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________________ व्यवहार भाष्य : एक अनुशीलन [५५ आगम व्यवहार परोक्ष प्रत्यक्ष इन्द्रिय पांच इन्द्रियों से होनेवाला रूपादि का ज्ञान नोइन्द्रिय अवधि, मनःपर्यव, केवल जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अक्ष का अर्थ आत्मा किया है। अर्थात जो ज्ञान सीधा आत्मा से होता प्रत्यक्ष है। अक्ष का अर्थ इन्द्रिय भी है। जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त इन्द्रिय आदि से होता है, वह परोक्ष है।" प्रश्न उपस्थित होता है कि आगम व्यवहार में इन्द्रिय प्रत्यक्ष का ग्रहण क्यों किया गया? इसका समाधान जीतकल्पभाष्य में प्राप्त होता है। भाष्यकार जिनभद्रगणि लिखते हैं कि प्रत्यक्ष आगम व्यवहारी भी श्रोत्रेन्द्रिय से दूसरे की प्रतिसेवना सुनकर, चक्षु से दूसरे को अनाचार का सेवन करते देखकर, घ्राण द्वारा धूप आदि की गन्ध से चींटी आदि की विराधना जानकर, कंदादि को खाते देखकर, अंधकार में स्पर्श से अभ्यंग आदि को जानकर इन्द्रिय प्रत्यक्ष से आगम व्यवहारी (चतुर्दशपूर्वी आदि) व्यवहार का प्रयोग करते हैं। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष का विस्तृत वर्णन जीतकल्पभाष्य में मिलता है। श्रुत व्यवहार ___ जो आचार्य या मुनि कल्प और व्यवहार के सूत्रों को बहुत पढ़ चुका है और उसके अर्थ को सूक्ष्मता से जानता है तथा दोनों ग्रंथों की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी है। टीकाकार के अनुसार कुल, गण आदि में करणीय-अकरणीय का प्रसंग उपस्थित होने पर पूर्वो से कल्प और व्यवहार का नि!हण किया गया। इन दोनों सूत्रों का निमज्जन कर, व्यवहार विधि के सूत्र का स्पष्ट उच्चारण कर, उसके अर्थ का अवगाहन कर जो प्रायश्चित्त का विधान किया जाता है, वह श्रुतव्यवहार है। जीतकल्प चूर्णि के अनुसार पूर्वधर (१ से पूर्व), ११ अंग के धारक, कल्प, व्यवहार तथा अवशिष्ट श्रुत के अर्थ के धारक मुनि श्रुतव्यवहार का प्रयोग करते हैं। आज्ञा व्यवहार भक्त-प्रत्याख्यान में संलग्न, विशोधि एवं शल्योद्धरण का इच्छुक आचार्य या मुनि दूरस्थित छत्तीस गुण सम्पन्न आचार्य से आलोचना करना चाहता है। ऐसी अवस्था में आज्ञा व्यवहार की प्रयोजनीयता होती है। आज्ञा व्यवहार भी श्रुत व्यवहार के समान ही होता है। आज्ञा व्यवहार को व्याख्यायित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि विशोधि का इच्छुक आचार्य या मुनि जब शोधिकारक १. व्यभा. ४०२६४०३०। २. जीभा. ११ जीवो अक्खो तं पति, जं बट्टइ तं तु होइ पच्चक्खं। परओ पुण अक्खस्सा, बट्टतं होइ पारोक्खं॥ ३. जीभा. २०-२२। ४. जीभा. २३-१०७। ५. व्यभा. ४४३२-३५ । ६. व्यभा. ४४३६ टी. प. ८१। ७. नवपूर्वी तक आगमव्यवहारी होते हैं। ८. जीचू-पृ. २ सुयववहारो पुण अवसेसपुब्बी एक्कारसंगिणो आकप्पववहारा अवसेससुए य अहिगय-सुत्तत्था सुयववहारिणो त्ति। ६. जीचू.पृ. ४ : आणाववहारो वि सुयववहाराणुसरिसो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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