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व्यवहार भाष्य
आचार्य के समीप जाने में असमर्थ हो तथा शोधिकारक आचार्य भी जब शोधिकर्ता के पास जाने में असमर्थ हो उस स्थिति में शोधि का इच्छुक आचार्य अपने शिष्य को दूरस्थित शोधिकारक आचार्य के पास भेजकर शोधि की प्रार्थना करता है। तब आचार्य अपने आज्ञापरिणामक तथा धारणाकुशल शिष्य को उनके पास भेजते हैं। आज्ञापरिणामक शिष्य भगवद आज्ञा के प्रति वितर्कणा नहीं करता किंतु गुरु-आज्ञा के अनुरूप अपना कर्त्तव्य निभाता है। गुरु-आज्ञा की रहस्यमयता का अवबोध कराने के लिए भाष्यकार ने अपरिणामक, परिणामक एवं अतिपरिणामक को दो उदाहरणों द्वारा समझाया है
गुरु ने शिष्य से कहा-जाओ, उस ताड़वृक्ष पर चढ़कर नीचे कूद पड़ो। शिष्य अपरिणामक था। वह गुरु से अनेक तर्क-वितर्क करते हुए क्रोधित होकर बोला-क्या साधु को सचित्त वृक्ष पर चढ़ना कल्पता है? क्या आप मुझे मारना चाहते हैं? अतिपरिणामक शिष्य बोला-मेरी भी यही इच्छा थी। मैं अभी वृक्ष से गिरता हूं। गुरु उन दोनों को समझाते हैं कि मेरे कथन का तात्पर्य यह था कि तप, नियम, ज्ञानमय वृक्ष पर आरोहण कर भवसागर से पार हो जाओ। परिणामक शिष्य सोचता है कि मेरे गुरु स्थावरजीवों की हिंसा की भी इच्छा नहीं करते फिर पंचेन्द्रिय की हिंसा का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जरूर इस आदेश में कोई रहस्य होगा-ऐसा सोचकर वह वृक्षारोहण के लिए तत्पर हुआ उस समय गुरु ने उसका हाथ पकड़कर रोक लिया।
दूसरा बीज का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार कहते हैं-गुरु के द्वारा बीज लाने का आदेश देने पर अपरिणामक शिष्य तत्काल उत्तर देता है-साधु के लिए बीज लाना कल्पनीय नहीं है। अतिपरिणामक यह आदेश सुनते ही पोटली में बीज बांधकर ले आता है। आदेश प्राप्त कर परिणापक शिष्य गुरु से पूछता है-कैसे बीज लाऊं? उगने योग्य लाऊं या उगने में 3 बीजों को लाऊं? गुरु उसके विवेक को जान लेते हैं। इस प्रकार परीक्षा करके गुरु आज्ञा परिणामक एवं धारणाकुशल शिष्य को शुद्धिकर्ता आचार्य के पास भेजते हैं। वह शिष्य ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र संबंधी अतिचारों को सम्यक्तया सुनता है। दर्पविषयक एवं कल्पविषयक प्रतिसेवना को अच्छी तरह से धारण करता है।
आचार्य द्वारा प्रेषित वह धारणा कुशल शिष्य आलोचक की प्रतिसेवना को क्रमशः सुनता है, उसकी अवधारणा करता है तथा आलोचक की अर्हता, संयम एवं गृहस्थ पर्याय का कालमान, शारीरिक एवं मानसिक बल तथा क्षेत्र विषयक बातें आलोचक आचार्य से ज्ञात कर स्वयं उसका परीक्षण कर वह अपने देश में लौट आता है। वह अपने गुरु के पास जाकर उसी क्रम से सब बातें गुरु को निवेदन करता है, जिस क्रम से उसने तथ्यों का अवधारण किया था। तब व्यवहार-विधिज्ञ आलोचनाचार्य कल्प और व्यवहार दोनों छेदसूत्रों के आलोक में पौर्वापर्य का आलोचन कर सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सही अवगति करते हैं। पुनः उसी शिष्य को आदेश देते हैं-'तुम जाओ और उस विशोधिकर्ता मुनि या आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आ जाओ।' इस प्रकार आचार्य के वचनानुसार प्रायश्चित्त देना आज्ञा व्यवहार है।
आज्ञा व्यवहार की एक दूसरी व्याख्या भी मिलती है-दो गीतार्थ आचार्य गमन करने में असमर्थ हैं। दोनों दूर प्रदेशों में स्थित हैं। कारणवश वे एक दूसरे के पास जाने में असमर्थ हैं, ऐसी स्थिति में यदि उन्हें प्रायश्चित्त विषयक परामर्श लेना हो तो गीतार्थ शिष्य न होने पर अगीतार्थ शिष्य को जो धारणा में कुशल हैं, उसे गूढ़ पदों में अपने अतिचारों को निगहित कर दूरदेशस्थित आचार्य के पास भेजते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी शिष्य के साथ गूढ़ पदों में उत्तर भेजते हैं, यह आज्ञा व्यवहार है। गूढ़ पदों में
को भाष्यकार ने विस्तार से प्रस्तुत किया है। उदाहरण स्वरूप यहां एक-दो गाथाएं प्रस्तुत की जा रही हैं
१. जीचू पृ. २३ : जहाभणिया सद्दहंता आयरता य परिणामगा भन्नति। २. जो उत्सर्ग में ही श्रद्धा करता है और उसका ही आचरण करता है, वह अपरिणामक है। (अपरिणामगा पुण जे उस्सग्गमेव सद्दहति आयरंति य, जीचू.
पृ. २३) ३. जो अपवाद का ही आचरण करता है और उसी में आसक्त होता है, वह अतिपरिणामक है। (अइपरिणामगा जो अववायमेवायरंति तम्मि चेव सज्जति
न उस्सग्गे, जीचू. पृ. २३)।
जो अकारण प्रतिसेवना की जाती है, वह दर्प प्रतिसेवना है। उसके दस प्रकार हैं। देखें व्यभा. ४४६१-६२ । ५. कारण उपस्थित होने पर जो प्रतिसेवना की जाती है, वह कल्प प्रतिसेवना है। उसके २४ प्रकार हैं। देखें, व्यभा. ४४६३-६६ । ६. व्यभा.४४३-४५०२।। ७. व्यभा. टी.प. ६, जीचू. पृ. २, स्थाटी.प. ३०२ ।
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