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________________ ५८] व्यवहार भाष्य उपर्युक्त गुणों से युक्त व्यक्ति की प्रमादवश मूलगुण अथवा उत्तरगुण विषयक स्खलना होने पर प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव में कल्प, निशीथ तथा व्यवहार-तीनों के कुछ अर्थपों की अवधारणा कर यथायोग्य प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है। धारणा व्यवहार का प्रयोक्ता मुनि भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से छेदसूत्रों के अर्थ का सम्यग् पर्यालोचन करने वाला, धीर, दान्त एवं क्रोधादि से रहित होता है। ऐसी विशेषताओं से युक्त मुनि द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह धारणा व्यवहार है। जीतव्यवहार यह पाचवां व्यवहार है। इसका महत्त्व सार्वकालिक है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार जीतव्यवहार में प्रायश्चित्त दान में भी भिन्नता आती रहती है। व्यवहार भाष्यकार ने इसके तीन एकार्थकों का उल्लेख किया है।-१. बहुजनआचीर्ण, २. जीत, ३. उचित। चूर्णिकार सिद्धसेनगणि के अनुसार भी इसके तीन एकार्थक हैं-जीत, करणीय एवं आचरणीय तथा नंदी टीका में इसके पांच एकार्थक प्राप्त हैं-जीत, मर्यादा, व्यवस्था, स्थिति एवं कल्प। चूर्णिकार के अनुसार ब्राह्मण परम्परा में भी जीवघात होने पर प्रायश्चित्त का विधान है किंतु उनकी परंपरा में एकेन्द्रिय प्राणी से त्रस प्राणी आदि के संघट्टन, परितापन या अपद्रवण आदि होने पर प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। किंतु निर्ग्रन्थ शासन में जीतव्यवहार विशोधि में विशेष रूप से निमित्त भूत बनता है। जिस प्रकार पलाश, क्षार एवं पानी आदि के द्वारा वस्त्र के मल को दूर किया जाता है वैसे ही कर्ममल से मलिन जीव की अतिचार विशुद्धि में जीतव्यवहार द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का विशेष महत्त्व है। प्रायश्चित्त दान का यह भेद अन्यत्र कहीं भी उल्लिखित नहीं है। जीत व्यवहार की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं। यहां कुछ परिभाषाओं को प्रस्तुत किया जा रहा है • जो व्यवहार एक बार, दो बार या अनेक बार किसी आचार्य द्वारा प्रवर्तित होता है तथा महान् आचार्य जिसका अनुवर्तन करते हैं, वह जीतव्यवहार है। जो प्रायश्चित्त जिस आचार्य के गण की परम्परा से अविरुद्ध है, जो पूर्व आचार्य की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, वह जीतव्यवहार है। . अमुक आचार्य ने, अमुक कारण उत्पन्न होने पर, अमुक पुरुष को अमुक प्रकार से प्रायश्चित्त दिया, उसका वैसी ही स्थिति में वैसा ही प्रयोग करना जीतव्यवहार है। इसी बात को जीतकल्प चूर्णि में इस भाषा में कहा है कि गच्छ में किसी कारण से जो सूत्रातिरिक्त प्रायश्चित्त का प्रवर्तन हुआ, बहुतों के द्वारा अनेक बार उसका अनुवर्तन हुआ, वह जीतव्यवहार है। • जो व्यवहार बहुश्रुत के द्वारा अनेक बार प्रवर्तित होता है तथा किसी श्रुतधारक के द्वारा उसका प्रतिषेध नहीं किया जाता, वह वृत्तानुवृत्त व्यवहार जीतव्यवहार है। • पूर्वाचार्यों ने जिन अपराधों की शोधि अत्यधिक तपस्या के आधार पर की, उन्हीं अपराधों की विशोधि द्रव्य, क्षेत्र, काल १. व्यभा. ४५११-१४। २. उशांटी. प. ६३ : त्रिकालविषयत्वात् जीतव्यवहारस्य। ३. व्यभा.६ : बहुजणमाइण्णं पुण जीतं उचियं ति एगहूँ। ४. जीचू. पृ. ४ : जीयं ति वा करणिज्जं ति वा आयरणिज्जं ति वा एगहुँ । नंदीटी. पृ. ११ : जीतं मर्यादा व्यवस्था स्थितिः कल्प इति पर्यायाः। ५. जीचू.पृ. २ : अन्ने वि मरुयादीया पायच्छित्तं देंति थूलबुद्धिणो जीव-घायम्मि कत्थइ सामन्नेण; ण पुण संघट्टण-परितावणोद्दवण-भेयण सव्वेसिमेगिन्दियाईणं तस्स पज्जवसाणाणं दाउं जाणन्ति । उवएसो वा तेसिं समए एरिसो नत्थि। इह पुण सासणे सव्वमत्यि त्ति काउं विसेसेण सोहणं भण्णइ। जहा य पलास-खारोदगाइ वत्थमलस्स सोहणं तहा कम्ममलमइलियस्स जीवस्स जीय-ववहार-निद्दिटुं पायच्छित्तं । परमं पहाणयं पगिट्ठमिति वा । न अण्णत्थ एरिसं ति जं भणियं होइ। ६. व्यभा-४५२१ । ७. व्यभा. १२॥ ८ व्यभा.४५३४। ६ जीचू.पृ.४। १०. व्यभा.४५४२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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