एक व्यक्ति ने दूसरे पर लात से प्रहार किया। पूछने पर कहता है-मैंने पैरों से प्रहार नहीं किया जूते पहने पैर ने प्रहार किया था।
५. चार्वाक : जो व्यर्थ ही निष्फल प्रयत्न करता है और बार-बार उसी का चर्वण करता है, उसका व्यवहार चार्वाक तुल्य होता है।
६. बधिर : बधिर की भांति कहता रहता है कि मैंने प्रतिसेवना सुनी नहीं। ७. गुंठ : माया से व्यवहार की समाप्ति करने वाला (देखें-परिशिष्ट ८ कथा सं ८६)
८. अम्ल : तीखे वचन बोलने वाला। उसके वचनों से व्यवहार का निबटारा नहीं होता। पंचकल्पचूर्णि में इसका अर्थ अंधा व्यवहार किया है।
ये आठों प्रकार के शिष्य अव्यवहारी थे। अव्यवहारी व्यक्तियों की इहलोक में अपकीर्ति तथा परलोक में दुर्गति होती है। इसलिए बहुश्रुत होने पर भी जो अन्याय करता है, न्यायोचित व्यवहार नहीं करता, वह प्रमाण नहीं होता।
आचार्य के जो आठ व्यवहारी शिष्य थे. उनके नाम इस प्रकार हैं-१.पुष्यमित्र, २. वीर, ३. शिवकोष्ठक, ४. आर्यास, ५. अर्हन्नक, ६. धर्मान्वग, ७. स्कंदिल, ८ गोपेन्द्रदत्त। ये अपने युग में प्रधान व्यवहारच्छेदक माने जाते थे। अन्यान्य । राज्यों में भी उनके व्यवहार की छाप थी। कोई उनको चुनौती नहीं दे सकता था। ऐसे सुव्यवहारी मुनियों की इहलोक में कीर्ति
और परलोक में सुगति होती है। व्यवहारी की योग्यता
व्यवहार करने का अधिकार उसे प्राप्त होता है, जो मुनि युगप्रधान आचार्य के पास तीन परिपाटियों से व्यवहार आदि ग्रंथों का सम्पूर्ण रूप से सम्यक् अवबोध प्राप्त कर लेता है। वे तीन परिपाटियां ये हैं
१. सूत्रार्थ का परिच्छेद पूर्वक उच्चारण। २. पदविभाग पूर्वक पारायण। ३. निरवशेष पारायण।
आचार्य उसकी ग्रहणशीलता-तीनों परिपाटियों का सम्यक् ग्रहण किया है या नहीं, की परीक्षा करते हैं। दूसरी बार पुनः परीक्षा कर जब वे जान जाते हैं कि यह व्यवहारी हो गया है, तब उसे व्यवहार योग्य मानते हैं। जब शिष्य तीनों परिपाटियों से भावतः सम्पूर्ण सूत्रार्थ का पारगामी हो जाता है, तब वह व्यवहार करने योग्य होता है। इसकी परीक्षा करने के लिए आचार्य उस ग्राहक-शिष्य को विषम स्थलों के विषय में पूछते हैं और जब वह उन विषयों के हार्द को सम्यक् रूप से व्यक्त करने में सक्षम
१. व्यभा. १६६४-१७०१। २. पंकचू.अप्रकाशित; पक्को जहा महिसो पाणीए ओइण्णो एवं सो वि महिसो विव आडुयालं करेइ। ३. वही ६ पृ. ६२८: अंबिलसमाणो नाम अंघ ववहारं करेइ । ४. व्यभा. १७०३, १७०४ । ५. व्यभा. १७०६, १७०७।
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