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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [५७ पढमस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवितं होज्जा। पढमे छक्के अभितरं तु, पढमं भवे ठाण।।' बितियस्स य कज्जस्सा, पढमेण पदेण सेवियं होज्जा। पढमे छक्के अभिंतरं तु पढमं भवे ठाणं॥ यहां प्रथमपद से प्राणातिपात तथा षट्क से पृथ्वीकाय आदि का ग्रहण है। धारणा व्यवहार व्यवहार का चौथा प्रकार है-धारणा। मतिज्ञान का चौथा भेद भी धारणा है। संभवतः उसी आधार पर व्यवहार का एक भेद धारणा रखा गया है। धारणा व्यवहार भी श्रुत व्यवहार के सदृश है। चूर्णिकार के अनुसार श्रुत व्यवहार और धारणा व्यवहार में इतना ही अंतर है कि श्रुत व्यवहार के एक अंश का प्रयोग करना धारणा व्यवहार है। भाष्यकार ने धारणा के चार एकार्थकों का उल्लेख किया है। ये सभी धारणा की क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं १. उद्धारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत अर्थपदों को धारण करना। २. विधारणा-छेदसूत्रों में उद्धृत विशिष्ट अर्थपदों को विविध रूप से स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा-धारण किए हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना। ४. संप्रधारणा-सम्यक् रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना। ग्रंथकार ने धारणा व्यवहार को विविध रूपों में परिभाषित किया है। ये परिभाषाएं धारणा व्यवहार के बारे में प्रचलित उस समय की विविध अवधारणाओं एवं अवस्थाओं को प्रकट करने वाली हैं किसी गीतार्थ संविग्न आचार्य ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष और प्रतिसेवना के आधार पर दिये जाने वाले प्रायश्चित्त को देखा अथवा किसी को आलोचना-शुद्धि करते देखा उसको उसी प्रकार धारण कर वैसी परिस्थिति में वैसा ही प्रायश्चित्त देना धारणा व्यवहार है। वैयावृत्त्यकर, गच्छोपग्राही, स्पर्धकस्वामी, देशदर्शन में सहयोगी तथा संविग्न द्वारा दिए गए उचित प्रायश्चित्त की अवधारणा धारणा व्यवहार है। जो शिष्य सेवा आदि कार्यों में संलग्न रहने के कारण छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ है उस पर आचार्य अनुग्रह करके छेदसूत्रों के कुछ अर्थपद उसे सिखाते हैं। छेदसूत्रों का वह अंशतः धारक मुनि जो प्रायश्चित्त देता है, वह धारणा व्यवहार है। धारणा व्यवहार का प्रयोग कैसे मुनि पर किया जाता है, इसकी निम्न कसौटियां बताई गयी हैंप्रवचनयशस्वी-जो प्रवचन एवं श्रमण संघ का यश चाहता है। अनुग्रहविशारद-जो दीयमान प्रायश्चित्त या व्यवहार को अनुग्रह मानता है। तपस्वी-जो विविध तप में संलग्न है। श्रुतबहुश्रुत-जिसको आचारांग श्रुत विस्मृत नहीं होता अथवा जो बहुश्रुत होने पर भी श्रुत के उपदेश के अनुसार चलता है। विशिष्टवाक्सिद्धियुक्त-विनय एवं औचित्य से युक्त वाक्शुद्धि वाला। १. व्यभा.४४६८। २. व्यभा.४४७५। ३. जीचू-पृ. ४ धारणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो। सुयववहारेगदेसो धारणाववहारो। ४. व्यभा.४५०३।। व्यभा. ४५१५-१७, जीचू. पृ. ४। व्यभा.६ टी प. ७। ७. व्यभा.४५१८, ४५१६। ८. व्यभा.४५०८, ४५०६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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