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________________ ६०] . व्यवहार भाष्य जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त में भिन्नता ___ गच्छभेद से सामान्य जीत व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता था। इसे समझाने के लिए भाष्यकार ने कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए हैं कुछ आचार्यों के गण में नवकारसी या पोरसी न करने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था। आवश्यकगत एक कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहर, दो कायोत्सर्ग न करने पर एकाशन आदि का विधान था। कुछ गण में आवश्यक गत एक कायोत्सर्ग न करने पर निर्विगय, दो कायोत्सर्ग न करने पर दो प्रहर, तीन कायोत्सर्ग न करने पर आयम्बिल तथा पूरा आवश्यक न करने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था। इस प्रकार उपधान तप विषयक भिन्न-भिन्न गच्छों की भिन्न-भिन्न मान्यताएं थीं। वे सभी अपनी-अपनी आचार्य-परम्परा से प्राप्त होने के कारण अविरुद्ध थीं। नागिलकुलवर्ती साधुओं के आचारांग से अनुत्तरौपपातिक तक की आगम-वाचना में उपधानतप के रूप में आचाम्ल नहीं केवल निर्विगय तप का विधान था तथा आचार्य की आज्ञा से विधिपूर्वक कायोत्सर्ग कर उन आगमों को पढ़ते हुए भी विगय का उपयोग कर सकते थे। कुछ परम्पराओं में कल्प, व्यवहार तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति को आगाढयोग के अन्तर्गत तथा कछ परम्पराओं में अनागाढयोग के अन्तर्गत माना जाता था। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय के घटन, परितापन, अपद्रावण आदि के विषय में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त निर्धारित थे। पृथ्वी, पानी आदि एकेन्द्रिय जीवों के संघट्टन होने पर निर्विकृतिक, अनागाढ़ परितापन देने पर पुरिमार्ध, आगाढ़ परिताप देने पर एकाशन तथा प्राणव्यपरोपण होने पर आचाम्ल का प्रायश्चित्त विहित था। विकलेन्द्रिय जीवों का घट्टन होने पर निर्विकृतिक, अनागाढ़ परिताप होने पर एकाशन, आगाढ़ परिताप होने पर आचाम्ल तथा प्राणव्यपरोपण होने पर उपवास का प्रायश्चित्त विहित था। पंचेन्द्रिय के घटन होने पर एकाशन, अनागाढ़ परितापन होने पर आचाम्ल, आगाढ़ परितापन होने पर उपवास तथा प्राण व्यपरोपण होने पर पंचकल्याणक का प्रायश्चित्त विहित था। गच्छभेद से जिस प्रकार जीत व्यवहार में भिन्नता होती है वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना आदि के आधार पर भी जीत व्यवहार के अनुसार प्रायश्चित्त दान में तरतमता रहती है। द्रव्य के आधार पर जिस क्षेत्र में आहार आदि द्रव्य उत्तम सुलभ मिलते हैं वहां जीत के आधार पर अधिक तपरूप प्रायश्चित्त दिया जा सकता है तथा जहां चना, मोठ, कांजी आदि रूक्ष आहार भी बहुत गवेषणा करने पर मिलता हो, वहां जीतव्यवहार के आधार पर कम तपरूप प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। क्षेत्र तीन प्रकार के होते हैं-१. रूक्ष-वायु एवं पित्त को कुपित करने वाले। २. शीत-जलबहुल तथा स्निग्ध, ३. स्निग्धरूक्ष-साधारण। क्षेत्र की दृष्टि से स्निग्ध क्षेत्र में अधिक, साधारण क्षेत्र में सामान्य या मध्यम तथा रूक्ष क्षेत्र में कम प्रायश्चित्त दिया जाता है। मा १. व्यभा. १२ टी.प. । २. व्यभा-११ टी प. । ३. व्यभा. १२ टी प. ४. व्यभा.४५३७-४१। ५. यहाँ पंचकल्याणक का तात्पर्य निर्विगय, पुरिमार्द्ध, एकाशन, आयम्बिल, उपवास-तपस्या के इन पांच भेदों से है। ६. व्यभा-४५३७। ७. जी. ६४ दव्वं खेत्तं कालं, भावं पुरिस-पडिसेवणाओ य। नाउमियं चिय देज्जा, तम्मत्तं हीणमहियं वा। ८ जी. ६५ चू. पृ. २१ आहाराई दवं, बलियं सुलहं च नाउमहियं पि। देज्जाहि दुब्बलं दुल्लहं च नाऊण हीणं पि॥ ६. जी. ६६ लुक्खं सीयल-साहारणं च खेत्तमहियं पि सीयम्मि। लुक्खम्मि हीणतरयं, एवं काले वि तिविहम्मि॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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