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व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन
ऋतु के आधार पर काल के तीन प्रकार हैं-१. ग्रीष्म-रूक्ष, २. हेमन्त-साधारण ३. वर्षावास-स्निग्ध।
ग्रीष्म ऋतु में तीन प्रकार के प्रायश्चित्तों में जघन्य एक उपवास, मध्यम बेला तथा उत्कृष्ट तेले का प्रायश्चित्त दिया जाता है। हेमन्त में जघन्य बेला, मध्यम तेला तथा उत्कृष्ट चोला दिया जाता है। वर्षावास में जघन्य तेला, मध्यम चोला तथा उत्कृष्ट पंचोला दिया जाता है।
भाव के आधार पर नीरोग या हृष्ट-पुष्ट प्रतिसेवी पुरुष को सम या अधिक प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। किन्तु ग्लान को प्रायश्चित्त देने के निम्न विकल्प हैं
• रोगी को अल्प प्रायश्चित या अशक्तता होने पर प्रायश्चित्त नहीं भी दिया जाए। • जितनी वह तपस्या कर सके उतना ही प्रायश्चित्त दिया जाए। • अथवा जब वह नीरोग या हृष्ट हो जाए तब उससे प्रायश्चित्तस्वरूप तप कराया जाए।
पुरुष की अपेक्षा से भी प्रायश्चित्त कम या ज्यादा दिया जाता है। पुरुष अनेक प्रकार के होते हैं-गीतार्थ-अगीतार्थ, सहिष्णु-असहिष्णु, मायावी-ऋजु, परिणामक-अपरिणामक आदि। जो धृति-संहनन सम्पन्न, परिणत, कृतयोगी एवं आत्मपरतर (तपस्या एवं सेवा आदि में निपुण) हैं, उन्हें जीत व्यवहार के आधार पर अधिक प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है। जो धृति, संहनन आदि से हीन हैं, उन्हें कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो धृति, संहनन आदि से सर्वथा हीन हैं, उन्हें प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है।
व्यवहार पंचक का प्रयोग
व्यवहार के प्रयोग के विषय में आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि जहां आगम व्यवहार हो वहां आगम से व्यवहार की प्रस्थापना करे, जहाँ आगम न हो वहां श्रुत से, जहां श्रुत न हो वहां आज्ञा से, जहां आज्ञा न हो वहां धारणा से तथा जहां धारणा न हो, वहां जीत से व्यवहार की प्रस्थापना करे। अर्थात जिस समय जिस व्यवहार की प्रधानता हो उस समय उस व्यवहार का प्रयोग राग-द्वेष से मुक्त होकर तटस्थ भाव से करना चाहिए। व्यभा में स्पष्ट उल्लेख है कि अनुक्रम से व्यवहार पंचक का प्रयोग विहित है। पश्चानुपूर्वी क्रम से या विपरीत क्रम से व्यवहार का प्रयोग करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है।
इस क्रम में भी क्षेत्र और काल के अनुसार जहां जो व्यवहार संभव हो उसी का प्रयोग करना चाहिए। अथवा जिस क्षेत्र में युगप्रधान आचार्यों द्वारा जो व्यवस्था दी गई है, उसी का व्यवहार करना चाहिए।
संघ में व्यवहार के प्रयोग में और भी अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वैयावृत्त्य-इन पांच प्रकार की उपसंपदाओं तथा क्षेत्र, काल और प्रव्रज्या का अवबोध कर संघ में व्यवहार करना चाहिए।
जैन आचार्यों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार नियम एवं प्रायश्चित्तों का विधान किया। इसीलिए नियमों एवं प्रायश्चित्त-दान में कहीं रूढता का वहन नहीं हुआ। मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि पर ही उन्होंने पांच व्यवहारों की प्रस्थापना की, ऐसा कहा जा सकता है। एक ही प्रकार के अपराध में अवस्था, ज्ञान, धृति एवं सामर्थ्य के अनुसार दंड में अंतर आ जाता है। इसी प्रकार एक व्यक्ति ने प्रथम बार गलती की, दूसरा व्यक्ति बार-बार गलती को दोहराता है तो उस स्थिति में भी प्रायश्चित्त-दान में बहुत बड़ा अंतर आ जाता है।
१. जी.६७ चू. पृ. २१॥ २. जीचू. पृ. २३ : आयतरगो नाम जो उपवासेहि दढो। परतरगो नाम जो वेयावच्चकरो गच्छोवग्गहकरो वत्ति। ३. जीचू. पृ. २४। ४. व्यभा. १०/६, भग, /१८, ठाणं ५/१२४ । ५. व्यभा-३८८३।। ६. (अ) भटी-पृ. ३८५ : यदा यस्मिन् अवसरे यत्र प्रयोजने वा क्षेत्रे वा यो य उचितस्तं तदा काले तस्मिन् प्रयोजनादौ।
(ब) व्यभा- ३३६५ टी प. १० : "तत्रापि व्यवहारः क्षेत्रं कालं च प्राप्य यो यथा संभवति तेन तथा व्यवहरणीयम्। यत्र क्षेत्रे युगप्रधानैराचार्यैः या
व्यवस्था व्यवस्थापिता तथा अनिश्रोपश्रितं व्यवहर्त्तव्यम्। ७. व्यभा. १६६२।
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