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व्यवहार भाष्य
अन्य परंपराओं में
बौद्ध परम्परा में व्यवहार शब्द का प्रयोग नहीं मिलता किंतु दीघनिकाय के 'महापरिनिब्बान सुत्त' में चार महापदेशों का उल्लेख मिलता है
१. बुद्ध द्वारा प्रवर्तित। २. संघ द्वारा प्रवर्तित ३. महान् भिक्षुओं द्वारा प्रवर्तित ।
४. किसी विहार के महान् आचार्य द्वारा प्रवर्तित। ब्राह्मण परम्परा में भी पांच व्यवहार के संवादी निम्न तत्त्व मिलते हैं
१. संपूर्ण वैदिक शास्त्र के आधार पर। २. ऋषियों द्वारा प्रणीत स्मृति ग्रन्थों के आधार पर। ३. श्रुति और स्मृति के धारक व्यक्तियों द्वारा प्रवर्तित शील। ४. सदाचार-अन्यान्य स्थितियों, क्षेत्रों, व्यक्तियों में प्रचलित वे धारणाएं, जो श्रुतियों और स्मृतियों के विपरीत न हों।
५. स्वसमाधान-आत्मा की आवाज। व्यवहारी
व्यवहारी शब्द हिंदी शब्दकोशों में मुकदमा लड़ने वाला तथा वादी आदि अर्थों में प्रयुक्त है। सूत्रकृतांग में 'व्यवहारी' शब्द का प्रयोग व्यापारी के लिए हुआ है। कौटिल्य ने व्यवहारी शब्द न्यायकर्ता के लिए प्रयुक्त किया है। जो आगम आदि व्यवहार को सम्यक् रूप से जानकर प्रायश्चित्तदान में उसका सम्यक् प्रयोग करता है, वह व्यवहारी है। शब्दकल्पद्रुम में १६ वर्ष के बाद व्यवहारज्ञ बनता है, ऐसा उल्लेख मिलता है।
जो रिश्वत लेकर व्यवहार/न्याय करते हैं, वे लौकिक द्रव्यव्यवहारी हैं तथा जो राग-द्वेष से रहित मध्यस्थ भाव से न्याय करते हैं, वे लौकिक भाव व्यवहारी हैं।
भाष्यकार ने लोकोत्तर भाव व्यवहारी की निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया है-६ प्रियधर्मा- कर्त्तव्यपरायण। दृढ़धर्मा-अपने निश्चय में अटल। संविग्न-संसारभीरु। वद्यभीरु-पापभीरु। सूत्रार्थ-तदुभयविद्-शास्त्रवित्। अनिश्रितव्यवहारकारी-राग-द्वेष रहित व्यवहार करने वाला।
व्यवहारी में इन विशेषताओं का होना इसलिए आवश्यक है कि जिसको न्याय या प्रायश्चित्त दिया जा रहा है, उसका उस पर विश्वास हो सके कि यह सही न्याय/व्यवहार कर रहा है। भाष्यकार का अभिमत है कि बहुश्रुत होते हुए भी जो मुनि न्याय नहीं करता, उसका व्यवहार प्रमाण नहीं हो सकता। न्याय से व्यवहार करना व्यवहारी की योग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है।
दिगम्बर ग्रंथों के अनुसार पांच प्रकार के व्यवहारों को विस्तार से जानने वाले, अन्य आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखने वाले
9. Aspects of Jain Monasticism P. 3. २. सू.१/३/७८ समई व ववहारिणो। ३. व्यभा-५२० टी प. १८।
शब्दकल्पद्रुम भाग ४, पृ. ५४३ । ५. व्यभा-१३ टी-प. ८॥ ६. व्यभा. १५ टी.प. 1 ७. व्यभा. १७४।
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