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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
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तथा स्वयं भी प्रायश्चित्त का प्रयोग करने वाले आचार्य को व्यवहारवान आचार्य कहते हैं।'
जिनप्रणीत आगम में कुशल, धृति सम्पन्न, व्यवहार का प्रयोग करने में कुशल तथा राग-द्वेष रहित मुनि प्रायश्चित्त देने के अधिकारी होते हैं।
केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी, कल्पधर, प्रकल्पधर, कल्प एवं व्यवहार की पीठिका के ज्ञाता तथा आज्ञा, धारणा एवं जीत व्यवहार में कुशल आचार्य या मुनि व्यवहारी अर्थात् प्रायश्चित्त देने में प्रामाणिक माने जाते हैं।
व्यवहारी के संदर्भ में शिष्य ने एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित किया है कि वर्तमान में आगम व्यवहारी का विच्छेद हो चुका है अतः यथार्थ शुद्धिदायक के अभाव में चारित्र शुद्धि का भी अभाव हो गया है। आजकल कोई मासिक एवं पाक्षिक प्रायश्चित्त भी नहीं देता है अतः तीर्थ ज्ञानमय एवं दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। दूसरी बात, प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी अपराध एवं प्रतिसेवी की क्षमता के अनुसार प्रायश्चित्त देते हैं, न्यून या अधिक प्रायश्चित्त नहीं देते। किंतु कल्पधर, व्यवहारधर आदि आगम व्यवहार के अभाव में मनचाहा प्रायश्चित्त दे सकते हैं अतः आजकल निर्यापकों का भी अभाव हो गया है।
इस प्रश्न का समाधान करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि सारे प्रायश्चित्तों का विधान नौवें पूर्व प्रत्याख्यान प्रवाद की तृतीय आचार वस्तु में है। वहीं से निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार का निर्वृहण हुआ है। वे ग्रंथ एवं उनके ज्ञाता आज भी विद्यमान हैं। अतः वर्तमान में भी चारित्र के प्रज्ञापक हैं तथा प्रायश्चित्तों का वहन करने वाले भी हैं। चतुर्दशपूर्वी के काल तक दसों प्रायश्चित्तों का अस्तित्त्व रहता है। उसके पश्चात् प्रथम आठ प्रायश्चित्तों का अस्तित्त्व तब तक रहेगा जब तक तीर्थ चलेगा। यदि प्रायश्चित्त नहीं होगा तो चरित्र भी नहीं रहेगा तथा चरित्र न रहने पर तीर्थ का अस्तित्त्व भी समाप्त हो जाएगा। निर्ग्रन्थ के बिना तीर्थ का अस्तित्त्व तथा तीर्थ के बिना निर्ग्रन्थों का अस्तित्त्व नहीं रहता। अतः जब तक षट्कायसंयम है तब तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय-ये दो चारित्र रहेंगे तथा चारित्र की विद्यमानता में प्रायश्चित्त का अस्तित्त्व भी अनिवार्य है।
इसी बात को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे चक्रवर्ती का प्रासाद वर्धकि रत्न द्वारा निर्मापित होता है, अतः उसकी शोभा अनुपम होती है। उसे देखकर अन्यान्य राजा भी अपने वर्धकियों से प्रासाद का निर्माण करवाते हैं वैसे ही परोक्षज्ञानी भी प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी की भांति ही व्यवहार करते हैं।
एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि व्यवहारी की प्रामाणिकता को केवल बहुश्रुत ही समझ सकते हैं दूसरे उसे प्रमाण कैसे मानेंगे? भाष्यकार कहते हैं-व्यवहारछेदक दो प्रकार के होते हैं-प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय। प्रशंसनीय वे होते हैं, जो यथार्थ व्यवहारी होते हैं और अप्रशंसनीय वे होते हैं, जो व्यवहार योग्य नहीं होते। इस प्रसंग में भाष्यकार ने तगरा नगरी के एक आचार्य के सोलह शिष्यों का उल्लेख किया है, जिनमें आठ शिष्य व्यवहारी तथा आठ अव्यवहारी थे।
भाष्यकार ने आचार्य के आठ अव्यवहारी शिष्यों का नामोल्लेख न करते हुए केवल उनके दोषों को प्रतीक एवं रूपक के माध्यम से समझाया है। लेकिन व्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है। उनकी विशेषताओं का उल्लेख नहीं किया। प्रश्न होता है कि अव्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख क्यों नहीं किया? इस प्रश्न के समाधान में ऐसी संभावना की जा सकती है कि अव्यवहारी शिष्य आठ से अधिक हो सकते हैं इसलिए उनको प्रतीक के माध्यम से समझाया है। दूसरी बात है कि गलती के रूप में किसी के नाम का उल्लेख अव्यवहारिक प्रतीत होता है इसलिए भी संभवतः भाष्यकार ने शिष्यों के नामों का उल्लेख नहीं किया हो।
१. भआ.४५०। २. भआ.४५३। ३. व्यभा. ४०३,४०४।।
व्यभा.४१६३-७१। ५. व्यभा. ४१७२-७४ ६. व्यभा. ४२१५-१७। ७. व्यभा-४१७५-७६ ८ व्यभा. १६६३।।
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