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________________ ५४ ] व्यवहार भाष्य लघुतरस्वक व्यवहार अर्थात् दस दिन का प्रायश्चित्त । यह पूर्वार्द्ध की तपस्या से पूरा हो जाता है। यथालघुस्वक व्यवहार अर्थात् पांच दिन का प्रायश्चित्त। यह विगयवर्जन (निर्विकृतिक) की तपस्या से पूरा हो जाता है। गुरुक, लघुक तथा लघुस्वक आदि प्रायश्चित्तों के विधान का प्रयोजन बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि अतिपरिणामक में जागरूकता पैदा करने तथा अपरिणामक में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि प्रायश्चित्त के द्वारा यहां विशुद्धि कराई जाती है तथा शेष मुनियों में प्रतिसेवना के प्रति भय पैदा करने के लिए गुरु, गुरुतर आदि प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। भाष्यकार ने इस बात का निर्देश किया है कि व्यवहार शब्द में व्यवहारी एवं व्यहर्त्तव्य भी अन्तर्गर्भित हैं। इसे उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं-जैसे कुंभ नाम का उच्चारण करने से कुंभकार (कत्ता) एवं मिट्टी, चक्र (करण) आदि का स्वतः ग्रहण हो जाता है, जैसे ज्ञान शब्द के उच्चारण से ज्ञानी और ज्ञान क्रिया (ज्ञेय) दोनों का अधिग्रहण हो जाता है वैसे ही व्यवहार शब्द में व्यवहारी एवं व्यवहर्त्तव्य-दोनों का समावेश हो जाता है। यहां पहले पांच व्यवहारों का वर्णन किया जा रहा है। उसके बाद व्यवहारी एवं व्यवहर्तव्य का वर्णन किया जाएगा। पांच व्यवहार ग्रंथकार ने आगम आदि पांचों व्यवहारों को द्वादशांग का नवनीत कहा है, जिसका निर्ग्रहण चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु ने द्वादशांगी से किया। भाष्यकार ने व्यवहार का महत्त्व यहां तक बता दिया कि जिसके मुख में एक लाख जिह्वा हो वह भी व्यवहार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्रस्तुत नहीं कर सकता। किन्तु चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु ने द्वादशांगी के नवनीत रूप में इसका सुंदर उपदेश हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया है। ___व्यवहार का मूल अर्थ है-करण। करण अर्थात् न्याय के साधन । वे पांच हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में व्यवहार शब्द न्याय अर्थ में प्रयुक्त है। पांच व्यवहारों का उल्लेख ठाणं एवं भगवती में भी मिलता है। पर व्यवहार सूत्र से ही यह पाठ ठाणं एवं भगवती में संक्रान्त हुआ है, ऐसा अधिक संभव लगता है। आगम व्यवहार जिसके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थ जाने जाते हैं, वह आगम है।" ज्ञान पर आधारित होने के कारण प्रथम व्यवहार का नाम आगम व्यवहार है। ज्ञान और आगम दोनों एकार्थक हैं।२ कारण में कार्य का उपचार करने से जिन ग्रंथों में ज्ञान निबद्ध है अथवा जो ज्ञान के साधन हैं, वे भी आगम कहलाते हैं। आगम व्यवहार के भेद-प्रभेदों को निम्न चार्ट से दर्शाया जा सकता है १. व्यभा. १०६४-७ टी. प. २४, २५, बृभा.६०३६-४४ । २. बृभा. ६०३८ : तेसिं पच्चयहेउं जे पेसविया सुयं व तं जेहिं। भयहेउसेसगाणं इमा उ आरोवणारयणा।। ३. व्यभा.२ टी प ४॥ ४. व्यभा.२,३। ५. व्यभा.४४३१, जीभा.५६०। ६. यहां यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि भाष्यगत 'व्यवहार' शब्द का अर्थ टीकाकार ने व्यवहारसूत्र किया है। यहां व्यवहार शब्द पांच व्यवहार का वाचक होना चाहिए। ७. व्यभा.४५५१,४५५२। ८. व्यभा.२ : ववहारो होति करणभूतो उ। ६. व्यसू १०/६। १०. भ.८/३०१, ठाणं ५/१२४। ११. भटी. प.३८४ : आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते अतीन्द्रिया अर्था अनेनेत्यागम उच्यते। १२. व्यभा. ४०३६; णातं आगमियं ति य एगहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002531
Book TitleAgam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Original Sutra AuthorSanghdas Gani
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages860
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_vyavahara
File Size14 MB
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