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________________ व्यवहार भाष्य एक अनुशीलन [ ५६ और भाव के आधार पर चिन्तन कर तथा संहनन आदि की हानि को लक्ष्य में रखकर गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रवर्तित समुचित तप रूप प्रायश्चित्त जीत व्यवहार है। जो आचार्य आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि से रहित है, वह परम्परा से प्राप्त जति व्यवहार का प्रयोग करता है। अतः उसके आधार पर आगम से कम, समान या अतिरिक्त प्रायश्चित्त भी दिया जा सकता है।' जीत व्यवहार के मूल में आगम आदि कोई व्यवहार नहीं, अपितु समय की सूझ एवं परम्परा होती है। भाष्यकार के समय में जीतकल्प के प्रवर्त्तन विषयक दो परम्पराएं प्रचलित थीं। एक परम्परा के अनुसार आचार्य जंबू के सिद्ध होने पर अंतिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया, उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन हुआ। दूसरे मत के अनुसार चतुर्दशपूर्वी के व्यवच्छिन्न होने पर प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, अन्तमुहूर्त्त में १४ पूर्वी का परावर्तन तथा आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा आदि चारों व्यवहारों का विच्छेद हो गया। उस समय जीत व्यवहार का प्रवर्तन ही शेष रहा । इन मान्यताओं का निराकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जो चतुर्दशपूर्वधर के विच्छेद होने पर व्यवहार चतुष्क के विच्छेद की घोषणा करते हैं, वे मिथ्यावादी होने के कारण प्रायश्चित्त के भागी हैं। चतुर्दशपूर्वी के विच्छेद होने पर मनः पर्यव, परमावधि, पुलाकलब्धि, आहारकलब्धि, क्षपक श्रेणी, उपशम श्रेणी, जिनकल्प संयमत्रिक (अंतिम तीन संयम ) केवली, सिद्धि - ये बारह अवस्थाएं विच्छिन्न हुईं, किन्तु व्यवहार चतुष्क का लोप नहीं हुआ । जीतकल्प चूर्णि के अनुसार जीतकल्प का अस्तित्व त्रैकालिक है।" द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना, शरीर संहनन, धृतिबल आदि के आधार पर जीत व्यवहार प्रायश्वित्त का प्रवर्तन किया गया। जीतव्यवहार के भेद प्रायश्चित्त के आधार पर जीत व्यवहार के दो भेद हैं- सावद्य और निरवद्य। व्यवहार का सम्बन्ध सावद्य जीत से नहीं, निरवद्य जीत से है। अपराध की विशुद्धि के लिए शरीर पर राख का लेप करना, कारागृह में बंदी करना, गधे पर बिठाकर सारे नगर में घुमाना, उदर से रेंगने का दण्ड देना- ये सब सावध जीत हैं। आलोचना आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त देना निरवद्य जीत है। कभी-कभी लोकोत्तर क्षेत्र में अनवस्था प्रसंग (दोषों की पुनरावृत्ति) के निवारण हेतु सावध जीत का प्रयोग भी किया जाता था।" साबध जीत का प्रयोग उस व्यक्ति पर किया जाता था जो बार-बार दोषसेवी, सर्वथा निर्दयी तथा प्रवचन से निरपेक्ष होता था। जो संविग्न, प्रियधर्मा, अप्रमत्त, पापभीरु होते थे उनके द्वारा यदि प्रमादवश स्खलना हो जाती तो उनके प्रति निरवद्य जीतव्यवहार का प्रयोग विहित था । ' .१० 99 प्रकारान्तर से भी जीतकल्प के दो भेद किए गए हैं - १. शोधिकरजीत, २. अशोधिकरजीत । जो व्यवहार संवेगपरायण एवं दान्त आचार्य द्वारा आचीर्ण होता है, वह शोधिकर जीत है, फिर चाहे वह एक ही व्यक्ति द्वारा आचीर्ण क्यों न हो। जो पार्श्वस्थ और प्रमत्तसंयत द्वारा आचीर्ण व्यवहार होता है, वह अशोधिकर जीत है, फिर चाहे वह अनेक व्यक्तियों द्वारा ही आचीर्ण क्यों न हो। १२ १. जीटी- पृ. ३८५ जीतव्यवहारस्तु येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपः प्रकारेण शुद्धिं कृत्वन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपः प्रकारेण या गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयपरिभाषया जीतमित्युच्यते । २. व्यभा. ४५३३ । ३. जीचू. पू. ४ ४. व्यभा. ४५२३ ५. व्यभा. ४५२४ । ६. व्यभा. ४५२५ । ७. व्यभा. ४५२६, ४५२७। ८. जीचू. पृ. ४ जीवेइ वा तिविहे काले तेणं जीयं । ६. जीचू. पृ. ११। १०. व्यभा• ४५४४, ४५४५ । ११. व्यभा. ४५४६ । १२. व्यभा. ४५४७-४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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